Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पुराण
२३३
प्राशी विष सर्प समान भयंकर पड़ता २ भीप्रतिपची को मारकर मरा कोई एक अर्धसिर छेदा गया उसे बामें हाथमें दाव महा पराक्रमी दौड़करशत्रूका सिर फाड़ा कोई एक सुभट पृथिवीकी प्रोगल समान जो अपनी भुजा तिनहीकर युद्ध करतेभए कोई एक परम क्षत्रिय धर्मज्ञ शत्रुको मूर्छितभया देख श्राप पवन झोल सचेत करतेभये इसभांति कायरोंको भयका उपजावन हारा और योधावों को आनन्द का । उपजावनहारा महासंग्राम प्रवरता अनेक गज अनेक तुरङ्ग अनेक योधा शस्रोकर हते गए अनेक स्थ
चूर्ण होगये अनेक हाथियों की सूड कटगई घोड़ावों के पांव टूटगए पूछ कटगई पियादे काम आयगये रुधिरके प्रवाह कर सर्व दिशा पारक्त होगई एता रण भया सो रावण किंचित्मात्र भी न गिना रण विषे है कौतूहल जिसके ऐसे सुमट भाषका धारक रावण सुमति. नाम सारथी को कहताभया हे सारथी इस इन्द्रके सन्मुख रथ चलाय और सामान्य मनुष्यों के मारणे कर क्या ये तृण समान सामान्य मनुष्य तिनपर मेरा शस्त्र न चले मेरा मन महा योघावों के ग्रहण में बत्पर है रह चुद्र मनुष्य अभिमानसे इन्द्र कहावे है इसे आज मारूं अथवा पकडू यह बिडम्बनाका करनहारा पासण्ड कररहा है सो तत्काल दूरकरूं देखो इसकी दीठता आपको इन्द्र कहाँहें और कल्पनाकरलोकपाल थापे हैं और इन मनुष्योंने विद्याघरों की देव संज्ञा घरी है देखो अल्पसी विभूति पाय मूहमति भया है लोक हास्य का भय नहीं जैसे नट सांग धरे तैसे सांग धरा है दुखुद्धि प्रापको अलगयो पिताके वीर्य माताके रुधिरकर मांस होइमई शरीर माता के उदर से उपजा वृथा श्रापको देवेन्द्र माने है विद्याके पलकर इसने यह कल्पमा करी है असे काग आपको गरुड़ कहावेहे तैसे यह इन्द्र कहावेहे इसभांति जब रावणने कहा तब सुमति सास्थी
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