Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पत्र || राजा का पुत्र खरदूषण को जीतिबे समर्थ नहीं सो चित्त विष खरदूषण का उपाय चितवता हा
सावधान रहै और अनेक देशों में भूमण करै षट् कुलाचलपर और सुमेरु पर्वत पर तथा रमणीक ॥१२॥
बनें जोअतिशय स्थानक जहां देवोंका आगमन है वहां यह विहार करे और संग्राममें योधा लड़ें तिन के चरित्राकाश में देवोंके साथ देख संग्राम गज अश्व रथादिककर पूर्णहै और ध्वजाछत्रादिककर शोभित है इस भांति विराधित कालक्षेप करे और लंका विषे रावण इन्द्रकी न्याई सुख से तिष्ठे ।
सूर्यरजका पुत्र बाली रावणकी आज्ञा से विमुख भया बाली अद्भुत कर्मोकी करनहारी विद्या से मंडित है और महावली है तब रावण ने बाली पै दूत भेजा महा बुद्धिवान दुत किहकन्धपुरमें जाय कर बाली से कहता भया हे बानरधीश दशमुख ने तुमको आज्ञा करी है सो सुनो दशमुख महाबली महा तेजस्वी महा लक्ष्मीवान महा नीतिवान महा सेना युक्त प्रचण्डन को दण्ड देनहारा महा उदयवान है जिस समान भरत क्षेत्र में दूजा नहीं पृथ्वी के देव और शत्रुओं का मान मर्दन करने हारा है यह आज्ञा करी है कि तुम्हारे पिता सूर्य्यरज को मैंने राजायम बैरी को काढ़ कर किहकंध पुर में थापा था और तुम सदा के हमारे मित्र हो परन्तु आप अब सब उपकार भूलकर हमसों पराङ् मुख होगये हो यह योग्य नहींहै में तुम्हारे पितासेभी अधिक प्रीति तुमसे करूंगा तुम शीघ्रहीहमारे निकट श्रावो प्रणाम करो और अपनी बहिन श्रीप्रभा हमको परणावो हमारे सम्बन्ध से तुम को सब सुख होयगा दूतने कही यह रावणकी आज्ञा प्रमाण करो सो बालीके मनमें और बात तो आई परन्तु एक प्रणाम की न आई क्योंकि यह देव गुरु शास्त्र विना और को नमस्कार नहिं कर था यह प्रतिज्ञा
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