Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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॥१७८॥
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शिला पर निश्चल खड़े प्राणियों को ऐसे दीखें मानो पाषाणका थम्भही हैं रावण बाली मुनिको देख कर पूर्व बैर चितार पापी क्रोध रूपी अग्निसे प्रज्वलित भया भृकुटी चढ़ाय होंट डसता कठोर शब्द मुनि को कहाभया हो यह कहा तप तेरा जो अभी अभिमान न छूटा मेरा विमान चलता थांभा कहाँ उत्तम क्षमा रूप वीतराग का धर्म और कहां पापरूप क्रोध कहां तूं वृधा खेद करें है अमृत और विष को एक किया चाहे है इसलिये मैं तेरा गर्व दूर करूंगा तुझ सहित कैलाश पर्वतको उखाड़ समुद्रमें डार दूंगा ऐसे कठोर बचन कहकर रावणने विकराल रूप किया सर्व विद्या जे साधी हैं तिनकी अधिष्ठाता देवी चितवन मात्र प्राय ठाढ़ी भई सो विद्यावलकर रावण ने महारूप किया धरतीको भेद पातालमें पैठा महा पाप विषे उद्यमी प्रचण्ड क्रोडकर लाल हैं नेत्र जिसके और हुंकार शब्दकर वाचाल है मुख जिसका भुजाओंकर कैलाश पर्वत के उखाड़नेका उद्यम किया तब सिंह हस्ती सर्प हिरण इत्यादि अनेक जीव और अनेक जाति के पक्षी भयकर कोलाहल शब्द करते भये जलके नीझरने टूटगये जल गिरने लगे वृक्षों के समूह फटगये पर्वतकी शिला और पापा पड़ते भये तिनके विकराल शब्दकर दशदिशा पूरित भई कैलाश पर्वत चलायमान भया जो देव क्रीड़ा करते थे वह आश्चर्यको प्राप्त भए दशदिशा की ओर देखतेभये और जो अप्सरा लतावोंके मण्डप में केलि करतीथी वह लतावों को छोड़ आकाश में गमन करती भई भगवान बाली ने रावण का करतव्य जान आप धीरवीर कोषरहित कम भी खेद न माना जैसे निश्चल विराजतेथे तैसेही रहे चित्तमें ऐसा विचार किया कि इस पर्वत पर भगवानके चैत्यालयति उतंग महो सुन्दरताकर शोभित सर्व रत्नमई भरत चक्रवर्त्तीके कराये हुये हैं जहां निरन्तर भक्ति
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