Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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हाय हायमें मंदभागिनी प्राणनाथ बिना हैतागेइ कसा पापीने उनको मारा अथवा किसा कारणकर देशांतरको उठगए अथवा सर्वशास्त्रविषे प्रवीणथे सो सर्वपरिग्रहका त्यागकर वैराग्यपायमुनिहोगए इस भांत विलापकरते रात्रि पूर्वभई जवप्रभातर्भई तबपर्वत पिताको ढूंढने गया उद्यानमें नदीके तटपर मुनियों के संघसहित श्रीगुरु विराजे हुएथे उनके समीप विनयसहित पिता बैठादेखातबपीछे जायकरमातानेकहीकि हे मात हमारापिता मुनियों नेमोहाहैसो नग्नहोगयाहै तब स्वस्तिमतीनिश्चयजानकरपतिकेवियोगसेअति दुखीभई हाथोंकर उरस्थलको कूटतीभई और पुकारकर रोवतीभई सो नारद महा धर्मात्मा यह वृत्तान्त सुन कर स्वस्तिमती पै शोकका भरा पाया उसे देखकर अत्यन्त रोक्नेलगी और सिर कूटती भई शोक विषे अपनेको देखकर शोक अतीव बढ़े है तब नारदने कही हे माता काहेको वृथा शोक करोहो वे धर्मात्मा जीव पुण्याधिकारी सुन्दरहै चेष्टा जिनकी जीतव्यको अस्थिर जान तपकरनेको उद्यमी भएहें सो निर्मल है बुद्धि जिनकी अयशोक किएसे पीछे घर न आवें या भांति नारदने सम्बोधी तब किंचित शोक मन्दभया घरमें तिष्ठी महा दुखित भरतार की स्तुति भी करे और निन्दा भी करे यह दार कदम्बके बेराग्य का वृत्तान्त सुन राजा ययाति तत्व के वेत्ता वसु पुत्रको राज देय महा मुनिभए वसुका राज्य पृथिवी विषे प्रसिद्ध भया आकाश तुल्य स्फटिक मपि उस के सिंहासन के पावे बनाए उस सिंहासन पर तिठे सो लोक जाने कि राना सत्यके प्रताप कर आकाश विष निराधार तिष्ठे है॥
अथानन्तर हे श्रेलिक एक दिन नारद के मोर पस्त के चर्चाभई तब नारदने कही कि भगवान वीतराग देवने धर्म दोय प्रकार प्ररूपा है एक मुनिका दूसरा गृहस्थी का मुनिका महव्रतरूप हे गृहस्थी।
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