Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobetirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
११२॥
एक दिन रावण अपनी माताकी गोदमें तिष्ठेया अपने दांतोंकी कांतिसे दशों दिशा में उद्योत करता हुआ जिसके सिरपर चूड़ामाण रत्न धराहै उस समय वैश्रवण अाकाश मार्गसे जा रहाथा वह रावणके ऊपर होय निकला अपनी कांतिसे प्रकाश करता हुआ विद्याधरोंके समूहसे युक्त महा बलवान विभूतिका धनी मेघ समान अनेक हाथियोंकी घटा मदकी धारा बरसते जिनके विजली समान सांकल चमकै महा शब्द करते आकाश मार्गसे निकसे सो दशोंदिशा शब्दायमान होय गई श्राकाश सेनासे व्याप्त होगया गवणने ऊंची दृष्टिकर देखा तो बड़ा आडंबर देखकर माताको पूछा यह कौन है और अपने मानसे जगतको तृण समान गिनतामहा सेना सहित कहां जायेह । तब माता कहती भई कि सेरी मासीका बेटा हे सर्व विद्या इसको सिद्धह महा लक्ष्मीवानहै शत्रुओका भय उपजावता हुआ पृथ्वी पर विचरे हैं महा तेजवानहै मानो दूसरा सूर्यही है राजा इन्द्रका लोकपाल है इन्द्र ने तुम्हारे दासका बड़ा भाई माली युद्ध में मारा और तुम्हारे कुलमें चली आई जो लंकापुरी वहां से तुम्हारे दादेको निकालकर इसको रखा है यह लंकाके लिये तेरा पिता निरन्तर अनेक मनोरथ करे है रात दिन चैन नहीं पोहे और मेंमी इस चिन्तामें सूखगई हूं। हे पुत्र स्थान भ्रष्ट होनेसे मरण मला ऐसा दिन कब होय मोतू अपने कुलकी भूमिको प्राप्त होय और तेरी लक्ष्मी हम देखें तेरी विमति देसकर तेरे पिताका और मेरा मन प्रानन्दको प्राप्त होय ऐसा दिन कब होयगा जब तेरे यह दोनों भाइयोंकी विभूति सहित तेरी लार इस पृथिवीपर प्रताप युक्त हम देखेंगे तुम्हारे दुशमन में रहेंगे यह माता के दीनवचन सुन और अश्रूपात डारती देखकर विभीषण बोले प्रगट भयाहे क्रोधरूप
For Private and Personal Use Only