Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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॥१६॥
प्रणाम नहीं करहै और जन्मसे ही दुष्टवित्तहे मिथ्या मार्गकर मोहित है औरजीवहिंसा रूप यज्ञ मार्ग विषे प्रवर्ती है । तब यज्ञका काम मुन राजा श्रेस्किने गौतम स्वामी से कहा । हे प्रभो रावण का कथन तो पीछे कहिये पहले यज्ञकी उस्पति कही यह कौन वृतान्त है जिसमें प्राणी जीव घात रूप घोर कर्ममें प्रवरते हैं । तब गणधर ने कहा हे श्रेणिक अयोध्या विषे ईक्ष्वाकु वंशीराजा ययाति उसकी राणी सुरकांता और पुत्र बसु था सो जब पढ़ने योग्य भया तब क्षीस्कदम्ब ब्राह्मणपै पढ्नेको सौंपा क्षीरकदम्बकी बहू स्वस्तिमती और एक नारद नाम ब्राह्मण देशान्तरी धर्मात्मासो क्षीरकदम्ब पे पढ़े और क्षीरकदम्बका पुत्र पर्वत महापापी सो भी पढ़े क्षीरकदम्ब अति धर्मात्मा सर्व शास्रों में प्रवीण शिष्योंको सिद्धान्त तयाक्रियारूप ग्रंथ तथा मन्त्रशास्त्र व्याकरणादि अनेकग्रन्थ पढ़ावें एक दिन नारद बसु और पर्वत इन तीनों सहित क्षीरकहम्ब बनविषे गए वहां चारण मुनि शिष्यों सहित विराजे थे सो एक मुनिन कही चार जीवहैं एक गुरु तीन शिष्य तिनमें एक गुरु एक शिष्य यह दो मुद्धिहैं और दो शिष्य कुबुद्धीहैं ऐसे शब्द सुनकर तीरकदम्ब संसारसे अत्यंत भयभीत भए शिष्योंकोतो सीप करीना सो अपने २ घर गए मानों गायके बछडे बंधनसे छुट और तीरकदम्बने दमानीचा धरा ज शिष्य घर आए तब क्षीरकदम्बकी स्त्री स्वस्तिमती पर्वतको पूछती भई तेराापता कहांतू अकेलाही घर क्यी श्रआया तब पर्वतने कही हमकोतो सीख दीनी और कहाइम पीछेसेश्रावेहें यह बचन सुन स्वस्तिमती बावकलप उपजा पातके आगमनकी है बांछा जिसके दिन अस्तभयातोभी न पाएतब स्वस्तिमती | महाशंकवतीहोय पृथ्वीपर पड़ी और रात्रि विषे' चकवीकी न्याई दुखकर पीडित विलाप करती भई।
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