Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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४१४७॥
पद्म | अब यह क्या दानाई है जो कुलके मूलनाश का उपाय करतेहो ऐसा जर तमें कोई नहीं जो अपने
कुलके मूलनाश को श्रादरे तुम क्या इन्द्रका प्रताप भूल गए जो ऐसे अनुचित काम करोहो इन्द्र विध्वंस कियेहें बैरी जिसने समुद्र समान अथाहहै सो तुम मींडकके समान सर्पके मुखमें क्रीड़ा करो हो सर्पका मुख दाढ़ रूपी कंटकसे भरा है और विष रूपी अग्निके कण जिसमें से निकसे हैं अपने पोते पड़ोतों को जो तुम शिक्षा देनेको समर्थ नहीं हो तो मुझे सौंपो में इनको तुरंत सीधे करूं और ऐसा न करोगे तो समस्त पुत्र पौत्रादि कुटंब को बेडियोंसे बंधा मलिन स्थानमें रुका देखोगे अनेक भांतिकी पीडा इनको होगी। पताल लंकास जरा जरा बाहिर निकसेहो अब फिर वहां ही प्रवेश किया चाहोहो इस प्रकार दूतके कठोर बचन रूपी पवन से स्पर्श है मन रूपी जल जिसका ऐसा रावण रूपी समुद्र अति क्षोभ को प्राप्त भया क्रोधसे शरीरमें पसेव आगया और आंखोंकी अारक्त ता से समस्त आकाश लाल हो गया और क्रोध रूपी स्वरके उच्चारमा से सर्व दिशा बधिर करते । हुवे और हाथियों का मद निवारते हुवे गाजकर ऐसा बोले कि कौन है वैश्रवण और कौन है इन्द्र जो हमारे गोत्रकी परिपाटीसे चलीबाई जो लंका उसको दाब रहे हैं जैसे कागअपने मन सियाना होय रहे और स्याल आपको अष्टापद माने तैसे वह रंक आप को इन्द्र मान रहा है यह निर्लज्ज है अधम पुरुष है अपने सेवकोंसे इन्द्र कहाया तो क्या इन्द्र हो गया । हे कुदुत हमारे निकट तू ऐसे कठोर बचन कहता हुआ कुछ भय नहीं करता ऐसा कहकर म्यान से खडग काढ़ा आकाश खडग के तेजसे ऐसा व्याप्त होगया जैसे नील कमलों के बन से महा सरोवर ब्याप्त होय । तब बिभीषण
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