Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पक्ष्य
पुराण ॥१६॥
मनोग्य काढ़ा अष्टानिकाकी यात्रा करी मुनि श्रावकों को परमानन्द भया बहुत जीव जिन धर्म को अंगीकार करते भये सो यह कथा सुमाली ने रावण सों कही हेपुत्र उस चक्रवर्ति ने भगवान के मन्दिर पृथिवी पर सर्वत्र पुर प्रामादि में तथा परवतोंपर तथा नदियोंके तटपर अनेक चैत्यालय रत्नमई स्वर्णमई कराए वे महापुरुष बहुत काल चक्रवर्ति की सम्पदा भोग मुनि होय महा तप कर लोक शिखर सिधारे यह हरिषेणका चरित्र रावण सुनकर हर्षित भया सुमालीकी वारम्वार स्तुति करी और जिन मन्दिरोंका दर्शन कर रावण डेरे में आया डेरा सम्मेद शिखर के समीप भया।
रावण को दिगविजय में उद्यमी देख मानो सूर्य भी भय से दृष्टिगोचर अस्त भया, सन्ध्या की ललाई समस्त भूमण्डल में व्याप्त भई मानो रावण के अनुराग से जगत् हर्षित भया फिर सन्ध्या मिटकर रात्रिका अन्धकार फैला मानो अन्धकार प्रकाश के भय से दशमुखके शरण आया पुनः रात्रि न्यतीत भई और प्रभात भया रावण प्रभातकी क्रियाकर सिंहासनपर विराजे अकस्मात एक ध्वनि सुनि मानो वर्षाकालका मेघही गाजा जिस से सकलसेना भयभीत भई कटक के हाथी जिनवृक्षों से बन्धे थे उनको भंग करते भये कनसेरे ऊंचे कर तुरंग हींसते भए तब रावण बोले यह क्या है यह मरणेको हमारे ऊपर कौन आया यह वैश्रवण श्राया अथवा इन्द्रका प्रेरासौम पाया अथवा हमको निश्चल तिष्ठे देख कोई और शत्रुाया तब रावणकी आज्ञा पाय प्रहस्त सेनापति उस ओर देखनेको गया और पर्वत के आकार मदोनमत्त अनेक लीलो करता हाथी देखा तब आयकर रावण से वीनती करी कि हे प्रभो मेघ की घटा समान हाथी है इसको इन्द्रभी पकड़नेको समर्थ न भया तब रावण हंसकर बोले
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