Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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रावण की गति अखण्डहै अपनी इच्छासे आश्चर्यकारी प्राभूषण पहरे है और श्रेष्ठ विद्याधरी चमर पद्म पुराण
ढोरे, मलयागिरिक चन्दनादि अनेक सुगन्ध अंगपर लगी, चन्द्रमाकी कांति समान उज्ज्वल छत्र ॥१५३॥
फिर है मानो शत्रुओंके भंगसे जो यश विस्तारा है उस यशसे शोभायमान है । धनुष त्रिशूल खडग सेल पाश इत्यादि अनेक हथियार जिनके हाथमें ऐसे जो सेवक तिनकर संयुक्तहै वे महा भक्ति युक्ति हैं और अद्भुत कर्म के करणहारे है तथा बड़े २ विद्याधर राजा सामन्त शत्रुओंके समूहके क्षय करण हारे अपने गुणों से स्वामी के मनके मोहने वाले महा विभवसे शोभित तिनसे दश मुख मंडित है परम उदार सूर्यका सा तेज धरता पूर्वोपार्जित पुण्यका फल भोगता हुआ दक्षिणके समुद्रकी तरफ जहां लंका है इसी ओर इंद्रकी सी विभूतिसे चला कुंभकर्ण भाई हस्तीपर चढ़े विभीषण रथपर चढ़े 'अपने लोगों सहित महा विभूतिसे मंडित रावण के पीछे चले राजामय मन्दोदरीके पिता दैत्यजाति के विद्याधरों के अधिपति भाइयों सहित अनेक सामन्तोंसे युक्त तथा मारीच अंवर विद्युतबज्रबचादर बुधवज्राक्षकर क्रूरनक्रसारनसुनय शुकइत्यादि मंत्रियों सहित महा विभूतिकर मंडित अनेक विद्याधरोंके राजा रावणके संग चले कैएक सिंहोंके रथ चड़े कैएक अष्टापदों के रथपर चढ़कर बन पर्वत समुद्र, की शोभा देखते पृथ्वी पर बिहार किया और समस्त दक्षिण दिशा बश करी ।
अथानन्तर एक दिन रास्ते में रावणने अपने दादा सुमालीसे पूछा हे प्रभो हे पूज्य इस पर्वत के मस्तकपर सरोवर नहीं सो कमलोंका बन कैसे फूल रहा है यह आश्चर्य है और कमलों का बन | चंचल होताहै यह निश्चलहै इस भांति सुमाली से पूछा कैसा है रावण बिनय करनमीभूत है शरीर ||
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