Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म
१९०८ ॥
लंका जो बड़ों से व्यासरे की लगा है सो कुछ काल वहां रहिये जा अपने कुलमें बड़े हैं ये स्थानक की बहुत प्रशंसा करें हैं जिसको देखे स्वर्गलोक में सी मन न लगे है इसलिये उठो वह जगा वैगियों से अगम्य है इस भांति राजा किहकन्ध को राजा सुकेशी ने बहुत समझाया तोभी शोक न बाड़े, तब राणी श्रीमाला को दिखाई सो उसके देखने से शोक निवृत्त भया तब राजा सुकेशी और किहकन्ध समस्त परिवार सहित पाताल लंकाको चले और शनिवेगक्ता पुत्र विद्युद्वाहन इनके पीछे लगा अपने भाई विजयसिंह के बैर से महा क्रोधवन्त शत्रु के समूल नाश करनेको उद्यमी भया तब नीति शास्त्र के पाठियों ने जो शुद्ध बुद्धिके पुरुष हैं समझाया कि क्षत्री भगे तो उसके पीछे न लगे और राजा अश निबेग ने भी विद्युद्वाहन सों कही कि अन्धूक ने तुम्हारा भाई हता सो तो मैं अन्धकको रथ में मारा इसलिये हे पुत्र इस उसे निवृत होबो दुःखी पर दगाही करनी उचित है जिस कायरने अपनी पीठ दिखाई सो जीवही मृतक है उसका पीछा क्या करना, इस भांति प्रशनिवेग ने विद्युद्वाहन को समझाया, इतनेमें राक्षसवंशा और वानरवंशी पाताल लंका जाय पहुंचे नगर स्त्नों के प्रकाश से शोभायमान है वहां शोक और हर्ष धरते दोऊ निर्भयर हैं एक समय प्रशनित्रेम शरद में मेघपटल देख और उनको विलय होते देख विषियों से विरक्तभए चितविषे विचारा यह राज सम्पदा क्षणभंगुर है मनुष्य जन्म अतिदुर्लभ है सो मैं मुनित्रत घर अन्तिम कल्याण करूं ऐसा विचार सहस्रारि पुत्रको राज देय ध्याप विद्युद्वाहन सहित मुनि भए और लंका विषे पहले शनिवेगने निर्घातनामा विद्याधस्थाने राखाथा सो अब सहस्रारिकी आज्ञा प्रमाण लंका विषे थाने रहे एक समय निर्धात दिग्विजयको निकसा सो सम्पूर्ण राक्षसदीप
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