Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पुराण
ऊपरगया तब भी इननेचमा न कराई कि प्रमादकर विनाजाने मेंनेयह कार्य किया है तुम चमो करो उलटा मानके उदयकर मेरेसे युद्धकरनेलगाऔरकुबचन कहेइस लियेएसाहुबाजोमें भूमिगोचरी मनुष्यों कोजीतने समर्थ नभया तोविद्याधरोंको कैसे जीत गा कैसे, विद्याधरनानाप्रकार की विद्याकर महापराक्रम क्न्तहें इसलिये जोभूमिगोचरी मानीहें तिनकोप्रथम वसकरूं पीछे विद्यावरों को बस करूं अनुक्रम से जैसे सिवानचढ़ मन्दिरमें आइयेहै इसलिये इनको बसकिया अबछोड़ना न्यायही है फिर आप की आज्ञा समान और क्या । कैसेहो पाप महापुण्यके उदयसे होवेहे दर्शन जिनका ऐसे बचन रावणके मुन इंद्र जीतने कही हे नाथ ! आपने बहुत योग्य वचन कहे । ऐसे बचन श्राप बिना कौन कहे तब रावणने मारीच मंत्रीको आज्ञा करी कि सहस्ररश्मिको छुड़ाय महाराजके निकट लावो । तब मारीचने अधिकारीको श्राज्ञाकरी । सो प्रापप्रमाण जो नांगी तलवारों के हवालेथा सो लेभाये सहमरश्मि अपने पिता जो मुनितिनको नमस्कारकर प्रायबैठे रावणने सहमूरश्मिका बहुत सत्कारकर बहुत प्रसन्न होय कहा हे महाबल जैसे हम तीनों भाई तैसे चौथा 'तू। तेरेसहायकर स्थनूपुरका राजा इंद्र भ्रमते कहावेहे, उसे जीतूंगा और मेरी राणीमन्दोदरी उसकी बहुरी बहिन स्वयंप्रभा सो तुझे परणाऊंगा । तब सहमूरश्मि बोले धिक्कारहे इस राज्यको यहइन्द्र धनुषसमान क्षणभंगुरहै और इन विषयोंको धिक्कारहै ये देखने मात्र मनोहै महादुखरूपहै और स्वर्गको धिक्कार अबत असंयमरूपहे । और मरणके भाजन इस दहको भी धिक्कार और मोको धिक्कार जो एते काल विषयासक होय इतने काल कामादिकरियों से उगाया अवमें ऐसा करूं जिससे फिर संसारबन विष भ्रमण न होय । मैं अत्यंत दुःखरूप जो चार ।
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