Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म
पुराण
॥ २३८९।।
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देखने से हमोर नेत्र सफल भए धन्य तुम्हारे माता पिता जिनसे तुम्हारी उत्पति भई कुन्दके पुष्प समान उज्ज्वल तुम्हारी कीर्ति तुम समर्थ और चमावान दातार और निगर्व ज्ञानी और गुणप्रिय तुम जिन शासन के अधिकारीहो तुमने हमको जो कही यह तुम्हारा घरहे और जैसे इंद्र पुत्र तैसे मैं सो तुम इन बातोंके लायकहो तुम्हारे मुखसे ऐसेही बचन दरें तुम महाबाहु दिग्गजकी सूंड समान भुजा तुम्हारी तुम सारिखे पुरुष इस संसार में विरले हैं परंतु जन्मभूमि माता समान है सो बाडी न जाय जन्मभूमि का वियोग चित्तको कुल करे है तुम सर्व पृथ्वी के पतिहो परंतु तुमको भी लंका प्रिय मित्र बांधव और समस्त प्रजा हमारे देखने के अभिलाषी वनेका मार्ग देखे है इस लिये हम स्थनपुरही आंगे और चित्त सदा तुम्हारे समीपही है है देवनके प्यारे तुम बहुतकाल पृथ्वीकी निर्विघ्नरचा करो तब रावण ने उस ही समय इन्द्रको बुलाया और सहमारके लार किया और आप रावण कितनीक दूर तक सहस्रारको हुंचाने गये और बहुत विनयकर सीख दीनी सहस्रार इन्द्रको लेकर लोकपालों सहित विजयागिरि में आए सर्वराज ज्योंका त्योंही हे लोकपाल आयकर अपने २ स्थानक बैठे परन्तु मानभंगसे असता को प्राप्त भए १ विजया के खोक इन्द्र के लोकपाल को और देवोंको देखें त्यों २यह लज्ना कर नीचे होजांय और इंद्रभी न तो रथनुपुरमें प्रीति न राखियों में प्रीति न उपवनादिमें प्रीति न लोक पालोंमें प्रीति न कमलोंके मकरंद पीत होरहा है जल जिनका ऐसे जे मनोहर सरोवर तिनमें प्रीति और न किसीकी क्रीड़ा विषे प्रीति यहांतक के अपने शरीर से भी प्रीति नहीं लज्जाकर पूर्ण है चित्त जिस का सो उसको उदास जान लोक अनेक विधिकर प्रसन्न किया चाहें और कथाके प्रसंगसे वह बात भुलाया
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