Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद के तब मरतारने बहुत प्रादरसों पूछी कि हे प्रिये! तेरे अंग कासे क्षीण भएहैं तेरे क्या अभिलाषा
है जो अभिलाषा होय सो में अवारही समस्त पूर्ण करूं, हे देवी तू मेरे प्राणोंसे भी अधिक प्यारी है इस भांति राजाने कही तब राणी बहुत बिनयकर पतिसे बिनती करती भई कि हे देव जिस दिन से बालक मेरे गर्भमें आयाहै उस दिनसे यह मेरी बांछोहै कि इंद्रकी सी संपदा भोगू सो मैंने लाज तज आपके अनुग्रहसे श्रापसों अपना मनोरथ कहाहै नातर स्त्रीकी लज्जाप्रधानहै सो मनकी बात कहिबेमें न श्रावे तब राजा सहस्त्रारने जो महा विद्यावलकर पूर्ण था तणमात्र में इसके मनोरथ पूर्ण किये तब यह सभी महा श्रानन्द रूप भई सर्व अभिलाषा पूर्ण भई अत्यन्त प्रताप और कांति को धरती भई सूर्य ऊपर होय निसरे वहभी उसका तेजान सहार सके सर्व दिशाओंके राजाओंपर श्राज्ञा चलाया चाहे नव महीने पूर्ण भए पुत्रका जन्म मया पुत्र समस्त बांधवोंको परम संपदाका कारण है तब राजा सहस्त्रारने हर्षित होय पुत्रके जन्मका महान उत्सव किया अनेक बाजोंके शब्दसे दशों दिशा शब्द रूप भई और अनेक स्त्री नृत्य करती भई राजाने याचकोंको इच्छा पूर्ण दान दिया ऐसा विचार न किया जो यह देना यह न देना सर्वही दिया हाथी गरजते हुए ऊंची मुंडसे नृत्य करते भए राजा सहसारने पुत्रका इन्द्र नाम धरा जिस दिन इन्द्रका जन्म भया उस दिन समस्त बेरियों के घमें अनेक उत्पात भए अपशकुन भए और भाइयोंके तथा मित्रोंके घरमें महा कल्याणके करन हारे शुम शकुन भए इन्द्र कुंवरका बालक्रीड़ा तरुण पुरुषों की शक्तिको जीतने हारी सुन्दर कर्मकी करणहारी बेरियाका गर्व छेदती भई अनुक्रमकर कुंवर यौवनको प्राप्त भया कुंवर अपने तेजकर
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