Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पुराव
Prou
का साधन नहीं इस लिये काहेको तपका खेद करो हो उठो घर चलो अब भी कुछ नहा गया इत्याद अनेक वचन कहे परन्तु इनके मनमें एकभी न आई जैसे जलकी बून्द कमलके पत्रपर न ठहरे तब वे श्रापसमें कहती भई हे सखी ये काष्ट मई हैं सर्व अंग इसके निश्चल दीखेहै ऐसा कहकर क्रोधाय मान होप तत्काल समीप आईइनके विस्तीर्ण हृदयपर कुण्डल माग तौभी ये चलायमान न भये स्थिर भूतहै चित्त जिनका कायर पुरुष होय सोई प्रतिज्ञा से डिगे देवियों को कहते हुए देखने के अनावत यक्षने हंसकर कहा भो सत्पुरुषो काहे को दुर्धर तप करो हो और किस देवको आराघो हो ऐसा कहा तौभी ये नहीं बोले चित्रामसे होयरहे तब अनाव्रतने क्रोध किया कि जम्बूद्वीपका देव तो मैं हूं मुझको छोड़कर किसको ध्यावे हैं ये मन्दबुद्धिहें इनको उपद्रव करणेके अर्थ अपने किंकरोंको आज्ञा करी किंकर स्वभावहीसे करथे और स्वामीके कहेसे उन्होंने औरभी अधिक अनेक उपद्रव किए कैएकता पर्वत उठाय लाए और इनके समीप पटके तिनके भयंकर शब्द भये कैएक सर्प होय सर्व शरीरसे लिपटगए फैएक नाहर होय मुख फाडकर आये और कैएक शब्द कानमें ऐसे करते भए जिनको सुनकर लोक वहिरे होय जायें मायामई डांस बहुत किये सोइनके शरीरमें श्राय लागे और मायामई हस्ती दिखाय असराल पवन चलाई मायामई दावानल लगाई इस भांति अनेकउपद्रव किये तोभी यह ध्यानसे न डिगे निश्चल है अन्तःकरण जिनका तव देवोंने मायामई भीलोंकी सेना बनाई अन्धकार समान विकगल आयुधों को धरे इनको ऐसी माया दिखाई कि पुष्पांतक नगरमें महा युद्धमें रत्नश्रवाको कुटंब सहित बंधा हुआ दिखाया और यह दिखाया कि माता केकसी विलाप करे है कि हे पुत्रो इन चाण्डाल भीलों ।।
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