Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पा
॥१६॥
परणायवेका मनोरथ किया रावण अपने मन में चितवता भया कि सर्वनीतशास्त्र विषे प्रवीण अहो मयुरा नगरीका नाथराजाहारिवाहन निरन्तर हमारे गुणकी कीर्ति विषेपामक्त है मन जिसका इसका प्राणों से भी प्यारा मधु नामा पुत्र प्रशंसा योग्य है। महाविनयवान प्रीति पात्र महारूप वान अति गुणवान् मेरे निकठ पाया तय मंत्री रावण से कहते भए हे देव यह मधु कुमार महापराक्रमी इस के गुण वर्णन में न आवे तथापि कछुयक कहें हैं इस के शरीर में अत्यन्त सुगन्यता है जो सर्वलोक के मनको हरे ऐसा है रूप जिस का इस का मधुनाम गथार्थ है मधु नाम मिष्टान्ह को है सो यह मिष्टवादी है और मधु नाम मकरंदका है सो यह मकरंदसे भी अतिसुगन्ध है और इसके एतेही गुण आपमतजानोंअसुरन का इन्द्र जो चमरेन्द्र उस ने इस को महा गुणरूप त्रिशूल रत्न दिया है वह त्रिशुलरत्न वैरियों पर डारा वृथा न जावे अत्यन्त देदीप्यमान है आप इस के करतुत कर इस के गुण जानोहीगे वचनोसे कहांलग कहें इसलिये हेदेव इस से सम्बन्ध करने काबुद्धि करो यह श्राप से सम्बन्ध कर कृतार्थ होयगा, ऐसा जब मंत्रियोंने कहातबरावणने इसको अपनाजमाईनिश्चयकिया और जमाईयोग्यजो सामिग्रीसोउसको दीनी बडी विभूतिसे रावण ने अपनी पुत्री परणाई सर्वलोक हर्षित भए यह रावण की पुत्री साक्षात् लक्ष्मी महा सुन्दर शरीर पतिके मन और नेत्रोंकी हरनहारी जगत् में जो सुगन्ध नहीं ऐसी सुगन्ध शरीर की धारनहारी इस को पाय कर मधु अति प्रसन्न भया ॥ __ अथानन्तर राजा श्रेणिक जिनको कोतुहल उपजा वह गोतम स्वामीसे पूछते भए हे नाथ श्रसुरेन्द्र ने मधुको कौन कारण त्रिशूल रत्र दिया दर्लभ है संगम जिस का तब गौतमस्वामी जिनधर्मा
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