Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म गति तिनमें भूमणाकरता बहुत थका । अव भवसागरमें जिससे पतन न होय सो करूंगा। दव रावण | पुराण
कहते भए यह मुनिका धर्म वृद्धोंको शोभेहै । हे भव्य तूतो नवयौवन है तब सहमूरश्मिने कहा कालके यह विवेचना नहीं नो वृद्धहीको ग्रसे नरुणको न पसे । काल सर्वभाह बाल वृद्धयुवा सबहीको ग्रसे ॥ है जैसे शरदका मेघक्षणमात्रमें विलायजाय बैसे बह देह तत्कालविनसेहे हे रावण जो इन भोगोंहीके तिपे सार होय तो महापुरुषकाहेको तजें उत्तमहै बुद्धिजिनकी ऐसेमेरे यहपिता इन्होंने भोगछोड़ योगादग सो योगहीसार है यह कहकर अपने पुत्रको राज्यदेय रावणसे धमाकराय पिताके निकट जिन दीचा प्रादरी और राजाअरण्य अयोध्याका धनी सहसरश्मिका परममित्रहै सो उनसे पूर्व बचनथा जो हम पहिलेदीचा धरेंगे तोतुम्हें खबरकरेंगे औरउनने कहीथीहमदीचाधरेंगे तो तुम्हें खबरकरेंगे सोउन वैराग्य के समाचारभेजे भले मनुष्यों ने राजा सहसरश्मिका वैराग्यहोनेका वृतांत राजाअरण्यसे कहासो सुन कर पहिलेतो सहसूरश्मिके गुणस्मरणकर श्रांमूभर बिलापकिया फिर विषादको मंदकर अपने समीप लोगों से महा बुद्धिमान कहते भए जो रावण बैरीका भेषकर उनका परममित्र भया जो ऐश्वर्यके पिंजरेमें राजा रुकरहे थे विषयोंकर मोहितथा चित जिनका सो पिंजरेसे छुडाय यह मनुष्यरूप पक्षी मायाजाल रूप पिंजरेमें पड़ा है सो परम हितूही छुड़ावेहे माहिषमती नगरीका धनी राजासहसूरश्मि धन्य है जो रावण रूप जहाजको पायकर संसाररूप समुद्रको तिरेगा कृतार्थभया अत्यंत दुखका देनहारा जो राजकाज महापाप उसे तजकर जिनराजका ब्रत लेनेको उद्यमी भया और मित्र की प्रशंसाकर आप भीलघु पुत्रको राज्य देय बडे पुत्र सहित राजा अरण्य मुनिभए । हे श्रेणिक कोई यक उत्कृष्टपुण्यका उदय ।
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