Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म पुक्षव
॥२२२॥
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पिंजरे में डारेतैसे विरक्त होय फिर कौन इंद्रियोंके बश परंजो इंद्रियों के वश होय सो लोक विषे निंदा योग्य है. आत्मकल्याण को न पावेह सर्व परिग्रह के त्यागी मुनियोंको एकाग्रचित्तकरएक श्रात्माही ध्याने योग्य है सो तुम सारिखे आरंभी तिनकर आत्मा कैसे ज्याया जाय प्राणीयों के परिग्रह के प्रसंगकर रागद्वेष उपजे राग से काम उपजे है देबसे जीव हिंसा होय है कामकोधकर पीड़ित जो जीव उसके मनको मोहे. पी है मूर्ख कृत्य कृत्य में विवेक रूप बुद्धि न होय जो अविवेकसे अशुभ कर्म उपारजे है सो घोर संसार में भ्रम है यह संसंग के दोष जानकर जे पंडित हैं वे शीघ्रही वैरागी होय हैं आप को जान विषे बासना से निवृत होय परमधामको पावे हैं इस भांति परमार्थ रूप उपदेशों के वचनों से महा मुाने मे संबोधा तब ब्राह्मण ब्रह्मरुचि निरमोही होय मुनि भया कुरमी नामा स्त्रीका त्यागकर गुरुके संगही विहार किया गुरुमें है धर्मराग जिस के और वह ब्राह्मणी कुरमी शुद्ध है बुद्धि जिसकी पाप कर्म से निवृत होय श्रावकके व्रत आदरे जाना है रागादिकके बश से संसारका परिभ्रमण जिसने कुमार्ग का संग छोडा जिनराज की भक्ति में तत्पर होये भरतार राहत केली महा सती सिंहनी की न्याई महा बन विषे भूमै दसवें महीने पुत्रका जन्म हुआ तब इसको देखकर वह महासती ज्ञान क्रियाकी धरणहारौ चित्त विषे चितवती भई यह पुत्र परिवार का सम्बन्ध महा अनर्थका मूल मुनिराजने कहा था सो सत्य है इस लिये मैं अब पुत्रके प्रसंग का परित्यागकर आत्म कल्याण करूं और यह पुत्र महा भाग्य है इसके रक्षक देव हैं इसने जे कर्म उपारजे हैं तिनका फल अवश्य भोगेगा बनमें तथा समुद्र अथवा वैरियों के बरा में पडाजो प्राणी उसके पूर्वोपार्जित कर्मही रक्षा करेहैं और कोऊ नहीं और
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