Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पन
पराख ॥१२॥
केवल दर्शनरूप धायक सम्यक्तरूप इत्यादि अनन्त गुणरूप यह पवित्र अक्षर लंकाके स्वामीने गाए ।
रावण द्वारा जिनेन्द्रदेवकी महा स्तुति करनेसे धरणेंद्रका श्रासन कंपायमान भया । तब अवध ज्ञानसे रावणका वृतान्त जान हर्षसे फूलें हैं नेत्र जिसके सुन्दर, मुख जिसका देदीप्यमान मणियों के ऊपर जे मणि उनकी कांति से दूर किया है अन्धकार का समूह जिसने पातालसे शीघ्रही नामों के राजा कैलाश पर आए जिनेन्द्रको नमस्कारकर विधिपूर्वक समस्त मनोज्ञ द्रब्योंसे भगवानकी पूजा कर रावणसे कहते भए हे भव्य तैंने भगवानकी स्तुति बहुत करी और जिन भक्तिके बहुत सुन्दर गीत गाए । सो हमको बहुत हर्ष उपजा हर्ष करके हमारा शरीर श्रानन्दपरूपभया हे गक्षसेश्वर धन्यहै तू जो जिनराज की स्तुति करेहै । तेरे भावसे अवार हमारा आगमन भया है । में तेरेसे सन्तुष्ट भया तू बरमांग जो मन बांछित बस्तु तू मांगे सो दूं । जो बस्तु मनुष्योंको दुर्लभ है सो तुम्हें दूं तब रावण कहते भए हे नागराज जिन बन्दना तुल्य और क्या शुभ बस्तु है जो मैं आपसे मांगू श्राप सर्व बात समर्थ मनवांछित देनेलायक हैं। तब नागपति बोले हे रावण जिनेन्द्र की वन्दना के तुल्य
और कल्याण नहीं । यह जिन भक्ति श्राराधी हुई मुक्तिके सुख देवे है इस लिये इस तुल्य और कोई पदार्थ न हुश्रा न होयगा तब रावण ने कही हे महामते जो इससे अधिक और बस्तु नहीं तो में क्या याचूं । तब नागपति बोले तैंने जो कहासो सबसत्यहै जिनभक्तिसे सबकुछ सिद्धिहोयह इसको कुछ दुर्लभ नहीं तुम सारिखे मुझसारिखे और इंद्रसारिखे अनेकपद सर्व जिनभक्तिसेहीहोयहै औरयहतो संसारके सुख अल्पहें बिनाशीकहें इनकी क्याबातमोक्षके अविनाशीजो अतेन्द्री सुख वेभीजिनभक्तिसे होय, हेरावण
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