Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म
१५ ।।
कार्यको उद्यमी होय वह अपने कार्यको कैसे उद्यम न करे इसलिये हे पूज्य मुझे आज्ञाकरो मैं युद्ध करूंगा पुराण तब सुसरने अनेक प्रकार निवारण किया पर यह न रहे नाना प्रकार हथियारों से पूर्ण ऐसे रथपर चढ़े जिसमें पवनगामी व जुरें और सूर्य बीर्य सारथी हां इनके पीछे बड़े बड़े विद्याधर चले कई हाथियों पर चढ़े कई अश्वोंपर चढ़े कई रथोंपर चढ़े परस्पर महा युद्ध भया कबुयक शक्रधनु की फौज हटी तब आप हरिषेण युद्ध करनेको उद्यमी भए सो जिस ओर रथचलाया उस ओर घोड़ा हस्ती मनुष्य रथ कोऊ टिकै नहीं सब बाणों कर बींधे गए सब कांपते युद्ध से भागे महा भयभीत कहते भये गंगाधर महीधर ने बुरा किया जो ऐसे पुरुषोत्तमसे युद्ध किया यह साक्षात् सूर्य समान हैं जैसे सूर्य अपनी किरण पसारे तैसे यह aria वर्षा करे है अपनी फौज हटी देख गंगाधर महीधरभी भाजे तब इनके क्षणमात्र में रत्नभी उत्पन्न भए दशवां चक्रवर्त्ति महा प्रतापको घरै पृथिवी पर प्रगट भया यद्यपि चक्रवर्त्ति की विभूति पाई परन्तु अपनी स्त्री रत्न जो मदनावली उसके परणवेकी इच्छासे द्वादश योजन परिमाण कटक साथलेराजाओं को निवारते तपस्वियों के बनके समीप आये तपस्वी बनफल लेकर प्राय मिले पहिले इनका निरादर किया था इससे शंकावान थे सो इनको अति विवेकी पुण्याधिकारी देख हर्षित भए शतमन्युका पुत्र जो जन्मेजय और मदनावलीकी माता नागमती उन्होंने मदनावली को चक्रवर्तिको विधिपूर्वक परणाई तब थाप चक्रवर्त्तिविभूति सहित कम्पिल्या नगरमें आए बत्तीस हजार मुकटबन्ध राजाओंने सङ्गआकर माता के चरणार विंदकोहाथजोड़नमस्कार किया माता वप्रा ऐसे पुत्रकोदेख ऐसी हर्षित भई जो गातमें न समावे हर्षके अश्रुपात करव्याप्त 'भएहैं लोचनजिसके तवचक्रवर्त्ति ने जब अष्टानिका आई तो भगवान का रथ सूर्य से भी महा
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