Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म
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जिसकी मानों साचात् विद्याही शरीर धार कर रत्नश्रवा के तपसे वशी होकर महा कांतिकी धारणहारी आई है तब रत्नश्रवा जिनका स्वभावही दयावान है केकसी को पूछते भए कि तू कौनकी पुत्री है और कौन अर्थ अकेली यूथ से विधुरी मृगी समान महा वन में रहे हैं और तेरा क्या नाम है तब यह अत्यन्त माधुर्यता रूप गद गद वाणी से कहती भई कि राजा व्योमविंदु राणी नन्दवती तिनकी मैं केक्सी नामा पुत्री आपकी सेवा करणेको पिता ने राखी है उसी समय रत्नश्रवा को मानस स्तम्भिनी विद्या सिद्ध भई सो विद्याके प्रभावसे उसी बनमें पुष्पांतक नामा नगर बसाया और केकसी को विधि पूर्वक परणा और उसी नगर में रहकर मन वांछित भोग भोगते भए, प्रिया प्रीतम में अद्भुत प्रीति होती भई एक क्षणभी आपस में वियोग सहार न सके यह केकसी रत्न श्रवा के चित्तका बन्धन होती भई दोनों अत्यन्त रूपवान नव यौवन महा धनवान इनके धर्म के प्रभावसे किसी भी वस्तुकी कमी नहीं यह राणी पतिमता पतिकी छाया समान अनुगामिनी होती भई ॥
एकसमय यह राणी रत्न के महल में सुन्दर सेज पर पड़ी हुई थी सेजका वस्त्र वीर समूद्रकी तरङ्ग समात उज्ज्वल है और महा कोमल है अनेक सुगन्धकर मण्डित है रत्नों का उद्योग होय रहा है राणी के शरीरकी सुगन्ध से अमर गुञ्जार करें हैं अपने मनका मोहनहारा जो अपना पति उसके गुणों को चिंत बती हुई और पुत्रकी उत्पत्ति को बांछती हुई पड़ी थी रात्री के पिछले पहरे महा ध्याश्चर्य के करणहारे शुभ स्वपने देखे फिर प्रभात में अनेक बाजे बाजे शंखोंका शब्द भया मागध बन्दी जन विरद बखानते भए तब खीसेजसे उठकर प्रभात क्रिया कर महा मङ्गल रूप आभूषण पहर सखियोंकर मण्डित पतिके डिग
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