Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म पुराच
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विवेकी जान कहता भया हे दशानन ! तुम जगजीत हो सो इन्द्रको भी जीता तुमहारी भुजावों की सामर्थ सबने देखा जे बडे राजा वेगवंतोंका गर्वं दूरकर फिर कृपा करें, इस लिये अब इन्द्रको घोड़ो यहसहखारने कही और जे चारों लोकपाल तिन के मुह से भी यही शब्द निकसा मानो सहस्रार का प्रतिशब्द ही कहते भए तब रावण सहस्वार को तो हाथ जोड़ यही कही जो चाप कहोगे सोई होगा और लोकपालों से हंस कर क्रीड़ा रूप कही तुम चारों लोकपाल नगरी में बुहारी देवो कमलों का मकरन्द और तृष्णा कंटक रहित पुरी करो और इंद्रसुगंध जलकर पृथ्वीको सींचे और पांच वर्णके सुगंध मनोहर जो पुष्प तिनसे 'नगरीको शोभित करो यह बात जब रावणने कही तब लोकपाल तो लज्जावानहोय नीचे होगए और सहस्रार श्रमृतरूप बचन बाले हे धीर ! तुम जिसको जो आज्ञाकरो सोही वह करे तुम्हारी प्राज्ञा सर्वोपरि है यदितुम सारिखे गुरुजन पृथ्वीके शिक्षादायक नहीं तो पृथ्वीके लोक अन्यायमार्ग में प्रवरंत यह बचन सुनकर रावण अति प्रसन्नभए और कही हे पूज्य तुम हमारे तात तुल्यहो और इंद्र मेरा चौथा भाई इस को पायकर में सकल पृथ्वी कंटकरहित करूंगा इसको इंद्रपद वैसा ही है और यह लोकपाल ज्योंके त्यों
और दोनों श्रेणी राज्यसे और अधिक चाहोसो लेह मोमें और इसमें कछू भेदनहीं और श्रापबड़े हो गुरुजन हो जैसे इंद्रको शिक्षादेवो तैसे मुझे देवो तुम्हारी शिक्षा अलंकाररूपहै और आप रथनपुरमें बिराजो अथवा यहां बिराजो दोऊ यापही की भूमिहैं ऐसे प्रिय बचनोंसे सहस्रारका मन बहुत संतोषा तब सहस्रार कहने लगा हे भव्य तुम सारिखे सज्जन पुरुषोंकी उत्पत्ति सर्वलोकको आनंद कारण है है चिरंजीव तुम्हारे शूरबीरपनेका आभूषण यह उत्तम बिनय समस्त पृथ्वी में प्रशंसाको प्राश भया है तुम्हारे
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