Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म पुराण
# १५९ ।।
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हमारे ऊपर शस्त्रका प्रहार कर तब रावण ने कहा तुम बड़े हो प्रथमबार तुम करो तब रावणके ऊपर वैश्रवण ने बाण चलाये जैसे पहाड़ के ऊपर सूर्य किरण डारै वैश्रवण के बाण रावणने अपने बाणों से काटडारे और अपने बाणों से शर मण्डप कर द्वारा फिर वैश्रवणने अर्धचन्द्र बाणों से रावण का धनुष छेदा और रथ से रहित किया तब रावण ने मेघनादनामा रथपर चढ़कर वैश्रवण से युद्ध किया उल्कापात समान वज्र दण्डों से वैश्रवण का वगतर चूर डारा और वैश्रवणके सुकोमल हृदय में भिडिपाल मारी वह मूर्छा को प्राप्त भया तब उसकी सेना में अत्यन्त शोक भया और राक्षसों के कटक में बहुत हर्ष भया वैश्रवण के लोक वैश्रवण को उठाकर यक्षपुर लेगए और रावण शत्रुवों को जीतकर रणसे निवृते । सुभटका शत्रु के जीतने का प्रयोजन है धनादिक का प्रयोजन नहीं ।
अथानन्तर वैश्रवण का वैद्यों मे यतन किया सो अच्छा हुवा तब अपने चित्तमें विचारे है कि जैसे पुष्प रहित वृक्ष सींग टूटा बैल कमल विना सरोवर न सोहै तैसे मैं शूरवीरता विना न सोहूं जो सामन्त हैं और क्षत्री वृत्ती का विरद घारै हैं उनका जीतव्य सुभटत्वहीसे शोभे है और तिनको संसारमें पराक्रम ही से सुख है सो मेरे अब नहीं रहा इसलिये अब संसार का त्याग कर मुक्तिका यत्न करूं यह संसार असार है क्षणभंगुर है इसीसे सत्पुरुष विषय सुखकोनहीं चाहे हैं यह अन्तराय सहित हैं और अल्प हैं दुखी हैं ये प्राणी पूर्व भव में जो अपराध करे है उसका फल इस भवमें पराभव होय है सुख दुःख का मूल कारण कर्मही हैं और प्राणी निमित्त मात्र है इसलिये ज्ञानी तिनसे कोप न करै ज्ञानीसंसारके स्वरूपको भली भांति जाने हैं यह केकसी का पुत्र रावण मेरे कल्याणका निमित्त हुवा है जिसने मुझे गृह
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