Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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॥१७॥
भई सुरा उससे मस्त जे भ्रमर तिनको गुजार से अति सुन्दर है नाना प्रकारके वृक्षोंकर भरा है बड़े बड़े । | शालके जे वृक्ष तिनकर मण्डित जहां छहों ऋतुवोंके फल फूल शोभै हैं अनेक जातिके जीव विचरें हैं
जहां ऐसी ऐसी औषध हैं जिनकी बासनासे सर्पोके समूह दूर रहें हैं मनोहर सुगन्धसे मानों वह पर्वत । सदा नव योवनहीको घरै है और मानो वह पर्वत पूर्व पुरुष समान ही है विस्तीर्ण जो शिला वेही है हृदय जिसका और शाल वृक्ष वेई महा भुजा और गम्भीर गुफा सोही वदन वह पर्वत शरद ऋतुके मेघ समान निर्मल तट से सुन्दर मानो दुग्घसमान अपनी उज्वल कांतिसे दशों दिशा को स्नानही करावै है कहीं इक गफाओं में सूते जे सिंह तिनकर भयानक है कहीं इक सूते जे अजगर तिनके स्वास रूपी पवन से हाले हैं वृक्ष जहां कहीं इक भ्रमते क्रीड़ा करते जे हिरणोंके समूह तिनकर शो है कहीं इक मस्त हाथियों के समूहसे मण्डित है बन जहां कहीं इक फलों के समूह से मानों रोमांच होय रहाहै और कहीं इक बनकी सघनतासे भयानक, कहीं इक कमलों के बनसे शोभितहें सरोवर जहां कहीं बानरों के समूह वृक्षोंकी शाखोंपर केलि कर रहेहैं और कहीं गेंडान के पगकर छेदेगये हैं जे चन्दनादि सुगंध बृक्ष तिनकर सुगन्ध होयरहा है कहीं विजली के उद्योत से मिला जो मेघमण्डल उस समान शोभाको घरै हैं कहीं दिवाकर समान जे ज्योति रूप शिखर तिनकर उद्योत रूप कियाहै आकाश जिसने ऐसा जो कैलाश पर्वत उसे देख रावण विमान से उतरा वहां ध्यान रूपी समुद्र में भग्न अपने शरीर के तेज से प्रकाश किया है दशोंदेशा जिनने ऐसे बाली महामुनि देखो दिग्गजकी सूण्ड समान दोऊ भुजा लम्बोए कायोत्सर्ग घर खडे लिपटि रहे हैं शरीर से सर्प जिनके मानों चन्दनके वृक्षही हैं आतापनि |
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