Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पुरात
२३५
सो महा काले नाग चलाये मानो भयंकरहे जिहा जिनकी इन्द्रकै और सकल सेनाकै लिपटगये तिन ससोकर वेदा इन्द्र प्रति व्याकुल भया जैसे भवसागरमें जीव कर्मजालकर बेढ़ा व्याकुल होयहै तब इंद्र ने गरुड़वाण चितारा सो सुवर्ण समान पीत पंखों के समूह कर आकाश पीत होगया और पंखों की पवन कर रावणका कटक हालनेलगा मानो हिंडोलेही में झूले हैं गरुडके प्रभावकर नाग ऐसे विलाय | गए जैसे शुक्र ध्यान के प्रभावकर कर्मों के बन्ध विलय हो जाय तब इन्ध नागवाण से छूटकर जेठ के। सूर्य समान आत दारुण तप तपताभया तब रावणने त्रैलोक्य मण्डन हाथीको इन्द्र के ऐरावत हाथी । पर प्रेरा कैसा है त्रलोक्य मण्डन सदा मद झरे है और वैरियों का जीतनहारा है इन्दने भी ऐरावतको । त्रैलोक्य मण्डनपर धकाया दोनों गज महा गर्यके भरे लड़ने लगे झरे हैं मद जिनके रहें नेत्र जिनके हाले हैं कर्ण जिनके देदीप्यमान हैं विजुरी समान स्वर्ण की सांकल जिनके हाथी|शरदके मेघ समान अति गाजते परस्पर प्रति भयङ्कर जो दांत तिनके घातोंकर पृथिवीको शब्दायमान करते चपलहे शरीर जिनका परस्पर सूड़ों से अद्भुत संग्राम करते भए । ____ अथानन्तर तब रावणने उछलकर इन्द्र के हाथी के मस्तकपर पगधर अति शीघताकर गज सारथी को पाद प्रहार ते सारा और इन्द्रको वस्रसे बांधा और बहुत दिलासा देकर पकड़ अपने गजपर लेअाया और रावणके पुत्र इन्द्रजीत ने इन्द्रका पुत्र जयन्त पकड़ा अपने सुभटों को सौंपा और आप इन्द्र के सुभटॉपर दौड़ा तब रावण ने मने किया हे पुत्र अब रणसे निवृत्त होवो क्योंकि समस्त विजिया के जे | निवासी तिनका सिर पकड लिया है अब समस्त अपने अपने प्रस्थानक लावो सुखसे जीवोशालिसे
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