Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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|| अपने बन्धुवर्ग रणखेत से लेनाए उनकी क्रियाकरी रात्रि न्यतीतभई प्रभातके वादिन बाजनेल गे फिर
सूर्य रावणकी वार्ता जानने के अर्थ राग कहिये ललाई को धारताहुवा कम्पायमान उदयभया सहसूरश्मिकाका पिताराजाशतबाहुजो मुनिराज भयेथे जिनको जंघाचारण ऋद्धिथी वे महा तपस्वी चन्द्रमा के समान क्रांत सूर्य समान दीप्तिमान मेरुसमान स्थिर समुद्र सारिने गम्भीर सहमूरश्मिको पकड़ा सुनकर जीवन की दयाकेकरणहार परमदयालु शांतिचित्त जिनधर्मी जान रावण भाए। रावण मुनिको प्रावते देख उठ सामनेजाय पायनपड़े भूमिमें लगगयाहै मस्तकतिनका मुनिको काष्ठके सिंहासनपर विराजमानकर रावण हाथजोड नम्रीभूत होय भूमिविषे वठे। अति विनयवान होय मुनिसेकहते भए हे भगवन कृपानिधान तुमकृत कृत्व तुम्हारा दर्शन इन्द्रादिक देवोंको दुर्लभ है तुम्हारा आगमन मेरे पवित्र होनेके अर्थ है तब मुनि इसको शलाकापुरुष जान प्रशंसाकर कहतेभयेहे दशमुखतू बड़ाकुलवान् वलवान विभूतिवान पराभवदेव गुरुधर्मविषे भक्तिभाव युक्त है। हेदीर्घायु शुरखीर क्षत्रियोंकी यही रीतिहै जो आपसेलडे उसका पराभव कर उसेवश करें। सो तुम महावाहु परम खत्री हो तुम से लड़ने को कौन समर्थ है अब दयाकर सहस्ररश्मि को छोड़ो तब रावण मन्त्रयों सहित मुनि को नमस्कार कहते भये। हे नाथामें विद्याधर राजाके वश करने को उद्यमी भया हूं लक्ष्मी कर उन्मत रथुनूपर का राजा इन्द्र उसने मेरे दादे का बड़ा भाई राजा माली युद्धमें मारा है उससे हमारा द्वेष है सो में इन्द्र ऊपर जाऊंथा मार्गमें रेखा कहिए नर्मदा उसपर डेराभया सो पुलिन पर बालूके चौतरे पर पूजा करूंथा सोइसने उपरास की और जल यंत्रों की केलिकरीसो जलका वेग निवास को आया।सो मेरी पूजामें विघ्न भया इसलिये यह कार्य कियाहै विनाअपराधमेंदेषन करूंऔर में इनके
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