Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म
॥४॥
अति दुःख भया रावण पुत्र का मुख देखकर परम आनन्दको प्राप्त भया मुपुत्र समान और प्रीति का स्थान नहीं फिर मन्दोदरी को गर्भ रहा तब माता पिता के घर फेर ले गए तहां मेघनाद का जन्म भया फिर भरतारके पास श्राई भोगके सागरमें मग्न भईहै मन्दोदरीने अपने गुणोंसे पतिका चित्त वश किया अब ये दोनों बालक इंद्रजीत और मेघनाद सज्जनोंको श्रानंदके करणहारे मुंदर चरित्रवान तरुण अवस्थाको प्राप्त भए विस्तीर्णहें नेत्र जिनके जोवृषभसमान पृथ्वीका भार चलावनहारे हैं।
वैश्रवण जिन जिन पुरों में राज करे उन हजारों पुरों में कुंभकर्ण धावे करते भए जहां इन्द्रका और वैश्रवण का माल होय सो छीन कर अपनी स्वयंप्रभ नगर में ले आवे इस बातस वैश्रवण बहुत क्रोधायमान भए बालकोंकी चेष्टा जान मुमाली रावण के दादा के निकट दूत भेजे वैश्रवण इंद्रके जोर से अति गर्वित है सो वैश्रवणका दूत द्वारपालसे मिल सभा में पाया और मुमाली से कहता भया हे महाराज वैश्रवण नरेन्द्र ने जो कहा है सो तुम चित्त देय सुनों वैश्रवणने यह कहा है कि तुम पंडित हो कुलीन हो लोक रीति के ज्ञायक हो वडे हो याकार्यके संगसे भयभीत हो औरों को भले मार्गके उपदेशक हो ऐसे जो तुम सो तुम्हारे आगे यह बालक चपलता करें तो क्या तुम अपने पोतावों को मने न करो। तियच और मनुष्य में यही भेदहै कि मनुष्य तो योग्य अयोग्यको जाने है और तियच न जाने है यही विवेक की रीति है करने योग्य कार्य करिए न करने योग्य न करिये जो दृदिचित्त हैं वे पूर्व वृतान्तको नहीं भूलें हैं और बिजुली समान क्षण भंगूर विभूति के होते हुवे भी गर्वको नहीं धरे हैं आगे क्या राजा माली के मरणेस तुम्हारे कुलकी कुशल भई है |
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