Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पुराण .२० ॥
पद्म , हजारवर्ष तक महा तप किया अचलहै योगजिनका लंबायमानहें बाहु जिनकीस्वामीके अनुरागकर कच्छादि
चारहजार राजावोंने मुनि के धर्म जाने बिना दीक्षाधरी सो परीषह सह न सके तब फलादिक का भक्षण वक्कलादिकका धारणकर तापसी भये ऋषभदेवने हजारवषंतक तपकर वटवृक्षके तले केवलज्ञान उपजाया तब इन्द्रादिक देवोंने केवलज्ञान कल्याणकिया समोशरणकी रचनाभई भगवानकी दिव्यध्वनिकर अनेकजीव कृतार्थभए जे कच्छादिक राजाचारित्र भ्रष्ट हुएथे ते धर्ममें दृढ़ होगए मारीचके दीर्घ संसारके योगसे मिथ्या भाव न छूटा और जिस स्थानकमें भगवानको केवलज्ञान उपजा उस स्थानकों देवोंकर चैत्यालयों की स्थापना भई ऋषभदेवकी प्रतिमा पधगई औरभरत चक्रवर्तीने विप्रवर्ण थापा सो वह जल विषे तेलकी बून्दवत विस्तारको प्राप्त भया उन्होंनेयह जगत मिथ्याचारकरमोहित किया लोक अति कुकर्म विषे प्रवर्ते सुकृतका प्रकाश नष्टहोगया जीव साधुओंके अनादरमें वस्परभए आगे सुभूम चक्रवर्तीने नाश
को प्राप्त कियेथे तोभी इनका अभाव न हुआ हे दशानन तो तुझकर कैसे प्रभावको प्राप्त होवेंगे इस लिये तू प्राणियोंकी हिंसासे निवृत होहु काहूकी कभीभी हिंसा कर्तव्य नहीं और जब भगवानके उप देशसे जगत मिथ्या मार्गसे रहित न होय कोई यक जीव सुलटे तो हम सारिखे तुम सारिखोंकर सकल जगत्का मिथ्यात्व कैसे जाय कैसेहें भगवान सर्वके देखनेहारे सर्वके जाननेहारे इसभांति देवापिजे नारद तिनके बचन सुनकर केकसी माताको कुचमें उपजा ओ रावणसो पुराण कथा सुनकर अति प्रसन्न हुआ और बारम्बार जिनेश्वरदेवको नमस्कार किया नारद और रावण महा पुरुषमकी मनोजजे कथा उनके कथनकर चणएक सुखसे तिष्ठे महा पुरुषोंकी कथामें नानाप्रकारका रस भरा है ।
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