Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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॥१८॥
| का अणुव्रतस्प है जोवहिंसा, असत्य, चोरी, कुशील, परिग्रह इनका सर्वथा त्याग सो पञ्च महाव्रततिनकी पच्चीस भावना यह मुनिका धर्म है और इन हिंसादिक पापों का किंचित् त्याग सो श्रावक का व्रत है श्रावक के व्रतों में पूजा दोन शास्त्र विषे मुख्य कहाहै पूजाका नाम यज्ञ है (अजैर्यष्टव्यं) इस शब्द का अर्थ मुनोंने इसभान्तिकहाहै जो बोनेसे न उगें जिनमें अंकर शक्ति नहीं ऐसे शालिय तिनका विवाहादिक क्रिया विषे होम करिये यहभी आरम्भी श्रावककी रीतिहे ऐसे नारदके वचन सुन पापी पर्वत बोला अज कहिये छेला (बकरा) तिनका आलम्भन कहिये हिंसन उसका नाम यज्ञ है तब नारद कोपकर पर्वत दुष्टसे कहतेभये हे पर्वत ! ऐसे मत कहे महा भयंकर है बेदना जिस विषे ऐसे नरक में तू पड़ेगा दयाही धर्म है हिंसा पाप है तब पर्वत कहने लगा मेरा तेरा न्याय राजा वसु पै होयगा जो झूठा होयगा उसकी जिहाछेदी जायगी इस भांति कहकर पर्वत मातापै गया नास्दके और याके जो विवाद भया सो सर्व वृत्तान्त माता से कहा तब माताने कहा कि तू झूठा है तेरा पिता हमने व्याख्यान करता अनेक वार सुना है जो अज बोईहुई न उगे ऐसी पुरानी शालिय तथा पुराने यव तिनका नाम है छेलेका नहीं जीवोंका भी कभी होम किया है तू देशान्तर जाय मांस भक्षणका लोलुपी भया है तैं मानके उदयसे झूठ कहा सो तुझे दुःखका कारण होयगा हेपुत्र निश्चयसेती तेरी जिट्टा छेदी जायगी में पुण्यहीन अभागिनी पति और पुत्र रहित क्या करूंगी इस भांति पुत्रसे कह कर वह पापिन चितारती भई कि राजा वसुके गुरु दक्षिणा हमारी धरोर है असा जान अति अाकुल भई वसुके समीप गई राजाने स्वति मतिको देख बहुत विनय किया सुखासन वैटाई हाथ जोड़पूछताभया हे माता तुम दुखित दीखोहो जो तुम अाज्ञाकरो सोही करूं
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