Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पुरावा
पन योंसे है वात्सल्य जिनके त्रिशूल स्व की प्राप्ति का कारण कहनेलगे। हे श्रेणिक धातकी खण्ड नामा
द्वीप वहां अरावत् क्षेत्र शतद्वारा नगर वहां दो मित्र होते भए महा प्रेमका है बन्ध जिन के एककानाम सुमित्र दूसरेका नाम प्रभव सो यह दोनों एक चटशाला में पढ़कर पण्डित भए कईएक दिनों में सुमित्र राजा भयो सर्व सामन्तों करसेवित पूर्वोपार्जित पुण्य कर्म के प्रभाव से परम उदय को प्राप्त भया और दूजा मित्र प्रभव सो दलिद्र कुलमें उपजा महादरिद्री सौ सुमित्र ने महास्नेह से अपनी बराबर करलिया एक दिनराजा सुमित्र को दुष्ट घोडा हरकर वनमें लेगया वहां दुरित दृष्टिनाम भीलोंका राजा सो इस को अपने घर लेगया उसको बनमाला पुत्री परणाई सो वह बनमाला साक्षात् बन लक्ष्मी उसको पायराजासुमित्र अति प्रसन्न हुवा एकमास वहांरहा फिर भीलों की सेनालेकर स्त्रीसहित शतद्वार नगर में
आवेथा और प्रभव ढूंढने कोनिकसा सोमार्ग में स्त्री सहित मित्र को देखा कैसी है वह स्त्री मानों काम की पताका ही है । सोदेखकर यहपापी प्रभव मित्र की भार्या विषे मोहित भया अशुभ कर्म के उदय से नष्ट भई है कृत्य अकृत्य की बुद्धि जिस के प्रभव काम के वाणों कर वींधा हवा अति प्राकुलता को प्राप्त भया आहार निद्रादिक सर्व से विस्मरण भया संसार में जेती व्याधी हैं तिन में मदन बड़ी व्याधि है जिस कर परम दुःख पाइये है जैसे सर्व देवन में सूर्य प्रधान है तैसे सर्व रोगों के मध्य मदन प्रधान है तब सुमित्र प्रभव को खेद खिन्न देखपूछते भऐ हे मित्र तू खेदखिन्न क्यों है तब यह मित्र को कहनेलगा जो तुम बनमाला परणी उस को देख कर चित्त व्याकुल भया है । यह बात सुन कर राजा सुमित्र मित्र में है अति स्नेह जिस का अपने श्रीपाण समान मित को अपनी स्त्री के निमित्त दुखी जान स्त्री को मित के घर
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