Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobetirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
पद्म
पुराण
५१५५॥
| सोची कि क्या करूं एक ओर पिता एक ओर माता में बड़े संकटमें पड़ाहूं और मैं माताके अश्रुपात |
देखनेको समर्थ नहीं हूं सो उदासहा घरसे निकस बनको गए तहां मिष्ट फलोंको भक्षण करते और सरोवरों का निर्मल जल पीते निर्भय बिहार किया इनका सुंदर रूप देखकर निर्दयी पशुभी शांत हो गये ऐसे भव्य जीव किसको प्यारे न हों तहां बनमें भी जब माताका रुदन याद आवै तब इनको ऐसी वाधा उपजे कि बनकी रमणीकता का सुख भूल जावै सो हरिषेण बन में विहार करते शत मन्यु नामा तापसके अाश्रममें गए जहां बनके जीवोंका आश्रय है। ____ कालकल्प नामा राजा अति प्रबल जिसका बड़ा तेज और बड़ी फौज उसने अानकर चंपा नगरी घेरी जनमेजय वहांका राजा सो जनमेजय और कालकल्पमें युद्ध भया आगे जनमेजय ने महल में सुरंग बना राखी थी सो उस मार्ग होकर जनमेजयकी माता नागमती अपनी पुत्री मदनावली सहित निकसी और शतमन्युतापस के आश्रममें आई नागमतीकी पुत्री हरषेणका रूप देख कर काम के वाणोंसे बींधी गई । कामके बाण शरीरमें विकलता के करणेहारे हैं यह बात नागमती कहती भई हे पुत्री तू विनयवान होकर सुन कि मुनिने पहिलेही कहा था कि यह कन्या चक्रवर्ती की स्त्रीरत्न होयगी सो यह चक्रवर्ति तेरे बर हैं यह सुनकर अति यासक्त भई तब तापसीने हरिपेगा को निकास दिया क्योंकि उसने बिचारी कि कदाचित् इनके संसर्ग होय तो इस बातसे हमारी अकीर्ति होयगी सो चक्रवर्ति इनके आश्रमसे और ठौर गए और तापसी को दीनजान युद्ध न किया परन्तु चित्तमें वह कन्या बसी रही सो इलको भोजनमें और शयनमें किसी प्रकार स्थिरता नहीं जैसे भामरी
For Private and Personal Use Only