Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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॥१७॥
पद्म हाथ कैसे किसीको प्रणाम करें और जो हस्त कमल जोड़कर पराया किंकर होवे उसका क्या ऐश्वर्य
और क्या जीतव्य वह तो दीन है ऐसा कहकर सुग्रीवको बुलाया अाज्ञा करते भये कि हे बालक सुनो तुम रावणको नमस्कार करो वान करो अपनी बहिन उसे देवोअथवा मतदेवो मेरे कछ प्रयोजन नहीं में संसारके मार्गसे निवृत भया तुमको रुचे सो करो असा कहकर सुग्रीवको राज्य देय श्राप गणनकर गरिष्ठ श्रीगगनचन्द्र मुनि पै परमेश्वरी दीक्षा श्रादरी परमार्थ में लगाया है चित्त जिनने और पायाहै परम उदय जिनने वे वाली योधा परम रिषि होय एक चिद्रप भाव में रत भए सम्यग्दर्शन है निमल जिनके सम्यक् ज्ञान कर यक्त है प्रात्मा जिनका सम्यक् चारित्रमें तत्पर बारा अनुप्रेक्षाओंका निरंतर | विचार करते भये प्रात्मानुभाव में मग्न मोह जाल रहित सगुणरूपी भूमिपर विहार करतेभये वह गुण || भूमि निर्मल आचारी जे मुनि उनकर सेवनीक है बाली मुनि पिता की न्याई सर्व जीवों पर दयालु वाह्याभ्यन्तर तपसे कर्मकी निर्जरा करते भये वे शान्तबुद्धि तपोनिधि महाऋद्धीके निवास होते भए सुन्दर है दर्शन जिनका ऊंचे ऊंचे गुणस्थान रूपी जे सिवाण तिनके चढ़ने में उद्यमीभये भेदी है अन्तरंग मिथ्या भाव रूपी ग्रन्थि ( गांठ) जिनने वाह्याभ्यन्तर परिग्रह रहित जिन सूत्रके द्वारा कृत्य अकृत्य सब जानते भये महा गुणवान महा संवर कर मण्डित कर्मों के समूह को खिपावते भये प्राणों की रक्षा मात्र सूत्र प्रमाण अहार लेय हैं और प्राणोंको धर्म के निमित्त धारे हैं और धर्मको मोक्षके अर्थ उपारज हैं भव्य लाकों का आनन्द के करनहार उत्तम हैं अाचरण जिन के असे बाली मुनि और मुनि योका उपमा पाग्य होते भये और सुग्रीव रावण को अपनी बहिन परणायकर रावणकी आज्ञा प्रमास किहकन्धपुरका राज्य करता भया।
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