Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पन का जीतनेहाय तू महा साहसी हम एक मुख से तेरी प्रशंसा कहांलों करें ते रे गुण देवभी न कह सक म यह राक्षसवंशी विद्याधर जीवनेकी आशा छोड़ बैठेथे सो अब सबकी अाशा वन्धी तू महापीर प्रगट भया
है एक दिन हम कैलाश पर्व गए थे वहां अवधिज्ञानी मुनिको हमने पूछा कि हे भी लंका में हमारा प्रवेश होयगा के नहीं तब मुनि ने कही कि तुम्हारे पुत्रका पुत्र होयगा उसके प्रभावकर तुम्हारा लंक | में प्रवेश होयगा वह पुरुषों में उत्तम होयगा तुम्हारा पुत्र रत्नश्रवा राजा ब्योमविन्दुकी पुत्री केकसी को | परणेगा उसकी कूति में वह पुरुषोत्तम प्रगट होयगा जो भरतक्षेत्रके तीन खण्ड का भोक्ता होगा महा बलवान विनयवान जिसकी कीर्ति दशों दिशामें विस्तरेगी वह बैंरियोंसे अपना बास छुड़ावैगा और वैरीयों
के वास दावैगा सो इसमें आश्चर्यनहीं तू महाउत्सवरूप कुलका मण्डन प्रगटाहै तेरासा रूप जगत्में और किसी | का नहीं तू अपने अनुपमरूपसे सबके नेत्र और मनको हरे है इत्यादिक शुभ बचनों से सुमाली ने रावण
की स्तुतिकरी तब रावण हाथ जोड़ नमस्कार कर सुमाली से कहता भया हे प्रभो तुम्हारे प्रसादसे ऐसाही होवे ऐसे कहकर नमोकार मन्त्र जप पञ्च परमेष्ठियों को नमस्कार किया सिद्धोंका स्मरण किया जिस से सर्व सिद्ध होय उस बालकके प्रभावसे वन्धुवर्ग सर्व राक्षस वंशी और वानरवंशी पने अपने अस्थानक प्राय बसे बैरियों का भय न किया इस भांति पूर्व भक्के पुण्य से पुरुष लक्ष्मी को प्राप्त होय है अपनी, कीर्तिसे ब्याप्तकरीहे दशों दिशा जिसने इस पृथिवीमें बड़ी उमरका अर्थात् बुढ़ाहोना तेजस्विता का कारण नहीं है जैसे अग्नि का कण छोटाही बड़े बनको भस्म करे है और सिंहका बालक छोटाही मस्त हाथियों | के कुम्भस्थल विदार है और चन्द्रमा उगता ही कुमदों को प्रफुल्लित करे है और जगत का संताप
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