Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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५२२५॥
तार सहित मन बांछित भोगकर काम सेवनमें पुरुषमें क्या भेदहै और अयोग्य कार्य करने से मेरी अकीर्ति होय और में ऐसे करूं तो और लोगभी इस मार्गमें प्रवर्ते पृथ्वी विषे अन्यायकी प्रवृति होय
औरतू राजा अाकाशध्वजकी बेटी तेरी माता मृदकांतासो तू विमलकुल विषे उपजीशीलके राखने योग्य हैं इस भाति रावमने कहा तब उपरंभा लज्जायमानभई अपने भरतारमें संतोष किया और नलकूवरभी स्त्रीका ब्यभिचार न जान स्त्री सहित रमताभया और रावणसे बहुत सनमानपाया रावणकी यही रोति है के जोत्राज्ञा न मानेउसका पराभवकरे और जो आज्ञा माने उसका सनमानकरे और युद्ध में मारा जाप सोमाराजावो और पकड़ा आवे ताको छोड़ दे गवण ने संग्राममें शत्रुवों के जीतने से बड़ा यश पायाधड़ी है लक्ष्मी जिस के महासेना कर संयुक्त बैताड परबत के समीप जाय पड़ा। ___ अथानन्तर तब राजा इन्द्र रावण को समीप आया सुन कर अपने उमराव जे विद्याधर देव कहावे तिन समस्त ही से कहता भया हो विश्वसी श्रादि देव हो युद्धकी तैय्यारी करो क्यों विश्राम कररहे हो राक्षसोंका अधपति अाया यह कह कर इन्द्र अपने पिता जो श्री सहश्रार तिनके समीप सलाह करने को गया नमस्कारकर बहुत बिनय संयुक्त पृथिवी पर बैठ बापसे पूछी हे देव बैरी प्रबल अनेक शवों का जतिनहारा निकट आया है सो क्या कर्तव्य है हे तात मैंने काम बहुत बिरुद्ध किया जो यह होताही प्रलय को न प्राप्त किया कांटा उगलाही होउन से हटे और कठोर परे पीछे चुभे रोग होता ही मेटे तो सुख उपजे और रोग की जड बधे तो कटना कठिनहे तैसे तत्री शत्रुकी वृद्धि होने न दे इस नियात का अनेक बेर उद्यम किया परन्तुआपने वृथा मने किया तब मैं क्षमा करी हे प्रभो मैं राज
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