Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म
पुराण
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१४१ ।।
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हटकर पीछे आई परन्तु मधुकर मक्षकी नाईं घूमने लग गई रावण चित्त में सोचे कि यह उत्तम नारी श्री धृति कीर्ति बुद्धि लक्ष्मी सरस्वती इनमें यह कौन है परणी है वा कुमारी है समस्त श्रेष्ठ स्त्रियों की यह शिरोभाग्य है यह मन इन्द्रियोंकी हरणहारी जो मैं परं तो मेरा नवयौवन सुफल है नहीं तो तृणवत् वृथा है ऐसा विचार रावणने किया तब राजामय मन्दोदरी के पिता बड़े प्रवीण इसका अभिप्राय जान मन्दोदरीको निकट बुलाय रावण से कही कि ( इसके तुम पतिहो ) यह वचन सुन रावण अति प्रसन्न भया मानो अमृतसे गात सींचा गया हर्ष के अंकुरसमान रोमांच होय या सर्व वस्तु की इनके सामग्री थीही उसी दिन मन्दोदरी का विवाह भया रावण मन्दोदरीको परकर प्रति प्रसन्न होय स्वयंप्रभ नगर में गए राजा मयभी पुत्री को परणाय निश्चित भए पुत्री के विछोड़ेसे शोक सहित अपने देशको गए रावणने हजारों रानी परणी उन सबकी शिरोमणी मन्दोदरी होती भई मन्दोदरी भरतार के गुणों में हरागया है मन जिसका पतिकी आज्ञा कारणी होती भई रावण उस सहित जैसे इन्द्र इन्द्राणी सहित रमे तैसे सुमेरु के नन्दन बनादि रमणीक स्थानों में रमते भए मन्दोदरी की सर्व चेष्टा मनोग्य हैं अनेक विद्या जो रावण ने सिद्ध करी हैं उनकी अनेक चेष्टा दिखावते भए एक रावण अनेक रूप घर अनेक स्त्रियों के महलों में कौतहल करे कभी सूर्य की न्याई तपै कभी चन्द्रमाकी नांई चांदनी विस्तार कभी अग्नी की नाई ज्वाला बरषे कभी मेघकी नाई जल धारा श्रवे कभी पवन की न्याई पहाड़ों को चलाये कभी इन्द्रकीसी लीला करे कभी वह समुद्र कीसी तरंग घरे कभी वह पर्वत समान अचल दशा गहे कभी मस्त हाथी समान चेष्टा करे कभी पवन से अधिक वेगवाला अश्व बनजाय क्षण में
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