Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobetirth.org
Acharya Shri Kalassagarsuri Gyanmandir
पद्म पुरास ॥१३१"
ने तुम्हारे पिताके साथ महा उपद्रव कियाहै और यह चांडाल मुझे मारेहे पावोंमें बेदी डारी हैं माथेके केश खींचेहैं, हे पुत्रो तुम्हारे आगे मुझे यह म्लेच्छ भील पल्लीमें लिये जायहें तुम कहतेथे कि जो समस्त विद्या धर एकत्र होय मुझसे लड़ें तौभी नजीता जाऊं सो यह बार्ता तुम मिथ्याही कहतेथे अब तुम्हारे आगे म्लेच्छ चांडाल मुझे केश पकड़े खींचे लिये जाय, तुम तीनोंही भाई इन म्लेच्छोंसे युद्ध करने समर्थ नहीं मंद पराक्रमी हो हे दशग्रीव तेरा स्तोत्र विभीषण वृथाही करेथा तू तो एक ग्रीवाभी नहीं जो माताकी रक्षा न करे और यह कुंभकर्ण हमारी पुकार कानोंसे नहीं सुनेहै और यह विभीषण कहावेहै सो वृथाहै एक भीलसे लड़ने समर्थभी नहीं और यह म्लेछ तुम्हारी बाहिनचंद्रनखाको लिये जायहै सो तुमको लज्जा नहीं पाती विद्या जो साधिएहै सो मातापिताकी सेवा अर्थ सो यह विद्या किस काम
आवेगा मायामई देवोंने इस प्रकार चेष्टा दिखाई तौभी यह ध्यानसे न डिगे । तब देवोंने एक भयानक माया दिखाई अर्थात् रावणके निकट रत्नश्रवाका सिर कटा दिखाया और रावणके निकट भाइयोंके सिर काटे दिखाए और भाइयोंके निकट रावणका भी सिर कटा दिखायापरंतु रावण तो सुमेरु पर्वत समान अति निश्चलही रहे जो ऐसा ध्यान महा मुनितो अष्ट कर्मकोषको छेदे परंतु कुंभकर्ण विभीषण के कुछ इक ब्याकुलता भई परन्तु कुछ विशेष नहीं । ____ रावणको तो अनेक सहस्र विद्या सिद्धि भई जेते मंत्र जपनेके नेम कियेथे वह पूर्ण होनेसे पहिले ही विद्या सिद्ध भई । धर्मके निश्चयसे क्यान होय और ऐसा दृढ़ निश्चयभी वोपार्जित उज्ज्वल कर्मसे होयहै कर्मही संसारका मूल कारणहै कर्मानुसार यह जीव सुखदुख भोगेहै समयपरउत्तम पात्रोंको विधि।
For Private and Personal Use Only