Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पुराण
॥१५॥
पद्म पर चढ और हाथीसे बहुत क्रीडा करी कैसे हैं हरिषेण कमल सारिपे हैं नेत्र जिनके और उदार है
वक्षस्थल जिनका और दिग्गजों के कुम्भस्थल समानहें कांधे जिनके और स्तम्भ समान हैं जांघ जिन की तब यह वृत्तान्त सुन सब नगर के लोग देखनेको पाए राजा महल ऊपर चढ़ा देखरहाथा सो अाश्चय को प्राप्त भया अपने परिवारके लोग भेज इनको बुलाया यह हाथी पर चढ़े नगर में पाए नगर के नर नारी समस्त इनको देख २ मोहित होय रहे क्षणमात्रमें हाथी को निर्मद किया यह अपने रूपसे समस्त का मन हरते नगर में आए राजाकी सौ कन्या परणी सर्व लोक में हरिषेणकी कथा भई राजासे अधिकार सन्मान पाय सर्व बातों से सुखी है तौभी तपसियों के बनमें जो स्त्री देखी थी उस बिना एक रात्रि वर्षसमान बीते मनमें चितवते भये कि मुझ बिना वह मृगनयनी उस विषम वन में भृगी समान परम अाकुलताको प्राप्त होयगी इसलिये मैं उसके निकट शीघही जाऊं यह विचारते रात्रीको निद्रा न श्राती जो कदाचित अल्प निद्रा आई तौभी स्वप्न में उसीही को देखा कमल सारिखे हैं नेत्र जिसके मानों इनके मनहीं में बस रही है।
विद्याधर राजा शक्रधनु उसकी पुत्रीजयचन्द्रा उसकीसखी वेगवती वह हरिषेणको रात्रि विषे उठाय कर आकाश में लेचली निद्राक्षय होनेपर आपको आकाश में जातो देख कोपकर उससे कहते भए हे पापिनी हमको कहां लेजाय है यद्यपि यह विद्यावल कर पूर्ण है तौभी इनको क्रोध रूपी मुष्टि बांधे होंठ डसते देखकर डर कर इनसे कहती भई कि हे प्रभु कोई मनुष्य जिस वृक्षकी शाखा पर बैठा हो उसही को का, तो क्या यह सयानपना है सो में तो तुम्हाररी हितकारिणी और तुम मुझे हतो यह उचित
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