Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म विलषे तेजदूर होगया रणका अभिलाष छोड़ पराङ्मुख भए त्राससे आकुलित भयाहै चित्त जिनका भ्रमर on की न्याई भ्रमते भए तब यक्षोंके अधिपति बड़े बडे याघा एकट्टे होकर रावणके सन्मुख आए रावण
सबके छेदनेको प्रवरता जेसे सिंह उछलकर मस्त हाथियोंके कुम्भस्ल विदारे तैसे रावण कोपरूपी पवन के प्रेरे अग्नि स्वरूप होकर शत्रुसेना रूपी बनको दाह उपजावते भए ऐसा कोई पुरुष नहीं कोई स्थ नहीं कोई अश्व नहीं कोई हाथी नहीं कोई विमान नहीं जो रावणके बापोंसे न बींधागया हो तव रावणको रणमें देख वैश्रवण भाईपनेका स्नेह जनावता भया और अपने मनमें पंछताया जैसे बाहूबल भरतसे लड़ाई कर पछताए थे तैसे वैश्रवण रावणसे विरोध कर पछताया हाय यह संसार दुःखका भाजन है जहां यह | पाणी नाना योनियों में भ्रमण करे है देखो में मूर्ख ऐश्वर्य से गर्वित होकर भाई के विध्वंश करने में प्रवरता यह विचारकर वैश्रवण रावणसे कहताभया हे दशानन यह राजलक्ष्मी क्षणभंगुरहे इसके निमित्त क्या पाप करें में तेरी बड़ी मौसी का पुत्रहूं इसलिये भाइयों से अयोग्य व्यवहार करना योग्य नहीं और यह जीव प्राणियोंकी हिंसा करके महा भयानक नरक को प्राप्त होयहे नरक महा दुखसे भराहै जगतके जीव विषयोंकी अभिलाषा में फंसे हैं आंखों की पलक मात्र क्षण जीवना क्या तू न जाने है भोगों के कारण पाप कर्म काहेको करै है तब रावण ने कहा हे वैश्रवण यह धर्म श्रवण का समय नहीं जो मस्त हाथियों पर चढ़े और खडग हाथ में घारें सो शत्रुवोंको मारें तथा श्राप मरें बहुत कहने से क्या तू तलवार के मार्ग में तिष्ठ अथवा मेरे पांव पड़ यदि तू धनपालहै तो हमारा भंडारीहो अपना कर्म करते पुरुष लज्जा न करै तब वैश्रवण बोले हे रावण तेरी आयु अल्पहै इसलिये ऐसे क्रूर वचन कहे है अपनी शक्ति प्रमाण |
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