Book Title: Anekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त -- emain RA ORAR DELHI. महावीर-जिन दीक्षा पीडित, पतित, मार्गच्युत जग को लख धीवीर महान , उद्यन हुए लोकसंवा को करने को कल्याण । राज्य तजा, सुम्व-सम्पत त्यागी, छोड़ा सब सामान. जिनदीक्षा ले रहे. इसीम, इसही को हित जान ॥ 'यगवीर' Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहम * अनेकान्त -* परमागमस्य बीज निषिद्ध-जात्यन्ध-सिन्धुर-विधानम् । सकलनयविलसितानां धमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।। -श्रीमतचन्द्र रिः ।at ममन्तभद्राश्रम, कगैलबारा, देहली। 14% मार्गशिर. मंवत १९८६ वि०, वीरनिर्वाण मं० २४०६ हली। 1771929 । किरण AVAGARIALABALPRAWAL कामना : परमागम का बीज जो, जैनागम का प्राण । 'अनेकान्त' सत्सय मो. कगं जगत्-कल्याण ॥१॥ 'अनेकान्त'-रवि-किरणसे तम-अज्ञान-विनाश । मिट मिथ्यात्व-कुरीनि सब, हो मद्धर्म-प्रकाश ।। २ ।। , कुनय-कदाग्रह ना रहे, रहे न मिथ्याचार । ६ तेज देख भागें सभी दंभी-शठ-वटमार ।। ३॥ ; । सूख जायँ दुर्गुण सकल,पोषण मिले अपार सद्भावों को लोक में, हो विकसित संसार ॥ ४ ॥ : शोधन-मथन विरोध का हुआ करे अविराम । १ प्रेमपगे रल मिल सभी करें कर्म निष्काम ॥५॥ - 'युगवीर' : . .. .. . ..... . . Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण १ wwwr ammar भगवान महावीर और उनका समय शुद्धिशक्तयोः परां काष्ठां योऽवाप्य शान्तिमन्दिरः । देशयामास सद्धम्मै महावीरं नमामि तम् ॥ महावीर-परिचय जज्ञे स्त्रोच्चम्थेषु ___ग्रहेषु सौम्येषुशुभलग्ने ॥ नियों के अन्तिम तीर्थकर भगवान् -निर्वाणभक्ति । महावीर विदेह-(विहार-) देशस्थ तेजःपुंज भगवान के गर्भ में आते ही सिद्धार्थ कुण्डपुर के राजा 'सिद्धार्थ'के पुत्र राजा तथा अन्य कुटुम्धीजनोंकी श्रीवृद्धि हुई- उनका B थे औरमाता प्रियकारिणी'के गर्भसे यश, तेज, पराक्रम और वैभव बढ़ा-माताकी प्रतिभा उत्पन्न हुएथे, जिसका दूसरा नाम 'त्रिशला' भीथा और चमक उठी, वह महज ही में अनेक गूढ प्रश्नों का उत्तर जोवैशालीके राजा 'चेटक'की सुपुत्री थी।आपके शुभ दन लगी, और प्रजाजन भी उत्तरोत्तर सुख शान्तिका जन्मसे चैत्र शुक्ला त्रयोदशीकी तिथि पवित्र हुई और अधिक अनुभव करने लगे। इससे जन्मकालमें आपउसे महान उत्सवों के लिये पर्वका सा गौरव प्राप्त हुआ। का सार्थक नाम 'श्रीवईमान' या 'वर्द्धमान' रवखा इस तिथिको जन्मसमय उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र था, गया । साथ ही, वीर, महावीर, और सन्मति जैम जिमे कहीं कहीं 'हम्तोत्तरा' (हम्न नक्षत्र है उत्तरमें- नामोकी भी क्रमशः सृष्टि हुई, जो सब आपके उस अनन्तर-जिसके) इस नामसे भी उल्लेखित किया गया समय प्रस्फुटिन तथा उच्छलित होनेवाले गुणों पर ही है, और सौम्य ग्रह अपन उच्चम्थानपर स्थित थे; जैमा एक आधार रखते हैं । कि श्रीपज्यपादाचार्यके निम्न वाक्यमे प्रकट है: ___महावीरके पिता ‘णात' वं के क्षत्रिय थे । 'णात' चैत्र-सितपक्ष फाल्गनि यह प्राकृत भाषाका शब्द है और 'नात' ऐसा दन्त्य शशांकयोगे दिने त्रयोदश्याम् । नकारस भी लिखा जाता है । संस्कृतमें इसका पर्याय * श्वेताम्बर सम्प्रदाय के कुछ ग्रन्थों में क्षत्रियकराड) ऐसा रूप होता है 'ज्ञात' । इसीसे 'चारित्रभक्ति' में श्रीपज्यनामोल्लेख भी मिलता है जो सभवतः कुगरपुर का एक पहिला जान पादाचार्य ने "श्रीमज्ज्ञातकुलेन्दुना" पद के द्वारा पड़ता है। अन्यथा,उसी सम्प्रदाय के दमो ग्रन्थों में कुरा डयानादि महावीर भगवान को 'ज्ञात' वंशका चन्द्रमा लिखा रूप से कुंडपुर का साफ़ उल्लेख पाया जाता है । यथाः- है, और इसीसे महावीर 'णातपुत्त' अथवा 'ज्ञातपुत्र' "हत्थुत्तराहि जामो कुंडग्गाम महावीगे। प्रा०नि०भा० भी कहलाते थे, जिसका बौद्धादि ग्रन्थोंमें भी उल्लेख वह कुराइपुर ही आजकल कुण्डलपुर कहा जाता है। x कुछ श्वतम्बरीय ग्रन्थों में बहन' लिखा है। दखो, गुणाभद्र चार्यकृत महापुरगा का ७४ वां पर्व । Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गशिर, वीरनि० सं० २४५६] भगवान महावीर और उनका समय पाया जाता है । इस प्रकार वंशके ऊपर नामों का उस उसे खूब ही घुमाया, फिराया तथा निर्मद कर दिया। समय चलन था--बुद्धदेव भी अपने वंश पर से 'शाक्य- उसी वक्तसे आप लोकमें 'महावीर' नाममं प्रसिद्ध पुत्र' कहे जाते थे। अस्तु; इस 'नात' का ही बिगड़ हुए । इन दोनों * घटनाओंसे यह स्पष्ट जाना जाता कर अथवा लेखकों या पाठकोंकी नासमझी की वजह है कि महावीरमें बाल्यकालसे ही बुद्धि और शक्ति का से बादको 'नाथ' रूप हुआ जान पड़ता है । और असाधारण विकाश हो रहा था और इस प्रकार की इसीसे कुछ अन्योंमें महावीर को नाथवंशी लिखा हुआ घटनाएँ उनके भावी अमाधारण व्यक्तित्वको मचिन मिलता है, जो ठीक नहीं है। करती थीं । मी ठीक ही है___महावीरके बाल्यकालकी घटनाओं में से दो घट- “हान हार बिरवानक होत चीकनपात" । नाएँ खास तौर से उल्लेख योग्य हैं-एक यह कि, तीम वर्षकी अवस्था हो जाने पर महावीर मंसारसंजय और विजय नामके दो चारण मुनियोंको देह-भोगोंस पूर्णतया विरक्त हो गये, उन्हें अपने तत्वार्थ-विषयक कोई भारी संदेह उत्पन्न हो गया आत्मोत्कर्षको माधने और अपना अन्तिम ध्येय प्राप्त था, जन्मके कुछ दिन बाद ही जब उन्होंने आपको करनेकी ही नहीं किन्तु मंसारक जीवांकी सन्मार्गमे देखा तो आपके दर्शनमात्र से उनका वह सब संदह लगानं अथवा उनकी सची मेवा बजानकी एक विशंप तत्काल दूर हो गया और इस लिये उन्होंने बड़ी भक्ति- लगन लगी-दीन दुखियोंकी पुकार उनकं हृदयम से आपका नाम 'सन्मति' रक्खा है। दूसरी यह कि, घर कर गई-और इमलियं उन्होंन, अब भार अधिएक दिन आप बहुतसे राजकुमारोंके साथ बनमें वृक्ष- क समय तक गृहवामको उचित न ममझ कर जंगल क्रीड़ा कर रहे थे, इतने में वहाँ पर एक महाभयंकर का गम्ना लिया. संपूर्ण गज्य वैभवका टकरा दिया और विशालकाय मर्प आ निकला और उस वृक्षका और इन्द्रिय-मुग्राम मुग्व माड़कर मंगमिग्वदिमी ही मूलसे लेकर स्कंध पर्यन्त बढकर स्थित हो गया का ज्ञात खंड नामक वनमें जिनदीक्षा धारण कर. जिसपर आप चढ़े हुए थे। उसके विकराल रूपका ली। दीक्षाकं ममय आपन मंपूर्ण परिग्रहका त्याग देखक: दूसरे राजकुमार भयवित न हो गये और उसी करके आकिंचन्य (अपरिग्रह) वन ग्रहण किया. अपने दशामें वृक्षों परसे गिर कर अथवा का कर अपने अपने शरीर परमं वस्त्राभषणों को उतार कर फेंक दिया x घरका भाग गये । परन्तु आपकं हृदयमं जरा भी इनमें में पहली घटना का उल्लव प्रायः दिगम्बर ग्रन्थों में भयका संचार नहीं हुआ-आप बिलकुल निर्भयचित्त और दमा का दिगम्बर तथा ताम्बर दोनों ही सम्प्रदाय क ग्रन्थी होकर उस काले नागसे ही क्रीड़ा करने लगे और में वलना में पाया जाता है। आपने उस पर सवार होकर अपन बल तथा पराक्रमसं कुछ श्वेताम्बराय ग्रन्थों में इतना विशप कथन पाया Giri * संजयस्यार्थ दिह सनात वि..या य च । है और वह मभवत माम्प्रदायिक जान पड़ता है कि. वयाभषगां को जन्मान्तरमै नमभ्येत्या लोकसातत्रतः।। उतार डालने के बाद इन्द्र ने देवदव्य' नामका एक वह मूल्य वा तत्संदगते ताभ्यां चरण,भ्यां रवभक्तितः । भगवान के कन्ध पर दाल दिया था, जो १३ महीने तक पड़ा रहा । अस्त्वेष सन्मति वो भावीति समुदाहृतः ।।। बाद को महावीर ने उसे भी त्याग दिया और पूर्ण रूप में नाम-~-महापुराण, पर्व ७४ वां । दिगम्बर अथवा जिनकल्पी ही रहे । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरणं १ और केशोंको क्लेशसमान समझते हुए उनका भी लौंच ऋजकूलायास्तीरे शालद्रमसंश्रिते शिला पट्टे। कर डाला । अब आप देहसे भी निर्ममत्व होकर नग्न अपराहे षष्ठेनास्थितस्य खलु जम्भकायापे॥११॥ रहते थे, सिंहकी तरह निर्भय होकर जंगल-पहाड़ों में वैशाखसितदशम्यां हस्तोत्तग्मध्यमाश्रिते चंद्रे । विचरते थे और रात दिन तपश्चरण ही तपश्चरण तपश्रेण्या रूढस्यात्पन्नं केवलज्ञानम् ॥१२॥ किया करते थे। -निर्वाणभक्ति। विशेष सिद्धि और विशेष लोकसेवा के लिये , इस तरह घोर तप रण तथा ध्यानाग्नि द्वारा, विशेष ही तपश्चरणकी जरूरत होती है-तपश्चरण ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय ही रोम रोममें रमे हुए आन्तरिक मलको छाँट कर नामके घातिकर्म मलको दग्ध करके, महावीर भगवानने आत्माको शुद्ध, साफ, समर्थ और कार्यक्षम बनाता जब अपने आत्मा में ज्ञान, दर्शन, सुख, और वोर्य नाम है । इसी लिये महावीरको बारह वर्षतक घोर तपश्च के स्वाभाविक गुणोंका चरा विकास अथवा उनका पूर्ण रण करना पड़ा-खूब कड़ा योग साधना पड़ा रूपसे आविर्भाव कर लिया और आप अनुपम शुद्धि, तब कहीं जाकर आपकी शक्तियोंका पूर्ण विकास शक्ति तथा शान्तिकी पराकाष्ठाको पहुंच गये, अथवा हुश्रा । इस दुर्द्धर तप धरणकी कुछ घटनाओंको मालूम यों कहिये कि आपको स्वात्मोपलब्धि रूपी सिद्धि की करके रोंगटे खड़े हो जाते हैं । परन्तु साथ ही आपके प्राप्ति हो गई, तब आपने सब प्रकारसे समर्थ हो असाधारण धैर्य, अटल निय, सुदृढ आत्मविश्वास कर ब्रह्मपथका नेतृत्व ग्रहण किया और संसारी जीवों अनपम साहस और लोकोत्तर क्षमाशीलताका देखकर को सन्मार्ग का उपदेश देनके लिये उन्हें उनकी भूल हृदय भक्तिसे भर पाता है और खुद बखुद (स्वयमेव) सुझान, बन्धनमुक्त करन, ऊपर उठाने और उनके म्तुति करनेमें प्रवृत्त हो जाता है । अस्तु; मनःपर्ययज्ञानकी दुःख मिटानके लिये अपना विहार प्रारम्भ किया । प्राप्ति तो आपको दीक्षा लेनेके बाद ही हो गई थी परन्तु अथवा यों कहिये कि लोकहित-साधनका जो असाकेवलज्ञान-ज्योतिका उदय बारह वर्षकै उग्र तपश्चरण धारण विचार आपका वर्षों से चल रहा था और जिसका के बाद वैशाख सुदि १० मीको तीसरे पहरके समय गहरा संस्कार जन्मजन्मान्तरोंसे आपकेआत्मामें पड़ा उस वक्त हुश्रा जब कि आप जृम्भका प्रामके निकट हुआ था वह अब संपूर्ण रुकावटोंके दूर हो जाने ऋजुकूला नदीक किनारे, शाल वृक्षके नीचे एक शिला पर स्वतः कार्यमें परिणत हो गया । अस्तु । पर, षष्ठोपवाससे युक्त हुए, क्षपक श्रेणि पर आरूढ थे-आपने शुक्ल ध्यान लगा रक्खा था-और विहार करते हुए श्राप जिस स्थानपर पहुँचते थे चन्द्रमा हम्तोत्तर नक्षत्रके मध्यमें स्थित था । जैसा कि और वहाँ आपके उपदेशकेलिये जो महनीसभा जुड़ती श्रीपूज्यपादाचार्यके निम्न वाक्योंसे प्रकट है:- थी और जिसे जैनसाहित्यमें 'समवसरण' नाम से उल्लेखित किया गया है उसकी एक खास विशेषता ग्राम-पर-खेट-कर्वट-मटम्ब-घोषाकरान् पविजहा। यह होती थी कि उसका द्वार सबके लिये मुक्त रहता उस्तपोविधान द्वादशवर्षाएयमरपूज्यः ॥१०॥ था, कोई किसीके प्रवेशमें बाधक नहीं होता था Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गशिर, वीरनि० म०२४५६] भगवान महावीर और उमपा राना पशुपक्षी तक भी आकृष्ट होकर वहाँ पहुँच जाते थे, कितनी ही विभूतियोंका-अतिशयोंका-वर्णन किया जाति-पाति छूआछूत और ऊँचनीचका उसमें कोई गया है परन्तु उन्हें यहाँ पर छोड़ा जाता है । क्योंकि भेद नहीं था, सब मनुष्य एक ही मनुष्यजातिमें स्वामी समन्तभद्रने लिखा है:परिगणित होते थे, और उक्त प्रकारके भेदभावको देवागम-नभोयान-चामरादि-विभूतयः । भलाकर आपसमें प्रेमके साथ रल मिलकर बैठने और मायाविष्वपि दृश्यन्ते नानस्त्वममि नो महान॥१॥ धर्मश्रवण करते थे-मानों सब एक ही पिताकी -आप्रमीमांमा । संतान हों । इस आदर्श समवसरणमें भगवान महा- अथात-देवांका आगमन. आकाशमें गमन और वीरकी समता और उदारता मूर्तिमती नज़र आती चामरादिक (दिव्य चमर, छत्र, सिंहासन, भामंडलाथी और वे लोग तो उसमें प्रवेश पाकर बेहद मंतष्ट दिक) विभतियांका अस्तित्व तो मायावियाम-इन्द्रहोते थे जो समाजके अत्याचारोंमे पीड़ित थे, जिन्हें जालियोमें-भी पाया जाता है, इनके कारण हम कभी धर्मश्रवणका, अपने विकामका और उच्च आपको महान नहीं मानते और न इनकी वजहम आप संस्कृतिको प्राप्त करनेका अवसर ही नहीं मिलता था की कोई खास महत्ता या वड़ाई ही है। अथवा जो उसके अधिकारी ही नहीं समझे जात थे । भगवान महावीरकी महत्ता और बड़ाई तो उनके इसके सिवाय, ममवसरणकी भमिमें प्रवेश करते ही माहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तगग भगवान महावीरके मामीप्यमे जीवांका वैग्भाव दर नामक कर्मो का नाश करके परम शान्तिको लिये हाप हो जाता था, क्रूर जन्तु भी मौम्य बन जाते थे और शुद्धि तथा शक्ति की पराकाष्ठाको पहुँचनं और ब्रह्मउनका जाति-विरोध तक मिट जाता था । इमीमे सर्प पका- अहिमान्मक मोनमार्गका-नंतत्व ग्रहण को नकुल या मयर के पास बैठनम कोई भय नहीं होता करने गे है-अथवा यो कहिये कि आत्मोद्धारके माथ था, चहा विना किमी मकोचके विल्लीका आलिंगन माथ लोककी मञ्ची संवा बजानमें है । जैमा कि करता था, गौ और सिंही मिलकर एक ही नादम जन स्वामी ममन्तभद्रक निम्न वाक्यम भी प्रकट है :पीती थीं और मृग-शावक खुशीमे सिंह-शावकर्क माथ वं शुद्धिशक्त्यांहदयग्य काष्टी ग्वेलता था । यह मव महावीरकं योग-बनका माहात्म्य तुलाव्यतीतां जिन शांतिरूपाम | था। उनके श्रात्मामें अहिंमाकी पूर्ण प्रतिष्ठा हो चुकी अवापिथ ब्रह्मपथस्य नेना थी, इस लिये उनके संनिकट अथवा उनकी उपस्थिति- ' महानिनीगतं प्रतिवक्त मीशाः ।।५। में किमीका वैर स्थिर नहीं रह सकता था । पतंजलि -युनयनुशासन। ऋपिन भी, अपने योगदर्शनमें, योगके इम माहात्म्यको महावीर भगवानन लगातार नीम वर्पनक अनेक स्वीकार किया है; जैसा कि उसके निम्न मृत्र में देश-देशान्तरोंमें विहार करके मन्मार्गका उपदेश दिया, प्रकट है: १ ज्ञानावग्णा-दर्शनावरगांक प्रभावले निर्भल ज्ञान दर्शन अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैग्त्यागः ।३५।। प्रावितिका नाम 'शुद्धि' और अन्नगय कक नाशमे वीर्थलब्धि जैनशास्त्रों में महावीरके विहार-समयादिक की का होना 'शक्ति' है। - -- Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १,किरण १ असंख्य प्राणियोंके अज्ञानान्धकार को दूर करके उन्हें की रानी चेलना भी राजा चेटक की पुत्री थी और यथार्थ वस्तु-स्थितिका बोध कराया, तत्त्वार्थको सम- इस लिये वह रिश्तेमें महावीरकी मातस्वमा (मावसी) झाया, भूलें दूर की, भ्रम मिटाए, कमजोरियाँ हटाई, x होती थी । इस तरह महावीरका अनेक राज्योंके भय भगाया, आत्म विश्वास बढ़ाया, कदाग्रह दूर साथमें शारीरिक सम्बन्ध भी था । उनमें आप के किया, पाखण्डबल घटाया, मिथ्यात्व छड़ाया, पतितों धर्मका वहुत कुछ प्रचार हुआ और उसे अच्छा राजाको उठाया, अन्याय-अत्याचारको रोका, हिंसाका श्रय मिला है। विरोध किया, साम्यवादको फैलाया और लोगोंको विहारके समय महावीरकं साथ कितने ही मुनिस्वावलम्बन तथा संयमकी शिक्षा दे कर उन्हें आत्मो आर्यिकाओं नथा श्रावक-श्राविकाओं का मंच रहता त्कर्षके मार्ग पर लगाया । इस तरहपर आपने लोकका था। इस मंघके गणध की संग्या ग्यारह तक पहुँच अनन्त उपकार किया है । गई थी और उनमें सबसे प्रधान गौतम म्वामी भगवानका यह विहार काल ही उनका तीर्थ-प्रव- , जो 'इन्द्रमनि' नामम भी प्रसिद्ध हैं और समवननकाल है, और इस तीर्थ-प्रवर्तनकी वजहसे ही वे मरणमें मुख्य गणधर का कार्य करते थे । ये एक 'तीर्थकर' कहलाते हैं। आपके विहारका पहला स्टेशन बहत वडे ब्राह्मण विद्वान थे जो महावीरको केवलराजगृहीक निकट विसलाचल तथा वेभार पर्वतादि मानकी मंशामिहान पश्चात उनम अपने जीवादिकपंच पहाड़ियोंका प्रदेश जान पड़ता है ५ और अन्तिम विपयाका संतापजनक उत्तर पाकर उनके शिष्य वन म्टेशन पावापुरका मुन्दर उद्यान है। गजगृही में उस गये थे पार जिन्हान अपन वहुनम शिष्योंके माध वक्तराजा श्रेणिक गज्य करता था, जिस बिम्बमार भी भगवान जिनदीना लली थी। अस्तु । कहते हैं। उसने भगवानकी परिपदामें- समवमरण ___नीम वर्पक लम्ब विहारका ममात करत और कनमभाओं में- प्रधान भाग लिया है और उसके कृत्य होते हुए, भगवान महावीर जब पावापुरकं एक प्रश्नों पर वहुतमे रहस्योका उद्घाटन हुआ है । श्रेणिक मुन्दर उद्यानमें पहुँचे, जो अनेक पद्ममगेवरों तरा नाना प्रकारके वृक्षममूहा से मंडिन था, तब आप वहाँ - आप जम्भका ग्रामक मजुकूला नटम चनकर पहले डी प्रदशमें पाए है । इमाम धीपज्यपादाचार्यने यापकी कवल बातो कायात्मगस स्थिन हागय और आपने परम शुक्लन्यान न्पत्तिके उस कथनके अनन्तर जो अपर दिया गया है अापके वैभा के द्वारा योगनिगंध करकं दग्वरज-ममान अवशिष्ट पर्वतपर पानेकी बात कही है और नीम आपके तीम वर्षक रहे कर्म रजको-अघातिचतुष्टय को-भी अपने विहान्की गणना की है । यथा---- आन्नासे पृथक कर डाला, और इस तरह कार्तिक “अथ भगवान्मम्प्रापद्दिव्य वभारपर्वत रम्य । वदि अमावस्याके अन्तमें, स्वाति नक्षत्रके समय, चातुर्वर्य-मुमघस्नत्रामृत गौतमप्रभृति ॥१३॥ निर्वाण पदको प्राप्त करके आप सदाके लिये अजर, "दशविधमनगाएणामकादशवोनर तथा धर्म । दशयमानी व्यहरत् त्रिंशद्वर्ष ग्यथ जिनेद्रः ॥१५॥ -निर्वाणभक्ति। x कुछ श्वेताम्बरीय प्रांथानुसार 'मातुलजा'-मामूजाढ बहन । Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गशिर, वीरनि० सं०२४५६ भगवान महावीर और उनका समय अमर तथा अक्षय सौख्यको प्राप्त हो गये * । इसीका संस्कृतिक अधिकारी ही नहीं माने जाते थे और उनके नाम विदेहमुक्ति, प्रात्यन्तिक स्वात्मस्थिति, परिपूर्ण विषयमें बहुत ही निर्दय नथा घातक नियम प्रचलित सिद्धावस्था अथवा निष्कल परमात्मपदकी प्राप्ति है । थे; स्त्रियाँ भी काफी तौर पर मनाई जाती थीं, उच्च भगवान महावीर ७२ वर्ष की अवस्था में अपने इस शिक्षामे वंचिन रग्वी जाती थीं. उनके विषयमें अन्तिम ध्येयको प्राप्त करके लोकारवासी हुप । “नम्त्री स्वातंत्र्यमईति" जैमी कठोर अाज्ञाएँ जारी और आज उन्हींका तीर्थ प्रवर्त रहा है। थीं और उन्हें यथेष्ट मानवी अधिकार प्राप्त नहीं थे___ इस प्रकार भगवान महावीरका यह संक्षेपमें बहुतोंकी दृष्टिमें तो वे केवल भोगकी वस्तु, विलायकी सामान्य परिचय है, जिसमें प्रायः किमीको भी कोई चीज़, पुरुपकी सम्पत्नि अथवा वच्चा जननकी मशीन खास विवाद नहीं है। भगव जीवनीकी उभय सम्प्रदाय- मात्र रह गई थीं; ब्राह्मणोंने धर्मानुष्ठान आदिकं मव सम्बन्धी कुछ विवादग्रस्त अथवा मतभेद वाली वातां ऊँचे ऊँचे अधिकार अपने लिए रिजर्व रख छोड़े थेको मैंने पहले से ही छोड़ दिया है। उनके लिये इस दृमर लोगोंको वे उनका पा ही नहीं ममझते थे-- छोटेसे निवन्धमें स्थान भी कहाँ हो सकता है? वेता मवत्र उन्हींकी तती बालती थी, श गहरे अनमंधानको लिये हुए एक विम्तत आलोचना- उन्हान अपने लिए ग्वाम रियायतें प्राप्त कर रकबी निबन्धमें अच्छे ऊहापोह अथवा विवेचनक माथ ही थीं-- घाग्मे घोर पाप और बड़से बड़ा अपराध कर दिखलाई जानके योग्य हैं । अस्तु ।। लेनेपर भी उन्हें प्रागदगड नहीं दिया जाता था. जब देशकालकी परिस्थिति कि दृमगेको एक साधारण अपगध पर भी फोमी पर चढ़ा दिया जाता थाः ब्राह्मणोंके बिगड़े हुए जातिदेश-कालकी जिस परिस्थिति ने महावीर भगवान भंदकी दुर्गधमे देशका प्राण घट रहा था और उसका को उत्पन्न किया उसके सम्बन्ध में भी दो शब्द कहदेना विकाम क रहा था, खुद उनके अभिमान तथा जानि यहाँ पर उचित जान पड़ता है । महावीर भगवान मदन उन्हें पनिन कर दिया था और उनमें लोभके अवतारमं पहल देशका वातावरण बहुत ही क्षुब्ध, लालच, दंभ, अज्ञानना, अकर्मण्यता. ऋग्ता नथा पीड़ित नथा मंत्रस्न हो रहा था ; दीन-दुर्बल ग्व्व धर्ततादि दुर्गरगांका निवास हो गया था; व रिश्वत मताए जाते थेः ऊँच-नीचकी भावना जागं पर थी; अथवा दक्षिणाएँ लेकर परलोकके लिए सर्टिफिकेट शद्रोंसे पशुओं जैमाव्यवहार होताथा, उन्हे कोई सम्मान और पान तक देने लगे थे धर्मकी अमली भावना या अधिकार प्राप्त नहीं था, वे शिक्षा दीक्षा प्रार उच्च प्रायः लग्न हो गई थी और उनका स्थान अर्थ-हीन * जैसा कि श्रीपूज्यपादक निम्न वाक्यम भी प्रकट है: क्रियाकाण्डों तथा थार्थ विधिविधानान ले लिया 'पनवनीधिक कुल विविवदमखगडगिडत रम्ये । था; बहुनसे देवी-देवताओंकी कल्पना प्रवन हो उठी पावानगरोद्याने व्युत्सर्गण स्थितः स मुनिः ॥ १६ ॥ थी, उनके मंतुष्ट करनेमें ही सारा समय चला जाता कार्तिककृष्णस्यान्ते स्वातावृक्षे निहत्य कारजः । था और उन्हें पश्योंकी बलियाँ तक चढ़ाई जाती थी। अवशेष संप्रापद व्यजरामरमक्षयं सौव्यम् ॥ १७॥" धर्मके नाम पर सर्वत्र यज्ञ-यागादिक कर्म होते थे और निवणभक्ति। उनमें असंख्य पशुओंको होमा जाना था-जीवित Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ अनेकान्त [ वर्ष १, किरण १ ही, पीड़ितोंकी करुण पुकारको सुन कर उनके हृदय से दयाका अखंड स्रोत बह निकला। उन्होंने लोकोद्धार का संकल्प किया, लोकोद्धारका संपूर्ण भार उठाने के लिये अपनी सामर्थ्यको तोला और उसमें जो त्रुटि थी उसे बारह वर्षके उस घोर तपश्चरण के द्वारा पूरा किया जिसका अभी उल्लेख किया जा चुका है। इसके बाद सब प्रकार से शक्तिसम्पन्न होकर महावीर ने लोकोद्धार का सिंहनाद किया - लोकमें प्रचलित सभी अन्याय-अत्याचारों, कुविचारों तथा दुराचारोंके विरुद्ध आवाज उठाई और अपना प्रभाव सबसे पहले ब्राह्मण विद्वानों पर डाला, जो उस वक्त देशके 'सर्वे सर्वा:' बने हुए थे और जिनके सुधरने पर देशका सुधरना बहुत कुछ सुखमाध्य हो सकता था। आपके इस पटु सिंहनादको सुनकर. जो एकान्तका निरसन करने वाले स्याद्वादी विचार पद्धतिको लिये हुए था, लोगोंका तत्त्वज्ञान विषयक भ्रम दूर हुआ, उन्हें अपनी भूलें मालूम पड़ीं, धर्म-अधर्म के यथार्थ स्वरूपका परिचय मिला, आत्मा - अनात्माका भेद स्पष्ट हुआ और बन्ध-मोक्षका सारा रहस्य जान पड़ा; साथ ही, झूठे देवी-देवताओं तथा हिंसक यज्ञादिकों परमे उनकी श्रद्धा हटी और उन्हें यह बात साफ़ जँच गई कि हमारा उत्थान और पतन हमारे ही हाथ में है, उसके लिये किसी गुप्त शक्तिकी कल्पना करके उसीके भरोसे बैठ रहना अथवा उसको दोष देना अनुचित और मिथ्या । इसके सिवाय, जातिभेदकी कट्टरता मिटी, उदारता प्रकटी, लोगोंके हृदयमें साम्यवादकी भावनाएँ दृढ हुई और उन्हें अपने आत्मोत्कर्ष का मार्ग सुभ पड़ा। साथ ही, ब्राह्मण गुरुत्रों का आसन डोल गया, उनमें से इन्द्रभूति गौतम जैसे कितने ही दिग्गज विद्वानों ने भगवान प्रभाव से प्रभावित हो कर उनकी प्राणी धधकती हुई आगमें डाल दिये जाते थे— और उनका स्वर्ग जाना बतलाकर अथवा 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति' कहकर लोगोंको भुलावेमें डाला जाता था और उन्हें ऐसे क्रूर कर्मों के लिये उत्तेजित किया जाता था । साथ ही, बलि तथा यज्ञके बहाने लोग मांस खाते थे । इस तरह देशमें चहुँ ओर अन्यायअत्याचारका साम्राज्य था — बड़ा ही बीभत्स तथा करुण दृश्य उपस्थित था— सत्य कुचला जाता था, धर्म अपमानित हो रहा था, पीड़ितोंकी आहांके धुएँ से आकाश व्याप्त था और सर्वत्र असन्तोष ही श्रमन्तोष फैला हुआ था । यह सब देख कर सज्जनोंका हृदय तलमला उठा था, धार्मिकोंको रातदिन चैन नहीं पड़ता था और पीड़ित व्यक्ति अत्याचारों से ऊब कर त्राहि त्राहि कर रहे थे । सत्रोंकी हृदय तंत्रियोंसे 'हो कोई अवतार नया' की एक ही ध्वनि निकल रही थी और सबकी दृष्टि एक ऐसे असाधारण महात्माकी ओर लगी हुई थी जो उन्हें हस्तावलम्बन देकर इस घोर विपत्तिमे निकाले । ठीक इसी समय प्राची दिशा में भगवान महावीर भास्कर का उदय हुआ, दिशाएँ प्रसन्न हो उठी, स्वास्थ्यकर मंद सुगंध पवन बहने लगा, सज्जन तथा पीडितों के मुखमंडल पर आशाकी रेखा दीख पड़ी, उनके हृदयकमल खिल गये और उनकी नसनाड़ियोंमें ऋतुराज के आगमनकाल जैसा नवरसका संचार होने लगा । महावीरका उद्धारकार्य महावीरने लोक स्थितिका अनुभव किया, लोगों की अज्ञानता, स्वार्थपरता, उनके वहम, उनका अन्धविश्वास, और उनके कुत्सित विचार एवं दुर्व्यवहार को देखकर उन्हें भारी दुःख तथा खेद हुआ। साथ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर और उनका समय मार्गशिर, वीरनि० सं० २४५६ ] समीचीन धर्मदेशना को स्वीकार किया और वे सब प्रकार से उनके पूरे अनुयायी बन गये । भगवान ने उन्हें 'गणधर' के पद पर नियुक्त किया और अपने संघ का भार सौंपा। उनके साथ उनका बहुत बड़ा शिष्यसमुदाय तथा दूसरे ब्राह्मण और अन्य धर्मानुयायी भी जैनधर्म में दीक्षित हो गये। इस भारी विजय से क्षत्रिय गुरु और जैनधर्म की प्रभाववृद्धि के साथ साथ तत्कालीन (क्रियाकाण्डी) ब्राह्मण धर्म की प्रभा क्षीण हुई, ब्राह्मणों की शक्ति घटी, उनके अत्याचारोंमें रोक हुई, यज्ञ-यागादिक कर्म मंद पड़ गये - उनमें पशुओं के प्रतिनिधियों की भी कल्पना होने लगी- और ब्राह्मणों के लौकिक स्वार्थ तथा जाति-पांति के भेद को बहुत बड़ा धक्का पहुँचा | परन्तु निरंकुशता के कारण उनका पतन जिस तेजी से हो रहा था वह रुक गया और उन्हें सोचने विचारनेका अथवा अपने धर्म तथा परिणति में फेरफार करने का अवसर मिला । महावीरकी इस धर्मदेशना और विजयके सम्बन्ध में कवि सम्राट् डा० रवीन्द्रनाथ टागोरने जो दो शब्द कहे हैं वे इस प्रकार हैं : -- Mahavira proclaimed in India the message of Salvation that religion is a reality and not a mere social convention, thut salvation comes from taking refuge in that true religion, and not from observing the external ceremonies of the community, that religion can not regard any barrier between man and man as an eternal verity. Wondrous to relate, this teaching rapidly overtopped the barriers of the tuces' abiding instinct and conquered the whole country. For a long period now the intinence of Kshatriya touchers completely suppres sed the Brahmin power. - अर्थात्- महावीरने डंके की चोट भारतमें मुक्तिका ऐसा संदेश घोषित किया कि--धर्म यह कोई महज़ सामाजिक रूढि नहीं बल्कि वास्तविक सत्य है – वस्तु स्वभाव है, और मुक्ति उस धर्ममें आश्रय लेनेसे ही मिल सकती है, न कि समाजके बाह्य आचारोंका - विधिविधानों अथवा क्रियाकांडोंका -- पालन करनेसे, और यह कि धर्म की दृष्टिमें मनुष्य मनुष्य के बीच कोई भेद स्थायी नहीं रह सकता । होता है कि इस शिक्षणन बद्धमूल हुई जातिकी हद बन्दियोंको शीघ्र ही तोड़ डाला और संपूर्ण देश पर विजय प्राप्त किया । इस वक्त क्षत्रिय गुरुओंके प्रभावने बहुत समय के लिये ब्राह्मणोंकी सत्ताको पूरी तौर में दबा दिया था । इसी तरह लोकमान्य तिलक आदि देशके दूसरे भी कितने ही प्रसिद्ध हिन्दू विद्वानोंन, अहिंसादिक के विषयमें, महावीर भगवान अथवा उनके धर्मकी ब्राह्मण धर्मपर गहरी छापका होना स्वीकार किया है, जिनके वाक्योंकी यहाँ पर उद्धृत करने की जरूरत नहीं है । विदेशी विद्वानोंके भी बहुतसे वाक्य महावीरकी योग्यता, उनके प्रभाव और उनके शासनकी महिमा-संबंध में उद्धृत किये जा सकते हैं परन्तु उन्हें भी छोड़ा जाता है । श्रतु । वीर-शासनकी विशेषता भगवान महावीरने संसार में सुख-शान्ति थिर रखने और जनताका विकास सिद्ध करनेके लिये चार - महासिद्धान्तोंकी – १ अहिंसावाद, २ साम्यवाद, ३ अनेकान्तवाद (स्याद्वाद) और ४ कर्मवाद नामक महासत्योंकी - घोषणा की है और इनके द्वारा जन Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० अनेकान्त वर्ष १, किरण ताको निम्न बातोंकी शिक्षा दी है: दया-दम-त्याग-समाधिनिष्ठं, १ निर्भय-निवर रहकर शांति के साथ जीना तथा नय-प्रमाण-प्रकृतांजसार्थम् । दूसरोंको जीने देना, अधष्यमन्यैरखिलैः प्रवादै२ राग-द्वेष-अहंकार तथा अन्याय पर विजय प्राप्त जिन त्वदीयं मतमद्वितीयम् ॥६॥ करना और अनुचित भेद-भावको त्यागना, -युक्तयनशासन । ___३ सर्वतोमुखी विशाल दृष्टि प्राप्त करके अथवा इस वाक्यमें 'दया'को सबसे पहला स्थान दिया नय-प्रमाणका सहारा लेकर सत्यका निर्णय तथा विरो- गया है और वह ठीक ही है । जब तक दया अथवा अहिंसाकी भावना नहीं तब तक मंयममें प्रवृत्ति नहीं धका परिहार करना, होती, जब तक संयममें प्रवृत्ति नहीं तबतक त्याग नहीं ४ 'अपना उत्थान और पतन अपने हाथमें हैं' बनता और जब तक त्याग नहीं तब तक समाधि नहीं ऐसा समझते हुए, स्वावलम्बी बनकर अपना हित बनती । पूर्व पूर्व धर्म उत्तरोत्तर धर्मका निमित्त कारण और उत्कर्प साधना तथा दूसरोंके हित साधनमें मदद है। इस लिये धर्ममें दयाको पहला स्थान प्राप्त है । और इसीसे 'धर्मस्य मूलं दया' आदि वाक्यों द्वारा करना। साथ ही, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक कहनकी भी यही वजह है । और उसे परम धर्म ही दयाको धर्मका मूल कहा गया है । अहिंसाको परम धर्म चारित्रको-- तीनोंक समुच्चयको--मोक्षकी प्राप्तिका नहीं किन्तु 'परम ब्रह्म' भी कहा गया है; जैसा कि एक उपाय अथवा मार्ग बतलाया है । ये सब सिद्धांत स्वामी समन्तभद्रकं निम्न वाक्यसे प्रकट है:इतने गहन, विशाल तथा महान हैं और इनकी विम्तत "अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं ।" व्याख्याओं तथा गम्भीर विवंचनाओंसे इतने जैन -स्वयंभस्तोत्र । ग्रन्थ भरे हुए हैं कि इनके म्वम्पादि-विपयमें यहाँ । ___ और इस लिये जो परम ब्रह्मकी आराधना करना चाहता है उस अहिंसाकी उपासना करनी चाहिय---- कोई चलतीमी बात कहना इनके गौरवको घटाने गग-द्वपकी निवृनि, दया, परोपकार अथवा लोकअथवा इनके प्रति कुछ अन्याय करने जमा होगा । संवा कामों में लगना चाहिये । मनुष्यमें जबतक और इस लिये इस छोटम निबन्धमें इनके स्वरूपादि हिंमक वृत्ति बनी रहती है तबतक श्रात्मगुणोंका घात का न लिखा जाना क्षमा किये जानके योग्य है। इन हानक साथ माथ 'पापाः सर्वत्र शंकिता.' की नीतिक पर तो अलग ही विम्तन निवन्धोंके लिये जानेकी अनुमार उसमें भयका या प्रतिहिंसाकी आशंकाका सद्भाव बना रहता है। जहाँ भयका सद्भाव वहाँ वीरत्व जरूरत है । हां, स्वामी ममन्नभद्रके निम्न वाक्यानुसार नहीं--सम्यत्तव नहीं * और जहां वीरत्व नहींइतना जरूर बतलाना होगा कि महावीर भगवान पी मायगटपिको सप्त प्रकारके भयोंसे रहित बतलाया है का शासन नय-प्रमाणक द्वाग वस्तुतत्वको बिलकुल और भयको मिथ्यात्वका चिन्ह तथा स्वानुभक्की क्षतिका परिणाम स्पष्ट करने वाला और संपूर्ण प्रवादियोंक द्वारा अबा- सूचित किया है। यथाःध्य होनेके साथ साथ दया (अहिंसा), दम (संयम), "नापि स्पृष्टो सुदृष्टिगः सप्तभिर्भयैर्मनाक् ॥" त्याग और ममाधि (प्रशस्त ध्यान) इन चारोंकी तत्प- "ततो भीत्याऽनुमेयोऽस्ति मिथ्याभवो जिनागमात् । रताको लिये हुए है, और यही सब उसकी विशेषता सा च भीतिरवश्यं स्याद्धतोः स्वानुभवक्षतेः ॥" है अथवा इसी लिये वह अद्वितीय है: -पंचाध्यायी। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " मार्गशिर, वीरनि० सं० २४५६] भगवान महावीर और उनका समय सम्यक्त्व नहीं वहां आत्मोद्धारका नाम नहीं । अथवा ठीक है। महावीर भगवानका शासन अनेकान्तके यों कहिये कि भयमें संकोच होता है और संकोच प्रभावसे सकल दुर्नयों तथा मिथ्यादर्शनीका अन्त विकासको रोकने वाला है । इस लिये आत्मोद्धार (निरसन) करनेवाला है और ये दुर्नय तथा मिध्यादर्शन अथवा आत्मविकासके लिये अहिंसाकी बहुत बड़ी ही संसारमें अनेक शारीरिक तथा मानसिक दुःखजरूरत है और वह वीरता का चिन्ह है--कायरताका रूपी आपदाओंके कारण होते हैं। इस लिये जो लोग नहीं । कायरताका आधार प्रायः भय होता है, इम भगवान महावीरकं शामनका-उनकं धर्मका-श्राश्रय लिये कायर मनुष्य अहिंसा धर्मका पात्र नहीं-उसमें लेते हैं--उसे पूर्णतया अपनातेहैं--उनके मिथ्यादर्शअहिंसा ठहर नहीं सकती। वह वीरोंके ही योग्य है नादिक दूर हो कर समस्त दुःख मिट जाते हैं। और और इसी लिये महावीरकं धर्ममें उसको प्रधान स्थान व इस धर्मके प्रसादसे अपना पूर्ण अभ्युदय सिद्ध कर प्राप्त है । जो लोग अहिंमा पर कायरताका कलंक सकते हैं । महावीरकी ओरस इम धर्मका द्वार सब लगाते हैं उन्होंने वास्तवमें अहिंसाके रहस्यको समझा के लिये खुला हुआ है के, नीचसं नीच कहा जान वाला मनुष्य भी इसे धारण करके इसी लोकमें अति ही नहीं । वे अपनी निर्बलता और आत्म-विस्मृतिके उच्च बन सकता है +; इसकी दृष्टि में कोई जाति गहित कारण कपायांसे अभिभत हुए कायरताको वीरता नहीं-तिरस्कार किये जाने योग्य नहीं-एक चांडाल और आत्माके क्रोधादिक रूप पतनको ही उमका को भी व्रतसे युक्त होने पर 'ब्राह्मण' तथा मम्यग्दर्शन उत्थान समझ बैठे हैं ! ऐसे लोगों की स्थिति, निःसन्देह से युक्त होनेपर 'देव' माना गया है x ; यह धर्म इन बड़ी ही करूणाजनक है । अस्तु। जैसा कि जैनग्रन्यों के निम्न वाक्यों में ध्वनित है। स्वामी समन्तभद्रन भगवान महावीर और उनके "दीक्षायोग्यास्त्रयों वर्णाश्चतुर्थश्च विधाचित । शासनके सम्बन्धमें और भी कितने ही बहुमूल्य वाक्य मनोवाकायधर्माय मताः सर्वेऽपि जन्तवः" "उच्चावचजनप्रायः ममयोऽय जिनशिनां । कहे हैं जिनमेंमे एक सुन्दर वाक्य मैं यहां पर और उद्धृत कम्मिन्पुरुष तिष्ठदकस्तम्भ इवालयः ॥' कर देना चाहता हूं और वह इस प्रकार है: —यशस्तिलक, सोमदवः । सर्वान्तवत्तद्गणमुख्यकल्यं, "शद्रोऽप्युपस्कराचारपःशुध्यास्तु तादृशः । सर्वान्तशन्यं च मिथाऽनपेतम् । जात्या हीनाऽपि कालादिलब्धौ यात्मास्तिधर्मभाकू" -सागारधर्मामृते, आशाधरः । सर्वापदामन्तकरं निरन्तं, +यो लोके त्वा नतः सोऽतिहीनोऽप्यतिगुरुतः। सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥ ६१॥ बालोऽपि त्वात्रित नौति कोनो नीतिपुरुः कुतः ।। -युक्त्यनुशासन । -जिनशतके, समन्तभद्र. । इसमें भगवान महावीरके शासन अथवा उनके x “न जाति हिंता काचिदकागुणाः कल्याणकारण । परमागम लक्षण रूप वाक्यका स्वरूप बतलाते हुए जो व्रतस्थमपि चाण्डालं तं देवा ब्राह्मणं विदुः ।। -पप्रचरित, रविषेणः । उसे ही संपूर्ण आपदाओंका अंत करने वाला और सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातंगदेहर्ज। सबोंके अभ्युदयका कारण तथा संपूर्ण अभ्युदयका देवा देवं विदुर्भस्मगूढांगारान्तरौजसम्" हेतु ऐसा 'सर्वोदय तीर्थ' बतलाया है वह बिलकुल -रत्नाकरराडके, समन्तभदः ।। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -nor अनेकान्त [वर्ष १, किरण १ ब्राह्मणादिक जाति भेदोंको वास्तविक ही नहीं मानता दोष लग गया हो उसकी शुद्धि की और मलेच्छों किन्तु वृत्ति अथवा आचारभेदके आधार पर कल्पित तक की कुलशुद्धि करके उन्हें अपने में मिला लेने एवं परिवर्तन शील जानता है-इनका कोई शाश्वत तथा मुनि-दीक्षा आदिके द्वारा ऊपर उठानेकी स्पष्ट लक्षण भी गो-अश्वादिजातियोंकी तरह मनुष्य शरीर आज्ञाएँ भी इस शासनमें पाई जाती हैं । और इस में नहीं पाया जाता '; इसी तरह जारजका भी कोई लिये यह शासन सचमुच ही 'सर्वोदय तीर्थ' के पदको चिन्ह शरीरमें नहीं होता, जिससे उसकी कोई जुदी प्राप्त है- इस पदके योग्य इसमें सारी ही योग्यताएँ जाति कल्पित की जाय, और न महज़ व्यभिचारजात मौजूद हैं हर कोई भव्य जीव इसका सम्यक् आश्रय होनेकी वजहसे ही कोई मनुष्य नीच कहा जा सकता लेकर संसारसमुद्रसे पार उतर सकता है। है-नीचताका कारण इस धर्ममें 'अनार्य आचरण' परन्तु यह समाजका और देशका दुर्भाग्य है जो माना गया है ; वस्तुतः सब मनुष्योंकी एक ही मनुष्य जाति इस धर्मको अभीष्ट है जो मनुष्य जाति नामक आज हमने- जिनके हाथों दैवयोगसे यह तीर्थ पड़ा नाम कर्मके उदयमे होती है, और इस दृष्टिमे मब है इस महान तीर्थको महिमा तथा उपयोगिताको मनुष्य समान हैं- आपममें भाई भाई हैं--और उन्हें भुला दिया है, इस अपना घरेल, क्षुद्र या सर्वोदय तीर्थइस धर्मके द्वारा अपने विकामका पुरा परा अधिकार कासा रूप देकर इमकं चारों तरफ ऊँची ऊँची दीवारं प्राप्त है । इसके मिवाय, किमीके कुलमें कभी कोई खड़ी कर दी हैं और इसके फाटकमें ताला डाल दिया +"चातुर्वर्ण्य यथान्यच्च चाराडालादिविशेषणं । है। हम लोग न नो खुद ही इमसे ठीक लाभ उठाते पर्वमाचारभेदेन प्रसिद्धि भुवने गत" ॥ -पावरित, रविषेणः । हैं और न दूसरोंको लाभ उठाने देते हैं-महज अपने "माचारमात्रभेदन जातीनां भेदकल्पनं । नजातिवाह्मणीयास्ति नियता क्वापि तात्विकी। . जैसा कि निम्न वाक्यांम प्रकट है:-- गुगः सम्पद्यते जातिगाध्वंसेविपद्यते ।... १ कुतश्चित्कारणाद्यस्य कुल सम्प्राप्तदृपणं । --ध-परीनायां, अमितगतिः । मोपि राजादिसम्मत्या शोधयत्स्च यदा कुलम् ।। "वकृत्यादिभदानां देहऽस्मिन्न च दर्शनात् । तदाऽस्यापनयाहन्वं पुत्रपौत्रादिमन्तती । ब्राह्मग्यादिषु शूद्राद्यैर्गभधानप्रवर्तनात् ॥ न निषिद्ध हि दीक्षाहं कुलं चंदस्य पूर्वजाः ॥ नारितजातिकृताभदा मनुष्याणां गवाश्ववत । • म्वदशऽननग्म्लेच्छान प्रजाबाधाविधायिनः । माकृतियाहगालामादन्यथा परिकल्पते ।। कुलशुद्धिप्रदानाद्यैः स्वसात्कुर्यादुपक्रमः ॥ –महापुराण, गुणभद्रः । -आदिपुराणे, जिनसेनः । चिन्हानि विटजातम्य सन्ति नांगषु कानिचित् । अनार्यमाचरन किविनायते नीचयोचरः ॥ समलच्चभूमिजमनुष्याणां सकलसंयमग्रहगा कथभवति ---रविणः। नाशंकितव्यं । दिग्विजयकाले चक्रवर्तिना सह आर्यखण्डमागतान मनुष्यजातिरकव जातिकर्मादयोद्भवा । म्लेच्छराजानां चक्रवादिभिः सह जातवैवाहिकसम्बन्धानां संयमवृत्तिभेदा हि तभेदाचातुर्विध्यमिहाश्नुते॥ प्रतिपत्तरविरोधात् । अथवा तत्कन्यानां चक्रवादिपरिणीतानां गर्भेषूत्प -प्रादिपुराणे, जिनसेनः । प्रस्य मातपक्षापेक्षया म्लेच्छव्यपदेशभाजः संयमसंभवात् तथा "विप्रक्षत्रियविटशदाः प्रोक्ताः क्रियाविशेषतः । जातीयकानां दीक्षाईत्वे प्रतिषेधाभावात् ॥ जैनधर्ष पग: शक्तास्ते सर्व बान्धवोपमाः ॥ ___- -धर्मरसिके, सोमसेनोदधृतः ॥ -लब्धिसारटीका (गाथा १६३ वीं) Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गशिर, वीरनि० सं०२४५६] भगवान महावार और उनका समय थोड़ेसे विनोद अथवा क्रीड़ाके स्थल रूपमें ही हमने ऊपर होगये हैं, ऐसा ही किया है; और इसीसे कनडी इसे रख छोड़ा है और उसीका यह परिणाम है कि भाषाके एक प्राचीन शिलालेख * में यह उल्लेख जिस 'सर्वोदय' तीर्थपर रात दिन उपासकोंकी भीड़ मिलता है कि स्वामी समन्तभद्र भ० महावीरके तीर्थ और यात्रियोंका मेला सा लगा रहना चाहिये था वहाँ की हजारगुनी वृद्धि करते हुए उदयको प्राप्त हुए'श्राज सन्नाटा सा छाया हुआ है, जैनियोंकी संख्या अर्थात, उन्होंने उसके प्रभावको सारे देश-देशान्तरों में भी अंगुलियों पर गिनने लायक रह गई है और जो व्याप्त कर दिया था । आज भी वैसा ही होना चाहिये। जैनी कहे जाते हैं उनमें भी जैनत्वका प्रायः कोई स्पष्ट यही भगवान महावीरकी सच्ची उपासना, सशी भक्ति लक्षण दिखलाई नहीं पड़ता--कहीं भी दया, दम, और उनकी सच्ची जयन्ती मनाना होगा। त्याग और समाधिकी तत्परता नजर नहीं आतीलोगोंको महावीरके संदेशकी ही खबर नहीं, और "महावीर-सन्देश इसीसे संसारमें सर्वत्र दुःख ही दुःख फैला हुआ है। हमाग इस वक्त यह खास कर्तव्य है कि हम ऐसी हालतमें अब खास जरूरत है कि इस तीर्थका भगवान महावीरके सन्देशको-उनके शिक्षासमूहउद्धार किया जाय, इसकी सब रुकावटोंको दूर कर को-मालूम करें, उस पर खुद अमल करें और दूसरों दिया जाय, इस पर खुले प्रकाश तथा खुली हवाकी से अमल करानेके लिये उसका घर घरमें प्रचार करें। व्यवस्था की जाय, इसका फाटक सबोंके लिये हरवक्त बहुतसे जैनशास्त्रोंका अध्ययन, मनन और मथन करने खुला रहे, सबों के लिये इस तीर्थ तक पहुँचनेका मार्ग पर मुझे भगवान महावीरका जोसन्देश मालूम हुआ है सुगम किया जाय, इसके तटों तथा घाटोंकी मरम्मत उसे मैंने एक छोटी सी कवितामें निबद्ध कर दिया है । कराई जाय, बन्द रहने तथा अर्से तक यथेष्ट व्यवहारमें यहाँ पर उसका दे दिया जाना भी कुछ अनुचित न न आनके कारण तीर्थजल पर जो कुछ काई जम गई होगा। उससे थोड़े ही-सूत्ररूपमे-महावीर भगवान है अथवा उसमें कहीं कहीं शैवाल उत्पन्न हो गया है की बहुत सी शिक्षाओंका अनुभव हो सकेगा और उसे निकाल कर दूर किया जाय और मर्वसाधारणको उन पर चलकर उन्हें अपने जीवनमें उतारकर-हम इस तीर्थके माहात्म्यका पूरा पूरा परिचय कराया अपना तथा दूसरोंका बहुत कुछ हित साधन कर, जाय । ऐसा होने पर अथवा इस रूपमें इस तीर्थका सकेंगे । वह संदेश इस प्रकार है:उद्धार किया जाने पर आप देखेंगे कि देश-देशान्तरके यही है महावीर-सन्देश । कितने बेशुमार यात्रियोंकी इम पर भीड़ रहती है, कितने र भाड़ रहता है, कितन विपुलाचल पर दिया गया जो प्रथम धर्मउपदेश ॥१॥ विद्वान इस पर मुग्ध होते हैं, कितने असंख्य प्राणी इसका आश्रय पाकर और इसमें अवगाहन करकं । * यह शिलालेख बेलूर ताल्लुकेका शिलालेख नम्बर १७ है, जो रामानुजाचार्य-मन्दिरके महातेके अन्दर सौम्यनायकी-मन्दिरअपने दुःख-संतापोंसे छुटकारा पाते हैं और संसारमें की छतके एक पत्थर पर उत्कीर्ण है मौर शक संवत् १०५६ का कैसी सुख शांतिकी लहर व्याप्त होती है । स्वामी समन्त- लिखा हुआ है। देखो, एपिग्रेफिका कर्णालिकाकी जिल्द पाँचवीं, भद्रने अपने समयमें, जिसे आज बेबे हजार वर्षसे भी अथवा स्वामी समन्तभद्र (इतिहास) पृष्ठ ४६ मा । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ अनकान्त [वर्ष १, किरण १ "मनुजमात्र को तुम अपनाओ, हर सबके दुख-क्लेश । कुछ पुरानी गड़बड़, अर्थ समझांकी गलगी अथवा असद्भाव रक्खो न किसीसे, हो अरिक्योंन विशेष ।।२।। कालगणनाकी भुल जान पड़ती है। यदि इस गड़बड़, वैरीका उद्धार श्रेष्ठ है, कीजे सविधि-विशेष । ग़लती अथवा भलका ठीक पता चल जाय तो समय वैर छुटे, उपजे मति जिससे, वही यन यत्नेश ॥३३॥ का निर्णय सहज हीमें हो सकता है और उससे बहुत घृणा पापसे हो, पापीसे नहीं कभी लव-लेश। काम निकल सकता है। क्योंकि महावीरके समयका • भूल सुझा कर प्रेममार्गसे, करी उस पुण्येश ॥४॥ प्रश्न जैन इतिहासके लिये ही नहीं किन्तु भारतके तज एकान्त-कदाग्रह-दुर्गुण, बनो उदार विशेप । इतिहास के लिये भी एक बड़े ही महत्वका प्रश्न है । रह प्रसन्नचित सदा, करो तम मनन तत्व-उपदेश ।।। इसीसे अनेक विद्वानोंने उसको हल करनेके लिये बहत जीतो राग-द्वेष-भय-इन्द्रिय-मोह-कपाय अशेष । परिश्रम किया है और उससे कितनी ही नई नई बातें धराधैर्य, समचित्तरहो, औ' सुख-दुःखमें सविशेष ॥६॥ प्रकाशमें आई हैं । परन्तु फिर भी, इस विषयमें, उन्हें 'वीर' उपासक बनो मत्यक, तज मिथ्याऽभिनिवेश। जैमी चाहिये वैसी सफलता नहीं मिली-बल्कि कुछ विपदाओंसे मत घबराश्री, धरी न कापावेश ॥७॥ नई उलझनें भी पैदा हो गई हैं और इस लिये यह संज्ञानी-संदृष्टि बना, औ' ती भाव संक्लेश । प्रश्न अभीतक बराबर विचारके लिये चला ही जाता सदाचार पालो दृढ होकर, रहे प्रमाद न लेश सा है। मेरी इच्छा थी कि मैं इस विषयमें कुछ गहरा सादा रहनसहन-भोजन हो, सादा भूपावेष । उतरकर परी तफसील के साथ एक विस्तृत लेख लिखू विश्व-प्रेम जागृत कर उरमें, करो कर्म निःशेष।।९। परन्तु समयकी कमी श्रादिकं कारण वैसा न करके हो सबका कल्याण, भावना एमी रहे हमेश । मंक्षेपमें ही, अपनी खोजका एक मार भाग पाठकों के दया-लोकमेवा-रत चित हो, और न कुछ आदेश ।।"१० सामने रखता हूँ। श्राशा है कि सहृदय पाठक इस पर यही है महावीर सन्देश । म ही, उस गड़बड़, ग़लती अथवा भूलको मालूम महावीरका समय करके, समयका ठीक निर्णय करनेमें समर्थ हो सकेंगे। अब देखना यहहै कि भगवान महावीरको अवतार ___ आजकल जो वीर-निर्वाण-संवन् प्रचलित है और लिये कितने वर्ष हुए हैं । महावीरकी आयु कुछ कम कार्तिक शुक्ला प्रतिपदासे प्रारम्भ होता है वह २४५६ ७२ वर्षकी-७१ वर्ष, ६ मास, २८ दिनकी-थी । वर्तमान है। इस संवत्का एक आधार 'त्रिलोकसार' यदि महावीर का निर्वाण-समय ठीक मालूम हो तो की निम्न गाथा है, जो श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती का बनाया उनके अवतार ममयको अथवा जयन्तीके अवसरोंपर - उनकी वर्षगांठ-संख्याको सूचित करनेमें कुछ भी देर पणछस्सयवस्सं पणन लगे । परन्तु निर्वाण-समय अर्सेसे विवादग्रस्त चल मासज गमिय वीरणिव्वादो। रहा है-प्रचलित वीरनिर्वाण संवत् पर आपत्ति की जाती है-कितने ही देशी विदेशी विद्वानोंका उसके । विषयमें मतभेद है और उसका कारण साहित्यकी चदणवतियमडियसगमास || ८५० ॥ ग्राk: ६०५ R Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गशिर, वीरनि० स०२४५६ भगवान महावार और उनका समय इसमें बतलाया गया है कि 'महावीरके निर्वाण से और यही इस वक्त प्रचलित वीर निर्वाण मंबन की ६०५ वर्ष ५ महीने बाद शक राजा हुआ, और शक वर्षसंख्या है । शक संवत् और विक्रम संवत्में १३५ राजासे ३९४ वर्ष ७ महीने बाद कल्की राजा हुआ ।' वर्षका प्रसिद्ध अन्तर है । यह १३५ बर्षका अन्तर यदि शक राजाके इस समयका समर्थन ‘हरिवंशपुराण' उक्त ६०५ वर्षसे घटा दिया जाय तो अवशिष्ट ४७० नामके एक दूसरे प्राचीन ग्रन्थसे भी होता है जो वर्षका काल रहता है, और यही वीरनिर्वाणके बाद त्रिलोकसारस प्रायः दो सौ वर्ष पहलेका बना हुआ विक्रम संवत्की प्रवृत्तिका काल है, जो ईस्वी सनसे है और जिसे श्रीजिनसेनाचार्यन शक सं० ७०५ में ५२७ वर्ष पहले वीरनिर्वाणका होना बतलाता है। और बना कर समाप्त किया है । यथा : जिसे दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदाय वर्षाणां पटशतीं त्यक्त्वा पंचाग्रां मामपंचकम्! मानते हैं । मुक्तिं गते महावीरे शकराजस्ततोऽभवत् । अब मैं इतना और बतला देना चाहता हूँ कि त्रि १०.५४ लोकसारकी उक्त गाथामें शकराजाके समयका-वीरइतना ही नहीं, बल्कि और भी प्राचीन ग्रन्थोंमें र निर्वाणसे ६०५ वर्ष ५ महीने पहलेका-जो उल्लेख इस समयका उल्लेख पाया जाता है, जिसका एक है उसमें उसका राज्यकाल भी शामिल है; क्योंकि उदाहरण त्रिलोकप्रज्ञप्ति' का निम्न वाक्य है एक तो यहाँ 'सगराजो' के बाद 'तो' शकका प्रयोग हिमाणे वीर जणे छवाससदेम पचवारिसेस। किया गया है जो 'ततः' ( तत्पश्चात् ) का वाचक है पणमासेमु गदेमु संजादो सगणिो अहवा।। और उससे यह स्पष्ट ध्वनि निकलती है कि शकराजा - की सत्ता न रहने पर अथवा उमकी मृत्युसे ३९४ वर्ष शकका यह समय ही शक मंवतकी प्रवृत्तिका काल है, और इसका समर्थन एक पुरातन श्लोकस भी ७ महीने बाद कल्की राजा हुआ। दूसरे, इस गाथामें होता है, जिम श्वतम्बराचार्य श्रीममतंगने अपनी कल्कीका जो समय वीरनिर्वाण से एक हजार वर्ष तक (६०५ वर्ष ५ मास+६९४ व०७ मा०) बतलाया गया 'विचारश्रेणिक' में निम्न प्रकारम -द्धृत किया है:श्रीवारनिर्व तेवः पड़भिः पंचात्तमैः शतः। १ है उसमें नियमानुसार कल्की का राज्य काल भी श्रा - जाता है, जो एक हजार वर्षके भीतर सीमित रहता है। शाकसवत्सरस्येपा प्रवृत्तिभरतेऽभवत् ॥ _ और तभी हर हजार वर्ष पीछे एक कल्की के होने का ___ इसमें, स्थल रूपसे वर्षोंकी ही गणना करते हुए, साफ लिखा है कि ' महावीरके निर्वाणसे ६८५ वर्ष वह नियम बन सकता है जो त्रिलोकसारादि ग्रंथों के बाद इस भारतवर्षमें शक संवत्सरकी प्रवत्ति हुई। निम्न वाक्यों में पाया जाता है:शक संवतके इस पूर्ववर्ती समयको वर्तमान शक संवत इदि पडिसहस्सवम् वीस १८५१ में जोड़ देनसे २४५६ की उपलब्धि होती है। ककीणदिक्कमे परिमो। जलमंथणो भविस्सदि १ त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें शककालका कुछ और भी उल्लेख पाया जाता है और इसीसे यहाँ 'प्रथवा' शब्दका प्रयोग किया गया है । कक्की सम्मग्गमत्थणा ।। ८५७।। परन्तु उस उल्लेख का किसी दूसरी जगह मे समर्थन नहीं होता। -त्रिलोकमार। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ अनकान्त [वर्ष१, किरण १ मुक्तिं गते महावीरे प्रतिवर्षसहस्रकम् । इसी तरह पर यह भी स्पष्ट है कि हरिवंशपुराण और एकैको जायते कन्की निनधर्म विरोधकः ॥ त्रिलोकप्रज्ञप्ति के उक्त शक-काल-सूचक पद्यों में जो -हरिवंशपुराण। क्रमशः 'अभवत्' और 'संजाद' (संजातः) पदों का एवं वस्ससहस्से पह ककी हवेइ इकेको। प्रयोग किया गया है उनका हुआ'-शकराजा हुआ -त्रिलोकप्रज्ञप्ति । अर्थ शक कालकी समाप्ति का सूचक है, प्रारंभसूचक इसके सिवाय, हरिवंशपुराण तथा त्रिलोकप्रज्ञप्ति नहीं। और त्रिलोकसार की गाथा में इन्हीं जैसा कोई में महावीर के पश्चात् एक हजार वर्षके भीतर होनेवाले क्रियापद अध्याहन (understood) है। राज्यों के समय की जो गणना की गई है उसमें साफ़ यहाँ पर एक उदाहरण द्वारा मैं इस विषय को तौर पर कल्किराज्य के ४२ वर्ष शामिल किये गये हैं। और भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ । कहा जाता है और ऐसी हालत में यह स्पष्ट है कि त्रिलोकसार की उक्त श्राम तौर पर लिखने में भी आता है कि भगवान गाथा में शक और कल्की का जो समय दिया है वह पार्श्वनाथ से भगवान महावीर ढाई सौ (२५०) वर्ष के अलग अलग उनके राज्य कालकी समाप्ति का सूचक बाद हुए । परंतु इस ढाई सौ वर्ष बाद होने का क्या है। और इसलिये यह नहीं कहा जा सकता कि शक अर्थ ? क्या पार्श्वनाथ के जन्म से महावीर का जन्म राजा का राज्यकाल वीरनिर्वाण से ६०५ वर्ष ५ महीने ढाई सौ वर्ष बाद हुआ ? या पार्श्वनाथ के निर्वाण से बाद प्रारंभ हुआ और उसकी-उसके कतिपय वर्षात्मक महावीर का जन्म ढाई सौ वर्ष बाद हुआ ? अथवा स्थितिकाल की समाप्ति के बाद ३९४ वर्ष ७ महीने पार्श्वनाथ के निर्वाण में महावीर को केवलज्ञान ढाईसौ और बीतने पर कल्किका गज्यारंभ हुआ। ऐसा कहने वर्ष बाद उत्पन्न हुआ ? तीनों में में एक भी बात सत्य पर कल्किका अस्तित्वसमय वीरनिर्वाण से एक हजार नहीं है । तब सत्य क्या है ? इसका उत्तर श्रीगुणभद्रावर्ष के भीतर न रहकर १५०० वर्ष के करीब होजाता चार्य के निम्न वाक्य में मिलता है:है और उससे एक हजार की नियत संख्या में तथा पार्श्वेश-तीर्थ-पन्ताने दूसरे प्राचीन ग्रन्थोक कथन में भी बाधा आती है और पंचाशदद्विशताब्दक। एक प्रकारसे मारी ही कालगणना विगड़ जाती है। तदभ्यन्तरवत्याय. * श्रीयुत के.पी. जायसवाल बैरिष्टर पटना ने, जुलाई सन् महावीरोऽत्र नातवान् ।। २८६ ॥ १६१७की इन्डियन ऍटिक्वरी में प्रकाशित अपने एक लेख में, हरि महापुराण, ७४वाँ पर्व । वशपुराणके — द्विक्वारिंशदेवातः कल्किाजस्यराजता ' वाक्य के इसमें बतलाया है कि 'श्रीपार्श्वनाथ तीर्थकर से सामने मौजूद होते हुए भी जो यह लिख दिया है कि इस पुराणमें ढाई सौ वर्षके बाद, इसी समय के भीतर अपनी श्रायु कल्किराज्य के नहीं दिये, यह बड़े ही प्राची की बात है। वीरभ मापका इस पुराण के माधार पर गुप्तराज्य भौर कल्किराज्य के बीच ४२ वर्ष का अन्तर बतलाना मोर कल्कि के मस्तकाल को नाथ के निर्वाण से महावीर का निर्वाण ढाई सौ वर्ष उसका उदयकाल Krise of Kalki) सूचित कर देना बत बड़ी के बाद हुआ । इस वाक्य में 'तदभ्यन्तरवत्योयुः' (इसी ग्लती तथा भूल है। समय के भीतर अपनी आयु को लिये हुए) यह पद Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गशिर, वीरनि० सं० २४५६] भगवान महावीर और उनका समय महावीरका विशेषण है । इस विशेषण-पदके निकाल सहस्र वर्षाणां प्रभवति हि पंचाशदधिके । देनेसे इस वाक्यकी जैसी स्थिति रहती है और जिस समाप्त पंचम्यामवति धरिणी मुंजनपतौ , स्थितिमें आम तौर पर महावीरके समयका उल्लेख किया सिते पक्षे पोपे बुधहितमिदं शास्त्रमनघम् ।। जाता है ठीक वही स्थिति त्रिलोकसारकी उक्त गाथा तथा हरिवंशपराणादिकके उन शककालसचक पद्यों इसमें, 'सुभाषितरत्नसंदोह' नामक ग्रन्थको की है। उनमें शकराजाके विशेषण रूपसे ' तदभ्यन्तर समाप्त करते हुए, स्पष्ट लिखा है कि विक्रम राजा के वायुः' इस आशयका पद अध्याहृत है, जिसे अर्थका स्वगोरोहणके बाद जब १०५० वाँ वर्ष (संवत्) बीत स्पष्टीकरण करते हुए ऊपरसे लगाना चाहिये । बहुत रहा था और राजा मुंज पृथ्वीका पालन कर रहा था सी कालगणनाका यह विशेषण-पद अध्याहृत रूपमें उस समय पौष शुक्ला पंचमीके दिन यह पवित्र तथा ही प्राण जान पड़ता है । और इसलिये जहाँ कोई हितकारी शास्त्र समाप्त किया गया है। इन्हीं अमितबात स्पष्टतया अथवा प्रकरणसे इसके विरुद्ध न हो गति प्राचार्यने अपने दूसरे ग्रन्थ 'धर्मपरीक्षा' की वहाँ ऐसे अवसरोंपर इस पदका आशय ज़रूर लिया समापिका समय इस प्रकार दिया है:जाना चाहिये । अस्तु । संवन्सराणां विगते सहस्र ___ जब यह स्पष्ट हो जाता है कि वीरनिर्वाणसे ६०५ ससप्ततौ विक्रमपार्थिवस्य । वर्ष ५ महीने पर शकराजाके राज्यकालकी समाप्ति हुई इदं निषिध्यान्यमतं समाप्तं और यह काल ही शक संवतकी प्रवृत्तिका काल है जैनेन्द्रधर्मामृनयुक्तिशास्त्रम् ॥ जैसा कि ऊपर जाहिर किया जा चुका है-तब यह इस पद्यमें, यद्यपि, विक्रम संवत् १०७० में ग्रन्थ म्वतः मानना पड़ता है कि विक्रम राजाका राज्यकाल की ममाप्तिका उल्लेख है और उसे स्वर्गारोहण अथवा भी वीरनिवाणस ४७० वर्ष के अनन्तर समाप्त हो गया मृत्यका संवत ऐसा कुछ नाम नहीं दिया; फिर भी इस था और यही विक्रम संवतकी प्रवृत्तिका काल है- पद्य को पहले पद्यकी रोशनीमें पढ़नेसे इस विषयमें तभी दोनों संवतोंमें १३५ वर्षका प्रसिद्ध अन्तर कोई संदेह नहीं रहता कि अमितगति प्राचार्यने प्रचबनता है। और इसलिये विक्रम संवतको भी विक्रमके लित विक्रम संवत का ही अपने ग्रंथों में प्रयोग किया जन्म या राज्यारोहणका संवन न कहकर, वीरनिवोण है और वह उस वक्त विक्रमकी मृत्यका संवत् माना या बुद्धनिर्वाण संवतादिककी तरह, उसकी स्मृति या जाता था। मैंवत्के साथमें विक्रमकी मृत्युका उल्लेख यादगारमें कायम किया हुआ मृत्यु संवत् कहना किया जाना अथवा न किया जाना एक ही बात थीचाहिये । विक्रम संवत् विक्रमकी मृत्युका संवत् है, उससे कोई भेद नहीं पड़ता था-इसीलिये इस पद्यमें यह बात कुछ दूसरे प्राचीन प्रमाणोंसे भी जानी जाती उसका उल्लेख नहीं किया गया । पहले पद्य में मुंज के है, जिसका एक नमूना श्रीअमितगति आचार्यका राज्यकालका उल्लेख इस विषयका और भी खास तौर यह वाक्य है: से ममर्थक है; क्योंकि इतिहास से प्रचलित वि०संवन् ममारूढे वृतत्रिदशवसतिं विक्रमनृपे १०.५० में मुंजका गज्यामीन होना पाया जाताहै । और Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण १ इसलिये यह नहीं कहा जा सकता कि अमितगति ने लेखों में एक शिलालेख इससे भी पहिले विक्रम संवत् प्रचलित विक्रम संवत् से भिन्न किसी दूसरे ही विक्रम के उल्लेख को लिये हुए है और वह चाहमान चण्ड संवत् का उल्लेख अपने उक्त पद्यों में किया है । ऐसा महासेनका शिलालेख है, जो धौलपुरसे मिला है और कहने पर मृत्युसंवत् १०५० के समय जन्मसंवन् जिसमें उसके लिखे जानेका संवत् ८९८ दिया है; जैसा ११३० अथवा राज्यसंवत् १११२ का प्रचलित होना कि उसके निन्न अंश से प्रकट है:ठहरता है और उस वक्त तक मुंज के जीवित रहने का वमनव अष्टौ वर्षागतस्य कालस्य विक्रमाख्यस्य । काई प्रमाण इतिहास में नहीं मिलता । मुंजके उत्तरा यह अंश विक्रम संवन् को विक्रमकी मृत्युका संवत् धिकारी राजा भोज का भी वि० सं० १११२ से पूर्व ही । देहावसान होना पाया जाता है। बतलाने में कोई बाधक नहीं है और न 'पाइअलच्छी अमितगति आचार्यके समय में, जिमे श्राज साढ़े नाम माला' का 'विक्कम कालस्स गए अउणत्ती [एणवी नौ सौ वर्ष के करीब होगये हैं, विक्रम संवन विक्रमकी सुत्तर सहस्सम्मि' अंश ही इसमें कोई बाधक प्रतीत होता है, बल्कि ये दोनों ही अंश एक प्रकार से साधक मत्यु का संवत् माना जाता था यह बात उनसे कुछ जान पड़ते हैं; क्योंकि इनमें जिस विक्रम कालके बीतने समय पहल के बने हुए देवसेनाचार्य के ग्रन्थों से भी प्रमाणित होती है । देवसेनाचार्यने अपना 'दर्शनमार' की बात कही गई है और उसके बादके बीते हुए वर्षों ग्रंथ विक्रम संवत ९९० में बनाकर समाप्त किया है। की गणना की गई है वह विक्रम का अस्तित्व कालइममें कितने ही स्थानोंपर विक्रम संवन का उल्लेख करतं उसकी मृत्यु पर्यंतका समय-ही जान पड़ता है । उसी का मृत्युकं बाद बीतना प्रारंभ हुआ है । इसके सिवाय, हुए उसे विक्रम की मृत्युका संवत् सूचित किया है। " जेमा कि इसकी निम्न गाथाओं से प्रकट है:- दशनसारमें एक यह भी उल्लेख मिलता है कि उसकी - गाथाएँ पर्वाचार्योंकी रची हुई हैं और उन्हें एकत्र संचय छत्तीसे वरिससये विक्रमरायस्स मरणपत्तस्स। करके ही यह ग्रंथ बनाया गया है । यथाः सोरटे बलहीए उप्पएणो सेवडो संघो । ११॥ पंचसए छब्बीसे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । पव्वायरियकयाई गाहाई संचिऊण एयत्थ । दक्षिणमहुराजादोदाविडसंघो महामोहो॥२॥ सिरिदेवसणगणिणा धाराए संवसंतेण ॥४६॥ सत्तसए तेवराणे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स। रइओ दसणसारोहारो भव्वाण णवसरणवए। णंदियडे वरगामे कहो संघो मुणेयव्वो ॥३८॥ सिरिपासणाहगेहे मुविमुद्धे माहसुद्धदसमीए॥५० विक्रम संवत्के उल्लेख का लिये हुए जितन प्रन्थ इससे उक्त गाथाओं के और भी अधिक प्राचीन अभी तक उपलब्ध हुए हैं उनमें, जहाँ तक मुझे मालम होने की संभावना है और उनकी प्राचीनता से विक्रम है, सबसे प्राचीन ग्रंथ यही है । इससे पहले धनपालकी संवत् को विक्रमकी मृत्युका संवत् मानने की बात और 'पाइअलच्छी नाममाला' (वि०सं०१०१९) और उससे भी ज्यादा प्राचीन हो जाती है । विक्रम संवत् की यह भी पहले अमितगति का 'सुभाषितरत्नसंदोह' ग्रंथ मान्यता अमितगतिके बाद भी अर्से तक चली गई पुरातत्त्वज्ञों द्वारा प्राचीन माना जाता था । हाँ, शिला- मालूम होती है । इसीसे १६वीं शताब्दी तथा उसके Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गशिर, वीरनि० सं० २४५६] भगवान महावीर और उनका समय करीब के बने हुए प्रन्थोमें भी उसका उल्लेख पाया जाता दूसरी पट्टावली में जो प्राचार्यों के समय की गणना है, जिसके दो नमूने इस प्रकार है: विक्रमके राज्यारोहण कालसे-उक्त जन्म कालमें १८ "मते विक्रमभपाले सप्तविंशतिसंयुते । की वृद्धि करके की गई है वह सब उक्त शककालको दशपंचशतेऽन्दानामतीते शृणतापरम् ॥१५७ और उसके आधार पर बने हुए विक्रमकालको ठीक ल डामतमभदेकं ................ ॥ १५८ ॥ न समझनेका परिणाम है, अथवा यो कहिये कि पार्श्व-रत्ननन्दिकृत, भद्रबाहुचरित्र। नाथके निर्वाणसे ढाईसौ वर्ष बाद महावीरका जन्म "सषत्रिंशे शतेऽब्दानां मते विक्रमराजनि । या केवलज्ञानको प्राप्त होना मान लेने जैसी ग़लती है । सौराष्ट्र वल्लभीपर्यामभत्तत्कथ्यते मया॥१८८ ऐसी हालतमें कुछ जैन, अजैन तथा पश्चिमीय और पर्वीय विद्वानांने पट्टावलियोंको लेकर जो प्रचलित वीर -वामदेवकृत, भावसंग्रह । इम संपूर्ण विवेचन परसे यह बात भले प्रकार स्पष्ट निर्वाण संवत् पर यह आपत्ति की है कि 'उसकी वर्ष होजाती है कि प्रचलित विक्रम संवत् विक्रमकी मृत्युका संख्या १८ वर्ष की कमी है जिसे पूरा किया जाना मंवत है, जो वीरनिर्वाणसे ४७० वर्षके बाद प्रारंभ चाहिये' वह समीचीन मालूम नहीं होती, और इसलिये होता है । और इसलिये वीरनिर्वाण से १७० वर्ष बाट मान्य किये जानेके योग्य नहीं । उसके अनुसार वीर विक्रम राजाका जन्म होने की जो बात कही जाती है । निर्वाणसे ४८८ वर्ष बाद विक्रम संवत्का प्रचलित होना और उसके आधार पर प्रचलित वीरनिर्वाण संवन् पर माननेसे विक्रम और शक संवतोंके बीच जो १३५ वर्ष आपत्ति की जाती है वह ठीक नहीं है। और न यह का प्रसिद्ध अन्तर है वहभी बिगड़ जाता है-सदोप का प्रार बात ही ठीक बैठती है कि इम विक्रम ने १८ वर्षकी ठहरता है--अथवा शककाल पर भी आपत्ति लाजिमी अवस्था में गज्य प्राप्त करकं उसी वक्त में अपना संवत आती है, जिस पर कोई आपत्ति नहीं की गई और न प्रचलित किया है। ऐमा माननके लिये इतिहास में कोई यह मिद्ध किया गया कि शकगजाने भी वीरनिवागम भी समर्थ कारण नहीं है। हो सकता है कि यह एक " ६५ वर्ष ५ महीनेके बाद जन्म लेकर १८ वर्षकी विक्रमकी बातको दूसरे विक्रमके साथ जोड़ देनेका ही अवस्थामें राज्याभिषेक समय अपना संवन प्रचलिन नतीजा हो । इमके सिवाय, नन्दिमंघकी एक पट्टावली किया है-प्रत्युन इसके, यह बात ऊपरके प्रमाणोंमे मिद्ध में-विक्रमप्रबन्धमें भी-जो यह वाक्य दिया है कि है कि यह समय शकराजाके राज्यकालकी समाप्ति का समय है । माथ ही, श्वेताम्बर भाइयोंने जो वीरसत्तरिचदुसदजत्तो निर्वाणसे ४७० वर्ष बाद विक्रमका राज्याभिषेक माना जिणकाला विकमो हवइ जम्मो।" । __ है और जिसकी वजहमे प्रचलित वीरनिर्वाण मंवन अर्थान-- जिनकालसे ( महावीरके निर्वाणसे) में १८ वर्षके बढ़ानेकी भी कोई जरूरत नहीं रहती उम पविक्रमजन्म ४७० वर्षके अन्तरको लिये हुए है और क्यों ठीक न मान लिया जाय, इसका कोई समाधान १ विक्रमजन्मका प्राशय यदि विक्रमकाल अथवा विक्रमसंक्नकी 'यथा:-विकमरज्जारभा १(प.)रमो सिरिवीर निव्वुई भगिया । उत्पत्तिसे लिया जाय तो यह कथन ठीक हो सकता है । क्योंकि मन-मणि-वेय-जुलो विकमकालाउ जिणकाली। विक्रम संवत् की उत्पत्ति विक्रमकी मृत्यु पर हुई पाई जाती है। -क्विारश्रेणि। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण १ नहीं होता। इसके सिवाय, जार्लचाटियरकी यह आपकी यह आपत्ति भी निःसार है और वह किसी आपत्ति बराबर बनी ही रहती है कि वीरनिर्वाणसे तरह भी मान्य किये जानेके योग्य नहीं। ४७० वर्षके बाद जिस विक्रमराजा का होना बतलाया अब मैं यह वतला देना चाहता हूँ कि जॉर्लचाजाता है उसका इतिहास में कहीं भी कोई अस्तित्व टियरने, विक्रम संवत को विक्रम की मृत्युका संवत् नहीं है * । परन्तु विक्रमसंवतको विक्रमकी मृत्युका न समझते हुए और यह जानते हुए भी कि श्वेताम्बर मंवत मान लेने पर यह आपत्ति कायम नहीं रहती; भाइयोन वीरनिर्वाण से ४७० वर्ष बाद विक्रम का क्योंकि जार्लचापेंटियग्ने वीरनिर्वाणमे ४१० वर्पके गज्यारंभ माना है, वीरनिर्वाणसे ४५० वर्ष बाद जो वाद विक्रम गजाका गज्यारंभ होना इतिहाससे सिद्ध विकमका राज्यारंभ होना बतलाया है वह केवल उनकी माना है x | और यही समय उसके गज्यारंभ का निजी कल्पना अथवा खोज है या काई शास्त्राधार भी मत्य मंवत माननमे आता है; क्योंकि उसकाराज्यकाल उन्हें इसके लिये प्राप्त हुआ है। शास्त्राधार जरूर मिला ६० वर्ष तक रहा है । मालम होता है जार्लचाटियर है और उससे उन श्वेताम्बर विद्वानोंकी ग़लतीका भी के सामने विक्रम संवतके विषय में विक्रमकी मृत्यु का पता चल जाता है जिन्होंने जिनकाल और विकमकाल मंवत होनेकी कल्पना ही उपस्थित नहीं हुई और इमी के ४७८वपके अन्तर की गणना विकमके राज्याभिषेक लिये आपने वीरनिर्वाण में ४१० वर्ष के बाद ही विक्रम से की है और इस तरह विकम संवत को विकम के मंवत का प्रचलित होना मान लिया है और इस भूल गज्यारोहण का ही संवन बतला दिया है । इस विषय तथा ग़लतीके आधार पर ही प्रचलित वीरनिर्वाण मंवन का बलासा इस प्रकार है - पर यह आपत्ति कर डाली है कि उसमें ६० वप बढ़े वताम्बराचार्य श्रीमेमतंगन, अपनी विचारश्रेणि' हुए हैं। इस लिये उमे ६० वर्ष पीछे हटाना चाहिये- मे-जिम स्थविगवली' भी कहते है, 'जं रयणि कालअर्थात इस ममय जो २४५६ संवत प्रचलित है उसमे गया' आदि कुछ प्राकृत गाथाओ के आधार पर यह ६० वर्ष घटाकर उमे २३०६ बनाना चाहिये । अत' प्रतिपादन किया है कि-'जिस गत्रिका भगवान महा वीर पावापुर में निर्वाणको प्राप्त हुए उमी रात्रि को इस पर बैरिष्टर कपी जायसवाल ने जो यह कन्पना की है। कि मातकीर्गा द्वितीय का पुत्र ‘पुलमायि' ही जैनियो का विक्रम है उज्जयिनीमे चंडप्रद्योतका पुत्र 'पालक' राजा राज्याभिअनियोन उपक दमर नाम बिलवय' को लेकर और यह ममभकर पिक्त हुआ, इसका राज्य ६० वर्ष तक रहा, इसके कि इसमें 'क' का 'ल' गया है उम 'विक्रम' बना डाला है बाद कूमशः नन्दो का गज्य १५५ वर्ष, मौर्योका १०८, बरकोरी कल्पना की कपना जान पनी है ।की में भी उमका पापमित्रका ३०, बलमित्र-भानमित्रका ६०, नभोवाहन समर्थन नही होता । (बैग्नि मा० की इम कन्चनाक लिये देखी (नरवाहन) का ४०;गर्दभिल्लका १३ और शकका ४ वर्ष जनसाहित्यमगोधक क प्रथम पड का चौथा अक)। राज्य रहा । इस तरह यह काल ४७० वर्षका हुआ। ____x दायो, जालचाटियग्का वर प्रसिद्ध लेख जो इन्टियन इमैके बाद गर्दभिल्लके पत्र विक्रमादित्यका राज्य ६०वर्ष, एगिटकरी ( जिल्द ४३वी, मन १९१४) की जून,जुलाई मोर अगस्त की मच्याओं में प्रकाशित हुआ है और जिसका गुजराती अनुवाद धर्मादित्यका ४०, भाइल्लका ११, नाइल्लका १४ और जनसाहित्यमगोधक के दूसरे ग्बड के द्वितीय अक में निकला है। नाहडका १० वर्ष मिलकर १३५ वर्षका दूसरा काल 1OT Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गशिर, वीरनि० सं० २४५६ ] हुआ। और दोनों मिलकर ६०५ वर्षका समय महावीर के निर्वाण बाद हुआ । इसके बाद शकोंका राज्य और शकसंवत् की प्रवृत्ति हुई, ऐसा बतलाया है।' यही वह परम्परा और कालगणना है जो श्वेताम्बरों में प्राय: करके मानी जाती है । भगवान महावीर और उनका समय २१ गाथा परसे अनुवादित किया गया है । अस्तु; इस श्लोक में बतलाया है कि 'महावीरके निर्वाणसे १५५ वर्ष बाद चंद्रगुप्त राज्यारूढ हुआ'। और यह समय इतिहास के बहुत ही अनुकूल जान पड़ता है। विचारश्रेणि की उक्त कालगणनामें १५५ वर्षका समय सिर्फ नन्दोंका और उससे पहले ६० वर्षका समय पालकका दिया है। उसके अनुसार चंद्रगुप्तका राज्यारोहण-काल वीर - निर्वाण से २१५ वर्ष बाद होता था परंतु यहाँ १५५ वर्ष बाद बतलाया है, जिससे ६० वर्ष की कमी पड़ती है। मेरुतुंगाचार्यने भी इस कमीको महसूस किया है। परन्तु वे हेमचन्द्राचार्य के इस कथनको गलत साबित नहीं कर सकते थे और दूसरे प्रन्थोंके साथ उन्हें साफ़ विरोध नजर आता था, इसलिये उन्हों ने 'तचिन्त्यम' कहकर ही इस विषयको छोड़ दिया है। परंतु मामला बहुत कुछ स्पष्ट जान पड़ता है। हेमचंद्रने ६० वर्षकी यह कमी नन्दोंक राज्यकालमें की है-उनका राज्यकाल ९५ वर्षका बतलाया है—क्योंकि नन्दोंसे पहले उनके और वीरनिर्वाण के बीच में ६० वर्षका समय कूरिंणक आदि राजाश्रोका उन्होंने माना ही है। ऐस मालुम होता है कि पहलेसे वीरनिर्वाण के बाद १५५ वर्षके भीतर नन्दोंका होना माना जाता था परन्तु उसका यह अभिप्राय नहीं था कि वीरनिर्वाणके ठीक बाद नन्दोंका राज्य प्रारंभ हुआ, बल्कि उनसे पहिले उदायी तथा कूणिकका राज्य भी उसमें शामिल था । परन्तु इन राज्योंकी अलग अलग वर्ष गणना साथमें न रहने आदिके कारण बादको ग़लतीसे १५५ वर्ष की संख्या अकेले नन्दराज्य के लिये रूढ़ होगई । और उधर पालक राजाके उसी निर्वाण रात्रिको अभिषित होने की जो महज एक दूसरे राज्यकी विशिष्ट घटना थी उसके साथमें राज्यकालके ६० वर्ष जुड़कर वह गलती परन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदाय के बहुमान्य प्रसिद्ध विद्वान् श्रीहेमचन्द्राचार्यके 'परिशिष्ट पर्व' से यह मालूम होता है कि उज्जयिनीकें राजा पालकका जो समय (६० वर्ष) ऊपर दिया है उसी समय मगधकं सिंहासन पर श्रेणिकके पुत्र कूणिक (अजातशत्रु) और कूणिक के पुत्र उदायका क्रमशः राज्य रहा है। उदायोके निःसन्तान मारे जाने पर उसका राज्य नन्दको मिला । इसीसे परिशिष्ट पर्वमें श्रीवर्द्धमान महावीरकं निर्वाण से ६० वर्ष के बाद प्रथम नन्दराजाका राज्याभिषिक्त होना लिखा है । यथा:अनन्तरं वर्धमानस्वामिनिवारणवासरात् । गतायां षष्ठिवत्सयमेषनन्दोऽभवनृपः ।। ६ ६-२४३ इसके बाद नन्दों का वर्णन देकर, मौर्यवंशके प्रथम राजा मम्राट चंद्रगुप्रके राज्यारंभका समय बतलाते हुए, श्रीहेमचन्द्राचार्यने जो महत्वका लोक दिया है. वह इस प्रकार है: एवं च श्रीमहावीरमुक्तेवषशतं गते । पंचपंचाशदधिके चन्द्रगुप्तोऽभवनृपः ।। ८-३३६ इस श्लोक पर जार्ल चापेंटियरने अपने निर्णयका खास आधार रक्खा है और डा० हर्मन जैकोबी के कथनानुसार इसे महावीर - निर्वाण के सम्बन्धमें अधिक संगत परम्परा का सूचक बतलाया है । साथही, इसकी रचना परसे यह अनुमान किया है कि या तो यह लोक किसी अधिक प्राचीन प्रन्थ परसे ज्यों का त्यों उद्धृत किया गया है अथवा किसी प्राचीन Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ अनेकान्त इधर मगधकी कालगणनामें शामिल हो गई । इस तरह भूलोंके कारण कालगणना ६० वर्षकी वृद्धि हुई और उसके फलस्वरूप वीरनिर्वाणसे ४७० वर्ष बाद विक्रमका राज्याभिषेक माना जाने लगा। हेमचन्द्राचार्यने - भूलको मालूम किया और उनका उक्तप्रकारसे दो में ही सुधार कर दिया है। बैरिष्टर काशीप्रसाद (के.पी.) जी जायसवालने, जार्लचापेंटियरके लेखका विरोध करते हुए, हेमचन्द्राचार्य पर जो यह आपत्ति की है कि उन्होंने महावीरके निर्वाणके बाद तुरत ही नन्द वंशका राज्य बतला दिया है, और इस कल्पित धार पर उनके कथनको 'भूलभरा तथा अप्रामाणिक' तक कह डाला है उसे देखकर बड़ा ही आश्चर्य होता है। हमें तो बैरिष्टर साहबकी ही साफ़ भूल नजर है। मालूम होता है उन्होंने न तो हेमचंद्रके परिशिष्ट पर्व को ही देखा है और न उसके छठे पर्वके उक्त श्लोक नं०२४३ के अर्थ पर ही ध्यान दिया है, जिसमें साफ़ तौर पर वीरनिर्वाण ६० वर्षके बाद नन्द राजा का होना लिखा है । अस्तु; चन्द्रगुप्त के राज्यारोहण - समयकी १५५ वर्षमंख्या में आगे के २५५ वर्ष जोड़देन से ४१० हाजात हैं, और यही वीरनिर्वाण से विक्रमका राज्यारोहणकाल है | परंतु महावीरकाल और विकूमकालमें ४७० वर्ष का प्रसिद्ध अन्तर माना जाता है, और वह तभी बन सकता है, जबकि इस राज्यारोहणकाल ४१० में राज्यकालके ६० वर्ष भी शामिल किये जावें । ऐसा किया जाने पर विक्रमसंवत् विक्रमकी मृत्युका संवत् होजाता है और फिर सारा ही झगड़ा मिट जाता है। वास्तव में, विक्रमसंवत्‌को विक्रमके [ वर्ष १, किरण राज्याभिषेकका संवत् मान लेनेकी ग़लतीसे यह सारी गड़बड़ फैली है । यदि वह मृत्युका संवत् माना जाता तो पालकके ६० वर्षों को भी इधर शामिल होनेका अवसर न मिलता और यदि कोई शामिल भी करलेता तो उसकी भूल शीघ्र ही पकड़ ली जाती । परन्तु राज्याभिषेक के संवत् की मान्यताने उस भूल को चिरकाल तक बना रहने दिया । उसीका यह नतीजा है जो बहुत से प्रन्थोंमें राज्याभिषेक संवत् के रूपमें ही विक्रम संवत् का उल्लेख पाया जाता है और कालगणनामें कितनी ही गड़बड़ उपस्थित होगई है, जिसे अब अच्छे परिश्रम तथा प्रयत्नके साथ दूर करनेकी जरूरत है । इसी ग़लती तथा गड़बड़ को लेकर और शककालविषयक त्रिलोकासारादिकके वाक्यों का परिचय न पाकर श्रीयुत एस. वी. वेंकटेश्वरनं, अपने महावीरसमय - सम्बन्धी - The date of Vardhamana नामक - लेख में यह कल्पना की है कि महावीर - निर्वाण मे ४७० वर्ष बाद जिम विक्रमकालका उल्लेख जैन ग्रन्थोंमें पाया जाता है वह प्रचलित सनन्द- विकूम संवत् न होकर अनन्द विक्रम संवत होना चाहिये, जिसका उपयोग १२वीं शताब्दीकं प्रसिद्ध कवि चन्दवरदाईने अपने काव्य में किया है और जिसका प्रारंभ ईसवी सन ३३ के लग भग अथवा यों कहिये कि पहले ( प्रचलित ) विक्रम संवत्के ९० या ९१ वर्ष बाद हुआ है। और इस तरह पर यह सुझाया है कि प्रचलित वीरनिर्वाण संवत् में से ९० वर्ष कम होने चाहियें - अर्थात् महावीरका निर्वाण ईसवी सन्से ५२७ वर्ष पहले न * देखो, विहार भौर उडीसा रिसर्व सोसाइटीके जरनलका सितम्बर सन् १६१५ का ग्रह तथा जैनसाहित्यसंशोधक के प्रथम डा ४ था क *यह लेख सन् १६१७ के 'जनरल आफ़ दि रायल एशियाटिक सोसाइटी' में पृ० १२२ - ३० पर प्रकाशित हुआ है और इसका गुजराती अनुवाद जैनसाहित्यसशोधकके द्वितीय खंडके दूसरे में निकला है। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गशिर, वीरनि० सं० २४५६ मानकर ४३७ वर्ष पहले मानना चाहिये, जो किसी तरह भी मान्य किये जानेके योग्य नहीं । आपने यह तो स्वीकार किया है कि प्रचलित विक्रमसंवतकी गणना नुसार वीरनिर्वाण ई० सन्से ५२७ वर्ष पहले ही बैठता है परंतु इसे महज इस बुनियाद पर असंभवित क़रार दे दिया है कि इससे महावीरका निर्वाण बुद्धनिर्वाणसं पहले ठहरता है, जो आपको इष्ट नहीं । परंतु इस तरह पर उसे असंभवित क़रार नहीं दिया जासकता; क्योंकि बुद्धनिर्वाण ई० सन्से ५४४ वर्ष पहले भी माना जाता है, जिसका आपने कोई निराकरण नहीं किया । और इसलिये बुद्धका निर्वाण महावीर के निर्वाणसे पहले होने पर भी आपके इस कथनका मुख्य आधार आपकी यह मान्यता ही रह जाती है कि बुद्ध-निर्वाण ई० सनसे पूर्व ४८५ और ४५३ के मध्यवर्ती किसी समयमें हुआ है, जिसके समर्थन में आपने कोई भी मवल प्रमाण उपस्थित नहीं किया और इस लिये वह मान्य किये जाने के योग्य नहीं । इसके सिवाय, अनंद विक्रम संवतकी जिस कल्पनाको आपने अपनाया है वह कल्पना ही निर्मूल है— अनन्दविक्रम नामका कोई मंत्र भी प्रचलित नहीं हुआ और न चन्द्रवरदाईके नाम मे प्रसिद्ध होने वाले 'पृथ्वीराजरासे' में ही उसका उल्लेख है —— और इस बातको जानने के लिये रायबहादुर पं० गौरीशंकर हीराचन्दजी ओझाका 'अनन्द विक्रम संवन की कल्पना' नामका वह लेख पर्याप्त है जो नागरी प्रचारिणी पत्रिकाके प्रथम भाग में, पृ० ३७७ से ४५४ तक मुद्रित हुआ है। भगवान महावीर और उनका समय २३ मूलक जान पड़ती है और महावीर भगवान के साथ जिसका संबंध ठीक नहीं बैठता, यह प्रतिपादन किया है कि महावीरका निर्वाण बुद्धके निर्वाणसे पहले हुआ है । परन्तु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं जान पड़ती । 'भगवती सूत्र' आदि श्वेताम्बर प्रन्थोंसे मालूम होता है कि महावीर - निर्वाणसे १६ वर्ष पहले गोशालक (मंखलि - पुत्त गोशाल) का स्वर्गवास हुआ, गोशालक के स्वर्गवास के अनन्तर निकट समयमें ही अजातशत्रुका राज्यारोहण हुआ, उसके राज्य के आठवें वर्ष में बुद्धका निर्वाण हुआ और बुद्धके निर्वाणसे आठ वर्ष बाद अथवा अजातशत्रु के राज्यके १६ वें वर्ष में महावीरका निर्वाण हुआ । इस तरह बुद्धका निर्वाण पहले और महावीरका निर्वाण उसके बाद आठ वर्ष के भीतर पाया जाता है। इसके सिवाय, हेमचन्द्राचार्यने चंद्रगुप्तका राज्यारोहण-समय वीरनिर्वाण से १५५ वर्ष बाद बतलाया है और 'दीपवंश' 'महावंश' नामके बौद्ध प्रन्थोंमें वही समय बुद्ध निर्वाणसे १६२ वर्ष बाद बतलाया गया है। इससे भी प्रकृत विषयका समर्थन होता है और यह स्पष्ट जाना जाता है कि वीरनिर्वाण से बुद्ध निर्वाण ७-८ वर्ष के क़रीब पहले हुआ है । मैं एक बात यहाँ पर और भी बतला देना चाहता हूँ और वह यह कि बुद्धदेव भगवान् महावीरके समकालीन थे । कुछ विद्वानोंने बौद्धग्रन्थकी एक घटना को लेकर, जो बहुत कुछ अप्राकृतिक तथा द्वेष बुद्धनिर्वाणकं समय-सम्बन्धमें भी विद्वानोंका मतभेद है और वह महावीर - निर्वाण के समय से भी अधिक विवादग्रस्त चल रहा है। परंतु लंका में जो बुद्धनिर्वाण संवन प्रचलित है वह सबसे अधिक मान्य किया जाता है। उसके अनुसार बुद्धनिर्वाण ई० सनसे ५४४ वर्ष पहले हुआ है । हो सकता है कि इसमें दश * देखो, 'जेनयुग' में श्रीहीरालाल अमृतलाल शाहका 'निर्वाणसमयनी चर्चा' नामक लेख, तथा जार्ल चापेंटियरका वह प्रसिद्ध लेख जिसका अनुवाद जैनसाहित्यसंशोधकके द्वितीय खडके दूसरे म में प्रकाशित हुआ है और जिसमें बौद्धग्रन्थकी उस घटना पर स्वासी प्रापत्ति की गई है । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ अनकान्त [वर्ष १, किरण १ वर्ष की कोई भूल हो और बुद्धनिर्वाण ई०सन्से ५३४ नीच और अछूत वर्षके करीब पहले हुआ हो । ऐसा होनेपर वीरनिर्वाण (ले०-भगवन्त गणपति गोइलीय) के साथ उसका ८-७ वर्ष का अन्तर ठीक बैठ जाता नालीके मैले पानीसे मैं बोला हहराय; है क्योंकि वीरनिर्वाणका समय, विक्रम संवत्से ४७० हौले बहरे नीच कहीं तू मुझपर उचट न जाय । वर्ष पहले होनेके कारण ईसवी सन् से ५२७ वर्ष पूर्व । 'भला महाशय !' कह पानीने भरी एक मुसकान; पाया जाता है । इस ५२७ में १८ वर्षकी वृद्धि कर देने बहता चला गया गानासा एक मनोहर गान ॥ १ से वह ५४५ वर्ष पूर्व होजाता है-अर्थात्, बुद्धनिर्वाण एक दिवस मैं गया नहाने किसी नदीक तीर के उक्त लंकामान्य समयसे एक वर्ष पहले । अतः जिन __ ज्यों ही जल अजलिमें लेकर मलने लगा शरीर । त्योंही जल बोला मैं ही हूँ उस नालीका नीर; विद्वानों ने महावीरकं निर्वाणको बुद्धनिर्वाणसे पहले लज्जित हुआ, काठ मारासा मेग सकल शरीर।।२ मान लेनेकी वजहसे प्रचलित वीरनिर्वाण संवत् में १८ दैतुअन तोड़ी मुँहमें डाली वह बोली मुसुकाय; वर्षकी वृद्धिका विधान किया है वहभी ठीक नहीं है । आह महाशय ! बड़ी हुई मैं नालीका जल पाय | . अस्तु । फिर क्यों मुझ अछुतको मुँहमें देते, हो महाराज ! __ यहाँ तकके इस संपूर्ण विवेचन परसे यह बात भले सुनकर उसके बोल हुई हा! मुझको भारी लाज ॥३ प्रकार स्पष्ट हो जाती है कि आज कल जो वीरनिर्वाण स्वानंको बैठा भोजनमें ज्योंही डाला हाथ; संवत् २४५६ प्रचलित और वर्तमान है वही ठीक है ___ त्योंही भोजन बाल उठा चट विकट हँसीकं साथ । नालीका जल हम सबन था किया एक दिन पान; उसमें न तो बैरिष्टर के.पी. जायसवाल जैसे विद्वानोंक अतः नीच हम सभी हुए फिर क्यों खातं श्रीमान?४ कथनानुसार १८ वर्षकी वृद्धि की जानी चाहिए और एक दिवम नभमें अभ्रोंकी देखी खूब जमात; नजार्ल चापेंटियर जैसे विद्वानोंकी धारणानुसार ६०वर्ष जिसमे फड़क उठा हर्पित हो मेरा सारा गात । की अथवा एस.वी. वेंकटेश्वरकी सचनानसार ९० वर्ष में यां गाने लगा कि, आओ अहो ! सुहृद् धनवृन्द, की कमी ही की जानी उचित है । वह अपने स्वरूपमें बरसी, शस्य बढ़ाओ, जिससे हो हमको आनन्द ।।५ वे बोले, ह बन्धु, सभी हम हैं अछूत औ नीच; यथार्थ है । और इस लिये उसके अनुसार महावीरको ___ क्यों कि पनालीके जलकण भी हैं हम सबके बीच। जन्म लिये हुए २५२६वर्ष बीत चुके हैं और इस समय, कहीं अछूतोंमें ही जाकर बरसेंगे जी खोल, गत चैत्र शुक्ला त्रयोदशी से, आपकी वर्षगाँठका ____ उनके शस्य बढ़ेंगे, होगा उनको हर्ष अताल ॥६ २५२७वाँ वर्ष चल रहा है । इत्यलम् । मैं बोला, मैं भूला था, तब नहीं मुझे था ज्ञान; नीच ऊँच भाई भाई हैं भारतकी सन्तान । जुगलकिशोर मुख्तार होगा दोनों बिना न दोनोंका कुछ भी निस्तार; अब न करूँगा उनसे कोई कभी बुरा व्यवहार ।।७ वे बोले यह सुमति आपकी करे हिन्दका त्राण; उनके हिन्दू रहनेमें है भारतका कल्याण । उनका अब न निरादर करना, बननाभ्रात, उदार, भेदभाव मत रखना उनसे करना मनसे प्यार ॥ ८ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गशिर, वीरनि० सं० २४५६] अनेकान्तके इतिहास पर एक दृष्टि ___ अनेकान्तके इतिहास पर एक दृष्टि ल-श्रीयुत बा० कामताप्रसादजी, सं० 'वीर'] -aruri. . . सत्य यही लोकमें कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है जिसमें एकसे करना और उस दृष्टि से उसे ठीक मानना सत्यका अधिक गुण न हों । दूसरे शब्दोंमें यों कहिये कि अनेक पा लेना है। इसीको विद्वान लोग 'अनेकान्त' के नामसे गुणोंके समुदायका नाम ही वस्तु है । और यह प्रकट पुकारते हैं । अनेकान्त का महत्व एकान्तके सत्य है । इतना ही " अंधपक्षको नाश करके प्रसिद्ध देशभक महात्मा भगवानदीनजीका सत्यका निरूपण करने भी मनुष्य वस्तु के : शुभ सन्देश में है। धार्मिक सिद्धान्त संपूर्ण गुणों को एक : "जैनधर्म की बनियाद अनेकान्त पर है यह हम : हो और चाहे लौकिक माथ नहीं कह सकता। : सबका दावा है । किन्तु हमारा व्यवहार हमारे इस : मारे इस: अनेकान्तकी तुला में इसी कारण भापावि- : दावेको झुठलाता है । जैनसमाजकी असहिष्णुता अत्यंत : तोलने मे उमका ठीक ज्ञानमें 'सापेक्षवाद'को: प्रगटहै, सहिष्णुता उसमें नामको नहीं। 'अनेकान्त' : ठीक अन्दाजा होजाता स्थान मिनना स्वाभा: पत्रके निकलनकी सार्थकता इमीमें है कि वह न केवल है और आपसमें गलत : जैनोंके भिन्न भिन्न दलों को मिला दे, किन्तु जगतके विक है । वास्तवमें, एक : सब धर्माका एक नंट फार्म पर ला दे; जिस जिस सचाई फहमी तथा अप्रेम फैगुणको ही व्यक्त करके : को लेकर जो जो धर्भ खड़ा हुआ है उसके प्रकटीकरण : लनेका कोई अवसरही वस्तुकी पूर्ण परिभाषा : में पग भाग ले; मनय अनुसार प्रतिा अनकों: शेष नहीं रहता । कोई हुई मान लेना और रोतियोंकी जड़में कौनमा उत्तम सिद्धान्त निहित है, : कोई महाशय एकान्त उसीका आग्रह करता जनताके सामने उसे खोल कर रखदे; बड़े बड़े विद्वान् को ग्रहण करके इस साधारण बातके विचार कानमें कहाँ भूलकर जाते हैं, सत्यसे दूर जा पड़ना जिससे एक ही धर्म में शाखामें शाखा पैदा होती चली : लोकके बिगाड़-बनाव है। यही एकान्नहै और : जाती हैं, इस बातको बिनकुल साफ कर दे, विचार-: की सारी जिम्मेवरी इसका मोह धार्मिक : स्वाधीनता प्रारम्भ कर दे और सहिष्णुताकी आदत : एक शुद्ध-युद्ध निरंजन संसारमें अपना महान : डाल दे । तो,समझना चाहिये कि अनेकान्तने वह काम: परमात्मा पा लाद कर कटुफल दिखला चुका : कर दिया जिसके लिये उसका जन्म हुआ था।" : छुट्टी पा लेते हैं और -भगवानदीन है । इसके विपरीत, ...... उसको बुरी निगाहसे वस्तुके अनेक गुणोंको ध्यानमें रखते हुए, एक समयमें देखते हैं जो ऐसे ईश्वरके अस्तित्व से इनकार करता एक श्रीक्षाको लेकर किसी एक गुणका प्रतिपादन है। किन्तु एक अनेकान्तवादी इन दोनोंके विपरीत - त u n . . ... . Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण १ सत्यकी तहमें पहुँच जाता है-वह अपेक्षादृष्टिसे काम इसलिये श्रीऋषभदेवजी का समय वेदोंसे भी प्राचीन लेता है और जानता है कि मूलमें इस लोकके अभिनय ठहरता है । इस अपेक्षासे अनेकान्तका प्रथम प्रकाश का उत्तरदायित्व संसारी आत्मा पर ही है; किन्तु वेदोंसे भी पहले एक अज्ञात कालमें हुआ कहा जा इतनसे ही वह कर्तृत्ववादी पड़ोसीस लड़ता नहीं । सकता है । किन्तु अधिकांश विद्वानोंका मत है कि वह सोचता है कि आखिर यह मसारी आत्मा ही तो अनेकान्त सिद्धान्तका प्रतिपादन सर्वप्रथम भगवान शुद्ध-बुद्ध निरंजन परमात्मा होता है, जो आज इस महावीरने ईस्वी सनसे पूर्व छठी शदाब्दीमें किया था। संसार रूपी खेलका कर्ता-हा है। आज व्यवहारमें हम उनके इस कथनसे सहमत होने में असमर्थ हैं । फँसकर वह इस सच्ची बातको भूलगया है-निश्चयको उनका यह कथन जैन शास्त्रोंके विरुद्ध तो है ही, साथ पहचान ले तो वह अपने सिद्धान्तको व्यक्त करनेकी (?) ही ऐतिहामिक दृष्टिसे भी तथ्यहीन है। मच पूछिये गलती को समझ ले । इसमें सन्देह नहीं कि अनेकान्त तो इस मतकी पुष्टिमें कोई भी उपयुक्त प्रमाण उपलब्ध सामादायिकता तथा कट्टरता को नष्ट करनेमें महत्वका नहीं है । इसके विपरीत भगवान महावीर से पहले भाग लेने वाला है । लोग यदि बोलवालके इम विज्ञान इस सिद्धान्तका प्रादुर्भाव हुआ प्रकट करनेवाले उल्लेख को समझलें, तो उनमें अशान्तिको जन्म पा . के लिये वैदिक एवं बौद्ध साहित्यमें भी मिलते हैं। पहले ही शायद ही अवसर मिले। हिन्दुओंके 'महाभारत' में जो निम्न उल्लेख मिलता है, अब बताइये इस वैज्ञानिक वात का इतिहास क्या वह जैनोंके अनेकान्त अथवा म्याद्वाद सिद्धांत का हो ? यह तो प्राकृत नियम और निखिल सत्य है, द्योतक है:जिसका न आदि है और न अन्त । किन्तु इतनं पर भी 'एनदेवं न चैवं च न चोभये नानुभे तथा । विचार इस बातको मानने के लिये हमें बाध्य करता है कर्मस्या (१) विषयं ब्रयुः सत्त्वस्थाः समदर्शिनः ।।' कि इम प्राकृत नियमका प्रकृतिक अदृश्य अंवलमे इसके अतिरिक्त बौद्ध साहित्य पर दृष्टि दौड़ानेसे, निकाल कर जनसमूहके समक्ष कभी न कभी किसी उन छ: मत प्रवर्तकोंक नाम सम्मुख पाते हैं, जो म० महापु प रा स द्धान्तिक रूपमें अवश्य विकाश के पहलेसे विद्यमान थे। इनमें संजय वैरत्थीपत्र हुआ होगा। इस विकाशक्रमको प्रकट कर देना ही की जो शिक्षा बतलाई गई है, वह जैनोंके अनेकान्त अनेकान्त का इतिहास है। अथवा स्याद्वाद सिद्धान्तका विकृत रूप है। यह बात भारतीय दर्शनोंमें केवल जैनदर्शन को ही यह सर्व मान्य है कि भ० महावीरके पहलेसे जैनधर्म विशेषता प्राप्त है कि उसमें अनेकान्त-सिद्धान्तका एक विद्यमान था । इस दशा में यह आवश्यक है कि भ०बुद्ध पूर्ण वैज्ञानिक विवेचन हुआ मिलता है । जैनशास्त्रोका के समय के मतप्रवर्तकोंमें उस प्राचीन जैनधर्मके मुख्य कथन है कि इस युगमें सर्वप्रथम भगवान ऋषभदेवने - १. भगवान महावीर, पृ०१५... अनेकान्त धर्मका उपदेश दिया था। इन्हीं ऋषभदेवजी २. शांतिपर्व-मोक्षधर्म, म०२७८ श्लोक ६ को हिन्दू पुराणोंमें आठवाँ अवतार बताया गया है। ३ दीपनिकय-सामगणफलमुक्तऔर चूंकि बारहवें वामन अवतारका उल्लेख वेदों में है, ४. सानण्णफलसुत्त-Dial: of Buldha (S.B.B.II Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गशिर, वीरनि० सं०२४५६, अनेकान्तके इतिहास पर एक दृष्टि आचार्यका भी उल्लेख मिले । संजय वैरत्थीपुत्र सचमुच ( Gymnosot hist.) के निकटसे शिक्षा ग्रहण की उस ही प्रा वीन जैनधर्मके उपासक थे । पहली बात तो थी । अतः संजयको जैनमुनि मानना अनुचित नहीं यह है कि बौद्ध शाओंमें इन संजयके शिष्य मौद्गला- है। और जब मंजयका जैनमुनि होना स्पष्ट है तब यन और सारीपुत्त लिखे हैं । ये दोनों महानुभाव अनकान्त अथवा स्याद्वाद सिद्धान्तका भ० महावीरसे बादको बौद्ध धर्ममें दीक्षित ह.गये थे । परंतु इसके पहले प्रादुर्भाव होना स्वतः सिद्ध है। बाद संजयका क्या हुआ ? यह बौद्व शास्त्रोंसे कुछ इस प्रकार अनेकांत सिद्धान्तका प्रकाश भ० महाप्रकट नहीं होता । इधर जैनों की 'धर्मपरीक्षा' (अ०१८ वीरसे बहुत पहले जैनों द्वारा हुआ था और बादको श्लो०६८-६९) से प्रकट है कि मौलायन जैन मनि श्रीसमन्तभद्र आदि मुख्य मुख्य जैनाचार्योंने उसका पुर्ण प्रकाश चहुँओर फैला दिया था । किन्तु हतभाग्य था, जो मुनि पदसे भ्रष्ट होकर बौद्ध होगया था। यह स मध्यकालके पश्चात् जैनोंके निकटसे इस सिद्धान्त माद् लायन बौद्ध शास्त्राक मोद् ।नायनक यातरिक्त का प्रकाश छुपने लगा और इसका दुःखद परिणाम अन्य कोई प्रकट नहीं होना; क्योंकि जैनशास्त्रमें भी वही हुआ जो होना था । जैनोंमेंसे वस्तुके सर्वगुणोंपर इसको बौद्धशास्त्रकी तरह बौद्धमतका एक खास समुचित विचार करनेकी शक्ति जाती रही, वे एकांतमें प्रवर्तक लिखा है । इस अवस्थामें मौदगलायन जा पड़े और आपसमें ही लड़-झगड़ कर दुनियाँ की गुरु मंजयका जैन मुनि ह.ना उचित ही है। जैनों के नजरमें अपना मूल्य खो बैठे ! किन्तु ये भी दिन सदा " + नहीं रह सकते थे-फलतः अाज हम जैनोंमें 'अने'महावीरचरित् 'में एक संजय नामक जैनमुनिका कांत' का अरुण प्रकाश फिरसे देख रहे हैं-हमारा उल्लेख भी है, जिसको कुछ शङ्काएँ थीं और जो हृदय इस ऊषावेलामें श्राशाकी मधुर समीरके झोकों भ० म. वीरके दर्शनसे दूर हो गई थीं। बौद्वशास्त्रमें से उल्लसित हो रहा है और यह भास रहा है कि मंजय की जो शिक्षाएँ दी हैं वे स्यावाद सिद्धान्तस 'अनेकांतका प्रदीप्त प्रकाश और जैनोंका अभ्युदय अन मिन्न । तुलती हैं । जान पड़ता है, इम मिद्धान्तको __ अब दूर नहीं है।' श्राओ, पाठको, इसका स्वागत करें और अनेकांत रसका पी-पिला कर समाजको स्वस्थ संजरने तेईसवें तीर्थंकर श्रीपार्श्वनाथजी की शिष्य- बनाएँ । परंपराके किसी प्राचार्यसे सीखा था; किन्तु ठीक नौर से न ममझ मको के कारण वह उसका विकृत रूपमे अनेकान्त प्रतिपादन करता रहा । उसकी इस शङ्काका समाधान 'अनेकान्त' गुण दोष वस्तु कं दिखलाता है ! भी भ० महावीरके निकटसे हो गया था । इस दशामें 'अनेकान्त' सत्यार्थ रूप सन्मुख लाता है ! बौद्ध शास्त्रों में उसका पीछे का कुछ हाल न मिलना 'अनकान्त' सिद्धान्त बिम्नवत् दर्शाता है ! 'अनेकान्त' जिन वैन सुधारस वर्षाता है! प्रकृत सङ्गन है -तब वह फिरसे जैन मुनि होगया था। संजयकी शिक्षाका मादृश्य यूनानी तत्ववेत्ता हो 'एक पक्ष एकान्तमय' दोषपूर्ण होता सदा ! (Pyrrho) के सिद्धान्तों से है; जिसने जैन मुनियों 'अनेकान्त' निर्दोष नय जय पाता है सर्वदा ! १ महाक्ग ११२३-२४ -कल्याणकुमार जैन, "शशि" २. भगवान् पारवनाथ पृ. ३३०-३३२ हिस्टॉरीकन ग्लीनिगम पृ. ४५ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ अनेकान्त [वर्ष१, किरण १ பாபாபாபாபா * धनिक-सम्बोधन * चकरमें विलासप्रियताके फँस मत भूलो अपना देश, प्रचुर विदेशी व्यवहारोंसे करो न अपना देश विदेश । लोक दिखावेके कामोमें होने दो नहिं शक्ति-विनाश, व्यर्थ व्ययोंको छोड़, लगो तुम भारतका करनं सुविकाश ।। (१) (४) भारतके धनिको ! किस धुनमें भारतवर्ष तुम्हारा, तुम हो ___ पड़े हुए हो तुम बेकार ? भारत के सत्पुत्र उदार, अपने हित की खबर नहीं, फिर क्यों देश-विपत्ति न हरते या नहीं समझते जग-व्यवहार? करते इसका बेड़ा पार ? अन्धकार कितना स्वदेशमें पश्चिम के धनिकों को देखो छाया देखो आँख उघार, करते हैं वे क्या दिन रात, बिलबिलाट करते हैं कितने और करो जापान देशक सहते निशदिन कष्ट अपार ? धनिकों पर कुछ दृष्टि-निपात ।। (२) कितने वस्त्रहीन फिरते हैं, लेकर उनसे सबक स्वधनका क्षुत्पीड़ित हैं कितने हाय ! करो देश-न्नति-हित त्याग, धर्म-कर्म सब बेच दिया है दो प्रोत्साहन उन्हें जिन्हे है कितनों न होकर असहाय !! देगोनिसे कल अनराग । जो भारत था गुरु देशों का, शिल्पकला-विज्ञान सीखने महामान्य, सत्कर्म-प्रधान, युवकोंको भेजो परदेश, गौरवहीन हुआ वह, वनकर कला-मुशिक्षालय खुलवाकर, पराधीन, सहता अपमान । मेटो सब जनताके क्लेश ।। (३) क्या यह दशा देख भारत की, कार्यकुशल विद्वानोंसे रख तुम्हें न आता सोच विचार ? प्रेम, समझ उनका व्यवहार, देखा करो इसी विध क्या तुम उनके द्वारा करो देशमें पड़े पड़े दुख-पारावार ! बहु-उपयोगी कार्य-प्रसार । धनिक हुए जिसके धनसे क्या भारत-हित संस्थाएँ खंलो __ योग्य न पूछो उसकी बात ! प्राम-प्राममें कर सुविचार, गोद पले जिसकी क्या उस पर करो सुलभ साधन वे जिनसे देखोगे होते उत्पात !! वैर-विरोध, पक्षपातादिक, ईपा, घणा मकल दुष्कार रह न सकें भारतमे ऐसा यत्न करा तुम बन समुदार । शिक्षाका विस्तार करो यों रहे न अनपढ़ कोई शेप, सब पढ़ लिखकर चतुर वनें औ' समझे हित-अनहित सविशेष|| करें देरा उत्थान सभी मिल, फिर स्वराज्य मिलना क्या दूर? पैदा हों युगवीर' दे में, तब क्यों रहे दशा दुख-पूर ? प्रवल उठे उन्नति-तरंग तर, देखें सब भारत-उत्कर्ष, धुल जावे सब दोष-कालिमा सुख-पूर्वक दिन को सहर्ष ।। उन्नत हो अपना व्यापार -'युगवीर' Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मामशिर, वीरनि० सं० २४५६] अनेकान्तवादकी मर्यादा अनेकान्तवादकी मर्यादा [लेखक–श्रीमान् पं० सुखलालजी] 2 जासह जैनधर्मका मूल मेंसे जैन विचार और जैनाचार क्या हैं ? कैसे हो सकते हैं ? इसे निश्चित करने या कसनेकी एक कोई भी विशिष्ट दर्शन हो या धर्मपन्थ हो उस- मात्र कसोटी अनेकांतदृष्टि है। की आधारभन उसके मूल प्रवर्तक पुरुषकी एक खास दृष्टि होती है। जैसे शंकराचार्य की अपने मतनिरूपणमें अनेकान्तका विकास और उसका श्रेय 'अद्वैन-दृष्टि' और भग- ...... __ जैनदर्शनका आधुवान बुद्धकी अपने धर्म इस लेखके लेखक पं० सुखलालाजी श्वेताम्बर निक मूल रूप भगवान पन्थ-प्रवर्तनमें 'मध्यम- जैनममाजके एक प्रसिद्ध बहुश्रुत विद्वान हैं । आपने रकी तपस्याका प्रतिपदा-मार्ग-दृष्टि ' दर्शन दर्शन स्त्रों तथा जैनसिद्धान्तोंका अच्छा अभ्यास ना फल है। इसलियेसामाखास दृष्टि है । जैन- किया है और कितने ही महत्वपर्ण ग्रन्थ लिखे हैं। गत न्य रूपसे यही समझा दर्शन भारतीय दशनों वर्ष कुछ मासके लिये मुझे आपकं सत्संगमें रहनेका है कि जैनमें एक विशिष्ट दर्शन भी मोभाग्य प्राप्त हुआ है । आप साम्प्रदायिक कट्टरता दर्शनकी आधारभूत है और साथ ही एक मे रहित बड़े ही मिलनसार नथा उदारहृदय मजन है। अनकान्तदृष्टि भी भ. विशिष्ट धर्म-पन्थ भी और ब्रह्म वर्षकं साथ सादा जीवन व्यतीत करते हैं। महावीर के द्वारा ही है इसलिये उसके प्रवन्याय तथा व्याकरण की अनेक ऊँची उपाधियोंसे पहले पहल स्थिर की तक और प्रचारक मुख्य विभूपित होने पर भी आप कभी अपने नामके साथ गई या उद्भावित की पुरुषों की एक खास उनका उपयोग नहीं करते । कई वर्षसे महात्मा गांधी गई होगी । परन्तु विदृष्टि उसके मूनमें होनी जीके गुजगन-पुरातत्त्र-मंदिरमें आप एक ऊँचे पद पर चारके विकास-क्रमका चाहिये और वह है 'मम्मतितक' जे ओरपुरातन इतिहासका भी । वही दृष्टि 'अनबड़ी योग्यताकं माथ संपादन कर रहे हैं। यह मार्मिक चिंतन करनसे साफ कांतवाई' कहलाती है। लेख आपने मेरी प्रार्थनाको मान देते हुए लिख भेजा मालूम पड़जाता है कि तात्विक जैन-विचारणा है, जिसके लिये मैं श्रापका विशेष आभारी हूँ । लेख अनेकांतदृष्टिका मूल अथवा आचार प्राचार कितना गवेषणापूर्ण है उसे यहाँ न बतलाकर पाठकों i भगवान महावीरसे भी व्यवहार कुछ भी हो के विचार पर ही छोड़ा जाता है। श्राशा है पाठक इसे पुराना है। यह ठीक है वह सब अनेकान्तदृष्टि गरसे पढ़नकी कृपा करेंगे। ! कि जैनमाहित्यमें अनंके आधार पर किया -सम्पादक । कांतदृष्टिका जो स्वरूप जाता है और उसी के ....... आजकल व्यवस्थित आधार पर सारी विचार धारा चलती है । अथवा रूपसे और विकसित रूपसे मिलता है वह स्वरूप यों कहिये कि अनेक प्रकारके विचारों तथा आचारों- भ० महावीरके पूर्ववर्ती किसी जैन या जैनेतर Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनकान्त वर्ष १, किरण १ साहित्यमें नहीं पाया जाता । तो भी भ० महावीर रक्षित जैसे विविध दर्शनाभ्यासी विद्वानके इस कथनमें के पूर्ववर्ती वैदिक साहित्यमें और उनके समकालीन हमें तनिक भी संदेह नहीं रहता कि मीमांसक, जैन बौद्ध माहित्यमें अनेकांतदृष्टि-गर्भित बिखरे हुए और कापिल तीनों दर्शनों में अनेकांतवादका अवलविचार थोड़े बहुत मिन ही जाते हैं । इसके म्बन है। परन्तु शांतरक्षितके कथनको मानकर और सिवाय, भ० महावीरके पूर्ववर्ती भ. पार्श्वनाथ हुए मीमांसक तथा सांग्व्य-योगदर्शनके ग्रन्थोंको देखकर भी हैं जिनका विचार, यद्यपि, आज उन्हींक शब्दों में- एक वान तो कहनी ही पड़ती है और वह यह कि ' असल रूपमें-नहीं पाया जाता फिर भी उन्होंने यद्यपि अनकांतदृष्टि मीमांसक और सांख्य-योगदर्शन अनेकांत-दृष्टिका स्वरूप स्थिर करनेमें अथवा उसके में भी है तथापि वह जैनदर्शनके ग्रन्थोंकी तरह अति विकासमें कुछ न कुछ भाग जला लिया है, ऐसा पाया म्पष्ट रूपमें और अति व्यापक रूपमें उन दर्शनोंक ग्रंथों जाता है । यह सब होते हुए भी उपलब्ध साहित्यका में नहीं पाई जाती । जैन विचारकोंन जितना जोर और इनिहाम स्पष्ट रूपसे यही कहता है कि २५०० वर्षके जितना पुरुपार्थ अनकांतदृष्टि के निरूपणमें लगाया भारतीय माहित्यम जा अनेकांतर्राष्ट्रका थाड़ा बहत है। उसका शतांश भी जैनंतर किसी भी दर्शनक असर है या खाम नौग्म जैन वाङमयमें अनेकांत- विद्वानाने नहीं लगाया है । यही कारण है कि आज हटिका उत्थान होकर क्रमशः विकाम होता गया है जब 'अनेकांतवाद' या 'स्याद्वाद' शब्दका उच्चारण कोई और जिम दूसरे समका नीन दार्शनिक विद्वानोंने अपने करता है तब सुनने वाला विद्वान उससे सहसा जैनअपनं ग्रंथोंमें किसी न किसी रूपमें अपनाया है उमका दर्शनका ही भाव ग्रहण करता है । आजकलके मुग्व्य श्रेय तो भ० महावीरको ही है । क्योंकि हम बड़े विद्वान तक बहुधा यही समझते हैं कि 'म्याद्वाद' अाज देखते हैं तो उपलव्य जैन प्राचीनतम ग्रंथामें यह तो जैनोंका ही एक वाद है । इस समझका कारण अनेकांतदृष्टिकी विचारधाग जिम स्पष्ट रूपमें पान यह है कि जैनविद्वानीने म्याद्वादके निरूपण और है उस स्पष्ट रूपमें उसे और किसी प्राचीन ग्रंथमेस समर्थनमें बहुत बड़े बड़े ग्रंथ लिख डाले हैं, अनेक नहीं पात । यक्तियांका आविर्भाव किया है और अनकान्तवादक ____ नालंदा प्रसिद्ध बौद्ध विद्यापीठका आचार्यशांत- शस्त्रकं बलम ही उन्होंने दूमरं दार्शनिक विद्वानोंक रक्षित अपने 'तत्त्वमग्रह' ग्रंथम अनेकांतवादका साथ कुश्ती का है। परीक्षण करते हुए कहता है कि 'विप्र-मीमांसक, इस चर्चासे दो बातें स्पष्ट होती हैं- एक तो निग्रंथ-जैन और कापिल-सांख्य इन तीनोंका अनेकांत- यह कि भगवान महावीरने अपने उपदेशमें अनेवाद समान रूपसे ग्यंडित हो जाता है । इस कथनस कान्तवादका जैसा स्पष्ट आश्रय लिया है वैसा उनके यह पाया जाता है कि सातवीं आठवीं सदीकं बौद्ध समकालीन और पूर्ववर्ती दर्शनप्रवर्तकों में से किसीन आदि विद्वान अनेकांतवादको केवल जैनदर्शनका भी नहीं लिया है। दूसरी बात यह कि, भ० महावीरके ही वाद न समझते थे किन्तु यह मानते थे कि मीमां- अनुयायी जैन आचार्योन अनकान्तदृष्टिका निरूपण मक, जैन और सांख्य तीनो दर्शनामें अनेकांतवादका और समर्थन करनमें जितनी शक्ति लगाई है उतनी और आश्रयण है, और ऐसा मान कर ही वे अनेकांतवाद किसी भी दर्शनकं अनुगामी आचार्योने नहीं लगाई है। का खंडन करते थे। हम जब मीमांसक दर्शनके श्लोकवार्तिक आदि और सांख्य-योगदर्शनके परिणाम अनेकान्तदृष्टिके मूल तत्त्व वादस्थापक प्राचीन ग्रन्थ देखते हैं तो निःसंदेह यह जब सारे जैन विचार और आचारकी नीव अनेजान पड़ता है कि उन ग्रन्थों में भी जैन ग्रन्थोंकी तरह, कान्तदृष्टि ही है तब यह पहले देखना चाहिये कि अनकांतदृष्टि-मूलक विचारणा है । अतएव शांत- अनेकान्तदृष्टि किन तत्त्वोंके आधार पर खड़ी की गई Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गशिर, वीरनि० सं० २४५६] अनकान्तको मयांदा है ? विचार करनेसे और अनेकान्तदृष्टि के साहित्यका पैदा कर देता है। इस तरह पूर्णदर्शी और अपूर्णदर्शी अवलोकन करनेसे मालूम होता है कि अनेकान्तदृष्टि सत्य सभी सत्यवादियोंके द्वारा अन्तमें भेद और विरोधकी पर खड़ी है । यद्यपि, सभी महान पुरुष सत्यको पसन्द ही सामग्री आप ही आप प्रस्तुत हो जाती है या दूसरे करते हैं और सत्यकी ही खोज तथा सत्यके ही निरूप- लोक उनसे ऐमी सामग्रो पदा कर लेते हैं। णमें अपना जीवन व्यतीत करते हैं। तथापि मत्यनिरू- ऐसी वस्तुस्थिति देखकर भ० महावीग्नं सांचा पणकी पद्धति और मत्यकी खोज सबकी एकसी नहीं कि ऐसा कौन सा रास्ता निकाला जाय जिससे वस्तुका होती । बुद्धदेव जिस शैनीमे मत्यका निरूपण करते पूर्ण या अपर्ण मन्यदर्शन करने वालेके साथ अन्याय है या शंकराचार्य उपनिषदोंक आधार पर जिस ढंगले जम ढंगले न हो । अपूर्ण और अपनेस विरोधी होकर भी यदि हो। और विरोधी टोकर भी सत्यका प्रकाशन करते हैं उमसे भ० महावीरके मत्य- दुसरेका दर्शन सत्य है इसी तरह अपूर्ण और दुसरं प्रकाशन की शैली जदा है। भ० महावीरकी सत्य- म विरोधी होकर भी यदि अपना दर्शन सत्य है तो प्रकाशनकी शैनीका ही दूसरा नाम 'अनेकान्नवाद' दोनों को ही न्याय मिले, उसका भी क्या उपाय है? है । उसके मूल्यमें दो तत्व हैं-पूर्णता और यथार्थता। इम चिंतनप्रधान तपम्याने भगवानको अनकान्तदृष्टि जो पूर्ण है और जो पूर्ण हो कर भी यथार्थ रूपसे सुझाई, उनका मत्यशोधनका संकल्प सिद्ध हुआ, प्रतीत होता है वही मत्य कहलाता है। उन्होंने उस मिली हुई अनकांतदृष्टिकी चाबीमे वैयक्तिक अनेकान्तकी खोजका उद्देश और उसके और सामष्टिक जीवनकी व्यावहारिक और पारमा थिक समस्याओं के नाले खोल दिय और समाधान प्रकाशनकी शर्ते प्राप्त किया । तब उन्होंन जीवनोपयोगी विचार और वस्तुका पूर्णरूपमें त्रिकालाबाधित-यथार्थ दर्शन आचारका निर्माण करते समय उस अनेकान्तदृष्टिको हाना कठिन है, किमीका वह हो भी जाय तथापि निम्नलिम्वित मुख्य शतों पर प्रकाशित किया और उसका उसी रूपमें शब्दोंके द्वारा ठीक ठीक कथन उमक अनमरणका अपने जीवनद्वारा उन्हीं शतों पर करना उस सत्य द्रष्टा और मत्यवादीके लिये भी बड़ा उपदेश दिया । वे शतं इस प्रकार है :कठिन है । कोई उस कठिन कामको किमी अंराम गग और द्वेपजन्य संस्कारोंक वशीभन न करनेवाले निकल भी आएँ तो भी देश, काल, परि- हाना-अर्थात तंजस्वी मध्यस्थभाव रखना। स्थिति, भाषा और शेनी आदिके अनिवार्य भेदक जब तक मध्यस्थभावका पूर्ण विकाम न हो कारण उन सबके कथनमें कुछ न कुछ विरोध या भेद- तब तक उस लन्यकी प्रार ध्यान रग्ब कर केवल सत्यका दिखाई देना अनिवार्य है । यह ता हुई उन पूर्णदर्शी की जिज्ञासा रग्वना । और मत्यवादी इनगिने मनुष्य की बात, जिन्हें हम कैसे भी विरोधी भानमान पन न घवगना सिर्फ कल्पना या अनुमानम समझ मकत और मान और अपन पक्षकी तरह उस पक्ष पर भी श्रादरपूर्वक सकते हैं-साक्षात् अनुभवसे नहीं। हमारा अनुभव विचार करना तथा अपने पक्ष पर भी विरोधी पक्षी तो साधारण मनुष्यों तक परिमित है और वह कहता तरह तीव्र समालोचक दृष्टि बना। है कि साधारण मनुष्योंमें भी बहुनसे यथार्थवादी ४ अपन नथा दुसरांक अनुभवोममें जा जो अंश होकर भी अपूर्णदर्शी होते हैं। ऐमी स्थितिमें यथार्थ- ठीक ऊंचे-चाहं वै विरोधी ही क्यो न प्रतीत होवादिता होने पर भी अपूर्ण दर्शनके कारण और उमे उन सबका विवेकप्रज्ञाम समन्वय करनेकी उदारताप्रकाशित करनेकी अपूर्ण सामग्रीकं कारण सत्यप्रिय का अभ्यास करना और अनुभव बढ़ने पर पूर्वक मनुष्योंकी भी समझमें कभी कभी फेरे आजाता समन्वयमें जहाँ गलती मालूम हो वहीं मिथ्याभिमान, है और संस्कारभेद उनमें और भी पारस्परिक टक्कर छोड़ कर सुधार करना और इसी क्रमम आगे बढ़ना । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२. अनेकान्त अनेकान्त साहित्यका विकास भगवान महावीरने अनेकान्त दृष्टिको पहले अपने जीवन में उतारा था और इसके बाद ही दूसरोंका उसका उपदेश दिया था । इसलिये अनेकान्तदृष्टिकी स्थापना और प्रचारके निमित्त उनके पास काफी अनुभवबल और तपोबल था । अत एव उनके मूल उपदेश में से जो कुछ प्राचीन अवशेष आजकल पाये जाते हैं उन आगमग्रंथोंमें हम अनेकान्त दृटिको स्पष्ट रूपसे पाते हैं सही, पर उसमें तर्कवाद या खंडनमंडनका वह जटिल जाल नहीं पाते जो कि पिछले साहित्य में देख पड़ता है । हमें उन श्रगमग्रन्थोंमें अनेकान्तदृष्टिका सरल स्वरूप और संक्षिप्र विभागही नजर पड़ता है। परन्तु भगवान के बाद जब उनकी दृष्टि पर संप्रदाय क़ायम हुआ और उसका अनुगामी समाज स्थिर हुआ तथा बढ़ने लगा, तब चारों श्रोरसे अनेकान्तदृष्टि पर हमले होने लगे । महावीरके अनुगामी श्राचार्योंमें, त्याग और प्रज्ञा होने परभी, महावीर जैसा स्पष्ट जीवनका अनुभव और तप न था । इसलिए उन्होंने उन हमलोंसे बचने के लिए नैयायिक गोतम और वात्स्यायन के कथनकी तरह वादकथाके उपरान्त जल्प और कहीं कहीं वितण्डाका भी [ वर्ष १, किरण १ सूक्ष्म और जटिल चर्चा की है । शुरूमें जो साहित्य अनेकान्तदृष्टि के अवलंबन से निर्मित हुआ था उसके स्थान पर पिछला साहित्य, खास कर तार्किक साहित्य, मुख्यतया अनेकान्तदृष्टिका निरूपण तथा उसके ऊपर अन्य वादियोंके द्वारा किये गये आक्षेपोंका निराकरण करनेके लिये रचा गया। इस तरह संप्रदाय की रक्षा और प्रचारकी भावनामेंसे जो केवल अनेकांत-विषयक साहित्यका विकास हुआ है उसका वर्णन करने के लिये एक खासी जुदी पुस्तिका की जरूरत है, तथापि इतना तो यहाँ निर्देश कर देना ही चाहिए कि समन्तभद्र और सिद्धसेन, हरिभद्र और अकलंक विद्यानन्द और प्रभाचन्द्र, अभयदेव और वादिदेवसर, तथा हेमचंद्र और यशोविजयजी जैसे प्रकाण्ड विचारकोंने जो जो अदृष्ट के बारेमें लिखा है वह भारतीय दर्शन साहित्य में बड़ा महत्व रखता है. और विचारकों को उनके ग्रंथों में से मनन करने योग्य बहुत कुछ सामग्री मिल सकती है । फलित वाद श्रय लिया है । अनेकान्तदृटिका जो तत्त्व उनको विरासत में मिला था उसके संरक्षण के लिये उन्होंने जैसे बन पड़ा वैसे कभी बाद किया, कभी जल्प और कभी वितण्डा । परन्तु इसके साथही साथ उन्होंने दृष्टिको निर्दोष स्थापित करके उसका विद्वानोंमें प्रचार भी करना चाहा और इस चाहजनित प्रयत्नसे उन्होंने अनेकान्तदृष्टि के अनेक ममको प्रकट किया और उनकी उपयोगिता स्थापित की। इस खंडन मंडन, स्थापन और प्रचारके करीब दो हजार वर्षों में महावीरके शिष्योंने सिर्फ अनेकान्तदृष्टि-विषयक इतना बड़ा प्रन्थसमूह बना डाला है कि उसका एक खासा पुस्तकालय बन सकता है । पूर्व-पश्चिम और दक्षिणउत्तर हिन्दुस्थानके सब भागों में सब समयों पर उत्पन्न होनेवाले अनेक छोटे बड़े और प्रचंड आचार्यों ने अनेक भाषाओं में केवल अनेकान्तदृष्टि तथा उसमें से फलित होनेवाले वादों पर दंडकारण्य से भी कहीं विस्तृत दृष्टि तो एक मूल है उसके ऊपर से और उसके आश्रय पर विविध वादों तथा चर्चाश्रोंका शाखाप्रशाखाओं की तरह बहुत बड़ा विस्तार हुआ है । उसमें से मुख्य दो वाद यहाँ नोट किये जानेके योग्य हैंएक 'नयवाद' और दूसरा 'सप्तभंगीवाद' । अनेकान्तदृष्टिका आविर्भाव आध्यात्मिक साधना और दार्शनिक प्रदेशमें हुआ, इसलिए उसका उपयोग भी पहले पहल वहीं होना अनिवार्य था। भगवान के इर्द गिर्द और उनके अनुयायी आचार्यों के समीप जोजो विचारधाराएँ चल रही थीं उनका समन्वय करना अनेकान्तदृष्टिके लिए लाजिमी था । इसी प्राप्त कार्यमें से ' नयवाद' की सृष्टि हुई । यद्यपि किसी किसी नयके पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती उदाहरणोंमें भारतीय दर्शनके विकासके अनुसार विकास होता गया है तथादि दर्शनप्रदेशमें से उत्पन्न होनेवाले नयवादकी उदाहरणमाला आज तक दार्शनिक ही रही है। प्रत्येक नयकी व्याख्या और चर्चाका विकास हुआ है पर उसकी उदाहरणमाला तो दार्शनिक क्षेत्रके बाहर आई ही Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गशिर, वीरनि० सं० २४५६] अनेकान्तबादकी मर्यादा ३३ नहीं है । यही एक बात यह समझनेके लिये पर्याप्त के विशकलित मंतव्योंका समन्वय है। प्रत्येक फलित है कि सब क्षेत्रोंको व्याप्त करनेकी ताकत रखनेवाले वादकी सूक्ष्म चर्चा और उसके इतिहासके लिये यहाँ अनेकान्तका प्रथम आविर्भाव किस क्षेत्रमें हश्रा और स्थान नहीं है और न उनना अवकाश ही है तथापि हजारों वर्षों के बाद तक उसकी चर्वा किस क्षेत्र तक इतना कह देना जरूरी है कि अनेकान्तदृष्टि ही महापरिमित रही ? वीरकी मूल दृष्टि है और वही स्वतन्त्रदृष्टि है-नयवाद भारतीय दर्शनोंमें, जैनदर्शनके अतिरिक्त, उस तथा सप्तभंगीवाद आदि उस दृष्टिके ऐतिहासिक समय जो दर्शन अतिप्रसिद्ध थे और पीछसे भी जो परिस्थिति अनुसारी प्रासंगिक फलमात्र हैं । अतएव अति सिद्ध हुए उनमें वैशेषिक, न्याय, सांख्य, औप- नय तथा सप्तभंगी आदि वादोंका स्वरूप तथा उनके निषद्-वेदान्त, बौद्ध और शाब्दिक ये ही दर्शन मुख्य उदाहरण बदले भी जा सकते हैं पर अनेकान्तदृष्टिका हैं। न प्रसिद्ध दर्शनों को पूर्ण सत्य माननेमें तात्त्विक स्वरूप तो एक ही प्रकारका रह सकता है-चाहे उस और व्यावहारिक दोनां आपत्तियाँ थीं। उन्हें बिलकुल के उदाहरण बदल जायें । असत्य कह देनमें सत्यका घात था और उनके बीचमें रह कर उन्हीं में से सत्यगवेषणका मार्ग सरलरूपमें अनेकान्नदृष्टिका असर लोगोंके सामने प्रदर्शित करना था। इसलिए हम उप- जब दूसरे विद्वानोंने अनेकान्तदृष्टिको तत्त्वरूपमें समग्र जैन वाङ्मयमें नयवादकं भेद प्रभेद और ग्रहण करनेकी जगह सांप्रदायिक वादरूपमें ग्रहण उनके उदाहरण उक्त दर्शनोंक रूपमें तथा उनकी विक- किया तब उसके ऊपर चारों ओरसे आक्षेपोंके प्रहार सित शाखाओंके रूपमें ही पाते हैं । विवारकी जितनी होने लगे। बादरायण जैसे मत्रकारोंने उसके खंडनके पद्धतियाँ उस समय मौजूद थीं उनका समन्वय करनं लिये सूत्र रच डाले और उन सत्रोंक भाष्यकारोंने उसी का आदेश अनकान्नानि किया और उसमेंसे नय- विषयमें अपने भाष्योंकी रचनाएँ की । वसुबन्धु, वाद फलित हुआ जिससे कि दार्शनिक मारामारी कम दिग्नाग, धर्मकीति और शांतरक्षित जैसे बड़े बड़े हा पर दमरी तरफ एक एक वाक्य पर अधेर्य और प्रभावशाली बौद्ध विद्वानोंने भी अनेकान्तवादकी परी नासमझीकं कारण पंडितगण लड़ा करते थे । एक खबर ली। इधरसे जैन विचारक विद्वानोंने भी उनका पंडित आत्मा या किसी दूसरी चीजको नित्य कहता मामना किया । इस प्रचंड मंघर्षका अनिवार्य परिणाम तो दूसरा उसके सामने खड़ा होकर यह कहता कि यह पाया कि कए ओरसे अनेकान्तदृष्टिका तर्कबद्ध वह तो अनित्य है--नित्य नहीं। इसी तरह फिर पहला विकाम हुआ और दूसरी ओरस उसका प्रभाव दूमर पडिन दूसरेके विरुद्ध बोल उठना था। सिर्फ नित्यत्वक विरोधी सांप्रदायिक विद्वानों पर भी पड़ा । दक्षिण विषयमें ही नहीं किन्तु प्रत्येक अंरामें यह झाड़ा जहाँ हिन्दुस्तानमें प्रचंड दिगम्बराचार्यों और प्रकाण्ड तहाँ वादविवादमें होता ही रहता था । यह स्थिति मीमांसक तथा वेदान्त विद्वानांके बीच जो शास्त्रार्थकी देख कर अनेकान्तदृष्टिवाले तत्कालीन प्राचार्यों ने उस कुश्ती हुई उससे अंतमें अनेकान्तदष्टिका ही असर झगड़ेका अन्त अनेकान्तदृष्टिके द्वारा करना चाहा अधिक फैला । यहाँ तक कि रामानुज जैसे बिलकुल और उस प्रयत्नके परिणामस्वरूप 'सप्तभंगीवाद' जैनत्वविरोधी प्रखर प्राचार्यने शंकराचार्यके मायाफलित हुआ । अनेकान्तदृष्टिकं प्रथम फलस्वरूप नय- वादके विरुद्ध अपना मत स्थापित करते समय आश्रय वादमें दर्शनोंको स्थान मिला है और दूमरे फलस्वरूप तो स्वमान्य उपनिषदोंका लिया पर उनमेंसे विशिष्टासप्तभंगीवादमें किसी एक ही वस्तु के विषयमें प्रचलित द्वैतका निरूपण करत समय अनेकान्तदृष्टि का उपयोग विरोधी कथनोंको या विचारोंको स्थान मिला है। पहले किया; अथवा यों कहिये कि रामानुजने अपने ढंगसे वादमें समूचे सब दर्शन संगृहीत हैं और दूसरेमें दर्शन अनेकान्तदृष्टिको विशिष्टाद्वैनकी घटनामें परिणत Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष१, किरण किया और औपनिषद तत्त्वोंका जामा पहनाकर अने- वाले जगतमें उसकी कद्र पुरानी कबसे अधिक नहीं कान्तदृष्टिमेंसे विशिष्टाद्वैतवाद खड़ा करके अनेकान्त- होगी। अनेकान्तदृष्टि और उसकी आधारभूत अहिंसा दृष्टिकी ओर आकर्षित जनताको वेदान्तमार्ग पर स्थिर ये दोनों नत्त्व महानसे महान हैं, उनका प्रभाव तथा रक्खा । पुष्टिमार्गके पुरस्कर्ता वल्लभजो दक्षिण हिंदुस्तान प्रतिष्ठा जमानेमें जैनसंप्रदायका बड़ा भारी हिस्सा भी में हुए उनके शुद्धाद्वैत-विषयक सब तत्त्व हैं तो औपनि- है पर इस बोसवीं सदीके विषम राष्ट्रीय तथा सामापदिक पर उनकी सारी विचारसरणी अनेकान्तदृष्टिका जिक जीवनमें उन तत्त्वोंसे यदि कोई खास फायदा न नया वेदान्तीय स्वांग है। इधर उत्तर और पश्चिम हिंदु- पहुँचे तो मंदिर-मठ और उपाश्रयोंमें हजारों पंडितोंके स्तानमें जो दूसरे विद्वानोंके साथ श्वेतांबरीय महान द्वारा चिल्लाहट मचाये जाने पर भी उन्हें कोई पूछेगा विद्वानोंका खंडनमंडन-विषयक द्वन्द्व हुआ उसके फल- नहीं, यह निःसंशय बात है । जैन लिंगधारी सैकड़ों स्वरूप अनेकान्तवादका असर जनतामें फैला और धर्मगर और सैकड़ों पंडित अनेकान्तके बालकी खाल सांप्रदायिक ढंगसे अनेकान्तवादका विरोध करनेवालेभी दिनरात निकालते रहते हैं और अहिंसाकी सूक्ष्म चर्चामें जानते अनजानते अनेकान्तदृष्टिको अपनाने लगे। इस खून सुखाते तथा सिर तक फोड़ा करते हैं। तथापि तरह वादरूपमें अनेकान्तदृष्टिआज तक जैनोंकी ही बनी लोग अपनी स्थितिके समाधान के लिए उनके पास नहीं हुई है, तथापि उसका असर किसी न किसी रूपमें- फटकते । कोई जवान उनके पास पहुंच भी जाता है तो अहिंसाकी तरह विकृत या अर्धविकृत रूपमें-हिन्दु- वह तुरन्त उनसे पूछ बैठता है कि 'आपके पास जब स्तानके हर एक भागमें फैला हुआ है । इसका सबूत समाधानकारी अनेकान्तदृष्टि और अहिंसा तत्त्व मौजूद सब भागोंके साहित्यमेंसे मिल सकता है। हैं तब आप लोग आपसमें ही गैरोंकी तरह बात बातमें व्यवहार में अनेकान्तका उपयोग न क्यों टकराते हैं ? मंदिरके लिए, तीर्थके लिए, धार्मिक प्रथाओंके लिए, सामाजिक रीतिरिवाजोंके लिए-यहाँ होने का नतीजा तक कि वेश रखना, कैसा रखना, हाथमें क्या पकड़ना, जिस समय राजकीय उलट फेरका अनिष्ट परि- कैसे पकड़ना इत्यादि बालसुलभ बातोंके लिए श्राप णाम स्थायी रूपसे ध्यानमें आया न था, सामाजिक लोग क्यों आपसमें लड़ते हैं ? क्या आपका अनेकान्तबुराइयाँ आजकी तरह असह्यरूपमें खटकती न थीं, वाद ऐसे विषयोमें कोई मार्ग निकाल नहीं सकता ? औद्योगिक और खेतीकी स्थिति आजके जैसी अस्त- क्या आपके अनेकान्तवादमें और अहिंसातत्त्वमें प्रिविव्यस्त हुई न थी, समझपूर्वक या बिना समझे लोग काउन्सिल, हाईकोर्ट अथवा मामूली अदालत जितनी एक तरहसे अपनी स्थितिमें सन्तुष्टप्राय थे और असं- भी समाधानकारक शक्ति नहीं है? क्या आपकी हिंसा तोषका दावानल आजकी तरह व्याप्त न था, उस समय अपनी सूक्ष्मचर्चा के लिए मारामारी करने और अहिंसाप्राध्यात्मिकसाधनामेंसे आविर्भत अनेकान्तदृष्टि कंवल की अपेक्षा रखनेको अनुचित नहीं समझती? क्या दार्शनिक प्रदेशमें रही और सिर्फ चर्चा तथा वादवि- हमारी राजकीय तथा सामाजिक उलझनोंको सुलझाने वादका विषय बनकर जीवनसे अलग रह कर भी का सामध्ये आपके इन दोनों तत्त्वोंमें नहीं है ? यदि उसने अपना अस्तित्व कायम रक्खा तथा कुछ प्रतिष्ठा इन सब प्रश्नोंका अच्छा समाधानकारक उत्तर आप भी पाई, वह सब उस समयके योग्य था। परन्तु आज अमली सौरसे 'हाँ'में नहीं देसकते तो आपके पास भाकर स्थिति बिलकुल बदल गई है। दुनियाके किसी भी धर्मका हम क्या करेंगे? हमारे जीवन में तो पद पद पर अनेक तत्व कैसा ही गंभीर क्यों न हो पर अब वह यदि उस कठिनाइयाँ आती रहती हैं उन्हें हल किये बिना यदि धर्मकी संस्थानों तक या उसके पंडितों तथाधर्मगुरुओंके हम हाथमें पोथियाँ लेकर कथंचित् एकानेक, कथंचित् प्रवचनों तक ही परिमित रहेगातोइस वैज्ञानिक प्रभाव- भेदाभेद और कथंचित् नित्यानित्यके खाली नारेलगाया Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गशिर, वीरनि० सं०२४५६] अनेकान्तवादकी मर्यादा करें तो इससे हमें क्या लाभ पहुँचेगा अथवा हमारे में इन दो तत्त्वोंका प्रयोग करना शक्य नहीं समझते व्यावहारिक तथा आध्यात्मिक जीवनमें क्या फरक उन्हें या तो आध्यात्मिक कहलानेवाले जीवनको धारण पड़ेगा ? और यह सब पूछना है भी ठीक, जिसका करना चाहिए और या अपना नाम पशुसंख्यामें गिना उत्तर देना उनके लिये असंभव हो जाता है। देना चाहिए । इस दलीलके फलस्वरूप अंतिम प्रश्न! इसमें संदेह नहीं कि अहिंसा और अनेकान्तकी यही होता है कि तब इस समय इन दोनों तत्वोंका चर्चावाली पोथियोंकी, उन पोथीवाले भंडारोंकी, उनके उपयोग व्यावहारिक जीवनमें कैसे किया जाय? इसका रचनेवालोंके नामोंकी तथा उनके रचनेके स्थानोंकी उत्तर देना यही अनेकान्तवादकी मर्यादा है। इतनी अधिक पूजा होती है कि उसमें सिर्फ फूलोंका जैन समाजके व्यावहारिक जीवनकी कुछ समही नहीं, किन्तु सोने चांदी तथा जवाहरात तकका ढेर स्याएँ ये हैं:लग जाता है, तो भी उस पजाके करने तथा कराने- १ समप्र विश्वके साथ जैनधर्मका अमली मेल वालोंका जीवन दूसरों जैसा प्रायः पामरहीनज़र आता कितना और किस प्रकारका हो सकता है ? . है, और दूसरी तरफ हम देखते हैं तो यह स्पष्ट नजर २राष्ट्रीय आपत्ति और संपत्तिके समय जैनधर्म आता है कि हिंसाकी सापेक्ष सूचना करनेवाले गांधीजी- कैसा व्यवहार रखनेकी इजाजत देता है ? के अहिंसा तत्त्वकी ओर सारी दुनिया देख रही है ३ सामाजिक और सांप्रदायिक भेदों तथा फूटोंको और उनके समन्वयशील व्यवहारके कायल उनके मिटानेकी कितनी शक्ति जैनधर्म में है ? प्रतिपक्षी तक होरहे हैं । महावीरकी अहिंसा और अने- यदि इन समस्याओंको हल करनेके लिए अनेकांत दृष्टिकी डौंडी पीटनेवालोंकी ओर कोई धीमान् कांतदृष्टि तथा अहिंसाका उपयोग हो सकता है तो आंख उठाकर देखता तक नहीं और गांधीजीकी ओर वही उपयोग इन दोनों तत्त्वोंकी प्राणपूजा है और यदि सारा विचारकवर्ग ध्यान दे रहा है । इस अंतरका ऐसा उपयोग न किया जा सके तो इन दो तत्त्वोंकी कारण क्या है ? इस सवालके उत्तरमें ही सब कुछ पजा सिर्फ पाषाणपजा या मात्र शब्दपूजा होगी । श्राजाता है। ___ परन्तु मैंने जहाँ तक गहरा विचार किया है उससे अब कैसा उपयोग होना चाहिए ? यह स्पष्ट जान पड़ता है कि उक्त तीनों ही नहीं किन्तु दूसरीभी वैसीमब समस्याओंका व्यावहारिक खुलासा, अनेकान्तदृष्टि यदि आध्यात्मिक मार्गमें सफल हो यदि प्रज्ञा है तो, अनेकान्तदृष्टिकं द्वारा तथा अहिंसा सकती है और अहिंसाका सिद्धान्त यदि आध्यात्मिक के सिद्धान्तकं द्वारा पूरे तौरस किया जा सकता है । कल्याणसाधक हो सकता है तो यह भी मानना चाहिए उदाहरणके तौर पर जैनधर्म प्रवृत्ति मार्ग है या कि ये दोनों तत्त्व व्यावहारिक जीवनका श्रेय अवश्य निवृत्तिमार्ग ? इस प्रश्नका उत्तर, अनेकान्तदृष्टिकी कर सकते हैं। क्योंकि जीवन व्यावहारिक हो या श्रा- योजना करके, राष्ट्रीय कार्यमें यों दिया जा सकता है ध्यात्मिक पर उसकी शुद्धिके स्वरूपमें भिन्नता हो ही कि, जैनधर्म प्रवृत्ति और निवृत्ति उभय मार्गावलम्बी नहीं सकती और यह हम मानते ही हैं कि जीवनकी है। प्रत्येक क्षेत्रमें जहाँ सेवाका प्रसंग हो वहाँ अर्पण शुद्धि अनेकान्तदृष्टि और अहिंसाके सिवाय अन्य की प्रवृत्तिका आदेश करनेके कारण जैनधर्म प्रवृत्तिप्रकारसे हो ही नहीं सकती। इसलिए हमें जीवन व्या- गामी है और जहाँ भोगवृत्तिका प्रसंग हो वहाँ निवृत्ति वहारिक या आध्यात्मिक कैसा ही पसंद क्यों न हो पर का आदेश करनेके कारण वह निवृत्तिगामी भी है। यदि उसे उन्नत बनाना इष्ट है तो उस जीवनके प्रत्येक परन्तु जैसा आजकल देखा जाता है भोगमें-अर्थात् क्षेत्रमें अनेकान्तदृष्टिको तथा अहिंसा तत्त्वको प्रज्ञापूर्वक दूसरोंसे सुविधा ग्रहण करनेमें-प्रवृत्ति करना और लाग करना ही चाहिए। जो लोग व्यावहारिक जीवन- योगमें-अर्थात दूसरोंको अपनी सुविधा देनमें-नि Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण १ जो धर्म का तत्त्व और अंश उस शास्त्र-विद्या में से भी उसके गुरु, सम्बन्धी, सब लोग, उसकी सारी शिक्षाएँ इन्हें प्राप्त होगया था, उसका मेल, इन्होंने देखा, उस और सारी प्रवृतियाँ भी उसे उकसा रही हैं-उसी राजत्वसे समीचीन रूप में नहीं होता जिसकी उनसे 'राजत्व' में कुमार को कुछ खटकता भी है। आशा की जाती है। और इसलिये, समझा, वह धर्म वह 'राजत्व' उसकी कमाई हुई चीज नहीं है, वह इष्ट नहीं है। जब सारी ही शिक्षाओं की दिशा राजत्व मानों उसे मुफ्त मिली जा रही है। केवल एक कुलहै, तब शास्त्र-विद्याके जिस थोड़ेसे अंश की दिशा वह संयोग पर निर्भर रहकर इतनी बड़ी चीज अपना लेना नहीं जान पड़तीवह अंश अवश्य अनुपयुक्त और अनु- उसे अनचित जॅचता है । वह राजा का पुत्र है, इस पादेय है । वह व्यर्थ है। गुरु, पिता,समवयस्क साथी, घटना को वह आकस्मिक सी मानता है। और इस सम्मान्य बुजर्ग, सलाहकार, और समस्त पुरजन,- आकस्मिकता को वह इतने बड़े ऐश्वर्य का उचित मूल्य सब उसे सामने रक्खे 'राजत्व' की ओर ही ठेलते नहीं स्वीकार कर सकता। अपने राज-पुत्रत्व को वह दीख पड़े । मानों सब उसमें ही प्रसन्न हैं । मानों वही ज्यादे श्रेय देना नहीं चाहता । और इसलिये चुपचाप उसके लिये एक मार्ग है वही धर्म है । जो उसके राजत्व राजमुकुट उसे पहना दिया जाय, यह वह नहीं सह के मार्गसे तनिक भी अलहदा है, थोड़ा भी विरुद्ध सकेगा। और भिन्न है, वह मानों उसके लिये है ही नहीं। __ किन्तु जब वैभव ही लक्ष्य है, तो दूसरा मार्ग उस ओर की चिंता उसे करनी ही नहीं चाहिये । इस क्या-? प्रकार सारी शिक्षा, और कुमारकं चारों ओर फैली हुई सारी समाज न, कुमारके लिये जीवन की राह बहुत ऊहापोहके बाद समझ पड़ा-जोमार्ग सीधेसे रूप एक रेखा ही रह जान दी, जिसके अन्त में और सीधा उस लक्ष्य तक पहुँचे, जिस में अधिकाधिक श्रारंभ में प्रतिष्ठित था -'राजत्व' । सिद्धि हो, और तुरन्त अर्थ प्राप्ति हो, वही मार्ग उसका मार्ग है। ____ कुमार ने इस 'राजत्व'का विश्लषण किया तो और इसके विरोध में दुनिया का औचित्य अनौचित्य ही पाया । देखा-वह एक ऐश्वर्य और प्रतिष्ठाका पद का प्रश्न उसके सामने खड़ा हुआ, पर टिक न सका। है, जहाँ विलासका हर तरहका सुभीता है, और स्वार्थ उसने उसे खोलते खालते देखा यह औचित्यानौचित्य की हर प्रकारकी सिद्धि है । यही पद और यही वैभवका की व्याख्या बहुत प्रापेक्षिक क्षणस्थायी और निराधार आयोजन उसके लिये निर्णीत ( Reserved ) है। है। सबल का सफल कृत्य अभिवन्दनीय है, वहीं यहीं उसके कर्तव्य की इति और प्रारंभ है । और इस निर्बल हाथ असफल रह जाने पर निन्दनीय है। पर रीतिकी, औचित्यकी, उपादेयता की और ___ यह भी दीख पड़ा कि जो एक ही अंत को आवश्यक्ता की मोहर भी लगी हुई है। स्वीकार करते हुए दो मार्ग हैं-एक 'राजत्व' दूसरा ____ तो यह तो ठीक होगया कि विलासशोध और 'डकैती'- जिनमें से एक दुनिया उसे अधिकारतः स्वार्थसिद्धि ही उसके लिये एक इष्ट तत्त्व है। क्यों सौंपना चाहती है, और दूसरे को उसने हेय मान रक्खा कि सारा संसार उससे इस ही की आशा और है, उसके निज की ओर से यदि उनमें कुछ अंतर है आकांक्षा रखता दीख पड़ता है। और वैसे खुद भी तो यह कि एक की सिद्धि उसे मानों उपहार में दे दी संसार उसी को अपना उद्देश्य बना कर व्यस्त रहता जायगी, दूसरे की सिद्धि उसे अपने रूप अपने और उन्नति करता है। किन्तु संसारके औचित्य और चातुर्य और सक्षमता के बल पर कमानी होगी। न्याय्यता की मोहर लगा हुआ जो मार्ग उसके सामने एक बात कुमार को और भी दृढ़तासे इस पक्ष में पेश है, और जिसको तन्मय होकर अपना लेनेके लिये करने लगी । शस्त्र-नोंके परिचालन, सैन्य संचालन, Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागशिर, वीरनि० सं० २४५६] विधुवर यद्धविद्या, राजनीति-विद्या और चातुर्य की अन्य सफल हुआ तो क्या हुआ ? उसने वह सब बाधाएँ कलाओं में जो उसने प्रवीणता प्राप्त की है, उसकी और आपत्तियाँ उठान्य आवश्यक समझा जो एक उपयोगिता पहले मार्ग में उतनी नहीं है जितनी दूसरे साधारण चोरको उठानी पड़तीं । अर्थात् , उसने अपने में । प्राप्त राजत्व में उसकी दक्षता, निपुणता शौर्य और परिधानमें, आकृतिमें, व्यवहारमें, अपने दिमाग़ और होशियारी इतनी काम नहीं आयेगी, जितनी 'अप्राप्त दिलमें भी-यानी भीतरी-बाहरी, अपने सम्पूर्ण सेनापतित्व' बनाने और निभाने में। और अपनी व्यक्तित्वमें-युवराजत्वका कोई चिन्ह अवशेष न रहने शस्त्रास्त्रों की कुशलता सीखने और सिखाये जाने का दिया। -और एक दिन सुना गया, राजकोषसे कई वह आवश्यक रूप में यह उद्देश्य समझता है कि उस सहस्र दीनार गुम हो गये हैं। दक्षता का अधिकाधिक उपयोग हो-वह अधिकाधिक चोरीअसाधारण थी,-परिमाणमें, साहसिकतामें कृतकार्यता पाए। और कौशलमें भी। क्योंकि इस भारी दुस्साहसिक ___ जब स्वार्थ सिद्धि लक्ष्य है, तो उसका मार्ग भी चोरकी गंध भी न लग पाई । कोई जरासा भी आधार यही है इस संबंध में वह नितांत निश्शंक है। और इस नहीं छोड़ा गया था जिससे संदेह और खोजका सिलराहसे मिलने वाले ऐश्वर्यकी सीमा नहीं, गणना नहीं सिला शुरू होसकता । राज्यका तमाम परिकर-परिचर परिभाग नहीं, बंधन नहीं; और इस राह में निरंतर और गुप्तचर विभाग चोरकी हवा पानेकी टोहमें लगा। चातुर्य और शौर्य की आवश्यक्ता है । जब कि राजत्व पर महीनों बीत गये । खाज बहुत ही फैली और का ऐश्वर्य परिमित है, राज्यके विस्तार की सीमा है, फैलाई गई, पर आगे एक इंच भी नहीं आ पाई। और राज्यके कर की गणना है और राजत्व पर दस आखिर, हार कर, यह शोध छोड़ दी गई । घटना तरह के विधि विधान ( Constitution ) के बंधन भुला दी गई । चर्चा पुरानी होगई, बस स्मृति की चीज हैं, और उसमें कभी कभी ही शौर्य और चातुर्यप्रदर्शन रह गई-तब कुमार विद्युञ्चरको अपने पर विश्वास की आवश्यक्ता पड़ती है हुआ । सोचा, अब वह अपने चातुर्य पर अवलंबित ___ इस प्रकार उस एकनिष्ठ कुमारने मानो संसारकी रह कर इस व्यवसायमें पूर्ण योगसे पड़ जायगा । प्रगतिमें छिपे तत्वको पहचान कर उसके अनुरूप, दोपहरका समय था। पिताजी विश्राम कक्षमें निश्चय कर लिया-वह चोर बनेगा। । कुमार सीधा पहुँचा,-पूर्ण निर्णय उसके मनमें (३) था, वही उमकी चालमें और बातमें-उनके चरण नो वह चोर बन उठा । इस मार्ग पर पग रखना ही छुए और बालाहै तो आगे कहीं ममता और मोह बाधक न हो, इससे "पिताजी, वह. ..... पहले पिताके यहाँ ही चोरी करना आवश्यक समझा पिताजी चौंके । यह समय, यह स्थान ! और गया। शुभ का परसे ही शुरू हों, Charity be- कुमार, और यह उमका मुद्रा !' gius at hom' अर्थात पहिली चोरीका लक्ष्य बोलेअपने घरका ही राजमहल और अपने पिताका ही "कुमार, क्या है ?..." गजकोष न हो तो क्या हो ? "पिताजी, वे दीनारें...!" _ किन्तु राजपुत्रत्वसे मिलनेवाले किसी भी सुभीते और अधिकारसे लाभ उठाना विद्युचर स्वीकार नहीं "कहां मिली"? कर सकता था। यह करना मानों अपनी कार्यकुशलता "मैंन चुराई थीं।" पर अविश्वास करना था। इस प्रकार यदि चोर-कार्य पिता जैसे सचमुच सुन पाये ही नहीं Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० अनेकान्त "क्या ?” “वे दीनारें मैंने ही चुराई थीं। ये रहीं।” कानोंने सुना, आँखोंने देखा, ये शब्द उतने ही सत्य हैं और ठोस हैं जितनी सोनेकी ये दीनारें । चाहने और कोशिश करने पर भी अविश्वास नहीं हो सकता । किन्तु ऐसे दुर्घट, भयंकर सत्य के सामने पिताको बोल क्या सूझे ? वह तो सामने खड़े उद्धत और निश्चित कुमारको सुन्न देखते रहनेके सिवा बाकी सबकी मानों शक्ति ही खो बैठे। और कुमार कैसा हृदयहीन है कि अपनी कम्बख्ती पर भी मानों गर्व कर रहा है ! पिताको क्षुब्ध लांछित, गतबुद्धि, हतचेत और सुन्न तो किया, पर फिर भी मानों उन पर तरस खाना नहीं चाहता । बोला: "अब यही काम करना चाहता हूँ ।" पिताका क्षोभ शब्द न पा सका । “मैं अब यही काम करूँगा । आपका राज्य छोड़ ढुँगा, राज्यका सब अधिकार छोड़ दूँगा । यही वृत्ति लूँगा । निश्चय मेरा बन चुका है... । पिताका क्षोभ दुर्द्धर्षता पार कर गया । अब तो मानों वह आँसू बहा कर ही ठंडा होगा । अब उसमें तेजी नहीं रह गई, रोष नहीं रह गया, इन अवस्था से पार हो कर मानों, वह क्षोभ अब दया बन उठा है। दया जिसमें कृपाका भाव है, प्रेमका भाव है, जिसमें व्यथा है और लांछना है। जो जलती नहीं बहती है। तब पिता ये ही दो शब्द कह सके" जाओ - ।" और कुमारके लिये तर्जनी उठा कर द्वारकी ओर निर्देश कर दिया । कुमारको चला जाना ही पड़ा। उसके निश्चयमें ढील नहीं आई । किन्तु देखा अभी एक दम महल छोड़ कर अपने मनोनीत व्यवसायको अपनानेके लिये वह नहीं जा सकता । पिताको सब बातें समझानी होंगी, जिससे फिर उनके बीच कड़वापन न रहे, मैल न रहे, भ्रम न रहे । अभी तो पिताको सब [ वर्ष १, किरण १ समझा कर बताना संभवनीय न था । पिताको उस सुन्नावस्था से बोध जल्दी नहीं मिला । बहुतसे आंसू निकालने पड़े फिर भी भीतर उमड़ती हुई वेदना और ग्लानि खतम नहीं हुई । कुमार इ आकस्मिक - अशुभ परिवर्तनको वह सहानुभूति के साथ देख ही नहीं सकते, समझ ही नहीं सकते । - मूर्खको क्या सूझा है, कुलाँगार ! रह-रह कर गुस्सा छूटता है, जितना ही मोह उठता है, उतना ही लेश्यामें कालापन आता है, और उतनी ही वितृष्णा, वैराग्य और क्रोधके भावो में प्रबलता हो आती है । में भावनाओं का धुआँ बैठने लगा, विचारोंने तनिक स्पष्टता पाई और सामने मार्गसा नज़र आया । सोचा- उसे समझेंगे, डाटेंगे, समझायेंगे । फिर जरूर उसकी कुबुद्धि दूर हो जायगी । कुमारको बुलाया । " कुमार, यह क्या बात है ? यह मैंने क्या सुना ? - क्या यह ठीक है कि दीनारें राज कोष से तुमने ही ली थीं ? — ली थीं, तो बताया क्यों नहीं ? या यह सब कुछ सचे अपराधीको ढँकनेके लिये है ?” 'नहीं, पिताजी । खर्च के लिये नहीं लिये थे, चोरी के लिये चुराये थे । खर्चकी क्या मुझे कमी है ? और मैंने ही चुराये थे । बताये इसलिये नहीं कि मेरी चोरीकी होशियारी की जाँच हो जाय । और अब बताया इसलिये कि यह चोरी तो श्राजमानेके लिये की थी। पर अब, पिताजी, मैं यही काम करूंगा ।” तीखे प्रश्नवाचक में पिताने कहा :-- "कुमार ? कुमारने कहा - “मैंने सब सोच लिया है, पिताजी । मुझे युवराजत्वसे और राजत्वसे संतोष नहीं है । पहले तो वह मुझे अपने हक़की चीज नहीं मालूम होती । फिर उसका ऐश्वर्य परिमित है। इस मार्ग से जिसे चोरी कहते हैं मैं अपरिमेय ऐश्वर्य तक पहुँच सकता हूँ । इससे इसी मार्ग पर क्यों न चलूँ ? Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गशिर, वीरनि० सं०२४५६] विधुवर कुमार, तुम्हारी मति विभ्रममें पड़ गई है । ऐश्वर्य मुकुट टूटे तो सब टूट जायें, और सिंहासन न रहे तो ही सो ध्येय नहीं है दुनियाँ में औचित्य भी तो कुछ क्या कुछ रहे ही नहीं ? बताइये फिर क्यों आवश्यक वस्तु है । हेयोपादेय भी कुछ होता है। लोगोंका धन है ? । अपहरण करना, उन पर आतंककी तरह छाया रहना, “कुमार, बतानेसे कुछ न होगा। तुम्हें अभी अपने उनको चूस कर खुद फूलना - धिक् , कुमार, तुम्हें नये-बन उद्देश्यका बुखार आरहा है। धीरे धीरे तुम ही लज्जा नहीं आती ?" खुद समझोगे।" ___ "पिताजी, हेयोपादेय हो भी तो भी आपके कर्तव्य “समझेगा तो समझंगा । किंतु अभी तो निश्चित और अपने मार्गमें उस दृष्टिसे कुछ अंतर नहीं जान हैआप नहीं समझा सकते । और खुद समझनेकी बात पडता। आपकी क्या इतनी एकांत निश्चितता, इतना पर निर्भर रहकर चपपड़ जाना पक्ष-प्रबलताका लक्षण विपल सख सम्पत्ति-सम्मान और अधिकार-ऐश्वयं नही?" का इतना ढेर, क्या दूसरेके भागको बिना छीन बन सकता है ? आप क्या समझते हैं, आप कुछ दूसरेका “न हो । मैं मानता हूँ, अनुभव आवेशसे प्रबल अपहरण नहीं करते ? आपका 'राजापन' क्या और नहीं होता; और सत्य सदा ही भ्रम से कम आकर्षक मबक 'प्रजापन' पर ही स्थापित नहीं है ? आपकी ___ और इसलिये कम जटिल होता है। सत्य शब्दोंसे प्रभुता औरोंकी गुलामी पर ही नहीं खड़ी ? आपकी बँधता ही नहीं, जब कि सत्य पर उलझन बुनती हुई संपन्नता औरोंकी गरीबी पर, सुख-दुःख पर, आपका भ्राँति शब्दबहुल और तर्क-तंतु-गुम्फित होती है।" विलास उनकी रोटीकी चीख पर, काप उनके टैक्स "पिताजी, मुझे तो सत्य भ्रांति, और तर्क सत्य पर, और आपका सब कुछ क्या उनकं सब कुछका दाखता है। तर्कस निरपेक्ष भी सत्य कोई हो सकता कुचल कर, उस पर ही नहीं खड़ा लहलहा रहा? फिर है,यह उपहास्य है।" मैं उस मार्ग पर चलता है तो क्या हर्ज है। हाँ. अंतर "ज्यादा विवाद मैं नहीं करना चाहता, कमार । है तो इतना है कि आपके क्षेत्र का विस्तार सीमित है, तुम अपने मन पर दृढ हो, तो मेरे राज्यमें न रह सकोगे। मेरे कार्यके लिये क्षेत्रकी कोई सीमा नहीं; और मरं मुझे तुम्हें अपना पुत्र मानतं रहनेमें भी लज्जित होने कार्य के शिकार कुछ छंट लोग होते हैं, जब कि आपका को बाध्य होना पड़ेगा । तुम्हारी याद भी मुझे दुःख राजत्व छोटे बड़े, हीन-सम्पन्न, स्त्री-पुरुष, बच्चे-बढ़े- पहुँचाएगी । मुझे बड़ा दुःख है कि तुमसमझदार होकर सबको एकसा पीमता है । इसीलिये मुझे अपना भी नहीं समझना चाहतं ।” मार्ग ज्यादा ठीक मालुम होता है।" ___"यही कहनकी आज्ञा चाहता था, पिताजी अपनी ___ "कुमार, बहस न करो । कुकर्ममें ऐसी हठ भया- बातसे हटना ज़रूरी और इसलिये संभव मुझे नहीं वह है । राजा समाजतंत्र के सुरक्षण और स्थायित्वके दीखता, और पास रहकर आपके जीको क्लेश पहुँचात लिये आवश्यक है, चार उस तंत्र के लिये शाप है, रहना मेरे लिये और भी असंभव है । इसलिये मेरी घुन है, जो उसमें से ही असावधानता से उग पठता इच्छा थी कि गज्यसे बाहर जानकी श्राप मुझे आज्ञा है और उसी तंत्र को खाने लगता है।" दें। आज ही चला जाऊँगा । फिर कष्ट न दूंगा।" ___ "राजा उस तंत्र के लिये आवश्यक है ! क्यों पिताने कहा: आवश्यक है ? इसलिये कि राजाओं द्वारा परिपालित- "जाओगे तो जागो । हाँ, जरूर जाओ। इसीमें परिपुष्ट विद्वानोंकी किताबों का ज्ञान यही बतलाता मालूम होता है, तुम्हारा भला है । दुःखित होनेका भी है ? नहीं तो बताइये, क्यों आवश्यक है ? क्या काम नहीं, और यही मानकर संतोप मान लेना अच्छा गजाका महल न रहे तो सब मर जॉय, उसका है कि इस मार्ग से जो ठोकरें तुम्हें मिलेंगी उनमें एक Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२. 64 अनेकान्त ठोकर होगी, जो तुम्हारी आँखें खोल देगी, ऐसे जैसे आत्मा के झरोखे खोल दिये हों। यह सुनूँगा, दुर्भाग्यको भी सौभाग्य मानूँगा । — जाओ । " तो इस कुमारने चरण छुए और चला गया । X X X दूर-दूर तक एक डाकूका आतंक फैल गया । धनिक दहशतसे घबराये रहते थे। लोहे के सीखचों और संगीनोंके पहरेमें भी बंद उनकी सम्पत्ति सुरक्षित है, पल भर भी उनको इस आश्वासन का चैन नहीं मिलता था। शंका, आशंका से सदा उन्निद्र सशंक, व्यथित और सतर्क रहते थे । उस डाकूके दलोंके संघटनकी जड़में क्या जादू था, समझ नहीं पड़ता । वह संघटन अजेय, अमोघ और अभेद्य था । भेद उसमें जरा कोई न डाल सका, और बिना भेद डाले जीतनेकी संभावना हो ही कैसे बनारस हिन्द यूनिवर्सिटी ता०८-१०-२६ सकती थी । किंतु फिर भी डाकू और डाकूका दल व्यर्थ हिंसा से यथाशक्य बचता है - यह बात सर्व परिचित थी । अब कुछ दिनोंसे डाकूका डेरा राजगृहीमें जमा है । राजगृही जन-धन-धान्य- सम्पन्न सुंदर सुविशाल नगरी है | मनुष्य-कृत प्रह-निर्माण और पुर-निर्माण की दृष्टि में उतनी ही सुंदर है जितनी प्रकृतिगत नैसर्गिक छटाके लिहाज से । चारों ओर पाँच पहाड़ियाँ हैं, जो परिक्रमा देती हुई नगरीको कोटकी तरह घेरे हैं। यह पार्वत्य माला नगरकी रक्षा प्राचीरका काम भी देती है, और अब डाकू सैन्यकी रक्षा दुर्गका भी । महामना पूज्य मालवीयजी का शुभ सन्देश [ वर्ष १, किरण १ यह डाकू सर्दार और कोई नहीं, कुमार विद्युच्चर है । राजगृही की सुप्रसिद्ध वारवनिता वसंततिलका के यहाँ विद्युश्वरका ज्यादा आना जाना और रहना होता है । ( अगले अंक में समाप्य) " आप के श्राश्रम के उद्देश्य ऊँचे हैं और उन के साथ मेरी सहानुभूति है । आपका एक मासिक पत्र निकालने का विचार भी सराहनीय है । मैं 'हृदय से चाहता हूँ कि उस पत्रके द्वारा आप अपने आश्रमके उद्देश्योंको पूरा कर सकें और ऐसे सच्चे सेवक उत्पन्न करें जो वीर के उपासक, वीरगुणविशिष्ट और लोकसेवार्थ दीक्षित हों तथा महावीर स्वामी तथा अन्य जैनश्राचायों के सत्-उपदेशोंका ज्ञान प्राप्त कर धर्ममें दृढ सदाचारवान, देशभक्त हों ।" आपका हितचिन्तक ) मदनमोहन मालवीय Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गशिर, वीरनि० सं०२४५६) अहिंसा और अनेकान्त - [ले० श्रीमान् पं० बेचरदासजी, न्याय-व्याकरणतीर्थ ] माह 'अहिंसा' और 'अनेकान्त' ये दोनों शब्द एक तदुपरांत उसके साथ समभावको लिये हुए प्रेमपूर्वक तरहसे पर्यायवाचक हैं । यद्यपि व्याकरण, व्युत्पत्ति वर्ताव करना । ऐसा करनेसे ही भगवान महावीर-द्वारा और शब्दकोशकी दृष्टिसे इनका पयोय वाचक होना कही गई अहिंसाका पालन हो सकता है, अन्यथा लग भग अप्रसिद्ध जैसा aa नहीं। अनेकान्तदृष्टिमें है, फिर भी तत्त्वदृष्टिसे सत्यशोधन को बाधन M इस लेखक लेखक पं० चरदासजी श्वे० जैन M विचारा जाय तो ये करने वाले रंगभेद, दोनों शब्द बिलकुल समाजके गण्य-मान्य-उदारहृदय विद्वानोंमें से एक हैं। जातिभेद, संप्रदायभेद, पर्याय-वाचक हैं, ऐसा आप प्राकृत व्याकरणादि अनेक ग्रंथोंके लेखक, अनु गच्छभेद, क्रियाभेद, कहनेमें कोई बाधा नहीं वादक तथा संपादक हैं। साम्प्रदायिक कट्टरतासे दूर आचारभेद, और है। जो मनुष्य अहिंसा रहते हैं और अहमदाबादक गुजरात-पुरातत्व-मंदिरमें अनेक तरहके विधिधर्मका पालन करेगा एक ऊँचे पद पर प्रतिष्ठित हैं। 'अनेकान्त' के लिये विधानोंके भेदको भी उसकी दृष्टि, उसका आपने लेख देना स्वीकार किया था परंतु एकाएक उचित स्थान प्राप्त है। आचार-विचार यदि आप भयंकर नेत्ररोगसे पीड़ित होगये और डेढ़ जैसे एक पाठशालामें अनकान्तकी जड़ पर महीनेसे असह्य वेदना उठा रहे हैं। ऐसी हालतमें कोई अधिकारानुसार अनेक न होगा तो वह शख्स - आशा नहीं थी कि 'अनेकान्त' के प्रथमांकको आपके नरहकी पढ़ाई होती है कभी अहिमाका वास्तलेखका सौभाग्य प्राप्त होगा । फिर भी संदेशविषयक और वह पढ़ाई भिन्न विक पालन नहीं कर || मेरे अनुराधको पाकर आपन रोगशय्या पर पड़े पड़े भिन्न होने पर भी मकता और जिम मही यह छोटासा लेग्य लिखकर भेजा है, जो आकारमें उसके पढ़ने वाले परनुप्यकी दृष्टि और उम छोटा होने पर भी बड़े महत्वका है । इस वीराचिन स्परमें लड़ते झगड़त का आचार-विचार - उत्माह तथा सत्कार्य-सहयोगके लिये आप विशेष नहीं हैं वैमे ही संसार नकान्तका लक्ष करके । धन्यवादकं पात्र हैं। हार्दिक भावना है कि आप शीघ्र में रहे हुए मब तरह बना होगा वह अवश्य ॥ में शीघ्र स्वास्थ्य लाभ करें और अनेकान्तके पाठकोंको | के भेदको समन्वित अहिंसाका वास्तविक ill आपके गवेपणापूर्ण लेग्वोंके पढ़नका पूग अवसर | करनेके लिए-एकता -मंपादक के सत्रमें बाँधने के अर्थान जहाँ जहाँ अहिं- 0- :- = -= == ==S लिए-अनकान्तदृष्टिका माका पालन होता है वहाँ उसके गर्भमें अनेकान्तका आविर्भाव है। अनेकान्तके विचारसे सर्वत्र प्रेमका वास जरूर रहता है। और जहाँ जहाँ अनेकांतदृष्टि संचार होता है और मैत्री, प्रमोद कारुण्य, माध्यस्थ्य की प्रधानता है वहाँ सर्वत्र अहिंसाका अभ्रान्त रूपस जैसी उपयोगी भावनाओंकी वृद्धि होती है । इसीसे अवश्यंभाव है। इस आशयको लेकर ही यह कहा उत्तरोत्तर चित्तकी शुद्धि होती है । और चित्तशुद्धि गया है कि 'अहिंसा और अनेकांत ये दोनों एक तरह होने पर निज और जिनका तादात्म्य हो जाता है। वाचक शब्द हैं। अनेकान्तका अर्थ यह है यह 'अनकान्त' पत्र ऐसे अहिंसात्मक अनकान्त कि अपनेसे भिन्न विचार, भिन्न आचार, भिन्न दृष्टि का प्रचार करनेके लिए ही उद्यत हुआ है । इसलिए और हरतरहकी भिन्नताको-जिसकी नीव सत्यशोधन इसका विजय, कल्याण, मंगल और प्रचार होनमें है-देखकर चित्तमें लेश भी रंज न होने देना और शंकाका लेश भी अवकाश नहीं है। पालन कर सकता है। मिले। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ अनेकान्त महाकवि रन्न [ले०, श्रीयुत् पं० बी० शांतिराजजी शास्त्री ] यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि, इस पृथ्वीमंडल में जो कुछ भी जैनधर्मका अस्तित्व है उसमें पूर्वाचार्यों द्वारा रचित प्रन्थरत्न ही मुख्य कारण हैं। हमारे पूज्य पूर्वजोंने जिस तरह संस्कृत तथा प्राकृत भाषा ग्रन्थ रचकर जैनधर्मके प्रचारका परिश्रम उठाया है, उसी तरह उन्होंने प्रान्तीय भाषाओं में भी अनेक ग्रन्थरत्न लिखकर जैनधर्म के प्रसारका महान कार्य किया है । कर्णाटक तथा तामील भाषाकी श्रात्मा जैन विद्वानोंकी कृतियाँ ही हैं, और यह कूपमण्डुककी तरह मैं ही नहीं कह रहा हूँ; किन्तु उन भाषाओंके धुरन्धरोंकी भी यही सम्मति है । कर्णाटक में जैनधर्मका जो कुछ भी गौरव है उसमें मुख्य कारण कर्णाटकीय जैन विद्वानोंकी कृतियाँ ही हैं । जैन विद्वानोंने इस भाषामें असंख्य अमूल्य ग्रन्थ रचे हैं । यदि जैनसाहित्यको कर्णाटक भाषासे अलग कर दिया जाय तो कर्णाटक भाषाका स्वरूप ही न रहेगा, ऐसी ही सम्मति उस भाषाके जैनेतर विद्वानोंकी है, वास्तवमें कर्णाटक भाषाके कालिदास, तुलसीदास और सूर, जैन विद्वान् ही हैं। और इस बातका खास प्रमाण पम्प, पोन्न तथा रन्नकी जयन्तियाँ हैं, जो कि जैनेतर विद्वानोंने समय समय पर मैसूर तथा धारवाड़ आदि स्थानों पर मनाई हैं। कर्णाटक भाषा के विषयमें ये तीनों कवि रत्नत्रय गिने जाते हैं । पम्पके आदि पराण, पोन के शान्तिनाथपुराण तथा रन्नके अजित - [वर्ष १, किरण १ नाथपुराणके मर्मज्ञ ही कर्णाटक भाषाके प्रौढ विद्वान गिने जाते हैं। इसी लिये कर्णाटक भाषाकी उच्च कक्षाकी पढ़ाई में जैनप्रन्थोंने ही सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया है । कर्णाटक के प्राचीन उद्भट विद्वानोंने प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोगका अतीव सुन्दर सुललित भाषामें वर्णन किया है। गोम्मटसार की टीका भी इस भाषा में उपलब्ध है और उसीके आधार पर संस्कृतटीका लिखी गई है । व्याकरण, छन्द और अलंकारादि की सर्वोत्कृष्ट कृतियाँ भी जैन विद्वानोंकी ही रचना हैं। मैसूर सरकार जैनकृतियों को धीरे धीरे प्रकाशित करा रही है, जो कि एक सन्तोष की बात है । कुछ समय पूर्व मैसूर यूनिवर्सिटी में युनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार श्रीयुत श्रीकण्ठय्याजी एम्० ए० बी० एल० की अध्यक्षता में श्री रन्नकविकी जयन्ती मनाई गई थी - कर्णाटक के महान् विद्वानोंने एकत्र होकर रन्न का गुण गान किया था । उसी समय रन्नकृत “गदायुद्ध” नामकी कृतिके अभिनय के द्वारा युनिवर्सिटी के छात्रोंने, रंग भूमिमें दर्शकों के मनोंको मुग्ध कर, आशातीत सफलता प्राप्त की थी, और विमर्शात्मक निबंधोंद्वारा कर्णाटक- जनता पर रन्नकी कृतिका महत्व प्रकट करनेके लिये एक प्रस्ताव भी पास हुआ था । तनुसार श्रीयुत श्रीकण्ठय्या एम०ए० बी० एल०, रंगराग एम० ए०, दोरे सामय्यंगार एम० ए० बी० Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गशिर, वीरनि० सं० २४५६] | महाकवि रन्न एल०, श्रीवेंकटरामय्या एम० ए०, एल० एल० बी०, मुखसे उन्हें सुनने के लिये उत्सुक रहा करते थे और सुब्रह्मण्य शास्त्री आदि पन्द्रह सोलह विद्वानोंके उसके वचनामृतसे मिश्रित उन्हीं कथा-कहानियों आदि विवेचनात्मक निबन्धोंका एक संग्रह २७० पृष्ठोंमें का आस्वादन कर श्रानन्द सागरमें मग्न हो जाते थे। पुस्तकाकार छपा है, जो कि श्रीमान् मैसूर-नरेशको रन्नने अपना बाल्यकाल प्रायः अध्ययनमें ही अर्पण किया गया है। पुस्तकमें श्रीमान् मैसूरनरेश, बिताया था। जब कुमारावस्थामें प्रवेश किया तब इस भगवान् अजितनाथ, भगवान्का जन्मकल्याण की रुचि विशेष अध्ययनकी ओर बढ़ी। माबापकी यनिवर्सिटीके छात्रोंका अभिनय चित्र, श्रवण परिस्थिति ठीक न होने तथा पासमें ही अपने योग्य वेल्गोलमें खुदी हुई रन्नकी प्रशस्ति आदि छह सात किसी अच्छे गुरुके न मिलने पर भी उसने हिम्मत नयनाभिराम तथा हृदयग्राही चित्र हैं । आज इसी नहीं हारी; वह हर्ष-शोकादिसे अभिभूत न होकर महाकविका कुछ परिचय मैं 'अनेकान्त' के पाठकोंकी अपने निश्चय पर अटल रहने वाला दृढव्रती, बातका भेट करता हूँ: पका और आनका पूरा था । इसलिये उसने अपनी ___ इस कविकोविदका जन्म शक सं० ८७० (सन उद्देश्य-सिद्धिके लिये देश छोडकर सुदूरवर्ती गंगराज्य ५४५) में अर्थात आजस ५८० वर्ष पर्व बीजापुर के मंत्री श्रीचामुण्डरायकं पास जाना स्थिर किया जिलान्तर्गत मुछाल नगरमें हुवा था । जिन वल्लभ और और वहाँ पहुँच भी गया। चामुण्डराय तो गुणीजनोंका अब्बालब्बे नामके जैन वैश्य दम्पनि इसके मा बाप थे। आश्रयदाता था ही, फिर वह ऐसे प्रतिभा सम्पन्न ये चडी बेच कर जीवन-निर्वाह करने वाले गरीब तीक्ष्ण बुद्धि सज्जनको पाकर उसकी सहायतासे कब गृहस्थी थे, इसीम सन्तानकी विशप शिक्षाकी व्यव- चकने वाला था । रन्न भी उत्तम आश्रयको पाकर स्था न कर पात थे । परन्तु रन्न जन्मम ही होनहार अल्पकालमें ही संस्कृत, प्राकृत तथा कर्णाटक भाषामें मालूम होता था, सुभग और सुम्बरादि उत्तम प्रकृति- निपुण हो गया और जैनन्द्रादि व्याकरण शास्त्र में भी योंने इसको अपनाया था, इसको देखते ही अनजान उसने पूर्ण पाण्डित्य प्राप्त किया। साथ ही कर्णाटक आगन्तुक भी अपनाने लगता था और पडोसियोंका भाषामें कवित्व करनकी दैवी शक्ति भी उसे प्रकट तो यह नेत्राँजन तथा कर्णामृत ही बना हुआ था। तब हुई। अपने माबापका कितना प्यारा न होगा इस पाठक इस तरह महान विद्वान होकर रन्न जैनसिद्धान्त स्वयं ही समझ सकते हैं। रन्नके प्राकृतिक गुणों पर पढनके लिये तत्कालमें प्रसिद्ध गंगराज तथा चामुण्डमुग्ध होकर अकमर लोग उसे घेरे ही रहा करते थे । रायके गुरु श्री अजितसनाचार्यकी चरण-मेवामें वाल्यकालकी बोली वैसे ही सबको प्रिय लगती है फिर गया। उनके पास रह कर और जैनमतके रहस्यको रन्नकी तो बात ही अलग थी। इसकी ग्रहणशक्ति, अच्छी तरह जान कर वह वापिस गंगगजके दर्बार वर्णनशैली. और प्रतिभा बाल्यकालमें ही आश्चर्य- में आया और तब उसने अपनी अलौकिक विद्वनाम कारिणी थी । इसीसे कुछ लोग कथा-कहानियाँ और विद्वजनोंको मुग्ध कर दिया था। उस समय के विद्वाकोई गाना आदिक उमे सिखला कर पुनः उमक नोंमें यही एक सर्वोत्कृष्ट विद्वान गिना जाता था, इमी Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त ४६ से हर एक राज- दर्बार से यह निमंत्रित होकर जाता और महती प्रशंसा तथा सत्कार के साथ वापिस लौटता था । इस कविकी चार प्रसिद्ध रचनाएँ हैं - १ गदायुद्ध जिसे साहस भीमविजय भी कहते हैं । २ अजित - तीर्थकर पुराणतिलक, ३ परशुरामचरित और ४ चक्रेश्वरीचरित । पहली रचना शैवमतानुयायी चालुक्यराज 'तैलप' को उद्देश करके लिखी गई थी । तैलपने रन्नकी इस रचना से सन्तुष्ट होकर उसे "कविचक्रबर्ती" की उपाधि दी थी। साथ ही, हाथी, पालकी, गाँव यदि देकर उसका पूर्ण सत्कार किया था । रन्न की विद्वत्तासे मुग्ध होकर ही बादको होनेवाले प्रसिद्ध प्रसिद्ध विद्वानोंने अपनी अपनी रचनाओं में रन्नकी रचनाको उदाहरण रूपसे उद्धृत किया है, जिसके लिये नागवर्म, केशीराज तथा भट्टाकलंक आदि वैयाकरणोंके ग्रंथ ही पर्याप्त हैं। रन्नकी रचना में शब्द-सुन्दरता, रस, अलंकार, ध्वनि, गुण आदि परिपूर्ण होने से पढ़ने वालों के हृदय में जो परम आनन्द होता है उसमें केवल सहृदयों का अनुभव ही प्रमाण है । फिर भी रन्नकी कविता के कुछ नमूने नीचे दिये जाते हैं। विभिन्न भाषाकी कविताके अनुवादमें यद्यपि वह चमत्कार नहीं रहता जो मूलमें होता है – यों ही कुछ आभास मिला करता है तो भी कविका पाण्डित्य परिचय करानेके लिये उसकी रचना के कुछ अंशका अनुवाद भी पाठकोंके सम्मुख रख देना उचित समझता हूँ: कर्णाटक रचना | "मोन्दिदलि-निनद-दिन्दभि । बन्दिसुतम गन्योन्पुनर्दर्शनम || [वर्ष १, किरण १ केन्दु दिन । बन्ददे मुगिदिर्दु वलर्दता वरेयलर्गल् ॥” इसमें बतलाया है कि, 'सूर्यास्त समय में आपो आप मुकुलित होने वाले कमल अपने मित्र सूर्यका वियोग देख कर प्रत्यागमनके लिये ही मानों हाथ जोड़ कर भ्रमर ध्वनि से प्रार्थना कर रहे हैं।' यह उत्प्रेक्षालंकार का एक नमूना मात्र है। संस्कृतबाहुल्य रचना | शिष्टजनाशिष्टं बहु कष्टं बहु दुष्टमष्टकर्माशिपरि । प्लष्टं हा हा धिक् चि कष्टमवश्यं निकष्टमी संसारम् ॥ इसमें "च उगति दुख जीव भरे हैं, परिवर्तन पंच करे हैं । सब विधि संसार असारा, तामें सुख नाहिं लगारा ॥" इस हिन्दी रचना विषयको कितने अच्छे ढंग रक्खा है उसका पता उभय भाषा के सहृदय विद्वान ही लगा सकते हैं । इतिहास के पण्डितों का कहना है कि रन्नकी कोई न कोई जुदी संस्कृत रचना भी होनी चाहिये; परन्तु वह अभी तक उपलब्ध नहीं हुई तथापि कर्णाटकी रचना के बीच बीचमें पाई जाने वाली संस्कृत रचना भी कविके संस्कृत पांडित्यकी यथेष्ट परिचायक है । पाठकों के विनोदार्थ उसीके कुछ नमूने यहाँ दिये जात हैं । भगवान् श्रजितनाथके जन्म कल्याण समय इन्द्र के द्वारा गीर्वाणवाणी से स्तोत्र कराते हुए लिखा : "" “जय जय जगत्त्रयपतिकिरीटकूटको टिमसृणचारुचञ्चन्नखमयूखोदन्तमयूखमण्डल, मण्डलीभूतसकलदिकपालमालामौलिमणिकिरणजालबाला Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + मागशिर, वीरनि० सं० २४५६] महाकवि रन्न ततच्छायारुणित-तरुणपारिजात-पल्लवायमानपा- प्रशान्तान्तरंग प्रभाभास्वरांग । दपल्लव, पन्लवित-कुसुमितानल्पकल्पलतायमान प्रसिद्धाभिधान प्रमोक्षप्रधान ।। कल्पेश्वरमाणेश्वरिसमुल्ल सितकरतल पन्लव प्रणष्टप्रमाद प्रकृष्टप्रमोद । नखमयुखरुचिर-प्रचुर-काश्मीरांगराग द्विगुणी- प्रधृष्यद्गभस्ते नमस्ते नमस्ते ।। कृतकनककमनीयकाय कान्तिभ्रमद् भ्रमर कुलविनील कुटिल सञ्चलत्कुन्तल कलाप लगदुग्धी इस तरह महाकवि रनका यह संक्षिप्त परिचय दविन्दुसन्दोहसन्दिग्धमूत्र भूषणव्यक्त मुक्ता- है। दूसरे इतर विद्वानोंने इस कविरत्नके विषयमें जो जालपकरकरकमल मुकुलालंकृत रुन्द्रललाट- अपने उद्गार प्रकट किये हैं उन्हें इस छोटेसे लेखमें पट्ट, द्वात्रिंशदिन्द्रमणिमयकिरीटकोटिघट्टितपाद बतलाना अशक्य है, तो भी एक + जैनेतर विद्वानके पीठ, पीठीकृतमन्दराचलशिखर शेखरीभततिल विस्तृत लेखका कुछ अंश यहाँ दे देना उचित समकायमान महनीय महिमादय, महिमोदयाद्भासि झता हू:भगवजिनेन्द्रवन्दवन्दारक, श्रीमदजितभट्टारक- "कर्णाटक भापारमणीका सौन्दर्य इस रन रत्नस जिन नमस्तं नमस्ते नमस्ते ।" ही द्विगुणित हुआ है, यह कोई अतिशयोक्ति नहीं । इसी तरह ज्ञानकल्याणकं समय भगवानकं म- इस रत्नकी प्रभा कर्णाटक महापामादका मांगलिक म्मुख इन्द्रकं मुखसे गीर्वाण भाषामें जो पद्य म्तात्र दीप है । यही कर्णाटकियोंका सौभाग्य रत्न है" *। कराया गया है उसके कुछ वाक्य इस प्रकार हैं- इस नरहम जैनतर विद्वान जैनसाहित्यको अपना " जय जय जिनाधीश कनकपनसंकाश । रहे हैं, धीरे धीरे उमे प्रकाशित करा रहे हैं-शीघ्र जय जय जगत्तिलक कृतभन्य जनपलक ॥ ही के. वमगज० एम० ए०, एल० एल० बी० महीजय जय गणाभरण सकलजनहितकरण । दय मंगरसकविकृत जैन हरिवंशपराणको प्रकाशिन जय जय तमोविलय विमलतेजोनिलय ॥ कगने वाले हैं। ऐसी हालनमें सम्पूर्ण भारतीय जैनि यांका कर्तन्य है कि वे उम भापाकं लिहाजमे नहीं तो जय जय मनोजहर सद्धर्मतीर्थकर । धार्मिक वात्मल्यम ही उन ग्रंथोंके उद्धारमें सहायक जय जय जनानन्द केवलोकुरकन्द।। जय जय जनाधार निर्दलितसंसार । x यहाँ पर उन अंजन विद्वान तथा उनक लग्वादिकका नाम भीद दिया जाता तो और भी अच्छा रहना। -सपादक जयोत्तुंगसिंहासनासीनमृत । + 'कणटक कविचरित' के लेखक नरसिंहाचार्य जीन इसाकविकी प्रशंसामें लिखा है-पन्न कविक ग्रन्थ मम और प्रौढ रचना युक्त जगचक्रविख्याततीर्थेशकीर्ते ॥ है। उसकी पद सामग्री, ग्चना शक्ति मौर बन्ध गौग्व-पाथर्यजय द्रोहमोहाहितोत्पातकतो। जनक है । पद्यप्रवाह रूप और हृदयग्राही हैं । साहमभीमविजयका महाघोरकारिसंहारहेतो ॥ पढ़ना शुरू करके फिर छोडनेको जी नहीं चाहता है" (देखो, 'कर्णाटक जैनकविर) Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण १ बनें । उन प्रन्थोंमें क्या क्या भरा है इस बातको यदि दिन रात अनावश्यक कार्योंके सम्पादन तथा आपसमें हिन्दी आदि प्रचलित भाषा भाषियोंके सम्मुख अनु- लड़ने झगड़नेमें ही खर्च होती रहती है और दूसरे उपवाद करा कर रक्खा जाय तो बहुत कुछ लाभ तथा योगी तथा सार कार्यों के लिये अवशिष्ट ही नहीं रहती। गौरव होगा। साथ ही, कर्णाटक भाषाकी उन्नति भी __ अथवा हमने समझ लिया है कि जिनवाणी माताको होगी । जब हमें दुनियाँ भरमें जैनधर्मको फैलाना है तो खाली हाथ जोड़न अथवा चावलके दाने चढानेसे तो दुनियाकी उन भापानीको भी अपनाना होगा। भी काम चल जायगा और वह हम पर प्रसन्न हो परन्तु इतना ठेका लेनेकी बात तो दूर है, प्रथम तो हमारे जायगी; फिर कौन उसके लिये इतनीमराजपच्ची करे !! पृज्य पूर्वज जिस कल्पलताको बढ़ा कर रक्ख गये हैं प्राचीन कीर्तियाँ यदि नष्ट होती हैं तो होने दो ! उनसे उसको तो सींचलें फिर दुनियाभरकी फ़िकर करनेके हमारा बनता और बिगड़ता क्या है ? हमारी इस कहीं योग्य हो सकेंगे। परिणति, समझ और लापर्वाही का ही यह परिणाम है जो बेकद्रों ( श्रगुणज्ञों) के हाथ पड़े हुए रत्नकी तरह जैन साहित्यकी मिट्टी खराव हो रही है । और संपादकीय नोट-इसमें संदेह नहीं कि कर्णाटक वह दिन पर दिन नष्ट होता चला जाता है । जिनवाणी भाषाका साहित्य एक प्रोढ साहित्य है और वह प्रायः के प्रति जैनियोंके कर्तव्यका अजैन लोग पालन करें जैनग्रंथोंसे ही परिपुष्ट है। १२वीं शताब्दीके पर्वाध यह जैनियों और खास कर जिनवाणी कभक्त कहलान तकका कनडीसाहित्य तो अकेले जैन विद्वानोंकी वालोंके लिय बड़े ही कलंक तथा लज्जाका विपय है । ही रचनाका प्रतिफल है और उसके बाद भी उसमें कई यदि जैनियोंमें अपने कर्तव्यका कुछ भी बोध, कुछ शताब्दी तक जैन लेखकोंको प्रधानता रही है, ऐसा भी स्वाभिमान और अपने पूर्वजोंके प्रति कुछ भी सच्चा पुरातत्त्वज्ञोंका मत है । इस साहित्यमें अन्य बातोंक भक्तिभाव अवशिष्ट है तो उन्हें अपने प्राचीन साहित्य सिवाय जैनियोंके इतिहासकी प्रचुर सामग्री पाई जाती के उद्धारका कार्य शीघ्र ही अपने हाथमें लेना चाहिये । है। और इसलिये इसका उद्धार करना जैनियोंका कनडी भाषाके उत्तमोत्तम ग्रन्थोंका जरूर हिन्दीमें खास कर्तव्य है । परन्तु यह देख कर बड़ा दुःख और अनुवाद होना चाहिये और इस भाषाके ग्रंथोंमें इतिग्वेद होता है कि जैन जनता अपने इस पवित्र कर्तव्य हासकीजो कुछ भी सामग्री संनिहित है उस सबका एकत्र से बिलकुल ही विमुख हो रही है ! उसे यह भी पता संग्रह किया जाना चाहिये । यदि कोई धनाढय अथवा नहीं कि कर्णाटक भापामें-और इसी तरह तामिल विद्वान भाई इस उपयोगी कामके लिये अपनी सेवाएँ भाषामें भी-कौन कौन जैन ग्रंथ हैं और वे किन अर्पण करना चाहें तो समन्तभद्राश्रम उन्हें सादर किन आचार्यों अथवा विद्वानोंके बनाए हुए हैं। फिर स्वीकार करके कार्यकी योजना-द्वारा उनका सदुपयोग उनमें क्या वर्णित है और वे कितना महत्व रखते हैं करनेके लिये तय्यार है। इसका पता लगानेकी तो बात ही निराली है । और वह पता लगाया भी कैसे जा सकता है जब कि हमारी शक्ति Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गशिर, वीरनि० सं०२४५६) सुभाषित मणियों MAN 2035 सुभाषित मणियाँ 9434 "" VE: 1 909 :.... . :..' प्राकृत जो शरणागतोंको शान्तिके विधाता हैं उन शान्त्यात्मा . जिनेन्द्रभगवान की मैं शरणमें प्राप्त होता हूँ। मेरे जियभयजियउवसग्गे जियइंदियपरीसहे जियकसाए। ' सांसारिक दुःख, क्लेश और भय सब शान्त हो जायँ ।' जियरायदोसमोहे जियसुहदुक्खे णमंसामि ॥ (इसमें सुखशांति क्या वस्तु है ? कैसे प्राप्त होती है ! -कुन्दकुन्दाचार्य। प्राप्त करने वाला उमे दसरोंको कैसे दे सकता है ? और उपासना 'जिन्होंने भयों को जीत लिया, उपसों को जीत का मूल क्या है ? इन सब बातोंको सूत्ररूपमें बड़ी ही युक्तिसे सूचित लिया, इन्द्रियों को जीत लिया, परीषहोंको जीत लिया, किया है, और इसमे यह पद्य बड़े महत्वका है। कषायों को जीत लिया, राग-द्वेष-मोह पर विजय प्राप्त किया, सुख और दुखको जीत लिया उन सबके आगेमैं । ___ बन्धुर्न नः स भगवान रिपवोऽपि नान्ये, सिर झुकाता हूँ'-ऐसे ही योगिजन नमस्कारके योग्य हैं। सामान दृष्टवर एकतमोऽपि चैषाम् । जेण रागा विरज्जेज जेण सेयसि रज्जदि । श्रुत्वा वचः सुचरितं च पृथग विशेषं, जेण मेत्ती पभावेज्न तएणाणंजिणसासणे । वीरं गणातिशयलोलतया श्रिताःस्मः ।। -वट्टकराचार्य।। -हरिभद्रसूरि । 'जिसके कारण राग-द्वेप-काम-क्रोधादिकसे विरक्तता भगवान महावीर हमारा कोई सगा भाई नहीं प्राप्त हो, जिसके प्रतापसे यह जीव अपने कल्याणके मार्ग और न दूसरे कपिल गौतमबुद्धादिक ऋपि हमारे कोई में लग जाय और जिसके प्रभावमे सर्व प्राणियों में शत्रु ही हैं हमनं तो इनमेंसे किसी एकको भी साक्षान इसका मैत्रीभाव व्याप्त हो जाय वही ज्ञान जिनशासन- देखा तक नहीं है। हाँ, इनके पृथक् पृथक् वचनविशेष का मान्य अथवा उसके द्वारा अभिनंदनीय है।' नथा चरितविशेपको जो सुना है तो उससे महावीरमें "णो लोगस्सेसणं चरे।" गुणातिशय पाया गया, और उस गुणातिशय पर -आचारांग सत्र। मुग्ध होकर अथवा उसकी प्राप्तिकी उत्कट इच्छासे ही 'लोकैपणका अनुसरण करना-लोगोंकी इच्छानसार हमने महावीरका आश्रय लिया है।' वर्तना, दुनियाकी देखादेखी चलना अथवा लोक- (इसमें माध्यस्थ्य भाव और परीक्षाप्रधानता का अच्छा प्रदप्रवाहमें बहना-नहीं चाहिये ।' भन किया गया है।) संस्कृत-- "स्याद्वादो वर्तते यस्मिन पक्षपातो न विद्यते । स्वदोषशान्त्या विहितात्मशान्तिः नास्त्यन्यपीडन किंचित जैनधर्मः स उच्यते ॥" शान्तेर्विधाता शरणं गतानां । 'जिसमें सर्वत्र स्याद्वाद का वर्तन- अनेकान्त का भूयाद्भव-क्लेश- भयोपशान्त्य व्यवहार--होता है, पक्षपात नहीं पाया जाता और न दूसरोंक पीडनका-हिंसाका ही कुछ विधान है उस शान्तिर्जिनो मे भगवान् शरएयः ॥ जैनधर्म कहते हैं।' -स्वामिसमन्तभद्र। 'जिन्होंने अपने राग-द्वेष-काम-क्रोधादि दोषोंकोशान्त " नाशाम्बरत्वं न सिताम्बरन्वं करके अपनी आत्मामें शान्ति प्राप्त की है और इसलिए न तर्फवादे न च तत्ववाद। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 न पक्ष सेवाश्रयणेन मुक्तिः कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव ॥" 'मुक्ति न तो केवल दिगम्बर होने में है और न श्वेताम्बर बनने में; न वह कोरे तर्कवाद में रक्खी है और न तत्त्ववाद में ही पाई जाती है; पक्षसेवाका आश्रय लेनेसे भी मुक्ति नहीं मिलती; मुक्ति तो वास्तव में कपायमुक्ति का ही नाम है और इसलिए वह क्रोधमान-माया-लोभादिकसे छुटकारा पाने पर ही मिलती है । ' "आपदां कथितः पन्थाः इन्द्रियाणामसंयमः । तज्जयः संपदां मार्गो येनेष्टं तेन गम्यताम् ॥ ‘आपदाओंका—दुःखोंका - मार्ग है इन्द्रियों का असंयम, और इन्द्रियों को जीतना -- उन्हें अपने वशमें रखना - यह संपदाओं का मुखोंका मार्ग है। तुम्हें इनमें से जो मार्ग इष्ट हो उसी पर चलो - अर्थात दुःख और मुसीबतें चाहते हो तो इन्द्रियोंके गुलाम बने रहो और नहीं तो संयमसे रह कर उन पर विजय प्राप्त करो ।' ― हिन्दी जिसने राग-द्वेष - कामादिक जीते सब जग जान लिया, सब जीवों को मोक्षमार्ग का निस्पृह हो उपदेश दिया । बुद्ध, वीर, जिन, हरि, हर, ब्रह्मा या उसकी स्वाधीन कहो, भक्ति भाव से प्रेरित हो यह चित्त उसी में लीन रहो ॥ - 'युगवीर' + + + अपनी सुधि भूल आप आप ज्योंशुक नभ चाल विसर दुख उपायो, नलिनी लटकायो । - दौलतराम "कन्था ! रणमें जायके किसकी देखें बाट ? साथी तेरे तीन हैं हिया, कटारा, हाथ ॥' + + + + "जो तू देखे अन्धके आगे है एक कूप । तो तेरा "चुप बैठना है, निश्रय रूप ।। " अनेकान्त + + + "मनके हारे हार है मनके जीते जीत।" ܕܕ + + + । प्रबल धैर्य नहीं जिस पास हो, हृदयमें न विवेक निवासहो श्रम हो, नहिंशक्ति विकाशहो, जगतमें वहक्योंननिराशहो । । - 'युगवीर' [ वर्ष १, किर जिनके दिलमें यह यक्तीं' है कि, ख़ुदा खुद हम हैं । यह यक़ीं जानो, वही यादेख़ुदा रखते हैं । - मंगतराय उर्दू X “बहुत ढूँढा मगर उसको न पाया । अगर पाया तो खोज अपना न पाया ।। " + + + सबको दुनियाँ की हविस र ख्वार किये फिरती है । कौन फिरता है ? यह मुर्दार लिये फिरती है । - मंगतराय + + + भागती फिरती थी दुनियाँ जब तलब करते थे हम। हमें नफरत हुई वह बेक़रार आने को है । - स्वामी रामतीर्थ + + + "पर्दे की आर कुछ वजह पहले जहाँ नहीं । दुनियाँ को मुँह दिखाने के क़ाबिल नहीं रहे ||" + + + E इतनी ही दुश्वार अपने ऐब की पहचान है । जिस क़दर करनी मलामत और को आसान है ॥ - 'हाली' आबरू १० क्या है? तमन्नाएवफ़ा ११ में मरना । दीन क्या है? किसी कामिल १३ की परस्तिश १४ करना - 'चकबस्त' फ़रिश्ते से १५ बहतर है इन्सान बनना 1 मगर इसमें पड़ती है मेहनत ज़ियादा || - 'हाली' + + + जब मिटाकर अपनी हस्ती १६ सुर्मा बन जाएगा तू । हलकी निगाहों में समा जाएगा तु ।। - 'दास' + + आगाह अपनी मौत से कोई बशर१९ नहीं । मामान सौ बरस के हैं पलकी ख़बर नहीं | १ विश्वास, २ तृष्णा, 3 खराब, ४ चाह-उच्छा, ५ मातुरअधीर, ६ संसार में ७ योग्य, कठिन, ६ निन्दा, १० इज्जतप्रतिष्ठा, ११ भलाईकी अभिलाषा, कर्तव्य पालन, १२ धर्म, १३ प्राप्तपुरुष, १४ उपासना, १५ देवता, १६ वर्तमान पर्यायका अस्तित्व, १७ दुनिया, १८ जानकार, १६ व्यक्ति, Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गशिर, वीरनि सं०२४५६] स्वास्थ्यरक्षाके भूलमन्त्र 'मक स्वास्थ्यरक्षाके मूलमन्त्र - [ले०- श्रीमान राजवैद्य पं० शीतलप्रसादजी] इस संसारमें हमारे अनेकों प्रधान कार्यों मेंसे प्रमुख विद्या, एवं राजाको राज्य भी प्यारा नहीं लगता,कर्तव्य अपने स्वास्थ्यकी रक्षा करना है। मेरी कामना यहाँ तक कि, प्यारे पुत्र-कलत्र, दास, दासी, घर, दूहै कि 'सर्व संसार नीरांग रहे। कान, सब कुछ दुःखके ही हेतु प्रतीत होते हैं । और संसारका प्रत्येक कार्य चाहं वह सामाजिक,धार्मिक, इसलिये कहना पड़ता है कि संसारमें स्वास्थ्य (श्राराजनैतिक एवं पारमार्थिक तथा आर्थिक दृष्टिस किमी रोग्य ) के समान दूसग पदार्थ नहीं है। भी अवस्थाका हो-उच्च तथा अधम किसी भी श्रेणी में प्रायः देखा जाता है कि वर्तमान भारतीय-परिविभाजित किया गया हो-उसके निभान, परा करने स्थितिमें शिक्षित अशिक्षित सभी समान रूपसे स्वातथा सुचारु-उपभोग करनेके लिये शरीरका आगेग्य- म्योन्नति के सम्बन्धमें उदासीन हैं, सर्व-साधारण स्वस्थ रहना-नितान्त आवश्यक है । तो क्या, एक प्रतिशत व्यक्ति भी स्वास्थ्यकी बातोंको यदि हमारी शरीरप्रकृति, अच्छी नहीं है तो जान- नहीं जानते । इसका कारण है हमारे छात्रोंकी पढाईके लीजिए हम संसारमें किसी भी योग्य नहीं हैं। औरोंका कार्समें स्वास्थ्य सम्बन्धी पम्तकोंका न होना अथवा उपकार तो क्या, हम म्वयं अपना लघतम-कार्य करन उनका यह न सिग्वाया जाना कि किस आहार विहार में भी असमर्थ हैं । स्वस्थ, मनुष्य अत्यन्त हीनावस्था तथा रहन सहन पर चलत हुए मनुष्य जीवन पर्यन्त होने पर भी सुखका अनभव कर सकता है, और जा म्वस्थ, बलिष्ठ और सुखी रह सकता है । बड़े बड़े रोगी है उसके मम्मुख चक्रवर्तीका ऐश्वर्य भी तुच्छाति उच्च शिक्षा प्राम बी०ए०, एम० ए० तथा न्यायतीथातुच्छ है-आनन्ददायक नहीं । बड़े बड़े महारथी दिक स्वास्थ्य रक्षा सम्बन्धमे उतने ही अनभिज्ञ हैं छत्रपति शिवा जैसे शूरवीर भी, जिनकी हुंकारसे जितनं कि अशिक्षित। पृथ्वी हिलजाती थी और जिनके सम्मुख बड़े बड़े इममें मंदेह नहीं कि हमाग व्यक्तिगत-जीवन, योद्धा धैर्य त्याग देते थे, जब व्याधि-व्यथासे पीडित कुछ तो शाम्रोंकी आज्ञा के अनुसार चलन, कुछ पड़ी होकर शय्या-शायी हो गए तब अबोध शिशुकी तरह हुई आदतके सबब, और कुछ दूसरोंका करते देखकर, रोते और बिलखते थे; बड़े बड़े विज्ञान-विशारद, जिन औरोंकी अपेक्षा बहुत कुछ साफ़ और शुद्ध हैं। इसका . के विज्ञान-चातुर्यसे अनेकों कार्य ऐसे हो रहे हैं जिन श्रेय हमारे पूर्वाचार्यों और अनेक धर्मउपदेशकोंको को देख कर लोग आश्चर्य चकित होते हैं, वे भी जब है , जिन्होंने आरोग्यताके नियमों को सर्वसाधरणक रोग-प्रस्त होते हैं तब मूखों के समान अधीर हो कर हितकं लिए धर्म के रूप में ही वर्णन कर दिया है, रोते देखे गये हैं। जिससे कि जन-साधारण भी जिनकी बुद्धि उनके मूल रोगावस्थामें धनीको धन, बलीको बल, विद्वानको नत्त्व और उद्देश्यको नहीं पहुँचे, केवल धर्म-भयमे ही . Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष१, किरण उनका प्रहण व पालन करते रहें और कोई भी रोगी न साधारण इसकी अनिवार्य आवश्यकता को नहीं भूलें, हो । वास्तव में और उठते-बैठते, सोते-जागते, खाते-पीते, हर समय धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलमुत्तमम् । इस पर अमल करते रहें. जिससे व्याधियोंको स्वयं रोगास्तस्यापहारः श्रेयसो जीवितस्य च ॥ निमन्त्रित करके मन चाहा कष्ट न उठावें । अर्थात् धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, इन चारों पुरुषार्थों . अब .. अब मैं 'स्वास्थ्यरक्षा' अर्थात् नित्य आरोग्य का मल आरोग्य और योगी बने रहने के वे उपयोगी नियम, जो श्री वैद्यशिरोमणि श्रेय और जीवन को हरने वाले हैं । भावार्थ- वाग्भट्टने, जिनके 'अष्टांगहृदय' प्रन्थमें मंगलाचरणके धर्म, धन, मनोकामना एवं मोक्ष की प्राप्ति का प्रधान प्रारम्भिक श्लोक में जैनत्व कूट कूट कर भरा हुआ मूल आरोग्य है । सांसारिक-दुखों से छूटने का एक है और जो उनके जैन होने का ज्वलन्त उदाहरण है, मात्र उपाय मोक्ष है, और आयर्वेदके सिद्धान्तानसार सूत्ररूपमें ओतप्रोत किये हैं, सर्व साधारण की हितमोक्ष प्राप्ति की कुली आरोग्य में ही संनिहित है। यह दृष्टि से प्रकाशित करता हूँ, और इसी तरह समय समय तो निश्चित वात है, और उपचारसे मानना पड़ेगा कि, पर 'अनेकान्त' पत्र-द्वारा पाठकों की सेवा करता दुःखका अत्यन्ताभाव तथा अनुपम-सुखकी प्राप्ति मोक्ष है, शारीरिक दुःख और मानसिक-विकारोंसे छुटकारा नित्यं हिताहार-विहार-मेवी पाए बिना दुःखोंका अत्यन्ताभाव नहीं होसकता, और ममीक्ष्यकारी विषयेष्वसक्तः । दुःखोंकी अत्यन्त निवृत्ति बिना मोक्षकी प्राप्ति असम्भव है, और मोक्षकी प्राप्ति बिना मनुष्य भवकी यात्रा दाता समः सत्यपरः क्षमावान् निष्फल तथा अपूर्ण ही रह जाती है, जिससे बार बार प्राप्तोपसेवी च भवत्यरोगः ॥ जन्म-मरणके दुःख उठाने पड़ते हैं । आशा है, अब -अष्टांगहृदय। पाठक समझ गए होंगे, कि ऐहिक तथा पारमार्थिक अर्थात्-जो प्रति दिन हित आहार और हित सब सुखोंका मूल आरोग्य है। विहार करते हैं, ऐहिक तथा पारमार्थिक कार्योंमें हेययदि आप इस आरोग्यरूपी अमूल्य-रलके पारखी आदेयका विचार कर ठीक आचरण करते हैं, भोगबन कर इसके अनन्त गुणोंको दीर्घ-दृष्टि-द्वारा-परीक्षा विलास में आसक्त नहीं रहते, दान देनेकी प्रकृति रखते करेंगे, तो आपको इसकी सदाशयता, महत्ता, एवं हैं, समताभाव धारण करते हैं, सत्यवादी तथा क्षमाशील प्राह्यता का भान होगा। इसका प्रकाश-आलोक होते हैं और प्राप्तपुरुषों (सजनों) की सेवा किया करते करनेके लिए प्रत्येक पुस्तकालय, छात्रालय तथा सार्व- हैं-उनके गुणोंका अनुसरण करते हैं-वे सर्वदा ही जनिक स्थानोंमें, जहाँ प्रत्येक व्यक्तिकी दृष्टि पड़ती हो, नीरोग रहते हैं । 'स्वास्थ्यरक्षा' इन चारों अक्षरोंको मोटी लेखनी द्वारा मोने के पानीसे अंकित करना चाहिए, ताकि सर्व (अपूर्ण) Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गशिर, वीरनि० सं० २४५६] सम्पादकीय सम्पादकीय ____ उसकी एक म्कीम, जो समाजके पत्रों में प्रकाशित हो चुकी है, देहली-जैनमित्रमंडल के गत महावीर-जयंती जैनममाजमें अर्मेसे कोई ठोम काम नहीं हो रहा अवसर पर समाजके कितने ही विवारकोंके सामने है। प्रमाद, उपेक्षा, शक्ति के दुरुपयोग और आपसकी रक्खी गई, जिसको सबने पसन्द किया और इस बात 'त त मैं मैं' के कारण प्राचीन कीर्तियाँ अथवा पुण्य- की जरूरत जाहिर की कि वह जितना भी शीघ्र कार्यमें म्मतियाँ दिन पर दिन नष्ट होती चली जाती हैं और उनके परिणत हो सके उतना ही अच्छा है । चुनाँचे इस साथ ही समाज तथा धर्मका गौरव भी नष्ट होरहा है। स्कीम के अनुसार देहलीमें 'समन्तभद्राश्रम' नामके समाजके पास उसका कोई सुमंकलित इतिहास नहीं, मेवाश्रमको खोलने और उसका संचालन करनेके लिये उसने अपने विशंपत्व तथा अपनी पाजीशनको भुला चैत्र शुक्ला त्रयोदशी सं०१९८६ ता०२१ अप्रैल सन्१९२९ दिया है और वह अपने कर्तव्यग गिरकर पतनकी और को, महावीरभगवानके जन्म दिवस पर 'वीरसेवकसंघ' चला जा रहा है-संख्या भी उमकी दिन पर दिन नामका एक समाज कायम किया गया, जिसने तीन घटती जाती है। और ये मब बातें उसके तथा देशके महीने के बाद, आपाढी पूर्णिमा के शुभमुहूर्तमे,ता०२१ लिये बड़ी ही हानिकर हैं । कितने ही भाइयोंके हृदयमें जलाई मन १९२५को गैलवागमें-संघके सभापति यह सब देवकर, दुग्व दर्द के माथ मेवाका भाव उत्पन्न ला. मम्वनलालजी ठेकेदारके विशाल भवनमें-इम होता है परंतु ममाजमें कोई व्यवस्थित काय-क्षेत्र मेवाश्रमकी स्थापना की. जिसके उद्देश्य इस प्रकार . अथवा ऐमी योग्य मंस्था न होने से, जो ऐसे भाइयों हैं:से उनके योग्य सेवा कार्य ले सके, उनके विचार याता आश्रमके उद्देश्य "उत्पद्यन्त विलीयन्ते दरिद्राणां मनोरथाः" की नीनिके अनमार हृदयके हृदय में विलीन होजात है कल भी (क) एमे सञ्चं संवक उत्पन्न करना जो वीरके उपासक, कार्य करन नहीं बनता-और या किसी दूमर ही क्षेत्र वीरगुण-विशिष्ट और प्रायः लोक-संवार्थ दीक्षित में कूद पड़न के लिये उन्हें वाध्य करते हैं । और इम हो नथा भगवान महावीरके मंदेशको घर घर में पहुँचा सकें। तरह पर समाज अपनी व्यक्तियों की कितनी ही बहुमूल्य सेवाओं में वंचित रह जाता है। अतः समाज (ब) एमी मेवा बजाना जिससे जैनधर्मका समीचीन तथा धर्मके उत्थान और लोक हितकी साधनाके लिये म्प, उसके आचार-विचागेकी महत्ता, तत्त्वों का यह मुनासिब समझा गया कि देहली जैसे केन्द्र स्थान रहम्य और सिद्धान्तोंकी उपयोगिता सर्वसाधारण में, जो राजधानी होने तथा व्यापारिक विशेषताओं को मालूम पड़े-उनके हृदय पर अंकित होजायके कारण देशके अच्छे अच्छे विद्वानों तथा प्रतिष्ठित और वे जैनधर्मकी मूल बानो,उमकी विशेषताओ पुरुपों की आवागमन भूमि बनी रहती है, एक ऐसे तथा उदार नीति से भले प्रकार परिचित होकर सेवाश्रमकी सुदृढ़ योजना की जाय जिससे समाजमें अपनी भलको सुधार सकें। सुव्यवस्थित रूप से सेवा-कार्य होता रहे । तदनुमार (ग) जैन समाजके प्राचीन गौरव और उसके इतिहास Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनकान्त [वर्ष १, किरण १ को खोज खोज कर प्रकाशमें लाना और उसके कर्तव्य है । अतः समाजके प्रत्येक व्यक्ति को आश्रमके द्वारा जैनियोंमें नवजीवनका संचार करना तथा प्रति शीघ्र ही अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिये-जो भारतवर्षका सञ्चा पूर्ण इतिहास तय्यार करनेमें जिसके योग्य है, अपनी शक्ति को न छिपाकर, उसे मदद करना। उसी सेवाका भार अपने ऊपर लेना चाहिये । और (घ) वर्तमान जैनसाहित्यसे अधिकस अधिक लाभ इस तरह पर अपने को एक जीवित समाज का अंग कैसे उठाया जा सकता है, इसकी सन्दर योजनाएँ साबित करना चाहिये। तय्यार करके उन्हें कार्य में परिणत करना और कराना। २ श्राश्रम का नामकरण (छ) सुरीतियोंके प्रचार और कुरीतियोंके बहिष्कारमें इस सेवाश्रमका नाम 'समन्तभद्राश्रम' रक्खा गया सहायक बनना तथा दूसरे प्रकारमे भी समाजके है और उसकी वजह है । समन्तभद्रका अर्थ है 'समउत्थानमें मदद करना और उसे स्वावलम्बी, सुखी न्तात् भद्र'--'सब ओर से भद्ररूप' और 'भद्र' कहते तथा वर्द्धमान बनाना। हैं कल्याण, मंगल, शुभ, श्रेष्ठ, साधु, मनोज्ञ, क्षेम, इन उद्देश्योंकी पूर्ति और सिद्धिके लिये यह आश्रम प्रसन्न और सानुकम्प को । जो सेवाकार्य सब ओरसे जिन कार्यों को अपने हाथमें लेना चाहता है उनकी भद्ररूप न हो उसका कोई खास महत्व नहीं । एक एक सूची आश्रमकी विज्ञप्ति नं. १ में दी जा चकी सेवाश्रम को सब ओर से भद्ररूप-मंगलमय-होना है *। उस पर से पाठकों को मालम होगा कि, धर्म ही चाहिये । आश्रमके संस्थापकोंका लक्ष्य इस आश्रम तथा समाज का उत्थान करने, उनके लमप्राय गौरवका का सब ओरस भद्रता में परिणत करके इसे 'समन्तफिर से उजालने, प्राचीन कोर्तियों को सुरक्षित रखन, भद्र' बनाने का है, और इसलिये यह इस आश्रमके इतिहासका उद्धार करने, समाजकं व्यक्तियों की ज्ञान- नामकरण में पहली दृष्टि है। वृद्धि करके उन्हें उनके कर्तव्य का सञ्चा बोध कराने दूसरे, समन्तभद्र 'जिन' का अथवा 'जिनेंद्र' का अथवा जैनजाति की जीवित जातियों में गणना करा पर्याय नाम है । इसीसे जिनसहस्रनाम में “समन्तभद्रः कर उसका भविष्य सुधारने और जैनशासन को समु- शान्तारिर्धर्माचार्यो दयानिधिः" इस वाक्यके द्वारा मत बनाने के लिये ये सब कार्य कितनं अधिक ज़रूरी जिनदेवका एक नाम 'समन्तभद्र' भी दिया है । अमरहै। साथ ही, यह भी अनुभव में आएगा कि ये संपूर्ण कोश के निम्न वाक्यसे भी ऐसा ही ध्वनित होता है:कार्य समाजके सहयोगकी कितनी अधिक अपेक्षा रखते समन्तभद्रां भगवान् मार जिल्लांकजिज्जिनः । हैं, कितने अधिक जन-धनकी इनके लिये जरूरत हैकितने विद्वानों, धनवानों तथा दसरे सज्जनों की सेवा इसमें, पूर्वापर सम्बन्ध से, समन्तभद्र को बद्ध का इन्हें चाहिये-पाश्रमके बाहर भी कितनं व्यक्तियों पयाय नाम भी सूचित किया गया है और इसस इस की इनमें योजना की जा सकती है और उन्हें समुचित नाममें और भी महत्व आजाता है । इस दृष्टि से सेवाकार्य दिया जा सकता है। प्रस्तु; आश्रमकी योजना जैनों द्वारा स्थापित होने के कारण यह आश्रम समन्तहो चुकी-वह खल गया--अब उसको निबाहना. भद्रका-जिनेंद्र का-अथवा महावीर जिनका आश्रम स्थिर रखना और सफल बनाना यह सब समाजके है, और इसमें भगवान महावीरके आदर्शका पालन हाथ की बात है और वैसा करना उसका परम पवित्र होगा अथवा उनके शिक्षासमूह पर विशेष लक्ष रक्खा --- जायगा, ऐसा आशय संनिहित है। इसीको भ्यानमें ___ * जिन्हें यस विज्ञप्ति अभी तक देखने को न मिली हो वे रखकर आश्रम के पहले उद्देश्य की सृष्टि की गई है। माश्रम से उसे मँगवाकर देख सकते हैं। बुद्ध का भी पर्याय नाम समन्तभद्र होने से यदि इस Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागशिर, वीरनि० सं० २४५६] संपादकीय आममको एक प्रकार से अथवा उस दृष्टिसे जिससे से मिलता जुलता है जो दिगम्बर सम्प्रदायमें आमतौर बद्धको समन्तभद्र नाम दिया गया है-बुद्धाश्रम पर समन्तभद्रका समय माना जाता है। और इससे भी कहा जाय या समझा जाय तो इसमें कोई हानि दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोंनोंकी गुर्वावलियों अथवा नहीं है। पट्टावलियोंमें प्रसिद्ध समन्तभद्रका व्यक्तित्व बहुत करके तीसरे, जैनसमाज में स्वामी समन्तभद्र * नामके एक ही जान पड़ता है । यदि एक न भी हो तो भी इस एक सुप्रसिद्ध सातिशय विद्वान आचार्य होगये हैं, जो एक बहुत बड़े लोक-सेवक थे और जिन्होंने जैनशासन नामकरणमें उससे कोई भेद नहीं आता। अस्तु, इन के उद्धार तथा प्रचारके कार्यमें असाधारण भाग लिया श्राचार्य महोदयके नामकी दृष्टिसे यह आश्रम समन्तहै। कनड़ी भापाके एक प्राचीन शिला लेखमें तो यहाँ भद्र स्वामीका श्राश्रम है-अर्थात् , एक प्रकारसे अपने तक लिखा मिलता है कि 'समन्तभद्रस्वामी श्रीवर्तमान महान उपकारी प्राचार्य महोदयका स्मारक है और महावीरके बाद उनके तीथकी सहस्रगुणी वृद्धि करतहुए हमें उनके मार्गका अनसरण करना अथवा उनके उदयको प्राप्त हुए। आप अनेकान्त अथवा स्याद्वाद के अनन्य उपासक तथा द्योतक थे और इसीलिये साम्प्र- आदशे पर चलनेकी याद दिलाता है। साथ ही, हमारी दायिक कट्टरता से रहित थे । दिगम्बर और श्वेताम्बर कृतज्ञताका भी एक सूचक है । इस तरह आश्रमका दोनों ही सम्प्रदायोंमें श्राप समानरूपसे पूज्य मानेजाते यह नामकरण अनेक दृष्टियोंको लिये हुए है-किसी है-कितने ही प्राचीन श्वेताम्बराचार्यों ने अपने प्रन्थों एक ही दृष्टिका इसमें आग्रह नहीं है । जिन्हें जो दृष्टि' में बड़े गौरवके साथ आपके वाक्योंका प्रमाणमें उद्धृत ग्रहो वे इसे उस दृष्टिसे देखें। सर्व साधारण जनता किया है। इसके सिवाय,श्वेताम्बरों भी १७वें गमक रूपमें 'समन्तभद्र' नामके एक महान । इसे 'ममन्तानभद्र'नामकी पहली दृष्टिस देखे,अविभक्त आचार्यका उल्लेग्य पाया जाता है और उन्हें आगम जैनसमाज इसको जिनेंद्राश्रम अथवा जैनाश्रमके रूपमें कथित शुद्ध नपश्चरणके अनुष्ठाता तथा पूर्वश्रुतकं पाठी अवलोकन करे और विभक्त जैनसमाजके उपासक इमे तक लिग्वा है । यथाः अपनी अपनी गुर्वावलीमें कह हुए समन्तभद्राचार्यके अथा गुरुश्चन्द्रकुलेदुदेव स्मारक रूपमें प्रहण करें, इसमें कुछ भी आपत्ति नहीं कुलादिवासोदितनिर्ममत्वः । है । इस नामकरणमें अनेकान्नका काफी आश्रय लिया समन्तभद्रः १७ श्रुतदिष्टशुद्ध- गया है और उस पर लक्ष रखते हुए यही नाम सबसे तपस्क्रियः पर्वगनश्रुतोऽभूत ॥२८॥ अच्छा जान पड़ा है। इसमें साम्प्रदायिकता का काई -मुनि सुन्दरसरिः। खासभाव नहीं है । अतः जिन भाइयोंका ऐसा खयाल इसके बाद गुर्वावलीमें, “वृद्धस्ततोऽभूत् किल देव- हो उन्हें उसको अपने हृदयस निकाल देना चाहिये सरिः १८ शरच्छते विक्रमतः सपादे" वाक्य के द्वारा, और सबको मिलकर इस आश्रमको सफल बनानका देवरिका.उल्लेख करते हुए उनका समय वि०सं०१२५ दिया है और इस तरह पर समन्तभद्रका समय विक्रम पूरा उद्योग करना चाहिये । यह संस्था अपने व्यवहार मं० १२५ तक सूचित किया है । यह समय उस समय से जैनसमाजके सभी सम्प्रदायों को मिलान अथवा .......उनमें प्रेम प्रतिष्ठित करके व्यावहारिक तथा सामूहिक ____ * इनका विशेष परिचय पानेके लिये 'स्वामी समन्तभद्र' नामक एकता स्थापित करनके लिये एक पलका काम करे, इतिहास दखना चाहिये। ऐसा हृदयसे चाहा जाता है। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होवे जिसे 'स्याद्वाद' भी कहत ह भी चकि आश्रमादिकका अनेकान्त [वर्ष १, किरण १ ३ पत्रका अवतार, रीति-नीति और योग्यताकी ज़रूरत है उसकी मैं अपने में बहुत बड़ी कमी देखता हूँ, मुझे अपनी त्रुटियोंका बोध है और सम्पादन इस लिये इस गुरुतर भारको उठाने के लिये मैं जबसे जैनहितैषी बन्द हुआ है तबसे जिनसमाजमें अपनेको असमर्थ समझता हूँ। मेरी असमर्थता और एक अच्छे साहित्यिक तथा ऐतिहासिक पत्रकी जरूरत भी बढ़ जाती है जब मैं देखता हूँ कि आश्रमक बराबर महसूस हो रही है, और सिद्धान्तविपयक पत्र अधिष्ठातत्वका भार भी मेरे ही कन्धों पर रक्खा की जरूरत तो उससे भी पहलेसे चली आती है । इन हा है और मुझे प्रबन्ध-सम्बन्धी छोटी बड़ी सब दोनों ज़रूरतोंको ध्यानमें रखते हुए, समन्तभद्राश्रमने चिन्ताओं में भाग लेना तथा दिन रात इधर उधर अपनी उद्देश्यसिद्धि और लोकहितकी साधनाके लिये दौड़ना पड़ता है-दूसरे किसी भी सजनने अभी सबसे पहले 'अनकान्त' नामक पत्रको निकालनेका तक आश्रमको अपनी सेवाएँ अर्पण करके मेरे इस महत्वपूर्ण कार्य अपने हाथमें लिया है और यह निश्चय बोझ को हलका नहीं किया है और न धनवानोंने किया है कि इस पत्रकी मुख्य विचारपद्धति अपने इतना धन ही दिया है जिसके बल पर योग्य व्यक्ति नामानकूल उस न्यायवाद (अनकान्तवाद )का अन वेतन पर रकग्वे जा सकें। ऐसी हालतमें मेरे सामने - जो कठिनाई उपस्थित है उस मैं ही जानता हूँ। फिर के आश्रमादिककी यह सारी योजना मेरी तहरीक और इस लिया इसमें सर्वथा एकान्तवादका निरपेक्ष नयवादको--अथवा किसी सम्प्रदायविशेषके अनचित - पर हुई है इसलिये दूसरे किसी योग्य व्यनि अथवा से पलपातका स्थान नहीं होगा, यह स्वाभाविक ही है। माथा क मिलने तक, उपायान्तर न होने .इसकी नोति सदा उदार और भाषा शिष्ट, सौम्य तथा इन दोनों भारोंको उठाने के लिये विवश होना पड़ा है। गंभीर रहेगी) मैं कहाँ तक इन्हें उठा सकूँगा, यह सब ममाजके महयोग पर उसमें संवा भावकी जागनि और उदारताक परन्तु पाठकोंको यह जानकर आश्चर्य होगा कि उदय पर-अवलम्बित है। इस स्थितिमें, जिसे बदलत ऐसे महत्वपूर्ण तथा जिम्मेदारीके पत्रका सम्पादनमार कुछ देर नहीं लगती, यद्यपि पत्रका सम्पादन जैसा एक ऐसे शख्स के सिर पर रक्खा गया है जिसे न तो चाहिये वैसा नहीं हो सकेगा तो भी मैं इतना विश्वास किसी बड़े विद्यालयमें ऊँची शिक्षा मिली है और न कोई ज़रूर दिलाता हूँ कि, जहाँ तक मुझसे बन सकंगा, मैं डिगरी या उपाधि ही प्राप्त है । और जो अन्य प्रकार अपनी शक्ति और योग्यताके अनुसार पाठकोंकी सेवा से भी इस भारको भले प्रकार उठानके योग्य नहीं। करने और इस पत्र को उन्नन तथा मार्थक बनाने में यह ठीक है कि, मेरे द्वारा कुछ वर्षों तक जैनगजट कोई बात उठा नहीं रक्खूगा । आशा है मेरे इन संकल्पों और जैनहितैपी जैसे पत्रोंका संपादन होता रहा है। तथा विचारोंको पूरा करानेके लिए पाठक हर प्रकारसे परंतु एक तो इस बातको युग बीत गये है-जैन- मेरी मदद करेंगे, मुझे मेरी त्रुटियाँ बतलाते रहेंगे और हितैषीका संपादन छोड़े भी ९ वर्ष हो चुके हैं-उस इस बातकी पूरी कोशिश रखेंगे किअनेकान्तके विचार वक्त जो शक्ति थी वह आज अवशिष्ट नहीं है । अन- यथावत रूपमें अधिकसे अधिक जनताके पास पहुंचे भवकी वद्धि होने पर भी शरीरकी जीर्णताके कारण और उसे बराबर पढनेको मिलते रहें। ऐसा होने पर काम करनकी शक्ति दिन पर दिन कम होती जाती है। वह दिन भी दूर नहीं रहेगा जब कि जैनसमाजकी साथ ही, लोक-रुचि भी बहुत कुछ बदल गई है। मौजूदा स्थिति बदल जायगी, उसमें नवजीवनकासंचार दूसरे, उन पत्रोंके संपादन और इस पत्रके संपादनमें होगा और जैनधर्मका उसके असली रूपमें सबको बहुत बड़ा अन्तर है। इस पत्रके संपादनके लिये जिस दर्शन हुआ करेगा। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गशिर, वीरनि० सं० २४५६] सम्पादकीय ४ जैनी नीति तत्वको निकाल लेती है-उसे प्राप्त कर लेती है। किसी एक ही अन्त पर उसका एकान्त आग्रह अथवा कदाजिनेंद्रदेवकी अथवा जैन धर्मकी जो मुख्य नीति ग्रह नहीं रहता-वैसा होने पर वस्तुकी स्वरूपसिद्धि है और जिस पर जिनेन्द्रदेवके उपासकोंतथा जैनधर्मके ही नहीं बनती। वह वस्तुके प्रधान अप्रधान मब अनुयायियोंको-जैनियोंको-चलना चाहिये उमे अन्तों पर समान दृष्टि रखती है उनकी पारस्परिक 'जैनी नीति' कहते हैं। जैनियोंकी नीति भी इसीका अपेक्षाको जानती है-और इसलिये उमे पूर्ण रूपमें नाम है । वह जेनी नीति क्या है? अथवा उसका क्या पहचानती है तथा उसके साथ पूरा न्याय करती है । म्वरूप और व्यवहार है ? इस बातको श्रीअमृतचंद्र उसकी दृष्टि में एक वस्तु द्रव्य की अपेक्षास यदि नित्य सरिन अपन एकवाक्यमें अच्छी तरहसे दर्शाया है, जो है तो पर्यायकी अपेक्षामे वही अनित्य भी है, एक इस प्रकार है : गणके कारण जो वम्त बरी है दसरे गणके कारण एकनाकपन्ती श्लथयंती वस्तुतत्वमितरण। वही वस्तु अच्छी भी है, एक वक्तमें जो वस्तु लाभ दायक है दूसरं वक्तमें वही हानिकारक भी है, एक अन्तेन जयति जैनी नीतिमन्थाननेत्रभिवगापी । म्थान पर जो वस्तु शुभरूप है दूसरे स्थान पर वही इसमें, जैनी नीतिको दृध-दही बिलोने वाली ग्वा- अशुभरूप भी है और एकके लिये जो हेय है दूसरेक लिनीकी उपमा देते हुए, बतलाया है कि जिस प्रकार लिये वही उपादेय भी है । वह विपको मारने वाला ही ग्वालिनी बिलात समय मथानीकी रस्मीको दोनों हाथों नहीं किन्तु जीवनप्रद भी जानती है, और इम लिये में पकड़ कर उसके एक सिर (अन्त)को एक हाथसे उसे सर्वथा हेय नहीं समझती। अपनी ओर खींचती और दूसरे हाथ पकड़े हुए सिर इमजैनी नीतिका ही मुख्य नाम 'अनेकान्त' नीति को ढीला करती जाती है, फिर उस ढीला किए हुए अथवा 'अनेकान्तवाद' है, जो अपने स्वरूपसे ही सौम्य, सिरेको अपनी ओर खींचती और पहले खींचे हुए सिरं उदार,शान्तिप्रिय, विरोधका मथन करने वाली, वस्तुतको ढीला करती जाती है; एकको वीचने पर दूसरंको त्व की प्रकाशक और सिद्धिकी दाता है । खेद है,जैनिबिलकुल छोड़ नहीं देती किन्तु पकड़े रहती है; और (योने अपने इस आराध्य देवता 'अनकान्त का बिल्कुल इस तरह विलीनकी क्रियाका ठीक मंपादन करके म-भुला दिया है और वे आज एकान्तके अनन्य उपासक क्खन निकालने रूप अपना कार्य सिद्ध कर लेती है। बने हुए हैं उसीका परिणाम उनका मौजुदा सर्वतोमुखी ठीक उसी प्रकार जैनी नीतिका व्यवहार है । वह जिस पतन है, जिसने उनकी सारी विशेषताओं पर पानी फेरे समय अनेकान्तात्मक वस्तुके द्रव्य-पर्याय या सामान्य- कर उन्हे संसारकी दृष्टिमें नगण्य बना दिया है। विशेषादिरूप एक अन्तका-धर्म या अंशको-अपनी प्रस्तु; जैनियाका फिरस अनकान्तका स्मरण करातेहए ओर खींचती है- अपनाती है-उसी समय उसके उनमें अनेकांतकी प्राणप्रतिष्ठा कराने और संसारका दूसरे अन्त (धर्म या अंश) को ढीला कर देती है- अनेकान्तकी उपयोगिता बतलानेके लिये ही यह पत्र अर्थात् , उसके विषयमें उपेक्षा भाव धारण कर लेती अनकान्त नामसे निकाला जा रहा है । और इमलिये है । फिर दूसरं समय उस उपेक्षित अन्तको अपनाती इमे जैनी नीतिका द्योतक ममझना चाहिये । और पहलेसे अपनाए हुए अन्तके साथ उपेक्षाका व्यवहार करती है-एकको अपनाते हुए दूसरेका सर्वथा त्याग नहीं करती, उमे भी प्रकारान्तरसे ग्रहण किये रहती है। और इस तरह मुख्य-गौणकी व्यवस्थारूप निर्णय-क्रियाको सम्यक् मंचालित करके वस्तु Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ श्रनेकान्त अभिनन्दन और प्रोत्साहन 'समन्तभद्राश्रम' की स्थापना और 'अनेकान्त' पत्रकी योजना पर समाजके जिन विद्वानों, प्रतिष्ठित परुषों, और पत्र सम्पादकोंने अपने हार्दिक विचार प्रकट किये हैं और उनके द्वारा इन कार्योंका अभिनन्दन करते हुए संचालकोंको प्रोत्साहन दिया है उन में से कुछ सज्जनोंके विचार, उनका आभार मानते हुए, नीचे दिये जाते हैं, जिससे पाठकोंको इन कार्यों की उपयोगिता और आवश्यक्ताका और भी ज्यादा अनुभव होने लगे और वे श्राश्रम के प्रति अपना कर्तव्य पालन करनेके लिये विशेष रूप से सावधान होवें:१ रायबहादुर साहु जुगमन्दरदासजी, चेयरमेन डिस्टिक्टबोर्ड, आनरेरीमजिष्ट्रेट, नजीबाबाद"मैं आश्रमकी प्रत्येक सेवा करनेको सदैव प्रस्तुत हूँ । वास्तव में आश्रम खोल कर जैनसमाजकी एक बहुत बड़ी आवश्यक्ताको परा करनेका अपने सराहनीय प्रयत्न किया है। इसके लिये आप विशेष धन्यवाद के पात्र हैं।" २ साहू रघुनन्दनप्रसादजी जैन रईस अमरोहा"मेरा हृदय आपकी संस्था के साथ है, अपनी शक्ति अनुसार इसकी सेवाका प्रयत्न करता रहूँगा ।" "मेरी यह अन्तरंग हार्दिक अभिलाषा है कि यह शुभ कार्य जैन समाज में प्राण डाल कर उसको उन्नति पथ पर ले जावे।" - ३ स्याद्वादवारिधि न्यायालंकार पं० वंशीधर जी, इन्दोर "आपने जो श्री भगवतीर्थकृत्कल्प स्वामी समन्तभद्राचार्यकं नाम पर श्राश्रम खोल कार्य करने [वर्ष १, किरण १ की स्कीम सोची है अगर तदनुसार कार्य होने लग जाय तो सचमुच ही एक नयी क्रान्ति पैदा हो जाय, समाजके लब्धप्रतिष्ठ मध्यस्थ विद्वानों की शक्तिका सदुपयोग होने लग जाय, वर्तमान गन्दा वातावरण हट कर एक नई सुगन्ध एवं स्फूर्ति देनेवाली हवा बहने लग जाय - गरज यह है कि जैन धर्मका सच्चा प्रचार होने लग जाय । इस स्कीमके तय्यार करने और तदनुसार कार्य होने लगनेकी आयोजनामें जो आप लगे हुए हैं उसके लिये आप धन्यवादार्ह हैं ।" ४ पं० नाथूरामजी प्रेमी, बम्बई "आपकी स्कीमको मैं अच्छी तरह पढ़ गया हूँ । मुझे उसमें कोई त्रुटि नहीं मालूम होती है । यदि आपकी यह स्कीम सफल हो, तो सचमुच ही बहुत काम हो । एक तो सफल होनेके लिये अच्छी रक़म चाहिये और अच्छे आदमी मिलने चाहियें। अच्छे आदमियोंके मिलने में मुझे सन्देह है । मैं आपको क्या सहायता दे सकता हूँ, सो श्राप जानते हैं। मुझसे तो आप बलात् भी सहायता ले सकते हैं ।" ५ दयासागर पं० बाबूरामजी, आगरा- "मेरी हार्दिक इच्छा है कि श्रीमान्‌का लगाया हुआ यह पौदा हरा भरा हो और समाजका इससे कल्याण हो । मैं सभासद ही नहीं श्रीमान्के - श्रममें रह कर अपना जीवन सुधारूँगा । मुझे आपसे समाजहितकी बहुत बड़ी आशा थी जो प्रभुने पूर्ण की। बहुत शीघ्र मैं आपकी सेवामें हाजिर हूँगा।" Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गशिर, वीरनि० सं०२४५६) अभिनन्दन और प्रोत्साहन ६ वाणीभूषण पं० तुलसीरामजी, काव्यतीर्थ, पूर्ण प्राशा है कि पूज्य आचार्यके परोक्ष प्राशीबड़ौत र्वाद तथा श्राप जैसे 'युगवीर' के अमूल्य परि श्रमसे आश्रमको अनुपम सफलता प्राप्त होगी । "आश्रम-स्थापनसे पहले ही आपके प्रति मेरा आश्रमको सफलता मिलना समाजका नवजीवन श्रद्धाभाव है। इस आश्रमकी स्थापनासे उसमें मिलना है । वास्तवमें ऐसे ठोस कार्यकी श्रावऔर वृद्धि हुई है । वास्तवमें यदि कभी जैनसमा- श्यक्ता थी । भविष्यकालीन प्रजा आपके इस जके जैनसाहित्य-संशोधन, तत्परिमार्जन, तदुन्न- विवेकपूर्ण परिश्रमके आगे अवश्य ही सिर यन, तदभिवर्धनका कोई इतिहास लिखा जायगा। झुकावेगी।" तो वर्तमानके ऐसे कृत्प्रयत्नों में आपका नाम सर्व ६५० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री, धर्माध्यापक प्रथम सुवर्णाक्षरोंमें अंकित किया जायगा। वास्तव स्याद्वादविद्यालय, काशी--- में आपने अपने अनवरत परिश्रम एवं मनन अध्य- " आपने जिम महत्कार्यके करने का बीड़ा वसायद्वारा जिस उच्च कोटिक स्थायी एवं श्रादर्श उठाया है वह सर्वथा सराहनीय एवं प्रशंसनीय माहित्यका निर्माण किया है वह चिरस्मरणीय । है । जैनमाहित्य एवं सिद्धान्तके रहस्यपूर्ण तथ्यों रहंगा । इसमें उपर्युक्तको श्राप निरा अर्थवाद न का उद्भावन इस समय बहुत आवश्यक है । समझ, यह ता वज्रसत्य वस्तुस्थिति है । मुझ मैं मनसा वाचा कर्मणासे आपके इस अभिनन्द्रआपके इस महान उद्देश्यके प्रति हार्दिक सहान- नीय प्रयाम का स्वागत करता हूँ-और श्रीमजिनेंद भूनि है।" दवमं प्रार्थना करता हूँ कि आश्रम दिनोंदिन ७ ५० लोकनाथनी शास्त्री, मृडविदी - उन्नतिशील होकर संसारके सन्मग्य जैनधर्म की "समन्भद्राश्रमकी स्थापना और 'अनेकान्त' पत्र कीर्ति को दिगन्तव्यापिनी बनाये । आपने जो मुझे मवाकार्य करने के लिये आमंत्रित किया है की योजना वगैरह कार्योको सुन कर मनमें अतीव उत्साह तथा आनन्द प्राप्त हो जाता है । ... धर्म इम मैं अपना सौभाग्य ममझता हूँ।" तथा समाजका उत्थान तथा पनरुद्धार करन ० ५०कमलकुमारजी शास्त्री,गना(ग्वालियर)लिये ऐसे ठोस काम अत्यधिक जरूरी है। जैन- "आपने मपरिश्रम अनकानेक बाधाओंक प्रात हुए ममाजमें काफी विद्वान तथा श्रीमान लोग भी हैं, भी ममन्तभद्राश्रम स्थापित करके जैनजनतामें किन्तु मच्चे हृदयस धर्मोन्ननि-सेवा करने योग्य । बड़ी भारी त्रुटिकी पूर्ति करकं वात्सल्यताका परम व्यक्तियोंका अभाव है । अतएव आपकं धर्म तथा पवित्र परिचय दिया है।" समाजाद्धारके कामसे पूर्ण संतुष्ट हा कर सहा- ११५० धन्यकुमारजी 'सिंह'. कलकत्ता---- नुभूतिके साथ श्रीजिनेन्द्र भगवानसे प्रार्थना करता हूँ कि आप युगवीरके मनवांच्छित-काम निर्विघ्नता । "आश्रमकं ग्येिस समाजमें ममाजमवक और से सफल माध्य हो जावें, तथा आप कीर्तिमान यथार्थ धर्मरक्षक वीर पैदा होंगे यही आशा मुझे बनें । ऐसे कामोंसे मैं पूर्ण सहमत हूँ।" बार बार पुलकित कर रही है । श्रापको अन्तः करणसे अनन्त धन्यवाद है । आप जी, ८ पं०शोभाचन्द्रजी भारिल्ल, न्यायतीर्थ, बीकानेर आपका आश्रम चिरंजीव हो, 'अनेकान्त' चिरं"मंगलमय समन्तभद्राश्रमकी स्थापनाके समाचार जीव हो जयवन्त हो। आश्रम और अनकान्तकी पत्रोंमें पढ़ कर अत्यन्त आनंद हुआ है। मुझे कुछ भी सेवा कर मका तो मैं अपनको धन्य Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण १ मानूंगा" । "मुझे आपके इस कार्यसे इतनी खुशी हमेशा इस तजवीजका आश्रम और संघकी है जितनी आपको । क्या यह 'विश्वभारती' या तरक्कीके लिये है।" "यदि अब भी जैमसमाज 'शांतिनिकेतन' की तरह किसी तरह न चमकेगा ? सचेत होजाय, और श्री समन्तभद्राश्रम की शरण अवश्य चमकेगा । संगठन होना चाहिये । मैं हर लेकर अपने द्रव्य, समय और शक्ति का सदुपयोग समय आश्रमकी और अनेकान्तकी सेवा करनेको करे,तो समाजका उत्थान, धर्मकी प्रभावना कष्टतय्यार हूँ। मैं युवक हूँ और युवक रहूँगा। मुझ साध्य नहीं है। फिर भी जैनधर्म दिगन्तव्यापी सं समय समय पर अवश्य सेवा लिया कीजिये। सार्वधर्म हो कर संसार का कल्याणकर हो आपने जातिको जमानका कार्य उठाया है समाज सकता है।" इसके महत्वको दश बर्प बाद समझेगा । युवकोंका १६ वाव हीरालालजी एम० ए०, प्रोफेसर कार्य सिखाइये और रास्ता दिखा जाइये ।” किंग एडवर्ड कालिज, अमरावती-- १२ पं० दीपचन्दजी वर्णी, अधिष्ठाता " आपकी समन्तभद्राश्रम वाली स्कीम बहुत 'ऋषभब्रह्मचर्याश्रम' मथुरा अच्छी है आशा है जैन संसार उसे सच्चे हृदयसे " आश्रम कल दिन शुभ मुहूर्त में खुल गया यह अपनावेगा।" जान कर अत्यंत हर्ष हुआ । आपकी चिरकालकी १७ बाब भगवानदासजी बी०ए० रिटायर्डशुभ भावनाओंका ही यह फल है और आशा है हेडमास्टर इलाहाबाद--- कि यह आश्रम वास्तविक धर्मप्रभावना का इस कार्य अति सराहनीय है जो चल जावे," "आप कालमें प्रधान कारण होगा।" मुझे यहाँ रह कर उचित संवा विपयमें अवश्य १३ पं. अर्हदासजी, गईस पानीपत-- लिखिये ।" “ मैं हर किस्मकी मदद के लिये तय्यार हूँ। आपकं १८ बाबू चेतनदासजी बी० ए० हेडमास्टर इम कामका कामयाब बनानक लिय श्रापाढ़ ग. हाई स्कूल मथग-- सावनमें चंदा करनेका भी इरादा है।" "मैं आपकी " मुझे बड़ा हर्ष है कि आपने धर्म तथा समाज म्कीम और ख्यालसे मुताबक़त रखता हूँ। आप के उत्थान का काम अपने हाथमें लिया । कोई क्रिकर न करना, अनक़रीब मैं भी हाज़िर कार्यसूची बहुत अच्छी बनी है। ... ... ... .. खिदमत हूँगा।" ___ मैंने पहिली नवम्बरसे सर्विससे रिटायर होनेक १४ मुनि न्यायविजयनी, बड़ौदा--- लिये छुट्टी लेली है । इसलिये आपके आश्रमक "आपका प्रयत्न महान स्तुत्य है । सरस्वतीके ढंग नियमोंके अनुसार कुछ काम करने का अवसर की एक मासिक पत्रिका की जैनसमाजमें सख्त अवश्य मिल सकेगा। और जहाँ तक हो सकेगा जरूरत है। आपने उसे पूरा करने का बीड़ा सभी कामोंमें छुछ न कुछ सहायता देने का उठाया है सो बहुत आनन्द की बात है।" प्रयत्न करूँगा।" १५ बाब अजितप्रसादजी एम० ए० जज १६ बा० ऋषभदासजी बी०ए० वकील मेरठ, ___“ काम आपने यह बहुत अच्छा शुरू किया है हाई कोर्ट, बीकानेर-- और बडे महत्व का है। लेकिन इसमें लाखों “अगर मेरे जजबएदिलमें असर है और दुश्रामें रुपये की जरूरत है। मेरे ख्यालमें जैनसमाजसे कुछ ताक़त है और अलफाजमें कुछ कुदरत है तो इस क़दर रुपया इकट्ठा होना नामुमकिन है Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गशिर, वीरनि० सं० २४५६] लेखकोंको आह्वान खासकर आज कल जब कि जैनसमाज का लेखकोंको आह्वान । वातावरण इस कदर बिगड़ा हश्रा है कि जैनसमाजके धनाढय हर एक सुधारक व हर समाज 'अनेकान्त' पत्र किसी आर्थिक उद्देश्यको लेकर के कामसे चाहे वह काम समाजसधार का हो नहीं निकाला जा रहा है, किन्तु आश्रमको उसके चाहे तालीम का खिलाफ रहते हैं।" उद्देश्योंमें सफल बनाते हुए लोकहितको साधना अथवा लोक सेवा बजाना ही इस पत्रका एक मात्र ध्येय २० बा०कन्हैयालालजी स्टेशनमास्टर, जेरठी टर, जरठा होगा, जिसमें भाग लेना सभी सजनोंका कर्तव्य है। "श्रीसमन्तभद्राश्रमके स्थापित होनेकी अतीव अतः इस सेवायज्ञमें भाग लेनेके लिये देशके सभी प्रसन्नता हुई है और आशा है कि उसके द्वारा सलेखकोंको सादर आह्वान तथा आमंत्रण है और जैनसमाज का सुधार होगा । चूकि मैं भी जैन उनसे निवेदन किया जाता है कि वे प्रौढ़ विचारों तथा समाज का तुच्छ सेवक होकर सेवा करना गहरे अनमंधानको लिये हुए अपनी सुललित लेखनी चाहता हूँ इसलिय मेरा नाम भी सभासदों द्वारा जनताको लाभ पहुँचानेका भरसक यत्न करें। कृपया दर्ज कर लीजिये । में यथाशक्ति तन मन और इस तरह इस पत्र तथा आश्रमको उसके उद्देश्यों में धनसे सेवा बजानकी कोशिश करूँगा।" . सफल बनाएँ । जो लेख असाधारण महत्वके समझे २१ महिलारत्न मगनबाई जे०पी०, बम्बई-- जायँगे उनपर वर्पक अन्तमें पुरस्कार भी दिया जा " आपका कार्य अच्छी तरह से उन्नति पर सकेगा, ऐसी योजना की जा रही है। आ ऐसी मेरी हार्दिक भावना है।" लेखोंके कुछ विषय २२ बा० कामतापसादजी, संम्पादक 'वीर' "मुझे अपने साथ समझिये । मेरा स्वास्थ्य मझे लेखोंके कुछ विषय, स्तंभ अथवा शीर्षक नीचे चाहता हूँ वैसी मेवा करने नहीं देता फिर भी जो दिये जाते हैं, जिन पर उत्तम लेखोंके लिखे जानेकी बन पड़ेगा करने को तय्यार हूँ।" "मैं आश्रमकी ज़रूरत है । लंग्वक महाशय चाहे तो इनमेंस किसीका उन्नति का ही इच्छुक हूँ""मेवा करनके लिये हर अपन लखके लिये पमन्द कर सकते हैं:वक्त तय्यार हूँ।" १-अनकांत-तत्त्व (रहस्य या दृष्टि) २३ बा० फनहचंदनी सेठी, अजमेर २-अनेकांतवादकी मर्यादा आशा है आपकी यह स्कीम दृढता पूर्वक ३-अनकांतवाद, म्याद्वाद और समभंगीवाद संचालित की जावेगी तथा समाज की एक बड़ी ४-जैनागमका प्राण, अथवा परमागमकी जान भारी आवश्यक्ता की पूर्ति करेगी । मैं इसकी ५-अनकांतवाद और लोक-व्यवहार(अथवा जैनप्रवृत्ति) मफलना चाहता हूँ तथा यथाशक्ति सेवाके लिये ६-एकांतवादकी सदोपता, ७-परीक्षाकी प्रधानता तय्यार हूँ।" ८-तत्वविवेक, अथवा जैनतत्त्वज्ञान ९-दर्शनशास्त्रोंका तुलनात्मक अध्ययन २४ बा०ज्योतिप्रसादजी,स० जनप्रदीप'देवबन्द १०-जैनधर्मकी उदारनीति, ११ जैनी अहिंसा "आश्रम खल गया हर्ष हुआ,मेरीभावना है कि १२-भक्तिमार्ग और स्तुति-प्रार्थनादि-हम्य सफलता मिले। 'के विवाहकी चिंता है इससे छुट- १३ सेवा-धर्म, १४ युग-धर्म कारा पाकर रिटायर होनेका निश्चय है फिर श्राश्रममें १५ देशकालानुसार वर्तनका रहस्य रह कर मैं भी निज-परका कार्य कर सकूँगा।" १६ अहिंसा और दयाकी परिभाषा १७ संयमकी मर्यादा, १८ सत्यासत्य-विवेक Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ १९ दानका अर्थशास्त्र, २० पात्रदान रहस्य २१ खादीके व्यवहारमें त्यागका तत्त्व २२ परोपकार और स्वोपकार २३ जीवाजीव परिज्ञान, २४ बंध-मोक्ष-तत्त्व २५ पुण्य-पाप- रहस्य, २६ श्रात्मतत्त्व - विनिश्वय २७ आत्मा और परमात्मा २८ इंद्रियजय- माहात्म्य, २९ प्रसन्नता रसायन ३० जीवन और मरण (अथवा मृत्युसमस्या ) ३१ अकाल मृत्यु ३२. हमारी दुःखावस्था और उसका प्रतीकार ३३ हमारी संकीर्णता और हृदयहीनता ३४ हमारा उत्थान और पतन ३५ हमारा दारिद्रय और उसका परिणाम ३६ हमारे दुःखोंका मूल, ३७ हमारी धर्मचिन्ता ३८ धर्मके श्रासनपर रूढ़ियाँ ३९ रूढ़ियोंका दासत्व और प्रतिफल ४० सुखका सचा उपाय ४१ हमारी धार्मिक संस्थाएँ ४२ हमारी पंचायतें और उनका बल ४३ हमारी शिक्षापद्धति, ४४ दौर्बल्य शासन ४५ हमारा साहित्य और उसमें विकारका प्रवेश ४६ साहित्य के विकार से होनेवाली हानि ४७ हमारा सामाजिक संगठन और जीवन ४८ लुटे हुए जैनी, ४९ मरणोन्मुख जैनसमाज ५० समाजका क्षयरोग, ५१ हमारी नपुंसकता ५२ बलकी आराधना, ५३ विचार स्वातंत्र्य और उसका महत्व (अथवा विचारसहिष्णुता ) ५४ सत्संगति-कल्पलता, ५५ हमारा स्वार्थ ५६ शुद्धि-तत्त्व -मीमांसा ५७ पतितोद्धार ५८ छूत और अछूत, ५९ स्वाभिमान और अपमान ६० देव और पुरुषार्थ ( तक़दीर और तदबीर) ६१ समाजके उत्थानमें नवयुवकोंका स्थान, ६२ शक्तिका दुरुपयोग ६३ जिनवाणीके साथ जैनियोंकी बेवफाई अनेकान्त [ वर्ष १, किरण १ ६४ दिगम्बरों और श्वेताम्बरोंकी प्रवचनभक्ति ६५ हमारी पतित पावनी गंगा ६६ श्रद्धा, अश्रद्धा और अन्धश्रद्धा ६७ धर्मके नामपर पाखण्ड (पापप्रचार ) ६८ जैनधर्म व साम्यवाद, ६९ विश्वप्रेमी महावीर ७० महवीरकी समता और उदारता ७१ ऐतिहासिक अनुसंधान, अथवा पुरानी बातोंकी खोज ७२ दुष्प्राप्य और अलभ्य साहित्य ७३ महत्पुरुषों की ऐतिहासिक जीवनियाँ ७४ वीर माताएं, ७५ हमारेपराक्रमी पूर्वज ७६ विदेश और समुद्रयात्रा ७७ हमारी मिध्यात्वसेवा ७८ स्त्री जातिका अपमान, ७९ महिला समुत्थान ८० अंतरंग शत्रु । ८१ शरीरका राजा । ८२ सदाचारका तत्व, ८३ जैनधर्मकी खूबियाँ ( विशेषताएँ) ८४ गृहस्थ धर्मकी महत्ता ८५ जैनयोगविद्या ८६ कर्मसिद्धान्त रहस्य, ८७ हेयादेय-परिज्ञान ८८ जगतकर्त त्व-मीमांसा, ८९ ईश्वर और अनीश्वरवाद, ९० युक्तिवाद और आगमवाद ९१ सुनय और दुर्नय ९२ सर्वज्ञकी परिभाषा अथवा सर्वज्ञसिद्धि ९३ ज्ञान और चारित्र ९४ धर्मादा खाता ९५ वैवाहिक सम्बंध, ९६ समाजशास्त्र-विज्ञान ९७ वैज्ञानिकजगत अथवा विज्ञानके नयेनये श्राविष्कार ९८ देशके प्रति जैनसमाजका कर्तव्य ९९ रोटीका प्रश्न १०० समन्तभद्राश्रम के प्रति समाजका कर्तव्य १०१ जीवनज्योति जगानेवाली सुभाषित मणियाँ नोट - 'अनेकान्त' को भेजे जानेवाले लेख गद्यमें हों या पद्य में परन्तु वे सब कागजकी एक तरफ हाशिया छोड़कर, सुवाच्य अक्षरोंमें लिखे जाने चाहियें । विनीतव्यवस्थापक " अनेकान्त "" Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गशिर, वीरनि० सं०२४५६) चित्र-दर्शन poxoroxor of focus चित्र-दर्शन awuroros Forord १ इस पत्रमें सबसे पहले मुख पृष्ठ पर जिस दुरंगे यह दर्द अपनी सीमाको पार कर गया-असह्य हो चित्रका दर्शन होता है वह 'अनेकान्त' सत्सर्यका चित्र उठा-और वर्षों तक लोकस्थितिका अनुभव करनेके है । अनेकान्त सूर्य कितना देदीप्यमान है!! वह विश्वके बाद उन्हें उस दर्दको दूर करने अथवा लोक स्थितिको संपूर्ण तत्त्वोंका-पदार्थोंका-ऊपरसे ही प्रकाशक नहीं सुधारनेका सम्यक् उपाय सूझ पड़ा तब आपने और किन्तु प्रत्येक वस्तुके भीतरी तत्त्वका-उसके रहस्य अधिक समय तक गृहवासमें रहना उचित नहीं समझा का-भी प्रकाशक है; उसकी किरणें एकान्त-अनेकांत, -उन्हें यह न्याय्य ही मालूम नहीं पड़ा कि प्रजाजनके भाव-अभाव, लोक-अलोक, जीव-अजीव, बन्ध-मोक्ष, दुखी रहते वे सुखका उपभोग करें-उन्हें अब भोगोंमें पुण्य-पाप, शुभ-अशुभ, सुख-दुख, कर्म-अकर्म, हिंसा- कुछ भी आनन्द नहीं आता था, वे एक प्रकारके रोग अहिंसा, सत्य-असत्य, एक-अनेक, नित्य-अनित्य, प्रतीत होते थे और संपूर्ण राज्य-वैभव निःसार जान अपेक्षा-अनपेक्षा, युक्ति-भागम, अंतरंग-बहिरंग, दैव- पड़ता था । अतः उन्होंने लोकहितकी शुभ भावनाओं पुरुषार्थ,शुद्धि-अशुद्धि,स्वभाव-विभाव,प्रमाण-अप्रमाण, संप्रेरित होकर और लोकोद्धारका दृढ़ संकल्प करके साध्य-साधन,साधर्म्य-वैधर्म्य,सुनय-दुर्नय, द्रव्य-पर्याय, एकाएक राज्यकी संपूर्ण लक्ष्मीको ठुकरा दिया और गुण-गणी, स्वतत्त्व-परतत्त्व, सामान्य-विशेप, आत्मा- इन्द्रियसुखोंसे मुख मोड़कर मार्गशिर कृष्ण दशमीको परमात्मा, विद्या-अविद्या, और सम्यक्त्व-मिथ्यात्व जैसे तपस्याकेलिए जंगलका रास्ता लिया । इस समाचारसे गहन विषयों पर अपना कैसा प्रकाश डाल रही हैं। नगर भरमें खलबली मच गई और लोगोंके हृदयमें और साथ ही, साँख्य, वैशेषिक, योग, जैन, बौद्ध, सविशेष रूपस भक्तिका भाव उमड आया। झंडकेझंड मीमांसक, न्याय, वेदान्त, चार्वाक जैसे दर्शनोंकी नरनारी-अमीर और गरीब सब-जंगलकी ओर चल तथा इतिहास, माहित्य, समाज, नीति, कला, व्यापार दिये और उन्होंने 'ज्ञातखंड' बनमें जाकर देखा कि, और विज्ञान जैसे विषयोंकी स्थितिको कितना स्पष्ट भगवानने अपने शरीर परसे वस्त्राभूषणोंको भी उतार कर रही हैं, यह सब ही चित्रकारनं इस चित्रमें कर फेंक दिया है और वे एक शिला पर प्रसन्न चित्त चित्रित किया है। अथवा प्रकरान्तरसे यह दर्शाया है बैठे अपन केशोंका लौंच कर रहे हैं-मा -मानों केश भी कि यह पत्र इन सब विषयों पर गहरा प्रकाश डाल कर अब उन्हें क्लेश प्रतीत होरहे हैं और वे उन्हें बिना किसी मिथ्यान्धकारको दूर करनेके लिये उद्यत हुआ है। झिझकके अपने हाथोंसे उपाड़ कर अपने शरीरसे भी .२ दूसरा तिरंगा चित्र जो इस पत्रके शुरूमें लगा निस्पृहताका परिचय दे रहे हैं । सामने कोई भव्य है वह भगवान महावीरकी जिनदीक्षाका चित्र है। पुरुष बैठे उन केशोंका चयन कर रहे हैं और उन्हें रल महावीर ३०वर्ष तक गृहवासमें रहें, उन्हें आज्ञा-ऐश्वर्य जड़ित पिटारीमें रखते जाते हैं, जिनकी बाबत यह सुना राज्यविभूति और सुखकी सब सामग्री प्राप्त थी। परंतु गया कि वे स्वर्गके कोई इन्द्र हैं और इन केशोंको क्षीर साथ ही उनके दिलमें एक दर्द भी था, जिसने उन्हें सागरमें क्षेपनके लिये ले जायेंगे । इसी सब भावका कभी इस मनोमुग्धकारी सम्पत्तिमें लीन नहीं होने चित्रकारने इस चित्रमें चित्रित किया है। वह कहाँ तक दिया, और वह दर्द यही था कि संसारके प्राणी उन्हें इसमें सफल हुआ है इसका निर्णय पाठक देखने पर दुःखित, पीडित, पतित और मार्गच्युत नजर आते थे, स्वयँ कर सकेंगे। महावीरका विशेष परिचय पानेके और यह सब उनसे देखा नहीं जाता था । जब उनका लिये पत्रका पहला लेख देखना चाहिये । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त ... [वर्ष १, किरण १ EKगहरी लूट नवीन वर्षकी खुशीमें । पवित्र दशलक्षणी पर्व में इस कार्यालयके संचालकोंने १५ हजार के ग्रंथ ६ हजारमें लुटाये थे। अतएव इस नवीन वर्षकी खशीमें उन धर्मात्मा भाइयोंके आग्रहका ध्यान रखकर जो कुछ ७ थोड़ेसे ग्रंथ स्टाक रह गये हैं उन्हें आपका पत्र पाते ही भेज देंगे। जल्दी आर्डर देवें अन्यथा पछताना पड़ेगा। ऐसा सुभीता न कभी हुवा था और न भविष्यमें होगा।। १० हजारका घाटा हम उठा चुके हैं। फिर भी प्रचार के उद्देश्यसे तैयार ग्रंथोंको लुटा रहे हैं बहुत थोड़े ग्रन्थ बचे है जल्दी मंगवाइये । ३७) रुपयाके ६ ग्रंथ १३) रुपयामें १ सुदृष्टितरंगिनी (६५० पृष्ट ) २ पद्मपुराणजी बड़े ३ हरिवंशपुराणजी ( सचित्र) ४ जैन कथा कोप ५ जैनक्रिया कोप ६ बृहद जैनपद संग्रह, २८) रुपया ६ पुराण ६) रुपया में १ वृहद बिमलनाथ पुराण (४१६ पृष्ट ) २ शांतिनाथ पुगण ३ श्रीआदिपुराण(सचित्र) भाषा वचनिका ४ मल्लिनाथ पराण ५ चर्चासमाधान ६ तत्वार्थ राजवार्तिक (प्रथम खंड) ०) रुपयाके ६ बड़े२ शास्त्र १०) रुपयामें (शास्त्राकार बड़े २ अक्षर सरल भापा बचनिका ) ११ श्रीरत्नकरन्ड श्रावकाचारजी ५॥) मूल्य २ श्रोशातिनाथ पुराणजी ६) रु० मूल्य ३ श्री अर्थप्र प्रकाशिकाजी ६० मूल्य ४ श्रीसर्वार्थसिद्धिजीभाषा टीका ६) रुपया ५ श्री मोक्षमार्गप्रकाशक जी ५) रुपया ६ प समाधानजी (पं० भूधरदासजी कृत ) २) रुपया शीघही मगवाइये प्रापका पत्र पातही श्रीरत्नकरंडश्रावकाचार श्रीशांतिनाथपराणजी और चर्चासमाधानजी तीनों प्रन्ध १०) और पोष्टेज १) कुल १११) की धी०पी० से भेज दिये जायगे। पाकीके ३ ग्रन्थ पुट कागज़ परसुन्दरता पर्वक छाप कर खाली डाकखर्चको पी पी.से भेजते रहेंगे। १७०० पृष्टके (मजिल्द) आठ ग्रंथ ५) में जिनवाणी संग्रह (रेशमी जिल्ल) २ जैनकथाकोष (सजिल्द) नित्यपाठ गुटका भाषा ४ नित्य । पाठ गटका संस्कृत ५ सरल नित्यपाठ संग्रह ६ बोबोसी पाठ (पृन्दावनकृत) ७ चौबीसोपाठ (रामचंद्र कृत) = भाद्रपद पूजा संग्रह जिनवाणी चित्रशाला-उत्तमोत्तम चित्रोको १५ x २० साइजमें छपाकर सुन्दर नकशे तैयार कर रही है भाप अपने कमरों मेसे अब भहे अश्लील और गंदे चित्रोंको भाजही फेंकद तथा पड़े । चित्रोंकी सची मंगाकर देखें, तीन रंगा-चार रंगा चित्रों का बड़ा भारी स्टाक हमारे यहाँही । REERARAM सस्ती जिनवाणी ग्रंथमाला पो०० ६७४८ कलकत्चार Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Joytit ___ ॐ महम् i tatisthan एकान्तेऽघटमानत्वाद् वस्तुतत्त्वस्य सर्वथा । अनेकान्तस्ततः कान्तः स्वीकार्यः कान्तमिच्छता ॥ -'अनेकान्ती'। वप किरण - 100.0001सर समन्तभद्राश्रम, करौलबारा, देहली। पौष, संवत १९८६ वि०, वीरनिर्वाण मं० २४५६ mmmmmmmmmmmmmmmise * अनकान्त-माहात्म्य * जण विणा लोगम्स वि वयहारो सव्वहा ण णिवा।। तस्स भवनकगुरुणो णमो अणेगंतवायस्म ॥ -सिद्धसनाचार्य 'जिमकं बिना-जिमकी शिक्षा प्रभावमें-लोकका भी व्यवहार बन नहीं सकता-भले प्रकार चल नहीं सकता-उस भुवनेकगुरु-१ लोकके अमाधारण गुरु-अनकान्तवादको नमस्कार हा । परमागमस्य बीज निषिद्ध जात्यन्ध-सिन्धर-विधानम्। सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।। -अमृतचंद्र मुरि 'जो परमागमका बीज है-जैनागमका प्राण है-, जिमने जन्मान्ध-४ पुरुषोंके हस्तिविधानका-एकान्तवादिदर्शनोंकी मिथ्याधारणारूप विवान, का-निषेध कर दिया है-हाथी ( अनेकान्तात्मक पदार्थ) के एक एक" अंगको ही टटोल कर उसीको समूचा हाथी (पदार्थ) प्रतिपादन करने म्प! उनके भ्रमका संशोधन और समाधान कर दिया है और जो संपूर्ण :नयोंसे विभूषित-उनकी विवक्षा-उपेक्षाको लिये हुए-पदार्थोके-प्रति• पाच विषयोंके-विरोधको दूर करने वाला है, उम 'अनकान्त' को मैं, नमस्कार करता हूँ।' 'जीव' इत्यपि पाठः । (rennunarMUNNnnnn NAPURNA Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण २ * वीरवाणी* [ ले-श्री भगवन्त गणपति गोयलीय ] । तीर्थकर की मुना दुलारी, उपा-काल के ग्विले सुमन पर, जगजीवों की माता प्याग, जल-तरंग पर किशलयगण पर, वसुधा की सन्नत हितकारी, वृहत गगन पर तारागण पर, ' उपकृत है तुझ में जग भारी, तम पर युति पर त्रिविधि पवन पर बिहरी और मदा बिहरे त है माँ ! देश विदेश। दर्शन ज्ञान चरित्र लिम्वे हो माँ ! सम्यक् संयुक्त । जननी न है विश्व-तारिणी, सरिता में, सरवर-सागर में, कर्म-कोप अघदल-मॅहारिणी, गिरि-गह्वर में नगर नगर में। जन्म-मरण-सन्ताप-हारिणी, डगर डगर में, वसुधा भर में, भव्य जीव-मुनिमन-विहारिणी, जल-थल में, अनन्त अम्बर में, करदे नष्ट जगज्जीवों के करुणामयि ! मब क्लेश । एक बार हो उठे पुनः माँ ! तेरा री जयघोष । धन-वैभव की हृदय-हीनता, स्वार्थों पर ममता जय पावे, भोगों की आत्मिक मलीनता, मिथ्या की माँ मारी जावे, आशा की दयनीय दीनता, सुख की घटा घिरे घहगवे, सुख-दुख की स्थिरता-विहीनता ताप-कषाय पीठ दिखलावे, समझाकर करदे त्रिलोकको, माता मोह विमुक्त। दोष दलिनि ! प्राणी समूह को करदे अब निर्दोष । अनुरोध (ले०-श्री० भगवन्त गणपति गोयलीय) जब प्रभात में रवि किरणें पाकर मुझको विकसाढ़ें, मेरी क्षुद्र आँख पर जलकण मायावरण गिरादें, पवन-प्रवाह थिरकना हटना बढ़ना मुझे सिखादें, भ्रमरावलियाँ गुण गा गा कर मानिनि मुझे बनावें। तब होगा प्रारंभ पतन का मेरे यह निश्चय है ; उस यौवन में आत्मविस्मरण हो जानेका भय है; सब हाँ तब, बनपाल! शीघ्र ही मुझको चुन लेजाना; बढ़ा पार्श्व-अनुचर-चरणों में जीवन मफल बनाना । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौष, वीर नि०सं०२४५६] स्वामी पात्रकेसरी और विद्यानन्द ६७ स्वामी पात्रकेसरी और विद्यानन्द एकताके भ्रमका प्रचार लिये श्राज इम भ्रमको म्पष्ट करनेके लिये ही यह लेग्य सोलह सतरह वर्ष हुए जब सुहृद्वर पं०नाथरामजी लिखा जाता है। प्रेमीने 'स्याद्वाद विद्यापति विद्यानन्दि' नामका प्रमाण-पंचक एक लेख लिखा था और उसे "वें वर्षके जैनहितपी सबसे पहले मैं अपने पाठकोंको उन प्रमाणअंक नं०९में प्रकाशित कियाथा । यह लेख प्रायः तात्या अथवा हेतुओं-का परिचय करा देना चाहता हूँ जो नेमिनाथ पाँगलके मराठी लेखके आधार पर, उमे कुछ प्रेमीजीनं अपने उक्त लग्यमें दिये हैं और वे इस मंशोधित, परिवर्तित और परिवर्द्धित करके, लिग्वागया प्रकार हैं:था । और उसमें यह सिद्ध किया गया था कि 'पात्र- "विद्यानन्दका नाम पात्रकसरी भी है। बहुतम केसरी' और 'विद्यानंद' दोनों एक ही व्यक्ति हैं । जिन लोगोंका खयाल है कि पात्रकेसरी नामके कोई दुसरं प्रमाणोंम यह सिद्ध किया गया था उनकी सत्यता पर विद्वान होगये हैं। परन्तु नीच लिग्वे प्रमाणोंसे विद्याविश्वास करते हुए, उस वक्तम प्रायः मभी विद्वान् नन्दि और पात्रकेमरी एक ही मालम होते हैयह मानते आ रहे हैं कि ये दोनों एक ही व्यक्ति के १ 'मम्यक्तप्रकाश' नामक ग्रन्थमें एक जगह लिखा नामान्तर हैं-भिन्न नाम हैं । चुनाँच उस वक्त है किश्रामपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, अष्टमही, तन्वार्थश्नांक- "नथानांकवानिक विद्यानन्दापग्नाम पात्रकार वार्तिक, युक्त्यनुशासनटीका, पात्रकेसरितांत्र, श्रीपर- म्वामिना यदुनं नश्च लिग्व्यन-'नत्त्वार्थश्रद्धानं मम्यपार्श्वनाथस्तोत्र आदि जो भी ग्रंथ विद्यानन्द या पात्र ग्दर्शनं । न तु मम्यग्दर्शनशब्दनिर्वचनसामयादव केसरीके नामसे प्रकाशित हुए हैं और जिनकं माथमें त्वात्तदर्थ नलक्षण वचनं न यक्तिमदेवनि कम्यचिदार ___ मम्यग्दर्शनम्वम्पनिर्णयादर्शपद्विप्रतिपनिनिवृत्तः सिद्ध विद्वानों द्वारा उनके कर्ताका परिचय दिया गया है उन का तामपाकरानि । मबमें पात्रकेसरी और विद्यानन्दको एक घोषित किया इममें शोकवार्तिकर्क कना विद्यानन्दिका ही पात्रगया है-बहुतोंमें प्रेमीजीके लेखका सारांश अथवा कमर्ग बतलाया है। संस्कृत अनुवाद तक दिया गया है। डा० शतीशचन्द्र : श्रवणयन्गोलकं पं० दौलिजिनदास शास्त्री ग्रंथविद्याभूषण जैसे अजैन विद्वानोंने भी, बिना किसी मंग्रहमें जो आदिपगणकी नार पत्रोंपर लिग्विन विशेष ऊहापोहके, अपने प्रन्थोंमें दोनोंकी एकताको प्रनि है उमकी टिप्पणीमें पात्रकेमरीका नामान्तर स्वीकार किया है । इस तरह पर यह विपय विद्वत्म- विधानन्दि लिया है। माजमें रूढ सा हो गया है और एक निश्चित विपय ३ ब्रह्मनमिदनकृत कथाकोपमें जा पात्रकेमरीकीकथा समझा जाता है। परंतु खोज करने पर मालूम लिखी है उसके विषय परम्परागत यही म्ययाल हुआ कि, ऐसा समझना नितान्त भ्रम है । और इम चला पाना है कि वह विद्यानन्दिकी ही कथा है। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण २ ४ वादिचन्दमरिन अपन ज्ञानसर्यादयनाटकके चौथे ढेरके ढेर ग्रन्थों में से किसी ग्रंथका नाम भी पात्रकेमरी अंकमें 'अष्टशती' नामक स्त्री पात्रम 'पाप' के की कृति रूपमै उसमें उल्लेखित नहीं मिलता; बल्कि प्रति कहलवाया है कि पात्रकेमरीकी कृतिरूपमे जिनेन्द्रगुणमंन्तुति' नामके ___ "देव, ततोऽहमुनालिनदया श्रीमत्पात्रकसरि- एक ग्रंथका उल्लंग्ख पाया जाता है । और यह मुम्बकमलं गता न मानान्कृतमकलस्याद्वाभिप्रायेण ग्रंथ ही 'पात्रकेमरिम्तोत्र' ( पात्रकेमरीका रचा हुआ लालिता पालिताटमहसीनया पष्टिनीता । देव, स यदि म्तोत्र ) कहलाता है-विद्यानन्दस्तांत्र नहीं । इस नापालयिष्यन तदा कथं वामद्राक्षम ? " म्तोत्रका प्रारंभ जिनेन्द्रगुणसंस्तुतिः' x पदम होता ___ अर्थात-(जब मैंने एकान्तवादियोंमे म्याद्वादका है-जिनेन्द्रकं गुणोंकी ही इसमें स्तुति भी हैम्वरूप कहा, नव व ऋद्ध होकर कहने लगद ओर इमलियभक्तामर तथा स्वयंभस्तोत्रादिकी तरह यही पकड़ा। मागं । जान नपान इमका वास्तविक तथा सार्थक नाम जान पड़ना है । भयभीत हो कर श्रीमपात्रमर्गके मखकमलमं यथाः –कृतोऽन्यमतविध्वमा जिनेन्द्रगुगा । तुतिः । प्रवेश किया। संपर्णभ्याद्वादके अभिप्रायों को अच्छी गतवः परमानन्दात्समर तमुग्वदायकः ॥ नरहम जानने वाले थे, इम लिये उन्होंने मेरा अली जिनेन्द्र गुगामम्नुतिर तव गनागपि प्रतुता। भवन्यजिनक गां प्रतये पर कारगाम ॥ तरह लालन पालन किया और अप्रमहसीक द्वाग + यह ग्रथ मागिाकचन्द्रग्रथमालामं एक माधारगा टीक के साथ मुझे पुष्ट की । हे देव, व ( पात्रकेमरी ) यदि मुझं न , पालन तो आज मैं तुम्हें कैम देवती ?" इसका अभि प्रकाशित हुया है, जिसके का अदिका कुछ पता नही। टीका के प्राय यह है कि अकलंकदेवका बनाया हा जो 'अष्ट शुम्म मगलाचगणक तौर पर एक नीक रवा हुमा है जिसमें 'हन्पचनमा काग्प विप्रियतऽधना' यह एक प्रतिज्ञावाक्य है और शती' नामक ग्रंथ है. उम पढ़ कर जैनंतर विद्वान क्रद्ध हो गये और वे उम पर आक्रमण करनेकानय्यार हुए। उमममा ध्वनित होता है मानों मूल प्रथका नाम 'हतांचनमयह देखकर पात्रकेमरी म्वामीन ‘अष्टमहस्री' नामक रकार है और इगटीक में उमीक पोंकी विनिकी गई है। चुनांचे ५० नाथगमजी अपने अपने ग्रथपश्चियमें मा लिख भी दिया है। प्रसिद्ध ग्रन्थ रचकर उसके अभिप्रायांकीपष्टि की। इससे मालूम होता है कि अष्टमहनीके बनाने वाले विद्यानंदि परन्तु अथक गदर्भको दग्वत हुए. यह नाम उमंक लिये किसी तरह भी दी पात्रकसग हैं। अयुक्त मालूम नही होना। द्रव्यमग्रहकी बृह्मदेवकृत टं.कामें एक ५ श्रागे जो हुमचाका शिलालेग्य उधृत किया स्थान पर बारह हजार लोक मत्र्या वाल 'पंचनमा कार' ग्रंथका ख मिलता है और उसमें लघु मिद्धचक, यह सिद्धचक्र, जैम गया है, उसके अन्तिम वाक्यमे भी स्पष्ट होता है कि विद्यानन्दि और पात्रकेमरी एक ही थे। कितने ही पार्टीका संग्रह बतलाया है । हो सकता है कि 'वृहतपच नमा कार' नामका या तो वही मग्रह हो और या उसमे भी बड़ा ___ इन पाँच प्रमाणांस मेरी समझमें यह बात निम्म कोई दुमा मग्रह तय्यार हुमा हो और उसमें पात्रकेसरिम्नोको भी दह हो जाती है कि पात्रकेसरी और विद्यानन्दि दानों एक ही हैं। " गग्रहीत किया हो। और उसीकी यूनि पग्मे पात्रकेसरी स्तोत्रको उतारने हा उपकी प्रतिक मंगलाचरगा इस स्तोत्रकी यत्तिक ऊपर द प्रमाणोंकी जाँच दिया गया हो । प्रथवा इसके दिये जानेमें कोई दमी ही गड़बड़ हुई इनमें तीसरे नम्बरका प्रमाण ता वास्तवमें कोई हो । परन्तु कुछ भी हो, टीकाका यह मगल पद 'क्षेपक' जान प्रमाण नहीं है क्योंकि इसमें कथाकोशान्तर्गत पात्र- पड़ता है। और इसलिये इसम स्तोत्रके नाम पर कोई असर नहीं कमरीकी जिम कथाका उल्लेख किया गया है उसमें पड़ता । साथ ही, इस सस्करणके अन्तमें दिये हुए सभाप्तिसूचक विद्यानन्दकी कहीं गन्ध तक भी नहीं पाई जाती- गद्यमें जो विद्यानन्दि' का नाम लगाया गया है वह संशोधक महाशय और तो क्या, विमानन्दके नाममे प्रसिद्ध होने वाले की कृति जान पड़ती है। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९ पौप, वीर निव्सं० २४५६] स्वामी पात्रकेसरी और विद्यानन्द ___ दूसरे प्रमाणमें जिस टिप्पणीका उल्लेख है वह प्राप्त नहीं हुआ, उन्हें उसके कुछ ग्वंडोंका सारांश मात्र आदिपुराणके निम्न वाक्यमें प्रयुक्त हुए पात्रकेसरिणा' मिला है और इमी लिये उन्हे इस प्रमाणको प्रस्तुत पद पर जान पड़ती है; क्योंकि अन्यत्र श्रादिपुराणमें करने तथा शिलालेखके आधार पर अपने लेखमें पात्रकेसरीका कोई उल्लेोग्य नहीं मिलता :- विद्यानन्दका कुछ विशेष परिचय देनमें भारी धोखा भट्टाकलंक-श्रीपाल-पात्रकेसरिणां गुणाः। हुआ है । अस्तु; इस प्रमाणमें प्रेमीजीने शिलालेख्यके विदुषां हृदयारूढा हारायन्तेऽतिनिर्मलाः॥ जिस अन्तिम वाक्यकी ओर इशारा किया है उसे यहाँ इममें लिखा है कि, भटाकलंक, श्रीपाल और ददन मात्रम ही काम नहीं चलेगा, पाठकोंके समझने पात्रकेमर्गक अति निर्मल गण विद्वानोके हृदय पर के लिये अनुवाद रूपमें प्रस्तुत किये हुए प्रेमीजीके उम हारकी तरह आरूढ हैं।] पर शिलालेखको ही यहाँ दे देना उचित जान पड़ता परंतु इम टिप्पणीकी बावत यह नहीं बतलाया है और वह इस प्रकार हैगया कि. वह कौनम श्राचार्ग अथवा विद्वान की की “विद्यानन्दिस्वामीन मंजराज पट्टणकं गजा मंज हुई है? कब की गई है? अन्यत्र भी श्रादिपुराणकी वह की सभामें जाकर नन्दनमल्लिभट्टसे विवाद करके ममृची टिप्पणी मिलती है या कि नहीं ? और यदि उमका पराभव किया। ... शतवेन्द्र राजाकी सभामें मिलती है तो उममें भी प्रकृत पदकी वह टिप्पणी एक कान्यके प्रभावसे ममस्त श्रोताओंको चकित कर मौजद है या कि नहीं ? अथवा जिस ग्रन्थप्रति पर वह दिया ।......... शाल्वमल्लि राजाकी मभामें पराजित टिप्पणी है वह कबकी लिखी हुई है और वह टिप्पणी किये हुए वादियों पर विद्यानन्दिनं क्षमा की।... उमी प्रलिपिका अंग है या बादको की हुई मालम सलवदेव गजाकी मभामें परवादियोंके मतोंका होती है । बिना इन मब बातोंका स्पष्टीकरण किए अमत्य सिद्ध करके जैनमनकी प्रभावना की। ...... और यह बतलाए कि वह टिप्पणी अधिक प्राचीन बिलगीक राजा नरसिंह की मभामें जैनमतका प्रभाव है-कम से कम 'सम्यक्त्वप्रकाश' और 'जानसूर्योदय प्रकट किया । काग्कल नगरीके भैरवाचायकी गजनाटक की रचनाम पहले की है-अथवा किसी मान्य सभामें विद्यानन्दिन जैनमतका प्रभाव दिग्बला कर अधिकारी पुरुष द्वारा की गई है, इम प्रमाणका काई उमका प्रमार किया। ...... विदर्गकं भव्यजनोंको खास महत्व और वजन मालूम नहीं होता । होमकता विद्यानन्दिनं अपने धर्मज्ञानममम्यक्त्वकी प्रापि कगदी है कि टिप्पणी बहुत कुछ आधुनिकहां और वह किमी ......जिम नरसिंहराजकं पुत्र कृष्णराजके दरबार में ग्वाध्यायप्रेमीने दन्तकथा पर विश्वास करकं या हजारों गजा नम्र होतं थे उम गजदरबाग्में जाकर है. मम्यक्तप्रकाशादिकको देख कर ही लगा दी हो। विद्यानन्द, तुमने जैनमनका उद्योत किया और पर पाँचवाँ प्रमाण एक शिलालेम्प पर आधार रखता वादियोंका पगभव किया। ...... कांप्पन नथा अन्य है और उस लेखकी जाँचसे वह बिलकुल निर्मूल जान नीर्थस्थलोंमें विपुल धन म्यर्च कराके तुमनं धर्मपड़ता है। मालूम होता है प्रेमीजीके (अथवा तात्या प्रभावना की । बेलगुलके जैनमंघका सुवर्णवनादि नमिनाथ पांगलके भी)मामने यह पुरा शिलालेम्ब कभी दिला कर मण्डिन किया। ...... गैग्सप्पाके ममीप Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण२ के प्रदेशके मुनिसंघको अपना शिप्य बना कर उसे है। यह भाग १७ पद्योंमें है। ऊपर जो अनुवाद दिया विभूपित किया । जैनशामन का तथा महावीर, गौतम, है उसमें 'जैनशामन' से प्रारंभ होने वाले अन्तिम पाँच भद्रबाहु, विशाग्याचार्य, उमाम्वामी, समन्तभद्र अक- वाक्योंको छोड़ कर शप भाग इमी कनडी भागमे लंकका विजय हो । अक नंकने समन्तभद्रके देवागम सम्बंध रखता है और उममें पहले तीन पद्यों तथा पर भाष्य लिग्वा । अाप्रमीमांसा ग्रन्थको समझा कर पाँचवें, आठवें और दसवें पाका कोई अनुवाद नहीं बतलाने वाले विद्यानन्दिको नमोस्तु । श्लोकवार्तिका- है, जिसमे अन्य वृत्तान्तके अतिरिक्त श्रीरंगनगरकी लंकारके कर्ता, कवि चूड़ामणि तार्किकर्मिह, विद्वान् गजमभा, गुरु नेपालकी गजमभा औग्नगर्ग गज्यकी यति विद्यानन्द जयवन्त हो। ...... गिरी निकट गजसभाका भी हाल रह गया है । और शेप पयोंका निवारण करने वाले मोक्षेच्छ ध्यानी मुनि पात्रकेमरी जा अनुवाद या आशय दिया गया है वह बहुत कुछ ही हो गय...." __ अधग ही नहीं किन्तु कहीं कहीं पर ग़लत भी है. [शिलालेग्य नं. ४६] जिमका एक उदाहरण गेग्माप्प सम्बन्धी पद्यका अनअनुवाद रूपमें प्रस्तुन इम शिलालेग्वके अन्तिम वाद है । इम पद्यमें कहा गया है कि हे विद्यानन्द. वाक्यसे भी, यद्यपि, यह नहीं पाया जाता कि विद्यानन्द प्रापन गरमाप्पेमें योगागम-विषयक बादमें प्रवृत्त मुनि और पात्रकेसरी दोनों एक ही व्यक्ति थे; क्योंकि न तो गणकी पालना-अथवा सहायता के कार्यको प्रेमके इसमें ऐसा लिग्या है और न और मब कथन अकेले माथ,बनौर एक गुरुके अपने हाथमें लिया है और (इम विद्यानन्दम ही सम्बन्ध रम्यता है बल्कि गौतम, नरह) अपने को प्रतिष्ठिा किया है । दम परम पाठक भद्रयाहु, ममन्नभद्र और अकलंकादिक आचार्योका यह सहज ही में अनुभव कर सकते हैं कि उपरका भी इसमें उल्लेख है और तदनुसार पात्रकेसरीका भी गैरसप्पामे प्रारंभ होने वाला अनुवाद कितना ग़लत एक उल्लेख है । गौतम, भद्रबाह और ममन्तभद्रादिक और भ्रामक है । अम्तु; शिनालग्बके इम कनडीभागमें यदि विद्यानन्दके नामान्तर नहीं हैं तो पात्रकेमरीको जिन राजाओंका उल्लेग्य है और संस्कृत भागमें भी ही उनका नामान्तर क्यों ममझा जाय ? फिर भी मैं सांगिराज, पद्मानन्दन कृष्णदेव, मालुव कृष्णदेव. इस लेग्य विषयको कुछ और भी स्पष्ट कर देना चाहता विरूपाक्षराय, माल्बमल्लिराय, अच्युतगय, विद्यानगरी के विजय श्रीकृष्णराय आदि जिन राजाओंका विद्या___ यह शिलालेख कनडी और संस्कृत भाषाका एक नंद तथा उनके शिष्योंके सम्बन्धी उल्लेख है व मत्र बहुत बड़ा शिलालेग्व है-उक्त अनवाद रूपमें पाठक शककी १५वीं अथवा विक्रम और ईमाकी प्रायः १६वीं जितना देख रहे हैं उतना ही नहीं है । इसका पूर्वभाग शताब्दीमें हुए हैं और इम लिये उनकी मभाओंमें कनडी और उत्तरभाग संस्कृत है, और यह संस्कृतभाग प्रमित होने वाले ये वादिविद्यानन्द महोदय वे विद्याही इसमें बड़ा है । पहले कनडी भागमें वादिविद्यानन्द नन्द स्वामी नहीं हैं जो कि श्लोकवार्तिकादि ग्रन्थोंके का उल्लेख है और उन राजसभाओं श्रादिका उल्लेख है. प्रसिद्ध रचयिता हैं । और यह बात इस शिलालेखके जहाँ पर उनके द्वारा कोई कोई महत्वका कार्य हुआ लेखक तथा विगानंद के प्रशिष्य और बन्युमुनि वर्द्धमान Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौष, वीर निमं० २४५६] स्वामी पात्रकेसरीऔर विद्यानंद द्वारा रचित * देशभक्त्यादिशान से भी पाई जाती है । इससे मालूम होता है कि 'पात्रकेसरी' पहले जिसमें इन सब पद्योंका ही नहीं किन्तु संस्कृत भागके किसी राजाकी सेवामें थे और उस राजसेवाम पराभी बहुतमे पद्योंका उल्लेख करते हुए विद्यानन्दकी मृत्यु का समय शक मं० १४६३ दिया है । यथाः " मृत्यु मुख होकर उसे छोड़ कर ही वे मोक्षार्थी मुनि बने हैं शाक वन्हिग्वग(रसा)ब्धिचंद्रकलित संवत्सरेशावरे और उन्होंन भूभृत्पादानुवर्ती होना-अथवा तपस्याक शुद्धश्रावणभाककृतान्तधरणीतग्मैत्रमेष रवी। लिय गिरिचरणकी शरणमें रहना ही उत्तम समझा ककस्थ सगरी जिनस्मरणतो वादीन्द्र बन्दाचिती है, और इमीस आप शुशोभित हुए हैं ] इस स्तोत्रके बाद चामुण्डराय द्वारा पूजित नमिविद्यानन्दमुनीश्वरः स गतवान् स्वर्ग चिदानन्दकः।। " चंद्र, माधवचंद्र, अभयचंद्र, जयकीर्ति, जिनचंद्र,इंद्रनंदी मी हालनमें यह स्पष्ट है कि एक विद्वानकी वसन्तकीर्ति, विशालकीर्ति, शुभकीर्ति, पद्मनन्दी, माघकीर्तियांका दृमा विद्वानके साथ जोड़ दनमें प्रेमीजी नन्दी, सिंहनन्दी, चन्द्रप्रभ, वसुनन्दी, मेघचन्द्र, आदिका भार्ग भ्रम नथा धाग्या हुआ है और उन्हें अब वीरनन्दी, धनंजय, वादिगज और धर्मभुपणका स्तवन उम मान्न म करके तथा यह दंग्य कर कि ग़लतीका देत अथवा इनमेंस किसी किसीका उल्लेख मात्र करते बहुत कुछ प्रचार हो गया है ज़हर उसके लिय ग्वद हए. फिर उन्हीं वादि विद्यानंदका शिष्य-पशिष्यादिहोगा । अम्तु; अब शिलालेखक संस्कृत भागका महित वर्णन और म्तवन दिया है जिनका पहले कनडी नीजिये. जिसका प्रारम्भ निम्न पद्यों होता है:- भागमें तथा संस्कृत भागके पहले पामें उल्लेग्व हैवीरश्रीवरदेवगजकृत्सन्कल्याणपूजोत्सवो उन्हें ही 'वधेशभवन-व्याख्यान' का कर्ना लिग्वा विद्यानंदमहोदयकनिलयः श्रीसंगिगजाचितः। है-और अन्तमें निम्न पदा द्वाग इम मब कथनको पमानन्दन कृष्णदेव-विनुनःश्रीवर्द्धमानी जिनः गमसंतति' का वर्णन मचित किया है । पायात्सालुव-कृष्णदेव नपति श्रीशोऽर्द्धनारीश्वरः।। वदमानमुनीन्द्रण विद्यानन्दायबन्धुना । श्रीमन्परमगंभीरस्याद्वादामोघलांछनम् । देवेन्द्रकीतिमहिता लिखिता गुरुसन्तति ।। जीयान त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिन शासनम् ॥ शिलालेखके इम परिचयमे पाठक सहज हीमें यह इन पद्योंके बाद क्रमशः वर्द्धमान जिन, भद्रबाहु, समझ सकते हैं कि, 'पात्रकेमरी' विद्यानंदम्वामीका उमाम्बानि. मिद्धान्ततीनि, अकलंक, श्लोकवार्तिकश्रादि . प्रन्योंके का विद्यानंदम्वामी, माणिक्यनंदी, प्रभाचंद्र, . A. कोई नामान्तर नहीं है, वे गुरु मन्नतिमें एक पृथक पज्यपाद, हाय्मलराजगुरु वर्द्धमान, वासुपज्य और ही श्राचार्य हुए हैं-दाना विद्यानन्दोंक मध्यमें उनका श्रीपाल नामक गुरुओंकाम्नवन करते हुए पात्रासरी' नाम कितने ही आचार्यों के अन्तरम दिया हुआ हैका म्नोत्र निम्न प्रकारमं दिया है और इस लिये इम शिलालम्ब के आधार पर प्रेमीजीका भभूत्पादानुवर्णसन् गजमेवापराङ्मुखः। उन्हें तथा विद्यानंद म्वामीको एक ही व्यक्ति प्रतिपादन संयतोऽपि च मोक्षार्थी भात्यसो पात्रकेसरी ॥ करना भ्रममात्र है-उन्हें जम्ब इम विषयमें दूमराक यह ग्रन्थ माराक जनमिद्धान्तभनम देवनको मिला जिमक अपरीक्षित कथन पर विश्वाम कर लेनके कारणधोम्या लिये प्रयत्न महाशय विशेष कन्यवाद के पात्र हैं। हुआ है। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण २ होती और न महस्रीमें ही उसके कर्ताका नाम अथवा नामान्तर पात्रकेसरी दिया है। जान पड़ता है. नाटक के कर्ता भट्टारक वादिचंद्रजीको अष्टशतीका अष्टसहस्री द्वारा पुष्ट होना दिखलाना था और उसके लिये उन्होंने वैसे ही उसके पुटकर्ता रूपमें 'पात्रकेसरी' नाम की कल्पना कर डाली है। और इस लिये उस पर कोई विशेष जोर नहीं दिया जा सकता और न इतने परमे ही उसे ऐतिहासिक सत्य माना जा मकता हे । उनका प्रधान रहे दो प्रमाण पहना और चौथा । चौथा प्रमाणविक्रमको १७वीं शताब्दी (मं० १६४८) में बने हुए एक नाटक ग्रंथके कल्पित पात्रोंकी बात चीत पर आधार रखता है, जिसे, सब ओरसे सामंजस्य की जाँच किये बिना, कोई नाम ऐतिहासिक महत्व नहीं दिया जा सकता । नाटकों तथा उपन्यासोंमें प्रयोजनादिवश कितनी ही बातें इधर की उधर हो जाती हैं, उ लक्ष इतिहास नहीं होता किन्तु किसी बहाने से कितनी ही कल्पनाएँ करके - किसी विषयको प्रतिपादन करना अथवा उसे दूसरीके गले उतारना होता है। और इस लिये उनकी ऐतिहासिकता पर सहसा कोई विश्वास नहीं किया जा सकता । उनके पात्रों अथवा पात्र नामों की ऐतिहासिकता तो कभी कभी बहुत दूरकी बात हो जाती है, बहुत नाम तो उनमें से ही कल्पित किये हुए (फर्जी) होते हैं - वे कोई ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं होते- यार कितने ही व्यक्तियों का काम उनके श्रमली नाम से प्रकट न करके कल्पित नामां ही प्रकट किया जाता है । इस ज्ञानसूर्योदय नाटकका भी ऐसा ही हाल हैं । इसमें 'रानी' के मुखसे जो वाक्य कहलाये गये हैं उनमें नित्यादि परपक्षांके खंडनात्मक वाक्य 'अशी' के नहीं किन्तु 'आप्तमीमांसा' के वाक्य हैं. जिसको 'देवागम' भी कहते हैं । और इस देवागम स्तोत्रकीबाबत ही यह कथा प्रसिद्ध है कि उसके प्रभाव में पात्रकेसरी विद्वान अजैनम जैन हुए थे - समन्तभद्र भारतीस्तोत्र' में भी 'पात्रकेसरिप्रभावसिद्धकाfrfi स्तुवे' वाक्य के द्वारा इसी बातकां सूचित किया गया है । पात्रकेसरीको 'अशी' की प्राप्ति हुई थी और वे उसकी प्राप्ति के पहलेसे ही संपूर्ण म्याद्वादके faraiii अच्छी तरह से जानने वाले थे, नाटकके इस कथन की कहीं भी कोई सिद्धि तथा पुष्टि नहीं हो, पहले प्रमाण में 'सम्यत्तवप्रकाश' नामक ग्रंथकी जो पंक्तियाँ उद्धृत की गई हैं उनसे विद्यानन्द और पात्रकेसरीका एक होना जरूर प्रकट होता है। और इस लिये इस प्रमाण पंचक में परीक्षा करने पर यही एक ग्रन्थ रह जाता है जिसके आधार पर प्रकृत विषयकं सम्बन्धम कुछ जोर दिया जा सकता है। यह ग्रन्थ मेरे सामने नहीं है - प्रेमीजीको लिखने पर भी वह मुझे प्राप्त नहीं हो सका और न यही मालूम हो सका है कि वह किसका बनाया हुआ है और कब बना है। प्रेमी जी लिखते हैं- “मम्यत्तत्वप्रकाश के विषय में मै कुछ भी नहीं जानता हूँ । (मंग) वह लेख मुख्यतः पांगलकं मराठी लेखके आधार में लिखा गया था और उन्होंने शायद के. बी. पाठकके अंग्रेजी लेख के आधार से लिखा होगा, ऐसा मेरा अनुमान है ।" अस्तु; डाक्टर शतीचंद्र विद्याभूषणने भी अपनी इंडियन लॉजिक की हिस्टरी में, कं० वी० पाठकके अंग्रेजी लेख के आधार पर 'मम्यत्तवप्रकाश' के इस प्रमारणका उल्लेख किया है और इससे ऐसा मालूम होता है कि शायद के बी 'जैनग्रन्थावती' मे मालूम होता है कि इस नामका एक ग्रन्थ दक्कन कालेज प्रनाकी लायब्रेरी में मौजूद है। सभव है कि वह यही प्रकृत ग्रन्थ हो। और के०बी० पाठक महाशयने इसी ग्रन्थप्रति पर मे उल्लेख किया हो । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौष, वीर नि०सं० २४५६] स्वामी पात्रकेसरी और विद्यानन्द पाठक महाशयने ही इस प्रमाणको पहले उपस्थित सत्यवाक्याधिपाः शश्वविद्यानन्दाः जिनेश्वराः किया है। परन्तु पहले चाहे जिसने उपस्थित किया हो, -प्रमाणपगक्षा। किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि यह प्रन्थ अपने उक्त विद्यानन्दैः स्वशक्तया कथमपि कथितं सत्यवाक्यको लेखन-शैली परसे बहुत कुछ आधुनिक जान वाक्यार्थसिद्धये ॥ -आपपरीक्षा । पड़ता है-आश्चर्य नहीं जो वह उक्त 'ज्ञानसूर्योदय' (२) विद्यानन्दके बाद होने वाले प्रभाचन्द्र और नाटकसे भी अर्वाचीन हो-और मुझे इस कहनमें म वादिराज जैसे प्राचीन प्राचार्योन भी ‘विद्यानन्द' जगभी संकोच नहीं होता कि यदि इस ग्रंथके कर्ताने नाममे ही आप का लल्लेख किया है । यथा:"श्लोकवानिक विद्यानन्यपरनामपात्रकसरिस्वामिना यदुक्तं तच्च लिख्यते" यह वाक्य इमी विद्यानन्द-समन्तभद्रगणतो नित्यं मनानन्दनम् रूपम दिया है तो उसे इसके द्वारा विद्यानन्द और -प्रमयकमलमार्तण्ड । पात्रकंसरी स्वामीको एक व्यक्ति प्रतिपादन करनेमें ऋजुसत्रं स्फुरदन्न विद्यानन्दस्य विस्मयः । जरूर भ्रम हुआ है अथवा उसके समझनेकी किसी शृण्वतामप्यलंकारं दीप्तिरंगेपु राति ॥ ग़लनीका ही यह परिणाम हैक्योंकि वाम्नवमें पात्र -पार्श्वनाथ चरित। केसरी स्वामी और विद्यानन्द दोनोंका एक व्यक्तित्व (३) शिलालेग्वामें भी विद्यानन्द' नाममे ही मिद्ध नहीं होता-प्राचीन उल्लेखों अथवा घटनासमह श्रापका उल्लेख मिलता है और यह कहीं सचिन परमे वे दो भिन्न प्राचार्य जान पड़ते हैं। और यह नहीं किया कि विद्यानन्द का ही नाम पात्रकेमरी है। बात, ऊपरक इममपर्ण परीक्षण तथा विवंचनको ध्यान प्रत्युत इमक, हुमचाके उक्त शिलालेग्य में जिमका में रम्बन हुए, नीचे दियं म्पष्टीकरण पाठकोंको और परिचय ऊपर दिया जाचुका है दोनोंको अलग अलग भी स्पष्ट हो जायगी: गुरु मूचित किया है। उममें भट्टाकलंक के बाद विद्यादोनोंकी भिन्नताका स्पष्टीकरण नन्दकी स्तुतिके तीन पद्य दिये हैं और उनमें आपकी (१) विद्यानन्द म्वामीन म्वरचित कवाति- कृतियां का-आप्रमीमांसालंकृति (अष्टमहस्री) प्रमाणकादि किसी भी प्रथमें अपना नाम या नामान्तर 1 परीक्षा, प्राप्रपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, विद्यानन्दमहोदय और 'पात्रकेसरी' नहीं दिया किन्तु जिम निम प्रकारम लोकवानिकालंकारका-उल्लेख करतहुए. सर्वत्र आपका 'विद्यानन्द' काही उल्लेख किया है। विद्यानन्द' के विद्यानन्द नामम ही उल्लेम्वित किया है । यथा:अतिरिक्त यदि उन्होंन कहीं पर किमी तरह अपना अलंचकार यम्सावमाप्तमीमासितं मनं । कोई उपनाम, उपाधि या विशेषण मचित किया है स्वामिविद्यादिनन्दाय नमस्तम्मै महात्मने । तो वह सत्यवाक्याधिप' या 'मत्यवाक्य है। जैसा कि यः प्रमाणातपत्राणांपरिक्षाः कृतवान्नमः। निम्न अवतरणों से जान पड़ता है- विद्यानन्दस्वामिनं च विद्यानन्दमहोदयं।। विद्यानन्दबुधैरलंकृतमिदं श्रीसत्यवाक्याधिपः विद्यानन्दस्वामीविरचितवान् श्लोकवार्तिकालंकारं -युक्त्यनुशासनटीका। जयनिकविविधतार्किकचडामणिरमलगणनिलयः Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनकान्त [वर्ष १, किरण २ (१) विद्यानन्दकी कृतिरूपसे जो ग्रंथ प्रसिद्ध हैं उन . कथाकोशवणित पात्रकेसरीकी कथामें भी यह में में किमीका भी उल्लंग्व पात्रकेमरीक नामक माथ श्नांक दिया है और बहुतमे न्याय-सिद्धान्तादि-विषयक प्राचीन साहित्यमें नहीं पाया जाता और न पात्रकेमरी ग्रन्थों में यह उद्धत पाया जाता है । इस श्लोककी भी की कृतिरूपम प्रसिद्ध होनेवाले ग्रंथांका उल्लेख विद्या- पात्रकेमरीके नामक साथ खास प्रमिद्धि है और यही नन्दके नामके साथ ही पाया जाता है । यह दृमर्ग श्रापकं 'त्रिलक्षणकदर्थन' ग्रन्थका मूल मन्त्र जान बात है कि आज कलके कुछ प्रकाशक अथवा पड़ता है। संशोधक महाशय दानोंकी एकनाके भ्रमवश एकका यहाँ, पाठकोंको यह जान कर आश्चर्य होगा कि नाम दृमरेके माथ जोड़ देवें । अम्तु; पात्रकमरीकी प्रेमीजी अपने उक्त लग्बमें इम ग्रंथकी मत्ताम ही कृतिरूपसे सिर्फ दो ग्रंथोंका उल्लेख मिलता है- इनकार करते हैं और लिम्बत हैं कि "वास्तवमें 'त्रिलएकजिनेंद्रगणमस्तुति' का जिम 'पात्रकेमरिम्तात्र' भी णकदर्थन' कोई ग्रन्थ नहीं है । पद्मावतीने 'अन्यथानकहते हैं और जो छप चका है, और दमग 'विलक्षण- पपन्नत्वं' आदि शाक लिख कर पात्रकेमरीके जिम कदर्थन' का, जो अभी तक उपलब्ध नहीं हश्रा । इस अनुमानादि विलक्षणांके भ्रमको निराकरण किया था, 'विलक्षणकदर्थन के साथ ही पात्रकेमरीकी ग्वाम प्रमिद्धि उमीका यहाँ (मल्लिपंग्णप्रशम्तिमें ) उद्देश्य है।" परंतु है। बौद्धों द्वारा प्रतिपादित अनुमान विपयक हतुकं आपका यह निग्यना ठीक नहीं है, क्योंकि यह ग्रन्थ त्रिरूपात्मक लक्षणका विस्तार के माथ खंडन करना ११वीं शताब्दीके विद्वान वादिगजमरि जैसे प्राचीन ही इम ग्रंथका अभिप्रेत है। श्रवणबल्गाल के मल्लि- आचायों के मामन मौजद था और उन्होंने न्यायविपेणप्रशम्ति नामक शिलालेग्य (न०५४) में, जो कि शक निश्चयालंकार' में पात्रकमर्गक नामके माथ उमका मं० १०५० का लिग्या हुआ है, 'विलक्षणकदर्थन 'के स्पष्ट उल्लेख किया है और अमुक कथनका उममें उल्लेखपूर्वक ही पात्रकेसरीकी स्तुति की गई है । यथाः- विस्तारक माथ प्रतिपादन होना बतलाकर उसके देखने महिमासपात्रकेसरिगर्गः परंभवति यस्य भक्तयासीन की प्रेरणा की है । जमा कि उनके निम्न वाक्य से पद्मावती सहाया त्रिलक्षण-कदर्थनं कतम् ॥ प्रकट है : इममें बनलाया है कि उन 'पात्रकेमरी गमका “त्रिलक्षणकदथने वा शास्त्रे विस्तरेण श्रीबड़ा माहात्म्य है जिनकी भक्तिके वश होकर पद्मावती पात्रकसरिस्वामिना प्रतिपादनादित्यलमभिनिदेवीने विलक्षणकदर्थन' की कृतिमें उनकी सहायता वशेन । ' की थी' । कहा जाता है कि पद्मावती प्रसादसे आपको (५) वादिगजरिने, 'न्यायविनिश्चयालंकार' नामक नीचे लिखे श्लोककी प्राप्ति हुई थी और उसको पाकरही अपने भाष्यमें 'अन्यथानुपपन्नत्वं' नामके उक्त श्लोकको आप बौद्धोंके अनुमानविषयक हेतुलक्षणका खंडन नीचे लिखे वाक्यके साथ उद्धृत किया है :करनेके लिये समर्थ हुए थे: ____“तदेवं पतधर्मत्वादिमन्तरेणाप्यन्यथानुअन्यथानुपपनत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । पपत्तिवलेन हेतोर्गमकत्वं तत्र तत्र स्थाने प्रतिपायनान्यथानुपपनत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥ भेदं स्वबुद्धिपरिकल्पितमपि तपरागमसिद्धमि Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौष, वीर नि०म०२४५६ स्वामी पात्रकेसरी ओर विद्यानद न्यपदर्शयितकामः भगवत्सीमंधरस्वामितीर्थकर नासति त्र्यंशकम्यापितरमात्जीवस्खिलक्षणः॥१३६४ देव समवसरणाद गणधग्देवप्रसादापादितंदेव्या अन्यथानुपपनन्वं यस्यासो हेतुरिष्यते । पद्मावत्या यढानीय पात्रकसरिस्वामिने समर्पित एकलक्षणकः सोऽर्थश्चतुर्लक्षणको नवा ॥ १३६५ मन्यथानपपत्तिवार्तिकं तदाह-" यथा लोक त्रिपुत्रः सत्रैकपत्रक उच्यते । ___ और इसके द्वारा इतना विशेष और मचित किया तम्यैकस्य सपत्रत्वात्तथेहापि च दृश्यताम् ।। १३६६ है कि उक्त नाक पद्मावती देवीन सीमंधरस्वामी तीर्थ- अविनाभावसम्बन्धस्त्रिरूपप न जानुचित् । करकं ममवसरणमे जाकर गणधरदेवके प्रमादसे प्राप्त अन्यथाऽमभवैका हेतुप्वकोपलभ्यते ॥ १३६७ किया था और वह 'अन्यथानुपपत्ति' नामक हेतुलक्षण अन्यथानपपन्नत्वं यस्य तम्यैव हेतुता । का वानिक है । अन्तु; यह नोक पात्रकमरीको पद्मा- दृष्टान्तोद्वावपिस्तां वा मावा तोहिन कारणम्१३६८ वतीदेवान बुद दिया हो या गगगधग्देवके पाममलाकर अन्यथानपपन्नन्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । दिया हो अथवा अपने इष्ट देवताका ध्यान करन पर नान्यथानपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ।। १३६६ पावकमरीजी को स्वतः ही मझ पड़ा हो, किन्तु इस सश्यामम्तस्य पत्रवाद दृष्टाश्यामा यथेतरे । प्रकारके उल्लायोमे यह निःसन्देह जान पड़ता है कि * इति विलक्षणों हेतुर्न निश्चित्य प्रवर्तते ।। १३७० लोकमे इस नाक आदा प्रकाशक पात्रकेसरी म्यामा बना देतीप्रान्तदगवर्जितः । हा है । और इम निये यह पद्य उन्हीं क नाम में 'कथंचिदुपलभ्यत्वाद भावाभावी सदात्मको।।१३७१ प्रसिद्ध है। विद्यानंद स्वामीनं प्रमाणपरीक्षा और शोकवानिक चन्द्रत्वेनापदिष्टत्वानाचन्द्रः शशलांछनः । नामक अपने दो ग्रंथामें 'नथोक' , 'नथाह च' शब्दोके इति द्विलक्षणों हेतुग्यं चापर उच्यते ॥१३७२॥ माथ पात्रकेमरीके उक्त नाकको उद्धन किया है। पतत्कीटकृतयं में वेदनेत्यवसीयते । और इसमें यह जाना जाता है कि पात्रमरी म्वामी तन्कीटकसंस्पर्शपतिलब्धोदयत्वतः ॥ १३७३ ।। विद्यानंदम भिन्न ही नहीं किन्तु उनमें पहले हुए हैं। चक्ष रूपग्रह कार्य सदाऽतिशयशक्तिमन । (६) 'तत्त्वमंग्रह' नामका एक प्राचीन बौद्धग्रंथ, नस्मिन्यापार्यपानित्वाद्यदि वा नम्यदर्शनात १३७४ पंजिका महिन, बड़ौदाकी ‘गायकवाडोरियंटन मि- कथंचिदसदात्मानो यदि वाऽऽन्मघटादयः । गैज्ञ' में प्रकाशित हुआ है । यह मूल ग्रंथ आचाय कथंचिदपलभ्यत्वात्खरसम्बंधि,गवत ॥१३७५॥ 'शान्तक्षित'का बनाया हुआ है और इसकी पंजिका कथंचन सदात्मानः शशशृंगादयोऽपि च । कना उनके शिष्य 'कमलशील' श्राचार्य हैं। इस ग्रंथमें । " कथंचिदुपलभ्यत्वायथैवात्मघटादयः ।। १३७६ ।। पात्रकेमरी स्वामीक मतका उल्लेम्ब उन्हींके वाक्यों द्वाग निम्न प्रकारमे किया गया है : त्वदीयो वापि तत्रास्ति वेश्मनीत्यवगम्यते । "अन्ययंत्यादिना पात्रस्वामिमतमाशइते भावत्कपितृशन्दम्य श्रवणादिह मपनि ॥ १३७७ अन्यथानुपपन्नव नन दृष्टा सुहेनना । यह पात्रकमीका की प्रगिट लांब Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण २ अन्यथानुपपत्यैव शब्ददीपादिवस्तुष । चार्य ने अपने न्यायकुमदचंद्रोदय' में बड़े ही महत्व तथा अपक्षधर्मभावेऽपि दृष्टा ज्ञापकताऽपि च ॥१३७८ ॥ कृतज्ञताका भाव प्रकट किया है, अकलंकदेवकृत 'सितेनैकलक्षणो हेतुः प्राधान्याद गमकोऽस्तु नः। द्धिविनिश्चय' प्रन्थकी टीका के 'हेतुलक्षणसिद्धि' पक्षधर्मादिभिस्त्वन्यैः किं व्यर्थः परिकल्पितैः।।१३७६ नामक छठे प्रस्तावमें पात्रकेसरी स्वामी, उनके 'त्रिलइन वाक्योंका विषय प्रायः त्रिरूपात्मक हेतुलक्षण उस प्रसिद्ध श्लोक का उल्लेख करते हुए, जो महत्वकी __ क्षणकर्थन' ग्रन्थ और उनके 'अन्यथानुपपन्नत्वं'नामके का कदर्थन करना है और इससे ये पात्रकेसरीके 'त्रिल- चर्चा तथा सूचना की है वह इस प्रकार है: - क्षणकदर्थन' प्रन्थसे ही उद्धत किये गये जान पड़ते हैं। अस्तु; शांतरक्षितका समय ई०सन् ७०५ से ७६२ तक __ "नन सदोषं तदतस्तदुपरि ज्ञानमदोषायेति और कमलशीलका ७१३ से ७६३ तक पाया जाता चेदत्राह--'अमलालीढं' अमलैर्गणधरप्रभृतिहै । ये दोनों प्राचार्य विद्यानंदसे पहले हुए हैं; भिरालाहमास्वादित भिरालीढमास्वादितं न हि ते सदोषमालिहन्त्यक्योंकि विद्यानंद प्रायः ९वीं शताब्दीके विद्वान हैं। मलत्वहानेः। कस्य तदित्यत्राह-'स्वामिनः' और इस लिये इनके प्रन्थमें पात्रकेसरी स्वामी और पात्रकेसरिणः इत्येके । कुत एतत्तेन तद्विषयउनके वाक्योंका उल्लेख होनेसे यह स्पष्ट जाना जाता त्रिलक्षणकदर्थनमुत्तरभाष्यं यतः कृतमिति चेत् है कि पात्रकेसरी स्वामी विद्यानन्दमे बहुत पहले हो नन्वेवं (तर्हि) सीमन्धग्भट्टारकस्याशेषार्थसागये हैं। क्षात्कारिणस्तीर्थकरस्य स्यात्तेन हि प्रथमं 'अ(७) अकलंकदेवक ग्रन्थोंके प्रधान टीकाकार श्री- न्यथानुपपन्नत्व यत्र तत्र त्रयेण किं । नान्यथाअनन्तवीर्याचार्यने, जिनका आविर्भाव अकलंकदेवके नुपन्नत्वं तत्र यत्र त्रयेण किं,इत्येत्कृतं । कथमिदअन्तिम जीवनमें अथवा उनसे कुछ ही वर्षों बाद हुआ मवगम्यत इति चेत् पात्रकेसरिणा त्रिलक्षणकदनान पड़ता है और जिनकी उक्तियों के प्रति प्रभाचंद्रा- थनं कृतमितिकथमवगम्यत इति, समानमाचार्य - ....-- . - प्रसिद्धेरित्यपिसमानमुभयत्र कथा च महतीसुपसि* देखो, श्रीयुत बी० भट्टाचार्यद्वारा लिखित ग्रन्थकी भूमिका दा तस्य-तत्कृतत्वेपमाणप्रामाण्ये तत्मिसिद्धी कः ( Foreword )। ये दोनों प्राचार्य नालन्दाके विश्वविद्यालयमें अध्यापक रहे हैं और वहींसे यथावसर तिब्बतके राजा द्वारा निमंत्रित - सिद्धिविनिश्चय' ग्रंथकी खोज होने पर हालमें यह उसकी होकर तिब्बत भी गये हैं। तिब्बतके राजा Khri-sron-deu सोलह सतरह हज़ार श्लोक परिमाण टीका गुजराज पुरातत्त्व-मन्दिर tsan (खिमोन्देउत्सन् ) ने शान्तरक्षितकी सहायतासे ई० सन् अहमदाबादको प्राप्त हुई है और मुझे गत वर्ष वहीं पर इसके पन्ने ७४९ में एक विहार (मठ) अपने यहां निर्माण किया था । और पलटनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ है। यह टीका बड़े महत्क्की है परन्तु कमलशीलने 'महायानहोशंग' नामक चीनी साधुको परास्त तथा यह जान कर खेद हुआ कि इसमें मूल सूत्र पूरे नहीं दिये-आद्या अपने गुरु पद्मसम्भव और शान्तरक्षितके धार्मिक क्षरोंकी सूचना रूपसे पाये जाते हैं। मूल ग्रंथकी खोज होनेकी क्विारोंकी तिष्बतमें रक्षा की थी; ऐसा डा. शतीचन्द्र विद्याभूषणकी बहुत बड़ी जरूरत है। क्या ही अच्छा हो यदि कोई समर्थ जिनवाणी 'हिस्टरी प्राफ दि मिडियावल स्कूल माफ इन्डियन लॉजिक' से भक्त इसका मूल सहित उद्धार करा कर अपनी जिनवाणी भक्तिकासचा जान पड़ता है। परिचय देवें। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौष, वीर नि०सं०२४५६] स्वामी पात्रकेसरी और विद्यानंद समाश्वासः।तदर्थकरणात्तस्येति चेत्तर्हि सर्वशास्त्रं जानने का भी क्या साधन है ? यदि इसे प्राचार्य तदविधय चात एव शिष्याणामेव न तत्कृतमिति परमपरासे प्रसिद्ध माना जाय तो सीमंधर स्वामी क व्यपदिश्येत पात्रकेसरिणोऽपि वा न भवेत्तेना- कर्तत्व भी उक्त श्लोक के विपयमें आचार्यपरमपरा में प्यन्यार्थ तत्करणात्तेनाप्यन्यार्थमिति न कस्य- प्रसिद्ध है। दोनों ओर कथा समान रूपसे इसके कर्त चित्स्यायन तद्विषयप्रबंधकरणात्पात्रकेसरिण- त्वविषयमें सुप्रसिद्ध है । यदि यह कहा जाय कि सी. स्तदिति चिन्तितं मूलसत्रकारेण कस्यचिद्वव्य- मंधर स्वामीने चूंकि पात्रकेसरी के लिये इसकी सृष्टि पदेशाभावप्रसंगात् । तस्मात्साकल्येनसाक्षात्कृ- की है इस लिये यह पात्रकेसरिकृत है तब तो सर्वशास्त्रत्योपदिशत एवायं भगवतम्तीर्थकरस्य हेतुरिति समूह तीर्थकरके द्वारा अविधेय ठहरेगा और इसलिये निश्चीयते। एतच्चामलाली- ढन्वे कारणमुक्तं। यह कहना होगा कि वह शिष्योंका किया हुआ ही है, यह सारी चर्चा वास्तवमें अकलंकदेव के मूलसूत्र तीर्थकरकृत नहीं है । ऐसी हालतमें पात्रकेसराका (कारिका)मेंप्रयुक्तहुए अमलालीढं'और 'स्वामिनः' कतत्व भी नहीं रहेगा; क्योंकि उन्होंने दूसरोंके लिये ऐसे दो पदों की टीका है। और इससे ऐसा जान पडता इसकी रचना की। और इसी तरह दूसरोंने और है कि, अकलंदेवने हेतुके 'अन्यथानपपत्येकलक्षण' का दूसरोंके लिये रचना की तब किसीका भी कतत्व इस 'अमलालीढ' विशेषण देकर उसे अंमलों (निर्दोषों) विषयमें नहीं ठहरेगा। इससे तद्विपयक प्रबन्धकी रचना -गणधरादिकों द्वारा आस्वादित बतलाया है और के कारण यह पात्रकेसरिकृत है, इस पर मूलसूत्रकारने साथ ही 'स्वामिनः' पदके द्वारा प्रतिपादित किया है कि -श्रीअकलंकदेबने-विचार किया है. ..और इसलिये वह 'स्वामिकृत' है । इस पर टीकाकारने यह चर्चा की (वास्तवमें तो) पूर्ण रूपसे साक्षात् करके उपदेश देने है कि यहां 'स्वामी' शब्दसे कुछ विद्वान लोग पात्र वाले तीर्थकर भगवानका ही यह हेतु निश्चित होता है केसरी स्वामीका अभिप्राय लेते हैं-उस हतलक्षणको और यही अमलालीढत्व में कारण कहा गया है।" पात्रकेसरिकृत बतलाते हैं और उसका हेतु यह देते हैं इस पुरातन चर्चा परसे कई बातें स्पष्ट जानी कि पात्रकेसरी ने चूँकि हेतविषयक विलक्षणकदर्थन जाती हैं-एक तो यह कि अनन्तवीर्य प्राचार्यके नामके उत्तरभाष्यकी रचना की है इसीसे यह हेतलक्षण समय में पात्रकेसरी स्वामी एक बहुत प्राचीन प्राचार्य उन्हींका है। यदि ऐसा ही है-ऐसाही हेतप्रयोग है- समझे जाते थे, इतने प्राचीन कि उनकी कथा आचार्यतबतो वह अशेप विषयकोसाक्षान करनेवाले सीमंधर परमपराकी कथा होगई थी; दूसरे यह कि, त्रिलक्षणस्वामी तीर्थकर कृत होना चाहिये, क्योंकि उन्हों ने ही कदर्थन' नामका उनका कोई प्रन्थ जरूर था ; तीसरे पहले अन्यथानपपन्नत्वं यत्रतत्र त्रयेणकिं । ना यह कि, 'अन्यथानुपपन्नत्वं' नामके उक्त श्लोक को न्यथानुपपन्नत्वं यत्रतत्र त्रयेण किं' इस वाक्यकी पात्रकेसरी की कृति समझने वाले तथा सीमंधरस्वामी सृष्टि की है । यदि यह कहा जाय कि सीमंधर स्वामीनं की कृति बतलाने वाले दोनों ही उस समय मौजूद थे ऐसा किया इसके जाननेका क्या साधन है ? तो और जो सीमंधरस्वामीकी कृति बतलाते थे वे भी उस फिर पात्रकेसरीने त्रिलक्षणका कदर्थन किया इसके का अवतार पात्रकेसरीके लिये समझते थे; चौथे यह Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण २ के मूलसूत्रकार श्रीअकलंकदेव के सामने भी पात्र- समयदीपक...रम् उन्मीलित-दोष-क...रजनीचरकेसरिविषयक यह सब लोकस्थिति मौजूद थी और बलं उदबोधितं भव्यकमलम् आयत् अर्जितम् उन्होंने उस पर विचार किया था और उस विचारका अकलंक-प्रमाण-तपन स्फु ...... । ही यह परिणाम है जो उन्होंने सीमंधर या पात्रकेमरी इससे पात्रकेसरीकी प्राचीनताका कितना ही पता दानों में में किसी एक का नाम न देकर दोनों के लिय चलता है और इस बातका और भी समर्थन होता है समानरूप से व्यवहृत होने वाले 'स्वामिन्' शब्दका कि वे अकलंकदवसे पहले ही नहीं किन्तु बहुत पहले प्रयोग किया है। ऐसी हालतमें पात्रकेमरास्वामी विद्यानंद हए हैं। अकलंकदेव विक्रमकी ७ वी ८ वीं शताब्दीके सं भिन्न व्यक्ति थे और वे उनसे बहुत पहल हो गए हैं. विद्वान हैं, वे बौद्धतार्किक 'धर्मकीर्ति' और मीमांसक इस विषय में संदेहका कोई अवकाश नहीं रहता; विद्वान कुमारिन' के प्रायः समकालीन थे और विक्रम बल्कि माथ ही यह भी मालम हो जाता है कि पात्र- संवत् ७०० में आपका बौद्धोंके माथ महान वाद हुआ केसरी उन अकलंकदव से भी पहले हुए हैं जिनकी था, जिसका उल्लेख 'अकलंकचरित' के निम्न वाक्यमे अष्टशती को लेकर विद्यानन्दन अष्टमहस्री लिखी है। पाया जाता है:___(८) बेलूर ताल्लुकेके शिलालेग्वनं०१७ में भी पात्र- विक्रमार्क-शकाब्दीम-शतसप्त-प्रमाजपि । केसरीका उल्लेख है। यह शिलालेख रामानुजाचार्य-मंदिर कालेऽकलंक-यतिनो बौदैर्वादो महानभूत् ॥ के अहातेके अन्दर सौम्यनायकी-मंदिर के छनके एक और वननन्दी विक्रमकी छठी शताब्दीमें हुए हैं। पत्थर पर उत्कीर्ण है और शकसंवत १०५९ का लिखा उन्होंने वि० सं०५२६में 'द्राविड' संघकी स्थापना की है, ऐसा देवसेनके 'दर्शनसार' ग्रन्थमे जाना जाता है। हुआ है । इममें समन्तभद्रम्वामीके बाद पात्रकंसर्ग इससे पात्रकंसरीका ममय छठी शताब्दीसे पहले का होना लिखा है और उन्हें समन्तभद्रक द्रमिलमंघ पाँचवीं या चौथी शताब्दीके करीब जान पड़ता है। जब कांग्रेसर मचित किया है। साथ ही,यह प्रकट कियाहै कि विद्यानन्दका समय प्रायः ५वीं शताब्दीका ही है। कि पात्रमरीके बाद क्रमशः वक्रग्रीव,वननन्दी,सुमति अतः इस संपूर्ण परीक्षण,विवेचन और स्पष्टीकरण भट्टारक (देव) और समयदीपक अकलंक नाम के पर म यह बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि स्वामी प्रधान आचार्य हुए हैं । यथा पात्रकेसरी और विद्यानन्द दा भिन्न प्राचार्य हुए हैं...तन् . ... त्थयमं सहस्रगणं माडि समन्त- दोनोंका व्यक्तित्व भिन्न है, ग्रन्थसमूह भिन्न है और भद्रम्वामिगलु मुन्दर अवरिं बलिक तदीय समय भी भिन्न है । और इस लिषे 'सम्यक्त्वप्रकाश' के लेखकन यदि दोनोंको एक लिख दिया है तो वह श्रीमद्रमिलसंघाग्रेसर अप्पपात्रकेसरि-स्वामि उसकी स्पष्ट भल है । पात्रकेसरीस्वामी विद्यानन्दसे कई गलिं वक्रग्रीवाभि ... ..रिन्द्र अनन्तरं। शताब्दी पहले हुए हैं । वे ब्राह्मणकुल में उत्पन्न हुएथेक, यस्य दि......न् कीर्तिवलोक्यमप्यगात् ।। * पात्रकसरीकी कथाके अतिरिक्त विद्यानन्दिकृत 'सुदर्शनचरित्र' के ...येव भात्येको वज्रनंदी गुणाग्रणीः॥ निम्न वाक्यसे भी यह मालूम होता है कि पात्रकेसरी ब्राह्मणाकुलमें अवरि बलिक समति-भट्टारकर प्रवरिं बलिक... उत्प उत्पन्न हुए थेः विप्रवेशाग्रणीः सूरिः पवित्रः पात्रकेसरी । * देखो, 'एपिग्रेफिका कर्णाटिका' जिल्द ५ भाग १ला सजीयाजिनपादाब्जसेवनकमधुवतः ॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौष, वीर नि०सं० २४५६] स्वाथ्यरक्षाके मूलमन्त्र राज्य में किसी अच्छे पद पर प्रतिष्ठित थे और एक से जरूर मिल जायगा। जैनसमाजमें अपने प्राची बहुत बड़े अजैन विद्वान थे। स्वामी समन्तभद्रके साहित्य के उद्धारका कुछ भी उल्लेखनीय प्रयन्त नहीं है 'देवागम' स्तोत्रको सुनकर आपकी श्रद्धा पलट गई थी, रहा है-खाली जिनवाणीकी भक्तिके रीते फीके गीर आप जैनधर्म में दीक्षित हो गये थे और राजसेवाको गाए जाते हैं और इमी से जैनियोंका सारा इतिहास भी छोड़ कर जैनमुनि बन गये थे । आपका आचार अन्धकारमें पड़ा हुआ है और उसके विषयमें सैंकड़े पवित्र और ज्ञान निर्मल था । इसीसे भगवज्जिनसेना- ग़लतफहमियाँ फैली हुई हैं । जिनके हृदय पर साहित्य चार्य जैसे आचार्योंने आपकी स्तुति की है और आपके और इतिहासकी इस दुर्दशाको देख-सुन कर चोट प्रति निर्मल गुणोंको विद्वानोंके हृदय पर हारकीतरहसे पहुँचती है और जो जिनवाणीके सच्चे भक्त,पूर्वाचार्योंके आरूढ बतलाया है । श्रापन नहीं मालम और कितने सच्चे उपासक अथवा समाजके सच्चे शुभ चिन्तक हैं प्रन्थोंकी रचना की है। पात्रकेसरिस्तोत्र आदि परसे उनका इस समय यह खास कर्तव्य है कि वे साहित्य आपके ग्रन्थ बड़े महत्वके मालूम होते हैं । उनका पठन- और इतिहास दोनोंके उद्धारके लिये खास तौरसे पाठन उठ जानेसे ही वे लुप्त हो गये हैं। उनकी जरूर अग्रसर हों, उद्धारकार्यको व्यवस्थित रूपसे चलाएँ खोज होनी चाहिये । 'त्रिलक्षणकदर्थना' ग्रन्थ ११ वीं और उसमें सहायता पहुँचानेके लिये अपनी शक्ति भर शताब्दीमें मौजूद था, खोज करने पर वह जैनभंडारोसे कोई भी बात उठा न रक्खें । नहीं तो बौद्धशास्त्रभंडारोसे-तिब्बत, चीन, जापान, कादिकाला ता० १६-१२-१९२९ जुगलकिशोर मुख्तार 'नक स्वास्थ्यरक्षाके मूलमन्त्र [ले०–श्रीमान राजवैद्य शीतलप्रसादजी ] - (गतांकसे आगे) नीरोग रहना अथवा आरोग्य क्या वस्तु है, इसे भिषग्वर वाग्भट्टने इस आरोग्यदशाकी प्राप्तिके यदि संक्षेपसे दो शब्दोंमें कहा जाय तो इतना कह लिये अपने उक्त पद्यमें स्वास्थ्यरक्षाविषयक शरीरनीति सकते हैं कि,इस शरीर रूपी यन्त्रक सम्पूर्ण अवयवोंका कोलियेहुएशारीरिक सदाचारोंका(सातावेदनीय कर्मके -कलपुरजोंका-यथोचित रूपसे अपना अपना काम उपार्जनके कारणोंका) जो समावेश किया है वह सच करते रहना और मन, इन्द्रियों तथा आत्माका प्रसन्न मुच सागरको गागरमें ही भरा गया है । शारीरिक बना रहना आरोग्य है-स्वास्थ्य भी इसीका नामान्तर सदाचार-सम्बंधी आपके वे सब उपदेश स्वास्थ्यरक्षा है। जो लोग इस आरोग्य दशाको प्राप्त अथवा स्वा- के मूलमंत्र हैं। स्थ्यसम्पत्तिसे विभूषित होते हैं उन्हें ही स्वस्थ, नीरोग वास्तवमें, शारीरिक सदाचार ही आरोग्यरत्लकी अथवा तनदुरुस्त कहते हैं। रक्षा करनेवाले हैं और दुराचार उसको बिगाड़ने तथा Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CC अनकान्त [वर्ष १, किरण २ उसका अपहरण करने वाले हैं। जिस प्रकार राज्य श्राहार कानुनको उल्लंघन करने वाला अपराधी दण्ड पाने का जीवन की स्थिति के लिये प्राणी मात्र को श्राहार अधिकारी है. ठीक उसी प्रकार, बल्कि उससे भी कहीं अथवा भोजनकी आवश्यकता पड़ती है क्योंकि आहार अधिक, शरीरनीति को बिगाड़ने वाला मनुष्य दण्ड- के बिना कोई भी प्राणी बहुत दिनतक जी नहींसकता। इम लिये सब से पहले इम ही पर विचार करना आवनीय है । इनमें में एक को ना मनुष्य-कृत कानुनम मजा श्यक है-वाग्भट्टजी ने भी अपने उक्तवाक्यमें इसीको मिलती है और दृमरं को कानुनझुदरत दण्ड देता है। अग्रस्थान दिया है । बहुत कम लोग होंगे जो पुरे तौरसे मनुष्यकृत कानन अपूर्ण होने तथा अल्पज्ञों और पक्ष- यह भी जानते हों कि हमें बार बार भोजनकी जरूरत पाती मनुष्यांक आधीन हानेक कारण गज्यकानूनका क्यों होती है । बात असिल में यह है कि नित्य ही शरीर अपगधी तो कितनी ही बार छूट भी जाता है परन्तु और मनका जो व्यापार होता है-चलना फिरना,बैठना शरीग्नीतिके अपराधी को कुदरत-नेचर अथवा उठना, बोलना चालना और सोचना समझना आदि प्रकृति-मज़ा दिये विना कभी नहीं छोड़ती। कुदरतकी रूप जो भी क्रियाएँ मन वचन और काय से होती मजा अनेक प्रकारके रोगों की पीड़ाम लेकर कटदायक हैं उन सब के द्वारा प्रति दिन और प्रति समय हमारे मृत्यु पर्यत है। इस लिय गंगोंकी पीड़ा तथा वंदना से शरीरके अवयवों, धातुओं एवं शक्तियोंका ह्रास, व्यय बचने और दीर्घजीवी होने के लिये शरीरनीति का अथवा क्षय होता रहता है, जिसकी पूर्तिकं लिये भोजन पालन करना नितान्त आवश्यक और अनिवार्य है। की जरूरत होती है-आहारकी यथेष्ट मामग्रीद्वारा ___यदि आप दीर्घ दृष्टि से देखेंगे अथवा गहरा उसकी पूर्ति हो कर शरीरका काम ज्योंका त्यों चला विचार करेंगे तो आपको यह भी मालूम हो जायगा करता है । इसके अतिरिक्त बाल्यावस्था और युवावस्था कि शरीरनीति को बिगाड़नेम ही अनेक राज्यविरुद्ध में जो शरीर और आजकी वृद्धि होती है-डील डोल अपराध उत्पन्न होत है । जैसे कि कामांध लम्पट पुरुप बढ़ा करता है-उसके लिय नथा शारीरिक उष्णत्वअपने दुव्यसनका पूरा करने के लिये बलात्कार- उत्तापको स्थिर रखने के लियभी भोजन की जरूरत पड़ती व्यभिचार सरीखे विविध प्रकार के अन्याय और भारी हैऔर इस तरह यह पाया जाता है कि निम्नलिखत चार भारी पाप कर डालता है, जिनके लिये कभी कभी उसे मुख्य कारणोस श्राहार करनकी परम आवश्यकता है:खब कड़ी सजाएँ भोगनी पड़ती हैं ; इत्यादि । इसके शरीरमें कामकाज करनेकी शक्ति उत्पन्न करनेकेलिये। प्रतिकूल, शारीरिक नीतिका यथार्थ पालन करने वाला (२) शरीरम्थ धातुओंकी व्यय-पूर्तिके लिये। -सदाचारसे रहनेवाला-मनुष्य राज्यकाननकी किसी (३) अंगोंके बढ़ावचढ़ाव एवंबल-परूपार्थकी वृद्धिकेलिये। भी धाराका अपराधी नहीं हो सकता । वह अपन (४) शरीरमें यथाचित उष्णत्व स्थिर रखनके लिये । सदाचारके बलसे पूर्व संचित कठोर कोंक रसको भी यह उष्णत्व शरीर रूपी एंजिन में स्टीमका काम नरम करके इस जन्म में धर्म, अर्थ और काम करता है-नस-नाडियोंको गति देता है। याद रखिये परुषार्थोकी यथेष्ट साधना-द्वारा मनोवाञ्छित सुखांका स्वस्थ मनष्यकी नाड़ीकी गति प्रायः ७५ होती है। उपभोग करता हुआ एक प्रसिद्ध और प्रातः स्मरणीय यदि नाडौंकी गति ७५ से कम होने लगे तो शरीर व्यक्ति हो जाता है । साथ ही, अपना भविष्य भी सुधार ठंडा होते होते प्राण हीन हो जाता है। लेता है। ऐसे ही सदाचारी व्यक्ति अगले जन्मों में अब विचारणीय यह है कि वह कौनसा आहार उत्तरोत्तर आत्मोन्नति करते हुए अन्तको अनन्त है जो हमारी उपर्युक्त आवश्यकताओं को पूरा करता सुखों की प्राप्ति रूप मोक्षके पात्र बन जाते हैं और हा हमें आरोग्य प्रदान करता है ।। दुःख-सन्तापोंमे सदा के लिये छूट जाते हैं। अस्तु । (क्रमशः) Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौष, वीर नि०सं० २४५६] कर्णाटक-जैनकवि कणाटक-जैनकवि [अनुवादक-श्री० पं० नाथूरामजी प्रेमी] [अठारह वर्षके करीब हुए जब 'कर्णाटक-जैनकवि' नाम की एक लेखमाला जैनहितैषीमें सुहद्धर पं० नाथूरामजी प्रेमीने निकालनी प्रारम्भ की थी। यह लेखमाला प्रायः मेसर्स आर०तथा एस० जी० नरसिंहाचार्यरचित 'कर्णाटक-कविचरिते' नामक कनडी ग्रन्थके प्रथम भागके आधार पर लिखी गई थी, जो उस वक्त तक प्रकाशमें आया था। और उममें ईसवी मन्की दूमरी शताब्दीसे लेकर १४वीं शताब्दी तकके ७५ जैन कवियों का संक्षिप्त परिचय दिया गया था, जो कि पुगतत्त्वके खोजियों तथा अनुमन्धानप्रिय व्यक्तियोंको बहुत ही रुचिकर हुआ था-हिन्दी संसारके लिये तो वह विलकुल ही नई चीज़ थी-और बंगला भाषाके 'ढाकारिव्यू' जैमे पत्रों ने जिसका अनुवाद भी निकाला था और उसे बड़े ही महत्वकी चीज़ समझा था । आज, जब कि उक्त 'कर्णाटक-कविचरित' का दूसगभाग प्रकाशित हो चुका है, उसी लेखमालाका यह दूसरा भाग 'अनेकांत' के पाठकोंकी भेट किया जाता है। इमे हालमें पं० नाथूरामजीकी प्रेरणा पर 'कर्णाटक-कविचरिते' के द्वितीय भाग पर में श्रीयुत ए. एन. उपाध्याय बी. ए. महाशयने मराठी भाषा में संकलित किया था, उसी परसे यह हिन्दी अनुवाद पं० नाथूरामजी प्रेमीने प्रस्तुत किया है । प्रेमीजी लिखते हैं कि "उपाध्यायजी बड़े होनहार हैं, पून में एम. ए. में पढ़ रहे हैं और जैनमाहित्य तथा इतिहास मे आपको बहुत प्रेम है।" अनेकान्त में इस लेख माला के लिये प्रेमीजी, उपाध्यायजी और 'कर्णाटक-कविचरित' के मूल लेखक तीनों ही धन्यवादके पात्र हैं। यद्यपि उस लेखमालामें कवियोंका बहुत ही संक्षिप्त परिचय दिया गया है-विशेष परिचय भी पाया जाता है और इसे संकलित करनेकी ज़रूरत है फिर भी इस परसे पाठकोंको बहुत सी नई नई बातें मालूम होंगी और इतिहास तथा पुरातत्त्व विषयमें उनका कितना ही अनुभव बढ़ेगा। साथ ही, उन्हें यह जान पड़ेगा कि कनडी जैन साहित्यके उद्धारकी कितनी अधिक जरूरत है। -सम्पादक १भास्कर (ई.सन् १४२४) इस कविने जीवन्धरचरितकी रचना की है। यह स्वयं प्रकट किया है । प्रन्थारंभमें उसने पंच परमेष्टी, प्रन्थ उसने 'शान्तेश्वर-वम्ती' नामक जैनमन्दिरमें ई० भूतबलि, पुष्पदंत, वीरसेन, जिनसेन, अकलंक, कवि सन् १४२४ में समाप्त किया है। कविका निवासस्थान परमेष्ठी, समन्तभद्र, कोंडकुन्द,वादीभसिंह, पण्डितदेव, पैनुगोंडे नामक ग्राम था । जीवन्धरचरित वादीभसिंह कुमारसेन, वर्द्धमान, धर्मभपण, कुमारसेन के शिष्य सूरिके संस्कृत प्रन्थका कनड़ी अनुवाद है, ऐसा कविने वीरसेन, चारित्रभूषण, नेमिचन्द्र, गुणवर्म, नागवर्म, * प्रथमें समाप्ति-समय फाल्गुन शुक्ल १०पी रविवार शक स० होन्न, विजय,अग्गल, गजां राकु, और यशश्चन्द्र आदि १३४५ क्रोधि सम्वत्सर दिया है और पेनुगोंडे प्रामके उक्त जिन- का नाम स्मरण कया है । यह विश्वामित्र गोत्री जैन मंदिरमें समाप्तिका उल्लेख किया है। -सम्पादक ब्राह्मण था और इसके पिताका नाम बसवांक था। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनकान्त [वर्ष १, किरण २ २ कल्याणकीर्ति (ई०स० १४३६) ४ विजयगण ( ई० स०१८५५ ) इम कविकं दीक्षागुरु ललितकीर्तिथे, जो मूलसंघ इसने 'द्वादशानुप्रेक्षे' नामक ग्रंथ कुन्तल देशान्तर्गत के देशी गणके श्राचार्य थे । इसने ज्ञानचन्द्राभ्युदय, बेलुवल प्रदेशकं वेम्मनभावी नामक ग्रामके शान्तिनाथ कामनकथे, अनुप्रेक्षे, जिनम्तुनि, तत्त्वभेदाष्टक, सिद्ध- चैत्यालयमें, उस गाँवके स्वामी होन्नबंदि देवराज की गशि नामक ग्रन्थ लिग्वे हैं X । ज्ञानचन्द्राभ्युदयकी आज्ञानुसार, ई० सन् १४४८ में समाप्त किया है। रचना ई०सन १४३९ में समाप्त हुई है। कामनकथं को देवचन्द्रकी 'राजाबलिकथे' में जो यह लिखा है कि इसने तुलुव देशकै राजा भैरवसुत पाण्डवरायकी प्रेरणा विजयण्ण रत्नाकर वर्णीका समकालीन था, सो भ्रममें लिखा है। मूलक जान पड़ता है। ___ 'ज्ञानचन्द्राभ्युदय मे सन्धि विभाग नहीं है, ५८८ द्वादशानुप्रेक्षेमें १२ परिच्छेद और १४४८ पद्य हैं। पद्य हैं। यह पटपदी छन्दमें है, इसलिए इसे ज्ञानचन्द्र- ग्रंथारम्भमें वृपजिनेन्द्र, सिद्ध,सरस्वती, वृषभसेनादि षटपदी भी कहते हैं। ज्ञानचन्द्र नामक राजाने तप- गणधर, विजयकीर्ति और उनके शिष्य पार्श्वकीर्तिकी श्चर्या करके मुक्ति प्राप्ति की, इसीकी इममें कथा है। स्तुति की गई है । पार्श्वकीर्ति ग्रंथकर्ताके गुरु जान 'कामनकथे' सांगत छन्दमें है। इसमें जैनमतकं पड़त हैं। अनुसार कामकथा लिखी गई है। इसमें ४ सन्धियाँ ५ विद्यानन्द ( ई०स०१४५५ ) और ३३१ पदा हैं । ग्रंथारंभमें गुरु ललितकीर्तिका ___इन्होंने 'प्रायश्चित' नामक स्वरचित संस्कृत ग्रन्थकी म्मरण किया गया है। कनड़ी टीका लिखी है । यह ग्रन्थ युवसंवत्सरमें लिखा 'अनुप्रेक्षेमें७४ पद्य हैं और वे कोंडकुंदकी गाथाओं गया, अर्थान संभवतः यह ई०स० १४५५में लिखा गया ( बारह अणुपेक्खा ? ) के अनुवाद हैं। होगा । इसकी व्याख्यान-शैली प्रौढ है और पुरानी 'जिनस्तुति'में १७ और 'तत्त्वभंदाटक में ९ पा हैं। कनड़ीमें यह लिखा गया है। बीच बीचमें श्लोक उद्धृत ३ जिनदेवगण (ई.स.१४४४ ) किये गये हैं, और वे स्वकृत जान पड़ते हैं। इनके पिता का नाम ब्रह्मसूरि अथवा बोम्मरसोपाध्याय था। इसका बनाया हुआ श्रेणिकचरित्र' नामका ग्रंथ है। अकलंक, चन्द्रप्रभ और विद्यानन्द ये इनके व्रतगुरु मि०राइसके मतानुसार यह ईस्वी सन १४४४ में लिखा गया है। विद्यागुरुत्रय (?)थे, ऐसा प्रकट किया है। इनके सिवाय विजयकीर्तिके विपयमें कहा है कि उन्होंने मुझे 'उपदेश ____४ यशोधरचरित नामका भी एक प्रथ इस कक्किा लिखा हुआ दकर पोषण किया । ग्रन्थारंभमें विजयजिनकी स्तुति है, जो संस्कृत भाषामें १८५० श्लोक परिमाण है, यह ग्रन्थ की है, जो कनकगिरि उर्फ़ मलयरु ग्रामके जिनदेवका गधर्व कविक प्राकृत ग्रंथको देखकर बनाया गया है और पागड्यनगर के गोम्मटस्वामीके चैत्यालयमें शक सं० १३५३ में बना कर समाप्त ६ तेरकणांवि वोम्मरस ( ई०स०१४८५ ) किया गया है । इसमें सिद्धसेनादि अनेक प्राचार्योंका स्मरण किया गया है । कनड़ी ग्रंथोंमें 'फणिकुमारचरित्र' भी आपकी रचना है जो ये तेरकणांवि नामक प्रामके रहने वाले थे। ये वोम्मशक सं० १३६४ में बनकर परी हुई है। -सम्पादक रसोपाध्यायके पुत्र और नेमिचन्द्र के प्रपौत्र थे । नेमिचंद्र Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौष, वीर नि०सं०२४५६ कर्णाटक-जैन कवि ने प्रौढगय (१४१९.१४४६) की सभामें अनेक विद्वानों किया है और मंगलाचरणमें कोंड हुँद, समन्तभद्र, मे शास्त्रार्थ करके जयपत्र प्राप्त किया था। पंडितमुनि, धर्मभूषण, भट्टाकलंक, देवकीर्ति, मुनिभद्र, वोम्मरसके सनत्कुमारचरित और जीवंधरसांगत्य विजयकीर्ति, ललितर्काति, और श्रुतकीर्ति इन कविनामक दो ग्रंथ उपलब्ध हैं । सनत्कुमारचरित भामिनी गुरुओं की स्तुति की है। पदपदी (छन्द) में लिखा गया है। उसमें १७ सन्धि जीवंधरपटपदीकी केवल एक ही अपूर्ण प्रति और ८७० पद्य हैं । प्रारंभमें मंगलाचरणके बाद जिन- उपलब्ध हुई है जिसमें शुरूके ९ अध्याय और दसवें धर्मशाम्रोद्धारक गुणभद्र, अकलंक, वीरसन, पूज्यपाद अध्यायके ११९ पद्य हैं। और अपने प्रपितामह वादीभसिंह नमिचन्द्रका नाम श्रीधरदेव (१५००) म्मरण किया गया है। जीवंधरसांगत्यमें १० सन्धि इनका बनाया हुआ वैद्यामृत नामका ग्रन्थ प्राप्य और १४४९ पद्य हैं। है। इसमें इन्होंने अपनका ‘जगदेकमहामन्त्रवादि' ७ कोटीश्वर (१५०८) विशेपणस विभृपित किया है । मुनि चन्द्रदेवकी इच्छा __इनके पितातम्मणसट्टि तुलुदेशान्तर्गत वइदर राज्य के अनुसार यह ग्रंथ निर्मित हुआ है । इस प्रन्थसे कवि के सेनापति थे । इनकी माताका नाम रामक, बड़े भाई के विषयों और किसी बातका पता नहीं लगता है । का नाम सोमेश और छोटे भाईका नाम दुर्ग था। वैद्यामन चम्प ग्रंथ है । इसमें गद्य भागही अधिक मंगीतपुरके आस्थानश्रेष्ठी (नगरसेठ ? ) 'कामणसे- है,बीच बी वमें कन्द पद्य हैं। इसके २४ अधिकार हैं। ही' इनका जामाता था । श्रवणबेलगुलके पण्डित- और चिकित्मा-विधानमें बहुत जगह मन्त्र दिये गये हैं योगीक शिष्य प्रभाचन्द्र इनके गुरु थे । संगीतपुरक नमिजिनेश इनके इष्टदेव और संगीतपुरनरेश मंगम यश कीर्ति (१५००, इनके आश्रय-दाता थे। इन्हीं की आज्ञासे इन्होंने इन्होंने धर्मशर्माभ्युदय काव्यकी 'सन्देहध्वान्तजीवन्धरपट्पदी नामक ग्रंथकी रचना की थी। दीपिका' नामकी टीका लिखी है । ये ललितकीतिक विलगि ताल्लकेके एक शिलालेखसे मालूम होता है कि शि र शिष्य थे । इनका समय ई० सन् १५०० के लगभग श्रुनीति संगमके गुरु थे और श्रुतकीर्तिकी शिष्य में - माननमें कोई हानि नहीं है । टीकाके अंतमें इस प्रकार परम्परामें 'कर्नाटक-शब्दानशासन' के कर्ता भटाकला का गद्य दिया है(१६०४) पाँचवें थे और चूंकि कोटीश्वरन जीवन्धर "इति श्रीमन्मण्डलाचार्य-ललितकीति-शिष्यश्री षट्पदीमें जो अपने पूर्व गुरुओंकी स्तुति की है, उसमें यशःकीति-विरचितायां सन्देहध्वान्तदीपिकायाम्-" विजयकीर्तिके शिष्य श्रुतकीर्ति पर्यंत स्तुति है, इससे १० शुभचन्द्र (१५००) मालूम होता है कि कोटीश्वरका समय ई०सन १५०० इन्होंन 'नरपिंगलि' नामका ज्योतिष ग्रन्थ लिखा के लग भग होगा। है जिसमें १६७ कन्दपद्य हैं । अन्तमं इस प्रकारका गद्य ____ अपने पूर्वके कवियों में उन्होंने जन्न, नमिचन्द्र, है-" इदु शुभचंद्र-सिद्धांतयोगीन्द्र-विरचितमप्प नरहोन्न, हंपरस, अग्गल, रम, गणवर्म,नागवर्मका स्मरण पिंगलि-" Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त वर्ष १, किरण २ ११ अभिनववादि विद्यानन्द (१५३३) मोप्पेमें वादिजनोंका पराजय किया था । बहुत करके वे इन्होंने 'काव्यमार' नामक ग्रन्थमें काव्योपयोगी ये ही अभिनव वादिविद्यानंद होंगे । गैरसोप्पेका ही आवश्यक विषयों पर पूर्व कवियोंके चने हुए पद्योंका नाम भल्लातकीपुर है । यही इनका निवासस्थान था । मंकलन किया है । इसमें प्रत्येक विषयका एक एक इन्होंने काव्यसारके अतिरिक्त कनड़ी में एक और स्वअध्याय है और सब मिलकर ४५ अध्याय तथा ११४३ तंत्र ग्रन्थ लिखा है, ऐमा मालूम होता है। पद्य हैं । मल्लिकार्जुनके मृक्तिसुधार्णव (ई० म०१२४५) १२ माल्व (लगभग १५५० ) ग्रन्थके माथ इस ग्रन्थकी बहुत समानता है । इसमें इनके बनाये हुए भारत, रमरत्नाकर, वैद्यमांगत्य बड़ी भारी विशेषता यह है कि जिन जिन ग्रंथोंसे पद्य और शारदाविलास नामके चार ग्रन्थ उपलब्ध हैं । लिये गये हैं उन सब ग्रंथोंके और कवियोके नाम भी ये धर्मचन्द्रके पुत्र और देशीयगणके विनप्रकीर्तिके पुत्र दे दिये हैं । इसमें नीचे लिग्वे कवियों के पद मंक- श्रुतकीनिके शिष्य थे। साल्वमल इनके आश्रयदाता लित हैं या पापक थे। गणवर्म प्रथम (लगभग ई०स०९००), श्रादि पंप इनका 'भारतसाल्व' भारतके नाम प्रसिद्ध है । (९४१), नागवर्म प्रथम (ल०९९०), रन्न (९९३), नाग- इसमें १६ पर्व हैं और यह भामिनी प पदीमें लिखा चन्द्र (ल०११००), उदयादित्य (ल०११५०), हरीश्वर गया है । नेमीश्वरचरितभी इसका नाम है। इसमें हरि(ल०११६५), नेमिचन्द्र (११७०), रुद्रभट्ट (ल०११८०) वंश और कुरुवंरके चरित्र हैं। कविन प्रेरणा की है कि अग्गल (११८५), वाणीवल्लभ(ल०११९५), पार्श्वपंडित दोषयुक्त भारत(महाभारत) न सुनकर लोग इस जिन(१२०५), जन्न (१२०९), अण्डय्य (ल०१२३५), कमल- पावनचरितको सुनें । ग्रन्थारंभमें नेमिजिन, सिद्ध, भव (ल०१२३५), गुणवर्म द्वितीय (ल०१२३५), मधुर गणधर, जिनधर्म, कूष्मांडिनी, सर्वाग्रह यक्ष, सरस्वती (ल०१३८५), चन्द्रशेखर (ल०१४३०) केवलि,श्रुतकेवनि 'प्रथमांगधारीपर्यंतस्तुति की है और पहले विद्यानन्द नामके अनेक जैनगुरु हो चुके फिर गृद्धपिंछ, मयूरपिंछ, अर्हद्वलि, पुष्पदंत, भूतबलि, थे, जान पड़ता है इसी कारण इन्होंने अपने नामके जिनचन्द्र, कोंडकुंदाचार्य, तत्त्वार्थस्त्रकार उमास्वाति माथ 'अभिनववादि' विशेषण लगाया है । नगर समन्तभद्र, कविपरमेष्ठी, पूज्यपाद, वीरसेन, जिनसेन, तालकाके ४६वे शिलालेखमें एक वादिविद्यानन्दकी नमिचंद्र, रामसेन, अकलंकदेव, अनंतवीर्य, विद्यानंद, स्तुति की गई है, जो वादिजनोंको जीतनमें बहुत माणिक्यनंदि, प्रभेन्दु, रामचन्द्र, वासवेन्द्र, गुणभद्र, ही चतुर थे। उन्होंने नंजराय शहरके नंजिदेवराज माघनन्दि, चारुकीर्ति, विशालकीर्ति, विजयकीर्ति सुन सातवेंद्रराजा, केमरीविक्रम, साल्वमल्लिराय, गुरु- स्वगुरु श्रुतकीर्ति, महिभुषण, पोलादिदेव, मेरुनन्दि, नृपाल, सालुवदेवराय, नगरिराज्यके राजा, बिलिग ममन्तभद्र, और पाल्यकीर्तिका स्मरण किया है। के नरसिंहराज, कारकलके भैरवराज, नरसिंहकुमार रसरत्नाकरमें रसप्रक्रियाका प्रतिपादन किया (१५०९-२९) और कृष्णराजकी सभाओं में और इसी गया है। इसमें श्रृंगारप्रपंच, रसविवरण; नायकप्रकार श्रीरंगपट्टण, विदिर,कोपण, बेलगुल, और गैर- नायिका-विवरण और भावाधिकरण ये चार अध्याय Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -rrrrror पौष, वीर निसं०२४५६] कर्णाटक-जैनकवि हैं। इसमें पंप, रन, नेमिचन्द्र आदि कवियोंके पद्य विजय (चन्द्रप्रभपुराण) , गुणवर्म (पुष्पदंतपुराण), उदाहृत किये हैं और रुद्रभट्ट, विद्यानाथ, हेमचन्द्र, जन्नुग (अनन्तपुराण) , मधुर (धर्मनाथपुराण), नागवर्म, कविकामका अनुकरण करना स्वीकार किया अभिनवपंप (मल्लिनाथ पुराण और रामायण) , होन्न (शान्ति पुराण) , कण्णप (नेमिचरित और दुरितारी - शारदाविलासमें काव्यका जीव जो ध्वनि है वीरेशचरित), नेमिचन्द्र(लीलावती),बन्धवर्म(हरिवंश) उसका प्रतिपादन किया गया है। कनड़ीमें ध्वनिविषय चन्द्रप्रभ चरित में २८ सन्धियाँ और ४४७५ पद्य का यह पहला ही प्रन्थ जान पड़ता है । इस ग्रन्थ का हैं। प्रारंभ में कहा है कि मैं कविपरमेष्ठी और गुणभद्र कंवल ध्वनिव्यंग-विवरण नामका अध्याय ही प्राप्य है। की कही हुई कथा को कानड़ी में लिखता हूँ। पहले यह ग्रन्थ कविन अपन आश्रयदाता साल्वमल्ल राजा चन्द्रनाथ, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साध, रत्नत्रय, की कीनिके लिए लिखा। काव्यप्रकाशक और साहित्य सरस्वती, गणधर, ज्वालामालिनी, विजययक्ष, और सुधार्णव इन दो ग्रन्थोंका इसने उल्लेख किया है। पिरियशहरके अनन्त जिनको कमलभंग महिषिकुंवैद्यसांगत्यमें कविन अनेक स्थानों में अपना खुदका भापुराधीश्वर ब्रह्मदेव की स्तुति की है । इसके बाद मत प्रतिपादित किया है। गन्धहस्तिमहाभाष्यकर्ता समन्तभद्र, सपादलक्ष१३ दोड्डय्य (ल० १५५०) प्रमाण चतुर्विंशतितीर्थकरपुराणकर्ता कविपरमेष्ठी, यह जिनपुराणकथानिपुण देवप्पका पुत्र और पण्डित पार्वाभ्युदय और श्रादिपुराणके कर्ता सर्वज्ञ जिनसेन, मुनिका शिष्य था । देवप्प आत्रेय गोत्रका जैन ब्राह्मण तेईम तीर्थकगेंके चरित लिखनेवाले गुणभद्र,तत्त्वौपधथा और होय्सल देशके चंग प्रदेशके पिरियराज शहर शब्द-शास्त्रकार पूज्यपाद, पण्डिताय, अकलंक, वादिविमें राज्य करने वाले यदुकुल तिलक विरुपराज का द्यानन्द और देवकीर्ति का म्मरण किया है। दरबारी कत्थक था। दोड्य्यन * अपने चन्द्रप्रभ चरित १४ नेमण (१५५६) में विरुपराजेन्द्र की स्तुति की है। जैन ब्राह्मण पं० इमने ज्ञानभास्कर चरित नाम का प्रन्थ लिखा सलिवन्द्रका पुत्र वोम्मरस इसी राजाका प्रधान था । है। इसमें १३३ पद्य हैं और बतलाया है कि अध्यात्मप्रन्थके आरंभ में नीचे लिखे कवियों का उनके ग्रन्थों शास्त्रपठन और ध्यान यह मोक्षके मुख्य साधन हैं । सहित स्मरण किया है बाह्य वेप और कायश्लेश बहुत प्रयोजनीय नहीं हैं। पंपराज (आदिपुराण) , रन्न (अजितपुराण), प्रन्थके प्रारम्भ में निजात्माका वन्दन और गुणस्मरण ____ यह राजा साहित्य का बड़ा प्रेमी था मौर इसने शांति किया है। यह समडोलीपुरके श्रादिजिनालयके गुरु जिन की एक मूर्ति को विधिपूर्वक तय्यार कग कर उसे स्थापित जिनसेनके शिष्य शीलाधि का शिय था और इसने कराया था, ऐसा मद्रासके अजायब घरमें मौजूद एक जैन मूर्तिक तल देश विदर गाँव में दीक्षा ली थी। नीचे खुदा हुमा है (S.I.J.58) इस राजाकी प्रशंसासे मूह विद्रि . भैरवी मडपके एक स्तंभ पर शिलालेख है। -सम्पादक १५ बाहुबलि (ल. १५६०) . * इस कवि ने 'भुजवलिशतक' नामका एक संस्कृत ग्रंथ भी भैरवेन्द्र नामक राजाकी इच्छासे इसने नागकुमारलिखा है, –सम्पादक कथा या पञ्चमीकथा की रचना की है । इसके पिता Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण २ वणिकशिरोमणि सगणण्ण और माता बोम्मलदेवी में है और इसमें १३१२ पद्य हैं । इसमें मंगलाचरणके थी। यह कर्नाटक देश में कुंदाद्रिके दक्षिण में बसी बाद नीचे लिखे हुए आचार्यों को नमस्कार किया है। हुई शृंगेरी का रहने वाला था जिमका कि दूसरा नाम भद्रबाहु, गुणभद्र,समन्तभद्र, इन्द्रनन्दि, महानन्दि, दक्षिण वाराणसी है। सिंहनन्दि, वीरनन्दि, वीरसेन, नयसेन, वीराचार्य, बाहुबलिका इस प्रन्थको समाप्त करने के पहले चन्द्रप्रभ, शुभचन्द्र, नेमिचन्द्र, पूज्यपाद, कोंडकुंद, ही देहान्त होगया, इस कारण इसे वर्धमान नामक कविपरमेष्ठी, चारुकीत्ति पंडित, अकलंक, चन्द्रप्रभ, कवि ने पूर्ण किया जो कि बहुत करके बाहुबलिका ही विद्यानन्द, प्रभेन्दु, श्रुतकीर्ति, । पत्र था । वर्धमान नरसिंह भारती (१५५७-१५७३) का १७ दोहणांक (१५७८) ममकालीन था । उमे कवि राजहंस, संगीतसुधाब्धि- यह होय्सल देशके निट्टर आदिसेट्टिके पुत्र चन्द्र ये गौरवाद पदवियाँ प्राप्त थीं। उसने नीचे लिखे वेदृदि-सेट्टिका पुत्र था । इसने ई. सन् १५७८में चन्द्रकवियों का उनके ग्रन्थों महित स्मरण किया है- प्रभषट्पदी नाम का ग्रन्थ रचकर समाप्त किया है। __ श्रादिपंप (आदि पुराण), कन्तिक (जो वीरदोर १८ पद्मरस (१५६१) की सभा की मंगल लक्ष्मी थी), अग्गल (चन्द्रप्रभ- अखिल शास्त्रविशारद महावादिमदेभमृगेन्द्र तर्कपुगण), वागणकादम्बरी को हतप्रभ करके अपनी शब्दागमज्ञ, जैनसंहिताकर्ता श्रीवत्सगोत्रीय ब्रह्मरि लीलावती पर पारितोषिक प्राप्त करने वाले नेमिचन्द्र, पण्डित राजसन्मानित विद्वान थे। उनकी सन्तति में जन्न, गर्म, रन्न, पोन्न, और ज्योतिषविद्यामें अप्र- वैद्य-मंत्र-दैवज्ञ-शास्त्र-कोविद पद्मन्नोपाध्याय का जन्म गण्य वादिघ्रातभयंकर श्रीधराचार्य । हुआ । पारस उन्हीं का पुत्र था । इसने 'श्रृंगार कथा' __ मंगलाचरणकं बाद परमपुराणकथा का विस्तार नामक ग्रन्थ की रचना की है । इसे उसने केलसुरकी करनवाले द्वितीयगणधर कविपरमेष्ठी, कुमुदेन्दु, श्रीध- चन्द्रनाथ वस्तीमें ई० स० १५९९ में समाप्त किया है। गचार्य, अकलंक, पूज्यपाद, म्वपरमगुरु ललितकीर्ति, के केलसर का दूसरा नाम छत्रत्रयपुर है। गुमशान्तिकीर्तिका म्मरण किया है और फिर पद्मावती, शृंगार कथा में सुखनिलयपुरके राजा रत्लभुषणके मरम्वती, कूष्मांडिनी, सर्वाण्ह यक्ष की स्तुति की है। पुत्र सुकुमार की कथा वर्णित है । इसमें कथाभाग १६ श्रुतकीति (१५६७) बहुत ही थोड़ा है । शृंगारवर्णन ही अधिक है । इसमें इसके पिता अकलंक और पितामह कनकगिरिक ५ सन्धियाँ और ५३३ पद्य हैं। मदनतिलक, मल्लिकाविजयीत्ति थे। रामचन्द चन्दनवर्णी भी इसका जनविजय, भरतेश्वरचरित, कुमररामनकथा नामक नाम था। इसनं विजयकुमारीचरित नाम का प्रन्थ पूर्वके प्रन्थों का नाम निर्देश किया है। लिखा है, जिसमें इनद्रियों को जीतने वाली विजय- यह कवि जैन है फिर भी इस प्रन्थके प्रारंभमें कुमारी की कथा है। पहले यह कथा आर्यभाषा उसने शिवस्तुति की है ! जान पड़ता है कि किसी (संस्कृत ?) में थी, इसे जैनोत्तमोंके इच्छानुसार कनड़ीमें अजैन की प्रेरणासे लिखा गया होगा। लिखता हूँ, ऐसा कविने लिखा है । यह सांगत्य छन्द शेष भागे Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पौष, वीर नि०सं०२४५६ ] 22 हमारी शिक्षा हमारी शिक्षा ज्ञा 11 ले० - बाबु म ईदयाल जी, बी०ए० (नर्स) revivivie " विद्या सर्वार्थसाधिनी " - भगवन् जिनसेनाचार्य । Education alone can conduct us to that which is at once best in quality and infinite in quantity. Horace Monk. "केवल शिक्षा ही हमें उस तक ले जासकती है जो उच्चकोटिका और अनंत है । " शिक्षा का महत्व के महत्वसे प्रायः सब ही परिचित हैं । सब ही बहुत अंशों में यह जानते हैं कि शिक्षा से मनुष्य के हृदय में एक अद्भुत प्रकाश होता है । शिक्षा ही के द्वारा मनुष्य की मानसिक, शारीरिक और आध्यात्मिक शक्तियोंका पूर्णरूप से विकाश होता है । सुशिक्षित सदस्यों का समाज ही संसार में सब गुणों को प्राप्त करके सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक उन्नति करने में समर्थ होता है । शिक्षित समाज अपने अस्तित्व को गौरव के साथ स्थिर रख सकता है और मूर्ख समाज — पढ़ समाज - समय और प्रकृतिके प्रबल वेगके सामने नष्ट हो जाता है। जिनके पास शिक्षाका चिंतामणि रत्न है, जिनके यहां विद्यारूपी कामधेनु है, वे महान् धनी हैं और संसार की सब वस्तुएँ उनके सामने तुच्छ हैं। विद्वान् ही बलवान ८० है और अशिक्षित महान् शक्ति धारी होते हुए भी निर्बल है । कहनेका तात्पर्य यही है कि शिक्षा मानवी उन्नतिके वास्ते अत्यंत आवश्यक साधन है । जैन समाज और शिक्षा इससे पहले कि पाठक महाशय जैन समाज में शिक्षा का प्रचार और उसका हिसाब जाननेका प्रयत्न करें वे पहिले नीचेके बड़े कोष्टक को देख लें । उनको बहुत हद तक उससे यह मालूम होजायगा कि हमारा समाज शिक्षा नामक भूषण से कितना अलंकृत है ? सन् १९२१ में समस्त भारत में जैनियों की संख्या ११७८५९६थी, उनमें से केवल ३५६८७९ जैनी शिक्षित थे, अर्थात् २९.६३५ प्रतिशत । इनमें पुरुषों और स्त्रियांक पृथक पृथक अंक इस प्रकार थे । ६१०२७९ पुरुषों में ३१३४१६ पुरुष लिखे पढ़े थे, अर्थात ५१.६२ प्रतिशत । और ५६८३१७ स्त्रियों में से केवल ४०४६३ स्त्रियां लिक्खी पढ़ी थीं, अर्थात् ७.६४९ प्रतिशत । अंग्रेजी लिखे पढ़े पुरुष २२५५७ और स्त्रियां ८८३ थीं, जिनका प्रतिशतका हिसाब लिखना व्यर्थ सा ही है । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ મં ५. २. २ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १० 0 o av ११ कु 1 प्रान्तवार जैन समाज की शिक्षा का हिसाब प्रान्तवार हमारी शिक्षाके तुलनात्मक अंकों का ब्यौरा इस प्रकार है। : + नाम प्रान्त पंजाब देहली बम्बई ( रियासतों सहित ) राजपूताना अजमेर मारवाड़ बंगाल संयुक्त प्रांत (रि० स० ) बड़ौदा गवालियर (गंगापुर सहित ) मद्रास १२ आसाम १३ | मध्य प्रांत और बरार १४ १५ १६ अनेकान्त मैसूर बिहार और उडीसा हैद्राबाद प्रतिशत शिक्षित पुरुष ४३.५५ ६२.६९ ५१.७ ४९.६६ ७१.६९ ७६.६९ ५०.५९ १३.८ ७०.३४ ३१.६२ ५१.६ ६४२७ ४६.८८ ४३.१४ ५९.१ ३५.९९ ऊपरके अंक इतने स्पष्ट हैं कि उनसे हर एक प्रांत की शिक्षा-सम्बंधी अवस्था साफ़ प्रकट है और अधिक लिखना व्यर्थ है । फिर भी यह बता देना आवश्यक प्रतीत होता है कि पुरुषोंकी शिक्षामें सर्वप्रथम स्थान बंगाल को प्राप्त है और स्त्रियों की शिक्षा में बड़ौदा स्त्री ४.०२६ १४.३२. १.१२२ २.०३ ३.३८२ १७.२४ ६.७४४ २.१६ १८.२४ ४.४२८ ७.३६४ ८.९६९ ६.८०६ ५८५६ १०.५९ ३.०८१ [वर्ष १, २ कैफियत इनमें कश्मीर और मध्यभारत (Central Inda ) के अंक मनुष्य गणना की रिपोर्ट न मिलने के कारण और कुछ प्रांतोंके अंक रिपो में न होने के कारण नहीं दिये जा सके । प्रांतवार आयु वा शिक्षा का हाल जैन समाज दर्शन भाग २ से मिलेगा । सबसे आगे है । कुर्ग पुरुषों की शिक्षा में सबसे पीछे है और स्त्रियोंकी शिक्षा में बम्बई प्रांत सबसे पीछे है । सब ही प्रांतों के जैनियों को शिक्षा की महती आवश्यक्ता को अनुभव करके शिक्षा प्रचार के वास्ते तन मन धन से प्रयत्न करना चाहिये । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज पौष, वीर नि०सं० २४५६] हमारी शिक्षा जैनसमाजकी शिक्षाकी अन्य का कोई उल्लेखनीय स्थान नहीं है । हम अपनी शिक्षा-संबंधी इस स्थिति पर सम्भव समाजोंकी शिक्षासे तुलना है सहसा कुछ हर्ष प्रकट करने लग जायँ । किन्तु जैनममाजकी शिक्षाकी भारतकी अन्य समाजों वास्तवमें हर्ष या गर्व की कोई बात नहीं है । कारण ? की शिक्षासे तुलना करके दिखाना भी लाभदायक हम जैन समाजमें उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों का प्रायः होगा। अतः नीचे उसके अंक दिये जाते हैं। अभाव ही पाते हैं । उच्चकोटिके शिक्षित तो उसमें कहीं पीरात शिक्षित बिरले ही मिलेंगे। इस अधिक संख्याका कारण केवल जैन समाजका व्यापारी-धनी होना और धर्मके वास्ते ___ कुल पुरुष । स्त्री कुछ पूजा पाठादि पढ़ना है। इसके अतिरिक्त उसमें ममस्त नारत ७.०५१ । १२.३ । १.८०३ अन्य धर्मावलम्बियोंके ममान पिछड़ी हुई जातियाँ (Backward communities ) भी कम हैं । इनमें हिन्दू ६.४३९ ११.५१ १.३६८ अधिक संख्या उन्हीं शिक्षितोंकी है जिनको यातो बहीआर्य १८.५६३ २९.०५ ८.०७६ खाता आता है या नामादि लिखना आता है । हमारे ब्रह्मा ७८.६८ ६९.३४ ८८.०२ अपने विचारमें यह कोई संतोपजनक हालत नहीं है। ५.३८८ ९.३९७ १.३८ शिक्षामें हमारी उन्नति २९.०१९ ४८.४२ ९.६१८ बराबरकी इस छं.टी शिक्षित प्रतिशत जैन २९.६३५ ५१.६२ ७.६४८ । सी तालिकासे हमारी मुसलमान ४.४८२ पुरुप ' स्त्री शिक्षामें कीहुई उस उन्न- सन् ८.११७ .७५ तिका पता लग जायगा ईमाई २८.५ । ३८.९५ १८.०५ जो हमने सन १९०१ | १९०१ ४६.८६ १.७८४ पारमी ७३.०५ । ७८.९१ ६७.१९ से १९२१ तक की है । । १९११ | ४९.५ ३.९९ अर्थात गत बीम वर्षों १९२१ ५१.६२ ७.३४९ इस कोष्टक को देखनेसे मालूम होगा कि शिक्षामें में की है । सन् १९०१ सर्व प्रथम ब्रह्मो, द्वितीय पारसी, तीसरे जैन, चौथे में पुरुप ४६.८६ प्रतिशत शिक्षित थे जो मन् १९११ में बौद्ध और मुसलमान सबसे पीछे हैं । यह तो सामूहिक ४९.५ और १९२१ में ५१.६२ प्रतिशत हो गये । त्रियाँ (Collective ) विवरण हुआ । पुरुषोंकी शिक्षामें सन १९०१ में १.७८४ प्रति शत शिक्षिता थीं, वे सन् पारसी सबसे आगे और मुसलमान सबसे पीछे हैं। १९११ में ३.९९ प्रति शत हो गई और सन् १९२१ में और जैनियों का नम्बर तीसरा है । स्त्रीशिक्षामें ब्रह्मो ७.६४९ प्रति शत होगई। पुरुपोंकी अपेक्षा त्रियों में सबसे आगे और मुसलमान सबसे पीछेहैं और जैनियों उन्नति का क्रम-वेग अधिक है। किन्तु जब हम इस मिख बौद्ध Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनकान्त वर्ष १, किरण २ बातको सुनते हैं कि जापानने ५० वर्ष में शिक्षा में वह पहले संस्कृतके पण्डितों की ओर ही एक दृष्टि उन्नति की कि तमाम संसार देखकर दंग रह गया; डाल लीजिए । ये महानुभावसमाजके उन विद्यालयों के उस समय हम जैन समाजको इस कीड़ी की चाल पर फल हैं जिन पर समाजने अपनी गाढ़ी कमाई का क्या बधाई दे सकते हैं ? वास्तव में जैन समाजनेदोचार रुपया दिल खोल कर इस श्राशासे लगाया था कि हाईस्कूल, पाँच चार विद्यालय, दम बारह बोरडिंग वहाँसे जैनधर्मके बड़े बड़े दिग्गज विद्वान निकलेंगे, जो हाउस और कुछ अनियमित पाठशालाएँ खोल देनेके जैनधर्म का प्रचार करेंगे और उसके साहित्य का अतिरिक्त और किया ही क्या है ? फिर शिक्षाकी उन्नति पनरुद्धार करेंगे। उन विद्यालयोंसे समाज को विशेष क्या आप ही आप हो जाती ? जब कि अन्य समाज लाभ नहीं हुआ। जैसी आशा थी वैसा फल न निकला। धड़ाधड़ कालेज, विश्व विद्यालय और गुरुकुला दि स्था- यह माना जा मकता है कि वहाँ से कुछ ऐसे विद्वान् पित करके शिक्षाके मैदानमें भागे जा रहे थे उस समय अवश्य निकल आये हैं जो कुछ ग्रन्थों का अनुवाद में और अब भी, हमें यह अत्यंत शोकके साथ कहना कर सकें या छोटी छोटी पाठशालाओं में शिक्षक का पड़ता है, पाश्चात्य ढंगकी उच्च शिक्षा का हमारे यहाँ कार्य कर सकें अथवा उपदेशक का कुछ काम करनेमें तीव्र विरोध था । अच्छा हो यदि ममाजके कर्णधार समर्थ हो । किन्तु इन विद्यालयोंसे समाज की अब भी अपनी भल को ठीक कर लें। श्रावश्यक्ताएँ पूरी न हुई, जिसका स्पष्ट प्रमाण यह है हमारे शिक्षित कि वहाँ शिक्षा प्राप्तिके वास्ते अपने पुत्रों को बड़े हमारे यहाँ जो भी शिक्षित नाम धार्ग समुदाय है आदमी नहीं भेजते । सच बात तो यह है कि वहाँसे उसमें बहुलता ऐसे व्यक्तियोंकी है कि जिनका दकान- निकले हुए विद्वान् जहाँ अपनी आजीविका स्वतंत्र रूप दारीका हिसाब किताब रखनके अतिरिक्त कछ भी नहीं से प्राप्त करने में असमर्थ हैं वहाँ वे समाज को भी पाता । भले ही ये लांग पराने ढरेंकी दकानदारीचला पतितावस्था में रखनके उत्तरदाता हैं । वे संसार की लें किन्तु आगे इमस काम न चलेगा । इस प्रकार गति को और देश तथा समाजकी वर्तमान कालकी के लिखे पढ़ों को न तो धार्मिक ग्रन्थोंका ही ज्ञान हो स्थितियों को समझने में भी असमर्थ हैं । देशदर्शन मकता है और न लोकिक बातांका। अतः हमारीसमझ नामक पुस्तकके लेखक ने संस्कृतके वर्तमान विद्वानोंके में तो इनको शिक्षितोंकी श्रेणी में बिठाकर शिक्षाका- सम्बंध में जो मर्मस्पर्शी शब्द कहे हैं वे हमारी समाज मरस्वतीदेवी का-घोर निरादर करना है। के बहुतसे पण्डितों पर सोलह आने लागू होते हैं। वे जैन समाजके इन बहु संख्यक शिक्षितों (१) को लिखते हैं " हमारे देशके विद्यार्थी जब संस्कृत की उच्च अलग करदेने पर दोढंगके शिक्षित बाकी रह जाते हैं से उच्च परीक्षा पास करके निकलते हैं तो वे अपनी जिनकी संख्या तो अधिक नहीं है, पर जिनकी गणना रोटी तक कमाने में असमर्थ रहते हैं। उनकी शिक्षा न शिक्षित समाजमें होती है। इनमें प्रथम संस्कृतके लिखे तो उनको इस योग्य बनाती है कि वे अपना जीवन पढ़े पण्डित और दूसरे सरकारी स्कूलों तथा कालेजों निर्वाह भली भांति कर सकें और न वे अच्छे नागरिक से निकले हुए विद्वान हैं। ही बन सकते हैं। उनकी शिक्षा अति प्राचीन कालके Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौष, वीर नि०सं०२४५६ हमारी शिक्षा श - - -- बिगड़े हुए ढंग पर चली जारही है। वे देश, काल, शिक्षाका प्रश्न देशका प्रश्न है जाति, राष्ट्र संगठन, भारतोत्थान आदि विषयोंसे ऐसी अवस्थामें क्या किया जाय ? वास्तव में शिक्षा बिलकुल अनभज्ञि होते हैं । उनकी शिक्षा व्याकरणके का प्रश्न तमाम देश का प्रश्न है, इसे कोई एक जाति वितंडाओं में तथा न्यायके 'पात्राधारम् घृतम् वा घृता- कभी भी हल नहीं कर सकती। इस ओर देशके तमाम धारम पात्रम' जैसे प्रश्नों के हल करने ही में खतम हो हितचिंतकों को ध्यान देना चाहिये । और शीघ्र ही जाती है।"* भारत सरकार की सहायतासे देश की शिक्षापद्धति में अब जरा अंग्रेजी शिक्षितों को भी देख लीजिए। उचित संशोधन और परिवर्तन कराना चाहिये । बिना वहाँ भी कोई विशेष प्राशाजनक चिन्ह नहीं दिखाई शिक्षापद्धतिके ठीक हुए देश का उत्थान असम्भव है । दते । वे बहुत कुछ जानते हुए भी अपने विषयोंके पूर्ण हमारी शिक्षा का आधार भारत की प्राचीन सभ्यता ज्ञाता नहीं होते । अधकचरी विद्या की प्राप्रि में ही पर होना चाहिये । और उसके द्वारा संसारके नवीन उनका स्वास्थ्य, शक्ति, दृष्टि, समय और धन लग और प्राचीन ज्ञानके दरवाजे उसके वास्ते खोल देन जाता है और फिर भी नतीजा अधिक उत्साहवर्धक चाहिएँ । देशके नवयुवकों को वही शिक्षा दी जाय नहीं। आज कलके विद्यार्थियों का उद्देश्य येन केन जिसके द्वारा उनके विचार और कल्पना शक्तिके प्रकारेण कोर्स को घोट-घाट कर परीक्षा पास कर लेना विकाश को पूरा अवसर मिले । अथवा जिससे वे होता है । और बहुत हद तक उनके शिक्षक और सुयोग्य नागरिक बन सकें, और उनके घरेलू जीवन प्रोफेसर भी इसी उद्देश्य को सामने रख कर कार्य करते तथा विद्यालय के जीवन का पूर्ण सम्मेलन हो। हैं । हम यह जानते हैं कि इसमें न तो बेचारे शिक्षकों हम क्या करें ? का ही दोष है और न विद्यार्थियों का । बल्कि दोष है किन्तु यह बात एक दिनमें नहीं हो सकती । जब उस पद्धति का जिमके आधीन वे काम करते हैं। जब तक यह अवस्था देशमें कायम हो तब तक हम ठहर तक इस पद्धति में संशोधन न होगा तब तक इन भी नहीं सकते । फिर क्या किया जाय? ऐसीअवस्थामें कालेजोंमे ऐसे ही विद्वान निकलते रहेंगे जो बड़े बड़े हमें देशकी प्रचलित शिक्षा-पद्धति का ही आश्रय लेना सिद्धान्तो (Theories) को जानते हुए भी उनको पडेगा और साथमें अपनी आवश्यक्ताओं को पूर्ण रूप व्यवहार (Practice) में न ला सकेंगे। जो सदा से समझ कर उनकी पूर्ति के वास्ते शिक्षाके साधन अपनी आजीविका के वास्ते सरकारी दफतरों का जटाने होंगे। दरवाजा खटखटायेंगे। वर्तमान अवस्था में इनसे ऐमे हमारी आवश्यक्ताएँ जहाँ देश की अन्य जातियों विद्वान् निकलना जो बड़े बड़े अविष्कार कर सकें या के समान हैं वहाँ कुछ उनसे भिन्न और विशेष भी है। प्रचलित सिधान्तों का संशोधन या उनमें वृद्धि करसकें अतः सम्मिलित आवश्यक्ताओंको छोड़कर यहां विशेष बहुत कठिन हैं। आवश्यक्ताओं पर ही संक्षेपमें विचार किया जाता है। जैनधर्म भारतवर्षका पुराना धर्म है, उसका अपना .. देशदर्शन पृष्ठ २६६ विशाल साहित्य और संस्कृति (Culture) है । उस Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनकान्त [वर्ष १, किरण २ साहित्य, धर्म, और संस्कृतिको प्रकाशमें लानेके वास्ते derstanding of sound principles increasसंस्कृत, प्राकृत और दक्षिणी भाषाओं के ऐसे विद्वानों ed.............There has been introduced की आवश्यक्ता है जो इस कामको प्रकारका such complerity into modern business and such a high degree of specialization सकें और संमार के जैनंतर साहित्य, संस्कृति और that the young man who begins withसिद्धान्तोंमे अपने साहित्य, संस्कृति और सिद्धान्तोंकी out the foundation of an exceptional तुलना करने में भी समर्थ हो । वे प्राचीन लिपियों को training is in danger of remaining a पढ़ सकें और मातृभापा द्वारा उसका सर्वसाधारणको mere clerk or book-keeper."* ज्ञान करा सकें। इस प्रकारके विद्वान् हमारे मौजूदा अर्थात 'एक व्यापारीकी मानसिक शक्ति आज संस्कृत विद्यालयोंसे कदापि नहीं निकल सकते । हमारी इतनी अधिक होनी चाहिये जितनी कि पहले आवश्यसामाजिक आवश्यक्ताएँ भी कम नहीं हैं । जैनसमाज क्ता नहीं थी । जिम प्रकार वस्तु भेजनेके साधन, तार, एक व्यापार-प्रधान समाज है । किन्तु उमका वर्तमान समन्दरी विद्युततार और टेलीफोनके पानसे एक व्यापार व्यापार नहीं, कोरी दलाली है । अतः समाज- व्यापारीका कार्यक्षेत्र बढ़ गया है वैसे ही उपर्युक्त में उच्च कोटिक व्यापारी पैदा करने के वास्त हमें उन सिद्धान्तोंको भली भांति समझनेकी आवश्यक्ता भी बढ़ कोटि की ही व्यापारिक शिक्षाका प्रबंध करना होगा। गई है । आधुनिक व्यापारमें पेचीदगी और उच्च कोटि यदि हम समाजमें मामूली दलालों, दुकानदारों और की विशेपज्ञता इतनी आगई है कि जो कोई भी नवमुनीमोंके स्थानमें बड़े बड़े बैंकर, बड़ी बड़ी कम्पनियोंके युवक समुचित शिक्षाकी बुनियादके बिना इस काममें डायरेक्टर और चतुर व्यापारी देखना चाहत हैं तो लगता है उसके महज एक क्लर्क अथवा एक मुनीम ही हमें अनिवार्य रूपमे अच्छी व्यापारिक शिक्षाका प्रबन्ध रह जान का भय है।' करना होगा । व्यापारिक शिक्षाकी आवश्यक्ता को क्या ही अच्छा हो जो हमारे भाई इन शब्दों पर हमारं भाई चाहे न समझें किन्तु विदेश वालोंने इस अच्छी तरह ध्यान दें और वर्तमान ढंगके व्यापार को मुहतम अनुभव कर लिया है। तभी तो मंमारका सारा समझकर अपना और देश का कल्याण करें । इस व्यापार उनके हाथमें है और हम उनका मुँह देखतं बात को हर एक जैनीको हृदयांकित कर लेना चाहिए रहते हैं । दखिये एक अमरेकिन बैंकर मिस्टर वेंडिर कि देशकी प्रधान व्यापारी जाति होने के कारण देश लिप क्या कहता है: के व्यापार को समुन्नत करना उसका सबसे पहला " The mental requireinent of a busi- कर्तव्य है। वर्तमान कालमें वह ही व्यापारी सफल हो nessman needs to be greater today than सकता है जो बैंकिंग (Bunking), विनिमय (Exwas ever before necessary. Just as the change ) व्यापारिक भूगोल ( Commercial sphere of the businessman's actions has broadened with the advent of trang Geography ) और अपने कार्यक्षेत्र की उपज portation, telegraphs, cables and tele . "The problem of National Education in India phones so have the needs of broad un. L. Liput Rai. Page 213) Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौष, वीर नि०सं०२४५६] हमारी शिक्षा (Products) और वहां के निवासियोंकी आवश्यक्ता जैनधर्मके अमूल्य सिद्धान्त समझा सकेंगे, जो आपके में खूब परिचित है। धर्मकी विशेषता अन्य धर्मों के मुकाबलेमें दिखला सकेंगे, किन्तु आज कल का व्यापार उच्च कोटिके कला- और जो आपके प्राचीन इतिहासको प्रकाशमें लासकेंगे। कौशल : Industry) पर अवलम्बित है । जिस व्यापार वहाँ से व्यापारिक विद्या, कला-कौशल और समाजके पीछे उद्योग धंदे हैं, जिस व्यापारकी बुनियाद कला- शास्त्र आदि उपयोगी विषयोंके विशेषज्ञ निकलेंगे जो कौशल पर है वह ही व्यापार लाभदायक हो सकता है। केवल समाजकी रक्षा ही नहीं किन्तु उसे एक प्रतिष्ठित आपको यह भली भांति मालूम होना चाहिए कि पद दिलानेमें भी समर्थ होंगे । ऐसा विश्व-विद्यालय हमारे देशसे करोड़ों रुपया प्रति वर्ष विदेशों को जा देशके किसी भी केन्द्रस्थ स्थान पर स्थापित किया जा रहा है । आपको यहाँ के कच्चे मालको उपयोगमें लाकर सकता है । उसके लिए धनकी आवश्यक्ता होगी, जिस उससे भिन्न भिन्न वस्तुएँ तय्यार कराके, देशके इस को पूरा कर देना समाजके वास्ते कठिन नहीं है। यह रुपयको बचाना होगा । किन्तु यह आप उस समय विश्व-विद्यालय जहाँ जैन समाजके वास्ते लाभदायक ही कर सकते हैं जब कि आप उच्च कोटिकी औद्यो- होगा वहां देशका भी कल्याण करेगा। गिक शिक्षा का प्रबंध करें। जैनसमाजमें स्त्री शिक्षा ___ सबसे अंतमें, मैं समाजकी उस आवश्यकताकी . स्त्रीशिक्षाके सम्बंधमें भी यहाँ कुछ लिखना आवतरफ़ आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ जिस श्यक प्रतीत होता है । गृहस्थ रूपी गाड़ीके पुरुष और पर समाजके जीवन और मरणका प्रश्न है । आपका स्त्री दो पहिये हैं। गाडीको सुचारू रूपसे चलानेके समाज मृत्यु-शय्या पर लेटा हुआ है । जिसको बचाना ना वास्ते दोनोंका ही ठीक होना आवश्यक है । और - अपनी ही रक्षा करना है । उसके बचानमें आप तब ही शिक्षा ही एक ऐसा साधन है जो मानव समाजको सफल हो सकेंगे जब कि आप समाजशास्त्रके अच्छे १ अपने कर्त्तव्य पालनके योग्य बना सकता है। हमारे अच्छे जानकार पैदा करेंगे । वे समाजशास्त्री ही पूर्व पुरुषोंने इस बात को भली भांति समझ कर ही आपकी मरती हुई समाज की रक्षा कर सकेंगे। स्त्रीशिक्षा को महत्वपूर्ण स्थान दिया था । प्राचीन इस प्रकारसंक्षेपमें, समाजको अच्छे अच्छे धर्मा कालमें जैनमहिलाएँ कितनी सुशिक्षता होती थीं, चार्यों, व्यापारियों, बैंकरों, कलाकौशलाचार्यों, और उसकी कुछ झलक हम अपने पुराणग्रंथोंसे पा सकते समाजशास्त्रियोंकी आवश्यकता है। हैं। कवि कन्तीदेवी, रानी चेलना, मैनासुन्दरी, सुलोजैन-विश्व-विद्यालय चना और सती अञ्जनाके नामोंमे हम सब परिचित उपर्युक्त आवश्यकताएँ श्रापकी वर्तमान पाठशालाएँ हैं। किन्तु पीछे दिए हुए अंकोसे यह स्पष्ट रूपसे प्रकट या हाईस्कूल पूरी नहीं कर सकते । उनकी पृर्तिके वास्ते हो जाता है कि हमने स्त्रीशिक्षा जैसे उपयोगी विषय आपको एक विशाल विश्व-विद्यालय स्थापित करना की तरफ अब तक समुचित रूपसं ध्यान नहीं दिया होगा। उससे ऐसे ऐसे विद्वान् प्रकट होंगे जो आपके बल्कि उसकी अवहेलना की है। जहाँ सन् १९२१ में प्राचीन साहित्य का उद्धार कर सकेंगे, जो जनताको जैन पुरुष ५१.६२ प्रतिशत लिखे पढे थे, वहाँ केवल Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ अनेकान्त [वर्ष १, किरण २ ७.६४९ प्रतिशत ही खियाँ लिखी पढी थीं । कितना करना ही होगा। इस ओर हमारी बहिनोंको स्वयं भी बड़ा अन्तर है ! स्त्री शिक्षामें, बड़ौदे की जैन समाज ' ध्यान देना चाहिए। सर्वप्रथम ( १८.२४ प्रश०), द्वितीय बंगाल (१७.२४ शिक्षाप्रचारके कुछ उपाय प्रश०), तीसरे देहली (१४.३२ प्रश० ) और चौथे ____ एक महान विश्वविद्यालयकी स्थापनाके साथ विहार और उडीमा (१०.५९ प्रशत) हैं। सबसे पीछे हर हमें अन्य उपायोंको भी काममें लाना होगा । यद्यपि बम्बई (१.१२२ प्रशत) और राजपूताना (२.०३ प्रति उस विश्वविद्यालयमें धार्मिक शिक्षा, लौकिक शिक्षा शत) हैं । हमें यह भी याद रखना चाहिए कि इन ही और स्त्रीशिक्षाका पूर्ण प्रबंध होगा तब भी निम्न दोनों प्रान्तोंमें जैनियोंकी सबसे अधिक संख्या है। लिखित साधनोंसे विद्याप्रचारमें विशेष सहायता हो ममाजकी निर्माता वास्तवमें स्त्रियाँ ही हैं। उन ही सकती है:की गोदमें आने वाला ममाज है । यदि आप चाहतं समाजमें निर्धन छात्रोंको छात्रवृति देकर उनकी हैं कि हमारे भावी उत्तराधिकारी योग्य हों, तो उसके सहायता की जाय और तीक्ष्ण बुद्धि विद्यार्थियोंको वास्ते आपको अच्छी स्त्रीशिक्षाका प्रबंध शीघ्र और पारितोषिक देकर उनका उत्साह बढाया जाय । इस अनिवार्य रूपसे करना होगा । भारतवर्षकी वर्तमान कार्यके वास्ते बम्बई के स्व० सेठ माणिकचन्दजी और राजनैतिक अवस्था भी शिक्षिता स्त्रियाँ ही चाहती है। देहलीके बाब प्यारेलालजीवकीलके समान शिक्षाकोप शिक्षिता स्त्रियोंके अभावसे हमारा सामाजिक जीवन (Eduentional funds) स्थापित करके अन्य धनी कितना पतित, निरानंदमय और कलहमय हो गया है भाई भी समाजके शिक्षाप्रचार कार्यमें सहायता इसे सबही बिचारवान अनुभव करते हैं। अतः अब कर सकते हैं। समाजको स्त्रीशिक्षाका शीघ्र ही प्रबंध करना चाहिये। ___ महिलाओं और कन्याओंके उत्साह बढ़ानेके वास्ते स्त्रियोंको कमसे कम इतनी शिक्षा तो अवश्य दीजानी विशेष प्रबंध हो। चाहिये जिससे वे गृहकार्य मितव्ययताके माथ चला योग्य और होनहार विद्वानोंको सहायता देकर सकें, संतान का पालन-पोषण कर सकें, कठिनता का विदेशोंमें विशेष ज्ञानकी प्राप्तिके वास्ते भेजा जाय । सामना करन में समर्थ हा श्रार घरा का आनन्दका वहाँ मे लौट कर वे तमाम धन वापिस करदें। स्थान बना सकें। इससे अधिकका प्रबंध हो जाय तो मनासंधी प्रश्नों पर विचार करने और शिक्षा और भी अच्छा । स्त्रियों में शिक्षा प्रचारके वास्ते हमें प्रचारके वास्ते भारतवर्षीयजैनशिक्षा समिति ( All विशेषरूपसे प्रयत्न करना चाहिये। जगह जगह कन्या- India Jain Eucational Board) स्थापित की पाठशालाएँ, कन्यामहाविद्यालय और विधवाश्रम जाय। इसही प्रकार की समितियाँ भिन्न भिन्न प्रान्तों स्थापित करने चाहियें और उनकी देखरेखका समुचित में भों स्थापित की जा सकती हैं। प्रबंध होना चाहिए । अब स्त्रीशिक्षाको अनावश्यक अथवा इसका विरोध करनेसे काम न चलेगा। यह समाजका कर्तव्य समय और देशकी जबरदस्त मांग है, जिसे आपको पूरा सम्यग्ज्ञानके उपासको ! उसकी नित्य पूजा करने Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीत गीत पौष, वीर नि०सं० २४५६] हमारी शिक्षा वालो !! और उसके नाम पर अर्घ चढाने वालो !!! जागो और अपने कर्तव्यको समझो । सम्यग्ज्ञानके स्थान पर अज्ञानका साम्राज्य आप कैसे देख रहे हैं ? उच्च ज्ञानके उपासक आज साधारण ज्ञानको तरस [ले० भगवन्त गणपति गोयलीय ] रहे हैं यह आप कैसे सहन कर रहे हैं ? समाजके नवयुवक आज शिक्षाके वास्ते किस किसके द्वारकी ठोकरें खा रहे हैं इसको क्या आप नहीं देखते ? समा अहे वीणाके टूटे तार ! जके सदस्य अशिक्षित रहने के कारण भूखों मरें यह तु अनन्त में लीन हो रहा और सो रहा मौन ; अब अधिक नहीं देखा जाता । अविद्याकै कारण रागिनियाँ सुननी तो हैं पर तुझे जगाए कौन ? उनका तिरस्कार देखते हुए हम उच्च और माननीय थका संसार पुकार पुकार। नहीं बन सकते । क्या आपको यही इष्ट है कि समाज अहे वीणा के टे तार ॥ अज्ञानावस्थामें पड़ा पड़ा इस संसारसे कूच कर जाय? शिक्षाके बिना न तो समाजमें सुधार ही हो सकता है ऐसे भी दिन थे जब तव-रव सुनने वायुप्रवाहऔर न वह धर्मके निकट ही पहुँच सकता है । सच थम जाते थे, और नाचने लगता था उत्साह । समझिये, सम्यग्ज्ञानकी उपासना दो चावल चढ़ा देने लोटताथा चरणों पर मार। में नहीं होती बल्कि वह उसी समय होगी जब कि अहे वीणा के टे तार ॥ आप समाजके हर एक व्यक्ति को लोक और परलोक निठुर बजानेवाला तुझको तोड़ गया किस ओर? की बातें समझनके योग्य बना दोगे । ज्ञानदानका पुण्य नियति ले गई उसे वहाँ, है जिस का ओर न छोर । नाम लेन मात्रसे ही नहीं हो सकता, वह उसी समय न स्थिर है पलभर को संसार । होगा जब आप तन, मन, और धनसे जैनों और अहे वीणा के टूटे तार ॥ अजैनों के वास्ते शिक्षाका द्वार खोल देंगे । आपको या गाता है क्या जानें कब से काई दीपक राग ; तो अब शिक्षित होना होगा और नहीं तो इस संसारसे ___ धाँधों कर जल उठा जगत लग गई भयंकर आग। अपना अस्तित्व ही खो देना होगा । समाजके सब ही ___ पडज में गादे राग मलार। सम्प्रदाय और दल इस शिक्षा प्रचारके काममें एक अहे वीणा के टूटे तार || होकर कार्य कर सकते हैं। अतः समाजको अब शीघ्रही ___ सन्मति ने गाया अतीत में मर्म-स्पर्शी गान ; अपना कर्तव्य पालन करना चाहिये । * वही तान सुनने को व्याकुल हैं त्रिलोक के प्राण । गुंजादे आज वही ॐ कार । अहे वीणा के टूटे तार ॥ __ * लेखकके भप्रकाशित "जनसमाजदर्शन" का एक अध्याय । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनकान्त [वर्ष १, किरण २ ....... . ....... सब ठाठ पड़ा रह जावेगा। ......... .... .. . ..... .... . . .. .. टुक हिसोहवा को छोड़ मियाँ ! मतदेस-विदेस फिरे मारा, कजान अजलकालटेहै दिनरातबजा कर नकारा। क्या बधिया-भैंमा-बैल-शुतर,क्यागौएँ-पिल्ला-सरभारा,क्या गेहूँ-चावल-मोठ-मटर, क्या श्राग-धुंआ,क्या अंगारा।। सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बनजारा । कज्जाक अजल का लूटे है, दिन रात बजाकर नक्कारा ॥१॥ गर त है लक्खी बनजारा और खेप भी तेरी भारी है, अय गाफिल ! तुझसे भी चढ़ता।एक और बड़ा बेपारी है । क्या शक्कर-मिसरी-कंद-गिरी,क्या सांभर-मीठा-खारी है,क्या दाख-मुनक्का-सोंठ-मिरच,क्या केसर-लौंग-सुपारी है।। सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बनजारा । कज्जाक अजल का लुटे है दिन रात बजा कर नकाग॥२॥ यह स्वेप भरे जो जाता है वह खेप मियाँ! मत गिन अपनी, अब कोई घड़ी पल "साअतमें यह खेप बदनकी है कानी। क्या थाल-कटोरे चाँदीके, क्या पीतलकी डिबया-ढकनी, क्या बरतन सोने-रूपेके, क्या मिट्टीकी हँडिया अपनी ।। सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बनजारा। कज्जाक अजल का लूटे है दिन रात बजा कर नकारा ॥ ३ ॥ यह धम धड़ाका साथ लिये क्यों फिरता है जंगल जंगल, एक तिनका साथ न जावेगा मौजद हुआ जब आन अजल। घरबार-अटारी-चौपारी,क्या नासा ननसुख और मलमल,क्या चिलमन-पर्दे फर्शनये,क्या लाल पलंग औररंगमहल।। सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बनजारा। क्रज्जाक अजल का लुटे है दिन रात बजा कर नकारा ॥४॥ हर मंजिलमें अब साथ तेरे यह जितना डेरा-डाँडा है, ज़र-दाम-दिरमका भाँडा है बंदूकसिपाह और खाँडा है। जब नायक तनसे निकलेगा जो मुल्कों मुल्कों हाँडा है, फिर हाँडा है, न भाँडा है, न हलवा है, न मॉडा है। मब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बनजारा । कजान अजलका लूटे है दिन रात बजा कर नकारा ॥५॥ १ माशा-तृष्णा, २ डाकू-लुटेरा, ३ मौत-काल, ४ ॐट, ५. समय, ६ धन-दौलत, ७ सेना-फौज, Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौष, वीर नि०सं०२४५६] सब ठाठ पड़ा रह जावेगा कुछ काम न आवेगा तेरे यह लाल-जमुर्रद-'सीमो जर, सबजी बाटमें बिखरेगी जब आन बनेगी जान ऊपर नौबत-नकारे-बान-निशॉ-दौलत हशमत-कौजे-लश्कर,क्यामसनद-तकिया-मुल्क-मकॉ,क्याचौकी कुरसी-तख्त-छतर सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बनजारा। कज्जाक अजल का लूटे है दिन रात बजा कर नकारा ।। ६ ॥ क्यो जी पर बोझ उठाता है इन गोनों भारी भारी के, जब मौत लुटेरा आन पड़ा फिर दूने हैं बेपारी के। क्या साज़ जड़ाऊ जड़-जेवर, क्या गोटे थान-किनारी के, क्या घोड़े जीन सुनहरीके, क्या हाथी लाल अमारी के । सब ठाठ पड़ रह जावेगा जब लाद चलेगा बनजारा । कज्जान अजल का लटे है दिय रात बजा कर नकारा ॥ ७ ॥ मग़रूर न हो तलवारों पर मत भूल भरोमे ढालोंके, सब पटा तोड़के भागेंगे मुंह देख अजलके भालों के । क्या डब्बे माती-हीरोंके क्या ढेर खजाने मालोंके, क्या बुग़चे तार-मुशजरके, क्या तन्ते शाल-दुशालों के ।। सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बनजारा ।। कज्जाक अजलका लूटे है दिन रात बजा कर नक्कारा ॥ ८॥ क्या सख्त मकाँ बनवाता है, १३नम तेरे तनका है पोला, तु ऊंचे कोट उठाता है वहां तेरी १४गोरने मुँह खोला । क्या रेती-खंदक-रुन्द बड़े, क्या बुर्ज-कॅगरा अनमोला, गढ़-कोट-गहनला-तोप-किला,क्या सीमा-दारू और गोला ।। सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बनजारा। कज्जाक अजल का लूटे है दिन गत बजा कर नकाग ।।७।। हर पान नफे और टोटे में क्यों मरता फिरताहै बन बन, १५श्रयग़ाफ़िल ! दिल में सोच जग है साथ लगे नरेदुश्मन । क्या लौंडी-बॉदी-दाई-ददा,क्याबन्दा-चेला-नेकचलन,क्या मंदिर-मस्जिद-ताल-कुएँ,क्या घाट-मरा क्या बाराचमन।। सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बनजारा । कज्जान अजलका लटे है दिन गत बजा कर नकारा ।। १० ।। जब चलते चलते रस्तमें यह गौन तेरी ढल जावेगी, एक बधिया तेरी मिट्टी पर फिर घास न चरन श्रावंगी। यह खेप जो तन लादी है सब हिस्सों में बट जावेगी, धी-पूत-जॅवाई-बेटा क्या, बनजाग्न पाम न आवंगी। सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलंगा बनजाग । कज्जाक अजलका लूटे है दिन गत बजाकर नकारा ।। ११।। जब मुर्ग फिराकर चाबुकको यह बैल बदनका हॉकेगा, कोई नाज समेटेगा तेरा, कोई गौन सिर और टांकेगा। हो ढेर अकेला जंगल में तू खाक लहदकी फांकेगा,उम जंगलमें फिर आह! 'नजीर' एक तिनका आन न झांकेगा।। मब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बनजारा । कज्जाक़ अजलका लुटे है दिन रात बजा कर नकाग ॥ १२ ॥ ----- 3:47 . . पन्ना : चांदी सोना, १०ध्वजा, ११वैभव, १० अभिमानी-घनदी, १ अड, १४ ऋत्र, १ मन्यम अनभिज्ञ १: प्रगाव १५कत्र Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण २ देवगढ़ ले-श्री० नाथूरामजी सिंघई श्री आई. पी. रेलवे लाइन जो देहलीसे बम्बईको करते जीर्ण दो कोट और मिलते हैं।दूसरा और तीसरा 'गई है उसी पर ललितपुर स्टेशन है । ललित- काट मदिराको घर लाल कोट मंदिरोंको घेरे हुए है । इन कोटोंके अन्दर देवापुरसे दक्षिणकी ओर दूसरा स्टेशन जाखलोन है, यहां लय होनेसे ही संभवतः इसका नाम देवगढ़ पड़ा होगा। से देवगढ़ ९ मील बैल गाड़ीका रास्ता है पैदलका मार्ग इसके भीतर सैंकड़ों जैन मंदिरोंके भग्नावशेष पाए करीब ७ मीलका है । मार्ग पहाड़ी घाटियोंमें हो कर जाते हैं। सैकड़ों क्या हजारों जैन मूर्तियाँ पर्वत पर है। देवगढ़ प्राम बहुत छोटासा ऊजड़ग्रामसमान ओंधी सीधी पड़ी हुई यत्र तत्र पाई जाती हैं। है । यहाँ पर खाने पीनेका कुछ भी सामान नहीं ____ बहुत ही छोटे छोटे मंदिरोंको छोड़ कर बाक़ीके मिलता है, इसके लिए जाखलौनसे प्रबंध करना होता मंदिर तीस हैं जिनमें अनुपम प्राचीन कारीगरी पाई जाती है। ये सब मंदिर क़रीब आठवींसे बारहवीं सदी है। ठहरनेके लिए पहले सिवाय डाकबंगलेके और कोई भी सुरक्षित स्थान नहीं था; किन्तु अब वहाँ एक तकके बने हुए मालूम होते हैं । उपर्युक्त मंदिरोंमें तीन जैन धर्मशाला बन गई है जिसमें पचास, साठ यात्री मंदिर विशेष उल्लेखनीय हैं । मंदिर नं०११ सबसे बड़ा एक साथ बड़े आरामके साथ ठहर सकते हैं । यहाँ मा मंदिर है जिसके पूर्वकी ओर कई एक मंदिर भिन्न भिन्न एक जैन पुजारीके सिवाय और कोई भी घर जैनियों समयके पाए जाते हैं। इसमें शान्तिनाथ भगवानकी का नहीं । आबादी अभी करीब सौ, सवा सौ की है खड़गासन मूर्ति है जिमकी ऊँचाई १२ फुट है, तीन जिनमें अधिकतर संख्या सहरियोंकी है । ब्राह्मणों और मूर्तियाँ १० फुटकी भी हैं बाकी चार चार और पाँच अहीरोंके तो बहुत ही कम घर हैं। पाँच फुटकी कई मूर्तियाँ हैं । श्राधीसे अधिक मूर्तियाँ खडगासन हैं । शान्तिनाथ भगवानकी मूर्तिके समयका देवगढ़ प्राम वतवा नदीके मुहाने पर नीची जगह पता नहीं चलता । यह मूर्ति अतिशयवान है। पुराने पर बसा हुआ है । यहांसे ३०० फुटकी ऊँचाई पर लोगोंका कहना है कि पहले इस मूर्तिके सिरके ऊपर करनालीका दुर्ग है जिसके पश्चिमकी ओर बतवा नदी का छत्रका पाषाण एक अंगुलके फासले पर था अब कलकल निनाद करती हुई बहती रहती है । इस पर्वत वह दो हाथके फासले पर है अर्थात् मूर्ति छोटी होती की चढ़ाई सोनागिरके समान सरल तथा सीधी है। जाती है । ऐसी अतिशतवान् मूर्तिके दर्शनोंका लाभ पहाड़ीकी चढ़ाई ते करने पर एक खंडहर द्वार मिलता सभी धर्मप्रेमियोंको लेना चाहिए। इस मंदिर के उत्तरी है जिसको 'कुँजद्वार' कहते हैं । यह द्वार पर्वतकी दालानमें एक विचित्र शिलालेख है जिसमें "ज्ञानपरिधिको बेते हुए कोटका द्वार है। इस द्वारको प्रवेश शला" खुदा हुआ है । १८ भाषाओं और १८ लिपियों Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९९ पौष, वीर नि०सं०२४५६ देवगढ़ के नमूने दिए हैं। इसको साखानामदीने लिखाया था शिलालेख है जोसं०११५४ का है। इसको राजा 'वत्स' इस मंदिरके आगे एक खुला दालान (हाल ) है जो ने खुदवाया था, जो कीर्तिवर्मा चंदेलका वजीराजम ४२ फुट ३ इंच वर्ग है । इसमें ६, ६ खम्भोंकी छह था । उसीके नामसे कीर्तिगिरि दुर्ग कहलाता है। क़तारें हैं और इसके बीचोंबीच में एक चबूतरा है, नहर घाटीके किनारे भी एक छोटासा सात लाईनोंका जिम पर मूर्तियाँ रक्खी हुई हैं यहां पर ही पुजारी शिलालेख है । यहां पर एक गुफा भी है, जिसको नित्य पूजन करता है । इस हालके सामने १६॥ फुटकी 'सिद्ध' की गुफा भी कहते हैं । यह पहाड़में खुदी हुई दूरी पर एक मंडप (छत्र) चार खम्भों पर स्थिति है। है जिसका मार्ग पहाड़ीके ऊपर से सीढ़ीद्वारा नीचेको इन खम्भोंमें से एक खम्भेके ऊपर राजा भोजदेवका है। इसके तीन द्वार हैं । दो खम्भों पर छत सुरक्षित शिलालेख संवत ९१९ या शक सं०७८४ का पाया है। इस गुफाके बाहर एक छोटासा लेख गप्प-समयका जाता है। मंदिर नं० १२ के मंडपमें तीर्थंकर ऋषभके है, एक दूसरा लेख भी है जिसमें लिखा है कि राजा द्वितीय पुत्र गोमटश्वर या बाहुबलिकी मूर्ति है जिसका 'वीर' ने सं०१३४२ में 'कुरार' को जीता था। समय ११वीं सदी का दिया हुआ है । इस स्थानको देवगढ़में दोसौके लग भग शिलालेख मिले हैं। छोटा श्रवणबेलगोल कहें तो अत्यक्ति न होगी। उनमेंसे १५७ ऐतिहासिक महत्वके हैं, जिनका वर्णन एक सहस्रकूट चैत्यालय पाषाणका है जिसमें एक नक़शोंमें दिया गया है। इनको पुरातत्त्व विभागले हजार आठ जैन मूर्तियाँ पाई जाती हैं । यह समूचा संकलित किया है, जो बहुत ही निकट भविष्यमें प्रकाश बड़ा ही मनोज्ञ तथा सुन्दर है । यह मैं पहले ही में आने वाले हैं। इनका महत्व जैनकला और जैनबता चुका हूँ कि मंदिरोमें और उनके बाहर सैंकड़ों कथाओं के लिए विशेषम्पर्म है। क्या हजारों जैन मूर्तियाँ पाई जाती हैं ।मूर्तियाँ ऐसी दवगढ प्रान्तमें पहिले सहरियोंका आधिपत्य था । इन सुन्दर तथा मनोज्ञ हैं कि उनके जैसे अवयव वाली ___पर गौंडोंन विजय पाई । गौंडोंको परास्त कर गुप्तवंशीय मूर्तियाँ अन्यत्र कहीं भी नहीं पाई जाती-मंदिगेंऔर र राजाओंके हाथमें देवगढ़ आया । कन्धगुन आदि खम्भों पर तो शिलालेख हैं ही परन्तु दो जैन मूर्तियों । इम वंशके कई राजाओंके शिलालेख देवगढ़में अब पर भी सं० १४८१ के लेख हैं जिनसे प्रतीत होता है नक पाए जाते हैं। गुणवंशके अनन्तर कन्नौजकं भाजकि उनकी प्रतिष्ठा मंडपपुरके शाह आलमके गज्यमें वंशी गजाओं ने इस प्रान्तका जीना। इसके पश्चानचंदेल एक जैनभक्तने कराई थी। इस व्यक्ति को मालवाके वंशी राजाओंके हाथमें देवगढ़ आया-इन्हींके दाद मांडके बादशाह सुलतान हुमैनका धोरी कहते हैं। धरमतदसिंहन यहां आकर विश्राम लिया था । मन पर्वतके दक्षिणकी और दो सीढियाँ है जिनका १२९४ ई० में आपका स्वर्गवास हुआ था-उम समय राजघाटी और नहरघाटी कहते हैं। बर्सात का पानी देवगढ़ एक विशाल तथा सुन्दर नगर था-इसका प्रकाश इन्हीं में चला जाता है । ये घाटियाँ चट्टानसे खोदी सूर्य देदीप्यमान था । इसी कुटम्बन दतिया का किला गई हैं जिन पर खुदाईकी कारीगरा पाई जाती है। बनवाया था । ललितपुरके आसपास इसवंशके अनेक राजघाटीके किनारे एक आठ लाईनोंका छोटामा शिलालेख अब तक पाए जाते हैं। इस वंशकी गज Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० धानी मोहबा थी। इस वंशके वंशज ललितपुरके निकट खजराहा ग्राम में अभी तक पाए जाते हैं। सन् १८११ में जब महाराजा सिंधिया की ओर से जो कर्नल वैपटिम्टी फिलोज देवगढ़ के ऊपर चढ़कर आए थे उन्होंने तीन दिन बराबर लड़ कर बाद को देवगढ़ पर कब्जा कर लिया था | चंदेरी के बदले में महाराज सिंधियाने देवगढ़ सरकार हिंदको दिया था तभी से सरकार हिंदु का क़ब्ज़ा इस ग्राम पर है । अनकान्त किले की दीवार चाहे चंदेल राजाओंने निर्मापित कराई हो या पूर्वकी बनी हों, हम यह ठीक नहीं कह सकते; परन्तु इसकी मोटाई १५ फुट है जो बिना सिमिंट और गारेके केवल पापाणकी बनी हुई है । इसमें गोला चलाने के लिए सुराख तथा गोलाबुर्ज हैं। हदबंदी की दीवाल नदी की ओर याता बनाई ही नहीं गई हैं या गिर गई हैं । परन्तु उसकी ऊँचाई २० फुट से कहीं भी अधिक नहीं है । सबसे बड़े अचम्भकी यह है कि किले के उत्तरी पश्चिमी कोनेमे एक पत्थर की दीवार २१ फुट मोटी है जो ६०० फुट दूर तक पहाड़ीके किनारे चली गई है। शायद यह दीवार दूसरे किले की हो जो नष्टप्रायः हो चुका है। वात वर्ष १, किरण २ आठसौ वर्षके पुराने हैं किन्तु इनके सही सलामत रहने का कारण यही है कि वे मात्र पत्थर के हैं इनमें चूने गारेका लेशमात्र भी अंश नहीं । देवगढ़के बड़े मंदिर सब खड़े हुए हैं जिनमें मरम्मत की सख्त जरूरत है । पहले इनमें किवाड़ोंकी जोड़ीनहीं थी जिसमे हिंसक जन्तु न कर देवालयों में निवास करते थे । परन्तु अब धर्मप्रेमी उदार हृदय श्रीमान् मेठ पदमचंदजी श्रागरा निवासी की कृपा से देवालयोंमें लोहे की जोड़ियाँ लग गई हैं, इससे हिंसक जन्तु श्रोंका डर बिलकुल ही मिट गया है। दो मंदिर दुमंजले भी हैं जिनमें पुरातन कारीगरीके विचित्र नमूने देखने को मिलते हैं। मंदिरोंके छज्जे नालीदार चद्दरके समान पापाणके बने हुए हैं। सब मंदिर क़रीब गिरे हुए मंदिरों में छोटोंका नम्बर अधिक है । इनके गिरनेका कारण या तो भूकम्प रहा हो या किसी धर्मद्रोही नरेशने इन पर अपनी शक्ति आजमाई हो । इनके गिर पड़ने से गणित मनोज्ञ मूर्तियोंकी दुरदशा हो रही है । वर्सातमें काई लगनेसे, घाससे आच्छादित हो जाने मूर्तियों के रंग रूपमें भी बहुत बड़ा अन्तर पड़ता जा रहा है। इसमें जरा भी संदेह नहीं कि यह स्थान एक समय बड़ा ही अतिशय क्षेत्र रहा है। अनुमान होता है कि किसी विधर्मी राजाके धर्मद्वेष के कारण ही इसकी यह दुर्दशा हुई है । इस क्षेत्रके इतिहास की पूरा खोज करनी और उसका तथा क्षेत्रका उद्धार करना भारी धर्म तथा पुण्यका काम है । अंतमें समाज के श्रीमानों तथा उदार हृदय लक्ष्मी पुत्रोंसे मविनय निवेदन है कि आप लोग इस पुरातन अतिशय क्षेत्र देवगढ़की ओर ध्यान दीजिये । यह स्थान कोई साधारण स्थान नहीं किन्तु इसमें लाखों पकी सम्पति लगी हुई है। इन जैनमंदिरोंके निर्मापित कराने वाले देवपत और खेवपत नामके दो धर्मात्मा भाई हो गए हैं जिनके पास सुना जाता है कि एक फटी कौड़ी भी नहीं थी, किन्तु धर्मके अद्वितीय प्रभाव के कारण उन्हें एक पारस पथरी प्राप्त होगई थी जिसके बल पर उन्होंने पर्वतराज देवगढ़ पर जैनमंदिर बनवाए। कालके आतंक से आज कल उनकी दशा खराब हो रही है। उसके सुधारनेकी बड़ी भारी आवश्यकता है। इसके लिए धर्मप्रेमी सज्जनोंको लक्ष्य देना चाहिए और एक बार इस क्षेत्रके दर्शन भी करलेना चाहिए, ऐसी मेरी सबसे अन्तिम विनय है । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवगढ़ पोष, वार नि०सं०२४५६] सम्पादकीय नोट- मूर्तियों के ऊपर गिरता है, बहुतसी मूर्तियों पर काई जम मैंने खद ८नवम्बर सन् १९२५को इस पवित्र क्षेत्र गई है, उनके कोई कोई अंग फट गये हैं अथवा विरूप देवगढ़के दर्शन किये हैं परन्तु दर्शन करके इतनी प्रसन्नता हो गये हैं और मंदिरमें हजारों चमगादड़ फिरन हैं नहीं हुई जितनी कि हृदयमें वेदना उत्पन्न हुई। प्रसन्नता जिनके मल-मूत्रकी दुर्गधकं मारे वहाँ खड़ा नहीं हुआ तो केवल इतनी ही थी कि मंदिरोंक साथ मूर्तियाँ बड़ी जाता, तो यह मब दृश्य देखते देखत हृदय भर पाता ही भव्य, मनोहर तथा दर्शनीय जान पड़ती थीं-ऐम था-धैर्य त्याग देता था-श्रांख से अश्रुधारा बहन खर पाषाणकी इतनी सुन्दर सुडौल और प्रसन्नवदन लगती थी, उसे बार बार रूमालसे पोंछना पड़ता था मृतियाँ अन्यत्र बहुत ही कम दग्वनमें आई थीं और और रह रह कर यह ग्वयाल उत्पन्न होता था कि क्या उन्हें देखकर अपने अतीत गोग्वका-अपने अभ्यदय जैनममाज जीवित है ? क्या जैनी जिन्दा हैं ? क्या ये का-तथा अपने शिल्पचातुर्यका म्मरण हो पाता था। मंदिर-मृतियाँ उसी जैन जाति की हैं जो भारतवर्ष में परन्तु मंदिर-मृतियोंकी वर्तमान दुर्दशाको देखकर हृदय एक धनाढथ जाति समझो जाती है ? अथवा जिसके टुक टुक हुआ जाता था-उनकी सुन्दरता जितनी हाथमें देशका एक चौथाई व्यापार बतलाया जाता है? अधिक थी उनकी दुर्दशा उतना ही ज्यादा कष्ट देती और क्या जैनियों में अपने पूर्वजोंका गौरव, अपने धर्म थी । जब मैं देखता था कि एक मंदिग्के पास दृमरा का प्रेम अथवा अपना कुछ स्वाभिमान अवशिष्ट है ? मंदिर धराशायी हुश्रा पड़ा है, उसकी एक मूर्तिकी भजा उत्तर 'हाँ' मैं कुछभी नहीं बनता था; और कभी कभी टूट गई है, दृमरीकी टाँग अलग हुई पड़ी है, तीसरीके नोएमा मालम होने लगता था मानों मूर्तियाँ कह मस्तकका ही पता नहीं है,सहीसलामत बची हुई मूर्ति- रही हैं कि, यदि तुम्हारे अंदर दया है और तुमम याँ भी कुछ अस्त व्यस्त रूपसे खुले मैदान में पड़ी हुई और कुछ नहीं हो सकता तो हमें किसी अजायबघग्म पशुओं आदिके आघात सह रही हैं, मंदिरका खम्भा ही पहुँचा दो, वहाँ हम बहुनाको नित्य दर्शन दिया कहीं तो शिखरका पत्थर कहीं पड़ा है, और उन खंडहरों करेंगी-उनके दर्शनकी चीज़ बनेंगी-बहुतमे गुणपर होकर जाना पड़ताहै;जो मंदिर अभीतक धराशाया ग्राहकोंकी प्रेमांजलि नथा भक्तिपुष्पांजलि ग्रहण किया नहीं हुए उनके आँगनोमें और उनकी छतों आदि पर करेंगी। और यदि यह भी कुछ नहीं हो सकेगा तो गजों लम्बे घास खड़े हैं, खेर-करोंदी आदिके वृक्ष भी कमस कम इम आपत्तिसं ना बच जायंगी-वहाँ छतोंतक पर खड़हुए अपनी निरंकुशता अथवा अपना सुरक्षित तो रहेंगी, वर्षाका पानी तो हमारं ऊपर नहीं एकाधिपत्य प्रकट कर रहे हैं, घासकी मोटी मोटी जड़ें टपका करंगा, चमगादड़ तो हमारे ऊपर मल-मूत्र इधर उधर फेल कर अपनी धृष्टताका परिचय दे रही नहीं करेंगे, पशु तो हमसं आकर नहीं खसा करेंगे और है, एक मंदिरसे दूसरं मंदिरको जानके लिय राम्ता कभी कोई जंगली आदमी तो हमारे मेसे किसीके ऊपर साफ नहीं, मंदिरोंके चारों तरफ जंगल ही जंगल हा खुरपे दाँती नहीं पनाएगा। उधर बड़े मंदिरके उम गया है बेहद घास तथा झाडझंखाड़ खड़े हैं मंदिरोंकी अनुपम तोरण द्वार पर जब दृष्टि पड़ती थी जो अपने प्रायः सारी छतें टपकती हैं, वर्षाका बहुतमा जल माथी मकानोंसे अलग होकर अकेला खड़ा हुआ है ना Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. अनेकान्त वर्ष १, किरण मानों ऐमा मालम होता था कि वह अब हमरत भरी श्रद्धालु जैनी नहीं रहे और दूसरे प्रान्तोंके जैनियोंमें निगाहोंसे देख रहा है और पुकार पुकार कर कह भी धर्मकी सच्ची लगन अथवा अपने देवके प्रति रहा है कि, मेरे साथी चले गये! मेरे पोषक चले गये!! मच्ची भक्ति नहीं पाई जाती ? यदि देवगढ़में और उसके मेरा कोई प्रेमी नहीं रहा !!! मैं कब तक और अकेला आस पास आज भी जैनियोंकी पहले जैसी बस्तीहोती खड़ा रहूँगा किमके आधार पर बड़ा रहूँगा? खड़ा और उनका प्रतापमर्य चमकता होता तो इन मंदिररहकर करूंगा भी क्या ? मैं भी अब धराशायी होना मूर्तियोंको कदापि ये दिन देखने न पड़ने । और इस चाहता हूँ !!! इम तरह इन करुण दृश्यों तथा अपम्ग- लिये जिन भोले भाईयोंका यह खयाल है कि अधिक नित पूजा-स्थानांको देख कर और अतीत गौरवका जैनियोंमे या जैनियोंकी संख्यावृद्धि करनेमे क्या लाभ? म्मरण करके हृदयमें बार बार दुःग्बकी लहरें उठती थोड़े ही जैनी काफ़ी हैं, उन्हें देवगढ़की इस घटनाम थीं-रांना आता था-और उम दुःश्वमे भरे हुए परा पग सबक सीखना चाहिये और स्वामी समन्तभद्र हृदयको लेकर ही मैं पर्वतमे नीचे उतरा था। के इम महत्वपूर्ण वाक्यको मदा ध्यानमें रखना समझमें नहीं आता जिनकी प्राचीन तथा उत्तम चाहिये कि 'नधर्मोधार्मिकैर्विना'-अर्थात, धार्मिकोंक देवमूर्तियोंकी यो अवज्ञा होरही हो वे नई नई मूर्तियोंका बिना धर्मकी सत्ता नहीं, वह स्थिर नहीं रह सकता, निर्माण क्या समझ कर कर रहे हैं और उसके द्वारा धार्मिक पुरुष ही उसके एक आधार होते हैं, और कौनसा पण्य उपार्जन करते हैं। क्या बिना जरूरतभी इसलिये धर्मकी स्थिति बनाये रखने अथवा उसकी इन नई नई मतियोंका निर्माण प्राचीन शास्त्र-विहित वृद्धि करने के लिये धार्मिक पुरुषोंके पैदा करनेकी और मूर्तियोकी बलि देकर-उनकी आरसे उपेक्षा धारण उनकी उत्तरोत्तर संख्या बढ़ानेकी वास ज़रूरत है। करके नहीं हो रहा है । यदि ऐमा नहीं तो पहले इन माथ ही, उन्हें यह भी याद रग्बना चाहिये कि जैनियों दुर्दशाग्रस्त मंदिर-मतियोंका उद्धार क्यों नहीं किया की संख्या वृद्धिका यदि कोई ममुचित प्रयत्न नहीं किया जाता ? जीर्णोद्धारका पुण्य ना ननन निर्माणसे अधिक गया तो जैनियोंके दूसरे मंदिर-मूर्तियोंकी भी निकट बतलाया गया है। फिर उसकी तरफसे इतनी उपेक्षा भविष्यमें वही दुर्दशा होनेवाली है जो देवगढ़के मंदिरक्यों ? क्या महज़ धर्मका ढौंग बनाने, रूढिका पालन मूर्तियोंकी हुई है और इसलिये उसके लिये उन्हें अभी करने या अपने आस पासकी जनतामें वाहवाही लूटने से सावधान हो जाना चाहिये और सर्वत्र जैन धर्मक के लिये ही यह मय कुछ किया जाता है ? अथवा प्रचारादि-द्वारा उनके रक्षक पैदा करने चाहियें । ऐसी ही अवज्ञा तथा दुर्दशाके लिये ही ये नई नई यदि दुर्दैवसे देवगढ़ जैनियोंसे शून्य हो भी गया मूर्तियाँ बनाई जाती हैं ? यदि यह सब कुछ नहीं है तो था नो भी यदि आसपासके जैनियोंकी-बुन्देलखण्डी फिर इतने कालसे देवगढ़की ये भव्य मूर्तियाँ क्यों विपद् भाइयोंकी-अथवादूमरेप्रान्तके श्रावकोंकी धर्ममें सच्ची प्रस्त हो रही हैं ? क्या इनकी विपद्का यह मुख्य प्रीति-सच्ची लगन-अपने देवके प्रति सच्ची भक्ति और कारण नहीं है कि देवगढ़में जैनियोंकी बस्ती नहीं रही, अपने कर्तव्यपालनकी सची रुचि बनी रहती और उसके पास पासके नगर-ग्रामोंमें अच्छे ममर्थ तथा उन्हें अपने घर पर ही नया मंदिर बनवा कर, नई Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवगढ़ वीर नि०सं० २४५६] १०३ मनियाँ स्थापित करा कर बड़े बड़े मेले प्रतिष्ठाएँ रचा भी उसकी अभी तक देखनमें नहीं आई ।इमके सिवाय कर तथा गजरथ चला कर सिंघई, सवाई सिंघई अथवा गवर्नमेण्टस लिग्वा पढ़ी करके इस क्षेत्रको पर्ण रूपमे श्रीमन्त जैसी पदवियाँ प्राप्त करनेकी लालसा नसताती अपनं हस्तगत करने के लिये जो कुछ सजनोंको योजना ता देवगढ़के मंदिर-मूर्तियों को अभीतक इस दुर्दशाका हुई थी उनकी भी कोई रिपोर्ट श्राज तक प्रकाशित नहीं भोग करना न पड़ता-उनका कभीका उद्धार हो गया हुई और न यही मानम पड़ा कि उन्होंने इस विषयमें होता । जैनियों का प्रतिवर्ष नये नये मंदिर मूर्तियोके नि- कुछ किया भी है या कि नहीं। तीर्थक्षेत्र कमेटीन भी र्माण तथा मेले प्रतिष्ठादिकोंमें लाखों रुपया खर्च हाता इम विषयमें या महत्वका भाग लिया है वह भी कुछ है। वे चाहत तो इस रकममे एकहीवर्षमें पर्वत तकको मालूम नहीं हामका । हाँ, ब्रह्म वारा शीतलप्रमादजीकी खरीद मकत थे-जीर्णोद्धारकी तो बात ही क्या है ? कुछ टिप्पणियोंस इतना अाभास ज़रूर मिलना रहा है परंतु मैं देख रहा हूँ जैनियोका अपने इम कर्तव्यकी कि अभी तक इस दिशामें कोई खाम उल्लेखनीय कार्य और बहुत ही कम ध्यान है । जिस क्षेत्र पर २०० के नहीं हुआ है ! अम्तु; ऐमी मंदगति, लापर्वाही और करीव शिलालेख पाये गये हों, १५७ जिनमस एतिहा- अव्यवस्थित पसे कार्य होने की हालतमें इम क्षेत्रके मिक महत्व रखते हों और उनमें जैनियोंके इतिहासकी शीघ्र उद्धारकी क्या आशा की जा सकती है और उस प्रचुर मामग्री भरी हुई हो उस क्षेत्रके विषयमें जेनि- उद्धारकार्यमें महायता देनकी भी किसीको क्या विशेष यांका यह उपेक्षा भाव, निःमन्देह बहुत ही खेदजनक प्रेरणा हो सकती है। है। मान वर्पमे कुछ ऊपर हुए जब भाई विश्वम्भरदा- अतः ममाजका इम विपरमें यह खाम कर्तव्य है मजी गार्गीयन 'देवगढक जैनमंदिर' नामकी एक पस्तक कि वह अब पार अधिक समय तक इस मामले को प्रकाशित करके इस विपयके आन्दोलनको खास तौर खटाईमें न डाले रक्खे, उसे पूर्ण उद्योग माथ गहरा में जन्म दिया था। उस वक्तसं कभी कभी एकाध लेख आन्दोलन करके और अच्छे उत्साही तथा कार्यकुशल जैनमित्रादिकमें प्रकाशित होजाता है और उसमें प्रायः योग्य पुरुपोंकी योजना-द्वारा व्यवस्थित रूपसे काम वे ही वानें आगे पीछे अथवा मंक्षिप्र करके दी हई कर शीघ्र ही इस क्षेत्रकं उद्धार-कार्यका पुग करना होती हैं जो उक्त पुस्तकमें संग्रहीत हैं। सिंघई नाथूग- चाहिये । ऐमा न हो कही विलम्बमं दूसरं मंदिर भी मजी के इस लेखका भी वही हाल है। और इमम धराशायी हो जॉय और फिर खाली पछतावा ही यह जाना जाता है कि देवगढ़ तीर्थोद्धार-फंडनं पछतावा अवशिष्ट रह जाय । बन्दलखण्डके भाइयोंकी ग्राममें एक धर्मशाला बनवाने तथा मंदिगेंमें जाड़ियां इस विषयमें ग्वाम जिम्मेवारी है, और इस क्षेत्रका चढवानके अतिरिक्त अभी तक इम विषयमें और अभी तक उद्धार न होने का खास कलंक भी उन्हीके कोई वाम प्रगति नहीं की वह मंदिर मूर्तियोंके इनि- मिर है। व यदि कुछ समयकं लिये नये नये मंदिराके हासादि-मम्बन्धमें भी कोई विशेष खाज नहीं कर निर्माण और मल प्रतिष्ठाको बन्द रग्बकर इस ओर सका और न उन सब शिलालेखोंकी कापी प्राप्त करके अपनी शक्ति लगावें ता इस क्षेत्रका उद्धार हानेमें उनका पूरा परिचय ही समाजको करा सका है जो कुछभी देर न लगे । तीर्थक्षेत्र कमीको भीम विपयमें गवर्नमण्टको इम क्षेत्र पर में उपलब्ध हुए हैं और मविशेष रूपस ध्यान देना चाहिये और यह प्रकट जिनमेंमे १५७ का संक्षिप्त परिचय भी सरकारी रिपोर्ट में कर चाहिये कि अभी तक इस दिशामें क्या कुछ कारदिया हुआ बतलाया जाता है । कोई खाम रिपोर्ट वाई हुई है। उद्धारकार्यके वर्तमान संचालक यदि शिला - यह रिपोर्ट अभी तक मेरे देखने में नही पाई और न भेजने लेखांकी पुरी कापी, रिपाट और कुछ महत्वके चित्रोंको की प्रेरणा करने पर भी शिलालग्यांकी कापीही उद्धारकार्यक भिजवानेका कष्ट उठाएँगे तो 'अनेकान्त' द्वारा उन पर मचालकोंकी भोरम प्राश्रमको प्राप्त हो सकी है। विशेष प्रकाश डालनेकाभरमक यत्न किया जायगा। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनकान्त [वर्ष ५, किरण ५ REEEKKERMEREKKERMEREKA तौलवदेशीय प्राचीन जैनमंदिर । लक-श्री०पं० लोकनाथजी शास्त्री मूबिद्री क्षिण कर्नाटकमें जैनधर्मकी प्राचीनता और जैन- बंगर, (३) अलदंगडी के अजिलर, (५) मूल्कीके १ मंदिगेका विपय इतिहास-प्रेमियोंके लिये जितना मेवंतर इयादि। अत्यावश्यक है उतना ही वह गहन तथा रहस्यपूर्ण भी इस दक्षिण तोलवदेशके उक्त प्रसिद्ध राजाओंने है, इसे इतिहास-खोजियोंको सदा ध्यानमें रखना यहाँ पर बहुतमे जैनमंदिर बनवाये हैं। प्राचीन और चाहिये। इस देशमें घरकी आम बोचचालकी भाषा । अर्वाचीन मब मिला कर मंदिरोंकी संख्या यहाँ १८० तुलु होनेके कारण इसको 'तुलुदेश' या 'तौलवदेश' पाई जाती है और उसकी तफ़सील यह है कि मूडकहते हैं और व्यावाहारिक भाषा कन्नड होनेसे इसका विदीमें १८, कार्कलमें १८, वेणरने ८, मूल्की होसंग'कर्नाटक' देश भी कहा जाता है। डीमें ८, संगीतपुर ( हाडुवल्ली ) ९. गेरोप्पे में ४, यह कर्नाटक देश किसी समय कांचीके राज्यमें दक्षिणकनाडा के अन्य अन्य प्रांतोंमें मब मिल कर शामिल था, जिसकी पुरानी राजधानी बीजापुर जिले १०४ और अभी नये बने हुए मंदिर ११, इस प्रकार के अन्तर्गत बादामपुर (बादामी) थी। उसके पश्चात इम देशमें कुल १८० जैन मंदिर थे । इनमें से (१) उत्तर कनाडामें स्थित बनवामी के प्राचीन कदंब नेरबंडिहोले, (२) मोगर, (३) देशील (४) शीराडि राजाओंने इम पर राज्य किया। और छठी शताब्दीके (५) येणुगल्ल (६) कन्नर पाडी (७) पंज (८) चेकंगडि करीब यह देश पूर्वीय चालुक्योंके अधिकारमें चला (९) बंडाडि (१०) कोंबार (११) नंदावर (१२) उञ्चिल गया । इस देशके राजा-महाराजाओंका धर्म जैनधर्म (१३) उल्लाल और (१४) मूल्की होमंगडी के ५ मंदिर था और इम धर्मका प्रभाव उम समय तक अक्षुण्ण ऐमे १८ मंदिर तो पूर्ण रूपसे नाशको प्राप्त हो गये हैं नथा अप्रतिहत बना रहा जब तक कि विष्णुवर्धन, और बाक़ी में से कितने ही जीर्ण शीर्ण अवस्थाको होयसाल, बल्लाल, जैनधर्मको त्याग कर वैष्णवधर्मी प्राप्त होरहे हैं । इन सब मंदिरोंको देखने तथा पुरातत्वनहीं बने थे। उनके वैष्णवधर्मी बनते ही स्थानीय जैन विषयक ग्वाज करनेसे इस बातका काकी पता लगता राजा-भैरसूड बायर स्वतंत्र होगये और उन्होंने ऐसा है कि यहाँ पर पहले जैनमतका कितना अधिक महत्व शासन जमाया कि जो अन्य मतियोंको विरुद्ध पड़ने तथा प्रभाव व्याप्त था और यहाँके जैनी कितने ज्यादा लगा। उनके प्राधीन चौटर, बंगर, अजिलर वगैरह श्रीमान थे। अस्तु; मेरी इच्छा है कि मैं 'अनेकान्त' के बहुतसे प्रसिद्धर राजा थे । वे जैन राजा अभी भी इस प्रेमी पाठकोंको इन मंदिरोंका कुछ ऐतिहासिक परिचय भांति प्रसिद्ध हैं, (१) मूडबिद्रीमें चौटर, (२) नंदावरके दूं। और इस लिये आज उनके सामने सबसे पहले Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौष, वीर नि०सं०२४५६) तौ० दे० प्राचीन जैनमन्दिर १०५ मूडबिद्रीके जैनमंदिरोंका संक्षिप्त इतिहासमात्र रक्खा -पुनःपुनः दर्शन करनेकी ।उत्कंठा बनी ही रहती है। जाता है । मूडबिद्री अतिशय क्षेत्रोंमें प्रसिद्ध है। और इस मंदिरमें शिलालेख भी है, जिस पर शकवर्ष ६३६ यहांके दर्शनार्थ हर साल प्रायः सभी देशोंके यात्रीगण में इस मंदिरको स्थानीय जैनपंचोंने बनवाया इस आया करते हैं, इससे यहाँ के मंदिरोंके इतिहासको बातका उल्लेख है । इसी गुरुबस्तिके बाहरके 'गद्दिगे' प्रकट करना और भी ज्यादा जरूरी है । और इसलिये मंडपको एक चोलसेट्ठीनामक स्थानीय श्रेष्ठीने बनवाया उसीका सबसे पहले यत्न किया जाता है। बादको था जिसका समय उसमें शक संवत् १५३७ ( सन् दृसरे मंदिरोंका भी क्रमशः परिचय दिया जायगा:- १६१५) दिया है । इस मंदिरकी लागत ६ करोडकी गिनी जाती है। वह इन रलप्रतिमाओंको मिलाकर ही मुडबिद्रीके १८ मंदिर होगी । इम मंदिरकी दूसरी मंजिल पर एक वेदी है, मडबिद्री मंगलौर-शहरमे २२ मील है। यह उसमें भी कई अनर्घ्य प्रतिमाएँ विराजमान है । इसके प्राचीन जैन राजा चौटर वंशकी प्रसिद्ध नगरी थी। सिवाय, इस मंदिरके बीचमें भगत द्रव्यनिधि भी इस समय भी चौटर वंशके घराने वाले यहाँ पर करोडों रुपये की है, ऐसा कहते हैं। इसका कई वर्ष मौजूद हैं । उनको सरकारसे पेन्शन भी मिलती है। पहले श्रवणबेलुगुलके गुरुमहाराज भट्टारकजीने यहाँ पर बड़े भारी १८ मंदिर हैं । इस देशमें मंदिरको जीर्णोद्धार कराया था, इसीमे इमको : गुरुबस्ति' नाम 'बस्ति' कहते हैं । अतः 'बस्ति' शब्दम मंदिर ममझ मे पुकारन हैं । लेना चाहिये । इन मंदिरोंमें 'गुरुबस्ति' नामका मंदिर (२) हासबस्ति-इसका 'त्रिलोकचूडामणिबसदि' बहुत प्राचीन तथा करीब १००० वर्ष पहलेका है । इम तथा 'चन्द्रनाथमंदिर' भी कहते हैं । यह मंदिर भी में श्रीपार्श्वनाथ स्वामीकी कृष्ण पाषाणकी कायोत्सर्ग- करीब ६०० वर्षका पुराना है । भारतभरमें इसके मुकारूप प्रतिमा बहुत ही मनोज्ञ है । इसी मंदिरमें धवल, बलका जैनमंदिर नहीं ऐसा कहनेमें अत्युक्ति नहीं जयधवल, महाधवल नामके तीनों ग्रंथराज विराजमान होगी । इम मंदिरके भीतर बहुन बढ़िया खुदाई का हैं और साथ ही बहुत प्राचीन अनर्घ्य रलप्रतिमायें भी काम शिला पर है। यह मंदिर तीन खनका (तिमंजला) विराजमान हैं इसीसे इसको सिद्धान्त मंदिर' भी कहन है। इसमें १००० शिलामय म्तंभ हैं । इसलिये इमका हैं । इस मन्दिरमें कुल रत्नप्रतिमायें ३३ हैं। इनमें में 'माविर कंमद बमदी' भी कहते हैं । भैरादेवी नामक चाँदी, सुवर्ण, पन्ना, स्फटिकरत्न, नीलम, गरुडमणि, एक रानीनं एक मंडप बनवाया है, उसको 'भैरादेवीगोमेधिकरत्न, बैडूर्यमणि, माणिक्यरत्न, मोती, हीग, मंडप' के नामसे पुकारते हैं। उसके भीतरके खंभीमें मूंगा, पुष्पराग वगैरह रत्नोपरत्नोंकी प्रतिमाएँ तो ३२ बहुत ही चित्र-विचित्र बढिया काम किया हुआ है। हैं और बाकी एक प्रतिमा ताड़पत्रकी जड़की बनी हुई इस मंदिर मूर्तिभत विभवको देखनके लिये हजागे है, यों कुल ३३ हैं । ये प्रतिमाएँ आधा इंचसे लेकर ५ अन्यमती लोग भी हमेशा आया करते हैं। इसमें इंच तककी ऊँचाई की हैं और चतुर्थ कालकी कहलाती 'भैरादेवी-मंडप', 'चित्रादेवी-मंडप' 'नमस्कार-मंडप' हैं । इनका दर्शन करनेसे पानंदका पारावार नहीं रहता इत्यादि ६ खंड हैं। उक्त वंडोंके अन्न पर बहुत ही Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ वर्ष १, किरण २ अनेकान्त 'मानस्तंभ' है जो कि मानो अनेक प्राचीन शिल्पकलाओंको साक्षात् मूर्त्ति ही जान पड़ता है । इस मंदिरको शक सं० १३५२ (सन् १४२८ ) में यहांके भव्य श्रावकोंने बनवाया है, ऐसा शिला लेख है । मूडबिद्री में ये दोनों मंदिर बहुत प्राचीन तथा महत्वके । इनके अलावा और भी सोलह मंदिर हैं, जो कि ३००, ४००, वर्षके अर्वाचीन हैं, ऐसा शिलालेख से पाया जाता है । यहाँ के इन दो मंदिरोंके चित्र भी यथावसर 'अनेकान्त' के प्रेमियोंके सामने रखने का मेरा विचार है । १०६ मनोज्ञ पंच धातुमय श्रीभगवान् चन्द्रप्रभकी खड्गासन विशाल भव्य प्रतिमा विराजमान है । इस मंदिर की तीसरी मंजिल पर एक वेदी है, जिसमें स्फटिककी छोटी बड़ी बहुत मनोज्ञ प्रतिमायें ४० हैं और इसकी दूसरी मंजिल पर अनेक प्रतिमाएँ तथा सहस्रकूट चैत्यालय भी अत्यंत चित्ताकर्षक है। यह मंदिर बहुत विशाल है । इसका बाह्य प्राकार (कोट) अत्युन्नत तथा शिलामय है जो, इस मंदिरकी प्रदक्षिणारूपमें एक मीका हो जाता है । इतना विशाल तथा अनर्घ्य जैन - मंदिर अन्यत्र कहीं भी नहीं है। इस मंदिरमें प्रवेश करते ही बहुत ऊँचा मान मदको स्तंभन करने वाला * बुरी भावना जाना नहीं अच्छा कभी जैनियोंके मंदिर में, किसी भान्ति अच्छी नहीं कृष्णकी उपासना । शम्भुका स्मरण किये होना जाना क्या है कहो, राम नाम लेनेसे क्या सिद्ध होगी कामना || बरे हैं मुसलमान, हिन्दू बड़े काफ़िर हैं, ऐसी हो परस्पर में बुरी जहाँ भावना । प्रेम हो न श्रपस का, एका फिर कैसे हो, क्यों न भोगे हिन्द माता नई नई यातना || - गिरिधर शर्मा क्रमशः Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौष, वीर नि०सं०२४५६ ] सुभाषितमणियाँ सुभाषित मणियाँ प्राकृत चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जोसो समोत्ति खिद्दिट्ठो मोहक्खोहविडीयो परिणामो अपणो हु समो || - कुन्दकुन्दाचार्य | ‘जो सम्यक्चारित्र है— दर्शनज्ञानपूर्वक स्वरूपाचरण है - वही (वस्तु स्वभाव होने से ) धर्म है, जो धर्म है उसी को साम्यभाव कहते हैं और जो साम्यभाव है. वह और कुछ नहीं, मोह क्षोभमे विहीन - श्रथवा राग द्वेष काम क्रोधादिकसे रहित - अपने आत्माका afare परिणमन है । (इसे यह स्पष्ट जाना जाता है कि वास्तव में ऐसे समताभाव का नाम ही धर्म और चारित्र है। जहाँ यह नहीं वहाँ महज़ उठने बैठने आदि रूपसे कुछ क्रियाकांड कर लेने पर ही धर्म तथा चारित्र नहीं बन सकता । ) "आसाम्बरो य सेयम्बरो य बुद्धीव अव अण्णो वा समभावभाविप्पा पावइ मोक्खं रण संदेहो || " ‘दिगम्बर हो, श्वेताम्बर हो, बौद्ध हो, अथवा दूसरे ही किसी सम्प्रदायका व्यक्ति हो, यदि वह साम्यभाव से भावितात्मा है तांनिःसन्देह मोक्षको प्राप्त होता हैअपने साम्यभाव की मात्रानुसार बन्धनमे छूटना अथवा उससे निर्मुक्त रहता है ।' जो विजादि विया तरुणियणकडक्खवाण विद्रावि सो चैव सूरसूरो रणसूरो णां हवइ सूरो ।। -स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा । 'तरुणी स्त्रियोंके कटाक्षचाणोंसे बांधा जाने पर १०७ भी जो विकार भावको प्राप्त नहीं होता वही शूरवीर है, शुरको — संग्राम में वीरता दिखलाने वाले को( वास्तव में ) शूरवीर नहीं कहते ।' लच्छि वंछेइ एरो व सुधम्मेसु श्रयरं कुलई । are विणा कुत्थवि किं दीसदि सस्सरिणप्पत्ती ॥ स्वामिकार्तिकेय | 'मनुष्य लक्ष्मी तो चाहता है परंतु (उसके कारण ) सुधर्मों के सत्कर्मों के — अनुष्ठान में सादर प्रवृत्त नहीं होता । ( इससे उसे यदि लक्ष्मी न मिले तो ठीक ही है । ) क्या बिना बीजके भी कहीं धान्यकी उत्पत्ति होती देखी गई है ?" यको विदेदि लच्छीको विजीवस्सकुरणदिउवयारं उत्रयारं अत्रयारं क्रम्मं वि सुहासुडं कुणदि । स्वामिकार्तिकेय | ( वास्तव में ) कोई (व्यन्तरादिकदेव ) लक्ष्मी नहीं देता और न कोई जीवका उपकार ही करता है, उपकार और अपकार यह सब अपना ही शुभाशुभ कर्म करता है - अपने ही अच्छे बुरे कर्मोंका नतीजा है । ( इसमे अपना भला चाहने वालोंको दूसरोंकी भाशा पर ही निर्भर न रह कर शुभ कर्ममें प्रवत्ति करनी चाहिये । ) गए रंगिए हियवडर, देउ एग दीसह संतु । दप्पणि मलइ बिंबु जिम, एहउ जाणि भिंतु ॥ — योगीन्द्र देव | जिस प्रकार मैले दर्पण में मुख दिखलाई नहीं देता उसी प्रकार राग भावसे रंगे हुए हृदयमें वीतराग शांत देवका दर्शन नहीं होता, यह सुनिश्चित है। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ अनेकान्त [वर्ष १, किरण २ संस्कृत कर उसे बढ़ा देता है वही एक दीपकके रूपमें प्रस्तुत गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोही नैत्र मोहवान । हुई अग्निके नाशका कारण बन जाता है-उसे अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोहो मोहिनो मुनेः ।। , बुझा देता है। सो ठीक है, दुर्बलके माथ किसकी -स्वामी समन्तभद्र। मित्रता होती है ?' 'जो गृहस्थ मोहसे-मिथ्यादर्शनसे-रहित एवं येनांचलेन सरसीरुहलोचनायासम्यग्दृष्टि (अनेकान्तदृष्टि) है वह मोक्षमार्गी है, परंतु स्वातः प्रभूतपवनादुदये प्रदीपः । वह गृहत्यागी मोक्षमार्गी नहीं जो मोहसे युक्त एवं तेनैव सोऽस्तसमयेऽस्तमयं विनीतः मिध्यादृष्टि (एकान्तदृष्टि) है । और इसलिये मोही क्रद्धे विधौ भजति मित्रममित्रभावम् ।। मुनिसे निर्मोही गृहस्थ श्रेष्ठ है।' 'उदयके समय एक.स्त्रीके जिस अंचलने दीपक"पात्रे त्यागी गुणे रागी भोगी परिजनैः सह। की प्रचुर पवनसे रक्षा की थी अस्तके समय उसी शास्त्रे बोद्धा रणे योद्धा पुरुषः पंचलक्षणः॥" अंचलने उसे यमपुर पहुंचा दिया-बुझा दिया । सो __ 'जो पात्रके प्रति त्यागी, गुणके प्रति रागी, परि- ठीक ही है, जब विधि क्रुद्ध होता है भाग्य उलटता जनोंके साथ भोगी, शास्त्र के जानने वाला और रणके है-तब मित्र भी शत्रु बन जाते हैं।' उपस्थित होने पर युद्ध करने वाला है वही पुरुष है- दुःखी दुःखाधिकान्पश्येत्सुखीपश्येत्सुखाधिकान्। मर्द है और इस तरह पुरुषके पाँच लक्षण बतलाये आत्मानं हर्ष शोकाभ्याँ शत्रुभ्यामिव नार्पयेत् ।। गये हैं।' 'दुखी मनुष्यको चाहिये कि वह अपनसे अधिक "परोपि हितवान्वन्धर्वन्धरप्यहितः परः। दखियांको देखे और शोक न करे, और सुखी मनुष्य अहितो देहजो व्याधिःहितमारण्यमौषधम् ॥" को चाहिये कि वह अपनेसे अधिक सुखियोंको देखे 'पर भी और शख्स भी-यदि अपना हित करने और हर्ष न मनाए । कारण, हर्ष और शोक ये दोनों वाला है तो वह बन्धु है-अपनाने योग्य है-, और। - ही शत्रु हैं-अपना अनिष्ट करने वाले हैं-इनके सुपर्द और कभी अपने आत्माको नहीं करना चाहिये ।' अपना मगा भाई भी यदि अहितकर है तो वह पर जीवन्तु मे शत्रुगणाः सदैव है-त्यागने योग्य है । और यह ठीक ही है, अपने येषां प्रसादेन विचक्षणोऽहम् । ही शरीरसे उत्पन्न हुई व्याधि अहितकर होनेसे ही यदा यदा मां भजते प्रमादत्याज्य है-उसे कोई अपनाता नहीं-और अपनेसे स्तदा तदा ते प्रतिबोधयन्ति । भिन्न जंगलमें उत्पन्न हुई ओषधि हितकारी होनेसे ही ___'मेरे शत्रुगण सदा जीवित रहें, जिनके प्रसादसे मैं प्राय बनी हुई है-उसे सब अपनाते हैं। विचक्षण हुआ हूँ। कारण ? जब जब मुझसे प्रमाद (इसमें अपने और पराएकी अच्छी पहचान बतलाई गई है) बनता है तब तब वे (अपने आक्षेपादि प्रहारों द्वारा) "वनानि दहतो वन्हः सखा भवति मारुतः। मुझे सावधान कर देते है-इससे प्रमाद मुझे अधिक '..., सताने नहीं पाता और मैं उत्तरोत्तर सतर्क तथा सावस एव दीपनाशाय कृशं कस्यास्ति सोहदम् ।।" , नाशाय श कस्यास्ति साइदम् ।।" धान बनता जाता हूँ, और इसी लिये वे एक प्रकारसे 'जो पवन वनोंको जलाती हुई अग्निका मित्र बन मेरे उपकारी हैं। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौष, वीर नि०सं० २४५६] सुभाषित मणियाँ १०९ हिन्दीप्रथमतो 'पठनं कठिनं'प्रभो,सुलभपाठक-पुस्तक जोनहो। हृदय चिन्तित देह सरोगहो,पठन क्योंकर होतुमही कहो? x -'युगवीर' "नयनन देख जगत को, नयना देखे नाहिं। ताहि देख जो देखता नयन-झरोखे माहिं ।। "नीर बुझावै अगनिको, जलै टोकनी-माहिं । देह-माहिं चेतन दुखी, निज गुण पावै नाहिं ।। X X X "गिरितें गिर परिवो भलो, भला पकरिवो नाग ।। अग्नि-माहिं जरवो भलो, बुरो शील को त्याग ॥" x उर्दू होगी न कद्र जान की कुर्बा' किए बगैर । दाम उठेंगे न जिन्सके अर्जान किए बगैर ।। x x -हाली' तनपरस्ती पैजोहोसर्फ वह दौलत क्या है ? रौरको जिमसे न राहत हो वह राहतक्याहै ? x x -'चकबस्त' आग़ोशेलहद में जब कि सोना होगा। जुज खाक न तकिया न बिछोना होगा ।। x x -'सरशार' दो दिन सराप फ्रानी में अपना मुक्काम है। है सुबह गर यहाँ तो वहाँ अपनी शाम है। x -'दास' होता नहीं है कोई बुरे वक्त का शरीक । पत्ते भी भागते हैं जिजों में शजर से दूर ।। जानल१० पुरसमर ११हैं उठात वा सर नहीं । मरकश हैं वोदरख्त कि जिनपैसमर नहीं ॥ X ग़ाफ़िल तुझे घड़ियाल यह देता है मुनादी । खालिक ने घड़ी उम्र में एक और घटादी ।। x x परनारी पैनी छुरी, मत कोइ लावो अंग। रावण के दस सिर गये परनारी के मंग। x x -कवीर तु नित चाहत भोग नए नर पूरब पुन्य बिना किम है; कर्म सँजोग मिले कहुँ जोग गहै तब रोग न भांग सके है। जो दिन चारकोबौंत बनों कहुँ तो परि दुर्गतिमें पछतैहै; याही तैयार सलाह यही है गई कर जाहु निवाहन है है।। x x -भूधरदास जीवनकी औं' धन की आशा जिनके सदा लगी रहती । विधि का विधान सारा उन ही के अर्थ होता है ।। विधिक्या कर सकता है ? उनका जिनकी निराशता आशा। भय-काम-वश न होकर, जगमें स्वाधीन रहते जो ॥ x x . -'युगवीर' "बड़ो भयो तो क्या भया, ज्यों बन बढी खजूर । दल थोड़ा गुठली घनी, छाँह तुच्छ फल दूर ॥" xxx "तीन सतावें निबल को राजा पातिक रोग।" सियाहबख्ती१३में कब कोई किसीका साथ देता है। किनारीकीमें ४ मायाभी जदा होता है उन्माँसे।। कौन होता है बरं वक्त की हालत का शरीक । मरते दम ऑम्वको देखा है कि फिर जाती है ।। १ बलि. २ सस्ती. शरीरकी उपासनामें-दैहिक भोगों पर. ४ खर्च. ५ मुख चैन. ६ कवकी गांद. ७ सिवाय. ८ पतझकी मौसम. ६ वृक्ष. १. वृन. ११ फोम परिप. १. विधिविधाता. १३ माश्यान्धकार-दर्भार. १८ अन्धे में. Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० अनेकान्त [वर्ष १, किरण २ जैनधर्मका प्रसार कैसे होगा? ले-श्रीयुत पं० नाथरामजी प्रेमी । ७ VM PERSIDDEAS न्यान्य धर्मों की उन्नति और कह सकते हैं कि हम जैन धर्मको राष्ट्रधर्म बना डालेंगे? विम्तति होते देखकर कुछ समय इसीतरह और भी इस मार्ग में जो जो रुकावटें हैं समझ सब से जैनसम्प्रदायमें भी इम लीजिए कि वे सब दूर होगई हैं और कार्य भी प्रारंभ SOMKERS विषय का आन्दोलन होने लगा कर दिया गया है, तो क्या हम अपने उक्त अभीष्टको ना है कि जैन धर्म की उन्नति की पालेंगे ? मेरे खयालम यह काम कहने में जितना सहज जाय और उसका विस्तार देश- मालूम होता है और व्याख्यान देते समय अथवा लेख विदेशों में मर्वत्र किया जाय । यद्यपि जैन धर्म के लिखते समय इसके लिए जितनी सुलभतासे युक्तियाँ दुर्भाग्य से अभी उसके बहुत से अनुयायी ऐसे भी हैं मिल सकती हैं उतना सहज और सुलभ नहीं है । जो अपने पवित्र धर्म को अपवित्र मानहाए देशों में अभी तक जनसमाजमें वह योग्यता ही नहीं आई है लेजाना या हीन जातियों में फैलाना अनचित और और न उसके लानका अभी तक कोई उपाय ही किया पातक का काम ममझते हैं, तोभी यदि थोड़ी देरके लिए गया है कि जिससे इस महत्कायके सम्पादन होनेकी कल्पना कर ली जाय कि इस विषय का कोई भी आशा की जासके । विरोधी नहीं रहा और प्रगति के क्रमानुसार थोड़े समय किसीभी धर्मके प्रसारके लिए यह आवश्यक है में ऐसा होगा ही; तो क्या हमें यह आशा कर लेनो कि सर्वसाधारणको उसकी विशेषता बतलाई जायचाहिए कि हमारी उक्त इच्छा सफल हो जायगी? यह समझाया जाय कि उसमें वे कौन कौनसी बातें हैं हमारे धर्म का सर्वत्र प्रचार होने लगेगा ? हम अक्सर जो दूसरे धर्मों में नहीं हैं। इसके सिवाय, उसमें वे शिकायत किया करते हैं कि इस समय ऐसे कामों में कौन कौनसे तत्त्व हैं जो वर्तमान देशकालके अनुसार हमारे रथ-प्रतिष्ठाप्रेमी धनिक धन नहीं देना चाहते हैं मनुष्योंकी सामाजिक, राजनैतिक और नैतिक उन्नति और धन के बिना ऐसे महत्व के काम हो नहीं सकते करनेमें मब प्रकारसे सहायक हैं तथा आधुनिक वैज्ञाहैं; परन्तु कल्पना कर लीजिए कि हमारे सारे लक्ष्मी- निक सत्योंके सामने भी जो असत्य या भ्रमात्मक सिद्ध पुत्रोंको भी सुबुद्धि प्राप्त होगई है और वे इसके लिए नहीं हो सके हैं यह सिद्ध करके दिखलाया जाय कि अपनी थैलियों के मुँह खोले हुए बैठे हैं, तो क्या आप उममें शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक उन्नतिका Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर नि०सं० २४५६] जैनधर्मका प्रसार कैसे होगा ? १११ मार्ग सबसे अधिक प्रशस्त है और उसके उदार छत्रके इस कार्य के लिए चाहिये वैसे इन तीनों ही मार्गों से नीचे प्राणिमात्रको आश्रय मिल सकता है । जब तक नहीं बन सकते हैं। क्योंकि एक तो किसी भाषाका इसतरह सब ओरोंसे किसी धर्मकी खबियाँ न दिखलाई जान लेना या किसी ग्रंथका पढ़ लेना विद्वान बन जाना जायँगी तब तक कोई भी धर्म चाहेउसे उसके अनुयायी नहीं है। यदि संस्कृतके जान लेनेसे ही कोई पंडित सीधा स्वर्ग या मोक्षमें भेजनेका विमान ही क्यों न कहलाता हो तो जिस जमानेमें संस्कृत बोलचालकी समझते हों और उसके आसपासकी सारी दुनिया भाषा रही होगी उस ज़मानेके पढ़े लिखे और अपढ़ बिलकुल ही पक्षपातरहित क्यों न हो गई हो–यहाँ तक सब ही लोगोंका पंडित मानना पड़ेगा। इसी प्रकारम कि अपने अपने कुल-धर्मोंको छोड़नके लिये तैयार ही यदि अँगरेजीमें बातचीत करने लगना पंडिताई का बैठी हो-दूसरोंको अपना अनुयायी न बना सकेगा। लक्षण मान लिया जाय तो फिर साहब लांगोंके ग्वान___ हम देखते हैं कि वर्तमान जैन समाजमें इतनी सामा और साईस भी विद्वान समझे जायेंगे। परन्तु योग्यता नहीं कि वह अपने धर्मकी विशेषता या उसकी वास्तवमें ऐसा नहीं है । विद्वत्ता किसी भाषाका बोलना सार्वभौमताको उक्त प्रकारसे सिद्ध करके दिखला सके। या समझना आजानेसे नहीं, किन्तु उसके द्वारा उस उसमें अभी ऐसे विद्वान उत्पन्न ही नहीं हुए और भाषाके विद्वानोंके विचारोंको हृदयस्थ कर लेनेसे उसकी सन्तानको जिस ढंगसे या जिस पद्धतिसे शिक्षा आती है। भाषा ज्ञान नहीं किन्तु ज्ञानका एक साधन दी जाती है उसका विचार करनेसे यह प्राशा भी नहीं है। दूसरे, पुस्तकें पढ़ लनस या उन्हें रटकर परीक्षामें है कि जल्दी ऐसे सुयोग्य विद्वान तैयार हो जायेंगे जो पास हो जान ही कोई विद्वान नहीं हाजाना ।क्योंकि जैनधर्मका प्रतिपादन इस ढंगमे करसकें कि उस पर भाषा समान ग्रन्थभी ज्ञानक माधन ही हैं स्वयं ज्ञान दूसरे लोग मोहित हो जावें और उसका आश्रय लेनेक · नहीं; ज्ञान कुछ और ही वस्त है। वह केवल अध्ययन लिए व्याकुल हो उठे। सही नहीं किन्तु मनन, अनुभव और पर्यवेक्षणम प्राप्त ___ पुराने ख़यालकं लोग नो यह समझते हैं कि होता है। यही कारण है जो मंमारकं प्रसिद्ध प्रसिद्ध संस्कृत भाषाके द्वारा जैनधर्मके उच्च श्रेणीक दर्शन, तत्त्ववेत्ता और महात्मा पुस्तकें पढ़कर नहीं किन्तु न्याय, व्याकरणादि ग्रन्थोंमें योग्यता प्राप्त करने वाले पदार्थाके म्वरूपका निरीक्षण, मनन और अनुभव विद्वान ही जैनधर्मके प्रचारका काम सफलतापूर्वक कर करके हुए हैं; और यही कारण है जो संस्कृत और सकेंगे और नये खयालवाले ममझते हैं कि उच्च श्रेणी- अँगरेजीकी सैकड़ों पुस्तकें घांटकर पीजाने पर भी आज की अंग्रेजी शिक्षा पाये हुए लोगों ही से इस प्रकारकी मैकड़ों पंडिन और प्रेज्युएट ऐम दिग्वलाई पड़ते हैं, आशा की जा सकती है। रहे इन दोनोंके बीचके मध्यम जिनका बुद्धिमान्य देवकर दया आती है। नीमरे, खयालवाले, सो उनकी यह समझ है कि संस्कृतके अब वह जमाना नहीं रहा जिममें किसी एक धर्म या पंडितोंको अँगरेजी पढ़ा देनस या अँगरेजीके ग्रेज्यएटों- मम्प्रदायक आचार्यको या नेताको शाम्पार्थमें चुप को संस्कृत और जैनग्रंथ पढ़ा देनसे काम चलजायगा; कर देनेसे वह अपने अनुयायियों महित अपने धर्मका परन्त वास्तवमें विचार किया जाय तो जैसे विद्वान छोड़कर विजेताका धर्म स्वीकार कर लेता था या Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ भनेकान्त [वर्ष १, किरण २ किसी प्रतापी राजाको अपना पाण्डित्य दिखला देनेसे या उपदेशों से बहुत अधिक शक्ति रखता है। इस तरह वह मुग्ध होजाता था और स्वयं अनुयायी बन कर इन चार बातों पर तथा इसी तरह की और भी कई अपनी प्रजाको भी उसका उपासक बना लेता था। बातों पर विचार करने से मालूम होता है कि ऊपर आजकलका समय दूसरा है। यह तो शान्ततापूर्वक बतलाये हुए तीनों मार्गों से ऐसे विद्वान् बनने की तुमारी बात सुनना चाहता है। यह शास्त्रार्थ या पाशा नहीं जो कि जैनधर्म को राष्ट्र धर्म बनाने में खंडनसे राजी नहीं। इसे केवल प्रतिपादनकी शैली सफलता प्राप्त कर सकें। पसन्द है। जिस गहन और कठिन न्याय की शैलीसे तब इस कार्यके लिए कैसे विद्वान होने चाहिए ? तुम अपने तत्त्वोंका मण्डन और दूसरोंका खंडन करते सबसे पहली और जरूरा बात यह है कि जो धर्महो उसे सर्वसाधारण लोग जानते नहीं और सीधीसादी प्रचारका काम करना चाहें वे जैनधर्मके अच्छे जानयुक्तियोंसे जिन्हें सब कोई समझते हैं तुम समझा नहीं कार हों-जैनधर्मके केवल बाहरी शरीरका ही नहीं, सकते, तब तुझारा न्यायशास्त्री या न्यायाचार्य होना किन्तु उसके मर्मस्थानका-उसके हृदयका-भी उन्हें किस कामका ? माना कि तुमने संस्कृतके साथ कुछ वास्तविक ज्ञान हो । जैनधर्मके चारों अनुयोगों का अंगरजीभी पढ़ली है अथवा अंगरेजीके साथ संस्कृतके उनकी कथनशैलीका, उनके वास्तविक उद्देश्यका, जैनग्रंथ भी तुमने टटोल लिये हैं; परन्तु क्या धर्मप्रसार उनके पारस्परिक सम्बन्धका, और उनके तारतम्यका का काम इतना सहज है कि तुम दूसरे धर्मोको अच्छी उन्होंने किसी अनुभवी विद्वान के द्वारा अच्छी तरहसे तरहसे जाने बिना उन पर विजय प्राप्त कर सको ? रहस्य समझा हो-केवल पुस्तकें पाठ करके या टीकायदि ऐसा होता तो महात्मा अकलङ्कदेव जैसे विद्वान ओंके भरोसे पंडिताई प्राप्त न की हो । दूसरी बात बौद्धोंके विद्यालयमें जाकर पढ़नेका कष्ट क्यों उठाते ? यह है कि वे जैनधर्मके सारे संप्रदायों में जिन जिन तुझें तो अपनी विद्याका इतना अभिमान है कि जिन बातोंका भेद है उनका स्वरूप और उनका कारण धर्मोका तुमने कभी नाम भी न सुना होगा उनका भी अच्छी तरहसे समझे हुए हों और अपनी स्वाधीन यदि काम पड़े तो तुम बातकी बातमें खंडन कर डालो। बुद्धिसे यह ममझनेकी शक्ति रखते हों कि देश, काल पर याद रक्खो, इस प्रकारके खंडनसे धर्मप्रसारका और परिस्थितियों का प्रभाव इन भेदों पर कहाँ तक काम नहीं होता और न इसका कोई अच्छा फल ही पड़ा है। तीसरी बात यह है कि अपने धर्मके समान निकलता है। चौथे, जिस चरित्रबलसे या जिस संसारके मुख्य मुख्य विशाल धर्मोंका उन्हें अच्छी आदर्शजीवनसे यह पवित्र कार्य सम्पादित होसकता है तरह से ज्ञान हो और वह निष्पक्ष और उदार बुद्धिसे उनका इन पंडितों व बाबुओंमें प्रायः प्रभाव ही देखा सम्पादन किया गया हो । चौथी बात यह है कि वे जाता है । इतिहास इस विषय का साक्षी है कि आज प्रत्येक धर्म के उत्थान, विकाश, ह्रास और पतनका तक जितने धर्मप्रवर्तक हुए हैं उन्होंने पाण्डित्यकी इतिहास जानते हों तथा यह भी समझते हों कि देश अपेक्षा अपने चरित्रबलसे ही जैनसमाज पर अधिक कालकी परिस्थितियोंका प्रत्येक धर्मपर कितना और कहाँ विजय प्राप्त की है। मनुष्य का चरित्र उसके वचनों तक प्रभाव पड़ सकता है । पाँचवें, आधुनिक विज्ञान Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौष, वीर नि०सं०२४५६] जैनधर्मका प्रसार कैसे होगा ? ११३ की प्रत्येक शाखाका अर्थात् पदार्थविज्ञानशास्त्र, रसा- कर सकते हैं और जब तक जैन समाज ऐसे विद्वान् यनशास्त्र, विद्युच्छास्त्र, भूगर्भशास्त्र, वनस्पतिशास्त्र, उत्पन्न न कर सकेगा तब तक उसके धर्मका प्रसार जन्तुशास्त्र, शारीरिकशास्त्र, मनोविज्ञानशास्त्र, भूगोल, दूसरे लोगों और दूसरे देशोंमें कदापि नहीं हो सकेगा। खगोल आदि शास्त्रोंका उन्हें अच्छा ज्ञान हो और वह स्वामी विवेकानन्द और परमहंस स्वामी गमतीर्थ एम. इतना स्पष्ट हो जिससे वे अपने धर्मके तत्त्वोंको उक्त ए. ने उक्त गणोंके कारण ही अमेरिका और यगंप शास्त्रोंसे अवाधित सिद्ध कर सकें। इन शास्त्रोंमें पार- जैम ज्ञान विज्ञानसम्पन्न देशोंमें वेदान्त धर्मकी विजय दर्शिता प्राप्त किये बिना केवल इस तरह कह देनसे- पताका फहगई थी। जिन लोगोंन उक्त महात्माओंका कि उनमें प्रतिपादन किया हुआ स्वरूप झठा है क्योंकि जीवन चरित्र पढ़ा है और उनके प्रतिभाशाली व्याख्याना उनके रचियता असर्वज्ञया छद्मस्थथे और हमारे ग्रंथों और लेखोंका पाठ किया है वे जान सकते हैं कि उनकी में लिखा हुआ ही सत्य है क्योंकि उनके उपदेशक विद्वत्ता, म्वाधीनचित्तता और सरित्रता किस श्रेणीकी सर्वज्ञ थे-अब काम नहीं चल सक्ता । आज कलका थी। उन्होंने जो कुछ कहा है वह मब यद्यपि पुराना विज्ञान बड़ी निर्दयता से सारे धर्मों की जड़ों को हिला है परन्तु वर्तमान समयक सांचे में ढालकर उन्होंने उस रहा है, इस लिये हमें सावधान होना चाहिये और इस इतना सुन्दर और उपयोगी रूप दे दिया है कि लाखों के पहले कि हमारी सन्तानो पर उसका बग असर अमेरिकन पुरुप और स्त्रियां उम पर न्योछावर होगई पड़ने लगे हम उसी के द्वारा अपनी रक्षाका सामर्थ्य हैं। स्वामी रामतीर्थजी जब अमेरिकामें व्याख्यान देते प्राप्त करलें । इस समय वही धम संसारमें टिक सकेगा थ तब उम सुनकर लोग यह नहीं समझ सकते थे कि जो विज्ञान की विकट मारसे अपनका बचा सकेगा व किम धर्मका प्रतिपादन कर रहे हैं क्योंकि मार देशों और लोगोंको बतला सकेगा कि विज्ञान हमारे धर्म के तत्त्ववेत्ताओं और धर्माचार्योक बचनोंको लेकर के अगाध ज्ञान समुद्रका एक विन्दुमात्र है। छठे, उन ही वे अपना व्याख्यान बनाते थे; परन्तु जब उसकी स्वदेश और विदेश की दो चार मुख्य मुग्न्य भाषाओं ममामि हो जाती थी, तब कहीं लोग समझने थे कि का ज्ञान हो और वह इतना अच्छा हो कि उसके द्वारा यह वेदान्ततिपादक व्याख्यान था । अपने और वे अपने विचारों को लिख कर और बाल कर दूसरों दुसरं धर्मोका अच्छा ज्ञान प्राप्त किये बिना ऐसी शक्ति को अच्छी तरह से समझा सकें-अर्थात उनमें लेखन प्राप्त नहीं हो मकती। अपनी म्वाधीन और ममयाऔर व्याख्यानशक्ति बहुत अच्छी हो । सातवें, उनका नुकून बुद्धिम उक्त महात्माओंन हिन्दू धर्ममें जो कुछ आचरण पवित्र, हृदय निष्कपट और विशाल, विचार संस्कार और मंशोधन किया है वह बहुत अंशोंमें दृढ़ और परिश्रम अश्रान्न तथा अनवरत हो । जीवमात्र मनातनर्मियों और आर्यममाजियोंके विचारोंमें भी के कल्यान की वाञ्छा, मानवजाति को मच्चा मखी नहीं मिलता-कहीं कहीं बिलकुल बिरुद्ध भी है; परन्तु बनाने की उत्कट इच्छा, परोपकार और स्वार्थत्याग उनकी पवित्रता प्रान्मनिष्ठा और देशभक्ति इतनी की वासना, सत्य प्रियता और स्वाधीनता उनकी नम प्रबल थी कि आज सारं हिन्दृ उन्हें वर्तमान युगक नसमें भरी हो, देश काल की स्थितियों से उत्पन्न हुए धर्माचार्य मानकर म्मरण करते हैं। जो नई शिनानियमों और रूढियोंको जो तुच्छ समझते हों और दीना पाये हुए लोग धर्ममे विमुम्ब होने जान थे उन पर इनकी संकलोंसे बंधे हुए लोगोंका जिन्हें जरा भी भय तो इन महात्माओंका इनना प्रभाव पड़ा है कि वे पक्के न हो । इस प्रकारके आदर्श जीवनका बिना सब गगण हिन्दू बन गये हैं। जैनधर्मकी रक्षा और विस्तारके लिए होते हुए भी कोई धर्मप्रचारका कार्य नहीं करसकता। भी ऐसे ही विद्वानोंकी जरूरत है। ____ मेरी समझमें इन ऊपर लिखे गुणोंसे युक्त विद्वान अब प्रश्न यह है कि इस प्रकारके विद्वान कैस ही इस समय जैनधर्मके प्रसारका कार्य मफलतापूर्वक नैयार होमकने हैं ? हमार्ग पुगनी पद्धतिकी पाठशालाएँ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त ११४ . [वर्ष १, किरण २ तो ऐसे विद्वानोंको उत्पन्न कर सकनेमें एक तरहसे इनसे हमें लाभ जरूर होरहा है, परन्तु धर्मप्रसारके असमर्थ हैं। क्योंकि उनमें जो शिक्षा मिलती है, वह कार्यके लिये जैसे विद्वान् चाहिएँ उनके उत्पन्न होनेकी एकदेशीय होती है और एकदेशीय ज्ञानसे इस समय इनमे बहुत ही कम आशा है। काम नहीं चल सकता। इस समय हमें अपना भी नोटजानना चाहिए, और अपना अच्छा है यह बतलानेके यह लेख मैंने अबसे लग भग १६ वर्ष पहले जैन बोलने का लिए दूसरोंका भी जानना चाहिए । और अपना ज्ञान दिन हितैपी (भाग९ अंक ६-७) में प्रकाशित किया था । इतने भी तो इनके द्वारा अच्छी तरहसे नहीं हो सकता। समयके बाद भी मैं देखता हूँ कि इसकी उपयोगिता क्योंकि किसी एक विषयको अच्छी तरहसे समझनके लिए उस विषयसे सम्बन्ध रखनेवाले दूसरे विषयोंका नष्ट नहीं हुई है-यह अमामयिक नहीं हुआ है और इस लिए इसको पुनः प्रकाशित किया जाता है । इससे यह भी तो सामान्य ज्ञान होना चाहिए । कंवल न्याय, भी अनुभव होता है कि जैनसमाजकी प्रगति कितनी व्याकरण, और साहित्य पढ़ लेनेसे ही क्या हम धर्म मन्द है और जैनधर्मको सार्वभौम बनानेकी ओरसे वह शास्त्रोंके मर्मज्ञ हो जायँगे ? यहाँ तो प्रायः मामूली, कितना उदासीन है। गणित, इतिहास, भूगोल, पदार्थविज्ञानादि विषयोंकी अभी तक न तोवह गुरुकुल काँगड़ीया विश्वविद्याभी शिक्षा नहीं दी जाती जिनके बिना उनका धर्मशास्त्र लय काशीके ममान कोई ऐसी आदर्श संस्था स्थापित का ज्ञान ही अधूरा, धुंधला और निरुपयोगी रहता है। कर सका है जिसमें जैनविद्यार्थियोंको विशाल ज्ञान दूसरी ओर सरकारी स्कूलों और कालेजोंको देखिए तो सम्पादन करनेके तमाम उपलब्ध साधन एकत्र किये उनसे भी हम सुयोग्य विद्वानाकी आशा नहीं कर गये हों और नस विद्वान ही उत्पन्न कर सका है जो सकते । क्योंकि एक तो उनमें जो शिक्षा दी जाती है जैनधर्म तलम्पर्शी मर्मज्ञ होने के साथ साथ आधुनिक वह एक बिलकुल अपरिचित और विदेशी भाषामें ज्ञान-विज्ञानके पारगामी पण्डित हों, जिन्होंने प्राच्य दीजाती है जिसमे विद्यार्थियों के शरीर और ममयका और पाश्चात्य दर्शनशास्त्रोंका गहरा अध्ययन किया हा नाश तो होता ही है, साथ ही उनका ज्ञान अपरिपक्व और जो श्रापनिक संसारके सम्मुख रखने योग्य जैनऔर धुंधला रहता है । दूमर, विदशी जड़वाद और धर्मकी अनन्य साधारण विशेषताओको हृदयंगम किये नास्तिकताका प्रभाव उम शिक्षामें इतना अधिक पड़ा हुआ है कि उसमें विद्यार्थियोंमें धर्मभावके बने रहने हुए हों । अवश्य ही जैनविद्यालय और पाठशालाओं की संख्या काफी बढ़ गई है। परन्तु उनकी वही रफ्तार की अाशा बहुत कम रहती है । ऐसी अवस्थामें सुयोग्य विद्वान उत्पन्न करनेके लिए-जैसा प्रोफेसर लट्टेने बेगी जो पहले थी मो अब भी है। उनसे जैनधर्मके _प्रसार और प्रचार की आशा करना व्यर्थ है । क्योंकि अपने लेखमें कहा है-हमें चाहिये कि अपने निजके एक दो कालेज या महाविद्यालय स्थापति करें जिनमें उनमें जो कुछ और जिस ढंगकी शिक्षा दी जाती है हम अपने विद्यार्थियोंको प्राचीन तत्त्वशास्त्रोंकी शिक्षा उमसे कट्टर असहिष्णु और जैनधर्मको अत्यन्त संकीर्ण सर्वोत्तम आधुनिक पद्धतिमे देसकें और साथ ही उन्हें रूपमें देखने वाले ही उत्पन्न होते हैं। पदार्थविज्ञान आदि सब प्रकारके आधुनिक शास्त्रोंमें भी मुझे आशा है कि जैनधर्म और जैनममाज की पारगत कर सकें। बिना इस प्रकारके प्रयलके जैनधर्मका । उन्नति चाहनेवाले अबकी बार जरूर इस लेख पर खास तौरमे ध्यान देंगे और जैनधर्मको विश्वव्यापी बनाने प्रसार ही नहीं किन्तु उसकीरक्षा करना भी असंभव है। की सद्भावनाको शीघ्रही कार्यरूपमें परिणत करनेकी ___ मैं यह नहीं कहता कि हमारी पाठशालाओंसे या ओर अग्रसर होंगे। सरकारी स्कूलों व कालेजोंसे कुछ लाभ ही नहीं है विनीतअथवा इन संस्थाओंसे विद्वान निकलेंगे ही नहीं-नहीं, नाथूराम प्रेमी Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकरोंके चिन्हों का रहस्य पौष, वीर नि०सं०२४५६ | चिन्होंका क्या अर्थ है सो सामुद्रिक शास्त्र से तो कुछ उत्तर दिया नहीं जा सकता, बल्कि यह भ्रम और पैदा हो जाता है कि ये चिन्हतो मनुष्य शरीर पर होते ही नहीं; क्योंकि यदि होते तो सामुद्रिक शास्त्रों में इनका कुछ फलित भी अवश्य दिया गया होता । प्रत्युत इसके, भैंमा, सूअर, सर्प, सिंह और सेही ये पशु स्वभावसे ही अशुभ समझे जाते हैं । इनके चिन्होंका तीर्थकर जेसे शुभ तथा उत्तम व्यक्तियोंके पवित्र शरीर पर होना कदापि संभव नहीं है । पर इस लिये सामुद्रिक शास्त्रोंके बहानेमे इस प्रश्नको टालना इस समय हमारे लिये उचित विधान नहीं है। इन चिन्होंके रहस्य का अवश्य ही उद्घाटन होना चाहिये । आशा है हमारा विद्वन्मण्डल इस ओर अवश्य ध्यान देगा और इस पत्रके आगामी अङ्क में उन घटकी सप्रमाण व्याख्याकी जायगी जिनके द्योतक पूर्वाचार्यों ने यह चिन्ह नियत किये हैं । सम्पादकीय नोट इस लेख में जिस विषयको उठाया गया है वह निःसन्देह विचारणीय है और इस बातकी अपेक्षा रखता है कि विद्वानों द्वारा उस पर अच्छा प्रकाश डाला जाय, जिससे इन चिन्होंका रहस्य खुल जाय । लेखक महाशय की इच्छा है कि मैं भी इस पर कुछ प्रकाश डालूँ । परन्तु मैं अभी तक उसके लिये पूरी तौर से तय्यार नहीं हूँ । फिर भी, इतना जरूर कहूँगा कि लेखमें जो यह बात कही गई है कि, 'शेष १४ तीर्थकरोंके चिन्होंका सामुद्रिक शास्त्रानुसार कुछ भी उत्तर नहीं दिया जा सकता, वे मनुष्य शरीर पर होत ही नहीं, होते तो सामुद्रिक शास्त्रोंमें उनका कुछ फलित जरूर दिया गया होता,' वह कुछ ठीक मालूम नहीं होती - एक प्रकार से निर्मूल जान पड़ती है और यह सूचित करती है कि थोड़े ही ग्रंथों परसे और उन्हीं के कथनको प्रकृत विषयका पूरा कथन समझ कर उसकी कल्पना करली गई है । अन्यथा, सामुद्रिक विषयके १२१ ऐसे भी ग्रंथ मौजूद हैं जिनमें 'वृषभ' आदि दूसरे भी कितने ही चिन्होंका मनुष्य शरीर पर होना बतलाया है और उनका फलितार्थ भी दिया है। उदाहरण लिये दो एक नमूने नीचे दिये जाते हैं:रथयानकुंजरवाजिवृषायाः स्फुटाः करे येषाम् । सैन्यजयनशीलास्ते सैन्याधिपतयः पुरुषाः । १७२ यह बम्बई के 'श्रीवेंकटेश्वर' प्रेममें मुद्रित एक बड़े 'मामुद्रिकशास्त्र' का वाक्य है और इसमें वृषभ (बैल) चिन्हका फलित भी परसेनाका जीतने वाला सेनापति होना बतलाया है। साथ ही, 'आदि' शब्द के प्रयोगद्वारा यह भी सूचित किया है कि रथ, यान, हाथी, घोड़ा और बैल के अतिरिक्त और भी चिन्ह इसी फल केक मनुष्य शरीर में होते हैं । ता गांधा सैरिभज बुक मृषककाकककसमाः । रेखाः स्युर्यस्य तले तस्य न दूरेऽतिदारिद्र्यम्॥ ३४ श्वशृगालमहिषमूषक काकोलूकाहिकांककर भाद्याः चरणतले जायन्ते यम्याः सा दुःखमाप्नोति ॥ ( ये भी उक्त ग्रंथके वाक्य हैं। इन दोनोंमें भैंसे मग्भि- महिप) का और दूसरे में सर्प तथा कोक (भेड़िये ) का चिन्ह भी मनुष्य शरीर में होना बतलाया है और उनका फल भी दिया है। साथ ही, गोधा, श्वान, शृगाल, मूपक, काक, उल, और ऊँट वग़ैरह के चिन्होंका भी मनुष्य शरीरमें होनेको विधान किया है। वृक्षोत्रा यदि वा शक्तिः करमध्ये तु दृश्यते । अमात्यस्तु स विज्ञेयां राजश्रेष्ठी च जायते ॥ यह एक छोटेसे हस्त लिखित 'सामुद्रिकाशास्त्र' का वाक्य है जो हाल में जैन सिद्धान्तभवन आरासे मेरे पास जाँच के लिये आया है। इसमें 'वृक्ष' के चिन्ह का उल्लेख है और उसका फल मंत्री अथवा राजश्रेष्ठी होना बतलाया है। और स्त्रीके शरीर में इसी चिन्हके होनेका फल एक दूसरे श्लोक में - 'पादपो वाभवेत्र राजपत्नी भविष्यति' द्वारा - राजपत्नी होना लिखा है। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण २ ___इमी तरह खोज करने पर दूसरे चिन्होंके भी तो उमका चिन्ह आसनोंमें अंकित न किया जाता। विधिवाक्य मिल सकते हैं और यदि न भी मिले तब परतु आसनता उसक नामक साथ 'सिंहासन' कहलात भी यह नहीं कहा जामकता कि वे चिन्ह मनुष्यशरीर हैं और कितने ही नामोंके साथ 'सिंह' शब्द जुड़ जाने पर हो ही नहीं सकते । जब ऐसे ऐसे जानवरोंक चिन्ह में उनकी महिमा बढ़ जाती है जैसे किसी पुरुषको हो सकते हैं तब उनके हो मकनमें कोई बाधा प्रतीत 'पुरुपसिंह' कहना उसके महत्वका द्योतक है । फिर नहीं होती । हो मकन के लिये तो सब प्रकारके चिन्ह मिहको स्वभावसे ही अशुभ और उसके चिन्हको हा मकन हैं और ऐम भी चिन्ह हो सकते हैं जिनका अशुभताका सवक कसे समझा जाय ? और कैसे खुद ममुद्रका भी पता न रहा हो। वाम समुद्र का ग्रंथ कहा जाय कि महावीर के शरीर पर उमक चिन्हका तो इस समय कोई उपलव्य भी नहीं है, वह तो यदि हाना कदापि संभव नहीं ? इसी तरह नाग (सर्प) को कभी वना अथवा लिपि बद्ध हुआ है तो उसको नष्ट भी सर्वथा अशुभ समझनेका कोई कारण नहीं-वेतो हुए भी युग बीत गये हैं। इस वक्त जो ग्रन्थ उपलब्ध देवता भी मान जान हैं, नागपंचमीको उनका खास हैं वे यहत पीछेमे अनेक व्यक्तियों के द्वाग एक दसरंकी तोरमे पजन होता है, शेषनाग उनमें प्रधान हैं, विष्णु दग्वा देवी कुछ इधर उधरमे लेकर और कुछ अपनी भगवान नागशय्या पर शयन करते हैं, महादेवजीक बुद्धिम उममें मिला कर समुद्रके नाम पर छोटे बड़े अाभपण मर्पक हैं, कुछ शामन देवताओक यज्ञोपवीत मंग्रह ग्रंथ अथवा प्रकरण बने हुए हैं और इमीम उनमें भी मर्पके कहे गये हैं और भगवान पार्श्वनाथके कितनी ही बातें परस्पर भिन्न और विरुद्ध भी पाई उपमर्गको दूर करने वाले भी नागराज हैं, फिर सर्प जाती हैं । उनका कितना ही फलिन प्रत्यक्षादिकं विरुद्ध म्वभावमं अशुभ कैसे ? और उमम चिन्हके प्रति जान पड़ता है। उनके फलित पर सहमा विश्वास नहीं तिरस्कार दृष्टि क्यों ? सपके तो बहुत चिन्ह शरीर किया जा सकता और न यही कहा जामकता हैकि जा महान हैं और यागशास्त्रम कुडालनी शक्तिका भी फल किमी चिन्ह का उनमें दिया है उससे भिन्न वह नागनी जैसी बतलाया है जो सुषम्ना नाडीके मुखका कभी अथवा कहीं होता ही नहीं । अतः चिन्हों और अवरोध किये रहती है। इसके मिवाय, वसुनन्दी चिन्होंके फल विपयमें मर्वथा इन मामुद्रिक शास्त्रों पर आदि कृत प्रतिष्ठापाठोंसे यह भी मालूम होता है कि कोई आधार नहीं किया जा सकता। . कितने ही देवताओंके वाहन सिंह,महिप,वाराह,कच्छप, दृमरी बात जो सिंहादिक कुछ चिन्होंके अशुभ काप, सप, आदिक - कपि, सर्प, आदिकक हैं और वे उन वाहनों महित ही हानकी बाबत कही गई है और उसमें इम पर ज़ार । - मांगलिक कार्यों में बुलाए तथा पूजे जाते हैं । अतः यह दिया गया है कि उन 'चिन्हांका तीर्थकरोके शरीर पर सुनिश्चित हाताहै कि इन प्राणियांकीकरताया अपवित्रता हाना कदापि संभव नहीं, वह भी कुछ ठीक प्रतीत नहीं लाकमें उनके सर्वथा अशुभ होने या समझे जानकी हाती । शुभ और अशुभके निर्णयका प्रश्न बडा ही काई कमोटी नहीं है। विकट है और उस पर सहमा इस तरहम कोई फैसला अब एक तीसरी बात और रह जाती है, और नहीं दिया जा मकता । किमी जन्तुकी महज़ करता वह यह है कि तीर्थकर चिन्होके जो नाम लेखकया अपवित्रता ही उसे अशुभ नहीं बना देती । यदि महाशयन दिये हैं उनकी बाबत यद्यपि यह नहीं लिखा ऐसा होता तब तो मकरके चिन्हको भी अशुभ समझा कि वे कहाँस लिये गये-मूर्तियों परसे नोट किये गये जाता-वह तो मनुष्योंको मारने वाला एक क्रूर जंतु हैं अथवा किसी ग्रंथ परसे उतारे गये हैं-जिससे कमसे है-परंतु उसका फल तो अच्छा बतलाया गया है कम यह जाना जाता कि सुमतितीर्थकरके 'चातक'ओर और कामदेव भी उसे अपनी ध्वजामें धारण करता है। 'हंस'ये दो भिन्न चिन्ह अनन्तनाथका 'सेही' और धर्मसिंह महज करताके कारण यदि सर्वथा अशुभ होता नाथका'गदा' चिन्ह किसनेप्रतिपादन किया है। फिर भी Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौष, वीरनिम्म०२४५६] तीर्थकरोंके चिन्होंका रहस्य इम मम्बंधमें मैं इनना और बतला देना चाहता हूँ कि वर्णन करते हुए इस स्थानपर 'शल्य चिन्हका ही उल्लेख तीर्थकगेंके मब चिन्ह वे ही नहीं हैं जो इस लेखमें किया है। यथाःदिये हैं किन्तु कोई कोई उनसे भिन्न भी पाए जाते गोर्गजोऽश्वः कपिः कोकः सरोज स्वस्तिकं शशी। हैं जिसके कारण को खोजनेकी ज़रूरत है-जैमा मकरः श्रीयतो वृक्षो गण्डो महिपशकरी ॥ कि निम्न वाक्य से प्रकट है: शल्यवज्रमगाश्छागः मत्म्यः कुंभोऽथकच्छपः । गोर्गजोऽश्वः कपिः कोकःसगेज स्वस्तिकं शशी। उत्पलं शंखसपो म्यः सिंहम्तीर्थकना ध्वजाः ॥ कटकस्य कास्यो?) द्रुमो गण्डो महिपो वनश्करः।। यहाँ तीर्थकगेकी ध्वजाओंके चिन्हभी वही होनम ऋक्षो वज्रो मगश्छागो पेपः कलशकच्छापो। जाकि उनकी प्रतिमाओंके आसनों पर दिये होते हैं उत्पलं शंखनागेन्द्रो केमरी जिनलांछनम् ॥ प्रकृत विषय पर प्रकाशकी एक अच्छी रेग्या पड़ती है। __ ये वाक्य 'मिद्धान्तरमायनकल्प' नामके एक तीर्थकर चूंकि गजा थे नब उनकी ध्वजाांक खाम ग्रंथमें दिये हुए हैं जो कि बम्बई लक पन्नालालजी के खाम चिन्ह होने ही चाहिये । बहुन मंभव है कि उनकी सरस्वती भवनमें मौजूद है। इसमें मुमति का चिन्ह ध्वजायोंके वे चिन्हही मूर्तियोंक निर्माणकं समय कोक, अनन्त का रीछ और अग्नाथ का मेप (मेंढा) पहचान के लिये उनके आसनोंपर उस वक्तम दिये दिया है। और कोकका अर्थ भेड़िया, चकवा तथा जाने लगे हो जबम कि अलग अलग तीर्थकरकी मनि मेंडक होता है। मालूम नहीं यहां इनमेंसे किमका बनानेकी भेदकल्पना प्रबल हो उठी हा; और उममे पहले ग्रहण है। परंतु यह स्पष्ट है कि इन तीनों तीर्थकगेंके की या बिना चिन्हकी जो मतियाँ होवे ग्वालिम बहनकी चिन्ह उक्त लेखके कथनम भिन्न पाये जाते हैं। मतियाँ हों-किसी तीर्थकर विशेपकी नहीं । जहाँनक में वसुनन्दी आचार्यनभी अपने प्रतिष्ठापाठमें मुमतिनाथ- ममझनाहूं इम मंभावना और कल्पनामें बहुत कुछ प्राग का चिन्ह 'कोक' दिया है-चातक या हम नहीं। जान पड़ता है। बाकी पण्डिनोंके जिम उत्तरकी बानका यथाः उल्लेव लग्यक महाशयने किया है. उममें तो कुछ भी गोगजोऽश्वः कपिः कोकःसरोजं स्वस्तिकं शशी। प्राण मालूम नहीं होता-न ना उममें प्राकृनिकताका मकरः श्रीयतो वृक्षो गण्डो महिपशकगे। दर्शन है और न प्राचीन माहित्य परमही उमका कहीं कुछ ममर्थन होता है। अतः जबतक किमी विशेष शेधी वनं मगश्छागः पाठीनः कलशस्तथा। रहस्यका उद्घाटन न हो तब नकमरी रायमें, यह मानना कच्छपश्चोत्पलं शंखो नागराजश्च कसरी ॥ ज्यादा अच्छा होगा कि ये चिन्ह तीर्थकगंकी ध्वजाइसमें अनन्त का चिन्ह 'शेध' बतलाया है परन्तु परन्तु ओंके चिन्ह हैं । और शायद इमीम मूर्तिक किमी अंग शेधका कल अर्थ ठीक नहीं बैठता। हो सकता है कि, परन दिय जाकर श्रासन पर दिये जाते है। यह रीछका वाचक 'ऋक्षो' पाठही हो अथवा भालेका वाचक 'शल्यो' पाठ हो, क्योंकि 'पूजासार ममुच्चय' नामक ग्रंथमें २४ तीर्थकरोंकी ध्वजाओंके चिन्होंका Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ अनकान्त [वर्ष १, किरण २ 'अनेकान्त' पर लोकमत TE VISA 'अनकान्त' पत्र यद्यपि अभी बहुत ही शैशवावस्था समय' खोजपूर्ण है । इसमें का 'जिनदीक्षा' चित्र में है-अनेक त्रुटियोंसे पूर्ण है-फिरभी उसकी पहली भी सुरचिका द्योतक है। श्राशा हैयह पत्र सुयोग्य किरणको पाकर जिन जैन-अजैन विद्वानों, प्रतिष्ठित सम्पादक के तत्वावधानमें उत्तरोत्तर वृद्धि करता पुरुपों, तथा अन्य सज्जनोंने उसका हृदय से म्वागत रहेगा।" किया है और उसके विपयमें अपनी शुभ सम्मतियाँ ३ मिचिन्ताहरण चक्रवति, एम.ए. कलकत्तातथा ऊँची भावनाएँ आश्रमको भेजनेकी कृपा I have very great pleasure in going करके संचालकोंके उत्साहको बढ़ाया है उनमेंसे through the tirst issueof the Anekant,कुछ सज्जनोंके विचार तथा हृदयोद the organ of the Samantbhadrasham The Scheme laid down by the editor is a अवलोकनार्थ नीचे प्रकट किये जाते हैं: very commendable one. I should expect that it will not be long dulore it is fully 'अनकांत'गहरी छाप जमानेवाला पत्र जान पड़ताहै। carried into effect. Most of the journals जैनधर्मावलम्बियोंके लियेतो वह अत्यन्त उपयोगी of the Jains at present deal with social है। प्रथम किरणके लेख वडीखोज और विद्वत्ताके controversy and there is an urgent need for the appearance of a journal dealing माथ लिग्वे गये हैं और गहन विषय भी मंक्षिप्त with historical and philosophical probरूपमें ऐमी यक्तिम समझाये गये हैं कि मनमें lems connected with Jainism. I hope वाच्छनीय प्रभाव पड़ता है । पत्र होनहार है। and beleive that the Anekant in no tinue उसकी सज धज सुन्दर, चित्र भव्य व पत्र चीकने will go to supply this need. हैं, सो ठीक ही है:- "होनहार शुभ पत्रके होत अर्थात्-मुझे समन्तभद्राश्रमके पत्र 'अनेकान्त' चीकने पात।" के प्रथम अंकको पढ़ कर बहुत बड़ी प्रसन्नता (२) साहिन्याचार्य पं० विश्वेश्वरनाथजी रेऊ- हुई । सम्पादकन जो स्कीम प्रस्तुत की है वह "इस अंककी सजावट और सामग्रीको देख कर अत्यंत प्रशंसनीय है। मैं आशा करता हूँ कि यह पत्रका भाविष्य उज्वल प्रतीत होता है । इसके बिना किसी बिलम्बके पूरे तौरसे कार्य में परिणत मब ही लेख उपयोगी और सुन्दर हैं । पहला की जायगी । जैनियोंके बहुतसे पत्र आज कल सम्पादकीय लेख 'भगवान महावीर और उनका मामाजिक वादविवादको लिये हुए हैं और इस. Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौष, वीर नि०सं०२४५६] अनेकान्त पर लोकमत १२५ बातकी सख्त जरूरत है कि जैनधर्मसम्बन्धी ऐति- इस विषयको इतने पाण्डित्यमे लिग्या है ...... । हासिक और दार्शनिक प्रश्नोंको हल करनेके लिये मेरी ममझमें आप पत्रको मचित्र बनाने के लालचमें एक पत्र प्रकट हो । मुझे आशा तथा विश्वास है. . न पड़ें। इसमें खर्च बहुत होता है और लाभ कम । कि 'अनेकान्त' इस ज़रूरतको शीघ्र पुरा करेगा"। ......समग्र अंक भारी गम्भीर लेखोंमे भग है। ४ महर्षि शिवव्रतलालना वर्मन एम० ए०- ...... नीच और अकृत नामक कविता बहुत "अनेकान्त” नामी रिसालेके पहले नम्बरमें महा- सुन्दर है । अंककी छपाई अच्छी हुई है, संशोधन वीरचरित्रका मुख्तसिर खाका बहुत अच्छा खींचा भी उत्तम हुआ है। मिलाई बहुत ही रही है। " गया है । ला० जुगलकिशोर साहव मुख्तार बहुत ___"आपका वीर निर्वाण संवन वाला ( महावीर का क़ाबिल और वाकिफकार श्रादमीमालूम होते हैं। समय) लेख पीछे पढ़ा वह बहुत ही महत्वका है। यह जैनधर्मका सबसे ज्यादा फहमी रिसाला नज़र और उमसे अनेक उलझनें सुलझ गई हैं।" आ रहा है । उनको मुबारिकबाद! महावीर स्वामी ८ बा ज्योतिप्रसादनी स जैनप्रदीप,देवबन्दकी तसवीर निहायत खूबसूरत दी गई है।...... "लेख बहुत ही मचिकर और लाभदायक है । श्री मैं इसे फ्रेम लगा कर लायब्रेरीमें नाजीम और वीर भगवानके विषयमें जो आपका लेख है वह शौक़के माथ रखलंगा । तस्वीर फर्जी है लेकिन अत्युत्तम है, बड़ी खोजके साथ लिग्वा गया है। फिर भी बहुत अच्छी है । बच्चे की तरह मासूमियत मेरी हार्दिक भावना है कि 'अनकान्त' अपनी टपक रही है " तंजस्वी किरणोंमे स्याद्वादका प्रकाश मंसारमें ५ श्रीकेदारनाथ मिश्र प्रभात'वो.ए.विद्यालंकार ___ फैलावे, जिससे मनुष्योंक हृदयसे मिथ्यात रूपी "पत्रिका बड़ी सुन्दर है । मैं आपके प्रयासकी अंधेरा दूर हो जाय ।" प्रशंसा करता हूँ। ईश्वर आपको सफलता दे यही ह बा० जमनाप्रसादजी एम. ए., एम. आर. कामना है”। ए. एस.,एलएल.बी., सबजज नरसिंहपुर६ श्री०आर.वेंकटाचल आइयर, थिकन्नमंगल -- "आपके अनकान्त' पत्रको देख कर हृदय गद्गद 'अनेकान्त' मिला । उसके अवलोकनसे मेरी हुआ व प्राचीन जैनसाहित्यसंशोधक व बादके जिज्ञासा पूर्वाधिक प्रबल होती जारही है । ..... जैनहितेपीका स्मरण हो आया । आपका प्रयत्न श्रापका लेख 'भगवान महावीर और उनका समय' म्तुत्य है । वास्तवमें समन्तभद्राश्रम सरीखी पवित्र मैंने पढ़ा, उसके अन्तर्गत 'महावीर-सन्देश' __मंस्थाकी उद्देश्यपर्तिकं लिए 'अनेकान्त' अमाघकविताका मैंने मनन किया । उसने मेरे मनमें वाणकी ही आवश्यकता थी। गम्भीरतम भावांको जागृत किया है।" १० बा० भगवानदासजी एम. ए.. चुनार-- ७ पं. नाथरामजी प्रेमी, बम्बई "अनेकान्तका १ अंक मिला । श्रीसुखलालजीका “पण्डित सुखलालजीका लेख इस अंकमें सर्वोपरि 'अनेकान्तवादकी मर्यादा' और आपके भगवान है। मुझे स्मरण नहीं कि किसी भी जैनविद्वान ने महावीर और उनका समय' के लेख पढ़ कर मैं Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ अनेकान्त [वर्ष १, किरण २ वहुत प्रसन्न हुआ। इस नई बुद्धिसे पुराने विषयों सर्वाग पूर्ण बनानेमें आपका परिश्रम प्रशंसनीय का प्रतिपादन किया जाय तो उनमें पुनः प्राण है। मैं इसकी हृदयसे उन्नति चाहता हूँ।" मंचार हो और वे सचमुच इह-अमुत्र-उपयोगी हो जहाँ अब प्रायः उभय बाधक हो रहे हैं। १४ पंकैलाशचन्दनी शास्त्री, बनारसआशा है कि आपके अगले अंक सब इसी ऊँची जिसकी प्रथम किरण इतनी मधुर एवं न केवल कोटिके निकलते रहेंगे।" दर्शनप्रिय किन्तु चित्तप्रिय भी है उसका भविष्य ११-सेठ पद्मराजजी जैन रानी वाले महामन्त्री कितना निर्मल एवं आशाप्रिय होगा यह सोच हिन्दमहासभा कर हृदय गद्गद् होने लगा । प्रथम कवर उलटा 'अनेकान्त' की पहिली किरण बहुत ही रुचिकर और भगवान महावीरके निःक्रमण कल्याणक पर हुई है। उसमें के दो एक लेख बहुत ही महत्व दृष्टि पड़ी । कितनी सुन्दर भव्य एवं वीतराग पूर्ण और हृदयग्राही हैं। ...... अछूतों सम्बन्धी मूर्ति थी-यह लेखनी लिखनको असमर्थ है । पहली एक कविता बहुत ही अच्छी हुई है । आँखोमें आनन्दाश्रु उमड़े आ रहे थे। सचमुच उसकारूपक बड़ा ही हृदयग्राही और बुद्धिमत्ताक आज तक महावीर भगवान की इतनी दिव्य तेजोसाथ चित्रित किया गया है।" मय समचतुरस्रसंस्थानयुक्त चित्रपटके दर्शनका मौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ था। उस दिनसे मामायिक १२ धर्मरत्न पं. दीपचन्दनी वर्णी में वही वीतराग मूर्ति मेरे ध्यानकी अवलम्बन वन 'अनेकान्त' के दर्शन हुए, उमे मैंने मननपूर्वक गई है । आपका तथा पं० सुखलालजीका लेख कई बार पढ़ा, पढ़ कर आनन्द हुश्रा अनेकान्त बहुत महत्व एवं गवेषणापूर्ण हैं।" पर जो लेग्ब लिग्वे गार हैं वे बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। विवादग्रस्त झगड़ाल विषय नहीं लिए गये हैं १५ पं. हीरालालजी, लाडन-- और यही नीति इसकी रक्खी गई है इसम ही "अनेकान्त पत्र बहुत हीअच्छा है । इसके संपादक विदित होता है कि यह 'अनकान्त' द्वितीया के श्रीमान् बा० जुगलकिशोरजीकी योग्यतासे मैं चंद्रमावन उन्नत होता हुआ पूर्ण चंद्रमावन् अनं परिचित हू । वे एक जैनसमाजकी वीर आत्मा, कान्तके सिद्धान्तका प्रकाश करके संसारसे मिथ्यै साहित्यखोजी, परिश्रमी व मानवसमाजके सच्चे कान्तरूपी अन्धकारको हटानेमें सफल प्रयत्न रत्न हैं।" होगा, हम अन्तरंगसे इसकी उन्नति चाहते हैं और १६ श्री० अर्जुनलाल जी 'वीर' मैनेजर श्री. यथाशक्ति इसके प्रचारका प्रयत्न भी करेंगे।" के०कु०ब्रह्मचर्याश्रम कुन्थलगिरि१३ पं० के० भुजबलीजी शास्त्री, आरा- 'अनेकान्त' पढ़ कर अत्यानन्द हुआ। इसमें सार "पत्र बहुत उत्तम एवं सराहनीय है। निःसन्देह । गर्भित एवं मधुर लेखों का समुच्चय है । भगवान जैन समाजमें यह एक सर्वाङ्ग सुन्दर उच्चकोटिका महावीर-जिनदीक्षाका चित्र बहुत मोहक और साहित्य तथा ऐतिहासिक पत्र सिद्ध होगा । इस अच्छा है । सभी लेख-कविताएँ उत्तन हैं । यह Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौष, वीर नि०सं०२४५६] अनेकान्त पर लोकमत __सर्व जैन साहित्यबृद्धिका साधन है । इस अपूर्व श्रेष्ठ हैं । आप अपने इन दोनों सुविधानों के लिये कार्य के लिए हृदय से अभिनन्दन है।" समाज के धन्यवादभाजन हैं।" १७ बा• कृष्णलालजी वर्मा, बम्बई- १६ पं० लोकनाथजो शास्त्री, मडबिद्री'जैनहितेषी' के घार निद्राग्रस्त हो जाने के बाद __ 'अनेकान्त' के बारेमें क्या लिखें, पत्र तो मागविचारक समाजको एक ऐसे पत्रकी आवश्यकता सुन्दर है । सच्चे दिलस विचार कीजिये तो आप थी। वह आवश्यकता आपन परी की इसके लिए का परिश्रम प्रशंसनीय है । इसका 'अनेकान्त' या आपको धन्यवाद है...लेखोंमें प० सुखलालजीका 'विश्वतत्वप्रकाशक' अन्वयर्थ नाम है तथा महावीर लेख सर्वोत्कृष्ट है और नवीन दिशा बताने वाला है। स्वामीका दैगम्बरी दीक्षा चित्र भी अत्यन्त भक्ति'भगवान महावीर और उनका समय' वाला लेख उत्पादक तथा मनोरंजक है । आपका ऐतिहामिक बहुत ही लम्बा और थका देने वाला है। अगर तीन दृष्टिम लिग्विन महावीरचरित्र' 'मननीय है। अन्त चार अंकोंमें प्रकाशित होता तो अच्छाथा । दूमर में इतना ही निवेदन है कि जिनोपदिष्ट अनकान्त लेख भी बुरे नहीं हैं। ......कविताओं में 'नीच तत्वोंका प्रकाशन करतहुए चिरकाल जीविन रहे।" २० पं० कमलकुमारजी, गनाऔर अछूत' गहरी सहानुभूति और भावावेगसे 'अनकान्त' का प्रथमांक बड़ा ही अच्छा है और लिखी गई है......। मैं इस पत्रका स्वागत करता छपाई मफाई भी मनमोहक है । पत्रके सर्वसुन्दर हूं। मुझे आशा है यह खूब फलेगा फलेगा। बनानमें मम्पादक महादयनं कोई बात उठा नहीं १८ श्री भगवन्त गणपति गोयलीय,जबलपुर रक्खी । ......... मेरी जीवनी में तो यह " 'अनेकान्त' मिला । ऐसे एक पत्रकी समाजको सर्वप्रथम मौका है कि ऐसा सर्वाङ्ग सुन्दर अङ्क बड़ी आवश्यकता थी । समाजके मस्तिष्कको इम । दग्वन में आया । पत्रका प्रत्येक पृष्ठ पठनीय एवं से पर्याप्त धार्मिक तथा साहित्यिक पुष्टि मिलेगी। विचारणीय है । जगह २ पर मम्पादक द्वारा दिय आश्रम के संग मंग आपकी यह पत्र-योजना भी गय नोट सम्पादक महोदयकी बुद्धिमत्ता एवं पत्र अपने ढंगकी अनूठी है । मैं समन्तभद्राश्रम और का गौरवता प्रकट करते हैं । पत्रमें अनेकांत सत्सूर्य 'अनेकान्त' की सफलता का एकान्त इच्छुक हूँ। एवं महावीर जिनदीक्षाका चित्र बड़ीही सुन्दरता 'अनेकान्त' के सभी गद्यलेख अच्छे हैं। ...... म चित्रित किये गये हैं । पत्र के पिछले पृष्ठ पर पद्य-साहित्य उसके प्रथमांकक योग्य नहीं है। लमप्राय जैनप्रन्थोंकी खोज नामकी तीसरा विज्ञप्ति ऐसा जान पड़ता है कि इन पत्रों में प्रकाशित होने भी सराहनीय है। इससे भविष्य में जैन ममाज के लिये कविताएँ स्वयं लजित और सशंकित हैं। का भारी उद्धार होने की सम्भावना है।" 'अनेकान्त' जिज्ञासुत्रोंका स्थायी साहित्य है अतः २१ पं० बसन्तलालजी चौधरी, इटावाउसकी सिलाई अबकी बारकी सिलाईसे अच्छी 'अनकान्त' मिला, हाथमें लेते ही चित्त आनन्दहोनी चाहिये, मुखपृष्ठ, कागज और छपाई सभी विह्वल होगया । श्राकार,प्रकार, रूप,रंग, सौन्दर्य, Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ अनेकान्त [वर्ष १, किरण २ छपाई, सफाई, सभी में अपने ढंगका आला दर्जे हमको ही नहीं बल्कि हमारी भावी संततिको रहा । टाइटिलके ब्लाककी कल्पना “अनेकान्त" यथेष्ट लाभ होता रहेगा।" कं नामानुकूल अपूर्व ही रही। भगवान महावीर २३ मुनि कल्याणविजयजी, गड़ा बालोतराकी दीक्षावाला चित्र भी बड़ा ही अपर्व रहा। ऐसा "आश्रमके उद्देश्य और पत्रकी नीतिमे मैं सहमत नयनाभिगम भावपूर्ण चित्र कि, जिसे नेत्रों के हूँ। इन दोनोंकी सहायता करनेमें जहाँ तक होगा सामने मे हटाने को तवियत नहीं चाहती । मैं उद्यत रहूंगा । मुख्नारजी! आपका आशय और देखते देखन चित्तको वैराग्य और भक्ति के रमम लगन स्तुत्य है इसमें कोई शक नहीं है, पर साम्प्रआप्लावित कर देता है। सम्पादन भी उसका दायिक रंगम रंगा हुआ जैनममाज आपके इम ख्लब सोच समझ कर विलक्षण पाण्डित्यके साथ प्रयत्नकी कहाँ तक क़दर करेगा इमका ठीक पता हुआ है। फ़िज़लकी और भर्ती की एक भी बात नहीं है।......आपका महावीर समय विषयक लेख इधरसे उधर नहीं आने पाई। वीरसंवत्-सम्बन्धी भी मैंने पढ़ा है आपकी विचारमरणी भी ठीक है। लेख छोटा होने पर भी बड़े माकका है। यह लेग्य उन विद्वानों को जो इस विपय में काफी तौर में __ "जैनजीवन" सशंकिन हैं स्थिर विचार करनेमें काफ़ी सहायता जैनसमाज के सुधार तथा धर्म की उन्नतिमे दंगा। यथार्थमें यह पत्र आजके जमानेकी माँग विघ्नरूप होने वाली प्रवृतियों और उनको दूर को अनुभव करके ही निकाला गया है।" करने के सतर्क उपायों को निर्भयता के साथ २० ला- कुन्थदासजी जैन रईस, बाराबकी- प्रकाशित करने वाले गुजराती-हिन्दी पाक्षिक पत्र "रुढथात्मक धर्माभिमानदग्ध,मतप्राय जैनसमाज 'जैनजीवन' के आज ही प्राहक बनो । षार्षिक मूल्य में जो अत्यंत उपयोगी कार्य (आपन) अपने कर तीन रुपये। व्यवस्थापक “जैनजीवन", पना । कमलो द्वारा संपादित करनेका सल्माहस किया है वह अति प्रशंसनीय है । आशा है और श्रीमजिक संस्कृत-प्राकृत अनोखे ग्रंथ न्द्रसे प्रार्थना है कि सुधारके कण्टकाकीर्ण विषम प्रमाणमीमांसा पृ. सं. १२८ रु १ पथको उल्लंघन करता हुआ आपका यह यज्ञ सचित्र तत्वार्थसूत्र सभाष्य पृ स. २४६ रु.२॥ संसारव्यापि प्राणियोंका तम विच्छेद कर अनेकांत स्याद्वादमंजरी पृ. स. ३१२ रु. २ ज्योतिका विकाश करें। स्याद्वादरत्नाकर पृ.सं. ६६० भाग १-२-३-४ रु.॥ ___ यद्यपि मैं आपसे पूर्व में यह प्रार्थना कर चुकाहूँ सूयगडं (सूत्रकृतांग) सनियुक्ति पृ.सं. १५२ रु १ कि मैं एक लघु प्राणी हूँ तथापि मोह वश स्वार्थ प्राकृत व्याकरण पृ. सं. २४४ रु २ साधनार्थ १००) की तुच्छ भेट आपकी संस्थाको छपते हैं-स्याद्वादरत्नाकर, औपपातिक सूत्र. देता हूँ और प्रार्थना करता हूँ कि इसके बदलेमें भाईतमत-प्रभाकर कार्यालय "अनेकान्त" का सदैव दर्शन होता रहै, जिससे भवानी पेठ, पुना नं०२ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहम् సమంత परमागमस्य बीजं निषिद्ध-जात्यन्ध-सिन्धुर-विधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।। -श्रीश्रमतचन्द्रमरिः। वर्ष १ । समन्तभद्राश्रम, करोल बाग, देहली । माघ, संवत १९८६ वि०, वीर-निर्वाण सं० २४५६ किरण ३ asmananana nararan anak mere * सम्वका सच्चा उपाय * १ जग के पदार्थ सारे, वत इच्छानकूल जो नरी । ६ तो तुझको सुख होवे, पर ऐसा हो नहीं सकना ॥ , क्योंकि परिणमन उनका, शाश्वत उनके अधीन ही रहता। जो निज-अधीन चाहे, वह व्याकुल व्यर्थ होता है। IBNNNNNNNN ₹ इससे उपाय सुखका, मच्चा, स्वाधीन-वृत्ति है अपनी। १ राग-द्वेष-विहीना, क्षण में सब; दुःम्ब हरती जो ॥", -'युगवीर' CascinacnNCREDEBANare? Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० अनेकान्त अनेकान्त [वर्ष १, किरण ३ th पुरानी बातों की खोज । KAA पास उन्होंने विद्याध्ययन किया होगा और पद्मनन्दि प्रभाचन्द्र अकलंकके शिष्य नहीं थे तथा रत्ननन्दि उनके दीक्षागुरु होंगे या उनके पास भी और न समकालीन उन्होंने विद्या सीखी होगी।" 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' और 'न्यायकुमुदचन्द्र' x इसके बाद नीचे लिख दो श्लोक उद्धृत किये हैं:के कतो प्रभाचन्द्राचार्य की बाबत कहा जाता है कि वे गुरुः श्रीनन्दिमाणिक्यो नन्दिताशेषमजनः । 'तत्वार्थ-राजवार्तिक' तथा 'लघीयस्त्रय' आदि ग्रंथों नन्दताद दुरितकान्तरजो 'जैनमतार्गावः ॥३॥ के रचयिता भट्टाकलंकदेवके शिष्य थे-अकलंकदेवके श्रीपद्मनन्दिसिद्धान्तशिष्योऽनेकगुणालयः। चरणों के समीप बैठकर उन्होंने ज्ञान सम्पादन किया प्रभाचन्द्रश्चिाजीयाद्रत्नदिपद स्तः ॥४॥ था और इसलिये अकलंकदेव उनके विद्यागुरु थे। -देखो, जैनहितैषी भाग का अंक वां । चुनाँचे सुहृद्वर पं० नाथूरामजी प्रेमी 'भट्टाकलंकदेव' इन पद्योंसे पहले दो पद्यों और न्यायकुमुदचन्द्रकी प्रशस्तिको नामक अपने निबन्धमें * लिखते हैं : देखते हुए, यह दोनों श्लोक अपने साहित्य और कथनशैली पर मे __“ माणिक्यनन्दि, विद्यानन्द और प्रभाचन्द्र ये प्रभाचन्द्र के मालूम नहीं होते, बल्कि प्रमेयकमलमार्तगड पर टीकातीनों विद्वान अकलंकदेवके समकालीन हैं । इनमें टिप्पणी लिखने वाले किसी दूसरे विद्वानके जान पड़ते हैं । इस ग्रंथ पर से प्रभाचन्द्र तो अपने न्यायकुमुदचन्द्रोदयके प्रथम कोई संस्कृत टीका लिखी गई है, यह बात पहले परिच्छेद के अन्त अध्यायमें निम्नलिखित श्लोकसे यह प्रकट करते हैं में दिय हुए प्रभाचन्द्र के — मिदं सर्वजनप्रबोधजनन ' नामक पद्य की कि उन्होंने अकलंकदेवके चरणों के समीप बैठ कर टीका से पाई जाती है, जो गलती से प्रमेयकमलमार्तण्ड की मुद्रित ज्ञान प्राप्त किया था। प्रति में शामिल हो गई है । और शायद इस टीका पर मे ही के. बोधः कोग्यसमः समस्तविषयं प्राप्याकलई पदं वी० पाठक ने इस पद्य को मगिाक्यनन्दीका समझ लिया है और जातस्तेन समस्तवस्तुविषयं व्याख्यायते तत्पदं। इसीलिये अपने 'कुमारिल और भर्तृहरि' नामक निबन्धमें यह लिखने की भूल की है कि माणिक्यनन्दीने विद्यानन्दका उल्लेख किया है; किं न श्रीगणभृजनेन्द्रपदतः प्राप्तमभावः स्वयं क्योंकि इस पद्यमें विद्यानन्दका उल्लेख है। परन्तु यह पद्य माणिक्यव्याख्यात्यप्रतिमं वचोजिनपतेःसवात्मभाषात्मकम्" की परीक्षामुख' सूत्रका नहीं है जिसका प्रमेयकमलमार्तगडभाष्य विद्यानन्द-विषयक एक दूसरे लेम्बमें भी आपनं है। बल्कि प्रमेयकमलमार्तण्डके अन्य परिच्छेदोंके अन्तमें दिये पद्योंके इस श्लोकको उद्धृत करते हुए ऐसा ही भाव व्यक्त सदृश प्रभाचन्द्र का ही पद्य है । प्रस्तुः पाठक महाशयकी इस भूलका किया है और साथ ही उसके एक फुटनोटमें लिखा है- अनुसरणा पं नाथूरामजी प्रेमी और गालबन तात्या नेमिनाथ पांगल ___प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्डके अन्तमें निम्न ने भी विद्यानन्द-विषयक अपने अपने लेखोंमें किया है । हां, इतना श्लोकों से पद्मनन्दि और रत्ननन्दि को भी अपना गुरु और भी जान लेना चाहिये कि,बौथेन के श्लोकमें जिन रत्ननन्दीका बतलाया है। इससे मालूम होता है कि अकलंक के उल्लेख है व माणिक्यनन्दी से भिन्न कोई दूसरे नहीं जान पड़ते । * देखो, जैनहितैषी भाग ११, अंक ने० ७---. माणिक्यनन्दी का ही पर्यायनाम यह रत्ननन्दी है। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माघ, वीर नि० सं०२४५६] परानो बातोंकी खोज १३१ न्यायतीर्थ पं० गजाधरलालजी ने , 'तत्वार्थराज मणिक्यनन्दि-पदमप्रतिम-प्रबोध वार्तिक' की प्रस्तावनामें भी इस श्लोकको दिया है और न्याख्याय बोधनिधिरेप पुनः प्रबन्धः। प्रेमीजीके कथनका बिलकुल अनुसरण करते हुए इस प्रारभ्पते सकलसिद्धिविधौ समर्थे श्लोकके साथ वाले उनके उक्त 'माणिक्यनन्दि' आदि मूले प्रकाशितजगत्त्रयवस्तुमार्थे ।। ३ ।। वाक्य का अनुवाद भी संस्कृतमें दे दिया है । और इस -न्यायकुमुदचन्द्र । तरह पर इस कथनको पूर्ण रीतिस अपनाया है। इन दोनो पयोंमें माणिक्यनन्दीक जिम 'पद'का इससे मालूम होता है कि इस कथनका एकमात्र व्याख्याका उल्लेख है वह उनका परीक्षामुग्य' शाम्ब आधार उक्त श्लोक है। है । 'पद' के निखिलार्थगोचरं, शिष्यप्रबोधपदं, ___ श्रीयुत के०बी० पाठक ने भी दिगम्बर जैनमाहित्य अप्रतिमप्रबोध आदि जो विशेषण दिये गये हैं वे में कुमारिलका स्थान' नामक अपन लेग्वमें, प्रभाचंद्रका मब भी इसी बातके द्योतक हैं। प्रेमी जी ने भी अपने अकलंकका शिष्य बतलाया है, उसका भी प्राधार गा- विद्यानन्द वाले लग्यमें, दूसरे पद्यको उद्धन करते हुए लबन यही श्लोक जान पड़ता है। परंतु इम श्लोक में 'पद'का यही आशय दिया है-लिखा है “पदकी प्रयक्त हुए 'प्राप्याकलंकपट'मानों पर शिकलंक अर्थात परीक्षामुख ग्रंथ की" और इमम 'पदं' का स्पष्ट देवकं चरणोंके समीप बैठकर'जात्राशय निकाला जाता आशय शास्त्र, वाङ्मय अथवा वाक्यममूह है, इसमें है वह उसका आशय कदापि नहीं है। यहाँ 'प' का कुछ भी संदह नहीं है। अतः उम श्लोकमें प्रयक्त हए अर्थ 'चरण'नहीं किन्तु वाक्य, वाड़मय, शास्त्र अथवा 'अकलंक पदं का श्राशय है अकलंक-वादमय । उसका शब्दसमूह है, और इस अर्थ में भी 'पद' शब्द 'समम्तविषयं विशंपण भी इसी बातका द्योतक है। व्यवहृत होता है; जैसा कि हेमचन्द्राचार्य के निम्न वाक्य उसमें कहा गया है कि 'अकलंकदवकं समस्त-विपयक से प्रकट है: वाड़मय को प्राप्त करके कोई श्रमाधारण बांधकी प्राप्ति पदं स्थाने विभक्त.चन्ते शब्दवाक्यबस्तुनाः ।। त हुई है जिसके प्रमादम उनके शारकी व्याख्या की जाती है। इसके बाद श्लोककं उत्तरार्धमें गणधरदेवका उदाह. खुद प्रभाचंदने उक्त श्लोकक दूमरं चरणमें ग्ण देते हुए यह उत्प्रेक्षा की गई है कि क्या जिनेन्द्रदेव "व्याग्व्यायने तत्पदं" कह कर 'पद' शब्दका इमी के पदरी प्रभावको प्राप्त करके गणधरदेव उनके वचनकी अर्थमें व्यवहार किया है और अन्यत्र भी उनका एमाही व्याख्या करनमें ममर्थ नहीं होते हैं ? जरूर होते हैं। प्रयोग पाया जाता है, जिसके दो नमूने इस प्रकार हैं:- जान पड़ता है इम उत्तरार्ध में प्रयुक्त हुए 'पद' शब्दक गंभीरं निखिलार्थगोचरमलं शिष्यप्रबोधप्रदं अर्थभ्रम में पड़कर ही अकलंकदेवके चरणों मीप यद्वयक्तं पदमद्विनीयमखिलं माणिक्यनंदिप्रभाः। बैठकर ज्ञान प्राप्त करनेकी कल्पना की गई है । अन्यथा, तयाख्यातमदो यथावगमतः किंचिन्मया शतः उसकी कहीं से भी उपलब्धि और मिद्धि नहीं होनी । स्थेयाच्छुद्धधियां मनोरतिगृहे चन्द्रार्कतारावधि ॥ यद्यपि इस उत्तरार्धमें प्रयुक्त हुए 'पद'शब्दका अर्थ भी -प्रमेयकमलमानगड। वाङ्मय होता है और उसमें कोई विरोध नहीं आना। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ३ परंतु उसका अर्थ यहाँ पर यदि 'चरण' भी कर लिया 'अकलंकदेवका मार्ग दुष्प्राप्य है और वह मुझे पुण्योजाय तो भी, यह एक अलंकृत कथन होनसे, यह ला- दयसे प्राप्त हुआ है, मैंने अनन्तवीर्य आचार्यकी उक्तियों जिमी नहीं आता कि पर्वार्धमें प्रयक्त हाए 'पद' का अर्थ पर से-उनकी सिद्धिविनिश्चयादि टीकाओंके कथन ___ परसे-उसका अच्छी तरहसे अभ्यास किया है और भी 'चरण' ही किया जाय । अलंकृत भाषामें एक ही सैंकडों बार उसकी विवेचना की है। उनका अथवा उस शब्दके दो जगह प्रयुक्त होने पर एक जगह कुछ और मार्गका बोध मुझे सिद्धि के का देने वाला होवे'दूसरी जगह कुछ अर्थ होता है,और यही उसकी खुवी त्रैलोक्योदरवर्तिवस्तुविषयज्ञानप्रभावोदयोहोती है। और ऐसाही तब यहाँ भी जान लेना चाहिये। दुःभापोप्यकलंकदेवसरणिः प्राप्तोऽत्र पुण्योदयात् । __ अबमें कुछ विशेष प्रमाणों द्वारा इस बातको और स्वभ्यस्तश्च विवेचितश्चशतशः सोऽनन्तवीर्योक्तितोभी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि 'कि प्रभाचन्द्र अकलंक भयान्मे नयनीतिदत्तमनसस्तद्बोधसिद्धिपदः ॥ के शिष्य नहीं थे और न उनके समकालीन थे':- इससे यह साफ़ जाना जाता है कि प्रभाचंद्र अक (१) अकलंकदेवके सिद्धिविनिश्चयादि ग्रंथों के प्रधान लंकदेवके शिष्य तो क्या होते उनके समयमें भी नहीं टीकाकार 'अनन्तवीर्य' आचार्य हाए हैं। प्रभाचन्दने हुए हैं, बल्कि उस वक्त हुए हैं जब कि अकलंकदेवके मार्गका ज्ञान प्राप्त करना भी एक तरहसे दुष्कर हो न्यायकुमुदचंद्रके मंगलाचरण में उन्हें भी अकलंकदेव गया था और वह मार्ग उनकं ग्रन्थोंकी अनन्तवीर्य के अनन्तर नमस्कार किया है । यथाः आचार्यकृत टीकाओं परसे ही उन्हें प्राप्त हो सका था। सिद्धिपदं प्रकटिताखिलवस्तुतत्त्व (३) न्यायकुमुदचन्द्रके अंतमें एक प्रशस्ति x भी मानन्दमन्दिरमशेषगुणैकपात्रं । लगी हुई है, जो इस प्रकार है:श्रीमजिनेन्द्रमकलंकमनन्तवीर्य ___* यहां भी यह 'सिद्धि' शब्दका प्रयोग 'सिद्धिविनिश्चय' ग्रंथ मानम्य लक्षणपदं प्रवरं प्रवक्ष्ये ॥ १॥ और उसकी टीकाके स्मरणको लिये हुए है। इममे मालम होता है कि यदि प्रभाचंद्र वद अक- - यह प्रशस्ति ग्रन्थकी एक अत्यन्त जीर्ण शीर्ण-प्रति पर से लंकके शिष्य होते तो वे उनके प्रथोंके टीकाकार अन- उतारी गई है, जिसका दर्शन-सौभाग्य मुझे गत वर्ष महमदाबादमें न्तवीर्य का इस तरह पर स्तवन न करते। इसमें ५०बेचरदास तथा मुखलालजीके पास प्राप्त हुआ था और उन्हें वह अनन्तवीर्यका 'सिद्धिप्रदं विशेषण उनकी सिद्धिविनि- प्रति १० नाथूरामजी प्रेमी द्वारा प्राप्त हुई थी। ग्रन्थके दो पत्रों के श्रय-टीका को ध्वनित करता है। परस्पर चिपक जानेसे प्रशस्ति बहुत कुछ भस्पष्ट हो रही थी और (२) प्रभाचंद्र, न्यायकुमुदचंद्रके पाँचवें परिच्छेदके पूरी तौरमं पढ़ी नहीं जाती थी । इसीसे प्रेमीजीने भी एक बार, शुरूमें, निम्न पाद्वारा यह भी सूचित करते हैं कि जब कि मैं रनकरगडश्रावकाचार की प्रस्तावना लिख रहा था, - मेरे प्रशस्ति मंगाने पर उसे न भेज कर एसा ही लिख दिया xश्रीवादिराजसरि भी न्यायविनिय-विक्रगाके निन्न वाक्यों द्वाग था। प्रस्तुः सूक्ष्मदर्शक माईग्लास कौरहकी सहायतासे कई दिन प्रकट करते हैं कि-अकलकवाड़मयकी अगाध भूमिमें संनिहित गूढ परिश्रम करने पर यह प्रशस्ति मुशकिलसे की गई है। बादको भारा अर्थको अनन्तवीर्यकी वाणीरूपी दीपशिखा पद पद पर अच्छी तरहसे के जनसिद्धान्त-भवनसे इस ग्रन्थकी प्रशस्ति मगाई गई : उसमें और व्यक्त करती है: कोई खास विशेषता नहीं है, सिर्फ दूसरे पद्यमें 'बृहस्पति' के बाद गूढ़मर्थमकलावाङ्मयागाधभूमिनिहितं तदर्थिनां । 'प्रभृति पाठ अधिक है जो ठीक जान पड़ता है,और 'न्यायांभोधिनिबन्धनः' व्यजयत्यलमनन्तवीर्यवाकू दीपवर्तिनिश पदे पदे ॥ ३॥ की जगह 'न्यायाभोनिधिमंथनः' तथा 'वरः' की जगह 'पर: पाठ है। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माघ, वीर नि०सं०२४५६] पुरानी बातोंकी खोज बोधो मे न तथाविधोस्ति न सरस्वत्या प्रदत्तो वरः हुई थी, और वे अनन्तवीर्य भी उनके समयमें मौजूद साहाय्यं च न कम्यचिदचनतोप्यस्ति प्रबन्योदये। नहीं थे । यदि मौजूद होते तो प्रभाचंद्र यह कभी न तत्पुण्यं जिननायभक्तिजनितं येनायमन्यद्भुतः लिखते कि उन्हें इस प्रबन्धके रचनमें वचनमे किमीकी संजातो निखिलार्थवोधनिलयः साधुप्रसात्परः।।१ भी सहायता प्राप्त नहीं हुई है। कल्याणावसथः सवर्णरचितो विद्याधरैः सवित- इस संपूर्ण विवेचन और स्पष्टीकरण परम इम स्तुगांगों विधपियो व., विधश्रीको गिरीद्रोपमः विपयमें कोई संदेह नहीं रहता कि प्रभाचंद्र अकलंक भ्राम्यद्भिर्नर हम्पनि [प्रनिभिःप्राप्तं यदीयं पदं शिष्य नहींथं और न उनके ममकालीन थे । अतः जिन न्यायांमाधिनिबन्धनश्चिम्मसोस्थेयात्मबंधोवरः।।२ विद्वानोंका इस विषयका भ्रमहा उन्हें उसका मंशोधन मूलं यस्य समस्तवस्तुविषयं ज्ञानं परं निर्मलं कर डालना चाहिये। बुनं संव्यवहारसिद्धमखिलं संवादिमानं महत् । शाखाः सर्वनयाः प्रपत्रनिवहो निक्षेपमालाऽमला न्यायकुमुदचन्द्र की टीका-प्रशस्ति जीयाज्जैनमताहिपोत्रफलितःस्वर्गादिभिःसत्फलैः३ । ___ प्रभाचंद्रके न्यायकुमुदचन्द्र' पर कोई वृत्ति (टीका) भव्यांभोजदिवाकरो गुणनिधिर्योभज्जगदभषणः भी लिखी गई है, यह बात अभी तक मालूम नहीं थी। सिद्धांतादिसमस्तशास्त्र जलधि:श्रीपद्मनंदिमभुः। तच्छिद्यादकलंकमागनिरतात्सन्न्यायमागोखिलः नोटमें उल्लेख किया गया है उससे उसका भी पता 3. परन्तु न्यायकुमुदचंद्रकी जिस जीर्णशीर्णप्रतिका पिछले सव्यक्तोऽनपमप्रमेयरचितो जातःप्रभाचद्रतः॥४ चलता है। उसमें न्यायकुमुदचन्द्रकी उक्त प्रशस्ति के अभिभूयनिजविपक्षनिखिलमतोद्योतनागुणांभोधिः बाद वत्तिकी प्रशस्ति भी दी हुई है, जो आराकी प्रति सविता जयतु जिनेंद्रः शुभप्रवधः प्रभाचद्रः ॥५॥ में नहीं है। यह प्रशस्ति और भी ज्यादा खराब हालत इति प्रभाचंद्रविरचिते न्यायकुमुदचंद्रे ल- में पाई गई, पत्रोंके चिपकनका सबसे ज्यादा असर घीयस्त्रयालंकारे सप्तमः परिच्छेदः समाप्तः ॥ छ॥ इसी पर पड़ा और इस लिये इसके कितने ही अक्षर इसके पहले ही पथमें प्रभाचंदाचार्यन यह सचित तो बिलकुल ही उड गये है, जो किसी तरह भी पढ़े किया है कि 'उन्हें इस भाष्य प्रन्थके रचनमें वचनम- नहीं जासके-वे खाली स्थानके सिवाय पत्र पर अपने मौखिक रूपसे-किसीकी भी सहायता नहीं मिली है, अस्तित्वका और कोई चिन्ह छोड़ ही नहीं गये ! फिर और चौथे पद्य में उन्होंने अपनेको 'पद्मनन्दि आचार्य भी प्रयत्न करने पर यह प्रशम्ति बहुत कुछ पढ़ी जा का शिष्य' तथा 'अकलंकदेवके मार्ग निरत' बतलाया मकी है, और वह इस प्रकार है:है। इससे यह साफ़ जाना जाता है कि प्रभाचंद्र अक- "श्रीनंदिसंघकुलमंदिररत्नदीप: लंक देवके शिष्य नहीं थे और न उनके समकालीन; सिद्धांतमूवतिलको "नंदिनामा बल्कि वे उनके एक मार्गानुयायी थे, जिम मार्गकी चडामणिप्रभृतिसर्वनिमित्तवेदी प्राप्ति, पूर्व कथनानुसार, उन्हें अनंतवीर्यकी उक्तियोंमे चूडामणिर्भवनिमित्त विदा बभूव । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ३ शिष्यस्तस्य तपोनिधिः सिद्धांतमहोदधिके पारदृष्टा थे। सौख्यनन्दी के शिष्य शमनिधिर्वि (धानिधि) निधिः देवनन्दी और देवनन्दीके शिष्य भास्करनन्दी हुए, शीलानंदितभव्यलोकहृदयः सौख्यैकनंदीत्यभूत् । जिनकी प्रशंसामें बहुत कुछ कहा गया है । इसके बाद आरुह्य प्रतिभागुणप्रवहणं सदबोधि रत्नो(च्चयं)। अंतिम पद्यका कुछ अंश उड गया है । जिसमें भास्कर(सत्सि) द्धांतमहोदधेरनवधेः पारंपरं दृष्टवान् । नन्दीके शिष्यका नाम होने की बहुत कुछ संभावना है अंतेवासी समान मुनिस्तस्य यो देवनंदी और संभवतः उसी के द्वारान्यायकुमुदचंद्र की यह वृत्ति चातुर्वण्यश्रमणगणिभिर्देववदंदनीयो लिग्बी गई है, जिसका अन्तिम संधि में 'वत्तितर्कः' देवश्वासावजनि परमानंदयोगाच्च नंदी ॥ रूपसे म्पष्ट उल्लेख किया गया है । यदि इस प्रशस्तिकं एतस्मादुदयाचला. 'दयेनाभितः अन्तिम भागमें दूसरे नामका उल्लेख नहीं है तो श्रीमद्भास्करनंदिना दशदिशस्तेजोभिरुद्योतिताः। भास्करनन्दी को ही वृत्ति का कर्ता समझना होगा। विद्वत्तारकचक्रवालमखिलं मिथ्यातयो ...... अतः भास्करनन्दीके शिष्य या ग्बुद भास्करनन्दीके .....'वचोमरीचिनिचयराच्छादितं सर्वतः ॥छ॥ द्वारा न्यायकुमुदपंद्रकी वृत्ति लिखी गई है, ऐसा इस त्यक्तावादकथापि वादिदिवहनयोपिजन्यःकतो प्रशस्तिस साफ ध्वनित होता है । जिन विद्वानों को इस जन्पार्क ... .. निगदितं पापंडिवतंडित वृत्तिका परिचय हो अथवा न्यायकुमुदचंद्रकी किसी षटतर्कोपनिषिन्निशाण निशितप्रज्ञस्य सेव्यते । दूसरी प्रतिमें उन्होंने इस प्रशस्तिको देखा हो उन्हें श्रीमद्भास्करनंदिपंडितयतः ........ ...ला चाहिये कि वे उसे प्रकट करें, जिससे उन अंशोंकी इति न्यायकुमुदचद्रवृत्तितर्कः समाप्तः मिति पूर्ति हो जाय जो इस प्रशस्तिमें टूट रहे हैं। इससे ॥छ । ग्रन्थ सं०१६००० ॥ १५५० ।। शुभं - कई प्राचार्योंकी परम्परा ठीक हो जायगी। आशा है भवतु ॥छ। श्रीः ।।" विद्वान् भाई इस ओर जरूर ध्यान देंगे और शीघ्र ही ग्रंथावलोकन का थोड़ा सा परिश्रम उठाएँगे। ___ इससे मालूम होता है कि नन्दिसंघक कोई नन्द्यन्त नामके सिद्धान्त शिगेर्माण आचार्य हुए हैं जो चड़ामणि आदि निमित्तों के जानने वाले थे और भव- अकलंक-ग्रन्थ और उनके स्वोपज्ञ भाष्य निमित्तके जानने वालों में प्रधान (चूड़ामणि ) थे। जैनसमाजमें अकलंकदेवका जितना नाम प्रसिद्ध है इनके नामक पहले दो अक्षर उड़ गये हैं । इससे पुरा और उनके प्रति जितना भक्तिभाव प्रकट किया जाता नाम मालूम नहीं हो सका । हो मकता है कि आपका है उतना उनके मौलिक ग्रन्थोंका प्रचार नहीं हैनाम 'अभयनन्दी' या गुणनन्दी' कुछ ऐसा कुछ रहा हो। बल्कि यों कहिये कि मौलिक प्रन्थोंका प्रचार तो अस्तु; आपके शिष्य सौख्यनंदी हुए, जो तप, शम, उसका सहस्रांश भी नहीं है -आम तौरसे अच्छे विद्या तथा बुद्धिके निधान थे , जिन्होंने अपने शीलसे अच्छे शास्त्रभंडारोंमें भी उनका कोई दर्शन नहीं होता, भव्यजनों के हृदयको आनन्दित किया था और जो विद्वत्समाजको भी इस बातका बहुत कम पता है कि Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माघ, वीर नि०सं०२४५६] पुरानी बातों की खोज १३५ अकलंकदेवके मौलिक ग्रन्थ कौन कौनसे हैं । 'तत्त्वार्थ- सदशताके कारण एक ग्रंथप्रति के पत्र दूसरी ग्रन्थराजवार्तिक' और 'अष्टशती' नाम के जो प्रन्थ कुछ प्रतिमें लग गये हैं और इस तरह लोगोंकी अथवा भंडारों में पाये जाते हैं वे अकलंकदवकं मौलिक ग्रंथ संरक्षकोंकी अमाववधानी से दोनों ही ग्रंथ अधर हो नहीं है किन्तु दूसरे प्राचार्यों के ग्रन्थों पर लिखे हुए गये !! इस ग्रंथप्रतिके पहले ५०० पत्रीका भाग एक उनके भाष्य हैं। उनके उल्लेग्व-योग्य मौलिक ग्रन्थाम तरफ़म कुछ कुछ गल गया है और उड गया है; बीच 'लघीयस्त्रय' नामका एक ही ग्रंथ -जो प्रमाणप्रवेश वीचमें भी कई पत्र ट गये हैं और कई पत्रांकी तो आदि तीन छोटे छोटे प्रकरणों का लिये हुए माणिक- मत्ता भी नहीं है, जो मंभवतः इमी तरह टट ट्ट कर चद्रप्रन्थमाला की कृपा से किसी भंडारकी काल- नष्ट हो गये हैं। इस प्रकार यह ग्रंथप्रति अधुरी है और कोठरी से निकलकर अभी तक पलिकके सामने भंडारके मंरक्षकोंकी असावधानता और उनकी विल आया है। परन्तु उसके साथ भी स्वोपज्ञ भाष्य लगा क्षण शास्त्रभक्तिको पुकार पुकार कर कह रही है !!! हुआ नहीं है । स्वोपज्ञभाष्यों की-खुद अकलंकद्वारा परन्तु अधरी होने पर भी इससे कई बातोंका पता अपने ग्रन्थों पर लिखी हुई टीका-टिपणियों की- चल गया है और और भी कुछ चल सकता है; किन्तु शायद किसीको कल्पना भी नहीं है। परन्तु स्वोपज्ञ- जिन ग्रंथांकी सत्ता ही नहीं रही उनसे क्या मालुम हो भाष्य अनेक प्रन्थों पर लिखे गए जरूर हैं-भले ही सकता है ? यदि खंडित समझ कर इस प्रन्थप्रतिकी वे आकारमें कितने ही छोटे क्यों न हों । और इसका जलसमाधि लगा दी जाती या इसे अग्नि देवताके सुअनुभव मुझे गत वर्ष गुजरात-पुरातत्त्व-मन्दिर में पुर्द कर दिया जाना तो कितना अलाभ होता ? बहुत अकलंकदेवकं कुछ प्रन्थोंकी टीकाओं के पन्ने पलटने में नाममझ भाई एमा कर देते हैं, यह उनकी बड़ी पर हुआ है। लघीयत्रय पर भी स्वोपज्ञभाष्य लिखा भल है । अतः जिन शास्त्रभंडागेमें ऐसी जीर्ण-शीर्ण गया है, यह बात तो दैवयोग्य से उस जीर्णशीर्ण प्रति वंडित प्राचीन प्रतियाँ हों उनके मंरक्षकोंको परसे ही जानी गई है जिसका पिछले नोटोंमें उल्लेख चाहिये कि वे उन्हें योग्य विद्वानोंको दिखला कर किया गया है। उस प्रतिके शुरुमें दस पत्र ऐसे हैं जो उनका मदुपयोग करें अथवा समन्तभद्राश्रमको भंज न्यायकुमुदचंद्रके कोई अंग नहीं हैं। वे किमी दूमरी देवें । यहाँ उनसे यथेष्ट लाभ उठाया जा सकेगा। अम्नु । सदृश प्रतिके पत्र हैं, जो एक ही लेखकद्वारा एक ही अकलंकदेवके मौलिक प्रन्थों में 'लघीयम्रय' के प्रकार के आकारादि को लिये हुए काराज़ पर लिम्वी अतिरिक्त तीन ग्रन्थ सबसे अधिक महत्वकं हैं-सिगई होंगी। इन दस पत्रों में 'लघीयत्रय' नामका मूल द्धिविनिश्चय, २ न्यायविनिश्चय और ३ प्रमाणसंग्रह। प्रन्थ स्वोपज्ञ वृत्ति को लिये हुए जान पड़ता है। वह शायद इन्हींके संग्रहको 'वृहतत्रय' कहते हों । वृहनत्रय इन पत्रोंमें पूरा नहीं हुआ। कुछ और भी अवशिष्ट की बाबत पं० नाथूरामजी प्रेमीके भट्टाकलंक-विषयक रहा है जो उस दूसरी प्रतिमें होगा। इसीसे न्याय- लेखस मालूम हुआ था कि उसकी एक प्रति कोल्हापुर कुमुदचंद्र के प्रारंभिक दस पत्र इस प्रति में नहीं हैं। में पं० कल्लापा भग्मापा निटवेजीके पास मौजूद है। मालूम होता है प्रन्थों को धूप देने आदिके ममय परन्तु प्रेमीजीके द्वारा लिखा-पढ़ी करने पर भी उन्होंने Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ३ उसके अस्तित्वादि-विषयमें कोई सूचना देनेकी कृपा सिद्धिविणिच्छय-सम्मत्यादि गिरहंतोऽपंथरनहीं की । समाजके विद्वानोंकी ऐसे विषयोंमें भी यह माणो जं अकप्पियं पडिसेवइ जयणाए तत्थ सो उपेक्षा, निःसन्देह, बहुन ही खटकती है और बड़ी ही सद्धोप्रायश्चित्त इत्यर्थः।।* चिन्तनीय है! अतः इन तीनोंमूल ग्रन्थोंमेंसे कौन ग्रन्थ इसमें 'सिद्धविनिश्चय' ग्रंथ कितनं असाधारण कहाँ के भंडारमें मौजूद है, इसका अभी तक कुछ भी महत्व की चीज़ है इस बलानकी जरूरत नहीं रहती। पता नहीं है। हाँ, इतना सुनिश्चित है कि 'सिद्धिविनि- ग्रन्थके इस उल्लेख परमे ही उसकी खोज प्रारंभ हुई । श्चय' और 'प्रमाणमंग्रह' पर अनन्तवीर्याचार्यकी टीका मुनि श्रीकल्याणविजयजीन जैनयुग' में सूचना निकाली तथा भाष्य लिखे गये हैं और न्यायविनिश्चय पर वा- कि, 'सिद्धिविनिश्चय' नामका कोई ग्रन्थ 'सन्मति' दिराजसरिका विवरण है जिस 'न्यायविनिश्चयालंकार' तर्क जैसा महान है उसकी खोज होनी चाहिये । अहभी कहते हैं। न्यायविनिश्चयालंकार पहलेसे दो एक मदाबादसे भाई शंभुलाल जगशी शाहजी किसी कार्यभंडारोंमें मिलता था परन्तु सिद्धविनिश्चय-टीका की वश कच्छदेशक 'कोडाय' ग्राम (ताल्लुका, माँडवी) गये हालमें ही खोज हुई है और इस टीका परसे ही मुझे हुए थे, उन्हें वहाँ श्वेताम्बर-'ज्ञानभण्डार' को देखते 'प्रमाणसंग्रह-भाष्य' का पता चला है-टीकामें अनेक हुए दैवयोगमे 'मिद्धिविनिश्चय-टीका' की उपलब्धि हुई स्थानों पर विशेष कथनके लिये अनन्तवीर्य आचार्यनं और उन्होंने उसके विपयमें पं०सुखलाल तथा पं० बेअपने इस भाष्यको देखने की प्रेरणा की है। यह चरदासजी आदिको सूचना दी। सूचना पाकर उन्होंने महत्वपूर्ण भाष्य कहाँ के भण्डारमें पड़ा हुआ अपने उम प्रन्थकी उपयोगिता जाहिर की और उसे लानकी दिन पर कर रहा है अथवा कर चुका है, इसका अभी प्रेरणा की । वह ग्रंथ अहमदाबाद लाया गया और तक कुछ भी पता नहीं है । मिद्धिविनिश्चय-टीकाकी गजरात-पुरातत्व-मंदिरमें उमकी कापी कराई गई। लोकसंख्या सोलह हजारम ऊपर है, यह एक बड़े इम तरह इस सिद्धिविनिश्चय टीकाकी खोज तथा महत्वकी टीका है और इसकी खोजका इतिहास भी उद्धारका श्रेय मुनि कल्याणविजय, भाई शंभलाल, पं० अच्छा रहस्यपूर्ण है। सुखलाल और पं० बेचरदामजीको प्राप्त है । और इस श्वताम्बरांक जीतकल्परिण' ग्रंथकी श्रीचंद्रसरि- लिये ये सभी मजन विशेष धन्यवादके पात्र हैं।। विचिन 'विषमपदव्याख्या' नामकी टीकामें मिद्धि- परंतु पाठकों को यह जान कर दुःख होगा कि विनिश्चय' नामक ग्रन्थ का उल्लेख है और उसे दर्शन- इस टीका में मूल लगा हुआ नहीं है-मूलके मिर्फ प्रभावक शास्त्रोंमें सन्मति (नक) के माथ पहला स्थान आयाक्षगेका ही उल्लेख करके टीका लिखी गई है। प्रदान किया है और लिखा है कि, ऐस दर्शनप्रभावक इसमें मूलका उल्लेख दो प्रकारसे पाया जाता है-एक शास्त्रोंका अध्ययन करते हुए साधुको अकल्पित प्रति- 'अत्राह' आदिके साथ कारिका रूप से और दूसरे सेवनाका दोप भी लगे तो उमका कुछ भी प्रायश्चित्त नेताम्बरोंक ‘निशीथ ग्रन्थकी वृर्णिमें भी ऐसा ही उठेख है। नहीं है, वह साधु शुद्ध है । यथाः और यह बात मुनि कल्याणविजयजीके पत्रसे जानी गई, जो उन्होंने "दंसण ति-दसणपभावगाणि सन्थाणि पं. बेवरदासजीको लिखा था । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात्र, वीर नि०स०२४५६ पुरानी बाता की खोज १३७ 'कारिका व्याख्यातुमाह' जैसे वाक्य-प्रयोगोंके साथ है-उम थोथा, नुमाइशी और नि मार प्रकट कर रही कारिकाकी व्याख्यारूपसे। व्याख्याके भी आद्याक्षरही है। जो समाज 'मिद्धि विनिश्चय' जैसे अपने अमादिये हैं-पूरी व्याख्या नहीं दी और कहीं कहीं उन्हें धारण दर्शनप्रभावक ग्रन्थों की भी यों भलादे-उन देकर 'मगमेतत् ऐसा लिख दिया है और उसकी टीका का म्मरण तक भी उसे न रहं-उसका मंमारमं यदि नहीं की। इससे यह टीका मूल 'सिद्धिविनिश्चय' और प्रभाव उठ जाय तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? एमे उसके 'म्वोपज्ञ भाष्य' को लेकर लिखी गई है, ऐसा बहुमूल्य रत्नाकी अवहेलना करनम ही आज यह जानि जान पड़ता है । और चूंकि 'लघीयस्त्रय' पर भीस्वापक्ष श्रीहीन बनी हुई है । जैनियोंके लिये, निःसन्देह, यह एक भाष्यका पता चलता है, इससे यह अनुमान होता है. बड़ी ही लज्जा तथा शरम की बात है जो वे ऐसे महान क 'न्यायविनिश्चय' आदि दसरं कठिन प्रन्थों पर भी ग्रंथोंकी खोज तथा उद्धार-सम्बंधी जरूरी कर्तव्यों के म्वोपज्ञ भाप्य लिग्वे गये होगे। न्यायविनिश्चयालंकार मामने मौजद होने हुए भी, उन में भाग न लेकर, दीके साथमें भी न्यायविनिश्चय पूरा लगा हुआ नहीं है, नागें पर मोना लीपन है अथवा माने चांदीक रथ-घोड़े उसकी कोई काई कारिका ही परी दी है , बाकी सब आदि निकालकर अपनी शान दिखलानेमें ही लगे हुए कारिकाओंके श्राद्यानर ही दिये हैं। और यह बात मरे है; और जो लमप्राय जैनग्न्याकी म्बोजकी बात मामने नोट से रह गई कि उसमें किसी कारिका की व्याम्या आत ही कानी पर हाथ रम्बत हैं तथा इधर उधर बगले भी दी हुई है या कि नहीं। झाकत है, और इस तरह कर्तव्यनिष्ट विद्वत्ममाजकं ___ मिद्धिविनिश्चयकी टीका परम में न यह जानने मामन अपने को हॅमी का पात्र बना रहे है। की भी कोशिश की, कि उसके सहारेसे मृलग्रंथ भिन्न हर्पका विषय है कि मिद्धिविनिश्चयके माथ माथ अथवा स्पष्ट किया जा मकता है या कि नहीं, और जिम दृमा ग्रंथक माहात्म्यका उन्लग्व श्वेताम्बर-मत्रो मालूम हुआ कि नहीं किया जा सकता। सिर्फ किसी में पाया जाना है उम 'मन्मनितर्क' का उद्धार, उमकी किसी कारिका को ही हम उस परम पूरा अथवा स्पष्ट ५ हजार मंधन टीका-महिन, श्वेताम्बर भाइयों ने कर सकते हैं, और ऐसी कारिकाओं की संख्या बहुन कर टाला है, जिसका विशेष परिचय उसके प्राप्त होने ही अल्प है । मंगलाचरणकी कारिका को मैंने परिश्रम पर पाटकों को दिया जायगा। सुना है एक ही मंट करके स्पष्ट किया है और उम पं० वरदास जी ने ने .. या ३० हजार रुपये उमके उद्धार के लिये पुरातत्व-मंदिर की प्रति पर मुझमे लिग्वा भी लियाहै, गजगन-पगनव-मंदिर का दिय थे । दम वप में पं० वह इस प्रकार है: मग्यलान तथा पं. बंचग्दाम जी जैम योग्य विद्वानां सर्वज्ञं सर्वतत्त्वार्थ-स्याद्वादन्याय-देशिनं । सम्पादकन्त्र में उसके उद्धार का कार्य चल श्रीवर्द्धमानमम्यर्च्य वच्य सिद्धिविनिश्चयम्॥ रहा था जो अब ममानि के करीब है- भमिका इस तरह अकलंकदेवके ये तीनों ही महत्वपूर्ण लिखी जा रही है । क्या दिगम्बर्ग में कोई भी गन्थ अप्राप्य हो रहे हैं और उनकी यह अप्राप्ति नि- ऐसा माईका लाल नहीं है जो 'मिद्धिविनिश्चय' का यों की अकलंक-भक्ति पर कलंक का टीका लगा रही उसकी टीका-महित उद्धार करनेका बीड़ा उठा मक? Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ३ हैं बहुतरे, परन्तु एक तो उनका ऐसे उपयोगी कार्यों श्रीगालपुरदुर्गे श्रीपातिसाहि जला(ल)दीन अकबरसाहिकी ओर ध्यान नहीं, दूसरे उनकी शक्तिरूपी स्टीमका प्रवर्तमान x......... एतेषांमध्ये परमसुश्रावकअनुपयोगी छिद्रों द्वारा अपव्यय हो रहा है। यदि यह साधु श्रीटोडर जंबुस्वामिचरित्रं कारापितं लिखापितं अपव्यय रुक जाय और उम स्टीमका रुग्व उपयोगी च कर्मक्षयनिमितं ॥छ।। लिखितं गंगादासेन ।।" कार्यों की ओर फिर जाय तो सब कुछ हो सकता है. इससे यह ग्रन्थ लाटीसंहितासे ९-१० वर्ष पहले और एक दिन वह आ सकता है जो समाजके सारेही का बना हुआ है। इसमें कुल १३ सर्ग हैं और मुख्यतया प्राचीन माहित्यका उद्धार हो जाय । दिगम्बर समाज अन्तिम केवली जम्बस्वामी तथा उनके प्रसाद से के धनिकों को सुद्धिकी प्राप्तिहा और वे भी इस विषय सन्मार्गमें लगने वाले विद्युञ्चर' की कथाका वर्णन है। में अपना कर्तव्य मममें यही इम ममय मेरी हार्दिक इसका पहला मर्ग 'कथामुखवर्णन' नामका १४७ पद्यों भावना है। में समाप्त हुआ है और उसमें कथाके रचना-सम्बन्ध ___ को व्यक्त करते हुए कितनी ही ऐतिहासिक बातोंका कवि राजमल्लका एक और ग्रन्थ भी उल्लेख किया है। अकबर बादशाहकी बाबत लिखा 'कवि राजमल्ल और पंचाध्यायी'नामके निबन्ध* है कि उसने 'जज़िया' कर छोड़ दिया था और में मैंने कविमहोदयके तीन ग्रंथोंका परिचय दिया था- 'शराब' बन्द की थी । यथा :१ अध्यात्मकमलमार्तण्ड, २ लाटीसंहिता और ३ "मुमोच शुल्क त्वथ जेजियाऽभिधं पंचाध्यायी। उस वक्त तक ये ही ग्रन्थ उपलब्ध हुए स यावदंभोधरभूधराधरं ॥ २७ ।। थे। अब एक चौथे संस्कृत गन्थका और पता चला ततोऽपि मद्यं तदवद्यकारणं है, जिसका नाम है ' जम्बूम्वामिचरित' । यह ग्रन्थ- निवारयामास विदांवरः स हि ॥२६॥ प्रति देहली-मठकं कंचेके जैनमंदिर में मौजूद है, ___ आगरेमें उस समय अकबर बादशाहके एक खास बहुत कुछ जीर्ण-शीर्ण है-कितनी ही जगह काग़जकी अधिकारी ('सर्वाधिकारक्षमः') 'कृष्णामंगल चौधरी' टुकियाँ लगाकर उसकी रक्षा की गई है-उसी वक्तके नामके ठाकुर थे, जो 'अरजानीपुत्र' भी कहलाते थे करीब की लिखी हुई है जब कि इसकी रचना हुई थी और उनके आगे 'गढमल्लसाहु' नामके एक वैष्णवधर्मा और उन्हीं साधु (साहु) टोडरके द्वारा लिखाई गई है वलम्बी दूसरे अधिकारी थे जो बड़े परोपकारी थे। जिन्होंने कविसे इसकी रचना कराई थी। गन्थकीरचना इस ग्रन्थकी रचना करने वाले टोडरसाहु इन दोनों के का समय अन्तमें विक्रम सं०१६३२ दिया है । यथाः- खास प्रीतिपात्र थे और उन्हें टकमालके कार्यमें दक्ष __ "श्रथ संवत्सरेम्मिन श्रीनपविक्रमादित्यगताब्द लिखा है - संवत् १६३२ वर्षे चैत्रसुदि ८ वासरे पुनर्वसुनक्षत्रं “तयोयोः प्रीतिरसामृतात्मकः • यह निबन्ध 'वीर' के तीसरे वर्षके सयुक्तांक २०१२-१३ में म भाति नानायकसाग्दतकः।" और माणिकचन्द्रग्रन्थमालामें प्रकाशित होने वाली 'लाटीमहिता'के यहां मध्यमें साधु टोडरकी गुरुग्राम्नाय तथा कुटुम्बके नामामाधमें भी प्रकट हमा है। दिकका उल्लेख किया है। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माघ,वीर नि०सं०२४५६] पुरानी बातों की खोज १३९ टोडरसाहु गर्गगोत्री अग्रवाल थे भटानियाकोल नगर के रहने वाले थे और काष्टासंधी भद्वारक मदारक मथुरामें ५०० से अधिक जनस्तूप कुमारसेनकं आम्नायी थे । कुमारसेनको भानुकीर्तिका, भानुकीर्निको गुणभद्रका और गुणभद्रको मलयकीर्ति .. कवि गजमल्ल के 'जम्बूस्वामिचरित' में-उसके भट्टारक का पट्टशिष्य लिखा है। परन्तु लाटीसंहितामें कथामग्ववर्णन' नामक प्रथम मर्गम-एक खास जो वि०सं० १६४१ में बनकर समाप्त हुई है, यही बातका पता चलता है, और वह यह कि उस वक्तग्रंथकार इन्हीं कुमारसेन भट्टारक के पट्ट पर क्रमशः __अकबर बादशाहके समय में-मथुग नगरी के पाम हेमचंद्र, पद्मनन्दी, यशःकीर्ति और क्षेमकीर्ति भट्टारकों की बहिमि पर ५०० में अधिक जैनम्नप थे । मध्यमें का होना लिखते हैं और प्रकट करते हैं कि इस समय ___ अन्त्य केवली जम्बस्वामी का स्तप ( निःसहीस्थान) क्षेमकीर्ति भट्टारक मौजूद हैं। इससे यह साफ माल्म , और उसके चरणों में ही विदाच्चर मुनि का होता है कि दस वर्षके भीतर चार पट्ट बदल गये हैं। म्तप था। फिर उनके आस-पास कही पाँच, कहीं पाठ कहीं दस और कही बीम इत्यादि म्पने दूसरे मुनियों और ये भट्टारक बहुत ही अल्पायु हुए हैं । संभव है कि के स्तप बने हुए थे। ये स्तप बहुत पुराने होने की उनकी इस अल्पायुका कारण कोई आकस्मिक मृत्यु वजह से जीर्ण-शीर्ण हो गये थे। साहु टोडरजी जब अथवा नगरमें किसी वबाका फैल जाना रहा हो। , यात्रा को निकले और मथुग पहुँच कर उन्होंने इन कवि राजमल्लन इस ग्रन्थमें भी अपना कोई विशेष म्तपो की इस हालत को देखा तो उनके हृदय में उन्हें परिचय नहीं दिया । हॉ, “स्याद्वादानवद्य गद्यपद्य फिर से नये कग देने का धार्मिक भाव उत्पन्न हुआ। । हा, "स्याद्वादानवधगयषय चनाँचे आपन वडी उदारता के माथ बहुन द्रव्य खर्च विद्याविशारद" यह विशेषण इम गन्थमें भी दिया करके उनका नतन संस्कार कराया। म्तपों के इस गया है। साथ ही,गन्थ रचनेकी प्रार्थनामें अपने विषय नवीन संस्करणमें ५०१ म्तपोंका ना एक ममूह और में इतनी सूचना और की है कि श्राप परोपकारकं लिय १३ का दूमरा, ५१४ स्तुप बनाये गये और उनके कटिबद्ध' थे । यथाः पास ही १२ द्वारपाल आदिक भी स्थापित किये गये। जय निमारग का यह मब कायं पग हो गया तब चतयूय परोपकाराय बद्धकता महाधियः । उत्तीणाश्च परंतीर कृपावारिमहादधः ॥ विध संघको बलाकर उत्सवके माथ ज्येष्ठ शुक्ला द्वादशी क्यवार दिन ९ घडी के ऊपर पूजन तथा मूरिमंत्रततोनग्रहमाधाय बोधयध्वं तु मे मनः। परम्मर इम नीर्थ मम " प्रभावशाली क्षेत्रकी प्रतिष्ठा जम्बूस्वामिपुराणम्य शुश्रूषा हृदि वर्तते । नीम का कारण यह है कि कवि बहुत संभव है कि श्राप कोई त्यागी ब्रह्मचारी ही द्वारा जम्बू'वामीका निर्वागा स्थान मथुराको न मानकर, विपुलाचल माना रहे हो । अस्तु; इस ग्रन्थ परसे इतना तो स्पष्ट है कि गया है (तता जगाम निर्वागा कवनी विपुलाचनात)। मलकीर्तिक शिष्य जिनदास ब्रह्मचारीने भी विपलाचलको ही निगम्थान बतआप कुछ वर्ष तक आगरेमें भी रहे हैं। और आगरक लाया है। मथुगको निव गास्थान मानने की जा प्रमिद्धि है वह किम बाद ही आप वैराट नगर पहुंचे हैं जहाँ कि जिनालयमें आधार पर प्रवलम्बित है, यह अभी तक भी कुछ टाक मालूम नहीं बैठ कर आपन लाटीमंहिताकी रचना की थी। होमका। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० अनेकान्त [वर्ष १, किरण ३ की गई X । इस विषय को सूचित करने वाले पद्य यशः कृते धनः तेनः केचिद्धर्मकृतेऽर्थतः । इस प्रकार हैं तद्वयार्थमसौ दधे यथा स्वादुमहौषधं ॥११॥ अथैकदा महापुर्या मथुरायां कृतोद्यमः । शीघ्र शुभदिने लग्ने मंगलद्रव्यपूर्वक । यात्रायै सिद्धक्षेत्रस्थ चैत्यानामगमत्सुखं ॥ ७॥ सोत्साहः समारंभ कृतवान्पुण्यवानिह ॥११५॥ तस्य पर्यंतभूभागे दृष्टवा स्थानं मनोहरं । ततोऽप्येकाग्रचित्तेन सावधानतयाऽनिशं । महर्षिभिः समासीनं पतं सिद्धास्पदोपमं ॥५०॥ महोदारतया शश्वन्निन्ये पर्णानि पुण्यभाक्॥११६ तत्रापश्यत्सधर्मान्मा निःसहीस्थानमुत्तमं । शतानां पंच चाथैकं शुद्धं चाधित्रयोदशं । अंत्यकेवलिनो जंबूस्वामिनो मध्यमादिमं ॥१॥ म्त पानां तत्समीपे.च द्वादशद्वारिकादिकं॥११७॥ ततो नियुच्चरो नाम्ना मुनिः स्यात्तदनग्रहात । संवत्सरे गताब्दानां शतानां षोडशं क्रमात् (मतं) अतस्तस्यैव पादान्ते स्थापितः पूर्वसरिभिः। ॥ शुद्धस्त्रिंशद्भिरन्दैश्च साधिकं दधति स्फुट।११८॥ ततः केपि महासत्वा दुःख मंसारभीरवः । शुभे ज्येष्ठे महामासे शुक्ने पक्ष महोदये । संनिधानं तयोः प्राप्य पदं साम्यं समं दधः ।।८३॥ द्वादश्यां बुधवारे स्याद् घटीनां च नवोपरि।।११६ ततो धृतमहामोहा अखंडव्रतधारिणः। परमाश्चर्यपदं पतं स्थानं तीर्थसमप्रभ । स्वायुरंते यथास्थानं जग्मस्तेभ्यो नमोनमः॥८॥ शुभं रुक्मगिरेः साक्षात्कूटं लक्षमिवोच्छितं॥१२० ततः स्थानानि तेषां हि तयोः पार्श्वे सयक्तितः। पूजया च यथाशक्ति सरिमंत्रः प्रतिष्ठितं । स्थापितानि यथाम्नाये प्रमाणनयकोविदः ॥८६॥ चतुर्विधमहासंघ समाहूयात्र धीमता ॥ १२१॥ कचित्पंचकिचच्चायो कचिश ततः परं। ये सब स्तप आज मथुरामें नहीं है, काल के प्रबल कचिद्विशति रेवं स्यात स्तपानां च यथायथं ॥७॥ आघात तथा विरोधियोके तीव मतद्वेपनं उन्हें धराशायी तत्रापि चिरकालत्वे द्रव्याणां परिणामतः। ' कर दिया है, उनके भग्नावशेष ही आज कुछ टीलोंक र स्तपानां कृतकत्वाच्च जीर्णतास्यादवाधिता।।८८॥ - रूपमें चीन्हे जा सकते हैं। आम तौर पर जैनियोंको तो दष्ट्वा मधर्मात्मा नव्यमुद्धृतुमत्सकः ।। इस बातका पता भी नहीं कि मथरामें कभी उनके इतने स्याद्यथा जीर्णपत्राणि वसंतः समयो नवः।।८६॥ ....... म्तप रहे हैं । बहुतसे स्तपोंके ध्वंसावशेप तो सदृशताके मनो व्यापारयामास धर्मकार्ये सुबुद्धिमान् । कारण गलतीसे बौद्धोंके समझ लिये गये हैं और तदतावद्धर्मफलास्तिक्यं श्रदधानाऽवधानवान॥६०॥ लेख-वाक्योंसे प्रकट है कि मथुरामें जैनस्तपोंकी एक नुसार जैनी भी वैसा ही मानने लगे हैं । परंतु ऊपरके ज्ञातधर्मफलः सोऽयं स्तपान्यभिनवत्वतः। बहुत बड़ी संख्या रही है । और उसका कारण भी है। कारयामास पुण्यार्थ यशः केन निवार्यते॥११॥ विद्युञ्चर' नामका एक बहुत बड़ा डाकू था, जो राज प्रतिष्ठा हो जाने के बाद ही सभामें जम्बूस्वामीका चरित रखने पुत्र होने पर भी किमी दुरभिनिवेशके वश चोर कर्ममें के लिये कवि राजमल्लसे प्राथना की गई है, जिसके दो पद्य पिछले प्रवृत्त होकर चोरी तथा डकैती किया करता था, और नोटमें उद्धतकिये गये हैं। जिमे आम जैनी 'विद्युत चोर' के नाममे पहचानते Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध, वीर नि०सं०२४५६] पुरानी बातोंकी खोज हैं है। उसके पाँचसौ साथी थे । जम्बम्वामीके व्यक्तित्व सर्यास्तकं बाद यह गमन क्रिया उचित नहीं है। से प्रभावित होकर, उनकी असाधारण निस्पृहता- डरने वालोंके निःशंकित नामका धर्म कैसा? आगममें विरक्तता-अलिप्तताको देख कर और उनके सदुपदंशको उपसर्गों को सहने वाला ही योगी प्रसिद्ध है । इम लिये पाकर उसकी आँख खली, हृदय बदल गया, अपनी भावी शुभाशुभ कर्मानुसार जो कुछ होना है वह हो पिछली प्रवृत्ति पर उस भारी खेद हुआ और इस रहो, हम तो आज रातको यहीं मौन लेकर ग्हंगे।' लिये वह भी स्वामी के साथ जिनदीक्षा लेकर जैनमुनि तदनुसार सभी मुनिजन मौन लंकर स्थिर होगये । बन गया । यह सब देखकर उसके प्रभव आदि साथी इसके बाद जो उपसर्ग-परम्पग प्रारंभ हुई है उम यहाँ भी जो सदा उसके साथ एकजान-एकप्राण होकर बतलाकर पाठकोंका चित्त दुखानको जरूरत नहीं हैरहते थे, विरक्त हो गये और उन्हों ने भी जैनमुनि- उसके म्मरणमात्रस गेंगटे खड़े होते हैं । रात भर नाना दीक्षा ले ली । इस तरह यह ५०१ मुनियोका संघ प्रायः प्रकारके घार उपसर्ग जारी रहे और उन्हें दृढताक साथ एक साथ ही रहता तथा विचरता था। एक बार जब म्यभावसे महते हुए ही मुनियों ने प्राण त्याग किये यह संघ विहार करता हुआ जा रहा था तो इसे मथुरा हैं। उन्हीं समाधि को प्रान धीर वीर मुनियोंकी पवित्र के बाहर एक महोद्यान में सूर्यास्त हो गया और इस यादगार में उनके समाधिस्थानके तौर पर ये ५०१ लिये मुनिचर्याके अनुसार सब मुनि उसी स्थान पर स्तूप एकत्र बनाये गये जान पड़ते हैं। बाकी १३ स्तप ठहर गये । इतने में किसी ने आकर विद्युञ्चर को में एक स्तुप जम्बस्वामीका होगा और १२ दूसरे मुनिसूचना दी कि यदि तुम लोग इस स्थान पर रातको पुंगवों के । जम्बम्वामी का निर्वाण यद्यपि इम ग्रंथमें ठहरोगे तो तुम्हारे ऊपर ऐसे घोर उपसर्ग होंगे जिन्हें विपुलाचल पर बतलाया गया है, फिर भी चूंकि जबतुम सहन नहीं कर सकोगे, अतः किसी दूसरे स्थान स्वामी मथुरा में विहार करते हुए श्राए थे, * कुछ पर चले जाओ। इस पर विद्यश्चर ने संघके कुछ वृद्ध अर्मे तक ठहर थे और विचर आदिके जीवन को मुनियों से परामर्श किया परन्तु मुनिचर्याके अनुसार पलटने वाले उनके खास गुरू थे इसलिये साथमें उनकी रात को गमन करना उचित नहीं समझा गया। कुछ भी यादगारके तौर पर उनका स्तुप बनाया गया है। मुनियों ने तो दृढताके साथ यहाँ तक कह डाला कि हो सकता है कि ये १३ स्तप उमी स्थान पर हों जिस पर आज कल चौगमीमें जम्बस्वामीका विशाल मंदिर अस्तं गते दिवानाथे नेयं कालांचिता क्रिया बना हुआ है और ५०१ म्तपों का ममूह कंकाली टीले विभ्यता कीदृशोधमः स्वापिन्निःशंकिताभिधः। के स्थान पर (या उमके मंनिकट प्रदेशमें) हो जहाँमे उपसर्गसहा योगी प्रसिद्धः परमाग। बहुतमी जैनमूर्तियाँ तथा शिलालेख आदि निकले हैं । भवत्वत्र यथा भाव्यं भाविकम शुभाशुभ ॥ पुरातत्वज्ञों द्वारा इस विषयकी अच्छी खाज होनेकी तिष्ठामा वयमद्यैव रजन्यां मौनवृत्तयः। जरूरत है । जैनविद्वानों तथा श्रीमानोंको इसके लिए नाम परिश्रम करना चाहिये। इसी विद्याधर की कथाके नूतन मस्करगाको पाटक ‘अनेकान्न' जुगलकिशोर मुग्लार की पहली किरणमे पढ़ रहे हैं। x अथ विद्यञ्चरो नाम्ना पर्यटनिह सन्मुनिः॥ १२-१२३ ॥ एकदशांगविद्यायामधीती विदधत्तपः । मगधादिमहादशमथुरादिपुरीस्तथा । अथान्येद्यःसनिःसंगो मुनिकातैर्वृतः ।। १२४ ॥ कुर्वन धर्मोपदेश म केवलज्ञानलाचनः ॥ १.-११ ।। मथुरायां महोद्यानप्रदेशेष्वगमन्मुदा । वर्षायदापर्यंत स्थितस्तत्र जिनाधिपः । तदागच्चत्स वैलनयं भानुरस्ताच श्रितः॥ १२५॥ तता जगाम निर्वाण कवली विपुलाचनात ॥ ११ ॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ३ महाराजा खारवेलसिरिके शिलालेखकी १४ वीं पंक्ति [ लेखक-श्री- मुनि पुण्यविजयजी] मान्य विद्वन्महादय श्रीयत काशीप्रसाद जायस- है* इसके बदलेमें उपरि निर्दिष्ट अंशकी छाया और वाल महाशय ने कलिंगचक्रवर्ती महाराज खारवेल के इसका अर्थ इस प्रकार करना अधिकतर उचित होगाशिलालेखका वाचन, छाया और अर्थ श्रादि बड़ी छाया-कायनषेधिक्या यापनीयकेभ्यःयोग्यता के साथ किया है । तथापि उस शिलालेख में यापनीयेभ्यः। अद्यापि ऐसे अनेक स्थान हैं जो अर्थकी अपेक्षा शंकित अर्थ-(केवल मन और वचन से ही नहीं बल्कि) हैं ।आजके इस लेखमें उक्त शिलालेखकी १४वीं पंक्ति " काया के द्वारा प्राणातिपातादि अशुभ क्रियाओं की के एक अंश पर कुछ स्पष्टीकरण करनेका इरादा है। .' निवृत्ति द्वारा (धर्मका) निर्वाह करने वालों के लिये । वह अंश इस प्रकार है___ "अरहयते पखीनसंसितेहि कायनिसीटी- यहाँपर "कायनिसीदीयाय यापनावकेहि" याय यापजावकेहि राजभितिनि चिनवतानि - अंशका जो अर्थ किया गया है वह ठीक है या नहीं ? इस अर्थ के लिये कुछ आधार है या नहीं ? , उक्त वासा सितानि " शिलालेखके अंश के साथ पूर्णतया या अंशतः तुलना ऊपर जो अंश उद्धृत किया गयाहै इसमेंम सिर्फ की जाय ऐम शास्त्रीय पाठ जैनग्रन्थों में पाये जाते जिसके नीचे लाइन की गई है इसके विषय में ही इम हैं या नहीं ? उक्तशिलालेखका सम्बन्ध दिगम्बर जैन लेखमें विचार करना है। सम्प्रदायसे है या श्वेताम्बर जैनसम्प्रदायसे है? इत्यादि श्रीमान जायमवाल महाशयन इस अंशकालिका निर्णय करने में सगमता होनेके लिये जैनप्रन्थों "कायनिषाद्या यापज्ञापकेभ्यः" ऐसी.संस्कृत छाया के पाठ क्रमशः उद्धृत किये जाते हैंकरकं "कायनिषीदी" (स्तुप) पर (रहनेवालों) पापx श्वेताम्बर जैनसम्प्रदायके साधुगणको प्रति दिन बताने वालों (पापज्ञापकों), के लिये ऐसा जो अर्थ किया श्रावश्यक क्रियारूपमें काम आने वाले 'षड्विधा * अर्थकी अपेक्षा ही नहीं किन्तु शब्द-साहित्यकी अपेक्षा भी वश्यकसूत्र' के तीसरे 'वन्दणय' (सं० वंदन) नामक प्रभी शक्ति हैं । प्रकृत पंक्तिका पाठादिक भी पहले कुछ प्रकट आवश्यक सत्र में निम्न लिखित पाठ हैकिया गया था और पीछेसे कुछ, और इसलिये उसकी विशिष्ट जांच होनेकी जरूरत है। -सम्पादक * ठेखो, नागरीप्रचारिणी पत्रिका भाग ८ प्रा३. ___x नागरीप्रचारिणी पत्रिका भाग १० मा ३ में "जो कदा- xमास्य कविहं पगणत, तंजहा—सामाइयं चउवीसत्यमो कित 'यापज्ञापक' कहलात थे।" ऐसा भी लिखा है। वंदनाय पडिलमग काउस्सगो पचक्खागां । कदीमुतं । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माघ, वीर नि०सं०२४५६] महाराजा खारवेलसिरिक शिलालेखकी १४ वी पंक्ति १४६ इच्छामि खमासमणो . वंदिउं जावणिज्जा- निमोहियाए मत्थरण वंदामि ." खमासमणसुत्।। ए निसीहियाएअणुजाणह मे मिउग्गाहं निसीहि । इन उद्धृत पाठोंमें कायनिमीठीयाय यापनावxxx जचा में जवणिज्जं च भे .. केहि " अंश से पूर्णतया और अंशतः तुलना की जाय मान्य आचार्य श्रीजिनदासगणि महत्तरने और एस ऐसा दोनों प्रकार का उल्लेख्य है। याकिनीमहत्तरासन श्रीहरिभद्राचार्य ने 'पविध विवाहपगणती' (मंन्याख्याप्रज्ञप्ति दमरा नाम आवश्यकसूत्र' की चूर्णी और टीका में इस मूत्र पर भगवती सूत्र ) और 'नायाधम्मकहानी' ( मं० ज्ञाताअतिविस्तृत व्याख्या की है, जिन में से उपयोगी अंश धर्मकथाः) श्रादि जैन आगम प्रन्याम “यापनावकेहि" अंशके साथ तुलना की जाय ऐमा पाठ और साथ में यहाँ पर उद्धृत किया जाता है - "चूर्णी-जावणिज्जाए निसीहियाए । इसका अर्थ भी मिलता है । जो इस प्रकार है “वाणियगामे नामं नगरे x x x सोयावणी यानामना केणति पयोगेण कज्जसमत्या, मिले नामं माहणे x x x समणं भगवं जा पुण पयोगेण वि न समन्था सा अजावणीया, महावीरं एवं बयासी-जत्ता ते भंते ! १ जबताए जावणिज्जाए । काए ? निसीहियाए , 'णिज्ज ते भंते ! १ अन्याबाई पि ते? फासुयनिसीहि नाम सरीरगं वसही थंडिलं च भएणति, ' विहारं ते १ सामिला ! जत्ता वि मे, जबणिज्ज जतो निसीहिता नाम प्रालयो वसही थंडिल च, पि मे, अव्वाबाहं पि मे, फायविहारं पि मे । सरीरं जीवस्स प्रालयो ति, तथा पडिसिद्धनिसेवणनियत्तस्स किरिया निसीहिया, ताप" xxx कि ते भंते ? जवणिज्नं सांमिला। " जाणज्नं दुविहे पएणत्ते, नं जहा--इंदियजआवश्यक ची उत्तरभाग पत्र ४६ ।। . वणिज्जे य नो इंदियजवणिज्जे य । सं किं तं टीका -या प्रापणे, अस्य एयन्तस्य कर्त्त- इंदियजवणिज्ने ? सोमिला ! जं मे सोइन्दिय र्यनीयच, यापयतीति यापनीया तया । पिधु चविखंदियघाणिदियजिभिदियफासिंदियाइनिगत्याम्, अस्य निपूर्वम्य पनि निषेधनं निपधः वहयाई वमे वटंति से तं इन्दियजवणिज्जे । निषेधेन निर्व त्ता नैपधिकी, प्राकृनशैन्या छान्द- से किं तं नाइन्दियजवणिज्जे ? सोमिला ! जं सत्वाद्वा 'नैधिका' इत्युच्यते ।x x x याप- पं कांहमाणमायालोमा वोच्छिन्ना नो उदोरेंनि नीयया' यथाशक्तियुक्तया 'नषेधिक्या' प्राणाति- से तं नाइन्दिय जवणिज्ने । सेत्तंजवणिज्ने । पातादिनिवृत्तया तन्वाशरीरेणेत्यर्थः ॥ xxx -भगवतीसत्र सटीक पत्र ७५७-५८ ।। यापनीयं चन्द्रिय नोइन्द्रियोपशमादिना प्रकारेण यह उपर्युक्त पाठ ही अक्षरशः 'नायाधम्मकहानो' '' भवताम् १शरीरमिति गम्यते॥" आदि जैनागमोंमें नज़र आता है। फर्क मात्र इतना है -आवश्यक हारिभद्री टीका पत्र ५४६-४७॥ कि-भगवतीसत्र में सोमिलनामका ब्राह्मण श्रमण "इच्छामिखमासमणोविंदिउंजावणिज्जाए भगवान महावीरको ये प्रश्न पूछना है तब 'झानाधर्म Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ अनकान्त वर्ष १, किरण३ कथाः*' आदि सूत्रों में शुक नामक परिव्राजक श्रादि लेखकी १५ वीं पंक्तिमें "अरहतनिसीदीयासमीपे" भिन्न भिन्न व्यक्तियों थावञ्चापुत्र आदि मुनियों को ये का "अहंत की निषीदी(स्तुप) के पास" ऐसा अर्थ प्रश्न पूछती हैं। किया गया है-अर्थान् 'निसीदिया' शब्द का अर्थ ___आचार्य अभयदेव ने उपर्युक्त सूत्र की टीकामें 'स्तृप' किया है और १४ वीं पंक्तिमें इसी शब्द का 'जवणिज्ज' का संक्षिप्र अर्थ इस प्रकार लिखा है- भिन्न अर्थ क्यों किया जाता है ? इसका समाधान यह 'यापनीय' मांसाध्वनि गच्छतां प्रयोजक है कि- श्वेताम्बर जैनसम्प्रदाय के प्रन्थों में 'निसीइन्द्रियादिवश्यतारूपो धर्मः॥ हिया' या निसेहिया' शब्द बहुत जगहों पर भिन्न भिन्न अर्थमें प्रयोजित किया गया है-भगवतीमूत्र सटीक पत्र ७५९ । __ णिसीडिया स्त्री० [निशीथिका] १ स्वाध्याय-भूमि इस लेखमें जिन शास्त्रीय पाठों का उल्लेख किया , अध्ययनस्थान, ( आचारांग २-२-२)। २ थोड़े गया है वे मभी श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय के प्रन्थों समय के लिये उपात्तस्थान, (भगवती १४-१०)। में पाठ हैं । दिगम्बर जैनसम्प्रदाय के गन्थों में से आचारांग सत्रका एक अध्ययन (श्राचा०२-२-२)। "कायनिसीदीयाय यापभावकेहि" अंशके साथ मिसीहिया स्त्री० [ नैषेधिकी] १ स्वाध्यायभुमि, तुलना की जाय ऐसे पाठ है या नहीं यह जबतक मैंने (समवायांग पत्र ४०)। २ पापक्रियाका त्याग,(प्रतिक्रमदिगम्बर साहित्यका अभ्यन नहीं किया है तब तक णसत्र)। ३ व्यापारांतरके निषेधरूप सामाचारीमैं नहीं कह मकता हूँ। और न्याय-व्याकरणतीर्थ श्राचार, (ठाणांगसत्र १० पत्र ४९९)। ४ मुक्ति मोक्ष। पं० श्रीहरगोविंददास कृत 'पाइअसहमहण्णवो' आदि ५ श्मशानभूमि, तीर्थकर या मुनिके निर्वाण का स्थान, कोशों के जैसा कोई दिगम्बर साहित्य का कोश भी स्तप, समाधि, ( वसुदेवहिण्डि पत्र २६४-३०)। नहीं है कि जिसके द्वारा मेरे जैसा अल्पाभ्यासी भी ६ बैठने का स्थान । ७ नितम्बद्वारके समीप का भाग निर्णय कर सके । दिगम्बर सम्प्रदायके साहित्यके वि- (राज प्रश्नीय सत्र ) । ८ शरीर, ९ वसतिशिष्ट अभ्यासी पं०श्रीनाथरामजीप्रेमी और 'अनेकान्त' साधओं के रहने का स्थान, १० स्थण्डिल-निर्जीव पत्रके सम्पादक बाबू जुगलकिशोरजी मुख्तार महाशय भूमि, ( आवश्यक चूर्णी)।* के द्वारा मुझे समाचार मिले हैं कि-ऊपर लिखेपाठोंके -पाइअसहमहण्णवो पत्र ५१२-१३ ॥ साथ तुलना की जाय ऐसा कोई पाठ दिगम्बर सम्प्र- अंत में इस लेखको समान करते हुए मुझे कहना दायके ग्रन्थोंमें अभी तक देखनेमें नहीं आया है। चाहिये कि- प्रस्तुत लेखका कलेवर केवल यहाँ पर प्रश्न हो सकताहै कि-खारवेल-शिला- शास्त्रीय पाठोंसे ही बढ गया है, किन्तु शिलालेखके - अंश की तुलना और इसके अर्थ को स्पष्ट करने के *देखो पत्र १०६-७. लिये यह अनिवार्य है। x दिगम्बर समाजके लिये निःसन्देह यह एक बड़ी हो लज्जा का विषय है। उसके श्रीमानों तथा विद्वानों का ऐसे उपयोगी कार्य की तरफ ध्यान ही नहीं है। -सम्पादक * इन प्रोंमें कुछ नये अर्थ भी शामिल किये गये हैं। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५ माघ, पीर नि०सं०२४५६] भगवती पाराधना और उसकी टीकाएँ 884000-4800 भगवती आराधना और उसकी टीकाएँ। [लेखक-श्रीयुत पं० नाथरामजी प्रेमी] न समाजमें 'भगवती पारा- अजनिणणंदिगणिसवगतगणि मज्जयित्नणंदीणं धना' नामका एक बहुत ही अवगमिय पादमूले सम्म मुत्तं च भत्यं च ।। २१६१ प्रसिद्ध तथा प्राचीन ग्रन्थ है। पञ्चायरियणिवद्धा उबजीविता इया ससतीए । यह शौरसेनी प्राकृतभाषामें आराधनगसिबज्जेण पाणिदलभोनिणारइदा ।।६२ है और इसमें सब मिला कर छदुमत्थदाइ इन्यदु जंबद्धं होज्ज परयणविरुद्ध । २१६६४ गाथाएँ हैं। इनमें सोधिंतु सगीदत्था पत्रयणवच्छवदाए दु॥६३॥ सम्यग्दर्शन,सम्यग्ज्ञान,सम्य- आराधना भगवदी एवं भत्तीए चरिणदा संती । चारित्र और सम्यक्तपरूप संघास सिबज्जस्स य समाधिवरमुत्तमं देउ ।। ६४ विवचन है । यह प्रधानतः मुनि असुरसुरमणुभकिएणररविससिकिंपुरिसमहियवरच धर्मका प्रन्थ है । मुनिधर्मकी अन्तिम सफलताशान्ति रणो दिसउमममोहिलाहं जिणवरवीरोतिहुवणिंदो॥ पूर्वक समाधिमरण है और इस समाधिमरणका खमदमणियमधराणंधुदरयसुहदुक्खवि-पजुत्ताणं । पण्डितपण्डितमरण, पण्डितमरण आदिका-इसमें 'णाणजोदियसन्लेहणम्मि सणमोजिनवराणं॥६६ और विस्तृत विवेचन है। दिगम्बर सम्प्रदायमें इस अर्थात्-श्रार्य जिननन्दि गणि, आर्य सर्वगत विषयको इतने विस्तारसे समझाने वाला यही सबसे गणि और प्रार्य मित्रनन्दि गणिके चरणोंके निकट पहला ग्रन्थ उपलब्ध है। अन्य सबग्रंथों में इस विषय पर अच्छी तरह सूत्र और अर्थको समझकरके, पूर्वाचार्यों जो कुछ थोड़ा बहुत लिखा हुआ मिलता है, वह प्रायः की निबद्ध की हुई रचना के आधार से पाणिदलभोजी इसके बादका और संभवतः इसीके आधारसे लिखा (करतल पर लेकर भोजन लरने वाले) शिवार्य ने यह हुआ है। इसका मंगलाचरण यह है : आराधना अपनी शक्ति के अनुसार रची है । अपनी सिद्धे जयप्पसिद्ध चउम्विहाराहणाफलं पत्ते । छग्रस्थता या ज्ञानकी अपूर्णताके कारण इसमें जो कुछ वंदित्ता अरिहंते वुच्छं आराहणा कमसो ॥ प्रवचनविरुद्ध लिखा गया हो, उसे सुगीतार्थ-पदार्थ अन्तमें प्रन्थकर्ता आचार्य अपना परिचय इस को भले प्रकार समझने वाले-प्रवचनवात्सल्य भावसे र प्रकार देते हैं :____ यद्यपि मुद्रित प्रति के अन्त में गाथासंग्ल्या यही दी है शुद्ध कर लें । इस प्रकार भक्तिपूर्वक वर्णन की हुई परन्तु यह कुछ सुनिश्चित मालूम नहीं होती; क्योंकि विजयोदया। भगवती आराधना संवको और शिवार्यको (मुझ) उत्तम नामको टीका २१४८ सल्या दी है । अतः जांच होने की जरूरत समाधि दे। असुर-सुर मनुष्य-किन्नर-रवि-शशि-कि पुरुषों द्वारा पूज्य और तीन भुवनके इन्द्र भगवान महा Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ३ वीर मुझे बोधि लाभ दें। क्षम (क्षमा), दम (इंद्रिय- अभी तक इनसे पहलेके किसी भी प्राचीन प्रन्यसे दमन), नियम के धारक, कर्मरहित, सुखदुःखविप्रयुक्त इसकी पुष्टि नहीं हुई है ; अतएव भाचर्य नहीं, जो और ज्ञानसे सल्लेखना को उद्योतित करनेवाले जिनवरों यह भ० प्रभाचंद्रकी ही कल्पना हो * । इससे (तीर्थंकरों) को नमस्कार हो। पहले का एक वृहत् कथाकोश उपलब्ध है, जो शक ___ इससे मालूम होता है कि ग्रन्थकर्ता का पूरा नाम संवत् ८५३ (वि० संवन् ९८९) का बना हुआ है। आर्य शिवनन्दि या शिवगत रहा होगा जिसको कि और जिसके कर्ता आचार्य हरिषेण हैं । ये उसी प्रान्त संक्षेप करके शिवार्य लिखा गया है। 'आर्य' शब्द के समीप के रहने वाले थे जहाँ कि स्वामी समन्तभद्र आचार्यका पर्यायवाची है । प्राचीन ग्रंथों में यह शब्द हुए हैं । इन के कथाकोशमें स्वामी समन्तभद्रकी कथा अधिक व्यवहृत हुआ है। परन्तु ये शिवार्य स्वामी अवश्य होती यदि वह उस समय इस रूपमें प्रचलित समन्तभद्र के शिष्य शिवकोटि कैसे बन गये, यह मैं होती जिस रूपमें कि प्रभाचन्द्र और ब्रह्म नेमिदत्तने बहुत सोच विचार करने पर भी नहीं समझ सका हूँ। लिखी है । एक बात और है और वह यह कि,हरिषेण स्वामी समन्तभद्रकी कथामें लिखा है कि,काशीके जिस के कथाकोशमें वे सभी कथायें मौजूद हैं जो आराधना शैवराजा शिवकोटिकोस्वामीसमन्तभद्रने अपना प्रभाव कथाकोशमें मिलती हैं। केवल स्वामी समन्तभद्रकी और दिखला कर जैनधर्ममें दीक्षित किया था उसीने पीछे इसीके तुल्य भट्टाकलंकदेव तथा पात्रकेसरीकी कथायें भगवती माराधनाकी रचना की थी। परन्तु इस कथा- नहीं हैं। अतएव इन कथाओंको बहुत प्रामाणिक नहीं भाग पर विश्वास करने की इच्छा नहीं होती। क्योंकि माना जा सकता। कम से कम इनकी प्रत्येक बात यदि इस प्रन्थके कर्ता सचमुच ही समन्तभद्रके शिष्य ऐतिहासिक नहीं मानी जा सकती । होते तो यह संभव नहीं था कि वे अपने ग्रन्थमें उनका उल्लेख नकरते। कमसे कम उनका नामस्मरण तो अवश्य *५० माशाधरजी भ. प्रभाचन्द्रसे पहले १३वीं शताब्दी में करते । वे स्पष्टरूप से अपने तीन गुरुओं का स्मरण हुए हैं। उन्होंने इसी प्रथकी टीका में मूल ग्रन्थकारका नाम 'शिवकरते हैं और कहते हैं कि उनके चरणोंके निकट कोटि दिया है । इससे यह नामकल्पना प्रभाच-द्रकी ही नहीं हो अध्ययन करके मैंने इसे लिखा है। जान पड़ता है कि सकती। -सम्पादक थोड़ी सी नामकी समता देख कर ही 'शिवार्य' को इस ग्रन्थका पूरा परिचय प्राप्त करनेके लिए देखा, जनहितैषी 'शिवकोटि' बना डाला गया है और फिर उनका स्वामी भाग VIE ७-८में मेरा 'श्रीहरिषेण कृत कथाकोश' शीर्षक लेख । समन्तभद्रसे सम्बन्ध जोड़ दिया गया है। ४ भहाकलककी कथा कितनी कोलकल्पित है, यह जानने के ___ स्वामीसमन्तभद्रकी उक्त कथाभट्टारक प्रभाचंद्रके लिए अनहितषी भाग ११ भ७-८ में मेरा लिखा हुमा 'भागय कथाकोशमें और उसी के पद्यानुवादरूप ब्रह्मचारी कनकदेव' शीर्षक लेख पढ़िए । स्वयं प्रकलकदेवके राजवार्तिकमें नेमिदत्तके पाराधनाकथाकोशमें दी हुई है और ये दोनों नीचे लिखा हुआ पद्य है जिससे मालूम होता है कि वे 'लघुहब्व' ही कथाकोश विक्रमकी १६वीं शताब्दीके बने हुए है। नामक राजा के पुत्र थेब्रह्मनेमिदत्त महारक मलिभषणके शिष्य थे। उन्होंने अपना जीयाचिरमकलकनह्मा लघुहब्बनृपतिवरतनयः । श्रीपालचरित्र नामका प्रथवि० सं० १५८५ में बनाकर समाप्त किया अनवरतनिखिलद्धिजननुतविद्यः प्रशस्तजनयः ।। है। ब्रह्मनेमिक्तका कपाकोश छप चुका है, परन्तु प्रभाक्यका अभी जबकि माराधनाकयाकोशके कतनि पुरुषोत्तम मशीका नहींपा। पुत्र बतलाया है। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध, वीर नि०सं०२४५६] भगवती आराधना और उसकी टीकाएँ १४७ देवचन्द्रकृत 'राजावलिकथे' नामका एक कनड़ी इससे तो केवल यही मालम होना है कि उनका कथा प्रन्थहै जो विक्रम संवत् १८९६का बना हुआ है। बनाया हुआ कोई ऐसा प्रन्थ है जिस में चतुष्टयात्मक यह बहुत ही आधुनिक है । इसमें स्वामी समन्तभद्रकी (दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तपरूप) मोक्षमार्गका स्वरूप बतकथा है, परन्तु वह उक्त कथाकोशवर्णित कथासे बहुत लाया गया है; परन्तु वह प्रन्थ भगवनी आराधना ही कुछ भिन्न हैx । उसमें शिवकोटिको स्वामी समन्त- है, यह कैसे कहा जा सकता है ?* भद्रका शिष्य जरूर बतलाया है, फिर भी भगवती एक बात और भी ध्यान देने योग्य है कि यदि आराधनाका कर्ता नहीं बतलाया। आचार्य जिनसेन शिवकोटिको समन्तभद्रका शिष्य इसी प्रकार का मानते होते, तो पूर्व प्रन्थकर्ताओंके स्मरण प्रसङ्ग में में जो शक संवत् १०५० (वि० सं० ११८५)का लिखा न करके समन्तभद्र के बाद श्रीदत्त, यशोभद्र और प्रभा - समन्तभद्रके बाद ही वे उनका स्मरण करते; परंतु ऐसा हुआ है । शिवकोटिको समन्तभद्रका शिष्या बतलाकर चंद्रकी प्रशंसामें चार पाँच श्लोक लिखकर फिर शिवउन्हें भगवती आराधनाका नहीं, किन्तु तत्त्वार्थसूत्रकी कोटिके स्मरण का उक्त श्लोक लिखा है । यह ठीक है. टीकाका कर्ता बतलाया है। यथाः- कि, इस प्रकारके स्मरण समयके क्रमसे बहुत ही कम तस्यैवशिष्यश्शिवकोटिसूरिस्तपोलतालंबनदेहयष्टिः किये जाते हैं, फिर भी समन्तभद्र और शिवकोटिका पष्ट पूर्वोक्त गुरु-शिष्य सम्बन्ध यदि मादिपुराणकारको संसारवाराकरपोतमेतत्तत्वार्थसत्रं तदलंचकार || मालूम होता तो वे इतना क्रमवैषम्य कभी न करने x। आदिपुराणके कर्ता भगवजिनसेनने भी शिवकोटि - -- * यद्यपि इस श्लोक भगवती प्राराधना' या 'भागधना' नामक का एक प्रन्थकर्ताके रूपमें स्मरण किया है; परन्तु ग्रंथका काई स्पट उख नहीं किया है परन्तु जिस ढंगमे उदेख किया .उस से न तो यह मालम होता है कि वे भगवती है उस परमं वह एक तरह प्रकृत ग्रंथ-विषयक कुछ ध्वनित अर होता आराधनाके कर्ता थे और न यही कि वे समन्तभद्रके है। और जहां तक मैं समझता हूँ इस उलेखको साथमें लेकर ही यह ग्रन्थ प्रकट रूपमं शिक्कोटिका समझा जाने लगा है । ५० माशाधरजी ने भी ऐसा ही समझा है।हो सकता है कि इस समझने में भूल हो या यह उखही कुछ गलत हो अथवा इसमें समन्तभवक शिष्य शिवकोटिसे भिन्न किसी दूसरे ही शिक्कोटिका उमेख हो। और इसमें लिखा है कि-'वे शिवकोटि मुनीश्वर हमारी यह भी सभव है कि भगवती माराधनामें जिन 'जिननन्दि' प्राचार्या रक्षा करें जिनकी वाणीके द्वारा चतुष्टयरूप मोक्षमार्ग शिवार्यने अपने गुरु रूपसे उख किया है वह समन्तभद्रका ही नामाका आराधन करके यह जगत शीतीत या शो तर हो-'समन्तभव' यह 'जिन' का पर्याय नाम भी है दीक्षानाम 'जिननन्दि' रहा हो और समन्तभद्र ' नाम बावको ऐम गया। ही प्रसिद्ध हुमा हो जैसे देवनन्दि का 'पूज्यपाद' नाम प्रसिद्ध हुमा ४ देखो श्रीयुत पं. जुगलकिशोरजी कृत 'स्वाती समन्तभव' है। परन्तु ये सब बातें भी विशेष अनुसन्धानसे सम्बन्ध रखती हैं। + 'विकान्तकौरव' नाटक 'जिनेंद्रकल्याणाभ्युक्य' ग्रन्थ मौर -सम्पादक नगर ताल्लुकेके शिलालेख नं० ३५में भी, जो कि शक सं०६६ xो प्राचार्य प्रकलकक ग्रन्थों टीकाकार प्रभाकरका जाल का लिखा हुमा है, शिवकोटि को समन्तभद्रका शिष्य लिखा है। प्रकलकसे भी पहले करते हैं उनके विषय में कम-वेषम्य मकरमेकी -सम्पादक यह कल्पना कुछ ठीक मालूम नहीं होती। -सम्पादक शिष्य ISSV Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करनाम का १४८ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ३ भगवती आराधना की रचना कब हुई थी, इसके पाँचवीं शताब्दीके बाद की नहीं जान पड़ती है। स्पष्ट जानने का अभी तक कोई साधन उपलब्ध नहीं - - हुआ है; परन्तु यह निश्चय पूर्वक कहा जा सकता है समय मेरे सामने उपस्थित है। इस प्रतिमें टीकाका नाम 'विजया ____ * यह टीका देहलीके नये मन्दिरमें भी मौजूद है और इस कि यह बहुत प्राचीन ग्रन्थ है X । स्वामी समन्तभद्रसे दया' दिया है-'नियोदया' नहीं । और प्रति विक्रम सं०१८६३ तो पहले का अवश्य होगा। आर्य शिवने अपने जिन की लिखी हुई है। प्रस्तु; इस टीकाके पन्ने पलटने पर मुझे मालूम तीन गुरुओं का उल्लेख किया है, उनमेंसे 'सर्वगुप्त' हुभा है कि इसमें कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थ-वाक्यों तथा उमास्वातिके का नाम श्रवणबेल्गोलके १०५३ नम्बरके शिलालेखमें तत्त्वार्थसूत्रोंका जगह जगह पर उल्लेख है, सिद्धमेनचाई कृत सन्मतिमिलता है। इस शिलालेखमें अंगधारी मनियों का तर्कके वाक्य भी उद्धृत हैं, और कई स्थानों पर पूज्यपादकी सर्वर्थउस्लेख करके फिर कुंभ, विनीत, हलधर सदेव सिद्धिके वाक्य भी उद्धृत पाये जाते हैं, जिनके दो नमूने इस प्रकार हैं "मिथ्यादर्शनज्ञानव रिभ्यः कथ इमे प्राणिनोऽपेयुरिति स्मृतिअचल, मेरुधीर, सर्वज्ञ, सर्वगुप्त, महिधर, धनपाल, समन्वाहारोऽपायश्चियः॥" महावीर, वीर इन आचार्यों के 'इत्याद्यनेकसूरि' कह "तथा चोक्तं-एकदेशकर्मसक्षयलक्षणा निर्जति ॥" चकि पूज्यपादका समय विक्रमकी छी शताब्दी सुनिश्चित है । परम्परा दी है। यदि इस शिलालेखमें वर्णित 'सर्वगुप्त' इससे यह टीका विक्रमकी छठी शताब्दी के प्रायः बादकी बनी हुई आर्य शिवके ही गुरु हों, तो उनकासमय कुन्दकुन्दाचा- जान पड़ती है। इस टीकाके कर्ता प्राचार्य अपनेको 'चन्द्रनन्दी का यके पहले तथा वीरनिर्वाण संवत् ६८३ के बाद (क्यों- प्रशिष्य और बलदेवसूरिका शिष्य लिखते हैं । चन्द्रनन्दीका सबसे कि अंगज्ञान वीर सं०६८३ तक रहामानामा पुगना उख जो अभी तक उपलब्ध हुमा है वह श्रीपुरुषका दानपत्र है, जो 'गोवाय' को ई० सन् ७७६ में दिया गया था। इसमें गुरु और ऐसी दशामें वे अवश्य ही स्वामी समन्तभद्रमे . रूपसे विमलचन्द्र, कीर्तिनन्दी, कुमारनन्दी और चन्द्रनन्दी नामके चार पहले ठहरेंगे। स्वामी समन्तभद्र का समय चौथी प्राचार्यों का उख है ( S.I.J Pt.]I, 88)।बत सम्भव पाँचवीं शताब्दिके लगभग बतलाया जाता है के परन्तु है कि टीकाकारने इन्हीं च-द्रनन्दीका मानेको प्रशिष्य लिखा हो । भगवती आराधना की रचनाशली इससे पूर्व की है। यदि ऐसा है तो इस टीकाके बननेका सपय ८वीं वीं शताब्दी तक मुझे तो इस प्रन्थ की 'विनयादयाटीका' भी चौथी पहुँच जाता है। चन्दन दीका नाम कर्म कृति भी दिया है और " 'कप्रकृति' का वेलूरके १४वे शिलालेखमें भकशकदेव और कद___x इसमें प्रेथकर्ता शिवायन अपना जो विरोषणा 'पाणितलभोजी' कीतिके बाद होना बतलाया है, और अके बाद विमलचन्द्रका उख दिया है उससे इतना तो साफ़ ध्वनित होता है कि इस प्रेयकी रचना किया है। इससे भी इसी समयका समर्थन होता है। बलदेवमूरिका उस समय हुई है जब कि जनसमाजमें करतल भोजियोंके अतिरिक्त प्राचीन उ?ख वणवेल्गोलके दो शिलालेख नं. ७ मोर १५ में मुनियों का एक दूसरा सम्प्रदाय पात्रमें भोजन करने वाला भी उत्पन्न पाया जाता है, जिनका समय क्रमशः ६२२ और ५७२शक संवत्के हो गया था। उसी से अपनेको भिम दिखलानेके लिये इस विशेषण लगभग अनुमान किया गया है। बहुत सम्भव है कि इन्हीं से कोई के प्रयोगकी जरूरत पड़ी है। यह सम्प्रदाय भेद दिगम्बर और बलदेवसरि टीकाकारके गुरु रहे हों । इनके समयसे भी उक समयको श्वेताम्बरका भेद है, जिसका समय उभय सम्प्रदायों द्वारा क्रमशः वि. पुष्टि मिलती है। इसके सिवाय, नागमन्दीको भी टीकाकारने जो से.१३६ तथा बी०नि०स०६०६ (वि०सं०१३९) बतलाया जाता अपना गुरु बतलाया है वे ही जान पढ़ते हैं 'प्रसग' कविके गुरु ये है। इससे यह अन्य इस भेदारंभसमयके कुछ बादका अथवा इसके और उनका भी समय वीं वीं शताब्दी है। इस घटनासमुच्य पर कोषका रखा हुआ है ऐसा जान पड़ता है। -सम्पादक से यह टीका प्रायः वीं वीं शताब्दीकी बनी हुई जान पाती है। *सरी शताबड़ी भी बतलाया जाता है -सम्पादक Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माघ, वीर नि०सं०२४५६] भगवती श्राराधना और उसकी टीकाएँ खेद है कि इस प्राचीन प्रन्थके पठन-पाठनकी इस गाथा में दस प्रकारके श्रमणकल्पका नामोऔर विद्वानोंका ध्यान नहीं है और तुलनात्मक दृष्टिसे ल्लेख है। बिलकुल यही गाथा श्वेताम्बर कल्पसत्र में अध्ययन करना तो लोग जानते ही नहीं हैं। प्राचार्य वट्ट मिलती है और शायद आचारांग सूत्र में भी है। इस केरका 'मूलाचार' और यह 'भगवती आराधना' दोनों बातका उल्लेख करते हुए पण्डित जी लिखते हैं कि :प्रन्थ उस समयके हैं जब मुनिसंघ और उसकी परम्परा " मूलाचारमें श्रीभद्रबाहुकृत निर्यक्तिगत गाथाओंका अविच्छिन्न रूपसे चली आ रही थी और जैनधर्मकी पाया जाना बहुत अर्थमचक है। इसमें श्वेताम्बर दिगदिगम्बर और श्वेताम्बर नामकी मुख्य शाखायें एक म्बर सम्प्रदायकी मौलिक एकताके समयका कुछ प्रतिदूसरेसे इतनी अधिक जुदा और कटुभावापन्न नहीं हो भाम होता है।" गई थीं जितनी कि आगे चल कर होगई । इन दोनों ही इस प्रन्थ में कुछ विषय ऐसे हैं, जो श्वेताम्बरग्रन्थों में ऐसी सैंकड़ों गाथायें हैं, जो श्वेताम्बरसम्प्र- परम्पराके तो अनुकूल हैं ; परन्तु दिगम्बर सम्प्रदाय दायक भी प्राचीन प्रन्थों में मिलती हैं और जो दोनों वालों को खटकते हैं । उदाहरणके लिए आगे लिखी सम्प्रदायोंके जुदा होनेके इतिहासकी खोज करने वालों हुई गाथायें देखिए जिन में लिखा है कि क्षपकके लिए को बहुत सहायता दे सकती हैं। पं० सुखलालजी ने चार मुनि भोजन लावें'पंच प्रतिक्रमण' नामक ग्रन्थकी विस्तृत भूमिका चत्तारिजना भत्तं उवकप्पति भगिलाणए पाउग्गं । में एक गाथासूची देकर बतलाया है कि भद्रबाहु स्वामी छंदियमवगददोसं अमाइणो लदिसंपएणा॥६६५।। की 'श्रावश्यक-नियुक्ति' और वट्टकेर स्वामीके 'मूला- चत्तारिजणापाणयमुक्कापति भगिलाणए पागं । चार'की पचासों गाथायें बिल्कुल एक हैं। अभी बम्बई बंदियमवगददोसं अमाइणोलद्धिसंपएणा॥६६६॥ में जब मैंने भगवती आराधनाकी कुछ गाथायें पढ़ कर अर्थान-लब्धियक्त और मायाचार रहित चार मुनि सुनाई, तब उन्होंने कहा कि उनमेंसे भी अनेक गा- ग्लानिरहित होकरक्षपकके योग्य उद्गमादि-दोषरहित थायें श्वेताम्बर प्रन्थों में मिलती हैं। उदाहरणकं लिए भोजन और पानक ( पेय) लावें । मंस्कृत टीकाकारने ४२७ नम्बरकी नीचे लिखी गाथा देखिएः- इन गाथाओंके 'उबकपंनि' 'उपकल्पयन्ति'-शब्द भाचेलक्कुसियसेज्जाहररायपिंडपरियम्मे। का अर्थ 'श्रानन्ति ' किया है और प्रकरण को देखने वदजेपडिक्कमणे मासं पज्जो सवणकप्पो ॥ हुए यही अर्थ ठीक है ; परन्तु भाषावचनिकाकार पं० ___ यह अतिशय महत्त्वपूर्ण विस्तृत भूमिका संयुक्त ग्रन्थ 'प्रा- सदासुख जी इस अर्थसे घबराते हैं। वे कहते हैं कित्मानन्द-जैन पुस्तक-प्रचारक-मडल' रोशन मुहल्ला प्रागरा ने प्रकाशित "अर इस ग्रन्थकी टीका करने वाला उपकल्पयन्ति किया है और प्रत्येक जैनीके अध्ययन करने योग्य है । सामायिक का पानयन्ति ऐसा अर्थ लिखा है, सो प्रमाण रूप प्रतिक्रमण आदि भावश्यक क्रियानों पर प्रकाश डालने वाला इसमे जाहीर कछ विशेष लिखा नाहीं।अर कोऊ या कहे अच्छा ग्रन्थ शायद ही कोई मिल सके। * 'विजयोदया' टीका की देहली प्रति में इस गाथा का नम्बर जो आहार ल्यावते होयगे, तो या रचना आगम सं ११८ दिया है और इसी तरह अन्यत्र उक्त गाथाभों के नम्बरों में मिले नाहीं । अयाचिक वृत्तिके धारक मुनीश्वर भोजन -सम्पादक कैसे याचना करें?" Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० अनेकान्त [वर्ष १, किरण ३ __ प्राचार्य वट्टकरके 'मूलाचार' में भी एक इसी विजहना नामा अधिकार ) और भी विलक्षण तथा प्रकार का उल्लेख है, जिस पर कविवर वृन्दावनजी अश्रुतपूर्वहै, जिसमें कि आराधक मुनिके मृतकसंस्कार को शंका हुई थी और उन्होंने जयपुरके सुप्रसिद्ध का वर्णन है। इसमें बतलाया है कि क्षपककी मृत्यु दीवान अमरचन्दजीसे इस विषयमें पत्र लिख कर होने पर उसके शरीरको निषधिकासे निकाले और यदि पूछा था तथा उन्होंने उसका समाधान किया था। अवेला हो-रात्रि इत्यादि हो-तो जागरण, बन्धन मूलाचारकी उस गाथाको भी मैं यहाँ उद्धृत कर और छेदन की विधि करे । अर्थात् कुछ धीर वीर मुनि देता हूँ: क्षपकके मृत शरीरके निकट रात्रि भर जागरण करें सेजोगासणिसेज्जातहोउवहिपडिलिहणहिउवगाहों। और उस शरीरके हाथके और पैरके अंगठेको बाँध दें माहारोसयभोयण विकिचणं बंदणादीणं ॥ ३६१ तथा छेद दें। क्योंकि यदि ऐसा न किया जायगा तो ___इसके विवादास्पद अंशकी संस्कृतटीका इस कोई व्यन्तर आकर शरीरमें प्रवेश कर जायगा,उपद्रव प्रकार है : करेगा और संघ को वाधक होगा। टीका-माहारेणा भिक्षाचारेण औषधेन क्षपकके शरीरको प्रास्थान-रक्षक अथवा गृहस्थशुण्ठीपिप्पल्यादिकेन वाचनेन शास्त्रव्याख्याने- जन पालकी में स्थापन करके और बाँध करके ले न बिकिंचनेन च्युतमलमूत्रादिनिहरणेन वन्द- जाये फिर अच्छा स्थान देख कर उसे डाभ (कुशतृण) नया च पूर्वोक्तानां मुनीनामुपकारः कर्त्तव्यः। से अथवा उसके प्रभावमें ईटोंके चूर्ण या वृक्षोंकी ___ भगवती आराधनामें एक प्रकरण (चालीसवाँ केसरसे समतल करके उस पर स्थापित करें। जिस x वेखो मेरे द्वारा सम्पादित और जैनग्रन्थरत्नाकर कार्यालय दिशामें प्राम हो उसकी ओर मस्तक करें और समीप द्वारा प्रकाशित 'कृन्दावनक्लिास' पृष्ठ १३५ । कविवर कृन्दावन जी में उपधि अर्थात् पिच्छि कमंडलु आदि रख देवें । शिखरिणी छन्दमें पूछते हैं: पिच्छि कमंडलु आदि रखनेसे यह लाभ है कि यदि सुनी भैया, वैयावरवृत करैया मुनिवर, उस क्षपक का जीव सम्यग्दर्शनकी विराधनासे व्यन्तर करें कोई कोई रुगि तहिं रसोई निज कर। असुर आदि होकर उस स्थानमें आयगा तो अपने तहाँ शंका तंका उठत अति वंका विवरणी, शरीरको उन उपकरणोंसहित देख कर फिर धर्म में दृढ निरंभी प्रारंभी अजगुत कथा भीम करणी॥ होजायगा ! इसके बाद समस्त संघ आराधनाके लिए इसके उत्तर में दीवान अमरचन्दजी ने उक्त ३६१ नम्बर की " कायोत्सर्ग करे, वहाँके अधिपतिदेवको इच्छाकार करे गाथा और सस्कृत टीका उद्धत करके लिखा था कि "इसमें यह लिखा है कि क्यापत्ति करने वाला मुनि साहार से मुनि का उपकार और उस दिन उपवास करे, तथा स्वाध्याय नहीं करे। करे, परन्तु यह स्पष्ट नहीं किया है कि आहार स्वयं हाथ से बना कर क्षपकके शरीर को वहाँ छोड़ कर सब चले आवें देवे । मुनि की ऐसी चर्या पाचारांग में नहीं बतलाई है।" इसके और फिर तीसरे दिन कोई निमित्तज्ञानी जाकर देखे। अनुसार दीवानजीको मुनिका केवल रवय रसोई बनाना मयुक्त मालूम , वह शरीर जितने दिन अखंडित पड़ा रहेगा, बनके होता है । भोजन लाकर देना नहीं । परन्तु पं० सदासुखनी चकि ज्यादा कड़े तेरापंथी थे, इस कारण उन पाझर लाकर देना भी जीवों द्वारा भक्षण नहीं किया जायगा, उतने ही वर्ष ठीक नहीं जंचता था । उस राज्यमें सुभिक्ष और क्षेम कल्याण रहेगा। इसके Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माघ, वीर नि०सं०२४५६] भगवती आराधना और उसकी टीकाएँ १५१ बाद पक्षी चौपाए आदि क्षपकके शरीरके टुकड़े जिस पुरुष हैं। भगवती आराधना की रचना इनसे पीछे दिशा को लेगये हों, उस दिशा में क्षेम और सुभिक्ष अवश्य हुई है ।। जान कर समस्त संघ विहार कर जाय। शकटाल मुनिकी कथा हमने तीन ग्रंथों में जहाँ तक हम जानते हैं, बहुत कम लोगों को यह तीन प्रकारकी देखी है। पुण्यास्रव कथाकोशमें (नन्दिमालम होगा कि पारसियोंके समान जैन साधओं का मित्रकी कथामें ) लिखा है कि शकटाल नन्द राजाका शरीर भी पूर्व कालमें खली जगह में छोड़ दिया जाता मंत्री था । शत्रुके चढ़ पाने पर उसने खजानेकी बहुत था और उसे पशु पक्षी भक्षण कर जाते थे। वास्तवमें सी दौलत देकर उसे लौटा दिया, इसपर राजाने उमे सर्वथा स्वावलम्बशील साधुसमुदायके लिए जो सपरिवार कैद कर दिया। परिवारके सब लोग बड़ी जनहीन जंगल-पहाड़ोंके रास्ते हजारों कोस विहार बरी तरह से मर गये, परन्तु शकटाल जीता रहा । पीछे करता था इसके सिवाय और विधि हो ही नहीं जरूरत पड़ने पर राजाने उसे फिर मंत्री बना लिया। सकती थी। श्वेताम्बरसम्प्रदाय के विद्वानोंसे मालूम मंत्री बनकर उसने अपना वैर लिया । और चाणक्य हुश्रा कि उनके प्रन्थों में भी मुनियोंके शवसंस्कार की को कुपित करके उसके द्वारा नन्दवंशका नाश करा पुरातन विधि यही है। दिया। परन्तु इसमें शकटालके मुनि होने या संन्यास ___इस प्रन्थके कई प्रकरणों में कुछ ऐसे उदाहरण लेने आदि का कोई उल्लेख नहीं है । प्राचार्य हेमचंद्रके दिये हैं जिन में से अनेक ऐतिहासिक जान पड़त परिशिष्ट पर्व' में (स्थूलभद्रकथांतर्गत)शकटालको स्थलहैं । उनकी छानबीनहोनी चाहिए । ब्रह्मचर्यके प्रकरण भद्रका पिता बतलाया है। वररुचिन चुगली खाकर में नीचे लिखी गाथा है: राजा नन्दको यह विश्वास करा दिया कि शकटाल सगडो हु जइणिगाए संसग्गीए दु चरणपन्भहो। राजाको मारकर अपने पुत्रको गद्दीपर बिठाना चाहता गणियासंसग्गीए य कूपचारो तहा णडो॥११॥ है। शकटालने यह सोचकर कि राजा मेरे वंश भरको अर्थात् सकट नाम का मुनि जयिणिका ब्राह्मणी नष्ट करदेगा, अपने छोटे पुत्र श्रीयकको समझा बुझा के संसर्गसे चारित्रभ्रष्ट होगया और गणिका मर्ग कर इस बातके लिए राजी कर लिया कि राजाको से कृपचार नष्ट हो गया। नमस्कार करते समय वह अपनेापिताका सिर काट ले र पुत्रने लाचारीसे ऐसा ही किया और शकटालका प्रायोपगमन संन्यासके उदाहरण देते हुए कहा है प्राणान्त होगया। तीसरे ग्रंथ 'आराधनाकथाकोश' में सगडालरण वितहासत्था गहणेण साघिदो भत्थो लिखा है कि शकटाल और वररुचि दोनों नन्द राजा. वररुइपभोगहे, रुठे णंदे महापउमे ॥ २०७२॥ मंत्री थे। दोनों एक दूसरेसे विरुद्ध रहते थे। महापन अर्थात्-चररुचिके प्रयोगसे जब महापन नामका मुनिके उपदेशसे शकटालनं जिनदीक्षा ले ली । नन्द राजा रुष्ट हो गया, तब शकटाल मंत्री ने शम्न- बहुत समयके बाद शकटालमुनि विहार करते हुए फिर . महण करके अपने आराधना रूप अर्थको साधा। पटनामें पाये । उन्होंने राजान्तःपुरमें बाहार लिया । वररुचि,शकटाल और महापद्म ये सबऐतिहासिक इस पर वररुचिने शत्रुता वश चुगली खाई और उससे Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ अनेकान्त उत्तेजित होकर राजाने शकटाल मुनिको घातकसे मरवाडाला । घातकको आता देख कर ही शकटालने संन्यास ले लिया था । यह तीसरी कथा भगवती धारा धनाके उक्त उदाहरणके बहुत कुछ अनुरूप तो है; परन्तु शस्त्रप्रहरणका इसमें भी कोई उल्लेख नहीं है । कथाओं की यह विषमता चिन्तनीय है । | गोठे पाउदा गोव्बरे पलिविदम्पि तो चाणक्को पडिवरलो उत्तमं श्रहं ।। १५५६ अर्थात् - गोष्ट (गोशाला ) में सुबन्धु ने भाग लगा दी, उसके भीतर जलते हुए चाणक्यने उत्तम स्थान प्राप्त किया । यह कहने की आवश्यकता नहीं कि आर्य 'चाक्य' और 'सुबन्धु' दोनों ऐतिहासिक व्यक्ति हैं और आराधना कथाको में चाणक्य मुनिकी जो कथा है, उससे भी मालूम होता है कि यह चाणक्य नन्दवंशो छेदक से भिन्न कोई दूसरे नहीं हैं। 1 मोदरिए घोराए भद्दवाहू असं किलिहमदी । घोराए विगिछाए पडिवो उत्तमं ठाणं ।। १५४४ अर्थात् - घोर अवमोदर्य से - अल्प भोजन के कष्टसे - भद्रबाहु मुनि घबराए नहीं। उन्होंने संक्लेशरहित बुद्धि रखकर उत्तम स्थानको प्राप्त किया । [ वर्ष १, किरण ३ पृष्ठ १६३ में ४२७ नम्बर की गाथाकी टीका करते हुए लिखा है -" इनका विशेष बहुज्ञानी होइ सो आगम के अनुसार जारिण विशेष निश्चय करो । बहुरि इस ग्रंथ की टीका का कर्ता श्वेताम्बर है । इस ही गाथा में वस्त्र पात्र कम्बलादि पोषै है कहै है तातें प्रमाणरूप नाहीं है सो बहुज्ञानी विचारि शुद्ध सर्वज्ञ की श्राज्ञा के अनुकूल श्रद्धान करो।” इससे बहुत से स्वाध्याय करने वालों का यह विश्वास हो गया है कि भगवती आराधना पर दिगम्बर सम्प्रदाय के विद्वानोंकी बनाई हुई कोई संस्कृत टीका नहीं है। केवल एक संस्कृत टीका है, जिसके कर्ता कोई श्वेताम्बराचार्य हैं। परन्तु पाठक यह जानकर आश्चर्य करेंगे कि इस ग्रंथ पर एक नहीं चार चार संस्कृत टीकाएँ दिगम्बर सम्प्रदाय के विद्वानों की बनाई हुई हैं और वे प्रायः सभी पं० सदासुखजी के निवासस्थान जयपुरमें उपलब्ध थीं । उन चारों टीकाओं के नाम ये हैं—१ विनयोदया, २ मूलाराधनादर्पण, ३ राधापञ्जिका, और ४ भावार्थदीपिका । श्रागे क्रम से इन चारों का संक्षिप्त परिचय दिया जाता हैअगले में समाप्य ) तब पाठक देखेंगे कि भद्रबाहूकी अन्य प्रचलित कथाओं में [ले० – श्रीकेदारनाथ मिश्र 'प्रभात' बी. ए. विद्यालङ्कार ] उनके इस ऊनोदर कष्टके सहन करनेका कोई उल्लेख नहीं है । विस्तारभयसे अन्य उदाहरणों को छोड़ दिया जाता है । SARAHT आराधना की टीकाएँ भगवती आराधना की पं० सदासुखजी काशलीबाल कृत भाषाबचनिका मुद्रित हो चुकी है। उसके * माराधनाकपा कोशमें भगवती माराधना के उदाहरणोंका जो विस्तार है, वह कुछ शिथिल और अद्भुत सा है। इस कथार्मे लिखा है कि, मागास्य नन्वराजाको मार कर स्वयं राजा बन गया था ! जब इस तिमिरावृत कुटीर में आह, प्रदीप जला लूँगा; धूल झाड़ कोने-कोने की जब मैं इसे सजा लूँगा । जब वीणा के छेदों में भर लूँगा स्वागत-गीत उदार; कर लूँगा तैयार गूंथ कर जब मैं अश्रु-कुसुम का हार । X X X भेजूँगा तब मौन निमन्त्रण हे अनन्त ! तू आ जाना; मेरे डर में अपना अविनश्वर प्रकाश फैला जाना । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माथ, वीर नि०सं०२४५६ ] मनुष्य-कर्तव्य मनुष्य-कर्तव्य [ लेखक - श्री० पं० मुन्नालालजी विशारद । केवल मनुष्य पर्याय में जन्म ले लेने से ही कोई मनुष्य नहीं कहा जा सकता; बल्कि जो मननशील होंहेयादेयके विवेक से विभूषित हों - सभ्य, शिष्ट, स्वपरोपकारी एवं कर्तव्यनिष्ठ हों वे ही सज्जन वास्तवमें मनुष्य कहलानेके अधिकारी हैं। श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ति ने मनुष्य शब्दकी निरुक्ति में कहा हैमण्णंति जदो णिच्चं मरणेण लिउद्या मणुकडाजमा मन्भवाय सव्वेता ते माणुसा भणिदा । अर्थात् — जो नित्य ही मनके द्वारा भली भांति हेयउपादेय के विचार करने में निपुण हों - गुणदोषादि के विचार तथा स्मरणादि जिनमें उत्कटरूपसे पाये जावेंऔर जो साथ ही कर्मभूमिकी आदिमें उत्पन्न होनेवाले मनुष्यों (कुलकरों) की संतान हों उन्हें मनुष्य कहते हैं । 'कर्तुं योग्यं कर्तव्यं' -जो करने योग्य हो, जिसे करना चाहिए, जिसके किये बिना मनुष्यको सफलता नहीं मिल सकती उसे कर्तव्य कहते हैं। मनुष्यों के योग्य जो कर्तव्य वह मनुष्य कर्तव्य है । परिस्थियोंकी अपेक्षा मनुष्यकर्तव्य असंख्य हैं; परन्तु जब उन्हें संग्रहनय से प्रहा करते हैं तो वे सब दो कोटियोंमें आजाते हैं-१ लौकिक कर्तव्य और १ पारमार्थिक कर्तव्य । लौकिक कर्तव्य वे हैं जो मनुष्य को प्रत्येक लौकिक (आर्थिक, शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक और सामाजिक यादि) उन्नति में सफलता दिलावें तथा जिनसे मानव क्रमशः पारमार्थिक कर्तव्य पालन के योग्य बन सकें | वन लौकिक कर्तव्योंके तीन भेद हैं-१ धार्मिक २ आर्थिक और ३ कामिक | ܃ है 'धार्मिक कर्तव्य' उन्हें कहते हैं जो अशुभ अर्थात् पाप से निवृत्ति और शुभ अर्थात् पुण्य में प्रवृत्ति कराने में सहायक हों, जिन से कषाय ( क्रोध, मान, माया, लोभ) घटे, इन्द्रियलालुपता मिटे और मनुष्य आत्मिक उन्नति करने में समर्थ हो सकें । जीवदया सत्यभाषण, श्रम्य, शील, परिग्रह- परिमाण, प्रशस्त ध्यान, ईश्वरभक्ति, गुरुसेवा, स्वाध्याय, संयम, तप ( उपवासादि), दान, वात्सल्य, प्रभावना, तीर्थयात्रा, परोपकार, और देश, जाति तथा समाजसेवादिक ये सब लौकिक कर्तव्यान्तर्गत धार्मिक कर्तव्य हैं । 'आर्थिक कर्तव्य' उन्हें कहते हैं जो मनुष्यको धर्म और नीतिसे अविरुद्ध आर्थिक उन्नति कराने में सहाक हों, जिनसे धार्मिक कर्तव्योंके पालनेमें निराकुलता बढे और मनुष्य आत्म गौरव या सुयशके साथ अपना जीवनकाल सुख शांति पूर्वक व्यतीत कर सके । राज्यशासन, वाणिज्य, कृषि, शिल्पकला, विज्ञान, अधिकारसंरक्षण, अध्यापन, मुनीमी, गोपालन तथा नौकरी श्रादिक ये आर्थिक-कर्तव्य हैं। 'कामिक कर्तव्य' उन्हें कहते हैं जो धार्मिक और आर्थिक कर्तव्यों के फलोंको उचित रीतिले उपभोग कराने में सहायक हों और जिनसे मनुष्य भली भांति शारीरिक तथा योग्य पारिवारिक उन्नति कर सकें। कितने ही लोग केवल विषयवासना की तृति को ही काम कर्तव्य समझते हैं परन्तु उनकी यह समझ काम शाखके सिद्धांतोंके विरुद्ध है। भोजन, पान, पीन्द्रियभोग, उपभोग, संभोग ये सब कामिक कर्तव्य हैं। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त १५४ [वर्ष १, किरण ३ धार्मिक, आर्थिक और कामिक इन तीनों कर्तव्यों ही हो सकता है तथापि अभ्यासरूपसे उनका एकदेश में परस्पर घनिष्ट सम्बंध है-ये एक दूसरेके हितकारी पालन गृहस्थोंके भी बनता है और इसलिये उन्हें भी मित्र हैं , इनमें एक के बिना दूसरा शोभा नहीं पाता। उसका पालन करना चाहिये। इन तीनों प्रकारके कर्तव्योंमें भी धार्मिक कर्तव्य प्रधान वर्तमान में हमारे कर्तव्योंकी जो शोचनीय दशा हैं, जिनको छोड़कर केवल आर्थिक और कामिक कर्तव्य हो रही है और उनकी दुर्व्यवस्थाओंके कारण उत्थान अंकरहित विन्दुओंकी समान निःसार और मनुष्यको के बदले जो हमारा भारी अधःपतन होरहा है उन सब संसार कीचमें ही फंसाने वाले हैं । आर्थिक कर्तव्योंके का भीतरी नग्न दृश्य यदि सामने रक्खा जाय तो ऐसा समयको उल्लंघन कर दिनरात धार्मिक कर्तव्योंमें हीलगा कौन हृदय-हीन होगा जो एकबार अश्रुपात कर उच्च रहना भी गृहस्थोंके लिये चिंताजनक और हास्यास्पद वासे यह न कह उठे कि-हा! विषय कषायों को है । इसी तरह आर्थिक कर्तव्य-विहीन (दरिद्र) पुरुष पुष्ट करना ही अब हमारा धर्म रह गया है ! ईश्वर के कामिक-कर्तव्य भी विडम्बना मात्र है । अतः गृहस्थों और ईश्वर के गुणों का ज्ञान न होते हुए भी को इन तीनों कर्तव्योंका अविरोध रूपसे- परस्पर उनका नाम जप लेना या स्तुतियाँ बोल देना ही विरोध न करके-ही पालन करना चाहिये, तभी उन्हें अब हमारी ईशभक्ति है! अपनी नामवरी और दो प्रत्येक कर्तव्यमें सफलता एवं सिद्धिकीप्राप्ति होसकती दिन की झठी वाहवाही लूटने के लिये सहस्रों रुपया है। इसीसे श्रीमद्वादीभसिंह सूरिने कहा है - पानी की तरह बहा देना ही अब हमारी प्रभावना है ! ॥ परस्परविरोधेन त्रिवर्गो यदि सेव्यते । पैसा कमाने के लिये दस पाँच पुस्तकें पढ़ परीक्षा अनर्गलमदः सौख्यमपवर्गोऽप्यनुक्रमात् ॥ दे लेना ही अब हमारा ज्ञानार्जन है ! कुछ कह सुनकर अर्थात्-धर्म, अर्थ और काम इन तीनोंका यदि अपना मतलब (स्वार्थ) सिद्ध कर लेना ही अब हमारा परस्पर विरोधरहित सेवन किया जाय तो इस लोकमें परोपकार है ! दमन-नीति और कूट-प्रपंचसे प्रजा का बिना किसी विघ्न-बाधाके सुखकी प्राप्ति होगी और सर्वस्व हरण कर ऐश्वर्य भोगना ही अब हमारा क्रमसे अपर्वग (मोक्ष) सुख भी मिल सकेगा। राज्यशासन है ! झठ बोल कर तथा विश्वासघात कर 'पारमार्थिक कर्तव्य' उन्हें कहते हैं जो मनुष्यको अपने जिस तिस तरह पैसा पैदा कर लेना ही अब हमारा विभाव-विपक्षियों पर पूर्ण विजय प्राप्त करानेमें सहायक व्यापार है ! धर्म और अर्थ-क्षतिका ध्यान न रख कर हों, जिनसे आत्माकी स्वाभाविक अनंत शक्तियाँ पूरी मन चाहे अयोग्य पदार्थोंसे इन्द्रियोंको तृप्त कर लेना तौरसे विकसित हो सकें और यह मानव पूर्ण सुखी, ही अब हमारा भोगविलास है ! पशुओं की भाँति गृहभईन , परमात्मा, सिद्ध तथा कृतकृत्य बन सके। मार्गके ज्ञान बिना घणित रीतिसे स्त्री-प्रसंग कर लेना महावत, गुप्ति, समिति, विभावविरति, उम्भावना, ही अब हमारा संभोग है ! और तत्त्वज्ञान तथा संवेग परमसाहस,साम्यभाव, दोष-शुद्धि, परमतप, धर्मध्यान, न होते हुए मी लोभादि-कषायवश ऊँचे ऊँचे वेष और शुक्लध्यान ये पारमार्थिक कर्तव्य हैं । पारमार्थिक धारण कर लेना ही अब हमारा परमार्थ है!!!' कर्तव्यों कर्तव्यों का पूर्णरूपसे पालन यद्यपि मुनि अवस्थामें की इस शोचनीय दशाको देख कर सभी कहेंगे और Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष, वीर नि०सं०२४५६] मनुष्य-कर्तव्य १५५ स्वीकार करेंगे कि आज कर्तव्य-पथसे हम बहुत दूर जिसके पावन प्रतापसे आज हमें अपने स्वरूपके विचार होरहे हैं हमें यह भी ध्यान नहीं कि हमारे कौन कौन करनेका दुर्लभ अवसर मिला है। अतः जिम तरह हो कर्तव्य हैं, उनका क्या ध्येय है और उनका क्या फल इस जड़ शरीरसे भिन्न अपने चैतन्य स्वरूपकी प्राप्ति है ? सच पूछिये तो हमारा ध्यान है एक मात्र धन करना चाहिये । यह उच्च भावना ही कर्तव्योंकी सफल ताकी जननी है, इसके बिना सर्व कर्तव्य निष्फल हैं। कमाने में, फैशन बनाने में, शरीरकी आज्ञा बजाने में और दुनियाँको रिझाने में-उसे अपने अनफल बनाने कतव्योंक विषयमें जानने योग्य बातें में । तब ऐसी हालतमें उपर्यक्त कर्तव्योंका पालन कैसे हम अपने कर्तव्योंका पालन किस तरह करें, इम का भिन्न भिन्न वर्णन तो इस छोटेसे लेखद्वारा हो हो सकता है ? और जब मनुष्यकर्तव्यों का ठीक नहीं सकता तथापि कर्तव्य-पालनके लिये जिन जिन पालन ही नहीं हो सकता तो फिर हम यथार्थमें मनुष्य बातों की विशेष आवश्यकता है उनका यहाँ दिग्दर्शन भी कैसे कहा सकते हैं ? कदापि नहीं। अतः प्यार कराया जाता है:भाइयो! यदि सचमुच में मनुष्य बनना है तो इस १ कर्तव्योंके पालनमें सद्विचार और दृढ़नाकी बड़ी मिथ्या बद्धिको छोड़ो, ऐसे विपरीत ध्यानको तोड़ा आवश्यकता है। हमें जिस कर्तव्यको करना है उसके अनुष्ठानसे पहले ही यह देख लेना चाहिये और अपनी विचार शक्तिको कर्तव्य-पथ में जोड़ो। किवह कर्तव्य हमारी(द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप) रात दिन शरीरकी गुलामी करने और धन जोड़ने में योग्यताके अनुकूल है या प्रतिकूल, उसके न करने ही मनुष्य जीवन के अमूल्य समय को खो देना से हमारी क्या हानि थी और अब करनेसे क्या मनुष्यता नहीं है-पशुता है । और यदि हम चाहते लाभ होगा, उसका ध्येय क्या है और वह किस हैं कि हम अपने कर्तव्य-पथ पर लगें, सच्चे कर्तव्य तरह किया जा सकता है । इस तरह के विचार को ही सद्विचार' कहते हैं। कार्य प्रारम्भ होनेके निष्ठ बनें और स्वपर-कल्याण करते हुए अपना जीवन बाद बहुतसे विघ्नसमूहोंके उपस्थित होने पर भी सुखसे व्यतीत करें तो सबसे पहली आवश्यकता यह कार्यको अधग नहीं छोड़ना किन्तु उसे पूरा करके है कि हम अपनी भावनाको उच्च बनावें और फिर ही छोड़ना 'दृढना' है। तदनुकूल कर्तव्योंका पालन करें । उच्च भावना रखते धार्मिक कर्तव्य-विषयक सूचनाएँ हुए हमें यह विचारना चाहिये कि हमारा रूप यह २ कोई भी धार्मिक कर्तव्य रूहि, लोकलज्जा, भय, गोरा काला जहरूप शरीर नहीं किन्तु अनंतशक्तियुक्त पाशा अथवा नामवरीकी इच्छासे प्रेरित होकर चैतन्य ही हमारा वास्तविक रूप है, इसकान तो कभी नहीं किया जाना चाहिये । नाश होता है और न कभी नूतन उत्पाद । यद्यपि अनादि ३ जिनसे कषाय और इन्द्रिय-लोलुपता बड़े तथा कालसे विभाव परिणमनके कारण चैतन्य और जड़ परिणामोंमें तीन संश्लेशता उत्पन्न हो वे कर्तव्य शरीर अभिन्न (मिले हुये) से हो रहे हैं तथापि वास्तव कभी भी धार्मिक कर्तव्य नहीं कहे जा सकने। में चैतन्य भिन्न है और जड़शरीर भिन्न है। अनंत- ४ निस्वार्थभावसे परके हित में प्रवर्तन करना ही काल व्यतीत हो चुका, अनंत ही पर्यायें धारण करली परोपकार है। परोपकारी बनने के लिये सभी परन्तु हमें आज तक अपने रूपका बोध नहीं हुआ था, जीवोंमें मैत्री,गणियोंमें प्रमोद, दुःखियोमं करुणा अब किसीभारी पुण्यउदयसे यह उत्कृष्ठ मनुष्यपर्याय और विपरीत विचार वालोंमें माध्यस्थवा रखना और केबलिप्रणीत सद्धर्मकी शरण प्राप्त हुई है, अत्यावश्यक है। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ अनेकान्त वर्ष १, किरण ३ ५ पवित्र (श्रादि-अंत-विरोध-रहित ) शास्त्रोंका निर- तथा हीन नहीं समझना चाहिये। न्तर पठन-पाठन, श्रवण और मनन तथा सजन- १५ नित्य भोजन करनेके पहले उत्तम पात्रोंको दान धर्मात्माओं एवं सचे त्यागी बतियोंका समागम, देना चाहिये । यदि वैसे पात्र न मिलें तो दुःखित, इन दो से प्रात्मोन्नतिमें बड़ी सहायता मिलती है। बभक्षित जीवोंके लिये कुछ भोजन निकाल कर आर्थिक कर्तव्य-विषयक सूचनाएँ रख देना चाहिये। ६ दुष्टोंका मानमर्दन और सजन धर्मात्माओं पर. १६ अपनी शक्तिके अनुकूल एक मासमें अधिकसे विशष अनग्रह रखते हुए न्याय और धर्मसे प्रजा अधिक ऋतुसमयके (सदोषरात्रियोंको छोड़कर) का पालन करना ही राज्यशासन है। ५ दिन ही काम सेवन करना चाहिये। ७ झूठ बोल कर और ठगवृत्तिसे पैसा कमाना व्यापार १७ बीमारीकी हालतमें या भूखे, प्यासे, चिन्तामसित नहीं अन्याय है। अन्यायके पैसेसे कभी धार्मिक अवस्थामें कामसेवन नहीं करना चाहिये। कार्य सफल नहीं हो सकते, न अन्यायी व्यापारी १८ अति सेवनसे सदा दूर रहना चाहिये और अनंगसुख और शांतिसे अपना जीवन व्यतीत कर क्रीड़ा कदापि नहीं करनी चाहिये । सकता है। अतः सरलता और सत्यवृत्तिसे ही पारमार्थिक कर्तव्य-विषयक सूचनाएँ व्यापार करना चाहिये। ८ शिल्प-सम्बन्धी कार्य वेही प्रशंसनीय हैं जिनमेंचोरी ' र १९ वस्तुतत्वका भलीभांति ज्ञान होजाने पर ही किसी पारमार्थिक कर्तव्यको करना उचित है । उद्वेग न की जावे और जिनमें विशेष हिंसा न हो। इसी (अनिष्टजनित चोट या झळा वैराग्य ) होने पर तरह विज्ञानसम्बन्धी कार्योको भी जानना चाहिये ९ उत्तम बीजको संस्कारित खेतमें समय पर बोने ज्ञान न होते हुए यकायक किसी ऊँचे पद (मुनि पद) को धारण कर लेना अति साहस और और भली भांति रक्षा करनेसे ही कृषि कार्यों में लोकनिंद्य है तथा अपनी आत्माको निंद्यगर्तमें सफलता मिल सकती है। पटकना है। कामिक कर्तव्य-विषयक सचनाएँ २० अट्राईस मूलगुणों ( ५ महाव्रत, ५ समिति, १० पूर्व पुण्यसे प्राप्त हुये विभव, धन, सम्पत्तिका इस ५ इन्द्रियविजय, ६ आवश्यक और ७ शेष गुण) सरह उपभोग करना चाहिये जिससे मूल क्षति न का भली भांति निर्वाह करते हुए चारित्र-शुद्धि हो अर्थात् , विभवादिका भोगना पाप नहीं है करना तथा आत्मानुभवमें मगन रहना, धर्मध्यान परन्तु उनमें मगन होकर धार्मिक और आर्थिक और शुक्ल ध्यान धारण करना और इन सबसे परे कर्तव्योंको भूल जाना पाप है। .: 'समाधिस्थ हो जाना यही पारमार्थिक कर्तव्यों ११ भोजन वही करने योग्य है जो शुद्ध (अभक्ष्य-दोष का सार है। रहित) सादा (तीव्रकामोत्तेजना रहित) और इन सब बातोंकी जानकारीसे हमें उक्त कर्तव्योंके हितकारी हो-प्रकृति विरुद्ध न हो। पालनमें बड़ी सहायता मिल सकती है। अतः इन पर १२ जल-दुग्धादि शुद्ध कपड़ेसे छान कर ही काममें सविशेषरूपसे ध्यान रखते हुए हमें अपनी शक्ति तथा ___ लाने चाहिये। योग्यतादिके अनुसार लौकिक और पारमर्थिक दोनों १३ वन और भूषण वे ही धारण करने चाहिये जो गरण करने चाहिये जो प्रकारके कर्तव्योंका अवश्य पालन करना चाहिये और देश, वय (उम्र), पद, विभव और समयके अनु- उसके लिये अपनी अपनी एक दिनचर्या नियत कर कूल हो। मैले, चटकीले और हिंसज वनोंको लेनी चाहिये। कदापि नहीं पहिनना चाहिये। १४ भोगोंको भोगते हुये अन्य व्यक्तियोंको तुच्छ देहली-जैनमित्रमयसके वान्टमेटी का पातालजी द्वारा प्राप्त Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माष, वीर नि० सं०२४५६] सुभाषित मणियाँ सुभाषित मणियाँ 40HOR ..0-14 10:05 प्राकृत बंदउ जिंदउ परिकमउ, भाउ मसुदउ जासु । उदयगदा कम्मंसाजिणवरवसहहिणियदिणामणि-पर तमु संजसु अस्थि रणवि, जमणसदिणताम । या तेस हि मुहिदो रत्तो दुढो वा बन्धमणुहदि ॥ -योगीन्द्रदेव। जिसका भाव शुद्ध नहीं है वह चाहे जैसी वन्दना -कुन्दकुन्दाचार्य। 'कर्मप्रकृतियाँ स्वभावसे ही उदयको प्राप्त होती । र करो-खूब हाथ जोड़ कर स्तुति पाठादिक पदो... हैं-समय पर अपना फल देती हैं-ऐसा जिनेन्द्र भग-, " अपनी निन्दा करो और प्रमादादि-जनित दोषों के वानने कहा है उन उदयगत कर्मप्रकृतियों (पर्वोपार्जित मिथ्याकाररूप प्रतिक्रमण भी करो, परन्तु इससे उसके कमों) के फलको भोगता हा जो प्राणी राग, द्वेष या संयम नहीं बन सकता।क्योंकि ये बाझ क्रियाएँ संयम मोहरूप परिणमता है वह नया कर्म और बाँधता है। की कोई गारंटी नहीं हैं-भले ही इनसे संयमका ढोंग भावार्थ-उदयगत कर्मके फलको यदि साम्य भावसे बम जाय-बिना चित्तशुद्धिके तो संयम होता ही नहीं।' भोग लिया आय-उसमें राग, द्वेष या मोह न किया देउण देवलिणवि सिलए,वि लिप्पडणविचिनि। जाय-तो कर्मकी निर्जरा होकर छुट्टी मिल जाती है। अन्यथा, नया कर्म और बंधता है और इस तरह बन्ध अखउ णिरंजणु णाणमउ, सिउ संठिउ समचिति।। की परिपाटी चल कर यह जीवात्मा मथानीकी तरह -परमात्मप्रकाशे उद्धृत। इस संसारचक्रमें बराबर घूमता रहता है । राग, द्वेष 'अपना परमाराध्यदेव न तो देवालय है, न पत्थर और मोहही इसे बाँधने तथा घमाने वाले मंथाननत्रे- की मूर्ति में, न लेपकी प्रतिमा में और न चित्र में; किंतु मथानी की रस्सी-हैं।' वह अक्षय, निरंजन, ज्ञानमय, शिवपरमात्मा समधिल (इसमें संक्षेपसे बन्ध मोर मोक्षका अच्छा रहस्य बतलाया में स्थित है-साम्यभावरूप परिणत हुए मन में ही गया है।) विराजमान रहता है-अन्यत्र नहीं । अतः उसका जहिं भावइ सहि जाहि जिय, जंभावद करि तं जि । र दर्शन पानेके लिये चित्तसेरागद्वेष और मोहको हटाना ' चाहिये, जिन्होंने चिनको विषमतथा मैला बना रक्खा केम्बइमोक्खण अस्थि पर, चित्तहं सुदिण जं जि।। है और इस तरह उम देवका दर्शन नहीं होने देते।' -योगीन्द्रदेव । . हे जीव ! तू चाहे जहाँ जाय-चाहे जिम देश उवासं कुव्वतो प्रारंभ को बरोद मोहादो । अथवा तीर्थक्षेत्रादिका आश्रय ले-और चाहे जो क्रिया सो णिय देहं सोमदिण झाडकम्मलेसं वि।। जब तक चित्तशुद्धि नहीं 'उपवासको करता हुआ जो मनमा गृहकार्यों के औरमोहकी परिणतिनहीं मिटेगी तबतक किसी तरह मोहसे प्रारंभ करता है-आरंभमय के.सब काम भी तुझे मुक्ति मिलने वाली नहीं है । मुक्तिको प्राप्तिका धंधे किया करता है वह उस उपवाससे केवल अपने एक मात्र उपाय वास्तवमें 'चित्तशुद्धि है और चित्त शरीरको ही सुखाता है, कर्मकी ती लेकमान भी उससे शुद्धिका किसी देश अथवा क्रियाकाण्डके साथ कोई निर्जरा नहीं होती । और इसलिये उसे उपवासका अविनाभाव सम्बंध नहीं है।' बाम्तविक फल नहीं मिलना।' शहापा Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ~- ~ ~ - ~ 480०००० १५८ अनकान्त [वर्ष १, किरण बचना है तो ऐसा यत्न करो जिससे जन्म ही न लेना पड़े मुक्ति हो जाय। "मानीता नटवन्मया तव पुरः हे नाथ ! या भूमिका चिन्तनीया हि विपदामादावेव प्रतिक्रिया । व्योमाकाशखखाम्बराब्धिवसुभिस्त्वत्पीतयेऽद्यावधि, न कृपखननं यक्तं प्रदीप्ते वन्हिना गृहे ॥" पीतोऽसि यदितां निरीक्ष्य भगवन्मत्यार्थितं देहिमा विपदाओंके आनेसे पहले ही उनका प्रतिकारनोचेद् हि कदापि मानय पुनर्मामीटशी भूमिकाम् ।' उनका इलाज-सोच रखना चाहिये। घरमें आग लगने 'हे नाथ ! मैं आपको प्रसन्न करनेके लिये नटकी पर उसे बुझाने के लिये कूप खोदना उचित नहीं हैतरह ८४ लाख प्रकार के स्वॉग भर कर आपके सामने उससे उस वक्त कुछ भी काम नहीं निकल सकता। लाया हूँ-८४ लाख योनियों में नाना प्रकारके शरीर कूप तो कुछ खुदेगा नहीं और घर जल कर राख धारण करने रूप स्वांगको लिये हुए आपके सन्मुख उपस्थित हुआ हूँ-मेरे किसी भी स्वांगसे यदि आप "वग्दारिद्रयमन्यायप्रभवाद्विभवादिह । प्रसन्न हुए हैं तो मेरी प्रार्थना पूरी कीजिये-मझे मक्ति कृशताऽभिमता देहे पीनता न तु शोफतः॥" 'अन्यायसे उत्पन्न होने वाले वैभवकी अपेक्षा दीजिये-; और यदि प्रसन्न नहीं हुए हैं-मेरा कोई . भी स्वांग आपको पसंद नहीं आया है तो भगवन् ! दारिद्र अच्छा है; जैसे शरीर में दुबलापन तो इष्ट है मुझे आज्ञा दीजिये कि 'फिर कभी ऐसे स्वांग भरकर परन्तु वह मोटापन इष्ट नहीं है जो शोफ से-वरम से नहीं लाना।' -उत्पन्न हुआ हो । अर्थात्-अन्यायसे उत्पन्न होने ___(इसमें दोनों ही प्रकारमे अथवा हर पहलू से मुक्ति मांग ली वाली विभूति शोफस्थानीय स्थूलता है, जो कभी गई है और यह कविका खास चातुर्य है।) अभिनन्दनीय नहीं हो सकती।' "तृणं चाहं वरं मन्ये नरादनुपकारिणः । "खोकः पच्छति मे वार्ता शरीरे कुशलं नव । घासो भूत्वा पशन पाति भीरून पाति रणााणे॥" कुतः कुशलमस्माकं गलत्यायुर्दिने दिने ॥" 'मैं तिनकेको उस मनुष्यसे अच्छा समझता हूँ जो • 'लांग मुझसे पूछते हैं कि 'तुम्हारे शरीरमें कुशल अनपकारी है-किसीका उपकार नहीं करता। क्योंकि है ?' परन्तु मेरे शरीरमें कुशल कहाँ से हो, जब कि तिनका घासके रूपमें तो पशुओंका पालन करता है आयु दिन दिन घटती जाती है और मैं कालके मुँहमें और संग्राममें उन कायरोंकी प्राण रक्षा करता है जो चला जा रहा हूँ ?' दाँत तले तिनका दबा कर शत्रुके सामने आगये हों।' "मृत्योविभेषि किं मूढ ! भीतं मुंचति नो यमः। "अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसां । अजातं नैव गृहाति कुरु यत्नमजन्मनि ।" उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥" 'हे मूढ ! मृत्युसे क्या डरता है ? डरे हुए प्राणी 'यह अपना है और यह पराया,ऐसी गणना क्षुद्र को काल छोड़ता नहीं है। हाँ, जो जन्म नहीं लेता हृदय व्यक्तियों की होती है। परन्तु जो उदारचरित हैं उसे काल पकड़ता नहीं। अतः कालकी चपेटसे यदि उनकी दृष्टिमें सारी पृथ्वी ही उनका मुटुम्ब है।' Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध, वीर नि०सं०२४५६] .सुभापित मणियों १५६ हिन्दी X उर्दूसत्य-समान कठोर, न्याय सम पक्ष-विहीन, न सुनो गर बुरा कहे कोई,न कहो गर वरा करे कोई हूँगा मैं परिहास-रहित, कूटोक्ति-क्षीण । रोकलोगर गलत चले कोई, बख्शदो गर स्वता कर कोई।। नहीं करूँगा क्षमा, इंच भर नहीं टलूँगा, x x -लिब' तो भी हूँगा मान्य, ग्राह्य, श्रद्धेय बनँगा ॥ कीया ग़रूर गुलग्न जब रंग रूप बू का । x x -यगवी मारे हवाने मोके शबनम ने मुँह पथका।। जानxx.x काँधा बदल बदल गए लेकर के कत्र तक । सीख बिना नितसीखत हैं,विषयादिकसेवनकीसुघराई॥ कितना में दोस्तों के लिए बारदोश था !! ता पर और र. रसकाव्य, कहा कहिये तिनकी निठराई। x x -'नाज' अन्ध असझनकी अखियानमें डारत हैं रज राम दहाई॥ हविस५ जीने की है यूँ उम्र के बेकार कटने पर । x x -भूधरदास । जो हमसे जिन्दगीका हक अदा होता तो क्या होता ? x x --'चकवस्त' हे विधि! भूल भई तुमसे, समुझे न कहाँ कस्तूरि बनाई, ____ "कमज अमीरी में बदल जाते हैं। दीन कुरंगन के तन में, तृन दन्त धरें करुना नहिं आई। अपने भी फ्रकीरी में बदल जाते हैं। क्योंनरची उनजीभनिजे,रसकाव्य करेंपरकोदुखदाई? दांत बनवाते हैं चढ़वाते हैं ऐनक बुट्टे । साधु-अनुग्रह दुर्जन-दंड, दुहूँ सधते विसरी चतुराई !! माजा भी पीरी में बदल जाते हैं।" xx - भूघरदासा नहीं मालम यह आजाद रह कर क्या सितम हाती। सत्संगतिसे बढ़ कर, सची शिक्षा कहीं नहीं मिलती। कि इन बत्तीस दाँतों की हिफाजतमें जबा १० रम्यदी। पारस पत्थर अगर मिले उसको। ----नाश' x x -दरबारीलाल । जिन्दा दिल वो हैं कि जो कोम पै जाँ देते हैं । जो उद्योगी बने काम करते रहते हैं, मुर्दा दिल अपनी भलाई पै मरा करते हैं । सफल रहें या विफल दुःख-सुख सब सहते हैं। x -मंगतराय "लाई हयात" आए क़जाले चली चल । आखिर वेही पूर्ण सफलताको पाते हैं, अपनी खुशीसे आए न अपनी खुशी चले ॥" स्व-परोन्नति का दृश्य जाति को दिखलाते हैं। .x x -दरबारीलाल । उसमें एक खुदाई का जलवा है वगरना शेख । "दुर्बल को न सताइये जाकी मोटी हाय । मिजदा करे से फायदा पत्थर के सामने ? मुए चाम की फॅक सों सार भसम होजाय ॥" x -शेख xxx अवस१५ यह जैनियों पर इत्तहामे। बुतपरस्ती है। सज्जन चाल मराल सम, औगुन तज गुन लेत । बिना तसवीर के हरगिज़ तसव्वर हो नहीं सकता। x x -मंगतराय। शारदवाहन वारि तज, ज्यों पयपान करत ।। ___x x . -वृन्दावन । १क्षमा कारढो. २ फल. ३ मांस. ४ स्कन्धभार. ५ तृष्णा ६ करीने. सुबहल्य. अंगोपांग. ८ कुरापे में. ६ स्वतन्क्ष. १० "सब रसको रस नेम है, नेम को रस है प्रेम । जीभ-जिहा. ११जिन्नी. १२ मौत. १३ ईश्व का तेज-भान. जा घर नेम न प्रेम है,ता घर कुसल नछेम ।। १४ प्रशामाविक. १५व्यर्थ. १६ इलज़ाम-आरोप. १७ मूर्तिमान - X X का ध्यान। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ३ न्यायाचार्य पं० माणिकचंद्रजी का पत्र AON क ATRADARASTRI श्रीमान् धर्मप्रेमी पं० जुगलकिशोरजी महादय, योग्य सस्नेह जयजिनेन्द्र। ___ आपकी भेजी हुई समन्तभद्राश्रमकी विज्ञापनायें और 'अनेकान्त' पत्र (सम्मत्यर्थ) प्राप्त हुये । जैनधर्मका अभ्युदय प्रकट करने के लिये आपकी कार्यपद्धति कालानुसार प्रशस्त है । जैन समाजके तन्मय होकर कार्य करने वाले कर्मठों में आप विशेषतया इस कारण साधुवादाह हैं कि,अापने संकीर्णता-प्रयोजक पक्षपात को हटाते हुये भी जैनत्वके अभिनिवेश का अनेकान्तद्वारा अक्षुण्य परिपालन करना विचारा दीखता है । पदपद पर जैनत्वको पकड़े रहना यह एक आवश्यक गुण है। क्योंकि वर्तमान में अनेक कारणों के अनुकूल होने पर भी कुछ निमित्त ऐसे उपस्थित होते जा रहे हैं जिनसे कि अनेक विचारशालिगों को निकट भविष्यमें श्रीमहावीर स्वामि-प्रतिपादित जैनधर्म की उपाङ्ग परावृत्ति होजाने की सम्भावना दृष्टिकोणगत हो रही है। __ आपकी निर्धारित प्रणाली के अनुसार कार्य होते रहने से उस परिवर्तन की शङ्काका बहुभागों में निरास हो जाता है। श्रीवर्धमान तीर्थक्कर महाराज के पश्चात् स्वामी समन्तभद्र भगवान ने पराभेद्य न्यायशास्त्रोंकी सृष्टि कर जैनधर्म को सुरक्षित रक्खा है । आश्रमके साथ सर्वतोमङ्गलमय उनका नाम संकीर्तन करना विश्वप्रिय है । समीचीन संस्थायें ही जैनधर्म प्रासाद के आधारभूत स्तम्भ हैं । ऐसे सामुदायिक शुभ कार्य की सिद्धिमें आपको जैनसमाजद्वारा शारीरिक, मानसिक एवं आर्थिक सहायता पुष्कल प्राप्त होती रहनी चाहिये । आज कल शुद्ध धार्मिक कार्यों में भी उक्त सहकारिओं की आवश्यकता का अविनाभाव सा हो रहा है । मैं आपके चिरकालीन अनुभवके पश्चात् प्रारब्ध किये गये कार्यों का हार्दिक अनुमोदन करता हूँ। अनेकान्त पत्र को मैंने अक्षरशः पढ़ा है, मनोनुकूल है। पत्र की नीति निरवद्य है। मेरी शुभ भावना है कि इस प्रकारके ठोस कार्यों द्वारा जैनत्त्व की अभिवृद्धि होकर जैनधर्म का दुन्दुिभि निनाद दशों दिशाओं में फैल जावे । जम्बूविद्यालय, सहारनपुर । आपका मित्र ३०-११-२९ माणिकचन्द्र कौंदेय जनरल Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माष, वीर नि०सं०२४५६] कर्णाटक जैनकवि कर्णाटक-जैनकवि . . . [अनुवादक-श्रीयुत पं० नाथूरामजी प्रेमी १६ वर्द्धमान (लगभग ई०सन् १६००) होना चाहिए । बहुतों का खयाल है कि इस शतक का नगर ताल्लुकेके ४६ वें शिलालेखसे मालूम होता कर्ता रत्नाकरवर्णी है ; परन्तु यह ठीक नहीं जान है कि उसका लेखक कवि वर्द्धमान (मुनि) है । शिला- पड़ता । क्योंकि रत्नाकरवीके गुरु चारुकीर्ति और लेख में कनड़ी और संस्कृत इन दोनों ही भाषाओंके हंसराज के गुरु देवेन्द्रकीर्तिने अग्गल, नेमिचंद्र, रन्न, पद्य हैं । प्रारंभमें अभिनव वादिविद्यानन्द की स्तुति कुमुदेन्दु, मधुर और जिनाचार्य का स्मरण किया है। करके कविने अपनी परम्परा इस प्रकार दी है-राजा २१ देवोत्तम (ल. १६०० ) कृष्णदेव (ई०स० १५०९-२९) की सभामें वादिजनों इसका बनाया हुआ 'नानार्थरत्नाकर' नामका ग्रंथ को पराजित करनेवाले अभिनव x वादिविद्यानन्द, है, जिसमें संस्कृत शब्दोंके नाना अर्थ बतलाये गये हैं। उनके पुत्र विशालकीर्ति, विशालकीर्तिके पुत्र देवेन्द्र- १६९ पद्योंमें यह समाप्त हुआ है। इसमें इस कविने कीर्ति, जिनकी पूजा भैरवेन्द्र वंशके पाण्ड्य राजाने की अपने पूर्ववर्ती निघण्टुकारोंके नाम नीचे लिखे पथमें और देवेन्द्रकीर्तिका पुत्र कवि वर्द्धमान । इसका समय प्रकट किये हैं - १६०० के लगभग : होना चाहिए । निजगोपाल धनंजया मिनवयाचं भागुरीनागव. ५० श्रृङ्गारकवि राजहंस (ल. १६०.) मोजयंतामर शब्दमञ्जरी बलायुक्ताभिधानार्थमम् इसने 'रत्नाकराधीश्वर-शतक' नामक ग्रंथकी इस पद्यमें जिस 'शब्दमरी' का उल्लेम्प है.. रचना की है, जिसमें १२५ वृत्त हैं और इसका प्रत्येक वह विरक्त ताटदार्य (१५६०) की कर्नाटक शब्दमसारी पद्य 'रत्नाकराधीश्वर' इस शब्द पर समाप्त होता है। ही होनी चाहिये। यह ग्रंथ मुद्रित ह चका है। इस कविन अपन पर्ववर्ती ग्रंथकान अपने लिये 'द्विजवंशार्णवपूर्णचन्द्रन कवि 'मधुर' (१३८५) का स्मरण किया है । इसके नेपी देवोत्तम' लिखा है। गुरुका नाम देवेन्द्रकीर्ति है और श्रवणबेलगोल की एक २२ पायएण व्रती ( ल. १६००) पाथीसे मालम होता है कि देवेन्द्रकीतिका समय १६१४ इसका बनाया हुआ 'सम्यक्त्वकौमुदी' नामका ----- ग्रंथ है, जिसमें १९ सन्धियाँ और १९८५ पथ हैं। xशिलालेख में 'अभिनव' शब्द का प्रयोग साथमें नहीं पाया या यह पूरा पंथ सांगत्य नामक छंदमें लिखा गया है। -सम्पादक उक गुरुपरम्परा वाले बर्द्धमान कविने शमत्याशिल को इसमें सम्यक्त्वसे मोक्ष प्राप्त करनेवालोंकी कथाएँ है। शक सं० १४६४ (ई.स. १५४२ ) में बनाकर समाप्त किया है। प्रथके आरंभमें सुपावं तीर्थंकर की और फिर सिद्ध मतः यह इसका सुनिश्चित समय है। -सम्पादक भुजबलि, गणधर, सरस्वती, शामनदेवीकी स्तुति की * मुक्ति प्रतिमें 'मधुर' का नाम न है। गई है। जाता। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ अनेकान्त कवि पेनुगोंडे देशके नन्दिपुरका रहने वाला था । पिताका नाम गुण मरणम्मबणजिगसेट्ठि और माताका केचम्म था । भव्यजनों को धर्मकथा बांचकर उसका अर्थ समझानेवाला यह उपाध्याय था। छोटी उम्र में ही भारतीके प्रसादसे यह कवि हो गया और स्त्री-मोह में न पड़कर ५५ वर्षकी अवस्था तक ब्रह्मचारी रहा । इसके बाद पार्श्वनाथबस्ती में सेनगणके लक्ष्मीसेन सुनिसे इसने दीक्षा ली । पार्श्ववस्ती में दीक्षा लेने के कारण पार्श्ववके नामसे भी यह प्रसिद्ध है । सन् १६०६ में सनत्कुमार चरित की रचना करने वाले पायरण मुनि इससे जुदा हैं, क्योंकि वे श्रीरंगपट्टणके रहने वाले थे । २३ शृंगार कवि ( ल० १६०० ) इसका बनाया हुआ 'कर्णाटक- संजीवन' नामक कनड़ी भाषाका कोश है, जिसमें ३५ पद्य (वार्धिकषट्पदी) हैं। यह रसवालिगेप्रभु वोम्मरसका पुत्र था । इसके नामसे मालूम होता है कि उक्त कोशके सिवाय इसके और भी ग्रंथ होंगे। रत्नाकराधीश्वर - शतकके कर्ता हंसराजका भी उपनाम शृंगारकवि है, इससे यह शंका हो सकती है कि उसीने यह कोश बनाया होगा । परन्तु इस ग्रंथ में हंसराज का नाम ही कहीं नहीं आया है, इसलिए यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि ये दोनों जुदा जुदा हैं। [वर्ष १, किरण ३ २५ ब्रह्म कवि 'ल० १६०० ) इसके बनाये हुए 'वज्रकुमारचरिते 'की एक ही अपूर्ण प्रति उपलब्ध हुई है जिसमें केवल तीन ही आ श्वास हैं । यह ग्रंथ सांगत्य छन्द में है और बीच बीच में कन्द वृत भी दिये हैं। इसमें लिखा है कि धर्मामृत की पद्धति का अनुसरण करके अपने पुत्र गुम्मा के लिए यह ग्रंथ रचा जाता है। प्रारंभ में शान्तिजिनकी स्तुति है और फिर चतुरंगुलचारण कोण्डकुन्द, गुणभद्र, चारूकीर्ति पण्डित, विद्यानन्द, लक्ष्मीसेन, काणुरगण के भानुमुनि, पाल्य कीर्ति और शान्तिकीर्ति की स्तुति की गई है। नयसेन, अभिनत्र पम्प, गुणवर्म, पोन्न, जन नामक कनड़ी कवियोंका भी स्मरण किया गया है । २४ शान्तरस (ल० १६०० ) इसका बनाया हुआ 'योगरत्नाकर' नामका ग्रंथ है, जिसमें योगके यम, नियमादि आठ अंगोंके अनुसार आठ अंगोंका निरूपण है और इसीलिए इसका नाम 'ग' भी है। इस ग्रंथसे कविसम्बन्धी और कोई भी परिचय प्राप्त नहीं हुआ । यह कुन्तल देशके पुरहरक्षेत्रपुरका रहने वाला था, चेन्न नृप जहाँ कि पाण्ड्यवंशके विरूप नृपका पुत्र राज्य करता था । इसके पिता का नाम नेमण्ण, माता का बोम्मरसि, पुत्र का गुम्मण, गुरुवा गुणभद्र और कुलदेवका शान्तिजिनेश था । २६ पायण मुनि (१६०६ ) इनका बनाया ' सनत्कुमार चरिते ' नामक कनड़ी ग्रंथ है जो सांगत्य छन्दमें लिखा गया है। यह श्रीरंगपट्टणके आदिजिनेशके चरणसामीप्यमें शक संवत् १५२८ में समाप्त हुआ है । २७ पंचवाण (१६१४ ) इसने 'भुजवलिचरिते' नामक प्रन्थ सांगत्य छन्दमें लिखा है, जिसमें २२ सन्धियाँ और २८१५ पथ हैं । * मिस्टर ई.पी. राइसने अपनी 'हिस्टरी माफ कनहीजलिटरेचर' में ब्रह्म कविके बनाए हुए एक 'जिनभारत' नामके ग्रन्थका भी उस किया है। सम्पादक Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माष, वीर नि०सं०२४५६] कर्णाटक-जैनकवि इसके अन्तिम अध्यायमें, जो १०९ पद्योंका है, गोम्म- मराज भूपालकारित-हयसारसमुपयाभिषान टेश्वर के मस्तकाभिषेक कावर्णन है । प्रन्थके प्रारंभमें चामराजीय ग्रन्थमेव इयशासटोल ।'' गोम्मटस्तुति है । फिर २४ तीर्थकर, मिद्ध, सरस्वती, २६ चंद्रम (१६४६ यक्षाधिप, बेट्टदब्रह्म और पद्मावतीका स्तवन है। इनके ___ इसका बनाया हुआ 'कार्कल-गोम्मटेश्वरचरित' बाद कोण्डकुन्द ,पूज्यपाद, श्रुतकीर्ति, चारुकीर्तिपण्डित उपलब्ध है । इसके विद्यागुरु 'श्रुतमागर' और प्रतगुरु और अपनी गृहदेवी पातालयक्षरमणी अनंतमतियम्म महेन्द्रकीर्ति' थे । 'अरिगयरगंडरदावणि' उपनाम का स्मरण किया गया है। धारक भैरव राजा की सहायता और 'ललितकीर्ति' की इस प्रन्थके सिवाय पंचवाणके कुछ फुटकर पद आज्ञा से यह प्रन्थ लिखा गया है। इसमें सन् १९१६ गोम्मटेश्वर, त्यागदब्रह्म , बेट्टदब्रह्म आदिके सम्बन्धमें में किये गये उस महामस्तकाभिषेक का उल्लेख है, जो इम्मडि भैरवरायने अपने पिता भैरवरायकीपुण्यख्याति यह कवि बेलुगोलका रहनेवाला था। स्थानिक के लिए, कुलगुरु 'ललितकीति' के उपदेश से और चेन्नप्पय्य इसका पिता और विद्यागुरु था । बोम्मप्प महेन्द्रकीति' की सहायता से किया था । ऐसा जान और देप्पय्य इसके भाई थे। भुजवलिचरिते के अन्त पड़ता है कि इस उत्सवके समय कवि स्वयं मौजूद था। में लिखा है कि शान्तवर्णी ने सन् १६१२ में गोम्मटे ____ 'कार्कलद गोम्मटेश्वरचरित्ते' सांगत्य छन्द में है। श्वर का मस्तकाभिषेक कराया। इस प्रन्थकी एक प्रति इसमें १७ सन्धियाँ और २१८५पद्य हैं । इसमें गोम्मटेऐसी मिली है, जिसे प्रन्यकर्त्ताने स्वयं अपने हाथसे श्वर का चग्नि और कार्कल में गोम्मटेश्वर की मूर्ति लिखा था। की प्रतिमा का वर्णन है। इसमें इस बात का उल्लेख २८ पण पंडित (१६२७) किया गया है कि उत्तरमधुरानाथ 'परिरायगंडरदावणि' यह कनकपुरके देवरसका पुत्र था और इसकी उपनाम धारी पांड्यराजा ने ललितकीर्ति के उपदेश मे माताका नाम गम्माम्बा था। इसका बनाया हुआ गोमटेश्वर की मति बनवाई और उसे दस पहियों की 'हयसारसमुषय' नामका ग्रन्थ उपलब्ध है, जो मसूर गाड़ी के द्वारा एक महीने में पहार पर ले जाकर ई. के राजा चामराज (१६१७-३७) की श्राझासे लिखा स० १४३१ में प्रतिष्ठा करवाई। गया था। चामराजका आश्रित होने से इसका एक अपने आश्रयदाता के संबंध में कविने इस प्रकार नाम 'चामराजीवि ' भी है। 'हयसार समुषय' शक परिचय दिया हैसंवत० १५४९ (ई० स० १६२७ ) में समाप्त हुआ है। उस पाण्ड्य राजा के वंशमें वीर नरसिंह बंगराजेइसमें २० अध्याय हैं और प्रन्थसंख्या ८००० है। न्द्र ने जन्म लिया। उनकी पत्नी का नाम गुम्मटावा इसमें घोड़ोंकी आकृति, लिक, औषधादि का निरूपण और पत्रका इम्मरि भैरवराय था। भैरवरायकी पत्नी है। प्रन्यारंभमें जिनस्तुति है और प्रत्येक अध्यायके मलिदेवी से चार पुत्र हुए-भुवनैकबीर, पाणयेन्द्र, अन्तमें इसप्रकार का गय है -"इदु श्रीमद्राजा- पंद्ररोजर और परिरायगंबरदावणि इम्मति भैरवराय। पिराज-राजकुलतिलकरामशिखामणि-भीम- इस पडिपोपपपुगवराधीश्वर एम्मरि भैरवरायने ई० Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ३ स० १६४६ में गोम्मटेश्वर की पुनः प्रतिष्ठा, पूजा और 'धन्यकुमारचरिते' में ४१० पद्य हैं । ग्रंथारंभ में अभिषेक करवाया । ग्रंथ के प्रारंभमें नेमिजिनस्तुति जिनस्तुति है और फिर सिद्ध तथा 'पण्डितमुनि' की है। फिर बाहुबलि, चन्द्रनाथ, सिद्ध, यक्ष, यक्षी, बेट्टद स्तुति की गई है। ब्रह्म, भैरवरायकी कुलदेवी पोंबुचपनांबा तथा सरस्वती ३२ माघवदेव ल०१६५०) की प्रशंसा की गई है । इसके बाद महेन्द्रकीत्ति, अहहास भी इसका नाम है । इसका बनाया हुआ पनसोगेय सिंहासनाधीश देवकीर्ति, उनके शिष्य मल- शकुन-शास्त्र विषयक 'नरपिंगलि' नामका ग्रन्थ है । इसने धारि ललितकीर्ति, तद्वंशज अभिनव ललितकीर्ति, अपने को यंत्रमंत्रतंत्र में निष्णात बतलाया है। विद्यानन्द, श्रुतसागर, काणुर गणद भानुकीर्ति, बल्लालराय जीवरक्षक चारुकीर्ति, वीरसेन और ललितवर्णी ३३ गुणचन्द्र (ल०१६५०, का स्मरण किया गया है। इसका बनाया हुआ 'छंदस्सार' नामका ग्रंथ है जो बहुत अंशोंमें केदारभट्टके वृत्तरत्नाकरका अनुकरण ३० देवरस (ल.१६५०) है। इसमें संज्ञा-प्रकरण, मात्राछन्दोलक्षण, समवृत्तयह कर्नाटक देशस्थ पुगतटाक नामक नगर के प्रकरण और तालवत्त प्रकरण ये पाँच प्रसिद्ध जैन ब्राह्मण देवरस (?) का पुत्र था । इसका अध्याय हैं। प्रारंभमें जिनस्तुति है और अन्त में इस बनाया हुआ 'गुरुदत्तचरित्र' नामक ग्रंथ है, जिसमें प्रकार गद्य है- इति श्रीमदनपमनित्यनिरंजनप८१३ पद्य हैं । इसमें लिखा है कि पूगतटाकके समीपवर्ती पर्वत पर जहाँ कि पार्श्वजिनालय है, 'पूज्यपाद रमात्माईदाराधनापरमानन्दवन्धुग्गुणचन्द्रविरस्वामी' सिद्धरस की रचना करके प्रसिद्ध हुए थे। । चित छंदस्सारदाल । व ग्रंथ के प्रारंभ में २४ तीर्थंकरों की स्तुति करके सिद्ध, ३४ धरणि पंडिन (ल०१५५०). सरस्वती,सर्वाणहयक्ष,तथा कूष्मांडिनी का स्तवन किया इसके बनाये हुए दो प्रन्थ हैं-वरांगनृपचरित' है और पूज्यपाद, गुणभद्र, विजय, अकलंक, नागचंद्र, और 'विज्जलनपचरिते' । यह विष्णुवर्द्धनपुर के वरकुअग्गल, काम, भट्टाकलंक (१६०४) और शान्तिवर्म लागत वैद्यविद्यापरिणत परवैद्यकरिहरि धरणिपण्डित का स्मरण किया है । दूसरी प्रति में होन्न, पंप, नेमि, का पौत्र और पद्मएण पण्डितका पुत्र था । यह आपको गुणवर्म, मधुर के भी नाम हैं। ' विष्णुवर्द्धनपुरस्थपार्श्वजिनेन्द्रचन्द्रचरणवारिज,ग' ३१ भादियप्प (ल०१६५०) कहता है । इसने नेमिचन्द्र, होन्न, रन , हंप (पंप ? ), इसका बनाया हुआ 'धन्यकुमारचरित' नाम का और नागवर्म इन कवियों की स्तुति की है। प्रन्थ है । इसके पिता मुनियोण ( तयतिके शिष्य) 'वरांगनृपचरिते' की एक अपूर्ण प्रति उपलब्ध हुई और भाई ब्रम, चन्द्र, विजयप्प नामके थे । तुलवदे- है, जिसमें ६ अध्याय हैं। लिखा है कि पूर्व मुनि कथित शान्तर्गत गेरेसोप्पे के राजा भैरवराय के गुरु 'वीरसेन' कथा को मैं कनड़ी में लिखता हूँ। ग्रंथारंभमें मंगलाकी मात्रानुसार यह ग्रंथ लिखा गया था। चंद्रकीर्ति चरण के बाद कोंडकुंद, कविपरमेष्टी, कुमारसेन, के पुत्र 'प्रभेन्दु' मुनि इस कवि के गुरु थे। पूज्यपाद, जिनसेन, वर्द्धमान, वीरसेन,समन्तभद्र और Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ माघ, वीर नि०सं०२४५६] कर्णाटक-जैनकवि अकलंकका स्मरण किया है। नामका उल्लेख 'अभिनव नागचन्द्र' या 'नल नागचन्द्र' _ 'विजलरायचरिते' में १२ सन्धियाँ और १२३९ रूपमें किया जान पड़ता है। दोनों कवियोंको एक सम(दूसरी प्रतिके अनुसार १३७१) पद्य हैं । इसमें कल्या- मना भ्रम है। दोनों की लेखनशैली में जरा भी समता णपुरके राजा जैनशासनवाधिवर्द्धनचन्द्र जैनवंशान्व- नहीं है। तिलक जैनमार्गानन्द पर विजलराजा की कथा है। ३६ सिंहगन (ल०१६५०) अपनी माता विजयन्ति को जो कथा सुनाई थी वही इमने 'चिन्मयचिन्तामणि' नामका प्रन्थ लिखा है, इसमें विस्तार से लिखी है, ऐसा कवि ने लिखा है। जिसे 'हरदनीति' भी कहते हैं । इसमें चंपकपुर के और सबका इतिहास इस प्रकार दिया है- 'चन्द्रकीति' नामक व्यापारीने अपने पुत्र 'सूरसेन' को विजल राजाने अपने पुरोहित मादिराजकी कन्या दिये हुए उपदेश प्रथित हैं । बहुतों का खयाल है कि पागनी के साथ विवाह कर लिया और उसके बड़े इसका कर्ता 'कल्याणकीति' है, परन्तु हमें जो प्रति भाई वसवको राज्य का सेनापति बना दिया । शक्ति प्राप्त हुई है उसके ९९ श्लोक से स्पष्ट मालूम होता है पाकर वसव ने अचानक राजा पर आक्रमण किया, कि पुलिगेरे के सिंहराज ने ही इसे बनाया है। परन्तु वह सफल नहीं हुआ और पराजित होकर ३७ चन्द्रम (ल० १६५०) आत्महत्या करने के लिए पानी में डूब गया । इस पर इसने 'लोकस्वरुप' नामका प्रन्थ १४० कन्द पयों राजा ने उसे निकलवाया और क्षमा प्रदान करके फिर में संस्कृतके आधारसे लिखा है। इसमें तीनों लोकोंका पूर्व पद पर स्थापित कर दिया । परन्तु वमव का हृदय स्वरूप बतलाया है। इसका कर्ता चन्द्रकीर्ति योगीश्वर साफ नहीं हुआ। वह षड्यंत्र रचता रहा । एक बार का शिष्य था और तुलुमधुर देशके अलियरपुर गाँवका जब उसने सुना कि मेरे भेजे हुए विषयुक्त आमों की रहने वाला था। इसने 'गणितसार' नामका प्रन्थ भी गंधसे राजा मर गया, तब वह डरके मारे भागा और लिखा है परन्तु वह हमको प्राप्त नहीं हुआ। कडलतडि के वृषभपुरकी एक वापिका में गिरकर मर ३८ नेमि व्रतील. १६५०) गया । इसी लिए उक्त गाँव 'उलिवे' इस अन्वर्थक इसने सांगत्यछन्द में 'सुविचार परिते' नामका प्रन्थ कनड़ी नाम से प्रसिद्ध है। लिखा है, जिसमें १२६५ पद्यों में चतुर्तिदुःख, श्राव३५ नत्न नागचन्द्र (ल०६५०) कोंकी ११ प्रतिमायें और मोक्षस्वरुप मादि विषयोंका इसका बनाया हुआ 'जिनमुनितनय' नामक १०६ प्रतिपादन किया है। प्रारंभ में नेमि जिनकी स्तुति है पद्योंका प्रन्थ उपलब्ध है। इसके प्रत्येक पद्यके अन्तमें और फिर सिद्ध, वृषभसेनादि गौतमगणधर, कोंबकुंद, 'जिनमुनितनया' यह पद आता है, इसी कारण इसका नेमिचन्द्र और गुणभद्रका स्तवन किया है। कविने यह नामकरण हुआ है । यह जैनधर्म और नीति का भापको 'ब्रह्मचारी' लिखा है। ____ ३६ चिदानन्द कवि (ल० १६८०) यह कवि 'रामचन्द्रचरित' और 'मल्लिनाथपुराण'के इसके बनाये हुए 'मुनिवंशाभ्युदय' प्रन्थकी एक कर्ता 'नागचन्द्र' से जुदा है, इसी कारण इसने अपने अपूर्ण प्रति मिली है, जिस में ५ सन्धियाँ हैं । कविने प्रतिपादक प्रन्थ है। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ३ अपने इस प्रन्थ में मैसूरके चिक्कदेव राजा (१६७२- जाकर शासन श्रवण किये । तेलगुराजा जगदेवके त्रास १७०४) की स्तुति की है और फिर उसकी वंशावली दे से गोम्मटेश्वरकी पूजा बन्द हो गई थी। चारुकीर्ति कर उसीको सम्बोधन करके विषय प्रतिपादित किया पण्डित बेल्गोल छोड़कर भल्लातकीपुर भाग गया था है। इससे इसका समय ई०स० १६८०के लगभग होना और भैरवराजाके आश्रयमें रहने लगा था। चामराजा चाहिए। चिक्कदेव राजाकी वंशावली इस प्रकार ने उसे वापस लाकर पूजाक्रम फिर से जारी करा दिया। बेट्टद चामराज, उनके पुत्र तिम्मराज, कृष्णराज मुनि वंशाभ्युदय में जैन मुनियोंकी-मुख्यतः कोंऔर चामराज । चामराजके पुत्र राजनप, बेट्टद चाम- डकुंदान्वयके मुनियोंकी-परम्परा दी है । श्रीभद्रबाहु राज, देवराज और चनराज । इनमेंसे राजनप गद्दी श्रुतकेवली बेल्गोल आये और चन्द्रगुप्तने अहंदली पर बैठा और बेट्टद चामराज युवराज हुआ । राजनप आचार्यके समयमें दीक्षा ली, इसका भी उल्लेखहै । ने श्रीरंगपट्टण जीता। उसके बाद नरसराज, फिर नरस राजका पुत्र चामराज गद्दी पर बैठा। इसने श्रवणबेलगोल (शेष आगे) सिद्धान्तशास्त्री पं० देवकीनन्दनजी का पत्र श्रीमान माननीय विद्ववर मुख्तार सा० सादर जुहारु । अपरंच आपके 'अनेकान्त' के दोनों अंकोंका मननपूर्वक अवलोकन किया । आपके व्यक्तित्व के अनुसार पत्रकी नीति अत्यन्त योग्य है । लेख सब अनुसन्धानपूर्वक लिखे गये हैं । पात्रकेशरीस्वामी । और १००८ महावीर स्वामी के लेख तो बहुत ही खोजपूर्वक लिखे हैं। आप के साहित्य की जो विशेषता है वह किसी विषय में मतभेदके रहते हुए भी हमको आदरणीय प्रतीत होती है । आप के साहित्य से नई शिक्षासे भूषित व्यक्तियों का पूर्ण रीतिसे स्थितिकरण होता है और उस से जैनधर्मके । विषय में श्रद्धा की भी वृद्धि होती है ऐसी मेरी समझ है । जैन साहित्य के लिए जी जान से सर्वस्व त्याग कर सेवा करने वाला आप के समान वर्तमान में शायद ही कोई होगा। आप की सेवाओं से समाज में जागृति दीख पड़ रही है । मैं उत्साह करता हूँ कि कुछ मैं भी आपके पत्रमें लिखू। यदि मौका मिला तो अवश्य ही लेख भेजेंगा। मेरे योग्य सेवा लिखियेगा। श्रीजिनेंद्र से प्रार्थना है कि आप को उत्तरोत्तर साहित्यसेवा में अधिक से अधिक सफलता प्राप्त हो । महावीर-ब्रह्मचर्याश्रम । भवदीय कारंजा, ता० ४-१-३० । देवकीनन्दन' Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माघ, वीर नि०सं०२४५६ ] जयकुमारः -जयकुमारः--** [ लेखक - श्री० पं० के. भुजबली शास्त्री ] इहास्ति भारते खंडे सर्वालंकारमंडिते । हस्तिनागपुरं रम्यं धनदस्यपुरोपमम् ॥ १ श्रासीत्तत्र पुरे श्रेष्ठे शशिवंश- दिवाकरः । नृपस्सोमप्रभो धीमान् धीधनार्जितवैभवः || २ || साऽयं सोमप्रभो राजा राजोचिनगुणार्णवः । शशास गुरुसाम्राज्यं यथेद्रस्त्रिदशालयं ॥ ३ ॥ श्रासीलक्ष्मीमती तस्य महिषी महिलोज्वला । सम्यक् वादिगुणोपेता रूपलावण्य मंडिता ॥ ४ ॥ नाना जयकुमारस्तु पुत्रो जातस्तयोरिह । अहो पुण्येन जंतूनां किं न जायेत भूतले ||५|| सोऽयं जयकुमारस्तु वर्धमानो दिने दिने । सर्वशास्त्रेषु नैपुण्यमुपादसं सुमेधसा || ६ || एकदा तत्पिता पुत्रं निपुणं नयकोविदं । विज्ञाय यौवराजाई कृतवांस्तत्पदे सुधीः ||७|| पुत्रोऽपि तत्पदं प्राप्य प्रोन्नतं पितृपालितं । कीर्तिविस्तारयामास पुनीतस्य पितुः क्रमात् ॥ ८ ॥ संजातमेकदा राज्ञो वैराग्यं परमोन्नतं । पद्मं मुकुलितं वीक्ष्य समुंगं सुमनोहरं ॥ ६ ॥ ततस्सोमप्रभो राजा पुत्रनिक्षिप्त शासनः । बभार जिनदीक्षां तां मुक्तिप्राप्त्येकसाधनां ॥ १० जयोऽपि प्राप्तसाम्राज्यं पालयन् पितृवन्मुदा । प्रजानां प्रीतिभागासीत्पुण्ये जाग्रति का कथा || ११ श्रुत्वा दिग्विजयं चेह सूनोः पुरुवरात्मनः । कुमारः कृतवान् गन्तुं सन्नाहं भरतेन तु ॥ १२ सुदीर्घकालपर्यतं स्थित्वा भरतभूभुजा । जयोऽपि जितवान्नागमुखादिपरिपंथिनः || १३|| ॥ || १६७ दृष्ट्वा जयकुमारस्य विजयं विजयांगणं । तृष्टो भरतभूपालो व्यधातं स्वचमूपति || १४ || जित्वा पट्खंड पृथ्वींतां यदा प्रत्याययी पुरीं । कुमारं प्रेषयामास भरतः स्त्रपुरं मुदा ॥ १५ ॥ जयोऽपि स्त्रपुरं प्राप्य प्रजानां परिरक्षणे । यथावद्यतमानोऽभूद्राजा हि परदेवता ॥ १६ ॥ आसीदकम्पनो राजा काश्यां कारुण्यसागरः । नित्योद्योगी निरातंक-भोगोपविषयेंद्रियः ||१७|| सुलोचनाख्या पुज्यासीतस्य कंपमहीपतेः । साभूत्सर्वकलाभिज्ञा निपुणा नयकोविदा || १८ || का पिता पुत्र युवतीं विनयोज्वलां । मत्वा विवाहयोग्यां तां तदर्थं यतते नृपः ॥ ॥ १६ ॥ स्मयंवरविधावेव पुत्र दयामिति नृपः । घोषयामास सर्वत्र कन्यानुमतिपूर्वकं ||२०|| श्रुत्वा तद्वघोषणां सर्वे तावता धरणीभुजः । आसेदुः क्षितिपस्यास्य पुरमत्यन्तलीलया ॥ २१ ॥ जयोऽपिस्थितवानत्र स्वयंवरसभांतरे । स्त्री मोहनात्र के लोके चंचिता न विचक्षणाः॥ २२ ॥ परिशिन्येऽथ सा तुष्टा कुमारं कुहनायकम् । दुर्लभः खलु लोकेऽत्र सुबरः सुगुणान्वितः ॥ २३ ॥ कीर्तिस्तु तद्वी युद्धाय परिचक्रमे । पराभ्युदयखिन्नत्वं दुर्जनानां हि लक्षगं ||२४|| संगरे जिनवानर्क कुमारः पुरुषौरुषः । ॥ धर्मों जयति सर्वत्र न बलं न च वैभवम् ॥ २५ ॥ ततो जयकुमारस्तु रेमे वामासमन्वितः । यथाई भाग संप्राप्त्या संसारेऽपि सुखीजनः ॥ २६ ॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ ner - -.. अधूरा हार अनेकान्त [वर्ष १, किरण ३ इन्द्रोऽपि स्तुतबानत्र तयोर्गार्हस्थ्य जीवनम् । चारित्रमेव संसाररोधनं मोक्षसाधनं ॥२७॥ सोऽयं जयकुमारस्तु दीर्घकालं गृहाश्रमे। वन में घूम घूम कर मैंने रंग विरंगे फलो व्यतीत्यमाप्तवान् सौख्यमक्षयंमोक्षसाधितम् ॥२८॥ का संग्रह किया और पहाड़ी के नीचे हरित दुर्वा [कविता वर्णित कथासार-'हस्तिनागपुरके चंद्र- पर रख कर हार गूंथने लगा। वंशी राजा 'सोमप्रभ' की रानी लक्ष्मीमती' से 'जय- . x x x कुमार' का जन्म हुआ। जयकुमार ने सर्व शास्त्रों में पू का आकाश असित घन-मालाओं निपुणता प्राप्त की और उसे पिता के जिनदीक्षा ले लेने से आच्छादित हो गया । नाविकगण अपनी अपनी पर राज्यासन मिला । वह पिताकी तरह प्रजाका अच्छी नौका किनारे बाँध कर गिरि-कन्दरात्रों में छिप गये। तरहसे पालन कर रहाथा कि, उसे परुदेव (श्रादिनाथ) मैं अकेला हार गूंथने में निमग्न था। के पुत्र भरत के दिग्विजयको निकलने का समाचार xxx पर्वत-शृंग तूफ़ान के वेग से हिल गया। धूल से : मिला । उसने भी भरतके साथ जानेका निश्चय किया। तदनुसार वह दीर्घकाल तक भरतकी साथ रहा और मेरी आँखें भर गई। सारे फूल प्रवल झकोरों में उसने नागमुखादि शत्रुओं को विजय किया । भरतजी . । पड़ कर तितर-बितर हो गये। मेरे पास साथ ले जयकुमारके इस रणकौशलसे संतुष्ट हुए और उन्होंने जाने के लिये केवल अधूरा हार बच रहा। " उसे अपना सेनापति नियत किया । षट्खण्डको जीत कर भरत चक्रवर्ती जब अपनी राजधानी ( अयोध्या) वंदी का विनोद को लौटे तब उन्होंने जयकुमारको विदा किया । वह अपने नगर पहुँच कर यथेष्ट प्रजाका पालन करने लगा। मरा मेरी विपंची मधुर गीत नहींगाती । उसकी झंकृति इतनेमें काशीके राजा अकम्पनने अपनी विदी पत्री में वेदना भरी है । प्रकृति की नीरव रंगस्थली में जब 'सुलोचना' का उसकी अनुमतिसे स्वयंवर रचा,जिसमें कभी बैठ कर तारों को छेड़ता हूँ, हृदय-पटल पर प्रायः सभी राजा आए, जयकुमार भी गया और उसी शीतल आँसू की बूंदें ढलक पड़ती हैं। मैं तत्काल के गले में वरमाला पड़ी। इस पर भरतका पत्र 'ई ही बीणा रख देता हूँ। कीर्ति' क्रुद्ध हुआ और उसने जयकुमारसे युद्ध ठाना । xxx युद्धमें अर्ककीर्ति को हारना पड़ा और जयकुमारकी विश्व का वंदी हूँ । जीवन को ज्वाला झुलसा रही पूरी विजय हुई। सो ठीक है, धर्मकी ही सर्वत्र विजय है। इच्छा होती है दाह से किनारे हो जाऊं होती है, बल तथा वैभवकी नहीं। इसके बाद जयकु किन्तु पाह, बंदी हूँ-परतंत्र हूँ। इसी असमर्थताकी धारा में चिन्ता नित्य डुबाना मार अच्छी तरहसे सुख भोगता और सदाचार-द्वारा अपने गार्हस्थ्य जीवनको स्तुत्य बनाता हुमा चिरकाल चाहती है। X तक गृहस्थाश्रममें रहा । और अन्तमें उसने मोक्ष पुरु- घबड़ा कर मन बहलाने के लिए फिर वीणा पार्थका साधन करके अक्षय सुखको प्राप्त किया। कता हूँ। मेरी बीणा रोती है- मैं सुनता हूँ। -सम्पादक] यही मेरा विनोद है। -श्रीजगन्नाथ मिश्र गौर "कमल" x Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माघ, वीर नि० सं०२४५६] भारतीय दर्शनशास्त्र yaencontre renvarnie । भारतीय दर्शनशास्त्र [लेखक-श्रीयत पं० माधवाचार्य रिसर्च स्कालर], terrerature । रतीय दर्शनशास्त्र इस प्रसार संसार "पहले मैं सदा ही दुःखों से अभिभूत होने के कारण के परम दुस्तर, आध्यात्मिक, आधि- विमना रहा करता था । अब जिस दिन से दर्शनशाखों दैविक, आधिभौतिक परितापोंसे पर- की शरणमें आया हूँ तबसे नित्यप्रति अपार प्रानन्नक मसन्तप्त करुणक्रन्दन करने वाले निरन्तर प्रवाहित स्रोतमें निमग्न रहा करता हूँ।" व्यथित जीवोंको आनंदके अगाध यह दर्शनशास्त्र की उत्तमताका ही फल है जो इस पारावारमें निमग्न करा देने का ...................... शास्त्र सम्बन्धी छोटेसे छोटे की अपर्व शक्ति रखते हैं। यह लेख एक अजैन बन्धुका लिखा हुआ प्रन्थके अनवार भारतके विज्ञानकी चरम: है और श्रीवेंकटेश्वर-समाचारके गत विशेषांक : भाषामें दिन रात होते चले सीमा के युग का स्मरण, में प्रकट हुआ है। इसमें भारतीय दर्शनशास्त्रों आरहे हैं। दर्शन शास्त्रकी याद आते ही, पर विचार करते हुए जेन दर्शन पर भी कुछ आज अपरेको हो जाता है। बिना उन्नतिकी । तुलनात्मक विचार किया गया है। विद्वान् समझने वाले देश जब बर्बर चरमसीमाको पारकिये दर्शन- लेखकने जैनग्रंथों के अध्ययनका कहाँ तक : जंगलियोंकी तरह इधर-उधर शास्त्रका विकास नहीं होता। : परिश्रम किया है, वे कहाँ तक उन पर से : मछलियाँ मारते फिरते थे, भारतीय दर्शनोंपर टीका- वस्तुतत्व को प्रहण करने आदि में सफल हो तब भारतीय नररत और टिप्पणीकारों में सप्रसिद्ध सके है और जेनदशेनके विषयमें उनके क्या उनके दर्शनशाखअपनेप्रकाश पाश्चात्य विद्वान मोक्षमूलरने, : कुछ विचार हैं, इसका 'अनेकान्त' के पाठकों से सबको मार्ग दिखानका भारतीय दर्शनोंकी समीक्षा को परिचय करानके लिये ही यह लेख यहाँ : उपाय कर रहे थे। करते हुए लिखा है:- पर दिया जाता है। इन शाखों के सम्बन्धमें "कोई भी देश विज्ञानकी लेखक महाशयका यह लिखना बिलकुल : पूर्ण रूपसे विचार किसी परिपूर्ण उन्नति किये बिना ठीक है कि, जैन दर्शनके सम्बंधमें बहुत एक लेखमें नहीं किया जा ऐसे दर्शनोंका आविष्कार नहीं सीमान्त कल्पनाएँ प्रचलित होगई हैं, इसका : सकता। उनकी तो प्रत्येक कर सकता । इन भारतीय कारण वास्तवमें जैनसाहित्यका अप्रचार है।: पंक्ति व्याख्याके लिए एक दर्शनशास्त्रोंको देखकर मुझे ज्यों ज्यों जैनसाहित्य प्रकाशमें आता जाता है। दफ्तर चाहती है। ऐसी दशा अत्यन्त हर्षके साथ कहना : और सर्वसाधारणको जैनप्रन्थोंकी प्राप्तिका : में दो चार पृष्ठके भीतर विपड़ता है कि भारतकी वैज्ञा- मार्ग सगम होता जाता है त्यों त्यों प्रान्त:शद व्याख्या की आशा नहीं निक उन्नति चरम सीमाको कल्पनाएँ तथा मिथ्या धारणाएँ भी दरहोती की जा सकती। इस लिए पार कर गयी थी।" जाती हैं और बहतसे उदार उदय निष्पक्ष :माज हम अपने इस लेखम, दुखों से सन्तप्त होके विद्वान जैन दर्शनके विषयमें अपने ऊँचे इन दशेनोंमें से तीन ऐसे द. हिन्दू दर्शनशास्त्रोंकी शरणमें विचार प्रकट करने लगे हैं,यह निःसन्देह एक शेनोंको चुन लेते हैं जिन पर जानेवाले एक पश्चिमके धुर- आनंदका विषय है। -सम्पादक अभीतक बहुत कम विचार न्धर विद्वानने कहा है कि, किया गया है और जिनके Puruuuuua किया गया। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० अनेकान्त [वर्ष १, किरण ३ सम्बन्धमें बहुत सी भ्रान्त कल्पनाएँ प्रचलित हो गयी जगत इसी लहरके प्रभावमें दिखलाई देता है । यदि हैं । ऐसा करते हुए भी हमें इस बातका ध्यान रखना पाश्चात्य सभ्यताके मूल सिद्धान्तोंपर दृष्टि डाली जाय पड़ेगा कि लेख बहुत अधिक न बढ़ जाय, क्योंकि लेख तो वे इन नास्तिक दर्शनोंकी ही मालूम छाया होते हैं । अधिक बढ़ जानेसे इस बातका भय है कि पाठक वृन्द भारतमें भी स्वामी दयानंद सरस्वतीने इनसे बहुत कुछ बालसका अनुभव करने लगेंगे। . कुछ सीखा है। श्राद्धआदिका निषेध यहींसे शुरू होता जिन दर्शनोंपर आज हम विचार करेंगे वे हैं (१) है,जिसे स्वामीजीने अपना रंग देकर अपनाया है। उन्हो चार्वाक (२) बौद्ध और (३) जैन-दर्शन । ने अन्यधर्म-सम्प्रदायोंका खण्डन करते हुए जो युक्तियाँ . चार्वाक-दर्शन दी हैं उन्हें चार्वाकदर्शनके प्रकाशमें देखिये तो कुछ इस दर्शनका दूसरा नाम नास्तिक दर्शन भी है। भी अन्तर दिखलाई न देगा। कारण ? यह इस लोक तथा ऐहिक पदार्थोंको छोड़कर इस चार्वाक-दर्शनके अनुसार चलने वाले प्रत्यक्ष जीव ईश्वर आदि किसी भी पदार्थकोस्वीकार नहीं करता प्रमाणको छोड़कर और कुछ भी नहीं मानते । यूरोपमें है। इसके विचारमें, शुभाशुभ कर्मोंका कर्ता, शुभाशुभ प्रायः सर्वत्र यही भाव था। पर अब कुछ दिनोंसे उनमें फलोंका भोक्ता, देह को छोड़ देहान्तरका ग्रहण करने ऐसे लोग भी पैदा हो गये हैं जो आत्माको शरीरसे वाला, कोई भी नहीं है। भिन्न मानने लगे हैं, किन्तु उनकी संख्या अति न्यून पथिवी, तेज,वाय तथा जलके स्वाभाविक संयोग- है। नाना प्रकारके भोगोंको ही परम पुरुषार्थ मानने विशेषसे बने हुए शरीरमें इसी संयोगकी महिमासे चैतन्य वाले इन नास्तिकोंने भारतमें भयंकर हल चल पैदा कर पैदा हो जाता है, जिससे यह शरीर हर तरहकी हरकतें दी थी। दया तो इनके दिलों में नाम मात्र को भी नहीं करने लग जाता है। जैसे कई एक खास वस्तुओंके थी।अपने भोग-विलासके लिये ये भारीसे भारी जीवसंयोगसे शराबमें नशा पैदा हो जाता है, उसी तरह हत्या करनेमें कुछ भी नहीं हिचकते थे। नशीली शराब ये लोग भूतोंके संयोगविशेषसे चैतन्यको पैदा हुआ की लाल लाल बोतलें, इनमें से हर एकके विलासग्रह समझते हैं। की शोभा बढ़ाया करती थीं। स्वंग नरक भी कोई लोकान्तर नहीं होते,भोगोंकी दुर्भाग्यसे देशमें कुछ संप्रदाय भी ऐसे पैदा हो गये प्राप्ति स्वंग तथा कष्टकी प्राप्ति को ही ये नरक कहते हैं। थे जो तान्त्रिक होनेका दम भरते हुए देवताओंके नाम ____ मोक्षप्रामिको इनकी बराबर सुगम दूसरा कोई पर उन सब कामोंको करते थे जिन्हें पूर्वोक्त नास्तिक नहीं समझता; ये मरे और मुक्त हुए । राजाके सिवा भोगोंके नाम पर निराबाध करते चले जारहे थे। कोई अदृष्ट ईश्वर नहीं । अतएव वैदिक कर्म कलापके कोई मातेश्वरी महामायाके मनाने के नाम पर पंच सिवा ऐसे वैसे लोगोंकी जीविका और कुछ नहीं मकारको सेवन करते हुए कृतकृत्य होनेका गर्व करता है (?)। जब इन्हें ईश्वरकी ही सत्ता स्वीकार नहीं है, था, तो कोई वटुक भैरवकानाम लेकर शराबकी बोतलें तब वेदोंका तो जिक्र ही क्या है। उन्हें धूर्त, भाण्ड, चढाने लग गया था। मांसखोरों की तो कोई गणना निशाचर जिस किसीका भी बनाया हुआ कह दें, सो ही नहीं थी। जिधर देखो उधर वे ही झंडके मुंड थोड़ा है। नजर आते थे। यह हाल उन लोगोंका था जो वेदके ___ जहाँ तक समझा जाता है, चार्वाकदर्शनकी रचना अनुशासनसे अपनेको सर्वथा मुक्त समझते थे। उस समय हुई थी जब महाभारतके सर्वनाशी युद्धके चारों दिशाओंमें घोर अज्ञानका साम्राज्य फैला पश्चात् देशमें एक विचित्र लहर फैल रही थी। उसीके हुआ था, लोग आसुरी प्रकृतिमें निमग्न हो चुके थे। परिणामस्वरूप अपनी पहली सभी बातोंकी प्रतिक्रिया ऐसे समय भगवान बुद्धदेवका अवतार हुआ, की एक लहरसी देशमें बह गयीथी।आज भी पाश्चात्य जिन्होंने अपने उपदेशके द्वारा विश्वकी रक्षा की। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माप, वीर नि०सं०२४५६] भारतीय दर्शनशास्त्र समयकी लहरने जो भीषण बुराइयाँ पैदा कर दी थीं कर नाना भांतिके सौरभसे आनन्दित कर देने वाले भगवान बुद्धने अपनी शक्तियाँ इन्हीं बुराइयोंके विरध अनेक प्रकारके द्रुम तथा नाना भांतिका विश्वरूप, में विशेषरूपसे लगायीं। सब स्वभावसे निवद्ध हैं । प्रत्येकके जुदे जुदे स्वभावसे ___ भगवान् बद्धदेवने किसी पर भी बलप्रयोग नहीं प्रत्येकका अनुभव होता है। किया, न अपने अनुयायियोंको बलप्रयोगकी शिक्षा चौथा उपदेश होता था कि जो भी कुछ स्वभाव दी। उनके यहाँ पशुबलका तो प्रयोग ही नहीं था। से प्रत्याय्य पदार्थ बताया है उसका असली तत्वशून्य उनके उपदेश इतने प्रभावशाली होते थे कि उनके ही है । शुन्यके सिवा और कुछ नहीं । ये विचार इस पिताजीने जिन व्यक्तियोंकोइनसे वैराग्यपरित्याग करानं विश्वमें भावनाचतुष्टयके नामसे प्रसिद्ध हुए । इन के लिये भेजा वे व्यक्ति स्वयं दीक्षित होगये । भगवान चारों भावनाओंको ही मोक्षमार्ग कह कर पुकारा बुद्धदेवके शिष्योंन उनके आदर्शकाजोसंग्रह किया है वह जाने लगा । इस भावनाने भोगैश्वर्य की प्राप्तिको बोद्र-दर्शन परम पुरुषार्थ मानना लोगोंसे छुड़वा दिया। के नामसे विश्वमें विख्यात हुआ। इनके विचारोंका भावनाचतुष्टयके साथ ही साथ इन्होंने यह भी बताया कि केवल प्रत्यक्षसे सब काम नहीं चल सकता विश्व पर इतनाप्रभाव पड़ा कि बहु-संख्यक लोगनास्तिकता को छोड़ कर इनके विचारोंके अनुयायी हो गये। अनुमानको भी मानना परमावश्यक है। बिना इसके माने आप यह भी नहीं कह सकते कि इस कारण हम ____ भगवान बुद्धदेवका सबसे पहला उपदेश तो यह अनुमानको प्रमाण नहीं मानते। है कि-हे अज्ञानोपहत लोगो! जिसे तुम सुख समझ जिस तुम सुख समझ जहाँ कहीं हेतु देनेकी जरूरत होती है वहाँ ही रहे हो यह साक्षात् दुःख रूप है । विषयोंके उपार्जन अनमानका स्वरूप पहुँच जाता है। बिना अनुमानके का परिश्रम वियोगकी चिन्ता किसी समय भी पीछा दसरेके अकथित दुःख सुखोंकी भी प्रतीति नहीं होती। नहीं छोड़ती । तुम उपार्जन करनेमें सहयोग देने वालों यह अनुमानकी ही महिमा है जो दूसरेके सुख से राग तथा विघ्न करने वाले खलोंसे द्वेष करते हुए दुःखोंका अनभव चहरा देखनसे ही हो जाता है। सदा सन्तप्त रहते हो । फिर भी आपको इन दुःख रूप भगवान बद्धदेव "सर्वदुःखम्" कह कर ही चुप विषयमें सुखकी बू आती है यह महान् दुःखका विषय नहीं रहे, किन्तु आपने दुःखरूप कहने के लिये पदार्थों है । भोगैश्वर्यकी सामग्रीमें सुख समझना भूल है। की भी गणना कर डाली थी कि दुःखको (१) रूप यह सब दुःख रूप है । इसलिये इनके उपाजेनकी (२) विज्ञान, (३) वेदना (४) संज्ञा (५) संस्कार, इन चिन्ता छोड़कर शान्तिके उपाय करो। पाँच भागोंमें बांटा जा सकता है । अपने २ परमाणु___ उन्होंने दूसरा उपदेश यह दिया है कि-दुनियाँकी पक्षोंसे बने हुए पृथिवी, वाय, तेज, जल, भौतिक जिन चीजोंको देखकर आप अपनको भूल रहे हैं ये विकारों के साथ विषय और इन्द्रियों के सहित, रूपस्कन्ध सब वस्तुएँ क्षण मात्र ही रहने वाली हैं। पहले क्षण कहलाते हैं। जो भी कुछ देखा था दूसरे क्षण वह उस रूपमें स्थिर प्रवृत्त-विज्ञान तथा आलय-विज्ञान को विज्ञानस्कनहीं रहा है,बदल चका । हम उसके परिवर्तनको नहीं न्ध कहते हैं । वस्तु के अनुभवादि करती बार जो "यह देख सके थे। अमुक वस्तु है" यह अवबोध होता है इसे प्रवृतितीसरा उपदेश था कि-राकापतिके करम्पर्शको विज्ञान कहते हैं, कारण?इसीबोधके पीछे उसमें जानने पाकर दूसरके करस्पशेको न सहनवाली स्तुही, सूय्ये वालेकी प्रवृत्ति होती है। किरणस्पर्शमात्रसे ही खिल जाने वाले कमल, मार्गके मैं जानता हूँ' यह जो अनुगम है इसे पालयपरिश्रम से परिवान्त पथिकको शीतल छायामें बिठा विज्ञान कह कर लोग व्यवहार करते हैं । पात्मज्ञान Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ३ की तरह प्रवृत्ति कराने वाले सर्वज्ञ बुद्धदेवने इसी शून्यवादी हैं; योगाचार बालार्थको ५.न्य मानते हैं । प्रालय-विज्ञानको शरीरसे भिन्न आत्मा बताया है। सौत्रान्तिक वाह्यमें वस्तुको शून्य मानते हुए विज्ञानाकारण ? शरीरको ही सब कुछ मानने वाले अज्ञानी नुमेय मानते हैं । वैभाषिक बाह्य वस्तुको प्रत्यक्ष मानते एक ही बार सीधे आत्मतत्व पर नहीं पहुँच सकते थे। हैं।शून्य,क्षणिक,दुःखरूप तथा स्वलक्षणकी मान्यता सदासे ही उपदेष्टाओंकी यह नीति रही है कि अधि- सबमें एक सी है। कारीके अनुसार ही उसे उपदेश देनेका प्रयास किया इनकी शिष्यपरम्परा भी इसी नामसे प्रसिद्ध हुई। करते हैं, जो बात सहसा उसकी समझमें न पा सके ये सबके सब असतसे सत् पदार्थकी उत्पत्ति मानते हैं उसका वे सहसा उपदेश भी नहीं दे डालते। इसलिये वैनाशिक शब्दसे अन्य शास्त्रोंमें इनका परिचय देहको ही सब कुछ मानने वाले उन शराबी कबाबी दिया जाता है। नास्तिकोंके लिये सहसा यह समझना मुश्किल था इस मतके संन्यासी, शांकर-सम्प्रदायके संन्यासिकि 'सचिदानंद' परमात्मा है, जिसने सम्पूर्ण विश्वमें योंकी तरह शिखासहित सिरका मुण्डन कराते हैं। अपने प्रकाशको फेला रखा है; क्योंकि वे जबतक जीवहिंसाके भयसे रातमें भोजन नहीं करते । और अपने पूर्व पापोंके प्रायश्चित्त करके अधिकारी नहीं बन संन्यासियोंकी तरह ये भी एक विशेष प्रकारके कमलेते तब तक विशुद्ध आत्माका उपदेश देना अधिकारी ण्डलसे ही पात्रोंकी आवश्यकता पूरी करते हैं । अंगाके नियमका उच्छेद करना था । इसीलिये आलय-वि- च्छादनके लिये चीर वसन होता है । पीले रंगेहुए शानको ही आत्मा बताया था कि इसमें जीवात्माकी कपडे पहिनकर ही धर्मकृत्य किया करते हैं । चाहे कुछ २ झलक आती रहती है। किन्तु उनका यह उसका स्वरूप कुछ भी हो, परन्तु मोक्षको इन्होंने लोगों असली सिद्धान्त नहीं था। के सामने रक्खा है। रागद्वेषादिके विविध विज्ञान की अपनी इच्छाके अनुकूल वस्तु मिलने से सुख तथा वासनाओंके उच्छेदको ये मोक्ष मानते हैं । क्योंकि प्रतिकूल मिलनेसे जो दुखानुभव होता है सो सब वेद- उस समय लोग मोक्षके स्वरूपको समझनेकी प्रायः ना-स्कन्ध कहाता है। ऐसी ही योग्यता रखते थे। यह बौद्ध दर्शनके पदार्थोंका वस्तुके साथ चक्षुरादि इन्द्रियोंका सम्बन्ध होने संक्षिप्त संग्रह समाप्त हुआ। पर उसके नाम जाति आदिका जो ज्ञान होता है वह संज्ञा स्कन्ध कहाता है। जैन-दर्शन चित्तरूप पात्मा पर रहने वाले राग, द्वेष, मोह, यह दर्शन अर्हन् भगवानका प्रधानरूपसे उपासक महामोह, धर्माधर्म आदिक, संस्कार-स्कन्धके नामसे है, इसलिये कोई कोई दार्शनिक इसको 'आहत-दर्शन' प्रसिद्ध हुए। हम पहले ही कह चुके हैं कि प्रालय- भी कहते हैं । विज्ञानको ही भगवान बुद्धने चित्त या बात्मा कहा है, संसारके त्यागी पुरुषोंको परम हंसचा सिखाने बाकी स्कन्धोंको चैत्य कहते हैं । चित्त और चैत्यका के लिये त्रिगुणातीत पुरुष विशेष परमेश्वरने ऋषमातथा भूत और भौतिकोंका समुदाय लोक यात्रा का वतार लिया। भागवत आदि पुराणों में आपकी महिमा निर्वाह करता है पर इसमें दुखरूपताके सिवा और कूट कूट कर भरी हुई है । जगत्के लिये परमहंसा कुछ भी नहीं है। का पथ दिखाने वाले आप ही थे। हमारे जैनधर्मावभगवान बुद्धदेवके अनेकों शिष्य थे। उनका उपदेश लम्बी भाई आपको 'आदिनाथ' कह कर स्मरण करते सबके लिये भेदभाव रहित होता था, तो भी अपनी हुए जैनधर्म के आदि प्रचारक मानते हैं। अपनी बुद्धिदेवीकी कपासे इनके प्रधान चार शिष्य भगवान् ऋषभदेवने सुखप्राप्ति का जो रास्ता चारपयों के अनुगामी हुए। इनमें से माध्यमिक केवल बताया था वह हिंसा भादि भयंकर पापोंके सपन Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माघ, वीर नि०सं०२४५६] भारतीय दर्शनशास्त्र १७३ तिमिरमें अदृष्टसा हो गया। उसके, शोधनके लिये किसी द्रव्य आदिको नहीं। अहिंसा धर्मके अवतार भगवान महावीर स्वामीका जो शुन्य कहा जाता है उसका मतलब कदाचित् आविर्भाव हुआ जिन्हें जैन लोग श्रीवर्धमान प्रभु कह शून्य कहने से है, केवल शून्य कहनेसे नहीं है। कर श्रद्धांजलि समर्पित करते रहते हैं। क्योंकि परिदृश्यमान विश्व कथंचिद् परिणाम या ___महावीर स्वामीके उपदेशोंको सूत्रोंके रूपमें प्रथित पर्यायरूपसे शुन्य अनित्य अथवा असत् कहाया जाकरने वाले प्राचार्याने महावीर स्वामीके अवतरित होने सकता है, द्रव्यत्व रूपसे नहीं कहाया जासकता। का प्रयोजन बताया है कि, "सव्व जगा रक्खण दया यह दर्शन एक द्रब्य पदार्थ ही मानता है। गुण ट्राम पवयणं सु कहियं भगवया"-भगवान् महावीर और पर्यायके आधारको द्रव्य कहते हैं । ये गुण और स्वामीने व्यथित जीवोंके करुण-क्रन्दनसे करुणाद्रचित्त पर्याय इस द्रव्यके ही आत्मस्वरूप हैं, इसलिये ये होकर सब दुखीजीवोंकी रक्षा रूप दयाके लिये सार्व- द्रव्यकी किसी भी हालतमें द्रव्यसे जुदा नहीं होते। द्रव्य जनीन उपदेश देना प्रारम्भ किया था। के परिणत होनेकी हालतको पर्याय कहते हैं, जो सवा ___यह मैं पहले ही कह चुका हूँ कि भगवान बद्धदेवने न कायम रह कर प्रतिक्षणमें बदलता रहता है। जिससे विश्वको दुख रूप कहते हुए क्षणिक कहती बार यह द्रव्य रूपान्तरमें परिणत होता है । अनुवत्ति तथा ज्याविचार नहीं किया था कि इससे अनेक अनेक लाभोंके वृत्तिका साधन गुण कहलाता है, जिसके कारण द्रव्य साथ क्या २ दोष होंगे। उनका उद्देश विश्वका वैराग्य सजातीयसे मिलते हुए तथा विजातीयसे विभिन्न प्रतीत की तरफ ले जाने का था जिससे अनाचार अत्याचार होते रहते हैं। तथा हिंसाका लोप हो जाय । महावीर स्वामीने बुद्ध- इसकी सत्तामें इस दर्शनके अनुयायी सामान्य देवके बनाये हुए अधिकारियोंकी इस कमीको पूरा करने विशेषके (पृथक) मानने की कोई पावश्यकता नहीं की ओर ध्यान दिया। इन्होंने कहा कि, अखिल पदार्थों समझते । को क्षणिक समझकर शुन्यको तत्वका रूप देना भयंकर द्रव्य एक ऐसा पदार्थ इस दर्शनने माना है जिसके भूल करना है । जब सब मनुष्य शकल सूरनमें एकसे माननेपर इससे दूसरे पदार्थके माननेकी आवश्यकता ही हैं तब फिर क्या कारण है कि कोई राजा बनकर नहीं रहनी, इसलिये इसका लक्षण करना परमावश्यक शासन कर रहा है और कोई प्रजा बना हुआ हुक्म बजा है। रहा है । किसीमें कोई खबियां विशेष प्रकार से पायी श्रीमान् कुन्दकुन्दाचार्य्यन अपने 'प्रवचनसार' में जाती हैं, किसीको वह बातें प्रयास करने पर भी नहीं द्रव्यका लक्षण यह किया है किमिलतीं । इसमें कोई कारण अवश्य है । वर्तमान जगत * अपरित्यक्तस्वभावेन उत्पादव्ययध्रुवत्वसंबद्धम । को देखकर मेरी समझमें आता है तो यही आता है कि गुणवच सपर्यायम् यत्तद्र्व्यमिति ब्रुवन्ति ॥ ३॥ शरीरसे जुदा, अच्छे बुरे कोंके शुभाशुभ फलका अर्थात-जो अपने अस्तित्वके स्वभावको न छोड़भोक्ता, शरीरको धारण करनेवाला कोई जरूर है । उस कर, उत्पाद और व्यय तथा ध्रुवतासे संयुक्त है एवंगुण के रहनेसे यह शरीर चैतन्य रहता है, उसके छोड़ देने तथा पर्यायका आधार है सो द्रव्य कहा जाता है। से मृतक कहलाता है। वह चैतन्य शरीरके जीवनका यही लक्षण तत्वार्थसूत्रमें भी किया है कि "गुणकारण होनेसे जीव शब्दसे बोला जाता है । क्षण क्षण पर्यायवद्र्व्यम्" " उत्पादव्ययधौळयुक्तं सत." में तो इस परिदृश्यमान जगतके परिणाम हुश्रा करते यह द्रव्य जीवास्तिकाय, धर्मास्तिकाय, अधमोस्तिहैं। इस लिये परिणाम ही प्रतिक्षण होते रहने के कारण काय, अकाशास्तिकाय, पद्गलास्तिकाय, काल इन क्षणिक कहला सकता है। क्षणिक कहने वालों का . वास्तविक मतलब परिणामको क्षणिक कहनेका है दूसरे * यह झेमाधिकारमें कही हुई गापा का छायानुवाद है। सम्भावक Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ अनकान्त [वर्ष १, किरण ३ भेदोंसे छह प्रकारका होता है।सावयव वस्तुके समूहको न्द्रियोंको प्राप्यकारी कहता है । इन्द्रियों के भेदसे उन अस्तिकाय कहते हैं। कालको बानी छोड़ शेष द्रव्य के अनुसार इसके भी भेद होते हैं। सप्रदेशी हैं, इसलिये जैनन्यायमें कालको वर्जकर, सब जैनी लोग व्यवहारके निर्वाह करने वाले प्रत्यक्षको के साथ अस्तिकाय शब्दका प्रयोग किया गया है। सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं। इसकादूसरा नाम मति___श्रीयुत कुन्दकुन्दाचार्यने आत्माको अरूप, अगंध, ज्ञान भी है, यह इसके भेदोंके साथ कह दिया गया है। अध्यक्त, पशब्द, अरस, भूतोंके चिन्होंसे अग्राह्य, अब मय भेदोंके पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहा जाता है ।जो निराकार तथा चेतनागणवाला अथवा चैतन्य माना है। प्रत्यक्ष किसी भी इन्द्रियकी सहायता न लेकर वस्तुका ___ रूप, रस, गंध, स्पर्शगुणवाले तेज, जल, पृथिवी, अनुभव करले वह पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहाता है, यही वायुका 'पुद्गल' शब्दसे व्यवहार होता है। क्योंकि वास्तविक प्रत्यक्ष कहने योग्य है। बाकी प्रत्यक्ष तो ये पूरण गलन स्वभाववाले होते हैं। लोकयात्राके लिये स्वीकार किया है। पुद्गल द्रव्य स्थूल और सूक्ष्म भेदसे दो प्रकारका यह विकल पारमार्थिक प्रत्यक्ष तथा सकल पारहोता है उसके सूक्ष्मपनेकी हद परमाणु पर जाकर होती मार्थिक प्रत्यक्ष भेदसे दो प्रकारका होता है। जो प्रत्यक्ष है । तथा परमाणुओंके संघात भावको प्राप्त हुए पृथिवी पूर्वोक्त प्रकारसे रूपी पदार्थोंका ही अनुभव कर सकता आदिक स्थल कहलाते हैं। हो वह अरूपी पदार्थों के अनुभवसे हीन होनेके कारण ___ जीव और पुद्गलोंकी गतिमें सहायकको 'धर्म' विकल पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहाता है। कहते हैं तथा गतिप्रतिबन्धक 'अधर्म के नामसे पुकारा जो तीनों कालोंमें से किसी भी कालके रूपी अरूजाता है। पी प्रत्येक वस्तुका अनुभव कर लेता है वह सकल अवकाश देनेवाले पदार्थको 'आकाश' कहकर पारमार्थिक प्रत्यक्ष होता है । इसका दूसरा नाम केवल बोलते हैं। द्रव्यके पर्यायोंका भी परिणमन करनेवाला ज्ञान भी है। इस ज्ञानवाले कंवली कहाया करते हैं । 'काल' कहलाता है। यही ज्ञानकी चरमसीमा है । यह बिना मुक्त पुरुषोंके ___ यह छह प्रकार के द्रव्योंका भेद लक्षण-सहित दिखा- दूसरेको हो नहीं सकता। या गया है। सम्पूर्ण वस्तुजान इन ही का प्रसार है, अवधि और मनःपाय इन दो भेदोंसे विकल ऐसा इस दर्शनका मत है। पारमार्थिक प्रत्यक्ष दो प्रकारका होता है। जैनदर्शनका प्रमाण भी वेदान्त सिद्धान्तसे मिलता जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षासे बिना जुलता है । इसके यहाँ अपना और पर पदार्थका आप इन्द्रियोंकी सहायताके रूपी पदार्थोंको समर्याद जाने हीनिश्चय करने वाला,स्वपर प्रकाशक ज्ञान ही 'प्रमाण' वह अवधिको लिये हुए होनेके कारण अवधि पारमाकहलाता है तथा इसका आत्मा शब्दसे भी व्यवहार र्थिक प्रत्यक्ष कहाता है। होता है। क्योंकि यही ज्ञान प्रात्मा है। यह प्रत्यक्षतथा अन्य जीवोंके मानसिक विषय बने हुए रूपी पदापरोक्ष भेदसे दो प्रकारका होता है। सांव्यवहारिक थों के पूर्वोक्त प्रकारके अनुभव को मनःपर्याय विकल और पारमार्थिक भेदसे प्रत्यक्ष भी दो तरहका कहा पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहते हैं। गया है। इन्द्रिय और मनकी सहायतासे जो ज्ञान इस तरह यह पारमार्थिक प्रत्यक्ष अवधि, मनःहोता है वह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहाता है। चक्षु पर्याय तथा केवल, इन तीन शानोंमें समाप्त होजाता है। और मन तो विषयको दूर रहने पर भी अनुभव कर जो किसी भी रूपमें सांव्यवहारिक प्रत्यक्षज्ञानकी लेते हैं परन्तु बाकी इन्द्रिय विषयकी समीप प्राप्ति होने सहायतासे हो वह झान परोक्ष कहा जाता है। वह स्मपर ही संयुक्त होनेसे कर सकते हैं। इस लिए जैनागम रण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और भागमभेदसे मन और चक्षुको भप्राप्यकारी तथा बाकी चारोंझाने- पाँच प्रकारका होता है। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माष, वीर निःसं०२४५६] भारतीय दर्शनशास्त्र १७५ इनके जो लक्षण अन्य शाखोंने किये हैं उनसे का मति श्रुतज्ञान होने पर भी उसके तमाम धर्मोका मिलते जुलते ही जैन शास्त्रने भी किये हैं । इस लिये ज्ञान नहीं हो सकता । उस एक अंशके अनुभवका वे सबमें प्रसिद्ध हैं । अतएव अनुमान आदि के लक्षण निरूपण, नयसे सुचारु रूपमें हो जाता है। आदि यहाँ देनकी आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। द्रव्य मात्रको ग्रहण करने वाला तथा गुण और ____ यही परोक्ष ज्ञान श्रुतझानसे भी व्यवाहत होताहै। पर्याय मात्रको प्रहण करने वाला नय क्रमसे द्रव्याइस प्रकार प्रमाण माना हुया ज्ञान अपने प्रमतिभेदोंको र्थिक और पर्यायार्थिक कहलाता है। भी साथ लेकर (१) मति (२) श्रुत (३) अवधि (४) नैगम, संग्रह और व्यवहार नयके भेदसे तीन मनःपर्याय और (५) केवल इन पाँच ज्ञानोंके अन्दर प्रकारका द्रव्यार्थिक होता है। इसी तरह ऋजुसूत्र, गतार्थ हो जाता है। अन्य दर्शनोंने किसीको नित्य और शब्द, समभिरूढ और एवंभत यह चार प्रकारका किसीको अनित्य माना है, पर यह दर्शन कहता है कि:- पर्यायार्थिक नय होता है। " "प्रादीपमाव्योमसमस्वभावः वस्तुका प्रत्यक्ष करती वार आरोप तथा विकल्पस्यादवादमद्रानति भेदि वस्तु ।। को 'नैगम'नय प्रहण करता है । एकके ग्रहणमें तज्जा तीय सबका ग्रहण करने वाला 'संग्रह' नय होता है। तन्नित्यमेवैकमनित्यमन्यद् पृथक पृथक् व्यवहारानुसार ग्रहण करने वाला 'व्यवइति त्वदाज्ञा द्विषतां प्रलापाः ॥" हार'नय है । वर्तमान पर्यायको ग्रहण करना ऋजुसूत्र' यह बात नहीं है कि आकाश नित्य हो, यह और नयका कार्य है । व्याकरणसिद्ध प्रकृति, प्रत्यय लिंग दीपक दोनों ही एकसे स्वभाव वाले हैं । दोनों ही आदिके ग्रहण करने वाले को 'शब्द' नय कहते हैं। क्यों ? कोई भी चीज उस स्वभावका अतिक्रमण नहीं पर्याय वाचक शब्दोंकी व्युत्पत्तिके भेदसे भिन्न अर्थों कर सकती, क्योंकि सबके मुँह पर स्यावाद यानी अने- को ग्रहण करने वालेका नाम 'समभिरूढ' नय है । कान्त स्वभावकी छाप लगी हुई है। जो किसी को अन्वयार्थक संज्ञा वाले व्यक्तिका उस कामके करती नित्य पुनः किसीको अनित्य कहते हैं वे अकारण जैन वार ग्रहण करने वाला 'एवंभूत' नय है। शास्त्र के साथ द्वेष करते हैं। ये नय प्रमाणोंको वस्तुओंका अनुभव करती बार ___ स्याद्वाद शब्दमें स्यान् यह अनेकान्तरूप अर्थका तदंग होकर सहायता पहुंचाते हैं। इस लिये तत्त्वार्थकहने वाला अव्यय है ? अत एव स्याद्वादका अर्थ सूत्रकारने वस्तुके निरूपणमें एक ही साथ इनका उपअनेकान्तवाद कहा जाता है । परस्पर विरुद्ध अनेक योग माना है। धर्म, अपेक्षासे एक ही वस्तुमें प्रतीत होते हैं। जैसे इसी ताह वस्तुके समझाने के लिये नाम, स्थापना द्रव्यत्व रूपसे नित्यता तथा पर्यायरूपसे अनित्यता द्रव्य और भाव निक्षेपका भी उपयोग होता है। प्राणिप्रत्येक वस्तुमें प्रतीत होती है । इसी को 'अनेकान्तवाद' में यह सिद्धान्त व्याकरण महाभाष्यकारकी “चतुष्टयी कहते हैं । यानी एकान्तसे नित्य, अनित्य आदि कुछ शब्दानां प्रवृत्तिः" से मिलता जुलता है। साधारणतः भी न हो किन्तु अपेक्षासे सब हों। कोई कोई विज्ञ हैं संज्ञाको 'नाम' तथा झठी साची पारोपनाको स्थापना' वे इसे अपेक्षावाद भी कहते हैं। एवं कार्यक्षमको 'द्रव्य और प्रत्युपस्थित कार्य या ____ यह दर्शन प्रमाण और नयसे पदार्थकी सिद्धि पर्यायको 'भाव' कहते हैं। मानता है। प्रमाण तो कह चुके हैं अब नयको भी जैनतंत्र वस्तुके निरूपणमें इतने उपकरणोंकी अपेनिरूपण करते हैं। सा रखने वाला होनेके कारण प्रथम कक्षाके लोगोंके अनन्त धर्म वाले वस्तुके किसी एक धर्मका अनु- लिये दुरूह सा हो गया है, पर इसके तत्वको समझमें भव कर लेने वाले शानको नय कहते हैं क्योंकि वस्तु मा जानेके बाद कोई कठिनता नहीं मालूम होती। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~~~ ~ ~ ~ ~~ अनेकान्त [वर्ष १, किरण३ इसी तरह क्षेत्र, काल और स्वामी आदिका ज्ञान भी आपसके खण्डन मण्डन की बात, सो हर एक दार्शआसान होजाता है। निकको उसमें पूरी स्वतन्त्रता रही है । जब वेदान्त एक हजार भारका लोहेका गोला इन्द्र लोक से ब्रह्मसूत्रसे अपनी बराबरके योगके सिद्धान्तोंके लिये भी नीचे गिर कर ६ मासमें जितनी दूर पहुँचे उस संपूर्ण कह दिया है कि "एतेन योगः प्रत्युक्तः" इससे योग लंबाईको एक राजू कहते हैं । नृत्य करते हुए भोपाके प्रत्युक्त कर दिया गया । तब हम वेदके विचारको छोड़ समान आकार वाला यह ब्रह्माण्ड सातराज चौड़ा और कर दार्शनिक खण्डन मण्डन पर ध्यान नहीं देते । सात राजू लंबा है । और दर्शनोंके समान जैनमें भी उसमें तत्व ही ढूंढते हैं। स्वर्ग नरक तथा इन्द्रादि देवताओंके जुदेजुदे लोक हैं। अहिंसाको मुख्य मानने वाला यह दर्शन महावीर __ यह दर्शन जीवात्माको सब शरीरव्यापी मानता स्वामीके निर्वाणके बाद अहिंसाके मुख्य सिद्धान्तोंका है, बड़े छोटे शरीरोंमें दीपककी तरह जीवात्माके भी संग्राहक होनेके कारण अग्रोहाधिप महाराज अग्रसेनजी संकोच-विकाश होते रहते हैं परन्तु मुक्त जीव अन्तिम कीसन्तानोने भी इस धर्म में अपनेको दीक्षित कियाथा। शरीरसे तीन हिस्से कम होता है। प्रायः जब जिस दर्शनका अनुयायी अधिक जनपथिवी जल वाय तेज और वनस्पति शरीर वाले समुदाय हो जायगा तब ही उसके जदे जदे मण्डल जीव स्थावर कहलाते हैं इनको स्पर्शका ही विशेष रूप खड़े होने लग जायँगे। एक दुर्भिक्षके बाद जैनोंमें भी से भान होता है। बाकी स्पर्शादि द्वि इन्द्रियों से लेकर श्वेताम्बर और दिगम्बर नामकी दो संप्रदायें बन गयीं। पाँच इन्द्रिय वाले मनुष्य आदि त्रस कहलाते हैं। महाराज अग्रसेनकी जैन सन्तानों ने दिगम्बर पथ कारण ? इनमें अपनी रक्षा करनेकी चेष्टा होती है। का अनुसरण किया, जो अब भी जैनसमुदायमें सरा___ संवर और निर्जरा के प्रभावसे आस्रवका बन्धन वगी कह कर प्रकाशे जाते हैं जो प्रायः वैदिक संस्कार छूट कर आत्मप्रदेशसे कर्मों के संयोगको मिटा कर तथा अहिंसावत दोनों ही का पालन करते हैं । जिनमें नाश कर दिया जाता है तब जीव अपने आप ऊर्ध्व और अप्रवालोकी सी पूरी रस्मारिवाज मौजद हैं। सराविचरता हुआ मुक्तहोजाता है। फिर उसका जन्म मरण वगी लोग वैदिक विधिसे ही उपवीत धारण करते हैं। नहीं होता। दिगम्बरमंप्रदायमें से पहिले एक मूर्तिपूजाको न इस दर्शनके अनुयायियोंमें अहिंसा, सत्य, अस्तेय, मानने वाला हजार आदमियोंके करीबका समुदाय ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि सार्वभौम महाव्रतोंकी निकला था पर उसकी अधिक वृद्धि न हुई। उपासना प्रधान रूपसे होती है । सब धर्मों के मूल काल पाकर श्वेताम्बर सम्प्रदाय भी संवेगी और अहिंसा ब्रतकी उपासना करनेके कारण इन्हे "अहिंसा बाईस टोला इन दो भागोंमें बट गया। परमो धर्मः" का पाबन्द कर दिया है। संवेगी लोग अधिक सूत्र ग्रंथ माना करते हैं पर इधर उधरके आचार्यों के ईर्षा द्वेषके अक्षरोंको इनमेंसे बाईस टोलाने थोड़े से सूत्रग्रंथोंका ही प्रमाण अलग हटाकर दर्शनके मूल सिद्धान्त पर विचार किया माना है। जाय तो वे सिद्धान्त वेदसे परिवद्धित सनातन ही आजसे करीब दो सौ वर्षों के पहिले बाईस टोला प्रतीत होते हैं। कारण भगवान् वेदव्यासके व्यासभा- से निकल कर श्रीभीखमदासजी मुनिने तेरह पंथ नाम ज्यसे मूल जैनदर्शन बिलकुल मिलता जुलता है। रही का एक पन्थ चलाया। *मालूम नहीं लेखक महाशयने यह बात कौनसे प्रन्यके माधार पर इसमें सूत्रोंकी मान्यता तो बाईस टोलाके बराबर लिखी है। ब्रम्पसंग्रह मादि ग्रन्थोंमें तो 'किंवृणा करमदेहदो सिधा' है परन्तु स्वामी दयानन्दके सत्यार्थप्रकाशकी तरह जैसे वाक्यों द्वारा मुफ जीवका प्राकार मन्तिम शरीरसे किंक्तिजन * सब सराबगी अग्रवाल जैनी ऐसा करते हैं, यह नहीं पाया बतलाया है। -सम्पादक जाता। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माघ, वीर नि०सं०२४५६] सबी खोज १७७ इन्होंने भी भ्रमविध्वंसन और अनुकम्पाकी ढाल बना कोई वासता ही नहीं रहा था, यह भोले शोगोंकी ना रखी है । इस मतने दया और दानका बड़ा अपवाद समझी ही है। किया है। जैनधर्मके परिरक्षकोंने जैसा पदार्थके सूदग रात __ जैन साधुमें २७ गुण X रहने चाहिये । उसका का विचार किया है उसे देख कर आजकलके फिलाआहार भी ४७ दोषोंसे रहित होना चाहिये । मठधारी सफर बड़े विस्मयमें पड़ जाते हैं, वे कहते हैं कि यतियोंको छोड़ करके बाकी सर्व जैनसाधुओमें कष्ट महावीर स्वामी आज कलकी साइंसके सबसे पहिले सहनेकी अधिक शक्ति पाई जाती है। * जन्मदाता थे। जैनधर्मकी समीक्षा करती बार कई __तेरह पन्थ तथा बाईस टोलाके साधुगण मुँह पर एक सुयोग्य प्रोफेसरोने ऐमा ही कहा है। महावीरस्वापट्टी बाँधते हैं, संवेगी साध हाथ ही में उसे रखते हैं। मीने गोमाल जैसे विपरीत वृत्तियोंको भी उपदेश देकर बाकी साधुओंमें इमका व्यवहार नहीं है, शास्त्रमें इन हिंसाका काफी निवारण किया। का नाम श्रमण है। अन्य सम्प्रदायोमें साधारण लोग भगवान बुद्धदेव और महावीरस्वामीके उपदेश उस इन साधुओंको ढूंढिया कह कर व्यवहार करते हैं, यती समयकी प्रचलित भाषाओंमें ही हुआ करते थे जिससे लोगोंको छोड़ करके। पहिले तो, अधिकांश इसका मबलोग सरलताके साथ समझ लिया करते थे। प्रचार यतियोंने ही किया था। उस समयकी भाषाओंके व्याकरण हेमेन्द्र तथा संप्रदायोंकी कशमकशीके साथ कुछ लोग यह भी प्राकृतप्रकाशके देखनेमे पता चलता है कि वह भाषा समझने लग गये हैं कि हमारा सनातन धर्मके साथ अपभ्रंशकी सूरतमें पहुँची हुई संस्कृत माषा ही थी। कोई सम्बन्ध नहीं हैं। उसीको धर्मभाषा बना लेनेके कारण श्रीबुद्ध भग___ कुछ एक संप्रदायोंने तो अपना रूप भी ऐसा ही वान और स्वामी महावीरके सिद्धान्त प्रचलित तो खूब बना लिया है कि मानों इनका सनातनके साथ कभी हुए पर भाषाके सुधारकी ओर ध्यान न पहुँचनेके कारण संस्कृति की स्थिति और अधिक बिगड़ गयी। ___xगुणोंकी यह सव्या श्वताम्बर सम्प्रदायके अनुसार है। दि. जिससे वेदोंकी भापाका समझना नितान्त कठिन हो स० के अनुसार साधुके २८ मूल गुण हैं । इसी तरह माहारके दोष कर वैदिकोंकी चिन्ताका कारण बन गया । की संख्या भी इसमें ४६ मानी गई है। -सम्पादक सच्ची खोज [ले०-श्री पं० दरबारीलालजी न्यायतीथ ] ढूँढता है किसको नादान! पवित्रता का ढांग छाइदे। भजन गान माला जप छोड़े मिध्या-मदका शिखर तोड़ दे। अखिल विश्व से आनन मोड़े धूल भरीधरणी पै आजा, दूर हटाअभिमान।। ढूँढता।। किसे पूजता है रेमूरख! बन्द कियेदृग-कान।। ढूँढता॥ ढोंगी! ढोंग दूर कर जप का मूढ़ व्यर्थ पा रहा त्रास है। शीघ्र हटा मद मिथ्या तप का आँख खोल ईश्वर न पास है। चिथड़े पहिन और चिथड़े वालों का करतभ्यान।।दूँढता। वह है वहाँ जहाँ कष्टोंमें डूबा दीन किसान ।। ढूँढता॥ यदि तेरे कपड़े फट जाएँ। लोह थोड़े जिस के गहने या उन में धब्बे लग जाएँ।। धूल धूसरित कपड़े पहने हानि नहीं,मिलकर रह उनमें,वहींबसे भगवान॥ढूँढता'? उनके साथ धूप-वर्षा में रहता है भगवान ॥ ढूढता ॥ - गीतांजलि के प्राचार पर। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ {૭૮ EN विद्युच्चर अनेकान्त twitte (8) tara | एक दिन उसी राजगृही नगरी में विद्युच्चरको बड़ी धूमधाम दीख पड़ी । तोरण, बंदनवार, फूलमालाएँ और तरह-तरह के श्रृंगार पहिन कर मानों यह सुरनगरी अपना सौंदर्य सजाने बैठी है । सभी अंग-प्रह, द्वार, हाट, बाट - श्रभूषित, अलंकृत होकर मानों खिलकर दिखाने में एक दूसरेसे स्पर्धा कर रहे है । अद्भुत चहल-पहल है । आल्हाद का उफान सा आगया है; मानों नगरीका आज सुहाग सम्पन्न हुआ है, और वह उसीका जय-समारोह मना रही है । मानों किसीकी प्रतीक्षा में, उसका स्वागत और सत्कार करनेको, उसे अपने हृदयासन पर अधिष्ठित करनेको, प्रफुल, आनन्द-मग्न, उसकी राहमें अपने पाँवड़े बिछा कर बाट देख रही है । अलौकिक पुरुष कौन है ? - ANAN वह कौन है ? - यही जानने को उत्सुक होकर विद्युकचर एक सम्पन्न सद्गृहस्थ बनकर, समारोह में पागल होते हुए पुरवासियोंके बीच आया है । वह इससे पूछता है वह प्रश्न पर विस्मय करके हँस देता है। उससे पूछता है - वह जवाब नहीं देता, चला जाता है, मानों प्रश्नकर्त्ता की अक्षम्य जानकारी पर विस्मित ही नहीं क्षुब्ध भी है । फिर वह तीसरे से पूछता है – उससे भी उसे उत्तर नहीं मिलता, उपेक्षा मिलती है। सबसे पूछता है - सब उस पर हँस देते हैं। अब वह अपने हृदय की सारी भूख से जान लेना चाहता है-वह अपरिमित भाग्यशाली कौन है ? ले०—श्री जैनेन्द्रकुमार देखो, विद्युच्चर, वे सब लोग उत्कण्ठित होकर किधर को देखने लगे और भागने लगे ! उसने ध्यान दियादूरसे वाद्यका रव और भीड़का रव जैसे उसीकी भोर ल रहा है। लोग सब उसी रवकी ओर भागे जा रहे हैं। वह वहीं प्रतीक्षा में तैर गया । [वर्ष १, किरण ३ Caras? जुलूस श्राया। पहले ऊँटों पर जय ध्वज फैराते हुए चारण आये । फिर तुरही वाले । उसके बाद पदातिसेना । फिर अश्वारोही । श्रनंतर हाथियों पर राज्य के श्रमात्यवर्गकी सवारी आई। उनके बीच में ही, विद्युच्चरने देखा एक असाधारण डील के गजराज पर, जिस पर सोनेके तारोंसे बुनी मूल कूलर ही है, और ठोस सोनेकी अम्बारी कसी है, और जिस हाथीका गंडभाग, निरंतर, रास्ते भर फूलोंकी वर्षा होने के कारण, फूलोंसे लक्ष्य है, दो दीप्तिमान पुरुष बैठे हैं। एक राजा श्रेणिक ही हैं, उनके सिर पर राजमुकुट जो है । दूसरे... ? - तभी कर्णभेदी और गगनभेदी जयघोष गूंज गया'स्वामी जम्बुकुमार की जय' ! तो समझे, विद्युच्चर, ये दूसरे अलौकिक से दीखने वाले व्यक्ति, जिनकी आंखों की दीप्ति कंठमें पड़ी माणिक्य मालाकी दीप्ति से कहीं. सतेज और असह्य है, चेहरे से जिनके भोज मानों चुआ पड़ता है, वही वज्रसंहननी जम्बुकुमार हैं। उन्हीं के वरद दर्शन की प्रतीक्षा में अलंकृता राजगृही आँख बिछाये बाट जोहती थी। (५) स्वामी के दर्शन के बाद विद्युच्चर के मनमें एक बेचैनी उठी। वह उस बेचैनीको समझन सका । अकस्मात ही प्रकाशका दर्शन, आँखोंको चौंधियाता हुआ जब भीतर तक पहुँचता है तो जैसे उस प्रकाशके प्रति एक मोह और एक विद्वेष सा पैदा हो आता है, उसी तरह स्वामी के प्रति ममता और श्लाघांका भाव भी विद्युच्चरमें उदित हुआ, साथ ही एक प्रकारके रोषकी भावनाका भी उद्रेक हो आया। इस अद्भुत भावका विश्लेषण व्यक्ति कैसे कर सके ? विद्युच्चरके जी में आता है, Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७९ माष, वीर नि० सं०२४५६] वियुवर इन्हें किसी तरह सता सकू। और फिर कुछ ऐसी बात उसके दमन और शमनके लिये कुछ सेनाका अध्यक्ष घटित हो जाय कि मुझे उनके सामने हाथ जोड़ कर बना कर उन्हें भेजा जाता । इम सैनिक-कार्यमें भी खड़ा होना पड़ जाय । मैं उन पर आपत्तियां लाऊं, आशामे अधिक वे यशस्वी हग । अब भारी-भारी वह उन आपत्तियों को तोड़ फोड़ कर फेंक दें, और यद्धों में भी जोग्यमकी जिम्मेदारी उन्हें मौंपी जाने मुझे शरणमें ले लें । कुछ ऐसे ही अनर्थ और द्विविध लगी। ऐसे युद्धोमें भी, उन्होंने अपने पूर्व-यश के अभावको लेकर वह बेचैन हो उठा । इस अपनी द्विमुखी नुसार ही कत्ति उपार्जित की। यवा, होते-होते प्रतिष्ठा, भावनाकी कैसे तुष्टि प्राप्त करे-कुछ समझ नहीं पड़ता। सौंदर्य, क्षमता, सर्वप्रियता और गंभीरता में उनके उस भावनाके किसी एक विभाव ( Aspeel ) को ममकक्ष गिना जाने वाला दृसग न था । कामदेव अपने तर्क और आवेशसे पुष्ट करके और बढ़ाकर एक के समान रूप वाले, और वृहस्पतिके समान मंधानिश्चित मत पर आने का वह प्रयत्न करने लगा। सम्पन्न, कुबेग्क गमान अक्षय-धन-सम्पन्न, जलड़की यत्न करके वह ऐसी-ऐसी बातें सोचने लगा जिमसे तरह गम्भीर, गरु के समान विज्ञ, श्रीर सयका उस भावका सात्मक विभाव, उत्कृष्ट नहीं निकृष्ट तरह कांतिवान् जम्बुकुमार-सबकी ईष्या औरसबकी विभाव, अधिकाधिक पुष्ट हो ।सोचा-वे तो ऐश्वर्य- श्रद्धाके पात्र थे । ........ के युद्धम विजयी होने पर शाली हैं, अवश्य उनके यहाँ अपरिमेय द्रव्य होगा, पुरवामियांने जिम उल्लासमं उनका सम्राटयाग्य स्वाशरीर उनका कितना दृढ़ और बलवान् दीख पड़ता गन किया, हम देख ही चुके है। था; उनका परिधेय ही कितना अमूल्य था, फिर हार किन्तु यद्धोम, कार्तिस, यश-वैभवसं, और इमी और मुकुट आदि अलग; फिर उनका सब आतंक तरह की शेष और परिमहस, इनका मन जैसे अलग खाते, और आदर करते दीख पड़ते हैं। तारीफ़ तो रहता था। मानों उकताया रहता था। इन सबके बीच मेरी तब है जब मैं ऐसे व्यक्तिका कुछ बिगाड़ सकू। रहते थे, पर जलमें रहतं कमल-पत्रकी तरह, उनसे तब पता चलेगा मेरे मन में कितना बल है, बाहुओमें अलग, स्वतन्त्र रहते थे । आप और हमारी तरह कितनी क्षमता है,और मस्तिष्क में कितना चातुर्य है। अपनी वासनाओं, ममताओ, और स्मृतियाका इस ते किया-उनसे पहिले परिचय पाऊँगा, फिर उन्हीं के चीज या उस चीज में फँमा कर इस भ्रांति-लोक में, यहाँ चोरी करूँगा। कनखजरं की तरह अपनं सारं हाथ-पाँव गढ़ा कर भूले नहीं रहते थे; वह मानों सदा किसी दूसरे ही श्री० जम्बकुमारका कुछ परिचय पालें। लोक में रहते थे, इस हमारे जगत से जो जाहिरा धर्मरत श्रेष्टिवर श्रहंदासके वे पत्र हैं। शैशव से सम्बंध रखतं दीख पड़ते थे तो वह मानों केवल हमाही अलौकिक मेधा और प्रतिभाका परिचय देते आ रहे ग कुछ हित-साधन करने के कारण । हैं । बालावस्थामें ही कुछ ऐसे भक्त कृत्य उन्होंने किन्तु दुनिया अपने से निर्लिप्त किसी व्यक्तिको सम्पन्न किये कि लोग चकित रह गये। उनकी ख्याति देख कर चप नहीं रह सकती । पहले नो अपनी श्रद्धा दूर दूर फैल गई। राज सभामें उन्हें सम्मान मिलने और भक्ति के धागों से ही उसे बांधनका यत्न करती लगा। होते-होते कैशोर वय उन्होंने पाया, और तभी, है। और फिर धन, दारा, पुत्र-पुत्रियों और कुटुम्बियों उनकी योग्यता और शौर्यसे विस्मित और आनंदित आदिके और तरह के बन्धन हैं। होकर, उन्हें बड़ी जोखम और दायित्वके काम सौंपे इन स्पहणीय, यद्यपि विरागी कुमारको अपनीजाने लगे । उनकी मंत्रणा मौत मौके ली जाती। अपनी कन्याओंके लिये प्राप्त करनेको बहुनसे पिता भारी संकटके समय उन्हें भी अवश्य याद किया लालायित हो गये। और कुमारके पिता श्रष्ठि आईजाता । साम्राज्यकी सीमामें जहाँ-तहाँ उत्पात होता तो रास और माता श्रीजिनमती को पद्मश्री, कनकनी, (६) Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त वर्ष १, किरण ३ विनयश्री और रूपभी इन चार कन्याओं के पितामों कुमारको चले जाना पड़ा । पिता की रक्षा हुई। को वाग्दान देना ही पड़ा। ये कन्याएँ अत्यन्त रूपवती, वह मन ही मन मुनिराजके ऋणी हुए। किंतु कुमारके कुलवती और समृद्धिवती थीं । सगाई होगई। संबंधमें उनकी शंका ढीली न हुई। किंतु होनहार अपनी सिद्धि के लिये क्या क्या योजनाएँ फैला रखती है, इसका किसको पता रह एक हीरे-मोतीके व्यापारी कुमारसे मिलने आये सकता है । कुमारको मानों विधि के विधानवश एक हैं। उनको अभिवादनपूर्वक महलोंमें ले जाया गया। मुनिराज के दर्शन हो गये । दर्शन से, अब तक की कई कमरे और सहन पार करने पर एक कमरा आया। संचित उकताहट, वह अनिश्चित वितृष्णा जो अब-तक राजोचित साज-सज्जा से वह सजा है । कुमार वहीं इनके मनको कुरेदती रहती थी, अब एक दम सुस्पष्ट एक आसन पर विराजमान हैं। कुमारने उठकर स्वा और सुनिश्चित चाह बन कर सामने श्रागई। कुमारने गत किया और अपने से ऊँचा आसन प्रदान कर मुनिराजसे दीक्षा लेने की प्रार्थना की। कुशल-वृत्त पूछा । श्रागत सज्जनने निवेदन किया- मुनिराज ने, साथ आये पिता की आकृत्तिके भाव "मैं सेवामें कुछ मणि-माणिक लाया हूँ। सुना, को ताड़ा, और कुमारको तनिक धैर्य रखनेका आदेश श्राप यहाँ सज्जनोंको अपनाने वाले और रत्नोंकेपारखी किया। हैं । इससे दर्शनोंकी चाह हुई और ा उपस्थित हुआ। ऐसी बात में कुमार आसानी से धीरज नहीं रख कुमार-बहुत शुभ । किंतु, मैं तो रत्नों का क्रय भी सकते नहीं करता, विक्रय भी नहीं करता । मैं दूंगा तो "स्वामिन् , एक क्षण भी, मेरा मन इन व्यर्थताओं यों ही दूंगा, और लूँगा तो तभी जब उन्हें शिष्टता में बेंधा रहना नहीं चाहता । मैंने बहुत कुछ सोचा है, की रक्षाके लिये लेना ही पड़ जायगा। इस संबं और बहुत कुछ किया है । अब देखता हूँ, वह कुछ धमें आप पिताजी से मिलें तो उत्तम हो, संभव है नहींके बराबर है । जब तक आपा नहीं जाना, तब तक वह आपके कुछ रत्न खरीदना चाहें। सब करना और सब सोचना निष्फल है।" व्यापारी-किंतु आपको रत्नोंसे घृणा तो नहीं मालूम किंतु मुनिराज अपने पथके कांटे जानते हैं, और होती । आपके शरीर पर अब भी लक्षाधिक मूकुमारको यदि उस पथ पर चलने की चाह हुई है, तो ल्यवान माणिक वह इसकी काफी परीक्षा कर लेना चाहते हैं कि वह कु०-ठीक है । द्वेष नहीं है, इसी से राग है यह समसाधारण लाभ ही तो नहीं है, जो पहिले कांटे पर ही मना भूल होगा। मुझे उनसे ममता भी ठीक वैसे हार मान जाय । बोले ही नहीं है, जैसे घृणा नहीं है। ____ "कुमार, अधीरता शुभ लक्षण नहीं है। अभी मेरा व्या-किंतु यह आपका भावसर्वथा ही उपादेय नहीं। भादेश मानों । कुटुम्बियों की, अपने उद्देश्यसे सहमति कुछ पदार्थ घण्य होते हैं, कुछ आदरणीय ही । प्राप्त करो। उनकी असम्मति और असंतोषका बोझ अच्छे और बुरे, दोनों पदार्थों में, एकसा भाव उठाना व्यर्थ ही जरूरी न बना लो।" रखना, कुछ बुद्धिमत्ता नहीं हो सकती । उपादेय कुमार, किंतु, विरोधमें कुछ कहना चाहते हैं कि वस्तुमें ममत्व भाव रखना ही श्रेयस्कर हो सकता मुनिने बोध दिया, है, कुत्सितमें केवल निर्ममत्व भाव ही नहीं प्रत्युत "कुमार, समझ लो, अपने कुटुम्बियोको समझाने अवहेलाका भावरखना आवश्यकीय है । रत्नादिक का एक अवसर अवश्य देना चाहिये । मेरा यही मा- वस्तुएँ, अपने गुणों के कारण, हमारे ममत्व की देशा है। इसमें ननु नच न करो।" अधिकारिणी होनी चाहिये। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्युचर माघ, वीर नि०सं० २४५६ ] कुमार - यह आपका विचार बहुत अंशों में ठीक है । किंतु वस्तु की ममता, वस्तुके गुणों की प्रशंसासे, बहुतायत में, भिन्न वस्तु होती है। यह ठीक है कि वस्तु गुणात्मक है और गुण वस्तुसे अलग टिक कर स्वत्व भाव नहीं रख सकते; पर वस्तुके साथ निरपेक्ष भावसे ममता नहीं रक्खी जा सकती, जब कि गुणों में 'स्व' की अपेक्षा संभव नहीं होती। रत्नों में ममता रखने में यह बात आ ही जाती है कि, हम उन्हें अपने देह पर सजायें, अपने पास रक्खें, अधिकाधिक परिमाण में इकट्ठा करें, और फिर रत्नोंके उस कोष में अपने जी और जानको फँसा कर रक्खें । उसकी बनावट, दीप्ति आदि गुणोंके प्रशंसक होने में यह खतरा नहीं है । इस लिये मैं उनका प्रशंसक हूँ, पारखी हूँ,का दास नहीं हूँ । व्यापारी - यह है ! तो आप इन्हें क्यों पहने हुए हैं ? कुमार चुप हुए। तनिक ठहर कर बोले"हाँ, यह बात सोचने की है, मैं क्यों इन्हें पहिने हूँ ? - मैं क्यों इन्हें पहिने हूँ ? - आपका यह प्रश्न ठीक है, और आप जब आये थे, तब भी मैं इसे सोच रहा था।" - पर उन - व्यापारी - लेकिन, यह तो प्रकट है, आपको लोगों की इच्छा रखने के कारण पहनना पड़ता है । कुमार - यह तो कारण नहीं, बहाना हुआ। व्या० - तो क्या निर्ममत्व होकर भी उनका उपयोग किया जा सके, यह संभव नहीं है ? कुमार- क्यों संभव है ? व्यापर आप कहते थे, आप इनके संबंध में निमही हैं। कुमार-उस निर्मोह में जरूर कहीं कमी रह गई है— नहीं तो यह व्यर्थ - चमकीला - भार शरीर पर कैसे ठैर सके ? व्या० तो आप क्या करेंगे ? कु० - क्या करूँगा ? - हमेशा भारवहन ही करता रहूँगा ? - सदा परिग्रहका बोझा ही ढोता रहूँगा? -सोचता हूँ, बोझा उतार कर अलग कर दूँगा । १८१ व्या० - अलग कर देंगे ? कु० - यह नहीं जानता कब पर करना जरूर यही होगा । व्या०—क्यों ? क्या सच आपके ऐसे बलिष्ट शरीर को यह छटांकसे भी कम पर करोड़ोंसे भी मूल्यये रत्न भारी लगते हैं ? वान् कु० - हाँ, भारी लगते हैं । इतने भारी लगते हैं कि इनके बोझसे, शरीर तो अलग, आत्मा भी दबा मालूम होता है । व्या० - उतार कर क्या करोगे ? कु० - क्या करूँ ? बताइये? श्रो- हो, श्राप तो इन्हीं का व्यापार करते हैं आप सहायता करेंगे ? व्यापारीने, न जाने क्यों, कह दिया- 'हाँ-हाँ' कुमारने गले का कंठा निकाला, बाजूबंद उतारा, और भी सब आभूषण खोल डाले, और व्यापारी को देने लगे । यह सब व्यापार इसी क्षण हो जायगा, व्यापारी को ऐसी आशा न होगी । अब वह अचकचाया 'नहीं-नहीं, मैं न ले सकूंगा । मैं भिक्षार्थी नहीं हूँ ।' कु० – देखिये सहायतासे विमुख न होइये । व्याः- मुझे दूसरोंकी दया लेकी आदत नहीं है। कु० - दया ले नहीं, पर दया कर तो सकते हैं ? - यह तो आपकी मुझ पर दया है; सच मानिये, आपकी दया मेरा भार हित होगा । व्या० - चाप अपने से ऐसे विमुख क्यों होते हैं ? कुः - अपने विमुख नहीं सन्मुख होता हूँ- अब तक अपने से मुँह फेर कर इन चीजों की ओर मुँह किये हुए था। .. व्या० - आप स्वार्थका क्यों घात करते हैं ? कु० – मैं स्वार्थको मार नहीं रहा, पा रहा हूँ ।" किंतु, आप अपने स्वार्थको क्यों फेरते हैं ? व्या० - मैं क्यों फेरता हूँ ? हाँ, फेरता हूँ। मुझे नहीं चाहिये, ये आपके रत्न । मेरे लेने का तरीका यह नहीं है। पर मैं आपसे पूछता हूँ, आप इनको तो फैंक डालेंगे, पर आपके महल के कोने कोने में जो वैभव भरा पड़ा है, उस सबका Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ अनेकान्त [वर्ष १, किरणं ३ क्या करेंगे ?-यह महल का महल क्या उठाकर घटना (phenomenon) एकदम इतने अद्भुत, मचिफैंक देंगे ? क्या करेंगे? तनीय और उल्टे रूप में घट गई कि, नहीं जानता, वह कु०-नहीं फेंक सकूँगा-यही तो आप कहते हो?- उसका क्या बनाये । जिस स्वार्थको, अपनी विवेचना मैं भी यह देख रहा हूँ। फिर, क्या करूँ, यह से, जीवन-क्रम भित्ति बना कर वह आगे बढ़ा था, सवाल है। उसी स्वार्थ पर उसने स्वामी को लात मारते देखा । व्या०-तो इन रत्नों को दे डालने से आप थोड़ी सी ऐसी अभूतपूर्व बातको देख कर एक अभूतपूर्व विप्लव मनकीशाबाशी जीत लेंगे, और तो कुछ न होगा। सा उसके भीतर मचने लगा । इस विप्लवका यदि कुछ कु०-(अस्त व्यस्त भाव से ) आपने ठीक जताया। उंगलीरख-सकने योग्य परिणामहुआ तो यह कि स्वामी इनको ही फेंकने से तो काम नहीं चलेगा। जैसा के यहाँ चोरी करनेके उसके इरादे में और दृढ़ता श्रा आपने कहा, थोड़ा मनकी शाबाशी जीतने का गई। बहाना हो जायगा। आगे कुछ नहीं।.... (८) व्या०-और सब कुछ भी फेंक सकें तब तो... स्वामीकी विमनस्कता दिन-दिन गहरी होने लगी। कु०-(उसी भाव से) ठीक, और कुछ भी फेंक सकं, मन उचाट रहता,जैसे सबसे भर कर उकता गया हो । जभी तो... भोगोंकी ओर से विरक्ति होती, संभोग्य पदार्थों से व्या०-'उनको नहीं अलहदा कर सकते, खुद अलग वितृष्णा छूटती । उन्हें लगता, जैसे चारों ओर फैला हो जाइये। यह जगवाल है, जो उन्हें लुभा कर, बहला कर,भरमा कु०-'उनको नहीं अलहदा कर सकता, खुद अलग कर अपने में ही फँसा रखना चाहता है-मेरी यथाहो जाऊँ । “ठीक । ठीक तो है। जरूर र्थता, कृतार्थता, मेरी पूर्णता और आत्मसिद्धिको लोक यही ठीक है।'श्रापका, महाशय बड़ा उपकार में नहीं पहुँचने देता । उनका मन, मानों, सदा उसी मानतो हूँ।'यही ठीक है। लोक में रहता है । कुटम्बीजन उस मनको यहाँ लगाने व्या - तो आप यह करेंगे ? के जितने ही प्रायोजन करते हैं उतना ही वह और कु०-''नहीं तो क्या करूँगा ?: 'यही करूंगा। ... असंतोषके साथ खिज उठता है । अब और अधिक इन्हें अलग नहीं फेंक सकता । तो खुद तो अलग घर रहना उनके लिये असंभव-प्राय हो गया है । मुनिभाग सकता हूँ। इनमें बंधा हुआ, पिसता हुआ, दीक्षा ले जानेको वह अत्यंत आतुर हो गये हैं। कब तक रहूँ ?-क्यों न हलका और उन्मुक्त, ___ एक दिन अपनी हृदयाकांक्षा पिता के सम्मुख बधन हीन होकर, अपना ही आप होकर रहँ, उन्होंने कह डाली। अपने ही आपमें रहूँ, बस आपमय होजाऊँ ?- पिता कुमारके रुखसे बिल्कुल ही अपरिचित नहीं यही करूँगा। थे। इस दुनिया में रहते भी कुमार के विचार सतत X X X जिस लोकमें विचरते रहतेथे, उसका आभास पिताको विशुधरने फिर बिदा ली। उसकी आत्माको एक था।किंतु पिता, बलान् , उस संबंधमें अपनी चिन्ताको अदुत तुष्टि थी । पर इस तुष्टिके साथ ही उसकी विवे- टलाते आये हैं। अब कुमार ने, अपने ही मुँह से जो अनामें एक तुमुल प्रलयकारी बीज उग उठा। मानों स्पष्ट शब्दों में बात कह दी, तो जिसको टलाते आये किसी वस्तुने आकर उसकी जीवन-धारणकी नींव पर थे और जिससे डरते आये थे, वही घड़ी आ गई। ही व्याघात करनेका यल प्रारंभ किया है। जैसे कुछ पिता मानों तर्ककी शक्ति खो बैठेचीज आकर उसका आधार ही छीन लेने का उपक्रम "यह क्या कहते हो, बेटा!" बाँध रही है। स्वामी जम्बुकुमार के साक्षात्कार की "पिताजी,"कुमारने कहा "हट न हों। मुझे क्या Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुसाटक जैनकवि माघ, वीर नि०सं०२४५६] कम दुःख है कि आपकी सेवाका अवसर मैं खो रहा रोग आता है, तो क्या मैं उसे मापसे हटा कर अपने हूँ ? किंतु शाश्वत, सर्वोपरि और यथार्थ सेवा का जो ऊपर ले सकता हूं? किसी भी असाताके उदयको बाँट मार्ग दीखा है, उस पर चलने की प्रेरणा अनिवार्य है। सकता हूं? मतलब कि आप मेरी केवल उपस्थिति से कोई जैसे भीतर से मुझे उसी ओर ठेल रहा है । वही ढाढस पाते हैं,और आपका कोई प्रयोजन उससे सिद्ध मार्ग प्रकृत मार्ग है, इसमें मुझे संशय नहीं, क्योंकि नहीं होता । मैं आपके ही आपके सामने उपस्थित रहूं, उसी पर चलनेके लिये, अज्ञानके निर्देशकी तरह, एक सन्निकटसे सनिकट रहूं-यही आपका भाव है। यह प्रकृत प्रेरणा मुझे उकसा रही है। आप भी, अन्ततः कैसे भी क्या सर्वथा संभव है ? क्या जब-तब आपको उसी सचाई पर आयेंगें, और तब आप मुझे धन्यवाद मुझसे और मुझको आपसे अलग होना नहीं पड़ता ? देंगे । इन क्षुद्रताओं और व्यर्थताओं से मुझे छुट्टी लेने फिर इस भाव की रक्षा भविष्यमें केवल परमित काल दीजिये, जिससे मैं निग्रंथ, निराविल, और निस्संग, तक हो सकती है। उस बातके संबंधों कातर और सत्य से एकाकार होकर रह सकू-'सो ऽहम्' । जिस आतुर होनेसे क्या परिणाम जो एक न एक दिन टूटसे मेरा 'यह' और मेरा 'वह' , यहाँ तक कि मेरा नी तो है ही। फिर क्या पिताजी, यह सच नहीं है कि शरीर भी, मुझ में और सत्यमें विचित्रता न पैदा कर आप मुझे सुखी देखकर हो अधिक प्रसन्न होते हैं ? तो सके । जिससे मैं ही मेरा ध्येय बन जाऊँ शुद्ध सत्ता फिर मेरा सुख किसमें है, यह जान कर भी भाप मेरे के रूप में ही, सन्-चित्-आनंद होकर रहूँ।" सुखकी राहमें आकर क्यों खड़े होते हैं ? पिताजी,श्राप "बेटा, क्या कहते हो ? -मुझे डर लगता है। देखते हैं, जीवन में दुःख इतना परिपूर्ण और सुख इतना जंगल में रह कर, तिल-तिल करके शरीर तो खोया क्षीण है कि जीवनसे ममता होना विस्मय-जनक जान जायगा; पर प्राप्त क्या होगा, समझ में नहीं आता। पड़ता है । और एक-दूसरे के संबंध में व्यक्ति इतना तुम्हारी आत्मसिद्धि वहाँ कहाँ रक्खी है, मुझे नहीं हीन और असमर्थ है कि परस्पर ममत्व पैदा करके, मालूम ; पर वहाँ पग-पग पर कष्ट और संकट हैं, यह 'मैं-उसका' 'वह मेरा' आदि धारणाओंकी सहायतासे मुझ जैसा आदमी भी जानता है । कुमार, तुम्हें किन अपने परिणामोंको मलेशित करनामूर्खता जान पड़ती सुभीतोंके बीच में मैंने पाला है ? अभाव का तनिक है। इसी कारण किसी के लिये इस दंभका भी अबनाम तुमने नहीं जाना । घर छोड़ कर चले जाने से काश नहीं कि वह अपनेको दूसरे का सहायक और फिर अभावही अभावमें तुम्हें रहना पड़ेगा । वहाँ कौन उपकारी समझे । पिताजी, कर्मों से जकड़ा हुआ मैं होगा जो तुम्हारी संभाल रक्खे ? पिताको और माता इतना हीन हूँ, कि आपका जरा दुःख टाल सकूँगा, को, जिन्होंने लाइसे और चावसे तुम्हें पाल-पोस कर एमा संबोधन मेरी आत्माको नहीं हो पाता । अपने बड़ा किया है, जो तुम्हें देख कर ही जीते रहे हैं और कर्मों के हाथमें व्यक्ति कितना अपदार्थ है ! जो करता तुम्हें न देख कर कैसे जीते रह सकेंगे-कांटोंमें चले है, जो सोचता है, उन्हीं का बंधन, उन्हींका परिणाम, जाने के लिये, उन्हींको छोड़ कर तुम किस मुँह से व्यक्तिको जो करवावे, करना होगा । इन कर्मों पर जाना चाहते हो ? बेटा, तुम क्या बुद्धे बापकी इतनी- स्वामित्व प्राप्त करना,उनकी अधीनतासे मुक्त हो जाना; सी बात नहीं मानोगे ?" जीवनके इसी ध्यय पर मैं चलने की आप से माझा • "पिताजी, आप व्यर्थ क्यों चिन्ता करते हैं ? यदि चाहता हूं। तब मैं अपदार्थ नहीं रहूंगा । शक्ति मेरी आप तनिक स्वस्थ होकर सोचेंगे तो मुझे सहर्ष पाशा निस्सीम हो जायगी, बंधन निश्शेष हो जायेंगे, आनंद देंगे । मैं क्या कुछ आपकी विशेष सहायता कर पाता अव्यावाध हो जायगा । पिताजी, इसीमें जगतका और हूँ? शारीरिक सेवा मुझसे भापकी कितनी बनती है? मेरा प्रकृत कल्याण है।" । क्या मैं दिन-दिन पाते वार्धक्यको रोक सका हूं? जब X X Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ३ पिता इस हठ को मोड़ या तोड़ सकनेमें अकृत- तर जाने लगी, तो जा नहीं पाई, चूंट बन कर गले में कार्य ही रहे । अंतमें पितत्त्व के अधिकारके नाम पर, अटक बैठी । तब कपोल सिन्दूरिया होकर फल से कुछ दिनकी मोहलत अवश्य स्वामी जंबकुमार को गये, और बात निकलते-निकलते भी न निकली । पर देनी पड़ी। उस लज्जा ने, उस बात को, और ही ढंग से व्यक्त कर ___ तब इसकी सूचना उन वाग्दत्ता चार कन्याओं के देने का जो प्रायोजन कर दिया था, उसे पढ़ने में भूल पिताओं के पास पहुँचाई गई । पिताओं को क्षोभ हुआ, संभव ही नहीं हो सकती । कोई पढ़ देखता, उस रूपपर उन्होंने खैर मानी। सोचा, ब्याहसे पहिलेही स्वामी श्री के रूप पर और श्री पर, भाव में, भंगी में, और की यह इच्छा प्रगट हो गई, चलो अच्छा ही हुआ। चेष्टा में, आँखों के झंप जानेमें और देह के कंटकित कन्याओंके भाग्य तो फटनेसे बच गये । ब्याहके बाद होजाने में, असंदिग्ध रूपमें लिखा था कि-यह कन्या कहीं ऐसा होता तो उनके सिर वैधव्य...! चुपचाप ही अपना सर्वस्व किसी के चरणोंमें छोड़ कर ___ इसकी सूचना कन्याओं को बुला कर दे दी गई। और उसके नामका सुहाग ओढ़ कर, उस नाम के साथ ही यह प्राश्वासन भी दे डाला गया कि पिता अक्षरोंका बैठी-बैठी जाप करती रही है, और अब उनके लिये, स्वामीसे भी सुंदर, सुयोग्य, सुपात्र वरकी पिताकी बात पर कह रही है-न, न, नहीं। खोज कर देंगे और इस लिये कन्याओं को खिन्न और x x x चिंतत होने की आवश्यकता नहीं है। तो उन चारों कन्याओं ने, इस आकस्मिक संवाद ___ किंतु यह उस कालकी बात है जहाँसे बीसवीं सदी पर, मिल बैठने का संयोग निकाल लिया । और चारों २५ शताब्दीदर थी । कन्याओंने पिताओं द्वारा दिये जनियों ने बैठ कर निर्णय किया कि कुछ हो, विवाह गये आश्वासन को अवहेला के साथ फेर दिया । तुरंत हो जाय । विवाह के अगले दिन ही स्वामी चाहें उन्होंने सांत्वना नहीं चाही, पति के जीवित रहते भी और सकें तो दीक्षा ले जॉय । उन्होंने सोचा-ब्याह कटने वाला वैधव्य उन्होंने सुहाग के रूप में अपना होजाने दो, फिर देखें वह दीक्षाकी बात पर कैसे कायम लेना स्वीकार किया। रहते हैं ! कन्याओं के सर्वसम्मत इस निर्णय पर उन पद्यश्री ने कहा-परिणय होगया। परिणय के पिताओंको भी एक सम्मत होजाना पडाः और वे इस साथ खेल हमसे अब नहीं होगा। स्वामी जायेंगे, तो संदेशको लेकर श्रेष्टिवर अहदास की सेवा में पहुंचे। उनकी स्मृतिको लेकर हम रहेंगी। पर यह वीतरागी श्रेष्ठ प्रहदास मुर्भाई मन स्थिति में खिन्न बैठे होकर जॉय और हम उनकी स्मृति पर कलंक डालें! थे। इन लोगों के निवेदन पर जैसे उन्हें संतोष का -न-श्र, कभी नहीं। ___ अवसर दीखा । उन्होंने इन चारों पिताओंकी बात सविनयश्री ने कहा-पिताजी, हमारी बिडम्बना न हर्ष सम्मत कर ली। करें । ब्याह ही जीवन की कृतार्थता है क्या ? फिर जम्बुकुमार तो मांगी हुई मोहलत के कालके लिये उसके संबंधमें इतने उत्साहसके साथ चिंता करने क्यों अपने को सर्वथा पिता की माझानों पर छोड़ चुके थे। बैठते हैं ? उन्हें कहने को कुछ शेष न था। . कनकभी बोली-परिणीतानहीं हूं-वाक्परिणय परिणामानुक्रम से स्वामी जम्बुकुमार का विवाह के बाद मैने ऐसा समझा ही नहीं। विवाह का शेष पद्मश्री, विनयभी, कनकभी, और रूपश्री इन चार कअंश सम्पन्न होने से रह जाय तो यह मेरे भाग्य का न्यानों के साथ, एक साथ, सधूमधाम संपन्न होगया। रूपश्रीने बोलना चाहा, पर बोल नहीं पाई। पिता सुहाग रातकी रात । संयोग-सजाके सब सामानों के वक्तव्य पर जब और अंगों पर फैल कर लाज भी- से बिलसित मणि-मासिकके दीप्तों की दीप्ति से परि Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माघ, वीर नि० सं०२४५६] विधुवर दीप्त; स्वर्ग से चुरा कर लाये हुए इन्द्र के विलास-कक्ष वहीहोगा,-या नहीं? क्या होगा-देखें ? . सा मनोरम; नंदन-सा सुरभित; मूर्खाग्रस्त रमणी-सा इन अप्सराओं से बोलो मत,-चिहुँक पड़ेंगी। सुकोमल, सुशांत और लोभनीय; जिसमें स्वप्न तैरते उन्हें एकाग्रतामे च्यत किया तो तुम क्षम्य न होगे । रहते हैं, और कामदेव अलकसाया पड़ा रहता है, वह उन्हें अपने में व्यस्त रहने दो।-और पानी, हमारे अवर्णनीय कमरा । यहाँका सब कुछ जैसे, बाहें फैला साथ दूसरी ओर मुड़ो। कर तुम्हें आलिंगन-पाश में बांध लेने को, लालसा से आकुल और मद-मूळमें विकल पड़ा है। उसी में पड़ी कुमार इधर शाम को टहल कर लौटे हैं कि बन्धुहैं चार रमणियाँ जो, जल में मीनकी तरह, मानों इसी बान्धवों ने घेर लिया है। कोई ठठोली करते हैं, कोई वातावरण में खिलने-खेलने को बनी हैं, जिनका परि- बधाई देते हैं, कोई तरह-तरह की चर्चा छेड़ते हैं। ऐसे धेय हठात, यहाँ-वहाँ से खिसक पड़ा है। ये रमणियाँ भी हैं जो इस समय भी शास्त्र-चर्चा करना चाह रहे उस धार के न इस ओर हैं न उस ओर जो कैशोर हैं। कुमार यथा शक्य सबमें योग देते हैं। किंतु इस और तारुण्य इन दो तलोंके मिलनेसे बन जाती है, वे प्रत्यक्ष सुहँस वाचालता के भीतर जो एक विमल गंठीक उसी धारके ऊपर खड़ी हैं । इसीसे ये उन कलि- भीरता है, वह छिप नहीं पाती। योंकी तरह ताजा हैं जो इसी क्षण फूल बनने पर आ एक-(कुमार की ओर बात ढालते हुए) अब इन्हें गई हैं, जिनके प्रस्फुटन की सम्पूर्णता बस अभी-अब ज्यादे नहीं रोकना चाहिये । इन्हें आज सोने की सम्पन्न हो रही है। मानों ये बालाएँ अाज ही रात जल्दी लगी होगी। स्त्रीत्व-लाभ करनेकी ओर उन्मुख हैं । श्राज इनमें वह दूसरा-ठीक तो है। हमारे रोकने से यह मक भी तो . तारुण्य फूला है कि बस । मानों अपने प्रस्फुटनके सौं- नहीं सकते... दर्य को छिपा कर नहीं रख सकतीं-वह उघड़ा जो कुमार-रोकने की क्रिक में न पड़ें। मुझे खुद मनका आता है; छिपानेसे अन्याय जो होगा; इसीमे आवरण खयाल है। इधर-उधर खिसक खिसक पड़ता है । उसे सिमटाना तीसरा-मैं आपको चौगुनी बधाई देना चाहता हूँ। तो होता ही है, पर वह फिर भी तनिक अस्त-व्यस्त कुमार-आप चाहं जितने गुना धन्यवाद वापिस ले हुए बिना नहीं रहता। ''आज क्या होना है! लीजिये। ये चारों, इस स्वर्ग-कक्ष में, अपने ही आपमें व्यस्त एकने इन बातों पर स्वरमें जरा झलाहट लाकर कहाहैं।मानों किसी की प्रतीक्षा में हैं और उसके आन किंतु इन बातों में लगना अधर्म है। प्रात्मा का पर वे किस पद्धतिसे वार आरंभ करेंगी, प्रत्येक इसको, स्वभाव अपने-अपने मन में स्पष्ट करने में लगी है । ''वह कुमार- 'निश्चित है। बातों में बहक नहीं सकता। प्रतीक्षित सौभाग्यशाली कौन है ? .'' उसका क्या वह व्यक्ति-सराग चर्चा पापमूलक है। भाग्य होगा? कुमार-सराग चर्चा पापमूलक है, किन्तु वीतरागता मानों द्युतिमान स्त्रीत्व, दल-बल और छल के भी चर्चामें नहीं होती। वीनरागता भीतर उत्पन्न होती साथ, लज्जाके सब पुष्प-शर और निर्लज्जता के सब है, और हो जाती है तो कृत्यमें परिणत हुए बिना विष-शर तय्यार रखके, इन्द्र के पौरुषको चुनौती देने नहीं रहती। के लिये, उसके अखाड़े में, स्पर्धा के साथ उसकी बाट xxx जोह रहा है !-या तो पौरुष लुंठित होगा और गल आदि-आदि व्यस्ततामों में उनका समय जा रहा जायगा, या बीत्व ही कुंठित होगा और नतमस्तक हो है, और उधर सद्य-परिणीता पधुएँ उनकी प्रतीक्षा में जायगा। क्या होगा ?-जो सदासे होता आया है, होंगी-इस सबका खयाल कुमार को है । पर उनकी Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ x प्रतमें पचे। " १८६ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ३ प्रवृत्ति उन्हें शयनागार में जाने की जल्दी कराने में कुमार ने कहासफल नहीं होती। "तुमलोग इतना डरती हो!-मुझसे डरती हो?x x डरनेका अब मौका कहाँ है? तुम अपना वक्त खो दोगी, ___ तो मेरा दोष न होगा। और वक्त ज्यादे नहीं है।" कुमारके आने की आहट उन्हें मिली, पर जैसे सब चुप रहीं । कुछ देर कुमार भी चुप रहे। नहीं मिली। वे निश्चेष्ट वैसी ही रहीं। फिर पद्मश्री ने आकर कुमारके चरण पकड़ेउनका कमरे में प्रवेश करना था कि पद्मश्री हर- "नाथ !" बड़ा कर उठ बैठी। विनय जैसे असंमजस में पड़ गई विनय और कनक ने भी ऐसा ही किया, पैरों से और कनक, लेटे-लेटे तनिक उठ कर मुँह नीचे करके माथा रगड़ कर करुणार्त-स्वर में कहा-"नाथ !" बैठ रही । रूपश्री उठी, भागी और सपसे दूर के कोन किंतु रूप तो अब भी हिल न सकी । वह इन में, परली तरफ मुँह फेर कर, नखोंसे कालीन की ऊन परिचित तीन स्वरों के 'नाथ' सम्बोधनको सुन कर भी को कुरेदती हुई खड़ी होगई। पीछे मुड़ कर देखने और कुछ करने का साहस न कुमार क्या करें? कमा सकी। कमरे में, जैसे आजकल की कोंचें होती हैं लग- कुमार ने एक-एक को उठाकर कहाभग उसी प्रकार की सेजें, और पर्यक मानों अव्यव- "हे-हें, यह क्या ग़जब करती हो । छि-छिः, पैर स्थित, फिर भी एक विशिष्ट व्यवस्था, बिछे हैं। नहीं छा करते । तुम मेरे पैर छू कर यों देखोगी, या बीचों-बीच पाँव-फैलाए-हुए मोरकी शक्लका एकसिंहासन बात करोगी ?: 'और, वह तुम्हारी सखी,-उसे क्या रक्खा है। पंख-ही रल-मिल कर उस सिंहासनके चंदोवे हुआ है ?" का काम देते हैं-उनमें बहुमूल्य हीरे और मोती इस कुमार गये, धीमे-से उसे कंधे पर छुआअंदाज से टॅके हैं कि वे मारके सच्चे पंख से ही जान "सुनोपड़ते हैं । मारकी चोंच नीचेको झकी हुई है, मानों वह पर वह तो एक झमकसे मुरड़ गई, हाथ छूते ही कुछ चुगना चाहता है । पर उस चोंच से, वास्तव में, छिटकसे दूर भाग गईमोर संगमरमर के एक छोटे से जीन को संभाले है। कुमारने कहा-"सुनो सुनो तो ।" इन पैड़ियों पर चढ़ने के बाद, उसमयूरकी कलगी पाती पन आदि ने देखा यह रूप ने खूब विजय पाई। है। सिंहासनासीन व्यक्तिको पैर टेकने के लिये यही पद्म बोली "अजी, उसे छोड़ो। वह आप पायगी।जगह है । सिंहासन के बैठने का भाग काफी प्रशस्त, सुनो तो।" किंतु कुमार के साथ ही रूपने भी पद की बहुमूल्य वसोंसे सजा, बहुत ही मुलायम है । आदि। यह बात सुन ली, और अबके कुमारके छूने पर वह कुमार उसी स्थान पर पहुँचे, और बैठ गये।बोले- उस तरह छिटक कर दूर न जा सकी। 'तुम लोग इतना डरती क्यों हो ?' कुमार ने कहापनी ने सुना । स्वरने उसका गात मिहरा दिया, "तुम यों अलग क्यों रहती हो। आओ,-बारों शब्दोंने गुदगुदी सी उठा दी। मेरी बात सुनो।" विनयने सुना । भाशा बैंगी। तब वह कुमार के साथ ही पाकर उन तीनों से . कनक तो सुन कर, मुखर हो रहना चाहती है। सट कर और इस तरह अपना मुँह दुबका कर, बैठ उसका जी होता है ममी कुमारसे उलझ उठे। गई। कुमार भी अब, सिंहासन से पर्वक पर भागये । और यह रूपनी उसी कोनेमें गड़ी-गड़ी पूंगट-से के भीतर ही हलकी हँसीसे मुस्करा दी। जो क्व बातें हुई, फिर बताया Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माघ, वीर नि०सं०२४५६ ] अनेकान्त पर लोकमत 'अनेकान्त' पर लोकमत २. श्री० सत्यांशुमोहनजी मुखोपाध्याय, एम.ए, एल.टी., असिस्टेंट लाइब्रेरियन गवर्नमेंटकृत-कालिज, बनारस - "I am very grateful to you for kindly giving me an opportunity to read a collection of some very very valuable articles on Jainism, a subject the study of which is very dear to my heart. I therefore welcome the Samantabhadrashrama of Delhi and congratulate its distinguished founders on taking up the works of the collection of Jaina works and research in Jaina literature The Anekant is the sort of journal the want of which was beeing felt by the public for a long time. The first numbers, by the richness of the articles which have appeared in thein, convinge one of its permanent utility in the field of Jaina Dharma. Those that have contributed hitherto appear to be genuinely intersted and painstaking scholars of Jaina Shastra The ideal of toleration which the journal has set before it is truly Jain and does every credit to its learned editor. In fact you have not left anything to make the 2. journal useful to Jains and Non-Jains engaged in the study of Jainism. The articles are suggestive of new lines of work which, I hope, will be taken up by distinguished Jainists all over the world. Of the innumerable difficulties in the way of the study of Jainism, the most harassing are the want of critical editions of Jain works in Sanskrit & Prakrit, and their authoritative translations in any modern language. Dictionaries and Encyclo. paedias collecting materials scattered over a vast field are badly required and a Jaina Catalogus catalogorum is au immediate necessity. I hope the Samantabhadrashama & the Anekanta will take up the compilation of these under your able guidance. With thanks to you and hopes to see the Ashrama and the Journal pros pering" अर्थात् मैं आपकी इस कृपाके लिये बहुत थाभारी हूँ कि, आपने मुझे जैनधर्म-विषय पर, जिसका अभ्यवन मेरे हृदयको बड़ा ही प्रिय है, कुछ भतीन बहुमूल्य लेखोंके संग्रहको पढ़नेका अवसर दिया है। re: मैं देहली समन्तभद्राश्रमका अभिनंदन करता Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • १८८ भनेकान्त [वर्ष १, किरण ३ हूँ और उसके विशिष्ट संस्थापकोंको धन्यवाद देता हूँ मैं आपको धन्यवाद देता हूँ और आश्रम तथा जिन्होंने जैनग्रंथोंके संग्रह और जैनसाहित्यके अनुसं- पत्रको समुन्नत होता हुआ देखना चाहता हूँ। धानका कार्य अपने हाथमें लिया है। ____२५ वा अनितप्रसादजी एम.ए. एल.एल.बी. 'अनकान्त' उस प्रकारका पत्र है जिसकी पबलिक जन हाईकोर्ट, बीकानेरको अर्सेसे जरूरत थी। पहले दो अंक, उन लेखोंकी " मुझको तो विदित होता है कि बरसों तक गुम समृद्धिता के कारण जो उनमें प्रकट हुए हैं, जैनधर्मके रूपसे मौनस्थ रह कर अपनी विचारशक्ति और क्षेत्रमें इस पत्रकी स्थायी उपयोगिताका विश्वास दि व्याख्यानबलको बढ़ा कर 'जैनहितैषी' ही 'अनेलाते हैं । जिन्होंने अब तक इसमें योग दिया है-लेखों कान्त' का रूप धरके प्रार्दु त हुआ है । विचारसे सहायता की है-वे जैनशास्त्रों के सच्चे प्रेमी और शील जैन-तत्त्वोके वेत्तानों और जैन समाजके परिश्रमशील विद्वान् जान पड़ते हैं । सहिष्णुताका जो हितषियोंका कर्तव्य है कि 'अनकान्त' को अपनाआदर्श इस पत्रन अपने सामने रक्खा है वह सच्चा वें । जिस किसीको भी जैनधर्ममें भक्ति और जैन आदर्श है और उसका सारा श्रेय पत्रके विद्वान् जैनसमाजमें प्रेम है, उसको उचित है कि इस पत्र सम्पादकको प्राप्त है । वास्तवमें आपने इस पत्रको उन का ग्राहक बने, इसको प्रायोपान्त पढे और पढ़ जैनों तथा अजैनोंके लिये उपयोगी बनानेमें कोई भी कर उन विषयों पर विचार और मनन करे । इस बात उठा नहीं रक्खी,जो जैनधर्मका अध्ययन करनेमें पत्रमें गढविषयोंको मथकर तत्त्वका सार निकालने का प्रयत्न किया गया है। यह पत्र सम्यकदर्शनको __लेख नये कार्यक्रमों के सूचक हैं, जिनकी बाबत । दृढ करने, सम्यक्सानको बढ़ाने और सम्यक्चामुझे आशा है कि वे संसार भरके विशिष्ट जैनों द्वारा रित्रको उन्नत करनेका एक अद्वितीय साधन है।" अंगीकार किये जावेंगे । जैनधर्मके अध्ययनक मार्ग में जो असंख्य कठिनाइयाँ उपस्थित हैं, उनमें से सबसे २६ प्रोफेसर हीरालालजी एम.ए.एलएल.री. अधिक कष्टकर संस्कृत तथा प्राकृत जैनप्रन्थोके गण- अमरावतीदोष-विवेचनात्मक संस्करणों का प्रभाव और मौजदा “ 'अनेकान्त' के अब तक दो अंक प्राप्त हुए। किसी भी भाषामें उनके प्रामाणिक अनुवादीका न अवलोकन कर बड़ा मानन्द हुा । 'जैनहितैषी' होना है। विशाल क्षेत्र पर बिखरी हुई सामग्री को के बन्द हो जानसे जैन-मासिक-पत्रोंमें समाज संग्रह करने वाली डिक्शनरियाँ (शब्दकोश) और जिस कमीका अनुभव कर रहा था उसकी आपने इन्सालोपीडियाएँ (विधा-कोरा) बुरी तरहसे उप- अनकान्त-द्वारा बड़ी ही अच्छी तरहसे पूर्ति करदी युक्त होती हैं और एक 'जैनकैटेलोगस कैटेलोगोरम'को इस हेतु आपको बधाई है । मुझे पूर्ण प्राशा है फौरन पल्स है। मुझे बाशा है कि समन्तभद्राम' कि समन्तभद्राश्रमके उदाच उद्देश्योंकी पूर्तिमें यह और 'भनेकान्त' भापके पटुमेतृत्व में इसके संकलन पत्र बहुत कार्यकरहोगा। मैं वीर-सेवक-संघका कार्य को अपने हायमें लेंगे। सभासदी फार्म भर कर भेज रहा हूँ। इस संघके Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाव,वीर नि०सं०२४५६] अनेकान्त पर लोकमत सभासद होनेसे मुझे कुछ गौरवका अनुभव होता __समाजमें अनेक साहित्यविषयक पत्रिकायें निकल निकलकर मत्युवश हो चुकी हैं ऐसे ममय में आपने २७ निहालकरणजी सेठी, बी.ए., एम.एस.सी. अत्यन्त महत्वपूर्ण ‘अनेकान्त ' मासिक निकाल बनारस कर जैनसमाज पर महान उपकार किया है । जैन “यह जैनसमाज के लिये परम सौभाग्य की बात समाज श्रापको जितना धन्यवाद दे उतना कम है। है कि अब उसे आपके महत्वपूर्ण लेखोंको पढ़ने मुखपृष्ठ पर जो चित्र दिया है वह तो कमाल किया का फिर से अवसर मिलेगा। जबसे 'जैनहितैपी' है। लग्योंके महत्वको गाना सर्यको पहचान कराने बन्द हुआ था तब से इस प्रकारके ऐतिहासिक सा है।" खोजसे पूर्ण लेखोंका सर्वथा अभाव था। पत्र तो ६ मुनि श्री परमानन्द नी, शंवालपीपरी-. जैनसमाजमें बहुतसे निकलते हैं किंतु एक दो को "अनेकान्त पनाका प्रथमांक मिना ।... ..ापन छोड़ कर जो स्वतंत्रता पूर्वक दो एक विषयों पर पत्रका नाम मंग आत्माके अनुकूल ही रवाया है, कुछ लिखते हैं बानी व्यर्थही समाजका समय तदर्थ मैं आपको धन्यवाद देता हूँ। उपर्युक्त पत्र तथा द्रव्य नष्ट करते हैं। उनसे आपसका वैमनस्य निकालने की मेरी स्वयं इच्छा कुछ समय में हो रही थी; पर आपने मेरे पहिले ही यह मेरी शुभेच्छा बढ़ता है और सामाजिक उन्नतिके मार्ग में बाधा कार्यरूपमें परिणत कर दिखादी, इसके बदलमें ना होती है । मुझे अत्यन्त हर्ष है कि अब उन सबसे मैं आपको जितना आशीर्वाद , उतना थोड़ा ही भिन्न प्रकारकं पत्रका फिरसे उदय हुआ है । यद्यपि है। लेख मभी पठनीय है। आशा है आगे इनसे स्वयं मेरी रुचि ऐतिहासिक खोज की ओर नहीं है भी विशेष अच्छे पठनीय रहेंगे।" तथापि मुझे यह कहते तनिक भी संकोच नहीं ३० बाबू कीर्निप्रसादजी बी.ए., एल.एल.बी., कि यह कार्य बड़े महत्व का है। मैंने 'अनेकांत ' अधिष्ठाना श्रीमात्मानंदजैन-गुरुकुल, के दो अङ्क देखे हैं । उनके लेखांके विपयमें गनगँवाला - कुछ अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है। "दार्शनिक, मैद्धान्तिक भौर निहासिक-मब आपके जिस व्यक्तित्वसे जैनसमाज वर्षों से परिचित नरहके लाखोंस सुसज्जित 'अनेकान्त' पत्रका अवहै वही उन सबमें स्पष्ट झलक रहा है । मैं विश्वास लोकन कर मुझं विशेष प्रसन्नता हुई । मेरा विश्वास है कि इसी प्रकारकं यक्तिपूर्ण लेख जैनकरता हूँ कि यह पत्र उत्तरोत्तर उन्नत होकर जैन निद्धान्त के तत्वों का भली भान्ति प्रचार और समाजकी सेवा बराबर करता रहेगा।" प्रमार कर सकते हैं । यपि यह पत्र जैनियोंका २८ मुनि श्री पुण्यविजय जी, पाटण है, तथापि इसके लेख साफ बना रहे हैं कि यह "आपने जो पाश्रमकी योजना की है वह बहुनही मभी धर्मों के मानने वालों को लाभदायक सिद्ध होगा। मेगयही हार्दिक इच्छा है कि यह 'अनेकान्त' स्तुत्य है। उसमें मैं अपनीसम्पूर्णसहानभूति रखना पत्र अनेकान्तवादके असदापोंका समाधान हूँ। आपने जो'भनेकान्त' पत्रिका निकाली है वह करता हुमा इम पुण्यपावन स्यावाद के साविक बहुत ही अच्छा काम किया है। जिस समय जैन- अर्थक पयोधनरूप कार्यमें सफलता मात करें।" Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० . अनेकान्त [वर्ष १, किरण ३ ३१ श्री. रमणीकलालजी, शिक्षण विभाग, विश्वमें 'अनेकान्त' द्वारा अनेकान्तका प्रसार हो अ. भा. चोसंघ, साबरमती यही मेरी हार्दिक भावना है।" " 'अनेकान्त' के दो अंक मिले । श्रीसुखलाल ३५ पं० विद्यानंदजी शर्मा, उपदेशक दि जैन जीका लेख पढ़ कर आनन्द हुआ । पुरानी वस्तु महासभाआज के हिन्दुस्तान के प्रश्नों पर मदद देगी तब "मेरठ में पं० वृजवासीलालजी के पास मैंने उसमें नया प्राण संचार होगा । आपका प्रयत्न 'अनेकान्त' सर्यकी पहली किरण देखी, हृदय कसमाजको बल देगा।" मलवत प्रफुल्लित हो गया। 'सादर प्रार्थना है कि ३२ पं० शोभाचंद्रजी भारिल्ल न्यायतीर्थ, बीकानेर पत्र देखते ही 'अनेकान्त' मेरे पास भेज दीजिय।" ३६ बा शिवचरणलालजी रईस,जसवन्तनगर"अनेकान्त' के दर्शन हुए। आभारी हूँ। मुख पृष्ठका चित्र देखते ही हृदय प्रफुल्लित हो गया । "जिस समय कवर पर 'अनेकान्त' लिखा देखा दूसरा चित्रभी अत्यन्त आकर्षक और मोहक है। चित्त प्रफुल्लित हो गया और कवर खोलनेको श्रकहने की आवश्यकता नहीं कि समाज घोराति धीर हो गया। खोलते ही 'अनेकान्त' के दर्शन घोर अंधकारमें पड़ा है। उसका उद्धार अनेकान्त' किए । दर असल अब जैनसमाजके सुदिन शुरू सूर्यका उदय होनेसे ही होगा। यह पहली किरण हुए हैं, ऐसा प्रतीत हुआ है।" इस विश्वासको पुष्ट करने वाली है। मेरी हार्दिक ३७ बा - नाहरसिंहजी एम.ए.,बी.एल. वकील भावना है कि अनकान्तको संसार अपनावे और हाईकोटे, कलकत्ताउससे उसका कल्याण हो। मैं आपके सदुत्साह "अब समय परिवर्तन हुआ है और इस शांतिऔर श्रमकी प्रशंसा नहीं कर सकता।" मय कालमें भारतके सर्व सम्प्रदाय अपनी अपनी ३३ पं० मुन्नालालजी "चित्र" बीकानेर उन्नतिमें अग्रसर हो रहे हैं। ऐसे समयमें साम्प्र दायिक और अन्तर्जातीय भिन्नताको अलग रख"भनेकान्त अतिकान्त, भ्रान्तिको हरने वाला; कर पूर्णरूपमे विषयों पर स्वतंत्र विचार प्रकट सत्यशान्तिका बीज, अहो! मन-भरने वाला। करने वाले पत्रकी विशेष आवश्यकता थी। प्राशा तत्व-विवेचन, दोष-दलन नित करने वाला, है मुख्तारजी उन त्रुटियोंकी अपनी पत्रिकासे दूर अपने ढंगका अति उदार गुण रखने वाला। करेंगे। सम्पादक महोदयकी शुभेच्छा और योग्यदो किरणें ही 'कान्त'की भव्यभाव हैं भर रहीं। ताका परिचय तीर्थकरों के चिन्ह के प्रबन्ध पर 'मुख्य-तार से बज उठी, गगन मधुर हैं कर रहीं।" सम्पादकीय टिप्पणीसे ही पाठकोंको अच्छी तरह ३. पं०वी शान्तिराजजी शास्त्री, न्यायतीर्थ, उपलब्ध होगा। पत्रिकामें ऐतिहासिक और खोज काव्यतीर्थ, नागपुर की दृष्टिसे लिखे गये लेख सर्वत्र और सब समय " अनेकान्त' का सम्पादन सुन्दर हुमा । लेख में उपयोगी होंगे। पत्रिकाके विषयमें अधिक लिगवेषणापूर्ण हैं, विद्वानोंके मनन करनेकी चीज है। खना मात्र पिष्टपेषण के होगा।" Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माघ,वीर नि०सं०२४५६] अनेकान्त पर लोकमत ३८ सम्पादक 'जैनमित्र', सरत ४. सम्पादक 'जैनजगत', अजर-- __ "हम इस पत्रका हृदयसे स्वागत करते हैं। "अनेकान्तके सम्पादक जुगलकिशोरजी मुख्तार के नामसे जैनजनता काफी परिचित है। वे एक इसके मुख पत्र पर अनेकान्तका सूर्य अद्भुत छटा इतिहासज्ञ और मार्मिक समालोचक विद्वान हैं। • दिखा रहा है व भीतर श्रीमहावीर-जिनदीक्षा का भामहावारलजनदाक्षा का आपनं समन्तभद्राश्रम नामक एक संस्था की स्थारंगीन चित्र बहुत ही बढ़िया है। महावीरस्वामी पना की है। उसी का यह पत्र है । इसके दो अंक की मूर्ति यथार्थ ही दिखलाई गई है। यह चित्र हमारे सामने हैं । पत्रका शरीर भी सुन्दर और हर एक मंदिर में रखने योग्य है । सम्पादकद्वारा आत्मा भी सुन्दर है। प्रथम अंकमें 'अनेकान्त की लिखित 'भगवान महावीर और उनका समय'लेख मर्यादा' शीर्षक लेख बहुत अच्छा है । भगवान महावीर और उनका समय' शीर्षक मुख्तार साहब बहुत विद्वत्तापूर्ण व उपयोगी है। .... पं० सुख का लेख है नो लम्बा परन्तु आवश्यक है। भगवंत लालजी शास्त्रीका लेख अनेकान्तकी मर्यादा पर गणपति गोयलीय की 'नीच और अछुत' शीर्षक बहुत ही पठनीय है । इसमें दिखलाया है कि सा- कविता बहुत शिक्षाप्रद है। दूमरा अंक पहले अंक माजिक प्रश्नोंकी गाँठको भी अनेकान्तकी पद्धति से भी अधिक कामका है । इस अंकमें 'पात्रकेसरी मे खोलना उचित है । यह पत्र अपने ढंग का और विद्यानन्द''कर्नाटक जैनकवि''हमारी शिक्षा' 'जैनधर्मका प्रसार कैसे होगा' 'जाति भेद पर अपूर्व ही है। अमितिगति आचार्य' शीर्षक लेख विशेष पठनीय ३६ सम्पादक दैनिक 'अर्जुन', देहली- हैं। गायलीयजी की कविताएँ बहुत बढ़िया हैं । ""अनेकान्त'का पहला अंक हमारे सामने है। 'अनुरोध' शीर्षक कविता तो बहुत भावपूर्ण है। इसमें रवीन्द्रकी गीतांजलीका रंग है। प्रतीतगीत' जैन-दर्शनका श्राधार अनेकान्त-सिद्धान्त है उसी शीर्षक कविता भी इमी ढंग की है, 'वीर वाणी' अनेकान्त के सिद्धान्तको स्पष्ट और प्रचलित करने भी अच्छी है । ... ऐसे पत्रकी जरूरत थी इस के उद्देश्यसे इस पत्रका जन्म हुआ है । इस अंक लिये हम सहयोगीका सहर्ष स्वागत करते हैं।" की भीतर की सामग्री से पत्र होनहार जान पड़ता ४१ सम्पादक श्वेतांबरजैन, भागगहै। लेख सभी अच्छे हैं। कवितायें भी साधारणनः __इस मासिक पत्रके दो अंक हमारे सामने हैं। अच्छी हैं । साम्प्रदायिक पत्र होते हुए भी इसकी इनके सब ही लेख उपयोगी है। प्रथम अंक में पण्डित सुखलालजीका 'अनकान्तवादकी मर्यादा' भाषा शुद्ध और साहित्यिक है यह संतोपकी बात शीर्षक लेख सर्वोपरि है। श्रीयुत गोयलीयजी की है। साहित्य-प्रेमी और दर्शन-प्रेमियों के लिये यह 'नीच और अछूत' कविता बड़े मार्के की है। पत्र बड़े कामका सिद्ध हो सकता है । सम्पादक द्वितीय अंकमें 'जैनधर्म का प्रसार कैसे होगा' और पण्डित जुगलकिशोरजी मुख्तार पहलेसे साहित्य 'हमारी शिक्षा' शीर्षक लेख बहुत ही अच्छे हैं। क्षेत्रसे परिचित हैं और जैनसाहित्य संबंधी उनकी इन दो अंकोंकी सामग्री और सम्पादककेस्थान पर मुख्तार साइबका नाम देखकर विश्वास होता है खोजोंके लिये जैनसमाजमें उनका विशेष मान और कि भागे चलकर यह जैनसमाजमें एक उबकोटि स्थान है। हम उनके इस नये प्रयल पर साधुवाद का पत्र होगा । हिन्दी जानने वाले भाइयों को ग्राहक बनना चाहिये। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ काम जिल्दका-१) डाकखर्च अनेकान्त [वर्ष १, किरण ३ कविवर श्री रवींद्रनाथ अकुरकी लीजिये, शुरूसे आज तककी संपूर्ण कहानियोंका संग्रह | जल्दी छप गया! _ "गल्प-गच्छ” । मंगाइये! 'गल्पगच्छ' का पहला | के नामसे कई भागों में प्रकाशित होगा । पहला भाग गल्पगच्छ"का - भाग छपकर तैयार हो | छप कर तैयार हो गया है । द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ भाग छपकर तैयार : गया है। और पंचम आदि भाग क्रमशः प्रकाशित होंगे। गया है। मूल्य-१० श्रीरवीन्द्रनाथ ठाकुरने अपने सम्पूर्ण प्रन्थोंका हिन्दी अनुवाद | मूल्य-१० | प्रकाशित करनेका अधिकार केवल 'विशाल-भारत' को ही दिया | जिल्दकाहै, इसलिये उनकी और-और पुस्तकें भी यहींसे प्रकाशित होंगी। डाकखर्च"कुमुदिनी" उपन्यास भी शीघ्र प्रकाशित किया जायगा। पता:-"विशाल-भारत" पस्तकालय, १२० । ", अपर सरकुलर रोड, कलकत्ता । * वीरजयंती उत्सव * "जनजीवन हर सालकी तरह इस वर्ष श्रीमहावीर जयंती उत्सव जैनसमाज के सुधार तथा धर्म की उमतिमें ११, १२ और १३ अप्रैल '३० या चैत्र शुक्ला त्रयोदशी, विघ्नरूप होने पासी प्रवृतियों और उनको दूर चतुर्दशी और पूर्णिमा श्रीवीरनिर्वाण संवत् २४५६ के करने के सतर्क उपायों को निर्भयता के साथ दिनोंमें उसी समारोह और सजधजके साथ मनाया जा- प्रकाशित करने वाले गजराती-हिन्दी पाक्षिक पत्र यगा। आपसे निवेदन है कि कृपा कर उस अवसर के 'जैनजीवन' के माजही ग्राहक बनो । वार्षिक मूल्य अनुकूल अपनी कुछ रचना निम्न विषयोंमेंसे किसी एक तीन रूपये। पर भेजने का अनुग्रह करें। श्राशा तो यह है कि आप व्यवस्थापक "जैनजीवन", पना । स्वयं उस अवसर पर पधार कर और उत्सवमें शामिल होकर धर्म प्रभावना में भाग लेंगे और हमारी उत्साह संस्कृत-प्राकृत अनोखे ग्रंथ वृद्धि करेंगे, किन्तु यदि यह संभवनीय न हो तो कृपाकर प्रमाणमामाला. पृ. स. १२ E प्रमाणमीमांसा पृ. सं. १२० रु १ लिखे हुऐ शब्द अवश्य भेजें। उनकी हमें प्रतीक्षारहेगी। सचित्र तस्वार्थसूत्र सभाग्य पृ स. २४१ रु.२॥ अपने अनुग्रही लेखकों और कवियों की कृतियां स्थाबादमंजरी पृ. स. ३१२ रु. २ के उपलक्ष्य में मित्रमंडल उन्हें मानपत्र अर्पण कर स्याहादरलाकर प.सं भाग १.२-३-४ रु.॥ सम्मानित करना अपना कर्तव्य समझेगा। सूयगडं (सूत्रकृतांग) सनियुकि प.सं. १५२ रु १ कृपाकर अपनी कति ३१ मार्च'३० तक अवश्यभेजने प्राकृत व्याकरणपू.सं. २०२ का ध्यान रखें। विश्वास है कि हमें निराश न करेंगे। पप-स्थादरलाकर, औपपातिक सूत्र विषय-विश्वप्रेमी महावीर जैनवीरोंका इतिहास माईतमत-प्रभाकर कार्यालय हमारी शिक्षा पद्धति हमारे उत्थानकामार्ग भवानी पेठ, पूना ०२ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ आम् air COM F परमामगस्य वीज निषिद्ध-जात्यन्ध-सिन्धुर-विधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।। -श्रीअमृतरंद्रसरिः । समन्तभद्राश्रम, करौलबाग, देहली। फाल्गुन, संवन् १९८६ वि०, वीर-निर्वाण मं० २४५६ --- - - - - - - ... ... महापुरुष लेखक-श्री० साल पं०दरबारीलालजी] . . जो विपत्ति में धैर्य क्षमा रखते ऊँचे छन । जगत्रलोभन देख नहीं होते चंचल मन ॥ समा-भूमि में वचनकुशल हैं गौरवशाली। युद्ध-भूमि में दिखलाते वीरता निराली ।। सदाचार सन्न्याय पर मरने को तैयार है। महापुरुष वे ही यहाँ ईश्वरके अवतार हैं। १ सम्पति पाई हर्ष नहीं पर पाया मन में । भाई अगर विपत्ति क्षीणवा नहीं बदन में ।। स पायें कभी, कभी या मोदक पावें । पर पथरावें नहीं, नहीं मन में इकरावें ॥ ऐसी जिन की रीति है पुरुष सदा बन्यो । उन समानसौभाग्य बोकभी न पावे अन्य है। Devenwmrunnanverno ८ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ (१) महावीर के अनुयायी प्रियपुत्र हमारेश्वेताम्बर, ढूँढिया, दिगम्बर-पंथी सारे । स्वदेश- सन्देश [ ले० - श्रीयुक्त भगवन्त गणपति गोयलीय ] उठो सबेरा होगया, दो निद्रा को त्याग; कुक्कुट बॉंग लगा चुका, लगा बोलने काग । अँधेरा गत हुआ । (२) उदयाचल पर बाल सूर्य की लाली छाई; उषासुन्दरी हो, जगाने तुमको आई । मन्द मन्द बहने लगा, प्रातः मलय-समीर; सभी जातियाँ हैं खड़ी, उन्नति नदके तीर । लगाने डुबकियाँ ।। (३) उठो उठो, इस तरह कहाँ तक पड़े रहोगे; कुटिल कालकी कड़ी धमकियाँ अरे ! सहोगे । मेरे प्यारो ! सिंहसे, बनो न कायर स्यार; तन्द्रामय जीवन बिता, बनो न भारत-भार । शीघ्र शय्या तजो ॥ अनेकान्त (४) मात इसकी परवाह करो क्या कौन कहेगा; तथा सहायक कौन, हमारे संग रहेगा । क्या चिन्ता तुम हो वही, जिसकी शक्ति अनंत; जिसका आदि मिला नहीं, और न होगा अन्त । अटल सिद्धान्त है । [ वर्ष १, किरण ४ यद्यपि कुछ कुछ लोग, मार्ग रोकेंगे आकर; किन्तु शीघ्र ही भाग जायँगे धक्के खाकर । यदपि मिलेंगे मार्गमें, तुमको कितने शूल; पग रखते बन जायँगे वे सबके सब फूल यही धर्य है । 1 (६) युद्ध स्वार्थ अथवा असत्यसे करना होगा; जीने ही के लिये, तुम्हें अब मरना होगा । तब न मरे अब ही मरे, मरना निस्सन्देह; अब न मरे सब कुछ रहे, रहे न केवल देह । देह-ममता तजी ॥ (M) सुनो सुनो ! जो आज, कहीं साहस तुम हारे; बोगे यों नहीं लगोगे कभी किनारे । तन-मन-धन से देश-हित, करो प्रमाद विसार; सबके सँग मिलकर सहो, भूख प्यास या मार। पुनः आनन्द भी ।। (<) पिछड़ गये हो बहुत लड़ रहे हो आपस में; पकड़ पकड़ रूढियाँ, घोलते हो विष रस में । ऐसा ही करते रहे, तो विनाश है पास; बस भविष्य में देगा, तब-परिचय इतिहास । एक मृत-जाति कह ।। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फाल्गुन, वीरनि० सं० २४५६] पुरानी बातों की बाज SEXSTROFESEXKOMAL - P पुरानी बातों की खोज . . - भी हो चुका है, और इस उसकी अपेक्षा ऐसे ही महाघ एक और 'भगवती आराधना' (बहुमूल्य) बतलाया है जैसे कि दूध से निकला हुआ 'भगवती आराधना' नामका जो प्राचीन ग्रंथ जैन घी । ११ वीं शताब्दीमें इस दूसरे 'भगवती माराधना' ग्रंथकी रचना हो जाने के कारण ही पं०माशाधरजीने ममाजमें प्रसिद्ध है और जिसका परिचय 'अनेकान्त' पहले प्रन्थकी टीका लिखते हुए उसे 'मूलाराधना' की तीसरी किरणसे पाठक पढ़ रहे हैं उससे भिन्न एक नाम दिया है और अपनी टीका(विवरण)का नाम 'मूऔर भी 'भगवती आराधना' नाम का प्रन्य है । यह लाराधना-दर्पण' रकबाहै, ऐसा मालूम होता है। प्रस्तु; ग्रंथ प्राकृत भाषामें नहीं किन्तु संस्कृत भाषा में है और इस प्रन्थकी एक प्रति ऐलक पन्नालाल सरस्वतीभवन, इम समाजके प्रसिद्ध विद्वान् अमितगति प्राचार्य नेरचा बम्बई में मौजद है, जिसकी पत्र संख्या ८१ है परंतु है। ये प्राचार्य माधवसेनके शिष्य और नेमिषेणाचार्य उममें पहला पत्र नहीं है। इसी से मंगलाचरण श्रादि के प्रशिष्य हैं और इस लिये ११वीं शताब्दी के विद्वान नि का कुछ हाल मालूम नहीं हो सका । यह प्रति बहुत वही अमितगति है जो धर्मपरीक्षा, उपासकाचार, अशद्ध है और जिस ग्रंथप्रति परमं उतारी गई है, उसे मुभाषितरत्नसंदोह आदि ग्रंथों के प्रसिद्ध रचयिता हैं। वि०सं० १५६८ की लिखी हुई बतलाया है । प्रत्यके इनके रचे हुए अभी तक जितने ग्रंथ उपलब्ध हुए थे अन्तिम भागके नामादिक सचक कुछ पा इस प्रकार अथवा सुहबर पं०नाथूरामजी प्रेमी-द्वारा विद्वदलमाला हैं:में इनके और जितने प्रन्योंकी सूचना दी गई थी उन अाराधना भगवती कथिता स्वशकचा, मबसे यह एक जुश ही मन्थ है । इसे प्राचार्य महोदय चिन्तामणितिरतु बुधचिन्तितानि । ने बड़े उद्यमके साथ चार महीने में बना कर समाप्त मानहाय जन्मभलषि तरितुं तर, किया है। परंतु कौनसे संवतमें बनाकर समाप्त किया, भव्यात्मनां गुणवती ददा समापि।।१२।। यह मन्थप्रति परसे मालूम नहीं हो सका। हाँ, इतना शहर मालूम हुभा है कि इसकी रचना उन्होंने अपने पापवसेनोऽअनि मुनिनायो पहले के बने हुए किमी जिनागम पर से की है, जो सिन-माया-मदन-कदर्षः। संभवतः वही प्राचीन 'भपवती भाराधना' जान पड़ता तस्य गरिष्टो गुरुरिव शिष्यहै जो प्राकृत भाषामें निवडण्याप कर प्रकाशित स्मतविचार-परण-मनीष ।। १७॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त [ वर्षे १, किरण शिष्यस्तस्य महीयसो रचना की है। आपके अणुव्रत-गुरु वालचन्द्र मुनि, मितगतिर्मार्गप्रयालंबिनी महावत (जिनदीक्षा)-गुरु अमयचंद्र सैद्धान्तिक और मेनां कम्मषमोषिणी शाखगुरु अभयसरि तथा प्रभाचंद्र मुनि थे। अभी तक आपके बनाये हुए 'भावत्रिभंगी' (भावसंगृह) और भगवतीमारापना श्रेयते ।...१८ ।। 'प्रास्रवत्रिभंगी' नामके दो ग्रन्थोंका ही पता चला था, भाराधनषा यदकारि पूर्णा जो माणिकचंद गन्थमाला के 'भावसंगहादि' नामक मासपतुर्भिर्न तदस्ति चित्रं । ग्रन्थ नं०२० में मुद्रित हो चुके हैं हैं । इन ग्रन्थोंमें गन्ध महोयमानां जिनभोक्तिकाना की रचना का कोई समय न होने से आपका समय दूसरे विद्वानोंके समय पर से ही अनुमान किया जाता मिद्यन्ति कृस्यानि न कानि सयः।।१६। था। परंतु गत वर्ष बम्बई के उक्त सरस्वती भवनको स्फुटीकृता पूर्वजिनागमादियं देखते हुए मुझे आपका एक और गून्थ उपलब्ध हुआ मया जने यास्यति गौरवं परं । है, जिसका नाम है 'परमागमसार' । इस ग्रन्थ मे प्रकाशितं किं न विशुदबुदिना रचनाका स्पष्ट समय देते हुए लिखा है: इदि परमागमसारं महातां गच्छति दुग्धतो घृतं ।। २० ॥ सुयमुणिणा कहियमप्पवोहेण । इस प्रन्थको पुरादेखनेका मुझे अभी तक अवसर नहीं मिला । विद्वानोंको चाहिये कि वे उक्त प्राचीन सुर्दाणउणा मुनिवसहा भगवती पाराधनाके साथ इसका तुलनात्मक अध्ययन दोसचुदा सोहयंतु फुढे ॥ २२३ ॥ करें और इस बातको मालूम करके प्रकाशित करें कि सगगाले हु सहस्से इस प्रन्थमें मूलाराधना की किन किन बातों को छोड़ा विसयतिसही १२६३ गदे दु विसवरिसे । गया और किन किन बातोंमें विभिन्न मतका प्रतिपादन मग्गसिरसुद्धसत्तमि किया गया है। अथवा दोनों ग्रंथों में किस किस बात की परस्पर विशेषता है। क्या इस प्रन्यमें पहले अन्य गुरुवारे गंप संपुरणो ।। २२४ ।। का इस पल की लोकरुचिके अनुसार महज सार ही अर्थात्-अल्पज्ञानके धारक मुझ भुतमुनि ने इस खींचा गया है अथवा इसके रचे जानेका और ही. 'परमागमसार' की रचना की है, जो शाख-निपण सरा कोई हेतु है? और दोषरहित मुनिवृषभ हैं वे इसका भने प्रकार माही के मंडारमें इस गन्य की परी प्रतितो शोधन करें। यह गून्य शक संवत् १२६३ 'वृष' संववहाँ के कोई भी सजन माई यदि इस गाय के पहले सरमें मंगसिर मुदि सप्तमी गुरुवारके दिन लिख कर पत्र की नकल मेरे पास भेजेंगे तो मैं उनका मामारी पूर्ण हुभा है। हूँगा । और तुलनात्मक लेख भेजने वाले विद्वान् तो इससे भुतमुनि का सुनिक्षित अस्तित्वसमय वि० विरोष धन्यवादके पात्र होंगे। संवत् १३९८ तक पाया जाता है। इसके बाद मालूम नहीं किये और कितने समय तक जीवित रहे हैं और पन्होंने और कौन कौन से गुम्यों की रचना की है। श्रुतमुनि का निश्चित समय भवणवल्गोल के मंगराज लिखित शिलालेख नं० १०८ दक्षिण में 'तमुनि' नामके एक जैन विद्वान हो (२५८) में जिन भुतमुनि की निण्या की प्रतिष्ठा का गये, जिनोंने प्राकृत भाषामें अब जैन-गन्यों की समय शक संवत् १३५५ दियाईवे इन भूतमुनिसे मिल Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फाल्गुन, वीरनि० सं० २४५६] पुरानी बातों का खाज है क्योंकि उसमें उनके दीक्षागुरु का नाम सिद्धाः विद्भव्यः प्रसिध्येकनामा प्रत्यासम नयोगी'दिया है-अभयचंद्र नहीं । और इसलिये यह कल्पना नहीं की जा सकती-कि वह निषिद्या निष्टः निष्ठाशन्देन निवाणं चारित्रं चोच्यते - इन्हीं श्रुतमुनि की लग भग १०० वर्षके बाद प्रतिष्ठित स्यासना निष्ठो यस्यासो प्रन्यासन्ननिष्ठः हुई होगी। अस्तु। भवाग्विसर्ग....." - गन्थमें उक्त गाथाोंके बाद प्रशस्तिकी जो छह यहाँ जिन पदोंके नीचं लाइन दी गई है वे मवागाथाएँ दी हैं वे सब प्रायः वे ही हैं जो भावत्रिभंगी के सिद्धिक पद हैं और उनके आगे उनका व्यक्तीकरण अंतमें पाई जाती हैं और माणिकचंद-गन्थमाला के ग्रन्थ है। इसी तरह पर वृत्तिके खासखास पदों की व्याख्या न की भूमिकामें प्रकाशित होचकी हैं। हाँ,उनमेंसे पहले पदके व्यक्तीकरणमें जिस भव्य परुषके 'पाणिखिलन्थसत्या'नामकी गाथा यहाँ नहीं है। प्रश्नपर तत्त्वार्थसूत्रकी रचना हुई है उसका नाम दिया ___यह गन्थ १पंचास्तिकाय,२ षड्द्रव्य, ३ सपतत्त्व, स्व. गया है परंतु वह पाठकी अशुद्धि के कारण कुछ स्पष्ट ४ नवपदार्थ, ५बंध, ६ बंधकारण, ७ मोक्ष और ८ नहोसका। १३ वीं शताब्दीमें बालचंद्र मुनि-द्वारा मक्षिकारण, ऐसे आठ अधिकारों में विभक्त है और र तत्त्वार्थस्त्र की जो कनडी टीका लिखी गई है उसमें मव मिलाकर कुल २३० गाथाओं में पूरा हुआ है। उस प्रश्नकर्ता भव्यपुरुषका नाम 'सिद्धय्य' दिया है। गन्थ अच्छा है। इस भी माणिकचंद गन्थमाला को बहुत संभव है कि वही नाम यहाँ पर सूचित किया गया प्रकाशित कर देना चाहिये। हो और प्रतिलेखककी कृपासे वह प्रसिध्यंक'रूपसेरालत लिखा गया हो। यदि ऐसा है तो इस 'सिद्धय्य के प्रश्न पर प्रन्योत्पत्नि की मान्यताका पता ५ वीं शताब्दी तक 'भाचंद्र' नाम के यद्यपि, बीसियों आचार्य जैन- चल जाता है । अतः मूडबिद्री की उम प्रति परसे इस समाज में हो गये हैं * परंतु यहाँ पर वे ही प्रभाचंद्र की जाँच होनी चाहिये जिस पर से कापी होकर विवक्षित हैं जो पद्मनंदि प्राचार्यके शिष्य तथा 'प्रमेय- बम्बई के ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवनमें यह प्रथ कमलमातेड' और न्यायकुमुदचंद्र' नामक गन्धों के आया है । ग्रंथ के अंतमें 'इतिदशमोऽध्यायः समाः ' प्रसिद्ध रचयिता हैं । अभी तक इनके बनाये हुए उक्त के बाद प्रशास्तिके जो पा दिये हैं वे इस प्रकार है:दो ही गन्थों का निश्चित रूप में पता चला था किंतु डानस्वजलस्मरत्ननितरा(कर)बारिप्रवीचीचयः अब एक और प्रन्थका भी पता चला है और वह है। 'तत्वार्थवृत्तिपद' । इसमें पूज्यपादकी 'सर्वार्थसिद्धि मिदान्तादिसमम्तशासनलपि:श्रीपयनन्दिनमः । नामक वृत्तिके अप्रकटित पदोंको व्यक्त किया गया है। मरिष्यानिखिलभयोधनननं नवार्यवतः पदं इस गून्यका प्रारंभ निम्नप्रकार से होता है:- सव्यक्तं परमागमार्थविषयं जानं प्रभाचन्दनः ।।(१) "सिदं जिनेन्द्रमलमप्रतिममयोध श्रीपयनंदिमैदान्तशिष्योऽनेकगणालयः। प्रैलोक्यवंयमभिवंध गतप्रबन्ध । प्रभाचंद्रविरं जीयान पादपज्यपदे ग्नः ।। (५) दुर्वाग्दुर्मयतमःपविभेदना मुनीन्दुनंदितादिदनिनमानंदमंदिरं । तत्त्व वृत्तिपदमप्रकटं प्रात्ये ॥ मुधापारोदगिरम्मतिः काममायोदयानन ॥५३) * परिचय पाने के लिये देखो, माणिकवाद-प्रन्थमाला में इनमें पहला पद्य तो प्रमाचन्द्राचार्य-बारा रचित प्राषित समारता-कावस्की लेखकद्वारा लिखी हुई प्रस्तावना। है और वह अपने साहिल्यादि पर से प्रमेयकमलमार्तण Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ अनकान्त [वर्ष १, किरण ५ तथा न्यायकुमुरचंद्र के अन्तिम पचोंके साथ ठीक जैनसमाजमें सर्वत्र प्रचलित है और वह इस प्रकार हैतुलना किया जा सकता है। शेष दोनों पद्य दूसरे स्वार्थपत्रकार गपिच्छोपलक्षितं । विद्वान-द्वारा इस ग्रन्थ पर लिखी हुई टीका-टिप्पणी के पद्य जान पड़ते हैं। और वे संभवतः उसी विद्वानके वन्द गणेन्द्रिमंजातमुमास्वातिमुनीश्वरं ।। पद्य हैं जिसने प्रमेयकमलमार्तण्ड पर टीका लिखी है परंतु पाठकोंको यह जान कर आश्चर्य होगा कि और जिसके अन्तिम दो पद्यों पर गत किरण में पृष्ठ जैनसमाज में ऐसे भी कुछ विद्वान होगये हैं जो इस १३०के फटनोटद्वारा विचार प्रस्तुत किया जा चुका है। तत्त्वार्थसूत्र का कुन्दकुन्दाचार्यका बनाया हुआ मानन दूसरा पद्य तो यहाँ और वहाँ दोनों ही ग्रन्थों की थे। कुछ वर्षे हुए, तत्त्वार्थसूत्रकी एक श्वेताम्बर-टिप्पप्रशस्तियों में प्रायः समानरूप से पाया जाता है-सिर्फ णी को देखते हुए, सबसे पहले मुझे इसका आभास चौथे चरण में 'रत्ननन्दि' की जगह यहाँ 'पादपज्य' मिला था और तब टिप्पणीकार के उस लिखने पर कापरिवर्तन है। और यह परिवर्तन इस बात को साफ बड़ा ही आश्चर्य हुआ था। टिप्पणीके अन्तमें तत्वाबतला रहा है कि जब प्रभाचंद्र की टीका माणिक्य- र्थसूत्र के कर्तृत्वविषय में 'दुवोदापहार' नाम से कुछ नंदीके प्रन्थ पर थी तब तो प्रशस्ति लेखकन उन्हें रत्न पद्य देते हुए लिखा थाः(माणिक्य)नन्दिपदे रतः लिख दिया और जब टीका "परमेसावञ्चतुरैः कर्तव्यं शृणत वच्मिसविवेकः। पूज्यपाद के गन्थ पर देखी तब उन्हें पादपूज्यपदे रतः' शब्दो योऽस्य विधाता सदरणियो न केनापि॥४ विशेषण दे दिया है । साथ ही, इस विषय में भी कोई सन्देह नहीं रहता कि 'रत्ननन्दी' परिक्षामुख के । २ यः कुंदकुंदनामा नामांतरितो निरुज्यते कैश्चित । कुर्ता 'माणिक्यनन्दी से भिन्न कोई दूसरे विद्वान नहीं झंयोऽन्यएव सोऽस्मात्स्पष्टामास्वातिरितिविदिनान हैं-दोनों ही एक दूसरेके पर्याय नाम है । और प्रभा. टिप्पणी-“एवंचाकर्ण्य वाचको ह्यमा चंद्र नतो पृज्यपादके साक्षात् शिष्य थे और न माणि- स्वातिदिगंबरों निन्नव इति केचिन्मावदनदः क्यनन्दीके, किन्तु पयनन्दी के ही शिष्य थे। यह गन्थ बहुत छोटा है । छोटे साइजक कुल ९९ शिक्षार्थ परमेतावश्चतुरितिपयं ब्रूमहे शुद्धः पत्रों में यह समाप्तहुआ है । एक प्रौढ विद्वानकी प्राचीन सत्यः प्रथम इति यावयः कोप्यस्य अन्धम्य कति होने से अच्छा महत्व रखता है। अतः जो भाई निर्माता स तु केनापि प्रकारेण न निंदनीय एता. सर्वार्थसिद्धि को पुनः प्रकाशित कराएँ उन्हें इस ग्रंथको वचनुविधेयमिति । तर्हि कंदकुंद एवैतत्मथम भी उसके साथ में लगादेना चाहिए भषवा विद्यार्थियों. कति संशयापाहाय स्पष्ट ज्ञापयामः यः कुंदमादिके उपयोगार्य अलग ही छपाकर प्रकाशित कर देना चाहिए। कुंदनामेत्यादि भयं च परतीर्थिक कुंदकुंद इडा चार्यः पमनंदी उमास्वातिरित्यादिनामांतराणि तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता कुन्दकुन्द! कम्पयित्वा पव्यते सोऽम्मात्पकरणकर्तुरुमाम्वा सब लोग यह जानते हैं कि प्रचलित 'तरवार्थसत्र तिरित्येर प्रसिद्ध नाम्नः सकाशादन्य एव अंयः नामक मोक्षशासकर्ता 'उमास्वाति' भाचार्य है, किं पुनः पुनर्वेदयामः।" जिन्हेंब समय से दिगम्बरपरम्परा में 'उमास्वामी' इसमें अपने सम्प्रदाय वालोंको दो बातोंकी शिक्षा माम भी दिया जाता है और जिनका दूसरा नाम गात्र- -- - -- -- विच्छाचार्य है। इस भावका पोषक एक लोकभी टिप्पणी विशेष परिक्स फिर किसी समय दिया गया। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९९ फाल्गुन, वीरनि० सं० २४५६] पुरानी बातों की खोज की गई है-एक तो यह कि इस तत्वार्थसूत्रके विधाता भेतृत्व-बातृत्वादीनां सम्यगपलब्धये बंदेनतोऽवाचक उमास्वातिको कोई दिगम्बर अथवा निन्हव न। स्मि ॥ सूत्र ।। “सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि कहनं पाए, ऐसा चतुर पुरुषों को यत्न करना चाहिये। . दुसरं कुन्दकुन्द, इटाचार्य,पननंदी, और उमास्वाति ये माक्षमागेः।।"अत्र बहुवचनत्वात्समुदायार्थधानएक ही व्यक्ति के नाम कल्पित करके जो लोग इस कन्वेन त्रयाणां समुदायो मोक्षमार्गः।" अन्धका असली अथवा आगकर्ता कुंदकुन्दको बतलानं हैं वह ठीक नहीं, वह कुन्दकुन्द हमारे इस तन्वार्थसत्र- "इति तत्वार्थापिगमे मांसशास्त्र सिद्धान्त का प्रसिद्ध उमास्वाति से भिन्न ही व्यक्ति है। मत्रवृत्तौ दशमोऽध्यायः ॥ १०॥ इम पर से मुझे यह खयाल हुआ था कि शायद । पट्टावलि-वर्णित कुंदकुंदके नामों को लेकर किसी दन्त- "मूलसंघबलात्कारगणे गच्छे गिर्ग शुभे । कथा के आधार पर ही यह कल्पना की गई है। और राजेंद्रमौलि-भट्टार्कः मागत्य-पट्टराडिमां ।। इम लिये मैं उसी वक्त से इस विषय की खोज में था व्यरचीत्कुंदकुंदार्यकनसत्रार्थदीपिकाम् ॥" कि दिगम्बर-साहित्य में किमी जगह पर कुन्दकुन्दा- जहाँ तक मैंने जैनसाहित्य का अन्वेषण किया है चार्यको इस तत्त्वार्थसूत्रका कर्ता लिखा है या कि नहीं। । और तत्त्वार्थसूत्रकी बहुत सी टीकाओंको देखा है, यह खोज करने पर गत वर्ष बम्बई के ऐलक-पन्नालालमरस्वतीभवन मे 'अहन्प्रत्रवृत्ति' नामका एक ग्रंथ स्वाति'को न लिष्व कर 'कुन्दकुन्द' मुनिको लिखा है। पहला ही प्रन्थ है जिसमें तत्त्वार्थसूत्रका कर्ता उमाउपलब्ध हुआ, जो कितत्वार्थसत्र की टीका है-'सि- यह ग्रंथ कब बना अथवा राजेंद्रमौलि का अस्तित्व द्धान्तमत्रवृत्ति' भी जिसका नाम है-और जिमे 'रा- ममय क्या है, इसका अभी तक कुछ ठीक पता नहीं जन्द्रमौलि नाम के भट्टारक ने रचा है । इसमें तत्वा- चल सका-इतना नी स्पष्ट है कि आप मूलसंघ-सरधमत्र को स्पष्टतया कुंदकुंदाचार्य की कृति लिखा है । स्वतीगच्छके भट्टारक तथा सागत्य पट्टके अधीश्वर थे। जैसा कि इसके निम्न वाक्यों में प्रकट है: हाँ; उक्त श्वेताम्बर टिप्पणिकार रत्नसिंह के समयका ___ "अथ भत्सित्रवृत्तिमारभे। तत्रादो मं- विचार करते हुए, राजेंद्रमौलि भाका समयमंभवतः१४गलाद्यानि मंगलमध्यानि मंगलान्तानि च शा- वींशताब्दी या उससे कुछ पहले-पीछे जान पड़ता है। खाणि मध्यंते । तदस्माकं विघ्नघाताय अम्म मालूम नहीं भट्टारकजीनं किस आधार पर इस तस्वार्थ सूत्रको कुंदकुन्दाचार्य की कृति बतलाया है ! उपलब्ध दाचार्यों भगवान् कुन्दकुन्दमुनिः स्वेष्ट देवताग प्राचीन साहित्य परमं तो इसका कुछ भी समर्थन नहीं णोत्कर्षकीर्तनपूर्वकं तत्स्वरूपवस्तुनिर्देशान्म- होता। हो सकता है कि पट्टावली(गर्वावलि)-चणित कंच शिष्टाचारविशिष्टेष्टनीववादं सिद्धान्नी- कुन्दकुन्दकं नामोंमें * गद्धपिच्छ का नाम देख कर कृत्य सद्गुणोपलब्धिफलोपयोग्यवन्दनानकूल- और यह मालूम करके कि उमाम्वनि का दूसरा नाम व्यापारगर्भ मंगलमाचरति 'गृद्धपिच्छाचार्य' है, मापने कुंदकुंद और उमास्वाति दोनोंको एकही व्यक्ति समझ लिया हो और इसी लिये मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृतां । सातारं विश्वतस्यानां वंदे बदगुणजम्पये ।। * ततोऽभवत्पंचसुनामधामा श्रीपद्मनंदी मुनिचक्रवर्ती प्राचार्यकुन्दकुन्दाख्यो बक्रगीवो महामतिः । एतद्गुणोपसचितं समवसनावुपदिर्शन एलाबार्गे गडपिछः पयनन्दीति सन्यते ।। भगवनर्मादास्पं केवखिनं तहगुणानां नेतृत्व -मन्तिममावती। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण तत्वार्थसूत्रके कर्तृत्वरूपसे कुंदकुन्दका नाम दे दिया प्रभुदुमास्वातिमुनिः पवित्रे वंशेतदीये सकलार्थवेदी हो।यदि ऐसा है और इसी की सबसे अधिकसंभावना है, सत्रीकृतं येन जिनप्रणीतं शास्त्रार्थनातं मनिपुंगवेन नो यह स्पष्ट भूल है। दोनोंका व्यक्तित्व एक नहीं था। . उमाम्वाति कुंदकुंदके वंशमें एक जुदे ही प्राचार्य हुए समाणिसंरक्षणसावधानोषमारयोगीकिलगृद्धपक्षान हैं, और वे ही गद्धपक्षों की पीछी रखने से गपिच्छ तदाप्रभृत्येव बुधोयमाहुराचार्यशब्दोत्तरगदपिञ्छं। कहलाते थे। जैसा कि कुछ श्रवणबेलगोलके निम्न यहाँ शिलालेख नं० ४७ में कुंदकुंदका दूसरा नाम शिलालेखोसे भी पाया जाता है: 'पद्मनंदी' दिया है और इसी का उल्लेग्व दूसरे शिलाश्रीपानन्दीत्यनवयनामा बाचार्यशब्दोत्तरकोएकुन्द लेखा आदि में भी पाया जाता है। बाकी पट्टावलियां द्वितीयमासीदभिधानमयचरित्रसंजातमचारदि। (गुर्वावलियों)में जो गृद्धपिच्छ, एलाचार्य और वक्रग्रीव नाम अधिक दिये हैं उनका समर्थन अन्यत्र मे नहीं भभदुमास्वातिमुनीश्वरोऽसावाचार्यशब्दोत्तरगृद्धभमदुमास्वातिमुनाखरासासापापश दापरण होता । गद्धपिच्छ (उमास्वाति) की तरह एलाचार्य और पिकः । तदन्वये तत्सदृशोऽस्ति नान्यस्तात्कालि- वक्रमीव नामके भी दूसरे ही आचार्य हो गये हैं । और काशेषपदाथवेदी । इस लिये पट्टावली की यह कल्पना बहुत कुछ मंदिग्य वदीयवंशाकरतः प्रसिद्धादमददोषा यतिरत्नमाला। तथा आपत्ति के योग्य जान पड़ती है। मौयदन्तर्मणियन्मुनीन्द्रस्स कुण्डकुन्दोदितचंददंड: जुगलकिशोर मुख्तार संशोधन और सूचन गत माघ मास के 'अनेकान्त' पत्र में पं० जुगल विक्रमकी छठी शताब्दी के उत्तरार्ध और सातवीं शताब्दी किशोर जी का 'पुरानी बातोंकी खोज' शीर्षक लेख के पूर्वार्धके मध्यवर्ती किसीसमय रची गईहै, यह अन्य छपा है,जोध्यान देने योग्य है। उसमें से एक बातका सुनिश्रितप्रमाणोंसे सिद्ध है। इस चूर्णिमें निर्दिट सिद्धिसंशोधन करना जरूरी है। उसमें कहा गया है कि, विनिश्चय प्रकलदेवका तो हो ही नहीं सकता, क्योंकि सिद्धिविनिमयका प्रभावक प्रन्थ के रूपमें श्वेताम्बरीय वे उक्त चणिकरचयिता जिनदासगणि महत्तरके वादही साहित्य में निर्देश है और वही अन्य प्रकलंकदेव हुए हैं। अतएव चूर्णिसचित सिद्धिविनिश्चय अकलंकका नहीं । यह अन्य किसीका रचा होना चाहिये और वे भाज तक हम भी करीब २ ऐसाही समझ रहे थे। अन्य संभवतः श्वेताम्बरीय विद्वानहोंगे। इस संभावना पर भाजकल जो नये उल्लेख मिले और नया विचार के मुख्य दो कारण हैं -एक तो श्वेताम्बरीय किसी हुमा इससे उस मन्तब्यमें परिवर्तन करना पड़ता है। प्रन्थमें निन्धित दिगाम्बरीय गन्थका प्रभावकके तौर पाव यह है कि, जिस पुरातन श्वेताम्बरीय प्रन्थ में पर अन्यत्र उखान मिलना । दूसरे सन्मतितर्क जो सिद्धिविनिमयका प्रभावक रूपसे उखा है, वह अन्य श्वेताम्बरीय प्रतिष्ठित ग्रन्थ है उसके साथ और उसमें श्वेताम्बरों का निशीषणि' नामक है। यह चर्णि पहले सिद्धिविनिमयका उलेख होना। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संशोधन और फाल्गुन, बीरनि सं२४५६ ] इसमें शक नहीं कि एक नामके अनेक ग्रन्थ अनेक विद्वानोंके द्वारा रचे जाते थे। कुछ बौद्ध साहित्य देवने से यह पुष्ट कल्पना होती है कि सिद्धिविनिश्चय, न्यायविनिश्चय आदि नाम बौद्ध-साहित्य में से ही जैन विद्वानों के द्वारा लिये गये हैं। आश्चर्य नहीं कि पहले सिद्धिविनिश्चय न्थ किसी श्वेताम्बर विद्वान् ने रचा होगा जो सिद्धसेनकृत सन्मतितर्क से कुछ पुराना अवश्य होगा । इसके बाद अकलंकदेवने भी सिद्धिविनिश्चय रचा हो । हाँ, सिद्धिविनिश्चयटीका की जो लिखितप्रति पुरातत्त्रमंदिर में मौजूद है उसका विशेष अंतरंग परीक्षण अब करना होगा और उससे यह मालूम करना होगा कि क्या वह सिद्धिविनिश्चय वस्तुतः चूरिए निर्दिष्ट है या अकलंकदेव-विरचित है ? अथवा चूर्रिर्दिष्ट एक ही सिद्धिविनिश्चय पर अकलंकदेव की कोई छोटी भाष्यवृत्ति है, जिस पर अनन्तवीर्यकी यह लंबी टीका है । * अनन्तवीर्य आचार्यकी टीका जिस सिद्धिविनिव्क्य' ग्रन्थ पर है वह अकलंकदेव का मूल ग्रन्थहै, यह बात टीका के निम्न प्रारंभिक प से स्पष्ट जानी जाती है: कलंक जिनं भक्त्या गुरुं देवीं सरस्वतीं । नवा टीका प्रवक्ष्यामि श्रद्धां सिद्धिवनिश्चये ॥ १ ॥ कलंकवचः काले कलौ न कलयापि यत । नुष लभ्यं कचिलध्वा तत्रैवास्तुमतिर्मम ॥ २ ॥ देवस्थाननावीर्योऽपि पदं व्यक्तुं तु सर्वतः । न जानीते ऽकलंकस्य चित्रमेतत्परं भुवि ॥ ३ ॥ कलंकवचोऽम्भोधेः सूक्तरत्नानि यद्यपि । गृह्यन्ते बहुभिः स्वैरं सद्रत्नाकर एव सः || ४ || सर्व धर्म [य] नैरात्म्यं कथयन्नपि सर्वथा । धर्मकीर्तिः पदं गच्छेदालंकं कथं ननु ॥ ५ ॥ यहां, टीकाकारने पहले पद्यमें अकलड़देव का खास तौर में नमस्कार किया है और जिस ग्रंथ को टीका लिखने की प्रतिज्ञा की है उसका नाम 'सिद्धिविनिधय' दिया है कि कोई भाष्यति । दूसरे पथमें काइदेवके वचनों का दुर्ल मपना प्रकट किया है और सूचन २०१ पंडितजीके उक्तखोज-विषयक लेखमें कहा गया है. कि 'किसी सेठ ने सन्मतितर्कके उद्धार्थ २५ या ३० हजार जितनी बड़ी रकम गुजरात - पुरात्वमंदिर को दी थी, ऐसा सुना गया है' परन्तु ऐसी बात नहीं है । सन्मतितर्कका सब खर्च गुजरातविद्यापीठने किया है और कर रहा है। अलबत्ता इस कार्य में बाहर से अनेक प्रकार की मदद जरूर मिली है, अब भी मिलती है । अनेक विद्वान सहृदय मुनियोंने इस कार्यके लिए ग्रन्थोंकी, बुद्धिकी, शरीरकी और थोड़ी बहुत धनकी भी मदद की है. तथा कराई है । अनेक साहित्यप्रेमी गृहस्थोंने भी वैसी ही मदद बड़े भाव से की है, जिसका सूचन उस उस भाग के प्रारम्भमें छप चुका है। दिगम्बर संप्रदाय में विद्वानोंकी संख्या बढ़ी है, वह काम भी चाहती है । पुरातन महत्वपूर्ण साहित्य दिगम्बर-परम्परामें कम नहीं है। पंडितगण निरर्थक विक्षेपको छोड़ विद्याका कार्य लेलं तां धन और शक्ति नाशमार्ग में न लगकर पवित्र काम में लगे । ना०४०-२-३० ] सुखलाल तथा बेचरदास उसके प्रति अपनी असाधारण वा व्यक्त की है। तीममें इस बात पर व प्रकट किया है कि अनन्तवीर्य होकर भी में एकलदेव शास्त्र को पूरी तौरसे व्यक्त करना नहीं जानता है। बौधे में कलदेव वचन समुद्रसे बहुतोने सुफ रम महगा किये हैं और मह वास्तवमें साकर है, ऐसा प्रकट किया है। और पांचवें पथमें यह बढ़ा गया है कि सर्वथा सर्वधर्म के नैरात्म्य का कथन करने वाला धर्मकीर्ति (बौ जो कि कवके समकालीन था ) भकलइदेवके पद का कैसे पहुँच सकता है ? उम्र सब कथन पर से इस विषय में कोई संदेह नहीं रहता कि मूल 'सिद्धिविनयय' ग्रंथ महदेव का बनाया हुआ है। हो सकता है कि निगीप-िवागत 'मिदिविनिय' कोई दूसरा भी हो, बशर्त कि चूर्णिके निर्माण का जो समय अनुमान किया गया है वह ठीकहो और चूर्णिमें वह उसा कोई क्षेपक न हो---' जीतकल्प' की टीका परसे ही किमीके द्वारा उन किया गया हो । -सम्पादक Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [बर्व १, किरण ४ MNNNN विद्युच्चर ले-श्री जैनेन्द्रकुमारजी (११) प्राप्तिको रास्ते में ही छोड़ कर वह क्यों अपनी चेष्टाएँ पन कुमारके बराबर ही पलंग पर बैठी है। वह अप्राप्य और दुष्प्राप्य पर ही गाड़ता है ? चेष्टाएँ जब अपनी योग्यतामें संदेह नहीं करती । विनय और कनक व्यर्थ होती हैं, तभी वह क्यों सचेष्ट होता है ? या ने चरणों के पास बैठ कर ही अपना स्थान अधिकृत चेष्टाको व्यर्थ करने के लिये ही सचेष्टता की आवश्यकरना उचित समझा है। और रूप, विनय और कनक कता है ? के बीच में, मठ मूंठ अपना मुँह छिपा कर, ऐसी सि- पर रूप अपने आवेष्टन के भीतर यों ही बंद मटती-हुई बैठी है कि मानों पाधी विनय और आधी रहेगी । प्यास को उकसा कर खुद लुक रहना, इस कनक में बॅट कर, लुप्त हो रहना चाहती है। तरह उत्सुकता को उत्सुक रखना और खिमात रखना. सब स्तब्धता है। समय भी, जाते-जाते, मानों विधाता जिसको रूप देता है उसको यह स्वभाव भी उत्सुक, अवसम इनकी बातचीत सुनने की प्रतीक्षा में क्यों देता है-कुमार खिझ-खिझ कर यह सोचते हैं। हर गया है। -कैसी जगत से चारों ओर से प्रावरण कस कर बालाओं को बोल सूझता नहीं; और कुमार रूप लपेट है कि उँगली के नख का आभास भी तो नहीं पर विस्मिन हो रहे हैं। कैसी बहर यह रूप मिल सकता। -वह उंगली का नव-नन्हा-नन्हा, जब दखना और दीखना चाहिये तभी मुँह दुबकाती गुलाबी सा-कैमा होगा? है ! देखती नहीं तो अपने को तो दीखने दे, अपने को इधर रूप का दुबकना निरपेक्ष है, यह हम नहीं तो दिखाये ! पर वह इन सब मोहनीय व्यापारों से, मानेंगे । वह तो कुमार के लिये ही यों दुबक रही है. अपने अल्हड़पन में, विमुख होकर बैठ रही है ! - उतनी कुमार से लुकने के लिये शायद नहीं । कोई कुमार रूप के इस रूप पर विमुग्ध और मानों लुब्ध उसके भीतर से कह रहा है-कुमार की दृष्टि उसी के है। बिमोह और लोम से छुट्टी पायें तब तो कुछ कह सिर पर पड़ी भोनी के सिरे के चारों ओर मडरा रही पायें । उनकी दृष्टि शेष सब भार से हठात् फिसला है, कि कैसे भी भीतर पाने का कहीं मौका मिल जाय । फिसल कर, भवगंठनाबस उसी मुख की भोर जाती है इसी विश्वास में रस है, और रूप उसी रस को यों जो अपने को प्राणपण से उस दृष्टिसे मोमल रखना दुबकी-दुबकी चूस रही है। वह भीतर-ही-भीतर बड़ी चाहता है । पय, विनय और कनक जो भामंत्रण मगन है। उसका सारा मन जैसे कुमार के मन के देती हुई, भोज्य से सजा कर अपना थाल लिये खड़ी भीतर पैठ रहा है और कुमार के मन की खिजलाहट है, जो थाल सामने ही, प्रणय से अभिषिक्त और और उत्कंठा को पाकर उसके साथ खेलने, उसे खिभाकाँचासे उदीप्त होते हुए, बघरे हैं जो बस यह झाने और रिझाने, में आनंद ले रहा है। दुनिया का जोहरो किकबवेस्सीकत और धन्य हों.- मल्य पाकर भी बह घंघट नहीं उपाडेगी, ती. उघड्ने पर कुमार की दृष्टि उन पर पड़ती है, पर हट-इट कर, मानन्द बिखर जायगा । वह अपने परिवेष्टन से परिइस रूपके अवगुंडन का पार पाने की हा करने के बड करके उसे संचय करने में लगी है। लिये भागती है। पर देखें वो कुमार कैसे हैं १-यो वो लुकी-छिपी यह मनुष्य का स्वभाव कैसा है ? सहज-प्राप्य की नपरखे एकसे अधिक पारकम-क्यादा उन्हें देख चुकी Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फालान, वीरनि०स०२४५६ । विद्युबर है, पर अब कैसे लग रहे हैं, यह भी जरा देख लेना तीनों क्यों कर यह काम कर सकती हैं। ऐमी ही मब चाहिये। __ आपत्तियों को स्त्री-भाषा में पेश किया गया। जहाँ-तहाँ से, यत्नपूर्वक, जो श्रोनी में सिकुड़ने लकिन कुमार को भी क्या मझा हैपड़ने लगी, और किसी विशिष्ट बिन्दु पर अवकाश छूटने लगा कि... फिर वह श्रोन्नी झटपट तान ली "कुछ कहो, कुछ हर्ज तो मुझे दीखता नहीं।" गई, और वस्त्रावृत मुख झुमक कर नीचे हो गया.. तब कुमार को यह मान लेने को कहा गया कि ___ चौकसी देती हुई कुमार की दृष्टिने यह देखा- रूप का स्वभाव ही ऐमा है, और उस पर कुमार क्यों बोले-'हाँ, हाँ, इसमें क्या हर्ज है ?' व्यर्थ ममय खोयें। किंतु रूप के लिये तो बहुत बडा हर्ज है। वह कैसे "लेकिन मैं तो चारों से बात करना चाहता है।" कपड़ा हटादे ?-फिर तो उसके गड़ने के लिये सामान तीनों की प्रतिनिधि होकर पद्य ने ही उना हो जायगा । रूप, इसलिये, और कपड़े को चिपटाकर दियाऔर शरीर को सिमटा कर बैठ गई। "चौथी का जिम्मा हम पर क्यों पड़ ?" पद्म बोली-रूपश्री, ये क्या करती हो ? शऊर "जब मुझे केवल तीनसं कुछ कहना ही न होतो?' भी नहीं है । और मबकी तरह से ठीक से क्यों नहीं "तो मनाओ उसे । हमें क्यों बैठाल रक्खा है।" बैठती।' इसी तरह की कुछ बातें विनय और कनक के मन "लेकिन तुमसे उतना ही कहना है जितना उससे।" मे से निकलीं । मनसे निकलीं, मुंह में रह गई । मुंह से "पर उसे सुनना भी हो । यों तो बैठी है, और निकली नहीं तो मुंह की भंगीको जरा खट्रा बनाई। तुम उसके पीछे ही पड़े जाते हो। कहते हैं,छोड़ो उसे, कुमार ने कहा-'यह रूप तुम्हारी सहेली, तुम २. वह आप सुनेगी। पर नहीं,...सुनाना तो उसे है, हमें क्या।... हम क्या ..." "३" मबम अलग है। मालूम होता है रूठी है । क्यों ? ___ तीनों को इस निर्मूल आक्षेप का प्रतिवाद करने ___ और वाक्य को यों बीच में तोड़ कर शेष बात दृष्टि से और भंगी मे और पैना कर कही गई और की जल्दी हो आई । तीनों ने जो कहा, तीखापन नष्ट कुछ-कुछ... करके, उसका भाव यह है- 'रूठने की कोई बात भी?' इस तरह वातावरण में आर्द्रता-सी ले पाई गई। कुमार-बिना बात के ही रूठना सही। पर अब पर कुमार के सामने एक ही बिंदु है। कहामना तोलो। 'नहीं-नहीं। यों कैसे बैठेगी? योंही बैठे रहने मे तो __जब रूलना ही संदिग्ध है, तब मनाने का निश्चय काम चलेगा नहीं।' और स्नेह में थोड़ी हुक्म की क्यों किया जाय । इस अनावश्यक कार्य के लिये वे ध्वनि भर कर कहा-'कप!-देखो।' तीनों तैयार न थीं। रूप, देखने के बजाय देखने को और असंभव ब. कुमार-मनाने में क्या हर्ज है। फिर वह तो छोटी नाकर, मकुच गई। है। छोटे, न स्लें तो भी, मनन के लिये यों बन कुमार ने तब औरोंसे कहा-'तो तुम लोग मष. जाते हैं। ...सो, मना न लो उसे। मुच सहायता नहीं करोगी?' फिर वही बात ! यह कार्य नितांत अनावश्यक पग उचर में बाली-'तुम बहुत उस रूप से है। और अप्रिय है। और जब कुमार इसके लिये भा- बोलना चाहते हो तो बोल क्यों नहीं लेते। ...हामाह करते हैं, वब तो अप्रियता कटु हो जाती है। वे बो...।' Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनकान्त [वर्ष १, किरण ४ इस संक्षिप्त 'हॉ-तो' में पचने नजानेक्या क्याभर झमट अंतिम सत्य (absolute fact) के बाद नहीं दिया। अवज्ञा भी, उत्कंठा भी। भर्सनाभी, चाहनाभी। चलना चाहिये। लेकिन कुमार उस तारेसे खिंच रहे हैं, जो अपनी रूप जब तक दूर है, जब तक झिलमिला होकर, चमक को मिलमिली, अंधेरे-की-परत में से मंका दि- छिपकर, लककर, लजा कर, पूर्ण रूपसे अपने श्राखा कर, और भी चमकीला बना कर, गप चुप, मानों पको सामने प्रत्यक्ष नहीं होने देता, तब तक उसका हँस रहा है। कहा आकर्षण अनिवार्य है। चूंघट में बंद रूप की ओर . 'तो फिर अपनी सहायता मुझे आप करनी होगी।' कुमार की दृष्टि हठात्न पहुँचे,यहवैज्ञानिक संभावना भोर कह कर पलंग से उतर आये, तनिक बदके दोनों (physical imposibility) है । तब तक चैन नहीं हाथों से रूप की श्री को निरावत कर दिया। मिलता, क्यों कि सम्पूर्ण-ज्ञान और सम्पूर्ण-अनुभूति रूपकी वह अरुण श्री कॉपती, सहमती, मानों उस में ही चैन है। असम्पर्णता में चैन का अभाव है।' खुले मुख पर कोई अोट की जगह पाने के लिये चकर निश्चयरूप में कहना कठिन है कि उन कन्याओं में खाती घूमने लगी। कपोल सिंदूरिया हुए, फिर लाली रू मने लगी। कपोल सिंदरिया ए. फिर लाली रूपश्री, पद्य, विनय और कनकादिसे संदर थी। ओठों पर दौड़ाई, पलकों ने तारों को कसकर मीच विशेष कर पद्मश्रादि सौंदर्य को परिस्कृत और परिलिपा, बदन पर पुलक और रोमाँच प्रगट हो पाया । सजित करके प्रस्तुत थीं । किंतु रूप के संबंध में श्र... आह, मोह, नहीं...,-मानों यही कहती हुई वह प्राप्य के आकर्षण ने जो रूपश्री के सौंदर्यको लावरूपश्री गड़ कर खत्म हो जाना चाहती है। एय और स्पृहणीयता प्रदान कर दई, उसी ने स्वामी के अंतर को कुरेदने में सफलता पाई। दीक्षा ले जाने को उद्यत कुमार को इतने पापह- और यदि रूप का घूघट न खल पाता तो कुमार पर्वक रूप को स्पष्ट देखने का लोभ क्यों हमा? की दीक्षा का निश्चय कहाँ तक ठरता, कहना कठिन है। अंधे होने से पहले किसी उन्मत्त को भरी-दुपहरी और यदि कुमार उस रूपकी वखावत श्री की और के सूरज की ज्योति देखने का लालच क्यों होता है? इतनी विवशता और प्रगल्भता से आकृष्ट न होते, तो जब बॉखें अंधी हो जायेंगी तो सर्य-रश्मि से फिर सं- उन्हें, इतनी उच्छृखलता और लालच से उसका चूंघट पंप ही उसका क्या रहेगा, फिर भी दिव्य-प्रकाश के खोलने का अवसर आता या नहीं, इसमें संदेह है। प्रति बॉखों का मोह क्यों है ? चाहे भाँखें फोही योन, फिर भी क्यों चाह होती है कि फूटने से पहले बीच थोथरी हो गई, कुमार ने कहा । चूंघट खुलने पर भरपुर देखा, चाह की धार इस एकपार बहुत-से प्रकाशको खींच कर भीतर संचित कर लिया जाय १ जिससे संबंघटना है और तोड़ना 'रूप, इसी को तुम छिपाती थीं ? छिपाने की क्या बात है ? यह तो प्रदर्शन के योग्य वस्तु हो सकती है। है, उसी को इतने निकट लाकर, स्पष्ट, प्रत्यक्ष देखनेकी या तुमने समझा, इसके प्रदर्शन का यही तरीका है । ममता क्यों? इस शाश्वत क्यों का उत्तर हम क्या हैं और जैसे सहसा खुल कर रल सामने नहीं पाते,-प्रदर्शकोईक्या लेकिन निकट लाये बिना स्पष्ट दीखता नियों में उनके मखमल के बक्स ही सजा कर रक्खे जिनको रल मिलते हैं. वे क्या उन्हें नहीं, स्पष्ट देखे बिना सांत्वना नहीं मिलती, भवबोध , मखमल में ढके रके देख कर हो संतुष्ट हो लें ?- सो नहीं प्राप्त होता, अवधि के बिना फिर अपना और , उसका अंतर ठीक-ठीक नहीं जान पड़ता-इसी प्रकार तुम नाराज तो नहीं होन। ...अच्छा सुनो। " की श्रृंखला के जरिये दूर करने के लिये पास लाने की पंपट के पट खोल री, सोहि राम मिलेंगे। कबीर भावश्यकता हो जाती है। बससे जाती है क्यों' का (क्रमशः) X X X x Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनों की महिमा फाल्गुन, वीरनि० सं०२४५६] बाई जैनों की अहिंसा (ले०-श्री० व्याख्यानवाचस्पति पं० देवकीनंदनजी. सिद्धान्तशास्त्री हात्मा गान्धीने जबसे देशो- सद्गण, और 'व्यपरोपण' शब्द का अर्थ घात है। द्वारके लिये बिगुल बजाया अर्थात् क्रोधादि विकारोंके योगसे आत्माके विवेकादि है और उसका साधन अहिं- गुणों का जो घात होता है उसे हिंसा कहते हैं । हिंसा साको बताया है, तबसे भारत के द्रव्य और भाव के भेद से 'द्रव्यहिमा' और 'भाव. का लोकमत हिंसा-अहिंसा हिंसा' ऐसे दो भेद हैं, और ये भी फिर स्व-पर के के स्वरूप समझने में सजग भेदसे दो दो भेदरूप हो जाते हैं। इनमें मे भावहिंसा हो रहा है । और उसकी की साधक बाह्य क्रियाओंको अथवा द्रव्यप्राणोंके पात उपयोगिता-अनुपयोगिताके विषय में उहापोह करने को 'द्रव्य-हिंसा' और उसके निमित्तादि से रागादिक लगा है । जैनधर्मानुसार अहिंसा तत्त्वका स्वास महत्व भावों की उत्पत्ति होकर जो भावप्राणों का पात होता है-वह उसका एक उत्तम सिद्धान्त है । जब उसकी है उसे 'भावहिंसा' कहते हैं । वास्तव में यह भावहिंसा सम्यक् आराधनासे प्रात्मा परमात्मा हो सकता है- ही हिंसा है, बिना भावहिंसा के कोरी द्रव्यहिंसा हिंसा कर्मबन्धन से छूट सकता है-तब अन्य राष्ट्रीय नहीं कही जाती है। प्रस्तु, इम हिंसा न होनेका पारतंत्र्य से छूटना कौन बड़ी बात है ? वह तो ही नाम अहिंसा है । यह महिमा श्रावक और यतियों अहिंसाकी सम्यगाराधना के द्वारा सहज माध्य है। भेद में दो प्रकार की है । गष्ट्रोद्वारका मुख्य मंबंध अनः अाज जैनदृष्टि से अहिंसाविषयमें ही कुछ विचार गहाथाश्रममं होने के कारण इम लेम्बमें श्रावको अधना प्रस्तुत किया जाता है। हस्थधर्म के अनुयायी जैनांकी अहिमा परी विचार प्रमादके योगर्म प्राणोंके व्यपरोपणका हिंसा कहने किया जाना है। हैं * । 'प्रमाद' शब्दका अर्थ काम-क्रोधादिक विकार, - "अप्रादुर्भावः खल रागादीनां भवत्यहिंमति । 'प्राण' शब्दका अर्थ मात्माके स्वाभाविक विवेक आदि पामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमभ्य मलेपः ।।४।। युक्ताचरणस्य सतो रागापाशमन्नरंगणापि । * "प्रमत्तयोगात् प्राणन्यपरोपणं हिंसा।" नहि भवनि जातु हिंमा प्रागणव्यपगपरमादेव ।।४।। --पुश्वामिन्युपाय। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष१, किरण ४ गृहस्थाश्रम में दो प्रकार की हिंसा हो सकती है के कारण पापी होता है और दूसरा अन्य जीवों का एक पारम्भजा और दूसरी अनारम्भजा । श्रारंभजा घात करते हुए भी हिंसा परिणाम की मुख्यता न होने हिंसा कूटना, पीसना, रसोई आदि गृहिकमों के अनु- से पापका भागी नहीं होता-अथवा हिंसक नहीं कहष्ठान तथा भाजीविका के उपार्जन आदिसे सम्बन्ध लाता; जैसे धीवर और किसान । धीवर जिस समय रखती है, और अनारम्भजा हिंसा गृहस्थों के योग्य जाल हाथ में लेकर मछलियाँ पकड़ने के लिये जाना प्रारम्भ को छोड़ कर शेष मन-वचन-कायके संकल्प- है उस समय बाह्यमें हिंसा न करते हुए भी हिंसापरिद्वारा होनेवाले त्रस-जीवोंके घातको अपना विषय करती णामकी मुख्यताके कारण वह हिंसक है और किसान है । और इम दूसरी हिंसाको संकल्पी हिंसा भी खेतको जोतने तथा खेती-संबंधी अन्य प्रारंभों के कहते हैं। __ करने में प्रचुर जीव घात करते हुए भी उन जीवोके बारम्भजा हिंसा का त्यागना गृहस्थ-जीवन की घात का मुख्याभिप्राय न रखने से अहिंसक है ।' इसी दृष्टि से अशक्य है। इसी लिये, वैसा जीवन व्यतीत से गृहस्थों के लिये जीवनोपायके रूपमें कृष्यादि को करते हुए, गृहस्थाश्रममें उसके त्यागका आम तौर पर के अनुष्ठानका विधान है । युगकी आदि में खुद भगविधान नहीं है ।। बल्कि एक जगह तो गृहस्थधर्मका वान् ऋषभदेवने प्रजाजनों को उसकी शिक्षा दी है; वर्णन करते हुए यहाँ तक लिखा है कि- जैसा कि स्वामी समन्तभद्र के निम्न वाक्य से भी सा क्रिया कापि नास्तीह यस्याहिंसान विद्यते । प्रकट है :पिशिष्येते परंभावावत्र मुख्यानुषतिको । " प्रजापतियः प्रथमं जिजीविषः मनमपि भवेत्पापी निघ्नन्नपि न पापभाक् । शशास कृष्यादिषु कर्ममु प्रजाः । अभिध्यानविशेषेण यथा धीवरकर्षको । -स्वयंभस्तोत्र । -यशस्तिलक, उ० पृ० ३३५ गृहस्थों की आजीविका छह प्रकार की है, जिअर्थात्-'ऐसी कोई भी क्रिया नहीं है जिसमें हिंसा नमेंसे असिवृत्ति भी गृहस्थ की एक भाजीविका है. न होती हो; परन्तु यहाँ पर मुख्य और मानषंगिक और उसका प्रधान लक्ष्य है सेवा ।। इसी से उसके भावों की विशेषता से विशेष है ( उसी के आधार पर करते समय जो शख उठायेजाते हैं अथवा स्वाभिमान हिंसा-अहिंसाकी व्यवस्था की जाती है)। एक मनुष्य की रक्षा के लिये प्रयत्न किये जाते हैं वे सब अपने दूसरे प्राणीका पात न करते हुए भी हिंसापरिणाम तथा अन्य दीन-दुर्बलोंके प्रति होने वाले अन्याय+ "हिंसा द्वेषा प्रोक्ताऽऽरंभानारंभजवतो दः। - असिमषिः कृषिविद्या वाणिज्यं शिल्पमेव च । गृहवासतो निवृत्तोऽपि त्रायते सांय कर्माणीमानि पोटा स्युः प्रजाजीवनहेतवे ।। गहवाससेवनरतो मन्दकपायप्रतितारम्भः । -प्राषिपुरावे, जिनसेनः । प्रारम्भजा स हिंसांशक्नोतिनरषितुं नियमात्॥ + "तत्रासिकर्म सेवाओं -आमकाबारे, अमितगतिः। -मारिसराडे, जिनसेनः। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनों की अहिंसा फाल्गुन, वीर नि० सं० २४५६] अत्याचार के परिमार्जन के लिये ही होते हैं। इसलिये उचित कोटि के अन्तर्गत होने से उन्हें गृहस्थाश्रम में अत्याज्य बतलाया है। उनसे मानसिक विकार - परम्परा का एक प्रकारसे प्रभाव होता है, आत्मिक विकासको अवसर तथा उत्तेजन मिलता है और आदर्श पुरुषत्व का आविर्भाव होता है। ऐसे ही पुरुषत्व से विशिष्ट अन्याय-प्रतिशोधक वीरोंकी छत्र छायाका लोग आश्रय लते हैं और उनके अनुयायी बनकर एक ऐसे बलवान समुदायकी सृष्टि कर डालते हैं जिसके द्वारा दुर्बलों को बल प्राप्त होकर अविवेक तथा अन्याय पूर्ण कृतियों का सत्यानाश होता है अथवा अन्याय- परम्पराका उच्छेद होता है । ऐसे ही पुरुषों का पुरुषत्व दीन-दुर्बलों के भयभीत अन्तःकरण में होने वाली क्लेश-परम्परा का उद्धार करता है, इसीसे उसको दयाभाव कहा गया है । सारांश, गृहस्थाश्रम में वीरों की इस न्यायानरूप प्रवृत्तिको उचित और व्यापक दयाका श्रासन प्राप है । जो इस भावकी रक्षा न करते हुए वैयक्तिक दया का स्वांग करते हैं वे गृहस्थ 'वास्तव में दयालु -पद के अधिकारी नही हैं। दया की समीचीन मर्यादा को ठीक न समझने के कारण ही पृथ्वीराजने महोम्मद गौरी को छोड़कर निःसन्देह वैयक्तिक दया का दुरूपयोग किया था और उससे राष्ट्र की भयंकर हानि पहुँची है। यः शखवृतिः समरे रिपुः स्यात् यः कण्टको वा निजमंडलस्य । अस्राणि तत्रैव नृपाः चिपन्ति न दीन - कानीन - शुभाशयेषु ॥ * "दीनाभ्युद्धरणे बुद्धिः कारुण्यं करुणात्मनाम् । -क्शस्तिलके, सोमदेवः । — यशस्तिलक उ० पृ० ९६ २०७ इसमें बतलाया है कि - 'जो रणाङ्गण में युद्ध करने को सन्मुख हों अथवा अपने देशके कंटक - उसकी उन्नतिमें बाधक - - हों क्षत्रिय वीर उन्हीं के ऊपर शस्त्र उठाते हैं - दीन, हीन और साधू आशय वालोंके प्रति नहीं ।' इससे यह साफ़ ध्वनित होता है कि दीन, हीन तथा शुभाशय वालों पर शस्त्र उठाना जैसे अन्याय एवं हिंसा है वैसे ही अपने देशके कंटकों (शत्रुओं पर उसका न उठाना भी अन्याय और हिंसा है। अन्याय का सदा ही प्रतिरोध होना चाहिये, प्रतिरोध न होनेसे अन्याय बढ़ जाता है और उसके कारण धर्म-कर्म के अनुष्ठानकी सारी व्यवस्था बिगड़ जाती है अथवा उसके आचरण में बाधा उपस्थित होती है । श्रतः किमी भी प्रकार की श्राजीवका के करते समय न्यायमार्गका कभी भी उल्लंघन नहीं करना चाहिये । इस विषय में सोमदेवाचार्यका निम्न वाक्य भी करते समय, जिसमें कि गृहस्थोंके उपयोगका बहुभाग ग्वाम नौरसे ध्यान में रखने योग्य है लगा रहता है, जिन व्यक्तियों का चित उचित धनुचित का खयाल नहीं रखता उनका चित्त स्वच्छ तथा पं० श्रशाधरजी ने गृहस्थ-धर्मकी पात्रता के लिए जिन गुणों का होना आवश्यक बतलाया है उनमें भी न्यायपूर्वक आजीविका को प्रथम स्थान दिया है । और यह ठीक ही है; क्योंकि आजीविकाके उपार्जन * न्यायोपासनाः गजन् गुधगुरून्सीसिवर्ग भजअन्योन्यामुपहिचीस्थानालयो ड्रीमयः 1 युक्तद्वारविहार धार्यसमितिः प्राज्ञः कृतज्ञो क्शी मन् धर्मविधि क्यारभीः सागारधर्म चेत् ॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्न [वर्ष १, किरण ४ विवेकवान नहीं रह सकता, और जब चिन विवेक से कि विवेक-शून्य होकर दुर्बलों पर अत्याचार करना रहित होता है तब फिर यह कैसे धर्मध्यान का अधि- जैसे हिंसा है वैसे ही लौकिक स्वार्थवश स्वाभिमानको कारी हो सकता है ? अतः आजीविका की प्राप्ति में ग्योकर दूसरों के अत्याचार सहना भी हिंसा है । क्यान्यायमार्ग का ध्यान रखना पहला कर्तव्य है। सब कि जिस प्रकार अन्याय करते समय क्रोधादि विकारों आजीविकाओं में क्षत्रियवृत्ति ( असिकर्म) को प्रथम के आवेश में आत्माकी कोमलता तथा सदसद्विवेकस्थान दिया है, वह दुर्बलोंके ऊपर होने वाले अन्यायों बुद्धि आदि उत्तम गुणों का घात होता है उसी प्रकार की रक्षाका माधन है, इसीलिये उपादेय है।जो विवेक- अत्याचार सहन में भी स्वाभिमान का लोप होकर श्रापूर्वक उसका आचरण करते हैं वे जग को अभयदान त्मबल के तिरस्कार तथा भयके संचार और कायरता के दाता हैं, दुर्बलों के आत्मविकास और उत्थान के आदि के प्रादुर्भाव के कारण सदसद्विवेकबुद्धि श्रादि साधक हैं। अत एव उनकी वह क्षत्रियवृत्ति अहिंसा आत्मा के सद्गुणोंका घात हो जाता है । इस लिये को पोषक ही है-घातक नहीं। घातक तो वह तब हो गृहस्थोके इस अत्याचारसहन को भी हिंसा ही कहते जाती है जब कि उनके मदोन्मत्त होने पर उनकी हैं। और इस कहने में तो कुछ भी आपत्ति मालम अनुचित अधिकार-लोलुपता, मनोविनोद के लिए मा- नहीं होती कि अहिंसक पुरुषमें ही वास्तविक पुरुषत्व खेट खेलना, दुर्बलों का सताना और अपने कर्तव्यमें प्रकट हो सकता है-हिंसक में नहीं । अहिंसक ही, प्रमाद करना आदिबढ़ जाते हैं। इसी लिये जैनाचार्यो वास्तव में, स्व-पर-अन्यायका विरोधी होनेसे वीर, विने “निरर्थकवयत्यागेन तत्रिया वतिनो मता" वेकी, सहिष्णु और उदार अन्तःकरण वाला व्यक्ति हो जैसे वाक्यों द्वारा निरर्थक वष त्यागको ही क्षत्रियोंका सकता है। उसे ही स्वयं अन्याय-पापाचरण न करने के पहिसाबत कहा है-सार्थक अथवा सापराध जीवोंके कारण संयम की, मनोनिग्रह-पूर्वक अनुचित तृष्णाओं पप त्यागको नहीं । इसीसे जैनी राजा अपराधियों के के निरोध से तप की और दूसरे के ऊपर होने वाले लिये अनेक प्रकारके वध-बन्धनोंका विधान करते तथा अन्याय का परिहार करते रहने से विश्ववन्धुता की पदोंमें लड़ते पाये हैं। जबसे जैनियों ने इस प्राप्ति होता है। क्षत्रियवृत्तिको छोड़ दिया है तभी से उनका पतन हो अतः गहस्थधर्मोपयोगी अहिंसाके स्वल्पको ठीक गया है और वे अपने धर्म तथा समाजके गौरवको भी ममझ कर उसकी सम्यकभाराधना करनी चाहियेकायम नहीं रख सके हैं। बराबर उसके अनुष्ठान में लगा रहना चाहिये । इसीसे अब मैं यहाँ पर इतना और बतला देना चाहता हूँ अपना और देशका उद्धार हो सकेगा। ANGI Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फाल्गुण, बीर नि०सं०२४५६ ] भगवती आराधना और उसकी टीकाएँ भगवती आराधना और उसकी टीकाएँ [ लेखक - श्रीयुत पं० नाथूरामजी प्रेमी ] ( गतांक से आगे ) १ - विनयोदया टीका पुनेके भाण्डारकर प्राच्यविद्या संशोधक मन्दिर में इसकी दो हस्तलिखित प्रतियाँ मौजूद हैं जिन्हें मैंने देखा है * । इन में से पहली सवाई जयपुर नगर में संवत् १८०० में और दूसरी मथुरा में संवत् १८८५ में लिखी गई थी । इस टीकाके कर्ता अपराजित रि हैं। जो चन्द्रनन्दि नामक महाकर्मप्रकृत्याचार्य के प्रशिष्य और बलदेव सूरिके शिष्य थे, आरातीय चाय के चड़ामणि थे, जिनशासनका उद्धार करनेमें धीर तथा यशस्वी थे और नागनन्दि गरिणकं चरणों की सेवासे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ था । श्रीनन्दिगरिएकी प्रेरणा से उन्होंने यह विनयोदया टीका लिखी थी । प्रन्थके आद्यन्त अंश नीचे दिये जाते हैं प्रारंभ २०९ * २०१११४ मा १८६१-६५ और २० १११५ भाफ़. १८६१-६५ * उदयपुर के पास बारडा ग्रामके अमवालोंके जैनमन्दिर में कुछ प्राचीन ग्रन्थों का भण्डार है । उसमें भी इस विनयेोदया टीकाकी एक प्रति मौजूद है, जो संवत् १७८६ में सागवादेमें लिखी गई थी। द्वि० जेठ वदी २ संवत् २४४६ के जनमित्रमें महाचारी शीतलप्रसाद जी ने इसकी प्रशस्ति प्रकाशित की है। एक और प्रति बम्बई के 'कपणाखाल सरस्वतीभवन' में है, जो अपूर्ण है और हाल ही की लिखी हुई है । तपसामागधनायाः स्वरूपं विकल्पं तदुपायसाधकान् सहायान् फलं च प्रतिपादयितुमुद्यतस्य (स्यास्य ) शास्त्रस्यादौ मंगलं स्वस्य श्रोतृणां च प्रारब्धकार्यमत्यूह - निराकृतौ क्षमं शुभपरिणामं विदधता तदुपायभूतेयमरचि गाथा सिद्धे जयप्पसिद्ध इत्यादिका । अन्त नमः सकलत स्वार्थप्रकाशकन महौजसे भव्यचक्र महाचूडा रत्नाय सुखदायिने ॥ १ ॥ श्रुतायाज्ञानतमसः मोचद्धर्माशवे तथा । केवलज्ञानसाम्राज्यभाजं भव्यैकधान्धवे ॥ २ ॥ + चन्द्रनन्दिमहाकर्मकृत्याचार्य-प्रशिष्येण भारतीयसूरिचूला मलिना पादप सेवा जातमतिलवेन बलदेव भूरि नागनन्दिगणि नमः सिद्धेभ्यः । दर्शनज्ञान चारित्र- शिष्येण जिनशासनोद्धरणधीरेण लब्धयशः प्रसरेणापगजिन सूरिणा श्रीनन्दिगलिना चोदितेन रचिता आराधनाटीका श्रीविजयादया नाम्ना समाप्ता ॥ छ | एवं भगवती - राधना समाप्ता । इति श्रीभगवती आराधनाaastri श्रीविजयोदया नाम्ना समाप्ता ॥ छ ॥ शुभं भवतु | + वे दोनों श्लोक भगवती आराधना की भाषा क्यामें भी वचनिकायारके पापड परिचयके बाद मुक्ति हैं । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० अनेकान्त [वर्ष १, किरण ४ संवत् १८८५ वर्षे श्रीसर्ये उत्तरायणे धर और श्रुतकेवलियों के बाद जो आचार्य हुए हैं हेमन्तश्ती महामांगन्यप्रतिमरसोचममासे और जिन्हों ने दश वैकालिक आदि स्त्र बनाये हैं, वे पौषमासे शुभे शुक्लपक्ष तिथौ ततीयायां ३ गरु आरातीय कहलाते थे। सर्वार्थसिद्धिवचनिकाके कर्ता वासरे धनिष्ठानक्षत्रे सिद्धयोगे तदिनसमाप्तमि. कहते हैं-" वक्ता तीन प्रकार हैं । प्रथम तो सर्वज्ञ हैं दम् श्रीभगवती भाराधना शाखें । छ। श्री तहाँ तीर्थकर तथासामान्य केवली बहुरि श्रुतकेवली । मथुरापुरे अंग्रेजराज्यमवर्तमाने । श्लोक सख्या बहुरितिनिक पीछले सत्रकार टीकाकार ताई भये श्रा१३०००।४ चार्य तिनिकू पारातीय ऐसा नाम कहिए।" इन्द्रनन्दिकृत दूसरी प्रतिमें आदि और अन्तके अंश इसी प्रमाण 'श्रुतावतार' के अनुसार महावीर भगवान के निर्वाण के हैं । उसमें विजयदयाकी जगह विनयोदया नाम टीका ६८३ वर्ष बाद तक-लोहाचार्य तक-अंग ज्ञान की है और यही नाम शुद्ध मालूम होता है * । बाठरडा प्रवृत्ति रही। उनके बाद की प्रति में भी विनयोदया ही है। इस दूसरी प्रतिमें विनयधरः श्रीदत्तः शिवदत्तोऽन्योऽहंदत्तनामते । पारातीयाः यतयस्ततोऽभवमापर्वधराः ।। २४ लेखककी प्रशस्ति इस प्रकार है"संवत् १८०० मिती आसोज वदि १२ आदितवार विनयधर, श्रीदत्त, शिवदत्त और अहंदन दिने शुभं लिषतं यती नैणसार श्रीसवाई जयपुर नामके आरातीय यती हुए, जो अंग पूर्वो के एक मद्धयेः ।। श्रीरस्तु।" देश के धारण करने वाले थे । इनके बाद __इस टीकाके का पारातीय प्राचार्यों में शिरोमणि श्रारातीय मुनियों का श्रुतावतार में अथवा अन्य थे। 'पारात' जिससे कि 'श्रारातीय' शब्द बना है,दूर किसी पट्टावली में कोई उल्लेख नहीं है । परन्तु औरसमीप दोनों अर्थों का द्योतक है। सर्वार्थसिद्धि टीका ऐसा जान पड़ता है कि यह शब्द इतना संकुचित नहीं रहा होगा कि उन चार मुनियों तक ही सीमित रहे। सासे मालूम होता है कि भगवान के साक्षात् शिष्य गण र्थसिद्धि वचनिकाकारके कथनानुसार इन चारकं बादक xनं. १११५ माफ़ १८६१-६५ पाली प्रति । भी सूत्रकार टीकाकार पारानीय कह जाते होगे और * क्यों शुम मालूम होता है ? यह भी यदि यहां बतला अपराजितसरि उन्हीं में से एक हांगे । यदि कोई ऐसा दिया जाता तो अच्छा होता। यदि महज़ दो प्रतियों में विनयोदया' उल्लेख होता कि श्रमक समय तक के ही प्राचार्य और एक में विजयोदया' नाम उपलब्ध होने से ही ऐसा अनुमान कर लिया गया हो तो, वह ठीक प्रतीत नहीं होता; क्योंकि देहनी पारातीय कहलाते हैं, तो यह निश्चय होजाता कि की प्रतिमें भी विजयोदया' नाम है और और भी प्रतियों में उस * तक्तत् अतं द्विविधमनेकभेद द्वादशभेदमिति । किं कृतोऽय नामके होनेकी संभावना है। मुझे तो 'विजयोदया' नाम की ज्यादा विशेषः । तृविशेषतः । त्रयो वकारः । सर्वतीर्थकरः । ठीक मालूम होता है; क्योंकि एक तो इस ग्रन्थमें की प्रकृतियों पर इतरो वा श्रुतकेवली पारातीमधेति । तस्य साक्षाच्छिोर्बुद्धपतिविजय प्राप्त करने का उल्लेख है और दूसरे टीकाकार 'अपराजित' के शर्षियुकोणधरः श्रुतकेवलिमिनुस्मृत्य ग्रन्थरकामापूर्वलक्षणः नामके साथ भी इस नामका पच्छा सम्मेलन है। एक प्राचीन टीकाका तत्प्रमाणं तत्पामाख्यात् । पारातीयः पुनराचार्यः बालदोकसंक्षिप्ता'विजयपक्ला' नाम भी 'विजय' शब्द प्रयोग की अयोगिताको युर्मतिलशिष्यानुग्रहार्थ सर्वकालिकायुपनि तत्प्रमाखमातिस्तवेकुछ अधिक सूक्ति करता है। दवेमिति। -अध्याय १सूत्र १० Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फालाण, वीर नि०सं०२४५६] भगवती आराधना और उसकी टोकाएँ अपराजितसरि अमुक समयके बाद नहीं हुए हैं। परन्तु पं० सदासुखजी ने भगवती आराधना की जिस ऐसा कोई उल्लेख देखने में नहीं पाया । फिर भी यह संस्कृत टीका के आधारसे अपनीभाषा वचनिका लिखी तो निश्चयपूर्वक कहा जासकता है कि वे प्राचीन आचार्य है, उसे श्वेताम्बराचार्य कृत बतलाया है । परन्तु अभी हैं और उस आचार्यपरम्पारा में नहीं हैं जो श्रीकुन्दकुन्दा- तक किसी भी श्वेताम्बर भंडार में इस ग्रन्थ की चार्यसे प्रारंभ होती है-उससे निराली कोई दूसरी ही टीकाका पता नहीं लगा है और न किसी श्वेताम्बर परम्परा है और आश्चर्य नहीं जो उससे पहले की भी विद्वान से ही यह सुना कि उनके सम्प्रदाय के हो । किसी आचार्यने इस ग्रंथ पर टीका लिखी है । टीकाकारके गुरु बलदेवसूरिः चन्द्रनन्दि महाकर्म यद्यपि इस प्रकारकी टीका का होना असंभव नहीं प्रकृत्याचार्य x,नागनन्दि गणि और सधमो श्रीनन्दि- है, परन्तु फिर भी पं०सदामुखजीके सामने बैसी किसी गणि श्रादि काभीसमय मालूम नहीं है, जिससे उनके टीकका होना नहीं पाया जाता और न आपके निवासममयनिर्णयमें कोई सहायता मिल सके। स्थान जयपुरके शास्त्रभंडारसे ही उसकी उपलब्धि ___ इन्द्रनन्दिकेश्रुतावतारसं मालूम होता है कि नन्दि- होती है । उनके सामने यही टीका थी, और यह बात देव आदिके समान अपराजित भी एक प्रकारकी संज्ञा नीचे लिखे प्रमाणोंस भले प्रकार जानी जाती है। मग्नम) थी, जो प्राचार्यों के नामों के अन्त में व्यवहन (१) पद्धित गाथा नं०६६५, ६६६ का अर्थ देते हुए होती थी। उसमें लिखा है कि जो यति गिरगुहा से पं० सदासुखजीन जो यह बतलाया है कि, “इस पाय, उनमें से किसीको 'नन्दि' किसीको 'वीर' और ग्रंथकी टीका करनेवालेने उपकल्पयन्ति'का 'मानजो प्रसिद्ध अशोकवाटमे आये उनमें किसी को 'अप- यन्ति'ऐमा अर्थ लिखा है, सो प्रमाण रूप नहीं" गांजन' और किसीको 'देव बनाया। संभव है कि यह वह अर्थ इसी टीका में दिया हुआ है। मजा अपगजिन मरे मे ही प्रारंभ हुई हो, अथवा (२) गाथा नं.१६४४ का अर्थ देत हुप, जो एक पदका अपगजित सरि का पूरा नाम कुछ और हो, अपराजित अर्थ समझमें न आनके कारण नीच लिखीसंस्कृत केवल नामन्त संझा हो। टीका उद्धृत की गई है वह इसी टीकाका अंश है:* धवण बल्गोलके सातवे शिलालेखमें धसिनक शिष्य बल- इस टीकामे पहले इस प्राथ पर दसंग (३०) सम्प्रदाय वाला अ गुरुक और पन्द्रहवें शिलालेखमें कनकसेनक शिष्य बलदेव मुनिक की भी कोई टीका थी, ऐसा पहली गाथाकी निन टीकाम साफ़ समाधिमरणका उ.ख है। पहला लेख शक सबत् ६२२ के लगभग ध्वनित होता है:क मार दसरा ५७२ के लगभगका अनुमान किया गया है। "सिद्धे जयप्प सिं इत्यादिका-प्रत्रान्य कथयन्ति निलविषय___xश्वबलालक ५४ चे शिलालेखमें एक कर्मप्रकृति नामक स्य निराकृतसालपरिग्रहस्य क्षीणायुषस्साकस्याराधनाविधानाववायमाचार्यका उमेस है नामद शाम तस्याकिसिखापमियमंगलस्य कारिका याषिते () पवर्मकर्मप्रति प्रणामायस्योपकर्मप्रकृतिप्रमांसः। असंयतसम्पन्डष्टि-संयतासयत-प्रमत्तस्यताऽप्रमत्मयतादयाप्यत्राराधका तमानि कर्मप्रतिनमामो मार तात. एव सतिवमुच्यते नितविषयारागस्य निराकृतसकलपरिमास्यतिमय यत पारम् । ३३. सम्यमाटः संपतामयनस्यवानिपतविषयरागता सकलप्रवपरित्यागी बस्ति प्रपिताछोकवाटसमागता येनीचरास्तेषा जीणायुष इतियानुपपन्न भनीणायुषोप्याराभकर्ता दर्शविन्यति सबकोधिएपराजिताबाकोबिदेशबयानबरोता"मणुनोमावास चारित्नविण्यासया हवं जस्सनि ।" -सम्पादक Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ४ "णासदि बुद्धी-बुद्धिनश्यति, आहार- इस महत्वपूर्ण टीकाके प्रकाशितहोनेकी बहुत बड़ी लम्पटतया युक्तायुक्तविवेकाकरणात् । कस्य ? आवश्यकता है। यदि कोई जिनवाणी-भक्त धनी सज्जन जिहावशस्य । तीक्ष्णाऽपि सती पूर्व बद्धिः कुण्ठा लगभग तीन हजार रुपये खर्च करनेको तय्यार हों तो भवति । रसरागमलोपलता अर्थयाथात्म्यं न यह कार्य सम्पादित हो सकता है। पश्यंतीति पारशीकल्केशलग्न [लिंग] इव भवति २-मूलाराधनादर्पण पुरुषोऽनात्मवशः।" (३) गाथा नं० १९७५ की बाबत पं० सदासुखजी ने । __इसके कर्ता सुप्रसिद्ध पण्डितप्रवर माशाधरजी हैं, जिनके अनेक ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं और जिनके समय जो यह लिखा है कि " इस गाथाका अर्थ हमारे आदिके विषयमें काफी लिखा जा चुका है । इस टीका जाननेमें नहीं आया वा टीकाकार हू नहीं लिख्या की दो अपूर्ण प्रतियाँ कारंजा के सरस्वती भंडार में हैं है।" वह भी इसी टीकासे सम्बंध रखता है। और उन दोनोंको मिलानेसे एक प्रन्थ पूरा होजाना है। क्योंकि इस टीकामें वस्तुतः इस गाथाका कुछ भी एक प्रति २२९ पत्रोंकी है जिसमें पहलेसे पांचवें नक अर्थ नहीं दिया है। (४) इसी विनयोदया टीकाके अन्त मंगलके "नमः आश्वास हैं और दूसरी १३४ पत्रों की है जिसमें सफलतत्वार्थ" आदि जो दो श्लोक ऊपर दिये छठे से लेकर आठवें आश्वासतक हैं । अन्तप्रशस्तिका जा चुके हैं उन्हें भी पं० सदासुखजीने अपनी एक पत्र नहीं है । पं० श्राशाधरजी विक्रम की तेरहवीं बचनिकाके अन्तमें ज्योंका त्यों उद्धृत किया है। शताब्दी में हुए हैं और चौदहवींके प्रारंभ तक रहे हैं। इस टीकाके प्रारंभ और अन्तके अंश इसप्रकार हैंजान पड़ता है इस टीकामें 'उपकल्पयन्ति' का प्रारंभ'पानयन्ति' अर्थ जैसी कुछ ऐसी बातें होने के कारण ही जो पं० सदासुखजी जैसे कट्टर तेरहपंथी विद्वानके ॐ नमः सिद्धभ्यः। गले नहीं उतर सकतीं उन्हें इसमें दिगम्बरत्वका नत्त्वाहतः प्रबोधाय मुग्धानां विषणोम्यहं । प्रभाव नजर पाया है और इसी लिये उन्होंने इसको श्रीमूलाराधनागृढपदान्याशापरोऽर्थतः ॥ श्वेताम्बरत्व का सर्टिफिकेट दे दिया है। अन्यथा, यह तत्रादावेदं युगीनश्रमणगणोपयुज्यमान-प्रवचनटीका प्राचीन दिगम्बराचार्यप्रणीत है, इसमें कुछ भी निष्पन्दामृतमाधुर्यः तत्र भगवान्शिवकोट्यासंदेह नहीं है । * देखो मेरी लिखी हुई विद्रतरत्नमालाका पतिप्रकर. माशाx गाथा . ४२७ की टीका प.सदासुखजीने जा यह र शीर्षक विस्तृत लेख। लिखा है कि-"इस प्रपको टीकाका कर्ता श्वेताम्बर है। इस ही ईके ऐलक पनालालजी सरस्वतीमका में जो प्रति कारंजा गापाके पर्यमें बस पास कम्बलादि पो हैक है ताते प्रमाल से लिखवाकर मंगाई गई है, जान पक्ता है किसी ५ मारवानाही कितना भ्रमपूर्ण है, इसे बतलाने के लिये पाठकोंको सबाली अपूर्व प्रतिसे नात की गई है और इसीलिए उसमें ५ मागावाकी पूरी टीकाचा अलग ही परिचय दिया जायगा । टीका वास होते हुए भी अन्तमें सम्पूर्ण टीका लिख दिया गया है। भवन बहुत बड़ी तथा महत्वपूर्ण है और इसलिये उसका एक जुदाती के संचालकोंको चाहिए किये शेषकी तीन भावासोंकी टीकाको मौर भी माल करके भगालें जिससे अन्य सम्पूर्ण हो जाय । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१३ फाल्गुण, वीर नि०सं०२४५६] भगवती आराधना और उसकी टीकाएँ चार्यवर्यः शिष्टाचार प्रमाणयितुं मंगलपुरस्सग्मुः आराधना-पञ्जिका पदेश्यं वस्तुनिर्दिशन श्रोतृपवृत्यंगनया प्रयोजना- पनेके भाण्डारकर प्राच्यविद्यामंशोधक मन्दिर दित्रयमवबोधयन् सिद्धत्यादिसत्रं चतुर्विशनि- में इसकी एक प्रति है * । लग भग ६ वर्ष पहले मैने गाथामयपीठिका प्रथमावयवभूतमासूत्रयामास । इस टीका को देखा था और इमकी अन्तिम प्रशस्तिके अंत अंश को अपनी डायरीमें लिख भी लिया था । बह इदानीमात्मनः साम्प्रदायिकत्वमवधान इस प्रकार है। परन्वं च प्रकाशयन्नात्मकत्र्तकत्वेनास्य शास्त्रस्य कुन्दावदानयशमा महवामिवंशविनय जनविश्वासनाय प्रमाणनां व्यवस्थाप पमाकरद्युमणिना गुणिनां वरेण । यितुं गाथाद्वयमाह श्रीदेवकीर्तिविवधाय बुधमियाय अजनिणणंदिगणि सञ्चगत्तगणि अजमित्तणं दत्तं यशोधवलनामधुगंधाण ॥ दीणं । उवगपियपायमूले सम्म सुत्तं च श्रीदेवकीर्तिपण्डिनच्छाप्रेण काहत्याकनाम्ना अत्थंच ॥ १३६।। लिखितमिति । अज्जजिणणंदिगणि मुमुक्षजनाभिगम्यमान संवत १४१६ वर्षे चैत्रसदिपशम्या सोमजिननन्याचार्यः । सम्वगुत्तगणी सर्वगुप्ताचाय: वासरे सकलराजशिरोमुकुटमाणिक्य मरीअजमित्तणंदीणं भाचार्यमित्रनन्दी। चिनिरीकृतचरणकमलपादपीठस्य श्रीपेरोजपुच्चापरिय कयाणिय उपजीवित्ताइमा स सत्तीए। साहेः मालसाम्राज्यधुरीविभ्राणम्य समये श्राराहणा सिवग्णपाणिदलभाइणारइया १२७ श्री दिल्याँ श्रीकुन्दकन्दाचार्यान्वये मरस्वती x xxx इमामष्टाश्वासीममकृदनतं त्रिस्त्रिचतुरै गच्छे बलात्कारगणं भट्टारक श्रीरत्नकीर्तिदेवनिबंधैष्टीकाथैः स्थविरवचनरर्थवितथैः । पट्टीदयादिनमण नर णित्वमूवीर्वाणं भट्टारककृतां संवच्योर्थिः शिववचनमीक्षत इह ये श्रीप्रभाचन्द्रदेव-तमिष्याणां ब्रह्मनाथराम् । प्रत्यक्षार्थाशाधर पुरुषदूरं पदमिम ।। छ। इत्यागधना पंजिकाया (१) ग्रन्थ भात्मपटनार्थ इत्याशाधरनुस्मृत प्रन्थ सन्दर्भ मूलाराधना दपणे लिखापिनम् । शुभस्तु मंगलमहाश्रीःसमस्तपं. पदप्रमेयार्थ प्रकाशीकरण प्रवणऽष्टम आश्वासः।।६।। म्य शुभम् । - (मिद्धस्तव १० गाथा) अग्रांतकान्वये साधनयपाल नन्पुत्र कुलपरः अथ प्रशस्ति नथा लोहिलगोत्रसाधुखेतल माधुरामा नस्यपुत्र श्रीमानस्ति सपादलक्षविषये...... वीरपाल लिखापिनम् । ..........कलिकालिदासः ||३|| इत्युदयकीर्तिमुनिना...मदनकीर्तियतिपतिना ॥४॥ इससे यह मालूम नहीं होता है कि इस टीका के म्लेच्छेशेन ...... महावीरतः ॥५॥ कर्ता कौन हैं। इसके न तो मंगलाचरणमादि प्रारंभिक (अन्तिम पृष्ठ नहीं है। * • ६७ माफ 1 -BENE Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • २१४ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ४ अंशको मैं नोटकर सका और न टीकाकर्ताके अन्तिम भावार्थदीपिका टीका उल्लेख को । पूर्वोक्त प्रशस्तिसे तो इम टीकाके लिखन यह टीका भी पूने के भाण्डारकर प्राच्यविद्या लिखाने वालों का ही पता लगता है । यह एक विचित्र संशोधक मन्दिर में है। इसका प्रारंभ का और बात है कि इसमें तीन बार के लिपिकारों का उल्लेख ক্ষকা হা ফুল মক্কাसुरक्षित है। इसकी एक प्रति श्रीदेवकीनि पण्डित के श्रीमन्तं जिनदेवं वीरं नत्वामराचितं भक्तया विद्यार्थी काहत्याक ने लिखी थी और सहवासीवंशके वृत्ति भगवत्याराधनामुग्रन्थस्य कुर्वेऽहम ॥॥ यशोधवल नामक धुरंधरयापण्डितने बुद्धिमानोंके प्यारे धनघटित कर्मनाशं गुरुं च वंशाधिपं च कुन्दा श्रीदेवकीर्ति पण्डित को भेट दी थी । इस प्रतिके लिखे वंदे शिरसा तरसा अन्यसमाप्ति समीप्सुरहम् ।। जान का समय नहीं दिया है। इस प्रतिपरसे जो दूसरी वाग्देवीं श्रीजैनी नत्वा संपार्थ्य ग्रन्थसंसिदि । प्रति लिखी गई, वह रत्नकीर्ति भट्टारक के पट्टशिष्य सरला मुग्धा विरचेवृत्तिभावार्थदीपिकासंज्ञां ॥३॥ श्रीपभाचन्द्र देवके शिष्य ब्रह्मचारीनाथराम ने संवन १४१६ की चैत सुदी ५ सोमवार को अपने पढ़ने के अथातो भगवान् शिवकोटिमुनिः समन्तभद्रलिये दिल्लीमें लिखाई, जिस समय कि बादशाह फीरोज चरणाराधनात्माप्तसम्यग्दर्शनः पूर्वानुभूतराज्यशाह तुरालक का राज्य था। मुखोऽपि स्वयं चानुरक्ततपोवन मु खः सत्रात्मइस दुसरी प्रतिपर से तीसरी प्रति अप्रोतक या संबोधनं कुर्वन् भव्यसम्बोधनार्थ ग्रन्थं रचनादी भरवालवंशके नयपाल साहू के पत्र कला और विघ्न वि०गोहिलगोगी सा-खतल साहू-राजा के पुत्र अथ प्रशस्तिः वीरपाल ने लिखाई । विस समय में लिखाई गई, यह कृतेऽयंसदवृत्तिः शिवजिदरुणाख्येन विदुषा नहीं लिखा है। गुणाना सत् व्यातिय॑पहनसपम्तापनिकग। यह पद्धति बहुत ही अच्छी है। इस प्रकार यदि प्रन्थ प्रवक्तः श्रोतुर्या वितरति दिवं मुक्तिमपर्ग लेखक (लिपिकर्ता) अपने पहले की मातका प्रतियोंकी चिर जायादा पुषजनमना चिरं जीयादेषा बुधमनपनोरंजनकरी ।। लेखकप्रशस्तियाँ भी लिख दिया करें, तो बहुत लाभ हो। महासंघे गच्छे गिरिगणवलात्कारपदके दूसरे लिपिकर्ता ने अपना संवत १४१६ दिया है गरी नन्याम्नायेन्वयवरगुरौन्दमुनिपे। और उसने वह प्रति अपने से पहले की प्रति पर से की है। इससे टीका के निर्माणकाल के समय में इतनी सुजातो वै सरिर्जयपुरपदस्थो मुनिवरः ।।।। बात निश्चयपूर्वक कही जा सकती है कि यह टीका मा. महेन्द्रस्तत्पट्टे गुरु गुणनिधिः क्षेमसुनुषा विक्रम की चौदहवीं शतानि के बाद की नहीं है। इस तदीयः सच्छिष्यो पुषवर निहालेतिपदभाक् । टीका के सम्बंध में विशेष जानने का प्रयत्न किया जा तदीयः सच्छिष्यो गुणनिषिदयाचन्द्रविबुधाः रहा है मालूम होने पर पाठकों के सम्मुख उपस्थित तदीयः सत्तेजा दिलसुखबुधो शाननिरतः ॥३॥ किया जायगा। * नं. ३ मा १८५११५। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फाल्गुण, वीर निःसं०२४५६] स्वार्थ २१५ तदीयः सच्छिष्याः शिवजिदरुणो भक्तिनिरतः समय दिया हुआ है, परन्तु उसका पहला चरण कुछ गुरूणामानावान् धृतजिनसुधर्मोभवदिह। अशुद्ध सा होगया है। इस कारण वह ठीक नहीं बततदीयः सत्पुत्रो मणिजिदरुणाख्या लघमति- लाया जा सकता। संभवतः संवत् १८१८ की जेठ सुदी म्नदर्थं वृत्ति प्रकटितयथाकारि रुचिरा ॥४॥ १३ गुरुवारको टीका समाप्त हुई है । पं० शिवजीलाल समेवस्वकार्यमिति शुभपने शुचिभवे । पं० सदासुख जीके ही समकालीन विद्वान थे और एक त्रयोदश्यहोत्ये चरमसमये वारविषणेऽ- प्रकारसे उनके प्रतिपक्षी थे। उस समय तेरह पन्थ और राधानक्षत्रे शुभसयशर्द्धिमजननी । बीस पन्थमें बहुत कटुता बढ़ी हुई थी ।शिवजीलालका चरं जीयादेषा भुविजिनमतोधोतनकरी ।। एक तेरह पन्थ स्खण्डन नामका पन्थ है । उन्होंने इनि भगवती आराधना टीका समाप्ता। रत्नकरण्ड, चर्चासंग्रह, बांधसार, दर्शनसार,अध्यात्म। यह टीका शिवजिदरुण अर्थात पं० शिवजीलाल तरंगिणी आदि अनेक प्रन्थोंकी भाषा वचनिकायें भी ने अपने सत्पुत्रमणिजिदरुण (मणिजीलाल या मणि - लिखी हैं। वे कट्टर बीस पन्थी थे, साथ ही संस्कृतके लाल)के लिए बनाई है। वे जयपुरके भट्टारककी गही अच्छे विद्वान । के पण्डित थे । उन्होंने अपनी गुरुपरम्परा इस प्रकार क्या ही अच्छा हो कि ये चारां संस्कृत टीकाएँ दी है- भट्टारक महेन्द्रकीर्तिके शिष्य भट्टारक क्षेम एक साथ मुद्रित करा दी जायें, जिस से विद्वानोंक कीर्ति, उनके पं० निहालचन्द, निहालचन्दके शिष्य लिए मूलप्रन्थ का समझना और तुलनात्मक दृष्टिसे दयाचन्द्र, दयाचन्द्रके दिलसुम्व और दिलसुखके शिव- . अध्ययन करना मुगम हो जाय । इति । जीलाल । प्रशस्तिकं पाँचवें पद्यमें टीकानिर्माण का घाटकोपर (बम्बई) ता०२२-१२-२५ *म्वार्थ . . . 0.orn10.. खिलखिल कलियाँ मनकोहरनी मन्द मन्द मुसकाती हैं। , अपनी सुन्दर छटा दिखा कर भौरों को ललचाती हैं। देख ऊपरी सुन्दरता को मौरे नहीं ललचत है ।। मधु पाकर ही मधुप मनोहर-कलियोको पा छलते हैं ।।। . .W e केसा सुन्दर मधुर स्वार्य है मीठा रस इसमें रहता। :स्वार्थ हेतु कट जाय शीश भी तो भी नर इसको गहता। : प्यारे भाई ! स्वार्थ प्रस्त-नर संधिवाद के योग्य नहीं। दुलही दुख है स्वार्थ-समरमें सुखकी मात्रा कहीं नहीं। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ बनेकान्त [वर्ष १ किरण ४ "माह च गन्धहस्ती-निद्रादयः समधिगताया एव इससे इतनी बात निर्विवाद रूपसे सिद्ध होती है कि दर्शनलब्धरुपघाते वर्तन्ते दर्शनावरणचतुष्टयं तद्- 'गंधहस्ती'प्रचलित मान्यतानुसार सिद्धसेनदिवाकर नहीं मोच्छेदित्वात् समूलघातं हन्ति दर्शनलब्धिमिति" किंतु उपलब्धतत्त्वार्थभाष्यकीवृत्तिके रचयिता भास्वामि--प्रवचनसारोवारकी सिद्धसेनीय वृत्ति पृ०३५८ प्र०५०५ शिष्य सिद्धसेन ही हैं । नामकीसमानतासे और प्रकांडउपर्युक्त प्रक्वन्सारोद्धारकी वृत्तिों का पाठ तेरहवीं शताब्दीके देवेनारिके प्रथम कर्माप्रथकी १२वीं गाथाकी टीका भी धास्ती वादीतथा कुशल प्रन्थकारके तौर पर प्रसिद्धिप्राप्त सिद्धनामके साथ है। सेनदिवाकर ही गंधहस्ती होसकते हैं, इस संभावनामेंसे (२) "या तुभवस्थकेवलिनोद्विविधस्यसयोगाऽयोगभेदस्य ९० यशोविजयजी की दिवाकरके लिये गंधहस्ती विशेषण सिद्धस्य वा दर्शनमोहनीयसप्तकक्षयादपायसद्व्य- के प्रयोग की भ्रान्ति जन्मी हो, ऐसा संभव है। क्षयाचोदपादि सा सादिरपर्यवसाना" इति उपरकी दलीलों परसे हम यह स्पष्ट देख सकते है -१, ७ की तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति पृ० ६० ५० १ "यदाह गंधहस्ती-भवस्थकेवलिनो द्विविधस्य स कि श्वेताम्बरपरम्परा में जो गंधहस्ती प्रसिद्ध हैं वे योगायोगभेदस्य सिद्धस्यवादर्शनमोहनीयसप्तक- तत्त्वार्थसूत्रके भाष्यकी उपलब्ध विस्तीर्ण वृत्तिके रचने याविभूता सम्यग्दृष्टिः सादिरपर्यवसाना इति । " वाले सिद्धसेन ही हैं । इस परसे हमें यह माननेका भी -नवपदवृत्ति पृ०८८ द्वि. कारण मिलता है कि सन्मति टीकाकार १०वीं शताब्दीके (३) “तत्र याऽपायसद्व्यवर्तिनी श्रेणिकादीनों सद्- विद्वान अभयदेवने अपनीटीकामें दोस्थानों पर गंधहस्ती' व्यापगमे च भवति अपायसहचारिणीसा सादिस- पद का प्रयोग करके जो उनकी रची हुई तत्त्वाव्यापर्यवसाना।" -१, ७ की तत्वार्थभाष्यनि पृ०५४६०२७ ख्या को देख लेने की सूचना की है x वे गंधहस्ती "यदुक्तं गंधहस्तिना-तत्रयाऽपायसद्व्यवर्तिनी- दूसरे कोई नहीं किन्तु उपलब्ध भाष्यवृत्तिके रचयिता पायो-मतिज्ञानांशः सद्व्यानि-शुद्धसम्यक्त्व- उक्त सिद्धसेन ही हैं । अतः सन्मति-टीकामें अभयदेव दलिकानितद्वर्तिनीश्रेणिकादीनांचसद्व्यापगमे भ- ने तत्वार्थसूत्र पर की जिस गंधहस्ति-कृत व्याख्याको वत्यपायसहचारिणी सा सादिसपर्यवसाना इति” देख लेने की सलाह दी है उस व्याख्याके लिये अब -नवपदवृत्ति पृ.८८ द्वि. (४) "प्राणापानावच्छ्वासनिःश्वास क्रियालक्षणो" x सन्मति' के द्वितीय कां की प्रथम गाथाकी व्यायामें टीका ---८, १२ की तन्वार्थ भाष्यप्रनि पृ० १६१६० १३ कार अभयंदेवने तत्वार्थके प्रथम अध्यायके, १०, ११ र १२ "यदाह गंधहस्ती-प्राणापानौ उच्छ्वासनिःश्वासौ इति" . , एसे चार सूत्रोंको अधृत किया है और वहां इन सूत्रोंकी व्याख्या में गन्धहस्तीका परामर्श देते हुए उन्होंने बतलाया है कि-~-धर्मसंग्रहणीत्ति (मलयगिरि) पृ० ४२, पं० २ । "अस्य च सूत्रसमूहस्य व्याख्या गन्धहस्तिप्रभृति(५) "अतएव च भेदः प्रदेशानामवयवानांच,येन जातु- भिर्विहितेति न प्रदर्श्यते"। चिद् वस्तुव्यतिरेकेणोपलभन्ते ते प्रदेशाः ये तु -पृ०५६५५०१४ विशकलिताः परिकलितमूर्तयःप्रज्ञापथमवतरन्ति इसीके अनुसार तृतीय कांडकी ४४ वीं गाथामें प्रयुक्त हुए तेऽवयवा इति" बाद पाकी व्याख्या करते हुए न्होंने सम्यग्दर्शनशान-५, ७-८ की तत्वार्थभाष्यति पृ. ३२८५० २१ पारिवानिमोहमार्ग:" (१,१) यह सूत्र देकर इसके लिबेभी "यवयवयव प्रदेशयोर्गन्धिहस्त्यादिषुभेदोऽस्ति" "तथा पम्पती प्रतिनिर्षिान्तमिति र प्रद. -स्वाद्वारमजरी • ६३ श्लो. ते विस्तरमपात्"-पृ. ६५१ ६. २० Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फाल्गुण, वीर नि०सं०२४५६] गंधहस्ती २१९ नष्ट या अनुपलब्ध साहित्य की तरफ नजर दौड़ाने की प्रन्थमें भी गंधहस्ति-भाष्यका उल्लेख है-जैसा किपीछे जरूरत नहीं। इसी अनुसंधान-द्वारा यह भी मानना फुटनोटमें उद्धृत किया गया है और वह उल्लेख पड़ता है कि ९वीं १०वीं शताब्दी के गन्थकार x सिद्धसेनकी उक्त वृहद्वत्ति में नहीं पाया जाता, जिस शीलांकने 'प्राचारांग' सूत्र की अपनी टीका में जिन । से इस उल्लेखको उक्त वृहद् वृत्ति का ही समझ लिया गंधहस्ति-कृत विवरणों के का उल्लेख किया है वे जाता । वृत्तिमें 'अनुत्तरोपपादिकदशाः' का लक्षण सिर्फ विवरण भी तत्त्वार्थभाष्य की वृत्ति के रचयिता अनुपरापपादकापायपुस्पा पता वति यता "मनुत्तरोपपादिका देवा येषु ख्या'यन्ते ताः मनुसिद्धसेन के ही होने चाहिये । क्योंकि यह संभवित तरोपपादिकदशा:" (पृ०९१) इतना ही दिया है। नहीं कि बहुत ही थोड़ा अन्तर रखने वाले शीलांक और यह लक्षण धवला टीका में उद्धृत गंधहस्तिभाष्य और अभयदेव ये दोनों भिन्नभिन्न प्राचार्यों के लिये के लक्षण से भिन्न है और इस लिये दोनों भाष्योंकी गंधहस्तिपदका प्रयोग करें और अभयदेव जैसे बहुत भिन्नताका सूचक है। दूसरे लघ समन्तभद्रने 'अष्टविद्वान् के विषयमें यह कल्पना करनी भी कठिन है कि सहस्री-विषमपद-तात्पर्यटीका' के निम्न प्रस्तावनाउन्होंने जैनागमों में प्रथम पद धरावने वाले प्राचारांग वाक्यमें स्वामी समन्तभद्र-द्वारा उमास्वातिके तत्त्वार्थसत्रकी अपने समीपमें ही पहले रची गई शीलांकसरि सूत्र पर 'गंधहस्ति-महाभाष्य के रचे जानेका स्पष्ट उल्लेख की टीका को न देखा हो । बल्कि शीलांक ने खुद ही किया है। अपनी टीकाओंमें जहाँ जहाँ सिद्धमेन दिवाकरकृत "भगवद्भिमास्वातिपादेराचार्यवयंरास त्रितस्य सन्मतिकी गाथाएँ उद्धृत की है वहाँ किसी भी स्थान न तच्चाधिगमस्य मोक्षशास्त्रस्य गंधहस्त्याख्यं पर गंधहस्ति-पदका प्रयोग नहीं किया, इससे शीलांकका 'गंधहस्ती' भी 'दिवाकर' नहीं, यह स्पष्ट है। महाभाष्यमुपनिषधंतः स्याद्वादविद्यानगरवः गंधहस्ति-विषयक उपयुक्त विचार परस यहाँ दो श्रीस्वामिसमन्तभद्राचायाः ....." उपयोगी नतीजे निकलते हैं। पहला यह कि तत्त्वार्थ- ऐसी हालतमें यह सुनिश्चितरूप से नहीं कहा जा सूत्र पर गंधहस्ति-रचित मानी जाने वाली व्याख्या मात्र मकता कि दिगम्बरपरम्परा में तत्त्वार्थसूत्र पर गंधश्वेताम्बरपरम्परा में ही है-दिगम्बरपरम्परा में नहीं। हस्ति-भाष्य नामकी कोई व्याख्या है ही नहीं अथवा और दूसरा यह कि यह व्याख्या नष्ट या अनपलब्ध कभी लिखी ही नहींगई। हाँ,दूसरानतीजाश्वेताम्बरीय नहीं किन्तु वर्तमान में सर्वत्र सुलभ तत्त्वार्थभाष्यकी गंधहस्ति-व्याख्याकी दृष्टि से ठीक हो सकता है परंतु बृहद् वृत्ति ही है। ममन्तभद्र का गंधहस्ति-भाष्य यदि उपलब्ध हो जाय नोट और उसमें वे सभी अवतरण पाये जाते हों जिनकी मेरी रायमें ये दोनों ही नतीजे कुछ ठीक प्रतीत नत्त्वार्थमाध्य-निक साथ विद्वान लेखक ने तुलना है तो फिर इस नतीजेके लिये ही नहीं किन्तु नहीं होते । क्योंकि एक तो 'धवला' टीका जैसे प्राचीन वत्तिलेखक सिद्धसेन को 'गंधहस्ती' कहनेके लिये भी x देखो, मा० श्रीजिनविजयजी संपावित जीतकल्प' की प्रस्ता- कुछ आधार नहीं रहेगा; क्योंकि ये सिद्धसेन विक्रमकी कना पृ० १९ परिशिष्ट, शीलांकाचार्य-विषयक विशेष वर्गन। वीं और १०वीं शताब्दीके मध्यवर्ती किसी समयमें *"शास्त्रपरिज्ञाविवरणमतिबहुगहनंचगन्धहस्तिकृतम" हुए हैं और उन्होंने अपनी कृति अथवा प्रशस्ति में न३ "शाखपरिज्ञाविवरणमतिगहनमितीव किल वृतं पूज्यैः। कहीं भी अपने को गंधहस्ती नहीं लिखा है और न उक श्रीगन्धहस्तिमिर्विवृणोमि ततोऽहमवशिष्टम् ।।" अवतरणों में ही 'गंधहस्ती' के साथ सिद्धसेन नाम -पाचारांगटीका पृ०१ तथा ८२ की शरुमात। का उल्लेख है। -सम्पादक Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ४ popunmun |TI.as६E..... .. . . . प्रसिद्ध देशभक्त पं० अर्जुनलाल जी सेठी का पत्र अनेकान्त-साम्यवाद की जय . अनेक द्वन्द्रों के मध्य निर्द्वन्द्व 'अनेकान्त' की दो किरणें सेठी के मोह तिमिराच्छन्न बहिरात्मा को मेद कर भीतर प्रवेश करने लगी तो अन्तरात्मा अपने गुणस्थान-द्वन्द्र में से उनके स्वागतके लिये साधन: । जुटाने लगा । परन्तु प्रत्याख्यानावरण की तीव्र उदयावली ने अन्तराय के द्वारा रूखा जवाब दे दिया; कंबल अपायविचय की शुभ भावना ही उपस्थित है । आधनिक भिन्न भिन्न एकान्ताग्रह-जनित साम्प्र-: दायिक, सामाजिक एवं राजनैतिक विरोध व मिथ्यात्व के निराकरण और मथनके लिए अनेकान्त-तत्ववाद: के उद्योतन एवं व्यवहार रूप में प्रचार करने की अनिवार्य आवश्यकता को मैं वर्षों से महसूस कर रहा हूं। परन्तु तीब्र मिथ्यात्वोदय के कारण आम्नाय-पंथ-वाद के रागद्वेष में फंसे हुए जैन नामाख्य जनसमूह को : ही जैनत्व एवं अनेकान्त-तत्व का घातक पाता हूँ; और जैन के अगुआ वा समाज के कर्णधारों को ही अनेकान्त के विपरीत प्ररूपक वा अनेकान्ताभास के गर्त में हठ रूप से पड़े देखकर मेरी अब तक यही धारणा रही है कि अनेकान्त वा जैनत्व नूतन परिष्कृत शरीर धारण करेगा जरूर परन्तु उसका क्षेत्र भारत नहीं किन्तु और ही कोई अपरिग्रह-वाद से शासित देश होगा। अस्तु, अनेकान्तके शासनचक्रका उद्देश्य लेकर आपने जो झंडा उठाया है उसके लिए मैं आपको और अनेकान्त के जिज्ञासुओं को बधाई देता हूँ और प्रार्थनारूपभावना करता हूँ कि आपके द्वारा कोई ऐसा युगप्रधान प्रगट हो, अथवा आप ही स्वयं तद्रूप अन्तर्बाह्य विभतिसे सुसज्जित हों जिससे एकान्त हठ-शासनक साम्राज्य की पराजय हो, लोकोदारक विश्व-व्यापी अनेकान्त शासनकी व्यवस्था ऐसी दृढतासे स्थापित : हो कि चहुंओर कमसेकम षष्ट गुणस्थानीजीवों का धर्मशासन-काल मानवजातिके-नहीं नहीं जीवविकासके । इतिहास में मुख्य आदर्श प्राप्त करे, जिससे प्राणी मात्र का अक्षय्य कल्याण हो । इसके साथ यह भी निवेदन करदेना उचित समझता हूँ कि अब इस युग में सांख्य, न्याय, बौद्ध आदि : एकान्त दर्शनोंसे भनेकान्तबादका मुकाबिला नहीं है, आज ता माम्राज्यवाद, धनसत्तावाद, सैनिकसत्तावाद, गुरुडमवाद, एकमतवाद, बहुमतवाद, भाववाद, भेषवाद, इत्यादि भिन्न२ जीवित एकान्तवादसे अनेकान्तका संघर्षण है। इसी संघर्षण के लिए गान्धीवाद, लेनिनवाद, ममोलिनीवाद, आदि कतिपय एकान्त पक्षीय : नवीन मिथ्यात्व प्रबल बेगसे अपना चक्र चला रहे हैं। .........। ___अतः इस युग के समन्तभद्र वा उनके अनुयायियोंका कर्तव्यपथ तथा कर्म उक्त नव-जात मिथ्यात्वोंको अनेकान्त अर्थात् नयमाला में गूंथकर प्रगट करना होगा, न कि भूतमें गड़े हुए उन मिथ्यादर्शनो को कि जिनके लिए एक जैनाचार्यने कहा था कि षड्दर्शन पशुप्रामको जैनवाटिकामें चराने ले जारहा हूँ। महावीरको प्रादर्शअनेकान्त-व्यवहारी अनुभव करने वालों का मुख्य कर्तव्य है कि वे कटिबद्ध होकर जीवों को और प्रथमतः भारतीयोंको माया-महत्व-चादसे बचाकर यथार्थ मोक्षवाद तथा स्वराज्य का आग्रह-रहित उपदेशदें।और यह पुण्यकार्य उन्हीं जीवों से सम्पादित होगा जिनका प्रात्म-शासन शुद्ध शासनशून्य वीतरागी हो चुका हो । • अन्त में आप के प्रशस्त उद्योग में सफलता की भावना करता हुआ अजमेर । पापका चिरमुमुक्षु बन्धु २१-१-३० । भर्जुनलाल सेठी momummer Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फाल्गुन, वीर नि०सं०२४५६] 'लोकविभाग' का रचनास्थान २२१ 'लोकविभाग' का रचना-स्थान [ लेखक-श्री० बाब कामताप्रसाद जी] A . . ICC + + सर्वनन्दिकृत'लोकविभाग'जैनभूगोलका एक अच्छा पं०नाथूरामजीप्रेमीने “जैनहितैषी" भा० १३ पृ० ५२६ प्राचीन ग्रन्थ है जिसके रचना-काल और रचना-स्थान में आधुनिक पटना तथा प्राचीन पाटलिपुत्र की का स्पष्ट उल्लेख सिंहसरिके उपलब्ध लोक विभाग में संभावना व्यक्त की थी। परन्तु हमने पाटलिपुत्र में निम्न प्रकार से पाया जाता है : पाणराष्ट्र का अस्तित्व न मिलने के कारण इस वैश्वे स्थिते रविसुते वृषभे च जीवे. गाम को सिन्धुनदवी पाटल गाम अनुमान किया था और वहीं एक पारणराष्ट्र का होना मान लिया था राजोत्तरेषु सितपक्षमुपेत्य चन्द्रे ।। (वीर,वर्प५ पृ०९२) । अब हमें अपना यह मतभी ठीक ग्राम च पाटाल (क) नामान पाणाराष्ट्र नहीं मालम होता। क्योंकिपाणराष्ट्र सिंधुदेशमें नहोकर शाखं पुरा लिखितवान् मुनिसर्वनन्दी।।.॥ कहीं काथी के आसपास होना चाहिये जहाँ के राजा संवत्सरे तु द्वाविंश कांचीशसिंहवर्मणः। और उसके राज्यकालका इसमें उल्लेख है। सौभाग्यमे प्रशीत्यग्रे शकान्दानां सिद्धमेनच्छनत्रये॥३॥ प्रो०कृष्णस्वामी अयंगरकी पुस्तक "सम कन्ट्रीब्यूशन्स अर्थान-"जिस समय उत्तराषाढ़ नक्षत्रमें शनि- आफ् साउथ इन्डियाटू इन्डियन कलपर" के देखने से श्चर, वृषराशि में वृहस्पति और उत्तराफाल्गनी में हमें इस स्थानका ठीक पता मिल गया है। उसमें पागणचन्द्रमा था, तथा शुक्लपक्ष था (अर्थात् फाल्गुन राष्ट्रको 'बाण' देश कहा गया है और आधुनिक नगर शुक्ला परिणमा थी ) उस समय पाणराष्ट्र के पाटलि कद्दलोर (Cuddalore) को प्राचीन पाटलिग्राम बताया ग्राम में इस शास्त्रको पहले सर्वनन्दी नामक मुनि गया है । साथ ही, इसे त्रिप्पादिरिपुलियर ' Pri-railने लिखा।कांची के राजा सिंहवर्मा के २२ वें संवत्मर inpnliyuriभी कहा गया है । राजा सिंहवर्मन पल्लवमें और शकके ३८०वें वर्ष में यह ग्रंथ समाप्त हआ।" वंश के थे । अतः लोकविभाग का रचना-स्थान दक्षिण यहाँ पद्यनं०२ में प्रकृत गन्थकारचना-स्थान पाण- भारतका उक्त स्थान मानना ही ठीक ऊँचता है। राष्ट्रका पाटलि पाम लिया है, जिमके विषयमें श्रीयुत Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ का 1999 में मेले में 99999995 तौलवदेशीय प्राचीन जैनमंदिर ले० - श्री०पं० लोकनाथजी शास्त्री, मूड़विद्री JEEEEEEEK rain की दूसरी किरणमें मूडबिद्रीके १८ मंदिरों में से (१) गुरुबस्ति तथा (२) होसबस्ति नाम के दो प्रधान मंदिरोंके बारेमें कुछ परिचय दिया गया था, फिर क्रम से लेख देने में मुझे स्वास्थ्याभाव के कारण विलंब होगया । अतः इस बार शेष मंदिरों का परिचय संक्षेप से दिया जाता है: (३) बडगवस्ति- उत्तर दिशामें होनेके कारण इस मंदिर को 'बडगस्त' कहते हैं। यह भी तीन सौ वर्ष पहले का शिलामय मंदिर है। यहाँ पर श्वेतपाषाणमय खङ्गासन तीन फुट ऊँची श्रीचन्द्रप्रभ भगवान की मूर्ति प्रतीब मनोश है। साथ ही, इस मंदिर के अंगण में शिलामय एक मानस्तंभ भी है। (४) शेट्रबस्ति - यहाँ धातुमय पद्मासन मूल प्रतिमा श्रीवर्धमान भगवान् की है। इस मंदिरके प्राकार में एक दूसरा मंदिर है जिस में कृष्ण पाषाणमय बस भगवान् की मूर्तियाँ बहुत ही चित्ताकर्षक हैं। इसकी दोनों तरफ शारदा और पद्मावती देवी की मूर्तियाँ विराजमान हैं। इसको यहाँ के पंचोंने बनवाया है। (५) हिरेषस्ति - इस मंदिर में श्रीशांतिनाथ भगवान की मूल प्रतिमा है। मंदिर के प्राकार के अंदर पद्मावती देवी का मंदिर है, जिसमें मृतिका (मिट्टी) से निर्मित चौबीस भगवान् की मूर्तियाँ तथा सरस्वती और पद्मावती की मूर्तियाँ भी 陽謀和雨姊 [वर्ष १, किरण ४ बहुत ही मनोज्ञ हैं । इस प्रकार की मृण्मय मूर्तियाँ अन्यत्र कहीं पर देखने में नहीं आई। इस कारीगर बहुत सुंदर काम किया है। इस मंदिर को "अम्मनवरबस्ति" अर्थात् पद्मावती देवी का मंदिर भी कहते हैं । (६) बेटफेरीबस्ति - यह विशाल मंदिर सजावट के साथ सुंदर है। इसमें श्रीवर्धमान स्वामीकी पाँच फुट ऊँची पद्मासनकी मनोहर प्रतिमा शिलामय है। इसको भी यहाँ के श्रावकोंने बनवाया था । (७) कोटिबस्ति - इस मंदिर को 'कोटिश्रेष्ठी' नामक सेठ ने बनवाया था । यहाँ श्रीनेमिनाथ भगवान की खड्गासन मूलनायक प्रतिमा एक फुट ऊँची है और अन्यान्य प्रतिमाएँ भी बहुत ही मनोज्ञ हैं । इस मंदिरका दो चार वर्षके पहले यहाँ के राजवंशीय श्रीमान चौटर धर्मसाम्राज्यजीने जीर्णोद्धार कराकर पंचकल्याण महोत्सव भी कराया था। अभी भी इसका सब इंतजाम वेही करते रहते हैं। यह मंदिर देखनेमें रमणीय तथा स्वच्छता पूर्वक है । (८) विक्रमसेद्विबस्ति - यह मंदिर भी शिलाम है । इस भवन की विक्रम नामके सेठने निर्माण 1 कराया था। इस में आदिनाथ भगवान् की मूल प्रतिमा है और मंदिर के प्राकार के अंदर चौबीम भगवान् का एक चैत्यालय है, जिसमें धातुमय २४ मूर्तियाँ श्रतीव मनोश हैं। और मूर्तियाँ सभी Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फाल्गुण, वीर नि०सं०२४५६] तौलवदेशीय प्राचीन जैनमंदिर २२३ खलासन हैं। इस मंदिरके भामे मानस्तंभ भी है। वैश्य पहले अतीव गरीब था, उस समय उसके (९) लेप्यदवस्ति-यहॉपर लेप्य निर्मित श्रीचंद्रनाथ मनमें इच्छा हुई कि 'सभी लोग मंदिर बनवाते हैं भगवानकी मूल प्रतिमा है । मिट्टीसे निर्मित होनेके मैं भी बनवाऊँ इस प्रकार मनमें संकल्प करके कारण इस मूल प्रतिमाका अभिषेक वगैरह नहीं ___उसने अपनी कमाईका एक चतुर्थाश संग्रह करते किया जाता है । यहाँ पर (मूडबिद्रीमें) कई मंदिरों करते इसको बनाया है। यह भी अत्यन्त प्रसिद्ध में मिट्टीकी प्रतिमाएँ विराजमान हैं; तो भी उनका तथा मनोहर है। इसमें भरनाथ, मल्लिनाथ और प्रक्षालण और अभिषेक नहीं होता है । इस प्रकार मुनिसुव्रतनाथ भगवानकीकृष्णपाषाणकी पद्मासन की प्रतिमाओंसे क्या फायदा है? पूर्वजों ने इनको प्रतिमायें अतीव चित्ताकर्षक हैं । मूलनायक प्रतिक्यों बनवाया? कौन जाने! लेप्यमय मूर्ति होनेसे ही मा तीन फुट ऊँची कमलासन पर है। इस मंदिरको इस मंदिरको लेप्पदबस्ति कहते हैं। यहाँ उक्त लेप्य रत्नत्रय मंदिर भी कहते हैं। मूल प्रतिमाके नीचे के से निर्मित श्रीज्वालामालिनी देवीकी मूर्ति भी बहुत भागमें श्वेतपाषाणमय २४ भगवान् की मूर्तियाँ ही चित्ताकर्षक है । साल भरमें हजारों लोग उक्त बहुत ही मनोरंजक हैं । ऊपर दूसरा खंड भी है देवीकी पूजा या उपासना करनेके लिये आया करते यहाँ मल्लिनाथ भगवान की पद्मासन मूर्ति विराजहैं और अपनी अपनी इष्टसिद्धि के लिये पूजा मान है। करवाते हैं । यह एक अंधश्रद्धाका नमूना है । इस (१२) चोलसेहिपस्ति- इस मंदिरको 'चोलसेटुि' मंदिरके आगे एक विशाल मानस्तंभ भी है । यहाँ नामक एक सेठनं बनवाया था इसी लिये इसे हरसाल चैत्र बदी २को विशाल मंडप बनाकर यहाँ चोलसेटिबस्ति कहते हैं। यह भी ३०० वर्ष पहले के चौटर धर्मसाम्राराज्यजी अभिषेक पूजा का और शिलामय है । यहाँ सुमति, पद्मप्रभ, और वगैरह महोत्सव करवाते हैं । यह महोत्सव देखने सुपार्श्वजिन की तीनों ही मूर्तियाँ चार चार फुट योग्य है। ऊँची हैं। ये कृष्णपाषाणमय पद्मासन प्रनिमायें (१०)कन्लुबस्ति--यह मंदिर शिलामय होने के कारण बहुत ही मनोज्ञ तथा देवन योग्य है । इम मंदिरक इसका 'कल्लुबस्ति' अन्वर्थक नाम है । कनडीमें अगले भागमें-दांये बांये वाले कोठों में-२४ पत्थरको 'कल्लु' बोलते हैं । इस मंदिरमें यद्यपि भगवानकी मूर्तियाँ विराजमान हैं, इसीसे इसको शिलालेख वगैरह नहीं हैं, तथापि बहुत प्राचीनसा 'तीर्थकरबस्ति' या 'येडवलबस्ति' भी कहते हैं। मालूम पड़ता है। इसमें श्रीचन्द्रप्रभ स्वामीकी खड्गासन दो फुटकी मूल प्रतिमा है। इस मंदिरके (१३) महादेवसेदिवस्ति-इसको महादेव संठने भूमहमें प्राचीन ताडपत्र-प्रन्थ-भंडार था, जिमको बनवाया था। इसमें कृष्ण पाषाणमय ५ फुट ऊँची अभी मठमें विराजमान किया गया है। खगासन मूर्ति विराजमान है जोबड़ी मनोहाहै। (११) देरमसेहि वस्ति-इसको देरम्म' नामक इस प्रतिमाके चारों ओर २४ भगवानकी प्रतिमायें एक वैश्यने बनवाया था। 'लोग कहते हैं कि, उक्त विराजमान हैं। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त (वर्ष १, किरण ४ (१४) किपस्ति- इसको बैंकणधिकारी' ने संख्या दो लाखसे भी ऊपर हो गई है। यहाँके श्रुत कराया था, इसीलिये इसे बैंकणधिकारी या रूढि भंडारसे प्रतिलिपि कराके अन्यत्र भेजे हुएग्रंथोंकीसूची में बंकिवस्तिमीकहते हैं। इसमें श्रीअनंतनाथ स्वामी यदि आवश्यक होगी तो प्रकट की जायगी। परन्तु खेद की खगासन शिलामय मूर्ति है। के साथ लिखना पड़ता है कि मेरे मित्रवर्य 'अनेकॉत' (१५) केरेबस्ति-इस मंदिरके अगले भागमें तालाब के संपादक महाशय श्रीयुत जुगलकिशोरजी मुख्तारने होनेसे इसको 'केरेबस्ति' कहते हैं। इसमें कृष्ण समंतभद्राचार्य-कृत 'प्रमाण पदार्थ' नामक ग्रंथको जो पाषाण मय ५ फटकी श्रीमल्लिनाथ भगवानकी सूचीमें दर्ज है तलाश करनेके लिये मुझे कई बार मूर्ति अतीव मनोज्ञ है। लिखा है लेकिन यह हमारा दुर्भाग्य है जो अब यहाँ (१) पडवस्ति--यह मंदिर पश्चिम दिशामें होनेसे के ताडपत्र ग्रंथ अस्त व्यस्त होरहे हैं--सूचीके अनुसार इसको पडुबस्ति कहते हैं । यहाँ मूलनायक प्रतिमा ठीक ठीक व्यवस्थित रीतिसे नहीं रक्खे गये हैं । इसी श्रीअनंतनाथ भगवानकी है, जो शिलामय पद्मा- मे मेरे बहुत परिश्रम करके अन्वेषण करने पर भी वह सनस्थ करीब चार फुट ऊँची है। इस मंदिरके प्रन्थ अभी तक नहीं मिल सका और इस लिये मैं मंमप्रहमें अनेक शिलामयसंदूकोंमें कान्य,धर्मशास्त्र, पादक जी की मनोवांच्छा को पूरा करनेमें असमर्थ न्याय,व्याकरण वगैरहके कई हजार ताडपत्र ग्रन्थ हो गया। खेद है कि यहाँके भंडारमें हजारों प्राचीन पूर्वाचार्यों ने विराजमान किये थे। उनकी पहले तथा अन्यत्र अप्राप्य प्रन्थ होने पर भी यहाँ के भाई किसी को खबर न होने से हजारों ग्रंथ क्रिमिकी- या श्रीभट्टारकजी उनका जीर्णोद्धार नहीं करते और टादि-भक्षणसे लप्तप्राय होगये। परंतु संतोषके न योग्य रीतिसे अच्छी सूची वगैरह बनवा कर उन्हें साथ लिखना पड़ता है कि पारा निवासी श्रीयत विराजमान ही कराते हैं । सूची वगैरह तथा प्रन्थक बाबू देवकुमारजीने कीटभक्षणसेबचे हुए ग्रंथोंकी रखनेकी व्यवस्था ठीक ठीक न होनेसे समय पर पुस्तक सूची वगैरह अपने स्वद्न्यसे बनवाकर उन्हें सुर- मिलना अति कष्टसाध्य हो रहा है । मुंबई तथा आराक्षित रीतिसे अलमारियोंमें विराजमान कराये थे। सरस्वतीभवनोंके प्रधानाधिकारियों (मंत्रियोंसे) विशेषअब उक्त अवशिष्ट हजारोंताडपत्र ग्रंथ श्रीभट्टारक तया बाबू निर्मलकुमारजी आरा वालोंसे आग्रह पूर्वक जीके मठ में हैं, जिसका सब श्रेय उक्त बाबजी प्रार्थना है कि, इस श्रुतभंडारकी योग्य रीति से सूची महाशय को प्राप्त है। बनवाके ग्रन्थोंको सुव्यवस्थित रूपसे विराजमान करने इस श्रुत भंडारसे ही मैंने कई अप्राप्य तथा दुः- का प्रबन्ध करावें, जिससे यथावसर आवश्यकता पड़न प्राप्य ग्रंथोंकी प्रतिलिपि कराकर उन्हें मुंबई, बारा, परमन्थ शीघ्र मिल जाया करें । यहाँ पर अन्यत्र अलकलकत्ता, इन्दौर मौरसहारनपुरवगैरहस्थानोंके सरस्व- भ्य ऐसे अपूर्व तथा दुष्प्राप्य श्रीधवलादिप्रन्थोंको संदूकों तीमंडारोंको भेज दिया है,तथा अभी भी उक्त काम चाल में बंद करके रक्खा जाता है, किसीको भी उनसे यथेष्ट है पाठ दस वर्षों में करीब सौसे अधिक ताउपत्र ग्रंथोंकी लाभ उठाने नहीं दिया जाता, यह अत्यंत दुःखकी बात है। नकल कराई गई है। प्रतिलिपिकी अब तक की लोक- स्थपि श्रीधवल, जयधवल अन्धों की नकल अन्यत्र Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फाल्गुण, वीर नि०सं०२४५६] तौलवदेशीय प्राचीन जैनमंदिर (सहारनपुर आदि)स्थानों में यहाँसे पहुँचगई हैं फिर भी क परिझानके लिये थोड़ा बहुत हिन्दीभाषाका ज्ञान यहाँ के लोगों की गाढनिद्रा अभी तक भी नहीं खुलती, भीकराया जाता है। इस पाठशालाका वेतन वगैरह सो सखेदाश्चर्य है । क्या करें ? कलिकाल की लीला के लिये ३००) २० मासिक खर्च लगता है। परन्तु अपार है !! कौन रोक सकता है !!! ध्रुव फंड बहुत कम है । गवर्नमेंटमे सालाना १०००) (१७) श्रीमठदवस्ति। यहाँ बहुत सुंदर कृष्णपाषाणमय म०मिलता है । दातारों को चाहिये कि वे दान देने १॥ फुट ऊँचाई की श्रीपार्श्वनाथ भगवान की मूल के शुभावसरों पर इस विद्यालयको न भूलेंनायक प्रतिमा है।अन्यान्य प्रतिमायें भी यथायोग्य योग्य सहायता करते रहें। मजावट के साथ विराजमान की गई हैं। यहां श्री. अन्त में इतना और बतलाना चाहता हूं कि आज भट्टारक महाराज रहते हैं, वेशांत तथा अतिसरल परिणाम वाले हैं। इस मंदिर तथा अन्यान्य मे क़रीब ४०० वर्ष पहले यह मूडबिद्री नगर अतीव मंदिरोंकी देख रेख भी वे ही करते हैं और यहाँकी उन्नति शिस्वरको पहुँचा हुआथा । उस समय यहाँ पर जैनियों के ७०० घरथे, अब केवल ५० घर ही दिल्जैन संस्कृत पाठशाला में पढ़ने वाले ३०-४० विद्यार्थियों के भोजनका प्रबंध भी करते हैं। रहे हैं। उस समयके लोग देश-विदेशमें जाकर बड़े (१८) पाठशालाका मंदिर। उक्त मठकं सामनेजैन बड़े व्यापार करते थे, जिसका प्रत्यक्षभूत निदर्शन यहां के बड़े बड़े शिलामय मंदिर और अपूर्व तथा पाठशाला है । इसमें विद्यार्थियोंके दर्शनार्थ तथा अलभ्य रत्न प्रतिमायें हैं। परन्तुग्वेदके साथ लिपूजन के लिये अमृतशिलामय १।। फुट ऊंची श्री ग्वना पड़ना है कि इस ममय यहाँ पर १०० में एक मुनिसुव्रतस्वामी की मूर्निको विराजमान किया गया व्यापार करनेवाला जैनी भी अतीव कष्ट साध्य है । है । हमेशा अष्टमीतथा चतुर्दशीके दिन मब विना विद्या, बुद्धि और विभवादिक सभीमें यह पीछे हैं, र्थीलोग अध्यापकों के साथ पूजा करते हैं। इस जिमका बड़ा ही अफसांस है। भवितव्यं भवत्येव' पाठशालामें तीन विभाग हैं (१) कन्नड विभाग (२) इस नीतिके अनुमार जो कुछ होने वाला है मा संस्कृत विभाग । तथा (३) अंग्रेजी विभाग । इन होता ही है । नहीं मालूम इन लोगोंका भाग्योदय तीनों विभागों में करीब १५० विद्यार्थी पढ़ रहे हैं कब होगा । भगवान जान! और ११ अध्यापक हैं । यहाँ पर प्रचलित भाषा कर्नाटक होनस,कन्नड आठवीं कक्षातक पढाई जानी इस प्रकार यहाँके जिनमंदिरादिका यह थोड़ा सा है। अंग्रेजीथर्ड फोर्म Thi | तक पढ़ाई मंक्षेपमात्र परिचय दिया गया है । शेप वंगुर, कार्कल जाती है, और संस्कृत विभागमें प्रवेशिका, विशारद वगैरहकं जैनमंदिरों का भी यथावमा परिचय दिया तथा शास्त्री कक्षा तक पढाई होती है। व्यावहारि- जायगा । Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ अनेकां राजा खारवेल और उसका वंश [ लेखक - श्री० मुनि कल्याणविजयजी ] --------------- पाटलिपुत्रीय मौर्यराज्य-शाखा को पुष्यमित्र तक पहुँचाने के बाद 'हिमवंत - थेरावली' कारने कलिंगदेश के राजवंश का वर्णन दिया है । हाथीगुफा के लेख से कलिंगचक्रवर्ती खारवेल का तो थोड़ा बहुत परिचय विद्वानों को अवश्य मिला है, पर उसके वंश और उनकी संततिके विषयमें अभी तक कुछ भी प्रामाणिक निर्णय नहीं हुआ था। हाथीगुफा-लेखके "चेतवसबधनस" इस उल्लेख से कोई कोई विद्वान् खारवेल को 'चैत्रवंशीय' समझते थे तब कोई उसे 'चेदिवंश' का राजा कहते थे । हमारे प्रस्तुत थेरावली - कारने इस विषयको बिलकुल स्पष्ट कर दिया है । थेरावली के लेखानुसार खारवेल न तो 'चैत्रवंश्य' था और न 'चेदिवंश्य'. किन्तु वह 'चेटवंश्य था । क्योंकि वह वैशाली के प्रसिद्ध राजा 'चेटक' के पुत्र कलिंगराज ' शोभनराय' की वंश परम्परामें जन्मा था । अजातशत्रु के साथ की लड़ाई में चेटक के मरने पर उसका पुत्र शोभनराय वहाँ से भाग कर किस प्रकार कलिंगराजा के पास गया और वह कलिंग का राजा हुआ इत्यादि वृत्तान्त थेराबली के शब्दों में नीचे लिखे देते हैं, विद्वान गरण देखेंगे कि कैसी अपूर्व इक़ीक़त है । [वर्ष १, किरण ४ "वैशाली का राजा चेटक तीर्थंकर महावीरका उत्कृष्ट श्रमणोपासक था । चम्पानगरीका अधिपति राजा कोणिक - जोकि चेटकका भानजा था - ( अन्य श्वेताम्बर जैन संप्रदाय के प्रन्थों में कोणिकको चेटकका दोहिता लिखा है ) वैशाली पर चढ श्राया और लड़ाई में चेटक को हरा दिया। लड़ाई में हारने के बाद अन्नजलका त्याग कर राजा चेटक स्वर्गवासी हुआ । चेटक का शोभनराय नाम का एक पुत्र वहाँ से (वैशाली नगरी से ) भागकर अपने श्वशुर कलिंगाधिपति 'सुलोचन' की शरण में गया । सुलोचन के पुत्र नहीं था इस लिये अपने दामाद शोभनरायको कलिंगदेश का राज्यासन देकर वह परलोकवासी हुआ । भगवान् महावीरके निर्वाण के बाद अठारह वर्ष बीते तब शोभनरायका कलिंग की राजधानी कनकपुर में राज्याभिषेक हुआ । शोभनराय जैनधर्म का उपासक था, वह कलिंग देश में तीर्थस्वरूपकुमार पर्वत पर यात्रा करके उत्कृष्ट श्रावक बन गया था । शोभनराय के वंश में पांचवीं पीढ़ी में - ' चण्डराय' नामक राजा हुआ जो महावीरके निर्वाण से १४९ वर्ष बीतनंपर कलिंग के राज्यासन पर बैठा था । चण्डराय के समय में पाटलिपुत्र नगर में आठवाँ नन्दराजा राज्य करता था । जो मिध्याधर्मी और अ ति लोभी था। वह कलिंगदेशको नष्ट-भ्रष्ट करके तीर्थ स्वरूप कुमरगिरि पर श्रेणिकके बनवाये हुए जिनमन्दिर को तोड़ उसमें रही हुई ऋषभदेव की सुवर्णमयी प्रतिमा को उठाकर पाटलिपुत्र में ले आया । * अन्य जैनशास्त्रोंमें भी "कंच्णपुरं कलिगा" इत्यादि उदेखोंमें कलिंग देशकी राजधानीका नाम 'कञ्चनपुर' (कनकपुर) ही लिखा है। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फाल्गण, वीर निसं०२४५६] राजा खारवेल और उसका वंश इसके बाद शोभनराय की ८वीं पीढ़ीमें क्षेमराजक और निर्मन्थियों के चातुर्मास्य करने योग्य ११ ग्यारह नामक कलिंग का राजा हुआ, वीरनिर्वाण के बाद गुफायें खुदवाई थीं। २२७दो सौ सत्ताईस वर्ष पूरेहुए तब कलिंगके राज्या- भगवान महावीरके निर्वाणको ३०० तीनसौ वर्ष पुरे सन पर क्षेमराज का अभिषेक हुआ और निर्वाणसे हुए तब बुट्टरायका पुत्र भिक्खुराय कलिंगकाराजा हुआ। २३९ दो सौ उनतालीस वर्ष बीते तब मगधाधिपति भिक्खुरायके नीचे लिखेतीन नाम कहे जाते हैंअशोक ने कलिंग पर चढ़ाई की और वहाँ के राजा निम्रन्थ भिक्षुओं की भक्ति करने वाला होनेसे क्षेमराजको अपनी आज्ञा मनाकर वहाँ पर उसने अपना उसका एक नाम "भिक्खुराय" था। गुप्त संवत्सर चलाया । पूर्वपरम्परागत "महामेघ" नाम का हाथी उसका * महावीर निर्वाणसे २७५ दो सौ पचहत्तर वर्ष क वाहन होनेसे उसका दूसरा नाम "महामेघवाहन" था। बाद क्षेमराज का पुत्र बुट्टराज कलिंग देशका राजा उसकी राजधानीसमुद्र के किनारे पर होनेसे उसका हुआ, बट्टराज जैनधर्म का परम उपासक था, उसनं तीसरा नाम "खारवेलाधिपति" था *। कुमरगिरि और कुमारीगिरिनामक गदोपर्वतों पर श्रमण भिक्षुराजअतिशय पराक्रमी और अपनी हाथी आदि __हाथीगुफा वाले खारवेलके शिलालेखमें भी पक्ति १६वीं की सेनासे पृथवीमण्डल का विजेता था, उसने मगध में “वमराजा स” इस प्रकार खारवेलके पूर्वजके तौरसे क्षेमराजका देशके राजा पुष्यमित्रxकोपराजित करके अपनीमानामालेख किया है। ज्ञा मनाई, पहिले नन्दराजा ऋषभदेवकी जिस प्रतिमाको ____कलिंग पर चढ़ाई करनेका जिकर अशोकके शिलालेख में भी है, पर वहां पर अशोकके राज्याभिषेकके आठवें वर्षके बाद उठा कर लेगया था उसे वह पाटलिपुत्र नगरसे वापिस कलिंग विजय करना लिखा है। राज्य-प्राप्तिके बाद ३ या ४ वर्ष अपनी राजधानी में लेगया + और कुमरगिरि तीर्थ में पीछे अशोकका राज्याभिषेक हुमा मान लेने पर कलिंग का युद्ध श्रेणिक के बनवाये हुए जिनमन्दिरका पुनरुद्धार कर प्रशोकके राज्यके १२--१३वे में भायगा। येरावलीमें प्रशोक के आर्य सुहस्ती के शिष्य सुस्थित-सुप्रतिबुद्ध नाम के की राज्यप्राप्ति निर्वागासे २०० वर्षके बाद लिखी है, अर्थात् २१० स्थविरों के हाथ से उसे फिर प्रतिष्ठित कराकर उस में में इसे राज्याधिकार मिला और २३६ में कलिंग विजय किया, इस स्थापित की। हिमाबसे कलिंगविजय वाली घटना अशोकके राज्यके ३० कि अन्तम माती है। जो कि शिलालेखसे मेल नहीं खाती। * हाथीगुफा वाले लग्व में भी 'भिराजा' 'महामेषवाहन' प्रशोकके गुप्त क्सक्लानेकी बात ठीक नींचती। मालूम मौर 'खारवेलसिरि' इन तीनों नामों का प्रयोग खारवल के लिव होता है, पेशवली लेखकने अपने समयमें प्रचलित गुप्त राजाओंक ___x खारवलके शिलालेखमें भी मगधक गजा भम्पनिमित्र की चनाये गुप्त संवत् को प्रशोकका चलाया हुमा मान लेने का धोखा जीतनका उलेख है। वाया है । इली उखसे इसकी प्रति प्राचीनताके गंवन्धमें भी शका ना पैदा होती है। ___+ नन्दराजा द्वारा ले जाई गई जिनमूर्तिको वापिस कलिंग बाज'का भी खारवेलके हाथीगुफा वाल लखमें “व:- लेजाने का हाथीगुफा-लखमें नीचे लिखे अनुमार पट उं.ख है:-- राजा म" इस प्रकार का उख है। "नन्दराजनीतं च कालिंगजिनं संनिवेसं...गहग्ननान ___ उड़ीसा प्रान्तमें भुवनेश्वर के निकटके 'खगडगिरि' और 'उदय- पडिहारेहि अंगमागध-वसं च नेयानि [0]" गिरि पर्वत ही विकमकी १०वीं तथा ११वीं शताब्दी तक क्रमशः -हाथीगुफालेख-पंक्ति १२वीं: बिहार-यास्सिा जर्नल, पाम्युम 'कुमगिरि और 'कुमारीगिरिकहलाते थे। ४, मग ४। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ४ ____पहिले जो बारह वर्ष तक दुष्काल पड़ा था उसमें मगध, मधुरा, वंग, प्रादि देशोंमें तीर्थंकरप्रणीत धर्म आर्यमहागिरि और आर्यसुहस्तीके अनेक शिष्यशुद्धा - की उन्नति के लिये निकल पड़े। हारन मिलनेके कारण कुमरगिरि नामक तीर्थमें अनशन उसके बाद मिक्खुरायने कुमरगिरि और कुमारीकरकेशरीर छोड़चुके थे, उसीदुष्काल के प्रभावसे तीर्थ- गिरिनामक पर्वतों पर जिन प्रतिमाओंसे शोभित अनेक करों के गणधरों द्वारा प्ररूपित बहुतेरे सिद्धान्त भी गुफायें खुदवाई, वहाँ जिनकल्प की तुलना करने वाले नष्टप्राय होगये थे,यह जानकर भिक्खुरायनेजैनसिद्धान्तों निम्रन्थ वर्षाकालमें कुमारी पर्वत की गुफाओं में रहते का संग्रह और जैनधर्मका विस्तार करने के वास्ते संप्रति और जो स्थविरकल्पी निम्रन्थ होते वे कुमर पर्वतकी राजा की तरह श्रमण निम्रन्थ तथा निन्थियोंकी एक गुफाओं में वर्षाकालमें रहते, इस प्रकार भिक्खुराय ने सभा वहीं कुमारी पर्वत नामक तीर्थ पर इकट्ठी की, निम्रन्थों के रहनेके वास्ते विभिन्न व्यवस्था करदी थी। जिसमें आर्य महागिरिजी की परम्पा के बलिस्सह, उपर्युक्त सर्व व्यवस्थासे कृतार्थ हुए भिक्खुराय ने बोधिलिंग, देवाचार्य,धर्मसेनाचार्य,नक्षत्राचार्यपादिक बलिस्सह, उमास्वाति, श्यामाचार्यादिक स्थविरों को २०० दो सौ जिनकल्पकी तुलना करनेवाले जिनकल्पी नमस्कार करके जिनागमों में मुकुटतुल्य दृष्टिवाद-अंग साधुतथा आर्यसुस्थित,आर्यसप्रतिबद्ध, उमास्वाति है, का संग्रह करने के लिये प्रार्थना की। श्यामाचार्य प्रभृति ३०० तीन सौ स्थविरकल्पी निर्मन्थ भिक्खुराय की प्रेरणासे पूर्वोक्त स्थविर प्राचायाँ उस सभा में आये,आर्या पोइणी आदिक ३०० तीनसौ ने अवशिष्ट दृष्टिवादको श्रमणसमुदायसे थोड़ा थोड़ा निन्थी साध्वियां भी वहां इकटी हुई थीं। भिक्खराय, एकत्र कर भोजपत्र, ताड़पत्र और बल्कल पर अक्षरों सीवंद, चूर्णक, सेलक श्रादि ७०० सात सौ श्रमणोपा- . ' से लिपिबद्ध करके भिक्खुराय के मनोरथपूर्ण किये और सक और भिक्खुराय की स्त्री पूर्णमित्रा आदि सातसौ संरक्षक हुए। इस प्रकार करके वे आर्य सुधर्म- चित द्वादशांगी के श्राविकायें ये सब उससभामें उपस्थित थे। उसी प्रसंगपर श्यामाचार्य ने निग्रन्थसाधुसाध्विया पत्र,पौत्र और रानियोंके परिवारसेसशोभितभिक्ख- के सुखबोधार्थ 'पन्नवणा सूत्र' की रचना की है। रायने सब निर्मथों और निथियों को नमस्कार करके स्थविर श्रीउमास्वातिजी ने उसी उद्देश से नियुक्ति कहा हे महानुभावो! अब पापवर्धमान तीर्थकर-प्ररूपित महित 'तत्वार्थमृत्र' की रचना की X । जैनधमेकी उन्नति और विस्तार करने के लिये सर्व स्थविर आर्य बलिस्सहने विद्याप्रवादपूर्वमें में 'अंग शक्ति से उद्यमवन्त हो जायें।' विद्या' श्रादि शास्त्रों की रचना की + । भिक्खुरायके उपर्युक्त प्रस्ताव पर सर्व निथ और * श्यामाचार्य-कृत 'पावणा' सूत्र अब तक विद्यमान है । निन्थियोंने अपनीसम्मति प्रकट की और भिक्षुराजसे x उमास्वातिकृत 'तत्त्वार्थसूत्र' और इसका स्वापज्ञ 'भाष्य पूजित,सत्कृत और सम्मानित निन्थ प्रभी तक विद्यमान हैं। यहां पर उल्लिखित नियुक्ति' शब्द संभवत: इस भाष्यके ही अर्थमें प्रयुक्त हुमा जान पड़ता है। * तत्वार्थसूत्रके कर्ता 'मास्वाति' भी मिसराय खारवेसकी अंगविया' प्रकीर्णक भी हल तक मौजूद है । कोई इस सभामें उपस्थित थे, यह बात बहुत ही संधि तथा प्रापत्तिके ... नौ हजार श्लोक प्रमाणका यह प्राकृत गद्य-पथम लिखा योग्य जान पाती है। -सम्पादक हुमा 'सामुखिक विद्या' का प्रन्यो। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फाल्गुण, वीर नि०सं०२४५५] वीरवाणी २२९ इस प्रकार जिनशासन की उन्नति करनेवाला वक्रराय के बाद उसका पुत्र 'विदुहराय' कलिंगदेश भिक्खराय भनेक विध धर्मकार्य करके महावीर निर्वाण का अधिपति हुमा । से ३३० तीन सौ तीस वर्षोंके बाद स्वर्गवासी हुआ। विदुहरायनेभीएकाप्रचितसे जैनधर्मकी आराधना भिक्खुराय के बाद उसका पुत्र 'वक्रराय' कलिंग की। निर्मन्थ-समूह से प्रशंसित यह राजा महावीर का अधिपति हुआ । निर्वाण से ३९५ तीनसौ पंचानवे वर्ष के बाद स्वर्गवासी वक्ररायभी जैनधर्मका अनुयायी और उन्नति करने हुआ।"* वाला था, धर्माराधन और समाधिके साथ यह वीर x उदयगिरि की मधपुरी गुफाके सातवें कमरेमें विदुराय' निर्वाण से ३६२ तीन सौ बासठ वर्ष के बाद स्वर्गवासी के नामका एक छोटा लेख है, उसमें लिखा है कि यह 'लयन' (गुफा) कुमार विदुरावका है।' लेखके मूल शब्द नीचे दिये जाते हैं "कुमार वदुरवस लेन" * कलिंग देशके उदयगिरि पर्वत की मानिकपुर गुफा के एक -एपिग्राफिका इटिका जिल्द १३ । द्वार पर खुदा हुमा 'चक्रदेव' के नामका शिलालेख मिला है जो * कुछ महीनों पहिले 'हिमवंत-येरावली' नामक एक प्राक्त इसी 'वकराय' का है । लेख नीचे दिया जाता है भाषामयी प्राचीन स्थविरावलीका गुजराती अनुवाद मेरे देखने में माया "वेरस महाराजस कलिंगाधिपतिनो महामेघवाहन था, जिसका परिचय मैने अपने (अप्रकाशित)निवन्ध "वीर संवत् मौर 'वकदेपसिरि' नो लेणं" जैन कालगणना के अन्तमें परिशिष्टके तौरपर दिया है, उसी परिशिष्ट -मुनि जिनविजयसपादित प्राचीन जैनलेखसंग्रह भा.१०४ मेंका 'राजा खारवेल और उसका श' यह एक प्रकरण है। हुआ। were...eeran... वीरवाणी सोता था जब सकल विश्व अज्ञान-निशा में, होता था अन्याय अकारण दिशा दिशा में; करुणा, रक्षा, दया, प्रेम, व्याकुल रोते थे, हिन्सा, रोदन, रक्तपात, अविरल होते थे।। तभी 'वीर-चाणी खिरी बालोकित जग हो गया। शान-दिवाकर-उदयसे मिथ्यातम सब खो गया । -कल्याणकमार जैन 'शशि' awaonnasnennuninovel Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १ किरण ४ सिरि खारवेल के शिलालख की १४वीं पंक्ति [ले०--श्री० बाबू कामताप्रसादजी] माघमासके 'अनेकान्त' में श्रीमुनिपुण्यविजयजीने सिरिना जीव-देड-सीरिका-परिखिता।" x सम्राट् खारवेलके हाथीगुफा वाले शिलालेख की १४वीं और इस नये पाठ के विषय में जायसवालजी पंक्तिपर प्रकाश डाला है और उससे यह ध्वनित किया है. लिखते हैं कि:कि श्वेताम्बर ग्रंथों के वाक्यों से इस पंक्तिके वाक्योंका "After Khina one letter was unread सादृश्य है। किन्तु शिलालेखके अक्षरों का ठीक अध्ययन in the rock... The expression seems to stand for "Yapa-kshina-samsita'='redकिये बिना मुनिजी का बताया हुआ पाठ स्वीकार ced (expiated) and emaciated by 'Yapa' किया जाना कठिन है । तिसपर स्वयं महोपाध्याय पं० practices." Another possible reading (if काशीप्रसाद जायसवालने करीब दस वर्ष के परिश्रमके we neglect the Ya' below the line)would बाद इसे नये रूपमें पढ़ा है और उनका यह पाठ बहुत be Pakhina-samsita-Prakshina-samsita ठीक ऊँचता है। उन्होंने इस पंक्ति को पहले इस रूपमें = thoroughly reduced and emaciated." Taking Samsita or Samsata =Sanskrit उपस्थित किया था : Samsrita (round of births),Khina-samsita would mean "those who have ended [1]प-खिम-व्यसंताहि-काव्य निसीदीयाय याप their course of births (by austerities)," that is the perfect ideal Jaina ascetes, भावके हिराज-भितिनि चिनवतानि वोसासितनि who are believed to have freed them0] पूनानि कत-उवासा खारवेलमिरिना जीव selves by means of austerities. This is देवमिरि-कम्पम् राखिता [1] so much idealised in Jain philosophy." । पूजायरत ete) state that Kharvela having किन्तु अब वे इसी को यूं प्रकट करते हैं - tinished layman's Vow(rata-urasn-Khat"मपयन विजयिचक( + अकुमारी-पवते भरहयते vela-Sirina) realised (experienced) the (य) प-खीन-सं (1) सन () हि काय beautyot (ie the distinction bet:) 'Soui' (Jiva) and matter ( Deha )" (JBORS. निमीदीयाय यापनावकेहि गनमितनि चिनव XIII. P.233-234) सानि षासासितानि पुजाय-रत-उवास वाग्वल- इम वक्तव्यसे उक्तपंक्तिकासम्बन्धठीक खारवलसिरि ___ * कह पाठ मुनिजी का बताया हुमा नहीं किन्तु खुद के. पी. x इस पाठसे मुनि जी द्वारा उनकृत ग्रंश कुछ भी विभिनताको जायसवाल जीका बताया हुमा है। मुनिजीने तो महज़ उसके प्रर्थ लिये हुए नहीं जान पड़ता । फिर नहीं मालूम इसे तथा इसके साथ पर अपना विचार प्रस्तुत किया है, जिस पर लेखक महाशय ने जायसवालजीके अंग्रेजी क्तव्यको उक्त करनेका लेखक महाशयने कोई मापत्ति नहीं की। -सम्पादक व्यर्थ ही क्यों परिश्रम कठाया है।" -सम्पादक Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फालगण, वीर नि०सं०२४५६] सिरि खारवेल के शिलालेखकी १४वी पंक्ति में होजाता है "धर्मका निर्वाह करने वालों" से नहीं। करते हुए जिसको मुनिजीने उद्धत कियाहै और जिसे अतः मुनिजी का पाठ सहसा स्वीकार कर लेना कठिन लेखक महाशय ने अपनी जाँच में "बहुत ठीक" पाठ प्रतीत होता है। जो हो; यह तो निस्संदेह है कि यह शिला- बतलाया है, लिखते हैं:लख दिगम्बर-श्वेताम्बर प्रभेदसे प्राचीन है और उस "इस लेखकी १४वीं पंक्तिमें लिखा है कि राजा ने में अखंड जैनसंघका दर्शन होता है-किसी संप्रदाय कुछ जैन साधुओं को रेशमी कपड़े और उजले कपड़े विशेष का नहीं । विद्वानों को इसका अध्ययन करना नजर किए-अरहयते पखीनसंसितेहि कायनिसी चाहिये। दीयाय यायगावकेहि गजाभितिनि चिन-वतानि नोट वामा सितानि अर्थात अर्घयतं प्रक्षीणसंसृतिभ्यः यह लेख कुछ बड़ा ही विचित्र जान पड़ता है। जब कायनिषीयां यापज्ञायकेभ्यः राजभतीश्चीनवजाणिवामुनिजी-द्वारा उद्धत पाठ जायसवालजीका ही पाठ है, मामि सितानि । बल्कि उनके नये पाठका ही अविकल रूप है, और उसके इससे यह विदित होता है कि श्वेताम्बर वनधारण "कायनिसीदीयाय यापनावकेहि" शब्दों के करने वाले जैन साधु, जो कदाचित् यापमापक" अर्थविरोध में जो विचार मुनिजी-द्वारा प्रस्तुत किया कहलाते थे, खारवेल के समय में अर्थात् प्रायः १७० गया था उसपर भी यहाँ कोई आपत्तिनहीं की गई और ई०पू० (११० विक्रमाब्दपूर्व) भारत में वर्तमान थे, न उसकासमर्थन ही किया गया,तब समझमें नहीं आता मानो श्वेताम्बर जैनशाखाके वे पूर्वरूप थे।" कि लेखक महाशयने यह लेख लिखनेका कष्टक्यों उठा- ऐसी हालतमें लेखक महाशय का उक्त नतीजा या? लिखकर क्या लाभ निकाला? अथवा किस धनमें निकालना और मुनिजीके पाठको स्वीकार करने वे इसे लिख गये हैं ? आपका यह लिखना भी कुछ में कठिनता का भाव दर्शाना कहाँ तक उचित है इसे अर्थ नहीं रखता अथवा निःसार जान पड़ता है कि सहृदय पाठक स्वयं ही समझ सकते हैं । मुनिजी ने "इस वक्तव्यसे उक्त पंक्तिका सम्बन्ध ठीक खारवेल- अपने लेखद्वारा यदि यह ध्वनित किया है कि सिरि मे होजाता है-'धर्म का निर्वाह करने वालों से "श्वेताम्बर प्रन्थों के वाक्यांसे इस पंक्ति वाक्यों का नहीं।" क्या जायसवालजीके इस वक्तव्यसे पहलेके मादृश्य है" और वह श्रापको इष्ट नहीं तो उसके उनके वक्तव्यद्वारा इस पंक्ति का सम्बन्ध ग्यारवेल से अमरको दूर करनेका यह तरीका नहीं जो असितयार नही होता था ? जरूर होता था। और क्या इमपंक्तिमें किया गया है। उसके लिये शिलालेख का परिश्रम "कायनिसीढीयाय यापज्ञावहिगजभितनिचिन. करके स्वतः अध्ययन करना चाहिये और यदि हो सके चनानि वासा सितानि" पदों के मौजूद होते हुए भी नो जायसवालजी के पाठको बेठीक सिद्ध करना चाहिये, जिस अभी बिना गहरी जाँच के "बहुत ठीक" यह कहा जामकता है कि इसका दूसरोंस, बिलकुल ही बतला दिया गया है ! अथवाजायसवाल तथा मुनिजीमम्बंध नहीं है? कदापि नहीं । खुद जायसवालजीहालके द्वारा प्रतिपादिन अर्थों को ही गलत साबित करना अपने एक लेख में, इस पंक्तिके उमी अंशको उद्धृत चाहिये और दिगम्बर प्रन्थों के साथ इम पंक्ति के उन * देखो, 'नागरीप्रचारिणी पत्रिका' भाग १. ३ पृ०५०१ शब्दोंका अधिक सादृश्य तथा सम्बंध स्थापित करके यह पूरा लेख भी पाठकोंके परिवयके लिये अन्यत्र उपभूत किया बताना चाहिये। तभी कुछ कहना अथवा लिखना वन नकार हो सकेगा। सम्पादक गया है। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ४ manasansaanaanama प्राकृत कारण नाना प्रकारके कर्मों से बैंधता है। ऐसे साधुकी समससुवधुबग्गो समसहदक्खो पसंसणिंदसमो। मुक्ति नहीं होती।' समलोहचणो पण जीविदमरणे समो समणो॥ उत्तमधम्मण जुदो होदि तिरक्खो वि उत्तमो देवो। -कुन्दकुन्दाचार्य । चंडालो वि मुरिंदो उत्तमधम्मेण संभवदि ॥ 'बन्धुवर्ग और शत्रुवर्ग के प्रति जिसका समानभाव --स्वामिकार्तिकेय । है-एक को अपना और दूसरे को पराया जो नही तिर्यच भी उत्तमदेवगतिको प्राप्त होता है और चांडाल भी __उत्तम धर्मसे युक्त हुश्रा-उसे पालन करता हुआसमझता--,सुख यादुःखके समुपस्थित होनेपर जिसका साम्यभावस्खलित नहींहोता-एकका पाकर हर्षित और उत्तमधर्मका अनुष्ठान करनेसे देवोंका इन्द्र होतो है।' दूसरेको पाकर संल्लेशितजो नहीं होता-,प्रशंसा और (इससे यह स्पष्ट है कि चाण्डाल जैसे हीन समझे जाने वाले मनुष्य भी जैन दृष्टिमें उत्तम धर्मके अधिकारी तथा पात्र हैं और निन्दा के अवसरों पर जो समचित्त रहता है-एक से इस लिये वे उत्कृष्ट जैनाचारका अनुपान कर सकते हैं ।) अपना उत्कर्ष और दूसरे से अपना अपकर्षनहीं मानता-, मिट्टी के ढेले और सोने के डलेमें जोसमताभाव रखता मणु मिलियउ परमेसरहं, परमेसह वि मणरस । है-एकको अकिंचित्कर और दूसरेकोअपनाउपकारक वाहिवि समरास हुवाह, पुज्ज चढ़ावउ कस्स।। नहीं समझता, इसी तरह जीना और मरना भी जिसकी -योगीन्द्रदेव। दृष्टि में बराबर है-एकमे प्रात्मधारण और दसरे से . 'जब मन परमेश्वरसे मिलगया-तन्मय होगयाअपने अत्यंत विनाशका जो अनभव नहीं करता, वही और परमेश्वरमनमें लीन होगया, दोनों ही समरस हो 'श्रमण' अर्थान् समताभावमें लीन सबा जैनसाध है। गये; तब मैं पूजा किसको चढ़ाऊँ ? किसीको भी पूजा (इसमें जनसाधुका जास्वरूप बतलाया गया है वह बड़े महत्वक चढ़ाने का उस वक्त कुछ प्रयोजन नहीं रहता।। है। से ही साधुमास जैनसमाज कभीगौरवान्वित था। भाज कल जो कतिपय साधु सगद्वेषक वशीभूत हुए बलबन्दियां करते हैं. साम्य- मोक्खहं कारण एत्तहउ, अण्णण तंतुण मंतु ॥ भावको भुलाकर निन्दा प्रशसा तथा सामाजिक झाड़-टटोंमें भाग लेते -योगीन्द्रदेव । हैं उन्हें इस माधुस्वरूपक मामन जैनसाधु मानने में बड़ा ही सकोच होता जिसने विषय-कषायों से अपने मनको हटा कर है । निःसन्दह ऐसे लोग जैनसाधुके पवित्र नामको बदनामकरते हैं। परमात्मामें-निजशुद्ध स्वरूपमें-लीन किया है वहीमाक्ष मुज्झदि पा रग्निदि वा दुस्सदि वादनमपण को प्राप्त करता है । मोक्षप्राप्तिका यही एक उपाय है । इससे भिन्न दूसरा कोई मंत्र या तंत्र उसके लिये नहीं है। मासेज । जदि समणो भएणाणी वझदि पंचहणायकु वसि करहु, जेण होति वसि भएण। कम्मेहि विवहेरि॥ _ --कुन्दकुन्दाचार्य। मूल विणइ तरुवरह, अवसइंसकहिं पण ॥ 'यदि साधु मज्ञानी है-आत्मज्ञान से परामुख पांचों इंद्रियोंके नायकको-मनको-चशमें करो, है तो वह अवश्य ही परपदार्थ को प्राप्त होकर राग, जिसके वश में होनेसे अन्य सभी इंद्रियों वश में हो देषयामोहरूप प्रवर्तताहै-अथवा उसकी ऐसी प्रवृत्ति जाती है। जैसे कि मूलके नष्ट होने पर वृक्षके पसे खुद उसके भज्ञानी होनेको सूचितकरतीहै-और वह उसके ही सूख जाते हैं । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फागुन, पार नि०स०२४५६) सुभाषितमणियाँ २२३ सस्कृत _ 'जिस हृदयमें धैर्य,शौर्य, सहिष्णुता,सरलता,संतोष, सत्त्वज्ञानविहीनानां नैथ्यमपि निष्फलम् । सत्याग्रह, तृष्णात्याग, कषायविजय, उत्साह, शान्ति, न हि स्थान्यादिभिः साध्यान्नमन्यैरतण्डुलैः ।। , H i man इन्द्रियदमन, उदारता,समता और न्याय तथा परमार्थमें -वादीभसिंहसरि । " रति, ये गुण स्फुरायमान हों वहीं मनुष्यताका वास है। 'जोलोग तत्त्वज्ञानसे रहित हैं उनका निम्रन्थसाधु अर्थात् मनुष्यता की प्राप्ति अथवा उसके उदयके लिये साधू हृदय इतने गुणों से संस्कारित होना चाहिये।' , बनना भी निष्फल है क्योंकि यदितण्डुलादिक भोजनकी सामग्री नहीं है तो महज पतीली आदि पात्रोंका संग्रह शद्रे चैष भवेदवतंबाखणेऽपि न विद्यते। कर लेनेसे ही भोजन निष्पन्न नहीं हो सकता।' शद्रोऽपि वामणो यो ब्राह्मणः शुद्र एव च। (इससे स्पष्ट है कि जैन मुनियोंकि लिये तत्वज्ञान सबमे अधिक जरूरी है, वह यदि नहीं है तो उनका निम्रन्थ वेष धारण करना भी -महाभारत। निरर्थक है।) 'एक शूद्रमें सदाचार पाया जाता है जब कि एक "भावहीनस्य पूजादितपोदानजपादिकम। ब्राह्मणमें वह नहीं देखा जाता । अतः सदाचार-संयुक्त व्यर्थ दीक्षादिकंचस्यादजाकंठे स्तनाविव ॥" , शूद्रको भी ब्राह्मण और सदाचार से रहित प्रामाणको भी शूद्र समझना चाहिये। 'बिना भावके पूजा आदिकका करना, तप तपना, दान देना, जाप्य जपना-माला फेरना-और यहाँतक (इससे शूद्र सदाचारका पात्र ही नहीं किन्तु उसके प्रभाव से ब्राह्मण बनने का भी अधिकारी है।) कि दीक्षादिक धारण करना भी ऐसा ही निरर्थक हैजैसा कि बकरी के गलेका स्तन । अर्थात् जिस प्रकार बकरी "पुण्यस्य फलमिच्छन्ति पण्यं नेच्छन्ति मानवाः। के गले में लटकते हुए स्तन देखने में स्तनाकार होते हैं फलं नेच्छन्ति पापस्य पापं कुर्वन्ति यत्नतः ।।" परन्तु वे स्तनों का कुछ भी काम नहीं देते-उनसे दूध नहीं निकलता--उसी प्रकार विना भावकी पूजनादिक 'मनुष्य पुण्यका फल सुख तो चाहते हैं परन्तुपण्य क्रियाएँ भी देखने की ही क्रियाएँ होती हैं, पूजादिकका __कृत्य करना नहीं चाहते!-उसके लिये सौ हीले बहाने वास्तविक फल उनसे कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता।' " बना देते हैं-और पापका फल-दुख-कमी पाहवे (जो भाव इन सब क्रियामोंका जीवन और प्राण है यह तत्त्व - नहीं-उसके नामको सुनकर ही घबरा जाते हैं-फिर भी पाप को बड़े यल से करते हैं !!' ज्ञानके बिनानहीं बन सकता इसलिये तत्त्वज्ञानका होना-इन क्रियामोंके । मर्मको पहचानना-सर्वोपरि मुख्य है । इसीसे जैनाचार्योने चारित्रसे (यह ससारी जीवोंकी केसी उलटी रीति है। एसी हालकमें पहले सम्यग्ज्ञानके माराधनका उपदेश दिया है और उस चरित्रको कारण-विपर्यय होनेसे दुखकी निति और सुखकी प्राप्ति केसे हो मिथ्या चरित्र एवं संसार-परिभ्रमणका कारण बतलाया है,जो सम्य सकती है ? इसी बातको पविने इस पथ सखेद अमित किया है।) ज्ञान पूर्वक नहीं है।) __ "अनुगंतुं सतां वर्त्म कस्स्नं यदि न शक्यते। धैर्य शीयसहिष्णते सरलता संतोषसत्याग्रहों स्वल्पमप्यनगंतव्य मार्गस्थो नापसीदति ॥" तष्णायाविलयः कषायविजयःमोत्साहनं मानसी 'सत्पुरुषों के मार्ग पर यदि तुम पूरी तौर से नहीं शांतिदान्तिरुदारताच समता न्यायेपरार्थरति- चल सकते तो भी थोड़ा तो चलना ही चाहिये, क्योंकि चैते यत्र गुणाः स्फुरन्ति हृदये तत्रैव मानुष्यकम् ॥ ओ मार्गपर लगजाता है वह दुःख नहीं पाता-अन्यथा --मुनिरलचन्। मार्ग भटक कर ठोकरें ही खानी पड़ती हैं।' Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ X X X xx-वन्द २३४ भनेकान्त [वर्ष १ किरण ४ हिन्दी उर्दू बिना भाव के बाह्य-क्रियासे धर्म नहीं बन पाता है, दया वह धर्म है जिसपै कि कुदरत नाजर करती है। रक्खो सदा भ्यानमें इसको, यह आगम बतलाता है। सदाकत नाज करती है, कदामत नाज करती है । भाव-बिना जो व्रत-नियमादिक करके ढोंग बनाता है, असूलों पर इसी के शाने वदहत नाज करती है। आत्म-पतित होकर वह मानव ठग-दंभी कहलाता है। हकीकत में अगर पूछो हकीकत नाज करती है। x x x . -'नाज' -'यगवीर' किसी दनिया के बन्दे को अगर शोके हुकूमत हो। माला तो कर में फिरे, जीभ फिरै मुख माहिं । तो मेरा शौक दुनियामें फलतः इन्साँकी स्त्रिदमत हो॥ मनुवाँ तो दहुँ दिस फिरै, यह तो सुमरन नाहि ॥ xxx x x -कबीर। "नहीं कुंजेखिलवत' की उस को जरूरत । दादू दीया है भला, दिया करो सब कोय। जो महफिल को खिलवतसरा१० जानता है ।।" घर में दिया न पाइये, जो कर दिया न होय ॥ .. X X . X . x x -दादूदयाल । ल। "इस घरको आग लग गई घर के चिरारा से । सबै सहायक सबल के, कोउ न निबल-सहाय। दिल के फफोले जल उठ सीने" के दारा से । पवन जगावत भाग को, दीपहिं देत बुझाय ॥. "ऐ फट ! तने हिन्द की तुर्की तमाम की। भरि हुँ दन्त तन गहहिं ताहि मारत नहिं जग कोइ। लोगे का चैन खो दिया राहतार हराम की ।।" xx X हम संतत तन चरहिं वचन उपरहिं दीन होइ॥ किसी बेकसको ऐबेदादगर! मारा तो क्या मारा ? अमृत-पय नित सवहिं वत्स महि-थंभन जावहिं, जो खद ही मर रहा हो उसकोगर मारातोक्यामारा ? हिन्दुर्हि मधुर न देहिं कटुक तुरकहिं न पिवावहिं ॥ न मारा आपको जो खाक हो अक्सीर बन जाता। कह नरहरि अकबर सुनो, बिनवत गउ जोरे करन । अगर पारे को ऐ अक्सीरगर ! मारा तो क्या मारा ? केहि अपराध मारियत मोहे, मुयेहु चामसेवत घरन।। बड़े मूजी को मारा १४नसेअम्मारा को गर मारा ? X x -नरहरि । महंगो प्रजदहाश्रो५ शेरेनर मारा तो क्या मारा ? तोड़ने दूं क्या इसे नकली किला मैं मान के । -जोक' पूजते हैं भक्त क्या प्रभु-मूर्ति को जड जान के॥ "जेवर पिन्हाना बच्चों को हरगिज ६ भला नहीं। अझजन उस को भले ही जड कहें भाजन से। पर क्रिस्म सीमोजर' से न हो तो बुरा नहीं । देखते भगवान को धीमान उस में ध्यान से ॥ जिस हाथ में कड़ा हो वह टूटे तो क्या अजब ? x x -मैथिलीशरण। हंसली हो जिम गले में समझ लो गला नहीं ।।" कानन में बसै ऐसौ भान न गरीब जीव, xxx प्रानन सौं प्यारौ प्रान पूंजी जिस यह है। अवस१७ अपनी हस्ती पै फूला हुआ है। फायर सुभाव धरै काहू सौं न द्रोह करै, जियेगा हमेशा न कोई जिया है । सब ही सौं रै दाँत लिये तिन' रहे है। है दो साँस पर जिन्दगानी बशर ८ की। काहू सौं न रोष पुनि काहू पैन पोष चहै, कि एक पा रहा दूमरा जा रहा है ।। __ x x . . 'दास' काहू के परोष परदोष नाहिं कहै है। १प्रकृति.२गई.३ सत्यता.नित्यता.५सिद्धान्तों.वित्त नेकु स्वाद सारिवे कौं ऐसे मृग मारिवे को, ७वास्तविकता. केवल. एकान्त कोण. १. एकान्त स्थान. ११बाती. १२ सुख-शांति. १३ गरीष-निःसहाय. १४ दियविषय. -भूधरदास। १५मागराज. १६ सोना-चांदी-जवाहरात. १७पर्थ. १८ मनुष्य. x X Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फाल्गुण, वीर नि०सं०२४५६ ] महाकवि श्रीहरिचन्द्रका राजनीति वर्णन महाकवि श्रीहरिचन्द्रका राजनीति वर्णन [ लेखक - श्रीयुत पं० कैलाशचंद्रजी शास्त्री ] WWW १५०० प्राचीन संस्कृतसाहित्य-सागर का मन्थन करने से संस्कृत कवियों के विशाल अध्ययन, सार्वविषयक पांडित्य, तथा बहुदृष्टिता का अपूर्व दिग्दर्शन मिलता है । जहाँ उन्होंने कविता- कामिनी को शृंगार रससे शृंगारित किया है वहाँ समाज-शास्त्र, प्रकृति व र्णन, अध्यात्म, एवं राजनीति जैसे विद्वत्प्रिय मनोहारि अलंकारों से अलंकृत भी किया है । कविगण राष्ट्र के प्राण होत हैं, उनके शब्दोंमें वह अपूर्व शक्ति होती है जो मुर्दा दिलों को जिन्दा, कायर को वीर और रासे भागती हुई सेना को “मुत्वा वा प्राप्स्यसि स्वर्ग जित्वा वा भोदयमे महीं" की स्मृति करा कर रा विजयिनी बनाती है । वास्तव में कविके सदृश राजा का सच्चा मित्र दूसरा नहीं । इसी से धर्मशर्माभ्युदय राजनीति का वर्णन करते हुए, कवि महोदय लिखते हैं विचार तद्यदि केsपि बान्धवामहाकविभ्योऽपि परे महीभुजः । यदीयसत्तामसीकरैरसी तोsपि पञ्चाशु जीवति ।। १८-४१ 'महाकवियों से अधिक नरेशों का कोई बांधव नहीं है, जिनके वचनामृत के सिंचन से मुर्दादिल भी जिन्दा हो जाते हैं, अथवा मृत्यु को प्राप्त होने पर भी २३५ AAJJJ लोक में उनका जीवन - यशः शरीर बना रहता है।' जरा उन्हीं मृतों को जिलाने वाले महाकवियों में गणनीय कविश्रेष्ठ श्रीहरिचन्द्रजी की राजनीति का कुछ वर्णन सुनिये। यह वर्णन उन्होंने धर्मशर्माभ्युदयके १८वें सर्ग में राजा महासेन के मुखसे धर्मनाथ के प्रति कराया है। अर्थात्, I राजा महासेन क्षणभंगुर सांसारिक भोगों से विरक्त होकर अपने पुत्र श्रीधर्मनाथ को राज्यतिलक करके बनको जाना चाहते हैं । श्रीधर्मनाथ, यद्यपि, तीर्थंकर होने के कारण जन्म से ही मति, श्रुत, अवधि इन तीन ज्ञान से युक्त हैं, फिर भी राजा पुत्रमोह के कारण या राजनीतिके नियमानुसार उन्हें राज्याभिषेक से पूर्व कुछ राजनीति के रहस्यों से परिचित करा देना अपना कर्तव्य समझते हुए उपदेश करते हैंउपात्ततंत्रोप्यखिलाङ्ग रक्षणे न मंत्रिसान्निध्यमपेतुमर्हसि । श्रिया पिशाच्येव नृपश्यचस्वरे परिस्खलन् कश्छलितो न भूपतिः ॥ १६ ॥ 'समम्त देशके रक्षण करनेमें समर्थ 'चतुरङ्ग सैन्य के होते हुए भी कभी मंत्रिविहीन नहीं रहना अथवा मंत्रियोंका तिरस्कार नहीं करना। इस त्रुटि के कारण राजन्व रूपी चौराहे पर लक्ष्मी पिशाचिनी के द्वारा कौन भूपति नहीं ठगा गया ।' Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त [वर्ष र, किरण र विपत्ति के समय योग्य मंत्रिमंडल ही राष्ट्र जाते हैं । तथा राजा की रक्षा करता है-यहाँ तक कि प्रजातंत्र यद्यपि कोष राज्यसत्ता का मुख्य अंग ही नहीं राज्य भी बिना मंत्रिमंडल के नहीं चल सकते, फिर किन्तु स्वयं राज्यसत्ता है तथापि जो राजा कोष मे स्वछंद राजतंत्र राज्यों का तो कहना ही क्या? जिनको समृद्ध होने पर भी स्वावलम्बी नहीं होता-प्रत्येक राज्यसत्ता का मद पद पद पर मदान्ध बनाने के लिये कार्य में दूसरों का मुँह ताकना है-वह राजश्रेणी में प्रस्तुत रहता है । अपना गौरव नहीं रख सकता । इसी बात को लेकर न बदकोषं स तथा यथाम्बर्ज कवि ने कहा हैविकोषमाक्रामति षट्पदोच्चयः। स्थितेऽपि कोषे नृपतिः पराश्रयी पराभिभूति-प्रतिबन्धन-क्षम पपद्यते लाघवमेव केवलम् ॥ २२ ॥ नृपो विदध्यादिति कोषसंग्रहम् ॥ १७॥ कोष होने पर भी परावलम्बी राजा सर्वदा नीचा . 'भ्रमरकुल जैसे विकोष-खिले हुए-कमल पर ही देखता है । अतः राजा को प्रात्म-निर्भर होना उसका रसपान करने के लिये आक्रमण करते हैं वैसे चाहिये। बद्धकोष-मुकुलित अथवा बन्द-कमल पर नहीं इस छोटे से वाक्य से कविन राजाओंके ही लिये करते । इस लिये राजा को दूसरे शत्रों से अपनी नहीं किन्तु पददलित राष्ट्रों के लिये भी बड़ी गढ़ शिक्षा रक्षा करने के लिये कोषका-खजानेका-संग्रह करना की बात कही है। सच है जो राष्ट्र स्वतंत्र होकर भी चाहिये। आत्म-निर्भरताका पाठ नहीं सीख सका है उसकी स्व___ यहाँ पर कविने कोष शब्दका साम्य लेकर कमल तन्त्रता क्षणिक है; फिर जो दूसरे के बन्धनम जकड़ा का दृष्टान्त देते हुए, राजा लोगों को कोषसंग्रह का हुआ है और स्वतंत्र होने की-अपना अधिकार पन उपदेश किया है। यथार्थ में कोष राजसत्ता का जीवन प्राप्त करनेकी-इच्छारखता है उसका ता स्वावलम्बा है। कोष न रहने से कर्मचारियों को समय पर वेतन नहीं मिलता, जिससे सैन्य विद्रोही होकर शत्रु पक्ष में । कोष-विषयमें श्री सोमदेवाचार्य-प्रणीत नीतिवाक्यामृत' के निन वाक्य भी जानने योग्य हैं :जा मिलती है । और धन संग्रह के लिये अनुचित सीपकोषो हिराला पौरजपनदानन्यायेन प्र. टैक्स लगाने पर राष्ट्र में विप्लव खड़ा हो जाता है। सते ततो राष्ट्रशन्यता स्यात् । इतिहास में भी इस प्रकार के अनेक उदाहरण पाये कोषहीन राजा धन संग्रह करने के लिये प्रजाजन पर अन्याय पूर्वक अनुचित कर लगाता है जिससे प्रजा में विश्व होता है और *प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ प्राचार्य सोमदेव तो बिना मन्त्री के राजा देश वीरान हो जाता है। होना ही नहीं मानते। माप लिखते हैं कोशो राजेत्युच्यते न भूपतीनां शरीरम् । चतुरंगयुतोऽपि नाममात्यो राजाऽस्ति किं पु. कोश को ही राजा कहते हैं, राजामों के शरीरको नहीं।' मरम्पनीका १८५ यस्य हस्ते द्रव्यं स जयति। चतुरंग सैन्य से युक्त होने पर भी बिना मन्त्री के राजा नहीं दो राजामों का परस्पर संग्राम चिकने पर धनवान की ही हो सकता । फिर सैन्यरहित (निर्मल)का तोना ही क्या है विजय होती है।'' Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फाल्गुन, वीर नि०सं० २४५६ ] होना ही पड़ेगा । बिना आत्म निर्भरता के केवल दूसरों का मुख जोहने से न तो कोई स्वतंत्र हुआ है और न हो सकता है - भले ही वह राष्ट्र कितना ही धन-जन संपन्न क्यों न हो । ग़रीब देश की तो फिर बात ही अलग है । महाकवि श्रीहरिचन्द्र का राजनीति-वर्णन अनुमित स्नेहभरं विभूतये विधे सिद्धार्थसमूहमाश्रितम् । स पीडितः स्नेहमपास्य तत्क्षणात् खली भवन्केन निवार्यते पुनः ॥ १८ ॥ 'अपने से प्रेम दर्शाने वाले श्राश्रित जनोंकी मनोवाञ्छा पूर्ण करनी चाहिये, इसी में राजा का हित है। क्योंकि यदि उनके साथ अनुचित व्यवहार किया गया और उन्होंने दुःखित होकर प्रेम त्याग दुर्जनता का अवलम्बन लिया तो फिर उन्हें वैसा करने से कौन रोक सकता है ? यहाँ तक तो हुआ राज्यसत्ताको जमाने के उपयुक्त साधनों का वर्णन, अब जग दिग्विजय-सम्बन्धी गजनीति का भी वर्णन देखियेविशुद्धपाणिः प्रकृतीरकोपयन * महाकवि भारवि भी किरातार्जुनीयमें, दुर्योधनकी राज्यव्यवस्था का दिग्दर्शन कराते हुए, राजाके व्यवहारका ऐसा ही भाव दर्शति हैंसखीनिव प्रीतियुजनुजीविनः समान्मानान्युदृद्दश्व बन्धुभिः । स संततं दर्शयते गतस्मयः कृताधिपन्या मिव साधुबन्धुताम् ॥ 'राजा दुर्योधन राजमद को त्याग कर ( पाण्डवों के भयम ) सर्वदा सेक्कों के साथ गाढ प्रेमी मित्रों के सका, मित्रों के साथ महोदर भाई के सा और सहोदर भाईयों के साथ अभिषिक्त राजाओं के सदृश व्यवहार दिखलाता है।' प्रसिद्ध राजनीति प्राचार्य कौटिल्य ने भी राजा को स्वाश्रित जन के साथ प्रेम पूर्ण व्यवहार करने की ही सम्मति दी है 1 जयाय पायादरिमण्डलं नृपः । बहिर्व्यवस्थामिति विभ्रदान्तराजयी कथं स्यादनिरुध्य विद्विषः ||२६|| ततो जयेच्छुर्विजिगीषुरान्तरान्यतेत जेतुं प्रथमं विरोधिनः । hi दानवीर्य वन्हिना गृहानिहान्यत्र कुनी व्यवस्यति ।। २७|| 'जिस राजा को (दूसरे देश पर चढ़ाई करने के बाद स्वदेश पर) समीपवर्ती राष्ट्रोंके आक्रमण करनेका भय न हो तथा जिसका प्रकृतिवर्ग - मंत्री, सेना प्रजा श्रादि - उसके इस कार्यसे असन्तुष्ट न हो वही राजा शत्रुदेशको विजय करने के लिये प्रस्थान करे । क्योंकि वा सेना आदि के होते हुए भी आभ्यंतर शत्रुओं का निग्रह किये बिना जयलाभ कैसे हो सकता है ? श्रतः सबसे प्रथम जय - इच्छुक विजिगीषु X राजा को आभ्यंतर शत्रुओं को जीतने का प्रयत्न करना चाहिये। अपने घरको अग्नि मे धधकता हुआ छोड़ कर कौन बुद्धिमान पुरुष है जो अन्यत्र कार्य करना स्वीकार करेगा ?' X राजत्मदेवद्रव्यप्रकृतिसम्पन्ननयविक्रमयोरधिष्ठानं विजिगीषुः । —नी०वा० पृष्ठ ३१८ अर्थात् श्रात्म – राज्याभिषेक, देव- भाग्य, द्रव्य- कोष, प्रकृति — मंत्री प्रादि राजपुरुष, इन चार पदार्थों से युक्त तथा राजनीति विशारद पराक्रमी राजा को 'विजिगीषु' कहते हैं । * इस विषय प्राचार्य कौटिल्यका कहना है कि 'कोप या विद्रोह दो प्रकारका होता है—एक आभ्यन्तर कोप और दूसरा बाह्य प्राभ्यतर कोप से तात्पर्य मन्त्री, पुंराहित, सेनापति तथा युवराज प्रादिके कोप या विद्रोहसे है। राष्ट्रमुख्य राष्ट्रों के मुखिया, अन्तपाल - सीमारक्षक, भाटविक – जंगल का प्रबन्ध कर्ता, तथा पराजित राजाका विद्रोह बायकोप कहाता है । बायकोप Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ४ राजा को त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ, काम) का साधन भोगियों के लिये है योगियों के लिये नहीं।' * क्यों और किस प्रकार करना चाहिये इसे भी अब यहाँ पर आशंका होती है कि यदि रोजाओं का सुनिये और देखिये कि एक जैनकवि केवल धर्माव- मुख्य कर्म भोग-विलास ही है और इसी का राजनीति लम्बी राजा को किस प्रकार फटकार बतलाता है- समर्थन करती है तब तो आज कल के देशी नरेश पर मुखं फलं राजपदस्य जन्यते राजनीतिज्ञ हैं और तन-मन-धन से इस राजनीतिका तदत्र कापेन स चार्थसाधनः । पालन करते हैं, फिर क्यों भारतवासी रात दिन विमुच्य तौ चेदिह धर्ममीहसे उनके पीछे पड़े रहते हैं ? इसका उत्तर कवि के ही शब्दों में सुनिये :वृथैव राज्यं वनमेव सेव्यताम् ।। ३ ।। 'राज्यामनका फल सुखोपभोग है, सुखकी उत्पत्ति इहार्थकामाभिनिवेशलालसः काम से-विषय सेवनसे-होती है और कामसेवनके स्वधर्ममर्माणि भिनत्ति यो नृपः। लिये पैसा चाहिये । अतः अर्थ और काम को छोड़कर फलाभिलाषेण समीहते तरूं यदि केवल धर्मसेवन ही करना चाहते हो तो छोड़ो समूलमुन्मूलयितुं स दुर्मतिः ॥ ३२ ॥ इस राजसम्पदा को, बनमें जाकर तपस्या करो। राज्य जो राजा अर्थ और कामकी तीव्र लालसा लिन होकर अपने धर्म के मर्म का छेदन करता है-राजधर्म से माभ्यन्तर कोप भयंकर होता है। यदि राजा को (दूसरे देश पर का भल जाता है । वह गज कुलकलंक दुर्बुद्धि फल कदाई करने के बाद) स्वदेश में प्राभ्यन्तर कोपकी भाशंका हो तो संशयास्पद (जिन पर विश्व काने की प्राशङ्का हो) लोगों को + खानका इच्छास वृक्षका ही जड़स उखाड़ना चाहता है।' काई करते समय अपने साथमें ले लेवे । यदि उसको बाह्यकोप (शत्रु यहाँ पर कवि ने 'लालसा' और मर्म' शब्द देकर का भाक्रमण) की सम्भावना हो तो संशयास्पद लोगों के परिवार कमाल किया है--किसी की तीव्र लालसा ही अन्य अपने पास रखकर और भिन्न भिन्न सेनामों के कर्मों का मुखिया भिन्न मि व्यक्तियों को बना कर तथा स्थान स्थान पर शुन्यपाल को " * इस विषय में सोमदेवाचार्य लिखते हैंनियुक कर कदाई करे या उचित न समझे तो चढ़ाई न करे।" यकामापहत्य धर्ममेवोपास्तेस पकक्षेत्र -कौटलीय अर्थ शास्र * परित्यज्यारण्यं कृषति । महाकवि भारवि भी इसी बात को दर्शाते हुए लिखते हैं - -नी०वा. पृष्ट १४ मा रप्पुपहन्ति विप्रहः प्रभुमन्तःप्रकृतिप्रकोपजः। अर्थात्-जो मनुष्य काम और अर्थ का त्याग कर केवल एक अखिलंहिदिनस्ति भरंगरुशाणानिधर्षजोऽनलः धर्म का ही साधन करता है वह (धान्य प्राप्ति के लिये ) पके हुए -किरा द्वि०स०४२ खेत को छोड़कर भरण्य (जंगल) को जोतता है। अर्थात् अर्थमौर काम पके हुए स्वेत के सनश तुरन्त फलदाई हैं और धर्म अरण्यअर्थात्-जिस प्रकार पक्षों की शाखा की रगढ़ से उत्पन हुई कर्षण-कन जोतनेके-सटश कालान्तर में फलदायी है और उसका माग अपने मात्रय पर्वत कोही जला कर खाक कर मलती हैउसी भी मिलना न मिलना देवाधीन है। इस लिये सुखार्थी पुरुष को अर्थ प्रकार थोडा सा भी माम्यन्तर विश्व राजाको नटकर देता है। काम के साथ धर्म का साधन करना चाहिये। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फाल्गन, वीर निःसं०२४५६] महाकवि श्रीहरिचन्द्रका राजनीति-वर्णन । २३९ का मर्म-भेदन करवाती है । तदर्थ सिद्धावपरुपायकै ___ अतः राजा को समयानुकूल धर्म, अर्थ और काम ने सामसाम्राज्यतुलाधिरुह्यते ॥ ३५ ॥ का परस्पराविरोध रूपसे सेवन करना चाहिये । 'राजपुरुष धन देने वाले राजा से उतने प्रसन्न नपो गुरूणां विनयं प्रकाशयन् नहीं रहते जितने मिष्टभाषी से । अतः कार्यमिद्धि के भवेदिहामुत्र च मालास्पदम् । लिये साम-सदृश दूसरा उपाय नहीं है।'x म चाविनीतस्तु तनुनपादिव मुमन्त्रबीजोपचयः कुतोप्यसौ ज्वलनशेषं दहति ग्धमाश्रयम् ॥ ३४ ॥ परपयोगादिह भेदमीयिवान् । 'गुरुजन में विनययुक्त व्यवहार करने वाला राजा सुरक्षणीयो निपुणैः फलार्थिधिइस लोक तथा परलोक में सुखी रहता है और अवि- र्यतः स मिनो न पुनः प्ररोहति ॥३८॥ नीत-उद्धतस्वभाव-राजा अग्नि की तरह देश को 'फलार्थी राजा को गुप्तविचार-मंत्रणा-जो नष्ट करने के बाद अपनी राज्य सत्ताको भी खो बैठता कि कार्य सिद्धि का बीज है बड़े यत्न से गुप्त रखना है । अतः राजा को विनयी होना चाहिये।'x __ चाहिये-किसी भेदिये के द्वारा वह गुप्त विचार: प्रगट धनं ददानोऽपि न तेन तोषकृत न हो जाय । क्योंकि प्रगट हुई मंत्रणा भिन्न-कटेतथा यथा साम समीरयन्नपः। हुए बीज की नरह फलदायी नहीं होती ।* *जनाचार्य सोमदेव भी इसी बातको शब्दछल से दिखलाते प्राचार्य सोमदव भी सामका माहात्म्य बतलाते हुए, हुए कहते हैं लिखते हैं-- योऽनङ्गेनापि जीयते सः कथंपुष्टानामरातीन जयेत् ॥ सामसाध्यं यशसाध्यं न कुर्यात् ॥ नी.बा• ३५१ -नीवा०पृ०३६ । जा कार्य साम से-शान्ति से-सिव होता है उसके लिये अर्थात्-जा राजा मन:-कामदवस पराजित हो जाता है युद्ध न करना चाहिये ।' वह पुष्टांग-राष्ट्र, दुर्ग, कोष, सैन्य प्रादि राजसामग्रीसे बलवान . गुडादमिप्रेतलिचौकोनाम विभुजीत। नी०पा. शत्रुनों को कैंस जीत सकता है ! अनङ्ग से-अशरीर से हारने वाला पुष्टांगको-हट पुष्ट शरीर वाले को-जीत, यह मसभव है। विष भक्षण करेगा। ___ 'यदि गुड़ के खाने मे ही काम हो जाता है तो कौन खिमान x महाकवि भारवि भी, अविनीत राजा का वर्णन करते हुए, प्राचार्य कौटिल्य भी मन्त्र को गुप्त रखने की सम्मति देत लिखत हैं हुए कहते हैं-'मन्त्र भवन (वह स्थान जहां सलाह मशवरा किया मतिमाधिनयममाथिनः समुपेक्षेत समुमति हिषः। जाय ) सब मोर से सुरक्षित तथा गुप्त होना चाहिये । वहां से कोई सुजयः खलुतारगन्तरे विपदन्ता अविनीतसंपदः ॥ भी खबर बाहिर न जा सके । पक्षी तक स स्थानको न देख सके। ___ 'बुद्धिमान पुरुष अविनीत शत्र की उमति की भी उपेक्षाही किंवदंती है कि तोता, मैना, कुत्ता तथा अन्य जीों ने मन्त्र की। क्योंकि अपने अधिकारी वर्ग के साथ असभ्य व्यवहार करने (गुप्त क्विार) को दसर पर प्रगट कर दिया । यही कारण है कि वाला राजा कर्मचारियों में थोड़ा सा भी गाल माल होने पर सरलता संरक्षण तथा प्रबन्ध किये बिना मन्त्रभवन में प्रवेश न करे। मन्त्रसे जीता जा सकता है। सच है, दविनीत की सम्पत्ति भी अन्त में भेदीको मृत्यु दंड दिया जाय । दूत, अमात्य तथा स्वामी लोगों के विनिती लाती है। इशारेमे मन्बभेदका --- गन विचारके मालने का अनुमान करे ।... Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० अमेकान्त [वर, किरण पथि प्रवृत्तं विषये महीमृता उसके सिर पर विपत्तियों के बादल सर्वदा मंडराते नितान्मस्थाननिवेशिनो भ्रमात् । रहते हैं। মণি নিববি অজ জাল খুলনা কাজী ইলশধী বলা • पला दण्डः खलु दण्डधारकम् ॥ को कुलक्रमागत संपदा के अतिरिक्त अन्य देशों के वि 'राजमार्ग बड़ा कठिन है, उसमें पैर रखकर जो जय करने का कष्ट न उठाना चाहिये, जिसमें प्राणों तक न्यायाधीश भ्रम से निर्दोष पुरुष को जबरन दण्ड की आशंका रहती है। यदि जीवित रहेंगे तो थोड़े से देता है वह भन्याययुक्त दण्ड उस न्यायाधीश को राज्य मे ही यथेष्ट सुखोपभोगकर सकेंगे। मरनेके बाद बदनाम ही नहीं करत किन्तु उसको पदच्यत भी कर विजित देश साथ तोजायेंगे नहीं। इस आशंकाका उत्तर डालता है। कवि के ही शब्दों में पढ़ियेइस प्रकार राजमार्ग के पथिक को पद पद पर इहोपभुक्ता कतम में मेदिनी विचार और सहिष्णुता से कार्य करना चाहिये । जो परं न केनापि जगाम सा समम् । नरेश राष्ट्र तथा पाइराष्ट्रकी नीतिको गुप्तचरों फलं तु तस्याः सकलादिपार्थिवके द्वारा जामकर रामकर्मचारियों पर प्रेमपूर्ण स्फुरद्गुणग्रामजयोर्जितं यशः ॥ बर्ताव के साथ कदी दृष्टि भी रखता है वही भावि-वि- 'इस पृथ्वी का उपभोग सैकड़ों पृथ्वीपति कर गये पत्तियोंसे बच सकता है । इसके विपरीत जो नप भोग किन्तु यह किसीके साथ नहीं गई । फिर भी सकलबिलास में प्रासक्त होकर अपना कर्तव्य भूल जाता है गणशाली पृथ्वीपतियों को जीत कर पृथ्वी पर अपना यशविस्तार करना ही इसके जीतनेका फल है, जो कि ....."जब तक काम हो जाय तब तक मन्त्र में सम्मिलित बोगों पकड़ी मजार । इमी से मन्त्र की रक्षा होती है। राजन्यों का मुख्य धर्म है।' प्रमाद, शराब, स्का में बोलना तथा प्रलाप करना. काम में वास्तव में जो राजा कर बिसीसी में फंस जाना पादिभनेक बारणों सेमन्त खुल घिनोति मित्राणि न पाति न मजा-. जान है.बमा किये हुए स्वभाव वाले दुरमन तथा राजा द्वाग विभर्ति भत्यानपि नार्थसंपदा । बेइज्जत किये गये लोग मंत्र खोल देते हैं। अतः राजा इनसे मन्त की रक्षा करे । राजा या कर्मचारियों द्वारा मन्त्र के खुलने पर न यः स्वतुल्यान्विदधाति बान्धवान् दुश्मनों को ही लाभ पहुँचता है।' (को०अ० २२) स रानशब्दपतिपत्तिभाकथम् ।। ४० ॥ इसी प्रकार परिवारसयतबार सोमदेवकहते हैं 'अपने मित्रों को प्रसन्मनहीं रखता, प्रजा का रक्षपुजवाती दिएकामकोचाम्यामMIT ण नहीं करता, त्राश्रित सेवकों को धनसम्पदा से सहासेपिरोति। यता नहीं करता और अपने बन्धुओं को अपने सदृश 'काम, कोष तथा मूर्खतासे दिया हुआ मन्याययुक्त दण्ड राजा ऐश्वर्यशाली नहीं बनाता वह 'राजा' कहलाने का पात्र पसर्वनाश कर देता है।' . ही नहीं है।' Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालाब, बीरनिव्सं०२४५६] श्रीखारवेल-प्रशस्ति भौर जैनधर्मकी प्राचीनता २४१ श्रीखारवेल-प्रशस्ति और जैनधर्मकी प्राचीनता [लेखक-भीकाशीप्रसाद जायसवाल ] चक्रवर्ती अशोक मौर्य के शिलालेखमें जैन भिक्षुओं वाहन ने दो दो बार अश्वमेध किया यह शिलालेखोसे __की चर्चा (निगंठ अर्थात् ) निर्मथ नामसे आई साबित है। तीसरे, भीखारवेल कलिंगवाले को भी है । पर वह उल्लेख मात्र है । वस्तुतः सबसे पहला जैन भारतमें चक्रवर्ती पद प्राप्त करनेकी लालसा हुई। शिलालेख वह है जो उड़ीसाके भवनेश्वर-समीपवर्ती मगधके राजा नंदवर्द्धन और अशोकने कलिंग जीता खंडगिरी-उदयगिरि नामक ..........." ........" था, इसका बदला भी इन्हों पहाड़की हाथीगुफा नाम- इतिहास के प्रसिद्ध विद्वान् जायसवाल ने चकाया और कलिंगसे धेय गुहा पर खुदा हुआ है। जी का यह लेख नागरीप्रचारिणी पत्रिकाके : नंदराजा द्वारा भाईहुई जिनयह कलिंगाधिपति चेदिवंश हाल के (भाग १० के) अंक नं०३ में प्रकट : हुआ है। इसमें जैनसम्राट खारवेल, उनके मूर्तियाँ वे मगध से वापिस वर्द्धन महाराज खारवेल कामनाले जैनधर्म की प्राचीनता आदिले गए तथा मगध के सोशकलिखाया हुआ है। इस राजा के विषय में जो कुछ कहा गया है वह जैन खाने से अंग-मगधके रत्न का प्रताप एक बार चन्दगत: विद्वानों के जानने तथा विचार करने योग्य : प्रतिहारों समेत उठा ले गए। और अशोकका सा चमका। है । लेखक महाशय भी कुछ नामों की बाबत : सारे भारतवर्ष में, पांड. उनसे यह जानना चाहते हैं कि वे किसी जैन: इसी समय दमेत्रिय नामक देश के राजा से लेकर । प्रन्थ में उल्लेखित मिलते हैं या कि नहीं। : यवनराज, जो अफगानिस्तान उत्तरापथ, तथा उनका इस इच्छा को कुछ अंशों में पग करने : ओर बाल्हीक का राजा था, स: वाला मुनि कल्याणविजयजीका एक लेख भी: भारत पर टूट पड़ा और लेकर महाराष्ट्र देश तक इस इस किरणमें प्रकाशित हो रहा है और दूसरे : मथुरा, पंचाल, सात को की विजय वैजयंती फहराई। बा० कामताप्रसादजी के लेख पर भी इससे : जो मगध साम्राज्य के सूबे मौय्ये साम्राज्य पतन : कुछ प्रकाश पड़ता है। इन सब बातोंकी उप- थे. लेता दूमा पटने तक योगिता को ध्यान में रखते हुए ही यह लखपन गया । इसने भी सिंहासन पर चढ़ने की चन का................ ........ मौर्या सिंहासन पर बैठने का कामना चार भादमियोंको हुई । एक तो पटने के मौर्य पूरा मंसूबा किया था। यह अपनी कामनामें प्रायः सेनापति पुष्यमित्र धुंगवंशीय प्रावण थे जो नालंदामें सिद्धार्थ हो चुका था कि उधरसे खारवेल झारखंडपैदा हुएथे।दूसरे सातवाहनीय शातकर्णी जो दक्षिणा- गयासे होते हुए मगध पहुंचे और उन्होंने राजगृह पथके राजा कहलाते थे, तथा महाराष्ट्र देश और अंध्र तथा बराबर (गोरथगिरि) के गिरिदुर्गाके चारों ओर देशके पीच परिश्रम देशमें राज्य करते थे। इनका भी घेरा डाला । उन्होंने गोरथगिरि सर किया । दमेत्रिय एक ही पुरतका नया राज्य था,येभी प्रापण थे। दोनों पटोको किलाबंदी तोड़ न सका और खारवेलकी ने अर्थात् सेनापति पुष्यमित्रने और शातकी मान- भाई का एलबमा अपने बाम राममें विद्रोह साथ ही भारतवर्षके साम्राज्य: यहाँ पर दिया जाता है। ..ru Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ । का उपद्रव उठते देख पटना, साकेत, पंचाल आदि छोड़ता हुआ मथुरा भागा और मध्य देश मात्र छोड़ वहाँ से निकल गया । मैदान में खारवेल और पुष्यमित्र तथा शातकण॒ि रह गए। पुष्यमित्रने फिरसे अश्वमेध मनाया । अपने लड़कों द्वारा उन्होंने वैरराज्य स्थापित किया X, अर्थात् स्वयं सम्राट् न हुए, उपराजाओं या गवर्नरों द्वारा मुल्क और धर्मके नाममें स्वयं अपने को सिर्फ सेनापति कहते हुए राज्य करने लगे यहाँ भी चढ़ाईके चार वर्ष बाद खारवेल ने अपने घरसे निकल कर फिर मगध पर धावा किया और पटने में पहुँच हाथियों सहित सुगांगप्रासादमें डेरा डाला और मगधके प्रांतिक शासक बृहस्पतिमित्र से, जो पुष्यमित्रके आठ बेटोंमें मालूम होता है, अपने पैरकी वन्दना कराई। इस महाविजय के बाद जब कि शुंग और सातवाहन तथा उत्तरापथके यवन सब दूब गए, स्वारबेलने, जो राजसूय पहले ही कर चुके थे एक नये प्रकारका पूर्ण ठाना। उसे जैनधर्मका महा धर्मानुछान कहना चाहिए। उन्होंने भारतवर्ष भरके जैनयवियों, जैनतपस्वियों, जैनऋषियों और पंडितों को बुलाकर एक धर्मसम्मेलन किया । इसमें इन्होंने जैन आगमको अंगों में विभक्त करा पुनरुत्पादित कराया । ये अंग मौर्य कालमें कलिंग देश तथा और देशों में लुप्त होगए थे । अंगसप्तिक और तुरीय अर्थात् ११ अंग प्राकृत में, जिसमें ६४ अक्षर की वर्णमाला मानी जाती थी, सम्मेलन में संकलित किये गए। खारवेल को 'महाविजयों' की पदवी के साथ 'खेमराजा' 'मिस्लुराजा' 'धर्मराजा' की पदवी अखिल भारतवर्षीय जैन - संघने मानो दी। क्योंकि शिलालेख में सबसे बड़ा और अंतिम चरमकार्य राजाका यही माना गया है और जैन संचयन और अंगसप्तिक तुरीय संपादन के बाद ये पदवियाँ जैन-लेखकने उनके नामके साथ जोड़ी है। अनेकान्त [वर्ष १, किरण ४ लिखने वाला भी जैन था । यह लेखके श्रीगणेश नमो अरहतानं नमो सबसिधानं से साबित है । इस लेखकी १४ वीं पंक्तिमें लिखा है कि राजा ने कुछ जैनसाधुओं को रेशमी कपड़े और उजले कपड़े नजर किए - अरहयते परवीन संसितेहि कायनिसदीयाय यापनावकेहि राजभितिनि चिन बनान वासासितानि अर्थात् अर्धयते प्रक्षीणसंसृतिभ्यःकायनिषीद्यां यापज्ञापकेभ्यः राजभृतीश्वीन वस्त्राणि वासांसि सितानि । इससे यह विदित होता है कि श्वेताम्बर वस्त्रधारण करने वाले जैन साधु, जो कदाचित यापज्ञापक कहलाते थे, खारवेल के समय में अर्थात् प्रायः १७० ई०पू० श्वेतांबर जैनशाखा के वे पूर्वरूप थे । चीन गिलगिट ( ११० विक्रमाब्द पूर्व) भारत में वर्त्तमान थे, मानो की एक जातिको कहते थे । इन्हें अब शीन कहते हैं। ये सदा से रेशम बनाते हैं। खारवेलने कुमारीपर्वतपर, जहाँ पहले महावीर स्वामी या कोई दूसरे जिन उपदेश दे चुके थे क्योंकि उस पर्वत जिचक ( सुप्रवृत्तविजयचक्र) कहा है, स्वयं कुछ दिन तपस्या, व्रत, उपासक रूप से किया और लिखा है कि जीव देह पस्या, जीवदेहका दार्शनिक विचार आदि उसी समय का भेद उन्होंने समझा । इससे यह सिद्ध हुआ कि तसे अथवा उसके आगे से जैनधर्म में चला जाता है। नंदराज अर्थात् नन्दवर्द्धन कलिंगसे" का लिंगाजिन" ले एथे । इससे जिनविम्बोंका होना तथा जैनधर्मका पौने तीन सौ वर्ष खारवेल के भी पहले कलिंगमें प्रचलित रहना और जैनधर्म की प्राचीनता प्रतिष्ठित होती है। वंश का नाम ऐल चेदिवंश था। इनकी दो रानियों का खारवेल के पूर्वपुरुष का नाम महामेघवाहन और नाम लेखमें है— एक बजिर घरवाली थीं, बजिरघर अब बैरागढ़ (मध्यप्रदेश) कहा जाता है और दूसरी सिंह पथ यो सिंहप्रस्थकी सिंधुडानामक थीं जिनके नाम पर एक गिरिगुहाप्रासाद, जो हाथीगुफा के पास है, उन्होंने बनवाया । इसे अब रानीनौर कहते हैं। इन नामों का पता किसी जैनमन्थमें मिले तो मुझे उसकी सूचना कृपा कर दी जावे । * यह गर्मसहिता, झीफा और महाभाष्यसे साबित है। X पुष्यमित्रस्तु सेनानीद्धृत्य सबृहद्रथम् । कारविष्यति वैराज्यं समाः पहिं सचैष ॥ (वायु- - किंतु वसरे पुरायोंमें (यथा मत्स्य०) पटर्भियाति समा' है) पुष्यमित्रताश्याही भविष्यन्ति कम बुधाः। (वायु) Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फागण, बोर नि०सं०२४५५) যকিল २४३ व्यक्तित्व * [अनुवादक-श्री० बाबू माईदयालजी जैन बी.ए.] "टिपूर्ण व्यक्तित्व प्रत्येक स्थान पर हानिकारक होता है।" -निट। व्यक्तित्वकी शक्ति और महत्ता के विषय में जितना जकड़ दिया जाता है और इस प्रकार के शब्द हर वक्त भी कहा जाय थोड़ाहै । यह सारीसफलताओं उनसे कहे जाते हैं जिससे उनकी शक्तियोंका पूर्णरूपसे का आधार और सारी सफलताओं की जड़ है। विकास ही ही होने पाता है । इस प्रकारका व्यवहार त्रियों और पुरुषों को आप संसार के किसी भी बचों की पात्माओं के उस भाग को नष्ट करदेता है, क्षेत्र में देखिये, व्यक्तित्व के बिना वे प्रत्येक स्थान में जिसे व्यक्तित्व कहा जा सकता है। जिस प्रकार एक असफल होते हैं, उनकी मनोकामनाएँ पूरी नहीं होती। मूर्ख माली एक पौदे को बार बार काटकर उसे बढ़ने फिर यह कितने माश्चर्य की बात है कि हम अपने व्य- नहीं देता उसी प्रकार यदि दूसरे आदमियों द्वारा बचों क्तित्व को समझने की पर्वाह ही नहीं करते, इस ओर का हर समय विरोध हो और उन्हें अपनी आन्तरिक ध्यान ही नहीं देते । माता पिता अपने बच्चों की शिक्षा न्याय-बुद्धि को व्यवहारमें लाने तथा विकसित करने पर खूब धन लुटाते हैं, परन्तु क्या उन्होंने कभी इस का अवसर न दिया जाय तो उनके लिये दुर्बल तथा बात को सोचने की चिन्ता भी की कि, जिसे वे लोग परावलम्बीके सिवाय और कुछ बनना असम्भव है। शिक्षा समझते हैं वह वास्तव में क्या वस्तु है ? यदि इस ढंगसे बचोंके प्रारंभिक अधिकारोंकागला घोट दिया जरा भी बाहरी दृष्टि से देखा जाय और कुछ विचार जाता है, कलियोंको खिलनेसे पूर्व ही तोड़ मरोड़ कर किया जाय तो मालूम होगा, कि वषों और नवयुवकों मिट्टीमें मिला दिया जाता है, और पचों का व्यक्तित्व को ऐसी ऐसी बातें रटा देना ही आधुनिक शिक्षा है, त्रुटिपूर्ण और दुर्बल बना दिया जाता है। जिन पक्षों जिनका पादमी के अमली जीवन से या तो बिल्कुल को हौवा' 'भूतप्रेत' और 'बाबाजी' का डर हर घड़ी ही सम्बन्ध नहीं होता अथवा बहुत ही कम सम्बन्ध दिखाया जाता है और जिनके सिर परधमकी और मारका होता है। कभी कभी तो यह भी देखा गया है, कि इस भूत हर समय सवार रहता है, वे क्या शूरवीर बनेंगे? शिक्षा के देते समय बों के व्यक्तित्व के चिन्हों को नयेनये कार्यों में हाथ डालनेका वे क्या साहस करेंगे? ही दवा दिया जाता है और उन्हें कृत्रिम सहायतामों, इस महान पापके लिये क्या बचों के माता पिता सदा परावलम्बनों और निर्बल सहारों के भरोसे से पीछे उत्तरदायी नहीं होते १ निःसन्देह, छोटे छोटे बचों को फेंक दिया जाता है। बों को भारम्भ से ही इस प्रकार प्रभावशाली तथा शकि सम्पन न बना कर प्रारम्भमें Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ ही उनको जीवन शक्तिसे बश्चित करना, उनकी सर्वाग उन्नति न होने देना और उन्हें दुर्बल तथा शक्तिहीन बनाना पाप ही है । अनेकान्त [वर्ष, किरण ४ उसके मनमें झिझक प्रकट होने लगी और स्वयं उसे अपनी सत्यता के विषय में सन्देह होने लगा । सचमुच यह एक बड़ा भारी दुर्भाग्य था और उसके माता पिता भी उसे दुर्भाग्य ही समझते थे । जिस समय वह बच्चा घर में होता था, उस समय वे उसे अपने निश्चय पर दृढ़ रहने और प्रत्येक बात में स्वयँ सोचने के वास्ते प्रोत्साहित करके उसके इस भयँकर पतन को रोकने का प्रयत्न करते थे । वे केवल कर भी यही सकते थे । सौभाग्य से बचपन के संस्कारों ने उसके हृदय पर इतनी गहरी छाप लगादी थी कि स्कूल छोड़ने के पश्चात् शीघ्रही उसके मन परसे परावलम्बन, श्रात्मसन्देह और अपने निश्वयों में अविश्वास के भाव मिटने लगे । उस ने अपना व्यक्तित्व फिरसे प्राप्त करलिया । उसके माता पिता उसके उन दृढ़ निश्चयों को सुनकर प्रसन्न होते थे जिनसे आत्मा का प्रभुत्व स्पष्ट प्रकट होता है । यह बात भली प्रकार समझ लेनी चाहिये कि व्यक्तित्व क्या है ? इसके विषय में हमारे मनमें कोई सन्देह नहीं रहना चाहिये । अभिमान, दुराग्रह और घमण्ड से चिल्लाना व्यक्तित्व नहीं है। मूर्खता से मन को बशमें रखना, बिना विचारे कुछ ही कहना, अक्ख ड़ता और उच्छृंखलता का नाम भी व्यक्तित्व नहीं है। अतिसाहसी तथा अतिश्रात्मविश्वासी बालक अथवा युवक या युवती सबै व्यक्तित्व को छोड़ किसी दूसरी ही वस्तु के द्योतक हैं। ये तो प्रत्येक बात में टांग अढ़ाने वालों के अज्ञान और उनके निकृष्ट संस्कारों के द्योतक होते हैं। सम्भवतया यदि बच्चों को उनकी अपनी ही समझ पर छोड़ दिया जाय तो उनमें यह बातें अपेक्षाकृत कम ही होंगी, कारण कि अल्पकालिक प्रतिसाहसी आक्रमणकारी तथा बातूनी वर्षोंको न तो कोई प्रेम ही करता है। और न कोई आदमी उनकी प्रशनां 1 बालकों की आन्तरिक न्याय बुद्धि का किस प्रकार नाश हो जाता है और फिर वह किस प्रकार पुनरुज्जीवित हो सकती है, इस बात को निम्न लिखित घटना द्वारा स्पष्ट रूपसे समझा जा सकता है। एक बच्चा था । उसके माता पिता इस बात को जानते थे कि बच्चे के हृदय में सिद्धान्तों को समझने की शक्ति पूर्णतया विद्यमान होती है और यदि बच्चे को अपनी न्यायबुद्धिको व्यवहार में लाने का अवसर दिया जाय तो वह स्वभाव से अपने हित-अहित की बात अच्छी तरह सोच सकता है । अतएव वे दोनों बाल्यावस्था से ही अपने बच्चे के आन्तरिक गुणों और शक्तियोंको प्रोत्साहित करते, उत्तेजना देने, और उन्हें बढ़ाने का प्रयत्न करते थे । ऐसे प्रयत्न का जो फल होना चाहिये था वही हुआ । सात वर्षकी छोटी सी आयु में उस बच्चे का व्यक्तित्व दृढ़ हो गया | वह बिना किसी झिझक, आनाकानी और दलील दृढ़ निश्चयपूर्वक 'न' और 'हाँ' कहता था। उसके माता पिता उसके फ़ैसले निश्रयका सदा यादर करते थे और उसको स्वीकार करते थे। इसके पश्चात् वह स्कूलमें भरती किया गया, परन्तु वहाँ जाते अभी थोड़े ही दिन हुये थे कि उससे उसकी बिना फिकके निश्चय करने की वह अपूर्व शक्ति विदा होने लगी। उसकी सुन्दर और स्पष्ट विचारशक्ति मन्द पड़ गई, मानों उस पर बादल छा गये। सहज सहज उसके मुखसे वे निश्चित 'न' और 'हाँ' निकलने बन्द हो गये, जिनकी सब आदमी प्रशंसा किया करते थे । बात यहीं समाप्त नहीं हुई उसकी आत्मा मिर गई, मिश्रय स्थिर करते समय ' Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फाल्गन, बीरनि०सं०२४५६) व्यक्तित्व ही करता है । विकाशमान व्यक्तित्व को प्रकट करने एक समय दो कुशल गवैय्योंने किसी प्रसिद्धगानवाले कुछ गुण होते हैं और उनका प्रभाव व्यक्तित्वकी मण्डली में किसी पद के वास्ते प्रार्थनापत्र भेजा कमीका सवा योतक है । व्यक्तित्वके प्रभाव को प्रकट उनमें से एक दुर्बल शक्ल-सूरत वाला तथा हाव, भाव करने वाले प्रधान अवगुण हठ, बड़ोंका अनादर,माता से जनाना और प्रभावहीन था । वह व्यक्तित्वहीन था। पिता की उचित तथा हार्दिक इच्छाओं का उलंघन जब वह गान-मच-स्टेज पर भाया तब मालूम हुआ और अहम्मन्यता हैं। अहम्मन्यता आत्मविश्वासके कि उसकी आवाज तो अच्छी है किन्तु उममें कोई सर्वथा विरुद्ध है । व्यक्तित्वयुक्त आदमीके लिए अपने मोहिनी शक्ति और प्रभुत्व नहीं है। परन्तु दूसरे आदमी व्यक्तित्व को दूसरोंको दिखानकी आवश्यकता नहीं है। की आवाज़ और स्वर हलके थे तथा उनमें उतना ग्स जहाँ कहीं यह होता है वहाँ वह स्वयँहीप्रकट हो जाताहै। भी न था, किन्तु वह व्यक्तित्व रखता था । यद्यपि उसके व्यक्तित्व और इसके अनकट प्रभावको सब ही अनुभव शरीर की रचना अच्छी न थी तथापि उसके प्रत्येक कर लेते हैं तथा स्वीकार कर लेते हैं । उसको अधिक कदम और चालमें गम्भीरता,वजन औरमात्माधिकार बोलने अथवा दूसरों पर अपना प्रभाव जमाने तथा अपने था। उसकी दृष्टि पड़ते ही दर्शकगण उसके प्रभावमें मा महत्वको अंकित करनेका प्रयत्न करनेकी कोई भी प्राव- गये और उनको उसके आत्मविश्वासकायोष होगया। श्यकता नहीं है, कारण कि वह अपने प्रभावशाली मौन वह व्यक्तित्वयुक्त आदमी था और उसने वह पद शीग्रही के द्वारा ही वे सब बातें कह देता है जो कि समस्त प्राप्त कर लिया । और सुरीली आवाज वाले परन्तु अवस्थाओं तथा समस्त परिस्थितियों में अपने आपको व्यक्तित्वहीन आदमी को वहाँ से निराश लौटना पड़ा। संतुष्ट और ठीक प्रमाणित करने के वास्ते उसके लिए और इस लिये यह ठीक ही है कि 'त्रुटिपूर्ण व्यक्तित्व आवश्यक हैं। वह अपने कार्य, मार्ग तथा इच्छा की प्रत्येक स्थानमें हानिकारक है। चिन्ता ही नहीं करता, क्योंकि वह स्वयं अपनी इच्छा हम अपने जीवन में प्रतिदिन ही देखते हैं किसमा. का स्वामी और अपने मार्ग का निर्माता है। अपने सुसाइटियोंके प्लेटफार्मों पर एक दुबला पतला और सुख, माराम और सम्भोगों को पूर्णतया भूल कर वह मन्द भावाज वाला व्याख्यान दाता सब मोवानों को अपने स्वभाव तथा प्रकृति से उन भादमियों को सुख अपने वश में करलेता है और खूब जोरसे व्याख्यान और विश्वास तथा शक्ति और वैभव प्रदान करता है देने वालोंको इसमें कोई सफलता प्राप्त नहीं होती। जो कि उसके सम्पर्क में आते हैं। वह अपने बड़ों बहुत से वकीलों की शह देखते ही हाकिम उनके का कितना सादर करता है और कितने प्रेम तथा पूर्णता प्रभाव में पाजाते हैं और उसके पक्ष में फैसला दे देते के साथ वह अपने माता, पिता, मित्रों क्या साथियोंके हैं। परन्तु दूसरे वकील मनुनी पोथियों के हवाले देते सुख और भानन्दके वास्ते अपने भापको निछावर देते तथा चिलाते पिलाते थक जाते हैं किन्तु हाकिम पर करता है, और सब ही भादमी समस्त विभागों में उस उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता और वे विरुद्ध फैसला की इस महती शक्ति को कितनी शीवा के साथ स्वी- दे देते हैं । प्रत्येक स्थान पर प्रभावशाली तथा व्यति. लायुक्त पुरुषों और वियोंको ही सफलता मिलती है, Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष१, किरण ४ दूसरों को नहीं । बहुत से बड़े और प्रतिष्ठित स्त्री-पुरुषों अब तो ज्ञान-बल भी व्यक्तित्व के बलके वास्ते स्थान के सामने जाते भादमी घबड़ा जाता है। घरसे जो छोड़ता जा रहा है। अब तो व्यक्तित्वयुक्त पुरुष और कुछ सोचकर पाता है उसका आधा भी ठीक रूप से सियाँ ही संसार में महान शक्तिशाली हैं । यह इनका उनके सामने नहीं कह सकता । कारण यही है कि वे आरम्भ मात्र है उसका यह प्रभात ही है। जो पुरुष और पुरुष तथा सियाँ प्रभावशाली होते हैं और आगन्तुक स्त्रियां अपने साथियोंके वास्ते उपयोगी होना चाहते हैं, लोग उनके प्रभावसे दब जाते हैं। कई बार हम सुनते जो भविष्य में महान, प्रभावशाली और प्रतिष्ठित पदों भी हैं कि अमुक पुरुष रौब वाला तथा प्रभावशाली है पर पहुँचना चाहते हैं उन्हें निश्चय से अपने व्यक्तित्व और अमुक स्त्री रौब वाली तथा प्रभावशालिनी है। को दृढ़ करना होगा, व्यक्तित्व को बनाना होगा। धन, उपाधि, उचजन्म,प्रसिद्धि और दूसरी ऐसी वस्तुएँ इस अद्भुत शक्ति को सभी आदमी समान रूप से व्यक्तित्व के सामने नहीं ठहर सकतीं जिनको शक्ति प्राप्त कर सकते हैं । यह किसीके देने से प्राप्त नहीं हो सम्पन्न तथा प्रभावशाली बनाने वाला समझा जाताहै। सकती, इसे प्रदान भी कौन कर सकता है? यह बाजार व्यक्तित्व इन सबसे बड़ा है । मध्यकाल में धनी आदमी से खरीदी भी नहीं जा सकती । व्यक्तित्व कुछ बड़े बड़े शक्तिसम्पन्न समझे जाते होंगे। वास्तव में अबसे कुछ भादमियों का ही अधिकार नहीं है, उनकी पैतृक सम्पत्ति ही पहले धनबल को सभी मानते थे परन्तु एक समय या मौरूसी जायदाद नहीं है। किसीके नामइसका पट्टा भाया जब कि लोगों ने धन को विशेष सम्मान तथा भी नहीं लिखा हुआ है। यदि आज कुछ आदमीदूसरे महत्वकी दृष्टिसे न देखा । उसे साधारण तथा आदमियों से अपेक्षाकृत अधिक व्यक्तित्व युक्त हैं तो तुच्छ वस्तु समझ कर ठुकरा दिया । फिर विद्वताका इसका अर्थ यही है कि उन्होंने पूर्व जन्म में इसकी युग आया और विद्वत्ता की पूजा होने लगी। जो आदमी प्राति के वास्ते अधिक प्रयल किया था। जो आदमी दूसरे आदमियों और दूसरीवस्तुओं के विषयमें अधिक इसको प्राप्त करते हैं उन मब का इस पर समान बातें जानता था वह धंनिक पुरुष से भी अधिक बलवान अधिकार है । जिस बोके माता पिता व्यक्तित्वके समझा जाने लगा। लोग ज्ञानको ही शक्ति कहने लगे महत्व तथा मूल्यको समझते हैं और अपने बोके (Knowledge is powerअबकुछ समयसंज्ञानबल व्यक्तित्वके विकोशकी ओर उसकी बाल्यावस्थासे के स्थान पर वास्तविक शिक्षाको मान्यता होने लगी। ही समुचित ध्यान देते हैं,सचमुच उस बच्चे का जन्म निस्सन्देह,जिसपुरुषके पास बहुतसीलिंगरियां हैं और जो धन्य है। भादमी कुछ कालेजों के चिन्हरूपवन पहिने हुये हैं वह जिन आदमियों को वाल्यकाल में व्यक्तित्व-प्राप्ति सम्मानके योग्य हैं। किन्तु बहुतसी उपाधियों डिगरियों तथा उसको विकसित करने के सुभीते प्राप्त-न थे, अब के होनेपर भी यह सम्भव है कि ये भादमी शिक्षा यदि उनकी युवावस्था मी ढल चुकी हो, तो भी उन्हें वास्तविक अर्थों में शिक्षित न हों, कारण कि विद्वत्ता- यह समझने की आवश्यकता नहीं है कि अब उनके प्राति और बहुत सी परीक्षाओं को पास करने का अर्थ लिये व्यक्तित्व प्राप्त करने में देर हो गई है, उसका सदा मशिक्षा और संस्कार नहीं होता। किन्तु समय निकल गा है। व्यक्तित्व की महती शक्ति के Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फाल्गुन, वीरनि० सं०२४५६] मेवाडोद्धारक भामाशाह बिना अपने जीवन में बहुत आदमी पीछे रह गये हैं सामने ही उनको प्राप्त कर गये। और बहुत पाश्मी संसारकीरंग-भूमिमें विफल मनोरथ जब हम यह बात याद करते हैं कि मानव-जीवन होगये हैं। क्या भोपभी उनमेंसे एक हैं? नहीं, आपको कुछ साठ सत्तर वर्षों में ही परिमित नहीं है, यह जीवन ऐसा न रहना चाहिये। यदि आप व्यक्तित्वप्राप्ति की बहुत से जीवनों में से एक है और नवीन जीवन सदा तीव्र इच्छा करें तो आप भी इस शक्ति को पा सकतं वहाँ में प्रारम्भ होता है. जहाँ प्राचीन जीवन समाप्त हैं। अब भी आपके जीवन का अन्तिम भाग दृढ होता है, तब हम यह जानते हैं कि यदि हम अपने और सुन्दर बन सकता है । यदि भूतकाल में आप इस जीवन-पथ के अन्तिम भागपर भी पहुँच गये हैं-बिल्कुल महती शक्ति के प्रभाव से अमफल हात रहे हैं, यदि वृद्धहोगये हैं-तब भी यही अकछा है कि हम व्यक्तित्व आपको अपनं त्रुटिपूर्ण व्यक्तित्व के कारण हानियाँ प्राप्ति का प्रयत्न करें । कारण कि इससे हम अपने उठानी पड़ी हैं, तो भी आपके लिये यही उचित तथा नवीन जीवन में बहुत से सुभीतों के साथ प्रवेश करेंगे उपयोगी है कि श्राप प्रयत्न करके उस वस्तुको प्राप्त और उन वस्तुओंको प्राप्त करेंगे जिनके लिये इस जीवन कर लो जिसका तुम्हारे जीवन में प्रभाव था और में हमारे हृदय लालायित रहे थे किन्तु जिन्हें हम न जिसके बिना जीवन-पथ में दूसरे आदमियोंको अपनं पासके थे । * में आगे निकलता देखते हुए भी तुम सबसे पीछे रह - हिन्दी-ग्रन्थ-रमाकर-कार्यालय, बम्बई द्वारा शीघ्र ही प्रकागये। जिसके अभावसे तुम अपनी मनोवांछित वस्तुओं शित होने वाली 'व्यक्तित्व' नामक पुस्तक का प्रथम परिच्छेद । को प्राप्त नहीं कर सके जब कि दूसरे आदमी तुम्हारे मेवाड़ोद्धारक भामाशाह HIRAARLengtMI स्वाधीनताकी लीलास्थलो वीर-प्रसवा मेवाड़-भूमि स्वतंत्रता की वेदी पर अपने प्राणों की माहुति दे दी, के इतिहासमें भामाशाह का नाम स्वर्णाक्षरों में किन्तु दुर्भाग्य कि वे मेवाड़ को यवनों द्वारा पपलिन अहित है। हलदीघाटी का युद्ध कैसा भयानक हुमा, होने से न बचा सके । समस्त मेवाड़ पर यवनोंका यह पाठकों ने मेवार के इतिहास में पढ़ा होगा। इसी आतंक छागया । युद्ध-परित्याग करने पर राणा प्रताप युद्धमें राणा प्रतापकी ओर से वीर भामाशाह और मेवाड़ का पुनरुद्धार करने की प्रबल भाकांक्षा को उसका भाई ताराचन्द भी लड़ा था ४ । २१ हजार लिये हुवे वीरान जंगलों में भटकते फिरते थे । उनके राजपतोंने असंख्य यवन-सेनाके साथ युद्ध करके ऐशोभाराम में पलने योग्य को भोजनके लिये उनके x देखो, उदयपुर राज्यका इतिहास पाली जिल्द छ । चारों तरफ रोते रहते थे। उनके रहने के लिये कोई Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ४ सुरक्षित स्थान न था । अत्याचारी मुगलोंके भाक्रमणों को जो धन भेटकिया था वह इतना था कि २५ हजार के कारण बना बनाया भोजन राणाजी को पाँच बार सैनिकोंका १२ वर्ष तक निर्वाह हो सकता था। छोड़ना पड़ा था । इतने पर भी पान पर मर मिटने भामाशाह के इस अपूर्व त्याग के सम्बन्धमें भारतन्दु वाले समर-केसरी प्रताप विचलित नहीं हुए । वह बाबू हरिश्चन्द्रजी ने लिखा है:अपने पुत्रों और सम्बन्धियोंको प्रसन्नतापूर्वक रण क्षेत्र ____ जा धन के हित नारि तने पति, में अपने साथ रहते हुये देख कर यही कहा करते थे पूत तजे पितु शीलहि सोई । कि राजपूतोंका जन्म ही इस लिये होता है। परन्तु भाई सों भाई लन रिपु मे दुनि, उस पर्वत जैसे स्थिर मनुष्यको भी आपत्तियोंके तीन मित्रता मित्र तनै दुख जाई । थपेड़ोंने विचलित कर दिया। एक समय जंगली भन्न ता धन को बनियाँ हैं गिन्यो न, के पाटे की रोटियाँ बनाई गई, और प्रत्येक के दियो दुख देश के भारत होई । भागमें एक एक रोटी-माधी उस समय के लिये स्वारथ अर्य तुम्हारो ई है, और पापी दूसरे समय के लिये-माई । राणा प्रताप राजनैतिक पेचीदा उलझनों को सुलझाने तुमरे सम और न या जग कोई ।। में व्यस्त थे, मातृभूमि की परतंत्रता के दुख से दुःखी देशभक्त भामाशाहका यह कैसा अपूर्व स्वार्थहोकर गर्म निश्वास छोड़ रहे थे कि, इतने में लड़की । त्याग है ! जिस धनके लिये औरंगजेब ने अपने पिता दयभेदी चीत्कार ने उन्हें चौंका दिया। बात यह को कैद कर लिया,अपने भाईको निर्दयतापूर्वक मरवा हई कि एक जंगली बिली लडकीकी मीनी डाला, जिस धनके लिये बनवीरने अपने भतीजेको उठा ले गई। जिससे मारे भखक वह चिल्लाने मेवाड़ के उत्तराधिकारीबालक उदयसिंहx-को मरवा लगी । ऐसी ऐसी अनेक प्रापचियों से घिरे हुये, शत्रु I डालनेके अनेक प्रयत्न किये, जिस धनके लिये मारवाड़ के प्रवाहको रोकने में असमर्थ होने के कारण, वीर । के कई राजाओंने अपने पिता और भाइयोंका संहार चूडामणि प्रताप मेवाड़ छोड़ने को जब उग्रत हुए तब किया, जिस धनके लिये लोगोंने मान बेचा, धर्म भामाशाह राणाजी के स्वदेश निर्वासन के विचार को देखो, या राजस्थान जि.१.४.१.३। xया उदयसिंह राणा प्रताप के पिता थे, ने अपने माम सुनकर रो ठा! पर उदयपुर बसाया था । बचपन में जब इसका स्वाबनवीर इनके . इस्दीघाटी के युद्ध के बाद भामाशाह कुम्भलमेर का प्यासा हो उठा तय पमा पाईने बालक उदयसिंहको जिसके की प्रजा को लेकर मालबे में रामपुरे की भोर चला मायमें रूखापा उसका नाम माशाया था। या गर्मानुयायी गया था, वहाँ भामाशाह और उसके भाई ताराचंदने था। राजा के शत्रु को अपने यहां पर मय ही स समय माशाशाह ने साहस काम किया था । सनस्विी की १२वीं मालवे पर पढ़ाई करके २५ लाख रुपये तथा २० हजार शतानी में प्राशाशाह के पूर्वज दिममी से समरकेशरी के साथ प्रशफिया एण्डस्वल्प वसूल की। इस संकट-अवस्था में पाए थे। इससे पहिले भारत के सत्राट् महाराज पृथ्वी में उस वीरने देशभक्ति तथा स्वामिभति से प्रेरित राजकीमा में एक के पद पर विराजमान थे। वंडो, अ. होकर, कर्नल जेन्स टॉस कवनानुसार, राणा प्रताप राजस्थान, प्रथम भाग । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Xx फाल्गन, वीरनि० सं० २४५६] मंवाडोद्धारक भामाशाह बेचा. कुल-गौरव बेचा साथ ही देश की स्वतंत्रता बेची; अधिकार में करने लगे।पं० झाबरमल्लजीशर्मा सम्पादक वही धन भामाशाहने देशोद्धारके लिये प्रतापको अर्पण दैनिक हिन्दुसंसार ने लिखा है:- "इन धावों में भी कर दिया । भामाशाहका यह अनोखा त्याग धनलोलुपी भामाशाह की वीरता के हाथ देखने का महाराणाको मनुष्यों की बलात् आँखें खोल कर उन्हें देशभक्ति का खूब अवसर मिला और उससे वे बड़े प्रसन्न हुए है। पाठ पढ़ाता है। महाराणाने भामाशाह के भाई ताराचंद x को मालवेमें भामाशाहका जन्म कावड्या संज्ञक सवाल भेज दिया था, उसे शहबाजखां ने जा घेरा । ताराचंद जैनकुल में हुआ था। इसके पिता का नाम भारमल उसके साथ वीरता से लड़ाई करता हुआ वसी के पास था। महाराणा साँगा ने भारमल को वि० सं० १६१० पहुँचा और वहाँ घायल होने के कारण बेहोश होकर ई. स० १५५३ में अलवरसे बुनाकर रणथम्भोरका गिर पड़ा। वसी काराव साईदास देवड़ा घायल ताराचंद किलंद र नियत किया था। पीछेसे जब हाड़ा मरज- को उठाकर अपने किले में लेगया और वहाँ उसकी मल बन्द वाला वहाँ का किलेदार नियत हुआ, उस अच्छी परिचर्या की । इसी प्रकार महाराणा अपने समय भी बहुत सा काम भारमलके ही हाथमें था। प्रबल पराक्रान्त वीरों की सहायता से बराबर आक्रमण वर महाराणा उदयसिंहके प्रधान पद पर प्रतिष्ठित था। करते रहे और संवत १६४३ तक उनका चित्तौड़ और भारमलके स्वर्गवास होने पर गणा प्रतापने भामाशाह माण्डलगढ़को छोड़कर समस्त मेवाड़पर फिरसे अधिको अपना मंत्री नियत किया था। हल्दीघाटी के युद्ध कार होगया । इस विजयमें महाराणा की साहसप्रधान के बाद जब भामाशाह मालवे की ओर चला गया था वीरता के साथ भामाशाह की उदार सहायता और नब उसकी अनुपस्थितिमें रामा सहाणी महाराणाके गजपत सैनिकों का आत्म-बलिदान ही मुख्य कारण प्रधानका कार्य करने लगा था । भामाशाह के आने पर था। आज भामाशाह नहीं है किन्तु उमकी उदारता गमासे प्रधानका कार्य-भार लेकर पुनः भामाशाह को का बखान सर्वत्र बड़े गौरव के साथ किया जाता है।" मोंप दिया गया उसी समय किसी कविका कहा गया प्रायः साढे तीनसौ वर्ष होने को आये, मामाप्राचीन पद्य इस प्रकार है: शाह वंशज आज भी भामाशाहकं नाम पर मम्मान भामो परधानो करे. गमो कीधो रद्द । श्री माझा जी ने भी लिखा है:---महाराणा भामाशाह की भामाशाह के दिये हुए रुपयों का महारा पाकर टोखातिर करता था और वह दिवरक शाही थाने ५२. हमना गणा प्रताप न फिर बिखरा हुइ शाक्त का बटार कर कानेके समय भी राजपूतंकि माथ था । (३० पु. रा. का.. रण-भेरी बजादी । जिसे सुनते ही शत्रुषों के हतय ५० जि० पृ. ४३१) । दहल गए कायरों के प्राण पखेरू उड़ गये, अकबर के - ताराचन्द गांवाद का झकिन भी रहा था और उस समय सादडी में रहता था। उसने सादहीके बाद एक बारादरी और एक होश-भवास जाते रहे । राणाजी और वीर भामाशाह बावड़ी बनवाई, उसके पास ही ताराक्त उसकी चार भारत, एक. अख-शस्त्र से सुसज्जित होकर जगह जगह भाक्रमण खवास, गायने एक गया और उस गये की भारत की करते हुए यवनों द्वारा विजित मेवाड़ को पुनः अपने मूर्तियां पत्थरों पर खुदी हुई हैं। * देखो, उदयपुर राज्य का इतिहास पहनी जिल्द पृष्ठ ४३१ (उ० पु. १. का .जि. ५.१.४.१।। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ५ पा रहे हैं। मेवाड़-राजधानी उदयपुरमें भामाशाह के करी जी की मरजाद ठेठसूय्या है म्हाजना की जातम्हे वंशज को पंच पंचायत और अन्य विशेष उपलक्षों में बावनी त्या चौका को जीमण वा सीग पुजा होवे सर्वप्रथम गौरव दिया जाता है । समय के उलट फेर जीन्हे पहेली तलक थारे होतो हो सो अगला नगर अथवा कालचक्र की महिमा से भामाशाह के वंशज सेठ बेणीदास करसो कर्यो पर बेदर्याफत तलक थारं माज मेवाइके दीवानपद पर नहीं हैं और नधन का न्हीं करवा दीदो बारू थारी सालसी दीखी सो नगं बल ही उनके पास रह गया है। इसलियेधन कीपजा कर सेठ पेमचन्द ने हुकम की दो सो वी भी अरज के इस दुर्घट समय में उनकी प्रधानता, धन-शक्ति करी अर न्यात हे हकसर मालम हुई सो अब तलक सम्पन्न उनकी जाति बिरादरी के अन्य लोगों को माफक दसतुरके थे थारो कराय्या जाजो प्राप्त थारा अखरती है । किन्तु उनके पुण्यश्लोक पूर्वज भामाशाह बंस को होवेगा जी के तलक हुवा जावेगा पंचानं बी के नाम का गौरव ही ढाल बनकर उनकी रक्षा कररहा हुकुम करदीय्यो है सौ पेली नलकथारे होवेगा। प्रवाहै । भामाशाह के वंशजों की परम्परागत प्रतिष्ठा की नगी म्हेता सेरसीघ संवत् १९१२ जेठसुद १५ बुधे।"x रक्षा के लिये संवत् १९१२ में तत्सामयिक उदयपराधीश इसका अभिप्राय यही है कि-"भामाशाह के मुख्य महाराणा सरूपसिंह को एक ज्ञापत्र निकालना वंशधर की यह प्रतिष्ठा चली आती रही कि, जब महापड़ा था जिमकी नकल ज्यों की त्यों इस प्रकार है:- जनोंमें समस्त जाति-समुदाय का भोजन आदि होता, ___ "श्री रामोजयति तब सबसे प्रथम उसके तिलक किया जाता था, परन्तु श्री गणेशजीप्रसादान् श्रीएकलिंगजी प्रसादात् पीछे से महाजनों ने उसके वंशवालों के तिलक करना भाले का निशान बन्द करदिया, तब महागणास्वरुपसिंह ने उसकं कुल [सही] की अच्छी सेवा का स्मर्ण कर इस विषय की जांच स्वस्तिश्री उदयपुर सुभसुथाने महाराजाधिराज कराई और आज्ञा दी कि-महाजनों की जाति महाराणाजी श्रीसरुपसिंघ जी आदेशात् कावड्या में बावनी (सारी जाति का भोजन ) तथा चौके जेचन्द कुनणो वीरचन्दकस्य अभं थारा बडा वासा का भोजन व सिंहपूजा में पहिले के अनुसार भामो कावड्या ई राजम्हे साम ध्रमासु काम चाकरी तिलक भामाशाह के मुख्य वंशधर के ही किया ___* भामाशाह के घरानेमें चार पीढ़ियों तक दीवान पद रखा। जाय इस विषय का एक परवाना वि० सं० १९१२ राणा उदयसिंहका प्रधान भारमल, प्रतापसिंहका प्रधान मंत्री भामा- ज्येष्ठ सुदी १५ को जयचन्द कुनणा वीरचन्दकावड़िया शाह मौर राणा अमरके समय तीन वर्ष तक भामाशाह ही प्रधान के नाम करदिया, तब से भामाशाह के मुख्य वंशधरक पना रहा । वि. सं. १६५६ माघ सुदी ११ (इ. स. १६०० तिलक होने लगा।" ता. १६ जनवरी को उसका देहान्त हुमा । उसके पीछे महाराण "फिर महाजनों ने महाराणा की उक्त माझा का ने उसके पुत्र जीवाशाह को अपना प्रधान बनाया । उसका देहान्त हो पालन न किया, जिससे वर्तमान महाराणा साहब के जाने पर महाराणा कर्णसिंह ने उसके पुत्र प्रक्षयराज को मंत्री ! समय वि० सं०१९५२ कार्तिक सुदी १२ को मुकदमा नियत किया । इस प्रकार ४ पीलियमें स्वामि-भक भामाशाइके प्रधाम पद रहा (उ.पु.का... ४७५)। xविसंसार दीपावली-प्रहकार्तिकरु.३.सं.११८२ वि. Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फाल्गुन, वीर नि०सं० २४५६] मेवाडोद्धारक भामाशाह होकर उसके तिलक किये जाने की आज्ञा दी गई"x। महाराणा अमरसिंह उसे इतने अमूल्य रल कैसे देता? ___वीर भामाशाह ! तुम धन्य हो !! आज प्रायः आगे आने वाले महाराणा जगतसिंह तथा राजसिंह माढे तीनसौ वर्षसे तुम इस संसार में नहीं हो परन्तु अनेक महादान किस तरह देते और राजसमुद्रादि यहाँ के बचे बचे की जबान पर तुम्हारे पवित्र नामकी अनेक वृहत-व्यय-साध्य कार्य किस तरह सम्पन्न होते? छाप लगी हुई है । जिस देश के लिये तुम ने इतना इस लिये उस समय भामाशाह ने अपनी तरफ से न बड़ा श्रात्म-त्याग किया था, वह मेवाड़ पुनः अपनी देकर भिन्न-भिन्न सुरक्षित राज-कोषोंसे रुपया लाकर म्वाधीनता प्रायः खो बैठा है। परन्तु फिर भी वहाँ तु- दिया *।" म्हारा गुण गान होता रहता है । तुमने अपनी अक्षय- इस पर त्याग भूमि के विद्वान् समालोचक भीहंस कीर्ति से स्वयं को ही नहीं किन्तु समस्त जैन-जातिका जी ने लिखा है :मस्तक ऊँचा कर दिया है । निःसन्देह वह दिन धन्य “निस्सन्देह इस युक्ति का उत्तर देना कठिन है, होगा जिस दिन भारत वर्ष की स्वतंत्रता के लिये जैन- परन्तु मेवाड़ के राजा महाराणा प्रताप को भी अपने ममाज के धन कुबेरों में भामाशाह जैसे सद्भावों का खजानों का ज्ञान न हो, यह मानने को स्वभावतः उदय होगा। किसीका दिल तैयार न होगा। ऐसा मान लेना महा राणा प्रताप की शासन-कुशलता और साधारण नीतिजिस नर-रत्नका ऊपर उल्लेख किया गया है, उसके मत्ता से इन्कार करना है । दूसरा सवाल यह है कि चरित्र, दान आदि के सम्बन्ध में ऐतिहासिकों की यदि भामाशाह ने अपनी उपार्जित सम्पत्ति न देकर चिरकाल से यही धारणा रही है । किन्तु हाल में केवल राजकोषों की ही मम्पत्ति दी होती तो इसका गयबहादर महामहोपाध्याय पं० गौरीशंकर हीराचंद और उसके वंश का इतना सम्मान, जिसका उल्लख श्री जी ओझा ने अपने उदयपुर राज्य के इतिहास में प्रोमाजी ने पृ० ७८८ पर किया है x, हमें बहुत "महाराणा प्रताप की सम्पत्ति" शीषेक के नीचे महा संभव नहीं दीखता। एक खजांची का यह ता साधा. गणा के निराश होकर मेवाड़ छोड़ने और भामाशाह रण सा कर्तव्य है कि वह भावश्यकता पड़ने पर कोष के रुपये दे देने पर फिर लड़ाई के लिये तैयारी करने में रुपया लाकर। कंवल इतनं मात्र से उसके वंश. की प्रसिद्ध घटना को असत्य ठहराया है। धरों की यह प्रतिष्ठा ( महाजनों के जाति-भाजक इस विषय में आपकी युक्ति का सार 'त्यागभूमि' अवसर पर पहले उसको तिलक किया जाय ) प्रारंभ के शब्दों में इस प्रकार है : हो जाय, यह कुछ बहुत अधिक युक्ति-संगत मालूम "महाराणा कुम्भा और साँगा भादि द्वारा उपा- नहीं होता +।" जिंत अतुल सम्पत्ति अभी तक मौजूद थी, बादशाह - * देखो उदयपुर राज्यका इतिहास जिल्द पहली पृष्ठ ४६३-६६ अकबर इसे अभी तक न ले पाया था । यदि यह स. . ४ सम्मान की बात इसी लेख में अन्य उक इतिहास म्पत्ति न होती तो जहाँगीर से सन्धि होने के बाद अतर दी गई है। xउदयपुरराज्यका इतिहासजिल्द पहली, म०४७५-७मे। + त्यागभूमि वर्ष ३ मा ४.४ । Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त [वर्ष १, किरण ४ इस पालोचना में मोमाजी की युक्ति के विरुद्ध समस्या-पर्ति जोकल्पना की गई है वह बहुत कुछ ठीक जान पड़ती [लेखक-सा रत्न पं०दरबारीलालजी ] है। इसके सिवाय, मैं इतना और भी कहना चाहता हूँ कि यदि श्री श्रोमाजी का यह लिखना ठीक भी मान हा! संसार अपार दुःख-मय है, आपत्ति तो साथ है; लिया जाय कि महाराणाकुम्भा और सांगा आदि द्वारा जीता ही रहता नहीं यदपि है एकान्त माला-जपी. कोई भी बलवान दीन-जनको होता नहीं नाथ है। उपार्जित अतुल सम्पत्ति प्रताप के समय तक सुरक्षित कालो हि व्यमनप्रसारितकरो गह्नाति दूरादपि ।। थी-वह खर्च नहीं हुई थी', तो वह संपत्ति चित्तौड़ १(काल बुरी तरहसे हाथ फैलाए हुए दूग्मे ही पकड़ लेता है । या उदयपर के कुछ गप्त खाजानों में ही सुरक्षित रही छाने से नभ में सनीर धन के आनन्द हे मोर को. होगी। भले ही अकबर को उन खजानों का पता न रागीको प्रिय है वसन्त, प्रिय है काली निशा चोर को। चल सका हो परन्तु इन दोनों स्थानों पर अकबर का सेवा-धर्म-सुलग्न साधु जनको सेवा यथा है भली, अधिकार तो परा होगया था और ये स्थान अकबरकी २घमोते न तथा सुशीतलजलैः स्नानं न मुक्तावली ।। फौज से बराबर घिरे रहते थे, तब युद्ध के समय इन २(घाम से पीड़ित मनुष्य को शीतल जल का स्नान या मुक्तागुप्त खजानोंसे अतुल संपत्ति का बाहर निकाला जाना वली भी वैसी भली मालूम नहीं होती ।) कैसे संभव हो सकता था । और इस लिये हलदीपाटी आत्मन् ! मानव देह धार करके रक्खी न तने दया, के युद्ध के बाद जब प्रतापके पास पैसा नहीं रहा तब तो चिन्तामणि-तुल्य जन्म मिलना हा! व्यर्थ तेरा गया। भामाशाह ने देश हित के लिये अपने पास से-खुदके जो पाके नरजन्म है न करता कल्याण मोही वृथा, ७ ३पश्चात्तापयतो जरापरिगतः शोकाग्निना दह्यते । उपार्जन किये हुए द्रव्यमे-भारी सहायता देकर प्रताप का यह अर्थ-कष्ट दूर किया है। यही ठीक ऊँचता है। २० (वह जराजीर्ण होकर पश्चात्तापसे युक्त हुमा शोकान्निसे जलतः ही अमरसिंह और जगतसिंह द्वारा होने वाले खचों देवेन्दादिक भी नहीं बच सके आपत्ति पीछे लगी, की बात, वे सवतो चित्तौड़ तथा उदयपुरके पुनः हस्त- आया प्रात कि चन्द्रकी कुमुदकी देखी नाभा जगी। गत करने के बाद ही हुए हैं और उनका उक्त गप्त दुखापन्न कहाँ नहीं जगत में श्रापन्न अात्मा कॅपी; खजानों की सम्मति से होना संभव है, तब उनके पा. ४वध्यन्ते निपुणेरगाधसलिलान्मत्स्याः समुद्रादपि ।। धार पर भामाशाह की उस सामयिक विपुल सहायता ४(उपायकुशल मनुष्यों द्वारा भगाध जल समुद्र से मी मन्य तथा भारी स्वार्थ त्यागपर कैसे आपत्ति की जा सकती पकड़े और मारे जाते हैं।) है ? अतः इस विषयमें श्रोमाजीका कथन कुछ अधिक कैसे हैं ? बस दुःख-द्वंद-मय है, आपत्ति के साथ है; युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता । और यही ठीक जंचता . ये संसार महीप मोह-रिप के साम्राज्य के हाथ है। आके और विमोह पूर्ण करके धोखा दिया सर्वदा; है कि भामाशाह के इस अपूर्व त्याग की बदौलत ही ५न त्वं निर्षण ! लज्जसे ऽत्र जनने भोगेषु रन्तुं सदा ॥ उस समय मेवाड़ का उद्धार हुआ था, और इसी लिये, - । पता भी, हे नियः भीमा में सदा रमते हुए तुझे इस संसारमें भाज भी भामाशाह मेवाडोवारकके नामसे प्रसिद्ध है। '. लज्जा नहीं पाती। अयोध्यापसाद गोयलीय Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्राश्रमविज्ञप्ति नं०४ समन्तभद्राश्रम - विज्ञप्ति नं० ४ 505 लुप्तप्राय जैन ग्रंथोंकी खोज के लियेवृहत पारितोषिक की योजना फाल्गुन, वीरनि० सं० २४५६] समन्तभद्राश्रममें 'साहित्यिक पारितोषिक फंड' नामका एक विभाग खोला गया है, जिसका पहला काम लुप्तप्राय जैन ग्रंथों की खोज । इसके लिये आश्रमकी विज्ञप्ति नं०३ द्वारा २७ ऐसे प्राचीन संस्कृत ग्रंथोंके नाम प्रकट किये गये थे जिनके नामादिकका तो पता चलता है - कितनों के वाक्य भी उद्धृत मिलते हैं- परन्तु वे ग्रंथ मिलते नहीं । और न इस बातका अभी तक कुछ पता चल पाया है कि वे कहाँ के भंडार में मौजूद हैं - किस भंडार की काल कोठरी में पड़े हुए अपना जीवन शेष कर रहे हैं अथवा कर चुके हैं। साथ ही, उनकी खोज के लिये १५००) रु० के पारितोषिक तजवीज करके धर्मात्मा सज्जनों से प्रार्थना की गई थी कि वे अपनी अपनी तरकसे जिस जिस पन्थ पर पारितोषिक दे कर उसका उद्धार करना चाहें उसमे शीघ्र सूचित करने की कृपा करें, जिससे खोजका काम प्रारंभ हो सके । हर्षका विषय है कि आश्रम की यह आवाज सुनी गई और अधिकांश मित्रोंकी कृपामे सभी ग्रंथों पर पारितोषिक भरा जा चुका है। अतः श्राज, इन ग्रंथांका कुछ विशेष परिचय देते हुए, इनकी खोज को समुचित उत्तेजन देने के लिये पारितोषिक की निश्चित योजना के साथ यह विज्ञप्ति प्रकट की जाती है । साथ ही, इस काम में दिलचस्पी लेने वाले सभी सज्जनोंसे प्रार्थना की जाती है कि वे अपने अपने नगर प्रामों तथा आसपास के शास्त्रभंडारों में इन प्रन्थोंकी परी खोज करें। इसके लिये दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायोंके भंडारोंको खूब टटोला जाना चाहिये। बौद्धों तथा हिन्दुओं के शास्त्र भंडार भी देखे जाने की जरूरत है; क्योंकि समय समय पर बहुतसे २५३ अजैन विद्वानों ने जैनका विशेष परिचय पान अथवा 1 खंडन-मंडनादिककी दृष्टि से जैन प्रन्थोंका संग्रह किया है । जिस प्रकार जैनभंडारोंसे कितने ही अजैन प्रथां का पता चल कर उनका उद्धार हुआ है उसी प्रकार श्रजैनभंडारोंसे भी कुछ जैन ग्रन्थों का पता चलने की बहुत बड़ी संभावना है। कितने ही प्रन्थ विद्वानोंके घरों पर उनके निजी संग्रह में अथवा साधुओं के मठोंमें होते हैं उनसे भी मिल कर इनका पता चलाना चाहिये । और जर्मनी - योम्पादि विदेशों की लायब्रेरियों में तो खास तौर से ढूँढ खोज होनी चाहिये; क्योंकि वहाँ सब ओर से ही हस्तलिम्बित प्रन्थोंकी प्राचीन तथा अर्वाचीन प्रतियाँ पहुँची हैं। किसी भी अप्रसिद्ध शास्त्रभंडार अथवा हस्तलिखित प्राचीन प्रन्थोंके संग्रह बाली लायब्रेरी से दो चार या दस बीस प्रन्थोंका इनमें से एक साथ मिल जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है, और इस लिये खोज करने वालोंके सामने २७ प्रन्थोंकी एक लम्बी लिस्ट होनेमे उन्हें अपनी खोज में सफलता मिलने की काफ़ी संभावना है । समन्तभद्रादिके जीवसिद्धि आदि मूल ग्रन्थ परिमाणमें छोटे होंगे, उनके गुटकों में मिलने की अधिक संभावना है, इससे जिन गुटकोंमं ग्रन्थ-सूची या विषय-सूची लगी हुई न हो उनके सभी पन्ने पलट कर देखने चाहियें । खोजका यह काम वास्तव में साहित्य सेवाका एक खास काम है और इस लिये धर्मका अंग है। जो लोग प्राचीन कीर्तियोंके संरक्षण और उद्धार जैसे पुण्य कृत्यों के महत्व को समझते हैं उन्हें इस विषय में कुछ भी कहने अथवा बतलाने की जरूरत नहीं है । इसीसे इल सेवाकार्यमें पारितोषिककी मात्रा पर कोई खयाल न Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ अनेकान्त होना चाहिये। यह तो एक प्रकार का पुरस्कार और मत्कार है - मेवाका कोई मूल्य नहीं । और इस लिये किसी न किसी रूप से सहायक होकर इस पुण्य यज्ञमें भाग लेना चाहिये । भण्डारोंके अधिपतियों अथवा प्रबन्धकका चाहिये कि वे खुद खोज कराएँ तथा खोज करने वालों को उनके इस कार्य में पूरी सहूलियतें देवें । जो परिश्रम शील सज्जन किसी ग्रंथ की खोज लगाएँगे वे ही मुख्यतया उसके उद्धारक समझे जायँगे । पारितोषिक - सम्बंधी नियम १ जो कोई भी सज्जन इस विज्ञप्तिमें दिये हुए किसी भी मन्थ की खोज लगा कर सबसे पहले उसकी सूचना आश्रम को नीचे लिखे पते पर देंगे और फिर बादको प्रन्थकी कापी भी देवनागरी अक्षरोंमें भेजेंगे या खुद कापीका प्रबन्ध न कर सकें तो मूल प्रन्थ ही कापीके लिये आश्रमको भेजेंगे, तो वे उस पारितोषिकको पाने के अधिकारी होंगे जो प्रन्थ के लिये नियत किया गया है। २ उक्त सूचनाके साथमें प्रथके मंगलाचरण तथा प्रशस्ति (अन्तिम भाग) की और एक संधिकी भी (यदि संधियाँ हों तो) नक़ल भानी चाहिये । यदि सूचना तार द्वारा दी जाय तो उक्त नक़ल उसके बाद ही डाक रजिस्टरीसे भेज देनी चाहिये। ऐसी हालतमें तारके मिलने का समय ही सूचना प्राप्ति का समय समझा जायगा । ३ ग्रंथकी लोकसंख्या यदि २०० से ऊपर हो तो कुल कापीकी उजरत पाँच रुपये हजारके हिसाब मे पारितोषिकसे अलग दी जायगी । ४ कापी यदि ग़लत अथवा अन्य प्रकार से संदिग्ध होगी तो उसकी मूल कापसे जाँच कराना प्रेषकका कर्तव्य होगा । ५. कापी अथवा मूल ग्रन्थकी प्राप्तिके बाद यह निवित हो जाने पर कि ग्रंथ वही है जिसके लिये पारितोषिक निकाला गया है, पारितोषिककी रक्रम [ वर्ष १, किरण ४ ६ खोजकर्ता महाशयको भेट कर दी जायगी - उनके पास मनीआर्डर आदि द्वारा भेज दी जायगी। जो भाई पारितोषिक के अधिकारी होकर भी पा - रितोषिक न लेना चाहें उनके पारितोषिककी रक्क्रम 'साहित्यक पारितोषिक फंड' में जमा की जायगी ७ वह उनकी ओर से किसी दूसरे ग्रंथकी खोज अथवा रचनाके पारितोषिकमें काम लाई जाएगी। आश्रमको ग्रंथप्राप्ति की सूचना देनेकी अवधिका समय ३१ अगस्त सन् १९३० तक है। परंतु पारितोषिक-प्राप्ति के लिये अवधिके खयाल में अधिक न रह कर शीघ्र से शीघ्र सूचना देने का यत्न करना चाहिये । खोजकर्ताओं से निवेदन जो भाई प्रन्थों की खोजका काम प्रारंभ करें उनमे निवेदन है कि, वे एकतो जिन जिन शास्त्रभंडारों का अवलोकन करें उनमें उन्हें प्रकृत ग्रन्थोंके अतिरिक्त दूसरे जो कोई भी अश्रुतपूर्व ग्रन्थ मालूम पड़ें उनको भी वे जरूर नोट करते जायँ और उसकी सूचना श्र श्रमको देने की कृपा करें; दूसरे यह कि, खोज करने पर उन्हें इन ग्रन्थोंमेंसे यदि कोई गन्थ न भी मिले तो भी वे इस बातकी सूचना आश्रम को जरूर देखें कि उन्होंने अमुक अमुक शास्त्रभंडारों को इस कामके लिये खोजा है और उनमें ये गून्थ नहीं मिले, जिससे खोज का कुछ विशेष अनुभव हो सके और उसे व्यबस्थित रूपसे चलाने में सहायता मिल सके । खोजके ग्रंथोंका परिचय और पारितोषिक (१) जीवसिद्धि - यह ग्रंथ स्वामी समन्तभद्र का रचा हुआ है। जिनसेनाचार्य ने 'हरिवंशपुराण' में इसे भगवान् महावीरके वचनों जैसा महत्वशाली बतलाया है जीवसिद्धि- विधायीह कृतयुक्तयनुशासनम् । वचः समन्तभद्रस्य वीरस्येव विजृ भते ॥ - पारितोषिक, १००) Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फाल्गुन, वीरनि० सं० २४५६] समन्तभद्राममविज्ञप्ति नं०४ २५५ (२) तत्त्वार्थसत्र टीका ( तवार्थालंकार) शिव. (५) अथशम्दवाच्य--यह महावादिमुनि बकमीव. कोटि प्राचार्यकृत-श्रवणबेलगोलके शिलालेख द्वारा छह महीनेमें रचा हुआ प्रन्थ है। इसमें नं० १०५ के निम्न पद्यसे इस टीका का पता विस्तारके साथ 'प्रथ' शब्द का अर्थ बतलाया है। चलता है और इसमें प्रयुक्त हुआ 'एतन' शब्द इसका भी उक्त शिलालम्बमें उल्लेम्व हैइस बात को सचित करता है कि यह टीका परमे। 'ग्रीवोऽस्मिन्नाथ-शब्द-वान्या : ही उद्धृत किया हुआ पन्ध है मवदद् मासान्ममासेन पट ।। तस्यैव शिष्यः शिवकोटि -पारि०, ५०) सारस्तपा लतालम्बनदेहयष्टिः। (६) चडामणि--यह श्रीवर्द्धदव-कृत एक मध्य काव्य संसारवाराकरपोतमेत है, जिसका उल्लेख भी उक्त शिलालेखमें निम्न तत्त्वार्थसत्रं तदलंचकार ॥ प्रकारसे पाया जाता है । इसके रचयिता श्रीवर्द्ध देव की दंडी कविने स्तुति की है और उन्हें जिल्ला -पारि०, १००) (२) नवस्तोत्र-- यह वज्रनन्दी प्राचार्यका बनाया प्र पर सरस्वती को धारण करने वाले लिखा है । इससे यह काव्य प्राचीन तथा महत्व का जान हुआ है जो संभवतः पूज्यपादस्वामीके शिष्य थे। पड़ता है-. . श्रवण बेलगोलके मल्लिषेण प्रशस्ति नामक शिलालेख नं० ५४ (६७) में जो शक संवत १०५ चूडामणि कवीनां चुडामणि नामसेव्यकाव्यकविः। लिखा हुआ है, इसे सकलाईप्रवचनके भाव को श्रीवर्द्धदेव एव हि कृतपुण्यः कीर्तिमाहर्तुम् । लिए हुए बड़ा ही सुन्दर पंथ बतलाया है -पारि०, ५०) नवस्तोत्रं येन व्यरचि सकलाईत्यवचन- (७) तत्त्वानशासन--यह ग्रंथ म्वामीसमन्तभद्र-कृत प्रपंचान्तर्भाव-प्रवण-वर-सन्दर्भ-समगम् ॥ है और इसलिये रामसेनकृत उस तत्त्वानुशासनसे ___ भिन्न है जोमाणिकचंद-ग्रंथमालामें प्रकट हुमा है। ४) सुमतिसप्तक -यह सुमतिदेवाचार्य का ग्रंथ है। इसका उल्लेख 'दिगम्बर जैनपंथकर्ता और उनके मंथ' नामकी सूचीके अतिरिक्त 'जैनप्रथावली' में उक्त शिलालेखके निम्न वाक्यमें इसका उल्लेख है भी पाया जाता है, जिसमें वह सूरत के उन सेठ और इसे कुमार्ग को हटा कर सुमति-कोटि का भगवानदास कल्याणदासजी की प्राइवेट रिपोर्टसे विकाशक तथा भवातिका हरने वाला लिखा है। लिया गया है जो कि पिटर्सन साहब की नौकरी शांतरक्षित-रचित बौद्धों के 'तत्त्वसंग्रह' प्रन्थ में में थे । 'नियमसार' की पद्मप्रभ-मलधारिदेव-कृत सुमनिदेवके बहुतसे वाक्यों का उल्लेख है। आश्चर्य टीकामें 'तथा चोक्तं तत्वानुशासने इस वाक्यक नहीं जो वे इसी प्रथके वाक्य हों साथ नीचे लिखापद्य उद्धृत कियागयाहै,जोराममुमतिदेवममुं स्तुत येन ब सेनके उक्त तत्वानुशासनमें नहीं है और इस लिय स्सुमतिसप्तकमाप्ततया कृतम् । संभवतः इसी तत्वानुशासन का जान पड़ना हैपरिहतापय-तत्व-पयार्थिना उत्स4 कायकर्माणि भावं च भवकारणं । सुमति-कोटि-विवर्ति भवातिहत् ॥ स्वात्माषस्थानमन्वय कायोत्सर्गः स उच्यते ॥ -पारि०,५०). -पारितो०, १००) -पारि०, १००) Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ (८) जम्पनिर्णय -- 'तस्वार्थ-लोकवार्तिक' के निम्न उल्लेखसे पाया जाता है कि यह ग्रंथ ६३ वादियोंके विजेता श्रीदत्ताचार्य का बनाया हुआ है और इस लिये बहुत प्राचीन हैद्विकारं जग जम्पं वप्रातिभगोचरं । त्रिgर्वादिनां जेता श्रीसो जम्पनिर्णये ॥ पारि०, ५०) (९) वादन्याय --- यह प्रन्थ कुमारनन्दि आचार्य का अनेकान्त बनाया हुआ है। इसके तीन पद्यों को विद्यानन्द आचार्य ने अपनी 'पत्रपरीक्षा' में निम्न वाक्यके माथ उद्धृत किया है "तथैव हि कुमारनन्दिभट्टारकैरपि स्ववादन्याये निगदितत्वात्तदाह - " पारि०, ५०) (१०) प्रमाण संग्रह - भाष्य -- यह अनन्तवीर्य आचार्य 1 का रखा हुआ 'प्रमाणसंग्रह' ग्रन्थ का भाष्य है स्वयं अनन्तवीर्य ने अपनी 'सिद्धिविनिश्चय-टीका' इसका कितने ही स्थानों पर उल्लेख किया है। यथा--' इति चर्चितं प्रमाणसं ग्रहभाष्ये" । " इत्युक्तं प्रमाणसंग्रहालंकारे । " " शेषमत्र प्रमाण संग्रह भाष्यात्मस्येयं । " "ईश्वरस्य सकलोपकरणादिज्ञानं प्रमाणसंग्रहभाष्ये निरस्तं" में - पारि०, ५०) (११) प्रमाणसंग्रह, स्वोपज्ञभाष्यसहित - यह मूल ग्रन्थ अकलंक देव-कृत है, अकलंकदेवके स्वोपश भाष्य की भी इस पर संभावना पाई जाती है। इसी मूल ग्रन्थ पर अनन्तवीर्यका उक्त भाष्य है। - पारि०, ५०१ (१२) सिद्धिविनिमय, स्वोपज्ञ भाष्यसहित यह भी कलंकदेवका ग्रन्थ है जिस पर अनन्तवीर्य की [ वर्ष १, किरण ४ टीका उपलब्ध है । परन्तु टीकाकी उपलब्ध प्रतिके साथमें मूल ग्रन्थ लगा हुआ नहीं हैं-मूल कारिकाओंके आद्याक्षर दिये हैं। मूल पर स्वोपज्ञभाष्यका होना भी उक्त टीका से पाया जाता है। - पारि०, ५०) (१३) न्यायविनिश्चय, स्वोपज्ञ भाष्यसहित - यह प्रन्थ भी अकल देव कृत है। इस पर वादिराजसूरि की टीका मिलती है परन्तु उससे मूल ग्रंथ पूरा उपलब्ध नहीं होता- कोई कोई कारिका ही पूरी मिलती है। इस पर भी खुद अकलंकदेव - कृत भाष्य की संभावना है। पारि०, ५०) (१४) त्रिलक्षणकदर्शन-यह ग्रन्थ स्वामी पात्रकेमरीका रचा हुआ है। सिद्धिविनश्चय - टीका और न्यायविनिश्चय-विवरण में इसका उल्लेख है। इसका विशेष परिचय 'अनेकान्त' की दूसरी किरण में दिया है । वादिराजसूरिने न्यायवि० में लिखा है 'त्रिलक्ष एकदर्थने वा शास्त्रे विस्तरेण श्रीपात्रकेसरिस्वामिना प्रतिपादनादित्यलमभिनिवेशेन । " - पारि०, २५) (१५) स्याद्वादमहार्णव - यह ग्रन्थ कौनसे आचा for बनाया हुआ है, यह अभी तक मालूम नहीं हो सका । परंतु न्यायविनिश्चय-विवरण में बादि - राजने इसके एक वाक्यका निम्न प्रकार से उल्लेग्व किया है“यथोक्तं स्याद्वादमहार्णवे -- सुखमाहादनाकारं विज्ञानं मेयबोधनं । शक्तिः क्रियानुमेया स्या नः कान्तासमागमे ।।" यह पद्य 'अष्टसहस्री' और 'सन्मतितर्क' के भाष्य में भी, बिना किसी गून्थनामके, उद्धृत पाया जाता है और इससे ग्रन्थकी प्राचीनता तथा महता प्रकट होती है । - पारि०, २५) Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फाल्गुन, वीरनि० सं० २४५६] ममन्तभद्राश्रमविज्ञप्ति नं०४ २५७ (१६) विद्यानंदमहोदय-- यह विद्यानंदाचार्य का सिदि पद्धतिर्यस्य टीका मंवीक्ष्य भिक्षुभिः। गन्ध है, जिसका उल्लेख खुद उनके गन्थोंमें भी टीक्यते हेलयान्यषां विषमापि पदे पदे।। पारि०.२५॥ पाया जाता है। जैसा कि 'अष्टसहस्री' के निम्न (२१) सुलोचना - यह सुन्दर कथा महासेन प्राचार्यवाक्यसे प्रकट है : रचित है । जिनसेन-कृत 'हरिवंशपुराण' में इसका 'इति तत्वार्थलंकारे विद्यानन्दमहोदये च उल्लेख इस प्रकार है- -पारि०, २५॥ प्रपंचनः प्ररूपितम्' -पारि०, ५०) महासेनस्य मधुरा शीलालंकारधारिणी। (१७) कर्मपामत-का- यह श्रीपुष्पदन्त-भूतब- कथा न वर्णिता केन वनितेव सलोचना ।। ल्याचार्य-विरचित कर्मप्राभूत (षट्खण्डागम) के (२२) वरांगचरित-यह पापगणके कर्ता रवि. पाँच खण्डोंकी ४८ हजार श्लोकपरिमाण टीका है। षेणाचार्य-कृत है । उक्त हरिवंशपुराणमें पद्मपराण इस टीकाके का स्वामीसमन्तभद्र हैं इन्द्रनन्दि- के बाद इसका भी उल्लेख निम्न प्रकारसे किया है कृत श्रुतावतारमें इसका उल्लेख इस प्रकार है:- और इसे अच्छा मनोमोहकचरित लिखा हैश्रीमान्समन्तभद्रस्वामीत्यथ सोऽयधीत्य तंद्विविधं। वरांगनेव सर्वांगै गंगचरितायक्षाफ । सिद्धान्नमतः षट्खण्डागमगतखंडपंचकस्य पुनः॥ कस्य नोत्पादयेद् गाथपनुरागं स्वगोचरम् ।। अष्टौचन्वारिंशत्सहस्रसग्रंथरचनया युक्तां। -पारि०, २५) ... (२३) मागप्रकाश- यह ग्रन्थ किस विद्वान् की विरचितवानतिसुन्दरमृदुसंस्कृतभाषया टीकाम् ।। रचना है, यह अभी तक मालम नहीं हो सका। -पारि०, १०० परंतु पद्मप्रभ मलधारिदेव ने नियम सारकी टीका (१८)सन्मति-टीका-यह सिद्धसेन के सन्मतितर्क में इसके कितने ही पद्योंको 'उक्तंच मार्गप्रकाशे' नामक गन्थकी टीका है। इसके रचयिना सन्म आदि वाक्योंके साथ उद्धृत किया है और उन पर ति प्राचार्य हैं, जिसका उल्लेख वादिराजमरि के में यह प्रन्थ अच्छे महत्वका मालूम होता है। एक पार्श्वमाथचरित में इस प्रकार है: पच नमूने के तौर पर इस प्रकार हैनमः सन्मतये तस्मै भव कूपनिपातिना कालाभावेन भावानां परिणामस्तदन्तरात् । सन्मतिर्विवृता येन सुखधामप्रवेशिनी।।-पारि०,१००) न द्रव्यं नापि पर्यायः सर्वाभावः प्रसज्यते ॥ -पारि०, २५) (१९) जीवसिद्धि- यह दूसरा 'जीवसिद्धि' ग्रंथ (४) श्रुबिन्दु-यह प्रन्थ चन्द्रकीर्तिप्राचार्य-रवि अनन्तकीर्ति आचार्यका बनाया हुआ है । उक्त त है, ऐसाश्रवणबेलगोलके उक्त शिलालेख नं०५४ पार्श्वनाथचरित में इसका उल्लेख इस प्रकारसे है- से पाया जाता है । यथाःपात्मनेवादिनीयेन जीवसिदि निषध्नता। वयः श्रुतविन्दुनावारुधे भावं कशाग्रीपया....। . अनन्तकीर्तिना मुक्तिरात्रिमागवलक्ष्यते ॥ स्तं वाचार्चत चन्द्रकीर्तिगणिनं चन्द्राभकीर्निबुधाः।। । -पारि०,२५) नियमसार की पद्मप्रभ-विरचित टीका, 'जयवि (२०) सिद्धिपति टीका-यह टीका वीरसेन विजयदोषो' नाम का जो एक पद्य 'तथाचोकं श्रुत आचार्यकी बनाई हुई है, जिसका उल्लेख गणभद्रा- बन्धों' शब्दोंके साथ उद्धृत मिलता है वह संभवतः चार्य के उत्तरपुराणमें निम्न प्रकारसे पाया जाताहै- इसी अन्य का जान पड़ता है। -पारि०, २५) Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र्शनसमुषय नाम है कि दिगम्बर ५००) १०,२६, प्रत्येक २५८ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ४ (२५) राद्धान्त- यह प्रन्थ आर्यदेवाचार्यकृत है,ऐसा विशेष सचना-इन ग्रंथोंमें नं० ११, १२, १३ के उक्त शिलालेख नं०५४ के निम्न वाक्यसे पाया तीन गन्थ यदि स्वोपज्ञ भाष्य-सहित न मिल कर जाता है-"प्राचार्यवर्यो यतिरार्यदेवो गद्धा- मूलमात्र मिलें तो पारितोषिक प्रत्येक का आधा तकर्ता ध्रियता स मूर्ध्नि " अर्थात् पच्चीस २ रुपये होगा। और यदि तीनों और वीरनन्दि-कृत 'आचारसार' में इसका एक मूल ग्रन्थ 'वृहत्त्रय' आदिके रूपमें एक ही व्यक्तिपद्य भी 'उक्तंच राद्धान्ते' वाक्यके साथ उद्धृत द्वारा प्राप्त हो जाये तो पारितोषिक ७५) के स्थान मिलता है, जिससे यह प्रन्थ अच्छे महत्वका जान में १००) रु० भेट किया जायगा । 'वृहत्त्रय' के पड़ता है। वह पद्य इस प्रकार है : नामसे प्रसिद्ध होने वाले अकलङ्कदेवके ग्रन्थमें स्वयं बर्हिसा स्वयमेव हिंसनं न तत्पराधीनमिड इन्हीं तीनोंगन्थोंके संग्रहकी बहुत बड़ी संभावनाहै। दयंभवेत् । प्रमादहीनोऽत्र भवत्यहिंसकः प्रमाद पारितोषिक दाताओंके नाम युक्तस्तु सदेव हिंसकः ॥ -पारि०, ५०) ५००) सेठ पद्यराजजी रानी वाले, कलकत्ता । ग्रन्थ (२६) सिद्धान्तसार (तर्कग्रन्थ)-श्रीजयशेखर सूरि- नं० ३, ४, ८, ९, ११, १२, १३, १४, २४, २५, जगलकिशोर मुख्तार, सरसावा । गन्थ नं० १, विरचित 'षड्दर्शनसमुषय' नामक श्वेताम्बर ग्रंथ - के निम्न वाक्योंसे मालूम होता है कि दिगम्बर प्रत्येक पर १००) १००) जैनों को जयश्री दिलाने वाले गन्थों में 'सिद्धान्त १०) ला मक्खनलालजी ठेकेदार, देहली। गन्थ नं. ससार' नामक भी गन्थ है और वह 'श्रष्टसहस्री' १०, २६, प्रत्येक पर ५०) ५०) तथा 'न्यायकुमुदचन्द्र की जोड़का बड़ा ही कर्कश १००)बाब रघुवरदयाल एम. ए., लाहौर।गून्थ नं०१७ • तर्क ग्रन्थ है ५००) पं० नाथरामजी प्रेमी, बम्बई । गन्थ नं० १८ १००) बाब राजकृष्णजी, कोलमचेंट, देहली। गन्थ स्थाद्वादविद्योवियोतात्मायः साधर्मिका अमी। नं०५, १६; प्रत्येक पर ५०) ५) परपष्टसहस्त्री या न्यायकरवचन्द्रमाः ॥ २८॥ १००) राजवैद्य शीतलप्रशादजी, देहली । ग्रन्थ नं०७ सिदान्तसार इत्याचास्तोः परमार्कशाः । १००) बाबू सुमेरचन्दजी, एडवोकेट, सहारनपुर । तेषां जयभीदानाय प्रगन्भन्ते पदेपदे।। पारि०,५०) ५० लाजम्बप्रसादजी जैन रईस, नानौता । ग्रन्थ न०६ (२०) वागर्थसंग्रह पुराण- यह ग्रन्थ कविपरमेष्ठी २५) ला०मूलचंद नेमचंदजी लोणंद (सतारा)मन्थन०१५ नामके प्राचार्य का बनाया हुआ है, जिन्हें कवि- २५) राय बबा छोटेलालजी, मुरादाबाद । गन्थ नं०२३ परमेश्वर भी कहते हैं, ऐसा भगवज्जिनसेन-प्रणीत २५) बाबू शिवचरणलालजी,जसवन्तनगर। गन्थनं०१५ भादिपुराणके निम्न वाक्यसे प्रकट है- २५) प्रोफेसर मोतीलालजी एम.ए., बनारस।गन्थ नं०२२ स पूज्यः कविमिर्लोके कवीनां परमेश्वरः। २५) ला० मथुराप्रसादजी, कनखल । गन्थ नं० २१ वागर्थसंग्रां कृत्स्नं पुराणं यः समग्रहीत् ॥ २५) अयोध्याप्रसादजी गोयलीय, देहली । प्रन्थ नं०२२ -पारि०, १०० १५२०) संपूर्ण पत्र व्यवहार का पता:-जुगलकिशोर मुख्तार अधिष्ठाता 'समन्तभदाश्रम' करौलबाग, देहखी। म. ए., लाहान १८ . गून्थ नं०२७ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फाल्गुन, वीरनि० सं०२४५६] 'अनकान्त' परलोकमत २५५ 'अनेकान्त' पर लोकमत ४२-श्रीजनेद्रकुमारजी, देहली__"अनेकान्त' देखा । अखबार आज कल बहुत से निकल रहे हैं। पर गिनतीके ऐसे हैं जो लोकरुचिके प्रवाहमें बहते नहीं, उस प्रवाह के बीच में और विरोध में एक आदर्श (Standard) को प्रतिष्ठित करने के प्रणमें दीक्षित होते हैं। होता है तो उसी यत्न में मिट जाते हैं, पर (Standard) से नहीं डिगते । मैं समझता हूँ, ऐसे ही पत्रों का अस्तित्व सार्थक है, भले ही वे चाहे थोड़ा ही जी- वन रख पायें। यों तो बहुतेरे उगते हैं, और बहुतेरे जीते रहते हैं, बिकते भी रहते हैं और मालिकोंको नका भी देते रहते हैं, पर उनका होनान-होना, मेरी दृष्टि में एकसा है। क्योंकि वे दुनियाँ को जरा लाभ और जरा पुष्टि नहीं पहुँचाने । 'अनेकान्त', मैंने स्पष्ट देखा, एक आदर्श लेकर चला है। इसके लिये संपादक पंडित जुगलकिशोर जी अभिनंदनीय हैं । वह लोकमचि में बहना नहीं चाहता, बहती हुई मचि को मोड़ना चाहता है। पत्र के सभी लेख, स्पष्ट, उसी श्रादर्शमें पिरोये हुए हैं । जिसे भर्ती कह सकते हैं, वैसे लेख इसमें नहीं हैं । लोकरुचि, जो स्वभावतः नीचेकी ओर बहती है, और साधारणतः नीचे की ओर वह रही है, संभवतः इसे न अपनाये । पर वे जो उस से ऊपर उठ गये हैं, और उठना चाहते हैं, बहुत कुछ अपनी सत्प्रवृत्तियाँ और सदिच्छाएँ 'अनेकान्त' की पंक्तियों में प्रतिबिम्बित और प्रतिफलित पायेंगे। और इसे सराहेंगे। उन्हीं की सराहना, मेरी दृष्टिमें कीमती है और मेरा विश्वास है वही भनेकान्तको प्राप्त है। मेरी कामना है 'भनेकान्त' अपने लक्ष्य पर बिना डिगे-चले बढ़ता रहे। भव्य जनों का इससे बड़ा उपकार होगा।" ४३-प्रोफ़सर मोतीलालजी एम. ए., बनारस "जबसे 'जैनहितैषी' की असामयिक मृत्य हुई तब से मैंने यह समझ लिया था कि जैन समाज की रही सही जीवन-शक्ति भी लुप्त हो गई । परन्तु 'अनेकान्त' को पाकर वह भ्रम दूर हो गया, मुरझाई हई आशालता फिर हरी हो गई। एकान्तमें बैठ कर बहुत ध्यान पूर्वक अनंकान्त का मनन किया और अपनी चिरकालिक ज्ञानपिपासा को शान्त किया । सभी लेखों में विचार-गम्भीरता और श्रमपूर्ण गवेषणा व्यक्त होती है। आश्रम और पत्रके उद्देश्य सराहनीय हैं। यह समाज का सौभाग्य है कि आपन ___ एक बार फिर साहित्यिक पुनरुत्थान का मार्ग खोल दिया है। मेरी यह हार्दिक भावना है कि पत्र चिरजीवी हो और अपने उस उद्देश्यों के अन कूल उन्नति करता रहे।" ४४-पा० हुकमचन्दजी नारद, जबलपुर "अनेकान्त” की प्रथम किरण के दर्शन हुए । आपने जिस गम्भीरता एवं विद्वत्ताके साथ पत्र निकालनेका संकल्प किया है। वह सचमुच में अभिनन्दनीय है। आशा करता हूँ कि आपके "अनेकान्त" की प्रचण्ड किरणें इस फैले हुये निविड़ अन्धकार को मिटाने में सफल होंगी। अन्त में भापके साधु संकल्प की हदय से सफलता पाहता हूँ।" Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AnnanLAGurm २६० भनेकान्त [वर्ष १, किरण ४५-५०पनालालमी काव्यतीर्थ,चौरासी (मथरा)- वे हमारे इस कथन को अतिशयोक्ति न सममेंगे। " भनेकान्त की १-२ किरणें पढ़ कर चित्त आज जैन समाजके युवकोंमें जो धार्मिक विचारअतीव आल्हादित हुआ,चिरकाल से मुरझाई हुई स्वातन्त्र्य दृष्टि पड़ रहा है उसमें बहुत कुछ आपका हाथ है। हमें हर्ष है कि आप पुनः अनेकान्तद्वारा आशालता उसके दर्शन मात्र से पल्लवित हुई।""" खोज और ऐतिहासिक निबन्ध सर्वोत्कृष्ट हैं।" कार्यक्षेत्र में पदार्पण कर रहे हैं । 'अनेकांत' का प्रथमांक और द्वितियांक हमने पढे हैं। दोनों अंक ४६-७० पार्थसागरजी अधिष्ठाताश्री दे० कु. सुन्दर सुपाठ्य और जैन एवम् अजैन सभी के अमचयोश्रम कुन्थलगिरि संगहयोग्य हैं । लेख और कविताएँसभी उच्चादर्श "आपका प्रयल प्रशंसनीय है । जैनसमाज में को लिये हुये हैं । आशा है कि सहयोगी 'जैनऐसे पत्र की अतीव जरूरत थी। उसकी पूर्तिश्राप हितैषी' की कमी को समाज के लिये पूरी करेगा।" ने की है। इसलिये मैं सहर्ष धन्यवाद देता हूँ तथा ४ सम्पादक 'विज्ञान' प्रयागपाशा करता हूँ कि 'अनेकान्त' पत्र द्वारा जैन "यह अनेकान्तवादकी प्रचारक जैनधर्मीय पत्रिसमाज का सुधार होगा। मैं यथाशक्ति तन, मन, धन से सेवा बजाने की कोशिश करूँगा।" का है।...इसमें सम्पादकजीका 'पात्रकेसरी और विद्यानन्द' सम्बन्धी लेख तथा नाथूराम प्रेमी का ४७ श्री सुलतानमलजी सकलेचा, विल्लुपुरम् 'कर्नाटक-जैन-कवि' निबन्ध मननशील हैं। क(मदरास) विताओंका चुनाव भी साधारणतः अच्छा ही है। 'भनेकान्त' की प्रथम किरणको पढ़कर मैं बहुत हमारी शिक्षा नामक लेख भी उपयोगी है। हमें हीप्रसन्न हुआ।पण्डित सुखलालजीका 'अनेकान्त आशा है कि यह सुंदर पत्रिका जैनसमाज में जावाद की मर्यादा' और आपका भगवान महावीर गति एवं स्फूर्ति उत्पन्न करनेमें सफल होगी। हम और उनका समय' शीर्षक लेख बहुत ही महत्त्व इसकी हृदयसे उन्नति चाहते हैं।" पूर्ण हैं । बाकी लेख भी अच्छे हैं ।... अनेकान्त' ५० सम्पादक 'राजस्थान सन्देश', अजमेरसिद्धान्तका प्रकाशकरके संसारमें मिथ्यकान्तरूपी ___ "इस मासिक पत्रको जैन पत्रों में सर्वोत्तम अन्धकारको हटाने वाला है । निःसन्देह जैनसमा कहा जा सकता है । इसका विषय-सम्पादन तो जमें यह एक सुन्दर उच्चकोटिका साहित्यिकतथा अच्छा होता ही है, लेख भी मार्के के होते हैं। ऐतिहासिकपत्र है । इस सर्वागपूर्णपत्र का प्रत्येक पुरानी बातें काफी खोज के साथ पाठकोंके सामने जैनको प्राहक बनना चाहिये । मेरी भावना है कि रक्खी जाती हैं जैन भाइयों को इसे अवश्य अअनेकान्त को संसार अपनावे जिससे उस का पनाना चाहिये।" कल्याण हो। ५ -सम्पादक 'वीर' मेरठ१८ सम्पादक 'सुदर्शन', एटो 'अनेकान्त' की दो संख्यायें हमारे सामने हैं "श्री जुगलकिशोरजी जैन समाज के उन गिने और दोनों ही कीछपाई औरभाव-भषा उत्तरोत्तर हुए नररत्नों में से हैं जिन्होंने समाज में धार्मिक बढ़ी चढ़ी है । जैनसमाजमें एक ऐसे ही मार्मिक विचार स्वातंत्र्य का प्रादुर्भाव कर अन्धभता साहित्यालोचन करने वाले मासिक पत्र की और लोक-मूढ़ता को दूर भगा दिया है। जिन आवश्यकता थी। 'भनेकांत' उसकी पूर्वि मच्छी महानुभावोंने पापके लेख 'जनहितैषी' में पढे होंगे - तरह कर सकेगा, इसमें शक नहीं।" " Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष १ ॐ अईम् अनेकान्त परमागमस्य बीजं निषिद्ध-जात्यन्ध-सिन्धुर-विधानम् । सकलनय विलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ - श्री अमृतचन्द्रसूरिः । समन्तभद्राश्रम, क़रौलबारा, देहली। 'चैत्र, संवत् १९८६ वि०, वीर - निर्वाण सं० २४५६ हृदय की तान [ ले० - पं० दरबारीलाल जी, न्यायतीर्थ ] हृदयमें गूँजे ऐसी तान । न्याय मार्ग से नहीं डरें हम, अनुत्साहको नहीं घरें हम, प्राणिमात्र से प्रेम करें हम, करें देश-उत्थान; हृदय में गूँजे ऐसी तान । दीनोंके सब दुःख दूर हों, कार्य-क्षेत्रमें हम सुशूर हों, अन्यायी के लिये क्रूर हों, रक्खें अपना तान; हृदयमें गूँजे ऐसी तान । कायर-वचन न मुख से बोलें, ज्ञान-सुधारस घट घट घोलें, सत्य- तुला में सब कुछ वोलें, जब तक तनमें प्रान; हृदयमें गूँजे ऐसी तान । निर्बल कहीं न समझे जावें, जगमें कभी न दीन कहावें, विघ्न करोड़ों सिर पर आवें, मेलें सब शुभ आन हृदयमें गूँजे ऐसी खान । vvvvvvvNNNNNNNNN? किरण ५ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ५ सद्धर्म-सन्देश [ लेखक-श्रीयुत पं० नाथूरामजी प्रेमी] (१) __ जो चाहता हो अपना, कल्याण मित्र! करना___ जगदेकबन्धु जिनकी, पूजा पवित्र करना । दिल खोल करके उसको, करने दो कोइ भी हो; ____ फलते हैं भाव सबके, कुल-जाति कोइ भी हो ॥ मन्दाकिनी दयाकी, जिसने यहाँ बहाई; हिंसा-कठोरताकी, कीचड़ थी धो बहाई । समता-सुमित्रताका, ऐसा अमृत पिलाया; देषादि रोग भागे, मदका पता न पाया । (२) उस ही महान् प्रभुके, तुम हो सभी उपासक; . इस वीर वीरजिनके सद्धर्म के प्रचारक । अतएव तुम भी वैसे, बननेका ध्यान रक्खो; भावर्शभी उसीका, आँखोंके भागे रक्खो । . सन्तुष्टि शान्ति सबी, होती है ऐसी जिससे, ऐहिक क्षुधा-पिपासा, रहती है फिर न जिससे । वह है प्रसाद प्रभु का, पुस्तक-स्वरूप इसको, सुख चाहते सभी हैं, चखने दो चाहे जिसको । संकीर्णता हटायो, दिल को बड़ा बनायो; ___ निज कार्यक्षेत्रकी अब, सीमाको कुछ बढ़ाओ। सब ही को अपना समझो, सबको सुखी बनादो औरोंके हेतु अपने, प्रिय प्राण भी लगा दो। यूरुप अमेरिकादिक, सारे ही देशवाले, अधिकारि इसके सब हैं, मानव सफेद-काले । अतएव कर सकें वे, उपभोग जिस तरहसे, यह बाँट दीजिए उन, सबको ही उस तरहसे ।। ऊँचा उपार पावन, सुख-शान्ति-पूर्ण प्यारा। यह धर्मरत्न पनिको ! भगवानकी अमानत; ___ यह धर्मवृत्त सबका, निजका नहीं तुम्हारा। हो सावधान सुनलो, करना नहीं खयानत । रोको न तुम किसीको, छायामें बैठने दो। दो प्रसन्न मनसे, यह वक्त आ गया है। कुल-जाति कोई भी हो, संताप मेटने दो। इस पोर सब जगत का, अब ध्यान जा रहा है।। ' (९) कर्तव्यका समय है, निर्मित हो न बैठो; ... बोथी बड़ाइयोंमें, उन्मत्त हो न ऐंठो। . सतर्मन मेंदेशा, प्रत्येक नारि नरमें, सर्वस्व भी लगाकर, फैला से विश्वभरमें ।। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरनि० सं०२५५६] जैनोंकी प्रमाण-मीमांसा पद्धतिका विकासक्रम २६३ . . . . . जैनोंकी प्रमाण-मामांसा-पद्धतिका विकासक्रम [ लेखक-श्रीमान् पं० सुखलालजी] ज तक तत्त्व-चिन्तकोंने ज्ञानविचार- उसमें मानावरणीय कर्म के विभाग रूपसे मतिज्ञानाणा एवंप्रमाण-मीमांसामें जोविका- वरण, श्रुसज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्यायस किया है उसमें जैनदर्शनका कित- ज्ञानावरण, केवलज्ञानावरण ( न कि प्रत्यक्षावरण, ना हाथ है ? इस प्रश्नका उत्तर प्राप्त परोक्षावरण, अनुमानावरण, उपमानावरण भादि ) करनेके लिये जब जैनसाहत्यको अ- ऐसे शब्द प्रयुक्त हुए हैं। धिक गहराईसे देखा जाता है, तब हृदयमें साश्चर्य श्रानन्द दूसरी पद्धति को 'तार्किक' कहने के भी मुख्य को होनेके साथ साथ जैन तत्त्वचिन्तक महर्षियों के प्रति कारण हैं:बहुमान हुए बिना नहीं रहता, और उनके तत्त्वचिन्तन (क) एक तो यह कि, उसमें प्रयुक्त हुए प्रत्यक्ष, मननरूप ज्ञानोपासनाकी मुक्त कंठ से प्रशंसा करनेके परोक्ष, अनुमान, उपमान आदि शब्द न्याय, बौद्ध लिये मन ललचाता है। आदि जैनेतर दर्शनों में भी साधारण हैं; और जैनसाहित्यमें शान-निरूपणकी दो पद्धतियों नजर (ख) दूसरे यह कि, प्रत्यक्ष, परोक्ष प्रादि रूपस पड़ती हैं-पहली 'मागमिक और दूसरी तार्किक' समप्र ज्ञान वृत्तिका पृथक्करण करनेमें तर्कष्टि प्रधान आगमिक पद्धतिमें मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्याय रक्खी गई है। और केवल इस प्रकार पाँच भेद करके समप्र ज्ञानवृत्ति गणधर श्रीसुधर्म-प्रणीत मूल प्रागमोंसे लेकर का वर्णन किया गया है। तार्किक पद्धतिक दो प्रकार उपाध्याय यशोविजयजीकी कृतियों तक ज्ञाननिरूपणवर्णन किये गये हैं-(१)पहला प्रकार प्रत्यक्ष और परीक्ष विषयक समप्र श्वेताम्बर-दिगम्बर वाङ्मयमें ( मात्र इन दो भेदोंका, और (२) दूसरा प्रकार प्रत्यक्ष, अन्- कर्मशास्त्र को छोड़ कर) आगमिक और वाफिक दोनों मान, उपमान और आगम इन चार भेदोंका है। . पद्धतियोंको स्वीकार किया गया है। इन दोनों में भाग__ पहली पद्धति को 'पागमिक' कहने के मुख्य दो मिक पद्धति ही प्राचीन मालूम पड़ती है। क्योंकि जैन कारण हैं: . तत्त्वचिन्तनकी खास विशिष्टता और भिम प्रस्थान (अ) एकतो यह कि,किसीभीजनेतरदर्शनमें प्रयुक्त वाले कर्मशास्त्रमें वही पद्धति स्वीकार की गई है। इस नहीं हुए ऐसे मति, भुत, अवधि प्राविज्ञानविशेषवाची लिये यह भी कहा जा सकता है कि भगवान महावीरनामों द्वारा हानका निरूपण किया गया है, और के स्वतंत्र विचारका व्यक्तित्व मागमिक पद्धतिमें ही (भा) दूसरा यह कि, जैवश्रुत के खास विभाग- है। दूसरी तार्किक पद्धति जो कि, यद्यपि, अत्यंत रूप कर्मशासमें कर्म प्रकृतियोंका जो वर्गीकरण है प्राचीन कालसे जैन वाड्मयमें प्रविधी हुई मालूम होती Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ५ है, तो भी उसे आगमिक पद्धतिके पीछे ही अनुक्रमसे में,सबसे पहले गूंथने वाले जैनाचार्य वाचक उमास्वाति पार्शनिक संघर्षण तथा तर्कशास्त्र के परिशीलन की हैं। इससे वे उक्त प्रश्न का समाधान किये बिना नहीं वृद्धि के परिणामस्वरूप योग्य स्थान प्राप्त हुआ है, रहें यह स्पष्ट है। तत्त्वार्थके पहले अध्यायमें मुख्यरूपऐसा भासता है। मे ज्ञान का निरूपण है । उसमें वाचकश्री उमास्वाति __ मूल अंग-प्रन्थोंमेंसे तीसरे स्थानांग' नामके ने आगमिक पद्धति की भूमिकाके ऊपर तार्किक बागममें तार्किक पद्धतिके दोनों प्रकारों का निर्देश है। पद्धति को घटित किया है। ज्ञानके मति, श्रुत, आदि 'भगवती' नामक पाँचवें अंगमें चार भेद वाले द्वितीय पाँच भेद बता कर उन्हें तार्किक पद्धतिके प्रथम प्रकार प्रकारका निर्देश है। मूल अङ्गोंमें आगमिक और में घटित करते हुए वाचकश्री कहते हैं-पहले दा तार्किक दोनों पद्धतियोंसे समग्र ज्ञानवृत्तिका निरूपण ज्ञान परोक्ष, और बाक़ीके तीन प्रत्यक्ष हैं । परोक्ष और होने पर भी कहीं इन दोनों पद्धतियों का समन्वय प्रत्यक्ष इन दो भेद वाली प्रथम प्रकार की तार्किक कराया गया हो ऐसा दृष्टि गोचार नहीं होता । श्रीमद्- पद्धति को आगमिक पद्धतिमें घटित करने वाले श्रागभद्रबाहु-कृत दशवैकालिकनियुक्ति ( प्रथमाध्ययन ) माभ्यासी वाचकश्री आगमोंमें उल्लिखित चार भेद में न्यायप्रसिद्ध परार्थ अनुमानका अति विस्तृत और वाली दूसरी तार्किक पद्धति को भूल जायें ऐसा होना अति स्फुट वर्णन जैनदृष्टिसे किया गया है, उस पर से असंभव है, इससे ही उन्होंने अपने तत्त्वार्थ भाष्य में इतना तो मालम होता है कि नियुक्तकारके पहले ही 'चतुर्विधमित्येके' कह कर चार प्रमाणों को भी वार्किक पद्धति ने जैनशास्त्रमें स्थान प्राप्त किया होगा। सचित किया है। परंतु जिस तरह पाँच झानों को फिर भी नियुक्तिपर्यंत इन दोनों पद्धतियोंका समन्वय परोक्ष और प्रत्यक्ष ऐसे दो प्रमाणभेदोंमें सूत्र-द्वारा हुधा हो ऐसा जानने में नहीं आता। घटित किया है, उस प्रकार इन पाँच झानों को प्रत्यक्ष, ___ परंतु कालक्रमसे ज्यों ज्यों दार्शनिक संघर्ष और अनुमान आदि चार प्रमाणोंमें सूत्र या भाज्य-द्वारा तर्क का अभ्यास बढ़ता गया त्यों त्यों पहले से ही घटित नहीं किया। मात्र कोई चार प्रमाण मानते हैं भांगममें प्रचलित इन दोनों पद्धतियोंके समन्वय का इतना ही 'चतुर्विधमित्येके' इस भाष्य-वाक्य-द्वारा मरन अधिक स्पष्ट रूपसे उपस्थित होने लगा । प्रागम सूचित किया है । यह सूचन करते समय वाचकश्री में मूल मानके मप्ति, भुत भादि ऐसे पाँच विभाग हैं, के सामने "दूसरी चार भेद वाली तार्किक पद्धति जी उसी प्रकार प्रत्यक्ष, परोक्ष ऐसे दो; और प्रत्यक्ष, आगम में निर्दिष्ट हुई है वह जैन दर्शन को मान्य है अनुमान आदि ऐसे चार भी हैं, उनमें कोई विरोध है कि नहीं; और मान्य है तो उसमें भी पाँच भेदों को कि नहीं ? और यदि नहीं तो उसका समन्वय किस घटित क्यों नहीं किया ?" ऐसा जिज्ञासु शिष्यों का प्रकार १ यह प्रश्न उठने लगा। इसके उत्तर देने का अथवा प्रतिवादियोंका प्रश्न था । इस प्रश्नका निराप्रथम प्रयास वाचक उमास्वातिके तत्वार्थसूत्रमें हुभा वार्थमाष्य खुद उमास्वाति-क्त है, क विषय अभी जान पड़ता है। समम भागमों को दोहन करके समस्त बहुत मन सेवेहास्पद तथा विवादग्रस्त है और विशेष निर्णय की जैनपदार्थों को, लोकप्रिय दार्शनिक संस्कृत सूत्ररोसी अपेक्षा रखता है। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन की प्रमाण -मीमांसा - पद्धतिका विकासक्रम चैत्र, वीरनि०सं०२४५६] करण 'कोई चार प्रकारका प्रमाण मानते हैं' इतना कह देने से नहीं हो जाता । अधिकतर तो इस कथन- द्वारा इतना ही फलित होता है कि आगमों में स्थानप्राप्त यह प्रमाणों का विभाग कोई दूसरे दर्शनकारों द्वारा मान्य किया हुआ विभाग है; परंतु वह जैनदर्शन को अनिष्ट नहीं, इस बातको सूचित करने के लिये वाचकश्री आगे चल कर कहते हैं कि 'नयवादान्तरेण' अर्थात् चतुर्विध प्रमाणके विभाग को अपेक्षा विशेष से समझना । इसी संक्षिप्त सूचना को वे फिर आगे चल कर नय-सूत्र के भाष्य में स्पष्ट करके कहते हैं किशब्दनय की अपेक्षा से प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द इन चारों का प्रामाण्य स्वीकार किया जाता है। वाचकी के इस पूर्वापर कथन का सार इतना ही from aकता है कि प्रथम प्रकार की तार्किक पद्धति ही जैन दर्शनके अधिक अनुकूल बैठती है और चार भेद वाली तार्किक पद्धति आगम में निर्दिष्ट होने पर भी मूलमं यह दूसरे दर्शन की चीज है; परन्तु जैनदर्शनको अमुक अपेक्षासे उसका स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं। इसी कारण से उन्होंने प्रथम प्रकार की तार्किक पद्धति में जिस तरह पाँच ज्ञान के विभाग को घटाया है उसी तरह दूसरे प्रकार की तार्किक पद्धति में उसे भाष्य नक में भी नहीं घटाया । वाचकश्री उमास्वाति ने प्रत्यक्ष और परोक्ष भेद वाली तार्किक पद्धति के मुख्यरूपसं जैनदर्शन- सम्मत होने की जो छाप मारी उसे ही आर्चाय कुन्दकुन्द नं स्वीकृत की। उन्होंने भी प्रवचनसारके प्रथम प्रकरण/ * लेखक महोदयका यह निर्णय कुछ ठीक मालूम नहीं होता; क्योंकि श्री कुन्कुन्दाचार्य उमास्ातिसे पहले हो गये हैं । उन्हीं के वशमें उमास्वाति हुए हैं, जिसका उल्लेख बहुत से ग्रंथों, शिला लेखों तथा दिगम्बर पहावलियोंमें पाया जाता है। भौर इस लिये २६५ में तत्त्वार्थसूत्र की तरह पहले दो ज्ञानोंको परोक्ष और शेष तीन ज्ञानोंको प्रत्यक्षरूपसे वर्णित किया है । आगमि - क और तार्किक पद्धतियोंके समन्वय का इतना प्रयत्न होने के बाद भी जिज्ञासुओं की शंका के लिये अवकाश तो था ही। इससे फिर प्रश्न होने लगा कि श्राप (जैनाचार्य) तो मति और श्रुतको परोक्ष कहते हो जब कि जैनेतर दार्शनिक विद्वान मतिज्ञानरूपसे वर्णन किये हुए इंद्रियजन्य ज्ञानको पत्यक्ष कहते हैं, तो इस विषय में सत्य क्या समझना ? क्या आपके कथनानुसार मतिज्ञान यह ठीक परोक्ष ही है या दर्शनान्तर विद्वानों कथनानुसार यह प्रत्यक्ष ही है ?" यह प्रश्न एक तरह पर उमास्वाति के समन्वय मेंसे ही उद्भूत होने वाला है और वह प्रकट रूपसे विकट भी मालूम होता है । परन्तु इसका समाधान वाचकश्री उमास्वाति श्रीम कुन्दकुन्दाचार्य के बाद होता हुआ दिखलाई देता है । इस समाधान के दो प्रयत्न आगमों में नज़र पड़ते हैं- पहला प्रयत्न अनुयोगद्वार में और दूसरा 'नन्दित्र में'। दोनों की रीति जुदी जुदी है। अनुयोगद्वार में प्रत्यक्ष, अनुमान आदि चार प्रमाणों के उल्लेख की भूमिका बाँध कर, उनमेंसे प्रत्यक्ष के दो भाग किये, एक भाग में मतिज्ञान को प्रत्यक्ष रूपसे मान्य रक्खा गया और दूसरे भाग में वा० उमास्वाति द्वारा स्वीकृत अवधि आदि तीन ज्ञानोंका प्रत्यक्षपणा स्वीकार किया गया | जब कि नन्दिसुत्रका समाधान-प्रयत्न दूसरे ही प्रकारका है। उसमें प्रमाणके प्रत्यक्ष तथा परोक्ष ये वो क्षेत्र ले कर और प्रत्यक्ष भेदके दो भाग करके, पहले भाग मे मतिज्ञानको और दूसरे में अवधि आदि तीनों ज्ञानोंको उपलब्ध साहित्य की दृष्टि से इन दाने। पद्धतियों के प्रथम समन्वय का श्रेय कुन्दकुन्दाचार्य को प्राप्त है, ऐसा कहा जा सकता है । --सम्पादक Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनकान्त [वर्ष १, किर ५ अनुयोगद्वार की सदृश प्रत्यक्ष रूपसे बतलाया है मो समझना । भट्टाकलंकदेव अपने 'लघीयस्त्रय' में अधिक तो ठीक, परन्तु फिर आगे चल कर जहाँ परोक्ष भेद स्पष्टताके साथ कहते हैं, कि प्रत्यक्षके मुख्य और का वर्णन करनेका प्रसंग पाता है वहाँ नन्दिकार श्रुत- सांव्यवहारिक ऐसे दो भेद हैं, जिनमें अवधि आदि ज्ञान की साथ मतिज्ञान को भी परोक्षरूपसे वर्णन तीन ज्ञान को मुख्य प्रत्यक्ष और इंद्रियजन्य (मति) करना है, जो वर्णन अनुयोगद्वारमें नहीं । अनुयोगद्वार ज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष समझना । दोनों और नन्दिसूत्र के कर्ताओं ने एक जैसी ही रीतिसे प्राचार्यों का कथन प्रस्तुत प्रश्नका अन्तिम निराकरण दर्शनान्तग्में और लोक में प्रत्यक्षरूपसे प्रसिद्ध इंद्रिय- करता है । दोनोंके कथन का स्पष्ट आशय संक्षेपमें जन्य (मति) ज्ञान का प्रत्यक्षके एक भाग रूपसे वर्णन इतना ही है कि जैनदर्शन की तात्विक दृष्टिसे अवधि, करके जैन और लोकके बीच का विरोध तो दूर किया मनःपर्याय और केवल ये तीन ज्ञान प्रत्यक्षरूपसे परन्तु उतने मात्रसे इस ममन्वय का विचार बिलकुल मान्य हैं । मति और श्रुत वस्तुतः परोक्ष ही हैं तो भी स्पष्ट और असंदिग्ध नहीं हो पाया । एक तरह तो उल- मति (इंद्रियजन्य) ज्ञान को जो प्रत्यक्ष कहा जाता है टा गोटोला सा हो गया । लोकमान्यताका संग्रह करते वह तात्विक दृष्टिसे नहीं किन्तु लोकव्यवहार की हुए इंद्रियजन्य (मति) ज्ञान को प्रत्यक्षका एक भाग स्थूल दृष्टि से । तात्विक दृष्टिसे तो यह ज्ञान श्रुतज्ञान रूपसे नंदि और अनयोगद्वारमें किये हुए समन्वयके की तरह परोक्ष ही है । इन दोनों प्राचार्यों का यह स्पष्टीअनुसार नंदिकार ने उसे परोक्ष का एक भेदरूप भी करण इतना ज्यादा असंदिग्ध है कि उनके बाद आज वर्णन किया। इसमे फिर शंका होने लगी कि "इंद्रिय- तक लगभग बारह सौ वर्ष के भीतर किमी भी ग्रंथकार जन्य (मति) ज्ञान को श्राप (जैनाचार्य) प्रत्यक्ष कहते को उसमें कुछ भी वृद्धि या परिवर्तन करने की ज़रूरत हो और परोक्ष भी कहते हो; तब क्या आप लौकिक नहीं पड़ी। संग्रह और आगमिक मंग्रह दोनों करने के लिये एक क्षमाश्रमण जिनभद्र के बाद प्रस्तुत विषयसम्बंधमें ही ज्ञानको प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे विरोधीरूपसे स्वी- खास उल्लेखयोग्य श्वेताम्बर आचार्य चार हैं-जिनकारते हो या मंशयशील हो? इसका बिलकुल स्पष्टरूप श्वर सूरि, वादिदेव सूरि आचार्य हेमचन्द औरउपाध्याय से निराकरण हमें उसके बाद के श्वेताम्बर और दिगम्बर यशोविजयजी । भट्टाकलंकदेवके बाद प्रस्तुत विषयमें ग्रंथोंमें देखना चाहिये। उल्लेखयोग्य दिगम्बराचार्यों में माणिक्यनन्दी, विद्या__ उपलब्ध साहित्य को देखते हुए, इसका निराकरण नन्दी, श्रादि मुख्य हैं । दोनों सम्प्रदायोंके इन सभी करने वाले श्वेताम्बर आचार्यों में सबसे पहले जिन- आचार्यों ने अपनी अपनीप्रमाण-मीमांसा-विषयक कृतिभद्रगणी क्षमाश्रमण और दिगम्बर आचार्यों में भट्टा- योंमें कुछ भी फेर-फारकिये बिना एक ही जैसी रीतिसे कलदेव मालूम होते हैं । क्षमाश्रमणजी अपने अकलडुदेवकी की हुई योजना और ज्ञानके 'विशेषावश्यक-भाष्य' में उक्त प्रश्न का निराकरण वर्गीकरण को स्वीकार किया है- इन सबों ने करते हुए कहते हैं कि-इंद्रियजन्य (मति) ज्ञान को प्रत्यक्षके मुख्य और सांव्यवहारिक ऐसे दो भेद किये जो प्रत्यक्ष कहा जाता है उसे सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष हैं। मुख्यमें अवधि आदि तीन शानों को और सांव्य Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्र, वीरनि०सं०२४५६] एच विद्वान के हृदयोद्गार २६७ वहारिकमें मतिज्ञान को लिया है । परोक्षके स्मृति, जैनवाड्मयमें आगमिक और तार्किक इन दोनों प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और पागम ये पाँच भेद पद्धतियोंके परस्पर समन्वय का प्रश्न किस रीतिसे करके उक्त प्रत्यक्षके सिवाय और सब प्रकारकं ज्ञान उत्पन्न हुआ तथा विकास को प्राप्त हुआ इसका अवकोपरोक्षके पाँच भेदों से किसी न किसी भेदमें समा- लोकन हम संक्षेपमें कर गये हैं। इसका सार यह है विष्ट कर दिया है। कि ज्ञानके पाँच प्रकारों को प्रत्यक्ष और परोक्ष इन परंतु यहाँ एक महान प्रश्न उत्पन्न होता है, और भेदोंमें सबसे पहले के वाचक उमास्वातिन तत्त्वार्थ' में वह यह कि-आचार्य सिद्धसेन दिवाकरने, जो कि । : घटाया है और इसके द्वारा यह दो भेद वाली तार्किक जनतार्किकोंमें प्रधान माने जाते हैं, आगमिक और पद्धति जैनदशेनके अधिक अनुकूल है ऐसी अपनी तार्किक पद्धतियोंके परस्पर समन्वय तथा उसके संबंध PH सम्मति प्रकट की है। वाचकवर्य (उमास्वाति) की इस में उत्पन्न होने वाले प्रश्नोंके प्रतिक्या विचार किया है ? सम्मतिको ही दिवाकरजीने न्यायावतारमें मान्य रक्खा इसका खुलासा उनकी उपलब्ध कृतियों परसे नहीं है और उसके द्वारा अपना यह अभिप्राय प्रकट किया मिलना । प्रमाणशास्त्रक खास लेखक इन प्राचार्य की है कि उक्त दो भेद वाली तार्किक पद्धति ही जैनदर्शन प्रतिभा, प्रमाणसम्बंधी इस खास विषय को स्पर्श न कलिय ठाक के लिये ठीक बैठती है। करं ऐसा होना संभव नहीं। इससे कदाचित् ऐसा सबसे पहले इन शब्दोका साथमें प्रयाग उस वक्त तक होना योग्य जान पड़ता है कि उनकी अनेक नष्ट हुई ठीक मालूम नहीं होता जब तक कि यह सिद्ध न हो जाय कि उमाऋतियों के साथ ही प्रस्तुत विचारस सम्बंध रखने वाली स्वाति कुन्दकुन्दाचार्यसे पहले हुए हैं । शिलालेखों प्रादिम उमाकान भी नाश को प्राप्त हो गई है। बाति का कुन्दकुन्दके बाद होना पाया जाता है।-सम्पादक एक विद्वानके हृदयोद्गार मद्रास प्रान्तीय दक्षिण कनाडा जिलेके मंजेश्वर किरणों को देख कर आपने जो अपने हृदयोद्गार एक नगर निवासी श्रीयुत एम० गोविन्द पै नामके एक संस्कृतपत्र-द्वारा व्यक्त किये हैं वे अनेकान्तके अन्य प्रसिद्ध विद्वान् हैं, जो कि पुरातत्व विषयके प्रेमी होने पाठकों और खाम कर जैनसमाजके विद्वानों तथा श्रीके साथ साथ अच्छे रिसर्च स्कॉलर हैं । आप कनड़ी, मानोंके जानने योग्य हैं। यद्यपि अजैन विद्वानांक संस्कृत तथा अंग्रेजी श्रादि कई भाषाओंके पंडित हैं और कितने ही पत्र तथा विचार अनेकान्तकी गत किरणोंमें जैनग्रंथोंका भी आपने कितना ही अभ्यास किया है। 'लोकमत' शीर्षकके नीचे प्रकट होते रहे हैं और वे मय, अंग्रेजी तथा कनडी आदि भाषाओंके पत्रोंमें आपके 'अनेकान्त' के विषयमें उनकी ऊँची भावना तथा दृष्टि गवेषणापूर्ण लेख अक्सर निकला करते हैं। और और आकांक्षा को व्यक्त करते हुए, प्रकारान्तरमे जैन 'अनेकान्त' के आप प्रेमी पाठक हैं। उसकी चार समाजको उमके कर्तव्यका बोध करानेमें बहुत कुछ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्र, वीरनि०सं०२४५६] एच विद्वान के हृदयोद्गार २६७ बहारिकमें मतिज्ञान को लिया है । परोक्षके स्मृति, जैनवाङ्मयमें आगमिक और तार्किक इन दोनों प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और पागम ये पाँच भेद पद्धतियोंके परस्पर समन्वय का प्रश्न किस रीतिसे करके उक्त प्रत्यक्षके सिवाय और सब प्रकारकं ज्ञान उत्पन्न हुआ तथा विकास को प्राप्त हुआ इसका अवकोपराक्षके पाँच भेदों से किसी न किसी भेदमें समा- लोकन हम संक्षेपमें कर गये हैं। इसका सार यह है विष्ट कर दिया है। कि ज्ञानके पाँच प्रकारों को प्रत्यक्ष और परोक्ष इन परंतु यहाँ एक महान प्रश्न उत्पन्न होता है, और मदान सस 1 भेदोंमें सबसे पहले * वाचक उमास्वातिन 'तत्त्वार्थ' में वह यह कि-आचार्य सिद्धसेन दिवाकरने, जो कि घटाया है और इसके द्वारा यह दो भेद वाली तार्किक जैनतार्किकोंमें प्रधान माने जाते हैं, आगमिक और पद्धति जैनदर्शनके अधिक अनुकूल है ऐसी अपनी तार्किक पद्धतियोंके परस्पर समन्वय तथा उसके संबंध सम्मति प्रकट की है। वाचकवर्य (उमास्वाति) की इस में उत्पन्न होने वाले प्रश्नोंके प्रतिक्या विचार किया है? सम्मतिको ही दिवाकरजीने न्यायावतारमें मान्य रक्खा इसका खुलासा उनकी उपलब्ध कृतियों परसे नहीं है और उसके द्वारा अपना यह अभिप्राय प्रकट किया मिलता । प्रमाणशास्त्र के खास लेखक इन प्राचार्य की है। है कि उक्त दो भेद वाली तार्किक पद्धति ही जैनदर्शन परिजनो के लिये ठीक बैठती है। करे ऐसा होना संभव नहीं। इससे कदाचित् ऐसा ___ 'सबसे पहले इन शब्दोका साथमें प्रयोग उस बक तक होना योग्य जान पड़ता है कि उनकी अनेक नष्ट हुई ठीक मालूम नहीं होता जब तक कि यह सिद्ध न हो जाय कि उमाकृतियोंके साथ ही प्रस्तुत विचारसे सम्बंध रखने वाली स्वाति कुन्दकुन्दाचार्यसे पहले हुए हैं । शिलालेखों प्राढिमें माकृति भी नाश को प्राप्त हो गई है। ग्वाति का कुन्दकुन्दके बाद होना पाया जाता है।-सम्पादक एक विद्वानके हृदयोद्गार मद्रास प्रान्तीय दक्षिण कनाडा जिलेके मंजेश्वर किरणों को देख कर आपने जो अपने हृदयोद्गार एक नगर निवासी श्रीयुत एम० गोविन्द पै नामके एक संस्कृतपत्र-द्वारा व्यक्त किये हैं वे अनेकान्तके अन्य प्रसिद्ध विद्वान हैं, जो कि पुरातत्व विषयके प्रेमी होने पाठकों और खाम कर जैनसमाजके विद्वानों नथा श्रीके साथ साथ अच्छे रिसर्च स्कॉलर हैं । आप कनड़ी, मानांके जाननेके योग्य हैं। यद्यपि अजैन विद्वानांके संस्कृत तथा अंग्रेजीआदि कई भाषाओं के पंडित हैं और कितने ही पत्र तथा विचार अनेकान्तकी गत किरणाम जैनमंथोंका भी आपने कितना ही अभ्यास किया है। 'लोकमत' शीर्षकके नीचे प्रकट होते रहे हैं और वे मब, अंग्रेजी तथा कनडी आदि भाषाओंके पत्रोंमें आपके 'अनेकान्त' के विषयमें उनकी ऊँची भावना तथा दृष्टि गवेषणापूर्ण लेख अक्सर निकला करते हैं। और और आकांक्षा को व्यक्त करते हुए, प्रकारान्तरमे जैन 'अनेकान्त' के श्राप प्रेमी पाठक हैं। उसकी चार समाजको उसके कर्तव्यका बोध करानेमें बहुत कुछ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनकान्त [वर्ष १, किरण समर्थ हैं । फिर भी यह पत्र अपनी एक जदी ही विशे- और इसका सर्वत्र प्रसार करने के लिये उनका कर्तव्य पता रखता है और इसलिये इसे नीचे अनुवाद-सहित कितना अधिक हो जाता है । उन्हें चाहिये कि वे अब प्रकट किया जाता है। समाजकं विद्वान और श्रीमान तककी अपनी उपेक्षा पर लज्जित हो कर इस ओर देखें तथा सोचें कि, जब उनके इस चार महीनेके सारी शक्ति को केंद्रित करें और इसे इसके नाम तथा बालक 'अनकान्त' को उच्च कोटिके अजैन विद्वान भी नीति के अनुरूप समन्ततः अभिनन्दनीय एक आदर्श इतनी गौरव भरी दृष्टिसे देख रहे हैं और इससे भविष्य पत्र बना कर छोड़ें। अस्तु; । पै महाशय का वह पत्र में अपनी जिज्ञासापूर्ति की बहुत कुछ आशा लगाए इस प्रकार है:हुए है तब इस सब प्रकारसे उन्नत तथा सफल बनाने मंजेश्वर-१९-३-१९३० अर्थात-'अनुरागके साथ भेजे हुए आपके 'अनेभवता सानरागं यत्महितं च मदन्तिकम् । कान्त' पत्रकी मुझे चार किरणें मिलीं। इस पत्रका तदनेकान्तपत्रस्य प्राप्तमंशुचतुष्टयम् ॥ १॥ जैसे जैसे मैं पढ़ता गया हूँ तैसे तैसे अधिकाधिक तुष्टस्तुष्टतरोस्मीदं यथाधीतं मया तथा। संतुष्ट होता गया हूँ । अतः इसके लिये प्रसन्न चित्तसे गृहाणार्य मुदा दत्तान्धन्यवादाश्च तत्कृते ॥२॥ दिये हुए मेरे धन्यवादोंको स्वीकार कीजिय ।। कान्तिमनोहराब मर्वेपि लेखा बोधमयाश्च ते। मान् चंद्रमाका तेज जिस प्रकार मनोज्ञ और अमृतमय कान्तस्येन्दोर्यथा तेजो मनोज्ञं च सघामयम् ॥३॥ होता है उसी प्रकार इस पत्रके सभी लेख मनाहर नास्त्यत्र किंचिन्जिनजन्मभूमी और बोधमयी हैं ।। जिनेन्द्रकी इस जन्मभूमि (भारतजैनाध्वदर्शीति मुलभ्यपत्रम् । वर्ष) में जैनमार्ग को दिखलाने वाला कोई भी सुलभ्य विश्रंभणीयं च भवत्यनेन . तथा विश्वसनीय पत्र नहीं है' इम निन्दा अथवा कलक को, निःसन्देह, आज इस पत्र ने दूर कर दिया है। दूरीकृता वै पचनीयताध ॥ ४ ॥ अपनी अभ्यासकुटीके एकान्तमें विद्वान लोग जिम वाञ्छितं यच्च विद्वद्भिरेकान्तेभ्यासकोष्ठ के।। चीजकी वांछा किया करते हैं वह अनकान्तमें प्राम है तदवातमनेकान्ते लब्धकामा भवन्तु ते ॥ ५॥ अतः इस पाकर वे लोग अपनी कामना पूरी करें। प्रत्यमगनले येषां नोपशाम्यति हत्तुष।। पश्चिमी मगजलमें जिनकेंहदयकी प्यास नहीं बुझती उन जिज्ञासनामत्र तेषामनेकान्ते प्रशाम्यतु ।।६॥ जिज्ञासुत्रोंकी वह प्यास इस 'अनेकान्त' में शान्तताका विश्वेषां धर्ममार्गाणं प्रभवोन्तत्र यो विभुः। प्राप्त होवे ॥ संपूर्ण धर्ममार्गोका जो आदि और अन्त है तस्यानन्तस्य कृपया चिरायुष्यं भवेदिदम् ॥७॥ उस अनन्त विभु की कृपासे यह पत्र चिरायु होवे ।। इति भवनिरन्तरस्नेहाकांक्षी पापका निरन्तर स्नेहाकांक्षी M. Govind Pai एम. गोविन्द पै kakkar. Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्र, वीरनि० सं०२४५६] २६९ पुरानी बातों की खोज PHARMA किसी शिलालेमें नहीं पाया जाता । उदाहरण के लिए उमास्वाति या उमास्वामी? कुछ अवतरण नीचे दिये जाते हैंदिगम्बर सम्प्रदायमें तत्त्वार्थसूत्रके कर्ताका नाम अभमास्वातिमुनीश्वरोऽसाआजकल आम तौरसे 'उमास्वामी' प्रचलित हो रहा वाचार्यशन्दोत्तरग,पिञ्छः। शलालेखनं०४७ है। जितने प्रन्थ और लेख श्राम तौरसे प्रकाशित होते श्रीमानुमास्वातिरयं यतीशहैं और जिन में किसी न किसी रूपसे तत्त्वार्थसूत्रके म्तत्वार्थसत्रं प्रकटीचकार । कर्ताका नामोल्लेख करनेकी जरूरत पड़ती है उन सबमें -शि०नं० १०५ प्रायः उमास्वामी नामका ही उल्लेख किया जाता है। मदुमास्वातिमुनिः पवित्र बल्कि कभी कभी तो प्रकाशक अथवा सम्पादक जन वंशे तदीये सकलार्यवेदी। 'उमास्वाति' की जगह 'उमाम्वामी' या 'उमास्वामि' का मत्रीकृतं येन जिनप्रणीतं मंशोधन तक कर डालते हैं । नत्त्वार्थसत्रके जितने शास्त्रार्थनानं मुनिपुंगवन ॥ संस्करण निकले हैं उन सबमें भीग्रन्थकर्ताका नाम उमा -शि० नं०१०८ म्वामी ही प्रकट किया गया है। प्रत्युत इसके, श्वेताम्बर इन शिलालेखोंमें पहला शिलालेख शक संवत मम्प्रदायमें प्रन्थकर्ताका नाम पहलेसे ही 'उमास्वाति' १०३७ का, दूसा १३२० का और तीसरा १३५५ का चला आता है और वही इस ममय प्रसिद्ध है। अब लिखा हुआ है । ४७वें शिलालेखवाला वाक्य ४०, ४, देखना यह है कि उक्त प्रन्थकर्ताका नाम वास्तवमें उमा- ४३ और ५० नम्बरके शिलालेखोंमें भी पाया जाता है। म्वाति था या उमास्वामी और उसकी उपलब्धि कहाँ इससे स्पष्ट है कि आजस आठ सौ वर्षसे भी पहले से से होती है । स्वाज करनेसे इस विषय में दिगम्बर दिगम्बर सम्प्रदायमें तत्वार्थसूत्रके कर्वाका नाम 'उमामाहित्यसे जो कुछ मालूम हुआ है उसे पाठकों के अव- स्वाति' प्रचलित था और वह उसके बाद भी कई सौ लोकनार्थ नीचे प्रकट किया जाता है- वर्ष तक बराबर प्रचलित रहा है। साथ ही, यह भी (१) श्रवणबेलगोलके जितने शिलालेखों में प्राचार्य मालूम होता है कि उनका दूसरा नाम गृधपिन्छाचार्य महोदयका नाम आया है उन सबमें आपका नाम था। विद्यानन्द स्वामी ने भी, अपने 'लोकवार्तिक में, 'उमास्वाति' ही दिया है। 'उमास्वामी' नामका उल्लेख इस पिछले नामका उल्लेख किया है। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ वर्ष २, किरण ५ (२) 'ऐप्रिक्रिया कर्णाटिका' की ८ वीं जिल्द में प्रकाशित 'नगर' ताल्लुके ४६ वें शिलालेख में भी 'नमाम्वाति' नाम दिया हैतस्वार्थ सूत्रकर्त्तारमास्वाति मुनीश्वरम् | श्रुतके वलिदेशीयं वन्दे गुणमन्दिरम् ॥ और 'औदार्यचिन्तामणि' नामके व्याकरण प्रन्थ में 'श्रीम. नुमामभुरनन्तरपूज्यपादः इस वाक्यमें आपने 'उमा' के साथ 'प्रभु' शब्द लगाकर और भी साफ तौर मे 'उमास्वामी' नामको सूचित किया है । जान पड़ता है कि 'उमास्वाति' की जगह 'उमास्वामी' यह नाम श्रुत (३) नदी 'गुर्वावली' में भी तत्वार्थसूत्र के सागर सुरिका निर्देश किया हुआ है और उनके समय कर्ताका नाम 'उमास्वाति' दिया है। यथातत्वार्थ सूत्रकर्तृत्वप्रकटीकृत सन्मति : । उमास्वामिपदाचार्यो मिथ्यात्वतिमिराँशुमान । * ही यह हिन्दी भाषा आदिके ग्रन्थोंमें प्रचलित हुआ है। और अब उसका प्रचार इतना बढ़ गया कि कुछ विद्वानों को उसके विषय में बिलकुल ही विपर्यास हो गया है और वे यहाँतक लिखनेका साहस करने लगे है कि तत्त्वार्थसत्र के कर्ताका नाम दिगम्बरोके अनुसार 'उमास्वामी' और श्वेताम्बरोके अनुसार 'उमाम्वाति है। Csc अनेकान्त जैन सिद्धान्त भास्कर की ४थी किरण में प्रकाशित श्रीशुभचन्द्राचार्य की गुर्वावली में भी यही नाम है और वाक्य दिया है। और ये शुभचन्द्राचार्य विक्रम की १६ वीं और १७वीं शताब्दी में हो गये हैं। (४) नन्दकी 'पट्टावली' में भी कुन्दकुन्दाचार्य के बाद छटे नम्बर पर 'उमाम्वाति' नाम ही पाया जाता है । (५) बालचन्द्र मुनिकी बनाई हुई तत्वार्थमत्र की कनडी टीका भी ‘उमास्वाति' नामका ही समर्थन करती है और साथ ही उसमें 'गृधपिच्छाचार्य' नाम भी दिया हुआ है । बालचन्द्र मुनि विक्रमकी १३ वी antare विद्वान | (६) विक्रमकी १६ वी शताब्दी पहले का ऐसा कोई प्रभ्थ अथवा शिलालेख आदि अभी तक मेरे देखने में नहीं आया जिसमें तत्वार्थसूत्र के कर्ताका नाम ‘उमास्वामी’ लिया हो । हाँ, १६ वीं शताब्दी के बने हुए सागर सूरि के प्रन्थों में इस नामका प्रयोग जरूर पाया जाता है। श्रुतसागर सूरिने अपनी श्रुतसागरी टीकामें जगह जगह पर यही (उमास्वामी) नाम दिया है *. खेलो जेनहितैषी भाग ६ अंक ७-८ . (७) मेरी गयमे, जब तक कोई प्रबल प्राचीन प्रमाण इस बातका उपलब्ध न जाय कि १६ वी शताब्दी मे पहले भी 'उमास्वामी' नाम प्रचलित था, नत्र तक यही मानना ठीक होगा कि आचार्य महोदय का असली नाम 'उमास्वाति' था और 'उमास्वामी' यह नाम श्रतसागर सूरिका निर्देश किया हुआ है। यदि किसी विद्वान महाशय के पास इसके विरुद्ध कोई प्रमाण मौज़द हो तो उन्हें कृपाकर उसे प्रकट करना चाहिए । (:. १) तत्वार्थसूत्र की उत्पत्ति उमास्वतिकं तस्वार्थमूत्र पर 'तत्वरत्नप्रदीपिका' हुई है, जिसे तत्वार्थ-तात्पर्य-वृत्ति' भी कहते हैं। इस नाम की एक कनडी टीका बालचन्द्र मुनि की बनाई टीका X की प्रस्तावना तत्त्वार्थसूत्र की उत्पत्ति जिस * देखो तत्वार्थसूत्रके मंजी अनुवादकी प्रस्तावना । x यह टीका धाराके जैनसिद्धान्त भवनमें देवनागरी अजरोंमें मौजद है। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरनि० सं० २५५६ ] प्रकार से बतलाई है उसका संक्षिप्त सार इस प्रकार है:“सौराष्ट्र देशके मध्य उर्जयन्त गिरिके निकट गिरिनगर ( जूनागढ़ ?) नामके पत्तनमें घासन भव्य, स्वहितार्थी, द्विजकुलोत्पन्न, श्वेताम्बरभक्त ऐसा 'सिद्धय्य' नाम का एक विद्वान् श्वेताम्बर मतके अनुकूल सकल शास्त्र का जानने वाला था । उसने 'दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्ष मार्गः' यह एक सूत्र बनाया और उसे एक पाटिये पर लिख छोड़ा | एक समय चर्यार्थ श्रीगृध पिच्छाचार्य 'उमास्वति' नामके धारक मुनिवर वहाँ पर आये और उन्होंने आहार लेनेके पश्चात् पाटिये को देख कर उसमें उक्त सूत्र के पहले 'सम्यक' शब्द जोड़ दिया। जब वह (सिद्धय्य ) विद्वान बाहर से अपने घर आया और उसने पाटिये पर 'सम्यक्' शब्द लगा देखा तो उसने प्रसन्न होकर अपनी माता से पूछा कि, किम महानुभावने यह शब्द लिखा है। माताने उत्तर दिया कि एक महानुभाव निर्मथाचार्य ने यह बनाया है। इस पर वह गिरि और अरण्य को ढूँढता हुआ उनके श्राश्रममें पहुँचा और भक्तिभावसे नीभूत हो कर उक्त मुनि महाराज से पूछने लगा कि, श्रात्मा का हिन क्या है ? (याँ प्रश्न और इसके बाद का उत्तर- प्रत्युत्तर प्रायः मन्त्र ही है जो 'सर्वार्थसिद्धि' की प्रस्तावना में श्री पूज्यपादाचार्य दिया है।) मुनिराजने कहा 'मोक्ष' है। इस पर मोक्ष का स्वरूप और उसकी प्राप्ति का उपाय पूछा गया जिसके उत्तररूपमें ही इस प्रन्थका अवतार हुआ इस तरह एक श्वेताम्बर विद्वानके प्रश्न पर एक दिगम्बर श्राचार्यद्वारा इस नत्वार्थसूत्र की उत्पत्ति हुई है, ऐसा उक्त कथानक से पाया जाता है। नहीं कहा जा सकता कि उत्पत्तिकी यह कथा कहाँ तक ठीक है। -पर इतना जरूर है कि यह कथा सात मौ वर्षस भी अधिक पुरानी है; क्योंकि उक्त टीकाके कर्ता बालचंद्र पुरानी बातों की खोज २७१ मुनि विक्रम की १३ वीं शताब्दी के पूर्वार्धमें हो गये हैं। उनके गुरु 'नयकीर्ति' का देहान्त शक सं० १०९९ (वि० मं० १२३४) में हुआ था । मालूम नहीं कि इस कड़ी टीका पहलेके और किस ग्रंथ में यह कथा पाई जाती है। तत्वार्थ सूत्र की जितनी टीकाएँ इस समय उपलब्ध हैं उनमें सबसे पुरानी टीका 'सर्वार्थसिद्धि' है । परन्तु उसमें यह कथा नहीं है। उसकी प्रस्तावना से सिर्फ इतना पाया जाता है कि किसी विद्वानके प्रश्न पर इस मूल ग्रन्थ (तत्वार्थमुत्र) का अवतार हुआ है। वह विद्वान् कौन था, किस सम्प्रदाय का था, कहाँ का रहने वाला था और उसे किस प्रकारसे प्रथकर्ता आचार्य महोदय का परिचय तथा समागम प्राप्त हुआ था, इन सब बातोंके विषय में उक्त टीका मौन है। यथा कश्चिव्यः प्रत्यासन्ननिप्रः प्रज्ञावान स्वहितमुपलविवि पर रम्यं भव्यमत्वविश्रामास्पदे कचिदाश्रमपद मुनिपरमध्ये मन्निराणं मूर्तमिव मोक्षमार्गम afeमर्ग | वपुषा नियन्तं युत्यागमकुशलं परहितप्रतिपादक कार्यमार्यनित्र्यं निर्मथाचार्यवर्यमुपसण सविनयं परिपृच्छतिम्म, भगवन किंम्बल आत्मनो हितं स्यादिति । स श्राह मोक्ष इति । स एव पुन प्रत्याह fs rajisa मोत कश्चाम्य प्राप्युपाय इति । आचार्य आह..." दमकलम्य शिलालेख २०४० । * इस पक्की प्रतिमें प्रभावाचार्य ने प्रश्नकर्ता मध्यपुरुष का नाम दिया है जो पाठकी प्रकुिछ यमन मा हो रहा है, और प्रायः 'सिक्स' की जान पड़ता है, (देवी, मी मालाका ०८) । और हम कथाका सम्बन्ध वीं शती तक पहुँच जाता है Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनकान्त [वर्ष १, किर संभव है कि इस मूलको लेकर ही किसी दन्त- पद्य नहीं दिया; यह बात मुझे बहुत खटकती थी और कथाके आधार पर उक्त कथा की रचना की गई हो; इसलिये मैं इस बातकी खोजमें था कि ग्रंथकी अन्याक्योंकि यहाँ प्रश्नकता और प्राचार्य महोदयके जो न्य हस्तलिखित प्रतियों परसे यह मालूम किया जाय विशेषण दिये गये हैं प्रायः वे सब कनड़ी टीकामें भी कि उनका भी ऐसा ही हाल है अथवा किसीमें कुछ पाये जाते हैं। साथ ही प्रश्नोत्तर का ढंग भी दोनों का विशेष है । खोज करते हुए जैनसिद्धान्तभवन, पारा एक ही सा है। और यह संभव है कि जो बात सर्वार्थ- की एक प्रतिमें, जिसका नम्बर ५१ है, उक्त ३२श्लोको :: सिद्धि में संकेत रूपमे नी गई है वह बालचंद्र मुनि को के बाद, एक पद्य इस प्रकार मिला है:गुरुपरम्परा से कुछ विस्तार के साथ मालूम हो और इति तत्वार्थसत्राणां भाष्यं भाषितमुत्तमैः । उन्होंने उसे लिपिबद्ध कर दिया हो; अथवा किसी दूसरे यत्र संनिहितस्तन्यायागमविनिर्णयः ।। ही मन्थसे उन्हें यह सब विशेष हाल मालूम हुआ सपथके द्वारा तत्त्वार्थसत्रोंके-अर्थात्, तत्त्वाथ हो । कुछ हो, बात नई है जो अभी तक बहुतों के शास्त्र पर बने हुए वार्तिकोंके-भाष्यकी समाप्तिको आनन में न पाई होगी और इससे तत्वार्थसत्र का सूचित किया है और यह बतलाया है कि इस भाष्यम संबन्ध-दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायोंके तर्क, न्याय और आगमका विनिर्णय अथवा तर्क, साथ स्थापित होता है। साथ ही, यह भी मालम न्याय और भागमके द्वारा विनिर्णय संनिहित है होता है कि इस समय दोनों सम्प्रदायोंमें आज कल इसमें संदेह नहीं कि यह पद्य तत्त्वार्थवार्तिक भाष्यका जैसी खींचातानी नहीं थी और न एक दुसरं को घणा अन्तिम बाश्य मालूम होता है। परंतु अनेक प्रतियोम की दृष्टि में देखता था। यह वाक्य नहीं पाया जाना. इसे लेखकोंकी करामात (१२) ममझना चाहिये। तत्त्वार्थराजवार्तिकका अन्तिम वाक्य .. सनानन-जैनमन्थमाला में श्रीयत पं० पन्नालाल जी न्यायदीपिकाकी प्रशस्ति बाकलीवालन 'तत्वार्थराजवार्तिक' नामका जो प्रन्थ श्राराके जैनसिद्धान्तभवनमें 'न्यायदीपिका' की प्रकाशित कराया है उसके अन्तमें ३२ श्लोक 'उक्तंच' जो प्रति नं. १५६ की है उसके अन्तमें निम्नलिखित रुपसे दिये हैं और उनके साथ ही ग्रंथ समान कर दिया प्रशस्ति पाई जाती है:है। इन श्लोकोंके बाद प्रन्यकी समाप्तिसूचक कोई मगरोवर्धमानेशो वर्षमानदयानिधेः । *भुतसागी टीकामें भी इसी मूलका प्रायः अनुसरण किया श्रीपादस्नेहसम्बंपत्सिदेयं न्यायदीपिका ॥१॥ गया।मौर इसे सामने सभी प्रत्यकी सत्यामिक लिखी गई और इसके बाद अन्तिम संघिइस प्रकार दी है:सापही, इतना विशेष किसमें प्रश्न विनका नाम 'बार अधिक दिया है।मडी टीकावाली और बातें कमी इति श्रीमदर्भमानमहारकाचार्यगुरुकाएकदीया टीमकनकी टीमसेईसौर्वबाकी बनी है। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्र, वीरनि०सं०२४५६] पुरानी बातों की खोज २७३ विरचिताया न्यायदीपिकायामोगमप्रकाशः है और उसकी संधियोंमें भट्टारक महोदयका परवादिसमाप्त:। दंतिपंचानन' विशेषण दिया है। जैसा कि उसकी ___ यह सन्धि और उक्त प्रशस्ति दोनों चीजें, सन् निम्नलिखित अन्तिम सन्धिसे प्रकट है:१९१३ में, जैनग्रंथरत्नाकर-कार्यालय द्वारा प्रकाशित इति परवादिदन्तिपंचाननश्रीवर्धमानभट्टाहुई 'न्यायदीपिका' में नहीं हैं और न इससे पहलेकी रकदेवविरचिते बरामचरिते सर्वार्थसिद्धिछपी हुई किसी प्रतिमें हैं। बाद की छपी हुई जो एक गमनानमत्रयोदशमः सर्गः। प्रति मिली उसमें भी इनका दर्शन नहीं हुआ। अनेक जान पड़ता है 'परवादिन्तिपंचानन यह वर्धमान हस्तलिखित प्रतियों में भी ये नहीं देखी गई। हाँ, भट्टारकका विरुद था अथवा उनकी उपाधि थी और दौर्वलि जिनदास शास्त्रीके भंडारमें जो इम प्रन्थकी दो इससे वे एक नैय्यायिक विद्वान् मालम होते हैं। प्रतियाँ हैं उनका अन्तिमभाग एक बार जैनहितैषी में न्यायदीपिका कर्ता धर्मभषणके गुरु भी नैयायिक प्रकाशित हुआ था वह उक्त सन्धिसे मिलता जलता विद्वान होने चाहिये और उन्हें न्यायदीपिकाकी उक्त है, कुछ थोड़ासा भेद है। मालूम नहीं प्रशस्तिका उक्त संधिमें 'भट्टारक' भी लिखा है। इसलिये, मेरे स्त्रपाल पद्य भी उनमें है या नहीं। से, ये दोनों एक ही व्यकि जान पाते हैं। यदि यह ___ अस्तु; इम पासे प्रथकी वह त्रुटि पूरी हो जाती सत्य है तो धमभूषणकं गुरु मूलसंघ, बलात्कारगण है जो कि एक गयात्मक प्रन्थके प्रारंभमें मंगला- और भारती गच्छके आचार्य थे; जैसा कि पगंगन चरण तथा प्रतिनाविषयक श्लोकको देखकर अन्तम की प्रशस्निके निम्न वाक्यम प्रकट है:ममानि आदि विषयक कोई पद्य न देखन में स्वटकनी म्नि श्रीमूलमंयं भुवि विदितगणं श्री. थी। माथ ही, यह बात स्पष्ट हो जाती है कि प्रन्थक, बलात्कारमं । श्रीभाग्त्यादिराच्छे सकलगुणक गुरु वर्धमानश अर्थात वर्धमान भट्टारक थं और निधिर्धमानभिषानः ॥ प्रामीब्रहारकोऽमो... उन्हीके श्रीगावस्नहमम्बन्धस यह न्यायदीपिका मिद्ध न्यायदीपिकाकी उक्त संधिस यह साफ जाहिर है हुई है। प्रन्थकर्नान प्रारम्भिक पद्यमें अर्हन्तका विश- किम ग्रंथके काम पडले.कोई दूसरे धर्मभूषण' पण 'श्रीवर्धमान' देकर("श्रीवर्धमानमहनं नत्वा लिन नामक प्राचार्य भी हो गये हैं और इस लिए.थे . कर) उसके द्वाराभी अपने गुरुका स्मरण और सचन भिनव धर्मभूषण' कहलान थे । इन्हें गुम अनुप्रहम किया है। ये वर्धमानभट्टारक कौन थे और उन्होंने मारम्वनोदयकी सिद्धि थी। किन किन प्रन्योंका प्रणयन किया है, यह बात, यपि, अभी तक स्पष्ट नहीं हुई तो भी 'वरांगचरित्र' नामका .. भारह लिपियों के नाम एक पंथ x वर्धमान भट्टारकका बनाया हुआ उपलब्ध . जैनसिद्धान्तभवन श्रारामें, धर्मदाससरि का * देखो जनहितेषी भाग १ मा -- मान मरको माये हुएई जाने है परन्तु आज काई प्रश्न प्रमी पनियम और द्वादशांगपति नामक दो पन्य भी तक मेरे देखने में महा माया । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ भनेकान्त वर्ष १, किरण ५ बनाया हुमा 'विदग्धमुखमंडन' नामका एक बौद्ध ग्रंथ ऐसे बारह प्रकरण हैं और ये सब विषय पन्थकी ९५ है। इस प्रथकी समाप्ति के बाद पत्रके खाली स्थान पर गाथासंख्या के भीतर ही वर्णित हैं । पहली दो गाथाएँ कुछ संस्कृत प्राकृतके पग लिखे हुए हैं, जिनमेंसे पहले इस प्रकार हैं:पथकं बाद परासा संस्कृत गद्य देकर अठारह लिपियों णमिय जिणपासायं विग्यहरं पणयवंचियत्थपयं। की सूचक दो गाथाएँ दी हैं, जो इस प्रकार है:- बच्छं नत्तत्वयारं संखवेण णिसापेह ॥ १॥ "शुभं भवतु श्रीसंघस्य भद्रं। समसायरी अपारो माकुंथोयं वयं च दुम्मेहा। हंसलिवी भूयलिवी जक्खी रखुसी य वोधव्वा तं किंपि सिक्खियब्वं जं कज्जकरं च योवं च ।। ऊही जवणि तुरुक्की कीरी दाविति य सिंपविया १ पहली गाथामें पार्श्वजिनको नमस्काररूप मंगलापाखविणी नहि नागरि लाडलिवीपारसी यबोधचा चरणके बाद संक्षेपमें तत्त्वविचार' नामक ग्रंथ रचनेकी ता भनिमत्तीय लिवी चाणकी मूलदेवी य ॥२ प्रतिज्ञा की गई है और दूसरी में यह बतलाया है कि श्रुतसागर तो अपार है किन्तु आयु अल्प और बुद्धि अष्टादशः लिप्यः ॥" मंद है इम मे थोड़े में ही जो कार्यकारी है वही शिक्षइनसे पठारह लिपियोंके १हंसलिपि, २ भूतलिपि, णीय है । इसके वाद पंचपरमेष्ठी को नमस्कार करके ३ यक्षी, ४ राक्षसी ५ ऊही ( उडिया? ), ६ यवनानी नवकार (नमस्कार) मंत्र का माहात्म्य वर्णन किया है (यनानी), ७ तुरुकी, ८ कीरी (काश्मीरी), ९ द्राविडी जिसकी एक गाथा इम प्रकार है१० सिंघवी, ११ मालविणी, १२ नडि ( कनड़ी ?). १३ देवनागरी, १४ लाडलिपि (लाटी, गुजराती), १५ । जो गणइ लक्ख गं पयविही जिणणमोकार । पारसी (फारसी), १६ प्रमात्रिकलिपि, १७ चाणक्यी तित्थयरनामगोत्तं सो बंधइणस्थि सदेहो ॥ १५ (गुप्तलिपि, और १८ मूलदेवी, (नामी ?) ये नाम पाए इसमें ‘णमोकार मंत्रके एक लाख जाप से नि:जाते हैं। इनमें से अनेक लिपियों का विशेष परिचय संदेह तीर्थकर गोत्रका बंध होना है' ऐसा बसलाया है। 'मालूम करने और उनके उदय-अस्तको जानने की इसी तरह दूसरे प्रकरणोंका भी वर्णन करते हुये अन्त में लिखा है:. . . . (११) पसोतवियागंसारी सजन जणाणसिबसन्दी तत्त्वविचार और वसनन्दी वसुनन्दिमरिरहउभपाणं पोहणडं ग्बु ।। ६४ बम्बईके 'ऐलक-पमालाल-सरस्वती-भवन में तत्त्व- जो पइ मुणइ मक्खा भएणं पाहे देह उसएस विचार' नामका एक प्राकृत पन्थ है जिसमें रणवकार सोरणहणिय य कम्म कपेण पिदानयंनाइ ६५ फल,२ धर्म,३ एकोनविंशावना, ४ सम्यक, ५ पूजा- अर्थात्-सज्जनों को शिवमुख के देने वाले इस पाल, ६ विनयफल, प्यायल्य, ८ एकादरापतिमा,९ तत्वविचार नाम के सारप्रन्धको वसुनन्दिरिने भन्यजीवदया. १० सावबविहि, ११ पशुवत और १२ बान जनों के प्रोपनार्य रखा है। जो इसे पढ़ते हैं, मुनते हैं Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्र, बीरनि० सं०२४५६] पुरानी बातों की खोज दमरों को पढ़ाते हैं, अथवा सुनाते हैं वे सब अपने इसके विरुद्ध है। उसमें गुणवतों को १ दिग्विरति, २ कोका नाश करते हैं और क्रमशः सिद्धालय को जाते पेशविरति और ३ अनर्थदण्डविरनिके रूपमें वर्णन हैं-मुक हो जाते हैं। किया है और शिक्षाप्रतोंके नाम ? भोगविरति, . ___ यहाँ ग्रंथकर्ताका नाम 'वसुनन्दिसूरि' देने और परिभोगनिवृत्ति, ३ अतिथिसंविभाग और ४ मा स्वना ग्रंथ की समाप्तिसूचक संधि में उन्हें 'सिद्धान्ती' भी ये चार नाम दिये गये हैं । यथा:-- प्रकट करने से एक दम यह प्रश्न पैदा होता है कि "पुन्नत्तरदविखणपच्छिमासकाऊण जोयणपमाणं क्या यह प्रन्थ उन्हीं वसुनन्दी प्राचार्यका बनाया हुआ परदो गमणणियत्ती दिसिगणपयं परमं ॥ है जो 'वसुनन्दिभावकाचार (उपासकाध्ययन)' के वयभंगकारणं होइ जम्मि देसम्मि तस्य जियपेण फर्ता है और विक्रम की १२ वीं शताब्दीके उत्तरार्धमें कारगमणणियत्ती तंजाण गुणम्पयं विदियं । हुए हैं ? इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिये ग्रंथ पर जो अयदंडपासविक्रय कूडतुलामाण कूरसत्ताणं । मरमरी नज़र डाली गई तो मालम हुआ कि, इसके नं मंगहोण कारनं जाण गणव्ययं तिटियं ।। प्रतिमा, विनय और वैय्यावृत्य जैम प्रकरणों में, यद्यपि, बहुत-सी गाथाएँ वसुनन्दि श्रावकाचार की पाई " भोयविगह भणियं परमं सिक्खापयं सने। जाती हैं परन्तु फिर भी यह ग्रंथ उन वसुनन्दिप्राचार्य "नं परिभोयणिनि पिदियं मिषम्यापयं जाणे। का बनाया हुआ नहीं है, क्योंकि इसका कितना ही "अनिहिस्म संविभागोतिदियं सिक्खावयं पूर्णप पणन वसुनन्दिश्रावकाचार के विरुद्ध है, जिसके उदा "मल्ले ग्वणं चत्वं मन मिरवावयं मणियं ।। हरणस्वरूप दो गाथाएँ नीचे दी जानी हैं:-- इसम म्पष्ट है कि या अन्य वमुन्द्रिभावकाचार दिसिविदिसिपश्चखाणंभणन्थदंडाणहोइपरिहाग के कर्ताका नहीं है। उन दोनों गाथाएँ (नं. ५५, ६) भोभोवभोयसंखा एए. गणव्यया निरिण॥५४ एम प्रन्थकाकी अपनी चीज भी नहीं है बल्कि देवे धुनहतियाले पव्वे पवेय पोसहवासी देवसेनाचार्य के 'भावसंग्रह' प्रन्थ की गाथा है, जो मतिहीण मंविभाभी मरणंने कुणइ मलिहणं॥६० उममें क्रमश ३५४, ३५५ नम्बर पर मज है । इमी तरह और भी कितनी ही गाथाएँ. दूमरे प्रथा की जान इनमें से पहली गाथामें तीन गुणप्रताके नाम परती है। मालम होता है यह अन्य कुछ तो बसुनन्दिा दिग्विदिकप्रत्याख्यान, २ अनर्थदंडपरिहार और ३ __ श्रावकाचारकं कतिपय प्रकरणोंकी काट-छाँट करके, भोगोपभोगसंख्या दिये हैं। और दूसरी पाथामें चार पर उधर से लेकर और कुछ अपनी तरफमे मिला शिक्षाबतोके नाम ६ त्रिकालदेववन्दना (सामायिक), कर बनाया गया है। भाचर्य नहीं जो यह पंथ किमी २ प्रोषधोपवास,३ अतिथिसंविभाग, भोर ४ स खाना व्यलिविशेषडारा प्रयोगनविरोष की सिद्धि के लिये बतलाए हैं। परन्तु बसुनन्दिभावकाचार का विधान . . . .. : ---- *देखो, माणिकतामणमाला का भावममहाद' नाम का *"इलिब नन्दिसिद्वान्वीविरचिततत्त्वविवार:समामः।" २० को मथ । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ नन्दी 'आचार्य के नामसे रचा गया हो और इसके रचयिताका नाम खुद 'वसुनन्दी' न हो। यदि ऐसा न हो कर किसी दूसरे हो वसुनन्दिसूरि ने इसकी रचना की है तो कहना होगा कि वे कोई साधारण व्यक्ति थे, 'उन्होंने दूसरों की कृतियों को चुराकर जो उन्हें अपनी कृति प्रकट किया है वह एक सूरिपदके योग्य नहीं है। और ऐसी हालत में यह मालूम होने की जरूरत है कि कब हुए हैं और किसके शिष्य थे ? प्रन्थ की शैली को देखते हुए वह कुछ महत्त्व की मालूम नहीं होती । ( १६ ) यांगमार और अमृताशीति । पिटर्सन साहब की पाँचवीं रिपोर्ट में, नं० ९० पर, 'योगसर' नामके एक ग्रंथ का आदि और अन्त इस मकार दिया हुआ है: Begins: • अनेकान्त ॐनमो वीतरागाय विश्वकाशि महिमानममान पंकमोमन्तरायखितवाङ्मयहेतुभूतम् । शंकरं सुगनमीशमनीशमाद्दुरद्दन्नमूर्जितमहं तमहं नमामि ॥ १ ॥ Ends: I ॥ श्री जयकीर्ति रीया शिष्य एा । मलकीर्तिना । लेखितं योगसाराख्यं विद्यार्थिनामकीर्तिनात् ॥ १ संवत् ११६२ ज्येष्ठभुक्लपक्षं त्रयोदश्यां पंडित साम्हणेन - लिखितमिदमिति ॥ [वर्ष १, किरण ५ अन्तिम भाग भी जिसे कहना चाहिये वह नहीं दियाअन्तिम भाग के नामसे जो कुछ दिया है उसे प्रति लिखाने और लिखने वाले की प्रशस्ति अथवा परिचय कह सकते हैं और इससे प्राथः इतना ही मालूम होना है कि 'योगसार' की यह ग्रंथप्रति जयकीर्ति सूरिके शिष्य अमलकीर्ति ने लिखवाई है और पं० साल्हण ने उसे सं० १९९२ की ज्येष्ट सुदि त्रयोदशी को लिखा है। अस्तु; इस मंथका जो मंगलाचरण दिया है वही मङ्गलाचरण 'अमृताशीति' नामके योगप्रन्थ का है. जो माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला के 'सिद्धान्तसारादिसंगह नामक २१ वें गून्थमें छप चुका है और जिसमें ग्रन्थ कर्ता का नाम योगीन्द्रदेव दिया हुआ है; जैसा कि उसके निम्न अन्तिम भागसे प्रकट है: साथ ही, यह भी लिखा है कि यह ग्रंथ प्रति ताडपत्रोंके ऊपर अनहिलवाड़पाटन के भण्डारमें सुरक्षित है । परन्तु मूल प्रन्थका कर्ता कौन है और वह कब बना है इस विषय में कोई सूचना नहीं दी । प्रन्थका चञ्चच्च द्रोरुचिरुचिरतरचचः क्षीरनीरप्रवाहे मज्जन्तोऽपि प्रमोदं परम्परनरा संग मोगुर्यदीये । योगज्वालायमान ज्वलदनल शिखा क्लेशवल्ली विहोना योगीन्द्रो वःस चन्द्रप्रभविभुरविभुर्मङ्गलं सर्वकालम् ॥ ८२ ॥ इति योगीन्द्रदेव कृतापनाशीतिः समाप्ता । यहि पाटन की वह गून्थप्रति और अमृताशीति दोनों एक ही हों तो कहना होगा कि 'अमृताशीति'का दूसरा नाम 'योगसार' भी है और वह संवत् १९९२ से पहले का तो बना हुआ जरूर ही है । परंतु ये दोनो ही नाम गून्थ के किसी पद्य परसे उपलब्ध नहीं होते । आशा है श्रीमुनि पुण्यविजयजी अथवा दूसरे कोई सज्जन, जिन्हें, पाटन की इस ग्रन्थप्रति को देखने का अवसर मिला हो, वे दोनों की तुलना करके ठीक हाल से सूचित करने की कृपा करेंगे। जुगलकिशोर मुख्तार Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्र, बीर नि०२४५६] जैनधर्म में हिंसा NAAAA जैनधर्म में हिंसा [ लेखक - श्री०सा०रत्न ५० दरबारीलालजी ] जो • जन्म लेता है वह एक न एक दिन मरता अवश्य है। या तो एक प्राणी दूसरे प्राणीको मार डालता है अथवा प्रकृति ही उसका जीवन समाप्त कर देती है। इनमें से प्राणीको प्रकृJenna तिकी अपेक्षा दूसरे प्राणीका डर ज्यादा है। एक प्राणी दूसरे प्राणीके खूनका प्यासा है। इसलिये नीतिवाक्य भी बन गया है - " जीवो जीवस्य जीवनम् " । अर्थात, एक जीव दूसरे जीवके जीवनका आधार है । मनुष्य सबमें श्रेष्ठ प्राणी है । बुद्धिमान होनेसे बलवान् भी है। इसी लिये यह उपर्युक्त नीतिबाक्यका सबसे ज्यादा दुरुपयोग कर सका है। अपने स्वार्थ के लिये वह ऐसी हिंसा भी करता है जो आवश्यक नहीं कही जा सकती । परन्तु यह कार्य प्राणिसमाज और मनुष्यसमाज की शान्ति में बाधक है। इससे मात्मिक उन्नति भी रुक जाती है। इसलिये प्रत्येक धर्म में थोड़े-बहुत रूप में हिंसा के त्याग का उपदेश ----------------- दिया गया है और इसीलिये 'अहिंसा परमो धर्म:' प्रत्येक धर्मका मूल मंत्र बन गया है। लेकिन जैनधर्मने इस मंत्र की जैसी सूक्ष्म व्याख्या की है वह बेजोड़ है। जैन धर्मकी अहिंसा, अहिंसाका चरम रूप है । जैनधर्म के + अहिंसा-तत्वको प्रकाशित करना 'अने कान्त' को खास तौर से इष्ट है। पहली किरण से ही इसका प्रयत्न जारी है। पिछली किरण में 'जैनों की अहिंसा' नाम से एक खास लेख पं० देवकीनन्दनजी का पाठक पढ़ चुके हैं। आज उनकी सेवामें समाज के एक दूसरे लब्धप्रतिष्ठ विद्वान् की कृति प्रस्तुत की जाती है। यह लेख कुछ समय पहले 'जैनजगन्' में प्रकट हुआ था और वही लेख है जिस पर महात्मा गांधी जी ने लिखा था"लेख पढ़कर मुझको आनन्द हुआ। उसमें बहोत सी बातें हैं जिनसे मैं मह-सम्पादक मत हूँ” mindans २०० अनुसार मनुष्य, पशु, पक्षी, कीड़े मकोड़े आदि के अतिरिक पृथ्वी, जल, अग्नि, बाबु और वनस्पतिमें भी जीव है । मिट्टीके ढेले में कीड़े आदि जीब तो हैं ही, परन्तु मिट्टी का ठेला स्वयं पृथ्वीकाविण जीवों के शरीर का पिंड है। इसी तरह जलबिन्दु में यन्त्रों के द्वारा दिखने वाले अनेक जीवों के अतिरिक्त वह स्वयं जलकारिक जीवों के शरीरका पिंड है। यही बात अग्निकाय आदि के विषय में भी समझनी चाहिये । ----- इस प्रकारका कुछ विवेचन पारसियोंकी धर्मपुस्तक 'मापस्वा' में भी मिलता है। जैसे हमारे यहाँ प्रि Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ अनेकान्त वर्ष १, किरण ५ ण का रिवाज है उसी तरह उनके यहाँभी पश्चातापकी है कि उसका भावहिंसाके साथ सम्बन्ध है। फिर भी किया' करने का रिवाज है । उस क्रिया जो मंत्र बोने यह बात याद रखना चाहिये कि द्रव्यहिंसाके होने पर जाते हैं उनमें से कुछका भावार्थ इस तरह है:- भावहिंसा अनिवार्य नहीं है। ___धातु-उपधातुके साथ जो मैंने दुर्व्यवहार (अप- अगर द्रव्यहिंसा और भावहिंसाको इस प्रकार राध) किया हो उसका मैं पश्चात्ताप करता हूँ"।"जमीन अलग न किया गया होता तो जैनधर्मके अनुसार कोई के साथ मैंने जो अपराध किया हो उसका मैं पश्चात्ताप भी अहिंसक न बन सकता और निम्नलिखित शंका करता हूँ" । “पानी अथवा पानीके अन्य भेदोंके साथ खड़ी रहतीजो मैने अपराधकिया हो उसका मैंपश्चाताप करताहूँ"। जले जंतुः स्थले जंतुराकाशे जंतुरेव च । "वृक्ष और वृक्षके पन्य भेदोंके साथ जो मैंने अपराध जंतुमालाकुले लोके कथं भिरहिंसकः ।। किया हो उसका मैं प्रायश्वि करता हूँ" । "महताब, जल में जंतु हैं, स्थल में जंतु हैं और आकाश में माफताब,मलती-अम्निमादि के साथ मैने जोअपराध भी जंत हैं। जब समस्त लोक जंतुओं से भरा हुआ है किया हो उसका मैं पश्चाताप करता हूँ"। तब कोई भिक्षु (मुनि) अहिंसक कैसे हो सकता है ? पारसियोंका विवेचन जैनधर्मके प्रतिक्रमण-पाठसे इस प्रश्नका उत्तर यों दिया गया है:मिलता जुलता है जो कि पारसीधर्मके ऊपर जैनधर्मके प्रभावका सूचक है ।मतलब यह है किजैनधर्म में अहिंसा - सूक्ष्मा न पतिपीड्यन्ते प्राणिनः स्थलमर्चयः। का बड़ा सूक्ष्म विवेचन किया गया है । एक दिन था पर ये शक्यास्ते विवज्यन्ते का हिंसा संयतात्मनः ।। जब संसारने इस सूक्ष्म अहिंसाको प्राधर्य और हर्ष सूक्ष्म जीव (जो अदृश्य होते हैं तथा न तो किसी साय ऐसा था और अपनाया था । से रुकते हैं और न किसी को रोकते हैं) तो पीडित " यहाँ पर प्रश्न होता है किजव जैनधर्मकी अहिंसा नहीं किये जा सकते, और स्थूल जीवोंमें जिनकी रक्षा इसनी सूक्ष्म है तो उसकापालन कदापि नहीं हो सकता की जा सकती है उनकी की जाती है। फिर मुनि को हमन्यवहार्य है। इसलिये उसका विवेचन व्यर्थ है। हिंसा का पाप कैसे लग सकता है ?' इससे मालम पसत नमन मा होता है कि जो मनुष्य जीवोंकी हिंसा करने के भाव बच्चेरूप में किया है कि वह जितना ही उकर नहीं रखता अथवा उनको बचाने के भाव रखता है उतना ही म्यवहार्य भी है। उसके द्वारा जो व्यहिंसा होती है उसका पाप उसे । जैनधर्म के अनुसार अपने द्वारा किसी प्राणी के मर नहीं लगता है। इसीलिये कहा हैजानेसे या दुःखी हो जानेसे ही हिंसा नहीं होती ।संसार वियोजयति चासुभिर्न च पधेन संयुज्यते । में सर्वत्र जीव पाये जाते है और वे अपने निमित्तसे अर्थात्-प्राणों का वियोग कर देने पर भी हिंसा मरते भी रहते हैं। फिर भी जैनधर्म इसमाणिपातको पाप नहीं लगता । इस बात को शासकारों ने और रिक्षा नहीं कहता । वास्तवमें हिंसाल्प परिणाम ही भी अधिक स्पष्ट करके लिखा हैदिबहिसाको वो सिर्फ इसलिये हिंसा म पाखादम्पिादे हरिषासविदम्स सिग्गमताणे। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म में अहिंसा चैत्र, बीरनि०सं०२४५६] भावादेज कुलिंगो मरेज्ज तज्जोग्गमासेज्ज || हितस तरिणामिचो घोसु हुमो विदेसिदोसमये अर्थात् - जो मनुष्य देख देखके रास्ता चल रहा है उसके पैर उठाने पर अगर कोई जीव पैरके नीचे आ जावे और कुचल कर मर जावे तो उस मनुष्यको उस जीवके मरनेका थोड़ा से भी थोड़ा पाप नहीं लगता । हिंसा का पाप तभी लगता है जब वह यत्नाचार से काम न लेता हो मरदुब जियदुव नीबो भयदाचारस्स णिबिदा हिंसा पदस्स एत्थि बन्धो हिंसामेतेण समिदस्स || अर्थात- जीव चाहे जिये चाहे मरे, परन्तु जो प्रयत्नाचार से काम करेगा उसे अवश्य ही हिंसाका पाप लगेगा। लेकिन जो मनुष्य यत्नाचार से काम कर रहा है उसे प्राणिबध हो जाने पर भी हिंसा का पाप नहीं लगता । आशाधरजी ने भी इसी विषय पर अच्छा प्रकाश डाला है। लिखा है विष्वर जीवचिते लोके क चरन् कोप्यमोच्यत । भावैकसाधन बन्धमोक्षौ चेन्नाभविष्यनाम् ॥ - सागारधर्मामृत | अर्थात्-जब कि लोक, जीवोंसे खचाखच भरा है नत्र यदि बन्ध और मोक्ष भावोंके ऊपर ही निर्भग्न होते तो कौन आदमी मोक्ष प्राप्त कर सकता ? जब जैम धर्म की अहिंसा भावोंके ऊपर निर्भर है तब उसे कोई भी समझदार अव्यवहार्य कहने का दुःसाहस नहीं कर सकता। जैनधर्मके समाधिमरण व्रत के ऊपर विचार करनेसे तो साफ मालूम होता है कि मरनेसे ही हिंसा नहीं होती। इस सतेजना व्रतके महत्व और स्वरूप को न समझकर किसी भादमीने एक २७५ पत्र में लिखा था कि जैनी लोग महीनों भूखों रह कर मरनेमें पुण्य समझते हैं। अगर इस भाई ने सल्लेखना का रहस्य समझा होता तो कभी ऐसा न लिखता, और न सल्लेखनाको आत्महत्याका रूप देता । सल्लेखना ऐसी अवस्थाओं में की जाती है उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निःमतीकारे। धर्माय तनुविमोचननमाः सम्मेलनामार्याः ॥ समन्तभद्र । अर्थात्- अब कोई उपसर्ग, दुर्भिक्ष, बुढापा और रोग ऐसी हालत में पहुँच जायें कि धर्मकी रक्षा करना मुश्किल हो तो धर्मके लिये शरीर छोड़ देना सलेखन। या समाधिमरण है । समाधि ले लेने पर उपर्युक्त आपत्तियोंको दूर कर ने की फिर चेष्टा नहीं की जाती— उपचार वगैरह बन्द करके वह अंतमें अनशन करते करते प्राणत्याग करता है । सम्भव है कि उपचार करनेसे वह कुछ दिन और जी जाता । परंतु जिम कार्यके लिये जीवन है, जब वही नष्ट हो जाता है तब जीवनका मूल्य ही क्या रहता है? यह याद रखना चाहिये कि आत्माका माध्य शांति और सुख है। सुखका साधन है धर्म और धर्मका सा. धन है जीवन | जब जीवन धर्मका बाधक बन गया है तब जीवनको छोड़ कर धर्म की रक्षा करना ही उचित है। हर जगह साध्य और साधन में विरोध होने पर साधन को छोड़ कर साभ्यकी रक्षा करना चाहिये । समाधिमरण में इसी नीतिका पालन किया जाता है। इसी बात को अकलंकदेवने यो स्पष्ट किया है : 66 यथा after: विविधपण्यदानादानसंचयपरस्य गृहविनाशोऽनिष्टः तद्विनाशकारणे चोपस्थिते यथाशक्ति परिहरति दुष्परिहारे प पथवाविनाशो यथा भवनि तथा यतते । एवं Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮ अनेकान्त [वर्ष १ किरण, ५ गृहस्थोऽपि व्रतशीलपुण्यसंचयपवर्तमानस्तदा- जिनका सम्बंध भविष्यके क्षणोंसे ही नहीं, युगोस भयस्य शरीरस्य न पातमभिवाग्छति तदुप्लव- होता है। मनुष्य के पास जितना ज्ञान और शक्ति है कारणे चोपस्थिते स्वगणाविरोधेन परिहरति उसका उचित उपयोग करना चाहिये । सर्वज्ञता प्राप्त दुष्परिहारे च यथा स्वगणविनाशो न भवति नहीं है और थोड़े शानका उपयोग नहीं किया जा सकता, तथा प्रयतति कथमात्मवधो भवेत्"। ऐसी हालत में मनुष्य बिलकुल अकर्मण्य हो जायगा। -तस्वार्थराजवार्तिक । इसलिये उपलब्ध शक्तिका शुभ परिणामोंसे उपयोग भावार्थ-कोई व्यापारी अपने घरका नाश नहीं करनेमें कोई पाप नहीं है। दूसरी बात यह है कि भौतिक पाहता । अगर घरमें आग लग जाती है तो उसके जीवन ही सब कुछ नहीं है-भौतिक जीवन को सब बुझानेकी चेष्टा करता है। परंतु जब देखता है कि कुछ समझने वाले जीना ही नहीं जानते; वे जीते हुए इसका बुझाना कठिन है तब वह घरको पर्वाह न भी मृतकके समान है। ऐसे भी अनेक अवसर आते हैं करके धनकी रक्षा करता है। इसी तरह कोई आदमी जब मनुष्यको स्वेच्छा संजीवनकात्याग करना पड़ता है। शरीरका नाश नहीं चाहता। परंतु जब उसका नाश युद्ध में आत्मसमर्पण कर देनसे या भाग जानेसे जान निम्भित हो जाता है तब वह उसे तो नष्ट होने देता है बच सकने पर भी सवीरय दोनों काम न करके मर और धर्मकी रक्षा करता है। इसलिये यह पात्मषध जाते हैं। वह चीज़ , जिसके लिये वे जीवन का त्याग करदेते हैं, अवश्य ही जीवन की अपेक्षा बहुमूल्य है। नहीं कहा जा सकता। इसलिये उनका यह काम आत्महत्या नहीं कहलाता। इस पर कहा जा सकता है कि सर्वज्ञके बिना यह बहुत दिनहुए किसी पत्रमें हमने एक कहानी पढ़ी थी, कौन निश्चित कर सकता है कि यह मर ही जायगा, उसका शीर्षक था "पतिहत्या में पातिव्रत्य" । उसका क्योंकि देखा गया है कि जिस जिस रोगीकी अच्छे - अंतिम कथानक यों था-युद्धक्षेत्र में राजा घायल पड़ा प्रच्छ चिकित्सकोंने भाशा छोड़ दी वह भी जी गया था, रानी पास में बैठी थी। यवनसेना उन्हें कैद करनेके । है इसलिये संशयास्पद मृत्युको सल्लेखनाके द्वारा लिये पा रही थी। राजाने बड़े करुणस्वरमें रानीसे निमित मृत्यु बना देना भात्मबध ही है। दूसरी बात कहा“ देवि ! तुम्हें पातिव्रत्यकी कठिन परीक्षा देनी यह है कि चिकित्सासे कुछ समय अधिक जीवनकी पडेगी। रानीके स्वीकार करने पर राजाने कहा कि भाशा है, जबकिसलेखनासेवह पहिले ही मरजायगा। "मेरा जीवित शरीरयवनोंके हाथमें जावे इसके पहिले अतः यहभी पात्मवध कहलाया और सल्लेखना कराने मेरे पेट में कटारी मारदो"। रानी घबराई, किन्तु जब बाले मनुष्यघातक कहलाये। शत्रु बिलकुल पास भागये, वन राजा ने कहा "देवि! निःसन्देह हम लोग सर्वज्ञ नहीं है। परंतु दुनिया परीक्षा दो! सबी पवित्रता बनो!" रानी ने राजाके पेट के सारे काम सर्वज्ञ द्वारा नहीं कराये जा सकते। में कटारी मारदी और उसी कटारीसे अपने जीवनका हम लोग तो भविष्य के एकापणकी भी बात निमित भी अंत कर दिया। यह था 'पविहत्या में पावित्रत्य । दी जान सकते, परंतु काम तो ऐसे भी किये जाते हैं। इस से मालूम होता है ऐसी भी चीज है जिनके लिये Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैरवीर नि०सं० २४१६] जैनधर्म में महिंसा २८१ जीवन का त्याग करना पड़ता है आत्महत्या कायरवा इसके अतिरिक्त और भीबहुत से कारण हो सकते है परन्तु उपर्युक्त घटनाएँ वीरता के जाज्वल्यमान है जैसे परिचर्या न हो सकना मावि; परंतु उपर्वत उदाहरण हैं। इन्ही उदाहरणोके भीतरसमाधिमरएको कारण तो अवश्य होने ही चाहिये । इस कार्य में एक घटनाएँ भी शामिल हैं। बात सब से अधिक मावश्यक है। वह है परिणामोडी हाँ, दुनिया में प्रत्येक सिद्धान्त और प्रत्येक रिवाज निर्मलता, निःस्वार्थता मादि । जिस जीवका प्राणत्याग का दुरुपयोग हो सकता है और होताभीहै । बंगालमें करना है उसीकी भलाईका ही लक्ष्य होना चाहिए। कुछ दिन पहिले 'अंतक्रिया' का बहुत दुरुपयोग होता इससे पाठक समझे होगे कि प्राणत्याग करने और था। अनेक लोग वृद्धा स्त्रीको गंगाके किनारे ले जाते करानेसे ही हिंसा नहीं होती-हिंसा होती है, थे और उससे कहते थे-'हरि बोल'।अगर उसने 'हरि' जब हमारे भाव दुःख देने के होते हैं। मतलब यह कि बोल दिया तो उसे जीते ही गंगा में बहा देते थे। परंतु कोरी द्रव्यहिमा, हिंसा नहीं कहला सकती । साबमें वह हरि नहीं बोलती थी इससे उसे बार बार पानीमें इतना और समझ लेना चाहिए कि कोरा प्राणवियोग डबा सुबा कर निकालते थे और जब तक वह हरि न हिंसा तो क्या, द्रव्यहिंसा भी नहीं कहला सकता। बोले तब तक उसे इसी प्रकार परेशान करत रहते थे प्राणवियोगम्बत द्रव्यहिंसा नहीं है परन्तु वह दु.खरूप जिससे घबरा कर वह 'हरि' बोल दिया करती थी द्रव्यहिंसा का कारण होता है इसलिए व्यहिंसा और वे लोग उसे स्वर्ग पहुंचा देते थे । 'अंतिमक्रिया' कहलाता है। अनंकदेव की निम्नलिम्बित पंनियों से का यह कैसा भयानक दुरुपयोग था । फिर भी भी यह बात ध्वनित होती हैदुरुपयोगके डर से अच्छे कामका त्याग नहीं किया 'म्यान्मतं मारणेभ्योऽयमात्मा मत:माणजाता, किन्तु यथासाध्य दुरुपयोगको रोकने के लिये वियांगेन प्रात्मनःकिञ्चिनयतीन्यामानास्पात कुछ नियम बनाये जाते हैं । अपनं और परके प्राण- इति, तम, किं कारणं? सदरखोत्पादकत्यात त्यागके विषयमें निम्न लिखित नियम उपयोगी है:- प्राणव्यपगपणे हि सनि ससंबंपिनो जीवस्य (१) रोगप्रथवा और कोई आपत्ति असाध्य हो। दःखात्पयते इत्यवसिद्धिः।" . . (२) सबने रोगीके जीवनकी आशा छोड़ दी हो। -तत्वार्थराजबार्तिक । (३) प्राणी स्वयं प्राणत्याग करने को तैयार हो। इनमें बतलाया है कि 'भारमा नो प्राथमि पृथक् है इस (यदि प्राणीकी इच्छा जानने का कोई मार्ग न हो तो लिये प्राणोके वियोग करने परभीमात्माकाकुछ (विगाइ) इस क्रिया कराने वाले को शुद्ध हृदय से विचारना न होनसे अधर्म न होगा, यदि ऐमा कहा जाय तो यह चाहिये कि ऐमी परिस्थिति में यह प्राणी क्या चाह ठीक नहीं हैं। क्योंकि प्राणवियोगहोने पर दुःख होता सकता है।) है इसलिए अधर्म सिख हुमा।' (४) जीवनकी अपेक्षा उसका त्याग ही उसके इससे मालूम हुमा कि द्रव्यहिंसा तो दुःखल्म है। लिये श्रेयस्कर (धर्माविकी रक्षाका कारण) सिद्ध होता प्राणवियोग दुःखका एक बड़ा साधन है इसलिये यह इत्याहिमा कहलाया । यह द्रश्यहिमा भी मावहिसाके Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ५ विना हिंसा नहीं कहला सकती। जो लोग बापल्प के ऊपर भी थोडासा विचार करना है जिसका पालन देख कर ही हिंसा-अहिंसाकी कल्पना कर लेते हैं वे गृहस्थों के द्वारा किया जाता है। भूलते हैं । इस विषयमें भाचार्य अमृतचंद्र की कुछ हिंसाचार प्रकारकी होती है-संकल्पी, पारम्भी, कारिकारें ब्लेखनीय है उद्योगी और विरोधी । विना अपराधके, जान बुझकर, अविषायापि हिहिंसा हिंसाफलभाजनं भवत्येकः। जब किसीजीवके प्राण लिये जाते हैं या उस दुख दिया कस्याप्यपरो हिंसां हिंसाफनभाननं न स्यात् ।। जाता है तो वह मंकल्पी हिंसा कहलाती है, जैसे कसाई एकस्याम्पा हिंसा ददाति काले फलमनम्पम् । पशुवध करता है । माइन-बुहारने में, रोटी बनाने मे, अन्यस्य महाहिंसा खन्पफला भवति परिपाके॥ माने-जाने श्रादि में यत्नाचार रखते हुए भी जो हिंसा कस्यापिदिशति हिंसा हिंसाफलपेकमेव फलकाले होजाती है .वह भारम्भो हिंसा कहलाती है। व्यापार भन्यस्य सैव हिंसा दिशत्यहिंसाफलं विपुलं ॥ आदि कार्य में जो हिंसाहो जाती है उसे उद्योगी हिंसा हिंसाफलमपरस्य तु ददात्यहिंसा तु परिणामे। कहते हैं; जैसे अनाजका ब्यापारी नहीं चाहता कि इतरस्य पुनहिंसा दिशस्यहिंसाफलं नान्यत् ।। अनाज में कीड़े पड़ें और मरें परन्तु प्रयत्न करने पर भवबुध्यहिस्य-सिक-हिंसा-हिंसा फलानि तत्वेन। भी कीड़े पड़ जाते हैं और मर भी जाते हैं । श्रात्मनिस्पषगामानैर्निशक्तप्पा त्यज्यता हिंसा ॥ रक्षा या आत्मीय रक्षा के लिये जो हिंसा की जाती है -पुरुषार्थसिद्धयुपाय। वह विरोधी हिंसा है। 'एक मनुष्य हिंसा (द्रव्यहिंसा) न करके भी हिंसक गृहस्थ स्थावर जीवोंकी हिंसा का त्यागी नहीं है, हो जाता है-अर्थात, हिंसा का फल प्राप्त करता है। सिर्फ त्रस जीवों की हिंसा का त्यागी है। लेकिन त्रस दूसरा मनुष्य हिंसा करके भी हिंसक नहीं होता।। एक जीवों की उपर्यत चार प्रकार की हिंसामेसे बह सिर्फ की थोडीसी हिंसा भी बहुत फल देती है और दूसरेकी संकल्पी हिंसाका त्याग करवाहै।कृषि, युद्धादिमें होने पड़ी भारी हिंसा भी थोड़ा फल देती है। किसी की वाली हिंसासंकल्पी हिंसा नहीं है, इसलिय अहिंसाणुव्रती हिंसा हिंसाका फल देती है और किसीकी अहिंसा ये काम कर सकता है। अहिंसाणुव्रतका निर्दोष पालन हिंसाका फल देती है । हिंस्य (जिसकी हिंसा की जाय) दसरी प्रतिमा में किया जाता है और कृषि भादि का क्या है १ हिंसक कौन है ? हिंसा क्या है? और हिंसा त्याग पाठवीं प्रतिमामें होता है । किसी भी समय जैन काफल क्या है ? इन बातों को अच्छी तरह ममम समाजका प्रत्येक भादमी पाठवी प्रतिमाधारी नहीं हो कर हिंसाका त्याग करना चाहिये ।। सकता । वर्तमान जैनसमाजमें हजार पीछे एक मादमी यहाँ तक सामान्य अहिंसा का विवेचन किया भी मुश्किल से अणुव्रतधारी मिल सकेगा। पाठवीं गया जिसके भीतर महानत भी शामिल है। पाठक प्रविमाधारी तो बहुत ही कम है । जैनियों ने जो कृषि देखेंगे कि इस अहिंसा महानत का स्वरूप भी कितना भादि कार्य बोर रक्खा है वह जैनी होने के कारण व्यापक और म्यवहार्य है। अब हमें चाहिंसा अणुगत नहीं किन्तु व्यापारी होने के कारण छोड़ा है। दक्षिण Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्र, बीर नि०सं०२४५६] जैनधर्म में महिंसा २८३ प्रान्तमें जितने जैनी हैं, उनका बहुभाग कृषिजीवी भरतका वैराग्यमय जीवन प्रसिद्ध है। लेकिन प्राणदण्ड की व्यवस्था इन्हींन निकाली थी। जैनियों के पुराण तो __कुछ लोगों का यह खयाल है कि जैनी हो जाने युद्धोंसे भरे पड़े हैं; और उन युद्धोंमें अच्छे अच्छे अणुसे ही मनुष्य, राष्ट्रके काम की चीज नहीं रहता-यह प्रतियों ने भी भाग लिया है। पापगण में लगाई राष्ट्रका भार बन जाता है। परन्तु यह भूल है। यद्यपि पर जाते हुए क्षत्रियों के वर्णनमें निम्न लिखित लोक इम भूल का बहुत कुछ उत्तरदायित्व वर्तमान जैन- ध्यान देने योग्य हैसमाज पर भी है, परंतु है यह भूल ही । राष्ट्रकी रक्षा सम्यग्दशनसम्मनः शरः कापदणबती। के लिये ऐसा कोई कार्य नहीं है जो जैनी न कर सकता पृष्टतो वीक्ष्यते पायोःपुरसिदशकन्यया॥७३१५८ हो, अथवा उस कार्यके करने से उसके धार्मिक पदमें इसमें लिखा है कि किसी सम्यग्दृष्टि और मणुबाधा आती हो। जैनियोंके पौराणिक चित्र तो इस व्रती मिपाही को पीई में पली और मामले में देवविषय में पाशातीत उदारता का परिचय देते है । युद्ध कन्याएँ देख रही हैं। का काम पुराने समय में क्षत्रिय किया करते थे । प्रजा अगर जैनधर्म बिलकुल वैश्योंकाही धर्म होता तो की रक्षाके लिये अपराधियों को कठोरसे कठोर दंड भी उसके साहित्यमें ऐसे दृश्यन होते। इसलिये यह मच्ची तात्रय देते थे । इन्हीं क्षत्रियों में जैनियोंके प्रायः सभी तरह समझ लेना चाहिये कि अपनी, अपने दुम्बियों महापरुषांका जन्म हुमा है। चोवीस तीर्थ कर, बारह की अपने धन और भाजीविका की रखाके लिये जो चक्रवर्ती, नव नारायण, नव प्रतिनारायण, नवबलभद्र हिमा करनी पड़ती है. वहसंकल्पी हिंसा नहीं है, उसका य ६३शलाका पुरुष क्षत्रिय थे । २४ कामदेव तथा अन्य त्यागी साधारणजैनी तो क्या अणुव्रतीभी नहीं होता। हजारों भादर्श व्यक्ति क्षत्रिय थे । इन मभी को युद्ध इससे माफ मालम होता है कि जैनधर्मकी अहिंसा न और शासनका काम करना पड़ता था। धर्मके सबमे तोमव्यवहार्य है, न संकुचित है, और न ऐहिक उन्नति बड़े प्रचारक तीर्यकर होते हैं । जन्मस ही इनका जीवन का बोधक है। वर्तमान अधिकांश जैनी अपनी साँचे में ढला हुआ होता है । इनका सारा जीवन एक कायग्ना या अकर्मण्यता को छिपाने के लिये बड़ी बड़ी आदर्श जीवन होता है । लेकिन तीर्थंकरोंमें शान्तिनाथ बाने मारा करते है परंतु वास्तवमें अहिंसाके साधारण कुंथुनाथ अरनाथ ने तो आर्यखण्ड नथा पाँच म्लेच्छ, रूपके पालक भी नहीं होतं । हाँ, ढोंग कई गुणा खण्डों की विजय की थी। भगवान नेमिनाथ भी युद्ध दिखलाते हैं। इन्हें देख कर अथवा इनके भाचरण पर में शामिल हुए थे। इस युगके प्रथम चक्रवर्ती सम्राट से जैनधर्मकी अहिंसा नहीं समझी जा सकती। Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ अनेका महाराज खारवेल [ ले० - श्री० बाबु छोटेलालजी जैन, फलकता ] यह बात सत्य है कि जिस जातिका इतिहास नहीं वह जाति प्रायः नहीं के तुल्य समझी जाती है। कुछ समय-पूर्व जैनियोंकी गणना हिन्दुओंमें होती थी, किंतु : जबसे जैनपुरातत्वका विकास हुआ है तबसे संसार हमें एक प्राचीन, स्वतंत्र और उच्च सिद्धान्तानुयायी समझने लगा है। साथ ही, हमारा इतिहास कितना अधिक विस्तीर्ण और गौरवान्वित है यह बात भी दिन-पर-दिन लोकमान्य होती चली जाती है । वह समय अब दूर नहीं है जब यह स्वीकार करना होगा कि 'जैनियों का इतिहास सारे संसार का इतिहास है'। गहरी विचारदृष्टिसे यदि देखा जाय तो यह स्पष्ट हो जाता है कि आज जैन सिद्धान्त सारे विश्वमें अदृश्य रूप से अपना कार्य कर रहे हैं। जैनसमाज अपने इतिहास के अनुसंधान तथा प्रकाशनमें यदि कुछ भी शक्ति व्यय करता तो आज हमारी दशा कुछ और ही होती । इतिहास से यह सिद्ध हो चुका है कि निर्बंध दिगम्बर सत ही मूल धर्म है। यदि हमारे समस्त तीर्थोंका इतिहास प्रकाशिव हो जाता तो आज उन धर्मवर्धक तीर्थों के झगड़ों में समाज की शक्तियों और समय का अपव्यय न 1. होता । सामाजिक और धार्मिक उलझनें इतिहास की सहायता से जल्दी और सुगमता से सुलझ जाती हैं। 'अनेकान्त' की तृतीय किरण में श्रीमुनि पुण्यविजयजीने, अपने लेख में, खारवेलको श्वेताम्बर सिद्ध करने की चेष्टा की है। मैं इस बाससे सहमत नहीं हूँ * अच्छा होता यदि यहाँ 'मूल' की मर्यादा का भी कुछ कर दिया जाता, जिससे पाठकों को उस पर ठीक विचार करनेका अक्सर निवाता । - सम्पादक [वर्ष १, किरण ५ कि यदि कोई खास वाक्य या पाठ श्रीमान् पं० नाथूराम जी प्रेमी और श्रद्धेय पंडित जुगलकिशोरजी मुख्तारकी दृष्टिमें अभी तक नहीं आया हो तो इससे दिगम्बर साहित्य में उसका अभाव मान कर उसे श्वेताम्बर ही मान लिया जाय X x वह पाठ 'श्वेताम्बर हो' है-दिगम्बर नहीं; ऐसा मुनिजी का उनके लेखसे कोई दावा मालूम नहीं होता। वे तो स्पष्ट लिख रहे हैं कि - "दिगम्बर जैनसम्प्रदायके प्रत्थोंमें ' काय मिली. दीयाय यात्रा व केहि अंशके साथ तुलना की जाय एम पाठ हैं या नही यह जब तक मैंने दिगम्बर साहित्य का अध्ययन साहित्यमें मुनि जीके द्वारा इस पाठकी संभावना का कोई निषेध न होने नहीं किया है तब तक मैं नहीं कह सकता हूँ ।" इससे दिगम्बरसे यह प्रपति व्यर्थ जान पड़ती है। इसी तरह खारवेल के श्वेता म्बर होने का भी उनकी तरफ़से कोई दावा नहीं किया गया । उन्होंने तो जो वाक्य उदधृत किया है उसके उस अशा नहीं दिया जिससे खारवेल द्वारा बस्त्रधारी साधुओं का कुछ सत्कारित होना पाया जाता है । और यदि देते भी तो वे उसके द्वारा उससे अधिक और कुछ प्रतिपादन न कर सकते जितना कि उस पाठक पुनराविर्ता महाशय काशीप्रसाद जी जायसवाल ने किया है और जिनका तद्विषयक एक लेख अनेकान्त की ४ थी किरणमें प्रकाशित भी किया जा चुका है। खारबेल महाराजके दिगम्बर होने पर भी उनके द्वारा अपने श्वेताम्बर भाइयों का सत्कारित होना कोई अनोख बात नहीं कहा जा सकता - खासकर उस जमाने में जब कि परस्प मतभेद ने भाज- कज़ जैसा कोई उम्र रूप धारण नहीं किया था और ऐसी हालतमें जब कि खारवेल खुद एक उदार हृदय सम्राट थे, सर्वमतेकि प्रति पावर भाव रखते थे, उन्होंने ब्राह्मणों तकका क किया है और वे अपनी पंतीस लाख प्रजा को मनुः जित (प्रसन रखने का शिलालेखामें ही उल्लेख करते हैं। अतः इस सत्कारमात्रमे, यदि वह पाठके मापन न होने पर ठीक भी हो तो, खारवेलक दिगम्बर होनेमें कोई बाधा नहीं आती, जिसकी किसी को चिन्त करती परे । -सम्पादक Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैत्र, वीर नि०सं०२४५६] महाराज खारवेल २८५ ऐतिहासिक विषयों पर बहुत ही सावधानीसे णमोकार मंत्रानुसार अर्हन्तों और सिद्धोंको नमस्कार विचार कर मत प्रकट करना उचित है और तिस पर किया गया है। महाराज खारवेल के शिलालेख पर तो अभी तक पुरा- सृष्टान्दके पूर्व की शताब्दियों की भारतीय ऐतितत्त्ववेत्ताओं की लेखनी चल ही रही है । हासिक सामग्रियों में यह लेख एक अद्वितीय स्थान इस शिलालेखके अस्तित्व का पता सबसे पहिले रखता है। काल-क्रम से तो भारत कुलपनि सम्राट स्टलिंग साहब को सन् १८२५ में लगा था, तबसे चन्द्रगुप्त मौर्य के पौत्र महाराज पशांककं बादका यही आज तक अनेक पुरातत्त्वान्वेषि-गण इस पर निन- दूसरा शिलालंग्व है। जैन-इतिहासकी दृष्टि में भाज नया प्रकाश डालते आरहे हैं और अभीतक अन्वेषण नक इस रत्नगी भारत वमंघम पर जितने भी लम्ब का अन्त नहीं हुआ है। हाँ, यह बात सिद्ध हो चकी उत्कीर्ण हुए पाये गये हैं उन सब में यही शिलालम्ब है कि महाराज खारवेल जैनधर्मावलंबी थे तथा इस पार्यप्रतिपादकत्व अधिक रखता है। इस नेम्व में यह शिलालेखमें बहुत मी जैनधर्मसंबंधी बातों का उल्लेख है। भी प्रमाणित होता है कि अंतिम तीर्थकर श्री बढ़मान इस विषय में आज मैं कुछ अधिक न लिख कर महावीरस्वामी के निर्वाण से सौ सबासौ वर्ष के बाद कंवल दो एक बातें ही पाठकोंको बताना चाहता हूँ। भी जैनधर्म का प्रकाश कलिंग देश में जोरों के साथ कलिंगदेश (उड़ीसा) में ग्वंडगिरि-उदयगिरि नामक था भोर जनधर्म गजधर्म था। प्रसिद्ध दिगम्बरजैन क्षेत्र भुवनेश्वर स्टेशन में ३ मील महाराज ग्यारवेलनं १५ वर्षको अवस्थामें युवराज पर है। यहाँ अनक गुफायें, शिलालेख और दीवार में पर प्राप्त किया था तथा २४ वर्ष की अवस्था में इनका लगी हुई मूर्तियाँ हैं। यही हाथीगफामें महाराज म्वार- महागज्याभिषेक ( प्राज में २१५२ वर्ष पहिले ) हुमा वंल का वह २१०० वर्ष का प्राचीन प्रसिद्ध शिलालग्य था। ३१ वर्ष की अवस्था में इनका विवाह हुमा था। भी है । जो प्रायः पाँच गज लम्बा और दो गज चौडा इन्होनं मातकर्णी, गष्ट्रिक. भोजक, मूषिक, पांच्या है। इस में १७पंक्तियाँ हैं। प्रत्यक पंक्ति में ५० १०८ यादि गज्यों पर विजय प्राप्त की थी। मगध बीर भानक अक्षर हैं। इसकी भाषा, कुछ स्थलों को छोड़ कर, रतवर्ष (उत्तर भारत)पर इन्होंने अपनी विजय पताका विशेपनः धर्मग्रन्थों में व्यवहत पाली है । इम की लिपि फहराई थी । मर्वविजय के पश्चात् ये अपना समय (अक्षर) स्रष्टाल पूर्व १६० वर्ष की उत्तरीय ब्रानी है। धर्माचरण में बिताने लगे और नमी कुमारी पर्वत ( उ. अनेक अक्षर नष्टप्राय होचकं हैं तो भी अधिक भाग भली भाँति पढा जाता है। प्रथम ही इम में प्रसिद्ध दयगिरि) पर इन्होंने प्रहन्तचैत्यालयों का जीर्णोद्धार कराया था। प्रापकी ऐर, महागज, महामेघवाहन, __* जिम हा तक अकी लेखनी चल रही है उमी रु तक कलिंग-प्रधिपति, धर्मगज, भिक्षुराज, मगज मावि दुसर विद्वानांका असर विचर भी चल रहा है और चलना चाहिये। उपाधियाँ थीं। बाग्वेल की महारानी ने अपने शिलाउमी में पुरातत्याको अनुसथान विशेष करने और अपनी भल की मुधारने तक का असर मिलता है। इसमें प्रापतिकी कोई बात नहीं लेनमें महाराज को 'कलिंग चक्रवर्ती भी लिखा है। और न माने प्रतिकूल विचार को सुनकर प्रवीर होने की ही सनत राज्याभिषेक के १२३ वर्ष में महाराज मारवेल -सम्पादक की वृतीय चढ़ाई मगध पर हुई थी-यहाँ इतनी चतु Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ५ राई से विजय प्राप्त की गई कि खन-खराबी की नौबत इस २१०० वर्ष के प्राचीन जैन शिलालेखसे स्पष्ट ही न पाई । मगधाधिपनि महाराजा नन्द इस विजयमे पता चलता है कि मगधाधिपति पुष्यमित्रके पूर्वाधिकार्ग नीन शताब्दी पूर्व कलिंग विजय कर भगवान श्रीऋप- राजा नन्द श्रीऋषभदेवकी प्रतिमा कलिंगदेशसे मगध भदेव (आदितीर्थकर) की मूर्ति जो कलिंगराजाओं की ले गये थे और वह प्रतिमा खारवेल ने नन्द राजा के कुलक्रमागत बहुमूल्य अस्थावरसम्पनि थी, जय-चिन्ह ३०० वर्ष बाद पुष्यमित्र से प्राप्त की । जब एक पज्य म्वरूप मगध ले गया था। उस मगधाधिपति पुष्यमित्र वन्तु ३०० वर्षों से जिम राज घराने में सावधानी मे ने खारवल का लोटा कर राजी कर दिया। रखी हुई चली आई है, तो अवश्य ही मगधक नन्द ___ यह बात प्रायःसभी विद्वान जानते हैं कि हिन्दुओं राजागण उस पूजते थे । यदि और कोई वस्तु होती के प्राचीन ग्रंथ वेदों में मूर्ति-पूजा का उल्लेग्व नहीं है। तो इननं दीर्घ काल में अवश्य ही किसी न किसी तरह और यह भी सिद्ध है कि बौद्धों के यहाँ पहले मूर्तिपूजा वह विलीन हो जाती है। 'मुद्रागक्षस' में भी यह उल्लेख नहीं थी किंतु वे बुद्धदेव का दाँत या किसी अंगविशेष है कि नन्दराज और उसके मंत्री गक्षसको विश्वास में की अस्थि ही म्वर्ण पात्र में बन्द कर स्तुपों में रख कर फाँसने के लिये एक दूतको क्षपणक बना कर चाणक्य उसकी पूजा किया करते थे । किंतु इस लेख से जब ने भेजा था । कोषप्रन्थों में क्षपणकका अर्थ दिगम्बरआदि तीर्थकर की ऐसी प्रतिमा का उल्लेख मिलता है जैनसाधु है तथा महाभारत में भी 'नग्नक्षपणक' का जो एक राज्य की कुलक्रमागत अस्थावर सम्पत्ति थी व्यवहार हया है। इससे नन्दगजा जैन थे और वह और जो कम से कम अन्तिम तीर्थकर श्रीमहावीर प्रतिमा ( श्रीआदिनाथकी ) भी अवश्य दिगम्बर थी। म्वामीके समय की या उनम भी पहले की निर्मित थी जो लोग यह मानते हैं कि जैनधर्म के आदि प्रवतब एक हद तक इसमें संदेह नहीं रहता कि मूर्तियों तक महावीर म्वामी या श्रीपार्श्वनाथजी थे उनका भी द्वारा मूर्तिमान की उपासना-पूजा का आविष्कार करने ममाधान इस शिलालेख पर में हो जाता है । क्योंकि वाले जैनी ही हैं । यदि ये ही दोनों नीर्थकर जैनधर्म के चलाने वाले होते इस शिलालेखसं यह भी स्पष्ट विदित होता है कि तो उनके समय की या उनमे कुछ ही समय बाद की महाराज म्यारवेल से बहुत पहिले उदयगिरि पर अर्हत- प्रतिमा उन्हींकी होती । परंतु ऐसे प्राचीन शिलालेखमें मंदिर जिनका जीर्णोद्धार खारवेल ने किया था। जब आदि तीर्थकरकी प्रतिमाका स्पष्ट और प्रामाणिक प्रस्तुमंदिरों के विषय में तो इतना ही लिम्बना पर्याप्त उल्लेख इतिहासको साथमें लिय हुए मिलता है तो जैनहोगा कि जैनशाम्बों में समवसरण कीरचनाका जो बहुत धर्मके प्राचीनत्व में संदेह नहीं रहता। विशेषता के साथ वर्णन पाया जाता है उसे देखते हुए, राज्याभिषेकके ९३वर्ष में कलिंग चक्रवर्ती महाराज मंदिरोंमें (क्या हिन्दू और क्या बौद्ध सभीमें) जोगीपुर प्राकारादि बनाये जाते हैं वे ठीक जैनियोंक समवसरण का • वारवेलन"कल्पद्रुममह" किया था जिसमें हाथी, घोड़े, की शैली पर ही जान पड़ते हैं। रथ,मकान,भोजन,वस्त्रादि किमिच्छक दान दिया था। * यह विषय अभी तक विवादग्रस्त है और इस लिये जैसा कि शिलालेखकी निम्न ९वीं.पंक्तिसे प्रकट है :इस पर अधिक स्पट रस में लिखे जाने की जरूरत है। सम्पादक * यह प्रमान कुछ प्रौढ़ मालूम नहीं होता।-सम्पादक Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्र, वीरनि०सं०२५५६]] महाराज खारवेल कल्परुखे हय-गन-रध-सहयंते सवधरावा किमिच्छकेन दानेनं जगदाशापर्य यः। म-परिवसने स-भगिणठिये। सब-गहनं च चक्रिभिः क्रियते सोऽहयज्ञः कल्पमामहः।। २.२८ कारयितं बम्हणानं जाति-पंति परिहारं ददाति । -पं० श्राशाधरकृत, मागारधर्मामन । अमहतो.......न...गिय। कल्पद्रुम मह के सम्बंध में इन सबका तात्पर्य यह है कि-याचक लोगों को 'तुम्हें क्या चाहिये' इस इम पंक्ति मे 'कन्पखें' श्रादिशब्दोंमें जो उल्लेख उल्लख प्रकार पुछ कर उन्हें उनकी इच्छानुमार दान देकर ना हुआ है उसी विषयको अब पाठकों के समक्ष स्पष्ट महोत्सव सम्राट् या चक्रवर्ती करते हैं वह जगत की करने का यत्न किया जाता है। इच्छा पूर्ण करने वाला कल्पद्रम मह कहलाना है। __मर देखनमें जितने भी आचार-शास्त्र या चारित्र इससे पाठकों को मालम होगा कि धर्मगज प्रन्थ आये हैं और जिनमें पूजाभेदों का वर्णन है. उन महागज वाग्वल ने भी जैनशाम्नानुसार श्रावकोचित मभी में इस "कल्पमख" (कल्पवृक्ष) मह का विधान तथा प्रार्यकर्मस्प यह यज्ञ किया था । जैनशानी में ममान मिलता है । नमूने के तौर पर यहाँ इसके दो इस यज्ञ के करनकी आज्ञा व वल सम्राट या चक्रवर्ती नीन उदाहरण ही पर्याप्त होगे को ही दी गई है। और यह बान इतिहाससिद्ध है कि गृहस्थस्येज्या, वार्ता, दत्तिः साध्यायः, महाराज वाग्वल अपने समय के सबसे बड़े शासन का धं । महागज ने जितनी विजय प्रान की थी मंयमः, तप इत्यार्यपट कर्माणि भवंति । नत्राई. (जिसका शिलालेखम पूर्ण उल्लव है ) वह उस समय जंज्या, मा च नित्यमहश्चतुमुखं कल्पवृक्षा- चक्रवोचित थी । इमी लिय महागनी ने भी अपन अष्टानिक ऐन्द्र वन इति । तत्र नित्यमहानित्यं शिलालेख में महागज को "कलिंगचक्रवर्ती" लिखा यथा है। महाराज वाग्वलकेममय भाग्नीय गज्य-मिहासन दिनिवेदनं चत्यचन्यालयं कृत्वा ग्रामनत्रादीनां पर मगधाधिपनि महागज पमित्र शासन कर रहे छ । उम ममय मगधाधिपनिको बिना पगस्त किये कोई शामनदानं मुनिजनपूजनं च भवति । चतुर्मुग्वं भी अपन का चक्रवर्ती घोषित नहीं कर सकता था। मृकुरबदैः क्रियमाणा पजा सैव महामहः सर्वनी- अस्तु; वारवेल नं मगध विजय करके ही चक्रवर्ती पर भद्र इनि । कम्पवृक्षार्थिनः प्रार्थितार्थः संतप्यं च- प्रान किया था। कवनिभिः क्रियमाणामहः । ____ कई विद्वानों का कहना है कि उस समय जैनधर्म विगवा हिन्दोके पन्थ की तरह एक धर्मपंथ होने -वामुगड गायकृन, चारित्रमा । की अपेक्षा पांडित्य की वस्तु होनही विशेष महत्व दत्याकिमिच्छकं दानं सम्राइभियः प्रचन्यनं बता था । इमी लिय म्याग्वेलका महागज्याभिषेक कन्पद्रुपमहः सोऽयं जगदाशापपुरणः ॥२८-३१ वैदिक रीत्यानुमार हुआ था और ग्वारखनन बर्ण-श्रीजिनमनप्रणीत. आदिपगगा। वृक्षादिक रूपमें महादान प्रामगों को दिय थे । किंतु मैं जिन प्राचार-ग्रन्थोंके प्रमाग उपर उद्धन कर पुजा मुकुटबयां क्रियते मा चतुर्मुखः । ___ चुका हूं उनसे पाठक स्पष्ट ममझ गये हांग कि बारचक्रिभिःक्रियमाणा या कम्पबनाइतीरिता॥६-३० बलके नेगचार जनविधि-अनुमार ही थे न कि वैदिक पं० मेधावीकृत, धर्मसंग्रहश्रावकाचार। विधिक अनुमार । उन विद्वानों ने अन्य कई बायो Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कक दास की महासकता. अस शिलालमहाराजकीतियार जानकार २८८ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ५ की तरह इस ९ वी पंक्तिके "कल्परखें' पदका भी हम पाश्चात्य रीत्यानुसार गणना कर उसकी प्रारंभिक उचित अर्थ नहीं किया है। इसीसे वे इस पंक्तिका अवस्था या उत्पत्तिकाल पर पहुँचने का प्रयत्न करेंगे आशय 'स्वर्णकल्पवृक्षादिकं दान का' लगाते हैं; किंतु तो वैदिक कालसे पूर्व नहीं तो बराबर अवश्य पहुँच इसका माशय होना चाहिये-(कल्पद्रुममह की पूर्णता जायँगे। मैं तो कहूँगा कि यह विधान वैदिक कालस के लिये या) कल्पद्रुम यज्ञमें हाथी घोड़े आदि किमि- बहुत पर्व समय का है; कारण हमारे अंतिम 'चक्रवर्ती छक दानका ।* श्रीब्रह्मदत्त' श्रीनेमिनाथजी २२वें तीर्थकरके बाद और खाग्वेलके इस कल्पदममह आदिके उल्लेखसे चार श्रीपार्श्वनाथजी २३वें तीर्थकरके बहुत पहिले हुए हैं। * प्रकार की जैनपूजा पर बहुत ही महत्त्वपूर्ण सामग्री महाराज खारवेल नतन मंदरादिक निमोण की प्राप्त हाताह बार इस पर बहुत कुछ लिखा जा सकता अपेक्षा जीर्णोद्धारमें ही विशेष महत्त्व समझत मत था है। किंतु विषयान्तर हानेके भयमे इस समय मैं पाठकों ___ यह भी इस शिलालेखसे स्पष्ट हो जाता है। क्या में क्षमा चाहता हूँ। हाँ, इनना अवश्य कहूँगा कि हमारे जैनी भाई भी उन महाराज वारवेल का अनइतने प्राचीन काल में भी हमारा पजाविधान जब इतना परिपूर्ण था कि इस २०वीं शताब्दी तक उममें किसी मरण कर इस पवित्र जैन-धर्म की प्राचीन कीत्तियोंकी रक्षा करेंगे? प्रकार का सुधार या विकार नहीं हुआ तब यदि इस शिलालेखमें और भी जैनधर्म-संबंधी अनेक मा भाशय क्यों होना चाहिये. और दूसरे विद्वानों का बढ़ बातें हैं, जिनका दिग्दर्शन पाठकों को फिर किसी समय भाशय अथवा प्रर्थ उचित क्यों नहीं। इंम बतलाने की लेखक कगया जायगा। महाशयंने कोई कृपा नहीं की: मालमन प्रापका यह कथन किस भाधार पर अवलम्बित है। मूलमें कम्पहने' पदक साथ 'मह' । ब्रह्मदन के इस होने में लेखक महाशय जो नतीजा निकाशन का कोई प्रयोग नहीं है, न किमिन्छक दान का ही पक्ति भर लना चाहते हैं वह यदि किसी तरह निकाला भी जा सके तो उस में की उदेख है, लग्वकी भाषा में द्वितीयाक बबन का रूप भी वक्त तक नही निकाला जा सकता जब तक कि अधिक प्राचीन सा'कन्पव' बनता है जिमका मस्कृत रूप 'कल्पवतान' होता है मौर हित्य पर में यह सिद्ध न कर दिया जाय कि ब्रह्मदत्तने भी 'कल्पद्म मह' नाम का वेमा पूजाविधान किया था। अधिक प्राचीन साहित्य बह सायं यथा परिषसने जैम दसरब वचनान्त द्वितीयाक निश्चित रूपोंक साथ समानता रखता है, उसके पहले ८ वी पक्तिक की बात तो दूर, १०वीं शताफीके विद्वान् गुगभद्राचार्यके उत्तरपुराण अन्त में 'पलबभरे विशेषणा भी उसके बबचनांत द्वितीयाका रूप में भी उसका कोई उ.म्वनीं है। अधिक प्राचीन साहित्य में तो इन होमिको ही सुचित करता है-मसमीके एकवचनका रूप नहीं । इसक चर या पांच प्रकार के प्रजाभेदों का भी कुछ उलेख नहीं मिलता, सिवाय हिन्द मन्थों में ब्राह्मणोंको कल्पवत बनाकर दान देनेका विधन मौर शायद यही वजह हो जा लेखक महाशय जिनसेनक मादिपुराण पाया जाता है, और इस पक्तिमें ब्राह्मणों को लेकर वीं शताब्दी) से पहलेका कोई प्रमाया कल्पगुममहके स्वस्पादि उंस हैं, जबकि कन्याममहमें ब्राह्मणों काहीदान दिय जान सम्बन्ध में अन्धित नहीं कर सके हैं। यदि यह कहा जाय कि चकी कोई खसियतनी हो सकती थी। ऐसी हालतमें अपने प्रर्य कवी तो सभी नियमम कल्पद्रममह किया करते हैं, तब या तो की यथार्थतास कोई प्राधार-प्रमाण न बतलाते हुए दमोंक अर्थ यह करना होगा कि वारंवल ब्रह्मदत्त या भात की कोटिका चक्रवर्ती को बिना किसी युक्ति मनुचित ठाना मझे तो कह सक्ति प्रतीत न होने में कल्पाममहका अधिकारी नहीं था और या खारवेल की मी होता। -सम्पादक कोटि के चन्द्रगुप्त, प्रशोक और प्रकार में सत्राटोंकी बाबत भी + तबसे प्रब तक "उसमें किसी प्रकार का सधार या विकर यह बतलाना होगा कि उन्होंने भी 'कल्पममह' किया है, जो इतिनदीमा" यहना निःसन्देह एकपोती सासरा हाससे सिख नहीं है। दोनों ही तरहसे कुछ बात ठीक नहीं बनेगी। जेवणात्य को देखते हुए. मुझे तो यह पनपत ही मापत्तिके प्रतः जिस आधार पर उकमतीजा निकालने का प्रयन किया गया बोल्व जान पाता है। -सम्पादक बल समुचित प्रतीत नहीं होता। -सम्पादक Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्र, वीर निःसं०२४५६] राजा खारवेल और उसका वंश राजा खारवेल और उसका वंश [लेखक-श्री० बाब कामताप्रसादजी ] - 'अनेकान्त' की ४ थी किरणमें ( पृष्ठ २२६-२२९) चकी हैं; जैसे कि शिखिरजी केसके 'जजमेन्ट से प्रकट उक्त शीर्षकके नीचेमुनि कल्याणविजयजी (श्वे०) है । अतएव उक्त थेरावलीके परिचयको बिलकुल गुन ने राजा खारवेलके वंशका कुछ परिचय कराया है। रखते हुए उसकी कुछ बातोंको बिना कोई विशेषशोधउसमें मान्य लेखकने हाथीगुफाके लेखमें आये हुए परिशोध किये ही एक दम प्रकट कर देना कुछ ठीक 'चेतवसवधनस' (अब इस वाक्य को मि० जाय- नहीं जंचता । वह थेरावली किस प्राचार्य ने किस सवाल ने 'चतिराजवसवधनेन' पढ़ा है और उन्हें जमानेमें, लिखी, उसकी प्रतियाँ कहाँ कहाँ किस रूपमें 'चेति' अथवा 'चेदि' वंशज बताया है ) वाक्य से जो मिलती हैं और प्रन्थकं जाली न होनमें कोई संदेह तो विद्वान उन्हें 'चैत्र' अथवा 'चेदि'वंशज बतलाते हैं, उनसे नहीं, ये सब बातें जब तक प्रकट न हों तब तक इस अहसमतता प्रकट की है, क्योंकि मनिजी को कहीं थरावली पर विश्वास किया जाना कठिन है। निम्न बातों म एक 'हिमवंत-थरावली' नामक श्वेताम्बर पटावली को देखते हुये तो यह थेरावली जाली प्रतीत होती है मिल गई है और उस में राजा खारवेल को लिमिळ अथवा उस पर जाली होने का बहुत बड़ा संदेह पैदा विसंघके राष्ट्रपति राजा चेटकका वंशज प्रगट किया होता है.है ! इस थेरावलीकी प्रामाणिकता और प्राचीनता (१) थरावलीमें गजा चंटककं वशका जो परिच. विषय में न तो मी न य दिया है वह अन्यत्र कहीं नहीं मिलता। कमसे कम मंपादक महोदयने ही कुछ छानबीन की है। इस साहि- दि दिगम्बर जैनशाकों में उमका उल्लेख नहीं है और. यिक डाकेजनीके जमानमें इस प्रकार एक शिलालेग्यकी जहाँ तक मुझे श्वेताम्बर शास्त्रोका परिचय है मैं कहने सब बातोंसे मेल खानवाल साहित्यका यकायक निकल - Thes (Fernmens) will uppear to be पाना, कुछ आश्चर्यकी बात नहीं है । सी भी उस दशा uatlabi ou the fuce of then and ti) have म जब कि श्वेताम्बर और दिगम्बर संप्रदायों में पवित्र been gotup for the purpose of disputes नार्थोके नाम पर झगड़े चल रहे हैं और श्वेताम्बर म P. H. Juig. P 32 प्रदायकी ओरसे पहले भी जाली दस्तावेजें पंशकी जा एक विद्वानका जा बाते जिस रूपमें कहीं से प्रामक . उसस्प विशेष अनुसंधानको उत्तेजन दनक लिय प्रकट कर देना * बानगीन चल रही है। नतीजा निकलने पर प्रकट किया ते कुछ मापत्ति के योभ्य मालूम नहीं होता। विशेष जांच-पाताल जायगा । अभी तक मूल अन्य या उसका अनुवाद भी प्राप्त न अधिक समय तथा साधन-सामग्रीकी अपेक्षा रखती है और यह प्रायः को सका। बादको भनेक ठिानेकि योगसेहो पाती है। -सम्पादक ------- - - - - - ---- ----------....---- समापन समा प न Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ५ को बाध्य हूँ कि उनमें भी ऐसा वर्णन शायद ही देशमें तब साम्राज्यवाद के स्थान पर एक प्रकार का मिले। प्रजातंत्रवाद प्रचलित था । चेटक उस राष्ट्र के राष्ट्रपति (२) थरावली का जो अंश प्रकट हुआ है उस से नियुक्त थे३ । अतः यह हार उनकी निजी न होकर मालूम होता है कि उममें तत्कालीन भारतके अन्य गष्ट की थी और राष्ट्र का प्रत्येक प्रतिनिधि तब 'राजा' राज्यों का भी पूर्ण वर्णन होगा । यदि यह बात है, तो कहलाता था, यह बात भी स्पष्ट है । इस हालत में बिना किसी अधिक विलम्बके उक्त थेरावलीको पूर्णतः चेटक के पुत्र का भाग कर कलिंग पहुँचना और वहाँ प्रकट करना चाहिये । फिर भी जो अंश प्रकट हुआ है पर नया राज्य और वंश स्थापित करना बाधित है । उसका सामजस्य केवल जैनशास्त्रों से ही ठीक नहीं श्वेताम्बरीय शास्त्र निर्यावली' और 'भगवती सूत्र' में बैठता, बल्कि जैनेनर साहित्यसे भी वह बाधित है; अजातशत्र और चेटक की उक्त लड़ाई का वर्णन है । जैसा कि भागे चल कर प्रकट होगा । और यदि उसमें उसमें साफ लिखा है कि 'चटकन इस आपत्ति को उक्त राजवंशके वर्णनके अतिरिक्त अन्य किसी राजवंश आया जान कर नौ मल्लिक, नी लिच्छिवि और ४८ का वर्णन नहीं है, तो उस सहसा म्वीकार कर लेना काशी-कौशल के गणराजों (गणरायालो) को तैयार सुगम नहीं है। किया। ४ इससे स्पष्ट है कि इन गणराजों का नेतृत्व - " (३) राजा चेटकके नामकी अपेक्षा किसी 'चेट' राजा चेटक ग्रहण किये हुए थे। वंशका मस्तित्व इससे पहले के किसी माहित्यप्रंथ या (४) चेटक का लिच्छिवि वंश पहले से ही बहुत शिलालेखसे प्रगट नहीं है। और चेटकका वंश लिच्छिवि' प्रख्यात था और उस समय अन्य क्षत्रिय लोग उनसे प्रसिद्धमा जो उत्तर भारतमेंगा काल तक विद्यमान रहा, विवाहसम्बन्ध करनेमें अपना अहोभाग्य समझते थे। यह बात निर्विवाद सिद्ध है। गमवंशीय चन्द्रगत प्रथमका इस दशामें यदि शोभनराय भाग कर कलिंगगया होता विवाह लिच्छिवि वंशीय कुमारदेवीमे हुआ था ।को- तो उसने अपने इम सर्वमान्य वंश का नाम कदापि न टिल्यने सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के जमाने तक लिच्छिवि पलटा होता और उसे अपनं उस पिताके नाममें परिववंशनोंको उत्तरभारममें राज्याधिकारी लिखा है और र्तित न किया होता जो कोई बहादुर्गन दिखा कर इतिहाससे यह पता चलता है कि अजातशत्रके द्वारा उलटा मगध राजके हाथ अपना राज्य गैंग बैठा था। परास्त किये जाने पर भी लिच्छिवि अपने राज-संघके (५) दिगम्बर जैनशान 'उत्तरपुराण' में राजा चेअस्तित्व को बनाये रख सके थे । इसके साथ ही, टककं दस पुत्र बतलाये हैं और उनके नाम ये दिये इतिहास और स्वयं श्वेताम्बर-अन्यों से यह सिद्ध है हैं-धनदत्त, धनभद्र, उपेन्द्र, सुदत्त वाक्, सिंहभद्र, कि चेटक कोई परम्परागत राजा नहीं था । विदेह सुकुंभोज, अकंपन, सुपतंग, प्रभंजन और प्रभास (पृ० ६३४ ) । इनमें शोभनराय नामका कोई पुत्र नहीं है। १.भारतके प्राचीन राजश, भा॰ २, पृ०२४२ १. लिमिक्किाकिरदवाकरकरुपाबालाइयो राजशमी- ३. समक्षनी लेन्स इन एन्शियेन्ट इण्डिया, पृ.१३५-१३६ पजीविनः सवाः । -पति टिल्यः । ४. भारती । विडयन ऐन्टीक्वरी भा.११,पृ.२१ ३.सम वतीन्सन ऐन्सियन्ट इणिया, पृ.१३५-३६ ५. भगवान महावीर पृ. ५७ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्र, वीर नि०सं०२४५६] राजा खारवेल और उसका वंश (६) दिगम्बर जैनप्रन्थ 'हरिवंशपुराण' से प्रकट है परास्त किया लिखा है । इस वृहस्पतिमित्रको ही मि० कि भगवान महावीर के समयमें कलिंगका राजा जित- जायसवाल पुष्यमित्र मानते हैं । थेरावलीमें स्पष्टतः शत्रु था -सुलोचन नहीं था । अतः अन्य श्वेताम्बर पुष्यमित्रका नामोल्लेख कर दिया गया है। किन्तु अब और जैनेतर साहित्यसे इस 'सुलोचन'का अस्तित्व जब विद्वान वृहस्पतिमित्रको पुष्यमित्र मान के लिये तैयार नक प्रमाणित न हो जाय, तब तक उसको तत्कालीन नहीं हैं । इसी प्रकार दृष्टिबाद अंगके पुनरुत्थान कलिंगाधिपति स्वीकार करना कठिन है। किये जाने की बात भी अब असंगत है; क्योंकि कोई __ (७) उपर्युक्त प्रकारसे इस थेरावलीक प्रकट अंश कोई विद्वान उसे विपाकसत्र प्रन्थ बतलाते हैं, जो के प्रारंभिक भागकी अनैतिहासिकता को देखते हुए, दिगम्बरमतानसार विलुप्त है और श्वेताम्बरों में उममें क्षेमराज, बट्टराज, कुमारीगिरि आदि ऐतिहासिक मिलता है ।१० पुरुषों नथा वार्ताका उल्लेख मिलना, उसके संदिग्ध रूप (८) थेगवली-द्वारा प्रकट किया गया है कि कुमाका असंदिग्ध नहीं बना देता । क्या यह संभव नहीं है. रगिरि पर वारवेल ने प्रार्य सुस्थिन और सुप्रतिबुद्ध कि खारवेल के अति प्राचीन शिलालेखको श्वेताम्बर नामक स्थविरों के हाथ से जिनमन्दिर का पुनरुद्धार माहित्यस पोपण दिला कर उसे श्वेताम्बरीय प्रकट कराके प्रतिष्ठा कराई और उसमें जिनकी मूर्ति स्थापित करने के लिये ही किसी ने इस थेरावलीकी रचना कर कराई । माथ ही, वीरनिर्वाणसे ३३८ वर्षों के बाद ये डाली हो और वही रचना किमी शाखभण्डार से उक्त मब कार्य करके खारवेलको म्वर्गवामी हुआ लिम्बा है। मुनिजीको मिल गई हो ? * इस बातको मंभवनीय किन्तु श्वेताम्बरीय तपागच्छ की 'वृद्ध पट्टावली' में हम इस कारण और मानते हैं कि इसमें शिलालेख यह बात बाधिन है । उसके अनुसार उक्त स्थविर-द्वय के पिछले रूपके अनसार कई उल्लेख हैं, परंतु अब का ममय वीरनिर्वाण में २७२ वर्ष बादका है । इम विद्वानोंने उन अंशोंको दसरं रूपमें पढ़ा हैxमकि हालनमें ग्यारवेलका उनमें मानात हाना कठिन है। थरावली में 'खारवेलाधिपति' नाम मात्र एक उपाधि अतः हा मकना है कि यह बान मात्र इस ग़र्जम लिखी गई हो कि उक्त नीर्थको किमी ममय श्वेताम्बगेका रूपमें है, परंतु अब वह खास नाम प्रकट हुआ है। मिद्ध किया जा मके। शिनालखमें बारवेल ने एक वृहस्पनिमित्र गजा को = hd p.442. है.भ. महावीर और म. बुद्ध, पृ. ४१ # Indian Historical Quini terly Vol * मुनि जी को अभी तक मूल ग्रन्यकी प्रानि न हुई। उनि PP 587-613 सक गुजराती मनुवाद पर मे ही वालेख लिखा है, जिसकी मृच- १०. IInd p. 592. ना लखक मन्तिा फटनोट में पाई जाती है. मोर प्रपन १६ ११नस पियकाधक, भाग १, परिगट . की के पत्र में वे मुझे भी लिम्व रह हैं । वह अनुवाद मिचलगच्छ- x भले ही कटिन जान पहे, किन्तु अपमत्र नहीं है, क्योंकि नी म्होटी पट्टावली' में छपा है -सम्पादक उक्त ३७२ का मुनय मस्थित सरिक स्वर्गारोहण का समय है। x उनका वह हालका पढ़ना ही ठीक है यह अभी मे मान उसमे ५०-६० वर्ष पहल उनका मौजूद होना कोई प्रावकी बात लिया जाय ! -सम्पादक ना है । अंक गुरु मस्ती की भायु ता पहावनी में ही ... 9. JBORS. IN 134. की लिखी है। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० अनकान्त [वर्ष १, किरण ५ (९) इसी प्रकार खारवेल-द्वारा एकत्र की गई टनाके कई शताब्दी बाद हुए हैं और श्यामाचार्य उन सभामें देवाचार्य, बुद्धिलिंगाचार्य, धर्मसेनाचार्य तया से भी पीछेके आचार्य मालूम होते हैं । अतः थेरावली नक्षत्राचार्यका सम्मिलित होना भी असंभव है; क्योंकि का यह वक्तव्य प्रामाणिक नहीं है। ये प्राचार्य कोई श्वेताम्बराचार्य तीर्थ नहीं-श्वेपट्टा- इन सब बातोंको देखते हुए 'हिमवंत-थेरावली'को वलीमें तो ये नाम देखनको भी नहीं मिलता हाँ, दिगम्बर एक प्रामाणिक ग्रन्थ मान लेना सत्यका खून करना है पट्टावलीमें ये नाम अवश्य पाये जाते हैं। किन्तु यहाँ और इम हालतमें उसमें बताया हुआ खारवेलका वंशये सब प्राचार्य समकालीन प्रकट नहीं किये गये हैं। परिचय भी ठीक नहीं माना जा सकता। अतः आइए इनका समय एक दृमग्मे नितान्त भिन्न है। धर्मसना- पाठकगण, अब स्वाधीनरूपमें * खारवेल सिरिके वंश चार्य वोर नि०म०३२५ और नक्षत्राचार्य ३४५ में ये का परिचय प्राप्त करें। बतलाये गये हैं।२ | अतः उक्त थेरावलीके अनमारदिग- सबसे पहले हाथीगुफा वाले उनके शिलालेखको म्बराचार्य धर्मसनाचार्य ही केवल उस सभामें उपस्थिन लीजिए। उसमें साफ तौरसे उन्हें 'ऐरेन महागहुए कहे जा सकते हैं । इन सब प्राचार्योको थेरा- जन महापेघवाहनेन चेतिराजवसवधनेना .. .. वली भी दिगम्बर (जिनकल्पी) प्रकट करती है। रही कलि ( 5 ) ग अधिपतिना सिरि खारवेलेन' बात सवा साधनोंकी, सी थरावलिमें ये मुस्थित, सु- लिखा है। इसमें प्रयक्त हुए ऐरेन' शब्द का भाव प्रतिबुद्ध, उमास्वाति व श्यामाचार्य प्रभृति बताए हैं। लवंशज के रूपमें और 'पर' (आर्य ) रूपमें भी इनमें से पहले दो इस सभामें शामिल नहीं हो सकतं, लिया जाता है।३। इनका ऐन-वंशज होना न केवल यह हम देख चुके (!) । रहे शेप दो, सो ये भी उक्त डिट पराणों में ही सिद्ध है; बल्कि दिगम्बरजैन हरिसभामें नहीं पहुँच सकते, क्योंकि उमास्वाति इस घ-जगणक कथनस भी प्रमाणित है।४ । हिन्दू पुराणों १२ Indian Antiquary Xx, pp.3.15.346. के अनमार ई०प० २१३ के वाद जिन राजवंशीका व_* यह सब निर्णय ठीक नहीं है। क्योंकि इन माचाएक दश- णन है, उनमेंम एकका वर्णन निम्न प्रकार है१५:पूर्वदिके पाठी होने का समय भिन्न होने पर भी इनका समकालीन (१) यह कौशल (दक्षिण कौशल) का राजवंश था। होना कोई बाधक मालूम नही होता---यह नहीं कहा जा सकता कि 1२) यह साधारणतः 'मेघ' ( Meghas) मेघा इति उक ज्ञानको प्राप्तिमे पहले व मुनिया माचार्य,दि कुछ नहीं थे । बुद्धिलिंगको दशपूर्व ज्ञानकी प्राप्ति वीरनिवं गाम २६५ वर्ष बाद , ई मौर ममाख्याताः ) नाममं विख्यात था। २० तक रही बतलाई गई है। उनके बाद दवचार्यको यह सिद्धि (३) यह विशेष शक्तिवाला और विद्वान था, और ईमौर खारवेलकी राज्यपानि शवलिकरने वीरनिगमे ३.. . बधीन' शब्दका प्रयोग बड़ाही . जान पड़ता है। वर्ष बाद लिजी है । इसमे खारवेलकी सभा में इन दोनों प्राचार्टीकी जिस परिचय के लिये लेखक महाशय युद्ध शिलालेख के माधुनिक अस्थिति पावन होसकती और नक्षत्राचार्य भी एकादशांग-झान रोहिंग, उसके मों, पुरागों मोर दूसरे विद्वानोंके वचनेका सहारा की प्रासिसे पहले उस सभामें सम्मिलित हो सकते हैं। लेखक महाशय ले रहे है उसे पाठकोंको म्वाधीनरूपमें प्राप्त कराना चाहते हैं यह एक ने यही बिना मही तरहसे विचार किये,उनके समयको नितान्त भिम बड़ी ही विचित्र बात है। -सम्पादक पतलाते हए. के सम्मिलित होने की प्रमुभव ठराया है." १३JBORS. IT. 1434-4:35. १४ Ibid. -सम्पादक XIII 277-279 १५lbid. IV. 480-132. (२) यह विशेष शनि याबलिकरा .यह सिद्धि वर्ष बाद लिखीम Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्र, वीरनि०सं०२५५६] राजा खारवेल और उसका वंश ३०१ (४) इसके कुल नौ राजा थे। नामक नगरी भी स्थापित करनेमें सफल हुमा । ऐलेय इस वंशका मेघ नाम खारवेलकी 'मेघवाहन'उपा- एक राजा बन गया और फिर वह दिग्विजयको निकधिका द्योतक है, यह मिजायसवाल प्रकट करते हैं। ला । इस दिग्विजयमें ऐलेय ने नर्मदा तट पर माहिइसका समर्थन एक प्राचीन उड़िया काव्यसे होता है, मतीनमरी की नींव डाली । अन्तको वह दिगम्बर जो 'इंडियनम्यजियम' में मौजद है। उसमें लिखा है मुनि हो गया और उसका पुत्र कुणिम राजा हुआ । कि 'कलिङ्ग का मगधके नंद राजाओं ने जीत लिया कुणिमने विदर्भदेशमें कुन्डिनपुर को बसाया । यह भी था; किन्तु बादको ऐर राजाने नंद राजाको हरा कर मुनि हो गया और इसके बाद पुलोम राजा हुमा, उसका उद्धार किया। यह नन्द कट्टर वैदिक धर्माव- जिसने पौलोम नगर बसाया। इसके उत्तराधिकारी लम्बी था, किन्तु ऐर पाखण्डी था । ऐरका विरोध इनके दो पुत्र-पुलोम और चरम हुये जिन्होंने इन्द्रपुर अशोकसे भी विशेष था । पहले ऐर की राजधानी की नींव डाली । इनकी सन्तानमें बहुत राजामों के दक्षिण कौशल की कौशला नगरी थी, बादको उन्होंने बाद जिनके नाम गिनाना फिजूल है, एक राजा ममिअपनी राजधानी खण्डगिरि पर बनाई है। इस उल्लेख चन्द्र हुआ । इसनं विन्ध्याचल पर्वतके पृष्ठ भाग में से भी खारवेल के पर्वजोंका दक्षिण कौशल से आना चेदिराष्ट्र की स्थापना की । इसकी रानी उप्रवंशी वसुमिद्ध होता है । और यह बात हिन्दू पराणोंक उपर्यक्त मती नामक थी। उल्लेख के अनुकूल है । इसके अतिरिक्त ऐर अर्थको पुष्ट (हरिवंशपुराण, मर्ग १, मांक १-३९) करने वाला कोई उल्लेख नहीं मिलता । हाँ, जैन हरिवं इम कथन से राजा. वारवेलके वंशका ठीक परिचय मिलता है और इसके अनमार उनकी 'ऐर' शपुराणसे उत्तर कौशलके हरिवंशीय गजा दक्षके उपाधिका अर्थ 'ऐलवंशज' होना ठीक है । सथापि' द्वारा खारवेलका ऐलवंशज होना प्रकट है और यह भी ऐलवंशज अभिचन्द्रन ही 'चेदिराष्ट्र' की स्थापना की, प्रकट है कि वह उनके राज उत्तरम पाकर दक्षिणकी इम लिये खारवेलका“चेतिराजवमवधेन" होना ठीकही ओर विन्ध्याचल पर्वतके पृष्ठ भागमें चेदिगष्ट बना कर है क्योंकि उनके पूर्वज विन्ध्याचल पर्वतके निकटवर्ती वहाँ शासन करने लगे थे। वह कथा इस प्रकार है:'हरिवंशीय राजा दक्षका एक ऐलेय नामका पुत्र महाकौशलसे पाये थे, औग्वेचेदिराष्ट्र के उत्तराधिकारी थे। मतः 'हिमवंत-थेगवली' के अनुसार राजा खारऔर मनोहरी नामकी सुंदर कन्या थी। दक्ष मनोहरी वेल का जो वंश परिचय उपस्थिति किया गया है, वह पर आसक्त हो गया और उम नीचने उम अपनी पत्नी ठीक नहीं है। उसके स्थान पर उक्त प्रकार से जो बना लिया। इस कारण रानी इशा अपने पतिम दिगम्बर जैनपुराण, हिन्दू-पराण, और स्वयं खारवेल इस दुष्कर्मके कारण रुष्ट होगई और अपने पुत्र एलेय शिलालेखके अनमार वंश वर्णन किया गया है वह को लेकर दूसरे देशको चली गई । ऐलेय दुर्गे देश में विशेष प्रामाणिक है अर्थात् उत्तर कौशलके राजपुत्र पहुँचा और वहाँ उसने 'इलावर्द्धन' नामक नगर स्था- ऐलेय हरिवन्शीकीसन्तानचेदि कुलकीजओथी, और जो पित किया। इसके बाद वह वादेश में ताम्रलिति विन्याचलके पास दक्षिण कौशल में भारही थी, उसी * Ibid. V. 480-482.. के वंशज बारवंल थे। ना० १०-३-१९३० Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नोट भनेकान्त [वर्ष १, किरण ५ 'ऐलेय' नामके आधार पर खारोलके वंशकी कल्पना कर डाली है वह मुनिसुव्रत भगवानके तीर्थकी और इस लेखकी विचारसरणी, यद्यपि, बहुत कुछ इस लिये आजसे ग्यारह लाख वर्षसे भी अधिक पहल स्खलित जान पड़ती है,सत्यकी अपेक्षा साम्प्रदायिकता की पुगनी बतलाई जाती है । ऐलेय' राजा मुनिसुव्रत की रक्षाकी भोर वह अधिक झकी हुई है और इसीसे भगवानका प्रपौत्र था और इस लिये हरिवंशी था। इसमें कितनी ही विवादस्थ अनिर्णीत बातों अथवा उसकी वंशपरम्परा में जितने भी राजाओंका उल्लेख दूसरे विद्वानों के कथनों को, जिन्हें अपने अनुकूल मिलता है उन सबको हरिवंशी लिखा है-ऐलवंशा समझा, यों ही विना उनकी खली जॉच किये-एक या ऐलेयवंशी किसीको भी नहीं लिखा और न इस पटल सत्य के तौर पर मान लिया गया है, और जिन्हें नामके वंशका शाखोंमें कोई उल्लेख ही मिलता है। प्रतिकूल समझा उन्हें या तो पूर्णतया छोड़ दिया गया ऐसी हालतमें महज शब्दछलको लिये हुए लेखक, है ओर या उनके उतने अंश से ही उपेक्षा धारण की महाशयकी यह कल्पना एक बड़ी ही विचत्र मालूम गई है जो अपने विरुद्ध पड़ता था। और इसका कुछ होती है, जिसका कहींसे भी कोई समर्थन नहीं होता। भाभास पाठकोंको सम्पादकीय फटनोटोंसे भी मिल जब तक आप प्राचीन साहित्य पर से स्पष्ट रूप में यह सकेगा । फिर भी इस लेख परसे उक्त 'थेराबली' की सिद्ध न करदें कि 'ऐल' वंश भी कोई वंश था और स्थिति संदिग्ध पार हो जाती है-भले ही उसे अभी राजा खारोल उसी वंश में हुआ है तब तक आपकी जालीन कहा जा सके और इस बातकी खास जरू- इस कल्पना का कुछ भी मूल्य मालूम नहीं होता । यह रत जान पड़ती है कि उसे जितना भी शीघ्र हो सके भी सोचने की बात है कि खारवेल यदि ऐलेयकी वंश पूर्ण परिचपके साथ प्रकाशमें लाया जाय । चोर इस परम्परा में होने वाला हरिवंशी होता तो वह अपने लिपे मुनिजी जैसे इतिहासप्रिय विद्वानोंको उसके लिये को ऐलवंशी कहने की अपेक्षा हरिवंशी कहने में ही खास तौर से प्रयत्न करना चाहिये। उसके प्रकाश में अधिक गौरव मानता, जिस वंशमें मुनिसुव्रत और बाने पर ही उसके सब गुण-दोष खुल सकेंगे और नेमिनाथ जैसे तीर्थंकरोंका होना प्रसिद्ध है । और यह भी मालूम हो सकेगा कि वह असली चीज है या यदि ऐलेय' राजाके बाद बंशका नाम बदल गया माली और जाली । भीयुत वा० काशीप्रसादजी जाय- होता तो नेमिनाथ भी ऐलवंशी कहलाते परन्तु ऐसा संबाल भी यथार्थ निर्णयके लिये उसकी मूल प्रतिको नहीं है--स्वामी समन्तभद्र जैसे प्राचीन भाचार्य भी जल्दी देखना चाहते हैं । इस विषयमें एक पत्र उनका 'हरिशकेतुरनपथपिनयहमतीयनायकः '. मुनिजीके नाम भी पाया था जो उन्हें मिजवा दिया सभस्तो) जैसे विशेषणोंके द्वारा उन्हें हरिवंशी गया है। ही प्रकट कर रहे हैं। मतः लेखककी उक कल्पना इसके सिवाक, मैं अपने पाठकों को इतना और निर्मल जान पाती है। -सम्पादक पवला देना चाहता कि इस लेखके अंत में लेखक महाराने हरिवंशपरायची जिस कथामें प्रवृहए - Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्र, बीरनि० सं० २४५६] थेरावली - विषयक विशेष नोट युवकों से युवकों से [ लेखक - श्री० कल्याणकुमार जैन 'शशि' ] पिछले नोटको प्रेस में देने और उसके कम्पोज हो जाने के बाद हिमवंत थेरावली के गुजराती अनुवादको अंचलछकी पट्टावली में प्रकाशित करने वाले पं० हीरालाल हंसराजजी जामनगर वालोंकी ओरसे प्राप्त हुए उत्तर पत्र से मालूम हुआ कि हिमवन्तसूरि-कृत मूल थेरावली भी अब भाषान्तर सहित छप रही है। इससे उसके शीघ्र प्रकट हो जाने की आशा है। साथ ही, श्वेताम्बर - माज के प्रसिद्ध विद्वान् श्रीमान् पं० सुखलालजीसे, जो २ समय हुआ अति सोते सोते, ३ श्राओ, करुणा-हम्त बढ़ाओ, पतितों- दलितों को अपनाओ, सब समान हैं गले लगाओ, तज अनुदार विचार ' ४ 16 पहिन भीरूपन का जो बाना, हुए हैं किये बहाना न छोड़ना उन्हें उठाना, करके पाद प्रहार ! पड़े अब इस समय आश्रममें तशरीफ़ रखते हैं, मालूम हुआ कि उन्होंने संदेह होने पर थेरावलीके अनुवादक उक्त पं० हीरालाल हंसराजजीसे ग्रंथकी मूल प्राचीन प्रतिकी बाबत दर्यात किया था और यह भी पूछा था कि अनुवादके साथमें कुछ गाथाएँ देकर जो व्याख्या की गई है वह व्याख्या उनकी निजी है या किसी टीकाका अनुवाद है । उत्तरमें उनके यह लिखने पर कि वह व्याख्या टीकाका ही अनुवाद है और मूलप्रति कच्छ के श्रंचलगच्छीय धर्मसागरजीके भंडारमें मौजूद है, जां नागौर या बीकानेर से वहाँ पहुँची है, उस भंडारसे उसकी प्राप्तिके लिये कोशिश की गई । परंतु अनेक मार्गों से छह सात महीने तक बराबर प्रयत्न करने पर भी वह मूल प्रति अभी तक देखने को नहीं मिल inst और न यही मालूम हो सका कि वह प्रति वहाँ मौजूद भी है या कि नहीं। अन्यत्र भी तलाश जारी है। ऐसी हालत में जब तक मूलप्रति देखने को न मिलजाय और उस परसे प्रथके असली होनेका निश्चय नहो जाय तब तक उसके प्रकाशित होने पर भी उस पर सहसा विश्वास नहीं किया जा सकता, ऐसी उनकी तथा पं० बेवरदासजी और जिनविजयजीकी राय है। और यह ठीक ही है । सत्यके निर्णयार्थ मूल प्रतिके दिखलानेमें किसीको भी संकोच न होना चाहिये । तद्विषयकं संदेहको दूर करना उसके प्रकाशकोंका पहला कर्त्तव्य है। ५ सम्पादक १ युवक, अब बनो न भू पर भार ! उठ कर शुभ सन्देश सुनाओ, वीरों-सा नव वेश सजाओ, क्यों सोता है देश ? उठायो, नवल शक्ति सञ्चार । कायर बन कर रोते रोते, गौरव- वैभव खोते खोते, सहते अत्याचार | किन्तु सामने कई कटक हैं, पग पग पर उनमें कटक हैं, उन्नत मार्ग न निष्कण्टक हैं, करना उनको प्यार | ६. सत्य मार्ग में यदपि प्रलय हो, उसका तुम्हें न किश्चित भय हो, मार्ग तुम्हारा मंगलमय हो, सब को सुख दातार ! ७ उथल-पुथल 'गुरुडम' में करना, विपदाओं से रा न डरना, 'शशि' बन व्योति जगत में मरना, ..... करना नित्य सुधार !.. सर्वक, अब बनो न भूपर भार ! ३०३ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ५ अवतारवाद और महावीर [ले०-श्रीमान् वा० पद्मराजजी जैन ] यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।। गीता का यह वाक्य एक तरह बिलकुल सत्य प्रतीत और न शक्ति के आंशिक टुकड़े ही बन सकते हैं। "होता है, जब कि भारतवर्षमें भिन्न भिन्न मत- भिन्न भिन्न न्यायकारोंने अपने अपने न्यायप्रन्थों में, मतान्तरों और सम्प्रदायोंके उत्थान और पतन के इति- इस विषयका विस्तृत विवेचन अनेक स्थानों पर किया हास की ओर ऐतिहासिक दृष्टिसे देखा जाता है। है, जिसकी चर्चा की यहाँ जरूरत नहीं । अस्तु । पदपि गीताके इस वाक्यका बहुतसे विद्वानोंने अवतार• आजसे लंगभग ढाई हजार वर्ष पहले भारतवर्ष पादकी पुष्टिमें उपयोग किया है तो भी अवतारवाद की की इस पवित्र भमि पर दो महान् पुरुषोंका अस्तित्व नींवमें भी वही ऐतिहासिक सत्यकी झलक दिखलाई दिखाई देता है-एक जैनधर्मके अधिनायक भगवान् देती है । संसारमें जब जब राजनैतिक, धार्मिक, पा- 'महावीर' और दूसरे बौद्धधर्मके अधिष्ठाता महाराज यिक अथवा सामाजिक अत्याचारोंको पराकाष्ठा हो 'बुद्ध' । इन दोनों महापुरुषोंने उस समय भारतवर्षमें जाती है, तब सब उस शक्तिसम्पन्न प्रचलित अत्या- प्रज्वलित हिंसाग्नि पर महिंसाके रूपमें शान्तिकीअनंत चारिणी शक्ति के विरुद्ध खड़े होनेकी भावना किसी वष्टि कर जनताके संतप्त हृदयका शान्त करनेका पूरा एक व्यक्ति विशेषके हृदयमें सविशेष रूपसे जागृत प्रयत्न किया था । यदि खोजकी जाती है तो मालूम हुमा करती है । और समय आने पर-उसी जन्मसे होता है कि यह अहिंसात्मक मनोवृत्ति अथवा भारतवर्षे अथवा जन्मान्तर लेकर-जब उस प्रतिबन्धक शक्तिका में धर्मके नाम पर प्रचलित हिंसाके विरुद्ध एकान्दोक्रम-विकाश अथवा क्रान्तिके रूपमें प्रादुर्भाव होता है लन-भले ही वह आन्दोलन कितना ही क्षीण क्यों तभी संसार उस शक्तिशाली व्यक्ति को भवतार, नहो-पहलेसे प्रारंभ हो चुका था। थोड़े ही दिनों साक्षात् ईश्वर मादि कह कर उसका अभिनंदन किया बाद इन दोनों महापुरुषोंने उसी प्रतिवादात्मक मनोवृ. करता है । अन्यथा, एक ईश्वर जैसे पनिमित व्यकि चिको क्रान्तिके रूपमें परिणत कर सारे देशमें भहिंसा • अथवा पदार्थमें न तो कोई सन्तानका होना बन सकता एवं दयाको अटल मजा फहरायी थी। इसी लिये हैन खुद इसका किसीको सन्तान बनना संभव है इन दोनों धर्मों के तात्कालिक रूपको यदि हम प्रतिवा Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवतारवाद और महावीर चैत्र, वीरनि०सं०२५५६ ] दात्मक अथवा एक प्रकार से प्रोटेस्टेन्ट (ProtestAZI धर्म कहें तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी । atra - पाण्डवोंकी सम्मिलित शक्ति से जब भारतवर्षका माम्राज्य अत्यन्त समृद्ध तथा शक्तिशाली हो चुका था और उसके वर्तमान अधिकारियोंको अपनी शक्तिका पूर्ण अभिमान होगया था और वे समझने लगे थे कि अब संसारमें उनकी शक्तिका मुकाबला करने वाली दूसरी शक्ति नहीं है तब उनकी इस मनोवृत्तिका साक्षात् प्रमाण उस समय मिला जब कि संधि करने के निमित्त गये हुये श्रीकृष्ण को स्पष्ट शब्दों में यह कह दिया गया कि ‘सूच्यमे न केशव' अर्थात् 'हे केशव, हम सूई के अग्रभाग मात्र भी भूमि देने को तैयार नहीं हैं।' उसी समय श्रीकृष्ण की प्रतिभामयी शक्ति उस अत्याचार के विरुद्ध प्रतिवाद रूप में खड़ी हुई थी । महाभारत आज भी इस बातकी साक्षी दे सकता है कि कौरवोंकी शक्तिको परास्त करने में कृष्ण ने कोई भी बात उठा नहीं रक्खी थी । धर्मके मोटे मोटे और मम सूक्ष्म सिद्धान्तों का उल्लंघन किया गया. युधि जैसे सत्यवादी राजाको मिथ्याभाषण करनेक नियं बाध्य किया गया, शिम्बंडीको सामने रख अर्जुन भीष्मकी हत्या कराई गई, सूर्यके अस्त होने पर भी प्राकृतिक सूर्य दिम्बला कर अर्जुन जयद्रथ का वध कराया गया, इत्यादि अनेक विषय पाए जा सकेंगे कि, साधारण अवस्था में अत्यन्त ही अन्यायपूर्ण क सकते थे। परंतु वहाँ तो ध्येय केवल एकमात्र उस बल शक्तिका दमन ही था, इसलिए ये सारी ही क्रिगायें न्याय, उचित और विधेय समझी गयीं। यद्यपि उस समय श्रीकृष्ण एक शक्तिशाली और प्रभावशाली राजाके सिवाय और कुछ भी न थे तो भी चूंकि आगे चल कर उन्होंने एक प्रबल शक्तिके प्रति ३०५ वादकी हिरोल अपने हाथमें सँभाली थी इसीलिये उनकी गणना अवतारोंमें की गई। इस अवतारदृष्टिसे ठीक यही अवस्था भगवान महावीर और बुद्धदेवकी भी हुई । वे भी अपनी असाधारण प्रतिभा, प्रतिवादात्मक शक्ति और लोकनेतृत्वके कारण अवतार कहलाये । अन्यथा, उनके अनुयायी उन्हें सिद्धान्ततः किसी एक ईश्वरका अवतार (Incarnation ) नहीं मानते । महाभारत युद्ध के बाद जब भारतवर्ष में कर्मकांडका प्राबल्य था, तब चारों ओर यज्ञोंकी धूम मची हुई थी, जिधर देखो उधर रक्त पातको लिये हुए बलिदान ही बलिदान दिखलाई देता था और वह भी निरीह मूक पशुश्री का। जिसके पास थोड़ीसी भी शक्ति हुई, थोड़ासा भी धन हुआ, थोड़ा सा भी जनबल हुआ, तो वह भी अपना जीवन नभी कृतार्थ समझना था जब कि वह कोई बड़ा सा मेध यज्ञ करके उसमें मैकड़ों और हजारों पशुको बलि दे दे । - जिस समय महर्षि वेदव्यासने महाभारतका सर्वप्रथम रूप "जय" लिखना प्रारंभ किया उस समर्थ भी इस घोर हिंसा के विरुद्ध एक क्षीण सी प्रतिबादध्वनि उनकी लेवनी, गीता और कई उपनिषदों में भी पायी जाती है। परन्तु संभव है उस समय के समाज के भयम अथवा अन्य विद्वानों के प्रतिवाद के भगम में उस प्रतिवादको निश्चित रूप न दे सके हों, तो भी यह निश्चित है कि उस प्रतिवादध्वनि की एक सीमा-मी मधुर मंकार सुनाई देने लगी थी। इसी ग्रंथको जब 'महाभारत' का रूप प्राप्त हुआ तब तो वह ला श्रावाच यथष्ट रूपमें तेज हो चुकी थी, यहाँ तक कि उसकी प्रतिध्वनि सर्वत्र नहीं तो बहुत से स्थानों में अब • कोपनिषद १,२: ईयाप्य, ६, १२ कठोपनिया २,५: Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त वर्ष १, किरण श्य ही सुनाई पड़ा करतीथी । यद्यपि अभी तक गीता रहते हैं, इस कारण उनकी व्यवसायात्मक और कार्यके निर्माणका समय निर्विवाद नहीं है तो भी बहुत से अकार्यका निश्चय करने वाली बुद्धि समाधिस्थ अर्थान विद्वानोंका यह कथन है कि गीताका वर्तमानरूपईसासे एक स्थानमें स्थिर नहीं रह सकती।' १२ सौ से ७०० मौ वर्ष पहले तकका होना चाहिये। चैगुण्यविषया वेदा निगण्यो भवार्जन । गीता में वेदोंके क्रियाकाण्ड, यज्ञ आदिके प्रति जो निदोनित्यसत्त्वस्थोनिर्योगक्षेमात्मवान्।।२.१५ प्रतिषाद ध्वनि है मैं उसे यहाँ उद्धृत कर देना चाहता हे अर्जन ! वेद वैगुण्यकी बातोंसे भरे पड़े है. हूँ। जैनधम के अन्यान्य महत्वपूर्ण विषयोंका सूक्ष्म- इस लिय त निबैगण्य अर्थात् त्रिगुणोंसे अतीत, नि। सा प्रारंभ गीताके कई स्थानोंमें देखने में आता है । सत्वस्थ और सुख-दुख आदि द्वंद्वोंसे अलिप्त हो एवं इस समय बड़ी आवश्यकता है कि कुछ निष्पक्ष विद्वान योग-क्षेम आदि स्वार्थों में न पड़कर आत्मनिष्ठ हो। गीता का तुलनात्मक अध्ययन और तुलनात्मक समा- यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके । लोचन करने का प्रयत्न करें । मेरी इच्छा है और यदि तावान्सर्वेष वेदेष ब्राह्मणस्य विजानतः॥२-४६ मुझे समय मिला तो आगामी किसी अंकमें इस विषय ___चारों भर पानी की बाढ़ आ जाने पर कुएँ का पर लिखने का प्रयल भी करूँगा । गीता के वे श्लोक जितना अर्थ या प्रयोजन रहता है, उतना ही प्रयोजन नीचे दिये जाते हैं मानप्राप्त ब्राह्मणका सब वेदों का रहता है । यामिमा पुष्पिता वाचं प्रवदन्यविपश्चिनः । ते तं भक्तवा स्वर्गलोकं विशालं जीणे पुण्ये मबेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः।।२-४२ यलोकं विशन्ति । एवं त्रयीधर्म मनप्रपन्ना गनाकामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलपदाम् । गनं कामकामा लभन्ते ।। क्रियाविशेषपहला भोगैश्वर्यगति प्रति ।।- ४३।। 'उम विशाल स्वर्ग लोकका उपभोग करके, पुण्य भोगेश्चर्यप्रसताना तयापहतचेतसाम् । तय हो जाने पर वे मृत्यु लोकमें आते हैं । इस प्रकार पवसायास्पिकाबुद्धिःसमाधीन विधीयते ।। - ४४ त्रयी धर्म अर्थात् तीनों वेदोंके यज्ञ-याग आदि श्रोत इन तीनों लोकों का मिल कर एक वाक्य बनता धर्मके पालने वाले और काम्य उपभोगकी इच्छा करने है, जिसका अर्थ यह है वाले लोगोंको आवागमन प्राप्त होता है।' हे पार्थ ! वेदों के वाक्यों में भले हुए और यह जिस समय भारतवर्षकेधार्मिकक्षेत्रमें उपर्युक्त मनाकहने वाले मूढ़ लोग कि इसके अतिरिक्त दूसरा कुछ वृत्तिका क्रमविकाश हो रहा था, दबी आवाजसे सभी नहीं है, बढ़ा कर कहा करते हैं कि "भनेक प्रकारके पोर अहिंसाकी भावना मलकरही थी; उसी समय भगकोसे ही जन्मरूप फल मिलता है और भोग तथा वान महावीरने-और महात्मा बुद्धने भी साहसपूर्व ऐश्वर्ण्य मिलता है।" स्वर्गके पीछे पड़े हुये वे काम्य क समाजों सथा विद्वानों और कुटुम्बियों तथा रूढियों बुद्धि वाले (लोग), उल्लिखित भाषणकी भोर ही उनके कीपर्वाह न कर हिंसाके विरुद्ध इस दबी हुई प्रतिवादामन माकर्षित हो जाने से, भोग और ऐश्वर्यमें ही रार्क मकमनोवृत्तिमें क्रांति उत्पन्न कर दी। इससे साधारण Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ चैत्र, वीरनि०सं०२५५६] प्यारी दाँतन व्यक्तियोंकी जो विचारधाराएँ अभी तक दबी हुई बह और पुकार पुकार कर कह रही थी कि इस शासन में रही थीं वे सब महावीरको वेगमयी सप्तभंगी वाणीके हीनसे हीन समझे जाने वाले प्राणियोंके लिए भी माथ पूर्ण प्रवाहके साथ बह निकलीं । उस समय स्थान, त्राण और उनके उत्थानका प्रयत्न है । इसके जाति-पांति और छूआछूत का जो भयंकर भत हिन्दू सिवाय, महावीर ने अपनी अहिंसामयी देशनाकी जातिके सर पर सवार हो गया था उसे भगवान् महा- घोषणा उस समय की प्रचलित अर्द्ध मागधी भाषा में वीरने दूर भगा कर संतप्त ह्रदय हिन्दुओंको आश्वासन- की-विद्वानों तक महदूद रहने वाली संस्कृत भाषामें वाणी सुनाई और खड़े होकर कहा, 'ठहरो!मूक निर्वाध नहीं। और यह आपकी सर्व हितसाधनकी भावनाकी तथा निरपराध और निरीह पशुओंकी हत्या धर्म नहींहो दूसरी विशेषता थी, जो बहुत रुचिकर तथा उपयोगी मकती । इसी तरह धार्मिक विषयोंमें जाति-पांतिका भेद सिद्ध हुई । और इसीसे आज तक यह कहावत चली भी आगे नहीं सकता। भगवान महावीरकी इस अभय- आती है कि महावीरके उपदेशोंको सभी लोग अपनी वाणीने धार्मिक क्षेत्रमें क्रान्ति उत्पन्न करदी। जनता तब अपनी भाषा में समझ लिया करते थे। लाखों और करोड़ों की संख्यामें एकत्र होकर महावीर इस तरह भगवान महावीर अहिंसाके पूर्ण अव प्रतिवादात्मक अहिंसामयी झडके नीच महावीरको तार और लोकहितकी सभी मूर्ति थे । बाज भी मधुर वाणी सुना करती थी । इसी लिये महावीरकं जैनियों अथवा भगवान महावीरके उपासकोंको उनके ममवसरणका वर्णन जहाँ आया है वहाँ जैनऋषियोंने श्रादर्श पर चलना चाहिये, उनके मिशनको भागे चक्रवर्ती सम्राटके बैठने के स्थानके साथ ही साथ कुत्ते बढाना चाहिये, और उनकी उदारता, दृष्टि-विशालता और बिल्लियों जैसे क्षुद्र प्राणियों के बैठनके स्थानका तथा लोकहित की भावनाको अपनाकर अहिंसा की भी निर्देश किया है। और यह उस समवसरणको विजयपताका सर्वत्र फहरानी चाहिये । संसारमें बाज एक खास विशेषता थी जो महावीर के उदार नथा भी हिमाके प्रचारकी स्त्राम जमरत है। मर्वहितकारी शामनका ज्वलन्त उदाहरण बनी हुई थी *प्यारी दाँतन * कोमल कूर्चिसहिन जब फिरती; आहा ! दाँतन कैसी प्यार्ग; दाँतों पर सुनत्य-मा करती। मुख-विशुद्धि करती है मारी। दन्त-मैल तब चुग चुग हरती; दाँतों को मजबूत बनाती; निर्मल कर सुपुष्टि-रम भरती ।। जिव्हा का मल दूर भगानी ।। मुखस सब दुर्गन्ध बहाती, नीम की हो या हो कीकर की; ईश-भजनके योग्य बनाती। उपयोगी वा काठेतर की। हलका रखती रोग नशाती; साजी तरसे लाई होवे; फिर वह कौन जिसे नहीं भाती? भोपा साफ बनाई होवे॥ (7 ) -'युगबीर' Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ ** अनेकान्त जैन - भूगोलवाद [ ले० - श्री बाबू घासीरामजी जैन एस.एस.सी. प्रोफेसर 'भौतिकशास्त्र' ] [ वर्ष १, किरण ५ Modern Orientalists have found it difficult to dentify these 'Continents' and 'seas' and failing to understand the text, have jumped to the conclusion that the Jains were hopelessly ignorant of geography. -Key of Knowledge (जैनभूगोल में वर्णन किए हुए द्वीप-ममुद्रों का पता लगाना इतना कठिन हो गया है कि आधुनिक विद्वान, शास्त्रों की पूर्ण रूप से न समझ सकने के कारण, इस परिणाम पर पहुँचे हैं कि जैनाचायों को भूगोल विषय का बिलकुल भी ज्ञान नहीं था ) निस्संदेह इस विद्युत्, वायु और वाष्प के युग में जैनभूगोल का जितना अपवाद हुआ है और उसके कारण से जो जति पहुँची है वह किसी से छिपी नहीं । जब कि समाज के बड़े बड़े पंडितों से भी. प्रकृत विषयका गहरा अभ्यास न होनेके कारण, इस विषय की अनेक शंकाओं का यथेष्ट उत्तर नहीं दिया जाता तो जैनधर्म के साधारण अभ्यासियों की श्रद्धा यदि गमगा जाय तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? कोई तो नासमझी अथवा द्वेषवश अभी तक इस चर्चा की अच्छी मन्त्रौल उड़ाया करते हैं। आज हम केवल इस विषय पर अपने विचार प्रकट करना चाहते हैं कि जैनभूगोलके इस विरोध व अवमानता का सम्भवत' क्या कारण विशेष हो सकता है । विश्व की मूल आकृति तो कदाचिन् अपरिवर्तनीय हो किन्तु उसके भिन्न भिन्न अंगों की आकृति में सर्वा परिवर्तन हुआ करते हैं । ये परिवर्तन कुछ छोटे मोटे परिवर्तन नहीं किन्तु कभी २ भयानक हुआ करते हैं। दाहरणतः भूगर्भशास्त्रियोंको हिमालय पर्वतकी चोटी पर मे पदार्थ उपलब्ध हुए हैं जो समुद्र की तली में रहते हैं। जैसे सीप, शंख, मछलियों के अस्थिपन्जर प्रभृति । अतएव इससे यह सिद्ध हो चुका है कि अब से ३ लाख वर्ष पूर्व हिमालय पर्वत समुद्र के गर्भ में था । स्वर्गीय पंडित गोपालदासजी वरैय्या अपनी "जैनजागरफी” नामक पुस्तक में लिखते हैं "चतुर्थ काल के आदिमें इस श्रार्यखंडमें उपसागर की उत्पत्ति होती है जा क्रमसे चारों तरफको फैल कर श्रार्य खण्ड के बहुभाग को रोक लेता है। वर्तमान क एशिया, योगेप, अफ्रिका, अमेरिका और आस्ट्रेलिया यह पांचों महाद्वीप इसी आर्य्यखंड में हैं । उपसागरने चारों ओर फैलकर ही इनको द्वीपाकार बना दिया है। केवल हिंदुस्तान का ही श्राय्र्यखंड नहीं समझना चाहिये । ** अब से लेकर चतुर्थकाल आदि तककी लगभग वर्ष मंख्या १४३ के आगे ६० शून्य लगाने से बनती है। श्रर्थान् उपसागर की उत्पत्ति से जो भयानक परिवर्तन धरातल पर हुआ उसको इतना लम्बा काल बीत गया, और तब से भी भवतक और छोटे २ परिवर्तन भी हुए ही होंगे । जिस भूमि को यह उपसमुद्र घेरे हुए है वहाँ पहले स्थल था ऐसा पता आधुनिक भू-शास्त्रवेत्ताओंने भी चलाया है जो गौंडवाना लैंड-सिद्धान्त Gondwa Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . वीर नि०सं०२५५६ जैन-भूगोलवाद ३०९ ....and Theory के नामसे सुप्रसिद्ध है। अभी इस water only in South Africa and South America, the two species being almost एशनकी भगर्भ, जन्तव वनस्पति विज्ञानकी सम्मिलित udistinguishable. Dr. DuToit (South Africa ) dcclared that the former cxisमीटिंग में हुआ है उसका मुख्य अंश हम पाठकों की tence of Gondwanaland was almost inजानकारी के लिये उद्धन करते हैं। सिद्धान्त इस प्रकार disputable......" है कि किसी समय में, जिसकी काल गणना शायद 'अर्थात्-प्रोफेसर वाटसन ने प्राणि-विज्ञान.की अभी तक नहीं की जासकी. एक ऐमा द्वीप विद्यमान अपेक्षादृष्टि से विवेचन करते हुए बतलाया कि इन था जो दक्षिणी अमेरिका और अफ्रिका के वर्तमान द्वीप-महाद्वीपोंमें पाए जाने वाले कृमियों Reptiles) द्वीपोंको जोड़ता था और जहाँ आजकल दक्षिणी अट- में बड़ी भाग ममानता है। उदाहरणस्वरूप कालका लांटिक महासागर स्थित है । इस खोए हुए द्वीप को विचित्र सांप दक्षिणी अमेरिका, मैडागास्कर गंडवाना-लैंड के नाम से पुकारते हैं और इसमेहमारे (अफ्रिका का निकटवर्ती अन्तरद्वीप) हिन्दुस्तान और उपसागर-उत्पत्ति सिद्धान्त की पुष्टि होती है: श्राम्ट्रेलिया में भी पाया जाता है । अतएव उन्होंने इन "Professor Watson, president of the प्रमाणों द्वारा यह परिणाम निकाला कि दक्षिणीअमेरिका Zoology Section, treated the question अफ्रिका और सम्भवतः श्रास्ट्रलिया तक फैला हुआ from the biological point of view. He भमध्यरेम्वाके निकटवर्ती कोई महाद्वीप अवश्य था जो traced certain marked resemblnnos in the reptile life in each of two existing अब नहीं रहा । इसी के समर्थन में उन्होंने एक विशेष continents, quoting ainong other cxnny- प्रकार की मछली का भी बयान किया जो जल के ples, the case of thee decynondon, the बाहर अथवा भीतर दांनी प्रकार जीवित रहती है। most characteristic of the suakes of the नत्पश्चात दक्षिण अफ्रिका के डा. डटोन अनेक प्रमाणों Karioo, which was found also in South महिन इस बात को स्वीकार किया कि गौडवाना लैंड America, Madagaskar, India and Aurtralia. He went on todeductrom the की स्थिति के सम्बन्ध में अब कोई विशेष मतभेत peculiar similarity in the tiora, reptiles नहा। und glacial conditions that there. must ममय समय पर और भी अनेक परिवर्तन हुए। have been some great equational outi. यह दिग्बलाने के लिए "वीणा" वर्ष ३ अंक ४ में lnent between Africa & South Amc.in. प्रकाशित एक लेखका कुछ अंश उद्धत करते हैं जिसका possibly extennding to Australin. हमारे वक्तव्य हमारे वक्तव्य से विशेष सम्बन्ध है:The professor mentioned, further, an _ "सन १८१४ में "अटलांटिक" नाम की एक पुस्तक interesting resemblance in animal life " प्रकाशित हुई थी। उसमें भारतवर्षके चारचित्र बनाए. to bear out the Gondwanaland theory, the ling tish, which can livo out of गए है. .....पहले नकरो में ईसा के पूर्व १० लाख में water as well as in it, is found in fresh ८ लाख वर्ष तक की स्थिति बनाई गई है। उस समय c. na - Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ५ . ............................. ....... .......... ...:-- -- - . . प्राकृत-- 'मरते हुए मनुष्यकी यदि कोई देव, मंत्र, तंत्र या __ क्षेत्रपाल रक्षा कर सकता नो ये मनुष्य अक्षय-अमर भावरहिमी न सिग्झइ जवि तवं चरइ कोडि- -हो जाते।' कोडीमो। जम्मतराई बहमो लंवियाहत्या ग- (इससे स्प है कि मरण अवश्यभावी है-मरनेस बचाने लियवत्यो । । वाला कोई नहीं है। अतः मृत्यु में भयभीत होकर किसी भी देवी दवता के शरगा में जाना या मन्त्र तन्त्रादिकका भात्रय लेना 'भाव रहिनको सिद्धिकी प्रानि नहीं होती, भले ही निरर्थक है।) वह विलकुल नग्न हुआ हाथोंको लम्बे किये करोड़ों जन्म तक नाना प्रकार के नपश्चरण ही क्यों न " भन्नाहं वि णामति गण, जई संसग खलेहिं । वइसाणरु लोहहं मिलिउ, ते पिट्टियइ घणेहि ।। करता रहे। -योगीन्द्रदेव । परिणामम्मि असुदे गंथं मुच्चई पाहरं य नई। 'दुर्जनोंक मंसर्गमे भले आदमियों के भी गुण नष्ट पाहिरगंयचामो भावविहणम्स किं कुणइ ॥ हो जाते हैं । सा ठीक ही है, अग्नि जर लोहे से -कुन्दकुन्दाचायं । मिलनी है तो वह घनों से पीटी जाती है । 'यदि परिणाम अशुद्ध है-राग, द्वेष अथवा विष- कांधो माणी माया लोभो य दुगमया कमायरिऊ । य कषायादिकसे मैला है-और बाह्य परिग्रहका त्याग दाससहस्सावामा वग्वमहम्साणि पावंति ।। किया जाता है तो वह बाह्य परिग्रह का त्याग उस -बट्टकेराचार्य। भात्मभावनामे रहित साधुके किम कामका है ? - 'क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारों कषायउससे भात्मसिद्धिकी कुछ भी प्राप्ति नहीं हो सकती।' शत्रु दुष्टाश्रयको लिये हुए सहस्रों दोषों के निवासस्थान एपंचेंदियकरहडा जिय मोकला म चारि। हैं, (और इस लिये) ये ही जीवोंको सहस्रों दुःख प्राप्त चरिविनसेस वि विसयवण, पुणपाडहिं संसारि॥ कराते हैं।' -योगीन्द्रदेव । धम्मो मंगलमुकि हिसा संजमो नवी। 'हे पात्मन्, इन पंचेंद्रिय रूपी ऊँटों को स्व ता देवा वि तं नमसंनि जस्स धम्मे सया मणी ।। से मत परने रे-अपने वशमें रख । नहीं तो ये संपूर्ण -दशवकालिक सत्र । विषय-वनको पर कर तुझे योंही संसारमें पटक देगी 'धर्म उत्कृष्ट मंगल है और वह अहिंसा, संयम तथा तपरूप है। जिसका मन धर्ममें सदा लीन रहता रदेवोवियरक्खा मंतो तंतो य खेसपालोया । उसे देवता भी नमस्कार करते हैं।' मियमाणं पिमणुस्सं तो मणुया मक्खया होति ॥ (इससे अपना मगल चाहने वालों को सदा अहिंसा, संयम और -स्वामिकार्तिकेय। तपकी पारामा परनी चाहिये।). Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रि, वीरनि०सं०२४५६] सुभाषित मणियाँ ३१३ मंस्कृत त्रिवर्गका-धर्म-अर्थ-कामका -, अपवर्गका-मोक्ष हनोऽपि चित्ते प्रसभं सुभाषितैः का-और जीवनका ही नाश करने वाला है ?-उस में अधिक अनिष्ट करने वाला और कौन है ? न साधुकारं वचसि प्रयच्छति । ( 'क्रोधो मूलमनर्थ ना' जैसे वाक्योंके द्वारा कोपको मनका क शिष्यमुत्सेकभियावजानतः मूल कहा गया है। कोप पर कोप करना ही वास्तवमें क्षमा धारण पदं गुरोर्धावति दुर्जनः क सः ॥ करना है, जो सर्व सुख-शांतिका मूल है।) -महाकवि धनंजय । "यदीच्छसि वशीकतुं जगदेकेन कर्मणा । 'दूसरंक सुभाषितोंसे-उसके अच्छे सुन्दर हृदयः परापवादसस्येभ्यो गां चरन्ती निवारय ॥" प्राही वचनोंको सुन कर-चित्तके बलान् हरे जाने- यदि तुम एक ही कर्म द्वारा जगत्को वशमें कपण मंतुष्टिलाभ करने पर भी एक दुर्जन वचनस । एक दुजन वचनस रना चाहते हो तो अपनी वाणी रूपी गौको परापवाद उसकी प्रशंसा नहीं करता है तो, इसमे वह उस गुरु रूपी धान्य को चरने से रोका-अर्थात् द्वेषभावको की पदवी को प्राप्त नहीं हो जाता जो शिष्यके सुभा शिष्यक सुभा- लेकर दूमरोंकी निन्दा, अपवाद अथवा बगई मत पितमे संतुए होकर भी इस भयसं उसकी सराहना न किया । करके अवगणना करता है कि कहीं अपनी प्रशंसाको अन्यदीयमिवात्मीयमपि दोष प्रपश्यना । मन कर उसमें अहंकारका उदय न हो जाय-जो पत का ममः ग्वलु मुक्तोऽयं यक्तः कायेन चेदपि । नका कारण एवं भावी उन्नतिका बाधक है।' (क्योंकि दर्जनका ऐसा अभिप्राय नहीं हो सकता। उसके -वादीभर्मिहाचार्य। प्रशसा न करने का दूसग ही हेत है और वह है ईपी. 'दूमराके दोषांकी तरह जो अपनं दोषो को भी डाह आदि-वह दमरे के कीर्तितमा को देख ही अच्छी तरह से देखता है-उनकी सम्यक पालोचना मकता, सह नहीं सकता और इसलिये उसमें किसी करता है-उसकी बराबरी करने वाला कौन है? यह प्रकार से पीडाकोना नहीं चाहता। हम पर तो शरीरमे युक्त होने पर भी वास्तवमें मुक्त है-मुक्त है कि संतशिलाभ और प्रशंसा न करने का कार्य स. हान की योग्यनाम युक्त है। यंत्र समान होने पर भी गरु गम ही है और दर्जन । जो लोग अपने दोषोंको हो ना पहचानन व उनम मत जन ही, दोनोंके परिणामोंमें जमीन भाम्मानका मा भी नहीं हो सकते।। अन्तर है।) "न मंशयमनारुण नरी भद्राणि पश्यति । अपकुर्वति कोपश्चन किं न कोपाय कुप्यसि । संशयं तु पुनरारुप यदि जीवति स पश्यति ॥" त्रिवर्गस्यापवर्गम्य जीविनस्य च नाशिनं ।। 'मनग्य संशय में पड़े बिना-सातरा, जास्वम या -वादीभसिंहाचार्य। संकट उठाए बिना-कल्याणका दर्शन नहीं करता है। __'यदि भपकार करने वाले पर कोप करना है हाँ, संशयमें पान के बाद यदि जीवित रहना है तो वह नो फिर कोप पर ही कोप क्यों नहीं करते, जो कि जल उसका दर्शन करने में समर्थ हो जाता है। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्र, वीरनि०सं०२४५६ ] संस्कृतहृनोऽपि चित्ते प्रसभं सुभाषितैः न साधुकारं वचसि प्रयच्छति । क शिष्यमुत्सेक भियावजानतः पदं गुरोर्घावति दुर्जनः क सः ।। सुभाषित मणियाँ - महाकवि धनंजय | 'दूसरे के सुभाषितों से उसके अच्छे सुन्दर हृदयग्राही वचनों को सुन कर - चित्तके बलात् हरे जानेपूर्ण संतुष्टिलाभ करने पर भी एक दुर्जन वचनसे उसकी प्रशंसा नहीं करता है तो इससे वह उस गुरु की पदवी को प्राप्त नहीं हो जाता जो शिष्य के सुभा पितमे संतुष्ट होकर भी इस भयसे उसकी सराहना न *.रके अवगणना करता है कि कहीं अपनी प्रशंसाको सुनकर उसमें अहंकारका उदय न हो जाय -जो पतनका कारण एवं भावी उन्नतिका बाधक है।' (क्योंकि दुर्जनका ऐसा अभिप्राय नहीं हो सकता । उसके प्रशसा न करने का दूसरा ही हेतु है और वह है ईपी. डाह आदि - वह दूसरे के कीर्तिर को मकता, सह नहीं सकता और इसलिये उसमें किमी कार से भी सहायक होना नहीं चाहता। इससे स्पष्ट कि संतुष्टिलाभ और प्रशंसा न करने का कार्य उभ तंत्र समान होने पर भी गरु गुरु ही है और दुर्जन दुर्जन ही, दोनोंके परिणामोंमें जमीन आम्मानका सा अन्तर है ।) ' अपकृति कोपयेत् किं न कोपाय कुष्यसि । fraर्गस्यापवर्गस्य जीविनस्य च नाशिने ॥ - वादीभसिंहाचार्य | 'यदि अपकार करने वाले पर कोप करना है नो फिर कोप पर ही कोप क्यों नहीं करते, जो कि ३१३ का त्रिवर्गका - धर्म - अर्थ - कामका, श्रपवर्गका - मोक्ष - और जीवनका ही नाश करने वाला है ? - उस अधिक अनिष्ट करने वाला और कौन है ?" ( 'क्रोधो मूलमनर्थ' नां' जैसे वाक्योंके द्वारा कोपको अनर्थीका मूल कहा गया है। कोप पर कोप करना ही वास्तवमें नमा धार करना है. जो सर्व सुख-शांतिका मूल है ।) " यदीच्छसि वशीकर्तुं जगदेकेन कर्मणा । परापवादसस्येभ्यो गां चरन्तीं निवारय ॥ 'यदि तुम एक ही कर्म द्वारा जगत्‌को वशमें करना चाहते हो तो अपनी वाणी रूपी गौको परापवाद रूपी धान्य को चरने से रोको - अर्थात् द्वेषभावको लेकर दूसरोंकी निन्दा, अपवाद अथवा बुराई मन किया करो। अन्यदीयमिवात्मीयमपि दोष प्रपश्यता । कः समः खलु मुक्तोऽयं युक्तः कायेन चेदपि ।। - वादीभमिहाचार्य | 'दूम के दोषों की तरह जो अपने दोषों को भी अच्छी तरह से देखता है उनकी सम्यक् आलोचना करना है — उसकी बराबरी करने वाला कौन है ? वह तां शरीरमं युक्त होने पर भी वास्तवमें मुक्त है-मुक्त होने की योग्यता युक्त है ।' | जो लोग अपने दोषको ही नहीं पहचानते वे उनसे मुस भी नहीं हो सकते। " न संशयमनारा नरो भद्राणि पश्यति । संशयं तु पुनरारुह्य यदि जीवति स पश्यति ।। " 'मनुष्य संशय में पड़े बिना — खतरा, जाखम या संकट उठाए बिना – कल्याणका दर्शन नहीं करता है। हाँ, संशय में पड़नेके बाद यदि जीवित रहता है वो बह जरूर उसका दर्शन करने में समर्थ हो जाता है। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनकान्त [वर्ष १, किर: हिन्दी उर्दूचेतन चिन-परिचय बिना, जप तप सबै निरन्थ । होती है सचकी कद्र पै बेनद्रियों के बाद । कन बिन तुस जिमि फटकते. श्रावै कछ न हत्य ।। इसके खिलाफर हो तो समझ उसको शाजरे त।' -रूपचंद। X x -हाली। बालपनैन सँभार सक्यों कछ, जानत नाहिं हिताहितहीका ___ "जिंदगी जिन्दादिली का नाम है। यौवनवैस वसी वनिता उर, कै नित राग रसो लछमीको। मुदोदिल स्वाक जिया करते हैं !" योपन दोय विगोइ दय नर, डारतक्यों नरकै निज जीको; पापागायनरडारतक्या नरकानज जाका; X x x आये हैं 'सेत' अौंमठ चेत,'गई सुगई अबरावरहीको। दुश्मन से बढ़ के कोई नहीं आदमी का दोस्त । x -भधरदास। मंजूर अपने हाल की इसलाह हो अगर ।। मनमें प्रण हो पक्का, फिर विघ्नांका जरा नहीं डर है। x x -हाली' । कायर-क्षुद्रहृदय को, विघ्न भयंकर पिशाच बनते हैं। "जो छिपाते हैं हक अंदेश-ए-कमवाई से। माधन हैं यदि थोड़े, तो भी अपना सुलक्ष्य मत छोड़ो। घान में उनके लगी बैठी है रुसवाई भी।" श्रागे कदम बढ़ाओ, वहीं मिलेंगे अवश्य ही साधन ॥ X x -'हाली'। x x -दरबारीलाल । दोस्त अगर भाई न हो दोस्त है तो भी लेकिन । कोटि करम लागे रहें, एक क्रोधकी लार । भाई गर दोस्त नहीं, तो नहीं कुछ भाई भी। किया कराया मब गया, जब आया हंकार ।। x x -'हाली'। जानो दिल क़ौम पै अपना जो फ़िदा करते हैं । X X -कबीर। बड़ी नीत लप नीत करन है, बाय सरत बदाय भरी।। कहीं ममवाई से वे लोग डरा करते हैं । फोड़ा आदि फुनगनी मंडित, सकन्न देह मनोरोग-दरी ॥ कौमेमुर्दा में किसी तरह से जॉ पड़ जाए। शोणित-हाड-मांसमय मूरत, तापर रीझन घरी-घरी । हम शबोगेज- इसीधन में रहा करते हैं। -मंगतराय। ऐमीनारि निरखकर केशव.'रसिकप्रिया' तुम कहा करी फल नो दो दिन बहारे जिन्दगी दिखला गये । x x -भैयाभगवतीदाम। हमरतर उन रांचों५० है जोबिन खिले मुरझा गये।। करत करत अभ्यासके, जडमति होत सुजान । x -'जोक'। रसरी भक्ति जात ते, सिल पर परत निसान ।। "किस्मन की ग्वबी देखो कि टूटी कहाँ कमन्द। दी एक हाथ जब कि लबे बाम रह गया ।" तुलमी साथी विपतके, विद्या विनय विवेक । माहस सुकृत सत्यवत, राम भरोसो एक ।। यह चमन यो ही रहेगा और हजारों जानवर x x -तुलसीदाम । अपनी अपनी बोलियों सब बोलकर उड़ जायेंगे।। क्या मुँह ले हँसि बोलिये, दादू दीजे रोय । जनम भमोलक पापणा, पले अकारथ खोय ।। दस्तैसवाल१४ सैकड़ों ऐबों का ऐब है। x x दादूदयाल । जिस दस्त में यह ऐव नहीं वह दस्तरोब है ॥ कोई बरा कहो या अच्छा, लक्ष्मी भावे या जावे, x x -गालिब । लाखों वर्षों तक जीऊँ या मत्य माज ही भाजावे। १ प्रतिष्टा २ विरुव. ३ प्रसाधारण. ४ सुधारणा. ५ सत्यको अथवा कोई कैसा ही भय या लालच देने भावे, अपकीर्ति के भय से ७ बलिदान ८ रात दिन. ६ प्रफमोस-खेद मो भी न्यायमार्गसे मेरा कभी न पद रिंगने पाये॥ १. कलियों. १ स्मी १२ कोठे के निकट. १२. उपा-बाय x -'यगवीर' १४ याचना कर हाय दोषों. १६ प्राय काय। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्र, वीरनि०सं०२४५६] अनेकान्त पर लोकमत ३१५ 'अनेकान्त' पर लोकमत ५२ पं०हंसराजजी शर्मा, बिलगा(जालंधर)- विद्वानोंसे भी मैं सविनय निवेदन करता हूँ कि वे ""अनेकान्त' के दर्शनका सौभाग्य प्राप्त हआ। सज्जन धन और ज्ञानका दिल खोल कर इस महा अनेकान्त पत्ररूप भास्करकी इन चार किरणों ने ज्ञान सत्रमें पर्याप्त रूपसे उपयोग करें।" मेरे हृदय को इतना प्रफल्लित किया है कि उसका ५३ पं० प्रज्ञारत्नजी, न्यायतीर्थ, धर्मशास्त्री' वर्णन करना इस मूक लेखिनी के सामर्थ्य से (भूतपूर्व कमलकिशोर), स्वरईबाहिर है। इसमें सन्देह नहीं कि यदि आपके सम्पा- "मैंन 'अनेकान्त'(सूर्य)की ४ किरणोंसे जबजैनपत्रों दकत्व में नियमित रूपसे इस पत्र का प्रकाशन को (तुलनाकरके)देखा तोतमाम जैनपत्र दीपकिरण होता रहा तो वर्तमान जैन-समाजमें चिरकाल से नजर आये। मुझे इन किरणोंसे जोरोशनी मिली है घुसा हुआ मोहान्धकार दूर होगा, इतना ही नहीं । उससे मेरा इतिहास-सम्बन्धी अंधकार दूर होता किन्तु जैनधर्म का सदियोंसे खोया हुआ तात्विक जाता है । यह पत्र यदिमामाजिक झगड़ों में बिना और व्यावहारिक गौरव भी उसे फिरसे प्राप्त होगा। पड़े आगे बढ़ा तो मुझे विश्वाम है कि संसारमें एवं प्राचीन समयकी भान्ति संसारके सभी प्रति- इसकी किरणें अपूर्व रोशनी पैदा कर देंगी। मापन ठित धर्मों में उसका अामन अपने विशिष्ट गुणों इम पत्रको निकाल कर जो अनेकान्तकी सेवाका द्वारा एक असाधाण स्थानको प्रहण करेगा । मुझे भार उठाया है उसके लिये मैं हदयमे स्वागत विश्वास है कि 'अनेकान्त' की उज्वल नीनि, सु- करता हूँ और आशा रम्बता हूँ कि यह पत्र लिन चार सम्पादन और मद्रावसे प्रेरित अन्तःकरण दूना उन्नतिशील होगा।" की निर्मलवृत्ति अपना प्रभाव दिखाय बिना न ५४ लाला मूंगालाल हज़ारीलालजी बजाज़, रहेगी । अनेकान्तकं गवेषणापूर्ण लेखों और स्वरई जि.सागरमारगर्भित हृदयप्राहि-टिप्पणियों प्रादिकेसम्पादन 'अनकान्त' की चार किरणांक अवलोकन म द्वारा आपने जन-समाजकी पवित्र सेवाका जो हमें जो आनन्द हुआहै वह लिखा नहीं जा सकता। श्रेय प्राप्त करनेकी मनमें ठानी है तदर्थ भापको जैनहितैषी के प्रभावसे जो साहित्य-पिपासा, अनेकानेक साधुवाद । अन्तमें जैनसमाजके नेता- मां गई थी वह फिर हरी भरी हो गई है मापके . भों विशेषतः वदान्य व्यक्तियों और प्रतिष्ठित इस सत्प्रयासकी कदर इस समयकी हकीई Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष १, किरण ३१८ * बूढ़ी चंदेरी और हमारा कर्त्तव्य * [लेखक-धर्मरत्न पं० दीपचंदजी वर्णी ] पाठक 'अनेकान्त'की दूसरी किरणमें 'देवगढ़' का १०-१२ मीलके फासले पर स्थित है । ३० अप्रेल सन् हाल पढ़ चुके हैं, मैं भी अर्से से वहाँ के मंदिर-मूर्तियोंकी १९२४ को मुझे इसके दर्शनका सौभाग्य प्राप्त हुआ था। भूरि भूरि प्रशंसा पत्रों द्वारा तथा दर्शकोंके मुखसे इस पुगतन क्षेत्रका पता मुझे चंदेरीके एक बालकने सुनता पा रहा था और उमसे प्रेरित हो कर मुझे भी दिया था, और जब मैंने वहाँ के दर्शनों की इच्छा प्रकट वहाँ के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। दर्शन करने की तो चंदे के भाईयोंन मुझे यह उगवा दिया कि पर मुझे उस सुनी हुई प्रशंसाका मूल्य मालूम पड़ा स्थान बहुत दूर है, वहाँ कुछ नहीं है, जंगल है, शेर और मैंने उन मंदिर-मूर्तियोंको उससे कहीं सहस्रगणी लगता है, रास्ता नहीं है, इत्यादि । परंतु जब मेग प्रशंसाके योग्य पाया है। परंतु उनके दर्शनसे जितना अत्यामह देखा तो १०-१२ भाई बैल गाड़ियाँ लेकर आनन्द हुआ उससे अधिक दुःख तथा खेद समाजकी मेरे साथ हो लिये । सौभाग्यसे उन दिनों मार्ग सुधारा उदासीनता और अकर्मण्यता को देख कर हुआ, गया था, क्योंकि कुछ ही दिन पहले ग्वालियरनरेश जिसके कारण वह अभी तक उस पवित्र क्षेत्र की वहाँ शेरके शिकार को गये थे और उन्हें वहाँके अनि रक्षार्थ कुछ भी उल्लेखयोग्य कार्य नहीं कर सका है। शय अथवा दैवयोगसे शिकारकी प्राप्ति नहीं हुई थीमिःसन्देह समाज की यह उदासीनता और अकर्मण्यता वे दो तीन दिन यों ही भटक-भटकाकर खेदित हु। उसके प्राचीन गौरव को लुप्त करने के लिये बहुत बड़ा लौट आये थे। इसमें शक नहीं कि रास्ता खराब तथा काम कर रही है और इससे धर्म तथा धर्मायतनोंके जंगली है, जंगली जानवरोंका संवार भी रहता होगा; प्रति उसके भक्तिभाव की स्थिति बहुत ही दयनीय क्योंकि यह स्थान 'अब बिलकुल जनशून्य बिया जान पड़ती है। प्रस्तः आज मैं अनेकान्तके पाठकों बान जंगल हो गया है। परन्तु ऐसा नहीं है कि वहाँ : को एक ऐसे ही दूसरे क्षेत्रका परिचय कराना चाहता जा न सके। हूँ जो देवगढसे कुछ कम महत्व नहीं रखता और हम लोग लगभग १२ बजे दिनके वहां पहुंच गा, जिसकी हालत और भी ज्यादा शोचनीय हो गई है। थे। पहुँचते ही प्रथम एक भग्नावशेष कोट मिला यह क्षेत्र है 'बूढ़ी देरी'। उसमें होकर आगे बढ़े, तब दूसरा कोट मिला, फिर चंदेरी के नामसे, ययपि, हमारे भाई भाम तौरसे चौर भागे बढ़ने पर तोसरा कोट मिला । इन कोटी परिचित हैं और जो लोग थोवनजी मादि की यात्रा की दीवारें पत्थर की है जो गिरते गिरते मनुष्य के को जाते हैं वे रास्में चन्देरीके भी जरूर दर्शन करते बराबर रह गई हैं। इन्हें पारकर जामंदर गए तो देखा है। परंतु 'पदी देरी से, जिसे राजा शिशुपालकी कि जहाँ तहाँ बड़े बड़े चौकोर तथा लम्बे पत्थरोंके ढेर 'पुरानी चंदेरी' भी कहते हैं,बहुतही कम भाई परिचित- के ढेर पड़े हुए हैं। हम लोग यह समझकर उनपर चढ होंगे। यह क्षेत्र जङ्गली को रास्ते पर वर्तमान चंदेरीमे गए थे कि पुराने इमारती पत्थर होंगे जो कि इमारतों Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्र, धीरनिःसं०२४५६] बढी चंदेरी और हमारा कर्तव्य ३१५ के गिरनेसे गिर गये होंगे, और उनके अलग अलग तरह कितने ही ढेर बन गये जो दूर तक चले गये हैं। देर लगा दिये गये होंगे इसलिये इन ढेरों पर चढ़कर इन मंदिरोंसे आगे बढ़ कर नीचे की ओर एक दावे कि यहाँ जिन मंदिरों और जिनप्रतिमाओंके कोई सुन्दर पहाड़ी पर नदी बह रही है और अपरकी भोर चिन्ह मिलते हैं या कि नहीं। परंतु अनजानमें हम तीनों तरफ पहाड़ी दृश्य है । यह स्थान बहुत रम्य लोगोंसे एक बड़ा पाप बन गया । वास्तवमें वे पत्थर तथा सुरक्षित है। हम लोग वहाँ दो तीन घंटे फिर कर निरे पत्थर ही नहीं थे किन्तु उनकी दूसरी ओर जिनः देखते रहे, वहीं नदी के किनारे सबने भोजन-पान किया प्रतिमाएँ भी उकेरी हुई थीं, जो कि बिलकुल देवगढ़ और फिर संध्या हो जाने तथा जंगलके कारण यहाँसे के ही महश उसी प्रकारके शिल्पको लिये हुए अत्यन्त वापिस चंदेरी आगये। मनोज्ञ थीं। बहुत सी प्रतिमाएँ तो उनमें प्रायः सांगो- यदि कोई पुरातत्त्ववेत्ता सजन इस स्थान पर पांग पूजने योग्य थीं; मात्र किसी का नख किसीका पधारें और खोजका कार्य करें तो उनकी यहाँ से नामाप्रभाग तथा किसी की अँगलीका पोरा भन्न था बहुत कुछ ऐतिहासिक मामग्री मिल सकती है। और कोई कोई बिलकुल अखंडित भी थीं। इनके खेद है समाज का इस ओर कुछ भी ध्यान नही है। मिवाय कोई मस्तकविहीन, कोई पदविहीन और कोई समाजका कर्तव्य है कि वह शीघ्र ही इस क्षेत्र की करविहीन भी थीं; जिन सबके श्राकार और कारी- म्योज कगए और ग्वालियर सरकारमे अधिकार प्रान गरी को देख कर हृदय गद्गद हो जाता था। जान कर के उमका प्रबन्ध करे। वहाँ हजारों की संख्याम पडना था कि देवगढ़ और यहाँका निर्माता कोई एक. मनोज्ञ प्रतिमाएँ है जो दर्शनीय तथा पजनीय भी हैं। ही महापुरुष होगा। यहाँ ऐसे अनेको ढेर दूर दूर तक पड़ने पर यह भी मालम हुआ कि वहाँ भामपासके पड़े हैं । कितने ही ढेरोंमें में मूर्ति-पापाणीको उठा उठा जंगलीम और भी बहुत मी प्रतिमाग इधर उधर पड़ी कर देखा गया और फिर यह समझ कर उन्हें ज्यादा लथा मिट्टी श्रादिक नीचे दी हुई है, जिन सबके न्या रग्ब दिया गया कि कहीं कोई आततायी उन्हें कुछ खोज य.रने की और उन्हें व्यवस्थित रूपस रखने और न बिगाड़ देवे । कई छोटे छोटे मंदिर अभी तक की बड़ी आवश्यकता है। बड़े भी हैं जिनमें तीन तरफ वैम ही पत्थर लग है एमी तरह छत्तीसगढ़ डियाजन तथा कटकमा प्रो. जो कि कहरकी ओर तो सपाट और भीतर की तरफ भी जंगलों में बहुन जैन प्रतिमाएं पाई जाती है जा जिनपर मूर्तियाँ उकेरी हुई हैं, सामने जिनके चौखट अत्यन्त प्राचीन है। गयपर व उसके पास पारनमें, नथा ऊपर पत्थरोंका शिखराकार पटाप है और जो पलकतराके पास रतनगदम, सहयोलमें, विलासपरमे, पत्थरोंकी संधियों को बिना चनेके ही परस्पर मिलाकर डोंगरगढ़ में, वामाराके एक कुएँ में और और भी अनेक खड़े किये गये हैं। मालूम होता था कि इसी प्रकारके स्थानों पर पहाड़ियों में, जंगलों में, गुफामोंमें दिगम्बर मंदिरोंके गिरनेसे मूर्ति वाला भाग नीचे दब गया और जैन पूतिमाएँ मौजूद है, जो सबजैनियों के प्राचीन गौरव सपाट पृष्ठ भाग ऊपर रह गया तथा शिखरके पत्थर भी तथा उनके अभ्यदयको सिद्ध करने वाली है और म. ऊपर गिर गये, जिससे पत्थरों जैसे ढेर हो गये और इस गर्म में भी जैनियों के इतिहासकी वसी सामी Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܘ ܀ अनेकान्न भरी पड़ी है। ईडर से १२ मीलके क़रीब, केशरिया (ऋषभदेव ) को जाते हुए मार्ग में एक भीलोडा प्राम है, वहाँका मंदिर अति विशाल ५२ शिम्बरका केशरि गाके मंदिरसे भी बड़ा है । उसके दर्वाजे पर चार खन लौनी सकलकीर्ति द्वारा पूतिष्ठित है। इस विषय में यदि अधिक खोज की जाय तो जैनियों की बहुत सी पुरातन कीर्तियों का पता चल सकता है और उसमें जैनियोंकी चीनता ही नहीं किन्तु उनकी व्यापकता, समृद्धिता और लोकमान्यता भी सिद्ध होगी। इसके लिये जैनियों का कर्तव्य है कि वे अपना एक जुदा ही पुरातत्व विभाग खोलें और जो शक्ति इधर उधर अना वश्यक काम में लग रही है उसे धर्म तथा समाजका गौरव कायम रखने वाले और मृतप्राय हृदयों में फिर पाय तथा नवजीवनका संचार कराने वाले ऐसे ठंम काम लगाएँ । [ वर्ष १, किरण ५ काम शास्त्रों की रक्षा करना मात्र है, जो भाई उन्हें पढ़ना लिखना चाहें उन्हें बिना उम्र उसी समय देना चाहिये। हाँ, यदि उनके बिगड़ जाने या खोये जानेका भय हो तो बाँचने वालों के पाससे कुछ रकम डिपाज़िट के तौर पर ली जा सकती है या अपने विश्वासी आदमियों की देख रेख में उन्हें पढ़ने अथवा नक्कल करने के लिये दिया जा सकता है, जिससे मूल के सुरक्षित रहने में कोई बाधा उपस्थित न हो। बाकी सुरक्षा का यह अर्थ नहीं है कि ग्रंथ किसी भंडारमें यों ही रक्खा हुआ जीर्ण शीर्ण होता रहे और किसीके भी उपयोगमें न श्रावे किंतु उसका अर्थ है सदुपयोग के साथयथा-स्थान क़ायम रहना । परोपकारी आचार्यांन ग्रंथ सबके हितार्थ निर्माण किए हैं. ऐसा समझ कर उनको प्रकाश में लाना चाहिये । इस समय हमारे सौभाग्य से दहली के करोलबाग मे 'समन्तभद्राश्रम' खुल गया है जिसके अधिष्ठाना समाज के सुप्रसिद्ध विद्वान पंडित जुगलकिशोरजी मुख्तार हैं, आप निस्पृह होकर तन-मन-धन से इस कार्यमें कटिबद्ध हुए काम कर रहे हैं और जिन महत्व के कार्योंको आप हाथ में लेना चाहते हैं वे श्राश्रमकी विज्ञप्ति नं: १ में दर्ज हैं। यदि इस आश्रमको पूर्णरीत्या द्रव्यसे तथा अपना समय देकर सहायता पहुँचाई गई तो इसके द्वारा इतिहास - पुरातत्त्व का बहुत कुछ उद्धार हो सकेगा। साथ ही, जैनधर्मका प्राचीन गौरव और उसकी समीचीनता भी भले प्रकार सिद्ध हो सकेंगी। मुख्तार साहबको अन्तरंग से इस विषयकी लगन है और उनके विचार तथा खोजें इस विषय में सराहनीय हैं। आशा है समाज जरूर इस ओर ध्यान देगा और इस आश्रम में ऊँचे पैमाने पर पुरातत्वका एक विभाग खोल कर उसे सब ओर से सफल बनानेका पूर्ण उद्योग करेगा उसी पुरातत्त्वविभागके द्वारा प्राचीन जैन साहित्य hi खोज और उसके उद्धारका कार्य भी होना चाहिये नागोर, आमेर आदिकं प्राचीन शास्त्रभंडारोको खुलखाना चाहिये । यदि पूबंधक न खोलें तो राज्यकी मदद लेकर खुलवाना चाहिये; क्योंकि जैनशास्त्र भले ही किसी के पाम सुरक्षित रखने के लिए सौंपे गये हों परंतु वे उनकी निजी सम्पत्ति कभी नहीं हो सकते, उन पर उन सभी जैनियों का हक है जो उनका सदुपयोग कर सकते हैं। अर्थात्, वे ग्रंथ जैन पब्लिक की सम्पत्ति हैं जो कोई उनको दबा कर अपना ही स्वामित्व रखते हैं, न दूसरो को दिखलाते हैं और न नक़ल करने देते हैं उन्हें 'ज्ञान- दर्शनावरणीय कर्मों का तीव्र भाव और बन्ध तो होगा ही परंतु वर्तमान में वे पबलिक के अपराधी भी हैं। रक्षक मालिक नहीं होता, वह तो पनलिकका एक अनपेड विश्वासी सेवक होता है। उसके पास शास्त्रोंकी अमानत रक्खी गई, इस लिये उसका । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ महम् admaa - परमोगमस्य बीजं निषिद्ध-जात्यन्ध-सिन्धुर-विधानम् । सकलनयविलसिताना विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।। -श्रीअमृतचन्द्रसरिः । वर्ष १ समन्तभद्राश्रम, करौलबारा, देहली । वैशाख, ज्येष्ठ, संवत् १९८७ वि०, वीर-निर्वाण सं०२४५६ सासाराल.......n. co * प्रार्थना * मुझे है स्वामी ! उस बलकी दरकार। असफलता की चोटों से नहिं, भड़ी खड़ी हों अमित भड़चनें, दिलमें पड़े दरार।। ___ाड़ी अटल अपार । अधिकाधिक उत्साहित होऊँ, तो भी कभी निराश निगोड़ी, मानं कभी न हार ।। मुझं० ॥ फटक न पावे द्वार ।। मुझे ।। दुख-दरिद्रता-कृत अति श्रममे, सारा ही संसार करे यदि, तन होवे बेकार। दुर्व्यवहार प्रहार । नां भी कभी निरुद्यम हो नहिं, हटे न तो भी सत्यमार्ग-गन, बैठं जगदाधार ॥ मुझे। अदा किसी प्रकार ।। मुझे ॥ जिसके भाग तन-बल धन-पल, धन-वैभवकी जिस भाँधीसे, तृणवत तुच्छ असार । । अस्थिर सब संसार । महावीर जिन ! वही मनोपल, उमसे भी न कभी डिग पाव, महामहिम सुखकार ॥ ___मन बन जाय पहार ॥ मुझे ॥ मुझे स्वामी, उस ही की दरकार ॥ नाथराम 'प्रेमी' UWWWWWW.B.edoawww.samrial . Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त अनेकान्त वर्ष १, किरण ६, ७ सम्पादकीय १ श्रद्धांजलि उन्हींकी गोदमें छोड़कर क्रमशः चल बसे ! तब इम के पालन पोषण तथा शिक्षणादिका कितना ही काम गांधीजी आज जेलमें हैं। उनकी इस जेल-यात्रा मुझे करना पड़ा, मैंने अपने पास देवबन्द में रग्ब कर ' के संबंधमें कर्तव्यानगेधसे मैं 'अनेकान्त' के इसको शिक्षा दी, फिर घरके बिगड़ जाने पर पंडिना पाठकोंके सामने अपने कुछ विचार रखना चाहता था चंदाबाईके आश्रममें पारा भेज कर ऊँची शिक्षा दि. परंतु प्रेस जमानत माँगे जानेकी आशंकासे इस प्रकार लाई-जहाँ इसकी सती साध्वी बा 'गुणमाला वकी चर्चा तथा विचारोंको छापना नहीं चाहता। प्रेसकी राबर छायाकी तरह इसके साथ रही और दादीजी ने इस परतन्त्रताके कारण मैं अपने विचारोंको 'अनंका इस अनाथ बालिकाको हितसाधनाके लिये कोई भी न्त' के पाठकोंके सामने न रखनेके लिये मजबर हो बात उठा नहीं रक्खी-उन्होंने इस वृद्धावस्थामें अपने गया हूँ; और इसलिए इस समय मैं गांधीजीक चर सुख-आरामकी सारी बलि देकर और वियोगादिजणों में, निम्न पदके साथ, केवल अपनी श्रद्धांजलि ही नित कितने ही कणोंको खशीस सह कर बड़ी ही स्तुअर्पण करता हूँ : त्य वीरताका परिचय दिया। इस तरह अच्छी शिना महामना, निष्पाप, गष्ट्र हितु, जगक प्यारे, दिलाकर १६ वर्षकी अवस्थामें मैंने इस बहनका विवाह हिंसासे अतिदूर, सौम्य, बहपूज्य हमार उक्त सुयोग्य वरके साथ किया था, जिसकी अवस्था गाँधी-स नग्न जेल में ठेल दिये हैं !! उस समय २२ वर्षकी थी और जो कुछ महीने बाद ही क्या आशा वे धरै नहीं जा जेल गये हैं ? बी०ए० की परीक्षा उत्तीर्ण हो गया था तथा बादको एल.एल.बी. का इम्तिहान पास कर वकील भी बन २ दुःसह वियाग गया था। इस प्रकार यह एक सुयोग्य जोड़ी मिली थी कैराना जि० मुजफफरनगरके प्रसिद्ध जैन रईम और सभी इस सम्बंधकी प्रशंसा करते थे । मुझे भी ला० मुकन्दलालजीके पौत्र और ला० जीयालालजीके अपने कर्तव्यक ठीक पालन होने पर आनंद था।जोड़ी सुपत्र चिम्बाब त्रिलोकचंदजी वकील आज इस संसार के फलस्वरूप एक सुन्दर पुत्रका भी लाभ हो गया था में नहीं हैं परन्तु उनकी सौम्य मूर्ति श्राज भी मेरी आँखो और इससे दोनों ओर खूब आनन्द बढ़ गया था तथा के सामने स्थित है और उनके हँसमुख चेहरे, उनकी आशालताएँ पल्लवित होने लगी थीं। परंतु दैवसे इन नम्रता तथा सज्जन प्रकृतिका स्मरण करा कर मुझे कष्ट का यह सब सुख चंदरोज भी देखा नहीं गया ! बच्चा देती है। इस नवयुवकके साथ मेरी एक बहन 'जयव- बीमार होकर कुछ महीनोंके बाद ही चलता बना! उस न्ती' का विवाहसम्बंध हुआ था । यह बहन नानौता का यहीं देहलीमें इलाज कराते हुए त्रिलोकचंदजी बीजिसहारनपरके जैनरईस ला०प्रभदयालजीकी सुपत्री मार पड़े, देहली, सहारनपुर, मेरठ आदि अनेक जगह है, जो कि मेरे एक करीबी रिश्तेदार (पिताके मामूंजाद महीनों ठहर कर इलाज कराया गया, अच्छे अच्छे डा. भाई ) ही नहीं किन्तु बहुत बड़े प्रेमी तथा मित्र थे। क्टरों वैद्यों तथा हकीमोंकी दवाई की गई परंतु किसी इसका जन्म मेरे सामने हुआ-मैं उस समय वहीं था से भी स्थायी लाभ कुछ नहीं हुआ । अन्तको पानीका -छोटी सी अबोध शैशवावस्थामें ही इसके पिता- इलाज करते हुए आप बिजनौरमें सोतीजीके पास गये, माता इसे एक मात्र वादी तथा बाके आधार पर- वहाँ जलोदर' की नई शिकायत मालम हुई, कुछ आराम Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाख, ज्येष्ठ, वीरनि०सं० २४५६] . सम्पादकीय ३२३ होता न देखकर उनके पिता एक विशिष्ट इलाजके लिये करते थे। पिछले दिनों समन्तभद्राश्रम को भी आपने उन्हें देहली में ही मेरे पास ले आए, लाते समय रास्ते २१) रु० भेजे थे । और पंडित जी पके सुधारक थे, में जहाँ रेल बदलती थी तबीयत ज्यादा खराब हो गई, निर्भयप्रकृति थे, व्याख्याता थे तथा साथ ही लेखक मरसाम पड़ गया और इसलिये वे १७ अप्रेलको सुबह भी थे । कुछ अर्सेसे आप 'वीर' का प्रकाशनकार्य भी यहाँ बेहोशीकी बड़ी नाजुक हालतमें ही पहुँच पाए। करते थे और उसे करते हुए जहाँ तहाँ सभा मोसाइसब कुछ इलाज, जो बन सकता था, किया गया, अ- टियोंमें उपदेशके लिये भी पहुँच जाया करते थे । वीरगले दिन दो घंटे के लिये होश भी आगया परन्तु आ- सेवक-संघके आप सदस्य थे और कुछ असें के लिये खिर २० अप्रेल सन् १९३० को ११ बजे दिनके आपका आपने आश्रममें आकर मेवाकार्य करनेका भी वचन प्राण पखेरू इस नश्वर शरीरसे उड गया !! और आप दिया था परन्तु किसी कारणवश अभी पा नहीं सके ढाई वर्षके करीब बीमार रह कर २८ वर्षकी इस युवा- थे । अन्त को इलाज कराने के लिये श्राप देहली आए वस्थामें ही सारे कुटम्बी जनोंको दुःख सागरमें बिल- और एक महीने के करीब आश्रम में ही ठहरे । जब विलात छोड़कर स्वर्धामको सिधार गये !!! आप अपने इलाजसे कुछ फायदा न देखा तब मेरठ वापिस चले पिताके एक ही पत्र थे और इधर बहन जयवन्ती भी गये और वहाँ जाकर आठ दस दिन बाद ही ता०१९ अपने पिताकी एक ही पुत्री है, इसमें आपके इस मई सन् १९३० को गतके १०॥ बजे आप अपनी यह दुःमह वियोगसे दोनों ओर दारुण दुःख छा गया है !! सब लीला समाप्त करके परलोकवासी होगये !!! वकील सबों की आशालताओं पर तुषार ही नहीं पड़ा किन्तु साहबका भी देहावसान आपके बाद मई मासमें ही ता० वनका प्रहार हो गया है !!! ममझमें नहीं आता कि २४ को दिनके १२ बजे हुआ है !! इन दोनों सजनोंके किमीको कैसे सान्त्वना दी जाय ! संसार के स्वरूपका वियोगम निःसन्देह समाजको बड़ी हानि पहुँची है। चिन्तवन और सद्धर्मका एक शरण ही सबोंको शांति दोनों कुटीजनों तथा मित्रोंके इम दुःग्व में मेरी हा. तथा धैर्य प्रदान करे। दिक महानभति है। श्रीजिनधर्मके प्रमादम उन्हें धैर्य तथा शान्तिकी प्रानिहाय |श्रात्माएँ फिर ३ दो चमकते हुए तारों का प्रस्त में भारतमें जन्म लेकर नये शरीर, नये बल और नये ममाज-गगन पर कुछ अर्मेमे दो नारं चमक रहे उन्माहके साथ अपने मद्विचाराको कार्य में परिणन करें। थे, उनका उदय समाजकं लिये बड़ा ही शुभरूप हुआ एक और वियोग था, लोग उन्हें देख कर प्रसन्न होते थे, उनसे स्फनि ग्रहण करते तथा शक्ति प्राप्त करते थे और वे भी अप- दुःख के माथ लिम्वना पड़ता है कि देहलीके सुप्रनी चमक, अपन तंज एवं अपनी सेवाओं से लोगोंका सिद्ध जैन रईम गय बहादुर ला सुलतानसिंहजी का मन मुग्ध किये हुए थे । परंतु आज यह देखकर दु.व भी ना०३ जन मन १९३० को, ५२ वर्षकी अवस्थामें, होता है कि उनका एकाएक अम्न हो गया है !' इनमें म्वगवाम हा गया है !!! आप ममाजके एक प्रतिष्ठित (१) एक थे मेरठ सदरके पं० वृजवासीलालजी और व्यक्ति थे, बड़ी धाग सभाके कई बार मदम्य रह चक (२) दुमरे थे मेरठ शहरके बाब ऋषभदासजी वकील। हैं और कई बार आपनं मपत्नीक विदेश-यात्रा भी की वकील साहब बराबर हिन्दी तथा उर्दूकं पत्रों में लिखा थी। आपके वियोगस समाजकी भारी क्षति हुई हैकरने थे, सभा-सोसाइटियों में खासा भाग लेते थे दहली जैनसमाज का ना एक स्तंभ ही गिर गया है ! और जैन समाजके सुधार तथा उत्थानका ही मदा इस वियोगजनिन दुःखमें आपके कुटुम्बियों नथा मित्रों ध्यान रखते थे। समय-समय पर आप अपनी उदारता के प्रति मरी हार्दिक सहानुभूति है। में कुछ संस्थाओं को आर्थिक सहायता भी प्रदान किया - Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त वर्ष १, किरण ६,७ - - THE INDIAN HangitatinAHAPANS Po पुरानी बातों की खोज ATHA R- STED (१७) उसे बुद्धिपूर्वक संकल्प करना चाहिये । वर्षाकाल मे चातुर्मास का नियम मार्ग प्रायः जीवजन्तुओं से घिरा रहता है, इससे श्राबहुत प्राचीन कालस माधुजन वर्षाकालमें, जिस चा पाढी पौर्णमासी से कार्तिकी पौर्णमासी तक एक जगह तुमाम अथवा चौमामा कहते हैं, अपने विहारको ठहरे रहना चाहिये-विहार अथवा पर्यटन नहीं करना गककर एक स्थान पर ठहरतं आए हैं और इसमें उन चाहिय। की प्रधान दृष्टि अहिंमाकी रक्षा रही है । इस नियम हाँ, बुद्धदेवने शुरू शुरू में अपने साधुओं के लिये का पालन केवल जैन माध ही नहीं बल्कि हिन्दुधर्मके चातुर्मास का कोई नियम नहीं किया था, उनके साध माधु भी किया करते थे। उनके शास्त्रोंमें भी इस विषय वर्षाकाल में इधर उधर विचरते और विहार करते थे की स्पष्ट श्राज्ञाएँ पाई जाती हैं; जमा कि अत्रि ऋषि तब जैनों तथा हिन्दुओं की तरफ से उन पर आपत्ति के निम्न वाक्योंसे प्रकट है: की जाती थी और कहा जाता था कि ये कैसे अहिंसा"वर्षाष्वेकत्र तिष्ठत स्थाने पुण्यजलावते । वादी साधु हैं जो ऐसी रक्त-मांस मय हुई मेदिनी पर श्रान्मवत्सर्वमतानि पश्यन भिक्षश्वरेन्महीम, विहार करते हैं और असंख्य जीवों को कुचलते हुए चले जाते हैं । इस पर बौद्ध साधुओंने अपनी इस असनि प्रतिबन्धे तु मासान्वै वार्षिकानिह। निन्दा और अवज्ञाको बुद्धदेव से निवेदन किया और निवसामीनि संकल्प्य मनसा बद्धिपर्वकम ॥ उस वक्त से बुद्धदेव ने उन्हें भी चातुर्मास का नियम पायण पावृषि प्राणि कुलं वर्त्म दृश्यते । पालन करने की आज्ञा दे दी थी; ऐसा उल्लेख बौद्ध भाषाढचादिचतुर्माम कार्तिक्यन्तं तु मंवसेतो. साहित्य में पाया जाना है। यह उल्लेख इस समय मेरे -यतिधर्मसंग्रह। मामने नहीं परंतु इसका हाल मुझे विद्वद्वर पं० बेचरअर्थात्-वर्षाकाल में भिक्षुको पुण्य जल से घिरे दासजी से मालूम हुआ है, जो प्राप्त होने पर प्रकट हुए किसी एक स्थान पर रहना चाहिये और सर्व कर दिया जायगा । अस्तु । प्राणियोंको प्रात्मवत समझते हुए पृथिवी को देख- दिगम्बर सम्प्रदायमें इस वर्षाकालीन नियमकोक्या शोध कर चलना चाहिये ॥ 'कोई खास प्रतिबन्ध न मर्यादा है, इसका कुछ पता हालमें मुझे 'भगवती आ. होने पर वर्षा काल के महीनों में मैं यहाँ रहूँगा ऐसा गधना' की अपराजितमरि विरचित 'विजयोदया' Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वशाख, ज्येष्ठ, वीरनि०सं०२४५६] पुरानी बातोंकी खोज ३२५ नामकी प्राचीन टीकाके देखनेसे चला है। इस टीकामें, च्छन्न स्थाणु-कंटकादि के द्वारा तथा जल और कर्दम भगवती आराधनाकी "अञ्चलक्कुसिय" नामकी से बाधा पहुँचती हैं; इस लिये एकसौ बीस दिन का गाथामें वर्णित जैनमुनियोंके दस स्थितिकल्पोंका वर्णन यह एकत्र अवस्थानरूप उत्सर्ग कालका विधान है। करते हुए, पज्यो (पयो) नामके दसवें स्थितिकल्पका कारणकी अपेक्षासे हीनाधिक अवस्थान भी होता है। म्बम्प इस प्रकार दिया है: आषाढ़ सुदि दशमी को स्थिति होने वाले साधनोंका "पज्यो श्रमणकल्पो नाम दशमः वर्षा- अधिक अवस्थान कार्तिकी पौर्णमासी से तीस दिन कालस्य चतुर्ष मासेष्वेकवावस्थानं भ्रमणत्या. बाद तक होता है; यह अवस्थान वर्षाकी अधिकता, गः। स्थावरजंगमजीवाकुला हि तदा तितिस्नदा श्रुतग्रहण, शक्तिके प्रभाव और वैय्यावृत्यकरण नाम के प्रयोजनों में से किसी प्रयोजन को लेकर होता है भ्रमणं महान संयमः, वष्टया शीतवातपातेन चामविराधना एते वा (१) वाप्यादिप स्थाण और यह अवस्थानका उत्कृष्ट काल है। मरी पड़ने, दुर्भिक्ष फैलने, प्राम तथा नगर के चलायमान होने कंटकादिभिर्वा प्रच्छन्नैलेन कदमेन वा बाध्यते, इति विंशत्यधिक दिवसशतमेकत्रावस्थानमित्यु अथवा गच्छनाश का निमित्त उपस्थित होने पर साधु जन यह समझ कर देशान्तरको चले जाते हैं कि वहाँ न्मर्गः। कारणापेक्षया तु हीनमधिकं वाऽव ठहरनेम रत्नत्रयकी विराधना होगी। आषाढी पौर्णस्थानं । संयतानामाषाढशुद्ध दशम्या स्थिताना मासी के बीन जाने पर श्रावण की प्रतिपदा आदि मुपरिष्टाच्च कार्तिकपर्णिमास्यास्त्रिंशदिवसावस्था तिथियों में बीस दिन तक जो अवस्थान हो वह मत्र नं ष्टिबहुलता श्रतग्रहणं शक्त्यभावं वैयाव हीन काल समझना चाहिये। त्यकरणं प्रयोजनमुद्दिश्य अवस्थान मेकत्रेति । इस म्वरूपकथन पर में निम्न बातें फलित होनी उत्कृष्टः कालः । मार्या दुर्भितं ग्रामजनपदचलने है:वा गच्छनाशनिमित्ते समुपस्थिते देशान्तरं यांति, चातुर्मास का यह नियम महानती श्रमणोंअवस्थाने सति रत्नत्रयविराधना भविष्यतीति । निग्रंथ साधनों के लिये है, अणुवती श्रावकों अथवा पौर्णमास्यामापाच्यामनिक्रान्तायां प्रनिपदादिषु ब्रह्मचारियों के लिय नहीं । चातुर्मामके जो हेतु महान दिनेषु यावच त्यक्ता विशनिदिवसा पनदपच्य अमंयम' तथा 'अात्मविगधना' आदि कहे गये हैं उन हीनना कालस्य । एष दशमस्थितिकन्पः।" का भी सम्बंध श्रमणों में ही ठीक बैठना है। अर्थात्-वर्षाकाल के चार महीनोंमें भ्रमणत्याग- २ चातुर्मास का उत्मर्ग (सर्वसाधारण ) काल म्प जो एकत्र अवस्थान है वह पज्यो (पर्या) नामका १२० दिनका है और वह आषाढी पौर्णमासीमे कार्तिदमा श्रमणकल्प है । उन दिनों में पृथिवी स्थावर- की पौर्णमासी तक रहता है। जंगम जीवों से पाकुलित होती है इससे उस समय ३ कुछ कारणों के वश अधिक तथा कमती दिनों भ्रमण करने में महान् असंयम होता है, वृष्टि तथा का भी चौमासा होता है। अधिक दिनों वाले चौमासे टंडी हवा लगने से प्रात्मविराधना होती है और प्र. का उत्कृष्ट काल आषाढ मुदि दशमी से प्रारंभ होकर Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) ३२१ अनेकान्त वर्ष १, किरण ६.७ कार्तिकी पौर्णमासीके बाद नीस दिन तक-तीसवें दिन की समाप्ति तक है। और कमती दिनों वाले चौमासे ___ महावीरके वस्त्र-त्याग-विषयमें का हीन काल अपाढी पर्णमामीके बाद श्रावणकी प्रतिपदाम बीम दिनके भीतर किमी वक्त प्रारंभ होता है । श्वेताम्बरीय मान्यताएँ श्वेताम्बर सम्प्रदायमें आम तौर पर यह मान्यता ४ अधिक दिनकं चौमासके कारण ये है-१ पाई जाती है कि भगवान महावीरके आभूषणादिक वर्षाकी अधिकता, : श्रुतग्रहण (किमी खास शास्त्र के को त्याग कर दीक्षा लेनेके समय इन्द्र ने 'देवदृष्य' अध्ययनकी ममानि आदि का इष्ट होना ), ३ शक्तिका नामका एक बहुमूल्य वन उनके कन्धे पर डाल दिया अभाव (गंग आदि के कारण उस समय गमन की तरह महीने तक धारण किये रहे । इसके शक्ति न होना ) और '४ वैयावृत्यकरगण (दूसरे बीमार बाद उन्होंने उसे भी त्याग दिया और तबमे वे पूर्णरूप भाधकी मेवाके लिये रुक जाना )। कमती दिन वाले मं नग्न दिगम्बर अथवा जिनकल्पी ही रहे । हेमचंद्राचौमाम के कारण यद्यपि स्पष्टरूपम बनलाये नहीं गये चार्यक ‘महावीरचरित' आदि कुछ श्वेताम्बरीय ग्रंथा परन्तु प्रकागन्तग्म ये ही जान पड़ते हैं । इन कारणों पर में मुझे भी अभी तक इसी एक मान्यताका परिमें उस स्थान पर पहुँचने में कुछ विलम्बका होना मिलता रहा। परन्तु हाल में भगवती आराधना मंभव है जहाँ चौमामा करना इष्ट हो। की उक्त अपगजितमरि-विरचित 'विजयादया' नाम . चातुमाम का नियम प्रहण करने के बाद कुछ' की टीका को देखने मालूम होता है कि श्वेताम्बर कारणों में माधु अन्यत्र भी जा सकते हैं अथवा उन्हें सम्प्रदायमें इस मान्यताम भिन्न कुछ दूसरी प्रकारकी य की रा के लिये जाना चाहिगे । वे कारण मान्यताएँ भी प्रचलित रही हैं । इम टीकामें, 'आचे. - गग पड़गा, . दुर्भिक्ष फैलना, ३ प्राम या लक्य' नामक श्रमग्ण-स्थिनि-कल्प की व्याख्या करत •गर का चलायमान होना ( भकम्प, राष्ट्रभंग या हए, जैन साधओंके लिये अचेलना (वस्त्ररहिनता) का गजकांपादि कारणों से जनताका नगर-प्रामको छोड़ विधान करने और उसकी उपयोगिताको दिग्वलाने पर छाड़ कर भागना ) अथवा ४ अपने गच्छ के नाश का श्वेताम्बर सम्प्रदाय की ओरसे किये जाने वाले कुछ कोई निमित्त उपस्थित होना । और इसलिय चातुर्मास प्रश्नोंका उल्लेख किया है और फिर उनका उत्तर दिया का नियम लेते समय माधको यह स्पष्ट रूपमे संकल्प है। प्रश्नों में भागमादि पुगतन ग्रन्थोंके वस्त्रादिकके कर लेना उचित्त मालूम होता है कि यदि ऐसा कोई उल्लव वाले कुछ वाक्यों को उद्धृत करके पूछा गया है प्रतिबन्ध नहीं होगा तो मैं इतने दिनोंतक यहाँ निवाम कि, तब इन सूत्रवाक्यों की उपपत्ति कैसे बनेगी ? करूँगा। हिन्दुओंके यहाँ भी 'भसति प्रतिवन्धे तु इन्हीं प्रश्नोंमें एक प्रश्न 'भावना नामक किसी श्वेशब्दों के द्वारा संकल्प में ऐसा ही विधान पाया जाता ताम्बरीय प्रन्थकं एक वाक्यसे सम्बंध रखता है, जिस है । जैसा कि 'अत्रि' ऋषिके ऊपर उद्धृत किये हुए में भ० महावीर के साल भर तक वस्त्र धारण करने वाक्यस प्रकट है। और तत्पश्चात उमके त्याग करनेका उल्लेख है। इस Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशास्त्र, ज्येष्ठ, वीरनि०सं०२४५६] पुरानी बातोंकी खोज ग्रन्थ सम्बंधी प्रश्न का उत्तर देते हुए टीकाकार असंभावना को सिद्ध किया गया है। प्रस्तु; टीकाके लिखते हैं : उक्त उल्लेखसे महावीरके वलत्याग-विषयमें श्वेताम्बरों यच्च भावनायामुक्तं वरिसं चीवरधारी की कितनी ही परस्पर विरोधी मान्यताओंका पता नेणपरमचेलगो जिणो ति' विप्रतिपतिबहल- चलता है, जो संक्षेपमें इस प्रकार है:वान् कथं ? केचिद्वदन्ति तम्मिन्नेवदिने तद्वस्त्रं १ उसी दिन वह वन त्याग दिया गया, २ छह महीने वीरजिनस्य विलंबनकारिणा गृहीतमित्यन्ये ।। तक उसका सम्बंध बनारहा और वह कंटकशाग्वादिसे छिन्न-भिन्न होकर खुद अलग हश्रा, ३ महावीरने वर्ष पएमासाच्छिन्नं कंटकशावादिभिगिनि साधि भर तक उसे रक्खा और फिर अलग किया, ४ एक कंन वर्षेण तद्वस्त्रं खंडलकब्राह्मणेन गृहीतमिनि वर्षमे कुछ दिन या महीन और बीतने पर (संभवतः १३ कथयन्ति केचिदाननपनितमुपतिनं च जिननेत्य- महीने के बाद) वह त्यागा गया, ५ ग्बुद त्यागा या किमी परं वदन्ति विलंबनकारिणा जिनस्य स्कंधे को दिया नहीं गया किन्तु हवा में उड़ गया और फिर उसकी तरफसे उपेक्षा धारण की गई ६ विलंबनकारी नदागेपितमिनि। एवं विप्रतिपत्तिबाहु ल्यान ने उस महावीर के पासम लिया, ७ ग्यंडलक ब्राह्मणने दृश्यते तत्त्वं सचेललिंगपकटनाथ ।" लिया, ८ इन्द्रने उम महावीर भगवानकं कंधे पर डाला अर्थात-भावना' में जो यह कहा गया है कि था। ५ विलम्बनकारीने उम महावीरके कन्धे पर "वरिसं चीवरधारीतेलपरमचंलगां जिणा ति" डाला था। -महावीर जिन एक वर्ष तक वस्त्रधारी रहे उसके अब इम बान की ग्वांज होने की जरूरत है कि बाद अचेलक (वस्त्रत्यागी दिगम्बर) हुए वह विनि ये सब विभिन्न मान्यताएँ कौन कौनमें श्वेताम्बरीय पत्तियोंके बाहल्यके कारण कैम मान्य किया जा ग्रं में इस ममय उपलब्ध है । आशा है हमारे श्वे. ताम्बरीय विद्वान इम पर कद्र विशेष प्रकाश डालनकी मकना है ? इस सम्बंधमें बहुतमे विगंधी कथन पाय ना जात है-कुछ आचार्य तो कहन हैं कि उस वनको कृपा करेंगे और यह भी सचिन करेंगे कि 'भावना' उसी दिन महावीरके पासम विलंबनकाग ने ले लिया नामका उन प्रन्थ भी दम ममय उपलब्ध है या नहीं। था. दुसरे कहते हैं कि वह छह महीनके भीतर कराटको तथा शाम्बादिम छिन्न-भिन्न हो कर अलग हो गया था; काद बतलाते हैं कि उस एक वपसे भी कुछ अधिक छठा महाव्रत समयके बाद बंडलक ब्राह्मणन ले लिया था, और महावनों की मद संख्या पाँच है, नदनमार अणुदूमर कहते है कि वह हवाम गिर पड़ा था, फिर वनों की भी रूट संख्या पाँच ही है। परन्तु प्राचीनमहावीरने उस नहीं उठाया । इसी प्रकार कुछ कालम गत्रिभोजनविन' नामका छठा अणुवन श्राचार्याका कथन है कि वह वस्त्र महावीर के कंधे पर भी माना जाना है, जिसका उल्लंम्य पूज्यपाद श्राचार्य विलंबनकारीने डाला था (इन्द्र ने नहीं)। इस तरह की सर्वार्थमिद्धि' नकमें पाया जाता है। 'जैनाचार्यों बहुतसं विरोधी कथनोंके मौजूद होनस सचेललिंगको का शासन भेद' नामक ग्रंथमें, मैंने इस छठे अणुव्रत प्रकट करनेके लिये इस युक्तिमें कुछ भी मार मालम की कुछ विम्तत चर्चा और विवेचन करते हुए यह नहीं होता। कल्पना की थी कि इस नाम का छठा महाव्रत भी - इसके बाद टीकामें युक्तिवाद तथा श्वेताम्बरीय होना चाहिये । उम वक्र तक छटे महावतका कोई आगमोंके दूसरे वाक्योंके आधार पर इम कथन की म्पट्र विधान कहीं भी मेरे देखनमें नहीं आया था, Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनकान्त वर्ष १, किरण .. और इस लिये मैंने अपनी उस चर्चा तथा विवेचना अर्थात्-उन पाँचों व्रतों (महाव्रतों) के पालने के । का नतीजा निकालने हए लिखा था: लिये रात्रिभोजनविरमण' नामका छठा व्रत (महावन) नसे यह बात भले प्रकार ममझ कहा में आ सकती है कि रात्रिभोजनविरति' नामका व्रत इतना ही नहीं, बल्कि यहाँ तक बतलाया है किएक स्वतंत्र व्रत है । उसके धारण और पालनका उप- 'पंच महाव्रतों में रात्रिभोजनविरमण' को शामिन्न देश मुनि और श्रावक दानों को दिया जाता है-दोनों करके जो छह महाव्रत होते हैं उनका विधान आदि से उमका नियम कराया जाता है-वह अणुव्रतरूप और अन्तके दो तीर्थों में हुआ है-अर्थात् भ० ऋपभभी है और महाव्रतरूप भी। महाव्रतोंमें भले ही उमकी देव और महावीरने उनका उपदेश दिया है' । यथाःगणना न हो-वह छठे अणुव्रतके सदृश छठा महा- "इति आयपाश्चात्यतीर्थयोः रात्रिभोजनवन न माना जाता हो-और मुनियोंके मूल गणोंमें विरमणषष्ठानि पंचमहाब्रतानि ।" भी उसका नाम न हो परन्तु इसमें मंदह नहीं कि उस का अस्तित्व पंच महाव्रतोंके अनन्तर ही माना जाता ___ इस कथन में मूलगुणों की संख्या-संख्या की है और उनके साथ ही मूलगुणक तौर पर उसके अन अस्थिरता, जैन तीर्थकों के शासनभेद और रात्रिप्रानका पृथकरूपसं विधान किया जाता है। जैसा कि भोजनत्याग-विषय पर कितना ही प्रकाश पड़ता है; इस लेखके शुरूमें उद्धत किये हए 'आचारसार' और 'जैनाचार्योका शासन भेद' नामक ग्रन्थ में जो वाक्य * और 'मूलाचार के निम्न वाक्यसभी प्रकटहै:- कल्पनाएँ इस सम्बंध में मेरे द्वारा की गई हैं अथवा तसि चेव वदाणं रक्खहरादिभोयणविरत्ति" नतीजे निकाले गये हैं उन सबका बहुत कुछ समर्थन सी हालत में रात्रिभोजनविरति को यदि छठा होता है। साथ ही, इसका भी रहस्य और खुल जाता कि वीग्नन्दि आचार्यने अपने 'आचारसार' के उम महाबत मान लिया जाय अथवा महावा न मान कर वाक्य में, जो पीछे फटनोट में उद्धृत है, रात्रिमें मात्र उसके द्वारा मुनियों के मूलगणों में एक की वृद्धि की अन्नके त्याग को ही छठा अणुव्रत क्यों बतलाया है। गाय- २८ के स्थानमें :९ म्वीकार किये जायँना इसम जैनधर्म के मूलसिद्धान्तोमें कोई विरोध नहीं उनका वह कथन 'रात्रिभोजनविरमण' नामके महा व्रत की अपेक्षा से है-महाव्रती जब रात्रिमें चारों आता।" हालम भगवती श्राराधनाकी उक्त अपराजितरि प्रकारके श्राहारका त्याग करता है तब अणुव्रतीक विचित 'विजयादया' नामकी टीका क दवनम मुझ पर लिय मात्र अन्न के त्यागका विधान किया जाना कुछ स्पष्ट मालूम हो गया है कि 'रात्रिभोजनविरनि' नामक छठा महावत भी बहुत पहले से माना जाता है। इस खेद है कि हमारी बहुतसी पुरानी बातें-प्राचीन टीकामें दस स्थितिकल्पांका वर्णन करते हुए पंच महा- श्रा आम्नायें-नई नई बातोंके पर्दे के नीचे छिप गई हैं, व्रतोंके वर्णनमें साफ लिखा है: उनका पता लगाना बड़ा कठिन होरहा है ! प्राचीन "तेषामेव पंचानां व्रतानां पालनार्थ रात्रि साहित्य ही इस विषयमें एक मात्र हमारा मार्गदर्शक हो सकता है और इस लिये उसके अन्वेषण तथा भोजनविरमणं षष्ठं व्रतम् " . प्रकाशन में हमें खास तौर से योग देना चाहिये। यह वाक्य इस प्रकार है: जुगलकिशोर मुख्तार प्रतत्राणाय कर्तव्यं रात्रिभोजनवर्जनम् । सर्वथान्ननिवृत्तेस्तत्प्रोक्तं षष्ठमणुव्रतम् ।। * यह ग्रन्थ 'जैनप्रन्धरनाकर-कार्यालय, हीराबाग, पो• गिन-माचारमार। गांव, बम्बईने प्रकाशित किया है और पांच माने मूल्यमें मिलता है। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाख, ज्येष्ठ, वीरनि०सं० २४५६] आचार्य जयकीर्ति का 'छन्दोऽनशासन' ३२९ आचार्य जयकीर्ति का 'छन्दोऽनुशासन' [लेखक-श्री पं० नाथरामजी प्रेमी] अनेकान्त' की पाँचवीं किरण में 'योगसार और न्यैतच्छंदोऽनशासनं विहितमिति प्रान्ते दर्शितम् । अमताशीति' नाम का एक नोट प्रकाशित हुआ है, सं०५११२ वर्षे योगसारलेखयिता ऽमलकीतिजिममें डा० पिटर्सन की पाँचवीं रिपोर्ट के आधार से रस्य शिष्यो ज्ञायते । प्रा०शिलोपदेशमालायाः यांगमार की उस प्रति का उल्लेख किया है, जो संवत् प्रणेता जयकीर्तिः स्वं जयसिंहमारिशिष्यत्वेन १२ की ज्येष्ठ सुदी १३ को जयकीति सरि के शिष्य परिचायतिस्म. स त्वम्माद भिन्नो विज्ञायतो" अमलकीर्तिने लिखवाई थी अर्थात्-वर्द्धमान को नमस्कार करने से यह कवि श्रीजयकीतिसरीणां शिष्येणामलकीत्तिना। जैन मालम होता है। उसने अन्त में बतलाया है कि लेखितं योगसाराख्यं विद्यार्थिवामकीर्तिना ॥ मांडव्य, पिङ्गल, जनाश्रय, सेनव, पूज्यपाद, अमलकीर्ति के इन्हीं गुरु जयकीर्ति का बनाया जयदेव आदि विद्वानों के छन्दों को देख कर यह ग्रंथ हा 'छन्दोऽनुशासन' नामका एक महत्त्वपूर्ण पन्थ बनाया । मं०११९२ में योगमारके लिखाने वाले श्रमजैसलमेर के सुप्रसिद्ध श्वेताम्बर पम्तकभंडार में है, लकीनि इसके शिष्य जान पड़ते हैं । प्राकृत शिलोपजिमका प्रारंभिक और अन्तिम अंश इस प्रकार है:- देशमालाका प्रणेता जयकीर्ति इससे भिन्न है, क्योंकि प्रारंभ वह आपको जयसिंह मरिका शिप्य प्रकट करता है। श्रीवर्द्धमानमानम्यच्छंदसां पर्वमक्षरं । हमारी समझ में जयकीनि दिगम्बर मम्प्रदायके लन्यलक्षणमावीन्य वन्ये छन्दोऽनुशासनं ॥१ विद्वान हैं । क्योकि एक तो वे पृज्यपाद का उल्लेख बन्दःशास्त्रं वहि तद्विविक्षोः काव्यसागरं । करते हैं, दुमा योगमार प्रन्थ दिगम्बर मम्प्रदाय का? छन्दोभाग्वाङमयं सर्वन किंचिच्छन्दमो विना ।।२ जिम उनके शिष्य ने लिम्बवाया है, नीमरे जयकीर्ति, 'अन्न-माण्डव्य-पिंगद-जनाश्रय मंतवाव्य- अमलकीर्नि, वामीनि इम प्रकार की कीत्यन्त नामश्रीपज्यपाद-जयदेव-बुधादिकानां । परम्परा दिगम्बरमम्प्रदायमें ही अधिक दी जाती है, ५ । जहाँ तक हम जानते हैं, यह ग्रंथ किमी दिगम्बर छन्दांसि वीच्य विविधानपि सत्प्रयोगान् । , | पम्नकभंडार में नहीं है । जमलमग्न इमकी प्रनि कग कर वन्दानुशासनामद जयकात्तिनातम " मंगानका प्रयत्न होना चाहिए । श्वनाम्बर मम्प्रदायक इनि जयकीतिकृती छन्दोऽनशासन - संवत् भंडाग दुर्लभ प्रन्यांका मंग्रह वहन अधिक है। १११ आषाढ शुदि१०शनो लिखितमिदामिति । विना न पड़ना है, 1 4-कानिक, दिम ये दोनों अंश बड़ोदाकी गायकवाड़-मस्कृत-मीगज ले कि ? . क. मिनार में (Epher: phil में प्रकाशित होने वाली 'जेमलमेर-भागडागारीय ग्रंथानां Iulia 10. II भी पाया जाना है। यह प्रतिमिलना .47 का लिया हुआ है पार मे जयकीनिक क.fa मृची में प्रकट हुए हैं । इम सूचीके सम्पादक महाशयन गमीनिन निन्दा है'मा कि इसके निम्न अन्तिम भागमे प्रकार जयकार्ति सम्बन्धमें अपना नोट पृष्ठ ६१ पर इस प्रकार "श्रीजयकीर्तिशिष्यण दिगंबग्गग्गेशिना । प्रशस्तिरांशी चक्रे...श्रीरामकीर्निना। .. “वर्द्धमाननमस्कारमालकरणेनायं कवि संवन १२०७ मत्रधा..." जनः प्रतिभाति । माण्डव्य पिंगल-जनाश्रय- इस शिलालेखक समयको दम्वतहए. कानुगाम्नक का जयकीर्ति - शिलालम्बमें स्थित जयकी निम भित्र मात्रम नदीहोत सम्पादक दिया है। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त वर्ष १, किरण ' ' ...... GRASS .:-.:.:. ...' .. , . : प्राकृत-- तक हे जीव ! तू अपनी आत्मा का हित साधन कर।। मीलं वदं गणों वा रणाणं हिस्संगदा सहचाओ। -यदि इनमें से कोई कारण आ बना तो फिर इच्छा जीव हिमंतस्म , मव्वे विणिरत्थया होति ।। रहते भी त अपना कल्याण नहीं कर सकेगा। -शिवार्य । जहिं मइ नहिं गइ जीव तुहूं. मरगवि जेण नदि । ‘शील,व्रत, गुण, जान, निःमंगता और सुखत्याग, तें परवंभ मुपवि मई, मा परदायि करेहि ।। यं सभी उम मनप्यमें निरर्थक हो जाते हैं जो हिंसा -योगीन्द्रदेव । करना है। क्योंकि इन सबका उद्देश्य खेतकी बाड़की 'जहाँ मति वहीं गति' इस सिद्धान्तके अनसार हे नरह अहिंसाकी रक्षा ही होता है। जब वही न हुआ जीव ! यदि तुझे मर कर परब्रह्म की प्राप्ति करना है नब इनका वास्तवमें कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता। ना परब्रह्म को छोड़ कर अपनी बद्धिको अन्यत्र पर मवेसिमासमाणं हिदयं गम्भो हु सव्वमत्थाणं। द्रव्य में मन लगा।' समि बदगणाणं पिंडो मारो अहिंसा ह॥ । दह-पग्ग्रिहादिको अनुगग बता कर उन्हीं की चिन्ताम ... _ _शिवाय रहनेमे जन्म-जन्मान्तर, उनी की प्रापि होती रहती है-पा: 'मर्व आश्रमोका हृदय, मर्व शाम्रोंका गर्भ, और की अथवा शद्वान्मभाव की प्राप्ति दत्ता हो जाती है ।] मर्व ब्रतों तथा गणोंका पिंडीभन मार एक 'अहिंसा' है। जस हरिणच्छी हियवडा, नमणवि भवियागि। बाहिरसंगमाओ गिरिसग्दिरिकंदराइ प्रवासी । एकहि कम समंति वढ, बेग्वंडा पडियारि ।। मयलो णाणज्झयणोणिग्न्यो भावरहियाणं ।। -योगीन्द्रदेव । -कन्नकन्दाचार्य। जिमक हृदय में हर समय मगनयनी का-मंदर 'जो भाव र्गहन हैं-माधनाकं भाव एवं प्रा.म- स्त्रीका-वाम है-उमीके अनगगमें जो फंसा रहता है भावनाम न्यन हैं-उनका बाह्य परिग्रहका त्याग. पर्व -उसके हृदयमें ब्रह्मका विचार प्रवेश नहीं करता। मां नांक ऊपर-नदियों के तट पर तथा गिरिगहा-कन्दराओं ठीक ही है एक म्यानमें दो ग्वदग कैमेश्रामकते हैं। में निवास और मंपर्गा माना गयन निरर्थक है-विद- इसम १ जाना जाता है कि जो लोग ब्रह्मचर्यका टीम म्बना मात्र है। पालन करते हैं वही ब्रह्मका यथे विचार कर सकते हैं दम नहीं । बिना भावके इन परिग्रह त्यागादिक अनुटानमें कुछ भी मारना सनथवि पियवयणं हायणेदजण विखमकरणं उत्थरइजाण जरओ रोयग्गी जाणडाइ देह उडि । सम्वेसि गण गहरणं मंदकसायाण दिढता ।। इंदियपलं न वियलइ नाव तुमं कुणहि भापहिय।। -स्वामिकार्तिकेय । -कुन्दकुन्दाचार्य । सर्वत्र-शत्रमित्रादि सबके साथ-प्रिय वचन 'जब तक जरा का आक्रमण नहीं होता-बुढापा बोलना, दुर्वचन सुनकर भी दुर्जनके प्रति क्षमा धारण नहीं पाता-, जब तक रोगाग्नि इस देह कुटीको नहीं करना और सबों के गण ग्रहण करना-दोष नहींजलाती और जब तक इन्द्रियबल नष्ट नहीं होता तब ये सब मंदकषायी जीवों के चिन्ह हैं। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाषित मणियां वैशास्त्र, ज्येष्ठ, वीरनि०सं० २४५६ ] संस्कृत- जीवितान्तु पराधीनाज्जीवानां मरणं वरम् । -वादीभसिंहसूरि । 'पराधीन जीवनसे जीवोंका मरण अच्छा हैसुनामी मौत भली है।' मा जीवन्यः परावज्ञादुःखदग्धोऽपि जीवनि । नम्यान निवास्तु जननी क्रेशकारिणः || -माघ । "उसके जीवन को धिक्कार है जो दूसरोंके द्वारा पमानित हुआ दुःखके साथ जीवन व्यतीत करता है। अपमानित जीवन व्यतीत करने वालोंका जन्म न होना ही अच्छा है । वे अपने जन्म मे व्यर्थ ही जननी (माना ) को क्लेश पहुँचाते हैं।' मृगेन्द्रस्य मृगेन्द्रत्वं विनी केन कानने ? - वादीभसिंह सूरि | 'वन में मगेन्द्रको मृगेन्द्रता - स्वाधीनता - किसने अर्पण की ? किसीने भी नहीं ।' [ इसमें मालुम होता है कि स्वाधीनता कभी किसी की उपहार में नहीं मिलती. वह स्वयं अपने बलके साधार पर प्राप्त की जाती है और तभी टिकती है। ] मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमन्तियोः 'मनुष्यांका मन ही उनके बन्ध-मोनका - उनकी पराधीनता-स्वाधीनता एवं दुःख सुखका कारण है।" [मन जब निर्बल होता है, अपने विवेक को म्यां पेंटता है तो यह खुद ही अपने विचारोंसे भयादिकं संचारद्वारा अनेक प्रकार के बन्धनो तथा दुःखों की सृष्टि कर डालता है और जब सबल एवं सविवेक होना हैनी अपनी वृत्तिको बदल कर - भय, कायरता और गलतफहमीको दूर भगा कर—उन बन्धनों तथा दुग्बो 'छुटकारा पा जाता है ।] "सर्वदा सर्वदोऽसीति मिथ्या संस्तयसे जनैः । नारयो लेभिरे पृष्टं न वक्षः परयोषितः ।। " 'लोग तुम्हारी जो यह स्तुति करते हैं कि तुम मदा मत्र कुछ देने वाले हो वह मिथ्या है; क्योंकि शत्रुओं म ३३१ कभी तुम्हारी पीठ नहीं पाई और न परस्त्रियोंने छानी ।' भावार्थ - शत्रुओं को पीठ देना और परक्षियों को छाती दान करना, ये दोनों ही प्रशंसा के कार्य नहीं किन्तु निन्दा के कार्य हैं, अतः इनके न देनेमें ही मशी प्रशंसा है। "मनुष्य हे दुर्बलदुःखदातः कियचिरं स्थास्यति दर्बिल ते । त्वज्जीवनान्कि फलमस्ति लोक व मुनिस्तं परदुःखदानात ॥" 1 दुर्बलों को मनाने वाले मनुष्य ' तेरा यह भुजबल कब तक कायम रहेगा ? – कब तक तेरे अत्या चार का यह बाजार गर्म रहेगा ? नोक में तेरे जीन मे क्या फायदा है ? दूसरों को दुख देने तो नग मर जाना ही अच्छा है। " श्रात्मनः प्रतिकूलानि परं न समाचरेत् । " 'जो जो बातें, क्रियाएँ, चेष्टाएँ तुम्हारे प्रतिकूल हैंजिनके दूसरों द्वारा किये जानेवाले व्यवहारको तुम अपने लिये पसंद नही करने, अहितकर और दुखदाई समझन हो - उनका आचरण तुम दूसरो के प्रति मनकरो । [ यही धर्मका सर्वस्व अथवा पापो बचाने वाला मंत्र है । ] "यावत्स्वस्थपितं शरीरमरुजं यावज्जगती यावद्रियशक्तिरप्रतिहता यावन्त्रयो नायुषः । आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नी महान मंदीमं भवने तु कूपग्वननं प्रत्ययमः कीटाः ॥ 'जब तक यह शरीर स्वस्थ तथा नीरोग है, जब प्रप्रतिहत बनी हुई है और जब तक आयुका जय नहीं तक बढापा नहीं आया है, जब तक इंद्रियों की शक्ति हुआ है तब तक ही विद्वानों को श्रात्मा के कल्याणसाधनका महान यत्न कर लेना चाहिये | अन्यथाइनमें किसी बानके हो जा पर फिर कुछ भी नहीं बन सकेगा । उस तका उद्यम पर भाग लगने पर का योदने-जैमा निर्धक होगा। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२. अनेकान्त वर्ष १, किरण ६.७ हिन्दी उर्दू-- जौ लौ देह तरी काहू गंग मौं न घरी जौ लौं, "खुशनसीबी है फ़िदा हुब्बे वतन पर होना । जरा नाहिं नरी जासौं पगधीन परि है। नाशेहस्ती तो बहरहाल है मिट जाने को।' जो लों, जमनामा वैरी देय ना दमामा जो लौं, मानै कान रामा बुद्धि जाइन बिगरि है। ऐब यह है कि करो ऐब हुनर दिखलाओ। ती लौ मित्र मेरे निज कारज मँवार ले रे, वरना याँ ऐब तो सब फ़ोबशर करते हैं । पौरुप थकेंगे फेर पीछे कहा करि है। __ x x -हाली' अहो आग आयें जब झोंपरी जरन लागी, एक दिन था जब मयेजरअत से दिल सरशार था कुआ के ग्यदाए तब कहा काज सरि है। बजदिलीसे५१ हमको नफरत वीरता से प्यार था ।। x भूधरदास। x x -'नाज' "जिहँ लहि पनि कछ लहनकी श्रास न मनमें होय । अपनी नज़र में भी याँ, अव तो हकीर१३ हैं हम । जयति जगत पावन करन 'प्रेम' वरण ये दोय ॥" xxx बेगैरती१४ की यारो ! अब जिन्दगानियाँ हैं । पारस मणि के मंगत काञ्चन भई तलवार । x -'हाली' 'तुलसी' तीनों ना नजे धार-भार-आकार ॥ "हम ठोकरें खान हुए भी जोश में आत नहीं । मन अहग्न अरु शब्द घन सद्गम मिले सुनार। जड़ हो गये ऐसे कि कुछ भी जोश में आते नहीं ।।" 'तुलसी' तीनों ना रहे धार-भार-आकार ।। ___ X X तुलसीदास । सका हाथ जब बन गये पारसा१५ तुम । "मींची थौ हित जान के इन की उलटी रीत । नहीं पारसाई यह है नारसाई१६ ॥ सिर उपर रस्ता कियौ यही नीच की प्रीत ।। x x -'दाली' नीर न डोबै काठ को कहां कौन सी प्रीत ? "कालों के सर पै वार है गोरों के बट का। अपनी सांचौ जानकै, यही बड़न की गत ॥" फल पा रहा है मुल्क यह आपस की फट का ।। - X X X मैं समझता था कही भी कुछ पता तंग नहीं। जो कहिये ना झठी जो सुनिय तो सनी । आज 'रॉकर' त मिला तो कुछ पता मेग नहीं । म्युशामद भी हमने अजब चीज़ पाई ।। तिनका कबहुँ न निंदिये जा पॉवन तर होय। X x -'हाला । कबहूँ उडि ऑखिन परै पीर धनी होय ॥ “किसीकी कुछ नहीं चलती कि जब तक़दीर फिरती है' ___ x x कबीर । - X X X विचारमें तो मवीर ही हैं, शुरू किया काम अधीर ही हैं। "जो परार पै पानी पड़े मुत्तसिल११। विपत्तिमें जोबनते सुधीर हैं, प्रसिद्ध वेही जगदेक वीर हैं। तो बेशुबह घिसजाय पत्थर की सिल ॥" __ x x -दरबारीलाल। xxx ईति-भीति व्यापे नहिं जगमें, वृष्टि समय परहुआ करे, - धर्मनिष्ठ हा कर राजा भी न्याय प्रजाका किया करे। १ महोभाग्य. २ बलिदान. गंत्रम. ४ मस्तिचकित रोग-मरी-दुर्भिक्ष न फैले प्रजा शान्ति से जिया करे, ५६ हालतमें. ६ दोष. ७ गुणा. = नहीं तो यहां. : व्यक्ति त परम अहिंसा-धर्म जगत में फैल सर्वहित किया कर। मनुष्य. १० वीरताके नसे. ११ पूर्ण. १२ कायरता. ही १४ कार्मी. १. साधु त्यागी, १६ अप्रामि. १७ गलहर । x 'युगवीर' Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैशाख, ज्येष्ठ, वीरनि०सं० २४५६] कर्नाटक-जैनकवि . . . . . . . . कर्नाटक-जैनकवि ... .. .... ........ .... .... ... [ अनुवादक-श्री पं० नाथूरामजी प्रेमी ] (किरण ३ से आगे) १० मंगरस नीसरा (ईस्वी सन १५०८:) नाथपुराण के कर्ता 'नागचंद्र', नमिचरिन के का इसके पितामह का नाम 'माधव' और पिता का 'कगणप', लीलावतीके कर्ता नमि' और हरिवंशाभ्यनाम 'विजयभूपाल' था, जो होयसल देशान्तर्गत होस- दयके कर्ता बन्धुवर्म' का स्मरण किया है। अपने इतर वत्ति प्रदेशकी गजधानी कलहल्लि का महाप्रभु था ग्रंथों में इसने 'अग्गल' और 'सुजनोत्तंस' का भी स्म और जिसके उद्धव कुलचूड़ामणि, शार्दूलाङ्क उपनाम रण किया है। 4। यदवंश के महामंडलेश्वर चेंगालनप के मचिव 'जयनपकाव्य' परिवद्धिनी षटपदी में लिप्वा गलमे यह उत्पन्न हुआ था। इसकी माता का नाम गया है, जिसमें १६ मन्धियाँ और १०३७ पद्य है । इस दविले' था। इसके गरु का नाम 'चिक प्रभेन्दु' था। में कुरुजांगल देश के गजा गजप्रभदेवके पुत्र जयनृप यभराज और प्रभुकुलरत्नदीप इमके उपनाम थे । की कथा वर्णित है । कविन लिम्वा है कि यह परित विजयभूपाल' विशेषणसे मालम होता है कि यह बड़ा पहले जिनसेन (?) ने रचा था और दूधमें शर्करा के भारी वीर योद्धा था। इसके बनाये हुए जयनपका. मिश्रणके ममान संस्कृतमें कनड़ी भाषा मिला कर इस च्य, प्रभजनचरित, श्रीपालग्नि नमिजिनेश पन्थकी यह रचना की गई है । इसमें गणभद्र, कवि. मंगनि और मपशास्त्र नामक ग्रन्थ हैं । इमन मम्य परमेष्ठी, बाहबान, अकलंक, जिनमेन,पग्यपाद. प्रमेन्द +पकौमुदी की रचना ई०म० १५८८ में की है । इमन और नत्पत्र श्रनमुनिका स्मरण किया गया है। अपने पूर्ववर्ती कवियों से आदिपगणके कर्ता पंप. श्रीपालनग्नि' मांगत्य इन्दोर मम जिनचरितके को 'मन'. चन्द्रभपगणक को मान्धया और १५२६ पद्य है। हममे पगगकिणी परीकं गजा गणपाल के पुत्र की कथा है, । मंगलाच. श्रीविजय', पुष्पदन्तपुराणकं कर्ना गणवर्म'. अनन्न गके बाद मभद्र, पज्यपान, मद्रवाह पाहाल. गौतम. नाथचरित के कर्ता 'जन्न'. धर्मचरिनके कर्ता 'मधुर', गगणभद्र और कविपरमेष्ठी की प्रशंमा की गई है। शान्तीशचरित के कर्ता 'पोन्न', रामायण और मल्लि 'प्रमंजनग्नि ' की एक अपूर्ण पनि उपलब्ध ___पहले सन १६८० तक के कवियों का हाल मा चुका था, है। इसमें शुभदेश के मंभापरनरेश देवमेनके पत्र फिर यह सन् का नया सिलसिला शुरु किया गया, जिमकव प्रमंजनकी कथा है । पंथारंभमें जिन, मध्यमगुरु, उपा. कारण मालुम नहीं हो सका। क्या इन कवियोका हाल पहले मिलसिले में घट गया था प्रथवा मूल पुस्तकमें भी ऐसा ही क्रमभग ध्याय, साथ, सरस्वती. यक्ष, नवकोटि मुनि और स्व. पाया जाता -सम्पादक गुरु चिक प्रभेन्दु का स्मरण किया गया है। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ अनेकान्त वर्ष १, किरण ६,७ ___ 'सपशास्त्र' वाधिक पट्पदी के ३५६ पद्योंमें हैं। पिता का नाम नागय्य है । यह ग्रंथ ई०स० १५२८ में इसमें पिष्टपाक,कलमान्नपाक, शाकपाक आदि विषयों लिखा गया है। का प्रतिपादन है । संस्कृत सपशास्त्र में जो कहा गया है, ४२ रत्नाकर वणी (ई० स० १५५७ ) वही कवि ने इसमें लिखा है और नल-भीम-गौरी के इसन 'त्रिलोकशतक', 'अपराजितशतक', 'भग्नमतानमार कहने की प्रतिज्ञा की है। श्वरचरित' आदि ग्रंथ लिखे हैं। इसके रत्नाकरसिद्ध और रत्नाकरअण्ण नाम हैं और निरंजनसिद्ध इसका 'नेमिजिनेशसंगति' में ३५ सन्धियाँ और उपनाम है। यह वेणुपुर ( मूडबिदिरी ) का रहनेवाला १५३८ सांगत्य छन्द हैं । इसमें नेमितीर्थकरका चरित्र था और इसके दीक्षागुरु देशीयगणाप्रणी 'चारकोनि वर्णित है । मंगलाचरणके बाद तत्त्वार्थवृत्ति (सूत्र ?) योगी' तथा मोक्षगा 'हंसनाथ' थे । हंसनाथकी आज्ञा के उद्धारक गद्धपिच्छाचार्य , चतुर्विंशतितीर्थकर- से इसने भग्तश्वरचरित' की रचना की है। कथाकार कविपरमेष्ठी, गणभद्र, कलियुगगणधर माघ- देवचंद्र की 'राजावलिकथ' में इस कविके विषय नन्दि, छन्दोलंकार-शब्द-शास्त्रकी प्रत्यक्ष मूत्ति देवनन्दि, में एक कथा दी है। बौद्धों का पराजय करने वाले अकलंक, म्वगुरु प्रभेन्दु, त्रिलोकशतक' में १२८ श्लोक हैं। इसमें जैनधतशिष्य श्रतमुनि और उनके सहादर विमलकीर्ति का मानमार लोकस्थितिका वर्णन है। म्मरण किया है। 'अपराजितश्वर-शतक' में १२७ पद्य हैं। प्रत्येक 'सम्यक्त्वकौमुदी' में १० मंधियाँ और ५२ पद्य के अन्तमें अपराजितेश्वर शब्द आया है। इसमें पद्य ( उहंड पटपदी ) हैं । अहंदासश्रेष्ट्री की स्त्रियों ने नीति,वैराग्य, अात्मविचार आदि विषय प्रतिपादित हैं। कही हुई कथायें सुन कर मम्यक्त्व प्राप्त किया और भरतेश्वरचरित' में ८० मंधियाँ और ५९६९ पदा फिर दीक्षा लेकर म्वर्गलाभ किया, यही इसका कथा- हैं। भग्तेशवैभव और भरतेशसंगति भी इसे कहते हैं। नक है । मंगलाचरण के बाद गौतम, देवनंदि, गुण- इसमें तत्त्वोपदेशप्रसंगमें कुछ जैन ग्रंथोंके नाम दिये हुए भद्र, जिनमेन, गरल, कोंडकुन्द, भुजबलि, हेमदेव, हैं जो इस प्रकार है-कुन्दकुंदाचार्यकृत प्राभत और श्रमुनिचन्द्र, पद्मनभ, मयरपिच्छ नन्दिमित्र, समन्तभद्र, नप्रेता, अमृतचंद्रसरि कृत समयसारांक नाटक,प्रभाकर केशव, माघनन्दि,अकलंक, भद्रबाहु, कुमुदेन्दु, प्रभेन्दु भट्टकृत कथा (?), पद्मनंदिकृत स्वरूपसम्बोधन, पूज्यका स्मरण किया गया है। पादकृत समाधिशतक, ज्ञानवर्णन, योगरत्नाकर,सकला४१ पनकवि (ई०स० १५२८) निधि, रत्नपरीक्षा, आराधनासार, सिद्धान्तसार, इष्टोप___ इसका बनाया हुमा 'वर्द्धमानचरित' है। यह देश, अध्यात्मनाटक, भष्टसहस्री, नियमसार, अध्यात्मसांगत्य छन्द में है और इसमें १२ सन्धियाँ हैं । इसके सार । भवसेन नामक एक गुरुका नाम भी आया है। • इन माचार्य की जिन शनों में जा उपख है बर मा यो ४३ पूज्यपाद योगी (ल०१६००) का न्यो भविफन अनुवाद के मा प्रकाशित होना चाहिये। पायणवर्णी के 'झानचंद्रचरित' से मालूम होता है -सम्पादक कि इसने कनसी पट्पदी में 'झानचंद्रचरित' लिखा है। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाख, ज्येष्ठ, वीरनि०सं० २४५६] कर्नाटक-जैनकवि पहले वामपचंद मुनिने 'प्राकृत ज्ञानचंद्रचरित' लिखा व्याख्यान है । मत्र, वत्ति और व्यायान तीनों ही और उसका अनवाद पूज्यपाद योगी ने किया । इसी संस्कृतमें हैं। प्राचीन कनड़ी कवियों के प्रन्थों पर में अनुवाद परसे पायणवर्णीने ई०स०१६५९ में 'ज्ञानचंद्र- उदाहरण दिये हैं । नागवर्म के 'कर्णाटकभापाभपण' चरित की सांगत्य छन्दमें रचना की । अतएव यह कवि की अपेक्षा यह विस्तृत है। 'शब्दमणिदर्पणा की अपेक्षा १७५५ के पहलेका ई०स०१६२० के लगभग हुआ होगा। इसमें विषय अधिक हैं। कनड़ी भाषा का यह अत्य १४ भट्टाकलंकदेव ( ई० स० १६०४ ) त्तम व्याकरण है। इमन 'कर्णाटकशब्दानशासन' नामक व्याकरण ५५ शान्तिकोनि मुनि ( १६१९ । गया है और अपने गुरु का परिचय इन शब्दों में इन्होंने 'शांतिनाथचरित' की रचना की है. जिसमें दिया है- "मूलसंघ-देशीयगण-पस्तकगच्छ-कंड- २३ संधियाँ हैं । मि० गइम माहबके मतमे यह प्रन्य कंदान्वय-विराजमान श्रीमदाय ला . तुलदेश के वेणुपर के वपभजिनालय में शक १४४० चार्य महावादिवादीश्वरवादिपिनामह मकलविद्र- ३० (ई० स०१५१९ :*) में बनाया गया है। जनचक्रवर्तिवल्लालरायजीवरक्षापालकत्यादि ६ पायण वणी ( १६५५ ) नंकावतविरुदावलीविराजमान श्रीमन्नारकीति- इमन 'ज्ञानचंद्रचरित' लिग्वा है। यह चारुकीलपण्डितदेवाचार्य शिष्यपरम्पगयातश्रीसंगीतपर पगिडनाचार्य का शिष्य था और बलगोल के नागपश्य मिहामनपट्टाचार्य श्रीमदकलंकदेवन"। यह ग्रंथ के वंशमें इसका जन्म हुआ था । शक मं०१५८१ (ई. शक मंवत् १५२६ ( ई०स०१६०.४ ) में रचा गया है। म.१६ । म यह ग्रन्थ ममान हा। विलंगिया तालुके के एक शिलालेखम इमकी परम्पग पनगाडिदशकं नंदियपरका रहने वाला सम्यनय. विषयक बहुत बातें मालम होती हैं। कौमुदी का कना पायगण बनी ( १... ) और श्रीदेवचन्द्र ने अपनी 'गजावलिकथं' में लिया है कि गंगपट्टणनियामी 'मन कुमारचग्नि' का कना पाया मुधापुर के 'भट्टाकलंक म्वामी' मर्वशास्त्र पढ़ कर महा गान ये दोनों पायगण वणी में जदा मा म हान है। ___पर्व कवियोमम जिनमन, गगाभद. अकलंक, कविद्वान हुए । इसके बाद प्राकृत, मंकन. मागधी कन्या नकोत. नाकर (भग्नेश्वरचम्ति-गना), कम वन्द. दि पड़भाषाकवि होकर उन्होंने कर्नाटक ब्याकग्गा प्रभाचंद्र. मामदयका टमने मग्गा किया है। की रचना की और प्रसिद्धि प्राप्त की। अपने ग्रंथ में इन्होंने पंप, होन्न, रन्न, नागचंद्र. तानचन्द्रग्नि ' मांगन्य छन्दमें है । ममं । नमिचंद्र, गद्रभट्ट, अग्गल, अंडय्य, मधुर आदि कवियों अध्याय या मन्धियों और ३३३४ पहा है। हमम नप. का म्मरण किया है। श्वर्या करके मोक्ष प्राप्त करनेवाले चंद्रवंशी गजा ज्ञान___'कर्णाटकशब्दानुशान' कनड़ी भाषाका व्याकरण चन्द्र' को कथा है । ग्रंथारंभमें मिद्ध,मरम्वनी, गणधर है। इसमें ४ पाद और ५९२ सूत्र है । इन मंत्रों पर यहां मन १.१५ सौर सीकर गयी ५:- दिया। भाषामंजरी नामकी वत्ति और मंजगमकरंद नामका तक क्या ग्रन्थकी ममापिका समय कम० १.१..। - सम्पादक Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ अनेकान्त वर्ष १, किरण ६. की स्तुति करके भद्रबाहु, कविपरमेष्ठी, कुण्डकुन्द, ४८ नागव (ल० १७००) मूलमंघ ही श्रेष्ठ है यह सिद्ध करके दुष्ट (?) श्वेताम्बर इसने 'माणिकस्वामिचरित' की रचना की है । लोगों पर जय प्रान करने वाले उमास्वाति X मुनि इसका पिता कोटिलाभान्वय का 'सोडेसेट्टि' था और अकलङ्क, भोजराज, अमावस्याके दिन पूर्णिमा कर माता 'चौडांधिका' । यह ग्रंथ भामिनी षट्पदीमें निम्बा दिखाने वाले प्रभाचन्द्र, पज्यपाद. कोल्हापुरके माघ- गया है और इसमें ३ मंधियाँ और २९८ पद्य है। हम नन्दि, लब्धि-गांमट-त्रिलोकसारके कना नेमिचन्द्र, में 'माणिक्यजिनेश' का चरित्र निबद्ध है, जिसका मा. अद्वैनमनध्वंमक शुभचन्द्र, नच्छिष्य चारुकीर्ति, गंश यह है-देवेन्द्रने अपना माणिकजिनबिम्ब (प्रनिगोम्मटसार पर सवालाख श्लोकपरिमित सं- मा)गवणपत्नी मन्दोदरी को उसकी प्रार्थना करने पर म्कत टीका* लिखने वाले पंडिनराव, पंडितार्य, दे दिया और वह उसकी पूजा करने लगी। रावणवध देवता जिनकी पालकी उठाते थे वे पंडित मुनि ललित- के बाद मन्दोदरी ने उस मूर्तिको समुद्रगर्भमें रस्य कीर्ति, बलात्कारगण के विद्यानन्दि, काणुरगणके देव- दिया । बहुत समय बीतने पर 'शंकरगंड' नामक राजा कानि और लक्ष्मीमन का स्मरण किया गया है। एक पवित्रता बी की सहायतासे उक्त मूर्तिको ले आया ४७ पमनाम (ल. १६८.) और कोल्लपाक्ष नामक ग्राममें उसकी स्थापना का मने 'पद्मावतीचरित' की रचना की है. जिसकं ग्रंथके प्रारम्भमें माणिकजिनकी और फिर सिद्ध, मा 'जिनदत्तगयचरित' और 'अम्मनवरचरित' नामा- स्वती, गणधर, यक्ष, यक्षी की स्तुति है । तर हैं। कवि ने इसमें अपना और अपने आश्रयदाता ४. चंद्रशेखर ( ल० १७०० ) का भी परिचय दिया है। तुलव देशमें 'किन्निग' नाम इसने 'रामचंद्रचरित' का कुछ भाग लिखा है का गजा हुआ और उसके बाद 'तिरुमल राव' जिस जिसकी पनि पद्मनाभ ने ई० म० १७५० में की है। का निरूमल मामन्त' भी कहते थे, गद्दी पर बैठा । पद्म- यह कवि 'लक्ष्मणवंग' राजाका आस्थानी (दरबारी) नाम इम राजा का कोषाध्यक्ष था। 'पद्मावतीचरित' था और पद्मनाभकी अपेक्षा विशेष प्रमिद्ध कवि था। सांगत्य छंदमें लिखा गया है। इसमें १२ मंधियों और प्रन्ध अपर्ण रहने का कारण उसका असमय मरगा १६७१ पा है और यह पार्श्वनाथ की शामनदेवी जान पड़ता है। यह प्रन्थ हमको अपूर्ण ही मिला है। पद्मावती का चरित है। ५. देवग्म ( न०१७४० । र यह क्या तस्त्रार्थसूत्र के कता में भिन्न कोई कसर उमाम्याति यह वद्धमान भट्टारक का शिष्य था और इसने हैं । इन्होंने श्वेताम्वर्ग पर का क्या विजय प्राप्त की और किम 'श्रीपालचरित' की रचना की है, जो सांगत्य छंद में साहित्य की रचना की ? इन सब बातों की खोज होनी चाहिये। है। इसकी एक अपर्ण प्रति मिली है जिसमें केवल दो -सम्पादक संधियाँ हैं। . यदि सचमुच ही गोम्मटसार पर मस्कृत में ऐसी कोई महती टीका लिखी गई है तो उसका, उसके लेखक के विशेष परिचयके साथ, . शीघ्र ही पता लगाया जाना चाहिये। -सम्पादक * निजाम स्टेट बकुल्पाक नामक तीर्थस्थान । Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाख, बेष्ठ, वीरनि० सं०२४५६] मंगलमय महावीर ___ मंगलमय महावीर [ लेखक-साध श्री टी० एल० बास्वानी; अनुवादक-श्री हेमचंद मोदी । क्षेत्रका परमपावन महीना महावीरका स्मारक है। नहीं कर सकता।" कहा जाता है कि इस पर इसाक - इस पुण्य मासमें वे आजमे २५ शताब्दी पहले इस प्रवचनकी कि 'पापका प्रतिकार मन करो' छाप अवतीर्ण हुए। उन्होंने पटनाके समीप एक स्थानको है, परन्तु ईसा भी पांच शताब्दी पदले अहिंमाकी अपनी जन्मभूमि बनाया। अशोक और गुरु गोविन्द- यह शिक्षा भारतको दो आत्मनों और ऋषियों-बद्ध महका भी स्मारक होनेके कारण पटना पवित्र है। और महावीर-द्वाग उपदिष्ट और श्राचरित हा पकी परम्परामे उन महाभागकी जन्म-तिथि चैत्र शुक्ला थी। जैन लोग भगवान, ईश्वर, महाभाग इत्यादि कार यादशी मानी जाती है। यह दिन-महावीरकी वर्षगाँट कर महावीरको पजन है। का दिन-यवकों के कैलेण्डर में स्मरणीय है। युवकों ने उन्हें तीर्थकर भी कहते हैं। मैं जिमका अर्थ को याद रहे, यह तिथि अनेक महावीगेंकी जननी है। करता हूँ "सिद्ध पुरुष" । महावीरका स्मरण उन्हें चौ. गद्यपि भारत दरिद्र है, फिर भी वह श्री-सम्पन्न बीसवें तीर्थकर मानकर किया जाता है। उनके प्रथम है। उसकी यह श्री उमके मनष्यों में है। उसके करोड़ों तीर्थकरका नाम प्रापभनाथ अथवा आदिनाथ है, जो भनष्य, गदि कुछ करने का संकल्प करें. नी क्या नहीं अगी याम जन्म और कैलाम पर्वत पर महत्तम आत्मकर सकते ' और प्रत्येक शताब्दीमें भाग्तन ऐम ज्ञान (कैवन्य) के अधिकारी हुए। वे उस धर्मके मब कितने महापरुष पैदा नहीं किये, जो श्रात्माकी शक्किमें में प्रथम प्रवर्नक थे, जिम इनिहासमें जैनधर्म कहा है। महान थे क्योंकि वह, जिसकी कीर्तिका प्रमार यह महावीर जैनधर्म प्रवर्तकोंकी लम्बी मचीम है। चैत्र शुक्ला कर रही है, हमारे इतिहासका एकमात्र उन्होंने इम बौद्ध धर्म की प्राचीनता धर्मका पनी महावीर नहीं हुआ है; अन्य महावीर भी हुए हैं। वे पणा की और टमका पननिमांग किया। हुए है अन्य यगोंमें । वे आमिक क्षेत्र के योद्धा धे। वाग्के विषय में जो 1. नाना , म उन्होंने भारत-भमिको पुग्य-मि बना दिया और उम मुम पर बई। भाग ५मार पड़ा है। उनका जीवन आध्यात्मिक आदर्शवादी श्रीस मम्पन्न कर दिया। अद्वितीय उदारना और अधिनाय मौन्दर्यम परिप __ ये महावीर---अर्थान महान विजयी-ही इतिहास या। बद्धकं ममकालीन होनेके कारण पद्धक योग के साचे महापरुष हैं। ये उद्धतता और हिंसा के नहीं का, युद्धके तपक। और बद्धके मानव-प्रेमका म किन्तु निरभिमानता और प्रेमके महावीर थे। दिलाते है। रूसके महान ऋषि टास्टायने इस रोगको बार वे ईसाम ५५.५. वर्ष पवे विहानक हर बार अलापा है कि "जिस प्रकार अग्नि पग्निका में जन्मे थे। उनके पिता सिद्धार्थ' एक क्षत्रिय राजा शमन नहीं कर सकती, उसी प्रकार पाप पापका शमन थे। उनकी जननी 'त्रिशला'-प्रियकारिणी-वजियोंके Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त वर्ष १ किरण ६, . प्रजातन्त्रक मुग्विया चेटककी पुत्री थी । महावीर अन्य और बिहार में वे सच्चे सुख की सुवार्ता (Gospel) कोक ममान पाठशाला में भेजे जाते थे, परन्तु का सदुपदेश देते हैं। अपने सन्देश को वे जंगली जान पड़ा कि उन्हें शिक्षककी आवश्यकता नहीं है। जातियों तक भी ले जाते हैं, और इसमें वे उनके कर पाक हृदयमें वह ज्ञान विद्यमान है, जिसे कोई भी व्यवहारों की पर्वाह नहीं करते। वे अपने मिश्न में विधान नहीं प्रदान कर सकना । बुद्ध के समान ही सवश? और हिमालय तक जाते हैं । अनेक पीड़को पदम जगनको त्याग दनके लिए व्याकुल हो उठते हैं। और पीड़ाओंके बीच वे कितने गम्भीर और शान्त बन अट्ठाईस वर्षको अवस्था पर्यन्त व कुटम्बमें ही रहते हैं। रहते हैं, और इम गम्भीरता तथा शान्ति में कितना 'अब रनके माता-पिता गुजर जाने हैं और उन्हें संन्याम मौन्दर्य है! पं. प्रवाहमें प्रवेश करने के लिए अन्तःप्रेरणा होती है। वे गम हैं और व्यवस्थापक भी। उनके ग्यारह सब अप ज्यच धाताके ममीप अनमतिकं लिए प्रधान शिष्य है। चारमी से ऊपर मुनि और अनेक जाता है। उनके भाई कहते हैं-"घाव अभी हरे हैं, श्रावक उनके धर्मको धारण करते हैं। ब्राह्मण और ग।" वे दो वर्ष और ठहर जाते हैं। अब वे नीम अब्राह्मण दोनों ही उनके समाजमें शामिल होते हैं । वर्ष है। ईमाकं ममान अब उन्हे अन्त प्रेरणा होती उनका विश्वास वर्ण और जातिमें नहीं है । वे दीवाली है कि अब भब कुछ छोड़ का भवाक सुमार्गमें प्रवेश दिन पावापुरा (बिहार) में ७२ वर्ष की भायु मं करना चाहिए । बद्धकं ममान में अपनी मब मम्पनि दमा से ५२७ वर्ष पव निर्वाण प्राप्त करते हैं।। हरिद्राको दान कर देत, । कुटम्चको यागर्ने दिन इन महावीर का जैनियोंके इस महापुरुषका4 अपना भाग 1.4 अपने भाइयोको और मार्ग चरित्र कितना सुन्दर है ! वे धनवान क्षत्रिय कुल में भम्पनि गरीबांका दे देते हैं । फिर वे तपश्चर्या और जन्म लेते हैं और गृहको त्याग देते हैं। वे अपना धन -पानका जीवन व्यतीत करत है । बुद्ध को ६ वर्ष की दरिद्रों में दान कर देते हैं, और विरक्त होकर जंगल में साधनाक बाद प्रकाशके दर्शन हुए थे। महावीरको अन्तान और तपस्याके लिये चले जाते हैं। कुछ यह ज्याति १० वर्षकं अन्तान और तपस्याके बाद लोग उन्हें वहाँ ताड़ना देते हैं, परन्तु वे शान्त भौर मौन दीखती है । " जुकूला नदीके किनारं जम्भक प्राममें वे रहते हैं। परम-आत्मज्ञान प्राप्त करते है । प्रन्याकी भाषामें अब तपस्याकी अवधि समाप्त होने पर वे बाहर आते हैं। तीर्थकर, सिद्ध, मर्वज्ञ अथवा महावीर हो जाते हैं। अपने सिद्धान्त की शिक्षा देने के लिये जगह जगह अब उस अवस्थाको प्राप्त करत है, जिस उपनिषदा धमते हैं, और बहुत से लोग उनका मजाक उड़ाते हैं । में कैवल्य द्रष्टाकी अवस्था कहा है। जैनमन्धोंके अन- सभाओं में वे उन्हें तंगकरते हैं, उनका अपमान करते मार अब उनका नाम 'कंवली' हो जाता है। हैं, परन्तु के प्रशान्त और मौन बने रहते हैं ! . बद्धके समानधर्म-प्रचारके लिए एक महान् उनका एक शिष्य उन्हें त्याग देता है और उनके मिशन लेकर लोगोंमें ज्ञानका उपदेश देने निकलते हैं। विरुद्ध लोगों में मिथ्या प्रवाद फैलाता है, पर फिर भी जीस वर्ष तक वे यहाँ में वहाँ घूमते-फिरते हैं । वंगाल. वे शान्त तथा मौन रहते हैं। . ... Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाख, ज्येष्ठ, वीरनि० सं०२४५६] मंगलमय महावीर वे एक महावीर-एक विजेता-एक महापुरुष सेवा करें । महावीर की वीरता उनके जीवन और उन हो जाते हैं, क्योंकि वे शान्ति की शक्ति का विकास के उपदेशों में प्रतिविम्बित है। वह जीवन अद्वितीय करते हैं। आत्म-विजयका है। उनका उपदेशभी वीरता-पूर्ण है। निःसन्देह ही उनके जीवनने उनके भक्तों पर “सब जीवों को अपने समान समझो और किसी को गहरा प्रभाव डाला । उन्होंने उनके संदेश को सब कष्ट न पहुँचाओ ।" इन शब्दोंमें अहिंसा के द्विगगा नरफ फैलाया। कहा जाता है. कि पायरो (Pyrrho) सिद्धान्नों का प्रतिपादन है। एक स्पष्ट है और दमग नामक यूनानी विचारकने जिमिनोसोफिस्टोंके चरणोंमें गढ़। इन में स्पष्ट' ऐक्य के सिद्धान्तों का अनमरगण दर्शनशास्त्र सीखा । मालम होता है कि ये जिमिनोसो. करता है, अर्थात् अपनेको सबमें देखा; और 'गढ' फिस्ट लोग जैन योगी थे, जैसा कि उनका यह नाम उसमें से विकसित होता है, अर्थात् किमी की हिमा निर्देश करता है। मत करो। सब में अपने आपका दर्शन करनेका अर्थ बचपनमें उनका नाम 'वीर' रक्खा गया । उस ही किसी को कष्ट देन में झकना है । अहिमा मब जीवों ममय वे 'वर्द्धमान' भी कहलाते थे, परंतु आगे चल में अद्वैतके आभास में ही विकसित होती है। कर. वे 'महावीर' कहलाये। महावीर शब्द का मूल हमारे इतिहासके इस महान वीर का जीवन और अर्थ महान योद्धा है। कहा जाता है कि एक दिन जब उनका मंदेश तीन बातों पर जोर देता है :कि वे अपने मित्रोंके साथ क्रीडा कर रहे थे, उन्होंने ब्रह्मचर्य-बहुन से माधु गोशालके ननत्व में ५क बड़े काले सर्पको उसके फन पर पैर रख कर बड़े नीति-भ्रष् जीवन व्यतीत करते थे। वे भोग्नीके सलाम गौरवसे वशमें किया और तभीसे उन्हें यह विशेषण थे। यह गोशाल उनका ॥1 मागा या नियमा, मिला। मुझे यह कथा एक पक मालूम पड़ती है, तो पीछमें पागल हार माग मका प्रा1क्योंकि महावीर ने सचमुच कपाय-कपीमपको वश क जीवन व्यतीत करना पापांक लि में किया था। वे दर असाल एक महान वीर-महान ब्रह्मचर्य-त्रत अनिवार्य कर दिया है, नम iii विजेता-थे। उन्होंने गग और द्वेषको जीत लिया था। गवक भाग्न का पननिर्माग एक महान दशके qil उनके जीवनका मुख्य उद्देश्य चैतन्य था ' । वह जीवन करना चाहें, उन्हें ब्रह्मचर्य की गति में पूर्ण हो परम शक्तिका था। 'पीत वर्ण' और 'सिंह' ये दो उन चाहिए। के प्रिय चिह्न हैं । श्राधनिक भारत को भी महान वीग श्रीकान्तवाद याभ्या--महामन्यात की आवश्यकता है। मिर्फ धन या ज्ञान बहुत कम कि विश्व का कोई भी एक बापु मायका in ult उपयोगी है। आवश्यकता है ऐसे पुरुषार्थी पुरुषोंकी, पादन नहीं कर मकना, क्योंकि माग अनन्त है । मग जो अपने हृदय से डरको निर्वासित कर स्वातन्त्र्य की मुझ पाइन्टनक मापंचवाद | Mulant in thlirat * कषाय हिंसाका भाव-क्रोध, मान, माया, लोमा ivity) के आधुनिक संप्रयोगका माना। + The Central note of his life was हमने अभी कुछ वर्षों में धमके नाम वाद-विवारचौर 'Virya' Vitality. पृणाके कारण काफी कष्ट उठाया है। महावीर की Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० अनेकान्त वर्ष १ किरण ६, वाणी युवकगण सुनें, और उन का सहानुभूति एवं सामाजिक जीवन में क्या पहिंसा से हिंसा अधिक समानता का संदेश प्रामों और नगरोंमें ले जावें । बि- नहीं है ? भिन्न धर्मों में भेदों और झगड़ों का सृजन किया है। और वर्तमान राजनीतिमें हम क्या देखते हैं, कषावे आयात्मिक जीवन-सम्बन्धी नये विचार, नूतन यां की मन्त्रणा या अहिंसा की शक्ति ? देशभक्ति और नवीन राष्ट्रीय जीवन का सजन करें; एक बात का मैं और भी अनुभव करता हूँ, और क्योंकि सत्य असीम है और धर्मका उद्देश्य भिमता वह यह है कि राष्ट्रीय आन्दोलनोंको एक नवीन उदा और झगड़ों का उत्पादन करना नहीं, किन्तु उदारता आध्यात्मिक स्पन्दन (प्रोत्साहन) मिलता जाना चाहिए। और प्रेम का पाठ पढ़ाना है। एक भ्रातत्वमय मभ्यता का निर्माण होना चाहिये। २ महिसा-यह वस्तु पालम्य और कायरताके विद्वेष हमारी महायता नहीं करेगा। आजकल गए पर है। अहिंसामत्तात्मक है, निरी कल्पना नहीं । यह अपनी मानसिक शक्तियोंकी सम्पत्ति लड़ाई-झगड़ोंमें माधारण गुणों में उस श्रेणी की वस्तु है। यह एक खर्च कर रहे हैं। हमें चाहिए कि हम ईश्वरको अपन शक्ति है । यह शक्ति शान्ति की है.लड़ाकू दनियामें गष्ट्रीय जीवन में ग्वींचलावें । मानव-विश्वके पुननिर्माण शान्तिकी अन्त प्रेरणा है। के लिए हमे आध्यात्मिक शक्तिको आवश्यकता है। बहुत दिनोंम यरोप में निन्य ही बलात्कार और यदि कोई मुझमें एक ही शब्दमें कहने के लिए को हिमाके नये-नये कार्यक्रम स्वीकृत हो रही है। आज कि भारतकी आत्मा क्या है ? नो मैं कहूँगा-'अहिमा' । भारतमे भी बहुत लोगों के लिए वे आकर्षक सिद्ध हुए भारतका अनन्त अन्वेषण अहिंमाको विचार, कला, हैं। एक फरासीमी ने अभी हालमें ही प्रकाशित एक उपासना और जीवनमें ममाहृत करता रहा है। पुस्तक में लिखा है-"हमें जर्मनीके नाश की जरूरत अहिंसाके सिद्धान्तने भारतवर्षके सांसारिक सम्बंधों है।" एक भारतीयने भी रशियोद्वार-फण्डमें सहायता परभीप्रभाव डाला। उसने साम्राज्यों और विजयोंकेस्वप्न करनेके लिए प्रामह किये जाने पर कहा था-"हमें नहीं देखे और वह जापान तथा चीनका भी गुरु हो गया। भावश्यकता है योपियनों के नाश की।" इस तरह अपनी इस आध्यात्मिक उन्नतिके कारण यह अपरिचित को बातें मेरे हृदय को पीड़ा पहुँचाती हैं। फिर मैं देश उन देशोका ईर्षापात्र हो गया। भारतवर्ष सैनिकभारतके ज्ञानी महात्माओंका चिन्तन करता हूँ, जिन्हो वादियोंका देश नहीं था । मनष्यताके प्रति आदरबुद्धि नाज मे २५ शताब्दी पहले हिन्दुस्तान के लोगों को ने ही उसे साम्राज्यवादित्व की आकाक्षांसे बचा लिया । वह महान सदेश-देषको सहानुभूति और निःस्वार्थता वह महान राजनीतिक सत्य था, जिसे बुद्ध ने अपने में जीता-दिया था। वचनों में व्यक्त किया था कि "विजेता और विजित ___ मै इतिहास के पृष्ठोको नाश और क्षयसे माछा- दोनों ही असुखी हैं । विजित अत्याचारके कारण और वित पाता हूँ। युद्ध ' नाश । धार्मिक प्रात्यचार ! विजेता इस सरके मारे कि विजित कहीं फिर न उठ अपनी जीवन यात्रामें हमने अहिंसा को अपना लक्ष्य ठे और उसपर विजय प्राप्त करे।" भारतवर्षने कभी नही रखा। हमारे भोजन में. हमारे व्यापारमे और किसी देश को गुलाम बनाने का प्रयत्न नहीं किया। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाख, ज्ये, बीरनि०सं० २४५६] छलना २४१ गालाम बनाना ही हिंसाचरण है। शासन-द्वारा किये गये अपने देशके अपमानके कारण यशेप इस प्रकार पीड़ित है और संक्षोभमें भटकता संक्षुब्ध हैं, परन्तु स्वतन्त्रताके युद्ध में शक्तिका रहस्य फिर रहा है, और प्रायःलोग उस की शक्ति को भूलसे धैर्ययक्त उद्यम और प्रात्म-यज्ञ का अभ्यास है । जिस स्वतन्त्रता समझ बैठे हैं । साधनों के बिना और नैतिक अहिंसाकी चर्चा में कर रहा हूँ, वह निर्बलता नहीं है। नियमोंके अभ्यासके बिना स्वातन्त्र्य नहीं हो सकता। मथी अहिंसा मृत्यका डर नहीं है, किन्तु मनष्यताके यरोप अभी तक राष्ट्रीय और जातीय नियमसे अधिक प्रति आदर भाव है । मुझे गहरा विश्वास है कि भारत और किसी नियम को नहीं मानता। इसके परिणाम स्वतन्त्र हो जायगा, यदि वह अपने आपके प्रनि मया १ गष्ट्रीय संघर्ष और पश्चिमके राष्ट्रवाद । इनका परि- होगा । मुझे उपनिषदोंके इम उपदेश पर पुरा विश्वाम पाम हुआ संसार-व्यापी युद्ध, और युद्धका अभी तक है कि अहिंसा यह है, और यह अथवा बलिदान अन्त नहीं हुआ है। महान बल है। जब मैं अपने कामके लिए जाता है, मुझे मालूम है कि युवकांको हिंसाके मूल्यके विषय नब गीताके एक उद्गार को अपने पाप गुनगुनाया म मन्यह है । वे प्रकृतिमे शक्ति-मदमत्त अनियन्त्रित करता है "हे कोन्नय, मंरा भारत कभी नष्ट न होगा!" '* उलना * [लवक-श्रामगबन्न गणपति गायलीय । जब योवन की प्रथम उषा में, मैंने आँखें खोली बाली चिन्तित न हो युवा, दो में पतवार चला; भवमागर के पार पति है हँस आशाएँ बोलीं। अपने मंग तुम्हें भी भव के उम नट पर पहुँचा। मोचा, क्यों न चल उम पार मंत्र-मुग्ध-मा बैट। नारा ; बैठा तरि पा ले पनवार । नरी बढ़ चली ज०। ५. मन्ना। में था श्रमभव हीन यवा, कैम पनवार वलानामधि मिया में पाक नारणी इठला गया गेमा नाविक मिला न जो उम पार मुझे पहुँचाना। हम दोनों पर प्रेम-सुग की मानकता छाईन । वनब स्वर्ग-ज्योति-सी आई, in बोला, तुम पर न्यौछावा मुझे देखते ही मुसका। वाली. प्रियतम प्राणेश्वः । अकस्मान हो उठा क्षुब्ध मा रकिनाग, वे तो अन्तर्धान हुई बैठा हूँ मैं बचाग । कोई उन का पता बता दो था कि किनारे सरी लगा दी। Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ६,७ பாாாாாாாாா . । राजा खारवेल और हिमवन्त-थेरावली लेखक- श्री० मुनि कल्याणविजय जी] मानेकान्तकी ४थी किरणमें " राजा खारवेल और लेखककी शिकायत यह है कि 'हिमवन्त-थेरावली' उसका वंश" इस हैडिंग से हमारा एक लेख छपा की प्रामाणिकता और प्राचीनता की चर्चा किये बगैर है, जो कलिंग चक्रवर्ती महाराज खारवंल के जीवन- उसमें लिखी हुई किसीभी हकीक़तका प्रकाशित करना वृत्तान्त में संबद्ध है। इस लेख का आधार 'हिमवन्त- ठीक नहीं जंचता।" क्या यह दलील है ? भला जो थेगवली' का गुजराती अनुवाद है, यह बात हमने उसी कुछ ऐतिहासिक नई सामग्री उपलब्ध हो उसको सत्य लेव के अन्त में फुटनोट देकर स्पष्ट करदी है। प्रमाणित किये बगैर विचारार्थ उपस्थित न किया जाय ___ इस विषय के अन्वेषक कतिपय विद्वानों के पत्रों तो उस पर ठीक विचार ही कैसे हो सकता है ? से हमें ज्ञात हुआ कि उनका यह लेख बहुत ही पसन्द वारवेल के हाथीगुफा के लेखका ही उदाहरण लीजिये, पाया है। पर यह दुःख की बात है कि बाल कामता- उसको भनेक विद्वानों ने पढ़ा और अपनी अपनी प्रमाद जी जैन को इस लेख में कुछ प्राघात पहुँचा समझ के अनुसार एक दूसरे की विचारधारा को मालम होता है, जिम के परिणाम प्रापन 'अनेकान्त' बदल कर अपनी सम्मतियां कायम की। यही क्यों, की ५ वा किरम में दमके खण्डन में इमी शीर्षक मे एक एक विद्वान ने प्रत्येक बार अपने विचारों को किस 4. आक्षेपक लेख प्रकाशित कगया है। प्रकार बदला और नये परिष्कार किये यह बात कहने लेम्ब के प्रारम्भ में 'हिमवन्न-धेगवली' को जाली की शायद ही जरूरत होगी। टहराने की धन में पापन श्वेताम्बर जैन समाज पर दूसरी बात यह है कि हमारा उक्त लेख 'हिमवन्त जो भाक्षेप किये हैं उन का उत्तर देना इस लेव का घेरावली' विषयक मौलिक लेख नहीं था कि उसमें हम विषय नही है, पर लेवक महाशय इतना समझ अपना कुछ भी अभिप्राय देते, “वीर संवत् और जैनग्का कि जो दोषारोपण आप श्वेताम्बर समाज पर कालगणना" नामक हमारा निवन्ध जो 'नागरी करने जा रहे हैं उस से कहीं अधिक दोषारोप दिगम्बर प्रचारिणी पत्रिका' में भभी छपा है उस के पीछे इस ममाज पर भी हो सकता है, पर इस दोष-दृष्टि में थेरावली का सारांश परिशिष्ट के तौर पर दिया है उस लाभ ही क्या है ? इन दोषप्राहक-वृत्तियों से हमने का यह एक अंश मात्र था, मूल लेख के साथ जो कुछ हमारे समाज का जितना नुकसान किया है उतना लिखना उचित था वह हमने लिख भी दिया है, पर शायद हमारे विरोधियों ने भी नहीं किया होगा। क्या लेखके प्रत्येक अंशअथवा प्रकरणकेसाथलेखक अपना ही अच्छा हो यदि अबभी हम हमारे समानधर्मियोंके अभिप्राय कैसे दे सकता है? यदि बा० कामताप्रसाद जी ऊपर कीचड़ फेंकने के स्थान पर उनके साथ सहकार हमारे उस लेख के अन्त में दिये हुए फुटनोट को देख करना सीखें। लेते तो यह माक्षेप करने का उन्हें शायद मौका ही Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाख, ज्येष्ठ, पीरनि०सं० २४५६] राजा खारवेल और हिमवन्त थेरावली नहीं मिलता । थेरावली किस प्राचार्य ने किस जमाने बाधित है, जैसा कि आगे चलकर प्रकट होगा ।" में लिखी' इस बात पर ऊहापोह तभी हो सकता है कुछ भी सत्यता नहीं रखता, थेरावली वाली हकीकत कि जब वह मूल थेरावली उपलब्ध हो गई हो । केवल का जैन शास्त्रों से कुछ भी असामजस्य सिद्ध नहीं उमके भाषान्तर के आधार पर यह चर्चा किस प्रकार होता और न जैनेतर साहित्य से ही वह बाधित है, निर्दोषरीत्या चल सकती है ? पर लेखक महोदय जैसा कि आगे चलकर बताया जायगा। जरा धैर्य रक्खें, इन सब पहलुओं पर विचार हो हिमवंत-थेरावली में कंवल खारवेल और उसके जायगा, क्योंकि अब मूल स्थविरावली भी हमारे हस्त- वंश का ही उल्लेख नहीं है, बल्कि उस में श्रेणिक, गत हो गई है। कणिक, उदायी, नन्द और मौर्यवंशके राज्यकी कतिपय अब हम कामताप्रसादजी की उन दलीलों की ज्ञातव्य बातों का भी म्फोट किया गया है, और संप्रति क्रमशः समालोचना करेंगे जो उन्होंने 'हिमवन्त थेरा- के समय में किस प्रकार मौर्य राज्य की दो शाम्बायें वली' की खारवेल-विषयक बातों को अप्रामाणिक और हुई तथा संप्रति के बाद विक्रमादित्य पर्यन्त कौन कौन बाधित सिद्ध करने के लिये अपनी तरफ मे उपस्थित उज्जयनी में राजा हुए, इन सब बातों का संक्षिप्त निर्देश की हैं। इम थेरावली में किया गया है। (१) आपका यह कथन ठीक है कि 'चेटकके वंश (३) लेण्वक की तीसरी दलील यह है कि “गजा का जो परिचय थेरावली में दिया है वह अन्यत्र कहीं चेटक के नाम की अपेक्षा किमी 'चेट' वंशका अस्तित्व नहीं मिलता' पर इससे यह कैमे मान लिया जाय कि इम में पहले के किमी माहित्य प्रन्ध या शिलालेख मे कोई भी बात एकसे अधिक प्रन्थों में न मिलने से ही प्रगट नहीं है। और चेटक का वंश लिपिछवि' प्रमिसु अप्रामाणिक या जाली है ? दिगम्बर संप्रदायके मान्य था।" पन्ध मूलाचार अथवा भगवती आराधना का ही यह ठीक है कि चेटक के नाम में किमी वंश का उदाहरण लीजिये, इन दोनों ग्रंथों में ऐसी अनक बातें अस्तित्व कहीं उल्लिम्विन नहीं दम्बा गया, पर इस बार. है जो दूसरे किसी भी दिगम्बराचार्यकृत प्रन्थों में नहीं वेल के लेम्य और धेगवली के संवाद में यह मानने में मिलतीं, क्या हम पछ मकते हैं कि इन दोनों प्रन्यों क्या आपत्ति है कि हम उलंब में ही चेटक वंश का को अप्रामाणिक अथवा जाली ठहगनका बाबुसाहब अस्तित्व मिद्ध हो रहा है । चेटक की युद्ध निमिनक न कभी साहस किया है ? यदि नहीं, तो फिर क्या मृत्यु हुई, उसकी राजधानी वैशाली का नाश हा कारण है कि किसी बात का प्रन्थान्तरसे ममर्थन न और चेटक के वंशजों का अधिकार विदह राज्य पर में होने की वजह से पाप 'हिमवंत-थेरावली' की अप्रा- उठ जाने के बाद वहाँ गणराज्य हो गया ; इन कारणों माणिक ठहराने के लिये दौड़ पड़े है ? म पिछले समय में चेटक और उसके वंश की अधिक (२) लेखक का यह कथन कि " जो अंश प्रकट प्रसिद्धि न रहने से उस की चर्चा प्रन्थों में न मिलती हुआ है उसका सामजस्य केवल जैन शामों से ही हो तो इस में मशंक होने की क्या जान है ? टीक नहीं बैठता, बल्कि जैनेतर साहित्य से भी वह चेटक बड़ा धर्मी गजा था, उस ने शरणागत की रक्षा Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ के निमित्त ही मगधपति कोशिक के साथ लड़ाई लड़ी थी और अन्त तक अपनी टेक रखते हुए उसने अपना वीरोचित समाधिमरण किया था, इस दशा में चेटक की कीर्ति और उसका महत्व उसके पुत्र शोभनराज की संतान के लिये एक गौरव का विषय हो इसमें क्या अनुचित है ? शोभनराज भाग निकला और उस ने अपनी हीनता साबित की यह मान लेने पर भी चेटक की महत्ता में कुछ भी हीनत्व नहीं आता । अगर ग्यारवेल सचमुच ही इस कीर्तिशाली चेटकका वंशज हा तो वह बड़े गौरव के साथ अपने पर्वजका नाम ले मकता है। अनेकान्त इस कथन में भी कुछ प्रमाण नहीं है कि चेटक 'वि' वंशक | पुरुष था । मुझे ठीक स्मरण तो नहीं हैं पर जहाँ तक खयाल है, श्वेताम्बर सम्प्रदाय के पुराने साहित्य में चेटक का " हैहय" अथवा इस से मिलता जुलना कोई वंश बताया गया है । पर 'लिच्छिवि' वंश तो किसी जगह नहीं लिखा । हाँ उस के समय में वहां 'लिच्छिवि' लोगों की एक शक्तिशाली जाति थी, उसके कई जत्थं थे और प्रत्येक जत्थे पर एक 1 १. जत्थेदार - गणनायक - नियत था । पर इसका अर्थ यह नहीं है कि वे जत्थेदार अथवा गणनायक बिलकुल स्वतंत्र थे । सिर्फ अपने गणों के आन्तरिक *यों में ही उनका स्वतंत्रता परिमित थी। राज्य कारोबार में से सब चेटक के मातहत थे, दुदवयोग मे गिल के साथ की आगि नड़ाई के समय विदेद्द की 'वि' और 'जी' नामक दा प्रबल जातियां दूसरी जाति ने चेटक को धोखा दे दिया, वह वर्ष १, ६, ७ कोकिके साथ मिल गई और काशी तथा कोसलके १८ गण राजोंके साथ चेटककी हार हो गई और इस अपमान के मारे उसने अनशन करके देह छोड़ दिया । * जहां तक मुझे याद है, यह बात 'निरयावली' मूत्रमें है । इस fe का मैने नोट तक किया है, लेकिन इस बकम तो मेरे पास निरमावती' सूल है और न उसका नोट की। इस प्रसंग में काशी के ९ गणराज और कांसल के ९ गणराज जो मल्ल और लिच्छिवि जाति की भिन्न भिन्न श्रेणियों के अगुआ थे उनके चेटक की मदद मे लड़ने का उल्लेख है, पर विदेह के किसी भी ग राजका जिक्र नहीं मिलता। इससे भी यह साबित होता है कि तब तक विदेह में गणराज्य स्थापित नहीं हुआ श्रा। हाँ, अपनी श्रेणियों में वंशपरम्परागत एक एक नायक श्रवश्य माना जाता था, उन श्रेणिपतियों पर राजा चेटक का शासन था और सब कामों में वह चेटक और कोगिक की यह लड़ाई जैनसूत्रोंमें 'महा शिला कष्टक' इस नामसे वर्णित है । इस लड़ाई में किसकी जीत हुई और किसकी हार, यह प्रश्न करके उत्तर दिया गया है कि इसमें 'बज्जी' और 'वैदेहीपुल' (कोलिक) की जीत हुई और नौ मलक और नौ | देखिये निम्न लिखित भगवतीसूत्र लिच्छवि गणराजेों की हार! के शब्द 4. महा शिलाकंटए णं भंते संगामे वहमा के जइस्या के पराजइत्था १, गोयमा ! बज्जी-विदेह से जइत्था नव मल्लई नव लेच्छई कासीकोसलगा महारस बिगणरायाणो परा( भ० श० ७ ३०९ प० ३१५ ) जइत्था ।" यहां टीका में 'वज्जी' शब्द का अर्थ 'बजी' अर्थात् इन्द्र किया है. पर वस्तुतः यहां 'बज्जी' शब्द 'वृजिकजाति' का प्रबोधक है । x इस प्रसंग पर बाबू कामताप्रसादजी ने अपने लेखमें नौ मलिक नौ लिच्छवि गणराजों के प्रतिरिक४८ काशी-कौशल के राजों का जो लेख किया है वह बिलकुल गलत है। काशी कौशल के नौ मलिक मौर नौ लिम्का राजने युद्ध में साहाय्य प्रदान किया था, दूसरे किसी ने नहीं । Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाख, ज्येष्ठ, वीरनि० सं०२४५६] राजा खारवेल और हिमवन्त रावली २४५ महाराजा की हैसियत से उन पर हुक्म करता था । सिद्ध होता है कि चेटक विदेहका सत्ताधारी राजा था। यपि काशी और कोशल के राज्य भी उस समय उज्जयनीके चण्डप्रयोत, सिन्ध-सौवीर के उदायन, विदेह राज्यसे सम्मिलित थे पर वहाँ की आन्तरिक वत्स-कौशाम्बीके शतानीक और मगधपति श्रेणिक जैसे शासन-व्यवस्था में विदेहराज का हस्तक्षेप नहीं था। स्वतंत्र सत्ताशाली राजाओं से उसका वैवाहिक संबन्ध अपने राज्यकारोबार में वहां के गणराज्य स्वतंत्र थे। भी यही बता रहा है कि चेटक एक सत्ताशाली गजा था। हाँ. युद्ध जैसे प्रसंगों में वे एक दूसरेकी मदद के लिये लड़ाई के समय 'वजी' जाति का उसके विरुद्ध वाम नियमोंमे बंधे रहते थे, और इसी वजहम उनने कोगिकके पक्षमें मिल जाना भी यही बताता है कि कोणिकके आक्रमणके समय चटकका माथ दिया था। आम पास के गोकी स्वतंत्रतासे प्रभावित होकर ही चेटक विदेहका परम्परागत गजा था इस बानका वजियन लोगोंने भी चेटकको राज्यधरासे वंचित करने यदापि स्पट उल्लेख हमारे देखने में नहीं पाया. पर टम के लिय मगधपति का पक्ष लिया होगा। इन सब बातो म यह भी निश्चित कैसे मान लिया जाय कि वह पर- कं पयर्यालाचनमे ना यही प्रमाणित होता है कि चेटक परागत राजा नहीं था?, और यह भी कौनमा नियम एक स्वतंत्र-मनावान गजा था | इस हालतम १ कि परम्पगगत राजा हो वही राजा माना जाय और काणिकके माथ की लड़ाईमें रमक पगजित होने पर मग नहीं ? । लेग्वक महाशय जो यह कहते है कि उसका पुत्र शाभनगज कलिंगके गजा सुलोचनके पांम • चेटक परम्पगगत राजा नहीं था यह बात इतिहास बाबू कामनाप्रमाद जी ग्वय भी इस विषयमं पहिल मशयामा और स्वयं श्वेताम्बर ग्रंथोंसे सिद्ध है"बिलकुन निगधार किवाली में गगाराज्य था या गजराज्य । इस बातका कछ भी है। नर्कमात्रम कुछ कल्पना करलेना यह इतिहाम नहीं निगाय नही किया जा सकता । नविय इनकी भगवान महाक ' कहा जा सकता। क्या लेग्बक यह बतानकी नकलीफ. नाम पता का निम्न लिग्विन पिका ग्लाएँगे कि चेटक परम्परागत गजा न होना बान ग ममयक अन्य प्रभावशाली राज्य मगधारिभ अपना व किम श्वेताम्बर ग्रंथ लिम्बी अथवा क्या गहक्षिन वने के लिए बहुत मभव है कि इन याने इम का एक गगाराच्य कायम का लिया हो। किन्न इस विषयमकाई नियामक मी किमी प्राचीन ग्रंध में बना मकन है कि चंटक, निगायनादिया ना मना बनक. कि. उस जमाने क पौर शानी के नियक्त गष्ट्रपति थं' इस बानका लेग्यर ना मालन न नाच । अनाव भाग न पटक योर ना मिदार्थ चान में पकायें कि किमी प्राधनिक विद्वान के कह देन न किमी पपम बगानी और गदलपरक अधिनि थे। मात्र म चंटक वैशानी के अथवा लिच्छवि यश के म पिनामा प्रगट करने । नियक्त राष्ट्रपति सिद्ध नहीं हो मकन । विदह देश में भगवान महावीर पृ०६८) गणराज्यकी चर्चा थी इमी आधार पर घंटक को वहाँ पान अब भाप इस लेग्वमें निश्यक माथ लिम्बने है, कि बिह नाम नाममावाद के स्थान पर प्रकार का पजातवार प. का गणराज अथवा नियन, राष्ट्रपनि मान लेना एक चलित था। नागारक गधानि नियन। क्या में पई बात है और उसके भंबन्धमें उस वानका माबित करने बाद मास को अब कौन नये प्रमागा मिले, निा प्राधार पर वाले प्रमाण देना बूमरी बात है। बाज नक जोजोबान प्रापन या नियामक निगाय का लिया कि नेम्व नियुक्त पनि चेटक मनन्धमें हमने मोची । न मव में नो यही ।। Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष १, किरण ६, ७ ३४६ गया हो और वहां उसको राज्य मिला हो तो क्या चन नहीं था,' केवल तर्काभास है। क्योंकि 'जितशत्रु' यह कोई विशेष नाम नहीं है, किंतु राजाका सम्मान आश्चर्य है ? में दिया जा चुका है । (४) चौथी दलीलका संपूर्ण उत्तर ऊपरके विवेचन नीय विशेषण मात्र है । क्या श्वेताम्बर क्या दिगम्बर किसी भी संप्रदाय के ग्रंथोंमें जहाँ जहाँ राजाका नाम 'जितशत्रु' और रानीका नाम 'धारिणी' आता है वहाँ सर्वत्र बहुधा यही अर्थ समझना चाहिये। इस दशा मे कलिंगके राजाका नाम सुलोचन मानने में कोई आपत्ति नहीं है । अनेकान्त (५) पांचवीं दलील यह है कि 'दिगम्बर जैनशास्त्र 'उत्तरपुराण' में राजा चेटक के दस पुत्रों के जो नाम लिये है उनमें 'शोभनगज' नाम नहीं है, ' ठीक है. उत्तरपुराण में 'शोभनराय ' नाम न सही, पर पण कौनसा प्रामाणिक इतिहास ग्रन्थ है, कि जिसकी प्रत्येक बात पर हम अधिक वजन दे सकें । जो पुराण उदायनको कच्छ देशका राजा बता सकता है और कौशाम्बी के राजा शतानीक को 'मार' नाममे वर्णन कर सकता है उसके वचन पर कहाँतक विश्वास किया जाय, इसका लेखक स्वयं विचार करलें । कौशाम्बी के राजा महमानीक के पुत्र का नाम श्वेताम्बर जैनमत्रों और भास के स्वप्नवासवदन में शतानीक निम्बा मिलता है, तब दिगम्बराचार्यकृत श्रेणिक चरित्र गें इसका नाम 'नाथ' और उत्तरपुराण में 'मार' लिम्बा है । इस पर बाबू कामताप्रसाद जी अपनी 'भगवान महावीर' नामक पुस्तक (१० १४० ) में लिखते हैं कि 'शतानीक' यह इस राजा का तीसरा नाम है। भला शतानीक के 'नाथ' और 'मार' जैसे अव्यवहार्य नामों का तो नामान्तर मान कर निर्वाह कर लेना और 'शोभनराय' नाम उत्तरपुराण में न होने मात्र से ही उसे अप्रामाणिक ठहरा देना यह कैमा न्याय है ?, यहाँ पर भी यही क्यों न मान लिया जाय कि यदि चेटक के उत्तरपुराणोक्त दस ही पुत्र थे तो ' शोभनराज' यह भी उनमें से किसी एक का नामान्तर हो सकता है। (६) यह कहना कि 'हरिवंशपुराण के अनुसार महावीरके समय में कलिंगका राजा जितशत्रु था, सुलो (७) लेखककी सातवीं दलील तो सभी दलीलों का मक्खन है । आप कहते हैं- "क्या यह संभव नहीं है कि ग्यारवेल के अति प्राचीन शिलालेखको श्वेताम्बर माहित्यसे पोषण दिला कर उसे श्वेताम्बरीय प्रकट करने के लिये ही किमी ने इस थेरावली की रचना कर डाली हो और वही रचना किसी शास्त्रभंडार से उक्त मुनिजीको मिल गई हो ? " प्रिय पाठकगण ! कितना गहन तर्क है ?, इससे श्राप लेखक महाशयका मनोभाव तो बम्बूबी समझ ही गये होंगे कि इस विषयमें उनके क़लम उठाने का कारण क्या है । जहाँ तक मैं समझता हूँ बाब कामताप्रसादजी अपने संप्रदाय के अनन्य रक्षक जान पड़ते हैं. अपनी कट्टर सांप्रदायिकता के विरुद्ध कुछ भी आवाज निकलते ही उसकी किसी भी तरह धज्जियाँ उड़ाना आपका सर्व प्रथम कर्तव्य है, यही कारण है कि हिमवंत थेरावलीको बगैर देखे और बगैर सुने ही उसको जाली ठहरानेकी हद तक आप पहुँच गये और जो कुछ मनमें आया लिख बैठे । श्रस्तु । बाबु जी ! आप इतना भी नहीं सोच सकते कि यदि थेरावली वस्तुतः आली होती और उसका मनशा आपके कथनानुसार होता तो उसमें कुमरगिरि पर जिनकल्पि-दिगम्बर साधुओंके होनेका उल्लेख ही *छा होता यदि लेखक महाशय इस विषयके समर्थन में कोई मकल प्रमाख भी माधर्मे उपस्थित कर देते । सम्पादक Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाख, ज्येष्ठ, वीरनि० सं० २४५६ ] राजा खारवेल और हिमवन्त थेरावली क्यों होता ?, खारवेलके लेखको श्वेताम्बरीय प्रकट करनेका और कुमार तथा कुमारी गिरि पर अपना स्वत्व साबित करने के इरादेसे यदि थेरावलीका निर्माण हुआ होता तो उसमें यह जिक्र क्या कभी आता कि कुमारीगिरिकी गुफाओं में जिनकल्पी साधु रहते थे और कुमारगिरि पर स्थविरकरूपी ? इसके अतिरिक्त खारवेलने जो चतुर्विध संघको इकट्ठा किया था उसमें भी दो सौ जिनकल्पकी तुलना करने वाले साधुओं के एकत्र होने का जो निर्देश है वह कभी होता ? यह आपत्ति कि " थेरावलीमें कतिपय उल्लेख ऐसे है जो खारवेल के लेख में पहले अन्य रूपमें पढ़े गये थे और अब वे नये रूपमें पढ़े जाते हैं, उदाहरण के तौर पर 'खारवेल' यह नाम पहिले उपाधि मानी गई थी परन्तु अब वह विशेष नाम साबित हुआ है। इसी प्रकार पहले बृहस्पतिमित्र पुष्यमित्रका ही नामान्तर माना गया था पर अब वैसे नहीं माना जाता ।" परंतु यह आपत्ति भी वास्तिवक नहीं है, क्योंकि अभी तक खारवेल का वह लेख पूरे तौर से स्पष्ट पढ़ा नहीं गया है, प्रत्येक बार विद्वानोंने उसमें से जो जो विशेष बात समझ पाई वही लिख डाली है, पर इसका अर्थ यह नहीं कि अब इस लेखमें कुछ भी संशोधन होगा ही नहीं, क्या आश्चर्य है कि प्रथम वाचना की जिन जिन तो विद्वानोंने पिछले समय में बदला है उन्हीं को वे 'कालान्तर में फिर मंजूर भी कर लेवें ? दृष्टिवादको दुर्भिक्षके बाद व्यवस्थित करनेका ज़िक्र इस लेख में और थेरावलीमें ही नहीं, किन्तु दूमरे भी अनेक प्रामाणिक श्वेताम्बर जैन प्रन्थों में श्राता * * नन्द्र और मौर्यकालीन दुमियोंका वर्णन और उस समय अव्यवस्थित हुए डष्टिवादकी फिर व्यवस्था करनेका विस्तृत वर्णन 'तिथोमाली पडलय' 'आवश्यक दृषि' प्रविप्राचीन कालीन श्रेता ३४७ है इस वास्ते इस विषयका लेखक का अभिप्राय भी दोषरहित नहीं है। (८) कुमारगिरि पर जिनमन्दिरका पुनरुद्धार करके सुस्थित सुप्रति बुद्धके हाथसे प्रतिष्ठा करा कर जिन-मूर्ति स्थापित करने के संबंध में आप कहते हैं कि " वीर निर्वाणसे ३३० वर्षों के बाद ये सब कार्य करके खारवेलको स्वर्गवासी हुआ लिखा है । किन्तु श्वेताम्बरीय तपागच्छ की 'वृद्धपट्टावली' से यह बात बाधित है। उसके अनुसार उक्त स्थविर-द्वय का समय वीर निर्वाण से ३७२ वर्षका है। इस हालतमें वाग्वेल का उनसे साक्षान होना कठिन है।" खारवेल वीर संवत ३३० में स्वर्गवासी हुआ यह तो ठीक है, पर 'सुस्थित सुप्रतिबुद्ध निर्वाण मे ३७२ वर्ष के बाद हुए ' यह लिम्वना ग़लत है, सभी श्वेताम्बर पट्टावलियों में आर्य सुहस्तिका स्वर्गवास निर्वाण से २९१ वर्षके बाद होना लिखा है, इस दशा में कार्य सुहम्ति के पट्टधर सुस्थित सुप्रतिबुद्ध की विद्यमानता ३३० के पहिले मानने में कुछ भी विरोध नहीं है। इन स्थविरोंका ३७२ के बाद होने का लेख भ्रमपूर्ण है । अगर ऐसा तपागच्छकी पट्टावली में उल्लेख है तो वह अशुद्ध है इसमें कोई शक नहीं है। मालूम होता है, ३२७ के स्थान में भूलमे ३७२ छप गया है, क्योंकि इन दोनों स्थविरों का स्वर्गवास निर्वाण से ३२७ वर्षके बाद हुआ था और इन के नाम के लेखों वाले बड़ी पर दो स्तूप भी भिक्षुराज स्वारबेल ने बनवाये थे ऐसा चाल म्बर प्रथोंमें दिया हुआ है, और उसके बादके दुर्भिक्षोंमें भी ि aranी विभिन्ता और क्रमश: उसके विच्छेद होनेके असता म्बर पावलियोंमें मिलते हैं। इस वास्ते सारवेल के समयमें वादका समह करनेके विषयमें जा हिमवंशवली में उम्ब किया गया है वह भगत मालूम नहीं होता। Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ अनेकान्त वर्ष १ किरण ६. . गच्चकी मेमतुंगकृत पट्टावली में उल्लेख है। साथ ही, अचल गछकी पहावलीके इस उल्लेख से न केवल वहाँ यह भी लिया है कि 'आर्य सुस्थित-सुप्रतिबुद्ध मारवेल और इन दो स्थविरोंकीसमकालकता ही मिद्ध अधिकतर कलिंग देशमें ही विहार करने थे । परमात है, बल्कि इससे हिमवंत-घेरावली की भी कतिपय बानी भिनुराज,इनका परम भक्त बना हुआ था, और इन का समर्थन होता है। स्थावरयगल के उपदेश में उसने अनेक शासनोमति (९) इस फिकरेमें लेखकका कहना है कि 'एक ना करने वाले धर्म कार्य किय छ । कालग देश में 'शत्रं- देवाचार्य, बद्धिलिंगाचार्य, धर्मसेनाचार्य तथा नक्षत्रा जयावतार' नाम में प्रसिद्ध कुमर पर्वत पर इन्हों ने चार्य श्वेताम्बर नहीं थे, दूसरे ये नितान्त एक दृमर पोटिवारमरिमंत्रा श्रावधान किया था अतएव इनका मभिन्न कालीन होने मे वारवेल की सभा में उनका मुनिगणकीटकशाम्या' उम नाममं प्रसिद्ध हो गया कत्र होना श्रममय है। यह ठीक है कि इन प्राचायाँ या इन दोनों ने अपना नाममुदाय पदिन्न मार का का श्वेताम्बर जैनो की विद्यमान पट्टावलियों में व ममर्पण कर के कमरागार पर अनशन र वीनिवागा नही है. हिमवंत-धंगवलीकारनं भी यह तो lokal म ३२५ वर्ष श्रीननं पर स्वर्गवाम प्रान किया। * ही नही है कि ये स्थविर श्वेताम्बर-मंप्रदायानुयाया • जिसका माग जर दिया गया है. वह अन्न गच्छकी पहा । आंगवलीकार न नी स्पष्ट मिग्व दिया है कि पानीका मूल पाठ डग प्रकार है श्राचार्य जिनकल्प की तुलना करने वाले थे. आ "चम्पापर्ग. स्तभ्यो सुस्थित-सप्रतिबद्धाभिभो हागिरि की शाम्या के स्थविर थे जो स्वयं भी लिन आप गजन्यकुलममुख्य बातमें पासमंवगी श्रीम- कल्प की तुलना करने । गदि नाम दिगम्बर दाय सुहस्तिनां भाप व्रतं जगहनु प्रागंण कालग- पट्टावालयों में मिलने है ना इम में आपत्ति का दशं विहारं कुर्वनाम्तयास्तत्राय परमाईभिक्षु गज. यात ही क्या है ? इम मे तो उलटा अंगवली के लेम्ब भपाऽतीव भान मंजान । नयापदर्शन नन भिक्षु- काही ममर्थन होता है। अब रही उनके नितान्न राजभपनाने ( कानि ) धर्मकायाग्गि शामनाममये भिन्न कालीन होने की बात, मी यह भी श्रापनि वा. कारनानि ताभ्यां च न कालदेशं शनयावना- विक नहीं जान पड़ती. दिगभ्वरीय प्रन्थोके अनुसार गपरनामश्राम नकारपर्वतापरियानाथाभ्या कोटवार देवाचार्य निर्वाणमे ३१५ वर्ष पीछ दश पूर्वधर बन य मारमन्त्रामधनं कृतम । अनम्तीयपरिवारमुनिः नो इस ममय के पहले भी वे विद्यमान थं इसमें ना गण: 'कोटिकशाम्या' भिधानन प्रसिद्धो बभूव । नौ शका ही क्या है ? , बुद्धिलिग का दशवर्ष पूर्वधरत्व द्वापि भातगे निजपरिवार श्रीमदिन्द्रविनसरिभ्य काल निर्वाणसे २५५ से ३१५ वर्ष तक लिखा है, धर्म ममर्प कुमरगिरावनशनं विधाय श्रीवीरप्रनिर्वाणन सेनाचार्य का समय नि० सं० ३२९ लेखक स्वयं कबूल वर्षषु व्यतिक्रान्तेषु स्वर्ग जग्मतुः । भिक्षुराज करते हैं, नक्षत्राचार्य ३४५ में एकादशांगधारी हुए माने भपेन च तत्रोत्सवं निर्माय नदभिधान लेती हो जाते हैं। तो इसके पहले इनकी विद्यमानना स्वयं भ्नपो काग्निौ।" सिद्ध है। इस दशा में बारवेल द्वारा एकत्र की गई मतगीवाचलगढीय-पावली) मभामें इन पाचार्यों का सम्मिलित होना कुछ भी Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाख, ज्येष्ठ, बीरनि०सं०२४५६] राजा खारवेल और हिमवन्त थेरावली प्रभवित अथवा अशक्य नहीं है। इस विषयमें अवश्य विचारणीय है। यद्यपि इनके सत्तासमयके विद्वान संपादकजी ने भी फुटनोटमें अच्छा खुलासा संबन्धमें श्वेताम्बर और दिगम्बर प्रन्यकार एक मत नहीं कर दिया है जो विद्वानोंके पढ़ने योग्य है । इसी हैं, दिगम्बर संप्रदाय के विद्वान इनको कुन्दकुन्दाचार्यक फिकरेमें लेखक महाशय लिखते हैं कि "इन प्राचार्यों बादमें हुमा मानते हैं तब श्वेताम्बर संप्रदायकी को थेरावली भी दिगम्बर (जिनकल्पी) प्रकट करती पट्टावलियाँ इनको उपर्युक्त श्यामाचार्य के गुरु है। रही बात सवत्र साधुओंकी, सो थेरावलीमें ये अथवा पुरोगामी और पलिस्सह के शिष्य 'स्वाति' मुस्थित, सप्रतिबद्ध, उमास्वाति व श्यामाचार्य प्रभृति प्राचार्य से अभिम मानती हैं । नन्दी घेरावली के बताए हैं। इनमें से पहले दो इस सभामें शामिल नहीं "हारिमगुत्तं साईच वंदमौ हारिमं च सामज" इस हो सकते, यह हम देख चुके । रहे शेष दो, सो ये भी गाथार्धमें बताये हुए स्वाति भाचार्य ही यदि हिमवंत उक्त समामें नहीं पहुँच सकते,क्योंकि उमास्वाति इस थेरावलीके उमास्वाति हैं तब तो उनका वारवेल की घटनाके कई शताब्दी बाद हुए हैं और श्यामाचार्य मभामें शामिल होना कुछ भी आश्चर्यकी बात नहीं है, उनसे भी पीछेके प्राचार्य मालूम होते हैं । अतः थंग. पर इस मंबन्धमें अभी कुछ भी निधित नहीं कहा जा बलीका यह वक्तव्य प्रामाणिक नहीं है।" सकता। श्वेताम्बरीय युगप्रधानपट्टावलियों में एक घेरावली इन देवाचार्य प्रभृति को जिनकल्पी प्रकट और भी उमास्वाति वाचक वीरनिर्वाणसे १११५ के करती है यही तो इसकी प्राचीनताका द्योतक है, यदि आस पासके समयमें हुए बतलाए हैं, आश्चर्य नहीं यह भर्वाचीन कालकी रचना होतीतो दूसरी श्वेताम्ब- कि उमाम्वाति नामके प्राचार्य दो हुए हों और पिछले रीय पट्टावलियोंकी तरह इसमें भी देवाचार्य, बोधि- ममयमें इन दोनोंका अभेद मान लेनेमे यह गहर लिंग, धर्मसेन प्रमुख प्राचार्यों का उल्लेख नहीं होता। उत्पन्न हो गई हो । कुछ भी हो, पर इमसे हिमवन्तरा___ सुस्थित-सूप्रतिबद्धि का ममय निर्वाणसे २५५ में बलीकी प्रामाणिकना कभी मिट नहीं हो सकती। ३२७ पर्यन्त था इस वास्ने इनका खारवेल द्वारा अपनी नमाम लीलों की वृष्टि करनेके बाद वाप प्रस्तुत सभामें शामिल होना किसी तरह अमंगत नही जी ने न्यारवेल के. शके विषयमें अपना अभिप्राय है, यह बात पहिले कही जा चुकी है। उमास्वाति और निश्चित किया है कि 'बाग्वेल सिरि 'ऐल' वंशंका श्यामाचार्यमें मे श्यामाचार्य तो म्वारवेलके ममका- पप था । इम निर्णयमें बारवेल के हाथीगफा वाले लीन थे इसमें कुछ भी शंका नहीं है। क्योंकि श्वे- लेख का ऐरेन' इस शम और जैन हरिवंशम दी नाम्बर जैन पट्टावलियोंमें श्यामाचार्य के यगप्रधानन्य दुई 'ऐलेय' गजा की कथा को प्राधार भत माना है. कालका प्रारंभ नि०म०३३५से माना गया है और जिम पर यह कल्पना भी निर्मूल है, इसका स्पष्ट खुलासा समय उन्हें यगप्रधानका पद मिला उस समय उनको अन्तिम फटनोटमें विद्वान संपादकजी ने ही कर दिया दीक्षा लिए ३५ वर्ष हो चुके थे.इस पास्ते श्यामाचार्य है। इस संबन्धमें यहाँ सिर्फ इतना ही कल्ला पर्याप के सारवेल की समामें शामिल होनेमें कोई विरोध होगा कि प्राचीन समयकी पूर्वदेगीय भाषायोंमें "" नहीं रही मास्वाति की बात, सो यह पान का"" होने का विधान को अवश्य वापर "" Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ६, . का "र" करने वाला कोई विधान नहीं था, इस यही नहीं, थेरावली की अनेक अप्रसिद्ध बातोंका बाम्ते “रेल" का स्थानापन्न "ऐर" नहीं हो सकता। समर्थन भी इस पट्टावली से होता है । कोई कोई विद्वान “ोरेन" इस शब्द को "धेरेन" हमें जो थेरावलीकी पुस्तक हस्तगत हुई है वह इस प्रकार भी पढ़ने हैं जिसका संस्कृत रूप "वजेण' अचलगच्छपट्टावली की पुस्तकके प्रथमके ९ पत्रों में होना है। क्या आश्चर्य है कि अन्य उपाधियोंकी तरह लिखी हुई है और इसके बाद अचलगच्छकी वृहत्पट्टा"व" यह भी ग्वाग्वेलकी कोई उपाधि हो ? और वली लिखी हुई है, यह संपूर्ण प्रतिसंवत् १८९३ में यदि उडिया दन्तकथाके अनुसार यहाँ “ऐर" पाठ ही लेग्यक गमचन्द्र-द्वारा नागोर में लिखी गई थी यह ठीक मान लिया जाय तब भी उमको “ऐलेय" का बात इस पुस्तक के अन्तमें दिये हुए निम्न लिखित वंशज मान लेने के लिये क्या प्रमाण है ? जब 'गल' वचनोंसे जानी जाती हैनाममं कोई वंश ही प्रचलित नहीं था तो वाग्वेल "मंवत् १८९३ वर्षे मार्गसीर शुक्ल नवमी तिथी अपन लेवमें उमका निर्देश फैमें कर मकन ध नागोर नगरे लेखक साचीहर विप्र रामचंद्रेण लिखिता। हिमवन्त-धरावली-गत वाग्वेल-विषयक वृत्तान्त चिरं नंदतु ।' को अप्रामाणिक ठहराने के लिये बाब कामताप्रसादजी हिमवन्त-थरावलीके संबंधमें हम यहाँ अधिक नहीं जैन ने अपनी तरफसे जो जो दलीलें पेश की थीं उन लिखेंगे। इसकी विस्तृत आलोचना एक स्वतंत्र निबंध का संक्षिा उत्तर ऊपर दिया जा चुका है। अब हमारे में हो सकती है जो अधिक समय और विचारणाकी मतसे तो यह बात निश्चित हो गई है कि 'हिमवंत. अपेक्षा रखता है । यदि अनुकूलता प्राप्त हुई तो इसके घेराबली' कोई आधुनिक रचना नहीं है किन्तु सैंकड़ों लिये भी अवश्य ही उद्योग किया जायगा। वर्षोंका पुराना निबन्ध है । इसकी मूल प्रति कच्छमारवीके पन्तकभण्डारसे हमें पगिडत सुखलालजी बत-शवलीका म्पट नामोटिस तक कर दिया है। जोइस प्रकार हैसंघवीके द्वारा भी मिली है, जिसका विस्तृत प्रव. "बलिस्सहमुनिवराश्च पश्चात् स्वपरिवारयुता. लोकन कभी मौका मिलने पर लिखा जायगा. पर मथविरकल्पमभजन् । परं नेषां शाखा पृथगेव वाचक ना ना यहाँ कहना प्रासंगिक होगा कि गवली गणाख्यया प्रसिद्धा जाता । तत्परिवारश्च पूर्वमेवार्यपराना मगध है, यही नहीं वह एक अति महत्वका ऐति हिमवद्विरचितम्थविरावल्यां कथितोऽस्ति ततोऽवसेयः ।" । प्रथलगन्धपट्टाक्ली, १५.२) हासिक प्रन्थ है । अन्तमें इसको हिमवंत-कृत लिखा यह अल्लग्न पहावली में कहीं प्रक्षिप्त तो नहीं, इमे तथा और है पर अभी हम यह निश्चित नहीं कह सकतं हैं कि भी दसरे उल्लेखोंको खाम तौरसे जांचनेको जस्तहै।क्योकिरावली यह हिमवंत-कृत थेरावली ही है या हिमवंत-थरावला माली दोनों के प्रकाशक माशय एक हैं और उनकी स्थिति पं. का सार ?, हिमवंत-धरावली नामक प्राचीन थेरावली माधान थरावला मुखलाल जीमे बहुत कुछ संदिग्ध मालूम हुई हैं। -सम्पादक श्वेताम्बर जैन साहित्य में एक प्रसिद्ध प्रन्य होने का प्राचार्य भावाहु और मार्गमहागिरिका कुमर गरि पर सोवाम प्रमाण हमें अचलगच्चीय प्राचार्य मेरुतुंगकी विक्रम डोनेमिक्त-राक्ली में अन्सा और उसी बातका इसमालपासंवत् १४३८ में निर्मित पट्टावली में मिलता है । बलीसे भी समर्थन होता है। इसमें जमरगिरि और मिथुराजा बलिपसह स्वपिरके प्रसंग परापलीकारने एक जगह मि. नामोल्नेसमीरोहित-क्लीके सपनोपाहीमार करता। Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाख,ज्येष्ठ, वीरनि०सं० २४५६] मुनि जिनविजयजीका पत्र मुनि जिनविजयजी का पत्र और हिमवत-थेरावली के जाली होने की सूचना GRPAN पटना. ना. ता०१२-४-३० श्रीमान् बाबू जगलकिशोरजी की सेवा में हुए लेखका पाठ और विवरण दिया गया है उसी मादर जयजिनेन्द्र-पूर्वक विदित हो कि-मैं कुछ दिनोंसे किताबको पढ़ कर, उस पर से यह थेरावलि का वर्णन इधर पाया हुआ हूँ । अहमदाबादसे प्राते हुए रास्तेमें बना लिया है । उस कल्पक को भीजायसवालजी के एक दो रोज दिल्ली ठहर कर आपके साथ सत्समागम पाठकी कोई कल्पना नहीं हुई थी इस लिये उस कल्पक का लाभ उठाने की खास इच्छा थी परंतु संयोगवश की थेरावली अप-टू-डेट नहीं बन सकी। खैर। ऐसी वैमा न हो सका। रीति हमारे यहाँ बहुत प्राचीन कालसे चली आ रही है। यहाँ पर मित्रवर श्रीयुत काशीप्रसादजी जायस- इससे इसमें हमें कोई पाश्चर्य पानेकी बात नहीं। वाल से समागम हुआ और उन्होंने अनेकान्तमें पाये आप जान कर प्रमान होंगे कि वारवेलके लेखका हुए खारवेल के लेखोंके विषयमें चर्चा की । जिसमें पुनर्वाचनहम दोनों-मैं और विद्यावारिधि जायसवाल म्वास तौर पर उस लेखके बारेमें विशेष चर्चा हुई जी-साथ मिल कर, हाल में फिर यहाँ पर बहुत परिजिसमें हिमवन्त-थेरावलि के आधार पर कुछ बातें श्रमके साथ कर रहे हैं । यहाँ पर-पटने के म्युजियम लिखी गई हैं । यह थेरावली अहमदाबादमें पण्डित- में इस लेखके सब साधन उपस्थित हैं। सरकार मा. प्रवर श्रीसुखलालजीके प्रबन्धसे हमारे पास पागई थी किंमो लाजिकल डिपार्टमेंटकी तरफमे भाज वक और उसका हमने खूब सुक्ष्मताके माथ वाचन किया। जो जो प्रयत्न इस लेख के संशोधन और मंरक्षण की पढ़ने के माथ ही हमें वह साग ही ग्रन्थ बनावटी रश्मि किये गये उन मबका फलस्वरूप माहित्य यहाँ पालम हो गया और किसने और कम यह गढ़ हाला पर सुरक्षित है । श्रीमान जायसवालजीकी अपनहाथमें उमका भी कुछ हाल मालम हो गया । इन बातों के ली हुई लेखकी असली छापे, और और पुराविदोंकी विशेष उल्लेखकी मैं अभी आवश्यकता नहीं समझता। ली हुई प्रतिकृतियाँ मौर.विलायती मिट्टी पर लियाहुमा मिर्फ इतना ही कह देना उचित होगा कि हिमवन्त- अमूल्य कास्ट इत्यादि सब साधनों.को मामनं रखकर रावलिक कल्पकने, खारवेल के लेखबाली जो किताब पाठकी वाचना को जारही है। रोग४-५ घंटे में, जा. हमारी (प्राचीन जैनलेखसंग्रह प्रथम भाग) पाई यसवालजी और कमेर न्युजियमके क्युरेटर रायमादित ई है और जिममें पं० भगवानलाल निजी के पदे घोषबड़े पैगें बारवेल की एम महालिपिके एक एक Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ अनेकान्त वर्ष १, किरण ६, भक्षर को बहुत तत्त्वावधान के साथ पढ़ रहे हैं। एक श्रम का यह फल है कि भाज हम इस लेख के रहस्य एक पंक्ति को पढ़ने में कोई २-३ घंटे लगते हैं और और महत्त्वको इस तरह वास्तविक रूपमें समझने के किसी किमी अक्षर पर पूरा सामायिक भी कर लिया लिये उत्सुक हो रहे हैं। जाना है । मेरा इरादा है कि यहाँ पर लेख की जो इसके साथमें श्री जायसवालजी का नोट है वर मामग्री प्रस्तुत है उस पुरा कर फिर खंडगिरि पर जा- अनेकान्तमें छपने के लिये भेजा जारहा है। आप चाहे कर निधित किये हुए पाठको प्रत्यक्ष शिलाक्षरोंसे भी तो मेरी यह चिट्ठी भी छाप सकते हैं। अनेकान्त ममिलान कर लिया जाय । इसके लिये खास तौर पर दर और सायिक रूपमें प्रकाशित हो रहा है गवर्नेभेटको लिखा जायगा और फिर गवर्नमेंटके प्रबंध जो इसके नामको सर्वथा सार्थक बना रहा है। imma m से वहाँ पर आया जायगा । शिला पर पढ़ने के लिये । लौटते हुए यवि मौका मिला तो मिलने की पूरी पड़ी कठिनाई है और बहुत बेढब जगह पर यह लेख . इच्छा तो है ही। भवदीय सुपा हुआ कहते हैं । श्रीयुत जायसवालजी कोई १६ वर्षमे इस लेख पर परिणम कर रहे हैं और उसी परि. निनविजय चक्रवर्ती खारवेल और हिमवन्त-थेरावली _ [लेखक-श्री० काशीप्रसादजी जायसवाल ]. मुनि श्री कल्याणविजयजीने सत्यगवेषणावृद्धिसे १४२ ) से यापापक शन्दका अर्थ साफ हो गया, गजराती हिमवन्त-घेरावली से खारवेलका इतिहास जिसकी खोज मुझे बहुत दिनोंसे थी । कई वर्षों के दिया । इसमें साम्प्रदायिक भाक्षेपकी कोई जगह नहीं अध्ययनसे पापबाबपाठ निश्चित किया गया था। है, जैसा कि भनेकाम्त के सम्पादकजीने विवेचना कर पर प्रर्थका पता नहीं लगता था । मैं मुनिजीका बहुत अनुगहीत हूँ। मेरे मन में हिमवन्त-घेराबलिके विषयमें बहुत चैत्र २०११ वी० २४५६ * मन्देह पैदा हुमा । मो० कल्याणविजयजीके देखने में पह मूल पुस्तक भी नहीं पाई है । पर जिस भातार * वीरनिया सक्तके इस उस परसे, और भी शेतक महोमें यह पोथी है वहाँ से मेरे प्रदेय मित्र मुनि जिनवि- सके छलके पत्रोंमें इसी साल को लिखा देख र, ऐसा मालन होता कि अनेकान्त की १ली रिकमें 'मायीत्व सम. जबजी के पास भा गई है। उन्होंने पोथी में सारवेल शीर्षकके नीचे जो इस सक्त की स्वार्थता को सिख किया गया है विषयक अंश प्रतित पाया । इस समय मुनिजी पटने उसे जारसमासजी ने भी स्वीकार कर लिया और इसी म माप अपने पसारिकों में सामार ने खगे। प्रकार सिक नही, प्रशित, भाषनिक और कल्पित है। यदि जायसमाजी व तिने मला कोई सार मोर देने की मुमि मी पुण्यविजयजी के लेख (भनेकास प० । Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैशाख, ज्येष्ठ, वीरनि० सं०२४५६] जैनधर्मका अहिंसा-तत्त्व ३५२ जैनधर्मका अहिंसा-तत्त्व [लेखक-श्री० मुनि जिनविजयजी ] नधर्म के सभी 'आचार' और 'विचार' एकमात्र को समझने के लिए बहुत ही थोड़े मनप्योंने प्रयत्न हिंसा' के तत्त्व पर रचे गये हैं। यों तो भारत किया है। जैनधर्मकी इस अहिंसाके बारेमें लोगोंमें के ब्राह्मण, बौद्ध आदि सभी प्रसिद्ध धर्मोन अहिंसाको बड़ी अज्ञानता और बेसमझी फैली हुई है। कोई इसे 'परम धरम' माना है और सभी ऋषि, मुनि, साधु, अव्यवहार्य बतलाता है, कोई इसे अनाचरणीय बतमंत इत्यादि उपदेष्टाोंने अहिंसाका महत्त्व और उपा- लाता है, कोई इसे आत्मघातिनी कहता है और कोई दयत्व बतलाया है, तथापि इस तत्त्वको जितना विस्तृत, राष्ट्र नाशिनी कहता है। कोई कहता है कि जैनधर्मकी जितना सुक्ष्म, जितना गहन और जितना आचरणीय अहिंसा ने देशको पराधीन बना दिया और कोई जैनधर्मने बनाया है, उतना अन्य किसीने नहीं। जैन- कहता है कि इसने प्रजाको निर्वीर्य बना दिया है। धर्मकं प्रवर्तकोंने अहिंसा-तत्त्व ............................... इस प्रकार जेनी अहिंसा कोचरमसीमा तक पहुँचादिया : यह लेख श्वेताम्बर जैनममाजके एक प्र- बारमें अनेक मनुष्यों के अनेक है। उन्होंने केवल अहिंसाका : सिद्ध विद्वानका लिखा हुआ है, जो कुछ ममय : कुविचार सुनाई देते हैं । कुछ कथनमात्रहीनहीं किया बल्कि : पहले 'महावीर' पत्रमें प्रकट हुआ था। इससे : वर्ष पहले देशभक्त पंजाब उसका आचरण भी वैसाही : जैनोंके अहिंमा-तत्त्व पर कितना ही प्रकाश : शरी लालाजी तकने भी एक करदिखाया है। औरऔर धर्मों : पड़ता है, और इसलिये इमं भी अहिन्साके ऐसा ही भ्रमात्मक विचार का अन्सिा-तस्व केवल का-: माचित विचागर्थ अाज अनेकान्न-पाठकोंक : प्रकाशित कराया था, जिसमें यिक बनकररह गया है, परन्तु : सामने प्रस्तुत किया जाता है। -मम्पादक : महात्मा गांधीजी द्वारा प्रचाजैनधर्मकाअहिंसातत्त्व-उससे ..... .............. रित अहिंसाके तत्वका विरोध कुछ आगे बढ़कर वाचिक और मानसिकमे भी परे-- किया गया था, और फिर जिसका समाधायक उन आत्मिकरूप बन गया है। औरोंकी अहिंसाकी मर्यादा स्वयं महात्माजीने दिया था। लालाजी जैमें गहरे मनुष्य, और उससे ज्यादह हुआ तो पशु-पक्षीके जगन् विद्वान और प्रसिद्ध देशनायक होकर तथा जैन माधनक जाकर समाप्त हो जाती है परन्तु जैनी अहिंसा ओंका पूग (?) परिचय रखकर भी जब इस अहिमाकी कोई मर्यादा ही नहीं है । उसकी मर्यादामें सारी विषयमें वैसे प्रान्तविचार रख सकते हैं, तो फिर मचराचर जीव-जातिसमाजाती है औरतोभी बहदैसी अन्य साधारण मनुष्योंकी तो बात ही क्या कही जाय। ही भमित रहती है । वह विश्वकी तरह अमर्याद-अ. हाल ही में, कुछ दिन पहले, जी.के. नरीमान नामक एक नन्त-है और आकाशकी तरह मर्व-पदार्थ-व्यापिनी है। पारसी विद्वानने महात्मा गांधीजीको मम्मोधन कर परन्तु जैनधर्मके इस महन तत्वके यथार्थ रहस्य एक लेख लिया है, जिसमें उन्होंने जैनोंकी भर्तिमाके Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ अनेकान्त वर्ष १ किरण ६,७ विषयमें ऐसे ही भ्रमपूर्ण उद्गार प्रकट किये हैं। मि० रहे। उनके उपदेशानुसार अन्य असंख्य मनुष्यों ने नरीमान एक अच्छे ओरिएन्टल स्कालर हैं, और उन आजतक इस तस्वका यथार्थ पालन किया है; परन्नु को जैन-माहित्य तथा जैन-विद्वाकोंका कुछ परिचय किसीको आत्मघात करनेका काम नहीं पड़ा । इम भी मालम देता है । जैनधर्मस परिचत और पुरातन लिए यह बात तो सर्वानुभव-सिद्ध-जैसी है कि जैनी निहाममे अभिज्ञ विद्वानोंके मुँहस जब ऐसे अवि- अहिंसा अव्यवहार्य नहीं है और इसका पालन करने धारित उद्गार सुनाई देते हैं, तब साधारण मनुष्योके के लिए आत्मघातकी भी कोई आवश्यकता नहीं है। मनमें चक्न प्रकारकी भ्रांतिका ठस जाना माहजिक है। यह विचार तो वैसा ही है जैसा कि महात्मा गांधीजीन इसलिए हम यहाँ पर मंक्षेपमें बाज जैनधर्मकी अहिंसा देशके उद्धारके निमित्त जब असहयोगकी योजना के बारे में जो उक्त प्रकारकी भ्रांतियाँ जनममाजमें उद्घोषित की, तब अनेक विद्वान और नेता कहलाने फैली हुई है उनका मिध्यापन दिखात हैं। वाले मनुष्योंने उनकी इस योजनाको अव्यवहार्य और जैनी महिमाकं विषयमें पहला आक्षेप यह किया राष्ट्रनाशक बतानेको बड़ी लम्बी लम्बी बातें की थी जाता है कि-जैनधर्म-प्रवर्तकांन अहिमाकी मर्यादा और जनताको उससे सावधान रहनकी हिदायत की इतनी लम्बी और इतनी विस्तृत बना दी है कि जिससे थी। परन्तु अनुभव और आचरणसे यह अब निम्सलगभग वह अव्यवहार्य की कोटि में जा पहुँची है। न्देह सिद्ध हो गया कि असहयोगकी योजना न तो अयदि कोई इस अहिंसाका पूर्णम्पस पालन करना चाहं व्यवहार्य ही है और न राष्ट्रनाशक ही । हाँ, जो अपने तो उसे अपनी ममम जीवन-क्रियायें बन्द करनी होंगी स्वार्थका भोग देने के लिए तैयार नहीं, उनके लिए ये और तिवट होकर बहत्याग करना होगा। जीवन-व्य- दोनों बातें अवश्य अव्यवहार्य हैं, इसमें कोई सन्देह वहारको चालू रखना और इस महिंसाका पालन भी नहीं है । आत्मा या राष्ट्रका उद्धार बिना स्वार्थ-त्याग करना, ये. दोनों बातें परस्पर विरुद्ध हैं। अतः इस अहिंसा और सुख-परिहारके कभी नहीं होता । राष्ट्रको स्वतन्त्र के पालनका मतलब प्रात्मपात करना है; इत्यादि। और सुखी बनाने के लिए जैसे सर्वस्व-अपर्णकी भाव. अपपि इसमें कोई शक नहीं कि जैनी अहिंसाकी श्यकता है वैसे ही आत्माको माधि-व्याधि-उपाधिसे मर्यादा बहुत ही विस्तृत है और इसलिए उसका पूर्ण स्वतन्त्र और दुःख-द्वंद्वसे निर्मुक्त बनाने के लिए भी सर्व पालन करना सबके लिये बहुत ही कठिन है, तथापि मायिक सुखोंके बलिदान कर देनेकी आवश्यकता है। यह सर्वथा अव्यवहार्य या प्रात्मघातक है, इस कथनमें इसलिए जो "मुमुक्षु" (बन्धनोंसे मुक्त होनेकी इच्छा किचित् भी तथ्य नहीं है। न तो यह अव्यवहार्य ही है रखने वाला) है-राष्ट्र और आत्माके उद्धारका इच्छुक और न प्रात्मपातक ही। यह बात तो सब कोई स्वी- है, उसे तो यह जैनी अहिंसा कभी भी अव्यवहार्य या कारते और मानते हैं कि, इस महिंसा-तत्वके प्रवर्तको पात्मनाशक नहीं मालूम देगी-स्वार्थ-लोलुप और नं इसका भाषरण अपने जीवन में पूर्ण रूपसे किया सुखैषी जीवोंकी बात अलग है। था। वे इसका पूर्णतया पालन करते हुए भी वर्षों तक जैनधर्मकी अहिंसा पर दूसरा और बड़ा माक्षेप जीवित रहे और जगन्को अपना परम सत्व सममाते यह किया जाता है कि इस अहिंसाके प्रचार ने भारत Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाख, ज्येष्ठ, वीरनि० सं०२४५६] जैनधर्मका अहिंसा-तत्त्व ३५५ पराधीन और प्रजाको निर्वीर्य बना दिया है । इस था ? अहिंसामतका पालन करने वाला दक्षिणका आक्षेपके करने वालोंका मत है कि अहिंसाके प्रचारसे राष्ट्रकूटवंशीय नृपति अमोघवर्ष और गजरातका पालोगोंमें शौर्य नहीं रहा । क्योंकि हिंसा-जन्य पापसे लक्य वंशीय प्रजापति कुमारपाल था । क्या उनकी हरकर लोगोंने मांस-भक्षण छोड़ दिया, और बिना अहिंसोपासनासे देशकी स्वतन्त्रता नष्ट हुई थी ? इतिमांस भक्षणके शरीरमें बल और मनमें शौर्य नहीं पैदा हास तो साक्षी दे रहा है किभारत इन राजाओंके राजहोता । इसलिए प्रजाके दिलमेंसे युद्धकी भावना नष्ट त्व कालमें अभ्यदयके शिखर पर पहुंचा था। जब तक हो गई और उसके कारण विदेशी और विधर्मी लोगों भारतमें वौद्ध और जैन धर्मका जोर था और जब तक ने भारत पर आक्रमण कर उसे अपने अधीन बना ये धर्म राष्ट्रीय धर्म कहलान थे, तब तक भारतमें स्वलिया । इस प्रकार अहिंसाके प्रचारसे देश पराधीन तन्त्रता, शान्ति, सम्पत्ति इत्यादि पूर्ण रूपसे विराजती और प्रजा पराक्रम-शन्य हो गई। थीं । अहिंसाके इन परम उपासक नृपतियों ने अनेक अहिंसा के बारेमें की गई यह कल्पना नितान्त युक्ति- अनक युद्ध किये, अनेक शत्रोंको पराजित किया शन्य और सत्यसे पराङ्मुख है । इस कल्पनाकं मूल और अनेक दुष्ट जनोंको दण्डित किया । इनकी अहिंमें बड़ी भारी अज्ञानता और अनुभवशून्यता भरी हुई मोपासनानं न देशको पगधीन बनाया और न प्रजाको है। जो यह विचार प्रदर्शित करते हैं उनको न तो निर्वीर्य बनाया। जिनको गुजरात और गजपतानका भारतके प्राचीन इतिहासका पता होना चाहिए और न थोड़ा बहुत भी वास्तविक जान है, वे जान सकते है। जगत्कं मानवसमाजकी परिस्थितिका ज्ञान ही होना कि देशोंको स्वतन्त्र, समुन्नत और सुरक्षित रखने के चाहिए । भारतकी पराधीनताका कारण अहिंसा नहीं, लिए जैनोंन कैम कैम पराक्रम किये थे । जिम ममय किन्तु अकर्मण्यता, प्रज्ञानता और असहिष्णुना है। गजरानका राज्य-कार्यभार जैनोंके अधीन था-महा और इन सबका मूल हिंसा है । भारतका पुरातन इति- मात्य, मन्त्री, मनापति, कोपाध्यक्ष श्रादि यो बरे हाम प्रकट रूप से बतला रहा है कि जब तक भारतमें अधिकारपद जैनांके अधीन थं-उम समय गुजगतका अहिंसा-प्रधान धर्मोका अभ्युदय रहा, तब तक प्रजामें ऐश्वर्य उन्नतिकी चरम मीमा पर कड़ा हुआ था। ग़जशान्ति, शौर्य, सुख और सन्तोष यथेष्ट मात्रामें व्याप्त गतके इतिहाममें दगडनायक विमलशाह, मन्त्री मुंजाल, । अहिंसाधर्मके महान उपासक और प्रचारक नपनि मन्त्री शान्तु, महामात्य उदयन और बाहड, वस्तुपान मौर्य सम्राट चंद्रगुम और अशोक थे। क्या उनके मम- और नजपाल, पाम और जगह; इत्यादि जैन गजदारी में भारत पराधीन हुआ था ? अहिंसाधर्मके कट्टर पापांका जो स्थान है वह औरोंका नहीं है । केवल अनुयायी दक्षिणक कदम्ब, पल्लव, और चालुक्य वंशों गजगतके ही इतिहासमें नहीं, किन्तु ममूचे भारत के प्रसिद्ध प्रसिद्ध महाराजा थे ।क्या उनके राजत्वकाल के इतिहाममें भी इन अहिंसाधर्मके परमापामकों के म किमी परचक्रनं पाकर भारतको सनाया था ' पराक्रमकी तुलना करनेवाले पुरुष बहुत कम मिलेंगे। अहिंसातत्त्वका अनुगामी चक्रवर्ती सम्राट् श्रीहर्ष था। जिस धर्मके परम अनुयायी स्वयं गेम शरबीर और क्या उसके समयमें भारतको किसीने पददनिन किया पराक्रमशाली थे और निम्होंने अपने पुरपार्थ में देश Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त वर्ष १ किरण ६, . और राज्यको खूब ममृद्ध और सत्त्वशील बनाया था, कनिष्ट और नीचा गिना जाता है । जहाँ प्रजामें मत्व उम धर्मके प्रचारमे देश या प्रजाकी अधोगति कैसे नहीं वहाँ सम्पत्ति, स्वतन्त्रता आदि कुछ नहीं । इस हो मकनी , " देशकी पराधीनता या प्रजाकी निर्वीर्य- लिए प्रजा की नैतिक उन्नतिमें अहिंसा एक प्रधान नाम कारणभन 'अहिंसा' कभी नहीं हो मकती। कारण है । नैतिक उन्नतिके मुकाबलेमें भौतिक प्रगनि जिन देशों में हिसा' का खूब प्रचार है जो अहिंसाका को कोई स्थान नहीं है और इसी विचारसे भारतवर्ष के नाम नफ नही जानते हैं, एक मात्र मांस ही जिनका पुरातन ऋषि-मुनियोंने अपनी प्रजाको शुद्ध नीतिमान शाश्वत भक्षण है और पशुम भी जो अधिक कर होते बननेका ही सर्वाधिक सदुपदेश दिया है । यगेपकी है, क्या वे सदैव म्वतन्त्र बन रहत है ? रोमन साम्रा- प्रजाने नैतिक उन्नतिको गौण कर भौतिक प्रगतिकी ज्यान किस दिन अहिंसाका नाम सुना था ? और कब ओर जो आँख मींच कर दौड़ना शुरू किया था, उम मांस-भक्षण छोड़ा था। फिर क्यों उसका नाम मंसार का कट परिणाम आज सारा संसार भोग रहा है। में उठ गया । तुर्क प्रजामेंसे कब हिंसाभाव नष्ट हा संसारमें यदि सभी शान्ति और वास्तविक स्वतन्त्रता और करताका लोप हुमा ? फिर क्यों उमक माम्राज्य के स्थापित होनेकी आवश्यकता है तो मनुष्योंको शुद्ध की आज यह दीन दशा हो रही है ? आयलैंण्डमें कब नीतिमान् बनना चाहिए। अहिंसाकी उद्घोषणा की गई थी ? फिर क्यों वह शुद्ध नीतिमान वही बन सकता है जो अहिमाकं भाज शतानियोस स्वाधीन हानके लिए तड़फड़ा तत्त्व को ठीक ठीक ममझ कर उसका पालन रहा है । दूसरे देशोंकी वान जाने दीजिए-वद करता है। अहिंसा तो शान्ति, शक्ति, शुचिता, दया, भारतहीके उदाहरण लीजिये । मुराल माम्राज्यकंचा- प्रेम, क्षमा, सहिष्णुता, निर्लोभता इत्यादि सर्व प्रकारजकोन कब महिसाकी उपासना की थी जिससे उनका के सद्गणोकी जननी है । अहिंसाके आचरणम प्रभुत्व नामशेष हो गया? और उसके विरुद्ध पेशवानी मनुष्य के हृदयमें पवित्र भावोंका संचार होता है, वैर. ने का मांस-भक्षण किया था जिससे उनमें एकदम विरोधकी भावना नष्ट होती है और सबके साथ बन्धवीरत्वका वेग उमड़ पाया ? इससे स्पष्ट है कि देशकी त्वका नाता जड़ता है । जिस प्रजामें ये भाव खिलतं रायवैविक उमति-अवनतिमें हिंसा-अहिंसा कोई कारण हैं, वहाँ ऐक्यका साम्राज्य होता है। और एकता ही नहीं है । इसमें नो कारण केवल राजकर्ताओंकी कार्य- आज हमारेदेशक अभ्युदय और स्वातन्त्र्यका मूल बीज पक्षवा और कर्तव्त-परायणता ही मुख्य है। है। इसलिए अहिंसा देशकी अवनतिका कारण नहीं हाँ, प्रजा की नैतिक उमति-अवनति में तत्वतः है, बल्कि उन्नतिका एकमात्र और अमाघ साधन है। पहिंसा-हिंसा अवश्य कारणभूत होती है। महिंसाकी हिंसा' शम्न हननार्थक 'हिंसि' धातु परसे बना है। भावना से प्रजामें सात्विक वृत्ति खिलती है और इसलिए हिंसा'का अर्थ होता है, किसी प्राणीको हनना जहाँ सात्विक वृत्तिका विकास है, वहाँ सत्वका या मारना । भारतीय ऋषि-मुनियोंने हिंसा की स्पष्ट निवास है। सत्वशाली प्रजा ही का जीवन श्रेष्ठ और व्याख्या इस प्रकार की है- 'पाणवियोग-प्रयोजपसमझा जाता है। इससे विपरीत सत्वहीन जीवन नव्यापार' अथवा 'पाणि दुखमाषनव्यापागे Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाख, ज्येष्ठ, वीरनि०सं० २४५६] जैनधर्मका अहिंसातत्त्व मा. अर्थात्, प्राणियों के प्राणका वियोग करनेके सबको अप्रिय है, जीवन सभीको प्रिय लगता है-सभी लिए अथवा प्राणीको दुःख देनेके लिये जो प्रयत्न या जीनेकी इच्छा रखते हैं। इसलिए किसीको मारना या 'क्रया की जाती है, उसका नाम हिंसा है। इसके विपरीत कष्ट न देना चाहिए। किमी भी जीव को दुःख या कष्ट न पहुँचाना अहिंसा अहिंसाके भाचरणकी आवश्यकताके लिए इसमें है। पातंजलि-योगसूत्रके भाष्यकार महर्षि व्यासनं बढ़कर और कोई दलील नहीं है और कोई दलील हो 'अहिंसा'का लक्षण यह दिया है-'सर्वथा सर्वदा सर्व- भी नहीं सकती। परन्तु यहाँपर एक प्रश्न यह उपस्थित भनानापनविद्रोहपहिसा' अर्थात सब तरहसे, सब होता है कि, इस प्रकारकी अहिंसाका पालन सभी ममयोंमें, सभी प्राणियोंके माथ श्रद्रोह भाव बर्तने- मनुष्य किस तरह कर सकते हैं। क्योंकि जैमा कि प्रेमभाव रखने का नाम अहिंसा है। इसी अर्थको शास्त्रों में कहा हैविशेष स्पष्ट करने के लिए ईश्वर-गीतामें लिखा है कि- जले जीवाः म्थले जीवा जीवाः पर्वतमस्तके । कर्मणा मनसा वाचा सर्वभूतेषु सर्वदा। ज्यालमालाकुले जीवाः सर्व जीवमयं जगत् ॥ भवेशनननं पोक्ता अहिंसा परमर्षिभिः॥ अर्थान्-जलमें, स्थलमै, पर्वतमें, अग्निमें इत्यादि अर्थान्-मन, वचन और कर्मसे सर्वदा किसी भी सब जगह जीव भरे हुए हैं-साग जगत जीवमय है। प्राणीको क्लेशनहीं पहुँचानेका नाम महर्षियोंने 'अहिंसा' इसलिए मनुन्यके प्रत्येक व्यवहारमें-खानेमें, पीनेमें, कहा है । इस प्रकारकी अहिंसाके पालनकी क्या आव- चलनेमें,बैठनमें, व्यापारमें, विहार में इत्यादि सब प्रकाध्यकता है, इसके लिए प्राचार्य हेमचन्द्रने कहा है कि- रके व्यवहारमें-जीवहिंसा होती है । बिना हिंसाके कोई आत्मवत् सर्वभूतेष सुखदुःखे प्रियापिये। प्रवृत्ति नहीं की जा मकनी । अतः इस प्रकारको सम्पूर्ण चिन्तयमात्मनोऽनिष्टां हिंसामन्यस्य नाचरेत ॥ अहिंसाके पालन करनेका अर्थ तो यही हो सकता है अथोन-जैसे अपनी आत्माको सख प्रिय और कि मनुष्य अपनी सभी जीवन-क्रियाओंको बनकर, दुःख अप्रिय लगता है, वैसे ही मब प्राणियों को लगता योगीके समान ममाधिस्थ हो, इस नरदेहका बलान है । इसलिए जब हम अपनी आत्माके लिए हिंसाको नाश कर दे। ऐमा न करके, अहिंसाका भी पालन अनिष्ट समझते हैं, तब हमें अन्य आत्माओं के प्रति भी करना और जीवन को भी बचाये रखना, यह पाकाशउम हिमाका आचरण कभी नहीं करना चाहिए । यही कुसुमकी गन्धकी अभिलाषा के ममान हो निर. बाने स्वयं श्रमण-भगवान श्रीमहावीर-द्वाग इस प्रकार धक और निर्विचार है। अतः पर्ण अहिमा कंवा में कही गई है विचारका ही विषय हो मकनी है, प्राचारका नहीं । "मने पाणा पिया उया, सहसाया, दुर- यह प्रश्न अस्छा है औररासका ममाधान अहिंसा पडिकूला, अप्पिय वहा, पियनीविणों, जीवि. के भेद और अधिकारीका निरूपण कग्नम हो जायगा। उकामा । (नमा) णानिवाएज किंचणं" इमलिए प्रथम अहिंसाके भेद बतलाये जाते हैं । जैन. अर्थात्-मब प्राणियोंको श्रायुप्य प्रिय है, मय शामकानि अहिंसाके अनेक प्रकार बननाये हैं; जैसे मुखके अभिलाषी हैं, दुःख मबको प्रतिकूल है, वध पल अहिमा और सम्म अहिमा; ठम्य अहिमा और Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनकान्त वर्ष १, किरण .. भाव अहिंसा; स्वरूप अहिंसा और परमार्थ अहिम ; धीरे धीरे अहिंसा व्रतके पालनमें उन्नति करता चला देश अहिंसा और मर्व अहिंसा इत्यादि । किसी चलते जाय । जहाँ तक हो सके, वह अपने स्वार्थोंको कम फिरने प्राणी या जीवको जी-जानसं न मारनेकी प्रति- करता जाय और निजी स्वार्थके लिए प्राणियोंके प्रति माका नाम स्थल अहिंसा है, और सर्व प्रकारके प्रा- मारन-नाड़न-छेदन-आक्रोशन आदि लेशजनक व्यवहागिगयोंको मब तरह क्लेश न पहुँचानेके आचरणका गंका परिहार करता जाय । ऐसे गृहस्थ के लिए कुटन्त्र, नाम सूक्ष्म अहिमा है। किमी भी जीवको अपने शरीर दश तथा धर्मके रक्षणके निमित्त यदि स्थूल हिंसा करनी मे दुःख न देनका नाम द्रव्य अहिंसा है और मब पड़े तो उमसे उसके व्रतमें कोई हानि नहीं पहुँचनी । श्रात्मानों के कल्याणकी कामनाका नाम भाव अहिंसा क्योंकि जब तक वह गहस्थी लेकर बैठा है तब तक है। यही बात म्वरूप और परमार्थ अहिंसाके बारेमें ममाज, देश और धर्मका यथाशक्ति रक्षण करना भी भी कही जा सकती है। किसी अंशमें अहिंसाका उसका परम कर्तव्य है । यदि किसी भ्रान्तिवश वह पालन करना देश अहिसा कहलाता है और मर्व अपने कर्तव्यसं भ्रष्ट होता है तो उसका नैतिक अध पात होता है; और नैतिक अधःपात एक सूक्ष्म हिंसा है। प्रकार-सम्पूर्णनया-अहिंमाका पालन करना मर्व क्योंकि इसमे आत्माकी उच्च वनिका हनन होता है । अहिंसा कहलाता है। अहिंसा धर्मक उपासकके लिए स्वार्थ-निजी लाभ ___यापि आत्माको अमात्यकी प्रापिके लिए और -के निमिन स्थल हिंसाका त्याग पूर्ण श्रावश्यक है। संसारक मर्व बन्धनाम मुन्न होने के लिए अहिंसाका जो मनुष्य अपनी विषय-तृष्णाकी पूर्तिकेलिए स्थन मम्पूर्ण रूपम पाचगण करना परमावश्यक है, बिना प्राणियों को क्लेश पहुँचाता है, वह कभी किसी प्रकार अहिंसा-धर्मी नहीं कहलाता । अहिंसक गृहस्थके लि. वैमा किये मुक्ति कदापि नही मिल मकनी; तथापि ताताप यदि हिंसा कर्तव्य है तो वह केवल परार्थक है । इस मंमानवामी सभी मनुष्योंमें एक दम ऐमी पूर्ण सिद्धान्तम विचारक समझ सकते हैं कि, अहिंसा-त पहिमाके पालन करनेकी शक्ति और योग्यता नहीं आ का पालन करता हुआ भी, गृहस्थ अपने समाज और मकती। इसलिए न्यनाधिक शक्ति और योग्यता वाले देशका रक्षण करने के लिए युद्ध कर सकता है लड़ाई मनुष्योंके लिए उपयुक्त रीनिस तत्त्वज्ञान अहिंसाके लड़ सकता है । इस विषयकी सत्यताके लिए हम यहाँ पर एक ऐतिहासिक प्रमाण भी दे देते हैं। भेव कर क्रमश. इस विषयमें मनुष्यको उन्नत होनेकी । ___गजरातो अन्तिम चौलुक्य नृपति दूसरे भीम सुविधा कर दी है। अहिंसाके इन भेदोंके कारण उसके (जिसको भोला भीम भी कहते हैं) के समयमें, एक बार अधिकारियोंमें भेद कर दिया गया है। जो मनुष्य उसकी राजधानी अणहिलपुर पर मुमलमानोंका हमला अहिंसाका सम्पूर्णतया पालन नहीं कर सकते, वे गह- हुआ । गजा उस समय गजधानीमें मौजूद न था, म्य, भावक, उपासक, अणुव्रती, देशव्रती इत्यादि कह- केवल रानी मौजद थी। मुसलमानोंके हमलेसे शहर लाते हैं । जब तक किसी मनुष्य में संसारके सब प्रकार का संरक्षण कैसे करना चाहिए, इसकी सब अधि कारियों को बड़ी चिन्ता हुई। दण्डनायक (सेनापति) के मोह और प्रलोभनको सर्वथा छोड़ देने जितनी । के पद पर उस समय पाभ नामक एक श्रीमालिक मात्मशक्ति प्रकट नहीं होती, तब तक वह संसारमें वणिक भावक था। वह अपने अधिकार पर नया ही रहता हुमा और अपना गृह-व्यवहार चलाना हुभा आया हुभा श्रा, और साथमें वह बड़ा धर्माचरणी Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाख,ज्येष्ठ, वीनि०सं० २४५६] जैनधर्मका अहिंसातत्त्व पथा। इसलिए उसके युद्ध-विषयक सामध्यके वह सुनकर बहुत संदिग्ध हुई, परन्तु उस समय अन्य में किसीको निश्चित विश्वास नहीं था। इधर एक कोई विचार करनेका अवकाश नहीं था, इसलिए भावी नां गजा स्वयं अनुपस्थित था, दूसरे राज्यमें कोई के ऊपर आधार रख कर वह मौन रही। दूमरे दिन सा अन्य पराक्रमी पुरुष न था और तीसरे राज्यमें प्रातःकाल ही से युद्धका प्रारम्भ हुा । योग्य मन्धि यथेष्ट सैन्य भीनहीं था । इसलिए रानीको बड़ी चिन्ता पाकर दण्डनायक आभने इस शौर्य और चातुर्यसे शत्रु हुई। उसने किसी विश्वस्त और योग्य मनुष्यसे दण्ड- पर आक्रमण किया कि, जिससे क्षण भरमें शत्रुके नायक श्राभूकी क्षमताका कुछ हाल जान कर स्वयं उसे सैन्यका भारी संहार हो गया और उसके नायकन अपने पास बलाया और नगर पर आई हुई आपत्तिके अपने शस्त्र नीचे रख कर युद्ध बन्द करनेकी प्रार्थना मम्बन्धमें क्या उपाय किया जाय, इसकी सलाह पूछी। की। भाभका इस प्रकार विजय हुमा देखकर प्रणनब दण्डनायकने कहा कि, यदि महारानीका मुझ पर हिलपुरकी प्रजामें जयजयका आनन्द फैल गया । विश्वास हो और युद्धसम्बन्धी पूरी सत्ता मुझे सौंप रानीने बड़े मम्मानपूर्वक उसका स्वागत किया और दी जाय तो, मुझे विश्वास है कि, मैं अपने देशको फिर बड़ा दरबार करके राजा और प्रजाकी तरफम शत्रुके हाथसे बाल बाल बचा लॅगा । प्राभके इस उत्सा- उस योग्य मान दिया गया। उस समय हमकर रानी हजनक कथनको सुन कर रानी खुश हुई और उसने न दण्डनायकसे कहा कि-सेनाधिपति, जब युद्धको पद्धसम्बन्धी सम्पूर्ण सत्ता उसको देकर युद्धकी घोषणा व्यह रचना करते करते बीच ही में आप-"रंगिदिया कर दी। दण्डनायक आभने उमी क्षण सैनिक संगठन बेइंदिया" बोलने लग गये थे, तब तो आपके मैनिको कर लड़ाईके मैदानमें डेरा किया । दूमरे दिन प्रातः को ही यह मन्देह हो गया था कि, आपके जैमा धर्मकालसे युद्ध शुरू होने वाला था। पहले दिन अपनी शील और अहिमाप्रिय पाप मुसलमानोंके साथ लड़न मनाका जमाव करते करते उसे सन्ध्या हो गई। वह के इस कर कार्यमें कैमे धैर्य रम्ब मकेगा। परन्तु श्राप प्रतधारी श्रावक था, इसलिए प्रतिदिन उभय काल की इस वीरनाको दम्यकर मबको आश्चर्य-निमग्न होना प्रतिक्रमण करनेका उसका नियम था। सन्ध्या पड़ने पडा है। यह सुनकर उम कर्तव्यदक्ष दण्डनायकने पर प्रतिक्रमणका समय हुआ । उसने कहीं एकान्तमें कहा कि-महारानी, मंग जो अहिमावत है, वह जाकर वैसा करनेका विचार किया । परन्तु उमी क्षण मेरी आत्माके माथ मम्बन्ध रखता है। मैंने जो "रंगिमालम हुआ कि, उस समय उसका वहाँ में अन्यत्र दिया बेदिया" के वध न करनका नाम लिया है, वह जाना इच्छित कार्यमें विघ्न कर होगा । इमलिए उसने अपने स्वार्थकी अपेक्षामहै। देशको रक्षाकालए भार वहीं हाथीके हौदे पर बैठे ही बैठे एकामनापूर्वक प्रति- गाज्यकी अामाकं लिए यदि मुझे वध-कर्मकी आवश्यकमण करना शुरू कर दिया। जब वह प्रतिक्रमण में कना पड़े. ना वैमा करना मेग कर्तव्य है । मंग शरीर प्रानवाल-"ज में जीवा विराहियाएगिदियाबहंदिया" गडकी सम्पत्ति है। इम लिए. गष्टकी श्रात्रा और : यादि पाठका उच्चारण कर रहा था, तब किसी मैनिक आवश्यकतानमार उमका उपयोग होना ही चाहिए । ने उसे सुन कर किसी अन्य अफसरमे कहा कि- शरीरम्य आत्मा या मन मेरी निजी सम्पत्ति है। उम देखिए जनाब, हमारे मेनाधिपति साहब तो इस लड़ाई म्वार्थीय हिमा भावमै अलिम रखना यही अहिंसा मंदानमें भी, जहाँ पर शलालको भनाभन होनही बतका लक्षण है, इत्यादि। इस ऐतिहामिक भोर है, मारो मारी की पुकारें मचाई जा रही हैं, वहाँ रसिक उदाहरणमे विज्ञ पाठक भली भाँति ममम "एंगिदिया बेइंदिया" कर रहे हैं। नरम नरम सांग सकेंगे कि, जैन गहस्थके पालने योग्य पहिमाचनका वानेवाले ये श्रावक साहब क्या बहादुरी दिखावेंगे। यथार्थ स्वरूप क्या है। धीरे धीरे यह बात खाम गनीके कान तक पहुंची। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० अनेकान्त उत्तरपुराण में पूर्वापर विरोध [ ले० प्रो० बनारसीदासजी जैन, एम.ए., पी.एच. डी. ] एक दिन मैं श्राचार्य गुणभद्र रचित उत्तरपुराण का बहुत स्वाध्याय कर रहा था और जब पर्व ७४ में यह पढ़ा कि राजा श्रेणिक राजा कूणिकका पुत्र था तो मुझे | आश्चर्य हुआ क्योंकि श्वेताम्बर प्रन्थोंमें श्रेणिक की कूणिकका पिता बतलाया है। मैंने सोचा कि गायव दिगम्बर संप्रदाय की यही धारणा होगी परन्तु जब आगे के पर्व पढ़े तो मेरा यह विचार ठीक न निकला, क्योंकि पर्व ७६ में कूरिणककी श्रेणिकका पुत्र लिखा है । पर्व ७४ में क्रूणिककी श्रेणिकका पिता कहना और पूर्व ७६ में कूणिक को श्रेणिकका पुत्र कहना परस्पर विरोधी है। कभी कभी एक ही संप्रदाय के दो लेख में या एक ही लेखक के दो प्रन्थों में परस्पर विरोध पाया जाता है परन्तु एक ही कर्ता के एक ही और एक ही प्रकरण में इस प्रकारका पर्वापर विरोध विस्मयजनक है । [वर्ष १, किरण ६, ७ १ स्याद्वाद मन्यमाला २०८० लालाराम जैनकृत हिंदी अनुवादसहित इन्दौर म० १६७५ ॥ लेखक महाशयका इसे 'पर्व' पर विरोध' अथवा 'परस्पर विरोध' मना भोर उस पर विग्मय तथा भाव प्रकट करना ठीक नहीं है। 'पूर्वापर विशेष भादोषमं दूषित तो यह किपी तरह तब हो मकता जब कि कर्ता किताको एक जगह 'कूणिक' और सरी जगह कुछ भौर ही लिखा होता अथवा श्रेणिकके पिता और पुल दोने के व्यक्तित्वको एक ही सूचित किया होता। महज नाम की समानता से दोनोंका व्यक्तित्व एक नहीं हो जाता। एक नाम के अनेक व्यक्ति होते हैं। राष्ट्रकूट भादि कितने ही राजवंशों में एक एक नामके कई कई राजा हो गये हैं। कितने ही राजघरानों तथा कस्बों में जो नाम बाबाका होता है वही पोतेका रक्खा जाता है। 999. अब पाठकों की सूचना के लिये इन परस्पर विरोधी वचनोंको संक्षेपसे नीचे उद्धृत किया जाता है । दिनम्बर संप्रदाय की धारणा है X कि प्रत्येक तीर्थकर ने अपने अपने शासन में ६३ शलाका पुरुषोंका इतिहास वर्णन किया और इसको उनके गणधरोंने प्रकाशित किया। इस धारणा के अनुसार इस अवसर्पिणी काल के अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामीने भी ६५ शलाका पुरुषों का इतिहास वर्णन किया जिसे उनके मुख्य गणधर गौतम मुनिने प्रकाशित किया । इम प्रकाशन कार्य के लिये प्रार्थना राजा श्रेणिककी ओरसे हुई, इसीलिये पुराणों में कई स्थानों पर गौतम मुनि राजा श्रेणिक को संबोधन करते हैं । जब ६३ शलाका पुरुषोंका इतिहास वर्णन करते करते गोतम मुनिने यह कहा कि हे राजन् ! एक बार भगवान् महावीर स्वामी विहार करते हुए राजगृह के निकट विपुलाचल पर्वत पर आकर विराजमान हुए 1 आज भी दक्षिणमें जिधर ग्रंथकार हुए हैं ऐसी प्रथा पाई जाती है इस समय मेरे सामने ट्राकोरे के एक महाशय वेंकटाचलजी उपस्थित हैं, उनका यह नाम वही है जो उनके पितामह का था। हो सकता है कि ग्रन्थकारका यह नाम देना किसी प्रकारकी गलतीको लिये हुए हो क्योंकि दिगम्बर प्रथोंमें श्रेणिकके पिताके स्थान पर 'प्रश्रेणिक' नाम भी पाया जाता है । परन्तु ग्रंथकार के इस कथन पर 'पर्व पर विरोध' का आरोप नहीं लगाया जा सकता। -सम्पादक x क्या ताम्बर सम्प्रदायकी ऐसी कोई धारणा नहीं है, जिम से एक सम्प्रदायविशेषके नाम के साथ उसके उदेख करने की अस्पत समझी गई? 'पउमचरिय' भाविके देखनेसे तो ऐसा कुछ मालूम नहीं होता । -सम्पादक Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाख.ज्येष्ठ, वीरनि०सं० २४५६] उत्तरपुराणमें पूर्वापर विरोध ३६१ तो त उनके दर्शन के लिये पाया । यह सुनकर श्रेणिक वर्णन भी उत्तरपुराण में है परंतु यहाँ अनुपयक्त होने बहुत प्रसन्न हुआ और अपने पूर्व भवोंका वृत्तान्त के कारण उद्धृत नहीं किया । पछुने लगा । इस पर गौतम मुनि कहने लगे कि हे आगे चल कर पर्व ७६ में कूणिक को चेलिनीका गजन त अपने तीसरे भवमें खदिरसार नामी भील पुत्र करके लिखा है वह प्रसंग इस प्रकार है:था और विन्ध्य पर्वतके कुटच नामी वन में रहता था। गौतम मुनि श्रेणिकको कहते हैं कि जब भगवान वहाँ में काल करके स्वर्ग में गया और देवायु पूर्ण महावीर निर्वाणको प्राप्त हो जायेंगे तो मुझे भी केवल हान पर कूणिक राजाकी श्रीमती रानीकी कूखमे पत्र- ज्ञान होजायगा । विहार करता हुआ एक बार में इमी रूपमें उत्पन्न हुआ। नगरमें इमी पर्वत पर ठहरूँगा । मेग आगमन सुनकर कृणिकको श्रेणिक बहुत प्याग था और वह इम इस नगरका राजा चेलिनीका पुत्र कुणिक अपने परिअपना उत्तराधिकारी बनाना चाहता था, इसलिये उमने वार-सहित पाकर मेग उपदेश सुनेगा और श्रावकधर्म ज्योनिषयों से पूछा कि मेरे पीछे राजा कौन होगा। अंगीकार करेगा । उन्होंने विचार करके कहा कि श्रेणिक । श्रेणिक को कुछ दूर और आगे चल कर लिया है कि जब दसरे भाई बन्धुओंकी ईर्ष्या बचानके लिये कृरिणकन जम्बकुमार दीक्षा लेगा नो कृणिक उसका निष्क्रमणउसमे कृत्रिम गेष प्रकट किया और उस देश-निकाला महोत्सव करेगा। दे दिया। इस अवस्थामे श्रेणिकने एक ब्राह्मण कन्याम ऊपर दिये हुए प्रमंगाम पर्व ७४ में कणिक को विवाह किया जिमकी कूख से अभयकुमार उत्पन्न श्रेणिक का पिता कहा है । पर्व ७५ में लिखा है कि हुआ जो बहुत बद्धिमान और चतुर है। अब किमी श्रेणिककी पटरानी चलिनी थी। पर्व ७६ में कणिकका निमित्त से कणिक ने स्वयं राज्य छोड़ दिया और चलिनीका पुत्र बननाया है। इसमें मिद्ध हुआ कि पर्व श्रेणिकका राजा बना दिया है। ७४ में कूणिकका गिणक का पिना माना है और पर्व पर्व ७५ के प्रारंभ में लिखा है कि एक दिन अर्जिका ७६ में कूगिणकको श्रेणिकका पूत्र माना है। चंदनाको देख कर श्रेणिकन गौतम गणधरदेवसं पहा उत्तरपराण के इम पूर्वापर विरोधका समाधान कि यह कौन है ! तब गणधरदेव ने कहा कि वैशालीक बहुत कठिन है। यह कहना कि शायर श्रेणिकके पिता गजा चेटक की लड़की है? उसके सात लड़कियाँ है। और पत्र दोनोंका ही नाम कूणिक हो, क्योकि भारत उनमेंसे सबसे बड़ी प्रियकारिणी तो कण्डनगर के राजा के कई गजवंशी में एक ही नामके दो या अधिक ना सिद्धार्थकी रनी है और चलिनी रीपटरानी होगय युक्तियुक्त नहीं। क्योंकि श्वेताम्बर प्रन्याम श्रेणिककं पिनाका नाम पमंगगड ( प्रमनजिम) लिया गणक न चेलिनीसे विवाह किम प्रकार किया इमका । ., पर्व.. ग्लाक १-२, ६-८, ४ २. उमरपुराण, पर्व ५४, नोक ३८५ । .. ., ग्लोक 3८.४। खाक ३६०,४१७,४१ ५., ,, श्लोक १३.१ । उत्तरपुराण में और सब जगह श्लोक ४१-२०,४२३.... "शिक" लिखा है परन्तु यहाँ “कृषि महाराज" = प्रावश्यकर्मिक गाथा १२८४ प प्राकृत टीका Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ अनेकान्त वर्ष १, किरण ६,७ है - । यहाँ पर यह कहना असंगत न होगा कि श्रेणिक इस दशामें इस विरोधके तीन समाधान संभव है: और कूणिक के इतिहासका वर्णन दिगम्बर ग्रन्थोंकी (१) या तो श्रेणिकके पूर्व-भव-वर्णनवाला पाठ अपेक्षा श्वेताम्बर प्रन्थों में अधिक विस्तृत और प्रामा- प्रक्षिप्त है । यह समाधान बलवान् प्रतीत होता है, क्यों णिक है, जैमा कि ब्राह्मण पगण और बौद्ध ग्रन्थोंसे कि जहाँ तक मुझे मालूम है श्वेताम्बर, ब्राह्मण और तुलना करने पर प्रतीत होता है । श्वेताम्बर ग्रंथ निर- बौद्ध किसी भी ग्रंथमें श्रेणिकके पूर्व भवोंका वर्णन यावलीमें लिग्या है कि कूणिकने अपने पिता श्रेणिक नहीं मिलता XI को कैद कर लिया था और उसने कैदखानेमें ही प्रात्म- (२ या ग्रंथकर्ता की ही असावधानतामे विगंध हत्या करली । इमस कूणिकके नाम पर पितृहत्याका आ गया है। कलङ्क पाया । बौद्व ग्रन्थ महावश अध्याय २ गाथा (३) या पीछेके लिपिकारोन प्रतिलिपी करने २६-३३ में कृणिकको मुर्ख और (पित घातक लिखा भल करदी है। श्रेणिक पिताका नाम कुछ और होगा है। इसी प्रकार निरयावली में कूणिकका अपने नाना जिस लिपिकारों ने असावधाननासे कूणिक निम्य चेटककं माथ घोर युद्धका वर्णन है परन्तु उत्तरपुराण दिया है । आशा है कि पुराण और इतिहासके में इन बातोका उल्लंग्व नहीं है. x | शेताम्बर ग्रंथ अभ्यासी कोई सजन इस विषय पर अधिक प्रकाश श्रीपपातिक मत्रमें कूणिकको "भंभसारपत्त” अर्थात डालंग और निर्णय करने की चेष्टा करेंगे। भंभमाग्का पत्र लिखा है । भभसार शब्दके आधार पर ब्राह्मण पगणों और बौद्ध ग्रंथोंमें उलिग्वित बिम्बि नहीं कि वह एक व्यक्तिके मभी नामांका उरेग्व अपने प्रथमें कर (बिम्ब) मारका श्रेणिकम और उसके पत्र अजातशत्र खुद श्वेताम्बर प्रथम भी एक व्यक्तिक मभी नाम का एकत्र उ4 (पाली--अजानसत्त) का रिणकम तादात्म्य संबन्ध नहीं मिलता। -सम्पादक स्थापित किया गया है। उत्तरपगगमें "भंभसार" का जब पूर्व पर विराध ही नहीं, जैसा कि शुरूके सम्पादकीय भी लव नही है । नोटमें प्रकट किया गया है, तब समाधानकी यह सारी कल्पना ध्य हो जाती है। -सम्पादक - महजताम्बर प्रथाम इस नामका उग्व मिलनस हा उम X जिस हतुक माधार पर यहा उस पाठको प्रक्षिप्त क्तलाने पुराणक कपनका) भयुक्त नही कहा जा सकता । हो मकतः साम किया जाता है वह बलवान् तो क्या होगा, उसमें कुछ मी है कि किक ताक नाम भी कम भधिक हो. जेमा वि.खुद जान मालम ना होती । बामणों भौर बौद्ध प्रयांकी बातको त. भगिक मार गिाकक कृयाका नाम एकमे मधिक थे। बोर ने दिया जाय, उनमें न मिलनेका तो कोई असरदी नही-श्व उनी नामोंमें मे एक नाम माग वाल मा ताम्बर प्रथोंमें यदि श्रेणिकक पूर्व भिवोंका वर्णन नहीं है तो उससेमी -सम्पादक यह नतीजानी निकाला जा सकता कि प्रेणिका कोई पूर्व.भव xभले ही उलापुरायामं इन बाताका उस परन्तु इमाम । नाथवा किमान उनका वान किपातीनी अबश्वेताम्बीय यह नही कहा जा मकता कि दमा दिगम्बर ग्रन्या में भी उनका पथ पवभवाक वर्गानास बहुत कुछ भरे हुए है तब उनमें श्रेणिक २१ब नही है। प्रणिकचरित्रम रेणिकद्वारा वणिकर कदखाने में .. म प्रधान पुष भवाका वर्णन न होना तो एक मावर्षकी हाल जाने मोर अमर मामहत्या कर लनेका पर उस है। बात होगा। -सम्पादक एसी हालत लेखक महाशयने दिगम्बर माहित्यक यत्किसि प्रव जब तक पूर्व पर विराको अच्छी तरस सिबन कर दिया लोकमक प्राधार पर जो अनुमान बांधा मदोष है। जाय तब तक प्रथकाकी प्रमावधानता कइंनका हमें कोई अधिकार -सम्पादक ही न.1। -सम्पादक भई सर.१४, २३ कादि । +मनका हाता यदि लेखक महाशय यहा मूल पाठलो अ-इसके होनेसे जो नतीजा लेखक माशय निकालना चाहतेत करके उसमें लिपिकारों द्वारा हो सकने वाली भूलका कुछ पर निकला जा सका। किसी प्रकार के लिये यह लाजिमी परके बतलाते। Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाख,ज्येष्ठ, वीरनि०सं० २४५६] पत्रका एक अंश पत्र का एक अंश अध्यापक कैसे पहुँचे श्रीयत पं०धन्यकुमारजी जैन, उपसंपादक 'विशा- वैज्ञानिक रीतिसे जैनधर्मको शिक्षा दी जानी चा" भारत' कलकत्ता, अपने ४ मई सन १९३० के पत्र हिए । व्यावहारिक ढंगसे अभ्यास कराना चाहिए । में. एक पाठशालाका उल्लेख करके अध्यापकादि-विषय कितने ही भावुक हृदय लेखक होंगे, जिनकीभाषा में कुछ चर्चा करते हुए- अथवा यो कहिये कि से उसके भाव तक पहुँचना, साधारण तो क्या अच्छे रमकं बहानं तत्सम्बंधी अपने हद्गत विचागेको य- पढ़े-लिखे लोगों तक को कठिन पड़ता है। भीतर वे किचित व्यक्त करते हुए-थोड़ीमी अलंकृत भाषा में घम नहीं सकते, या घुसना चाहते ही नहीं । दर्पण के जिम्बने हैं : मीधी ओर न देखकर उलटी श्रोर देखते हैं, और फिर "अध्यापक मामूली हैं। होने चाहिएं लड़कोंके उममें अपना प्रतिबिम्ब न दीग्वने पर उसे नष्ट का हृदय तक पहुँचने वाले । सुधारप्रिय ही नहीं, बल्कि डालते हैं। सामने खड़ा हुआ दूसरा व्यक्ति-सम्भव जो अपने छात्रों को भावी सुधारक बना सकें । मेरी है वह बालक ही हो-उम दर्पणमें अपना प्रनिबिन समझम ना अभी ऐसे शिक्षकोंकी बहुत ज़रूरत है जो देख कर प्रमन्न होना है, परन्तु दूमर ही क्षणमें जब बच्चोंको या विद्यार्थियों को यथार्थ जैनधर्म की शिक्षा दे प्रौढ पुरुषको उमं नष्ट करते हुए देखना है. तोवर मकं । मैं तो समझता हूँ कि समाज जिस पटरी पर मुरझा जाना है, प्रौढ की करतन पर दुःखित होता हैचल रहा है, वह यथार्थ जैनधर्मकी लाइन नहीं है। और कभी कभी गेता भी है, हाँगता है। लेकिन तब उसके व्यावहारिक जीवनमें ब्राह्मण्य धर्मकी ऐमीछाप तो उसकी विपनि और भी बढ़ जाती है तब पर नगी हुई है और उसकी भयानकता इम लिए और प्रौढ़ हृदयहीन दार्शनिक (शुष्क पाण्डित्य) दर्पणपरकी भी बढ़गई है कि उसका हमें ज्ञान तक नहीं-कि जिम मुंझनाहट उम महदय बालक पर उतार देता है। के कारण समाज अपने धर्म तक पहुँच ही नहीं पाता। बालक गंता है, लेकिन उमी क्षण एक और वैयाकेवल मंदिर तक पहुंचता है-केवल पापागा प्रतिमा करणी उसके गर्नका व्याकरणसे अशुद्ध बनलाता है, नक पहुँचता है-कंवल 'पथाप' में बंधे हुए शास्त्रों के और उसके अन्ध अनुयायी उसका मुंह दावन। अनगे नक पहंचना है; पहुँचना चाहिए धर्म मन्दिर और उसी हालत में उसे बाहर निकाल कर इसनी दूर तक-पहुँचन चाहिए प्रतिमाकी आत्मा नक-पहुं- पहुँचा देते हैं कि फिर उसका हायपर्ण गना कोई भी चना चाहिए प्रात्म-ज्ञान या भेद विज्ञान तक । कहाँ नहीं सुन पाना।। पहुँचते हैं हम ? सुधारकों की हालन या। विना पहुँचे नो धर्मका रहस्य हम समझ नही मकता लेकिन, अब ना, तनी दाम भी उमका कनान . Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I 7 . . . . .. . अनेकान्त वर्ष १, किरण ६, ७ लोग सुनने लगे हैं। दो-एक सत्यान्वेषी वहाँ तक पहुँचते हैं और वापस आकर ममाजके एक कोनेमें उस " श्रीवीरकी अमली जयन्ती की आलोचना करते हैं । मगर उसे बुला नहीं सकते। उन्हें अपने हृदयमें बल नहीं मिलता-"है जरूर" इस In [लेखक - श्री०पं० अर्जुनलालजी सेठी] ... बातका भी उन्हें कुछ कुछ आभास मिला है। लेकिन श्रीवीरकी जयन्ती श्रमली मनानी होगी। वे इतने थोड़े हैं और क्षेत्र इतना बड़ा है कि उसे ढूंढने तकलीद' उनकी हमको करके बतानी होगी ।। १।। में असमर्थता प्रकट कर रहे हैं। एकान्त भ्रम तअस्सुबर जड़से उखाड़ फेंकें । इन थोड़ोकी मख्या बढ़ानी चाहिए। और यह हो सत्यार्थियोंकी हरजा संगति बनानी होगी ॥२॥ मकमा है महात्माजीके आश्रमकी भान्ति किसी वैज्ञा. फिकों की बन्दिशों में बरबाद हो चके हैं । निक और मन्य खोजी संस्था मे ही। मत-पंथकी अटक हठ खुद ही हटानी होगी ।।शा "ममन्तभद्राश्रम''-हॉ. 'समन्तभद्राश्रम' मठ-मन्दिरोंकी बढ़ती मूढों की वेषपूजा । -क्योंकि नममें वह गेनवाला बालक अश्वप्रौढ होकर इन रूढ़ियों में फैंमती जनता बचानी होगी ।। ४ ।। दृढताके साथ रो रहा है और वह गेना अब हृदयसे सिद्धान्त-तत्त्व-निर्णय गणठाणका चढ़ाना । ही है, उसमें आवाज नहीं है- "ममन्तभद्राश्रम" उपयोग-शक्ति अपनी इनमें लगानी होगी ।। ५ ।। अपनेको ऐसी संस्था सिद्ध कर सकता है, और जहर सब जीव मोक्ष सुखके हकदार हैं बराबर । कर सकता है। यह साम्यवाद-शिक्षा पढ़नी-पढ़ानी होगी ॥ ६ ॥ "रुपये और कार्यकर्ता चाहिां ।" । छीनं न प्राण-सत्ता कोई प्रमाद-वशसे । हा, जरूर चाहिएँ । इनका संग्रह कैसे हो-इस जीवो की, यह व्यवस्था हमको जमानी होगी।॥७॥ पर विचार कर निर्णय पर पहुंचना है और उस निर्णय परतन्त्र बन्धनोंसे सब मुक्त हो रहेंगे। से काम लेकर निर्णयको निर्णय सिद्ध करना है । यह भारत-वसुन्धरा की मेवा बजानी होगी ॥ ८॥ काम बड़ा कठिन है, लेकिन फिर भी हमें इसे सरल है वीर-धर्म-शासन पुण्यार्थ क्रान्तिकारी। बना कर करना जरूर है। घर घर में ज्योति 'सेठी' इसकी जगानी होगी ॥५॥ भावी समाजको-हमारी सन्तानको-हमे श्रादमी बनाना है, जैनी बनाना है, धर्म-परीक्षक और धर्म-पालक बनाना है। क्योंकि हमें जो कहना है, जिस पटरी १ अनुकूल प्रवृत्ति. २पक्षपात. ३ जगह जगह ४ जाति अ. पर चलाना है उसका ज्ञान तो सबसे अच्छा भावी जातियों के बन्धना में। समाजको ही होना सम्भव है-और मासान भी।" । * यह कविता खुद सेठीजीके द्वारा मालियरकोटवा की गत महावीरजयन्तीके उत्सव पर ता."मोल सन् १९३.कोपी गई थी। और महाक द्वारा 'अनेकान्त बलयको प्राप्त हुई है। Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाख, ज्येष्ठ, वीरनि०सं० २४५६] जैनधर्म की उदारता औ जैनियोंकी संकीर्णता ३६५ .. .... ........ ...... जैनधर्मकी उदारता और जैनियोंकी संकीर्णता लेखक-श्री० साहित्यरत्न पं० दरबारीलालजी, न्यायतीर्थ] .......... रिम मनुष्यने जैनधर्मका थोड़ा भी परिचय प्राप्त उनकी मूर्तिकी पूजा नहीं कर सकते हैं। मूर्तिका किया है और जिसका हृदय रूढियों का गुलाम आसन अाजकल साक्षात् अरहंतसे भी कई फट ऊँचा नहीं है वह अवश्य ही इस बातको कह सकेगा कि मान लिया गया है ! इस आश्चर्यकी मात्रा तब और 'काई भी धर्म जैनधर्मसे बढ़कर उदार और विश्व- भी बढ़ जाती है जब लोग यह तो मानते हुए पाये धम बननेकी योग्यता रखने वाला नहीं है। जैनधर्मकी जाते हैं कि, शूद्र अणुव्रत धारण कर सकता है और ४ायामें भंगी, चमार, कोल, भील, चाँडाल,वेश्या, ग्यारह प्रतिमा धारी भी हो सकता है परन्तु भगवान नन्छ, पशु, पक्षी, नारकी श्रादि सभी संज्ञी प्राणी की पूजा नहीं कर सकता ! मानों पूजाका स्थान ग्या. बाकर अपना आत्मोद्धार एवं विकास कर सकते हैं रह प्रतिमानोंसे भी ऊँचा है !! पजाके करनेमे पुग्य और करने रहे हैं। परन्तु ....... ..............":""""" बंधोमानसिक दु ग्व और खेदकी बात तो . अनेकान्तकी मत पाँचवीं किरणमें 'जैनी और निर्जग । बंध-भले ही यह है कि आज कलके जैनी : :ो सकता है। इस नामका जो निबन्ध प्रका-: वह शुभ हो-प्राबिर है ना भाई-जो कि प्रायः स शित हुआहे उस कुछ अर्मेसे देहली-जैनमित्र : : मंमार का ही अंग, जबकि भी नहीं कह जा सकत": मंडल-पुस्तकके.रूपमें प्रकाशित करना चाहना संकर और निर्जरामोक्षके अंग अपनेको जैनधर्म का उपाहै। इसीसे मंडलनं कुछ समय हा उमे हैं। शुद्र मोनके अंगोंको प्राप्त मक कहने हए भी जैन : साहित्यरल.पं.दाबारीलालजीके पाम भेज कर मकना है परन्तु स्वर्ग । गला घोट रहे हैं, धर्मक : कर उनसे उम पर एक भमिका लिम्व देतेका अंगों को प्रा नहीं कर म पर अहंकार और अवि। अनुरोध किया था। म अनमंधक परिणाम गायना. यह कैमी विचित्र । रकी पजा कर रहे हैं। म्वरूप पंडिनजीन जो भमिका निक्कर मंजी: बान है । जैनशास्त्रोकं अन. :.थी वहीं यह लग्न है जो दम ममय पाठको: या कारण है कि वे शद्रों मारा प्रत्येक मनायका. :के मामने प्रस्तुत है। --मम्पानक : । मुमलमानांका, ईमात्यों : - अपने घर में निनप्रतिमा . नथा अन्यदेशोंक मनायांका जैनी बनना नहीं सह सम्बनका अधिकार है। अधिकारी जनप्रतिमा भने । देवपूजा आदि जैनत्वके माधारण अधिकार सम्बना उसका आवश्यक कतव्य है । जिम ममय भी उन्हें नहीं दे सकने । यह किनने आश्चर्य की बात है मथुगमें मारी गंगका दौर-दोग हुआ था और मप्रकि शवम्लेच्छ आदि मनुभ्य-नहीं नहीं पशु-पक्षी नक. पियोंके प्रतापमं वह गैग मान्न नागा नब मषियों। भी-साताम् महावीरकी पूजा तो कर सकतेथे परन्तु ने कहा था .... . ..... Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ अनेकान्त "अद्यप्रभृति यगेहे बिम्बं जैनं न विद्यते । मारी भञ्चति न व्याघ्री यथाऽनाथं कुरङ्गकम् ।।७५ स्यांगुष्ठपमाणाऽपि जैनेन्द्री प्रतियातना । गृद्दे तस्य न मारी स्यालार्क्ष्य-भीता यथोरगी ।। ७६ ।। --पद्मपुराण, पर्व ९५ अर्थात्–'आजसे जिसके घर में जिन प्रतिमान होगी उसे 'मारी' इसी तरह ख|जायगी जैसे बिना मालिकके हरिण को व्यात्री खा जाती है। जिसके घर में एक अँगूठेके बराबर भी जिनप्रतिमा होगी उसके घर में मारी उसी प्रकार न आयगी जिस प्रकार गरुडके भय से सर्पिणी नहीं आती ।' अगर उस समय शुद्रांके घर में जिनप्रतिमा न होती तो वे बिचारे मर ही गये होते । लेकिन ऐसा नहीं हो सकता कि जैनधर्म शद्रोंको इस तरह कुतेकी मौत मरने दे । वर्ष १, किरण ६, ७ 1 का उपदेश दिया था। इस पर एक पंडितराज बहुत बिगड़े थे और बड़ी बुरी तरहसे जवाबतलब किया था। लेकिन उस विदुषी बहनने स्पष्ट शब्दों में कह दिया था कि “पंडितजी महाराज ! शूद्रोंको उपदेश देना पाँच पापोंमें से कोई पाप तो है नहीं, न सप्तव्यसनोंमें कर्म के बन्धका ही कारण बतलाया गया है, तब समझ से कोई व्यसन है, और न यह आठ कर्मों में से किसी में नहीं आता कि मैंने क्या अपराध किया है ?" इस पर पंडितजी महाराज बगलें झाँकने लगे और उनसे कुछ भी उत्तर बन न पडा । सौर ! इस विषयको हम ज्यादह नहीं बढ़ाना चाहवे । प्रस्तुत निबंध (जैनी कौन हो सकता है ?) में मुखवार साहब ने बहुतसे प्रमाण दे दिये हैं । सारांश यह है कि, चाहे युक्ति से विचार करो, चाहे भागमसे विचार करो और चाहे पौराणिक चरित्रों का अवलोकन करो, सब जगह जैनधर्म की उदारता के दर्शन होते हैं। परन्तु दुःख और आश्चर्य के साथ शर्म की बात तो यह है कि बहुतसे जैन पंडित पूजा के अधिकार की ही नहीं किन्तु जैनत्वकी ठेकेदारी भी कुछ इने गिले लोगोंके हाथ में ही रहने देना चाहते हैं। हमारे प्राचीन मुनिराज तो चांडालोंको भी जैनी बनाने की कोशिश करते थे और बनाते थे परन्तु आज कल तो कोई भावक भी किसी भंगी चमार या म्य शूद्रको धर्मका उपदेश दे दे तो ये पंडित लाल लालच दिखलाने लगते हैं। करीब दस वर्ष की बात है जब कि एक विदुषी महिलाने मँगियोंको धर्म समझ में नहीं भाता कि कोई आदमी अगर जैन बन करके आत्मकल्याण करले, जिनपूजा करके कुछ पुण्यबंध करले तो इससे किसीका क्या बिगड़ जाता अथवा लुट जाता है ? परमकृष्ण लेश्याबाला, रौद्रयानी, सप्तम नरकका नारकी तो जैनी ही नहीं सम्यक्त्वी तक बन सके और शूद्रादिको हम जैनी भी न बनने दें, यह अन्धेर नहीं तो और क्या है? चौडालों को जैनी बनानेके लिये वो मुनि भी प्रयत्न करें, नारकियोंको उपदेश देनेके लिये शुद्ध लेश्याबाले देवता भी नरकोंका चक्षर लगाबें, और हम अपने जैनस्य को तिजोडीमें बन्द करके अकड़ते ही फिरें ! यह कोमल शब्दों में भी मूर्खता, दुरभिमान और उम्मलता तो है ही । स्मरण रखिये! जैनधर्म, अधिकारों की छीना झपटी का धर्म नहीं है। इस धर्म की छत्रछाया में आकर तो जो जितना धर्म कर सके जो जितना पुण्य कर सकेउसे कर लेना चाहिये। हमें अपना कर्तव्य करना चाहिये । किसीको धर्मकार्यो से रोकने वाले हम कौन ? जैन धर्म, सूर्य के समान है। सूर्य की किरणें भंगीके घर में भी जाती हैं परन्तु इसलिये वह मंगी नहीं बन जाता और न ब्राह्मणोंके लिये बेकाम का ही हो जाता है। Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाख, ज्येष्ठ, वीरनि०सं० २४५६] उद्बोधन ३६७ इसी तरह अगर जैन धर्मकी किरणें शूद्रोंके हदयोंमें चाहियें ? हमारी लम्बी नाक है तो शद्रकी कटी क्यों पहुँच जायेंगी तो वह कहीं शूद्र न हो जायगा और न होनी चाहिये १ अगर सब अंगोपांग एकसे रहेंगे तो न हमारे लिये बेकामका अथवा अनुपयोगी ही फिर फर्क हो क्या रहेगा ?' नतीजा यह कि हमारे भीबन जायगा । शूद्रोंके द्वारा भगवानकी पूजा होने पर, तर ईर्ष्या और द्वेषकी ऐसी कुछ भग्नि भरी हुई है कि यही सब बात भगवान विषयमें भी समझ लेनी दूसरोंकी भलाई की बात सुनते ही हमारे हार जल चाहिये। उठते हैं। हमें अपने आत्मोद्धार की कुछ चिन्ता नहीं खेद है कि हम धर्म के नाम पर धर्मात्मा तो नहीं, है, चिन्ता है दूसरोंको गिराने की या उनको पनित कषायी बन रहे हैं। हमारे ऊपर अहकारका भूत सवार बनाये रखनेकी! बाहरी "मरवेष मैत्री"" है। वह कहलाता है “जो धर्म मैं मानें उसे शूद्र क्यों शर्मकी बात है कि हम जैनधर्म के नाम पर ऐसे माने ? जिसे मैं पूनँ उसे शूद्र क्यों पूजे ? शूद्र तो कषायी-पनका पोषण कर रहे हैं! अगर हमें जैनत्वका, मुझसे नीचा है इसलिये शूद्रोंका भगवान और उनका 'सत्वेषु मैत्री'का थोड़ा भी ध्यान है तो हमें यह मिथ्या धर्म भी नीचा होना चाहिये । नहीं तो उनमें हममें अहंकारका भूत उतारकर अलग कर देना चाहिये और फर्क ही क्या रहेगा"१ मतलब यह कि अब और कुछ प्राचीन काल के समान जैनधर्मको विश्वधर्म बनानेकी फर्क तो रहा नहीं है, जिन सद्गणोंके कारण हम उप सब पोरसे चेष्टा करनी चाहिये । महनार माहबने थे उनको तो हम कभीका दफना पके हैं, इसलिये अब इस निबन्ध जो जबर्दस्त प्रमाण दिये। जबर्दस्तीसे फर्क बनायेंगे। अगर कोई विधाता होता अवश्य ही हम भहंकार-म्पी भनकं उमारनेमें और उस पर हमारा वश चलता तो उमसे हम यही कहते अमोघ मिद्ध होंगे । हाँ, जो लोग भूनादेशका स्वांग कि 'जब हमारे दो आँखें हैं तो शुद्रके दो क्यों होनी करते रहना चाहते हों उनकी बात दूसरी है। उद्बोधन [ लेखक-पी०कल्याणकमार जैन 'शशि'] द्वेष दम्भ तुझ पर मुँह बाते हैं बाने दे भात-भमिहिन शीश चढ़ाने में जो कभी न समा मग तीक्ष्ण त्रिशूल अनेकों पाते हैं आने दे ! शान्ति सहित अत्याचारोंका दुर्ग नाश जो करता ' विध्न सघन धन उमड़ उमड़कर छाते हैं छाने दे! देकर भी प्रियप्राण दूमरों के दुख-मङ्कट हरना ' होता है अपमान! प्राण यदि जाते हैं जाने थे ! क्या सच ही होता विश्वास तुझे वह मरकर मरता? हर्ष-सहित बलिदान हो मनमें निश्चित मीन र' प्रियवर मर सकना न वह मृत्यु न सका श्रायगी जीना है मरमा न यों होगा मर कर भी अमर । मस्य से अमरत्व की बिजय-माल पानायगी। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ अनेकान्त सिन्दूर-वाला [मूल लेखक - श्री रवीन्द्रनाथजी मैत्र, अनुवादक - श्री धन्यकुमारजी जैन ] (?) की फसल बोकर निधिराम कलकत्तं आता, और वर्षा शुरू होने ही देश लौट जाता। इन है महीना गंमै रोज देखता कि एकचक्षु निधिराम पाठक सिर पराज रंगकी एक छोटीसी पेटी लादे श्रावाज लगाता जा है - "चीना सिन्दूर लेउ, चीना सिन्द्र-कर " और उसके पीछे नंग-धड़ंगे लड़कोक कुंड के झुंड व न्दावन-लेनकी नींद से अलसाती हुई दुपहरीको महमा चौका कर चिल्ला रहे हैं — "काना झीगूर लेड, काना - ॐ र " कब और किस छन्द-यमिक शिशु-कविने मिन्दर बेचने वाले निधिराम के लिए यह अपुर्व स्तुति वारणी पहले-पहले अपने श्रीकण्ठ से निकाली थी, इसे कोई नहीं जानता । शायद स्वयं कविको भी इस बात की सुधि नहीं, लेकिन बहुत दिनों में हर साल नये-नये शिशु कण्ठ एक ही भाषामे - एक ही वाणी में - निधि रामका स्वागत करते आ रहे थे। इस असुन्दर कुरूप म्यागनके लिए निधिराम कभी भी किसी दिन गुस्सा नहीं हुआ, बल्कि देखा गया है कि प्रत्युत्तर में झीगुर जैसी भावाज देकर उसने अपने बच्चे-साथियोंको उलटा बुश ही किया है। वर्ष १, किरण ६, ७ बीस बर्षसे इसी तरह चला आ रहा था। यकायक एक दिन इस नियमका व्यतिक्रम देखकर निधिरामको बड़ा आश्चर्य हुआ। गली में एक जगह कुछ बच्चे इक होकर खेल रहे थे । निधिरामने वहाँ आकर ऊँचे स्वरमं श्रावाज दी -- "चीना सिन्द्र र लेउ, चीना सिन्दृ-ऊर दूरसे दो-एक कण्ठसे परिचित प्रतिध्वनि सुनाई तो दी. लेकिन रोजकी तरह वह जमी नहीं ठीकसं । बच्चाका झुण्ड किसी एक को घेर कर बड़ी मात्र पानी और विनयके साथ चुपचाप खड़ा हुआ उसकी बातें सुन रहा था। निधिराम पास आकर खड़ा हा गया । बात कह रही थी एक लड़की। अपनी नीलाम्बरी साड़ीका आँचल कमरसे लपेट कर हाथ हिलाती हुई वह इस बातको प्रमाणित कर रही थी कि कानको काना और लंगड़े- लूलेको लंगड़ा-लृला नहीं कहना चा हिए, और अगर कोई कहंगा, तो उसके साथ वक्ताक जिन्दगी भर के लिए खट्टी ( शायद असहयोग १ ) हा जायगी; और गुड्डा-गुड्डियोके ब्याह में वह उसे कभी भी न्योता न देगी। समाज व्यूति (या जाति-वहिष्कार)के कठोर दण्डके डरसे, परिचित कण्ठ-ध्वनि सुनकर भी, बच्चों का कुण्ड आज्ञ चुप था, -निधिराम इस बात को समझ गया और वक्ताको एक बार स्वृत्र गौरसे देख वह चुपचाप वहाँ से चल दिया । शामको लौटते वक्त गलीकी मोड़ पर नीले मकान के दरवाजे पर दुपहरीकी शिशु-सभाकी इस नेत्रीके Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाक्य, ज्येष्ठ, वीरनि०सं० २४५६ ] साथ निधिरामका साक्षात् - परिचय हुआ । निघिरामको देख ही बिना कुछ भूमिका के बालिका ने कहा"तुमने पहले जनममें कानेको काना कहा होगा, क्यों सिन्दूर वाले ?" सिन्दूर बाला ३६५ कहने की जरूरत नहीं कि पहले जन्मकी बात faferमको बिलकुल भी याद न थी, लेकिन फिर भी इस नवागता बालिका के साथ बातचीत का सिलसिला नमानेके लिए उसने कहा - "हाँ, लच्छिमी बिटिया । " "माँ कहती थी कि इसीसे इस जनममें तुम काने हुए हो, नहीं ?" कह कर उसने एक प्रचंड अभिशाप वाणी मुँहसे निकाली - "सान्ती, हुकमा, मुरी, मोती - सब कोई उस जनममें काने होंगे। तुम्हे चिढ़ाते हैं न ?” कहने लगी- " इसके और पीले हाथ करदें, सोई छुट्टी है। उन दोनोंको तो किसी तरह ब्याह-व्यूह दिया है । मइया ! लड़के-बाले पाल-पोस कर बड़ा करना बड़ा मुशकिल काम है ।" इतना कहकर अपना गुड्डा-गुड्डियों का डब्बा उठा लाई, और सिन्दूर बालेके हाथमें देकर बोली - "देखो तो सही, बिटिया मेरीका मुँह सूख गया है- मारे घामके। अब इसे पानीमें नहलाकर छाँह में रखना होगा, नहीं तो मुहल्ले के लोग बक का मुँह देखते बनत नाक- मुँह सिकोड़ेंगे, कहेंगे अच्छी नहीं है।" * इतने में भीतर से बुलाहट हुई—- "सरसुती ?" “उह मेरी मैया ! घड़ी-भर अपने लड़के वालोंके दुख-सुख की बातें भी करलूं, मो भी नहीं ।" कह कर निधिरामने दाँतों तले जीभ दबाकर कहा - "ऐसी बालिका खड़ी हो गई। गुड्डा-गुड़ियोंका बकस उसके बात नहीं कहा करते, लच्छिमी- बिटिया !” हाथ में देकर निधिरामने कहा- " तो चलता हूँ अब, लच्छिमी बेटी !" अब तो 'लच्छिमी बिटिया' ने उम्र रूप धारण कर लिया, बोली - " कहूँगी, हजार बार कहूँगी । वे तुमसे काना क्यों कहते हैं ?" कह कर जरा थम गई; फिर पूछने लगी- "तुम ब्राह्मण हो " - निधिरामने कहा- "हाँ । " प्रश्न करनेवालीको सन्देह झलकने लगा. कह उठी-" देखूँ जनेऊ निश्विगमने फटी मिरजई के भीतर मैला जनेऊ निकाल कर दिखाया। बालिकाने कहा - "कल रधिया के लड़के के साथ मेरी लड़कीका व्याह होगा। तुम मन्तर पढ़ दोगे?" निधिरामनं उसी क्षण पौरोहित्य स्वीकार कर लिया, कहा - "पढ़ दूँगा ।" "लेकिन हम लोग ग़रीब आदमी है, दक्छिना नहीं दे सकेंगे, समझे?" - बड़ी गंभीरता के साथ बालिका "मैं लच्छिमी नहीं हूँ-मरसुती हूँ मरसुती ! मुझे मरसुती बेटी कहा करो, समझे ११ – इतना कहकर बालिका भीतर चली गई । निधिराम के साथ सरस्वती के परिचयका मनपान हुआ उस नरः । ( : ) ग्रह बातुन लड़की निधिगमको महमा बहुत अच्छी लग गई। धीरे-धीरे, कालीघाटके खिलौने, लाम्ब की बुढ़ियाँ जरीवार कपड़ोंके दो-एक टुकड़े निधिगम की पेटीमें जगह पाकर अन्तमें सरस्वती fखिलौनेक बीच श्राश्रय पाने लगे। प्रतिदिन के श्रानन्द- शन्य ना तार एक-मी-विक्री के बीच में इस लड़की के साथ मां कह सुनी हुई बानोको बेटीने किस तरह ज्यों की न्यों हिरवे में रख लिया है, जरा देखिये तो सही अनुवादक Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० वो घड़ी बात चीत करके निधिरामको बढ़ा आनन्द . मिलता; कभी-कभी उसने उस नीले मकान के जंगले बाहर चबूतरे पर बैठकर सिन्दूरकी पेटी अपनी गोद में रखे, सरस्वती के साथ उसके बाल-बच्चोंके सुख-दुखकी बातें करते-करते घंटों बिता दिये हैं । दूसरे मुहल्लेमें जाकर फेरी करनेसे चार है पैसेका रोजगार होता; इस बातका बीच-बीच में उसे खयाल भी हुआ है लेकिन फिर भी वह अपनी प्रगल्भा बान्धवी की नोंका मोह छोड़कर उठकर जा नहीं सकता है, ऐसी दशा में जब कि वह समझना था कि उसकी बातें बिलकुल निरर्थक फिजूल हैं और कभी भी - निधिराम के मी-- किसी काम नहीं आ सकतीं । अनेकान्त श्रन्तमं निधिराम देश चला गया। stant बार देश में एक तरहकी घातक बीमारीका मौर दौरा हुआ। उसके आक्रमण से निधिराम को भी छुटकारान मिला। -सात महीने बीमारी पाकर, एक दिन, माह-फागुनकी दुपहरी में निधिरामने अपनी सिन्दूरकी लाल पेटी सिर पर लादे सरस्वती के मकान के सामने आकर भावाज दी -- "बीना सिन्दूर लेउ, चीना सिन्दू-ऊ-र" पहले की भांति कोई धप-धूम करके उतरकर दरवाजा खोलकर बाहर नहीं निकला। दूसरी बार श्र वाज देने पर नाचेके कमरेका एक जंगला खुल गया। जंगले के भीतर सरस्वतीको देख, भर मुँह हँसकर निधि रामने पूछा - "इस बुडेको अभी तक भूली नहीं हो, सरसुती-बेटी ?" वर्ष १, किरण ६ करनेका सूत्र निधिरामको ढूँढे न मिला। कुछ देर ठहर कर, बहुत सोच-विचारके बाद उसने कहा - "एक बार बाहर श्राभोगी बेटी ?” सरस्वतीनं गरदन हिलाकर जवाब दिया- "नहीं" निधिरामको बड़ा आश्चर्य हुआ, सरस्वती तो बिना बातचीत के रहनेवाली नहीं। पूछा - "तुम्हारे लड़के वाले सब अच्छी तरह से है न, बिटिया ?" अत्र सरस्वती बोली - " वे सब मैंने रशियाको दे दिये हैं।" इसके बाद और कोई प्रश्न सरसुती कुछ बोली नहीं; पीछेसे उसका छोटा भइया बोल उठा - " अम्माने कहा है, जीजी अब बाहर नहीं निकलेगी। जीजी बड़ी हो गई है न ।” - श्रच्छा ! इसीसे ! 1 कहीं निधिराम की निगाह में सरस्वतीका परिवर्तन ठीक तौर से दिखाई दिया। साल भर से उसने सरस्वतीकी नहीं देखा है, परन्तु एक साल पहले देश जाते समय जिस बातून चंचल लड़कीसे उसने बिदा ली थी, उसमें और इसमें जमीन आसमान का फ्रक है। निधिराम इससे किस भाषा में - किस विषय में - बातचीत करे, यकायक उम की कुछ समझ में न आया । जरा इधर उधर करके. घरसे जो वह नया पटाली गुड़ लाया था उसकी पोटली जंगले के सींकचों में से सरस्वतीके हाथमें दे कर बोला - "देशसे लाया हूँ सरसुती माँ, ले जाओ इसे। इसके बाद अपने घर-सम्बन्धी दो एक श्रसम्बद्ध बात कह कर निधिराम चला गया। अपने गाँवके कारीगर से वह विचित्र रंगके काठ के खिलौने बनवा लाया था, उनको पेटीसं निकालने का तो मौका ही न मिला । 1 दूसरे दिन निधिराम अपनी रोज की पेटी सिरपर लिये नीले मकान के जंगले के सामने आ खड़ा हुआ नीचेके कमरे में एक बड़ी चौकी पर बैठी सरस्वती किताब पढ़ रही थी । निधिरामने कोमल स्वरसे पूछा"क्या पढ़ रही हो, सरसुती माँ ?" सरसुतीने मुँह उठाकर निधिरामको देखकर हँसते * पटाली गुताके रसक बना हुआ थालीके मका जमा हुआ गुरु, जो खानमें बहुत ही स्वादिष्ट और सुगन्ध-युक होता है। - अनुवादक Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाख,ज्येष्ठ, वीरनि०सं० २४५६] सिंदूर वाला एकहा-"कथामाला।" दूसरे क्षणमें ही पूछ बैठी- सरसुती रामायण पढ़ती और निधिराम अपनी "माँ ने पुछा है, गुडके दाम कितने हैं। ?" सिन्दूरकी पेटी गोदमें रक्खे खिड़की के पास चवतरेपर इस प्रश्नको सुनकर निधिराम ठिठक-सा गया; बैठा हुआ सुनता । बीचमें जो एक ईटकी दीवार का फिर सूखे मुँहसे बोला-"माँसे कह देना बिटिया, कि व्यवधान था,-श्रोता और पाठिका-किसीको भी उस बातकी सुधि न रहती। मेरे घर का बना हुआ गुड़ है, पैसे नहीं लगे।" सहसा एक दिन वह व्यवधान बढ़ गया। मरसुनीने कहा-"अच्छा।" पाठ जब अयोध्याकाण्ड तक आगे बढ़ चुका था, इसके बाद, दो दिन तक उस रास्तमें निधिराम तब एक दिन निधिरामनं आकर देखा कि नीचे के प्रस दिखाई न दिया । तीसरे दिन, दो पहरको वह अपने कमरेमें उस चौकी परमरसतीके बदले दो भले भादमी नियमानुसार नीले मकानके जंगलेके सामने आकर साफ-सुथरे बिछौने पर बैठे हुए हुका पी रहे हैं। निधि रामने आवाजदी-"चीना सिन्दू-रलेउ, बीना सिन्दबड़ा हो गया, बोला-"सरसुती बेटी" -ऊर। मरसुनी सिलेट परसे मुँह उठा कर एकदम पछ दुमजलेकी एक खिड़की खुल गईसरस्वतीन जंगले बैठी-"दो दिन प्राये क्यों नहीं थे ?" में खड़े होकर, बायाँ हाथ मुँहपर रखकर और वाहना निधिगमके चेहरेपर मानन्दोल्लासकी लालियाँ दौर हाथ हिलाकर इशारा किया कि वह आज पढ़ेगी नहीं। ठी। निधिगम जिस रास्तेमे पाया था. उसी रास्ते -तो, सरसतीने उसकी यान की है। लौट गया। गलीकी मोडपर मरस्वतीकी सहेली गषा रानी उर्फ रधियानं निधिरामको ममाचार दिया किअनपतिथतिका एक झटा बहाना बनाकर निधि- मरस्वतीका जल्दी व्याह होनेवाला है, और पाज उमे आमने बड़ी सावधानीके माथ कोमल म्वरम कहा- वे देवने आये है। "मरसती-बेटी ! एक पम्नक लाया हूँ, पढ़ोगी?" मरमनी-माँका व्याह । फिर मामक घर कितनी --कहकर सींकचोंमें से एक कृत्तिवास-कृत जिल्ददार दूर है वह ' गमायण-चारों ओर नाककर-मग्मतीकी चौकी निधिगमन (फर का दृरम एक बार नीले मकान की दुमाजलेकी बन्द बिड़कीकी श्रार दम्बा, फिर धीरे पर रख दी। सरसतीने उसे पास बुलाकर पूछा-"तसवीर हैं धीर मन्द गनिमें चला गया। इसमें" तीन-चार दिन अपनी कोठरी में ही बिता कर फिर निधिराम ने मुमकराकर कहा-"बहुत ! राम, उमी पेटी को मिग्पर लाद उमी गलीकी मोडपर श्रा गवण, हनुमान-सबकी तसवीर !-मैं पढ़ना नहीं कर निधिरामने एक दिन अावाज दी-"चीना मिन्द र ले उ, चीना मिन्दु-ऊर।" जानता, सरसुनी, पहले तुम पढ़ लो, फिर मुझे पढ़कर सुनाना। ___उम दिन नीले मकान के दरवाजे पर नौवन बज रही सरस्वती ने कहा-"अच्छा। फिर तुम कल प्रा. थी। निधिराम बहुन देरतकबाट देखना रहा-ऊपरके भोगे तो" खुले जाले के पास भाकर शायद भाज भी कोई माड़ा निधिराम एक उज्ज्वल मानन्द की हंसी हंसकर हो लेकिन भाज कोई न पाया। पानेका वादा करके चला गया। X दूसरे दिनसे फिर पहले के नियमानुसार निधिराम x Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ वर्ष १, किरण ६ की भावाज गलीमें सर्वत्र गूंजने लगी, सिर्फ नीले सरस्वती ससुरालसे वापिस आई है या नहीं, उस ‘मकानके सामनेमे वह चपचाप निकल जाता,-हजार कुछ खबर नहीं । नीले मकानके सामने खड़े होकर कोशिश करनेपर भी उसकी जाबानसे एक लफ्ज नहीं उसने आवाज लगाई-"चीना सिन्दू-रलेउ, चीना निकलना। सिन्दू-ऊ-र।" (३) कोई जवाब न मिला। निधिराम उसी गलीस लौट गाजाकी तरह उस दिन भी निधिराम चुपचाप चला गया ; मगर फिर न जाने क्या सोचकर वापिस पाया जा रहा था; इसी समय नीले मकानके जंगलेमें और ऊँचे स्वरसे कहने लगा -"चीना सिन्दू-र लंउ, से एक बच्चेनं आवाज़ दी-"श्रो मिन्दरवाले ! ठहगे, चीना सिन्दू-उर।" 'जीजी बला रही है।" बहुत ही धीमी पैरोंकी श्राहट मानो सनाई पड़ी। .. मावशीके निधिगमका कलेजा उछल पड़ा । निधिराम कॉपते हुए कलेजेस जंगलेके पास पाकर मुँह फेरते ही उसने देखा कि नीचेके जंगलेमें मरम्वती प्रतीक्षामें खड़ा होगया । जंगला खोल कर सरस्वती के बड़ी है। निधिराम मारे आनन्दकं गद गद कण्ठसं छोटे भइया ने कहा-"तुमको इस गलीसे प्रानके लिए काह 3टा-कब आई मग्मनी ? मुझे तो मालम है। माँ ने मना कर दिया है, मिन्दर वाले !" नहीं, इमीम-" अनजानमें कोई कमर हो गया होगा, इस सांचगं मावतीन मतपमं कहा-"श्राज"। निधिगमका मुँह मग्ब गया। हिचक-हिचक कर उसने इसके बाद निधिराम अपने आपही घंटे-भर तक कहा-"कि-यां?" न जाने क्या-क्या बातें करता रहा । अन्तमें बाला- इनमें दरवाजा बला। दरवाजे पर आ खडा "तुम अपनी सिन्दरकी डिबिया तो ले पाश्री, मग्मती हुई उदाम-चेहरा लिये, मफेद-कपड़े पहन सरसुती' पष्टी ! बहुत बढ़िया सिन्दूर लाया हूँ आज ।" -देह पर एक भी गहना न था-सुहागका एक चिह म दिन ना मरस्वतीकी मानकी डिबिया उपर तकन नक नहीं। तक सिन्दरस खब भरकर निधिराम घर चला गया। निधिगम चौक पड़ा। उसके बा: मिरकी पेटी उसके बाद,फिर धीरे धीरे विचित्ररंगकी काठकी डिबियो। com ज़मीन पर रम्ब कर, उम पर बैठ कर, अर्थ-हीन उदमें सिन्दूरका उपहार पाना शुरूहा। साथही. पॉवधान्त होस मामनकी ओर देखता रह गया। नीले मकानका दरवाजा बन्द हो गया। महावरसे लेकर माथेकी बेंदी तक महागकी मभी चीजें दिखाई देने लगी। होश आने पर, निधिराम जब वापस जाने लगा. अबकी बार बरमानमें निधिराम देश नहीं गया। । तब उसके सिरकी पेटी बीस मन भारी हो गई थी। इसके बाद, फिर सात-आठ दिन तक उस गलीमे ___ क्वारमें दुगो-पूजाके पहले सरस्वती जिस दिन सास निधिरामको किसीन देखा नहीं । आखिर, एक दिन. के घर गई, निधिराम भी उसी दिन देश चला गया। सहसा परिचित कण्ठस्वर सुनकर मैंने जंगला खोला, वर्षाके दिनोंमें घर न आने के कारण निधिरामकी आर्थिक तो, निधिरामकी मूर्ति आँखों तले पड़ी। सिन्दूर की हानिई, और इसलिए उसकीस्त्रीसे लेकर छोटे लड़के की जगह उसके सिर पर एक बडा-भारी फलका मकने से काफी फटकार बताई लेकिन आर्थिक हानि डलड़ा था । उसके भारी बोमसे-मका हुआ वृद्धकी उस बड़ी रकमने उसे रारा भी विचलितन किया। | निधिराम पाठक पसीनेसे तराबोर होकर नोले मकान फागनकी बयार चल रही है । पेड़ोंकी नालियों के सामनेसे गलीके रास्ते पर आवाज देता जा रहा मानो किसीने हरा रंग पोत दिया हो। है-"फल लेड मा, पके-ए-फल !" निधिराम कलकत्ते भाया। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'देशाख,ज्येष्ठ, वीरनिव्सं० २४५६] पत्रका एक अंश ३७२ अकलंकदेवका 'चित्रकाव्य' चतुर्विंशति-जिन स्तोत्र ___- मथवा 'चित्र काव्य' नामका-यह एक पुराना स्तोत्र हाल के स्तवनमें अपनी स्पष्टताके लिये कुछ प्रयत्नकी में बाब लक्ष्मीनारायणजी जैन, तिजाराराज्य अलवर, अपेक्षा रखता है। दूसरी सूची अथवा काव्य-पातुरी के अनग्रह से प्राप्त हुआ है। यह तांत्र अभी तक लप्त इन पद्योंमें यह पाई जाती है कि जिस पपमें सीधे क्रम प्राय तथा अप्रकाशित ही था, और इसलिये आज से जिस तीर्थकरकी स्तुति की गई है उसका नाम उस इस थोड़े से परिचयके साथ यथावस्थित रूपमें नीचे पद्यकं चरणोंके प्राचाक्षरोंको मिलानेसे भी बन जाता प्रकाशित करके पहले ही 'अनेकान्त के पाठकोंकी भेट है-बारह पद्योंके पाय अक्षगेको क्रमशः पढ़ जाने किया जाता है। पर बारह सीर्थकरों के नामोंका सवारण हो जाता हैइस स्तोत्रमें चौबीस तीर्थंकरोंकी स्तुति बारह पद्यों और उलटे क्रमसे जिस पचमें जिस तीर्थकरकी स्तुति में की गई है और उनमें यह खास खूबी रक्खी गई है, की गई है उसके चरणोंके अन्तिम अक्षरोंको मिलाने कि बारह पोंको एक बार पढ़नेसे वे क्रमशः श्रीवषमे से उस नीर्थकर का नाम उपलब्ध हो जाता है । इस आदि वासुपूज्य पर्यंत बारह सायककि- स्तुति-पद्य तरह प्रत्येक पद्य के चरणों की प्रादि और अन्स, मालूम होते हैं और जब उन्हें बारहवें पद्यमे पहले पद्य दोनों तरफ-उस उस पग द्वारा स्तुनि किये गये ती कफ दूसरी बार पढ़ा जाता है तो वे विमल श्रादि कगेकी नाम-स्थापना की गई है । काव्य-मरमें हम महावीर पर्यंत शेष बारह तीर्थकरों स्तुति-पच जाज: नियमका सिर्फ एक ही आंशिक अपवाद पाया जाना पड़ने हैं । इस तरह एक एक पद्यमें सीधे तथा उलटे है और वह यह कि 'अभिनंदन' नाममें चकि पाँच कमसे दो दो तीर्थकरीकी स्तुनिका, उनके नाम-सहित, अक्षर थे इममें इमामामक 'अ' अक्षरको पर्ववती ममावेश किया गया है । पहला पद्य एक अर्थमें श्री- 'मंभव' तीर्थकर के नुनि पंद्यक चौथे चरण मन्त्रा उपभका स्तुति-पद्य है तो दूसरे अर्थमें वह महावीरका गया है। प्रस्तु; छापने में इन बाकी हन के टाइप मी स्तुनि-पद्य है, दूसरा पद्य एक अर्थमें श्रीअजितका में कर दिया गया है। जिसमें प्रत्येक पंच को पढ़ने स्नुनि-पद्य है तो दूसरे अर्थमें पार्श्वनाथ की भी स्तुनि- ममय उसकी दोनों, नरफ की नीकरोंके नामांका स्पष्ट पदा है। इसी प्रकार दूसरे पोंका भी हाल जानना। दर्शन होना रहे। .:.:. माथ ही, यह भी क्रम रखा गया है कि पूर्वार्धम एक काव्यके अंतमें एक प्रशस्मि-पंच भी पाया जाता नार्थ करका नाम है नाउत्तरांधम दूसरे तीर्थ करका नाम है, जिममें काव्यका नाम चित्रकाम्य भौर नमके है और पका प्रत्यक प्रर्धमा अपने अपने नामवानं रचयिताका नाम 'अकलंकरव' पनेक अनिरिक रचना नीर्थकरतान में जहाँ स्पष्टसा है. वहाँ मरे नीर्थकर का समय भी दिया हुआ है। यह समय क-1-7.4 Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त वर्ष १, किरण ६. परस्थवर्णं नव नव पंचाट कल्पते क्रमशः' बड़ी कृतियों तकमें रचना-संवत् का उल्लेख नहीं है ना इत्यादि वाक्यानुसारिणी वीक पद्धतिसे विक्रम संवत् इस छोटीसी कृतिमें उनके द्वारा रचना-संवत्का बाहेर १५७४ जान पड़ता है। इस वर्षकी आश्विन शुद्धा हो यह बात कुछ समझमें नहीं पाती। और इस लिये द्वितीया को यह काम्य निर्मित हुआ है। अन्यथा, इस कतिको सहसा उनकी मान लेने में बहुत ही संकार 'विक्रमम्य वसशके' का अर्थ यदि विक्रम संवत् ८ होता है ।मालम हुभा है कि इस काव्य पर एक टीका किया माय तो वह कुछ ठीक मालूम नहीं होता। भी है परंतु वह अभी तक उपलब्ध नहीं हो सकी। उप इतिहाससे उस वक्त किसी भी ऐसे 'भकलंकदेव' के लम्ब होनेपर पाठकों को उसका परिचय कराया जायगा मस्तिस्वका पता नहीं चलवा । परन्तु विक्रमकी १६वीं और तभी इस स्तोत्रका अनुवाद भी पाठकोंकी सेवा शताब्दी में प्रकलंकदेव नामके कुछ विद्वान पर हुए प्रस्तुत किया जायगा । संभव है कि टीका परसे इस है। उन्हीं में से यह किसीकी रचना जान पड़ती है। और रचना-समय पर भी कुछ विशेष प्रकाश पड़ सके। । इस लिये इम काम्यके कर्ताको विक्रमकी ७ वी ८ वीं . जिन भाईयों को किसी दूसरे शासमंडारसे यह शनाम्दी में होने वाले राजवातिकादि प्रन्योंके विधाता काम्य अथवा इसकी कोई संस्कृत टीका उपलब्ध हा भाकलंकरेक्से मिलकहना चाहिये । हाँ, 'सुशके उन्हें रुपया पर इन पंक्तियों के लेखकको उससे की जगह यदि 'पसुशवे' पाठ हो और उसका मिः सूचित करना चाहिये और हो सके तो तुलना करके भाब ८०० संवत् न लेकर पाठवीं शताम्दी लिया आ इस प्रविको विशेषताकोभीसाबमें नोटकरदेना चाहिये, सके वो यह ति उन महाकलंकदेवकी भी हो सकती जिससे पाठकी महति माविन भी संसोधनहोसके। है। फिर भी कि मट्टाकलंकदेवकी उपलब्ध पड़ी । -सम्पादक বিকা [१-२४] भी नामि सूनो जिन साई भी म बाबा तवे ममे हा जीवरा पर रोहिरेपी मात खं पर माजुदी र [२-२३] बी नंद माथा म्पवयंति पाया म बामदेवा जित मां पार्स जि को गिना रोग निविली ना ६ पामियानादपि पारर्वना . [३-२२] संसार पारो बनि मेव मा ने म बलदो संभव पय मामि स्याः स्वयं से मद मोह मा ना ब मंग मंगे सति नेमि ना मि होकि मैना अभिनंर नेन 4 व मंत्री व परामि रवा परिवऽपि नृपेचमा ना न मे मबि बानमा Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७५ वैशाख, ज्येष्ठ, बीरनि०सं० २४५६] अकलंकदेवका 'चित्रकाम्य' [५-२०] [९-१६] श्री खंडव ताप हरा शिव श्री श्री रंग जाते सुविधे सदा शा मुखाय गीस्ते सुमते. प्रजा मु मांशु गौरी विरादी करो ति म हस्तुते सुव्रत देव ती व वि स्वैक बंधो सि मृगांक ना ना ति रक्रिया कतम सोऽपि वा । घि नोपि कोका नपि शांति ना " [६-१९] [ १०-१५ ] प प्रभाषि द्वय में हसा म श्री शीतलस्वा जित मोह यो । पर मुदेते स्थिर पक्ष्म बनि शी लाढच याचे जिन राजश पभो प्रभाते भुवि दिप्य मा ना नब स्वरूपं हदि संद भाना म जय मीत्वं जिन मल्लिना न यं लमंने स्वयि धर्मना 4 [७-१८] [११-१४ ] श्री माम् सुपार्यो पिहि नेस्त मां भ श्री बस्सिनि श्रीहदि ताव के श्री सुमसुखं पेश न याच का । श्रे यांस सका नित राम हो : पा रंगतः पातक बल्लरी १ ..या मे निजां देहि वदान्य की नं जनं चार पतिः पना नि म मीक्ष्य वीरामिम माम नं. . . . [८-१७ ] [१२-१३] चंद्र प्रमाणोईर मेष शं कु वा ग्वासुपूज्या गमि की अति श्री . द्रष्टा स्मि हो सम कुंमि यूं सवं कपंती भव साम्य सा गि मपाल को मुंगति नाप्य यं मा पूर्ण ममाशा बिमलाय नाम १.सुवर्णे स्वयि कुंचना व ज्य या समं लीन शिरोन बोड. विक्रमस्य बसुशव (वि) तीवा दुईषु (या इ) सिता । बदा ऽकलंकदेवेन चित्रगम्यम् विनिर्मिता (1)२॥ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ अनेकान्त वर्ष १, किरण ६,७ महात्माजी और जैनत्व। - [लेखक-श्री० पं० दरबारीलालजी, न्यायतीर्थ] जनवकी यदि वास्तविक व्याख्या की जाय, अथवा फान्त की दिव्य इमारत तैयार करता है। यही सच्चा ___दायिक एकान्तको दूर करके शास्त्र के अनु- अनेकान्त है और यहीजैनधर्मकी विशेषता है। अस्तित्व भारही जैनन्वका विचार किया जाय, नो महात्मा गांधी नास्तित्व, व्यापकत्व, अव्यापकत्व, परत्व, अपरत्व जीमें जैनन्वका हम जितना विकाम देख सकेंगे वह आदि की नीग्स चर्चा ही अगर अनेकान्त होता तो वह गायन । आज किमी परूपमें दिखाई दे सके।जैनधर्मकी जैनधर्मकी विशेषता न बन पाती;क्योंकि ऐसे अनेकान्न अनेक विशेपनाओमे मे हम अनेकांत और हिमा को ती प्राय सभी दार्शनिकों ने अपनाया है। भले ही कोहा मुख्य स्थान दसकते है। और ये दो बातें महात्मा उनने विविध नामोंका जाल न बिछाया हो परन्तु ऐमें जी ने जिस प्रकार अपने जीवन में उतारी हैं, उतनी अनेकान्तको नो प्रत्येक आदमी और प्रत्येक दार्शनि के शायद ही कोई उतार मका हो। मानता है । फिर भी अनेकान्तवादी इने गिने ही हैं । आजकल अनेकान्त का हम जैमा अर्थ करते हैं जैनधर्मने जिम 'अनेकान्त'को इतना महत्व दिया है वह उसके अनुसार तो हम म्यद एकान्तवादी होगये हैं। इतनी मामूली वस्तु नहीं है । अनेकान्तका मुख्य उद्देश था सम्प्रदायिकताका विनाश अनेकान्त तत्त्व वास्तवमें बड़ा दुर्लभ है । क्योंकि अर्थात् वह उदार दृष्टि, जिस से हम प्रत्येक सम्प्रदाय मनुष्योमें सहिष्णुता और उदारता बड़ी मुशकिल में की अच्छी बात को पहण कर सकें और बरी बातको पाती है। परन्तु जिस में वह उदारता आ जाती है उपेक्षा की दृष्टि से देव मके। कोई भी मम्प्रदाय जब वह मनष्य नहीं देव बन जाता है। उसका किसीसम्प्र. पैदा होता है तब उस द्रव्य-क्षेत्र काल-भावके लिए वह दाय में रागद्वेष नहीं रहता, वह तो सस्य का पुजारी अवश्य हिनकर होता है । उममें को. न कोई विशेषता हो जाता है। रहती है। अगर मनुष्य चाहे तो उसका ठीक उपयोग हम लोग अनेकान्तके नामकी पूजा करते हैं परन्तु करके अपने जीवनकों बहुत कुछ पवित्र बना सकता है। अनेकान्तके वास्तविक रूप का दर्शन नहीं कर पाते; दूसरे सम्प्रदाय से पणा करनेवाले न तो सत्यकी या फिर व्यवहारमें लाना तो दूर की बात है। यही कारण सम्यग्दर्शनकी रक्षा कर सकते हैं और न चारित्र की; है कि जैनकुल में पैदा होने पर भी हममें से अधिकांश क्योकि साम्प्रदायिक द्वेषभावसे उनको कषायें इतनी लोगों को जैनत्व दुर्लभ हो रहा है । परन्तु महात्माजी तीन हो जाती हैं कि चारित्र रह ही नहीं मकता; मे हम अनकान्त की और जैनत्व की झांकी देखते हैं । चारित्र नाम ही है कपाय-रहितता का। वे किसी सम्प्रदायके पुजारी नहीं किन्तु सत्यके पजारी जैनधर्म, विविध सम्प्रदायों को प्रर्थान् एकान्तों हैं, यही तो जैनत्व है । को लड़ाता नहीं है किन्तु सम्प्रदायों का समनवय करता स्मरण रखना चाहिये कि यह ममदर्शीपन वैनहै । वह प्रत्येक एकान्त का सार ग्रहण करके अने- यिक मिथ्यात्व नहीं है । एकान्तदृष्टि और वैनयिक Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महात्माजी और जैनत्व वैशाख, ज्ये, वीरनि०सं० २४५६] 1 मिथ्याची सब देवोंकी आँख मींचकर पूजा करता है। बहरागोंका पुजारी नहीं नामका पूजारी रहता है । उसके कार्य विवेक शून्य होते हैं। वह भली-बुरी सत्यश्रसत्यमें कुछ अन्तर नहीं समझता । जब कि, अनेका वाला मनुष्य नामका नहीं गुरणका पुजारी होता है. उसे हेयोपादेय का विवेक रहता है। वह सब जगह सत्य प्रहण करता है और असत्य का त्याग करता है। वह नाम के झगड़ों में ही नहीं पड़ता । महात्माजीने नामकी पर्वाह न करके सत्यकी पर्वाह का है। कोई मनुष्य किसी भी मतका अपनेको माने, परन्तु वह अगर आत्मा में विश्वास रखता है, सत्यका वांजी है, सदाचार को धर्म समझता है और यथाकि उसका पालन करता है तो वह महात्माजी की धर्मात्मा है और हमारी दृष्टिसे भी वह धर्मात्मा और जेनी है । मिस स्लेट महात्माजी की शिष्या हैं। अब उन का नाम मीराबाई है। उनके विषय में योरोपीय समाचारपत्रों में जब यह चर्चा निकली कि वे हिन्दु होगई है नव महात्माजी ने यह कहकर उसका विरोध किया aff 'वे व पहिले अधिक मची ईसाई हैं;' महा-नाज के मतानुसार धर्मात्मा बनने के लिये हिन्दू धर्म छोड़ कर ईसाई, मुसलमान प्रादि बनने की जरूरत नहीं है, न ईसाई-मुसलमान धर्म छोड़कर हिन्दु बनन * आवश्यकता है। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य. अमिता आदि यदि वास्तविक धर्म हैं और इनका पान किसी भी सदयमें रहकर या किसी भी पुस्न का सहारा लेकर यदि किया जा सकता है तो फिर श्रम कल्याणकी दृष्टि सम्प्रदाय-परिवर्तनकी क्या जरूरत है ? यही कारण है कि महात्माजी ने कहा था कि, मीराबाई अब पहिले से अधिक सभी ईसाई है । ३७७ मेरा तो ऐसा स्ख़याल है कि भगवान महावीरके जमाने में जैनधर्मके अनेकान्तका भी ऐसा ही रूप था। यही एक ऐसी विशेषता थी जो दूसरे दर्शनों में नहीं पाई जाती थी । यही कारण है कि जैनधर्म में मोक्ष जानें अथवा मोक्षमार्गी होने के लिये किसी खास लिंगका आवश्यकता नहीं बतलाई गई है— उसके लिये किसी लिंग या वेष विशेषका श्रम अनिवार्य नहीं है । यह बात तो सम्भव ही नहीं है कि कोई प्रचलित जैन सम्प्रदायको धारण करनेवाला मनुष्य जैनलिंगका छोड़कर अन्य लिंग धारण करें । इस लिये अगर कोई प्रचलित जैन सम्प्रदायको नहीं मानता या नहीं जानता (परन्तु उसका वह विरोधी या द्वेपी नहीं है) और जैन धर्म के अनुसार वह मोक्ष जा सकता है तो कहना चाहिये कि जैनधर्म सच्चा आत्मधर्म है, सत्य धर्म है, उदार धर्म है। उसे किसी सम्प्रदाय में कैद करना सूर्यका घड़े में बन्द करना है । इसलिये वास्तविक जैनधर्म कोई सम्प्रदाय नहीं है। वैष्णव, शैव आदि सम्प्रदायकि समान जिम प्रकार हिंसा-सम्प्रदाय सत्य-सम्प्रदाय अचार्य-सम्प्रदाय, ब्रह्मचर्य-सम्प्रदाय, अपरिग्रह-सम्प्रदाय आदि सम्प्रदाय नही बन सकते । अन्यधर्म नामका ही सम्प्रदाय बन सकता है, उसी प्रकार जैनत्व भी कोई सम्प्रदाय नहीं है। वह तो अनेक सम्प्रदायों का समन्वय रूप एक महलम सम्प्रदाय या धर्म है | भगवान महावार के जीवन की बहुत-सी छोटी-छोटी घटनाएँ आज हमारे सामने नहीं है। उनके सिद्धान्त हमारे सामने है । मममने वाला व्यक्ति इसमे मम सकता है कि वास्तविक जैनत्व उदारता और अनेकान्त के बिना नहीं रहना है। जहाँ इन गुगोका विकाम है यहीं जैनत्व है। महात्माजी में हम इन गुणांका प विकास देखने है इसलिये वहां पर जैन नामका पूर्ण प्रवेश न होने पर भी जैनत्व के अर्थका पूर्ण प्रवेश । Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त वर्ष १, किरण ६. पीडितों का पाप [ लेखक-श्री सुमंगलप्रकाशजी, शास्त्री गानी मभी सुनत १ल होकर मनुष्य कायर __ 'अनेकान्त' की चौथी किरणमें 'जैनोंकी अहिंसा' : आये हैं कि श्र. : शीर्षकके नीचे एक वाक्य यह भी दिया हुआ है कि : बन जाता है तभी वह त्याचार्ग-पीदक-पापी "लौकिक स्वार्थवश स्वाभिमानको को खोकर पीड़कों को निमन्त्रण होते हैं । पीड़ित तो दसरोंके अत्याचार सहना भी हिंसा (पाप) हैं" देता है और पीड़का सताये जाते हैं, वे पाप : यद्यपि वहाँ पर इसका कुछ स्पष्टीकरण भी किया गया : की सृष्टिका कारण बन मे बचे हुए हैं। ईश्वर है, परंतु वह इतना संक्षिप्त है कि साधारणपाठक अभी : भी जाता है। उन्हीं की सहायता क : तक भी उसके अभिप्रायको यथेष्ट रूपमें समझ नहीं। शंका हो सकता रता है। किन्तु आज मके होंगे । अस्तु; इस वाक्यमें जो सिद्धान्त मंनिहित : है कि यदि सभी वीर है, यह लेख उसकी एक दूसरे ही रूपमें अच्छी सुदर यदि मैं यह कहूँ कि हो जाये तब भी मार : तथा हृदयग्राही व्याख्या प्रस्तुत करता है और इसी : वास्तविक पापी पीड़ित : लिये आज इस 'त्यागभूमि' से-जहाँ यह अभी हाल : : काट मची रह सकती ही हैं, तो पाठकोंको : चैत्र-वैशाखके संयुक्तांक में प्रकट हुआ है-उद्धृत : है, युद्धका बाजार गम भाधर्य न करना चा- : करके अनेकान्तके पाठकोंकी सेवामें रक्खा जाता है ।। रह सकता है-फिर यह लेख कितना मार्मिक तथा महत्वका है उसे बतलाने : पीड़ा का नाश कहाँ वास्तवमै दुःख वे : की जरूरत नहीं, सहृदय पाठक स्वर्ग ही पढ़ कर मालम: हुआ ? पर वास्तवमें : कर सकेंगे। हाँ, इतना जरूर बतलाना होगा कि 'इस : ही पाते है, जो वास : के लेखक श्रीसुमंगलप्रकाशजी काशी-विद्यापीठ के एक : देखा जाय तो दोवीरोमें नामोंके बोझसे निबेल : उत्साही शास्त्री हैं, और नमक कानुन भंग करने के लिये : युद्ध होने पर पीडाका होकर कायर बन जाते : महात्मागांधीके नेतृत्वमें जो पहला जत्था रवाना हुआ था : जन्म होता ही नहीं। हैं। जी वीरवर: उमके श्राप स्वयंसवक है।' और इस लिये श्राप जो : यदि दोनोंदीदी : कहते हैं उम पर खुद अमल भी करते हैं। इससे आप : दुख पा नहीं सकता दोनों ही मृत्यु के भयम के इस लेखका महत्व और भी बढ़ जाता है । इसमें । पीड़ित बन नहीं सकता। : साधारण जनताके विश्वासके विरुद्ध जिस सत्यका : रहित हैं, तो पीड़ा कोई यदि सभी मनुष्य वीर : उद्घाटन किया गया है उसे ठीक ठीक समझ कर यदि : पा नहीं सकता। एक हो, कोई कायर न हो, हम अपनी प्रवृत्तिको बदल दें, अन्यान्य-अत्याचारके : की जीत होगी, और तो पीड़ा का जन्म ही: सामने सिर न झकाएँ और अपनी कायरता तथा : एकको मत्य । हारेगा वासनामों पर विजय प्राप्त करके पीरकोंकी उत्पत्तिका नहो । फिर भला पी: मागे ही बन्द कर देखें तो हम सहज हीमें पीडित होने: कोई भी नहीं। जिस एक ही कहाँ से पाएं। पाप एवं दुःखसे छूट सकते हैं। -सम्पादक। की जीत हुई उसे तो जब वासनामोंसे निर्व- १.... .....n.i... भला पीड़ा ही क्या Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाख, ज्येष्ठ, वीरनि०सं० २४५६ ] हो सकती है; पर जिसकी मृत्य होगी वह भी, वीर होने के कारण, आनन्दके साथ मृत्युका आलिंगन करेगा –यदि नहीं कर सकता तो वह वीर ही नहीं है। युद्ध में पीड़ा का जन्म तो तब होता है, जब वहाँ कायरता भी होती है । कायरता के कारण हार होती है एक पक्ष की जीत और एक की हार होना वास्तव में युद्धका अवश्यम्भावी फल नहीं है। एककी जीत और एककी मृत्यु होना तो दोनों की ही वीरगति है। इसमें हर किसी की भी नहीं । हार तो तभी होती है, जब कोई कायर होता है । कायरको प्राणोंका मोह होनेसे वह मरने से पहले ही प्राण- भिक्षा माँग लेता है, विजेता का दया-प्रार्थी बन कर स्वयं पीड़ित बनता है और उसे पीडक बननेका अवसर देता है । यदि वह प्रारण भिक्षा नहीं माँगता, तो या तो उसकी मृत्यु होती है, जिसमें कायर होनेके कारण बड़ी पीड़ा होती ( यह मृत्यु दुःखदायी होनेके कारण हार ही मानी जायगी) अथवा अपनी कायरता के कारण वह स्वयं पीड़ितका पद पाता है और विजेताको पीड़क बनाता है । यदि वह न तो प्राण- मिक्षा ही माँगता है और न मरता ही है, तो उसके लिए एक ही रास्ता और है । वह है भाग जाना । पर यहाँ भी वह पीड़ा पानसे नहीं बचता । वह सदा डरता रहता है, और अपने शत्रु से बचने के लिए बड़ी बड़ी आपत्तियाँ महता है । इस प्रकार हम देखते हैं कि जहाँ कायरता है वहीं पीड़ा है। सिंहको देख कर हिग्गा यदि भयभीत न हो arrier भय छोड़ कर वह वीर बना रहे, तो सिंह के द्वारा खा लिए जाने पर भी उसे कोई दुःख नहीं हो सकता। वह लड़ता-लड़ता, हँसी-खुशी, प्राण देगा। यह स्पष्ट है कि जिस समाजमें वासनायें अधिक बढ़ी चढ़ी होंगी वह समाज निर्बल भी अधिक होगा, पीडितोंका पाप ३७९ कायर भी अधिक होगा, और पीड़ित भी । जीवित रहने, धन- ऐश्वर्य भोगने, स्त्री- पति-पुत्र बन्धु आदि प्रेमी-जनोंके साथ रहकर सुख भोगने इत्यादिकी वासनसे किसी समाज के प्राणी जितने ही अधिक जकड़े हुए होंगे, वे उतने ही पीडित होंगे। फिर यदि उन पर अत्याचार किया जाता है, तो यह उन्हींके आमं त्रण से होता है; वे ही इस पापके मूल कारण हैं, वे ही पीड़कों की सृष्टि करते हैं । जहाँ वासनायें अधिक होगी वहाँ सत्य-प्रेम, न्यायप्रेम नहीं टिक सकता । वहाँ स्वार्थका बाजार गर्म रहता है। स्वार्थके साथ असत्य और अन्यायका प्रवेश होता ही है । अपना काम बनाने के लिए, चाहे दूसरेका काम बिगड़े ही, लोग घूँस देते हैं, खुशामदें करते हैं, और ऐसे-ऐसे कामतक कर डालते हैं, जिन्हें कोई स्वाभिमानी पुरुष स्वप्न में भी नहीं सोच सकता । वासनामे कायरता, और कायरता पतन ! सत्य और न्याय तो दूर ही यह दृश्य देख कर दयाके म् बहाने है 1 यद्यपि वामनाश्रीको सर्वथा नाश कर देने वाले जीवन-मुक्त मनुष्य संसार में सर्वथा दुर्लभ नहीं हैं, तो भी उनकी बात इस समय छोड दीजिए। हम उन्हीं की बात कहते हैं जिन्होंने अन्यायके आगे सिर न मुकाकर, अपनी वासनाओं का गुलाम क्षुद्र बने रहना स्वीकार न करके, संसारमे अपना नाम श्रम कर दिया है। गणा प्रतापनं पीड़क के विरुद्ध अपना मि उठाकर न्याय सत्यके लिए अपने सारे सुखाकी तिलाजलि दी। पर क्या वास्तव में वह दुम्बी था ? कदापि नहीं । अन्याय सहन करने की पीड़ा उसके लिए उन शारीरिक कष्टोंस कहीं अधिक थी, जो उसने और उसके परिवारने जंगल-जंगल भटकते हुए महं थे। वह Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० अनेकान्त वर्ष १, किरण पीड़ित नहीं ही बना, और इस प्रकार सत्यकी, न्याय के बिना हाय-हाय करता है । ईर्ष्या-द्वेष में जलना की, रक्षाके लिए प्राण गँवा दिये । वह अपनी पीड़ा रहता है । जो उसके पास होता है उसे भी छोड का का दूर करना स्वयं जानता था । उस यह सह्य नहीं आगे बढ़ता है, और न पाकर झंझनाते हुए अपना था कि वह पीड़क के हाथों पीसा जाय और फिर उसके जीवन बिता देता है। आर्तनादको सुन कर दूसरे लोग उसके साथ सहानु- इस प्रकार वासनाके पीछे धनी-गरीब सभी पारिन भूति दिखाएँ, उसके दुःखमें दुःखी हां, अत्याचारीको हैं । वामनाने उन्हें कायर बना दिया है। 'धन, धन. गालियों सुनायें, किन्तु उसकी पीड़ा कुछ भी कम न धन !' धनके पीछे ग़रीब-अमीर दोनों ही सब-कुछ कर सके। करनंको तैयार हैं ? मत्य-न्यायका गला सबसे पहले __ याद आती है इस समय चित्तौड़की रानी पद्मिनी ! ये ही घोटने हैं। और फिर औरोंके द्वारा उनका गाना वह अपन महलकी समस्त स्त्रियों के साथ आग लगा घोटा जाता है । जब सभी लोग इम तृष्णा कर भस्म हो गई, उसके सिपाही केसरिया बाना वामनाके चक्कर में पड़ जाते हैं, तो इस चक्कर में पहनकर लड़ने-लडत मर गये पर पीडककी पापीप्यास सभी एक दूमरेके लिए पीड़क और पीड़ित बन को न वझाया । अन्त को क्या हुआ ? अत्याचारी जाते हैं । महाजन-ज़मींदार को वकील, मुख्तार नगरमें मुर्दे ही मुर्दै देख कर वापस लौट गया, उसकी और कचहरीके नौकर लूटते हैं; किमानोंको महाजन अन्याय कामना पूरी न हुई। और इस प्रकार पीड़क, जमींदार लूटने हैं; किमीको वनिया लुटता है, किमी पोडा और पीडित-किसीकी भी सटि न होने पाई। को रेल घाले । जमींदार साहब अपने किसानों के कोड़े झांसीकी रानी लक्ष्मीबाईका भी कोन भूल सकता नगवाने हैं, पर खुद जज साहबके पैर चुमते नजर आते है" मायके सामन, क्या की रक्षा । ना, अपने मार हैं। कोई किसीका खयाल नहीं करता सभीको अपनी सुखोका बलिदान करने वालोके नाम इतिहास अमर ही अपनी फिकर है । मबमे गया-बीता किमान ! उसे है। ऐसे ही लोग पृथ्वीका भार हलका करते है. पी४। मारे ही काम अपने हाथों करने पड़ते हैं । लोग सोचते का जडसे नाश करते है, स्वयं पीड़ित नहीं बनने और होंगे कि वह बेवाग किस पर अत्याचार करेगा ? और पीड़कोंकी उत्पत्ति में कारण भी नहीं बनने। वासनाओं ने, ऐश्वर्यकी प्यासन अाज सबको सब अत्याचारी हो सकते हैं, किसान नहीं। किंतु इससे कायर बना दिया है । धना लोग मुफनकारुपया पाकर किसानकी बड़ाई नहीं। उसकी प्रशक्ति ही इमसे प्रकट तरह-तरह के ऐश-आरामों की सष्टि करते हैं । गरीब होती है । छोटा किसान सदा बड़ा किसान बनना लोग उन्हें देखकर ललचते हैं,भले बरे माधनोंसे उन्हें चाहता है, और बड़ा किमान जमींदार । जमींदार पानका अभ्यास करते हैं, न मिलने पर कुढ़ते हैं और बनते ही शक्तिका वह नशा उमको भी नम-नसमें सदा अपना जीवन दुःख में बिताते हैं । धनी की धन- दौड़ने लगता है। अपने पुराने साथियों को, अवसर पिपासा शान्त नहीं होती। वह सदा 'और-और' की पातं ही, वह भी उसी प्रकार पीड़ित करने लगता है। पुकार करता रहता है । उसीके पीछे पागल बना रहता पर वास्तवमें एक गरीबमे गरीब किसान भी जैसा है। वह कभी वास्तविक सुख नहीं पाना । गरीब पन भोला और महानुभूतिका पात्र दिखाई देता है, जैसा Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देशाग्य, ज्येष्ठ, वीरनि०सं० २४५६] पीडितोंका पाप वर होता नहीं। उसका भी कुछ अधिकार लोगों पर होता अपनी कामनायें, अपनी आवश्यकतायें घटा कर सत्य और वहाँ वह उस अधिकारका पूरा प्रयोग करता और न्यायके लिए, जो कि वास्तविक सम्ब और शक्ति है वह वेतमें अपने बैलों पर अपना क्रोध उतारता है। के देने वाले हैं, अपना सब कुछ न्यौछावर करदें। यदि ऊँची जाति का हुआ तो नीची जाति वालों पर यदि अाज किसान दरिद्रता, सादगी का महत्व अत्याचार करता है, उन्हें कुत्तों की तरह दुरदुराता है। ममझ कर चले, अमारी मिलने पर भी उसे लान परम अपनी स्त्रीकी लातों और घूमोंमे पूजा करता है। मार म और सत्यके लिए, न्याय के लिए सब कुछ कम-से-कम स्त्री तो हर कोटिके मनुष्य के लिए-चाहे. सहनको तैयार होजाय, नो वह पीड़ित नहीं रह सकता। वह राजा हो, चाहे किसान-पीड़क और पीडितका सं- कदापि नहीं ! पीड़ा का कीड़ा तो हमारे भीतर है। बंध पैदा कर देनेवाली चीज है। सभी निराशाओ, मभी उसने हमाग माग अन्तःकरण म्बा डाला है, पालाकर नुकसानों का क्रोध उसी बेचारी पर उतारा जाता है। दिया है, उस कीड़े को बाहर निकाल फेंककर अन्तःश्री अपना क्रोध कभी-कभी अपने बच्चे पर उतार लेती करण को फिर मे मजबन बनाकर हम आगे बढ़ेंगे तो है, और बच्चे अपनी माँ पर ! शायद, आजके भारतमें हम मची शक्ति, मच्चा सुम्ब अवश्य पायेंगे। यह पीड़क और पीडतका चक्र यहीं जाकर समान होता हम आज स्वगन्य चाहते हैं। विदेशी हमार है । स्त्री और बच्चा, ये ही नाना जीव मानव-समाजमे शासक हैं। वे हमारा लाभ न दबकर अपना लाभ मनसे निर्बल हैं । ये दोनों ही अपना क्रोध आपस में देखते हैं, हम पर अन्याचार करना है, पर इममें किम उतार कर फिर चिपट-चिपट कर रो लेते हैं. एक का दोष ' यदि हम उनकी अन्याय-कामनाओं को दूसरे पर दया दिखाते हैं-महानुभूति दिखान है। पुग न करतं जाय, नो क्या वे हम पर अत्याचार कर इमप्रकार देखा जाय तो वास्तव में पीड़ा बुलानसे मकन है ? अपनी क्षुट वामनानी के कारण आपम ही आती है, और पीड़ित स्वयं ही उमको दूर कर मका में हम एक-दूसरे को पीदिन करते हैं, जिसके कारगा ता है। दूमग कोई नहीं । भिम्वमंगेको भीख देकर हम हम निबल बन गये हैं। विदेशी मरकार अपना मन. उमकी पीड़ा कम नहीं करते बल्कि उसकी वामनावोंको लब मिल करने के लिए हम में से कुछ को फोद लेती बढ़ाने में महायक बनकर हम उसकी पीडाबढ़ाते ही हैं। है. उनकी वामनाएँ पूरी करनी है, और उन्हीं के द्वारा किमानों पर मरस खाकर जमींदारों और पूंजीपतियाके हमारे दूमरे भाइयों को लुटवाती रहती है। यदि हम विरुद्ध आन्दोलन करनेसे हम किमानोंका दम्न कम इस प्रकार उमके स्वार्थ-माधन की मशीनगन गहन में नही करसकते । स्त्रियों की पीडासे दु.खी होकर, कविना मुँह मोड़लें, नो क्या वह एक क्षण भी यहां ठहर और उपन्यासोंमें उनका करुणचित्र खींचकर पुरुषोंको मकती है ? पर यह माज की दशा में मरल नहीं। गालियाँ देकर,हम नियोंकी पीड़ा कम नहीं कर सकते। हमें अपना स्वार्थ छोड़ देना होगा, क्षुद्र वामनानी का इसके लिए तो हमें उन्हें ही तैयार करना होगा किसान जला देना होगा, प्राणों और प्राणाधिक प्रेमीजनों का अमी रके अत्याचारों के भागे सिर न मुकाए, सियाँ मोह त्याग देना होगा। मतलब यह कि हमें सत्य और पुरुषों की मनमानीको चुपचाप न सहें।अपनी वासनायें, न्याय का आयल बन जाना होगा, सत्य और न्यायके Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनकान्त वर्ष १, किरण पीछे पागल बन जाना होगा, सत्य और न्याय में ही नहीं । शुरू-शुरू में उसे अधिक कष्ट सहने होंगे. परम-सुख है, इसको अच्छी तरह जान लेना होगा। पीछे सब सरल होजायगा। न स्त्री पुरुष विना ? ___ स्त्रियाँ भी इसी प्रकार परुषों की गलामी से छूट सकती है, न पुरुष स्त्री बिना । कुछ दिन इस म्वातंत्र्य सकेंगी। विधाता ने पाप और श्री दोनों को युद्ध के लिए कष्ट सहने पर स्त्री को उसकी म्वतन्त्रता मिलाकर मानव-मष्टि की पर्णता रक्खी है। एक के मिल जायगी और पुरुष-स्त्री का वही स्वाभाविक प्रमबिना दूसग अधुग है। पर शारीरिक बल में पाप सम्बन्ध स्तापित हो जायगा, जो विश्वविधाना ने कब बढ़ा-चढा होने में आज वह विधाता के न्याय से सोच रक्खा है। विरुद्ध नी को दया बैठा है, उसमे अपने को पजवाना आज हिन्दुस्थान में युवक-आन्दोलन की शुमान है, अपने स्वार्थ पर उसकी बलि चढ़ाता है । पर बाम्नव हुई है। जिधर देखिए उधर ही यवक-परिपडे हाने में जब नक दानों को सवम व एक सत्र में बाँधने लगी हैं, ये सुलक्षण है । यवक-युवतियाँ ही वाम्नव म वाला प्रम-बन्धन मौजद नहीं है, तब तक दोनों स्वतंत्र कोई काम कर सकते हैं । वृद्धों का काम तो ममय हैं, किमी का दूसरे पर अधिकार नहीं। जब प्रम- पर मलाह देते रहना है; काम तो युवकों को ही करन पन्धन में बँधे हैं नब कोई बड़ा-छोटा नही । किन्तु होगा । श्राज यवकों के हृदयों में श्राग सुलगने लगा स्री ने कुछ तो अज्ञान के कारण पम्प के भलाव में है। पीड़ितों का पाप उन्हें दिखाई देने लगा है। आकर यह मान लिया है कि वह स्वयं बिलकन अब अपनी कमर कमन लगे हैं। अपदार्थ है, पुरुष के ही कल्यागा में उसका कल्याण किन्तु अभीना जिननी अावाज है, जितना शान है, पुरुप की दामी बनने में उसका सम्मान है; और है, उतना काम नहीं। बल्कि आवाजके देग्वते काम नहीं' कुछ अपनी तुच्छ वामनाओं के कारण पीड़ित बराबर है, यह कहना अमंगत न होगा। युवक-परिपटाम होने का भाव मन में रहने पर भी वह निर्बल-काया तमाशा करनेके लिए काराजी प्रस्ताव पास करके बड़े हो जाती है, म्पयं म्वतंत्रता का बोझा उठानम घबगनी बढ़ीके कामकी निन्दा करनेके लिए, पीड़कोंको गालियाँ है । सास बनकर बहू पर वह अपना क्रांध उतार कर सुनाने लिए युवक काफी संख्या में दृष्ट पड़ते है, पर अपनी शक्ति पा लेती है। जब उनके मामने कोई काम रक्खा जाता है, तो सभी परन्तु नादि मनमुन अाज बी को यह भामिन की आवाज़ नितंज, फीकी, दुर्बल पड़ जाती है,वे वगने होने लगा है कि उम पर पुरुषों ने अत्याचार किया है झाँकने लगते हैं। ठीक है कहने में कोनसी शक्ति लगत' और कर रहे हैं, तो यह उमी के हाथ की बात है कि है। वाणी का जोरामभी दिग्वा सकते हैं । क्रान्तिका वह जब चाहे इससे बच सकती है। उसे सादगी का जय' (Long Live Revolution) सभी पुकार धेत लेना होगा, अपना श्रृंगार करके अपने शरीर को सकते हैं, पर क्रान्तिः करने को तैयार नहीं। युवक ली। मोहक बनाने का कुत्सित कार्य छोड़ना होगा, इसे · यह नहीं समझते कि राजनीति में, समाज-नीति में. अपना पेट भरने और तन ढकने लायक स्वयं कमाने 'क्रान्ति करने के लिए सब से पहले हमें अपने जीवन का ढंग निकालना पड़ेगा। इसके विना उसकी मुक्ति में क्रान्ति करनी होगी। हम किवने अन्याय-अत्याचार Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाम्ब, ज्येष्ठ, वीरनि०सं० २४५६] पीडितोंका पाप चप-चाप सहते जाते हैं, यहाँ तक कि कितने छोटे- अपमान नहीं करते, और इसे हम कहते हैं अपना हे अत्याचार तो अब हमें अत्याचार के रूप में सनातनधर्म ! भंगी को हम छ नहीं सकते, क्योंकि दीवत भी नहीं। हमारा जीवन कितने आडम्बरों, वह हमारे पेट में से निकली हुई सड़ी गंदगी को कितने पावण्डों, कितने ढोंगों (hypocrisies ) से हमारे लाभ के लिए हमारे घर से उठा कर दूर डाल भरा हुआ है ! जिस क्षेत्र में देखिए, उधर ही यह आता है। हम गन्दे नहीं हए. वे इतने गन्दे हो गये 'अमत्य' हमारे जीवन को सहस्रों रूप रखकर घरे कि हम उन्हें छ नही सकत । चमार मरे हुए चमड़की वटा है। किन्तु अब हम उसकी ओर ताकत ही अपनी जीविका का श्राधार बनाया है। उस पदब नहीं, उसे सत्य ही समझ बैठे हैं, और उसकी चकी में दार चमड़े को किनन भी कठों की पर्वा न करके माफ पिम रह हैं । यदि ताकते भी हैं तो आँखें दुग्वन लगनी करता है, उसकी बदब दूर करता है, और हमारे लिए है, हम आँखें उधर से फेर लेते हैं। यही है हमारा जत बनाकर देता है । एक दिन हम उसी से वह स्वबसत्य-प्रेम ? यही है 'क्रान्ति की जय'? हम नित्य दखत मरत जता घरीद लाते हैं, पर जता उसके हाथमे लेते है कि हमारी राजनैतिक स्थिति दिन-पर-दिन भयावह, समय यह ध्यान रखते है कि कहीं उसका अपविन अत्याचार-मूलक, पीडिक होती जा रही है। हम भी हाथ हमारे हाथ में न जाय ' हम निन्य छोटी-छोटी चप चाप उसे सहन किये जाते हैं, उसका उग्र रूप नन्हीं-नन्हीं बालिकाश्री का विवाह कर देते हैं, और साहस-पर्वक आँखें खोलकर देखना भी नहीं चाहने विधवा होजाने पर उन्हें आजन्म विधवा रहने का क कहीं हमारे हृदय में आग न भड़क उठे, जिससे विवश करते हैं, जहाँ दूसरी ओर उमी उम्र के लइर्ष. में अपना जीवन संकटापन्न, कष्टमय, त्यागमय, एक पत्नी के मरने पर दमरा और दमरी के मरने पर बनानेको विवश हो जाना पड़े। हम गेज़ अपने चारों तीमग विवाह बिना किमी मंकोच के फर डालने है। और भखे किसानों की स्त्रियों और बच्चों का श्रान- माठ-साठ बरम के बद्रों में बारह-बारह बग्म की नाद सुनते हैं, उनकी मखी हड़ियाँ दग्वत हैं, और · लड़कियों का विवाह करके उनके शरीर उनके हदय. दखते हैं उनकी गड़हों में घसी हुई आंख और मुरझाय उनकी आत्मा को मनी दे देते हैं। हम स्त्रियों के लिए गाल पर हम इस डर से अपना मुंह फेर लव है कि दृमरं विधान बनाने है और शक्तिमान पुरुषों के लिए - करुणाम विवश होकर और यदि जानी हुप में अपने दृमरं । हम नित्य स्त्रियों को अपने चारों ओर दुःखी .. को ही इस स्थिति का कारगा समझ कर, हमें अपने दम्वन है, गने दबने हैं, उनके नाम पहने देखते हैं। गजसी ठाठ, गजमी भांजन, छोड देने पड़ेंगे, हमें भी हम यह नहीं मांच पाम कि इसमें कुछ भी विशेषता है। इनके कमं. उनका-माथ देने का निकल पड़ना होगा। - ये सब दश्य हमारे लिए उसी प्रकार स्वाभाविक हो हमने अमीरों के दाव-पेचीद्वागं गरीब किसानों को जो यहै. जिस प्रकार किमी फ लामी श्रीनिहर अब नक चमा है, उसका प्रायश्चिन करने के लिए हम मां का कच्चा मदा गंता म्हता है, और उसकी मा भी आज कंगाली का व्रत लेना होगा। हम निन्य अपने उसके दुःन्य जानने का कट नहीं उठाना-वह निन्य कुओं पर, अपने मन्दिगं के पास-पाम, अपने मकानों वरचे को गंन देखनी है और कुछ दिनों में उमक में 'अछूत' नामक अपन-ही-में मनष्यों को देखते हैं, लिए बच्चेका रोना उमका म्वाभाविक कर्म बन जाना और बात-बात पर उन्हें कुत्तोंकी तरह दतकार देते हैं।- है,वह घर ध्यान देती ही नहीं। हमारा पानी उनमे छू जाय तो हम पी नहीं सकते, हम इस प्रकार एक नहीं, दो नही. मकड़ी श्रमत्या, उनसे छू जाँय तो स्नान करके पवित्र होना पड़े, वर्तन हजारों पाखण्डोंस प्रान हमारा जीवन भग हता है। छु जाँय तो आग में तपा कर शुद्ध किये जायँ ! कुत्ते । हम आज जो कुछ करन है, बाव मून्द कर करते है : और मक्खी के समान गन्दे जीवों का भी हम इतना - हमारी विवेक शक्ति में कब का जंग ला चुका है। Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ अनेकान्त वर्ष १, किरण ६,५ किसी काम का औचित्य हम प्राचीनतासे ठहराते हैं। नहीं यह मैं पहले ही दिखा चका हूँ। राणा प्रताप, जो रिवाज, जो रीत-रस्म, जो नियम पहले से चले झाँसी की राणी, चित्तौड़ की राणी पद्मिनी-येही भारहे हैं, वे ठीक ही हैं, उनमें हमें दोष दीखने पर वास्तविक सुखी जीव थे। पर जिनको संसार में भी उनका विरोध करने की शक्ति नहीं। हमें अपने साधारण रूप से सुख कहा जाता है, उन्हें ही लान उत्तरदायित्व पर, अपने बल और साहस पर , अपने मार कर इन्होंने असली सुख पाया था। विवेक के अनुसार, किसी नये काम को शुरू करने की यवक कोई ऐसा काम चाहते हैं, जिसमें उन्हें आज हिम्मत नहीं। त्रियाँ दुःखी हैं, पर यह तो सदा अधिक दिन परीक्षा में न पड़ना पड़े। वे चाहते हैं से ही होता आया है, 'अछूत' दुःख पाता है, यह तो किसी सेनापति की रण-तुरही का नाद, जिसके सुनते सृष्टि के आदि से चला आता है; बाल-विवाह हिन्दू. ही जोश में मतवाले होकर वे घर छोड़-छोड़ कर धर्म का सनातन रूप है। इन सब को हम कैसे बदल निकल पड़ें और क्षणभर में रणभूमि में मार-काट सकते हैं ? इसी प्रकार जात-पात के दोष, विवाह के मचादें । या तो मर ही मिटें या मार कर ही श्रावें । वे दोष, ब्राह्मणों का निरंकुश अधिकार, आदि कितने ही ऐसा कोई काम नहीं चाहते कि जिसमें उन्हें प्रलोभनों सामाजिक दोष हम आँख मूंद कर चुपचाप सहते में परने का अवसर मिल जाय । वे अपने सामने दो माते हैं। किसानोंका कष्ट, गरीबोंकी भख, राजनैतिक प्रकारके भोजन-राजसी और गरीबीका, दो प्रकारक असमानता से होने वाले पैशाचिक अत्याचार भी हम मकान-महल और झोंपड़ी,दो प्रकारके वस्त्र-रेशम कायर बनकर उसी प्रकार सह लेते हैं । हममें किसीभी या मलमल ओर मोटी खादी, दो प्रकार के जीवनभत्याचार के विरुद्ध सिर उठानेकी शक्ति नहीं रही। गार्हस्थ्य और ब्रह्मचर्य नहीं देखना चाहते! उन्हें डर है किन्तु जब कुछ इने-गिने लोग हमारी दशा का कि वे इस प्रलोभनसे बच नहीं सकेंगे, वे ऐश-आराम परिचय कराते हैं, हमारी आँख में अंगली डालकर, के जीवनकी ओर झक ही जायेंगे।न्यायका मागे अपने उन्हें खोलकर, हमें अपने चारों ओर के भीषण दृश्य आप पसन्द करना उनके लिए कठिन हो पड़ेगा। देखनेको विवश करते हैं, तो अपने स्वभावके अनुसार इस प्रकार हम देखते हैं कि आज हमारे युवकहमारा हृदय आग हो जाता है, हम भड़क उठते है और यवतियाँ त्यागसे घबराते हैं। ऐसा काम चाहते हैं जो चारों ओर एक महान क्रान्तिकी महान आवश्यकताका कुछ देरके लिए उनके हृदयको जोशसे भरदे, और तब अनुभव करके जोरसे चिल्ला उठते हैं 'क्रान्ति की जय'! वे प्राण भी देनेको तैयार हो जायेंगे, पर सदा के लिए पर इस जोर की चिल्लाहट में हमारा सारा आवेश अपनी वासनामों को दमन फरके जीवन बिताना उन्हें काम पा जाता है, हमारे हृदय की आग एक बार पसन्द नहीं, यह उन्हें अशक्य मालूम पड़ता है। जोर से जल कर ठंडी पड़ जाती है, दीपक अन्तिम परन्त यह लडाई तो ऐसी नहीं, जो प्राण दे देने बार तेज हो कर बझ जाता है ! जब हम देखते हैं कि या लेलेनस जोती जा सके । हमें किसी बाहरी शत्रुको इन अत्याचारोंसे बचने के लिए जो क्रान्ति आवश्यक नहीं अपने भीतरी शत्र को जीनना है। यह बात है उसके लिए हमें अपने जीवन की महत्वाकांक्षाओं । यद्यपि कुछ बेदव-सी जान पड़ती है, पर है यही सबसे अपने सुखों और अपनी प्यारी कामनाओंको बलिवेदी , ठीक बात । इतिहास साक्षी है कि जिस तरहकी लड़ापर चढ़ाना होगा,तब हमारा कायर हृदय बैठ जाता है इयाँ सष्टिके आदि काल से हम लड़ते आये हैं, उनसे बह इस सम्बन्धमें विचार करना भी छोड़ देता है। . संसार में दुःख की, अत्याचार की कोई कमी नहीं हुई पर इस प्रकार हम इन छोटे मोटे-सुखोंको भले ही है। अब हमें दूसरे ही प्रकार की लड़ाई लड़नी है। पालें, किन्तु वास्तविक सुख हमें कदापि नहीं मिल सकता । सुख तो बीरता से ही मिलता है'कायरता से Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाख, ज्येष्ठ, वीरनि०सं० २४५६] तत्त्वार्थसूत्रके प्रणेता उमास्वाति तत्त्वार्थसूत्रके प्रणेता उमास्वाति [ लेखक-श्रीमान पं० सुखलाल जी ] वंश जैन शाग्वा का एक शाम है; इसमे इसके इतिहासम विद्यावंश का इतिहास पाता है। न्म-वंश और विद्या-वंश ऐस नत्त्वााधिगम शास्त्रके प्रणेता जैन मम्प्रदायक वंश दो प्रकार का है । जब सभी फिरकोंमें पहलेमे आज पर्यन्त एक रूपमे मान किसीके जन्म का इतिहास जाते हैं । दिगम्बर उन्हें अपनी शाखामें और श्वेताम्बर विचारना होता है तब उसके अपनी शाखामें मानते हुए चले आते हैं। दिगम्बर पर. साथ रक्त (रुधिर)का सम्ब- म्परामें ये 'उमास्वामी' और 'उमाम्बाति' इन नामोंमें न्ध रखने वाले उसके पिता, प्रसिद्ध है; जब कि श्वेताम्बर परम्पगमें केवल 'उमापितामह, प्रपितामह, पुत्र, स्वाति' नाम ही प्रसिद्ध है। इस समय मभी दिगम्बर पौत्र, प्रपौत्र आदि परम्पराका विचार करना पड़ता है, तन्वार्थशामा-प्रणेता उमाम्वातिको कुन्दकुन्द के शिष्य और जब किसीके विद्या-शास्त्रका इतिहास जानना होना रूपमे मानने में एकमन हैं। और श्वेताम्बरों में थोड़ी है तब उस शास्त्र-रचयिताके साथ विद्याका सम्बन्ध दावा, नामी ममन्तभद' पृ०१४४ मे भागे तथा सार्थरखने वाले गम,प्रगुरु तथा शिष्य, प्रशिष्य आदि गरु- मिदि राजवार्तिक मादि प्रथोंके मारकी माधुनिक प्रस्तावनाएँ । शिष्य-भाव-चाली परम्पराका विचार करना होता है। मूल मर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक तथा श्लोकवार्तिकके जो 'तत्त्वार्थ यह भारतीय दार्शनिक विद्या की मरकरणा प्रकाशित हए हैं उनकी प्रस्तावनामों में रोमा नहीं पाया जाता, १ ये दोनों वंश आर्य परम्परा मौर मार्य माहित्यमें हजागं और न 'म्वामी समन्नभद्र' इतिहास में उमास्वाति की कुन्दकुन्द पास प्रसिद्ध हैं। 'जन्मवश' योनिसम्बंधकी प्रधानताको लिये हर कामाक्षात शिष्य प्रतिपादन किया गया है। हा, इतना मचित गहस्थाश्रम-सापेक्ष है और 'विद्यावश' विद्यासम्बन्ध की प्रधानताको किया है कि नन्दिमयकी पट्टावली (जिसकी प्रामाणिक्ता पर बहतकुछ लिये हुए गुरुपरम्परा-सापेक्ष है। इन दोन वशों का उल्लेख पागिा आपत्ति की गई है) मे तो "ऐसा मालूम पड़ता है मानों उमास्वाति नीय-व्याकरणसूत्रमें तो स्पष्ट ही है। यथा-- कुन्दकुन्दके शिष्यही थे। परन्तु श्रवणवल्गाल के शिलालेग्नमें उन "विद्या-योनि-सम्बन्धेभ्यो वन" ४, ३,७७ कुन्दकुन्दका शिष्य सचित नहीं किया, बल्कि 'सदम्बये' और -पाणिनीय सूत्र। 'तदीयवंशे शब्दोंके द्वारा कुन्दकुन्दका 'वंशज' प्रकट किया है।" इससे इन दो शोंकी स्पष्ट कल्पना पाणिनीयसे भी बहुत ही इससे मालम होता है कि लेखक महोदय को इस उसके करने में कुछ गलती हुई है। --सम्पादक Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ अनकान्त वर्ष १, किरण ६, ७ घनी ऐसी मान्यता दिखलाई पड़ती है कि, प्रज्ञापना दिगम्बर साहित्य में अद्यावधिपर्यन्त देखनेमें आए हैं सूत्रके कर्ता श्यामाचार्यके गुरु हारित गोत्रीय 'स्वाति' वे सब ही दशवीं-ग्यारहवीं शताब्दीसे पीछे के हैं और ही तरवार्थसत्रके प्रणेता उमास्वाति हैं३ । ये दोनों उनका प्राचीन विश्वस्त आधार कोई भी नजर नहीं प्रकार की मान्यताएँ कोई प्रमाणभूत आधार न रख पड़ता ।खास विचारने जैसी बात तो यह है कि, पाँचवी कर पीछेसे प्रचलित हुई जान पड़ती हैं। क्योंकि दशवीं से नवमी शताब्दी तक होने वाले तत्त्वार्थस्त्रके प्रसिद्ध शताब्दीसे पहले के किसी भी विश्वस्त दिगम्बरीय ग्रंथ, और महान दिगम्बरीय व्याख्याकारोंने अपनी अपनी पट्टावली या शिलालेख आदिमें ऐसा उल्लेख देखनमें व्याख्यामें कहीं भी स्पष्टरूपसे तत्त्वार्थसूत्रको उमानहीं आता कि जिसमें उमास्वाति को तत्त्वार्थस्त्रका स्वातिका रचा हुआ नहीं कहा है के और न इन उमारचयिता कहा हो और उन्हीं उमास्वाति को कुन्दकुन्द स्वातिको गिम्बरीय, श्वेताम्बरीय या तटस्थ रूपमे हा का शिष्य भी कहा हो । इस मतलब वाले जो उल्लेख उल्लेखित किया है । जब कि श्वेताम्बरीय साहित्यम आठवीं शताब्दीकं ग्रन्थों में तत्त्वार्थसूत्रके वाचक उमा . ३ "आर्य महागिरेस्तु शिष्यो बहुल-बलिस्मही स्वाति-रचित होनेके विश्वस्त उल्लेख मिलते हैं और इन यमल-भ्रातरौ तत्र बलिस्सहस्य शिष्यः स्वातिः तत्त्वार्थादयो ग्रन्थास्तु तत्कृता एव संभाव्यन्त । तच्छिण्यः श्या प्रन्थकारों की दृष्टि में उमास्वाति श्वेताम्बरीय थे ऐमा माचार्यः प्रज्ञापनाकृन् श्रीवीगत् पटसप्तत्यधिकशतत्रय मालूम होता है। परन्तु १६वीं, ५७ वीं शताब्दीके 'धर्म (३७६) स्वर्गभाक।" सागर' की तपागच्छकी पट्टावलीको यदि अलग कर ---धनमागीय लिखित पटावनी । दिया जाय तो किमी भी श्वेताम्बरीय ग्रंथ या पट्टावली ८ अवगाबल्गाल के जिन जिन शिलालेखों में उमास्वाति को आदिमें ऐसा निर्देश तक नहीं पाया जाता कि, तत्त्वार्थतस्वार्थरचयिता और कुन्दकुन्द का शिष्य कहा है वे सभी शिलालेख विक्रमकी ग्यारहवी शताब्दी के बाद के हैं । दखो, माणिकचन्द स्त्र-प्रणेता वाचक उमास्वाति श्यामाचार्यकं गुरु थे। अन्यमाला द्वारा प्रकाशित जनशिलालेखपग्रह' लेख ने०४०, ४२ वाचक उमास्वाति की खद को रची हुई, अपने ४३, ४७, ५० और १०८। कुल तथा गुरुपरम्परा को दर्शाने वाली, लेशमात्र ___नम्दिसंघकी पविली भी बहुत ही अपूर्ण तथा ऐतिहासिक संदेह में रहित तत्वार्थसत्र की प्रशस्ति के आज तक तथ्यविहीन होने में उसके ऊपर पूरा आधार नहीं रखा जा सकता, विद्यमान होते हुए भी इतनी भ्रांति कैसे प्रचलित हुई ऐसा फं० जुगलकिशोर जी ने अपनी परीक्षा में सिद्ध किया है । देखो, 'स्वानी समन्तभद्र' पृष्ट १४४ से । इससे इस पट्टावनी तथा * श्लोकवार्तिक' में विद्यानन्द ने उमास्वातिका दूसरे 'गृद्धइस जैसी दसती पट्टावलियों में भी मिलने वाले उलेखों को दूसरे पिच्छाचार्य' नाम से उल्लेख किया है और उन्हें तत्त्वार्थसूत्रका विश्वस्त प्रमाणों के आधार विना ऐतिहासिक नहीं माना जा सकता। कर्ता सूचित किया है । यथा "तत्त्वार्थशास्त्रकर्तारं गृद्धपिच्छोपलक्षितम् । "एतेन गृद्धपिच्छाचार्यपर्यन्तमुनिसत्रेण वन्दे गणीन्द्रसंजान मुमास्वामिमुनीश्वरम् ।।" व्यभिचारिता निरस्ता प्रकृत सूत्रे ।" यह तथा इसी भाशय के इससे गद्य पद्य मय दिगम्बरीय भव -सम्पादक तरण किसी भी विश्वस्त तथा प्राचीन आधार के लिये हुए नहीं हैं, (५) विशेष खुलासे के लिये देखो 'परिशिष्ट' । इससे इन्हें भी अन्तिम भाधार के तौर पर नहीं रक्खा जा सकता। (६) देखो, टिप्पण (फुटनोट) २१ वा । -- -- -- Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाख, ज्येष्ठ, वीरनि०सं० २४५६] तत्त्वार्थसूत्रके प्रणेता उमास्वाति २८७ होगी, यह एक आश्चर्यकारक समस्या है । परन्तु जब थे, वाचनास अर्थात् विद्यापहणकी दृष्टि से जिसके पूर्वकालीन साम्प्रदायिक व्यामोह और ऐतिहासिक गुरु मूल नामक वाचकाचार्य और प्रगुरु महावाचक दृष्टि के अभाव की तरफ ध्यान जाता है तो यह मुन्डपाद थे, जो गोत्रसे कोभीषणि था, और जो ममस्या हल हो जाती है । वा० उमास्वातिके इतिहास. स्वाति पिता और वाली माताका पुत्र था, जिसका विषय में उनकी खुद की रची हुई छ टीसी प्रशस्ति जन्म न्यग्रोधिका में हुआ था और जो उच्चनागर ही एक सच्चा साधन है । उनके नाम के साथ जोड़ी शाखा का था, उस उमास्वाति वाचक ने गुरुपरम्परा हुई दूसरी बहुत मी हक़ीक़तें. दोनों सम्प्रदायों की से प्राप्त हुए श्रेष्ठ आईत उपदेशको भले प्रकार धारण परम्परा में चली आती हैं, परन्तु वे सब अभी परी- करके तथा तुच्छ शास्त्रों द्वारा हतबुद्धि दुःखित लोकका तणीय होने से उन्हें अक्षरशः ठीक नहीं माना जा सकता। उनकी वह संक्षिप्त प्रशस्ति और उसका ८ 'उच्चनगर शाखाका प्राकृत 'उद्यानागर' ऐसा नाम मिलता है। यह शाखा किपी ग्राम या शहर के नाम परमे प्रसिद्ध हूई सार इस प्रकार है: होगी ऐसा तो भले प्रकार दीख पड़ता है । परन्तु यह ग्राम कोनस वाचकमुख्यस्य शिवश्रियःप्रकाशयशस:पशिष्येण। नगर होगा यह निश्चित करना कठिन है । हिन्दुस्तानके भनेक भागा शिष्यग घोषनन्दितमणस्यैकादांगविक्षः । ॥ में नगर नामके या जिनके अन्तमें नगर नाम हो ऐमे नामोंके भनेक वाचनया च महावाचकक्षमणमुण्डपादशिष्यस्य । , वाचनया च महावा , शहर तथा ग्राम हैं। 'बड़नगर' यह गुजरात का पुराना तथा प्रसिद्ध नगर है । बड़का अर्थ मोटा (विशाल) और मोटा अर्थत कदाचित शिष्येण वाचकाचार्यमूलनाम्नः प्रथितकीर्तेः॥२॥ चा ऐसा भी अर्थ होता है। लेकित बनगा यह नाम भी पूर्वदे। न्यग्रोधिका प्रसतेन विहरता परवरे कुममनाम्नि । के उस अथवा उस जैसे नामके शहर पर मे गुजरात में लिया कोभीषणिनास्वातितनयेन वात्सीसतेनाय॑म ॥३ गया है, ऐसी भी विद्वानों की कल्पना है । इससे उच्चनागर शाखाका बड़नगरक माथ ही मम्बन्ध है ऐसा जोर देकर नहीं कहा जा सकता। इसके सिवाय, जिस काल में उच्चनागर शाखा उत्पन्न ई उस काल में बडनगर था कि नहीं और था तो उसके साथ जैनियों का सम्बन्ध कितना था यह भी विचारने की बात है। उचनागर शाखा के उद्भवसमय का जैनाचार्यो का मन्य विहार गगा यमुना की तरफ होने के प्रमाण मिलते है । इसमे बननगर के माथ उच्चनागर शाखा का यस्तत्त्वाधिगमाख्यं ज्ञास्यति चरिष्यते चनत्रोक्तम बनाने की कन्पना सबल नहीं रहती । कनिंघम इस विषय में लिखता है कि "यह भौगोलिक नाम उत्त पश्चिम प्रान्तके माधुनिक बुलन्दशहर के अन्तर्गत 'उन्छनगर' नामके किले के माथ मिलता क्षमण थे और प्रगरु-गुरुके गुरु-वाचकमुख्य शिवश्री वोल्यूम १४, पृष्ट १४७ । हमा है।" देखा, भाकियोलाजिकल सर्व माफ इंडिया रिपोर्ट (७) जैसे कि दिगम्बरों में गृद्धपिच्छ, बलाकपिच्छ * प्रादि तथा नागरोत्पत्ति क निबन्धौ ए... मानाकर नागर गन्द का श्वेताम्बरों में पूर्वविन् , पांचसौ ग्रन्थोंका रचयिता आदि। सम्बध दिखलाते हुए नगर नाम के अनेक ग्रामोंका नंगख करते हैं । [*दिगम्बर साहित्यमें उमास्वातिको 'बलाकपिच्छ' नहीं लिखा: हा इससे यह भी विचारकी सामग्री में पाता है। दवा की गजगतः उनके शिष्यका नाम बलाकपिच्छ जल दिया है। -मम्पादक साहित्यपरिषद की रिपोर्ट । f Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ अनकान्त वर्ष १, किरण ६, ७ देख करके प्राणियों की अनुकंपा से प्रेरित होकर यह उमास्वातिके साथ विद्या अथवा दीक्षा-विषय में गुरुनत्त्वार्थाधिगम नामका स्पष्ट शास्त्र विहार करते हुए शिष्यभावात्मक सम्बन्ध था इस कल्पनाको स्थान ही कुममपुर नामके महा नगर में रचा है। जो इस नहीं है। इसी प्रकार उक्त प्रशस्ति में उमास्वाति के नत्त्वार्थशास्त्रको जानेगा और उसके कथनानुसार वाचक-परम्परा में होने का तथा उच्चनागर शाखा में आचरण करेगा वह अव्याबाधमुख नामके परमार्थ- होने का स्पष्ट कथन है, जब कि कुन्दकुन्द के नन्दि मोक्ष-को शीघ्र प्राप्त करेगा।" संघमें होनेकी दिगम्बरमान्यता है; और उच्चनागर ___ इस प्रशस्तिमें ऐतिहासिक हक़ीक़तको सूचित नाम की कोई शाखा दिगम्बर सम्प्रदाय में हो गई हो करने वाली मुख्य छह बातें हैं-१ दीनागुरु तथा ऐसा आज भी जानने में नहीं आता। इससे दिगम्बरदीक्षाप्रगुरुका नाम और दीक्षागुरुकी योग्यता, २ विद्या- परम्परा में कुंदकुन्द के शिष्यरूपसे माने जाने वाल गुरु तथा विद्याप्रगुरुका नाम, ३ गोत्र, पिता तथा माता उमास्वाति यदि वास्तव में ऐतिहासिक व्यक्ति हो ना का नाम, १ जन्मस्थानका तथा ग्रंथरचनास्थान का भी उन्होंने यह तत्वार्थाधिगम शास्त्र रचा था यह नाम ५ शाखा तथा पदवी का सचन, और ६ ग्रंथकर्ता मान्यता विश्वस्त आधार से रहित होने के कारण नथा ग्रन्थका नाम। पीछे से ५० कल्पना की गई मालम होती है। जिस प्रशस्तिका मार ऊपर दिया गया है और जो इस समय भाष्यके अन्तमें उपलब्ध होती है वह प्रशस्ति ___* श्रवणबेल्गोलके शिलालेखोंमें, आजमे पाठ सौ वर्ष पहले, 1 जो 'तदन्वये' और 'तदीय घशे' शब्दांके द्वारा उमास्थातिको उमास्वा कुन्दकुन्द का 'बाज' प्रकट किया है उस कल्पना का इससे कोई कुछ भी कारण नहीं । डा०हर्मन जैकोबी जैसे विचारक विरोध नहीं आता । हो सकता है कि उमास्वातिके इस प्रशस्तिभी इम प्रशस्तिको उमाम्बातिकी ही मानते हैं और यह प्रतिपादित प्रगुरुसे पहले का जो स्थान है वही कुन्दकुंद का स्थान बात उन्हीं के द्वारा प्रस्तुत किये हए तत्वार्थ के जर्मन हो,और इस लिये उमास्वाति कुन्दकुन्द की वशपरम्परा एवं शिष्यअनुवाद की भूमिका से जानी जा सकती है ! इसमे र -सम्पादक परम्परामें ही हुए हों। ६ देखो, स्वामी ममन्तभद' पृ०१५८से तथा इस लेखका परिशिष्ट इसमें जिस हक़ीक़त का उल्लेख है उसे ही यथार्थ मान x यह मान्यता बहुत कुछ आधुनिक है मोर नन्दिसघकी प्रायः कर उस पर से वा० उमास्वाति विषयक दिगम्बर- उस अविश्वसनीय पट्टावनीकी कल्पना-जैसी कल्पनासे ही सम्बंध रखती श्वेताम्बर-परम्परा में चली आई हुई मान्यताओं का है। वास्तवमें कुन्दकुन्द इस नन्दि मादि चार प्रकारके संघभेद से खलामा करना यही इस समय राजमार्ग है। पहले हुए जान पड़ते हैं । अकलङ्कदवसे पहलेके साहित्यमें इन संघभेदों का कोई उख भी नहीं मिलता-उदाहरण के लिये शक स०४८८ मर्करा के ताम्रपत्रको लीजिये, उसमें 'कुन्दकुन्दान्वय' का तो उख दूसरी बात कुन्दकुन्द के साथ दिगम्बरसम्मत उमा है परंतु किमी संघका नहीं-और श्रवणबेल्गोल के १०८ (२५८) म्वाति के सम्बन्धको असत्य ठहराती है । कुन्दकुन्दके न के शिलालेखमें यह साफ़ लिखा है कि यह सबभेद प्रकलदेवके उपलब्ध अनेक नामो में से ऐसा एक भी नाम नहीं बाद हुआ है । इससे कुदकुद की शाखाविरोष का अभी कुछ ठीक जो उमास्वाति-द्वारा दर्शाए हुए अपने विद्यागुरु तथा पता नहीं है। -सम्पादक दीक्षागरु के नामों में आता हो; इससे कुन्दकुन्दका १० देखो नोट न०४ तथा इस लेख का परिशिष्ट' में Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैशाख, ज्येष्ठ, वीरनि०सं०२४५६] तत्त्वार्थस्त्रकं प्रणेता उमास्वाति ३८. उक्त बातों में से तीसरी बात श्यामाचार्य के साथ शाखाका उल्लेख है १२; यह शाखा आर्य शांतिश्रेणिक की उमास्वाति के सम्बन्ध की श्वेताम्बरीय मान्यताको से निकली है । आर्य शांतिश्रेणिक आर्य सहस्ति से असत्य ठहराती है क्योंकि वाचक उमास्वाति अपनेको चौथी पीढी में आते हैं। आर्य सुहस्तिके शिष्य को भीषणि कह कर अपना गोत्र 'कौभीषण' सूचित सुस्थित-प्रतिबद्ध और उनका शिष्य इंद्रदिन्न. करते हैं। जबकि श्यामाचार्य के गुरुरूप से पट्टावलि में इंद्रदिन्नका शिष्य दिन्न और दिन का शिष्य शातिदाग्विल हुए स्वाति' को 'हारित' गोत्रका वर्णन किया श्रेणिक दर्ज है । यह शांतिश्रेणिक आर्य वज्र के गुरु गया है, इसके सिवाय तत्त्वार्थ के प्रणेता उमास्वातिको जो आर्य सिंहगिरि, उनका गुरुभाई था; इसमे उक्त प्रशस्ति स्पष्टरूपसे 'वाचक' वंश में हुआ बतलाती वह आर्य वन की पहली पीढ़ी में आता है । आर्य सुहहै; जब कि श्यामाचार्य या उनके गुरुरूपसे निर्दिष्ट स्तिका स्वर्गवाससमय वीरात् २९१ और वनका स्वर्ग'म्बाति' नामके साथ वाचकवंश-सूचक कोई विशेषण वाससमय वीरात् ५८४ उल्लेखित मिलता है । अर्थात् पट्रावली में नज़र नहीं पड़ता । इस प्रकार उक्त प्रशस्ति सुहस्तिक स्वर्गवास-समयसे वन के स्वर्गवास-समय एक तरफ़ दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्पराओंमें चली नक २९३ वर्षके भीतर पाँच पीढ़ियाँ उपलब्ध होती हैं। आई हुई भ्रांत कल्पनाओंका निरसन करती है और इस तरह सरसरी तौर पर एक एक पीढ़ी का काल दूसरी तरफ वह ग्रन्थकर्ता का संक्षिप्त होत हुए भी साठ वर्षको मान लेने पर सुहस्तिसे चौथी पीढ़ीमें होने मच्चा इतिहास प्रस्तुत करती है। वाले शांतिश्रेणिक का प्रारम्भ काल वीरात् ४७१ का समय आता है । इस समयके मध्यमें या थोड़ा आगे पीछे शांतिश्रेणिक सं उच्चनागरी शाखा निकली होगी । वाचक उमास्वातिक समय-सम्बन्धमें उक्त प्रशस्ति । वाचक उमाम्वाति, शांतिणिककी ही उचनागर शाण्या में कुछ भी निर्देश नहीं है, इसी तरह समय का ठीक में हुए हैं ऐसा मानकर और इस शाखाके निकलनका निर्धारण कर देने वाला ऐसा दूसरा भी कोई माधन जो ममय अटकल किया गया है उसे स्वीकार करके. अभी तक प्राप्त नहीं हुआ; ऐसी स्थिति होते हुए भी । यदि आगे चला जाय तो भी यह कहना कठिन है कि इस सम्बन्धमें कोई विचार करनेके लिये यहाँ नीन बा. उमाम्बानि इम गाग्वाके निकलनं बाद कब हा॥ बातोंका उपयोग किया जाता है-१ शाखानिर्देश, . हैं क्योंकि अपनं दासागर और विद्यागमके जी प्रचीनसे प्राचीन टीकाकारों का समय और ३ अन्य नाम प्रशम्निमें उन्होंने दिये हैं उनमें में एक भी कर दार्शनिक ग्रंथों की तुलना। मत्र की स्थावरावलिमें या उस प्रकारकी किमी दूर्ग प्रशस्तिमें जिस 'उच्च गरशाग्वा' का निर्देश है - वह शाखा कब निकली यह निश्चयपर्वक कहना कठिन "थेरेहिंतो णं अजसंतिमेणियहिंतो मादरसा है, तो भी कल्पसूत्र की स्थविरावलीमें उच्चानागरी गत्तेहिनो एत्थ णं उच्चानागरी साहा निग्गया।" -मूल कल्पसूत्रस्थविरावलि पृ०५५ । मायं शांति११ "हारियगुत्तं साइंच वंदिमो हारियं च सामज"॥२६ श्रेणिककी पूर्व परम्परा जाननेके लिये इसमे -नन्दिसूत्र की स्थविरावली पृ० ४१ भागेके कल्पसूत्रके पन देखो। Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त वर्ष १, किरण ६, ७ वारमा मिला हुआ है, उसी प्रकार योगसूत्र और गुणकारभागहाराभ्यां राशिं छेदादेवापवर्तयति न च उसके भाष्यको पुरातन सांख्य, योग तथा बौद्ध आदि संख्येयस्यार्थस्याभावो भवति तद्वदुपक्रमाभिहतो मरणपरम्पराअोंका वारसा मिला हुआ है । ऐसा होते हुए समुद्धातदुःखातः कर्मप्रत्ययमनाभोगपूर्वकं करणविशेषभी तत्स्वार्थके भाष्यमें एक स्थल ऐसा है कि जो जैन मुत्पाद्य फलोपभोगलाघवार्थ कर्मापवर्तयति न चास्य अंगग्रंथों में अद्यावधि उपलब्ध नहीं और योगसूत्र के फलाभाव इति । किं चान्यन् । यथा वा धौतपटां भाग्यमें वह उपलब्ध है। जलाई एव च वितानितः सूर्यरश्मिवाय्वमिहतः __पहले निर्मित हुई आयु कमनी भी हो सकती है. क्षिप्रं शोषमुपयाति न च संहते तस्मिन् प्रभूतस्नेहा अर्थात बीच में ट भी जा सकती है और नहीं भी टूट गमा नापि वितानितंऽकृत्स्न सापः तद्वद्यथोक्तनिमित्तामकती, ऐसी चर्चा जैन अंगग्रंथों में है परन्तु इस पवर्तनः कर्मणः निनं फलोपभोगो भवति । न च कृतचर्चा में आयके टूट सकने के पक्ष की उपपत्ति करनेके प्रणाशाकृताभ्यागमाफल्यानि ।" लिये भीगे कपड़े तथा सूखे घासका उदाहरण अंगग्रंथों -२, ५२ का भाष्य में नहीं, तत्त्वार्थक भाष्यमें इसी चर्चा के प्रसंग पर ये दोनों उदाहरण दिये गये हैं जो कि योगसूत्रके भाष्य योगसत्र-भाष्य में भी हैं। इन उदाहरणों में खूबी यह है कि दोनों आयर्विपाकं कर्म द्विविधं सोपक्रमं निरुपक्रमंच। भाष्योंका शाब्दिक मादृश्य भी बहुत ज्यादा है । साथ तत्र यथार्द्र वस्त्रं वितानितं हमीयसा कालेन शुष्येही, यहाँ एक विशेषता भी है और वह यह कि योग तथासोपक्रमम । यथा च तदेव संपिण्डितं चिरेण मत्रके भाष्यमें जिसका अस्तित्व नहीं ऐसा गणित- संशुष्यदेवं निरुपक्रमम् । यथावाग्निः शुष्के कक्षे विषयक एक नीमग उदाहरण तत्त्वार्थमृत्रके भाष्यमें मुक्तो वातेन समन्ततो यक्तः क्षेपीयसा कालेन पाया जाता है । दोनों भाष्योंका पाठ क्रमशः इस दहेत तथा सोपक्रपम् । यथा वा स एवाग्निस्तृणप्रकार है: राशी क्रमशोऽवयवेषु न्यस्तश्विरेण दहेत् तथा तरवार्थसत्र-भाष्य निरुपक्रमम् । तदैकभविकमायुष्करं कर्म द्विविधं सो"xxशेषा मनष्यास्तिर्यग्योनिजाः सोपक्रमानिकप पक्रमं निरुक्रमं च।" क्रमाश्चापवायपोऽनपवायषश्च भवन्ति । xxx -३,२२ का भाष्य अपवर्तनं शीघ्रमन्नर्मुहूर्तात्कर्मफलोपभोगः उपक्रमोऽप- (ग) अक्षपादका न्यायदर्शन' ईसवी सन के प्रारम्भ वर्तननिमित्तम् । x x x x संहतशुष्कतण के लगभगका रचा हुआ माना जाता है । उसके ऊपर राशिदहनवत् । यथाहि संहतस्य शुष्कस्यापि तण- का वात्स्यायन-भाष्य' दूसरी,तीसरी शताब्दीके भाष्यराशेरवयवशः क्रमेण दह्यमानस्य चिरेण दाहो कालकी प्राथमिक कृतियों में से एक कृति है । इस भवति तस्यैव शिथिलप्रकीर्णापचितस्य सर्वतो कृतिके कुछ शब्द और विषय तत्त्वार्थभाष्य में पाये युगपदादीपितस्य पवनोपक्रमाभिहतस्याशुदाहो जाते हैं । न्यायदर्शन (१,१,३)-मान्यप्रमाणचतुष्कवाद भवनि नद्वन यथा वा संख्यानाचार्यः करणलाघवार्थ का निर्देश तत्त्वार्थ अ०१. सु०६ और ३५ के भाष्यमें Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त वर्ष १, किरण ६, . मूल सूत्ररचनाके उद्देश्य को जनाने की पूर्ति करती बैठे और उसके आदि तथा अन्तके मनोहर तथा महत्व हुई मूल ग्रन्थ को ही लक्ष करके लिखी गई मालम पूर्ण भागकी व्याख्या करनी छोड़ देवै ? यह सवाल हमें होती है ; उसी प्रकार भाष्यके अन्तमें जो प्रशस्ति है इस निश्चित मान्यताके ऊपर ले जाता है कि भाष्यकार उसे भी मून सत्रकारको माननेमें कोई खास असंगति सूत्रकार से भिन्न नहीं हैं और इसी से उन्होंने भाष्य नहीं, ऐमा होने हुए भी यह प्रश्न खड़ा ही रहता है लिखते समय सुत्रग्रंथको लक्ष करके कारिकाएँ रची कि यदि भाष्यकार सत्रकार से भिन्न होते और उनके तथा शामिल की और अन्तमें सूत्र तथा भाष्य दोनोंके सामने सूत्रकार की रची हुई कारिकाएँ नथा प्रशम्नि कर्तारूपसे अपना परिचय देने वाली अपनी प्रशस्ति मौजूद होती नो क्या वे खुद अपने भाष्य के प्रारंभ में लिखी है। इसके सिवाय, नीचेकी दो दलीलें हमें सूत्र और अंतमें मंगल-प्रशस्ति जैसा कुछ न कुछ लिखने से कार और भाष्यकारको एक माननेके लिए प्रेरित रह जाने ? और यदि यह मान लिया जाय कि इन्होंने करती हैं। अपनी तरफसे श्रादि या अंतमें कुछ भी नहीं लिग्वा नो १ प्रारंभिक कारिकाओं में और कुछ स्थानों पर भी एक सवाल रहता ही है कि,भाष्यकारने जिस प्रकार भाष्य में भी 'वच्यामि वक्ष्यामः" आदि प्रथम मत्रका विवरण किया है उसी प्रकार सत्रकारकी कारि- पुरुषका निर्देश है और इस निर्देशों की हुई प्रतिज्ञाके काओं और प्रशस्तिगन्थ का विवरण क्यों नहीं किया? अनुसार ही बादको सत्रमें कथन किया गया है। इसम्म क्या यह हो सकता है कि वे सूत्रग्रन्थकी व्याख्या करने सत्र और भाष्य दोनों को एककी कृति मानने में मंदेह पाई जाती है और व्याख्याकार इन पद्योंका भाष्यका समझ कर ही . नहीं रहता। उनके ऊपर लिखते हैं। इनमें में ८ पद्यको उमास्वातिकक २ शुरू से अन्त तक भाष्यको देख जाने पर एक मान कर प्रा० हरिभद्रने माने 'गास्त्रवात समुच्चय' में ६६ व पद्य बात मन पर ठसती है और वह यह है कि किसी भी के रूपमें उदधृत किया है । इसमें भाठवी शताब्दी के श्वेताम्बर आ- स्थल पर सूत्रका अर्थ करने में शब्दोंकी खींचातानी नहीं चार्य भाष्यको निर्विवाद रूपमे स्वापक्ष मानते थे यह निश्चित है। हई, कहीं भी सत्रका अर्थ करने में संदिग्धपना या - इन पद्मांको पूज्यपादने प्राभिक कारिकामोंकी तरह छोडही विकल्प करने में नहीं आया, इसी प्रकार सूत्रकी कोई दिया है, ना भी पूज्यपादक अनुगामी अकलंक ने अपने राज - दूसरी व्याख्याको हृदयके सन्मुख रखकर सूत्रका अर्थ वारिक' के अन्तमें इन पद्योंको लिया हो ऐसा जान पड़ता है: क्योंकि मुद्रित राजवार्तिकके अन्त में व पद्य दिखाई देते है। दिगम्बराचार्य नहीं किया गया और न कहीं सूत्रके पाठभेद का ही अमृतचन्द्र ने भी अपने 'तत्त्वार्थसार' में इम्हीं पद्योंको नम्बरोंके अवलम्बन लिया गया है। कुछ थोडेसे फेर-फारके साथ लिया है। ___२६ "तत्त्वार्थाधिगमाख्यं बर्थ संगहं लघुगन्थम । ___ इन अन्तके पद्योंके सिवाय, भाष्यमें बीच बीच में "माह" वक्ष्यामि शिष्यहितमिममहद्वचनैक देशस्य ॥२" "उक्तंच" इत्यादि निर्देशके साथ और कहीं बिना किसी प्रकारके न च मोक्षमार्गाद् व्रतोपदेशोऽस्ति जगति कृत्स्नेऽम्मिन निर्देश के कितने ही पद्य पाते हैं । ये पद्य भाष्यकता के ही हैं या तस्मात्परमिममेवेति मोक्षमार्ग प्रवक्ष्यामि ।। ३१॥ किसी दूसरे के हैं इसके जानने का कोई विश्वस्त साधन नहीं है। २५ गणान् लक्षणतो वक्ष्यामः-५, ३७ का भाष्य, अगला पल्तु भाषा और रचनाको देखते हुए उन पद्योंके भाष्यकारके ही सुन ५, ४० "अनादिरादिमांश्च तं परस्तावश्यामः" होनेकी संभावना विशेष जान पड़ती है। -५, २२ का भाष्य, अगला सूत्र ५, ४२ । Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैशाख, ज्येष्ठ, वीरनि०सं०२४५६] तत्वार्थसत्रके प्रणेता उमास्वाति हैं । अब यदि वाचकका अर्थ भाष्यके टीकाकारोंके संग्रह तत्वार्थमें किया है; एक भी महत्वको दृष्ट कथनानुसार 'पूर्वविन्' होता तो उमास्वाति अपने गुरु पड़ने वाली बातको इन्होंने बिना कथन किये छोड़ा को 'पूर्ववित्' कहते, मात्र एकादशांगधारक न कहते। नहीं, इसीसे प्राचार्य हेमचन्द संग्रहकार के रूपमें उमापूर्ववित् की अपेक्षा एकादशांगधारक कमती दर्जे का स्वाति का स्थान सर्वोत्कृष्ट ऑकते हैं२४ । इसी योग्यता होता है; अब यदि अपना अपना वाचक गुरु पूर्ववित् के कारण उनके तत्वार्थ की व्याख्या करनेके लिये ही है ऐसा उमास्वाति मानते हों तो शिष्यरूपसे गुरु सभी श्वेताम्बर दिगम्बर श्राचार्य प्रेरित हुए हैं। का दरजा कदाचित बढा करके न देखें तो भी घटा परम्परा करकं तो नहीं दिखावें ; इसम ऐसा मानना उचित दिगम्बर वाचक उमास्वाति को अपनी परम्पराका जान पड़ता है कि वाचक का जो पूर्ववित् अर्थ होता मान कर उनकी कृतिरूपसे मात्र तत्त्वार्थस्त्र को स्वीहै वह असल की अपेक्षाम समझना । अथोत् वाचक- कार करते हैं, जब कि त्रेताम्बर उन्हें अपनी परम्परा वंश जब पहले-पहल स्थापित हुआ तब जो कोई पूर्व में हुआ मानते हैं और उनकी कृतिरूपसे तत्त्वार्थसुत्रके सामान या पूर्वो का ज्ञान रखले वे ही इस वंरामें आ सकने अतिरिक्त भाष्यको भी स्वीकारते हैं । ऐसा होनेमे प्रश्न और 'वाचक' कहना मकने थे; परन्तु काल-क्रमसे जब , यह उत्पन्न होता है कि उमास्वाति दिगम्बरपरम्परामें पूर्वज्ञान नष्ट हो गया तब भी इस वंशमें होने वाले हुए हैं या श्वेताम्बरपरम्परामें अथवा दोनोंमे भिन्न ‘वाचक' ही कहलाते रहे। तो भी दूसरं वंशों की अपेक्षा किसी जद्दी ही परम्पगमें हुए हैं ? इस प्रश्नका उत्तर वाचक वंश की यह विशेषता तो रही ही होगी कि वे भाष्यके कर्तृत्व की परीक्षा और प्रशस्ति की सत्यता प्रमाणमें दूसरे वंशोंकी अपेक्षा श्रुताभ्यासकी तरफ विशेष की परीक्षाम जैसा निकल सकता है वैसा दूसरं एक ध्यान देते होंगे; इससे इतना तो साफ है कि भले ही वा० भी साधनसे निकल सकेगा ऐसा अभी मालूम नहीं उमास्वाति 'पूर्ववित्' न हों, तो भी वे कमसे कम अपनं होता; इससे उक्त भाष्य उमास्वाति की कृति है या गह जितना ग्यारह अङ्गका ज्ञान तो रखने वाले होनेही अन्य की ? तथा उसके अंतमें दी हुई प्रशस्ति यथार्थ चाहिये । इनका तत्त्वार्थग्रंथ इनके ग्यारह अंग-विषयक है ? कल्पित है " या पीछेसे प्रक्षिप्त है ? इन प्रश्नोंका अनज्ञानकी तो प्रतीति करा ही रहा है। इससे इतनी चर्चने की जरूरत मालम होती है। योग्यता विषयमें तो कुछ भी संदेह नहीं। इन्होंने अपने भाष्यके प्रारंभमें जो ३१ कारिकाएँ हैं वे मि का विरासतमें मिले हुए आईत श्रुनके सभी पदार्थोंका २३ तत्त्वार्थमं वर्णित विषयांका मूल जानने के लिये स्थानांग, * नगर ताल्लुकेके एक दिगम्बर शिलालेखन में इन्हें भगवती, आसकदशा, प्रश्नव्याकरण, जंबूदीपप्रज्ञप्ति, प्रज्ञापना. उत्तराध्ययन, नदिसूत्र आदि भागनों को खाम तौर पर देखना तथा 'श्रनकेवलिदेशीय' लिखा है । यथाः तुलना करना ठीक जान पड़ता है। "तत्वार्थसत्रकर्तारमुमास्वातिमुनीश्वरम् ।। . : "उपोमास्वाति संग्रहीतारः" २--२८ सिद्ध हम। श्रतकेवलिदेशीयं वन्देऽहं गुणमन्दिरम् ॥” २५ इनके सिवाय, भाष्यके अन्तमें प्रशस्तिस पहले ३२ अनुष्टुप -सम्पादक उदकेपद्य हैं। इन पद्योंकी व्याख्या भाष्यकी उपलब्ध दोनो टीकाभोमें Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ अनेकान्त वर्ष १, किरण ६, ७ स्वाति ही प्रथम संस्कृत लेखक हैं । उनके प्रन्थों की भाषा और विचारसरणी इस ग्रंथका उमास्वातिकत के प्रसन्न , संक्षिप्र और शुद्ध शैली संस्कृत भाषा के ऊपर होना माननेके लिये ललचाती है । उनकं प्रभत्व की साक्षी देती है । जैन आगममें प्रसिद्ध उमास्वाति अपने को 'वाचक' कहते हैं, इसका ज्ञान, ज्ञेय, आचार, भूगोल, खगोल आदिसे सम्बंध अर्थ 'पूर्वविन्'२२ करके पहले से ही श्वेताम्बराचार्य ग्वनं वाली बातोंका जो संक्षेप में संग्रह उन्होंने तत्वा- उमास्वातिको 'पूर्ववित्' रूपसे पहचानते आए है; परंतु र्थाधिगममत्र में किया है वह उनके वाचक' वंश मेंहोने यह बात स्वास विचारने योग्य मालूम होती है; क्योंकि की और वाचक-पद की य ार्थताकी साक्षी देता है । उमास्वाति खुद ही अपने दीक्षा गुरुको वाचक रूपसे उनके तत्वार्थकी (तत्वार्थभाष्यकी ?) प्रारंभिक कारि- उल्लेग्वित करने के साथ ही ग्यारह अंगके धारक कहने फाएं और दूसरी पद्यकृतियाँ सचित करती हैं कि वे नथा वे भाष्यकार तथा मूत्रकारको एक तो समझते ही हैं। यथागद्य की तरह पद्यके भी प्रांजल लेखक थे। उनके म. "स्वक्रतसत्रमंनिवेशमाश्रित्योक्तम।" भाष्य सूत्रोंका बारीक अवलोकन जैन आगम-मंबंधी -६,२२,पृ०२५३ उनके मर्वप्राही अभ्यासके अतिरिक्त वैशेपिक, न्याय, "इति श्रीमदहप्रवचने तत्वार्थाधिगमे उमारवानिगोग और बौद्ध श्रादि दार्शनिक साहित्य संबंधी उनके वाचकोपज्ञसत्रमाप्य भाष्यानसारिण्यां च टीकायां मिअभ्यासकी प्रतीति कराता है। तत्वार्थभाष्य द्धमनगणिविरचितायां अनगारागारिधर्मप्ररूपकः मन मोऽध्यायः।" ५* व्याकरण के मत्र उनकी पाणिनीय-व्याकरण-विष -तत्वार्थभाष्यके मातवं अध्यायकी टीका की पुष्पिका । यक अभ्यासकी भी माती देते हैं। इस प्रशमतिप्रकरयाकी १०० वी कारिका, प्राचार्य श्राह __यद्यपि श्वेताम्बर मम्प्रदाय में आपकी पांच सौ कह कर, निगीथवृणिमें उद्धृत की गई है । इस चूर्णिके प्रणोता ग्रंथों का कर्ता होने की प्रसिद्धि है और इस समय जिनदास महत्तरका समय विक्रपकी पाठवी शताब्दी है जो उन्होंने आपकी कृतिरूपमें कुछ ग्रन्थ प्रमि द्वः भी हैं तो भी अपनी नन्दिसुबकी चूर्णिमें बतलाया है; इस परसे ऐसा कह सकते हैं इस विषयमे आज संतोषजनक कुछ भी कहनेका सा कि प्रशमरति विशेष प्राचीन है । इसमे और इसके ऊपर बतलाए हर कारगोंसे यह कृति वाचककी हो तो इसमे इनकार नहीं। धन नहीं है । ऐसी स्थिति में भी 'प्रगमगति'३५ की २२. पोंके चौदह होनेका समवायांग मादि पागनों में वन १६ देखो १, ५ भौर २, १५ है।वे दृष्टिवाद नामक बारहवें अङ्गके पांचवां भाग थे ऐसा भी उखहै। २० जम्बूद्वीपसमासप्रकरण, पूजाप्रकरण, श्रावक ज्ञप्ति. पूर्व त अर्थन भगवान महावीरद्वारा सबमे पहले दिया हुआ उपश, पगा क्षेत्रविचार, प्रशमरति । सिद्धसन अपनी प्रतिमें ( ७, १०, पृ.७८, प्रचलित परम्परागत मान्यता है । पश्चिमीय विद्वानोंकी इस विषयका ५०२) उनके शौचाकरण' नामक ग्रथका उख करते हैं, जो इस एमी कचना है कि भ०पा नाथकी परम्पराका जो पूर्वकालीन त समय उपलब्ध नही। भ०महावीर को अथवा उनके शिष्योंको मिला वह पूर्वश्रत है। 4 २१. मृत्तिकार मिसेन-प्रशारति'को भाष्यकारकीदी कृति- त का कपसे भ० पहावीर के उपदिष्ट श्रुतमें ही निल गया और रूपसे सूचित करते हैं। या यतः प्रगमरतो अनेनैवोक्तम्- उसी का एक भाग रूपसे गिना गया । जो भ०महावीरकी द्वादशानीक परमाणुरप्रदेशो, वर्णादिगणेष भजनीयः ।" धारक थे वे इस पूर्वतको तो जानते ही थे। कं रखनेके प्रघात "वाचकेन वेतदेव बलसंज्ञया प्रशमरतावपात्तम" और वसो कारणों से कम क्रम-से पूर्णत नष्ट हो गया और मान (प्रशमरति का० २.८ और ८०) ५, ६ तथा १, ६की भाष्यवृत्ति सिर्फ पूर्वगत गाथारूपने नाममात्रसे शेष रहा उल्लेखित मिलता है । Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाख, ज्येष्ठ, वीरनि०सं० २४५६ ] 1 " तत्वार्थ सूत्रके प्रणेता उमास्वाति पाया जाता है १४ । तत्त्वार्थ १, १२ के भाष्य में अर्था पत्ति, संभव और अभाव आदि प्रमाणोंके भिन्नपने का निरसन न्यायदर्शन (२, १, १) आदिके जैसा ही है । न्यायदर्शन में प्रत्यक्ष के लक्षण में "इन्द्रियार्थ - सनिकर्षोत्पन्नम् ” (१,१, ४) ऐसे शब्द हैं । तत्त्वार्थ ० १ सू० १२के माध्य में अर्थापत्ति आदि जुदे माने जाने वाले प्रमाण को मति और श्रुत ज्ञान में समावेश करते हुए इन्हीं शब्दों का प्रयोग किया है। यथा :"सर्वाण्येतानि पतिश्रुतयोरन्त भूतानि इन्द्रियार्थ - सन्निकर्षनिमित्तत्वात् । १, १२ का भाष्य । इसी तरह पतंजलि - महाभाष्य १५ और न्यायदर्शन १६ आदि में पर्याय शब्द की जगह 'अनर्थान्तर' शब्द के प्रयोग की जो पद्धति है वह तत्वार्थ सूत्र १० में भी पाई जाती है। (घ) बौद्धदर्शनकी शून्यवाद, विज्ञानवाद आदि शाखाओंके खास मंतव्योंका अथवा विशिष्ठ शब्दोंका जिस प्रकार सर्वार्थसिद्धिमें उल्लेख है उस प्रकार तत्वार्थ भाष्य में नहीं है तो भी बौद्धदर्शन के थोड़े से सामान्य मन्तव्य तंत्रान्तर के मन्तव्यों के रूप में दो एक स्थल पर आते हैं। वे मंतव्य पाली पिटक के ऊपरसे लिये गये हैं या महायान के द्वारा रचे गये संस्कृतपिटकों के ऊपर से लिये गये हैं अथवा किसी दूसरे ही तद्विषयक ग्रन्थ के ऊपर से लिये गये हैं,यह विचारणीय है । उनमें से पहला उल्लेख जैनमत के १४ “प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि ” । न्यायदर्शन १, १, ३ । "चतुर्विधमित्येके नयवादान्तरेण” १, ६, और "यथा वा प्रत्यक्षानुमानोपमानाप्तवचनः प्रमाणैरेकोऽर्थः प्रमीयते' १, ३५ ।—–तत्त्वार्थभाष्य । १५ देखो, १,१,५६; २, ३, १, और ५,१, ५६का महाभाष्य १६ देखो, १, १, १५ । १७ देखो, १, १३ । ३९३ . अनुसार नरकभूमियोंकी संख्या बतलाते हुए बौद्ध सम्मत संख्या का खंडन करने के लिये आगया है । वह इस प्रकार है: 64 " अपि च तंत्रान्तरीया अपंख्येषु लोकधातुध्वसंख्येयाः पृथिवीमस्ताग इत्यध्यवसिता :" - अ० ३ ० १ का भाष्य दूसरा उल्लेख, पुद्गल का जैनमत के अनुसार लक्षण बतलाते हुए, बौद्धमत-सम्मत १८ पद्गल शब्दके अर्थका निराकरण करते हुए आया है । यथा— पुद्गलानितिच तंत्रान्तरीया जीवान परिभाषन्ते- ०५ सू० २३ का उत्थानभाष्य । योग्यता उमास्वातिके पूर्ववर्ती जैनाचार्यों ने संस्कृत भाषा में लिखने की शक्तिको यदि संस्कारित न किया होता और उस भाषामें लिखनेका प्रघात शुरू न किया होता तो उमास्वाति इतनी प्रसन्न संस्कृत शैलीमें प्राकृत परिभाषामें रूढ साम्प्रदायिक विचारोंको इतनी सफलतापूर्वक ग्रंथ सकते कि नहीं यह एक सवाल ही है; तो भी पर्यंत उपलब्ध समग्र जैन वाङ्मय का इतिहास तो ऐसा ही कहना है कि जैनाचार्यों में उमा १८ यहां पर एक वात खाम तौर से उदेख किये जानेके योग्य है और वह यह कि उमास्वातिने बौद्धसम्मत 'पुल' शब्दके 'जीव' अर्थको मान्य न रखते हुए उमे मतान्तर के रूपमें उख करके पीछेसे जैनशास्त्र पुगल शब्दका क्या अर्थ मानता है उसे सूत्र बतलाया है । परन्तु भगवतीसूत्रशतक ८ उदेशक १० और शतक २० उदेशक २ में 'पुल' शब्दका 'जीव' अर्थ स्पष्टरूपसे वर्णित दृ पड़ता है । यदि भगवती में वर्णित पुद्गल शब्दका 'जीव' अर्थ जैनदृष्टिले ही वर्णन किया गया है ऐसा माना जाय तो उमास्वातिने इसी मतको बौद्धमत रूप में किस तरह अमान्य रक्खा होगा, यह सवाल है । क्या उनकी दृष्टि में भगवती में का पुद्गल शब्दका 'जीव' अर्थ यह बौद्धमत रूप ही होगा ? Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैशाख, ज्येष्ठ, वोरनि०सं० २४५६] तत्त्वार्थसूत्रके प्रणेता उमास्वाति ३५७ यह वस्तुस्थिति सूत्र और भाष्यके एक कर्तक होने नागर शाखाके होनेका दिगम्बर सम्प्रदायमें एक भी की चिरकालीन मान्यताको सत्य ठहराती है । जहाँ मूल प्रमाण कहीं नहीं पाया जाता । और टीका के कर्ता जुदे होते हैं वहाँ तत्वज्ञान-विषयक २ सूत्रमें ३० प्रथम कथनानुसार बारह स्वोंका प्रतिष्ठित तथा अनेक सम्प्रदायों में मान्य हुए गन्थों में , __ भाष्यमें वर्णन है, यह मान्यता दिगम्बर सम्प्रदाय को ऊपर जैसी वस्तु स्थिति नहीं होती । उदाहरण के तौर पर वैदिक दर्शनमें प्रतिष्ठित 'ब्रह्मसूत्र' प्रन्थको लीजिये, - इष्ट नहीं ३१ । 'काल' किसीके मतसे वास्तविक द्रव्य यदि इसका ही कर्ता खद व्याख्याकार होता तो इसके है३२ ऐसा सूत्र और उसके भाष्यका वर्णन दिगम्बरीय भाग्यमें आज जो शब्दोको खींचातानी, अर्थक विकल्प पक्ष३३ के विरुद्ध है। केवली में ३४ ग्यारह परिषह होने और अर्थका संदिग्धपना तथा सत्रका पाठभेद दिखलाई की मत्र और भाष्यगत सीधी मान्यता तथा पुलाक पड़ता है वह कदापि न होता । इसी तरह तत्वार्थसूत्र आदि निग्रंथों में द्रव्यलिंग के विकल्प की और सिद्धा के प्रणेताने ही यदि सर्वार्थसिद्धि. राजवानिक और में लिंगद्वार का भाष्यगत वक्तव्य दिगम्बर परंपरा मे श्लोकवार्तिक आदि कोई व्याव्या लिखी होती तो उलटा है। उनमें जो अर्थकी खींचातानी, शब्द की नोड़मरोड़, २ भाष्यमे केवलज्ञान के पश्चात केवला क दूमरा अध्याहार, अर्थका संदिग्धपना और पाठभेद-८ दिखाई ३० देखो ४, ३ और८२० का भाष्य । दत हैं वे कभी न हात । यह वस्तुस्थिति निश्चितरूपम ११ दवा . १ की सर्वामिद्धि । परन्तु जन जगत' म । अङ्ग २ में पृ. १२ पर प्रकट हा लेख में मालूम होता है कि एककत क मूल तथा टीका वाले ग्रंथोंको देखनसे ठीक दिगम्बरीय प्राचीन ग्रन्थों में वारह कन्प होने का कथन है । ये ही समनी जा सकती है। इतनी चर्चा मूल तथा भाष्यका बारह कल्प मोलह स्वर्गरूप वर्गान किये गये हैं। इसमें ममलमें कर्ता एक होनेकी मान्यताकी निश्चित भूमिका पर हमें बारह की ही मच्या थी और बादको किपी ममय मोलह की मन्या ना कर छोड़ देती है। दिगम्बीय ग्रंथांमें पाई है। ___ मूल और भाष्यके कर्ता एक ही हैं, यह निश्चय १२ दवा , ३८ दम्वा .. ३. । ३४ देखा., १ इस प्रश्नके हल करने में बहु उपयोगी है कि वे किम ५. तुलना करा, ४६ पोर१०,७के भाष्यकी इन्हीं सूत्रों परम्परा के थे ? उमास्वाति दिगम्बरपरंपरा नहीं थे की सर्वार्थसिद्धि के साथ । यहां पर यह प्रश्न होगा कि १०, की सर्वार्थऐसा निश्चय करने के लिये नीचेकी दलीलें काफी हैं- मिद्धिमें लिङ्ग और तीर्थद्वारकी विचारणाके प्रसगपर जैनदृष्टिके अनुकूल १ प्रशस्तिमें सचिन की हुई उच्चनागर शाखा या मे भाष्यके वक्तव्य को बदल कर उसके स्थान पर रूढ दिगम्बरीय व-पोषक अर्थ किया गया है । तो फिर,४७की सर्वार्थसिद्धि में २८. उदाहरणांक तौर पर देखा, सर्वार्थसिद्धि-"चरमहा पलाक प्रादि लिङ्गद्वार का विचार काते हुए वेसा क्यों नहीं किया इतिवापाठः",५३ । “अथवा एकादश जिनेन सन्ती मोरम, दिगम्बरीयत्वक विरुद्ध जाने वाले भाष्यक वक्तव्य कामति वाक्यशेषः कल्पनीयः मोपकारत्वात् सूत्राणम" क्षरशः कसे लिया गया है ! इसका उनर यही जान पड़ता है कि ५, ११ और "लिंगेन केन सिद्धिः ? अवेदत्वेन त्रिभ्यां मिद्रोंमें लिङ्गद्वार की विचारणाम परिवर्तन किया जा सकता था इसम वाटेश्यः सिद्धिर्भावतो न द्रव्यतः पुंलिंगेनेव अथवा भष्य को छोड़ का परिवर्तन कर दिया । परन्तु पुलाक मादिने द्रव्यनिर्ग्रन्थलिंगेन सगन्थलिंगेन वा सिद्धिर्भूतपूर्वनयापेक्ष- लिंगके विचार संग पर दूसरा कोई परिवर्तन शक्य न था, इससे या" १०, ९। भाष्य काही वक्तव्य अक्षरशः रक्खा गया । यदि किसी भी तरह २६. उपलब्ध पस्कृत वाङ्मय को देखते हुए मूलकारने ही परिवर्तन शक्य जान पड़ता तो पूज्यपाद न त अन्तमें मकन देव मूल सुत्रके उपर भाष्य लिखा हो ऐसा यह प्रथम ही उदाहरण है। क्या उस परिवर्तन को न करते । Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૮ उपयोग मानने न माननेकी जो जुदी जुदी मान्यताएँ मैं उनमें से कोई भी दिगम्बरीय प्रन्थों में नहीं दिखाई देती और श्वेताम्बरीय ग्रन्थों में पाई जाती हैं । अनेकान्त दलीलें यद्यपि ऐसा साबित करती हैं कि वाचक उमाम्वाति दिगम्बर परम्परा के नहीं थे, तो भी यह देखना तो बाकी ही रह जाता है कि तब वे कौमी परंपरा के थे। नीचे की दलीलें उन्हें श्वेताम्बर परम्परा होने की तरफ़ लेजाती हैं। १ - प्रशस्ति में उल्लेखित उच्चनागरीशाखा ३० श्वेताम्बरी पट्टावली में पाई जाती है । - श्रमुक विषय-संबन्धी मतभेद या विरोध ३८ बतलान हुए भी कोई ऐसे प्राचीन या अर्वाचीन श्वेताम्बर आचार्य नहीं पाये जाते जिन्होंने दिगम्बर चाय की तरह भाष्यको अमान्य स्क्वा हो । 5. २- जिसे उमाम्वातिकी कृतिरूपसे माननेमें शंका का भाग्यमे ही अवकाश है ऐसे प्रशमरति ३ पन्थ में मुनि के वस्त्र पात्र का व्यवस्थित निरूपण देखा जाता है, जिसे श्वेताम्बर परम्परा निर्विवादरूपसे स्वीकार करती है। ४-उमाम्बातिके वाचकवंशका उल्लेख और उसी वंशमें होने वाले अन्य आचार्यों का वर्णन श्वेताम्बरीय पट्टावलियां, पन्नवरणा और नंदिकी स्थविरावलीमें पाया जाता है। ये दलीलें वा उमास्वातिको श्वेताम्बर परंपराका मनवाती हैं, और अबतकके समस्त श्वेताम्बर आचार्य उन्हें अपनी ही परंपराका पहले से मानते आये हैं । . ऐसा होते हुए भी उनकी परम्परासम्बन्ध में कितने ही वर्ष १, करण ६, ७ वाचन तथा विचारके पश्चात् जो कल्पना इस समय उत्पन्न हुई है उसको भी अभ्यासियोंके विचारार्थ यहाँ दे देना उचित समझता हूँ । ३६. देखा, १, ११ का भाष्य । ३७. देखो, पीछे 'वंश' तथा 'समय' शीर्षकों के नीचे किये हुए उल्लेख ३८. देखो, आगे की तटस्थता सूचक ११ दलीलों में से ४, ५, ७, ६ नम्बर की दतीले । ३६. देखो, श्लोक नं० १३५ से । जब किसी महान् नेताके हाथ से स्थापित हुए सम्प्रदाय में मतभेद के बीज पड़ते हैं, पक्षों के मूल बंधत हैं और धीरे धीरे वे विरोधका रूप लेते हैं तथा एक दूसरेकं प्रतिस्पर्धी प्रतिपक्षरूपसे स्थिर होते हैं तब उस मूल सम्प्रदाय में एक ऐसा वर्ग खड़ा होता है जो परस्पर विरोध करने वाले और लड़ने वाले एक भी पक्षकी दुराग्रही तरफदारी न करता हुआ अपने से जहाँ तक बने वहाँ तक मूल प्रवर्तक पुरुष के सम्प्रदाय को तटस्थरूपसे ठीक रखने का और उस रूपसे ही समझाने का प्रयत्न करता 1 मनुष्य स्वभाव के नियमका अनुसरण करने वाली यह कल्पना यदि सत्य हो तो प्रस्तुत विषयमें यह कहना उचित जान पड़ता है कि जिस समय श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों पक्षों ने परस्पर विरोधीपनेका रूप धारण किया और अमुक् विषय-सम्बन्ध में मनभेद के झगड़े की तरफ वे ढले उस समय भगवान महावीर के शासनको माननेवाला श्रमुक वर्ग दोनों पक्षोंसे तटस्थ रहकर अपने से जहाँ तक बने वहाँ तक मूल सम्प्रदायको ठीक रखने के काम में पड़ा । इस वर्गका काम मुख्यतः परम्परा से चले आए हुए शास्त्रोंको कंठस्थ रखकर उन्हें पढ़ना-पढ़ाना था और परम्परामे प्राप्त हुए तत्वज्ञान तथा आचारसे मम्बन्ध रखने वाली सभी बातोंका संग्रह रखकर उसे अपनी शिष्यपरम्परा को देना था । जिस प्रकार वेदरक्षक पाठक श्रुतियोंको बराबर कंठस्थ रखकर एक भी मात्रा का फेर न पड़े ऐसी सावधानी रखते और शिष्यपरम्परा को सिखाते थे, उसी प्रकार यह तटस्थ वर्ग जैन श्रुतको कंठस्थ रखकर उसकी व्याख्यानोंको Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाख, ज्येष्ठ, वीरनि०सं० २४५६] तत्त्वार्थसूत्रके प्रणेता उमास्वाति ३९९ ममता, उसके पाठभेदों तथा उनसे सम्बन्ध रखने का काम करने वाला यथार्थ नामधारी विशिष्ट वर्ग वाली कल्पना को सँभालता और शब्द तथा अर्थ मे था । इस वर्गमें श्रुताभ्यासके विना कोई दाखिल नहीं पठन-पाठन-द्वारा अपने श्रुतका विस्तार करता था। हो सकता था । आजकल जैसे पंन्यास,गणी, उपाध्याय यही वर्ग वाचक४० रूपसे प्रसिद्ध हुआ । इसी कारण और आचार्यकी पदवी श्रुतके अभ्यास विना भी प्राप्त मे इसे पट्टावलीमें वाचकवंश कहा गया हो ऐसा जान करनी आसान है वैसा उस वर्गमें दाखिल होनेके लिये पड़ता है। प्रत्येक साधका काम चाहे वह सामान्य नहीं था। वाचकवंशमें दाखिल होनेका अभिप्राय श्रत माध हो या आचार्य-उपाध्याय हो, शास्त्र के पढ़ने का विशिष्ट अभ्यास और उसके प्रचारका काम करना पढ़ानका तो है ही; ऐसी स्थितिमें पट्टावलीमें जो एक ही था। इसके परिणामस्वरूप वाचकपदधारी माधु नये. जदे वाचकवंशका निर्देश आता है और अमुक ही नये गन्थों की रचना करनेकी सामर्थ्य गम्यते थे और श्राचयों के उस वंशमें होने का वर्णन है वह इस बात अपने समय में अपने इधर उधर जो विविध दार्शनिक को सचित करता है कि वाचकवंशके नामसे उल्लेखित विचारमरणियाँ बह रही थीं उनका और विविध अमुक वर्ग कोई सामान्य साधूवर्ग जमा नहीं था, शास्त्रों का अभ्याम भी करते थे; इतना ही नहीं किन्तु बल्कि वह एक श्रुतसंरक्षक और श्रुतक पठन-पाठन वे प्राकृत भाषाके रूढिबद्ध किलेको तोड़कर उम ममा .. पठन-पाठनमें ही मुव्यरूपमे पायगा एक ऐसा वाचक- की दार्शनिकप्रिय संस्कृत जैमी भाषाओंको मीम्बनेकी + था, इस कल्पना की पुष्टि, वाचकवंश को नमम्सार करने वाली प्रेरणा करतं. और अपने को विरासत में मिला हा मावश्यकनिक्ति की एक गाथा दी जा सकती है.---- ज्ञान जैनेनर तत्वज्ञोंके गाह्य बन उसके लिये विद्वप्रिय "एक्कारस वि गणहरे पवयए पवयणस्स वंदामि। मंक्रत जैसी भाषामें गन्ध भी लिम्वत थे । इमवाचकमव्वं गणहरवंसं वायगवंसं पवयणं च ॥" वाचकका अर्थ पाठक और उपाध्याय है। पांच परमेष्टिमें चौथा वंश के विद्वान माधुओंको पक्षापनी, गम्छभेद और द उपाध्यायका है । वास्तवमें उपाध्याय पदका महत्व उसके शास्त्र- बिलकुल तुच्छ-जैसी कर्मकांड-विषयक विरोधकी बातों 'नगा और प्रचारके गंभीर कर्तव्य मे सिद्ध हुआ है, न कि मात्र में रम नहीं था ; उनका मुख्य रस शास्वचिंतन, शास्त्रउपाध्याय-पदवीके कर्तव्यविहीन भागेपणा मे । यह बात उक्त गाथा संरक्षण, शास्त्र निर्माण और शास्त्रप्रवारकी तरफ ही म मुक्ति होती है। था। ऐसे वाचकवंशमें, जिस दिगम्बरपने की कोई इसी अभिप्राय की पुष्टि काने वाला एक स्पष्ट उख मावश्यक पूर्णिमें पाया जाता है, उमर्ने गाधरश और वाचकश इन पक्ष न थी अथवा श्वेतान्बर कहलाने का कुछ भी मोह ?' का निईश है और वाचकांशकी उसमें व्याव्या दी है कि वाचक- न था, उमास्वाति हुग हों ऐसा मालूम होता है । इमकी वश अर्थत् वह जिसने परम्परासे सामायिक आदि अर्थ और प्रथ पुष्टिमें यह भी जान लेना चाहिये कि उमास्वाति अपने चाया (पढ़ाया) है । इस घूर्णिका पाठ इस प्रकर है:- दीक्षागरू, विद्यागर और दीक्षा तथा विद्याके प्रगुरु ___ "सव्वं गणहरवंसं अजसुहम्मे० थेरावलिया वा इन सब को 'वाचक' रूपसे ही उल्लेखित करते हैं, जेहिं जाव अम्हं सामाइयमादीयं वादितं । वायगबंसो णाम जेहि परंपरएणं अत्थो गंथो य वादितो अन्नो इतना ही नहीं, किन्तु उन सब प्रगुरुओं को 'वाचक गणहर वंसो अन्नो य वायगवंसो तेण पत्तेयं क्रियते। मुख्य' तथा 'महा वाचक' रूपसे उल्लेखित करते हैं, (पृ०८६) और अपने दीक्षागुरु को 'एकादश-अंगधारक' ऐसा Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० अनेकान्त वर्ष १, किरण ६, विशेषण देकर उनकी खास विशिष्टता सूचित करते हैं। कि तत्त्वार्थसूत्रमें पहले पाँच नय बता कर पश्चान वाचक उमास्वाति दिगम्बर तथा शेताम्बर इन दो पाँचवें नयके तीन भेद किये गये हैं और इन तीन भेदी विरोधी पक्षोंसे बिलकुल तटस्थ ऐसी एक पूर्व कालीन में भी जो 'सांप्रत' ऐसा नाम है वह तत्वार्थके सिवाय जैन परम्पगमें हुए थे, इस आशय की ऊपरकी कल्प. अन्यत्र कहीं भी नहीं। यद्यपि तात्विक दृष्टि से तत्वार्थना जिन बातों को लेकर मुझे हुई है वे बातें संक्षेपमें गत और आगमगत नयोंके मन्तव्यमें भेद नहीं, नां इस प्रकार हैं: भी विभाग और नामके विषयमें तत्वार्थ की परम्परा १ श्वेताम्बरीय आगम आदि सभी प्रन्थों में नव श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओंसे स्पष्टतया तत्त्व गिनाये गये हैं जब कि तत्त्वार्थसत्रमें सात गिना जदी पड़ती है। कर४१ सातमें ही नवका समावेश किया है । यह तत्व- ३ श्रावकों के बारह व्रतोंके वर्णनमें तत्वार्थसूत्रका मंबंधी सात संख्याकी परम्परा श्वेताम्बर प्रन्थोंसे जदी क्रम४४ श्वेताम्बरीय समग्र प्रन्योंसे निगला है, तत्वार्थ पड़ती है । इसी प्रकार दिगम्बरीय कुंदकुन्दके प्रन्थोंसे में सातवाँ 'देशवत' और ग्यारहवाँ 'उपभोग परिभोगभी भिन्न पड़ती है। व्रत' गिनाया गया है जब कि श्वेताम्बरीय सभी ग्रन्थों • श्वेताम्बरीय किसीभी आगम अथवा दूसरं ग्रंथ में यह सातवॉ व्रत 'देशावकाशिक' नामके दसवें व्रतमनयका जिस प्रकारका विभाग नज़र पड़ता है उसकी रूपसे और ग्यारहवें 'उपभोगपरिभोगवत' को सातव अपेक्षा बिलकुल जुदी ही प्रकार का विभाग तत्वार्थसत्र व्रतरूपसे वर्णन किया गया है, इसमें सिर्फ क्रमका ही में पाया जाता है । आगम और आगमानमार्ग नि- परम्पराभेद है, तात्विक भेद कुछ भी नहीं । यक्ति श्रादि ग्रन्थोमें सात नय सीधे तौर पर४३ कहे तत्वार्थसत्र में जो पाप और पुण्य प्रकृतियोंका गये हैं । सिद्धसेन दिवाकर छह नय कहते हैं । जब विभाग है"५ वह इस समय उपलब्ध किसी भी श्व " ४१ देवा. १. ४ तत्त्वार्थस्त्रमें तत्त्वा की मख्या सात है। ताम्बरीय या दिगम्बरीय परम्परामें नहीं । तत्वार्थसूत्रमे तब प्रशमरतिमे-कारिका १८६ में-यह सव्या नव दी है । एक पुरुष वेद, हास्य, रनि और सम्यक्त्व मोहनीय इन चारका ही कदा जुदा जुदा ग्रथामे दो जुदी जुदी सव्या को बताये। पण्य प्रकृतियोमें गिनाया है जब कि सभी श्वेताम्बरीय यह एक सवाल है । परन्तु यदि दूसरे तौर पर दानां ग्रथोंके एक ही तथा दिगम्बरीय ग्रन्थों की परम्पगमें ऐसा नहीं है। कर्तक होने का प्रमाण मिलता हो तो इस विरोधगभिंत सवालका ५ तपके एक भेदरूप प्रायश्चित्तके नव भेद तत्वाथ समाधान दुष्कर नी । एक ग्रन्थों प्रसिद्धि के अनुसार नव तन्व बतलाए हों और दूसरे ग्रन्थम उसी ग्रन्थकारने विचार कर मात सध्या के मूल सत्र में ही हैं, जब कि पुराने श्वेताम्बरीय डाल कर अपना व्यक्तित्व दिखाया हो ऐसा बनना सवित है।बतम अगमोंमें इसके दश भेद ४७ कह गये हैं। . अथकार अपनी जुनी जुदी कृतियामे एक ही वस्तु को अनेक रूप से ६ अ०१ स०८ के भाष्यमें सम्यग्दर्शन और सम्यग् ? प्रतिपादन करते हुए पहलेसे देखे जाते हैं। ४२ देखो. १, ३४-३५ लिगत सम्यक्त्व ऐसा किया गया है । ऐसा अर्थभेद तत्वार्थ ४३ 'सीधे तौर पर इस लिये कि पांच नकों का प्रकारांतरसे निकि कथन है ही । (विशेशावश्यक भाष्य गाथा २२६४) यह ४४ देखो ७, १६ । ४५ देखो, ८, २६ । ४६ देखा. . 'प्रकारान्तर' तत्वार्थमे भाई हुई परम्परा का होवे ऐसा संभव है। २२ । ४७ उत्तराध्ययन अध्ययन ३० गाथा ३१ । Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसूत्रकं प्रणेता उमास्वाति वैशाख, ज्येष्ठ, वीरनि०सं० २४५६] के सिवाय किसी भी श्वेताम्बरीय आगम में अथवा दिगम्बरीय प्राचीन प्रन्थोंमें दिखाई नहीं देता । इस अर्थभेदके कारण सम्यग्दर्शन और सम्यग्दृष्टि शब्दों की परिभाषा सिर्फ भाष्य में जुदी घड़ी गई है । ७ यद्यपि इस समय उपलब्ध भाष्य में ५६ अन्तरद्वीपों का वर्णन है४८ परन्तु इस भाष्यके ऊपर उपलब्ध दोनों टीकाओं के रचयिता श्वेताम्बरीय आचार्य कहते हैं कि भाष्यों में ९६ अन्तरद्वीप दिखाई देते हैं । इस कथनसे ऐसा सूचित होता है कि टीकाकारोंके समय में भाष्यों में ४९ अन्तरद्वीपों की संख्या ९६ वरित थी । यह वर्णन सभी श्वेताम्बरीय ग्रन्थोंसे विरुद्ध है। यदि वाः उमास्वाति श्वेताम्बरीय परम्पराके होते तो कभी श्वेताम्बरी आगम आदि ग्रन्थोके बिलकुल विरुद्ध और केवल दिगम्बरीय प्रथमं ही जो मिलता है ऐसा अन्तरद्वीपों का वर्णन करते ही नहीं । ८ तत्वार्थ भाष्य में जो दूसरे मंहनन का 'अर्ध 'वर्षभनाराच' ऐसा नाम है और पर्याप्तियों की पाँच मंख्या ५१ है वह सामान्य रूप से श्वेताम्बरीय तथा दिगरीय ग्रन्थों की प्रसिद्ध परम्परासे भिन्न है । ९ दस यतिधर्मों में तपके वर्णन प्रसंग पर भिक्षुकी बारह प्रतिमाओं का वर्णन है। उनमें आठवी, नववीं और दसवीं इन तीन प्रतिमाओं को भाग्य में‍ क्रमशः मात, चौदह और इक्कीस रात्रिके परिमाणवाली कहा है। मायके इस कथन को किसी भी श्वेताम्बरीय सत्रका आधार नहीं । भाग्य की इस परंपरा की अपेक्षा वे ४८ देखा, ३. १५ । ४६ उत्तिकार द्वारा प्रयुक्त 'भाध्येषु' म बहुवचनसे क्या तो भाष्य की प्रतियां ऐसा अर्थ हो और क्या उस समय मिलती टीकाएँ ऐसा हो, या जान पड़ता है । देखो, ८१२।५१ सभी ताम्वरीय ग्रंथों में छह पर्याप्ति की परम्परा है, और वही प्रसिद्ध है । मात्र राजप्रश्नीयसूत्र में १० ८ पर भाषा और मनको एक गिन कर पांच पर्याप्तियों का कथन है । ५२ देखो, ६, ६ । ५० ૪૨ ताम्बरी आगम की परंपरा जुदी ही है। क्योंकि आ गममें ये तीनों प्रतिमाएँ सात सात रात की परिमारण वाली वर्णित हैं। ऐसा भाग्य के ही टीकाकार कहते हैं, इससे इस विषय में भाष्य और आगम की परंपरा जदी है। १० पुलाक, बकुश आदि निर्ग्रन्थोंमें श्रत और प्रतिसंवना का निरूपण करते हुए भाष्य में जो कुछ कहा गया है५३ उमे भाष्यके ही टीकाकार श्वेताम्बरीय आगमपरम्परासे भिन्न प्रकार का कह कर आगम परंपरा कैसी है उसे बतलाते हैं । उदाहरण के तौर पर भाष्य में पुलक, कुश और प्रतिसेवनाकुशील को अधिक से अधिक दशपूर्वधर कहा है जब कि आगमें नवपूर्वधर कहा है इत्यादि । दिगम्बर परम्परा के टीकाग्रन्थोंमें यह बात शब्दश: भाष्य के अनुसार ही है 1 ११ सत्र अन्त की तथा महत्व की दलील यह है कि यदि बा० उमास्वाति रूढ श्वेतांवरीय अथवा ट दिगंबरीय होते तो चाहे जैसे महत्व का होते हुए भी उनका मूल तत्वार्थ शास्त्र जिस प्रकार प्रथमसे आज तक उभय संप्रदाय को मान्य होता आया है उस प्रकार मान्य न होता और भाष्यमे कहीं कहीं सर्वार्थसिद्धि की तरह विरोधी संप्रदायका घोड़ा बहुत वंदन अवश्य होता । परन्तु ऐसा नहीं है । उदाहरणके तौर पर टूवें अध्याय के प्रथम सत्र की सर्वार्थसिद्धिमे मिध्यादर्शन की व्याख्या करते हुए पूज्यपादने प्रथम तो जैनंतर दर्शनों को मिथ्यादर्शन कहा है और बाद में सम्प्रदायका अभिनिवेश न रोक सकनेसे 'अथवा ' ऐसा कह कर श्वेताम्बर मान्यताओं को भी मिध्यादर्शन कह दिया है। इस स्थल पर माध्यमं श्वेताम्बर दिगम्बर किसीके विरुद्ध कुछ भी नहीं कहा गया । मात्र जैन दर्शन का ही पोषक होवे ऐसा सामान्य कथन है। श्वेतांबर और दिगंबर संप्रदाय में विरोध का बीज पहलेसे आज तक मुख्य रूपमे यह चला आता है कि भिक्षुको कपड़ा रखना या नहीं रखना; ऐसे प्रबन्न ०३ दा ६, ४० । Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनकान्त वर्ष १, किरण ६.५ विरोध की मूल बातके संबंधमें सूत्र वाभाष्यमें वा० उत्तर सुगम है और वह यह है कि जिन प्रबल मनभेद उमाम्बाति कुछ भी स्पष्ट नहीं कहते।साधओंकी बाईस और विरोध की बातों के कारण एक पक्ष जुदा पड़ा परीपाहों को गिनाते हए वे 'नग्नत्व' परीषह को आगम और जो आगे जाकर दिगम्बर रूपसे रूढ हो गया वे के अनसार गिनाते हैं, परन्तु 'नग्नत्व' का अभिप्राय बातें प्रथमसे ही वाचक वंशके श्रुतमें थी और वे मन क्या ? इस संबंधमें भाष्य तकमें कुछ भी कहते नहीं। परंपरा की होकर श्वेताम्बर पक्षके साथ अधिक ठीक जब कि भाप्य पर की टीकाओंमें श्वेतांबर आचार्य बैठती थी; इसीसे एक बार तटस्थ रहने वाला भी यह भिक्षुकोंके वस्त्र धारण करने संबंधी स्वसम्मत मर्यादा वाचकवंश श्वेताम्बर पट्टावली में दाखिल हो गया का विस्तृत वर्णन देत हैं और इसी 'नग्नत्व' परीषद और वह कभी तटस्थ था यह बात ही भला दी गई। के ऊपर लिखते हुए दिगंबरीय टीकाकार अपने को श्वेताम्बर आचार्यों ने अपने माथ कोई खास विगंध अभीष्ट ऐसे बिलकुल नग्न रहनके अर्थ को स्पष्ट करते है। निर्विवाद श्वेतांबरीय और दिगंबरीय प्राचयों की वर्ग यापनीयतन्त्र' या 'यापनीय संघ' के नामसं प्रसिद्ध है । इस गाय टीकााम जो मंप्रदाय विरोध स्पप्रदिवलाई देता है कितने ही वाद्य आचार दिगम्बर सम्प्रदायसे मिलतेपाते हैं-प्रथन. वह सत्र या भाष्य तकमें नहीं है। किसी भी एक र यह भी नाम रहता है इत्यादि। और इसके कितने हीधामिक सिदान्न संप्रदायमें पडनके बाद उस संप्रदायक अभिनिवेशी श्वेताम्बर सम्प्रदाय में मिलते हैं-अर्थत, केवलज्ञानी भी अपन पानावरण वश न हो कर जो तत्त्वार्थ लिया गया समान अनासक्तभावंम भोजन लेते हैं और स्त्रियां भी स्त्रीशरीर होता तो वह उस संप्रदायमें कभी प्रमाण रूप नहीं। ही निव गा की अधिकारिगा दी मकती हैं इत्यादि । एक तरहंस दम्य माना जाना, यह बात ऐमी है जिसे संप्रदायोंके इति जाय तो यह वा लगभग तटग्स्थ जमा है। अब यह वा दक्षिण हास जानने वाले महज ही समझ सकते हैं। हिन्दरतान में था तब दिगम्बर पथक कर गुरु अपनी सम्प्रदाय । मारांश पट्टावलियों में आए हावाचक वशसचक लागों का कहते थे कि इन यापनीयेमि सावधान रहना। ये ना अन्दा से श्वेताम्बरयों जमे हैं और मात्र बाहर में ही दिगम्बी लगते हैं। उल्लेखस, उमाम्बानिकी प्रशम्निमें सबके माथ मंयक वा जब वलभी में मेवइ-ताट-सघ उम्पन्न हा तब ये भी उसीम चक' पदके विशपणाने. पथग में होने वाली वाचनाके निकले हैं। और वताम्बा पथक कारगुम अपने मप्रदायक लागे' अपसर अनयोगधर किदिलाचार्य के इतिहासम. को कहते थे कि. 'इस यापनीय मतम सावधान हिया--यह तो ख. तथा इम समय विद्यामान आगमपाठमें अनयांगधर दिगम्बरीय है परन्तु हमें ठगने के लिये थाड़ी थोड़ी बातें हमा नागाजन के पाठन्तरों की चली आई नोंध (याद मान्यतानुमार कहता है।' भले प्रकर विव रिये तो यह पक्ष जैसे रूट दाश्त)से, और अन्त में ऊपर की ११ दलाली से ऐमा दिगम्बर न था बसेरू, श्वेताम्बर भी नीं था। यह तो तटस्थरूम मानने के लिये जी लन वाता है कि 'वाचक' नामका से रहने वाला और उपयोगी मान्यता नोंक मानने वाला एक मध्यस्थ • एक विशिष्ट विद्याप्रिय वर्ग५५ तटस्थरूपमं चला आता वर्ग था । इस सम्बन्धमें डा. ल्युडर्पने जो लिखा है वह बांचने था और उसी वंशमं उमास्वाति हए हैं। योग्य है। उसके लिये देखो, एपिग्रेफिका इंडिका वो०४ पृ०३३८ ऐसा होते हुए भी उस वंशको नथा उस वंश की अन्तिम पैरेग्राफ़ । तथा हर्नल-संपादित दिगम्बीय पट्टावली; इंडिउचनागर जैसी शाखाको श्वेताम्बरीय पट्टावली में यन ऐटिक्वेरी वो०२१ पृ०६७ फुटनोट १६, १७ और एपिग्रेफिक स्थान मिला और दिगम्बरोंने अपनी पट्टावली में उन्हें काटिका वो०१२ प्रस्तावना पृ० ५ पैरेग्राफ पहला दूसरा । स्थान नहीं दिया, इसका क्या कारण ? इस प्रश्नका जिस प्रकार यह वर्ग तटस्थ था उसी प्रकार यह वाचक वर्ग भी ५४, देखा, ६६, तटस्थ हो, इसे वेताम्बर या दिगम्बर किसी की पर्वह न हो, मात्र ५५ प्राचीन परम्परामें ऐसे कितने ही विद्याप्रिय तथा तटस्थ सत्य और सदाचारको मुख्य रख कर इस वंशकी परम्परा चलती हो, बोकी पत थोड़ी याददारत रक्खी गई है। ऐसे वर्गामें का एक ऐसा इन उमास्वाति वाचककी कृति पर से समझा जा सकता है। Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०३ बैशाख, ज्येष्ठ, वोरनि०सं० २४५६] तत्त्वार्थसूत्रके प्रणेता उमास्वाति माता हान होनेसे इस वंशको अपना ही कर लिया कारोंने वा० उमाम्वाति को तटस्थ परम्परा का समझा और इस वंशमें जो कुछ थोड़ी बहुत तत्वज्ञान-संबंधी होता तो वैसे मतभेद वाले स्थलों में अधिकांशतः या आचार-सम्बन्धी भिन्न मान्यताएँ थीं उन्हें भी मत- इतना ही कहते कि इस विषयमें ऐसा भी मतान्तर है। भंट के रूपमें अथवा सिद्धान्तके रूपमें अपना कर अपने जाति और जन्म-स्थान में शामिल कर लिया। सत्र और भाष्य दोनों का प्रमाणभूत मान कर प्रशस्ति में स्पष्टरूपस जाति-विषयक कोई कथन उनके ऊपर टीका लिखने वाले श्वेताम्बर आचार्यों की नहीं, तो भी माताका गोत्रसचक 'वात्सी' नाम इसमें दृष्टि में से वा० उमास्वातिकी तटस्थ परम्परा सम्बंधी मौजद है और 'कौभीषणि' यह भी गोत्रसूचक विशेपनिहासिक सत्य भला दिया गया, जिससे वे सब यही पण है। गोत्र का यह निर्देश उमाम्बातिके ब्राह्मण मानते कि वाचक तो हमारे जैसा रूढ श्वेताम्बरीय हा जातिके होने की मचना करता है. ऐमा कहना गात्रकर हमारे सदृश ही आगमपरम्परा का धारक होना परम्पराको ठेठम पकड रखने वाली ब्राह्मण जातिक चाहिये । इससे भाष्यके ऊपर टीका लिखते हुए जहाँ वंशानक्रमक अभ्यामी को शायद ही सदोष मालम जहाँ श्वेताम्बर आचार्यों को अपनी प्रचलित परम्परा पढे । वाचक उमम्बाति के जन्मस्थान-रूपस प्रशस्ति की अपेक्षा भिन्नता मालम पड़ी है वहाँ उन्होंने वाचक __ न्योग्राधिका' ग्राम का निर्देश करती है, यह न्यगाको या तो 'मत्रानभिज्ञ ' और 'प्रमत्त ५६ जैस। शब्दों मे सत्कारित किया है और या यह वस्तु प्रक्षिप्त धिका स्थान कहाँ है, इसका इतिहास क्या है और इम अथवा आगम मे जुदी है, इतना ही कह कर संतोष मम अथवा आगम से जदी. इतना हीका का समय उसकी क्या स्थिति है। यह सब अंधकारमें है। ५. पकड़ा है; और कहीं तो अपनी चाल परम्परा इसकी शोध करनी यह एक रमका विषय है। नत्त्वार्थकी अपेक्षा जदा ही वर्णन देख कर यहाँ तक भडके मृत्रके रचनाम्थान-रूपम प्रशस्तिमें 'कुममपर' का है कि, भाष्यके इस स्थल का असली भाग किमी निर्देश है । यही कुसुमपर इस समय विहार का पटना के द्वारा नष्ट हो गया है और उपलब्ध भाग प्रक्षिप्त है है। प्रशस्तिमें कहा गया है कि विहार करत करत पटनं एमा कह कर उन्होंने यथार्थ पाठको प्रक्षिप्रपने की मं तत्त्वार्थ रचा। इस परम नीचे की कल्पनाएँ स्फुरित चांति से फेंक दिया और उसके स्थान पर अपनी पर होती हैम्परा के अनुसार आगमानसारी पाठ जमा होना । उमास्वातिक समयमें और उससे कुछ पहलेचाहिये वैसा बना कर असली भाष्य के रूपमें उम पाळ जैन भित्र पाछ मगध जैन भिक्षुओं का खूब विहार था, ऐसा पथिन कर दिया ५८ ! यदि रूढ श्वेताम्बरीय टीका होना चाहियं और उम तरफ जैन संघ का बल तथा ५६. "नेदं पारमषप्रवचनानमारि भाष्यं किं नहि आकर्पण भी होना चाहिये। प्रमतगीतमेनन् ! वाचको हि पवित् कथमेवंविधगार्प- विशिष्ट शानक लेखक भी जैन भिक्षुक अपनी विसवादि निबध्नीयात् ? सूत्रानवबोचादुपजातभ्रान्तिन अनियन स्थानवाम की परंपरा को बराबर कायम राब राचतमतदुवचनकम् । ६,६ का भाष्यात ५०२०६ रहे थे और ऐसा करके उन्होंने श्री लको 'जंगम ५७ देखो, ३,६ तथा ६,४६ के भाष्यकी देने वृत्तियां। विद्यालय बना दिया था। ५८ "एतच्चान्तरद्वीपकभाज्यं प्रायो विनाशितं सर्वत्र ' ३ विहारस्थान पाटलीपत्र (पटना) और मगर कैरपि दुर्विदग्धै येन षण्णवतिरन्तरद्वीपका भाष्येषु दृश्यन्ते । अनार्ष चैतदध्यवसीयते जीवाभिगमादिषु पट् देशसे जन्मस्थान न्यगोधिका सामान्य तौर पर बहुत पंचाशदन्तरद्वीपकाध्ययनात्x xx। दर नोनहीं होगा। -३,१५ की भाष्यवृत्ति पृ. २६७ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ परिशिष्ट अनकान्त वर्ष १, किरण ६, ५ प्रसिद्ध तवार्थशास्त्र की रचना कुन्दकुन्दके शिष्य उमास्वातिने की है इस मान्यताके लिये दसवीं मैंने पं० नाथरामजी प्रेमी तथा पं० जुगलकिशोर सदीसे प्राचीन क्या क्या सबत या उल्लेख हैं और वे जी मुख्तारस उमास्वाति तथा तत्त्वार्थसे सम्बन्ध रखन कौन से ? क्या दिगम्बरीय साहित्यमें दसवीं सदीम वाली बातोंके विषयमें कुछ प्रश्न पछे थे, उनका जा पराना कोई ऐसा उल्लेख है जिसमें कुन्दकुन्दके शिष्य । उत्तर उनकी तरफ़मे मुझे मिला है उसका मुख्य भाग उमास्वातिके द्वारा तत्त्वार्थसत्रकी रचना किये जाने का - उन्हीं की भाषामें अपने प्रश्नोंके साथ ही नीचे दिया सचन हो या कथन हो? जाता है । ये दोनों महाशय ऐतिहासिक दृष्टि रखते हैं "नवार्थपत्रकारं गद्धपिच्छोपलक्षितम" और वर्तमानक दिगम्बरीय विद्वानोंमें, ऐतिहासिक दृष्टि इत्यादि पद्म कहाँ का है और कितना पुराना है ? स, इन दोनों की योग्यता उच्च कोटि की है। इससे ७ पूज्यपाद, अकलङ्क, विद्यानन्दि आदि प्राचीन अभ्यासियोंके लिये उनके विचार कामके होनम उन्हें टीकाकारों ने कहीं भी तत्त्वार्थसूत्रके रचयिता रूपम परिशिष्टकं रूपमें यहाँ देता हूँ। पं० जगलकिशोरजीके उमास्वाति का उल्लेख किया है ? और नहीं किया है उत्तर परम जिस अंश-विषयमें मुझे कुछ कहना है उम। नो पीछे यह मान्यता क्यों चल पड़ी ? उनके पत्रके बाद 'मेरी विचारणा' शीर्षकके नीचे यहीं बनला दूंगा: प्रेमीजीका पत्र प्रश्न "आपका ताः ६ का कृपापत्र मिला । रमाम्बा : ५ उमाम्वाति कुन्दकुन्द का शिष्य या वंशज है कुन्दकुन्दके वंशज हैं, इस बात पर मुझे ज़रा भा इस भाव का उल्लेख्य सबसे पुराना किस ग्रन्थमें, पट्टा- विश्वास नहीं है। यह वंशकल्पना उस समय की गः वलीमें या शिलालेग्वमें आपके देवनेमें अब तकमें है जब तत्त्वार्थसत्र पर सर्वार्थसिद्धि, श्लोकवार्तिक आया है ? अथवा यो कहिय कि दसवीं सदीके पर्व- गजवार्तिक आदि टीकाएँ बन चुकी थीं और दिगम्बर वर्ती किस ग्रन्थ, पट्टावली आदिमें उमास्वातिका कुन्द- सम्प्रदाय ने इस ग्रंथ को पर्णतया अपना लिया था। कुन्दके शिष्य होना या वन्शज होना अब तकमें पाया दमवीं शताब्दीक पहले का कोई भी उल्लेख अभी तक गया है। मुझं इस मंबन्धमें नहीं मिला। मेरा विश्वास है कि २ आपके विचारमें पूज्यपाद का समय क्या है ? दिगम्बर मम्प्रदायमें जो बड़े बड़े विद्वान् ग्रंथकर्ता हु" तत्त्वार्थ का श्वेताम्बरीय भाग्य आपके विचारसे म्वा- हैं, प्रायः वे किमी मठ या गद्दीके पट्टधर नहीं थे। परंत पज्ञ है या नहीं यदि वापस नहीं है तो उस पन में मह- जिन लोगों ने गर्वावली या पट्टावली बनाई हैं उनके त्व की दलीलें क्या हैं। मस्तक में यह बात भरी हई थी कि जितने भी आचा३ दिगम्बर्गय परम्परामें कोई 'उचनागर' नामक. या ग्रन्थकर्ता होते हैं वे किसी-न-किमी गहीके अधि. शाखा कभी हुई है और वाचकवंरा या वाचकपद कारी होते हैं । इस लिये उन्होंने पूर्ववर्ती सभी विद्वानों धारी कोई मुनिगग्गा प्राचीन कालमें कभी हुआ है और की इसी भ्रमात्मक विचारके अनुसार खतौनी कर डाली हुआ है तो उसका वर्णन या उल्लेख किसमें है ? है और उन्हें पट्टधर बना डाला है । यह तो उन्हें मा ४ मुझे संदेह है कि तत्त्वार्थसूत्रके रचियता उमा- .लम नहीं था कि उमास्वाति और कुन्दकुन्द किस किस स्वाति कुन्दकुन्दक्के शिष्य हों; क्योंकि कोई भी प्राचीन समयमें हुए हैं परंतु चूंकि वे बड़े आचार्य थे और प्रमाण अभी वक मुझे नहीं मिला, जो मिले वे सब प्राचीन थे, इस लिये उनका संबन्ध जोड़ दिया और बारहवीं सदीके बादके हैं । इस लिये उक्त प्रश्न पूछ गुरुशिष्य या शिष्यगुरु बना दिया। यह सोचनेका रहा हूँ, जो सरसरी तौरस ध्यानमें आवे सो लिखना। उन्होंने कष्ट नहीं उठाया कि कुंदकुंद कर्णाटक देशके Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाख, ज्येष्ठ, वीरनि०सं०२४५६] तत्त्वार्थसत्रके प्रणेता उमास्वाति ४०५ कंडकंड प्रामके निवासी थे और उमास्वाति विहार में पट्पाहुडकी भमिका भी पढ़वा लीजियेगा ग्रमण करने वाले । रनके संबन्ध की कल्पना भी एक श्रुतसागर ने आशाधरके महाभिषेक की टीका नरहसे असंभव है। संवत १५८२ में समाप्त की है। अतएव ये विक्रमकी सोलश्रतावतार, आदिपुराण, हरिवंशपराण, जम्बुद्वीप- हवीं शताब्दीक हैं। तत्वार्थकी वत्तिके और षट्पाहुडका पजनि आदि प्राचीन ग्रंथोंमें जो प्राचीन आचार्य परं- तथा यशम्तिल कटीकाके कर्ता भी यही हैं । दूसरे श्रुतपग दी हुई है उसमें उमास्वाति का बिलकुल उल्लेख मागर के विषय में मुझे मालम नहीं।" नहीं है । श्रुतावतारमें कुन्दकुन्द का उल्लोव है और उन्हें एक बड़ा टीकाकार बतलाया है परंतु उनकं आगे मुख्तार जगलाकशारजाका पत्र या पीछे उमास्वाति का कोई उल्लेख नहीं है । इंद्रनन्दि "आपके प्रश्नों का मैं सरसरी तौर से कुछ उत्तर का श्रुतावतार यद्यपि बहुत पुराना नहीं है फिर भी दिये देता हूँ :iगमा जान पड़ता है कि, वह किमी प्राचीन ग्चनाका १ अभी तक जो दिगम्बर पट्टालियाँ गन्थादिकों रूपान्तर है और इस दृष्टिसे उसका कथन प्रमाग को- में दी हुई गर्वावलियोंमे भिन्न उपलब्ध हुई हैं ने प्रायः टिका है। 'दर्शनसार ९९० संवत का बनाया हुआ है, विक्रमकी १२वीं शताब्दी के बाद की बनी हुई जान उसमें पद्मनन्दी या कुन्दकुन्द का उल्लेख है परंतु उमा- पडती हैं, मा कहना ठीक होगा। उनमें सबसे परानी म्बाति का नहीं । जिनसेनके ममय गजवार्तिक और कौनमी है और वह कबकी बनी हुई है, इस विषयम नांकवार्तिक बन चके थे, परंतु उन्होंने भी बीसों में इस समय कुछ नहीं कह मकता। अधिकांश पट्टाआचार्यों और ग्रन्थकर्ताओं की प्रशंसा प्रमंगमें उमा- वलियों पर निर्माणके ममयादिका कुछ उन्लेग्य नहीं है म्वाति का उल्लेख * परंपग का नहीं समझते थे । एक और मा भी अनभव होता है कि किमी किमी में बात और है आदिपराण, हरिवंशपराग आदिके अंतिम आदि कुछ भाग पीन्द्रग भी शामिल हुआ हैx कतोओंने कुन्दकुन्द का भी उल्लेख नहीं किया है. यह कन्दकन्द तथा उमाम्बातिक संबंध वाल कितने ही एक विचारणीय बात है। शिलालम्ब तथा प्रशाम्तयाँ है परंतु वे सब इम ममय मरी समझमें कन्दकन्द एक वाम आम्नाय या म सामने नहीं हैं। हाँ, श्रवणबेन्गाल के जैन सम्प्रदायके प्रवर्तक थे । इन्होंने जैन-धर्म को वदान्तकं लग्यांका मंगह दम ममय मेरे मामन है, जो माणिकमाँचेमें ढाला था ? जान पड़ता है कि जिनमेन आदि चंदगन्यमाला का २८ वा गन्थ है । इसमें ४०.४२, के समय तक उनका मत सर्वमान्य नहीं हुआ और १३, १७, १८, १०५ और १५८ नंबर के शिलालेग्य मी लिये उनके प्रति उन्हें कोई आदर भाव नहीं था। दोनोंक उल्लेख तथा मम्बंधको लिये हप हैं। पहले पाँचलेग्वों "तत्त्वार्थशास्त्रका गपिन्छापलक्षिम मतदन्वय पदके द्वारा और नं.१०८ में 'वंश नदीय' यादि श्लोक मालम नहीं कहाँका है और कितना गना पाक द्वारा माम्बानिको कदकुंद के वंशम लिया है। है ? तत्वार्थसत्रकी मूल प्रनियांम यह पाया जाना है। प्रकृत वाक्यांका उल्लंग्य 'म्वामी मगन्नभद्र' के १८१५८ कहीं कहीं कुन्दकुन्दको भीगद्धपिच्छ लिखा है। गद्धपिच्छ पर फटनांट में भी किया गया है। इनमें मवम पगना नामक एक और भी आचार्यका उल्लंख है । जनहितेपी शिलालेग्न नं. १७ है, जो शक मं.१.३, कालिावा भाग १० पृष्ठ ३६९ और भाग १५ अंक ६कं कुन्दकुन्द- हुआ है। सम्बंधी लेख पढ़वा कर देख लीजियेगा। ४ उत्तरका यह भाग पहले पत्र (ता.३१-७-२६. ) में दिये * यहां पर कुछ अंश दनेसे छुट गया मालूम होता है। हुए एक दूसरे ही प्रश्न नं.१ मे मम्बन्ला ग्वता है, जिसे उक्त प्रश्नां -सम्पादक में शामिल नहीं किया गया । सम्पादक Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त वर्ष १, किरण ६. २ पूज्यपाद का समय विक्रमकी छठी शताब्दी है के कर्ता रूपसे उमास्वाति का उल्लेख किया है-नांकइसका विशेष जानने के लिये 'स्वामी समन्तभद्र' के वार्तिक में उनका द्वितीय नाम गद्धपिच्छाचार्य दिया है पृ० १४१ से १४३ तक देखिये । तत्त्वार्थके श्वेताम्बरीय और शायद आप्तपरीक्षा टीका आदि में 'उमास्वानि' भाष्यको मैं अभी तक म्वोपज्ञ नहीं समझता हूँ । उस नामका भी उल्लेख है।। पर कितना ही मंदेह है, जिस सबका उल्लेव करने के इस तरह पर यह आपके दोनों पत्रों का उत्तर है. लिये मैं इस समय तय्यार नहीं हूँ। जो इस समय बन सका है। विशेष विचार फिर किसी ६ दिगम्बरीय परम्पगमें मुनियोंकी कोई उच्च नागर ममय किया जायगा।" शाग्वा भी हुई है, इसका मुझे अभी तक कुछ पता नहीं मेरी विचारणा है और न 'वाचकवंश' या 'वाचकपद' धारी मुनियों का ही कोई विशेष हाल मालम है। हाँ, इतना स्मरण विक्रम की ९ वीं शताब्दी के दिगम्बराचार्य विद्याहोता है कि किमी दिगम्बर गन्थ में उमाम्वातिके साथ नंदिन आपपरीक्षा (श्लो० ११९) की स्वोपज्ञवृत्तिम 'वाचक' शब्द भी लगा हुआ है। "तत्त्वार्थपत्रकारैम्माम्बामिप्रतिभिः" * ऐमा __ कुन्दकुन्द और उमाम्वानिके संबंधका उल्लंग्व कथन किया है और तत्त्वार्थ-शोकवार्तिककी स्वोपतनं. २ में किया जा चुका है । मैं अभी तक उमास्वाति वृत्ति (१०६-०३१) में इन्हीं आचार्य ने "एनेन को कुन्दकुन्दका निकटान्वयी मानता हूँ-शिष्य नहीं। गढपिन्छाचार्यपर्यन्तमुनिमात्रेण व्यभिचारिता हो सकता है कि वे कुन्दकुन्दके प्रशिष्य रहे हों और निरस्ता" ऐसा कथन किया है । ये दोनों कथन नइसका उल्लेव मैंने 'स्वामी समन्तभद्र' में पृ०१५८, १५९ पर भी किया है। उक्त इतिहास में उमाम्वाति-समय स्वार्थशाम्म्रके उमास्वातिचिन होनेको और उमास्वाति और 'कुन्दकुन्द-समय' नामक के दोनों लग्यों को एक तथा गद्धपिच्छ आचार्य दोनोंके अभिन्न होनेको मचिन बार पढ़ जाना चाहिये। करते हैं ऐसी पं० जगलकिशोरजी की मान्यता जान ___ ५ विक्रम की १० वीं शताब्दी में पहले का कोई पड़ती है। परंतु यह मान्यता विचारणीय है, इसम उल्लेग्य मेरे दग्वनेमें ऐमा नहीं आया जिसमें उमाम्बानि इस विषय में मेरी विचारणा क्या है उसे संक्षेप में को कुन्दकुन्दका शिष्य लिया हो। बतला दना योग्य होगा। "नवार्थसत्रको गद्धपिन्टोपलक्षिनम" पहले कथन में 'तत्त्वार्थसत्रकार' यह उमास्वामी इत्यादि पदा नत्वार्थमत्र की बहुनमी प्रनिगोंके अंतमें वगैरह आचार्यों का विशेषण है, न कि मात्र उमादेग्या जाता है, परन्तु वह कहाँ का है और कितना म्वामीका । अब यदि मुख्तार जी के कथनानुसार अथ पगना है यह अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। कीजिये तो ऐसा फलिन होता है कि उमास्वामी वगैरह ७ पज्यपाद और अकलंकदेवके विपयमें तो अभी पम पजाबगय नामक एक विद्वान की लिखी हुई ठीक नहीं कह सकता परन्तु विद्यानंदिन तो तत्वार्थसूत्र यापपरीक्षा-टीकाकी जा प्रति है उसमें ये "तत्वार्थसत्रकारैरु. जिनेन्द्रकन्यागाभ्युदय' ग्रंथमें 'अत्वयावन्ति' का वर्णन भास्वामिप्रभतिभिः" शब्द नहीं हैं, और देहलीके नये मन्दिर करते हए कुन्दकुन्द और उमास्वाति दोनांके लिये 'वाचक' पद का की जो पुगनी दो प्रतियां-एक मं०१८:१ की और दसरी म. प्रयोग किया गया है, जैसा कि उसके निन्न पद्य प्रकट है: - १४ की लिखी हुई–हाल में देवी गई उनमें भी ये शब्द नहीं पुष्पोदन्तो भूतवलिः जिनचंद्रो मुनिः पुनः। हैं। इससे मुद्रित प्रतिके ये शब्द प्रक्षिप्त जान पड़ते हैं और इसी कुन्दकुन्दमुनीन्द्रोमास्वातिवाचकसंज्ञितौ ॥ लिये मेरे पत्र में इन पर कोई खास जोर नहीं दिया गया था। -सम्पादक -सम्पादक Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०७ वैशाख, ज्येष्ठ, वीरनि०सं०२४५६] तस्वार्थसत्रके प्रणेता उमास्वाति प्राचार्य तत्त्वार्थसूत्रके कर्ता हैं । यहाँ तत्वार्थसूत्र का व्यभिचार का विषय भतरूपसे कल्पित किया गया अर्थ यदि तत्त्वार्थाधिगमशास्त्र किया जाय तो यह सत्र जुदा ही है, इसीसे उन्होंने इस व्यभिचार दोषको फलित अर्थ दूषित ठहरता है । क्योंकि तत्त्वार्थाधिगम- निवारण करनेके बाद हेतुमें प्रसिद्धता दोष को दूर शास्त्र अकेले उमास्वामीका रचा हुआ माना जाता है,न करते हुए "प्रतसत्रे" ऐसा कहा है । प्रकृत अर्थात् कि उमास्वामीआदिअनेक आचार्योंका। इससे विशेपण- जिस की चर्चा प्रस्तुत है वह उमास्वामीका मोक्षमार्गगत तत्त्वार्थसत्र पदका अर्थ मात्र तत्त्वार्थाधिगम शास्त्र विषयक सत्र । प्रसिद्धता दोप का निवारण करते हुए न करके जिनकथित तत्त्वप्रतिपादक सभी ग्रन्थ इतना सत्र को 'प्रकृत' ऐसा विशेषण दिया है और व्यभिचार करना चाहिये । इस अर्थ के करते हुए फलित यह दोपको दूर करते हए वह विशेषण नहीं दिया तथा पक्ष होना है कि जिनकथित तत्त्वप्रतिपादक ग्रन्थके रचनं रूप मत्रके अन्दर व्यभिचार नहीं आता यह भी नहीं वाले उमास्वामी वगैरह आचार्य । इस फलित अर्थ के कहा । उलटा स्पष्टरूपसे यह कहा है कि गद्धपिच्छाचाअनसार सीधे तौर पर इतना ही कह सकते हैं कि र्यपर्यन्त मुनियोंके सत्रोंमें (?) व्यभिचार नहीं पाता। विधानंदि की दृष्टिमें उमाम्वामी भी जिनकथित तत्त्व- यह सब निर्विवाद रूपसे यही सूचित करता है कि प्रतिपादक किसी भी गन्थके प्रणेता हैं । यह गन्थ भले विद्यानन्दि उमाम्वामीसे गद्धपिच्छ को जदाही समझते ही विद्यानंदिकी दृष्टि में तत्त्वार्थाधिगमशास्त्र ही हो हैं, दोनों को एक नहीं है। इसी अभिप्राय की पुष्टिमें परंतु इसका यह आशय उक्त कथनमें दूसरे आधागे के बिना सीधे तौर पर नहीं निकलना । इममे विदा लगक महोदय की यह विचारगा ठीक नही है, क्योंकि नंदिके आप्तपरीक्षागत पर्वोक्त कथन पर हम इसका लोकवार्तिक की मुद्रित प्रतिमें "व्यभिचारिता निरस्ता" के प्राशय सीधी रीतिसे इतना ही निकाल सकते हैं कि बाद जो पूर्ण विराम का चिन्ह (।) छपा है वह मशुद्ध है-हातउमास्वामीन जैनतत्वके उपर कोई ग्रंथ अवश्यरचा। लिखित प्रतियों में वह नहीं देखा जाता। इससे अगला 'प्रकृतम पर्वाक्त दूसरा कथन तत्त्वार्थाधिगमशास्त्रका पहला पद पूर्व वाक्यक माय ती गम्बद्र है और प्रग वाक्य "पतेन ग. माक्षमार्ग-विषयक सत्र मर्वजवीतराग-प्रणीत है इस पिच्छाचार्यपर्यन्तमुनिसत्रेण व्यभिचारिता नि. यस्तु को सिद्ध करने वाली अनमानचर्चा में आया है। रस्ता प्रकृमस" या होता है । नी हालतमें, खुद लेग्यक महोदय की भी मृचनानुमार, किनी आपनि अथवा विंगवी विचारक इस अनुमानचर्चामें मातमार्ग-विषयक मत्र पक्ष है. लिये कोई स्थान नहीं रहता । अगला वाक्य "मत्रत्वमसिद्धामति मर्वज्ञवीतराग-प्रणीत्व यह माध्य है और मत्रत्व यह . चेन" इन सांग पारम्भ होता है, उसके शुरूगं "प्रकृतसत्रे" हंन है। इस हेतुम व्यभिचार दोपका निरसन करने की कार्ड म्याग जात न:- बिना उसक भी कम चन जान हए विद्यानन्दिन तन' इत्यादि कथन किया है। व्य- है। और यदि कल जान गमभी भी जाय ना मध्यमं पर। भिचार दोप पक्षम भिन्न स्थल में मंभवित होता है। प्रकृतमत्रे' पदको दर नीतीप-गाय' में उभयप्रकाशक एव दानां पन्न ना मोक्षमार्ग-विषयक प्रस्तुत नत्वार्थमृत्र ही है इम का क. गाधक समझना चाहिये । इसके गिवाय, प्रकग्गा तथा टिग. मं व्यभिचार का विषयभूत माना जाने वाला गद्धपि- स्वर सम्प्रदाय में गृपिच्छाचार्य की इस नन्वार्थमृत्रक कन्निविष. च्छाचार्य पर्यंत मुनियों का सूत्र यह विद्यानन्दि की एक प्रसिद्धि को देग्नने हुए. गृपिच्छाचार्थके बाद 'पर्यन्न' शब्द दृष्टि में उमास्वातिके पक्षभूत मोक्षमार्ग-विषयक प्रथम क प्रयागंम यह माफ ध्वनित होना है कि विचारमें प्रग्न्त प्रकृत मन्त्र मत्रसे भिन्न ही होना चाहिये, यह बात न्यायविद्या का कर्ता ही वहां गृदपिन्छाचार्यकम्पमें विवक्षित है, मग और कोई अभ्यासीको शायद ही समझानी पड़े ऐसी है। विद्या- नहीं । गृद्धपिच्छाचार्य नाम का दमा कोई सूत्रकार हुमा भी नहीं । नन्दि की दृष्टिमें पक्षम्प उमाम्बातिके मत्र की अपेक्षा अतः जो नतीजा निकाला गया है वह ठीक नहीं है -संपादक Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनकान्त वर्ष १, किरण ६, ७ एक दलील यह भी है कि विद्यानन्दि यदि गृद्धपिच्छ विचारसे सहमत न हो अथवा सहमत होते हुए और उमास्वामी को अभिन्न ही समझते होते तो एक उस पर कुछ विशेष प्रकाश डाल सके उन्हें जगह उमाम्वामी और दूसरी जगह 'गद्धपिच्छ आचार्य' सहर्प आमंत्रण है कि वे अपने युक्तिपुरम्सर इतना विशेषण ही उनके लिये प्रयुक्त न करते बल्कि 'गद्धपिच्छ' के बाद वे 'उमास्वामी' शब्द का प्रयोग विचारों को शीघ्र ही 'अनेकान्त' के पाठकों के करते । उक्त दोनों कथनों की मेरी विचारणा यदि सामने रखने की कृपा करें । परन्तु इस सम्बंध खोटी न हो तो उसके अनुसार यह फलित होता है में लिखा हुआ कोई भी लेख-अनकूल हो कि विद्यानन्दि की दृष्टि में उमास्वामी तत्त्वार्थाधिगम या प्रतिकूल-किसी प्रकार के लोभ, कोप या शास्रके प्रणेता होंगे परंतु उनकी दृष्टि में गृद्धपिच्छ और साम्प्रदायिक करता के प्रदर्शन को लिये हए उमाम्वामी ये दोनों निश्चयसे जद ही होने चाहिये। न होना चाहिये, उस का उद्देश्य मात्र सत्य गद्धपिच्छ, बलाकपिच्छ, मयुरपिच्छ वगैरह विशे की खोज तथा सत्य के निर्णय में सहायता पणों की सष्टि नग्नत्वमूलक वस्त्रपात्रके त्यागवाली दिगम्बर भावनामें से हुई है। यदि विद्यानन्दि उमा- पहुँचाना होना चाहये । और इस लिये वह स्वामी को निश्चयपूर्वक दिगम्बरीय समझत होते तो वे सौम्य भाषामें ऐतिहासिक दृष्टि की प्रधानताको उनके नामके साथ पिछले जमानमें लगाये जाने वाले लेकर ही लिखा जाना चाहिये । गद्धपिच्छ आदि विशेपण ज़रूर लगाते । इससे ऐसा जो दिगम्बर विद्वान इस के विरुद्ध कहना पड़ता है कि विद्यानन्दिन उमास्वामी का श्वता- विचार रखते हों और खद कोडे लेख लिखना म्बर, दिगम्बर या कोई तीसग सम्प्रदाय मचित ही न चाहें उन्हें चाहिये कि वे इस लेख की जिम नहीं किया। जिस बात के विरोधमें जितनी भी सामग्री जुटा नोट सकते हों उसे प्रयत्न करके जटाएँ और जटा यह लेख, लेखक महोदयके विशाल तथा कर उन पंक्तियों के लेखक के पास भेजने की गहरे अध्ययनको सूचित करता हुआ. विद्वानों कृपा करें, जिससे जो विस्तृत लेख लिखा जाने के सामने विचारकी बहुतसी महत्वपूर्ण सामग्री को है उसमें उसका सदुपयोग हो सके और प्रस्तत करता है और उन्हें सविशेषरूपमे सन्यके मत्यक निर्णय में यथेष्ट सहायता मिल सके । अनसंधान तथा यथार्थताके निर्णय की प्रेरणा यह विषय अब अच्छी तरहसे निर्णीत ही हो करता है । इसके लिये लेखक महोदय धन्यवादके जाना चाहिये । और इसलिये हर एक विद्वान् पात्र हैं। मेरी इच्छा इस पर कुछ विस्तारके साथ को अपना कर्तव्य समझ कर इसमें योग देना लिखनेकी है परन्तु इस समय न तो मुझे अवकाश चाहिये । इस विषयमें पत्र-व्यवहार करने वाले ही है और न यथेष्ट साधन-सामग्री ही मेरे सामने सज्जन साधन-सामग्रीके सम्बंधमें कितनी ही उपमौजद है। अतः बादको इसका प्रयत्न किया योगी सचनाएँ प्राप्त कर सकेंगे। -सम्पादक जायगा । हाँ, जो विद्वान् इस लेखके किसी Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाख, ज्येष्ठ, वीरनि०सं० २४५६] वीर-सेवक-संघके वार्षिक अधिवेशनका विवरण ४०९ वीर-सेवक-संघके वार्षिक अधिवेशन का विवरण निर्दिष्ट सूचनानुसार वीर-सेवक-संघकी मीटिंग किस कारणवश वे महानभाव अपने वचनों का पालन ता. १२ और १३ अप्रेल को दोनों दिन महावीर जय- नहीं कर सके । और भी कुछ सजनों मे सहायता जी-उत्सवक पिंडाल में की गई। पहले दिन मीटिंगका तथा सहयोग की विशेष प्राशा थी जो अभी तक परी प्रारंभ मुबह आठ बजेके क़रीब हुआ और उसमें निम्न नहीं हो सकी । इस संस्थाके चलाने का एक प्रकारसे मदम्य उपस्थित हुए: सारा भार अभी तो केवल अधिष्ठाताके ही मिर पर १ बा० चेतनदासजी रि० हेडमास्टर, मल्हीपर; २ है-आश्रम तथा अनेकान्त पत्र-सम्बंधी छोटे मोटे प्रायः ला० मक्खनलालजी ठेकेदार, देहली (प्रधान); ३ ला० सब कार्य उन्हें ही करने पड़ते हैं और इस लिये वे मरदारीमलजी, देहली; ४ ५० दीपचंदजी वर्णी, ५ अपने स्वास्थ्यकी पर्वाह न करते हुए दिन-रात अवित्रः कुँवर दिग्विजयसिंहजी, ६ बा० विशनचंदजी , श्रान्त परिश्रम करते रहते हैं, रातको प्रायः बारह एक दहली; ७ बा०भोलानाथजी मुख्तार, बलन्दशहर; ८ बजे तक उन्हें सोना मिलता है, परन्तु फिर भी काम पंजगलकिशोरजी मुख्तार (अधिष्ठाता); ९ ला नत्थ परा होनमें नहीं पाता-कितने ही पत्र तक उत्तरके मलजी, बरनावा; १० पं० महावीरप्रसादजी, देहली; लिये पड़े हुए हैं जो कुछ विशेष समयकी अपेक्षा रखते ११ ला० रूपचंदजी गार्गीय, पानीपत; १२ साह रघु- हैं-और न उनके मस्तिष्कमें संस्थासम्बन्धी जो बहुत नंदनप्रसादजी, अमरोहा; १३ बा० उमरावसिंहजी, से विचार भरे पड़े हैं उन्हें ही कार्य में परिणत करने दहली; १४ ला० दलीपसिंहजी काराजी, देहली; १५ अथवा प्रकाशमें लाने का कोई अवसर मिलता है। ला० पन्नालालजी देहली। अकेले आदमी का काम आखिर अकेला ही होता है, ___सर्वसम्मतिसे ला०मक्खनलालजी ठेकेदारनं सभा- वह सब कामों को कम करे इमीसे जिन महान उद्देपतिका आसन ग्रहण किया। तत्पश्चात पं०ज पशान पं०जगलकिशो- श्योंको लेकर यह संस्था खड़ी की गई है उनकी तरफ रजी मुख्तार अधिष्ठाता आश्रमन, वीर-सेवक-मंघ और अभी कोई खाम अथवा नमायाँ प्रगति नज़र नहीं आ ममन्तभद्राश्रमकी स्थापना तथा अनकान्त पत्रकी यो- रही है, सिर्फ अनकान्त' पत्रका ही एक काम हो रहा है जना आदिका इतिहास संक्षेपमें वर्णन करते हुए, इन और उसने समाजकी एमी उपेक्षा-स्थितिके होते हुए की वर्तमान स्थितिका कुछ दिग्दर्शन कराया, अपनी भी अपनी इम छोटीमी अवस्थामें जैन-अजैन विद्वानोंके कठिनाइयों और आवश्यकताओंको प्रस्तुत किया और हृदयमें जो महत्वका स्थान प्राप्त किया है और अपनी ६१ मार्च सन १९३० नकका कुल हिसाब पेश किया। जिस विशेषता तथा आवश्यकताको प्रमाणित किया है हिसाब सबको सुनाया गया । और वह अन्ततः सर्वम- उम बतलाने की ज़रूरत नहीं-वह उसमें प्रकट होने म्मनितसे पाम हुआ, जो अन्यत्र इसी पत्रमें प्रकाशित है। वाले 'लोकमत' में ही स्पष्ट है । उनकी इच्छा इसे अधिष्ठाताजीनं अपने वक्तव्यमें स्पष्ट बतलाया कि अभी कई गुणा ऊँचा उठाने तथा एक सर्वोपयोगी -'समाजने अभी तक इस उपयोगी तथा आवश्यक आदर्श पत्र बनाने की है परन्तु सहायकोंके अभाव में मंस्थाकी तरफ़ जैसा चाहिये वैसा ध्यान नहीं दिया है- अथवा समाजके विद्वानों तथा श्रीमानोंका यथेष्ट सहन विद्वानों ने इसे अपनी सेवाएँ अर्पण की और न योग प्राप्त न होनेकी हालतमें वे कुछ भी नहीं कर सकन, धनाढयों ने यथेष्ट आर्थिक सहायता ही प्रदान की। उनके विचार हृदयके हृदयमें ही विलीन होते जाने हैं, कई विद्वानोंने आश्रममें पाकर सेवाकार्य में हाथ बटाने उत्साह भंग हो रहा है और परिश्रम तथा चिन्ता के का तथा कुछने अपने घर पर रह कर आश्रम-सम्बन्धी कारण स्वास्थ्य भी दिन पर दिन गिरता जाता है। यदि कार्य करनेका भी वचन दिया था परन्तु न मालम यही हालन रही और स्वास्थ्यनं जवाब दे दिया अथवा Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० अनेकान्त वर्ष १, किरण ६, ७ समाजकी ओरसे निराशा ही रही और निरुपायता अधि- कर्मचारी वेतन पर नहीं रक्खे जायेंगे-तब तक आश्रम क बढ़ गई तो एक दिन उन्हें भी हार कर बैठ जाना का काम ठीक चलना और उसे अपने उद्देश्यों में सफहोगा । जैनधर्मके गौरवको पुनरूज्जीवित करने एवं लता मिलना कठिन ही नहीं किन्तु असंभव जान पड़ता जैनसमाजके उत्थानके लिये उनका यह अन्तिम उद्योग है। फिलहाल वेतन पर कमसे कम एक ऐसे योग्य है। इस लिये संघको शीघ्र ऐसी योजना करनी चाहिये विद्वान् की तो शीघ्र योजना हो ही जानी चाहिये जो जिससे आश्रमको कुछ अच्छे निःस्वार्थ मेवकोंकी प्राप्ति सेवाभाव की प्रधानता को लिये हुए हो, आश्रम के हो सके । साथ ही, धनकी ऐसी व्यवस्था की जानी आफिसको भले प्रकार सँभाल सके-खुद ही तथा चाहिये, जिसमें कुछ योग्य विद्वानों को वेतन पर रख संकेतानसार अच्छी तरह से पत्रव्यवहार करना जानता कर उनम काम लिया जा सके और जो काम उठाए हो-प्रफ देखने का जो अच्छा अभ्यासी हो, बाक़ागये हैं तथा भविष्यमें विज्ञप्रि नं०१ के अनुसार किये यदा हिसाब लिखना जिसे आता हो, संस्कृत-प्राकृनाजानका हैं उनका निर्वाह हो मकं । इस वक्त तक 'अ- दि ग्रन्थों पर से निर्देशानुसार कुछ अवतरणों को छॉट नकान्त' के ग्राहकोंसे जो रुपया वसल हआ है उसमे सके अथवा ऐतिहासिक खातोंका खतियान कर सके अधिक उस खातमें, बहत कुछ किफायतस काम लेन और जरूरत होने पर कुछ अनवाद कार्य भी कर सके। पर भी,खर्च हो चुका है और अभी सात किरणें ग्राह- ऐसे विद्वानकी नियुक्ति होने पर अधिष्ठाताका आश्रम कोंको अर देनी बाकी हैं, जिनके लिये आश्रमका जो से बाहर जाना भी हो सकेगा, जिससे बहुत कुछ प्ररूपया अवशिष्ट है वह सब खर्च होकर भी पुरा नहीं चारकार्य बन सकेगा, और आश्रम तथा पत्रके काम पट मकेगा। इसके लिये पत्रकी ग्राहकसंख्या बढ़ाने में कोई रुकावट भी पैदा नहीं होगी।' का भी खास उद्योग होना चाहिय; उद्योग तथा प्रचार इस पर व्र० कुँवर दिग्विजयसिंहजीन, आश्रम तथा मे बहुत से ग्राहक बनाये जा सकते है, जिनका अनु- पत्र की संक्षपमं अालोचना करते हुए, एक छोटी सी भव उन्हें 'जैनगजट' के सम्पादनकाल में हो चका है। स्पीच दी, जिमका सार यह है कि- 'आश्रम में एक उस समय बाब सरजभानजीका सहयोग प्राप्त था, जो उपदेशक-क्लाम खोली जानी चाहिये जिसके द्वारा ऐसे पत्रकी ग्राहकसंग्व्या जुटानका खास उद्योग किया करते उपदेशक अथवा संबक तय्यार किये जायें जो जगह थे और उसके फलस्वरूप उस पत्र की प्राहकसंख्या जगह जाकर जैनधर्मका अच्छा प्रचार करसकें। साथ इतनी बढ़ गई थी जितनी उमे कभी भी नसीब नहीं हुई ही, बाहरसे विद्वानोंका बला कर प्रति सप्ताह या प्रति थी और न शायद बादको ही आजतक नसीब हो सकी पक्ष कुछ कुछ दिनके लिये नियत विषयों पर व्याख्यान है । परन्तु 'अनकान' का एस किसी भी सज्जनका कराये जाया करें। इससे आश्रमके प्रति लोगोंकी दिलमहयोग प्राप्त नहीं है और न खद सम्पादक को पत्र चस्पी बढ़ेगी और अनकान्तके लिये कितने ही लेखों तथा आश्रम का काम करते हुए इतना अवकाश ही तथा लेखोंकी सामग्रीकी प्राप्ति भी सुलभ हो जायगी। मिल रहा है कि जो इस विपय में वे कोई व्यवस्थित दूसरे प्रथमानयोग (पौराणिक बातों)तथा करणानयोगउद्योग कर सकें- एक सम्पादकका वास्तवमें यह काम सम्बन्धी शंकाओंका समाधानका काम आश्रमको है भी नहीं; यदि उसका दिमारा ऐसे कामोंमें लगे तो, खास तौरसे अपने हाथमें लेना चाहिये, उनका ठीक निःसन्देह, उसके कर्तव्यपालनके कितने ही जरूरी काम समाधान न होने से हमें जगह जगह शास्त्रार्थों आदि उससे छूट जायँगे । अत: आश्रममें जब तक दो चार में बड़ी दिक्कतें पेश आती हैं, कितनी ही बातोंकी लोग अच्छे विद्वानोंकी योजना नहीं होगी कुछ त्यागी, खिल्ली तथा मखौल उड़ाते हैं जिससे जैनशासन की रिटायर्ड विद्वान् तथा अन्य परोपकारी सजन अपनी अप्रभावना होती है। वे यदि ठीक हैं तो उनका सबकी सेवाएँ इसे अर्पण नहीं करेंगे और अच्छी योग्यता वाले समझमें आने योग्य अच्छा समाधान हो जाना चाहिए Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माल ज्येष्ठ, वोरनि०सं० २४५६] वीर-सेवक-संघके वार्षिक अधिवेशनका विवरण ४११ और नहीं तो उनका मानना ही छोड़ देना चाहिये । प्रति अभी तक अपने कर्तव्यका पालन किया और न अभी देहलीमें जल्दी ही एक बहुत बड़े शास्त्रार्थके होने विद्वान् लोग ही इस ओर कुछ ध्यान दे रहे हैं । कितने की सम्भावना है, उसके लिये हमें अभी से तय्यार ही विद्वान् तो पत्रोंका उत्तर तक भी नहीं देते अथवा होना चाहिये । यदि समय पर ऐसी किसी बात का उसमें बहुत ही लापर्वाही तथा प्रमादसे काम लेते हैं । अच्छा समाधानकारक उत्तर न दिया जा सका तो मानों उन्हें इस विषयमें अपने उत्तरदायित्वका कुछ भी जैनियों की बहुत बड़ी अप्रभावना होगी और उनके वोध नहीं । लोगोंमें सेवा तथा स्वार्थत्यागके भावका धर्मको हानि पहुँचेगी । अतः उससे पहले ही हमें बहुत ही अभाव जान पड़ता है । आश्रम विद्वानों तथा जल्दी समाधानकी पूरी सामग्री मिल जानी चाहिये। दूसरे सजनोंको घर पर भी काम देना चाहता है परंतु यदि आश्रम से ये सब काम नहीं हो सकते तो फिर कोई लेनेको तय्यार नहीं और जो एक दो ने लिया भी हमारी राय में उसको कायम रखने की कोई जरूरत तो करके नहीं दिया । ऐसी हालतमें आश्रम क्या कर नहीं । इतिहास, साहित्य और तत्त्वज्ञान की बारीक सकता है, अकेले अधिष्ठाताके वशका सब काम नहीं बातोंको, जो आजकल 'अनेकान्त' का विषय बनी हुई है । यदि कुछ अच्छे काम करनेवाले स्वार्थत्यागी पुरुष हैं, आमतौर पर कोई नहीं समझता, उनकी तरफ लोगों आश्रमको अपनी सेवाएँ अर्पण करें, दूसरे विद्वान् की कोई रुचि नहीं है। ऐसा हमें अपने उपदेशकीके दौरे लोग महज़ सफ़र खर्च लेकर साल भरमें एक एकदो दो में अनुभव हुआ है।' पं० महावीरप्रसादजीने आपकी महीनके लिये ही सेवाभावसे आश्रममें पधारनेकी कृपा कुछ बातोंका समर्थन किया और कहा कि वास्तवमें किया करें । और धनिकजन धनकी इतनी सहायता दहलीमें जल्दी ही वैसे एक बहुत बड़े शास्त्रार्थकीसम्भा- प्रदान करें जिससे कुछ ऊँची योग्यताके विद्वानोंको वना पाई जाती है और पौराणिक तथा लोकरचना- वेतन पर भी रकवा जा सके और आश्रममें यथेष्ट सम्बंधी शंकाओंके समाधान के विषय में यहाँ तक ज़ोर साधन-सामग्रीका संग्रह किया जा सके, तो सब कुछ दिया कि उन्हें अक्षरशः सत्य सिद्ध किया जाना चाहिय। हो मकना है-सारे कामोंका सम्पादन किया जा उत्तरमें अधिष्ठाताजी ने बतलाया कि-'आश्रमके सकता है । बिना इसके ग्वाली बातोस या कोरी पाशा उद्देश्यों में इन सब बातोंका समावेश है, उसका पहला ही गवर्नमें कुछ नहीं हो सकता। आश्रमको पहले जन उद्देश्य है-"ऐसे सच्चे सेवक उत्पन्न करना जा वीरके और धनकी यथेष्ट सहायता प्राप्त कराइये-उसके लिए उपासक, वीरगुणविशिष्ट और प्रायः लोक सेवार्थदीक्षित काफी फंड एकत्रित कीजिये और फिर देखिये कि हो तथा भगवान महावीरके संदशको घर घरमें पहुँचा वह क्या कुछ काम करता है। यदि समाज इसके मकें ।" इसमें उपदेशकों अथवा सेवकोंकी क्लास और लिये फंडकी कोई योग्य व्यवस्था नहीं कर सकता, विद्वानोंके व्याख्यानद्वारा शिक्षाकी सब बान आ जाती किसी भी सजनका हृदय संस्थाकी उपयोगिताको देख है। और दूसरे उद्देश्यमें, जो बहुत कुर व्यापक है (दखो कर इसे अपनी सेवाएँ अर्पण करने के लिये तय्यार नियमावली) पौराणिक बातोंकी असलियतको प्रकट नहीं होता और न विद्वान् लोग ही इस तरफ कुछ करते हुए उनके विषयकी रालत फहमी को दूर करना योग देना चाहते हैं तो जरूर इस आश्रमको बन्द भी आ जाता है-उसमें जैन धर्मके समीचीन रूपादि कर देना चाहिये अथवा यह खुद ही बन्द हो जायगा। विषयमें सर्वसाधारणकी भल को सुधारनेकी बात स्पष्ट रही इतिहास, साहित्य और तत्त्वज्ञानकी बात, भले कही गई है । परंतु इन सब कामोंके लिये और श्राश्र- ही जैनजनता अभी इनके महत्वको न समझती हो मको उसके उद्देश्यों में सफल बनानेके लिए जन और परन्तु उसे एक दिन समझना और समझाना होगा, धनकी खास जरूरत है और ये दोनों ही चीजें अभी बिना इनके समाजका जीवन रह नहीं सकता और आश्रमके पास नहीं हैं। न तो धनाढयोंने इस संस्थाके यदि रहे भी तो वह कुछ कार्यकारी नहीं हो सकता। Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनकान्त वर्ष १, किरण ६, ७ उत्नम साहित्यके प्रचारमे लोकमचि बदल जाती है हेडमास्टर इस जल्सेके सभापति चने गये । तत्पश्चात और फिर जनता को उन बातोंमें अच्छा रस पाने अधिष्ठाता आश्रम ने संघ तथा आश्रमकी नियमावली लगता है जिनमे पहले वह घबगती थी अथवा जिनमें पेश की, जो कुछ संशोधनों तथा परिवर्तनोंके बाद मर्व उसका मन कुछ लगता नहीं था । इमी बातको लक्ष्यमें सम्मनिसे पास की गई, और जो पाठकोंके अवलोकगग्य कर "त्यागभमि" जैम पत्र कई कई हजार रुपये नार्थ इसी पत्रमें अन्यत्र प्रकाशित है। इसके अनिका प्रतिवर्ष घाटा उठा कर भी अपने माहित्यका प्र- रिक्त प्रचार आदिकी दृष्टिले विद्यार्थियों आदिको “अनं. चार कर रहे है और इस तरह लोकमचिको बदलकर कान्त" पत्र ४) २० की जगह ३) में देना करार पाया बगबर अपने पाठक पैदा करने चले जाते हैं । 'अन- और फिर प्रबन्धकारिणी समितिके सदस्योंका चुनाव कान्त' के माहित्यका भी ऐसे ही प्रचार होना चाहिये, होकर जल्सा ढाई बजेके क़रीब समाप्त हुआ। दोनों दिन इमस लोकमचि बदल जायगी और फिर पत्रको अपने मीटिंगमें जो प्रस्ताव पास हुए हैं वे इस प्रकार हैं :पाठकों अथवा ग्राहकोंकी कमी नहीं रहेगी। परंतु यह प्रस्ताव काम कुछ वर्ष तक बिना प्रचर घाटा उठाए नहीं हो (१)अधिष्ठाता आश्रमकी ओरसे३१मार्च सन् १९३० मकता।"त्यागभमि"को बिडलाजी तथा जमनालालजी तकका हिसाब पेश हुआ,जिसे यह संघ पास करता है। बजाज जैम समयानुकूल दानी नररत्नोंका सहयोग प्राप्त है जो उसके सब घाटेको पृग कर देते हैं । "अनेकान्त' (२) यह संघ फिलहाल अाश्रममें एक ऊँची वेतनक को ऐसे एक भी सज्जन का सहयोग प्राप्त नहीं है, तब योग्य कर्मचारीकी नियुक्ति को आवश्यक समझता है उसे अधिकाधिक उपयोगी और लोकप्रिय कैसे बनाया और उसकी नियुक्तिका अधिकार अधिष्ठाताको देता है। जा सकता है ? धनिक कहलाने वाले समाजके लिये, (३) मंघ तथा आश्रमकी नियमावलीको अधिष्ठाता निःसन्देह, यह एक बड़ी ही लज्जाका विषय है जो वह ___ आश्रमने पेश किया और उसे कुछ मंशोधनों तथा पअपने एक भी पत्र को इस योग्य न बना सके जो रिवर्तनोंके बाद यह संघ सर्वसम्मतिसे पास करता है । दृमा उच्चकोटि के पत्रों की श्रेणिमें बैठ सके अथवा (४) यह संघ उचित समझता है कि आज से विबैठ कर उसका निर्वाह कर सके। द्यार्थियों, स्त्रियों, लायब्रेरियों, तीर्थस्थानों और विद्याइसके बाद कुछ चचा हो कर यह निश्चय हुआ संस्थाओंको अतकान्त'पत्र४)की जगह३)में दिया जाय। कि आश्रममें ऊँची वतन पर एक योग्य कर्मचारीकी (५) यह संघ निम्नलिखित सात सज्जनोंको प्रबन्धयोजना की जाय और उसकी नियुक्ति का अधिकार कारिणी समितिके सदस्य नियत करता है। शेष चार सदस्योंकी नियक्तिका अधिकार अधिष्ठाता आश्रमको प्रअधिष्ठाता आश्रम का दिया जाय । माढ़े दस बजेक करीब मीटिंग की यह बैठक समान हाई और दसरी धानजीकी अनमति अथवा मंत्रीजीकी स्वीकृतिसे होगा। बैठक अगले दिन पर १श। बजे दिनके रक्खी गई। १ ला० मक्खनलालजी ठेकेदार,मोरीगेट, देहली(प्रधान) १३ अप्रेल को नियत समय पर मीटिंगका कार्य २ बा. भोलानाथजी मुख्तार, बलन्दशहर (मंत्री) प्रारंभ हुआ और उसमें निम्न सदस्य उपस्थित हए:- ३ ला पन्नालालजी दरीबाकलां, देहली सहायकमंत्री) बा० चेतनदासजी,२ ला० सरदारीमलजी. ३ ४राम्ब०साहु जुगमन्दरदासजी,नजीबाबाद(कोषाध्यक्ष) पं० दीपचंदजी वर्णी ४ बा. भोलानाथजी, ५ पं० ज- ५ पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार,सरसावा (अधिष्ठाता) गलकिशोरजी, ६ला नत्थूमलजी, ७ ला० रूपचन्दजी, ६ राजवैद्य पं० शीतलप्रसादजी, जौहरीबाजर, देहली ८ बा० उमरावसिंहजी, ५ बा० पन्नालालजी, १०५० ७ ला० सरदारीमलजी, मोरीगेट, देहली। अर्हदासजी, पानीपत; ११ला०विश्वम्भरनाथजी,देहली। भोलानाथ जैन दररशाँ मर्वसम्मतिसे बा० चेतनदासजी बी. ए. रिटायर्ड मंत्री 'वीर-सेवक-संघ' Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाख, ज्येष्ठ, वीरनि०सं०२४५६] वीर-सेवक-संघ और समन्तभद्राश्रम की नियमावली वीर-सेवक-संघ और समन्तभद्राश्रम की नियमावली देहलीमें महावीर-जयंतीके शुभ दिवस पर ता०२१ ४ साहित्य-रचनात्मक तथा पुरातत्त्व-अन्वेषणात्मक अप्रेल सन् १९२९ को स्थापित होनेवाले 'वीर-सेवक- कार्य करना। मंध' की और संघद्वारा ता०२१ जुलाईको प्रतिष्ठित होने ५ आश्रमके साहित्यका तथा जैनधर्मका प्रचार करना। वाले 'समन्तभद्राश्रम' की नियमावली इस प्रकार है:- (क) कमसे कम सौ रुपयेकी एकमुश्त सहायता (१) इस नियमावलीमें यदि कोई बात स्पष्टतया देने वाले सदस्य 'आजीवन-सदस्य' ( लाइफ मेम्बर ) अथवा प्रकरणसे इसके विरुद्ध न पाई जाय तो पॉचसौसे ऊपर हजार तककी महायता देने वाले 'स'मंघ' से अभिप्राय 'वीर-सेवक-संघ' का, हायक', हजारसे चार हजार तककी सहायता देनेवाले 'आश्रम' से अभिप्राय 'समन्तभद्राश्रम' का, 'संरक्षक', और पाँच हजार तथा इससे ऊपरकी सहा'पत्र' से अभिप्राय 'अनकान्त' पत्रका, और __ यता प्रदान करनेवाले सज्जन संवर्द्धक' समझे जायेंगे । 'समाज' से अभिप्राय 'संयुक्त जनसमाज' का होगा। (ख) जिनके द्वारा संघ तथा आश्रम के हितकी वीरसेवक-संघ विशेष सम्भावना होगी ऐसे सेवापरायण स्नास खास (२) समन्तभद्राश्रमके स्थापन, स्थितीकरण तथा व्यक्तियोंको आर्थिक सहायता के बिना और सेवा के संचालन-द्वारा जैनशासनको उन्नत बनाते हुए लोक- घंटोंका नियम किये बिना भी मदस्य बनाया जा सके हितको साधना ही इस संघका मुख्य उद्देश्य होगा। गा। ऐसे सदस्य 'आनरेरी' सदस्य समझे जायेंगे। ___ (३) संघके सदस्य वे सभी स्त्री-पुरुष हा सकेंगे (ग) संधके मभी सदस्यों को आश्रमका पत्र, जिस जिनकी अवस्था १८ वर्षसे कम न हो, जो आश्रमके का वार्षिक मूल्य चार रुपये होगा । बिना मूल्य दिया उद्देश्योंसे पूर्णतया सहमत हों, उसे सफल बनानेके इ- जयगा। च्छुक हों और उसकी सहायतार्थ कमसे कम छह रुप (४) संघके सभी सदस्योंका कर्तव्य होगा कि वे ये वार्षिक देना अथवा प्रप्तिसप्ताह दो घंटे (वार्षिक १०० अपनी शक्ति भर आश्रमको उसके उद्देश्योंमें सफल घंटे) आश्रमका काम करना जिन्हें स्वीकार हो । ऐसे बनानेका उद्योग करें, उसे जन-धनकी सहायता प्राप्त सदस्य 'साधारण सदस्य कहलाएंगे। . कराएँ और इस बातकी और खामतौरसे योग देवें कि नोट-घर पर रहते भी आश्रमका काम हो सकेगा आश्रम के पत्रका यथेष्ट प्रसार होकर उसकी आवाज जिसकी तफ़सील यह होगी अधिकमे अधिक जनताद्वारा सुनी जा सके। १ संघके सदस्य और पत्रके ग्राहक बनाना । २ अन्य प्रकारसे आश्रमको आर्थिक सहायता प्राप्त समन्तभद्राश्रम कराना। (५) इम श्राश्रमके उद्देश्य निम्न प्रकार होंगेः३ जैनप्रन्थों अथवा अन्य साहित्यमेंसे निर्दिष्ट विषयों (क) ऐसे सच्चे सेवक उत्पन्न करना जो वीरके को छाँट कर भेजना। उपासक, वीरगुणविशिष्ट और प्रायः लोक-सेवार्थ * यह नियमावनी वीर-सेवक-मंघकी मीटिगमें ता०१३ मोल दीक्षित हों तथा भगवान महावीरके संदेशको घर-घर सन् १९३० को पास हुई है। में पहुँचा सकें। Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ अनेकान्त वर्ष १, किरण ६, ७ __ (ख) ऐसी सेवा बजाना जिससे जैनधर्मका समी- विभाग रहेगा। चीन रूप, उसके आचार-विचारोंकी महत्ता, तत्त्वोंका (९) आश्रममें 'साहित्यिक पारितोषिक फंड' नाम रहस्य और सिद्धान्तोंकी उपयोगिता सर्व साधारणको का एक विभाग भी रहेगा, जिसके द्वारा प्राचीन सामालूम पड़े-उनके हृदय पर अंकित होजाय-और वे हित्यका अन्वेषण तथा नवीनावश्यक उत्तम साहित्य जैनधर्मकी मूल बातों, उसकी विशेषताओं तथा उदार का उत्पादन (निर्माण) करने वालोंको प्रोत्साहन और नीतिसे भले प्रकार परिचित होकर अपनी भलको सु- उत्तेजन दिया जायगा । इस दशामें काम करने वालोंके धार सकें। लिये पहलेसे योग्य सचनाएँ निकाली जायँगी। ___ (ग) जैनसमाजके प्राचीन गौरव और उसके इति- (१०) आश्रममें एक आदर्श व्यायामशालाकी भी हासको खोज खोज कर प्रकाशमें लाना और उसके योजना की जायगी जिसमें मुख्यतया योगप्रणाली-द्वाग द्वारा जैनियोंमें नवजीवनका संचार करना तथा भारत- शारीरिक तथा मानसिकशिक्षाकी विशेष व्यवस्था रहेगी। वकासच्चा पूर्ण इतिहास तय्यार करने में मदद करना। (११) आश्रममें सेवाकार्य करनेके लिये उन सभी (घ) वर्तमान जैनसाहित्यसे अधिकसे अधिक कर्मवीर त्यागियों, ब्रह्मचारियों तथा दूसरं परोपकारी लाभ कैसे उठाया जा सकता है, इसकी सुन्दर योजना विद्वानों और अन्य सजनोंको आमंत्रण रहेगा, जो तय्यार करके उन्हें कार्यमें परिणत करना और कराना। आश्रमके उद्देश्योंसे सहमत होते हुए कुछ समयके () सुरीतियोंके प्रचार और कुरीतियोंके बहिष्कार लिये अथवा स्थायी रूपसे आश्रममें ठहर कर उसके में सहायक बनना तथा दूसरे प्रकारसे भी समाजके नियमानुसार कोई संवाकार्य करनेके लिये उत्सुक हों। उत्थानमें मदद करना और उसे म्वावलम्बी, सुखी तथा ऐसे सेवकोंके लिये अधिष्ठाता आश्रमकी पोरसे योग्य वर्द्धमान बनाना। सेवाकार्यकी व्यवस्था की जायगी। __ (६) आश्रम अपने उद्देश्योंमें सफलता प्राप्त करने ।१२) आश्रमवासी सेवकोंकी भोजनादि-सम्बन्धी के लिये यथासहायता उन कार्यों को अपने हाथमें लेगा योग्य आवश्यकताओं की पूर्तिका भार आश्रम खुद जो आश्रमकी विज्ञप्ति नं०१ में दिये गये हैं। उठाएगा। और यदि कोई सेवक अपना खर्च खुद ___ (५) आश्रमसे 'अनेकान्त' नामका एक पत्र बरा- करना चाहें या आश्रमको अपना खर्च देवे तो यह बर प्रकाशित होता रहेगा, जिसका मुख्यध्येय आश्रम उनकी इच्छा पर निर्भर होगा । आश्रमको उसमें कोई को उसके उद्देश्योंमें सफल बनाना एवं लोक-हितको आपत्ति नहीं होगी। साधना होगा। इसकी मुख्य विचारपद्धति अपने ना- (१३) आश्रमवासियोंके लिये आश्रमकालमें ब्रह्ममानुकूल उस न्यायवाद (अनेकान्तवाद) का अनुसरण चर्य तथा संयमसे रहना अनिवार्य होगा। इसके सिवाकरनेवाली होगी जिसे 'स्याद्वाद' भी कहते हैं । और य,विशेष उपनियमोंके निर्धार करनेका अधिकार अधिइस लिये इसमें सर्वथा एकान्तवादको-निरपेक्ष नय- ष्ठाता आश्रमको होगा। और इन सब नियमोपनियमों वादको-अथवा किसी संप्रदायविशेष के अनुचित कापालन करना प्रत्येक आश्रम-वासीका कर्तव्य होगा। पक्षपातको स्थान नहीं होगा । पत्रकी नीति सदा उदार (१४) आश्रमके नियमोंका भंग करने पर प्रत्येक और भाषा शिष्ट, सौम्य तथा गंभीर रहेगी। आश्रमवासी अपनेको श्राश्रमसे पृथक् किये जाने के (८) आश्रममें 'समीचीन विद्यामंदिर' नामकाएक योग्य समझे और उसका पृथक्करण प्रबंधकारिणी सऐसा भारतीभवन खोला जायगा, जिसमें ज्ञानार्जनके मितिकी योजनानुसार होगा। लिये प्रचर साहित्यका संगह रहेगा और मौखिकरूपसे (१५) आश्रमका योग्य रीतिसे संचालन एवं प्रबंभी नियत व्याख्यानादिके द्वारा शिक्षाप्रदानका प्रबंध ध करनेके लिये संघके सदस्यों की एक प्रबंधकारिणी किया जायगा । इसीमें पुरातत्त्वका भी एक विशेष समिति नियत होगी जिसकी सदस्य-संख्या ११ तक Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाख, ज्येष्ठ, वीरनि०सं० २४५६] वीर-सेवक-संघ और समन्तभद्राश्रम की नियमावली ४१५ रहेगी और इसका चुनाव हर वर्ष संघके वार्षिक अधिवेशन पर हुआ करेगा। परन्तु किसी सदस्यके इस्तीफा परिशिष्ट देन, काम न करने अथवा अन्य प्रकारस उसका स्थान नियम नं०६ में आश्रमकी जिस विज्ञप्ति नं० १का रिक्त होने पर उसकी जगह दूसरे सदस्यकी योजना उल्लेख है उसका कार्य-सूची-वाला अंश इस प्रकारहै:बीचमें भी होसकेगी और वह शेष सदस्योंके बहुमता * कार्य-सची * धार पर अथवा संघकी प्रत्यक्ष या परोक्ष मीटिंगके द्वारा हुआ करेगी। (१) ग्रंथसंपह-अर्थात्, आश्रमके भारती-भवनमें (१६) संघके मुख्य पदाधिकारी पाँच होंगे- संपूर्ण जैनग्रंथों की कम से कम एक एक प्रति संग्रह १ प्रधान, २ मंत्री, ३ अधिष्ठाता आश्रम, ४ को- करनेके साथ साथ दूसरे धार्मिक तथा ऐतिहासिकादि पाध्यक्ष, और ५ सम्पादक "अनेकान्त" । जरूरत होने अनेक विषयोंके उत्तमोत्तम तथा उपयोगी ग्रंथोंका एक पर सहायक मंत्री, उपअधिष्ठाता और सहायक सम्पा- विशाल संग्रह प्रस्तुत करना, जो आश्रमके कामोंमें सब दक भी नियत हो सकेंगे। और उनकी नियक्तिका - तरहसे सहायक होसके और जनता भी जिससे धिकार संघकी ओरसे कोई नियक्ति न होने पर उस अच्छा लाभ उठा सके। उस पदके पदाधिकारी (२) लुप्तप्राय जैनग्रंथोंकी खोज-अर्थात् जिन ग्रंथों (१७)संघका सब कार्य बहमतके आधार पर हा के निमोण आदिका पता तो चलता है परन्तु वे मिलते करेगा और अनुपस्थित सदस्योंकी लिखित सम्मति भी नहीं उनको भारत तथा भारतसे बाहरके शास्त्रभंडारी में उसमें परिगणित होगी। और प्रबन्धकारिणी समितिके तलाश कराकर आश्रमको प्राप्ति कराना। अधिवेशनका कोरम चार रहेगा। (३) ग्रन्थप्रशस्त्यादिसंग्रह-अर्थात्, जैन ग्रन्थोंमें (१८) संघ का वार्षिक अधिवेशन आमतौर पर दिये हुये ग्रन्थकारादिकके परिचयों तथा दूसरे ऐतिहामहावीर-जयन्ती के अवसर पर देहली में हुआ करेगा सिक भागोंका संग्रह करना । और जरूरत होने पर बाहर तथा दूसरे अवसरों पर भी (४) पर्ण जैनग्रंथावलीका संकलन-अर्थात् संपूर्ण हो सकेगा, जिसकी सूचना पहलेसे अनेकान्त' पत्रादि- जैनग्रंथोंकी एकवृहतसूची तय्यार करना,जो ग्रंथनाम, द्वारा सदस्योंको दी जायगी।। २ कर्ता, ३ भाषा, ४ विषय,५श्लोकसंख्या, ६निर्माण___ (१९) अधिष्ठाता-द्वारा बनाये गये उपनियमों के समय, ७ लेखन-समय, और ८ भंडारनाम-जैसी सुचलिये प्रबन्धकारिणी कमेटीकी स्वीकृति आवश्यक होगी नाओंको साथमें लिय हुए हो, तथा जरूरत होने पर और नियमोंका सम्पादन तथा संशोधनादिक संघकी जिसमें किसी किसी प्रन्थकी अवस्थादि-सम्बंथी कोई म्वीकृतिसे हश्रा करेगा। खास रिमार्क भी दिया जाय । (२०) अधिष्ठाता आश्रमको आमतौर पर २५) रु० (५) जैनशिलालेखसंग्रह, जैनमूर्तियोंके लेखसंग्रहमासिक वेतनके कर्मचारीको नियत तथा पृथक् करने सहित (शिलाओं-मूर्तियोंके संपूर्ण जैनलेखोंका संग्रह) का अधिकार होगा। इससे अधिक वेतनके कर्मचारी । की नियुक्ति और पृथक्करणके लिये उन्हें संघके मंत्री (६) जैन ताम्रपत्र, चित्र और सिक्कों का संग्रह। तथा प्रधानमें से किसीकी स्वीकृति प्राप्त करनी होगी। (७) जैनमंदिरावली, मूर्तिसंख्यादिसहित-अर्थात् (२१) संघके सभी प्रकारके सदस्योंके लिये संघ सब जगह के जैनमंदिरो की पूरी सूची। के प्रधान तथा आश्रमके अधिष्ठाताकी स्वीकृति प्राव (८) त्रिपिटक आदि प्राचीन बौद्धग्रन्थों परसे जैनश्यक होगी। इतिवृत्त का (जैनसम्बंधी अनुकूल या प्रतिकूल सभी वृत्तान्त का) संग्रह। Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ अनेकान्त (९) प्राचीन हिन्दूप्रन्थों परसे जैनइतिवृत्तका संग्रह (१०) दूसरे प्राचीन ग्रन्थों परसे जैन इतिवृत्त का सं (११) प्राचीन जैन स्मारकों तथा कीर्तिस्तंभों का ठीक परिचय, विशेष खोजके साथ । (१२) जैन सम्बंध में आधुनिक विचारों का संग्रह, उन्हीं के शब्दों में । जैन विद्वानोंके (१३) दिगम्बर श्वेताम्बर - भेद-प्रदर्शन (अनुयोगभेदसे चार भागों में ) - अर्थात, दोनों सम्प्रदायों में परस्पर किन किन बातों में भेद है उनकी सूची । (१४) बौद्ध और जैन परिभाषाओं (Technical 11 ।।-) का विचार, समानता और मौलिकता की दृष्टिसे (१५) उपजातियों तथा गोत्रों आदिके इतिहासका । संग्रह | (१६) ऐतिहासिक जैनकोशका निर्माण, जिसमें जैन आचार्यो, विद्वानों, राजाओं, मंत्रियों तथा अन्य ऐतिहासिक व्यक्तियों का, उनके समयादि सहित, संक्षेप में प्रामाणिक परिचय रहे । (१७) जैन इतिहासका निर्माण, पूर्ण खोज के साथ । (१८) भारतीय इतिहासकी अपूर्णता और त्रुटियों दूर करने का प्रयत्न | (१९) पुरातन - जैनवाक्य-सूची - अर्थात खास खास प्राचीन ग्रन्थोंकी श्लोकानुक्रमणिकाएँ, संस्कृत प्राकृतके विभागसे दो भागों में, 'उक्तंच' आदि श्लोकों की खोज तथा गन्धादिकों के समय निर्णयके काम में सहायता प्राप्त करने के लिये | (२०) ग्रन्थावतरण-सूचियाँ, जाँच सहित - अर्थात् ग्रन्थोंमें आये हुये उद्धृत वाक्योंकी सूचियों, उन ग्रन्थों के पूरे पते सहित जहाँ से वे वाक्य उद्धृत किये गये हैं। वर्ष १, किरण ६, ७ (२३) महत्वके खास खास प्रन्थोंका अनुवाद | (२४) जैनसुभाषितसंग्रह — अर्थात् जैन ग्रन्थों पर अनेक विषयों की सुंदर, शिक्षाप्रद और रस भरी क्तियों का संग्रह | (२१) जैनलक्षणावली का निर्माण - अर्थात् अनेक प्राचीन जैन प्रन्थोंमें आए हुए पदार्थों आदिके लक्षणों का महत्वपूर्ण संग्रह, जिससे सबों को वस्तुतत्त्वके सममें आसानी हो सके । (२२) जैन पारिभाषिक शब्दकोशका निर्माण । (२५) कथासारसंग्रह - अर्थात् पुराणों आदि पर से, अलंकारादिको छोड़कर, मूल कथाभागका संग्रह | (२६) विषय- भेद से ग्रन्थोंका सारसंग्रह अथवा स्नास खास विषयों पर ग्रन्थोंके महत्वपूर्ण या असा धारण वाक्यों का संग्रह । (२७) जैन स्थिति - परिज्ञान, गणना तथा देशभेदम सामाजिक रीति-रिवाजोंके परिचय सहित । साथ ही, ऐसे जैन कुटुम्बों के भी परिचयको लिये हुए जिनकी आमदनी चार श्राने रोजसे कम है । (२८) महावीर भगवान् और उनके बाद होनेवाल खास खास प्रभावक आचार्यों के चरित्रोंका निर्माण, पूरी खोज के साथ । (२९) पाठ्यपुस्तकोंका निर्माण - १ बालकों के लिये, २ स्त्रियोंके लिये और ३ सर्व साधारण के लिये । (३०) गृहस्थधर्म पर एक उत्तम और सर्वोपयोगी पुस्तकका निर्माण, 'अपटुडेट सब बातोंका संतोषजनक उत्तर देने के लिये समर्थ हो (३१) जैन-योग-विद्याकी खोज - अर्थात् जैनगथों में योगसाधनादि विषयक जो भी महत्वका कथन पाया जाय उस सबका एकत्र संग्रह करके सार खींचना | (३२) जैनतत्वोंके रहस्य का उद्घाटन और जैनधर्मकी विशेषताओं तथा उसकी उदार नीतिका प्रतिपादन | (३३) जैनधर्मका लोकमें सर्वत्र प्रचार और प्रसार (३४) जैनसमाज को स्वावलम्बी, सुखी तथा वर्द्धमान बनानेकी ओर प्रगति । (३५) 'अनेकान्त' पत्रका सम्पादन और प्रकाशन, जिसकी नीति सदा उदार और भाषा शिष्ट, शांत तथा गंभीर रहेगी । (३६) उपयोगी पुस्तकों का प्रकाशन | Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाख, ज्येष्ठ, वीरनि०सं० २४५६] हिसाब आमद व खर्च वीर सेवक संघ और समन्तभद्राश्रम ॐ अर्हम् गोवारा हिसाब मद व ख़र्च वीर सेवक संघ और समन्तभद्राश्रम क़रौलबाग़, देहली. ता० ६ जुलाई सन् १६५६ से ३१ मार्च सन् १६३० तक खर्च (नाम) आमद (जमा) २१६६) आश्रमसहायता खाते जमा:-- १४२९) बतौर फीस सभासदी संघके आए। ७३७) अन्य प्रकार से आश्रम की सहायतार्थ प्राप्त हुए । २१६६) १०९१||–J|| ‘अनेकान्त' खाते जमा इस प्रकारः१०८५ || - ) ||| ग्राहकोंसे वसूल हुए मय वी.पी. पोटेज श्रादिके (इस रक़म में ३९=Jवी.पी. पोष्टेज आदि शामिल हैं) । ६) विज्ञापन की छपाई के आए ( मध्ये १८) रु० के ) १०९१।।-)।।। || || भोजन खाते जमा, जो प्रायः आश्रमकी रसोई में भोजन करने वालों (अधिष्ठाता आदि) से प्राप्त हुए । ६) प्रचार खाते जमा,जो सफ़र खर्च के रूप में प्राप्त हुए १) मुतफर्रिक खाते जमा, रि०रेल्वे टिकटकी विक्री से प्राप्त । १) ॥ पोष्टेज खाते जमा, जो बाहर से पोटेज के लिये प्रायः टिककोंके रूपमें श्राए । ३३६६८)।।। ४१७ १३६८) 'अनेकान्त' खाते खर्च इस प्रकार :११४|| चित्रों के डिजाइन और ब्लाकों की बनवाई में मुरारी-आर्ट प्रेसको दिये । ३१८ = ) || काग़ज़ खर्च पाँच किरणों में आर्ट पेपर के । ४४८) छपाई चित्रों व 'अनेकान्त' की चार किरणोंकी बाबत दिये४४) मुरारी आर्टप्रेस को ४०४) गयादत्त प्रेस को मय छपाई विज्ञापन, रैपर श्रादिके ( पाँचवीं format छपाई देनी है ।) २३||\-) गामा बाइन्डरका, चार किरणोंकी सिलाई कटाई आदि बाबत दिये X २१९|| )|| अयोध्याप्रसादजी गोयलीयको, बाबत वेतन के दिये । ४) ग्राहकों को मूल्यकी वापसी ( एक को २ || ) वापिस भेजे गये और एकके प्राहकखाते से सदस्यखाते में जमा किये गये । ) २१४) पोष्टेज खर्च, मध्ये २४४ || = ) || कुल पोज खर्च आश्रमके । २- सामयिक पत्रोंके मँगाने में खर्च | २२|| || मुफ़र्रिक खाते खर्च: ट्राम्बे व ताँगे आदिमें, फुटकर १६ )| १३६८) (६८) । * पांचवीं किरण तथा कुछ परों की छुपाई बाबत ८४॥ अप्रेल मासमें 'गयादत्त प्रेस' को दिये जा चुके हैं। x पांचवीं किरणकी बाबत ४॥ नमें दिये गये । Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ अनेकान्त वर्ष १, किरण ६,७ ११) बाब राजकृष्णजी कोलमर्चेण्ट, देहलीके जमा, १८०) आवश्यक सामान खाते खर्च, अलमारियों, देने बाबत बिल कोयला व लकड़ीके जो १८ अ- बरतन वगैरह के खरीदने में। गस्त १९२९ को आए । ५३)। स्टेशनरी खाते खर्च। ५१३) ला० धूमीमल धर्मदासजी कागजी देहली के । २२२॥ वेतन खाते खर्च,जो 'अनेकान्त' खातेसे भिन्न दूसरे क्लकों आदिके वेतनमें दिये गये । जमा, जो बाबत बिल कागज, नं० १२९०९ (मार्च महीनेके १८॥) रु० देने और बाकी ता० २१ मार्च सन् १९३० के देने हैं । थे जो अप्रेल में दिये गये।) २०) छपाई खाते खर्च,जो 'अनेकान्त' खातेसे भिन्न ३४२८|-m आश्रम के सदस्यफार्मों, रसीदबहियों, पत्रों आदिकी बाबत दिये गये। १५/-)। तेलबत्ती खाते खर्च । ११३)। प्रचार खाते खर्च। ९॥-) ग्रन्थसंग्रह खाते खर्च। २३४।०) भोजन खाते खर्च। ३०॥)। पोष्टेज खाते खर्च, मध्ये २४४॥)। कुल पोष्टेज खर्च आश्रमके, जो अनेकान्त' खाने भिन्न आश्रमखर्चकीबाबत अंदाज़ा कियागया ५४)। मुतरिक खाते खर्च, जिसमें १५-)ट्रेम्वे ताँगा आदि खर्चके, २७॥2) किरेल, महसूल लगेज व पार्सल आदि के और बाकी ११॥)। दूसरे मुतफर्रिक खोंकी बाबत हैं। २२००॥ ७५०) सबसेविंग बेंक पोष्ट आफिस कगैलबागके नाम ३८५) राय बहादुर साहु जगमन्दरदासजी जैन रईस स्वीकृत हुवा नजीबाबाद (कोषाध्यक्ष) के नाम । *५०) वैद्य शीतलप्रसादजीके नाम अमानत । द. मक्खनलाल २) अयोध्याप्रसादजी गोयलीय के नाम । सभापति १) बा० राजकृष्णजी कोलमर्चेन्ट के नाम, जो उन्हें १२-४-३० पोष्टेज खर्च के लिये दिया था। ३३८८ * इसके बाद भी कुछ कोयला भाया है जिसका बिल बहुत कुछ तकाज़ा करने पर भी न मानेसे जमा-खर्च नहीं हो सका। x ये रूपये प्रप्रेल मासमें दिये जा चुके हैं। ३९॥5॥ रोकड बाकी ३४२८/द जुगलकिशोर मुख्तार अधिष्ठाता 'समन्तभद्राश्रम' * यह रकम अप्रेल में वैद्यजीसे भा गई है। Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाख, ज्येष्ठ, वीरनि०सं० २४५६] एक आक्षेप ४१९ एक आक्षेप लेखोंका सम्पादन करते समय जिस लेखमें मुझे जो लेखद्वारा हालके 'दिगम्बरजैन' अङ्क नं० ७ में प्रकट बात स्पष्ट विरुद्ध, भ्रामक, त्रुटिपूर्ण, ग़लतफहमी किया है । और इस तरह अपनी निर्दोषता, निर्धान्तता, को लिये हुए अथवा स्पष्टीकरणके योग्य प्रतिभासित तथा युक्ति-प्रौढताको ऐसे पाठकोंके आगे निवेदन करके होती है और मैं उस पर उसी समय कुछ प्रकाश अपने चित्तको एकान्त शान्त करना चाहा है अथवा डालना उचित समझता हूँ तो उस पर यथाशक्ति सं- उनसे एक तरफा डिगरी लेनी चाही है, जिनके सामने न यत भाषामें अपना (सम्पादकीय) नोट लगा देता हूँ। तो मुनि पुण्यविजयजी तथा मुनि कल्याणविजयजी वाले इससे पाठकोंको सत्यके निर्णयमें बहुत बड़ी सहायता वे लेख हैं जिनके विरोधमें आपके लेखोंका अवतार मिलती है, भ्रमतथा ग़लतियाँ फैलन नहीं पाती, त्रुटि- हुआ था, न आपके ही उक्त दोनों लेख हैं और न उन योंका कितना ही निरसन हो जाता है और साथ ही परके सम्पादकीय नोट ही हैं, और इसलिये जो बिना पाठकों की शक्ति तथा समय का बहुत-सा दुरुपयोग उनके आपके कथनको जज नहीं कर सकते-उसकी होनसे बच जाता है । सत्यका ही एक लक्ष्य रहनेसे कोई ठीक जाँच नहीं कर सकते । इस लेख परसे मुझे इन नोटोंमें किसी की कोई रू- रियत अथवा अन- आपकी मनोवत्तिको मालम करके दःख तथा अफसोस चित पक्षापक्षी नहीं की जाती; और इस लिये मुझे हुआ ! यह लेख यदि महज़ सम्पादकीय युक्तियों अपने श्रद्धेय मित्रों पं० नाथूरामजी प्रेमी तथा पं० सुख- अथवा आपत्तियोंके विरोधमें ही लिखा जाता और लालजी जैसे विद्वानोंके लेखों पर भी नोट लगाने पड़े अन्यत्र ही प्रकाशित कगया जाता तो मुझे इसका कोई हैं, मुनि पुण्यविजय और मुनि कल्याणविजयजी जैसे विशेष खयाल न होता और संभव था कि मैं इसकी विचारकोंक लेख भी उनसे अछूते नहीं रहे हैं । परन्तु कुछ उपेक्षा भी कर जाता । परन्तु इसमें संपादककी किसीने भी उन परसे बरा नहीं माना,बल्कि ऐतिहासिक नीयत पर एक मिथ्या आक्षेप किया गया है, और इसविद्वानोंके योग्य और सत्यप्रेमियोंको शोभा देने वाली लिय यहाँ पर उसकी असलियतको खोल देना ही मैं प्रसन्नता ही प्रकट की है । और भी दूसरे विचारक तथा अपना कर्तव्य समझता हूँ । आक्षेपका सार इतना ही निष्पक्ष विद्वान मेरी इस विचारपद्धतिका अभिनन्दन है कि-'यदि यह लेख 'अनकान्तके' सम्पादकके पास कर रहे हैं, जिसका कुछ परिचय इस किरण में भेजा जाता तो वे इस न छापत, क्योंकि वे अपनी टिप्पभी पाठकोंको दीवान साहब महाराजा कोल्हापुर जैसे णियोंके विरूद्ध किसीका लेख छापत नहीं, मेरा भी विद्वानोंकी सम्मतियोंसे मालूम हो सकेगा। अस्तु । एक 'संशोधन' नहीं छापा था और उसी परसे मैं इस ___ इसी विचारपद्धति के अनुसार 'अनेकान्त' की नतीजेको पहुँचा हूँ।' आक्षेपकी भाषा इस प्रकार है:चौथी और पाँचवीं किरणमें प्रकाशित होने वाले “ 'अनकान्तकं प्रवीण सम्पादकन हमारे लेख पर बाब कामताप्रसादजी (सम्पादक 'वीर') के दो लेखों कई आपत्तियों की हैं। उनका उत्तर उसी पत्रमें छपता पर भी कुछ नोट लगाये गये थे। पाठकोंको यह जान ठीक था, परन्तु उक्त सम्पादक महोदयका अपनी कर आश्चर्य होगा कि उन परसे बाबू साहब रुष्ट हो गये हैं और उन्होंने अपना रोष एक प्रतिवादात्मक लेखका शीर्षक है 'राजा खारवेल और उसका वंग' । Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० भनेकान्त वर्ष १, किरण ६, ७ संपादकीय टिप्पणियोंके विरुद्ध लेख छाप देना मुझे आएँ वह प्रकट कर दीजिये। बाकी लौटा दीजिये। अशक्य अँचा क्योंकि पिछले साबकैसे मैं इस ही 'खारवेल'के शिलालेखका पहला पाठ मि०जायसनतीजे को पहुँचा हूँ। 'अनेकान्त' की ४ थी किरणमें वालनेJBORS के भाग३में प्रकट किया था और उस मेरा एक नोट खारवेलके लेख की १४वीं पंक्तिके सम्बंध का संशोधन फिर कियाथा और उस संशोधित रूपका में प्रकट करके मान्य संपादकने एक उपहाससा किया भी संशोधन गत वर्ष प्रकट किया है। मैंने पहला रूप है और यह जाहिर किया है मानो उस पंक्तिका विशेष और अन्तिम रूप देखा है और इसमें जो अन्तर हुआ सम्बंध श्वेताम्बरीय सिद्धान्तसे है और इस सम्बंधमें वह प्रकट किया है परन्तु बीचका संशोधित रूप देखे उन्होंने मि० जायसवालका वह अर्थ भी पेश किया है. बिना कुछ स्पष्ट मैं नहीं लिख सका हूँ। यदि आप दिल्ली जिसमें 'यापज्ञापक' शब्दका अर्थ जैनसाध करके, उन में उसको देख कर फिर मिलान करलें तो अच्छा हो । साधुओंकोसवस्त्र प्रकट किया गया है। मैंने इस पर उनको मरे खयालमें मुनिजीका पाठ अब शायद ही उसके लिखा कि पर्वोक्त नोटको उस हालतमें ही प्रकट करन उपयक्त हों।" को मैंने आपको लिवा था जब कि आप सन १९१८ दसग पत्र- 'अनेकान्त'का ४था अङ्क मिला में जो इस पंक्तिका नया रूप प्रकट हुआ है, उसे देख उसमें आपने मेरे वारवेलके शिलालेखकी १४वीं पंक्ति कर ठीक करलें । अतः आप इस बातका संशोधन वाले नोट को यही प्रकट करके अच्छा बेवकफ बनाप्रकट करदें और आप जो जायसवालजीके अनुसार या है । खेद है, आपने उसके साथ भेजे हुए मेरे पत्र यापज्ञापक शब्दसे जैन साधुओंको सवस्त्र प्रकट करते है सो ठीक नहीं; क्योंकि यापज्ञापक शब्दका अर्थजैन पर ध्यान नहीं दिया ! मैंने लिखा था कि जायसवाल जी ने इसके पहले (सन् १९१८ में ) जो संशोधन साधु काल्पनिक है-किसी प्रमाणाधार पर अवलम्बित किया था, वह मेरे पास नहीं। मुझे उसीका खयाल नहीं है ! किन्तु सम्पादक महोदयन इस संशोधनको ___ था और उमी पर यह नोट लिखने लगा-पर वह जब प्रकट करने की कृपा नहीं की। इसीस प्रस्तुत लेख मिला तो जो कछ लिखा था, वह य ही पूरा करके "दिगम्बर जैन" में भेजने को बाध्य हुआ हूँ।" आपको भेज दिया और यह चाहा कि आप दिल्लीकी अब मैं अपने पाठकोंके सामने बाब साहबके उन किसी लायब्रेरीसे उसे ठीक करके उचित समझे तो दोनों पत्रोंको भी रख देना चाहता हूँ जो आपने अपने प्रकट करें। उसको उसी शक्लमें छापने की चन्दा उक्त दोनों लेखोंके साथमें भेजे थे और जिनकी तरफ़ ज़रूरत नहीं थी और न ऐसा मैंने आपको लिखा आपने अपने उक्त आक्षेपमें इशारा किया है । और था। खैर अब आप उचित समझे तो इस ग़लती को साथही, यह निवेदन किये देता हूँ कि वे 'अनेकान्त' की आगामी अङ्कमें ठीक करदें। मैं नहीं समझता आपने ४थी किरणके पृ० २३० पर मुद्रित बाब साहबके उस उस नोटको प्रकट करके कौनसा हित साधन किया ! लेखको भी सामने रख लेवें जिसे आपने अपने उक्त हाँ, रही बात श्वेताम्बरत्व की सो जायसवालजीने जो श्राक्षेपमें "नोट" नाम दिया है। इससे उन्हें सत्यके यापज्ञापकों को श्वेताम्बरोंका पूर्वज बतलाया है, सो निर्णयमें बड़ी सहायता मिलेगी, लेखों तथा पत्रोंके पर- निराधार है। इसके बजाय, यह बहुत संभव है कि वे स्पर विरोधी कथन भी स्पष्ट हो जायेंगे और वे सहज उदासीन व्रती श्रावक हों; जिन्होंने व्रती श्रावक खारही में बाबू साहबके आक्षेपका मूल्य मालूम कर वेलकेसाथ यम-नियमों द्वारा तपस्याको अपनाया था। सकेंगे: उनको वस्त्रादि देना कोई बेजा नहीं है । जब उदयगिरि पहला पत्र-'अनेकान्तके' आगामी अङ्कके खंडगिरिमें नग्न मूर्तियाँ मिलती हैं तब वहाँ पर श्वेलिये तीन लेख भेज रहा हूँ। इनमें से जो आपको पसन्द ताम्बरोंका होना कैसे संभव है ? इस बातको जरा Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाख, ज्येष्ठ, वीरनि०सं० २४५६] एक आक्षेप ४२१ श्राप स्पष्ट कर दीजिये । साथमें एक लेख और भेजने प्रकट करने और बाकी को लौटा देने की प्रेरणा की की धपता कर रहा हूँ। अगर उचित समझे तो छापदें गई है । साथ ही, यह स्पष्ट घोषित किया गया है कि वरन् कारण व्यक्त करके इसके लौटाने की दया लेखकने जायसवालजीकं पहले (सन् १९१८ वाले) कीजिये । बड़ा अनुग्रह होगा।" और अन्तिम (गत वर्ष वाले) संशोधित पाठों को देख ___ यहाँ पर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूँ लिया है, उन्हींका अन्तर लेखमें प्रकट किया है, बीच कि पहले पत्रमें जिस JBORS भाग ३ का उल्लेख का संशोधित रूप देखा नहीं, उसे देख लेने की प्रेरणा है वह विहार-उडीसा-रिसर्च-सोसायटीका सन् १९१८ की गई है और इस प्रेरणाका अभिप्राय इतना ही हो का जर्नल है जिसमें जायसवालजीका पहला पाठ सकता है कि यदि वह बीचका पाठ भी मिल जाय तो प्रकट हुआ था और अन्तिम पाठ जिस जर्नलमें प्रकट उसे भी दे दीजिये, संभव है मुनिजीका पाठ उसीसे हुआ उसका नं० १३ हे और उसे बाब साहबने गत सम्बंध रखता हो और उन्हें नये पाठकी खबर ही न वपमें (अर्थात् सन् १९२९ में) प्रकट हुआ लिखा है। हो । परन्तु मुनिजीका पाठ जब बिलकुल नया पाठ ही इन्हीं दोनों पाठोंके अनुसार आपने अपने पहले लेख मालम हुआ तब संपादकको उस बीचके पाठको खोमें खारवेलके शिलालेखकी १४ वीं पंक्तिको अलग जने की कोई जरूरत ही बाक़ी नहीं रही। उसे तो यह अलग रूपसे उद्धृत किया था और मुनि पुण्यविजय- स्पष्ट जान पड़ा कि लेखक सांप्रदायिक कट्टरताके जी-द्वारा उद्धृत इस पंक्तिके एक अंशको मुनिजीका आवेशमें बेसुध हो गया है । इसीसे अपने सामने जर्नल पाठ बतला कर उसे स्वीकार करनेमें कठिनताका भाव की १३ वीं जिल्द-वाला जायसवालजीका नया पाठ दर्शाया था। साथ ही, जायसवालजीके अन्तिम पाठ और मुनिजी द्वारा उद्घन पाठ मौजूद होते हुए भी को “बहुत ठीक" बतलाया था। परंतु दैवयोगसे उन दोनोंका अभेद उस सूझ नहीं पड़ा और न यही मुनिजीका पाठ जायसवालजीका ही पाठ था और वह खबर पड़ी कि मैं क्या लिग्व रहा हूँ, क्यों लिख रहा हूँ उनका अन्तिम पाठ ही था; इससे सम्पादकीय नोटों अथवा किस बातका विरोध करने बैठा हूँ ? इस प्रकार द्वारा जब उस लेखकी निःसारता और व्यर्थता प्रकट की हानिकारक प्रवृत्तिका नियंत्रण करने और ऐसे की गई तब बाब साहबकी आँखें कुछ खली और लेखकोंकी आँखें खोलनेके लिये ही वह लेख छापा उन्होंने अपने उपहास आदिके साथ यह महसस किया गया और उस पर नोट लगाये गये। मैं चाहता तो उस कि वह लेख छपना नहीं चाहिये था। ऐसी हालतमें लेग्व को न भी छापता-छापनेकी कुछ इच्छा भी नहीं मुनासिब तो यह था कि आप अपनी भूल को स्वीकार होतीथी-परन्तु चूँकि वह लेग्य 'अनेकान्त' के एक लेख करते और कहते कि मैं अपने लेखको वापिस लेताहूँ- के विरोधमें था, उसके न छापने पर बाबू साहब उसे यही उसका एक संशोधन हो सकता था-अथवा मौन अन्यत्र छपात-जैमा कि उन्होंने 'जिम्नोसाफिस्ट्स' हो रहत। परन्तु आपसे दोनों बातें नहीं बन सकी और जमे पद पद पर आपत्तियोग्य लेखको यहाँ मे वापिस इम लिये आप किसी तरह पर उसके छापनका इल- होने पर 'वीर' में छपाया है और यह ठीक न होता। ज्ञाम सम्पादकके सिर थोपना चाहते हैं और यह कहना इसमें छापने में कुछ प्रसन्नता न होने हुए भी उमका चाहते हैं कि हमने तो उसके छापने के लिये अमुक शर्त छापना ही उचित समझा गया । और इमलिये लेग्बके लगाई थी अथवा "उस हालतमें ही प्रकट करनेको प्रकट होनेके बाद जब बाबसाहबका दूमग पत्र प्राया लिखा था जबकि आप १९१८ में जो इस पंक्तिका नया तो उसके खेद' आदि शब्दों परसे मुझे आपकी मनोरूप प्रकट हुआ है उसे देख कर इसे ठीक करलें ।" वृत्ति और पूर्व पत्रके विरुद्ध लिखनेको देख कर बड़ा परंतु पहले पत्रमें ऐसी कोई शर्त आदि नहीं है-उसमें अफसोस हुआ और इस ना-समझीको मालूम करके साफ तौर पर तीनों लेखों में से जो पसंद आए उस तो और दुःख हआ कि आप अभी तक भी अपनी Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ अनेकान्त वर्ष १, किरण ६,७ भूल स्वीकार नहीं कर रहे हैं !! उस पत्रके साथमें भेजनेमें और तीसरी भूल दिगम्बरजैन-वाले लेखके आपने अपना कोई संशोधन नहीं भेजा, जिसकी दु- आक्षेप-वाले अंशको लिखनेमें की है । आपके लेग्वों हाई दी जा रही है, यदि भेजते तो ज़रूर छाप तथा पत्रोंको देखनसे हर कोई विचारक आपकी भारी दिया जाता-भले ही उस पर कोई और नोट असावधानीका अनुभव कर सकता है और यह भी जान लगाना पड़ता । पहले अनेकान्त की ४थी किरण में सकता है कि आप दूसरों की बातों को कितने ग़लत पं० सुखलाल तथा बेचरदासजीका एक संशोधन प्रका- रूपमें प्रस्तुत करते हैं । इतनी भारी असावधानी रखत शित हुआ है, और इस लिये यह नहीं कहा जा सकता हुए भी आप ऐतिहासिक लेखोंके लिखने अथवा उन कि संपादक अपनी टिप्पणियों अथवा लेखोंके विरुद्ध पर विचार करनेका साहस करते हैं, यह बड़े ही किसी का संशोधन नहीं छापता । बाक़ी सम्पादककी आश्चर्य की बात है । अस्तु । ओरसे जिस किसी संशोधनक निकाले जानकी प्रेरणा इस संपर्ण कथन, विवेचन अथवा दिग्दर्शन पर कीगई है उसे उसके औचित्य-विचार पर छा डागया है। से सहदय पाठक सहज ही में यह नतीजा निकाल उसने लेख के छापनेमें अपनी किसी ग़लतीका अनुभव सकते हैं कि बाब साहबका आक्षेप कितना निःसार, नहीं किया और इसलिये किसी संशोधन के देने की निर्मल, मिथ्या अथवा बेबनयाद है, और इस लिये ज़रूरत नहीं समझी। फिर उसपर 'दिगम्बर जैन' वाले उसके आधार पर उन्होंने 'दिगम्बर जैन' में अपने लेखमें आपत्ति कैसी ? और इस लेख में अपने पूर्वपत्रों " लेग्य को भेजने के लिये जो बाध्य होना लिया के विरुद्ध लिखने का साहस कैसा !! है वह समचित तथा मान्य किये जाने के योग्य नहीं । एक बात और भी बतला देने की है और वह यह : मैं तो उस महज शर्मसी उतारने के लिये ऊपरी तथा कि पहले पत्रके विरुद्ध दूसरे पत्र और आक्षेप-वाले लेख में मन नुमाइशी कारण समझता हूँ-भीतरी कारण नैतिक और तदनुसार उस "नाट" नामक लेख को ठीक कर बलका अभाव जान पड़ता है । मालूम होता है संपा दकीय नोटोंक भयस ही उन्होंने कहीं यह मार्ग अख्तिलेनेकी जो नई बात उठाईगई है उससे लेग्वक महाशय यार किया है, जो ऐतिहामिक क्षेत्र में काम करने वाले लेख के छापने-न-छापनेके विषयमें क्या नतीजा निकालना चाहते हैं वह कुछ समझमें नहीं आता ! सन् तथा मत्यका निर्णय चाहने वालोंको शोभा नहीं देता। १९१८ के उस पाठको तो मैंने खुद ही लेग्वका संपा वे यदि अपना प्रतिवादात्मक लेख 'अनेकान्त' को दन करते हुए देख लिया था और उसके अनुसार भेजते और वह युक्तिपुरस्सर, सौम्य तथा शिष्ट भाषामें जहाँ कहीं पहले पाठको देते हुए आपके लिखने में कुछ लिखा होता तो 'अनेकान्त' को उसके छापने में कुछ भूल हुई थी उसे सुधार भी दिया था। पर उससे तो 9 भी उम्र न होता। आपके जिस दूसरे लेख पर मैंने लेखके छापने या न छापनेका प्रश्न कोई हल नहीं कुछ नोट दिये थे उसके विरोध में एक विस्तत लेख होता। इससे मालूम होता है कि लेखक महाशय इतने ' मुनि कल्याणविजयजीका इसी संयुक्त किरणमें प्रकाशित असावधान हैं कि वे अभी तकभी अपनी भलको नहीं हो रहा है, आप चाहें तो उस पर और मेरे नोटों पर भी समझ रहे हैं यह भी नहीं समझ रहे हैं कि पहले एक साथ ही कोई प्रतिवादात्मक लेख 'अनेकान्त' को हमने क्या लिखा और अब क्या लिख रहे हैं और भेज सकते हैं । रस पर तब काफी विचार हो जायगा। म बराबर भूल पर भूल करते चले जाते हैं । पहली भूल -सम्पादक 'अनेकान्त' आपने पहला लेख लिखने में की,दूसरीभूल दूसरे पत्रके Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाख, ज्येष्ठ, वीरनि०सं०२४५६] अनेकान्त पर लोकमत ४२३ 'अनेकान्त' पर लोकमत | ६२ सम्पादक 'धन्वन्तरि' विजयगढ़, अलीगढ़- usuecess under your control. I am gland ___ "इस(अनेकान्त)के सभी लेख बड़ी गहन विवेचना, the issues hitherto published have more ऐतिहासिक गंभीरता और पांडित्यसे पूर्ण हैं । लेखोंका than fullilled all my expectations. Your चयन जैसी उत्तम शैलीसे हो रहा है उसे देखते हुए हमें expositions of the principles of the Jain पूर्ण आशा है कि जैन साहित्यके पाठकोंमें 'अनेकान्त' religion and of the antiquities of those अनेकों हृदयों पर अधिकार जमा लेगा और सफलता who have prosfosed it and spread it are प्रान करेगा। पत्र तुलनात्मक विज्ञान जिज्ञासओंके masterpieces of their kind, not only by अध्ययन करने योग्य है, और हम हृदयसे सहयोगीका their deep scholarship but by their perस्वागत करते हैं।" fect impartiality and their endeavour to ६३ श्री. नन्ददुलारेजी बाजपेयी. काशी reach truth, pure and simple ___ "आपके पत्रकी तीन-चार संख्याओंके लिए धन्य I wish yon, your institution and the magazine a long and prosperous life. It वाद देरसे दे रहा हूँ। मैंन साम्प्रदायिक पत्रोमें इतनी विचारगहनता बहुत कम देखी थी, आपकी उदार बुद्धि would be the duty of every lover of भी प्रशंसनीय है । मैं जैनी नहीं हूँ, पर आपके पत्रको Jainism to help you in your noble work वड़ी उत्सुकता और ध्यानसे पढ़ता हूँ।" in the cause of the true religion" ___'मैं अब आपके माननीय पत्र "अनेकान्त" की ६४ मिस्टर सी. एस. मल्लिनाथजी, मद्रास पाँच किरणें पढ़ गया हूँ और मुझे उस महती सेवाके "It is excelent in every way". लिये, जो आप जैन धर्मकी कर रहे हैं, आपको अतीव 'यह 'अनेकान्त' पत्र सब प्रकारसे उत्तम है'। हार्दिक धन्यवाद भेंट करना चाहिये । जब मुझे आप ६५ गिस्टर ए. बी. लह, दीवान साहब की पहली किरण मिली थी तभी मैंने आशा की थी यहाराजा कोल्हापुर कि यह पत्र आपकी अधीनतामें सफलताको प्राप्त होगा। “ I have now rend five issues of your मुझे हर्प है कि अब तक की प्रकाशित किरणोंने मेरी sleemed paper, the "Anckanta", and समग्र आशाओंको पूरा करनेमे भी कहीं अधिक काम must write toyoutooffer my very hearty किया है। जैनधर्मके सिद्धान्तों की और उन व्यक्तियों (ongratulations to you upon the great के प्राचीन समयोंकी जिन्होंने जैनधर्मको धारण किया ervice you hsve been doing for Jainism. तथा उसका प्रचार किया है, आपकी व्याख्याएँ अपने Even when I received your tirst kiran, ढंगकी अद्वितीय कृतियाँ हैं, महज़ इसी लिये नहीं Texpected that the magazine would be कि वे गहरे पांडित्यस पर्ण है बल्कि इस लिये भी कि Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ अनेकान्त वर्ष १, किरण ६,७ वे पूर्ण निष्पक्षता को लिये हुए हैं और उम सत्य तक ग्य प्राप्त हुआ है वे भले प्रकार जानते हैं कि आपका पहुँचनेका प्रयत्न करती हैं, जो निर्मल तथा सरल है। हृदय जैनत्वसे ओतप्रोत भरा हुआ है । जैन इनिहाम ____ मैं चाहता हूँ कि आप, आपकी संस्था और आप के अन्वेषणमें तो आप एक अद्वतीय रत्न हैं । अन्य का पत्र दीर्घ तथा समद्ध जीवनको प्राप्र होवें। जैनधर्म कृतियोंके सिवाय केवल आपका "स्वामी समन्तभद्र" के प्रत्येक प्रेमीका यह कर्तव्य होना चाहिये कि वह आप ही इस बातका सजीव उदाहरण है। आप जैसे कृतविद के इस सत्यधर्माम्पद कार्यमें सहायता प्रदान करे।' अध्यवसायी महानुभाव सम्पादक हैं यही मुझे संतोप है। ६६ मा० डबल शुबिंग, पी०एच०डी..जर्मनी- तीनों ही अङ्क भीतरी और बाहरी दोनों दृष्टियोंमे "They to acknowledge the receint, of बहुत सुन्दर हैं। लेखोंका चयन और सम्पादकीय Kir. 18.1 of the "Anekunta'' you kind. विचार बड़ी योग्यतासे किये गये हैं। संपादकीय टिप्पly sent me for review. I can congratur णियाँ बड़े मारकेकी हैं। संपादककला-कुशलताका पग्ण late you to have started that journal परिचय सामने है और अपने यशोविस्तार और उद्देशthe appearance and contents of wich are equally satisfying, and it will give mea साफल्य pleasure to mention it in my work on उपयोगी सामग्रीसे परिपूर्ण प्रकाशित हुये हैं उसे देखते Jainism and its history and incred tests. हए इसके उज्वल भविष्यमें किसी प्रकारका संदेह नहीं For scholars of the west, the essays on किया जा सकता। the field of history of Jain literature, are of course the interesting part of the ___ "जैनहितैपी" और "भास्कर" की अन्त्येष्टी क्रिया contents, and I hope every numer will के पश्चात् अनंक दिनोंसे मरणोन्मुख इस जैन जातिक have somewhat of that kind” पनमत्थानके लिये ऐसे पत्र की अनिवार्य आवश्यकता 'आपकी कृपापूर्वक सम्मत्यर्थ भेजी हुई 'अन- थी। जा जाति पराकालमें सर्व प्रकारसे योग, शिक्षित, ४ मिली । में ऐसे पत्र बलवान, उदार और श्रेष्ठ थी वही वीर आत्माकों की को जारी करनेके लिये आपको धन्यवाद देता हूँ, जिस सन्तान आज उन गौरवों को विस्मरण कर सर्व प्रकार का बाह्य रूप और भीतरी लेख समानरूपसे संतोषप्रद से हासको प्राप्त हुई है । उसको यदि पुनः जागृत करने हैं, और मुझे जैनधर्म और उसके इतिहाम तथा पवित्र का कोई साधन है तो वह इसी प्रकार केवल मात्र उस साहित्य-विषयक अपने ग्रंथ में इसका उल्लेख करना के अतीत गौरवका समुचित रूपेण प्रकाशन है । जो आनन्दप्रद होगा। इस पत्रक लेखोंमें जैन साहित्यकं धर्म राप्रधर्म रह चका है, जिसका अवशिष्ट साहित्य, इतिहास-क्षेत्रस सम्बंध रखने वाले लेख अवश्य ही कला-कौशल, विज्ञान अब भी कठिनसे कठिन टक्करें ले पश्चिमी विद्वानों के लिये सबसे अधिक चित्ताकर्षक हैं, अधिक चित्ताकर्षक है, सकते हैं उसकी अवनति देख रोना पड़ता है । चिन्ताऔर मैं आशा करता हूँ कि प्रत्येक किर गणमें उस प्रकार मणिरलके स्वामी उस रत्नकी शक्तिसे अनभिज्ञहो उम के कुछ-न-कुछ लेख ज़रूर रहेंगे।' से एक पैसेके तैलयुक्त प्रदीपका कार्य ले रहे हैं। दुःख है । ६७ बाबू छोटेलालजी जैन, कलकत्ता-. यह "अनेकान्त” पत्र निःसन्देह जैनजातिकं हृदय __" 'अनेकान्त' की तीन किरणें प्राप्त हुई, अनेक में उस आवश्यक शक्तिका संचार करेगा और पुनः इस धन्यवाद । तीनों अंकों पर सम्मति के लिये संकेत है पवित्र सार्व धर्म की ध्वजा संसारमें फहरायेगा। श्रीकिन्तु जो पत्र प्राक्तन-विमर्ष-विचक्षण विद्यावय-वद्ध जिनेन्द्रदेवसेप्रार्थना है कि इसनवजात शिशुको चिरंजीव श्रद्धेय पं०जुगलकिशोरजी के तत्त्वाधानमें प्रकाशित हो करें। जैन बन्धओंसे निवेदन है कि इसे पूर्णतः अपनावें। उस पर सम्मतिकी क्या आवश्यकता है। ___ आश्रम और "अनेकान्त" दोनोंसे ही मैरी पुर्णसहानु श्री मुख्तार जीके लेखोंको पढ़नेका जिन्हें सौभा- भूति है और इनकी सहायताके लिये मैं सदा साथ हूँ।" Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष १ ॐ अर्हम् अनकान्त परमागमस्य बीजं निषिद्ध-जात्यन्ध- सिन्धुर-विधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमधनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ - श्रमतचन्द्रसूरिः । समन्तभद्राश्रम, करौल बाग़, देहली। आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, संवत् १९८७ वि०, वीर - निर्वाण सं० २४५६ धर्मस्थिति - निवेदन कहाँ वह जैनधर्म भगवान ! ( १ ) जाने जगको सत्य सुझायो, टालि अटल अज्ञान । वस्तुत कियो प्रतिष्ठित, अनुपम निज विज्ञान || कहाँ० ॥ (*) साम्यवादको प्रकृत प्रचारक, परम अहिंसावान | नीच -ऊँच निर्धनी धनी, जाकी दृष्टि समान || कहाँ | ( ३ ) देवतुल्य चाण्डाल बतायो, जो है समकितवान । AAAA शुद्र, म्लेच्छ, पशुहूने पायो, समवसरण में स्थान || कहाँ ० ॥ ( ४ ) सती-दाह, गिरिपात, जीवबलि, मांसाशन मद-पान | देवमूढ़ता आदि मेटिसच, कियो जगत कल्यान || कहाँ० || ( ५ ) कट्टर वैरीहूपै जाकी क्षमा, दयामय बान । हठ तजि, कियो अनेक मननकोसामंजस्य विधान || कहाँ० ॥ ( ६ ) अब तो रूप भयो कछु औरहि, सकहिं न हम पहिचान | समता - सत्य-प्रेमने इक सँग, यातें कियो पयान || कहाँ० ॥ नाथुराम प्रेमी A AAA किरण ८, ९, १० Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८,९,१० समाज-सम्बोधन दुर्भाग्य जैनसमाज, तेरा क्या दशा यह होगई! क्या तत्त्व खोजा था उन्होंने आत्म-जीवन के लिए ? कुछ भी नहीं अवशेष, गुण-गरिमा सभी तो खो गई ! किस मार्गपर चलते थे वे अपनी समुन्नतिके लिए ? शिक्षा उठी, दीक्षा उठी, विद्याभिरुचि जाती रही ! इत्यादि बातोंका नहीं तव व्यक्तियोंको ध्यान है । अज्ञान दुर्व्यसनादिसे मरणोन्मुग्वी काया हुई ! वे मोहनिद्रामें पड़े, उनको न अपना ज्ञान है । (२) वह सत्यता, समुदारता तुझमें नज़र पड़ती नहीं ! सर्वस्व यों खोकर हुआ तु दीन, हीन, अनाथ है। दृढ़ता नहीं, क्षमता नहीं, कृतविज्ञता कुछ भी नहीं! कैसा पतन तेरा हुआ, तु रूढ़ियोंका दास है ! सब धर्मनिष्ठा उठ गई, कुछ स्वाभिमान रहा नहीं! ये प्राणहारि-पिशाचिनी, क्यों जाल में इनके फँसा ? भुजबल नहीं, तपबल नहीं, पौरुष नहीं, साहस नहीं ! ल पिण्ड त इनमे छुड़ा,यदि चाहता अब भी जिया। क्या पूर्वजोका रक्त अब तरी नसोंमें है कहीं ? सब लुप्त होता देख गौरव जोश जो खाता नहीं। ठंडा हुआ उत्साह सारा, आत्मबल जाता रहा। उत्थानकी चर्चा नहीं, अब पतन ही भाता हहा !! जिस आत्म-बलको त भला बैठा उसे रख ज्ञान, क्या शक्तिशाली एक्य है, यह भी सदा रख ध्यानमें । निज पूर्वजोंका स्मरण कर, कर्तव्य पर आरूढ़ हो, बन स्वावलम्बी, गण-ग्राहक, कष्टमें न अधीर हो । पूर्वज हमारे कौन थे ? वे कृत्य क्या क्या कर गये ? सद्दृष्टि-ज्ञान-चरित्रका सुप्रचार हो जगमें सदा, किन किन उपायोंसे कठिन भवसिन्धको भी तर गये? यह धर्म है, उद्देश है; इससे न विचलित हो कदा । रखते थे कितना प्रेम वे निजधर्म-देश-समाजसे ? 'युग-वीर' बन यदि स्वपरहितमें लीन त हो जायगा, परहितमें क्यों संलग्न थे, मतलब न था कुछ स्वार्थमे? तो याद रग्व, सब दुःख संकट शीघ्र ही मिट जाय गा॥ - 'यगवीर साधु साधु-विवेक [लेग्वक-श्री० दलीपसिंहजी काराज़ी] असाधु वस्त्र रँगाते, मन न रँगात, कपट-जाल नित रचत हैं। राग, द्वेष जिनके नहिं मनमें, प्रायः विपिन विचरते हैं। 'हा । सुमरनी पेट कतरनी', परधन-वनिता तकते हैं । क्रोध, मान, मायादिक तजकर,पंच महाव्रत धरते हैं । आपा परकी खबर नहीं, परमार्थिक बातें करते हैं। ज्ञान-ध्यानमें लीनचित्त, विषयों में नहीं भटकते हैं । ऐसे ठगिया साधु जगतकी, गली गली में फिरते हैं ।। वे हैं साधु, पुनीत, हितैषी, नारक जो खुद तरते हैं । Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आषाढ, श्रावण, भाद्रपद वीरनि०सं०२४५६] जैन-मंत्रशास्त्र और 'ज्वालिनीमत' जैन-मंत्रशास्त्र और ज्वालिनीमत यद्यपि मंत्रवाद, जो कि योगका एक अंग है- नहाने धोने, खाने पीने, चलने फिरने, उठने बैठन, और जिसे 'मंत्रयोग' कहते हैं और जो जैन परिभाषामें हगने मूतने तककी प्रायः सभी क्रियाओंके साथ मंत्र 'पदस्थध्यान' के अन्तर्गत है,बहुत प्राचीन कालसं चला जड़ गये थे- मंत्रोंका महाग लिये बिना लोग इधर आता है; परन्तु भारतवर्षमें एक समय ऐसा भी आया उधर हिल-डुल नहीं सकते थे; मंत्रबलके द्वारा कुछ है जब कि इसकी खास तौरसे वृद्धि हुई है, इसमें अ- अतिशय-चमत्कार दिखलाना ही जब योग्यताका एक नंक शाखा-प्रतिशाखाएँ फटी हैं और यह आध्यात्मिक मार्टिफिकेट समझा जाता था, और जो लोग ऐसा विकामकी सीमासे निकल कर प्रायः लौकिक कार्यो- नहीं कर सकते थे उनका प्राय: कोई खास प्रभाव की सिद्धिका प्रधान साधन बना है। यह समय 'तान्त्रि- जनता पर अंकित नहीं होता था; बौद्ध भिक्षुओं कयग' कहलाता है । इस युगमें तान्त्रिकों-वैदिकधर्म- तकमें तान्त्रिकता फैल गई थी अथवा फैलनी प्रारंभ की एक शाखा विशिष्टके अनयायियों द्वारा मंत्रों, हो गई थी तब कितने ही अध्यात्मनिष्ठ जैन माध नंत्रों तथा यंत्रोंका बहुत कुछ आविष्कार और प्रचार भी इस लोकप्रवाहमें अपने को रोक नहीं सके, हुआ है, उन्हें ही लौकिक तथा पारलौकिक मभी का- और इमलिय उन्होंने भी ममयके अनुकूल अपने याँकी सिद्धिका एक आधार बनाया गया है और इन मंत्रवादको संस्कारित किया, अनंक अतिशय-चमविषयों पर सैकड़ों ग्रंथोंकी रचना की गई है। ये ग्रंथ त्कार दिग्वलाये, अपने मंत्रबलम जनताको मुग्ध 'तंत्रशास्त्र' या 'मंत्रशास्त्र' कहलाते है और इनमें प्रायः कर उन अपनी ओर आकर्पिन किया और लोगों पर मंत्र, तंत्र और यंत्र तीनो ही विपयोंका समावेश रहना यह भले प्रकार प्रमाणित कर दिया कि उनका मंत्रवाद है, जिन्हें साधारण बोलचाल में जाद, टोना और किसी भी कम नहीं है-प्रत्यत, बढ़ा चढ़ा है । माथ तावीज़-गण्डा समझिय । ही, उन्होंने कितने ही मंत्रशास्त्रांकी भी मृष्टि कर ___ जब देशका वातावरण मंत्रवादसे परिपर्ण था; डाली, जिन सबका मूल 'विद्यानुवाद' नामका १० वाँ अनेक प्रकारकं देवी-देवताओंकी कल्पना तथा आग- 'पर्व' बतलाया जाता है । धना-द्वारा अपनी इष्टसिद्धि करनेका बाजार गर्म था; इन जैन मुनियोंन 'विद्यानवाद' पूर्वमं जिन जिन आकर्षण, उच्चाटन, वशीकरण, स्तंभन, मारण, विद्वे- काँका आविर्भाव किया है, उनमेंम बहुतस कर्म ऐसे षण, शान्तिकरण और पष्टिकरण के प्रयोग मंत्रों-द्वारा भी है जो कुमार्ग और कुध्यानका विषय है और जिनकिये जाते थे; गेगोंकी चिकित्सा मंत्रोंद्वारा होती थी; की वाबन शुभचन्द्राचार्य ने अपने ज्ञानार्णव' में Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८,९,१० लिग्वा है कि वे कौतहलके लिये प्रकट किये गये हैं:- ही बतलाना चाहता हूँ कि उस समय जैनमंत्र-शास्रीबहूनि कर्माणि मुनि प्रबीरे की जो सृष्टि हुई और उनकी जो परम्परा चली उस विद्यानुवादात्प्रकटीकृतानि । मबके फलस्वरूप आज भी दिगम्बर और श्वेताम्बर असंख्यभेदानि कुतहलार्थ, दोनों ही सम्प्रदायोंके जैनमाहित्यमें बहुतसे मंत्रशाम्र कुमार्ग-कुध्यानमतानि सन्ति ।। ४०-४ ।। पाये जाते हैं । 'ज्ञानार्णव' आदि योग-विषयक ग्रंथाम 'पदस्थ' नामक धर्म्य ध्यान के अंतर्गत जो मंत्रवाद पाया मुनियोंका यह 'कौतहलार्थ' कार्य सिवाय इसके जाता है, उसे छोड़ कर दिगम्बर मंत्रशास्त्रों में कुछक और कुछ समझमें नहीं आता कि उन्होंने लोकमें नाम इस प्रकार हैं:- १ ज्वालिनीमत, २ विद्यानशाअपनी प्रनिष्ठाको नथा भ्रमवश जैनशामनकी प्रतिष्ठा मन, ०३ ज्वालिनीकल्प, ४ भैरव-पद्मावतीकल्प, ५ को भी कायम रग्वनके लिय वैमा करना ज़रूरी भारतीकल्प, ६ कामचाण्डालीकल्प, बालग्रहचिकित्मा, समझा। अन्यथा, जैनमुनियाँक लियं म्वप्नमें भी ८ ऋपिमंडलयंत्र-पजा, ९ श्रीदेवताकल्प, १८ मगम्बकानुहलके तौर पर ऐम अमन ध्यानाक भवनका तीकल्प, ११ नमाका विधान नहीं है; क्योंकि कौतुकम्पस भी किये हुए ___इनमें में पहला ग्रंथ इन्द्रनन्दियोगीन्द्र का, नं०२ में म ध्यान मन्मार्गी हानिक लिय बीज रूप हो पड़ने ७ तक छह ग्रन्थ मल्लिपण आचार्यके, ८ वाँ ग्रंथ गणहैं अथवा अपने ही नाशका कारगा बन जाते हैं। जमा नन्दी मुनिका, वाँ अरिष्टनेमि भट्टारक का, १०वाँ अहकि श्रीशुभचन्द्राचायक निम्न वाक्यांम प्रकट है: हामका. और ११ वाँ सिंहनन्दीका बनाया हुआ है । स्वप्नेऽपि कौतकनापि,नाऽपद्ध्यानानि योगिभिः । पापा । इनके सिवाय, गणधरवलय कल्प, ब्रह्मदेवस्तात्र, पद्मामेव्यानि यान्ति वीजत्वं यतः मन्मागेहानय ।।६।। वतीम्तात्र, ज्वालिनीम्तात्र, पार्श्वनाथम्तात्र, कूष्मा असद्भ्यानानि जायन्ते म्बनाशायंव कवलम् । गनीम्तोत्र, मरम्वतीम्तांत्र, कलिकुंडपजा, घंटाकणगगाद्यमद् ग्रहावेशाकोनकन कृतान्यपि ।। ८ ।। तात्र, बीजकोश और हनमत्पताकाविधि आदि और -जानार्णव ४० वॉ मर्ग। भी कितने ही ग्रन्थ अथवा प्रकरगा पाये जान हैं, जो इममें मदह नहीं कि काम-क्रोधादि-वीभन क्षुद्र सब मंत्रांक अनशामनका लिये हुए हैं; परन्तु इन। देवताओंकी आराधना को लिये हुए गम कुध्यानाम रचयिताप्राक नाम मुझे इम ममय ठीक मालूम नहीं, पड़कर कितने ही मुनि अपने उच्च आदर्शमें अपने मंभव है कि इनमें कोई श्वेताम्बराचार्यकी कृति भी हो, आध्यात्मिक विकासक दृष्टि-बिन्दुमच्युत होकर पतित प्रायः ये सब ग्रंथ बम्बईक गलक पन्नालाल-सरस्वती हुए है, और इमानिय जैन शास्त्रोंमें जगह जगह भवनमें मौजूद हैं और अन्यत्र भी पाये जाते हैं। इनमें मनियोंका इस प्रकार के मंत्र-तंत्र-यंत्रादिककं झगड़ाम से नं०८ का 'ऋषिमंडलयंत्र-पूजा, नामका प्रन्थ भाषा पड़नका निषेध किया है-भले ही गृहस्थ लोग उनका टीका-सहित छप चुका है। 'बीजकोश' गद्यमय और कुछ अन्मान करें। परन्तु यहाँ पर इम विषयको कोई पद्यमय दोनों प्रकारकं पाये जाते हैं। इनमें मंत्रोंक विशेष चर्चा करनेका अवसर नहीं है । मैं सिर्फ इतना बीजाक्षरों का परिचय है-अर्थात् यह बतलाया गया है Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन- मंत्रशास्त्र और 'ज्वालिनीमत' ४२९ है, जिसमें चौबीस अधिकार तथा पाँच हजार मंत्र हैं । जैसा कि उसके निम्न वाक्यों से प्रकट है:अथ मंत्रिलक्षण विधिर्मत्राणां लक्ष्म सर्वपरिभाषा । सामान्य मंत्र साधन वृक्तिः सामान्य मंत्राणाम् ॥ १ गर्भोत्पत्तिविधानं बालचिकित्सा ग्रहोपसंग्रहणं । विषहरणं फरिणतंत्रं मण्डन्यायपनयोरुजां शमनम् कृतरुथो मृत्प्रतिविमुच्चाटनं च विद्वेषः । स्तंभः शान्तिः पुष्टिर्वश्या स्त्र्याकर्षणं नर्म || ३ | धारिताया प्रयत्नेन रिपुसैन्यस्य सम्मुखे ।। ३२ । अधिकाराणां शास्त्रेऽस्मिन्निमं चतुर्विशनिः क्रमात्कथि ताः । त्रसहस्राण्यस्य मत्राणां भवति संख्यानम् ॥ २ तम्या दर्शनमात्रेण व्याकुलीकृतमानसः । नश्यन्ति रिपवस्तस्य सिंहस्यैव मृगा यथा ।। ३३ उपलब्ध दिगम्बर साहित्य में मंत्रशास्त्र के सबसे अधिक ग्रन्थ मल्लिषेणाचार्यके पाये जाते हैं । आप बड़े मन्त्रवादी थे - महापुराण में आपने अपनेको खास तौर से 'गरुडवादी' लिखा है और साथ ही सरस्वती आप कोई वर भी प्राप्त थे, जिसका उल्लेख आपने 'भैरवपद्मावतीकल्पमें सरस्वतीवरमादः इन स्पष्ट शब्दोंमें किया है और दूसरे ग्रन्थों में 'बारवनालंकृतः' 'वाग्देवतालक्षित नाव्यक्त्रः' 'लब्धवाणीपसाउन इस प्रकार के विशेषणपदों द्वारा उसकी सूचना की है। आप 'उभय भापाकविशेखर'की पदवी विभूषित थे और 'नागकुमार काव्य ' तथा ‘महापुराण' की रचना पहले 'उमयमा पाकवि चक्रवर्ती' की पदवीको भी प्राप्त हो चुके थे, इससे आप उसका उल्लेख अपने इन दो ग्रन्थोंम कर सके है। आप अजित सेनानायके प्रशिष्य जिनसेनाचार्य के शिष्य थे और आपका समय विक्रमकी ११ वीं तथा १२ वीं शताब्दी है, क्योंकि आपका 'महापुराण' शक संवन ९६९ (वि० ११०४) में बन कर समाप्त हुआ है। मंत्रशास्त्रका आपका सबसे बड़ा ग्रन्थ ' विधानुशासन' आषाढ श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६ ] कि कौन बीजाक्षर किस अर्थमें अथवा किस कार्यसि द्धिके लिये प्रयुक्त होता है। हनुमत्पताकाविधिके अन्त में निम्न दो पद्म पाये जाते हैं, जिनमें बतलाया है कि इस हनुमन्तपताकाको गजके ऊपर स्थापित कर के यदि शत्रु - मैन्यके सम्मुख रखा जाय तो उस... दर्शनमात्र से शत्रु व्याकुल होकर नाशको प्राप्त हो जाते हैं, अथवा भाग जाते हैं, जैसे सिंहको देख कर मृग :मन्तपताकेयं गजस्योपरि संस्थिता । मंत्रशास्त्र के नामोमे जो 'कल्प' शब्दका प्रयोग पाया जाता है उसका अर्थ प्रायः 'मन्त्रवाद' है और जिस देवताका नाम उसके साथ में जुड़ा हुआ है उसे उस देवताका मंत्रवाद समझना चाहिये । कल्पका अर्थ 'सिद्धान्त' तथा 'मत' का भी है, और इस अर्थ में भी वह अनेक स्थानों पर प्रयुक्त हुआ है-इसीस 'ज्वालिनीमत' को 'ज्वालिनीकल्प' और 'ज्वालिनीमंत्रवाद' इन नामोंस भी उसी ग्रन्थ में उल्लेखित किया है । मल्लिके 'भैरवपद्मावती कल्प' में १ साधकलक्षर, २ मकलीकरण, ३ देवीपूजाक्रम, ४ द्वादशयंत्रभेदकथन, ५ स्तंभन, ६ स्त्रियोंका आकर्षण, ७ वशीकरणमंत्र, ८ अपनिमित्त, ९ वश्योपध और १० गारुड, ऐसे दस अधिकार हैं । इस ग्रंथ पर खुद ग्रंथकारने अपनी टीका भी लिम्बी । इसमें 'पद्मावती' देवीके पद्मा भिन्न १ त्रांतला, २ त्वरिता, ३ नित्या, ४ त्रिपूरा, ५ कामसाधनी, ६ त्रिपुरभैरवी ऐसे छह नाम और दिये हैं और फिर इन ग्रहों का भी अलग अ * त्रोतला त्वरिता नित्या त्रिपुरा कामसाधनी । देव्या नामानि पद्मायास्तथा त्रिपुरभैरवी ॥ ३ ॥ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० अनेकान्त वर्ष १, किरण ८, ९, १० लग स्वरूप दिया है और इस तरह पद्मावतीको सप्त स्त्री-गौ तथा मुनिके घातका जो पाप लगता है वह तुमरूप धारिणी प्रतिपादित किया है। वे मातों रूप इम का लगेगा, ऐसा शाप देकर गुरुदेवके सन्मुख मंत्रप्रकार हैं : वादी दूसरंको मंत्र समर्पित करे।' १ जिसके चार हाथों में क्रमशः पाश, फल, ___'कामचाण्डालीकल्प' में भी मंत्र देनेके विषयमें वरद तथा अंकुश हैं, कमलका आसन है, तीन इसी प्रकारकी विज्ञापना की गई है । इस ग्रंथमें ? नत्र हैं और रक्त पष्पकी समान जिमकं शरीर- माधक, २ देवीका आराधन, ३ अशेषजनवशीकरण की आभा है वह पद्मा २ जिसके हाथों में पाश, ४ यंत्र तंत्र और ५ ज्वालागर्दभलक्षण नामके पाँच वन, फल तथा कमल हैं वह बानला: ३ जिसके हा- अधिकार हैं और कामचण्डाली की स्तुति करते हए थोंमें शंख, पद्म, अभया तथा वरद हैं और प्रभा अरुण उमका म्वरूप इस प्रकार दिया है:है वह हरिताः ४ जिमके हाथों में पाश, अंकुश, भपिताभग्णः सर्वैर्मुक्तकशा निरम्परा । कमल तथा अक्षमाला है, और जो हम वाहिनी, पातु मां कामचाण्डाली कृष्णवर्णा चतुर्भजा ॥२ अमण प्रभाको लिये हुए तथा जटामें बाल चंद्रमाम फलकांचकलशकरा शान्पलिदण्डाद्धमुरगोपेना । मंडित है वह नित्या. ५ जिमकी आठ भजाग क्रम- जयतात त्रिभवनवन्या जगति श्रीकामचाण्डाली ३ शः शल, चक्र, कशा, कमल, चाप, बागा, फल, अकुश अर्थात-जा मब आभूषणोंसे भूषित है, वस्त्रर - III म शोभित है और जो कुंकुम प्रभाको लिये हुए है वह नियमिक हित नग्न है, सिरके बाल जिसके खुले हुए हैं वह त्रिपुरा: ६ जिसके हाथोंमें शंग्व, पद्म, फल तथा कम श्यामवर्णा चतुर्भुजा कामचण्डाली मेरी रक्षा करो। ल हैं, बन्धक पुष्पकी समान जिसकी भा है और जिसके हाथों में फल, कांच ( ? ) कलश हैं, जो कुक्कुट त मा मप जिसका वाहन है वह काममाधनी, शाल्मलिदण्डको लिये हुए हैं और सर्पस युक्त है वह ७ और जिसकी भजाएँ क्रमशः पाश,चक्र,धनुष,बाण, त्रिभवनवन्दनीया कामदएडाली देवी जयवंत हो । वेट, वन, फल, कमलसं शोभित हैं, जो इन्द्र गांपकी मल्लिपणाचार्यकं प्रन्यांसे लगभग एक शताब्दी श्राभाको लिय हुए है और जिसके तीन नेत्र है वह पहलेका बना हुआ 'ज्यालिनीमन' नामका मंत्रशास्त्र त्रिपुरभैरवी नामकी पद्मावती है। है, जिसे 'ज्वालिनीकल्प और ज्वालिनीमन्त्रवाद' ग्रंथके अंत में मंत्रदानविधिको बतलाते हुए लिग्वा भी कहते हैं-संधियों में सर्वत्र 'ज्वालिनीमत' नामका है कि हमने यह गुरुपरम्पगमे आया हुआ मंत्र अग्नि, ही उल्लेख है। यह ग्रन्थ शक संवत् ८६१ ( वि०सं० मर्य,चंद्रमा, तारों, आकाश और पर्वतोंकी साक्षी करकं ५९६)के अतीत होने पर अक्षय तृतीया (वैशाख शु०३) आपको दिया है आप भी इस किसीसम्यक्त्वरहित पुरु- के दिन मान्यग्वेट गेजधानीमें, जहाँ श्रीकृष्णराजका पको न देवें, किन्तु जिनधर्म तथा गुरुजनोंकी भक्तिस युक्त राज्य प्रवर्तमान था, बन कर समाप्त हुआ है, और पुरुषको ही देना चाहिये, यदि तुम किसी लाभके वश इसकी श्लोकसंख्या ५०० है, जैसा कि इसके निम्न या स्नेहसे किसी अन्य धर्मके भक्त का दोगे तो बाल- अन्तिम पद्योंम प्रकट है : Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आषाढ, श्रावण,भाद्रपद वीरनि०सं०२४५६] जैन-मंत्रशास्त्र और 'ज्वालिनीमत' ४३१ अष्टाशतसैकषष्ठिप्रमाणशकवत्सरेष्क्तीतेषु । 'दक्षिण भारतके अन्तर्गत मलय देशक हेमप्राममें श्रीमान्यखेटकट के पर्वण्यक्षयतृतीयायाम ॥ (जिसे टिप्पणीमें कर्णाटक भापाका 'हान्नूर' प्राम ब " तलाया है ) द्रविडगणके अधीश्वर एक धीमान् मुनि शतदलसहित चतुःशतपरिमाणग्रन्थरचनयायुक्त महात्मा रहते थे, जिनका नाम 'हेलाचार्य' था । (टिश्रीकृष्णराजराज्ये समाप्त पेतन्मतं देव्याः ॥ प्पणी में आपका 'एलाचार्य' रूपमै भी उल्लेखित उक्त सब ग्रंथों में यह ग्रंथ सबसे अधिक प्राचीन किया है)। कमल श्री आपकी शिया थी, जो सपुर्ण जान पड़ता है और इसका साहित्य भी दूसरोंकी अ शाम्रोको जानने वाली मानो श्रुतदेवी ही थी। कर्मयोगसे पेक्षा प्रौढताको लिये हुए है। इस पर टिप्पणी भी वह ब्रह्मराक्षस नामके किसी रौद्र प्रहके द्वारा गृहीत मिलती है; परन्तु वह किसके द्वारा की गई है इसका हुई, और इसलिये संध्याके समय वह कभी हाहाकार उस परसे कुछ पता नहीं चल सका । यह ग्रन्थ जिन करके रोती थी, कभी अट्टहास करती थी, कभी इ-द्रनन्दि योगीन्द्रका रचा हुआ है वे वपनणंदि के जप करने लगती थी, कभी वेदोंको पढ़ने लगती थी शिष्य तथा 'वासवनन्दि' के प्रशिष्य थे और वामव और फिर कहक़हा लगा कर हँस पडती थी; कभी नन्दिकं गम एक दूसरे इन्द्रनन्दि मुनीन्द्र थे । ग्रन्थ- गर्वकं माथ कहने लगी थी कि ऐसा कौन मंत्रवादी है कारने अपने इन तीनों पर्व गाओंका गणवर्णनादि- जो अपनी मंत्रशक्तिमे मुझे छुड़ाए, और कभी विकाररूपसे कितना ही परिचय दिया है परन्तु वह यहाँ पर भावका लिये जॅभाई लेने लगती थी। उसे इस प्रकार अप्रस्तुत होने से छोड़ा जाता है। हाँ, ग्रन्थके शुरुमे अतिदुष्ट गहस परिपीडित दग्व कर और उसके प्रत्यपाय ग्रन्थकी उत्पत्तिका जो क्रम दिया है वह बडा हीरांचक के विपयम किकर्तव्यविमूढ होकर व मुनि महाराज जान पड़ता है और इस मंत्रशास्त्रकी मूलत्पत्तिकं बहुत ही आकुलचित्त हुए । अन्तको उन्होने कमल श्रीका माथ खास तौरस सम्बद्ध है। अतः उसका परिचय ग्रह छुड़ानके लिये उस ग्राम (होन्नर) के निकट नीलनीचे दिया जाता है: गिरि पर्वतके शिश्वर पर विधिपूर्वक ज्वालामालिनीदेवी की साधना का। मंगलाचरण और प्रन्थ रचनकी प्रतिज्ञाकं चार मात दिनकी माधनाके बाद वह देवी प्रत्यक्ष हो श्लोकी * के बाद, जिनमें 'ज्वालिनी (ज्वालामालिनी) । दवीका म्वरूप भी आ जाता है, ग्रन्थकार महोदय कर मुनिमहाराज के मामने ग्बड़ी हो गई और बोली 'ह आर्य कहिये आपका क्या काम है।' इम पर हेलालिखते है: चार्य बाल–ह दवि, मैंन काम-श्रादि किमी लौकिक य चाग नाक इग प्रकार है - फल सिद्धि के लिये तुम्हे अवरुद्ध नहीं किया है-नहीं रांका :-किन्तु कमलश्रीका ग्रह छुड़ाने के लिये गेका चंद्रप्रभजननाथं चन्द्रप्रभमिन्द्रणदिमहिमानम । है; अन. ग्रहम छुटकारा दिलाइये, इतना ही मेरा कार्य जालामलिन्यचितचरणसरोज द्वयं वन्द ॥ १ ॥ है।' आचार्य श्रीके वचनको सुन कर देवीनं कहा 'तो कुमुददलधवलगावा महिपमहावाहनांज्वलाभरणा । यह कौनसी बड़ी बात है? आप मनमें जरा भी ग्वेद न मा पातु वन्हिदेवी ज्वालामालाकगलाङ्गी ॥२॥ कीजिये और इम मंत्रस ग्रहका मांचन कीजिये,' यह जयताद्देवी ज्वालामालिन्युद्यस्त्रिशलपाशझष कह कर मदतर श्रायमपत्र पर मंत्रको लिख कर उसे कोदण्डकाण्डफलवरदचक्रचिन्हों ज्वलाष्टभुजा ॥३॥ मुनिजीका दे दिया । उस मंत्रीकी विधिको न जानते अर्हत्सिद्धाचार्यो पाध्यायान सकलसाधु मुनिमुख्यान । हुग मुनिजीन फिर देवीम कहा 'मैं इस मंत्रकी बाबत प्रणिपत्य मुहुर्मुहुरपि वक्ष्येऽहं ज्वालिनीकल्पम ॥ ४॥ कुछ भी नहीं जानता हूँ, अतः म्पट करके मंत्रागधन, Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८,५,१० क्रमको बतलाइये ।' तब उस ज्वालिनी देवीने एलाचार्य आर्या छंदों तथा गीतादि छंदोंमें इस ग्रंथकी रचना की जीको मंत्रका माग रहस्य व्याख्या करके ममझाया है। इसमें हेलाचार्यका कहा हुआ अर्थ हीग्रन्थपरावर्तन और फिर भी उनकी भक्तिके वश वह मंत्र उन्हें बतौर (शब्दादिपरिवर्तन) के द्वारा निबद्ध हुआ है । यह ग्रंथ मिद्धविद्याके दे दिया और माथ ही यह कह दिया कि सकल जगतको अपूर्व विस्मयजनक तथा जनसमूह आप होमजपके बिना भी जिस किमीका माधनविधि के लिये हितकारी है। अतः इमको सुनो।' म : यह मंत्र देंगे वह भी मिद्धविद्य हो जायगा। इस कथनके पिछले दा पा इस प्रकार हैं:और यदि नहीं दोगे तो जो सिद्ध करना चाह वह ग्म क्लिष्टग्रंथं प्राक्तनशास्त्रं तदिति स चमि निधाय । गगीक उद्यानवनमें, जिनमंदिरमें, नदी किनारं,पुलिन पर, गिरिशिग्वर पर अथवा अन्य किमी निर्जन्तुक तनेन्द्रनन्दिमुनिना ललितायोक्त्तगीतायः॥२६॥ स्थान पर स्थित होकर द्रव्यमनमें अधिष्ठितभाव मनके हेलाचार्योक्तार्थ ग्रन्थपगवर्त्तनेन रचितमिदम् । द्वारा एक लक्षप्रमाण मंत्रक जाप कर के और दम सकलजगदेकविम्मयजननं जनहितकरं शृणत।। ७ हजार संख्या प्रमाग होम करके मिद्धिको प्राप्त करें' गमा कहकर वह देवी अपने स्थान को चली गई। इस परिचयमं यह स्पष्ट जाना जाता है कि यह ___ एलाचार्यन तब वहीं बैठे हुए उस दुष्ट ब्रह्मराक्षस शस्त्र और भी अधिक प्राचीन है और इसकी प्रथमसृष्टि का दहनाक्षराक द्वारा दंदह्यमान चिन्तवन करके रात .. हलाचार्य'के द्वारा हुई है, जिन्हें 'एलाचार्य' भी कहते चिल्लाते हुए को निकाल बाहर किया। एक ही भूत हैं । इंद्रनंदिने महज़ भाषादिक अथवा शब्द-छन्दादिकदहनस्वरूप र र र र बीजाक्षरका ध्यान करके जब के परिवर्तन-द्वाग उमं कुछ सरल बना कर यह नुतन ग्रह निर्घाटित हो जाता है तो शेप दम निग्रहांक संस्करण उपस्थित किया है। इमीम ग्रन्थकी सब लिये ऐसा कौनमा ग्रह है जो असाध्य हो ? काईमी मंधियाम गथका विशपण 'हलाचार्यप्रणीताथ' दिया नहीं । अस्तु दवा के आदशमं कम मुनिमहागज तब है, जिसका एक नमूना इस प्रकार है:'चा.लनामन' नामक शास्त्र की रचना की। वह इति हेलाच र्यप्रणीनार्थ श्रीमदिन्द्रनन्दिशास्त्र उनके शिष्य गाङ्गमुनि को प्राप्त हुआ; फिर योगीन्द्रविर्गचितग्रंथसन्दर्भ ज्वालिनीमते मंत्रिक्रमशः नील ग्रोव, गजावाख्य, आया ना तरब्बा लक्षणनिरूपणात्रिकारः प्रथमः। और क्षुल्लक विन्वट्ट को उसकी प्राप्ति हुई ।टम गम्परि- इस मंत्रशास्त्रम , मंत्री, २ गह, ३ मुद्रा, ४ मंडल, पाटीम वह अविच्छिन्न मंप्रदायक द्वारा चना अाया। मा ५ कटनेल, वश्ययंत्र, ७ सुतंत्र, ८ म्नपनविधि, नीराश्रोग तब उसका ज्ञानकन्द पाचार्यको हा। रन्धान जनविधि और साधनविधि नामक दम अधिकार है, जिनी क्रमशः विषयका वर्णन किया गया है। इनमें से अपने पुत्रसमान गादि मुनिको उपदशमहित कुछ का परिचय 'अनेकान्त'की अगली किरणमे दिया 'ज्वालिनीमन' की व्याख्या की। इन दाना मुनियां जायगा,और उनसे पाठकों को कितनीही नईबातेमालम (कन्दपाचार्य और गणनन्दी) को पासम इन्द्र नान्द हांगी और यह समझमें आसकंगा कि मंत्रसाधन करने मुनिने उस शास्त्रका सूत्ररूप (शब्दशः) तथा अर्थ रूप- वालामंत्री कैमा होना चाहिय-कौन इस मंत्रसाधनमे मविशेष अध्ययन किया। प्राक्तनशास्त्र क्लिष्ट प्रन्थ का पात्र तथा कौन अपात्र है,-ग्रहोंक कितनं भेद हैं, है, ऐमाविचार कर उमा दनाद' मुनिने ललिन- कैसे पुरुष-स्त्रियोंको ग्रह लगते हैं और किस ग्रहके ल 'माधनविधिना' पद पर निःमान माधनकोरेगा गर्नम क्या चेष्टा होती है, इत्यादि। निगीदी है। जुगलकिशोर मुग्तार Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] जैनियोंका अत्याचार ४३३ PREMKS PER जैनियोंका अत्याचार तो जैनी वनस्पतिकायके जीवोंकी भी रक्षा करते यह कभी हो नहीं सकता कि अत्याचार तो करें हैं, उनके ऊपर अत्याचारके दोपका आगपण दसरे लोग और फल उसका भोगना पड़े जैनिहोते देख बहतसे पाठक चौंकेंगे-परन्तु नहीं, चाकन योंको । जैन फिलासोफी इमको मानने के लिए तैयार की जरूरत नहीं है । वास्तवमें जैनियान घोर अत्याचार नहीं । यदि थोड़ी देर के लिए उस मनुष्यको भी जिमकिया है और वे अब भी कर रहे हैं । हमारे भाइयोंने पर अत्याचार किया गया हो, कोई बुरा फल महन अभी तक इस ओर लक्ष्य ही नहीं दिया और न कभी करना हो अथवा किसी आपत्तिका निशाना बनना पड़े एकान्नमें बैठकर इमपर विचार ही किया । यदि जैनि तो कहना होगा कि उसने भी ज़रूर अपनी चेष्टा या यांके अत्याचारकी मात्रा बढ़ी हुई न होती तो आज अपने मन-वचनादिक द्वारा दूसगंके प्रति कोई अत्याजैनियोंका इतना पतन कदापि न होता-जैनियोकी चारविशेष किया है और वह वग फल उसके ही किमी यह दुर्दशा कभी न होती । जैनियांका ममम्न अभ्युदय कर्मविशेपका नतीजा है । यही हालनजैनसमाजकी है। नष्ट हो जाना, इनके ज्ञान-विज्ञानका नामशेप रह जाना, यद्यपि इममें कोई संदेह नहीं कि पिछले समयमें जैनिअपन बल-पराक्रमस जैनियोका हाथ धो बैठना, अपना यों पर थोड़े बहुत अत्याचार ज़रूर हुए हैं ; परन्तु वे राज्य गँवा देना, धर्मम च्यन और आचारभ्रष्ट हो जाना अत्याचार जैनियोंकी वर्तमान दशाकं कारण नहीं हो नथा जैनियोंकी संख्याका दिनपदिन कम होन जाना सकतं । जैनियोंकी वर्तमान अवस्था कदापि उनका फल और जैनियोंका सर्व प्रकारसे नगण्य और निम्तन न नहीं है । यदि जैनियान उन अत्याचागेको मनुष्य बनहां रहना, यह सब अवश्य ही कुछ अर्थ रखता है- कर मह लिया होता और स्वयं उनसे अधिक प्रत्याइन सबका कोई प्रधान कारण ज़रूर है; और वह चार न किया होना ना ज़रूर था कि यह जैनबारा निगोंका अत्याचार है। (जनम माज) दृमगंक अत्याचाररूपी ग्वाद(Manur) __ जिस समय हम जैन सिद्धान्तको दंग्वन हैं, जैनि- में और भी हगभग और मर सत्ज़ हाता-खब फलता योकी कर्म-फिलामाफीका अध्ययन करते हैं और साथ और फूलता; परन्तु जैनियोंका एमी मवद्धि हा उत्पन्न ही, जैनियोंकी यह पनितावस्था क्यों ? लौकिक और नहीं हुई । उनके विचार प्राय इतनः मंकीर्ण और म्वापरमार्थिक दोनों प्रकारकी उन्नतिम जैनी इनने पीछे थमय रह हैं कि सदमद्विवेकवती बद्धिको उनके पास क्यो ? इस विषय पर अनमंधानपूर्वक गंभीर भावने फटकनमें भी लज्जा आती थी। अत्याचार और भी गहरा विचार करते हैं तो उस समय हमको मालूम अनक धर्मानुयायियोंको सहन करने पड़े हैं; परन्तु उनहोना है और कहना पड़ता है कि यह सब जैनियोंके में जिन्होंने अपने कर्तव्यपथको नहीं छोड़ा, अपने अपने ही कोका फल है। जो जैसा करता है वह वैसा सामाजिक सुधारको समझा, उन्नतिक मार्गको पहचाना, ही फल पाता है । अवश्य ही जैनियान कुछ ऐसे काम अपनी त्रुटियों को दूर किया, सवको प्रेमकी दृष्टिस किये हैं जिनका कटक फल व अब तक भुगत रहे हैं। देवा और अपने स्वार्थको गौण कर दृमगंका हिनसाधन Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८, ९, १० किया, वे दुखके दिन व्यतीत करके आज अपने सत्क- जिस प्रकार कोई दुरात्मा पुत्र अपने स्वार्थमें अंधा मोका सुमधुर फल भोग रहे हैं । इससे साफ प्रगट है. होकर यह चाहता है कि मैं अकेला ही पैतृक सम्पत्तिका कि जैनियोंकी वर्तमान दशा उन अत्याचारोंका फल नहीं मालिक बन बैलूं और अपनी इस कामनाको पूरा करहै जो जैनियोंपर हुए, बल्कि उन अत्याचारोंका फल नेके लिए वह अपने पिताके समस्त धन पर अधिकार है जो जैनिये योंन दूसरोंपर किये और जो परस्पर कर लेता है-यदि पिताने काई वसीयत भी की हो तो जैनियोंने एक दूसरे पर किये । सच है, मनष्योंका उसको छिपानेकी चेष्टा करता है और अपने उन भाअपने ही कर्मों से पतन और अपने ही काँसे इयोंको.जो दूरदेशान्तरों में रहनेवाले हैं, जो नाबालिग़ उत्थान होना है। जिन जैनियोंके ज्ञान और प्राच- (अव्युत्पन्न) है, जो भोले या मूर्ख हैं, जिनको अन्य रणकी किसी समय चारों ओर धाकथी, जिन सर्व प्रकारसे पिताके धनकी कुछ खबर नहीं है अथवा जो प्राणिप्रेमनं अनेक बार जगतको हिला दिया, और जि निर्बल हैं उन सबको अनेक उपायों-द्वारा पैतृक सम्पनका राज्य समुद्रपर्यंत फैला हुआ था; आज वे ही त्तिसे वंचित कर देता है । उस इस बातका जरा भी जैनी बिलकुल ही रंक बन हुए हैं ! यह सब जैनियोंके दुख-दर्द नहीं होता कि मेरे भाइयोंकी क्या हालत होगी? अपने ही कोका फल है ! इसके लिए किसीको दोष उनके दिन कैंस कटेंगे ? और न कभी इस बातका देना-किसी पर इलज़ाम लगाना भल है। जैनियोंकी खयाल हा आता है कि मैं अपने भाइयों पर कितना वर्तमान सि.ति इस बातका बतला रही है कि उन्होंने अन्याय और अत्याचार कर रहा हूँ, मेगव्यवहार किजरूर कोई भार्ग अत्याचार किये हैं; तभी उनकीसी तना अनुचित है, मैं अपने पिताको आत्माकं सन्मुख शोचनीय दशा हुई है। क्या मुँह दिखाऊँगा । उसके विवेकनेत्र बिलकुल जैनियोंन एक बड़ा भाग अपराध तो यह किया है __ म्वार्थस बन्द हो जाते हैं और उसका हृदययंत्र संकुचित कि इन्होंने दूसरे लोगोका धर्मम वंचित रक्खा है। ये ग्बुद हो कर अपना कार्य करना छोड़ देता है । ठीक उसी ही धर्मरत्नक भंडारी और खुद ही उसके सोल प्रोप्राई प्रकार की घटना जैनियोंकी हुई है। ये अकेले ही परमटर (अकेले ही मालिक) बन बैठे । दूसरे लोगोंका पिता श्रीनीगजिनेन्द्रकी सम्पत्तिके अधिकारी बन बैठे। दूसरे समाज-वालों तथा दूसरे देशनिवामियोंको-धर्म "समस्त जीव परस्पा समान है; जैनधर्म आत्माबतलाना, धर्मक मार्ग पर लगाना तो दूर रहा, इन्होंने का निजधर्म है प्राणीमात्र इस धर्मका अधिकाउलटा उन लोगोंसे धर्मको छिपाया है । इनकी अनुदार री है: सबको जैनधर्म बतलाना चाहिए और दृष्टि में दूसरे लोग प्रायःबड़ी ही घणाके पात्र रहे हैं,वे मनुष्य होते हुए भी मनुष्यधर्मके अधिकारी नहीं समझे सबको प्रेमकी दृष्टिसे देखते हुए उनके उत्थानगये ! यद्यपि जैनी अपने मंदिगमें यह तो बराबरीप का यत्न करना चाहिए । ' वीर जिनेंद्रकी इस णा करते रहे कि मिथ्यात्व : समान इस जीवका काई वसीयतका-उनके इस पवित्र आदेशको-इन स्वाशत्र नहीं है, मिथ्यात्व ही संसार में परिभ्रमण करान- र्थी पुत्रीने छिपानेकी पूर्णरूपसे चेष्टा की है। इन्होंने वाला और समस्त दुःखों का मूल कारण है । परन्तु अनेक उपाय करके अपने दूसरे भाइयोंको धर्मम कोरा मिथ्यात्वमें फंसे हुए प्राणियों पर इन्हें जरा भी दया रक्खा, उनकी हालत पर जरा भी रहम नहीं खाया नहीं आई, उनकी हालत पर इन्होंने जरा भी तरस नहीं और न कभी अपने इस अन्याय,अत्याचार और अनचिखाया और न मिथ्यात्व छुड़ानेका कोई यत्नही किया। त व्यवहार पर विचार या पश्चाताप ही किया । बल्कि इनका चित इतना कठोर हो गया कि दूसरोंके दुखसु- जैनियों का यह अत्याचार बहुत कुछ अंशोंमें उस स्वार्थाखसे इन्होंने कुछ सम्बन्ध ही नहीं रक्खा । न्ध पत्रके अत्याचारसे भी बढ़ा रहा । क्योंकि किसी Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साबाद, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] जैनियोंका अत्याचार ४३५ भिकारीको धनादिकसे वंचित रखना, यद्यपि, अत्या- देखता हुआ भी आनंदसे हुक्का गड़गड़ाता रहे और बार जरूर है परन्तु जान बूझकर किसीको आत्मला- उसके बचानकी कुछ भी कोशिश न करे तो कहना से वंचित रखना, यह उससे कहीं बढ़कर अत्याचार होगा कि वह महा अपराधी है । जैनी लोग इस बात मेरा तो, इस विषयमें यहांतक खयाल है कि यह को बराबर स्वीकार करते आए हैं कि मिध्यादृष्टि लोग अत्याचार किसीको जानसे मार डालनेकी अपेक्षा भी अंधे होते हैं उन्हें हित अहित कुछ भी सझ नहीं अधिक है। धनादिक पर पदार्थों का वियोग इतना दुःख- पड़ता-परन्तु जैनियोंके सन्मुख ही लाखों और जनक नहीं हो सकता जितना कि प्रात्मलाभसे वंचित करोड़ों मिथ्यादृष्टि अन्याय,अभक्ष्य और अतत्त्वश्रद्धारहना । जो लोग अपनी आत्माको जानते हैं,अपन स्व- रूपी कुएमें बराबर गिरते रहे तो भी इन मधियों को पको पहचानते हैं, धर्म क्या और अधर्म क्या इस- उनपर जरा भी दया न आई । इन्होंने अपने मौनव्रतका जिन्हें बोध है, उनको धनादिकका वियोग भी इत- को भंगकर उनके बचाने या निकालनकी कुछ भी चेष्टा ना कष्टकर नहीं होता जितना कि न जानने और न नहीं की। और तो क्या, इनके सामने ही बहुतमे इनपहचानने वालोंको होता है । इसलिए दूसरोंको धमसे के भाइयों (जैनियों) का धर्मधन लूट लिया गया और वंचित रखना उनके लिए घार दुःखोंकी सामग्री तैयार व मिथ्यादृष्टि बना दिये गये; परन्तु फिर भी इनके करना है। क्या इस अत्यचारका भी कहीं ठिकाना है ? कठोर चित्त पर कुछ आघात नहीं पहुँचा। ये बराबर शांक ऐसा महान् अत्याचार करने वाले जैनियांका अपने आनन्द में मस्त रहे । कोई जीया या मरो, इन्होंपाषाणहृदय, दूसरोक दुःखोंका म्मरण ही नहीं किन्तु ने उसकी कुछ परवा नहीं की । बल्कि ये लोग उलटा प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए भी जग नहीं पसीजा- वश हए और इन्होंने जान बझकर अपने बहुतसे भा आत्मलाभसे वंचित पापी और मिथ्यादष्टि मनुष्य जै- इयाँका लटेगक मपर्द किया। यदि किमी भाईम कोई निगाके सन्मुख ही अनेक प्रकार के अनर्थ और पापा- अपगध या वाटा आचरण बन गया तो इन्होने उसचरण करके अपनी आत्माओका पतन करत रहे; पर- को अपने में एम निकाल कर फेंक दिया जैमा कि न्तु जैनियोंको उनपर कुछ भी दया नहीं आई और न दधर्मम मक्खीको निकाल कर फेंक देते हैं । इन्होंने दृमरे जीवोंकी रक्षाका ही कुछ खयाल उत्पन्न हुआ। उसको कुछ भी धीर-दिलामा नहीं दिया, न इन्होंने ___ संसारमे ऐसा व्यवहार है कि यदि कोई अधा अधा उसके ग्वाट आचरणको छुड़ाकर धर्ममें स्थिर करनेकी मनुष्य कहीं चला जा रहा हो और उसके आगे कुआँ कोशिश की और न प्रायश्चित्त आदिम शुद्ध करनेका आजाय तो देखने वाले उम अंधेको तुरन्त ही माव- कोई यान ही किया। बल्कि उसके माथ बिलकुल धान कर देंगे और अपनी ममम्न शक्तिको, उमे कुॉमें शत्र-सरीवा व्यवहार करना प्रारंभ कर दिया। न गिरनमे बचाने अथवा गिरजाने पर उसके शीघ्र निका नतीजा इसका यह हुआ कि उसका अपनी मंमारलनेमें लगा देंगे। यदि कोई मनुष्य अंधे आगे कुआँ यात्राका निर्वाह करने के लिए दूमगंका शरण लेना देखकर भी चपचाप बैठा रहे और उसकी रक्षाका कुछ पड़ा और वह हमेशाके लिये जैनियोंसे बिछड़ गया। भी उपाय न करे तो वह बहुत पापी और निंद्य समझा जाता है। किसी कविने कहा भी है कि:-- इमम ममझ लीजिए कि जैनियोंने कितना बड़ा अप राध और अत्याचार किया है-कहाँ तक इन्होंने अपने "जब तु देखें आँखसे, अंधे आगे कूप ।। .. धर्मका उल्लंघन और कहाँ तक उमके विरुद्ध आचरण तब तेरा चुप बैठना, है निश्चय अघरूप ॥" किया है। इसी प्रकार यदि कोई मनुष्य क्सिीको दिनदहाड़े मनष्यका यह धर्म नहीं है कि यदि कोई मनुष्य लुटता हो और दूसरा आदमी उसके इस कृत्यको किसी नदी आदिमें गिरता हो या बहता जाता हो तो Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८, ९, १० उसको उलटा धक्का दे दिया जावे । और यदि वह अपराध नहीं जिसका प्रायश्चित्त न हो सके । भगव. किनारेके पास भी हो और निकलना भी चाहता हो जिनसेनाचार्य के निम्नलिखित वाक्यसे भी प्रगट तो उसको ठोकर मार कर और दूर फेंक दिया जावे, है कि-'यदि किसी मनष्यके कुलमें किसी भी कारणजिससे वह निकलनेके काबिल भी न रहे । बल्कि इसके से कभी कोई दूषण लग गया हो तो वह राजा या विपरीत उसको न गिरने देना या हम्तावलम्बन देकर पंच आदिकी सम्मतिस अपनी कुलशुद्धि कर सकता निकालना ही मनुष्यधर्म कहलाता है। इसी लिए जैनि- है। और यदि उसके पूर्वज-जिन्होंने दोष लगाया योंके यहाँ स्थितिकरण'धर्मका अंग रकवा गया है। हो-दीक्षायोग्य कुलमें उत्पन्न हुए हों तो उस कुलशुद्धि म्वामी समनभद्राचार्य ने 'रत्नकरंड श्रावकचार' में करने वालेका और उसके पत्र पौत्रादिक मंतानका इमका स्वरूप इस प्रकार वर्णन किया है: या यज्ञोपवीत संस्कार भी हो सकता है । वह वाक्य इस प्रकार है :"दर्शनाचरणाद्वापि चलतां धर्मवत्मलैः।। कुतश्चित्कारणाद्यस्य कुलं सम्प्राप्तपणम् । पत्यवस्थापनं प्राज्ञैः स्थितिकरणमुच्यते ।" मोपि राजादिसम्मत्या शोधयेत्स्वं यदा कलम ॥ __ अर्थात् - जो लोग किसी कारणवश अपने नदास्योपनयाहन्वं पुत्रपौत्रदिसंनतौ । यथार्थ आचरणसे डिगत हो, धर्मसे प्रेम रखने वाले न निषिद्धं हि दीक्षह कुले चेदस्य पूर्वजाः। परुपांको चाहिए कि उनका फिर अपने श्रद्धान और --आदिपुगगा पर्व ४० । आचरणमें दृढ कर दें । यही स्थितिकरण' अंग कह - इसमे दम्मों और हिन्दूम मुमनमान या ईमाई लाला है। बने हुए मनुष्योंकी शुद्धिका खासा अधिकार पाया परन्तु शाक! जनियान यह सब कुछ भुला दिया। जाता है। बल्कि शास्त्रों में उन म्लेच्छों की भी शुद्धिका पिरत को महाग या हस्तावलम्बन दना ता दूर रहा विधान दग्या जाना है जो मलम ही अशुद्ध हैं। आदिइन्होंने उलटा उसको और जारका धक्का दिया । श्र पराणमें यह उपदेश स्पष्ट शब्दों में दिया गया है कि, द्वान और आचरणस डिगना तो दूसरी बात, यदि प्रजाको बाधा पहुँचानवाले अनक्षर (अनपढ़) म्लेकिमाने रूढियों (आधुनिक जैनियोंके सम्यक चारित्र?) नदीको कुलशद्धि आदिकं द्वारा अपने बना लेने चा के विरुद्ध जरा भी आचरण किया अथवा उनक वि- हि ।' यथा:मद्ध अपना खयाल भी जाहिर किया तो बम उस स्वदेशऽनक्षरम्लेच्छान्प्रजावाधाविधायिनः । बेचार की शामत आ गई, और वह झट जैनममाजम १५ अपना अलग जीवन व्यतीत करनेके लिए मजबर किया कुलशुद्धिप्रदानायः स्वसाकुयादुपक्रमः।। १७।। गया ! जैनियों के इस अत्याचार से हजारों जैनी गाटे, - ग्रादिपुराण पर्व ४२ । दस्स या विनेकया बन गये; लाग्वों अन्यमती हो गये; परन्तु यह मब कुछ होते हुए भी जैनियोंके संकीर्ण जैनियोंका दंग्यते दग्वने मुसलमानी जमानेमें लाखों हृदयन महात्माओंके इन उदार और दयामय उपदेशांको ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जबरन मुसलमान बना लिये ग्रहण नहीं किया। सच भी है, सेरभरके पात्रमें मनभर गये; और इस ज़माने में तो कितने ही ईमाई भी बना कैसे समा सकता है ? अपात्र जैनियोंके हाथ में जैनधर्म लिये गये; परन्तु जैनियों के मंग दिल पर इससे कुछ पड़ जानेसे ही उन्होंने जैनधर्मका गौरव नहीं समझा भी चोट नहीं लगी। इन्होंने आज तक भी उन सबोंके और इमलिए दूसरों पर मनमाना अत्याचार किया है। शुद्ध करनेका-अपने बिछुड़े हुए भाइयोंको फिरसे मैं कहता हूँ कि दूसरोंको धर्म बतलाने या सिखगले लगाने का कोई उपाय नहीं किया। एमा काई लानमें धार्मिकभाव और परोपकारबद्धिको जाने दीजि Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनिःसं०२४५६] जैनियोंका अत्याचार ४३७ नि, जैनियोंने यह भी नहीं समझा कि परिस्थिति दृश्योंसे जैनियोंके वनहदय पर कुछ भी चोट नहीं कितने महत्त्वकी चीज है । क्या परस्थिति कभी उपेक्ष- लगी! माता पर इस प्रकारके अत्याचार करते हुए गीय हो सकती है ? कदापि नहीं । जहां चारों ओरका जैनियोंका हृदय ज़रा भी कम्पायमान नहीं हुआ और जलवाय दूषित हो वहाँ कदापि आरोग्यता नहीं रह इन्हें कुछ भी लज्जा या शर्म नहीं आई !! इन्होंने उलटी सकती। जहाँ चारों ओर मिथ्याष्टियों और पापाचा- यहाँतक निर्लज्जता धारण की कि अपने इन अत्याचारियोंका प्राबल्य हो वहाँ जैनी भी अपना सम्यक्त्व गेंका नाम 'विनय' रख छोड़ा! वास्तव में इनका नाम और धर्म कायम नहीं रख सकतं । यदि जैनियांने इस विनय नहीं है, ये घोर अत्याचार हैं और न ढाई हाथ परस्थितिके महत्वको ही समझ लिया होता तब भी वे दूरसे जोड़ने या चावल के दाने चढ़ा देनका नाम ही अात्मरक्षाकं लिए ही दूसरोंकी स्थितिका सुधार करना विनय है। जिनवाणीका विनय है-जैनशास्त्रोंका अपना कर्तव्य समझते, अवश्य ही दृमरोंका धर्मकी पढ़ना-पहाना, उनके एताविक - उनकी शिक्षाशिक्षा देनेका प्रयत्न करते और कदापि धर्मप्रचारके - कि अनमार-चलना और उनका मर्वत्रप्रचार कार्यसे उपेक्षित न होते; परन्तु महर्पियों द्वारा संरक्षित वीरजिनेन्द्रकी सम्पत्तिको पाकर जैनी ऐसे कृपण करना इस वास्तविक विनयस जैनी प्रायः कोसोंदूर वन-इनमें चित्तको कठोर करनेवाली ऐसी धार्मिक रह और इसलिए इन्होंने मानाका घोर अविनय ही नहीं कृपणना आई कि दूसरोंको उस सम्पनिम लाभ पहुँ- किया, बल्कि कितने ही जैनशाम्रोंका लोप भी किया चाना तो दूर रहा, ये खुद भी उसमें कुछ लाभ न उठा । है। सीका फल है जो आज बहुतम शास्त्र नहीं मिमकं । यदि इस परमात्कृट जैनधर्मको पाकर जैनी र " लतं । इनकी इम विलक्षण विनयत्ति को दंग्य कर ही अपना ही कुछ भला करत तो भी एक बात थी; परन्तु एक दुःखित हृदय कविने कहा है:कृपणका धन जिस प्रकार दान और भांगमें न लगकर बम्त बंधे पड़े है 'अल माफन नक ! नतीया गति (नाश) को प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकार चावल चढ़ावें उनको वम इतने हैं काम के॥" जैनियोंन जैनधर्म भी तृतीयागतिको पहुँचा दिगा -न इसीप्रकार जैनियाने स्त्राममान पर जो अत्याचार आप इससे कुछ लाभ उठाया और न दूमगंका उठान किया है वह भी कद कम नहीं है। इन्होंने लड़कियोंदिया, वैसे ही इमको नष्ट-भ्रष्ट और लाप्राय कर को बेचा, धनक लाल चग अपनी मकमार बालिकाओंदिया-और जिस प्रकार बादल सयके प्रकाशको गक को यमकं यजमानांक गल बांध उन्हें हमंशाकं लिए लेते हैं उसी प्रकार इन धार्मिक-कृपणान जनधमक पापमय जीवन व्यतीत करनको मजबूर किया,अनमेल प्रकाशको श्राच्छादित कर दिया ! सम्बन्ध करके स्त्रियोंका जीवन दुःग्वमय बनाया और जैनियोंन जिनवाणी मान के साथ जंमा मलक उन्हें अनेक प्रकारका दुःख और कष्ट पहुँचाया । पर किया है उसको याद कर के ता हृदय काँपता है और इन मब अत्याचागंका रहने दीजिए। जैनियान इन शर्गक गंगटे खड़े हो जाते हैं। इन्होंने मानाको उन सब अत्याचागंस बढकर बीममाज पर जो भाग अअँधेरी कोठरियोंमें बंद करके रक्खा, जहाँ गेशनी भार त्याचार किया है उसका नाम है स्त्रीसमाजको अशिहवाका गुजर नहीं; उसका अंग चहामं कुतरवाया और क्षित ग्ग्वना । त्रियों और बालिकाओं को विद्या न दीमकोंको खिलाया; माता गलती है या मड़ती, जीती है या माती, इसकी उन्होंन कल भी पर्वाह नहीं की। पढ़ाकर जैनियान उनके साथ बड़ी ही शत्रताका व्यहजागं जैनग्रंथांकी मिठी हो गई, हजारों शास्त्र चहों वहार किया है । जिम विद्या और ज्ञानके विना मनुष्य और दीमकों के पेट में चले गये, लाखों और करोड़ों निद्रित, अचेत, पशु और मृतकक तुल्य वर्णन किये गनप्य मातवियांग दुःखस पीड़ित रहे; परन्तु इन ममम्न १ विद्याओं-- किसानों तथा कला-कौशल के । Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८,९, १० गये हैं और जिसके विना सुख-शांतिकी प्राप्ति नहीं हो जीबंधर के पिता सत्यंधरने बनाया था और उसमें सकती, उमी विद्या और ज्ञानस जैनियोंन स्त्रियोंको अपनी गर्भवती स्त्रीको बिठलाकर,गर्भस्थ पत्रकी रक्षाकं वंचित रक्खा, यह इनका कितना बड़ा अन्याय है ? लिए, उसे दूर देशान्तरमें पहुँचाया था! इसी प्रकार जैनियोंने स्त्रियोंकी योग्यता और उनकी विद्यासम्पादन- सैंकड़ों विद्याओंका नामोल्लेख किया जा सकता है । जैशक्तिको न समझा हो, ऐसा नहीं; किन्तु 'लडकियाँ नियोंने शिक्षा और खासकर स्त्रीशिक्षासे द्वेष रखकर इन पराप पका धन और पगा घरकी चाँदनी समस्त विद्याओंके लोप करनेका पाप अपने सिर लिया है और इसलिए जैनी समम्त जगतके अपराधी हैं। हैं, वे हमारे कुछ काम नहीं आ सकीं।' इस जैनियों का एक भारी अत्याचार औरभी है और वह म्वार्थमय वामनामे जैनियान उन्हें विद्यास विमुख अपनी संतानकी छोटी उम्र में शादी करना है। इसके रक्खा है। इस नीच विचारन ही जैनियोंका अपनी विषयमें मुझे कुछ विशेष लिखनकी जरूरत नहीं है। मंतान के प्रति ऐमा निर्दय बनाया और इतना विवेकहीन हाँ, इतना ज़रूर कहूँगा कि इस राक्षमी कृत्य के द्वारा बनाया कि उन्होंने स्त्रीममाजके साथ पशुओंसहश आज नक लाग्वाही नहीं किन्तु करोड़ों दूधमुंही बालिव्यवहार किया, उन्हें जड़वत रकग्वा, काटपापागाकी काएँ विधवा हो चुकी हैं-वैधव्यकी भयंकर आँचमें मूर्तियाँ समझा और उन्हें अपनी आत्मान्नति करनंदना भन चुकी है-, हजारोंने अपने शीलभंगारको उतार नांदूर रहा, यह भी खबर न होने दी कि मंसाग्मं क्या दिया, व्यभिचारका आश्रय लिया, दोनों कुलोंको कलं. हो रहा है। क्या यह थोड़ा अत्याचार है ? नहीं इस कित किया और भ्रणहत्यायें तक कर डाली। इसक अत्याचारके करनेमें जैनी मनुष्यताका भी उल्लघन कर मिवाय,बाल्यावस्थामें स्त्री-पुरुपका संसर्ग होजानस जा गये । इनसे पशुपक्षी ही अच्छे रहे जो अपनी नर और शारीरिक और मानमिक निर्बलनायें इनकी संतानम मादी दोनों प्रकारकी संतानका ममान टिम अवलो उत्तरोत्तर प्राप्त हुई उनका कुछ भी पारावार और हिसाब फन करते हैं और उसमें किसी भी प्रकार के प्रत्यपका- नहीं है । निर्व न मनप्य का जीवन बड़ा ही वबाल-जान की वांछा न रखते हुए अपना कर्तव्य ममझ कर और मंकटमय होना है। गंगाका उम पर आक्रमण सहपं उसका पालन पोषण करत है। हो जाना तो एक मामूलीसी बात है। जैनियों के इम । यहाँ पर मुझे यह लिखते हुए दुःख होना है कि अत्याचारसे उनकी मंतान बड़ी ही पीड़ित रही। उसजैनियांका यह अत्याचार केवल स्त्रीगमाजको हा नहीं में हिम्मत, साहस, धैर्य, पुम्पार्थ और वीरता आदि भांगना पड़ा, बल्कि पुरुपोंको भी इमका हिम्पदार सद्गुणांकी सष्टि ही एकदम उठ खड़ी हुई । जनी बनना पडा है-वालका पर भी इसका नज़ला टपका निवल होकर तन्दुल मच्छकी तरह घार है । माताओंके अशिक्षित रहनेमे -परस्थिनिके बिगड़ पापांका संचय करते रहे और इन पापनि उदय आकर जानम--वे भी शिक्षा प्रायः विहीन ही रहे हैं । इजा- जन्म-जन्मान्तगेंमें इन्हें खब ही नीचा दिखाया। रंमें दम पाँचने यदि मामूली विद्या पढ़ी भी -कुछ जेनियांका यह गुडडा गुडडीका बल (बाल्य विवाह) अतरांका अभ्यास किया भी-ताइमका नाम शिला बड़ा ही हृदयद्रावक है। इसने जैनममाजकी जडम नहीं है। जैन बालकों को जैमी चाहिए वैमा विद्यायें बड़ा ही कुठाराघात किया है। नहीं पढ़ाई गई। यदि उन्हें बराबर विद्यायें पढ़ाई जाती इस प्रकार जैनियोंने बहुत बड़े बड़े अत्याचार ना आज उन हजागे विद्याओंका लोप न होता, किये हैं । इनके सिवा और जो छोटे मोटे अत्याचार जिनका उल्लेख जैन शास्त्रों मिलता है। दिव्य वि- किये हैं उनकी कुछ गिनती ही नहीं है । जैनियोंके इन मानों की रचनाको जाने दीजिए, आज कोई जैनी उस अत्याचारोंसे जैनधर्म कितना कलंकित हुआ और जगमयग्यत्रके बनानेकी विधि भी नहीं जानता, जिसको में कैमे कैसे अनर्थ फैले, इसका कुछ ठिकाना नहीं है । Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आषाढ, श्रावण,भाद्रपद वीरनि०सं०२४५६] "मारवाड़का एक विचित्र मत" ४३९ नियोंके इन सब अत्याचारों ही का फल उनकी वर्त्त- दूसरोंको घृणाकी दृष्टिसे देखते थे, अब खुदही घणामान दशा है । बल्कि नहीं, जैनियोंमें इस समय जो के पात्र बन गये; जिस बल, विद्या और ऐश्वर्य पर कल थोड़ी बहुत अच्छी बातें बची-खुची हैं उनका श्रेय इन्हें घमंड था वह सब नष्ट हो गया; ये लोग अपने म्वामी कुन्दकुन्द, समन्तभद्र. पूज्यपाद, अकलंक- आपको भले ही जीवित समझते हों परन्तु जीवित देव.विद्यानन्द और सिद्ध मेन आदि परमोपकारी समाजोंमें अब इनकी गणना नहीं है। इनकी गणना है आचार्यों तथा अन्य परोपकारी महानभावोको प्राप्त है। मरणोन्मुख समाजोमें। जैनी लोग अन्धकारमें पड़े हुए एम जगद्वन्धुओंके आश्रित रहनस ही जैनधर्मके अभी मिसक रहे है-वास्तवमें इनकी हालत बड़ीही करनक कुछ चिन्ह अवशेष पाये जाते है। अन्यथा आमतौर णाजनक है। जब तक जैनी लोग इन अत्याचारोंको पर जैनियोंके अत्याचार उनकी सत्ताको बिलकुल लोप ___ बंद करके अपने पूर्व पापीका प्रायश्चित्त नहीं करेंगे तब करने के लिए काफी थे। जब तक जैनियोंन अत्याचार तक वे कदापि इस दैवकोपसे विमुक्त नहीं हो सकते, करना प्रारंभ नहीं किया था तब तक इनका बराबर उनका अभ्युत्थान नहीं हो सकता और न उनमें डंका बजता रहा, ये खूब फलत और फनते रहे । परन्तु जीवनीशक्तिका फिरसे संचार ही हो सकता है। जवसे ये लोग अत्याचारों पर उतर आए तभीसे इनका आशा है हमारे जैनीभाई इस लेखको पढ़कर अपपतन शुरू हो गया । और आज वह दिन आ गया कि ने अत्याचारोकी परिभाषा समझेगे और उनके भयंकर ये लोग परी अधोदशाको पहुँच गय हैं । जैनियोंके परिणामका विचार कर शीघ्र ही उनका प्रायश्चित्त अत्याचार जैनियोंको वा ही फल-डन्होंने अपने कि- करनमें दत्तचित्त होंगे ।प्रायश्चित्तविधि बतलाने के लिए यका खब मजा पाई। ये लांग दसगेको धर्म बतलाना में महप तयार है। नहीं चाहते थे, अब खुद ही उस धर्ममं वाचत हो गये; जुगलकिशोर मृग्टनार "मारवाड़का एक विचित्र मत" और दीक्षितजीका म्पष्टीकरण जनवरी सन १९३० के 'चाँद' में 'मारवाडका एक भावना इन शब्दोमें की गई है-"दग्वे, इस मतके 'विचित्र मत' शीर्षक एक लेख प्रकट हुआ है, अन्त होनमें कितना ममय और बाक़ी है ।" परन्तु जिसके लेग्वक हैं श्रीशंकरप्रमादजी दीक्षित। इसमें श्व- यह सब कुछ होते हुए भी उसमें यह नहीं लिम्वा कि नाम्बर जैनधर्मकी एक विचित्र शाखा 'तरहपन्थ' संप्र- यह सम्प्रदाय श्वेताम्बर जैनधर्मके अन्तर्गत है, और दायका कुछ परिचय देते हुए, जो कि निःसन्देह बड़ा न जो परिचय दिया उसके आधार-प्रमाणक रूपमें ही विचित्र है, उस पर कटाक्ष कियगय हैं-उस अमा- किसी ग्रंथकं नामका ही उल्लेख किया है-मात्र "मारनुषिक, हिंसात्रिय तथा संमारका सबसे बुरा धर्म बत- वाइ-प्रदेशमें जैनधर्मके अन्तर्गत एक तेरहपन्थ मम्प्र. लाया गया है-और अन्तमें उमके शीघ्रनाशकी दाय है" ऐमा मामान्य उल्लेख करके उसपर सारे श्रा Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवदीय ४४० अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८, ९, १० क्षेपोंकी सृष्टि खड़ी की गई है। इस पर दिगम्बर जैन- म्बरमें साध्विये प्रायः नहीं हैं । अब तक मुझे यह पता। धर्मके अनुयायियों और खासकर उसके तरहपन्थी तक न था कि दिगम्बर समाजमें भी 'तेरहपन्थ मन' सम्प्रदायके भाइयोंको बहुत ही बरा मालम हुआ, है । सम्भव है कि श्री० सुमतिप्रसादजीन भ्रमवश ही उन्होंने दीक्षितजीके इस निरर्गल कथनको सिरसे पैर मेरे लेखका प्रतिवाद, जो श्वेताम्बर तेरहपन्थियांक तक बिलकुल झठा तथा बे-बनियाद समगा, क्योंकि किसी प्रकार अनुकूल पड़ता है, प्रकाशित कराया है। उनके धर्म में ऐसी एक भी बात नहीं है जिसका लेखमें कृपा बनी रहे । योग्य सेवा लिम्वें । उल्लेख किया गया है- उनका तरहपंथ सम्प्राय पूर्ण १४-७-३० ] अहिंसावादी, परोपकारपरायण तथा शुद्ध जैनधर्मका शंकरप्रसाद दीक्षित उपामक है। इसलिये उनमें उक्त लेखक प्रतिवादका आन्दोलन प्रारंभ हुआ, जिसके फलस्वरूप वा० सु- दीक्षितजीके इस स्पष्टीकरणसे झगड़ा तो अब मतिप्रसादजी एल० सी० सा० (लन्दन), बी० ए० शान्त हो जाता है परन्तु यह कहे विना नहीं रहा विशारदन, श्वेताम्बरीक तरहपन्थ सम्प्रदायका परिचय जाता कि, लेखकोंकी थोड़ीमी असावधानीसे क्या कुछ न रवत हुए और यह समझते हुए कि यह लेग्व दिग- अनर्थ पैदा होता है और कितना क्षोभ तथा व्यर्थका म्बर तरहपन्थी सम्प्रदायको ही लक्ष करकं लिखा गगद्वेप खड़ा हो जाता है। यदि दीक्षितजीको दिगम्बरगया है, एक प्रतिवादात्मक लेख अप्रैल सन १९३० के तरहपन्थका पता नहीं था तो भी उन्हें जैनधर्मके मुख्य 'चाँद' में प्रकाशित कराया और उसमें दीक्षितजीके दो भेदों दिगम्बर तथा श्वेताम्बर मतका तो जरूर जैनधर्म तथा जैनमाहित्य-विषयक अज्ञान पर गहग पता था; यदि व जैनधर्म के साथमें 'श्वेताम्बर' ऐसा आक्षेप किया। इधर जैनमित्रमंडल दहलीके ज्वाइंट विशेषगण लगा देत अथवा 'श्वेताम्बर जेनसमाजक सेक्रेटरी बा०पन्नालालजी पं० शांभाचन्द्रजी भारिल्लको अन्तगन' मा मीधा तथा स्पष्ट उल्लेग्व कर दंत-और प्रतिवादात्मक लग्बके लिये अंगगा कर रहे थे कि उधर उन्हें करना चाहिये था- तो कुछ भी गलतफहमीके देवयांगम दीक्षितजी एक दिन बीकानेग्में भारिल्ल जी- पैदा होने के लिये अवमर नहीं था । परन्तु आपन ऐमा के मकान पर पहुँच गये । लेखमम्बन्धी वार्तालापर्क नहीं किया और, यह जानते हुए भी कि जैनियाक होने पर मालम हुआ कि उनका लंग्व एक मात्र श्व- अहिंसा धर्मकी महात्मा गाँधीजीजै असाधारण परनाम्बर-तरहपन्थ सम्प्रदायका लक्ष्य कर के लिग्वा गया प भी बहुत बड़ी प्रशंसा करते हैं, एक जगस छिद्रका है। दिगम्बर-तरहपंथका तो उन्हें अब तक पता तक लेकर-एक भले-भटके आधुनिक समाज की बातको नहीं था और इसलिये उन्होंने बड़ी प्रसन्नता पूर्वक पकड़ कर-मूल जैनधर्मको अपने आक्षेपका निशाना अपने लेग्य का स्पष्टीकरण लिख कर उन्हें दे दिया, जो बना डाला !-उसे हिमाप्रिय धर्मतक कह डाला!-, इस प्रकार है: यह निःसन्देह एअ बड़ी ही असावधानी तथा अक्षम्य प्रिय महाशय, भलका काम हुआ है। सावधान लेग्वक ऐसा कभी न___ जनवरीके चाँदमें मंग जो लेग्व 'मारवाड़का एक ही कर सकतं । वे अपने आक्षेपांको ऐसा मीमित करते विचित्र मत' शीर्पक प्रकाशित हुआ है, वह दिगम्बर हैं जिससे वे ठीक लक्ष्य पर पड़ें-३धर उधर नहीं । तरहपन्थियों के विषयमें नहीं है, किन्त श्वेताम्बर-तरह- आशा है दीक्षितजी भविष्यमें इस प्रकारकी अमावपन्थियोंके विषयमें है। यह बात लेख में उल्लिखित सा- धानास काम नहा लग। वियोंकी संख्या भली प्रकार प्रकट है, क्योंकि दिग -सम्पादक Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीर०सं०२४५६ उमास्वाति का तत्त्वार्थसत्र सा उमास्वातिका तत्त्वार्थसूत्र [लेखक-श्रीमान पं० सुखलालजी] 'शत्त्वार्थसत्र के प्रणेता उमास्वाति' शीर्षक लेख में, जो २ संस्कृत भाषा-काशी, मगध, विहार ' 'अनकान्त' की गत किरण में प्रकाशित हुआ है, आदि प्रदेशों में रहने तथा विचरने के कारण और यद्यपि, उमास्वातिका विचार करते हुए, उनके 'तत्त्वा- कदाचित् ब्राह्मणत्व जाति के कारण वा० उमास्वाति ने र्थसूत्र' का कितना ही परिचय दिया जा चुका है परंतु अपने समय में प्रधानता भोगने वाली संस्कृत भाषाका इस लेख में उसका कुछ विशेष परिचय देना इष्ट है। गहरा अभ्यास किया था। ज्ञानप्राप्ति के लिये प्राकृत इसी से-तत्त्वार्थशास्त्र का बाह्य तथा आभ्यन्तर भाषा के अतिरिक्त संस्कृत भाषा का द्वार ठीक खुलने सविशेष परिचय प्राप्त कराने के लिये-मूल ग्रन्थ कं से संस्कृत भाषा में रचे हुए वैदिक दर्शनसाहित्य और आधार पर नीचे लिखी चार बातों पर विचार किया वौद्ध दशनसाहित्य को जानने का उन्हें अवसर मिला जाता है- १ प्रेरक सामग्री, २ रचना का उद्देश्य, ३ और उम अवसर का यथार्थ उपयोग करके उन्होंने रचनाशैली और ४ विषयवर्णन । अपने ज्ञानभांड प्रेरक सामग्री ३ दशनान्तरों का प्रभाव - संस्कृत भाषाजिस सामग्रीने प्रन्थकार को 'तत्त्वार्थसत्र' लिखने द्वारा उन्हान वैदिक और बौद्ध साहित्य में जो प्रवेश किया, उसके कारण नई नई तत्कालीन रचनाएँ देखी, की प्रेरणा की वह मुख्यरूपसे चार भागों में विभाजित । उनमें से वस्तुएँ तथा विचारसरणियाँ जानी, उन सब की जाती है। का उनके ऊपर गहरा प्रभाव पड़ा । और इसी प्रभाव १ आगज्ञान का उत्तराधिकार-वैदिक ने उन्हें जैन साहित्य में पहले से स्थान न पाने वाली दर्शनों में वेद की तरह जैनदर्शन में आगम प्रन्थ ही ऐसी मंक्षिप्त दार्शनिक सूत्रशैली तथा संस्कृत भाषा में मुख्य प्रमाण माने जाते हैं. दूसरे ग्रन्थों का प्रामाण्य ग्रन्थ लिखने की प्रेरणा की। आगम का अनुसरण करनेमें ही है। इस आगमज्ञान प्रतिभा-उक्त तीनों हेतुओं के होते हुए का पूर्व परम्परा से चला आया हुआ उत्तराधिकार भी यदि उनमें प्रतिभा न होती तो तत्वार्थ का इस ( वारसा) वाचक उमास्वाति को भले प्रकार मिला स्वरूप में कभी जन्म ही न होता । इससे उक्त तीनों था, इससे सभी आगमिक विषयों का ज्ञान उन्हें स्पष्ट हेतुओं के साथ प्रेरक सामग्री में उनकी प्रतिभा को तथा व्यवस्थित था। स्थान दिये बिना नहीं बनता । Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८,९,१० पाने वाले आधिभौतिक तथा आध्यात्मिक विषयके रचनाका उद्देश्य निरूपणका उद्देश भी मोक्ष के अतिरिक्त दूसरा कुछ कोई भी भारतीय शास्त्रकार जब अपने विषयका भी नहीं । जनदर्शन के शास्त्रभी इसी मार्गका अबलंबन शास्त्र रचता है तब वह अपने विषयनिरूपण के अं कर रचे गये हैं । वाचक उमास्वातिने भी अन्तिम उद्देश तिम उद्देश्यरूप में मोक्ष को ही रखता है; पीछे भले मोक्षका ही रख कर उसकी प्राप्तिका उपाय ४ मिट्ट ही वह विषय अर्थ, काम, ज्योतिष या वैद्यक जैसा करने के लिये स्वयं वर्णनार्थ निश्चित की गई सभी आधिभौतिक दिखाई देता हो अथवा तत्त्वज्ञान और वस्तुओं का वर्णन तत्त्वार्थमें किया है। योग जैसा आध्यात्मिक दिखाई पड़ता हो। सभी मुख्य रचना-शैली मुख्य विषयों के शास्त्रों के प्रारम्भ में उस उस विद्या पहलेसे हो जैन आगमोंकी रचनाशैली बौद्ध पिटके अन्तिम फलस्वरूप मोक्ष का ही निर्देश हुआ है कों जैसी लम्बे वर्णनात्मक सूत्रोंके रूप में चली आती और उस उस शास्त्र के उपसंहार में भी अंत को उस थी और वह प्राकृत भाषा में थी । दूसरी तरफ़ ब्राह्मण विद्या से मोक्षसिद्धि होने का कथन किया गया है। विद्वानों द्वारा संस्कृत भाषा में शुरू की हुई संक्षिप्त वषिकदर्शन का प्रणेता कणाद' अपनी संक्षिप्त ( छोट छोटे ) सूत्रों के रचनेकी शैली धीरे धीरे प्रमेय की चर्चा करने से पहले उस विद्या के निरूपण बहुत ही प्रतिष्ठित हो गई थी। इस शैली ने वाचक उको मोक्ष का साधनरूप बतला कर ही उसमें प्रवतेता मास्वाति को आकर्षित किया और उसी में लिखने की है । न्यायदर्शन का सत्रधार 'गोतम' प्रमाणपद्धति प्रेरणा की । जहाँ तक हम जानते हैं वहाँ तक जैनसंप्रज्ञान को मोक्ष का द्वार मान कर ही उसके निरूपणमें दाय में संस्कृत भाषा में छोटे छोटे सूत्रों के रचयिता प्रवृत्त होता है २ | सांख्यदर्शन का निरूपण करने सबसे पहले उमास्वाति ही हैं। उनके पीछे ही ऐसी वाला भी मोक्ष के उपायभूत ज्ञान की पूर्ति के लिय सत्रशैली जैन परम्परा में अतीव प्रतिष्ठित हुई और अपनी विश्वोत्पत्तिविद्या का वर्णन करता है ३ व्याकरण, अलंकार, आचार, नीति, न्याय आदि अब्रह्ममीमांसा के ब्रह्म और जगत विषय का निरूपण नंक विपयों पर श्वेताम्बर, दिगम्बर दोनों सम्प्रदायके भी मोक्ष के साधनकी पूर्ति के लिये ही है । योगदशन विद्वानों ने उस शैली में संस्कृत भाषाबद्ध ग्रन्थ लिखे । में योगक्रिया और दूसरी बहुत सी प्रासंगिक बातोंका ----- - - ४ वा उमास्वाति की तत्त्वार्थ रचने की कल्पना 'उत्तराध्ययन' वर्णन मात्र मोक्षका उद्देश्य सिद्ध करनेके लिये ही है। र के २ अध्ययन की आभारी है ऐसा जान पड़ता है । इस अध्य भक्तिमागियों के शास्त्र भी, जिनमें जीव, जगत और रन का नाम 'मोक्षमार्ग' है; इस अध्ययन में मोक्ष के मार्गो को ईश्वर आदि विषयोंका वर्णन है, भक्ति की पुष्टिद्वारा सूचित कर उनके विषयरूप से न तत्त्व ज्ञ न का विलकुल संक्षेप में अन्तमें मोक्ष प्राप्त कराने के लिये ही हैं। बोडदर्शन निरूपण किया गया है । इसी वस्तु को वा० उमास्वाति ने विस्तार कर उसमें समग्र आगम के तत्वों को गॅथ दिया है। उन्होंने अपने के क्षणिकवादका अथवा चार आर्यसत्यों में समावेश के सूत्रग्रन्थ का प्रारम्भ भी मोक्षमार्गप्रतिपादक सूत्रसे ही किया है। १ देखा, १, १, ४ कणादसूत्र । २ देखो, १,१, १न्याय- दिगम्बर सम्प्रदाय में तो तत्त्वार्थसूत्र ‘माक्षशास्त्र' के नाम से प्रति सूत्र। ३ देखो, का०२ ईश्वरकृष्णाकृत सांख्यकारिका । प्रसिद्ध है। Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] उमास्वाति का तत्त्वार्थसत्र ४४३ उमास्वातिके तत्त्वार्थसत्र कणादके वैशेषिक सत्रों तर्कवाद के जमाने में भी अप्रबोधित रहकर मात्र श्रद्धा की तरह दश अध्यायोंमें विभक्त हैं; इन की संख्या के आधार पर आज तक टिके हुए हैं५ । जब कि मात्र ३४४ जितनी है, जब कि कणादके सूत्रों की वैदिक दर्शनपरम्परा बद्धिप्रधान होकर अपने माने संख्या ३३३ जितनी ही है । इन अध्यायों में वैशेषिक हुए सिद्धान्तों की परीक्षा करती है; उसमें शंका-समाआदि सत्रोंके सदृश आन्हिक-विभाग अथवा ब्रह्मसत्र धान-वाली-चर्चा करती है, और बहुत वार तो पहले आदि के समान पद-विभाग नहीं । जैन साहित्य में से माने जाने वाले सिद्धान्तों का तर्कवाद के बल पर 'अध्ययन' के स्ान पर 'अध्याय' का आरंभ करने उलट कर नये सिद्धान्तों की स्थापना करती है अथवा वाले भी उमास्वाति ही हैं। उनके द्वारा शुरू न किया उनमें मंशोध-परिवर्धन करती है । सारांश यह है कि गया आन्हिक और पद-विभाग भी आगे चलकर उनके जैनपरम्परा ने उत्तराधिकार (विरासत) में मिले हुए अनुयायी 'अकलङ्क' आदिके द्वारा अपने अपने ग्रंथों तत्त्वज्ञान और आचारको बनाये रखनमें जितना भाग में शुरू कर दिया गया है । बाह्य रचनामें कणादसूत्र लिया है उतना नतन मर्जनमें नहीं लिया । के साथ तत्त्वार्थसूत्रका विशेष साम्य होते हुए भी उस में एक खास जानने योग्य अन्तर है, जो जैनदर्शनके विपय-वर्णन परम्परागत मानस पर प्रकाश डालता है । कणाद विषय की पसंदगी- कितने ही दर्शनों में अपने मंतव्यों को सत्रमें प्रतिपादिन करके, उनके विषयका वर्णन ज्ञेयमीमांमा-प्रधान है; जैसा कि वैशेमाबित करने के लिये अक्षपाद गोतम की सदृश पूर्व __, मिदमन, मान्तभद्र आदि से अनेक धुरघर ताकिकों द्वारा पक्ष-उत्तरपक्ष न करते हुए भी, उनकी पुष्टिम हेतुओं किया ..मातविक । और हाफिक ची भारतीय विचाविकाम में का उपन्यास तो बहुधा करता ही है; जब कि वा० याग ग्थान को लिये ( है, इस बात में इनकार नहीं किया जा उमास्वाति अपने एक भी सिद्धान्त की सिद्धिके लिये मकता ।ता भी प्रस्तुत कयन गोगा-शानभाव और भिंदकी अपेक्षा कहीं भी युक्ति, प्रयुक्ति या हेतु नहीं देत । वे अपनी समझने का है। इस एकाध उदाहग्गाम ममझना हो तो तन्वावक्तव्य को स्थापित सिद्धान्त के रूपमें ही, कोई भी मनों पीर उनिपःो यादि को लीजिये । तत्वार्थ के व्यायाकार घ घा तार्किक हाने दागी और मम्प्रदायभंद में विभक्त होते हुए दलील या हेतु दिये विना अथवा पूर्वपक्ष-उत्तरपक्ष भी जा चर्च करते हैं और तर्क, वन का प्रयोग करते हैं वह सब किये बिना ही, योगसत्रकार 'पतंजलि' की तरह वणन पथम में स्थापित न सिद्वान्नको ग्पष्ट करने अथवा उसका समर्थन करते चले जाते हैं । उमास्वातिके सत्रों और वैदिक करने क लिये ही हैं। इनमें में किसी व्या व्याकर ने नया विचार दर्शनांके सूत्रों की तुलना करते हुए एक छाप मनकं मन नही किया या श्वेताम्बर-दिगम्बर की तात्विक मान्यतामें कुछ उपर पड़ती है और वह यह कि जैन परम्परा श्रद्धा- भी अन्नर न. डाला। जब कि उपनिषद, गीता और अमल के व्याव्याकार तर्कवल से यहां तक स्वतन्त्र चर्च करते हैं कि उनके प्रधान है, वह अपने सर्वज्ञवक्तव्यको अक्षरशः स्वीकार बीच तात्विक मान्यता में पूर्व-पश्चिम-गा अन्तर ग्यदा हो गया है। कर लेती है और उसमें शंका-समाधान का अवकाश इसमें क्या गुगा और क्या दोष यह वक्तव्य नहीं, वक्तव्य केवल नहीं देखती; जिसके परिणामस्वरूप संशोधन, परि- वस्तुस्थिति को रपष्ट करना है। गुगा और दोष सांपत होने में वर्धन और विकास करने योग्य अनेक बुद्धि के विपय दोनों परम्पराओं में हो सकते और नी भी हो सकते हैं । Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ अनेकान्त वर्ष १, किरण ८, ९, १० षिक, सांख्य और वेदान्त दर्शन में । वैशेषिक दर्शन जबकि उसने चाहे इन नवतत्वोंका यथेष्ट ज्ञान प्राप्त न अपनी दृष्टि से जगतका निरूपण करते हुए उसमें मूल किया हो तो भी इनके ऊपर वह श्रद्धा रखता ही हा; द्रव्य कितने हैं ? कैसे हैं ? और उनसे सम्बंध रखने अर्थात् 'जिनकथित ये तत्व ही सत्य हैं ' ऐसी मचिवाले दूसरे पदार्थ कितने तथा कैसे हैं ? इत्यादि वर्णन प्रतीति को लिये हुप हो । इस कारण से जैनदर्शन में करके मुख्य रूप से जगत के प्रमेयों की ही मीमांसा नव तत्व जितना दूसरे किसी का भी महत्व नहीं है। करता है । मांख्यदर्शन प्रकृति और पुरुष का वर्णन ऐसी वस्तुस्थिति के कारण ही वा० उमास्वातिने अपने करके प्रधान रूप से जगत के मूलभूत प्रमेय तत्त्वों की प्रस्तुत शास्त्रक विपयरूप इन नवतत्वों को पसंद किया ही मीमांसा करता है । इसी प्रकार वेदान्त दर्शन भी और उन्हीं का वर्णन सूत्रों में करके उन सूत्रों के विजगत के मूलभत ब्रह्मतत्त्व की ही मीमांसा प्रधान रूप पयानरूप 'तत्वार्थाधिगम' ऐसा नाम दिया । वा० उगासे करना है । परन्तु कुछ दर्शनोंमें चारित्र की मीमांसा म्वाति ने नव तत्वों की मीमांसा में ज्ञेयप्रधान और मुख्य है, जैसे कि योग और बौद्ध दर्शन में । जीवन की चारित्रप्रधान दानों दर्शनों का समन्वय देखा; तो भी शुद्धि क्या ? उसे कैस साधना ? उसमें कौन कौन उन्होंने उसमें अपने समयमें विशेष चर्चाको प्राप्त प्रबाधक हैं ? इत्यादि जीवनसम्बंधी प्रश्नोंका हल योग माणमीमांसाके निरूपण की उपयोगिता महसूस की; दर्शनने हेय-दुःख, हेयरंतु-दुःग्वका कारण हान- इससे उन्होंने अपने ग्रंथको अपने ध्यानमें आने वाली मोक्ष, और हानोपाय-मांक्षका कारण इस चतुर्व्यह सभी मीमांसाओं से परिपूर्ण करने के लिये नव तत्त्व का निरूपण करके और बौद्धदर्शननं चार आर्य सत्यों के अतिरिक्त ज्ञानमीमांसाको विषय रूपसे स्वीकार का निरूपण करके, किया है । अर्थात् पहले दर्शनवि- करके तथा न्यायदर्शन की प्रमाणमीमांसा की जगह भाग का विषय ज्ञेयतत्त्व और दूसरे दर्शनविभाग का जैन ज्ञानमीमांसा कैसी है उसे बतलानेके लिये विषय चारित्र है। अपने ही सूत्रोंमें योजना की। इससे समुच्चय रूपसे ___ भगवान महावीरने अपनी मीमांसामें ज्ञेयतत्व और ऐसा कहना चाहिये कि वा० उमास्वातिन अपने सूत्र चारित्र को समान स्थान दिया है, इससे उनकी तत्व- के विषयस्वरूप ज्ञान, ज्ञेय और चारित्र इन तीनों मीमांसा एक ओर जीव, अजीव के निरुपणद्वारा मीमांसाओं को जैन दृष्टिके अनुसार लिया है। जगत का स्वरूप वर्णन करती है और दूसरी तरफ विषयका विभाग - पसंद किये हुए विषयको आम्रव, संवर आदि तत्वों का वर्णन करके चारित्र का वा० उमास्वाति ने अपनी दशाध्यायीमें इस प्रकार से स्वरूप दर्शाती है । इनकी तत्वमीमांसा का अर्थ है विभाजित किया है कि, पहले अध्यायमें ज्ञानकी, दूसरे ज्ञेय और चारित्र का समानरूप से विचार । इस मी- से पाँचवें तक चार अध्यायोंमें ज्ञेय की और छठे से मांसा में भगवान ने नव तत्वों को रख कर इन तत्वों दसवें तक पाँच अध्यायोंमें चारित्रकी मीमांसा की है। पर की अचल श्रद्धा को जैनत्व की प्राथमिक शर्त के उक्त तीनों मीमांसाओंकी क्रमशः मुख्य सार बातें देकर रूप में वर्णन किया है । त्यागी या प्रहस्थ कोई भी म- प्रत्येक की दूसरे दर्शनोंके साथ यहाँ संक्षेपमें तुलना हावीर के मार्ग का अनुयायी तभी माना जा सकता है की जाती है। Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] उमास्वाति का तस्वार्थसूत्र ४४५ ज्ञानमीमांसाकी सार बातें-पहले अध्यायों का स्मरण कराता है । इसके दिव्य ज्ञान में वर्णित ज्ञानसे सम्बंध रखनेवाली मुख्य बातें आठ हैं और वे मनःपर्याय का निरूपण योग दर्शन और बौद्धदर्शइस प्रकार हैं:-१ नय और प्रमाण रूपसे ज्ञानका वि- न१२ के परचित्तज्ञान की याद दिलाता है। इसमें जो भाग। २ मतिआदिआगम प्रसिद्ध पाँचज्ञान और उनका प्रत्यक्ष-परोक्षरूप से५३ प्रमाणों का विभाग है वह वैप्रत्यक्ष परोक्ष दो प्रमाणोंमें विभाजन । ३ मतिज्ञानकी शेषिक और बौद्ध दर्शन१४ में वर्णित दो प्रमाणों का, उत्पत्तिके साधन, उनके भेद-प्रभेद और उनकी उत्पत्ति मांख्य और योग दर्शन १५ में वर्णित तीन प्रमाणोंका; के क्रमसूचक प्रकार । ४ जनपरंपरा में प्रमाण माने न्यायदर्शन १६ में प्ररूपित चार प्रमाणों का और मीजाने वाले आगमशास्त्र का श्रुतज्ञान रूपसे वर्णन। मांसा दर्शन१० में प्रतिपादित छह आदि प्रमाणों के ५ अवधि आदि तीन दिव्य प्रत्यक्ष और उनके भेद- विभागो का समन्वय है । इम ज्ञानमीमांसा१८ में जो प्रभेद तथा पारस्परिक अंतर । ६ इन पाँचों ज्ञानों का ज्ञान-अज्ञान का विवेक है वह न्याय दर्शन की यतारतम्य बतलाते हुए उनका विषयनिर्देश और उनकी थार्थ-अगथार्थ बुद्धि का तथा योगदर्शन२० के प्रमाण एक साथ संभवनीयता । ७ कितने ज्ञान भ्रमात्मक भी और विपर्यय का विवेत,-जैमा है। इसमें जो नयका हो सकते हैं ? वे और ज्ञान के यथार्थ अयथार्थपणा स्पष्ट निरूपण है वैमा दर्शनान्तर में कहीं भी नहीं। के कारण । ८ नय के भेद-प्रभेद। मंक्षेप में ऐसा कह सकते हैं कि वैदिक और बौद्धदर्शन तुलना-ज्ञानमीमांसामें ज्ञानचर्चा है, 'प्रव- में वर्णिन प्रमाणमीमांसा के स्थान पर जैनदर्शन क्या चनसार' के ज्ञानाधिकार-जैसी तर्कपरस्सर और दार्श- मानता है वह सब विगतवार ( सफमीलवार ) प्रस्तुत निक शैली की नहीं, बल्कि नन्दीसत्र की ज्ञानचर्चा- ज्ञानमीमांसा में वा०रमाम्बानि न दर्शाया है। जैसी आगमिक शैली की होकर ज्ञान के मंपूर्ण भेद- ज्ञेयपीमामा को मार बातें-- ज्ञेयमीमांसा में प्रभेदों का तथा उनके विषयों का मात्र वर्णन करने जगत के मूलभत जीव और अजीव इन दो नत्वों का वाली और ज्ञान, अज्ञान के बीच का भेद बताने वाली वर्णन है। इनमें में मात्र जीव तत्व की चर्चा दमर से है। इसमें जो अवग्रह, ईहा आदि लौकिक ज्ञान की चौथे नक नान अध्यायों में है। दूसरे अध्याय में जीव उत्पत्तिका क्रम सूचित किया गया है वह न्यायशास्त्र तत्व के मामाम्य स्वरूप के अतिरिक्त संमारी जीव के में आने वाली निर्विकल्प, सविकल्प ज्ञान की और बौद्ध अभिधम्मत्थमंगहर में आने वाली ज्ञानोत्पनि की ११ दना, ३, १६ यागदन । १२ अभिधम्मन्थमय । प्रक्रिया का म्मरण कराती है। इसमें जो अवधि आदि परि०८ पग्राफ २४ मार नागान का धसग्रह पृ० ।। १३ तन्वार्थ १, १०-१२ । १४ प्रशस्तपाद क. पृ० २१३ ५० १२ नीन दिव्य ( प्रत्यक्ष ज्ञानों का वर्णन है वह वैदिक ५० और न्यायविन्दु १,२ । १५ ईनस्कृया कृत मान्य कारिका और बौद्ध दर्शन के सिद्ध, योगी तथा ईश्वर के ज्ञान का० ४ प्रौर योगदर्शन १, ७ । १६ देवा, १, १, ३ न्यायसूत्र ६ तत्त्वार्थ १, १५-१६ । ७ देखो 'मुक्तावलि' का० .. १७ मीमांमासूत्र १, ५ का शाबर-भाग्य । १८ तन्वार्थ १, ३३ से भागे। : अभिधम्म परिच्छेद ४ परग्राफ से। तत्त्वार्थ १४तर्क रामह-बुद्धिनिरूपण । २०यांग मूत्र १,६ । १, २१-२६ और ३० । १० प्रशस्तपादकदली पृ० १८७ । २१ तत्त्वार्थ १, ३४-३७ । Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८, ९, १० के भेद, उनका परस्पर साधर्म्य-वैधर्म्य; उनका स्थितिक्षेत्र और प्रत्येक का कार्य । १२ पुद्गल का स्वरूप, उसके भेद और उसकी उत्पत्ति के कारण । १३ सन और नित्य का सहेतुक स्वरूप । १४ पौद्गलिक बन्ध की योग्यता और अयोग्यता । १५ द्रव्य सामान्य का लक्षण, काल को द्रव्य मानने वाला मतान्तर और उसकी दृष्टि से काल का स्वरूप । १६ गुण और परिगाम के लक्षण और परिणाम के भेद । ४४६ अनेक भेद-प्रभेदों का और उनसे सम्बंध रखने वाली अनेक बातों का वर्णन है । तीसरे अध्याय में अधोलोक में बसने वाले नारकियों और मध्यलोक में बसने वाले मनुष्यों तथा पशु-पक्षी आदि का वर्णन होने से उनसे सम्बंध रखने वाली अनेक बातों के साथ पाताल और मनुष्य लोक की संपूर्ण भूगोल आ जाती है. अध्याय में देव सृष्टि का वर्णन होकर उसमें खगोल के अतिरिक्त अनेक प्रकार के दिव्य धामों का और उनको समृद्धि का वर्णन है । पाँचवें अध्याय में प्रत्येक द्रव्य के गुण-धर्म का वर्णन करके उसका सामान्य स्वरूप बतलाकर साधर्म्य - वैधर्म्म द्वारा द्रव्य मात्र की विस्तृत चर्चा की है। तुलना - उक्त बातों में की बहुत सी बातें श्रा और प्रकरण प्रन्थों में हैं, परंतु वे सभी इस ग्रन्थ की तरह संक्षेप में संकलित और एक ही स्थल पर न हो कर इधर उधर बिखरी हुई हैं । 'प्रवचनसार' के ज्ञेयमीमांसा में मुख्य सोलह बातें श्राती हैं जो ज्ञेयाधिकार में और 'पंचास्तिकाय' के द्रव्याधिकार में इस प्रकार हैं : · पहले अध्याय में - १ जीव तत्व का स्वरूप | २ संसारी जीव के भेद । ३ इन्द्रिय के भेद - प्रभेद, उनके नाम, उनके विषय और जीवराशिमें इंद्रियों की बॉट ४ मृत्यु और जन्म के बीचकी स्थिति । ५ जन्मोंके और उनके स्थानों के भेद तथा उनका जातिवार विभाग । ६ शरीर के भेद, उनके तारतम्य, उनके स्वामी और एक साथ उनका संभव । ७ जातियों का लिंग-विभाग और न टट सके ऐसे आयुष्य की भोगने वालों का निर्देश । तीसरे और चौथे अध्याय में - ८ अधोलोक के विभाग, उसमें वसनेवाले नारकी जीव और उनकी दशा तथा जीवनमर्यादा वगैरह । ९ द्वीप, समुद्र, पर्वत, क्षेत्र आदिद्वारा मध्य लोक का भौगोलिक वर्णन तथा उसमें बसने वाले मनुष्य, पशु, पक्षी आदि का जीवनकाल । १० देवों की विविध जातियाँ, उनके परिवार, भोग, स्थान, समृद्धि, जीवनकाल और ज्योतिर्मडल द्वारा खगोलका वर्णन । पाँचवें अध्याय में - ११ द्रव्य ऊपर बतलाये हुए पाँचवें अध्यायके ही विषय हैं परंतु उनका निरूपण इस ग्रन्थ से जुदा पड़ता है। पंचास्तिकाय और प्रवचनसार में तर्कपद्धति तथा विस्तार है, जब कि उक्त पाँचवें अध्याय में संक्षिप्त तथा सीधा वर्णन मात्र है । ग ऊपर जो दूसरे, तीसरे और चौथे अध्याय की सार बातें दी हैं वैसा अखंड, व्यवस्थित और सांगोपां वर्णन किसी भी ब्राह्मण या बौद्ध मूल दार्शनिक सूत्र प्रन्थ में नहीं दिखाई देता । बादरायण ने अपने ब्रह्मसूत्र २२ के तीसरे और चौथे अध्याय में जो व दिया है वह उक्त दूसरे, तीसरे और चौथे अध्याय की कितनी ही बातों के साथ तुलना किये जाने के योग्य हैं; क्योंकि इसमें मरण के बाद की स्थिति, उत्क्रान्ति, जुदी जुदी जाति के जीव, जुदे जुदे लोक और उनके स्वरूप का वर्णन है । २२ देखो, 'हिन्दतत्वज्ञाननो इतिहास' द्वितीय भाग, १०१६ २ से आगे । Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि० सं० २४५६ ] उक्त दूसरे अध्याय में जीव का जो उपयोग लक्षण२३ कहा गया है वह आत्मवादी सभी दर्शनों द्वारा स्वीकृत उनके ज्ञान या चैतन्य लक्षण से जुदा नहीं । वैशेषिक और न्यायदर्शन के इन्द्रियवर्णन की अपेक्षा उक्त दूसरे अध्याय २४ का इन्द्रियवर्णन जुदा दिखाई देते हुए भी उसके इंद्रियसम्बंधी भेद - उनके नाम और प्रत्येक के विषय न्याय२५ तथा वैशेषिक दर्शन के साथ लगभग शब्दश: समान हैं। वैशेषिक - दर्शनश्व में जो पार्थिव, जलीय, तेजस और वायवीय शरीरों का वर्णन है तथा सांख्यदर्शन २० में जो सूक्ष्म लिंग और स्थूल शरीर का वर्णन है वह तत्त्वार्थ के शरीरवर्णन से जुदा दिखाई देते हुए भी वास्तव में एक ही अनुभव के भिन्न पहलुओं ( पाश्वों) का सूचक है । तत्वार्थ‍ में जो बीच से टूट सके और न टूट सके ऐसे आयुष्य का वर्णन है और उसकी जो उपपत्ति दर्शाई गई है वह योगसूत्र ३० और उसके भा ध्यके साथ शब्दशः साम्य रखती है । उक्त तीसरे और चौथे अध्याय में प्रदर्शित भुगोलविद्या का किसी भी दूसरे दर्शन के सूत्रकारने स्पर्श नहीं किया; ऐसा होते हुए भी योगसूत्र ३, २६ के भाग्य में नरकभूमियोंका, उनके आधारभूत घन, सलिल, वात, आकाश आदि तत्वों का, उनमें रहने वाले नारकियों का, मध्यमलोक का, मेरु का; निषध, नील आदि पर्वतों का; भरत, इलावृत्त आदि क्षेत्रों का; जम्बुद्वीप, लवणसमुद्र आदि उमास्वाति का तत्त्वार्थसूत्र २३ तत्वार्थ २, ८ । २४ तत्त्वार्थ २, १५-२१ । २५ न्यायसूत्र १, १, १२ र १४ । २६ देखा, 'तर्कसंग्रह' पृथ्वी से वायु तक का निरूपण । २७ ईश्वरकृष्णकृत 'सांख्यकारिका' का ० ४० से ४२ । २८ तत्वार्थ २, ३७ - ४६ । २६ तत्वार्थ २, ५२ । ३० योगसूत्र ३, २२ विस्तार के लिये देखो, 'तत्वार्थ सूत्र के प्रणेता उमास्वाति' शीर्षक लेख ( अनेकान्त कि०६, ७१० ३६२,३६३) ४४७ द्वीप समुद्रों का; तथा ऊर्ध्वलोकसम्बंधी विविध स्वर्गे का, उनमें बसने वाली देवजातियों का, उनके श्रायुषों का; उनकी स्त्री, परिवार आदि भोगों का और उनके रहन-सहन का जो विस्तृत वर्णन है वह तत्त्वार्थ के तीसरे, चौथे अध्यायको त्रैलोक्यप्रज्ञप्तिकी अपेक्षा कमनी मालूम देना है। इसी प्रकार बौद्ध ३१ ग्रंथोंमें वर्णित द्वीप, समुद्र, पाताल, शीत-उष्णनारक, और विविध देवोंका वर्णन भी तत्वार्थ त्रैलोक्य प्रज्ञप्ति की अपेक्षा संक्षिप्त ही है । ऐसा होते हुए भी इन वर्णनों का शब्दसाम्य और विचारसरणी की समानता देख कर आर्य दर्शनों की जुदी जुदी शाखाओं का एक मूल शोधने की प्रेरणा हो आती है । पाँचवाँ अध्याय वस्तु, शैली और परिभाषा में दूसरे किसी भी दर्शन की अपेक्षा वैशेषिक और सांख्य द र्शन के साथ अधिक साम्य रखता है । इसका बड् द्रव्यवाद वैशेषिक दर्शन‍ के षट् पदार्थवादकी याद दिलाता है। इसमें प्रयुक्त साधर्म्य- वैधर्म्य-वाली शैली वैशेषिक दर्शन ३ का प्रतिबिम्ब हो ऐसा भासता है । यद्यपि धर्मास्तिकाय ३४ अधर्मास्तिकाय इन दो द्रव्यों की कल्पना दूसरे किसी दर्शनकारने नहीं की और जैनदर्शन का श्रात्मस्वरूप‍ भी दूसरे सभी दर्शनों की अपेक्षा जुदे ही प्रकार का है। तो भी आत्मवाद और पुद्गलवाद से सम्बंध रखने वाली बहुतसी बातें वैशेषिक, सांख्य आदि के साथ अधिक साम्य रखती हैं । ३१ धर्मसंग्रह ० २६-३१ तथा अभिधम्मत्थसग हो परिच्छेद ५ पैरेग्राफ़ ३ से भागे । ३२ वैशेषिक दर्शन १, १, ४ । ३३ प्रशस्तपाद पृ० १६ से । ३४ तत्वार्थ ५, १, और ५, १७; विशेष विवरण के लिये देखा, 'जैनसाहित्य संशोधक' खगड तृतीय पहला तथा चौथा । ३५ तत्वार्थ ५,१५-१६ । Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८, ९, १० जैनदर्शन की तरह न्याय, वैशेषिक, सांख्य३८ है कि मूलतत्वार्थ और उसकी व्याख्याओं ४६ में जो आदि दर्शन भी आत्मबहुत्ववादी ही हैं। जैनदर्शनका काल के लिंगोंका वर्णन है वह वैशेषिक सूत्र की सा पुद्गलवाद वैशेषिक दर्शन के परमाणुवाद४० और शब्दशः मिलता जुलता है । सत् और नित्यकी तत्वार्थसांख्य दर्शन के प्रकृतिवाद१५ के समन्वय का भान गत व्याख्या यदि किसी भी दर्शन के साथ सादृश्य कराता है । क्योंकि इसमें आरंभ और परिणाम उभय रखती हो तो वह सांख्य और योग दर्शन ही हैं। इनमें वर्णित परिणामिनित्य का स्वरूप तत्वार्थ के सत् और वाद का स्वरूप आता है। एक तरफ तत्वार्थ में काल नित्य के स्वरूपके साथ शब्दशः मिलता है । वैशेषिक द्रव्य को मानने वाले मतान्तर४२ का किया हुआ उल्लेख दर्शन में परमाणुओं में द्रव्यारम्भ की जो योग्यता, और दूसरी तरफ उसके निश्चित रूप से बतलाये हुए बतलाई गई है वह तत्वार्थ में वर्णित पौद्गलिक बंधलक्षणों ४३ पर से ऐमा मानन के लिये जी ललचाता द्रव्यारंभ-की योग्यता४८ की अपेक्षा जुदी ही प्रकारकी है कि जैन तत्वज्ञान के व्यवस्थापकों के ऊपर काल है । तत्वार्थ की द्रव्य और गुणकी व्याख्या४ वैशेषिक द्रव्य के विषय में वैशेषिक४४ और मांख्य दोनों दर्शनों दर्शन की ५० व्याख्या के साथ अधिक से अधिक साके मंतव्य की स्पष्ट छाप है; क्योंकि वैशेषिक दर्शन दृश्य रखती है । तत्वार्थ और सांख्यदर्शनकी परिणामकाल को स्वतंत्र द्रव्य मानता है, जब कि सांख्य दर्शन सम्बंधी परिभाषा समान ही है । तत्वार्थ का द्रव्य,गुण ऐसा नहीं मानता । तत्वार्थ में सूचित किये गये काल और पर्याय रूपसे सत् पदार्थ का विवेक सांख्य के द्रव्य के स्वतंत्र अस्तित्व-नास्तित्व-विषयक दानों पक्ष, सन् और परिणामवादकी तथा वैशेषिक दर्शनके द्रव्य जो आगे जाकर दिगम्बर४५ और श्वेताम्बर परम्परा गुण और कर्म को मुख्य सत् माननं की प्रवृत्ति की की जुदी जदी मान्यता रूप से विभाजित हो गये हैं, याद दिलाता है। पहले से ही जैनदर्शनमें होंगे या उन्होने वैशेषिक और चारित्रमीम सा की मार बातें - जीवनम सांख्यदर्शन के विचार संघर्ष के परिणामस्वरूप किसी कौन कौन सी प्रवृत्तियाँ हेय हैं ? ऐसी हेय प्रवृत्तियोंका समय जैन दर्शन में स्थान प्राप्त किया होगा, यह एक मूल वीज क्या है ? हेय प्रवृत्तियोंको सेवन करने वाली शोध का विषय है। परन्तु एक बात तो दीपक जैसी के जीवनमें कैसा परिणाम आता है ? हेय प्रवृत्तियोंका त्याग शक्य हो तो वह किस किस प्रकार के उपायोंमें ३६ तत्वार्थ ५, २ । ३७ "व्यवस्थातो नाना" ३, २, हो सकता है ? और हेय प्रवृत्तियों के स्थानमें किस २० । ३८ "पुरुषबहुत्वं सिद्धम्" ईश्वरकृष्णाकृत सांव्यका० " प्रकार को प्रवृत्तियाँ जीवनमें दाखिल (प्रविष्ट) करनी? १८ । ३६ तत्वार्थ ५, २३-२८ । ४० देखा, 'तर्कपग्रह' पृथ्वी - - ४६ देखो, तत्वार्थ ५ २० और उसकी भाष्यत्तिा ४७ प्र मादि भूतों का निरूपण । ४१ ईश्वकृष्ण कृत सांव्यकारिका २२ से शस्तिपाद, वायुनिरूपण पृ० ४८ । ४८ तत्वार्थ ५, ३२-३५ । मागे । ४२ तत्त्वार्थ ५,३८, । ४३ तत्वार्थ ५,२२, । ४४ वैशे- देखी, तत्वार्थ ५, ३७ और ४० । ५० देखा, कणादसूत्र षिक दर्शन २, २, ६ । ४५ देखो, कुन्दकुन्द के प्रक्कनसार और १, १, ५ मौर १६ जो उमास्वाति-विषयक पहले लेखमें उद्धृत है पंचास्तिकाय का कालनिरुपण तथा ५, ३६ की सर्वार्थसिद्धि । (भनेकान्त पृ. ३६०, ३६१)। Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] उमास्वाति का तत्त्वार्थसत्र उसका परिणाम जीवन में क्रमशः और अन्त में क्या तम्य । दसवें अध्याय में १० केवलज्ञान के हेतु और आता है ? ये सब विचार छठे से दसवें अध्याय तक मोक्ष का स्वरूप । ११ मुक्ति प्राप्त करने वाले आत्माकी की चारित्रमीमांसा में आते हैं। ये सब विचार जैन किस गति से कहाँ गति होती है उसका वर्णन । दर्शन की बिल्कुल जुदी परिभाषा और सांप्रद यिक प्र- तुलना- तत्वार्थ की चारित्रमीमांमा प्रवचनणाली के कारण मानों किसी भी दर्शनके साथ साम्य सार के चारित्रवर्णन से जदी पड़ती है; क्योंकि इसमें न रखत हों ऐमा आपाततः भास होता है; तो भी तत्वार्थ की सदृश पासव, संवर आदि तत्वों की चर्चा बौद्ध और योग दर्शन का बारीकी (सूक्ष्मता ) से नहीं; इसमें तो केवल माधु की दशा का और वह भी अभ्यास करने वाले को यह मालूम हुए बिना कभी दिगम्बर साधु के खास अनुकूल पड़े ऐसा वर्णन है। नहीं रहता कि जैन चारित्रमीमांसा का विषय चारित्र- पंचास्तिकाय और समयमार में तत्वार्थ की सदृश ही प्रधान उक्त दो दर्शनों के साथ अधिक से अधिक और आम्रव, संवर, बंध आदि नत्वों को लेकर चारित्रमीअद्भुत रीतिसे साम्य रखता है। यह साम्य भिन्न भिन्न मांसा की गई है, तो भी इन दो के बीच अन्तर है और शाखाओं में विभाजित, जुदी जुदी परिभाषाओं में वह यह कि तत्वार्थ के वर्णन में निश्चय की अपेक्षा संगठित और उन उन शाखाओं में होनाधिक विकास व्यवहारका चित्र अधिक खींचा गया है, इसमें प्रत्येक पाते हुए भी असल में आर्य जाति के एक ही प्राचार- तत्व से सम्बंध रखने वाली सभी बातें हैं और त्यागी दायका-आचार-विपयक, उत्तराधिकार का-भान गृहस्थ तथा माध के सभी प्रकार के प्राचार तथा निकराता है। यम वणित हैं जो जैनसंघका संगठन सूचित करते हैं। चारित्रमीमांसा की मुख्य बातें ग्यारह हैं। छठे जब कि पंचाम्तिकाय और समयमार मे वैसा नहीं, अध्याय में-१ आम्रव का स्वरूप, उसके भेद और इनमें तो पासव, संवर आदि तत्वों की निश्चयगामी किस किस प्रकार के आसवसंवन से कौन कौन कर्म तथा उपपत्ति-वाली चर्चा है, इनमें नत्वार्थ की सदृश बंधते हैं उसका वर्णन । मातवें अध्याय में व्रतका जैन गृहस्थ तथा साधु के प्रचलित वन, नियम और स्वरूप, व्रत लेने वाले अधिकारियों के भंद और वन आवागें आदि का वर्णन नहीं। की स्थिरता के मार्ग । ३ हिंमा आदि दोपों का स्वरूप। योगदर्शन के साथ प्रस्तुत चारित्रमीमांसा की तु४ व्रत में संभवते दोप । ५ दान का स्वरूप और उसके लना को जितना अवकाश है उतना ही यह विषय तारतम्य के हेतु । आठवें अध्याय में-६ कर्मबन्ध के रमप्रद है; परन्तु यह विस्तार एक स्वतन्त्र लेखका विमूल हेतु और कर्मबन्ध के भेद । नवमें अध्याय में- पय होने से यहाँ उसको स्थान नहीं, ना भी अभ्यासि७ संवर और उसके विविध उपाय तथा उसके भेद- यों का ध्यान खींचने के लिये उनकी स्वतन्त्र तुलना प्रभेद । ८ निर्जरा और उसका उपाय । ९ जुदे जुदे शक्ति पर विश्वाम रख कर नीचे संक्षेप में एक तुलना अधिकार वाले साधक और उनकी मर्यादा का नार- करने योग्य सार बातों की सूची दी जाती है: Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसूत्र ४५० अनेकान्त _[वर्ष १, किरण ८, ९, १० योगदर्शन १ कायिक,वाचिक,मानसिक प्रवृत्तिरूप पासव(६,१) १ कर्माशय ( २, १२) २ मानसिक श्रासव (८, १) २ निरोधके विषयरूप से लीगई चित्तवृत्तियाँ (१,६) ३ सकषाय और अकपाय यह दो प्रकार का आसव ३ क्लिष्ट और अक्लिष्ट दो प्रकार का कर्माशय (६,५) (२,१२) ४ सुख-दुःख-जनक शुभ, अशुभ आसव (६, ३-४) ४ सुख-दुःख-जनक पुण्य, अपुण्य कर्माशय (२, १४) ५ मिथ्यादर्शन आदि पाँच बन्ध के हेतु (८, १) ५ अविद्या आदि पाँच बन्धक क्लेश ( २, ३) ६ पाँचों में मिथ्यादर्शन की प्रधानता ६ पाँचों में अविद्या की प्रधानता (२,४) ७ अात्मा और कर्म का विलक्षण सम्बंध सो बन्ध ७ पुरुप और प्रकृति का विलक्षण संयोग सो बन्ध (८,२-३) (२, १७) ८ बन्ध ही शुभ, अशुभ हेय विपाकका कारण है. ८ पुरुष,प्रकृतिका संयोगही हेय दुःखकाहेतु है (२,१७) ९ अनादिबन्ध मिथ्यादर्शन के अधीन है.. ९ अनादिसंयोग अविद्या के अधीन है (२, २४) १० कर्मों के अनुभागबन्धका आधार कपाय है (६,५) १० कर्मों के विपाकजननका मूल क्लेश है (२, १३) ११ आसवनिरोध यह संवर (९, १) ११ चित्तवत्तिनिरोध यह योग (१,२) १२ गप्ति, समिति आदि और विविध तप आदि ये १२ यम, नियम आदि और अभ्यास, वैराग्य आदि ___संवर के उपाय (९, २-३) योग के उपाय (१,१२ से और २, २९ से) १३ अहिंसा आदि महाव्रत १३ अहिंसा आदि सार्वभौम यम ( २, ३०-३१) १४ हिंसा आदि वृत्तियों में ऐहिक, पारलौकिक दोपों १४ प्रतिपक्ष भावना-द्वारा हिंसा आदि वितों का ___ का दर्शन करके उन वृत्तियोंका रोकना (७, ४) रोकना ( २, ३३-३४) १५ हिसा आदि दोषों में दुःखपन की ही भावना कर १५ विवेकी की दृष्टि में संपूर्ण कर्माशय दुःखरूप ही के उन्हें त्यागना (७,५) १६ मैत्री आदि चार भावनाएँ ( ७, ६) १६ मैत्री आदि चार१ भावनाएँ ( १, ३३) १७ पृथक्त्ववितर्कसविचार और एकत्ववितर्कनिर्वि- १७ सवितर्क, निर्वितर्क,सविचार और निर्विचाररूपचार ___ चार आदि चार शुक्ल ध्यान ९,४१-४६) ५२ संप्रज्ञात समाधियाँ ( १, १६ और ४१, ४४) १८ निजंग और मोक्ष (९, ३ और १०, ३) १८ आशिकहान-बन्धोपरम और सर्वथा हान५३ (२,२५) १९ ज्ञानसहित चारित्र ही निर्जरा और मोक्षका हेतु १९ सांगयोगसहित विवेकख्याति ही हान का उपाय (१,१) २० जातिस्मरण, अवधिज्ञानादि दिव्य ज्ञान और चारण २० संयमजनित वैसी ही विभूतियाँ ५४ (२, ३९ विद्यादि लब्धियाँ (१, १२ और १०,७ का भाष्य) और ३, १६ से आगे) २१ केवलज्ञान (१०, १) २१ विवेकजन्य तारक ज्ञान ( ३, ५४ ) २२ शुभ, अशुभ, शुभाशुभ और न शुभ न अशुभ २२ शुक्ल, कृष्ण, शुक्लाकृष्ण और अशुक्लाकृष्ण ऐसी ऐसी कर्म की चतुर्भगी। चतुष्पदी कर्मजाति (४,७)। ५१ ये चार भावनाएँ बौद्ध परम्परा में 'ब्रह्मविहार' कहलाती हैं और उनके ऊपर बहुत जोर दिया गया है। ५२ ये चार ध्यान के भेद बौद्धदर्शन में प्रसिद्ध हैं । ५३ इसे बौद्धदर्शन में निर्वाण' कहते हैं, जो तीसरामार्य सत्य है। ५४ बौद्धदर्शन में इनके स्थान में पांच अभिज्ञाएँ हैं। देखो, घपग्रह पृ०४ और अभिधम्मत्थसंगह परिच्छेद : पेरेग्राफ २४ । Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] उमास्वाति का तत्वार्थसूत्र ४५१ इसके सिवाय, कितनी ही बातें ऐसी भी हैं कि ही देहदमन, ध्यान तथा प्राणायाम आदि का बराबर जिनमें से एक बातके ऊपर एक दर्शन द्वारा तो उपयोग होवे तब तो इनमें से प्रत्येक का समान ही दूसरी बात के ऊपर दूसरे दर्शनद्वारा जोर दिया महत्व है; परन्तु जब यह बाह्यअंग मात्र व्यवहार की गया होवे से वह वह बात उस उस दर्शन के एक लीक जैसे बन जाते हैं और उनमें से मुख्य चारित्रकी म्वास विषय के तौर पर अथवा एक विशेषता के रूप सिद्धि का अात्मा उड़ जाता है तभी इनमें विरोध की में प्रसिद्ध हो गई है । उदाहरण के तौर पर कर्म के दुर्गंध आती है, और एक संप्रदाय का अनगामी दूसरे सिद्धान्तों को लीजिये । बौद्ध और योगदर्शन५५ में संप्रदाय के आचार का निरर्थकपना बतलाता है । कर्म के मूल सिद्धान्त तो हैं ही। योगदर्शन में तो इन बौद्ध साहित्य में और बौद्ध अनुगामी वर्ग में जैनों के मिद्धान्तों का तफसीलवार वर्णन भी है; तो भी इन दहदमन की प्रधानता-बाले तप५८ की निन्दा दिग्वाई सिद्धान्तों के विषय का जैन दर्शन में एक विस्तृत और पड़ती है, जैन माहित्य और जैन अनुगामी वर्ग में गहग शास्त्र बन गया है, जैसा कि दूसरे किसी भी वौद्धों के सुखशील, वर्तन और ध्यान का तथा परिदर्शन में नहीं दिखाई देता। इसीसे चारित्रमीमांसा में, ब्राजकों के प्राणायाम और शौच का परिहास दिकर्म के सिद्धान्तों का वर्णन करते हुए, जैनसम्मत खाई देता है । ऐमा होनसे उस उस दर्शनकी चारित्रमम्पर्ण कर्मशास्त्र५६ वाचक उमास्वाति ने संक्षेप में ही मीमांसा के ग्रंथों में व्यावहारिक जीवन से सम्बन्ध समाविष्ट कर दिया है। उसी प्रकार तात्विक दृष्टि से रखने वाला वर्णन विशेप भिन्न दिखलाई पड़े तो वह चारित्र की मीमांसा जैन, बौद्ध और योग तीनों दर्शनों स्वाभाविक है । इमी से नत्वार्थ की चारित्रमीमांमा में में समान होते हुए भी कुछ कारणों से व्यवहारमें फेर हम प्राणायाम या शोच के ऊपर एक भी सूत्र नहीं (अंतर) पड़ा हुआ नज़र पड़ता है; और यह फेर अथवा देखन, नथा ध्यान का उसमें पुष्कल वर्णन होते हुए अंतर ही उस उस दर्शन के अनगामियों की विशेषता भी उसको सिद्ध करने के बौद्ध या योग दर्शन में जो रूप हो गया है । क्लेश और कपाय का त्याग यही वर्णन किये गए हैं, एम व्यावहारिक उपाय हम नहीं मबों के मतमें चारित्र है; उमको सिद्ध करने के अनेक देवते । इसी तरह नत्वार्थ में जो परीपही और तप का उपायोंमें से कोई एकके ऊपर तो दूसरा दूसरे के ऊपर विस्तृत तथा व्यापक वर्णन है वैसा हम योग या बौद्ध अधिक जोर देता है । जैन आचार के संगठन में दहद- की चारित्रमीमांसा में नहीं देखतं । मन५७ की प्रधानता दिखाई देती है, बौद्ध आचार के इमके सिवाय, चारित्रमीमामा के सम्बन्ध में मंगठन में देहदमन की जगह ध्यान पर जोर दिया एक बात खास लक्ष्य में रग्बन-जैसी है और वह यह गया है और योगदर्शनानुसारी परित्राजकोंक आचार कि उक्त तीनों दर्शनों में ज्ञान और चारित्र-क्रियाके संगठन में प्राणायाम, शौच आदि के ऊपर अधिक। ५७ तत्वार्थ , ६ । “देहदुक्खं महाफलं" दशवकालिक जोर दिया गया है । यदि मुख्य चारित्र की सिद्धि में अध्ययन ८ उ०२ । ५८ मनिझमनिकायमूत्र १४ । ५६ सूत्रकृतां५५ देखा, २, ३-१४ । ५६ तत्त्वार्थ ६, ११-२६ और ग अध्ययन ३ उद्देश ४ गा०६. की टीका नया अध्ययन ७ गा०१४ में पागे। Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८,९,१० दोनों को स्थान होते हुए भी जैन दर्शन में चारित्र को आत्मविभुत्व-वादी होने से उनके मतमें मोक्षका स्थान ही मोक्ष का साक्षात् कारण रूप से स्वीकार कर के कोई पृथक् होवे ऐसी कल्पना ही नहीं हो सकती; परंतु ज्ञान को उसका अंगरूप से स्वीकार किया गया है, जैनदर्शन स्वतंत्र आत्मतत्व-वादी है और ऐसा होत जब कि बौद्ध और योग दर्शन में ज्ञान को ही मोक्षका हुए भी आत्मविभुत्व-वादी नहीं, इससे उसको मोक्ष साक्षात कारण मान कर ज्ञान के अंग रूप से चारित्र का स्थान कहाँ है इमका विचार करना पड़ता है और को स्थान दिया गया है । यह वस्तु उक्त तीनों दर्शनों यह विचार उसने दर्शाया भी है; तत्वार्थक अन्तमे के साहित्य का और उनके अनुयायी वर्ग के जीवनका वाचक उमास्वाति कहते हैं कि "मुक्त हुए जीव हरेक बारीकी से अभ्याम करने वाले को मालम हुए बिना प्रकारके शरीर से छूटकर ऊर्द्धगामी होकर अन्नमें नहीं रहती; ऐसा होने से तत्वार्थ की चारित्रमीमांसामें लोकके अग्रभागमें स्थिर होते हैं और वहाँ ही हमेशा चारित्रल ती क्रियाओं का और उनके भेद-प्रभेदोंका के लिये रहत हैं"। अधिक वर्णन होवे तो यह स्वाभाविक ही है। ___ तुलना को पग करने से पहले चारित्रमीमांसा के नोटअन्तिम साध्य मोक्ष के स्वरूपसम्बंध में उक्त दर्शनो की क्या और कैमी कल्पना है वह भी जान लेनी श्रा इस लेखमे लेखक महोदय ने अपने विशाल तथा वश्यक है । दुख के त्याग में से ही मोक्ष की कल्पना गहरे अवयन को लेकर 'तत्वार्थसूत्र' पर एक प्रकार उत्पन्न हुई होन में सभी दर्शन दःख की प्रात्यन्तिक का भारी तुलनात्मक विचार प्रस्तुत किया है, जो निवृत्तिको ही मोक्ष मानते हैं । न्याय६०, वैशेषिक६१, विद्वानोंको इस ग्रन्थ-सम्बंधमें तुलनात्मक अध्ययनकी योग और बौद्ध य चारों ऐमा मानते हैं कि दुःख के . दिशा का कितना ही बोध कराता हुआ उन्हें सविशेष रूप से अध्ययन की प्रेरणा करता है और इस लिये नाश के अतिरिक्त मोक्षमें दूसरी कोई भावात्मक वस्तु अभिनन्दनीय है। जहाँ तक मैं समझता हूँ 'तत्वार्थनहीं है, इसमे उनके मन में मोक्ष में यदि सुख सत्र पर इस प्रकारके तुलनात्मक विचारोंको प्रस्तुत होवे तो वह कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं, बल्कि उस दुःख करनेका यह पहला ही कदम है जो लेखक महोदयने के अभाव की पूर्ति कम ही है, जब कि जैनदर्शन वे उठाया है । वे इस तुलनामें कहाँ तक सफल हुए है, दान्त के सदृश ऐसा मानना है कि मोक्षअवस्था मात्र सत्यके कितने निकट पहुँचे हैं अथवा पहुँचनेका उन्होंने दुःखनिवृति नहीं, बल्कि इसमें विपयनिरपेक्ष वा. प्रयत्न किया है और उनकी यह तुलना क्याक्या नतीजे भाविक सुग्व जैसी स्वतन्त्र वस्तु भी है; मात्र सुग्व ही निकालती है, किस किस विषय पर क्या कुछ असर नहीं बल्कि उसके अतिरिक्त ज्ञान जैस दूसरे म्वाभाविक या प्रकारा डालती है अथवा किसने किसका कितने गणोंका आविर्भाव जैनदर्शन इस अवस्थामें स्वीकार अंशोमें अनुसरण किया इस बातकं समझाने में मदद करता है, जब कि दूमर दर्शनों की प्रक्रिया ऐसा स्त्री- करती है, ये सब बातें ऐमी हैं जो विज्ञ पाठकोंकी गहरी कार करने से इनकार करती है । मोक्षके स्थान-संबंध जाँच तथा विशेष खोजसे सम्बंध रखती हैं। आशा है में जैन दर्शनका मत सबसे निराला । बौद्धदर्शनमें विद्वान लोग इस विषय पर विशेष प्रकाश डालने की तो स्वतन्त्र आत्मतत्वका स्पष्ट स्थान न होने से मोक्षके कृपा करेंगे और इस तरह समाज में तुलनात्मक स्थानसंबंधमें उसमें से किसी भी विचार-प्राप्ति की विचारोंको उत्तेजन देकर विकासका मार्गअधिकाधिक आशा को स्थान नहीं है, प्राचीन सभी वैदिक दर्शन प्रशस्त बनाएँगे । ६० देखो, १, १, २२ । ६१ देखो, ५, २ १८ । -सम्पादक Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] भगवान महावीर की शिक्षा ४५३ भगरान महावीर की शिक्षा लेखिका-श्रीमती उत्कल भारतभूषण डा० कुन्तलकुमारी देवी ] FOR ब से पहले मैं बिना किसी संकोच के चेष्टा के बाद महान सत्य के उन सिद्धान्तो की ओर स्पष्टतया यह बतला देना चाहती हूँ अपनी आँखें फेरली हैं, जिन पर मैंकड़ो वर्ष हुए, वर्तकि मैं एक अजैन व्यक्ति हूँ परन्तु मान वैज्ञानिक युग के प्रारंभ से पहले, आत्मसंयमी, फिर भी भारतवर्ष के महान नेता सर्वसंगत्यागी, दिव्यदृष्टि, सष्टि में सर्वानन्दमयी, पूर्ण स्वामी महावीर के प्रति मेरे हृदयमे तथा स्वतंत्रात्मा, तीर्थकर,महान तथा सुकृती, श्रेष्ठ और भक्ति-भाव की जो मात्रा है........ ६ दिव्य स्वामी महावीरने श्रावह बहुत चढ़ी बढ़ी है। एक अजैन विदुपी बहन ने कुछ जैन' ग्रंथों का अध्ययन करके भगवान महावीरकी चरण और उपदेश किया था, ससार इस समय एक शिक्षा का जो अनभव किया है और दसरे : : और जो आज भी विज्ञान के सत्यका-वस्तुतः एक महान् : धमों के साथ उसकी तलना करके जो सार : सारभत विषयो तथा मानवीय मत्य को-अनुभव करने के खींचा है वह सब पाठकोको इस लेखसे जान : ज्ञान के साथ टक्कर लेने की लिये जागत होरहा है, जिस: पड़ेगा। यह महत्वपूर्ण मूल लेख अंग्रेजी भाषा वास्तविक शक्ति को लिये के मूल तत्व (सिद्धान्त) भा में लिखा गया है,श्रीमतीजी इस भाषाकी एक उत्तम लेम्बिका है और उन्होंने गत महावीर : ग्त माता के हृदय में शताजयंतीके अवसर पर देहलीमें इसे खुद ही अपने : महान सत्यके उन्हीं सार दिदयो से गुप्त पड़े हैं। लोगों भापण के रूप में पढ़ कर सुनाया था, और : सिद्धान्ती पर आज कुछ विको इन तत्त्वों के जानने और इस पर विद्वत्समाजकी ओरसे स्वब हर्प प्रकट : चार किया जाता है। उनकी विस्तृत व्याख्या करने किया गया था ।वास्तवमें यह सब जैनसाहित्य : वस्तुतः सत्य संसार की के प्रचारका माहात्म्य है। ज्यों ज्यो जनसाहि-: का कोई बहुत बड़ा अवसर त्यका प्रचार होता जाता है और सहृदय वि-: : मूल वस्तु है, सत्य पर ही प्राप्त नहीं हुआ, उन्होंने इसके द्वानोके लिये उसकी प्राप्तिकामार्ग सुगम किया : अखिल सष्टि निर्भर है और लिये न तो इच्छा ही की और : जाता है त्यों त्यो जैनधर्म अथवा भ०महावीर : सत्य ही हमाग अंतिम लक्ष्य न आवश्यक बलिदान-: की शिक्षाओंके प्रति लोगोका भक्तिभाव और : है और वह सत्य है स्वात्मास्वार्थत्याग ही किया । वे: प्रेम बढ़ता जाता है। और इमलिये जैनसाहि नुभव । यह स्वात्म-अनुभव, केवल इस समय तथा शक्ति त्य के अधिकाधिक प्रचार की ओर जैनस: माजको खास तौर में ध्यान देना चाहिये । जिसे हज़रत ईसा ने कहा है का दुरुपयोगही समझते रहे। -सम्पादक कि - 1. Thy || '' परन्तु अब समय बदल गया ........ ............ "अपने आपको जानो"कदाहै । संसार ने शताब्दियों के दुःख, कष्ट तथा विषय- पिप्राप्त नहीं होगा जबतक कि हम उन महान सिद्धान्तों वामनाओं की पूर्ति द्वारा हर्ष और आनन्दकी निरर्थक का अनुष्ठान नहीं करेंगे जो कि संख्या में तीन हैं । Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८, ९, १० इनमें से पहला सिद्धान्त है अहिंसा, दूसरा है नश्वर किसी एक नित्य परमात्मा पर श्रद्धा नहीं रखते । और वासनओका जीतना, और तीसरा है आत्माका परमात्म येही ईश्वर को न मानने वाले लोग कहते हैं कि केवल पद को प्राप्त होना अथवा सिद्ध करना । एक खटमल को मारना भी पाप है । परन्तु मैं कहती अब में इन तीनों को एक एक करके लेनी हूँ:- हूँ कि हाँ, यह वस्तुतः पाप है। जो मनुष्य एक छोटे से असहाय कीड़े को मारने में संकोच नहीं करते वे १ अहिंसा वस्तुतः एक दूसरे को घात करने में कोई संकोच नहीं अहिंसा के विषय में मैं कह सकती हूँ कि पृथिवी- कर सकते । इमी से तो वे ईश्वर के नाम पर हिंसा तल पर कोई भी धर्म ऐमा नहीं है जिसने अहिंसा का करत-बलि चढाते हैं, धर्म के नाम पर एक दूसरे व्यवहार अथवा उसके व्यवहारका उपदंश ऐसी पूर्ण- का रक्तपात करते हैं। यहूदियों और मुसलमानों के ता तथा उत्तमताक माथ किया हो जैमाकि जैनियों के धार्मिक इतिहास को देखिये ! ईश्वर के नाम पर नगर धर्म(जैनधर्म)ने किया है । हम इसके साथही बौद्धधर्म के नगर उजाड़ दिये गये, बच्चों तथा स्त्रियों को घरको देखते हैं जिसका सिद्धान्त इस विषय में वस्तुतः द्वार से विहीन और अनाथ कर दिया गया ! भारत जैनधर्म के समान है, कदाचित् मनुष्यके अन्तिम लक्ष्य का पुरातन इतिहास देखिये ! देवताओं के नाम पर और कर्मसिद्धान्त की अपेक्षा दोनों में थोड़ा भेद है; सुर अमुर मारे गये तथा निर्दयता के साथ नष्ट कर परन्तु क्या यह सत्यार्थ नहीं है कि बौद्ध धर्म अहिंसा दिये गये । ये असुर उन आर्यजनों (आदिम वासियों) में जो सत्य संनिहित है उसके व्यवहार की मीमा सं के अतिरिक्त और कोई व्यक्ति न थे जो उस समय दूर चला गया है ? बौद्धधर्म में यद्यपि सभी छोटे छोटे भारत में निवास करते थे (बाहर के ) आर्यों ने जीवों के लिये भी दया करने का विधान है किन्तु उन्हें मार डाला, उनके घर-बार बर्बाद कर दिये और बौद्ध लोग इस नीति का उस प्रकारस अनमरण नहीं जो कुछ उन के पास अच्छी से अच्छी वस्तुएँ थी वे करते जैसा कि जैनधर्ममें इसका अनुष्ठान किया जाता सब छीन ली। और इन रक्त पातों का धर्मयुद्ध कह है । सभी बौद्ध देशों में लोग मांस और मछली खाते कर महाकाव्य लिग्वे गये तथा ललित साहित्य की हैं और इस प्रकार वे अहिंसा के वास्तिविक श्राचारको रचना की गई । असंख्य शताब्दियों से संमारके इतिदूषित करते हैं। परन्तु जैनधर्म में ऐसी विधि कहीं हास में धर्म का आचार हिंसा के आधार पर होता भी नहीं पाई जाती। यह विधि कैसे बन सकती है जब रहा है और उस धर्म के व्याख्याताओं ने अपने परकि दूसरा ही पद नश्वर वासनाओंको जीतना है । यदि मात्मा को परम दयालु, विश्वप्रेमी तथा न्याय और मनुष्य अपने सजातीय प्राणियों के मारने से अपने कृपा का सातिशय अवतार बतलाया है ! को नहीं रोक सकता तो वह नश्वर विषयवासनाओं ईसाई मत के सिद्धान्तों और वर्तमान ईसाई सं. को क्यों कर जीतेगा ? लोग जैनियों की हँसी उड़ाते सार के व्यवहारों को देखिये ! आपको अवश्य ऐसे है कहते हैं कि ये प्रति को लिये हुए हैं, ये निरर्थक स्वर्गीय ईश्वर से भेट होगी जो समस्त साधारण पातघोर तपस्यायें करते हैं, ये नास्तिक हैं, ये हमारी तरह कियों को दहकती हुई अग्नि में तथा गंधक के शाश्वत Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] भगवान महावीर की शिक्षा नरक में डालने के लिये सदैव क्रोधातुर रहता है। एक वीर पुरुष है । इच्छाओं तथा इन्द्रिय-जनित ऐसे भय-संघर्षों में से अहिंसा अपना मधुर तथा को- आनन्द पर विजय प्राप्त करना कोई साधारण तथा मन मार्ग कैसे पा सकती है ? सुगम कार्य नहीं है । यह एक बड़ा भयङ्कर युद्ध है, यदि संसार को स्थिर रखना है, यदि दुर्बल प्रा- और वही मनुष्य वास्तविक वीर-यथार्थ योद्धा-है णियो को सुरक्षित और सबल बनाना है तो अहिंमा- जो इस विषम कंटकाकीर्ण मार्गमें को गमन करता है। त्मक व्यवहार के अतिरिक्त दूसरा इसका और कोई संसार नाना प्रकारके प्रलोभनों से भरा हुआ है, इंद्रियाँ उपाय नहीं है । अहिंसा संसार को पोषण करने वाली सर्वत्र आसक्तिशीलता को लिये हुए हैं-आँख, कान, माता है । यही वास्तविक बल है । यही उन मनष्यों मनोवृत्तियाँ विषय सुखोंका आस्वादन चाहती हैं; परन्तु का पराक्रम है जिनमें पाशविकता नहीं है । यही एक जैनी, जो महावीर स्वामी की शिक्षाओं के सत्य आत्मा की वास्तिवक सामर्थ्य और शक्ति है। का यथार्थ अनगामी है, इन उन्मादिनी इच्छाओं का अब आप जगन्मूर्ति महात्मा गाँधी पर दृष्टिडालिया नियंत्रण करता है । क्यों ? व किस शक्तिके आधार पर काम कर रहे हैं, कौनसे ३ परमात्मपद की प्राप्ति मूल सिद्धान्त पर उन्होंने अपने आपका और अपने यहीं से तीसरी अवस्थाका प्रारंभ हो जाता है। हजारों अनुयायियों को प्राणोत्सर्ग के लिये शक्तिशाली यह अवस्था परमात्मपदका प्राप्त करना है; यह अन्तबना लिया है ? यह केवल अहिंसा है । इमी लिये मैं रात्माका अनभवन है। कहती हूँ कि संसार इस महान सत्यका अनुभव करने यदि एक मनुष्य अपने आपको संसार के क्षणके लिये जाग उठा है कि शक्ति कदापि हिमामें नहीं वर्ती पदार्थों में भ्रष्ट करता है तो वह अपने शाश्वत किन्तु वह अहिंसा में मंनिहित है । अहिंसा मानवीय लाभों को नष्ट कर देता है । बाह्य मिथ्या और आन्तर धर्मका सबसे अधिक सुंदर और सबम अधिक दिव्य मत्य तथा यथार्थ है । इसी में आत्मा के आनन्दका भाग है । बिना अहिंसाके कोई धर्म "धर्म" ही नहीं हो वास है, और बाह्य पदार्थों में अकथनीय दुःग्व, बंधन सकता और न बिना अहिंसा के कोई ऊँचा भाव ही तथा प्रपंच भरे हुए हैं। बन सकता है । यह अहिंसा ही वाम्तविक प्रेम है, यही ___मर्वानन्दमय आत्मा को म्वतंत्र-मुक्त-करने के वास्तविक दया है, यही वास्तविक धर्म है। लिय जैन शास्त्र यह उपदेश देते हैं कि 'मंमार से २ नश्वर वामनाओं का विजय अलग हो जाओ, मर्वमंगका परित्याग करदो, शरीर और इस धर्म पर आचरण करने के लिये हमें में भी अनगग मन रायो-विपयासक्ति को छोड़ मैंकड़ों नश्वर वासनाओं तथा शारीरिक विषय दो;-तभी तुम 'वीर' एवं 'जिन' होगे। लालसाओं का त्याग करना होता है । यही कारण है वीर होना तथा विषयासक्ति पर विजय प्राप्त कि जैनधर्मका मार्ग इतना कठिन है और जो मनुष्य करना कसा सुन्दर तथा सुहावना शब्दनाद है। किसी उसे प्राप्त करता है वह वास्तव में एक जैन है, भी दूमरे धर्म में यह सिद्धान्त ऐम समुचित रूप से Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ वर्ष १, किरण ८, ९, १० विषय पर 'रेड रशिया वार' (रूसवालों के युद्ध) के साथ सादृश्य नहीं रखता । योरोप के नास्तिक सिद्धान्त में किसी प्रकार के ईश्वर को स्थान नहीं है । वह अनात्मवादी की तरह से ही अनीश्वरवादी है । वह प्रकृतिपूजा का एक रूप है। वह केवल शारीरिक सुखों को पुत्र करने का एक मार्ग है। यही वजह है जो वर्त - मान युग सदाचार (नीति) की भयंकर गिरावट के कारण कष्ट पा रहा है । हमें भयानक अपराधों का, अवक्तव्य पतनों का और घृणा तथा कांध से संतप्त संसारकी उन जातियोंका वृत्तान्त सुन सुन कर आश्चर्य होता है, जो बाह्य में तो शान्ति दिखाती हैं, अंतर्ग ट्रीय सभाएँ स्थापित करती हैं परन्तु भीतर से उनके विचार मार-काट, लूट-खसोट, प्रतिहिंसा, और लोभलालच से भरे हुए हैं। वे एक दूसरे की बढ़तीको नहीं देख सकतीं। वे एक मेज के मित्रों की तरह प्रच्छन्न शत्रु हैं जो गुप्तरूप से एक दूसरे का पतन और नाश चाहती हैं। ४५६ अन्त तथा सुविचारता के साथ निरूपण नहीं किया गया है। बौद्ध धर्म में हम यह उपदेश पाते हैं कि, संसारी जीव-दुःखों से परिपूर्ण है और इन दुःखों से मुक्त होनेका साधन अपनी इच्छाओं का निरोध अथवा नाश करना है और इच्छाओं के नाशका नाम ही निर्वाण है । परन्तु जैनधर्म एक बिल्कुल दूसरेही प्रकार से शिक्षा देता है। वह कहता है-"वीर बनो, जिन बनो, और अपने सर्वानंदमय स्वभाव को प्राप्त करो । आत्मा आनन्द चाहता है, उत्कर्ष चाहता है । तुम्हारा उत्कर्ष मात्र इस दुःखमय कारागार (शरीर) में रहते नहीं होगा, तुम परमात्मा हो, परमेश्वर से किसी प्रकार कम नहीं हो, तुम्हारे स्वाभाविक गुण पृथिवीरज में नहीं पाये जाते, तुम इससे बहुत ऊँचे हो, तुम प्रतापसूर्य । ऐ मर्त्य मनुष्य ! भय मत करो, तुम अविनाशी ईश्वर हो- शक्ति रूपसे परमात्मा हो-ये केवल तुम्हारे कर्म हैं जो तुम्हें पुद्गल के साथ बाँधे हुये हैं और वे भी तुम्हारे कर्म - सदाचार - ही होंगे जो तुम्हारी बेड़ियों को काट कर तुम्हें फिर से तुम्हारे सर्वानन्दमय स्वरूपका बोध कराएँगे ।" फिर कहिये ! यह धर्म कैसे नास्तिक हो सकता है ? परमात्मपद का प्राप्त करना ऐसा सिद्धान्त नहीं है जिसका उपहास किया जाय । यह एक गहरे विचार का मामला है । बहुत से मनुष्यों ने अज्ञानवश जैनधर्मको अनी श्वरवादी - एक प्रकारका नास्तिक - समझा है । परन्तु वास्तव में यह वैसा नहीं है। यह वर्तमान युगका नास्तिक नहीं है । यह योरोपका अनीश्वरवादी नहीं है । यह " खाना पीना और मौज उड़ाना " नहीं है, इस खयाल से कि हमें कल को मरना होगा और कौन जानता है कि मरने के बाद क्या होता है। यह ईश्वर इन सब बातों के होने का कारण क्या है ? उत्तर बहुत सरल है । यही कि मनुष्यने अपनी नश्वर वासना को पुष्ट करने का विचार बहुत बढ़ा लिया है । गोबर के ढेर में पड़े हुए गुबरीले की तरह मनुष्य पतन करने वाली वस्तुओं में आनन्द मानता है, उन्हें अपने विज्ञान की उत्तम प्राप्ति समझता है और इन तपस्या के आचारों की हँसी उडाता है - धार्मिक विचारोंका ही उपहास करता है । अब विज्ञान ने तो ईश्वर और आत्मा के प्रश्नको उठा दिया है, उसके लिये तो एक मात्र शरीर का ही प्रश्न अवशिष्ट रह गया है । परन्तु जैनधर्म उसकी इस बात से किसी तरह भी सहमत नहीं है । हाँ, हम लोगों के लिये जो एक ईश्वर में श्रद्धा Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] भगवान महावीर की शिक्षा ४५७ रखते हैं एक सर्वेश्वर व्यक्ति परमात्मा की अश्रद्धा से का सिद्धान्त दिखाई देता है, एक पाप का ईश्वर और सम्बंध रखने वाली उसकी व्याख्याओंको मानना दूसरा पुण्य का ईश्वर है । दोनों समान शक्तिशाली कठिन है । परन्तु एक ईश्वर के मानने वालो में जो हैं और बराबर एक दूसरे के साथयुद्ध करते रहते हैं। परम्पर मतभेद-विरोध-है उसे देखते हुए एक और बेचारे दीन मनुष्य दोनों के निर्दय संग्राम में मनुष्य स्वभाव से ही ईश्वरके अस्तित्वविषयमें मूढ पीड़े जाते हैं । ईसाई मत में, मुसलमानी मजहब में, हो जाता अथवा संदेह करने लगता है । उदाहरण के यहूदी और पारसी धर्मों में ईश्वर और शैतान साथ तौर पर संसार के वर्तमान ईश्वरवादी (आस्तिक ) साथ दिखाई पड़ते हैं । और इन एजंटों के द्वारा होने मतों को लीजिये। मुसलमानों का खुदा अायों के वाले विश्व के दृश्यो की व्याख्या करने के लिये बहुत ईश्वरसे भिन्न है और यहूदियोंका परमात्मा हिन्दुओं से सिद्धान्त गढे गए हैं । परन्तु दुःख, मृत्य और पाके तथा ईसाइयों के भी ईश्वरसे और अधिक भिन्न लोक का प्रश्न अभी तक गहरं अन्धकार में ही पड़ा है। इन धर्मों के अनुयायी सदा एक दूसरे से झगड़ा हुआ है-ये धर्म इस विषय में कुछ भी स्पष्ट नहीं करते हैं, हमेशा के लिये एक दुसरेके धार्मिक विचारों बतलातं । यदि कहा जाय कि श्रात्मा अपने कमों के को पाखण्ड बतलात हैं-एक दूसरे के ईश्वर की अनुसार दुःख भोगता है और ईश्वर इसमें हस्तक्षेप निन्दा करते हैं । वे सदा अपने ही सिद्धान्तोंको ठीक करने के लिये असमर्थ है, वह केवल श्रात्मा के कष्टबतलाते और अपने धर्मशास्त्रों को ईश्वरप्रेषित प्रति- भोग का एक माक्षीमात्र है तो क्या फिर ऐसे निर्बल पादन करनेका यत्न करत हैं । तथा साथ ही, वे अन्य और निःशक्त ईश्वरकी उपेक्षा करना और अकेले कर्म धोको क्षुद्र और असत्य ठहराना चाहते हैं । कहिये । पर ही भगमा रण्वना अधिक युक्तियुक्त न होगा ? ईश्वर अपने ही विरुद्ध कैसे खड़ा हो सकता-बोल यदि कोई मनप्य अपना हाथ अग्नि में डाले तो सकता-और आँखमिचौली खेल सकता है ? और वह अवश्य जल जायगा । हम जैसा बीज बोते हैं फिर यह कैसे अविरुद्ध हो सकता है कि एक सर्व- वैसा ही फल पाते हैं, शायद इमी युक्तिक आधार पर शक्तिमान, सर्वानन्दमय, विश्वप्रेमी और परमदयाल परमात्मपद-प्राप्ति के युद्ध में आत्मा को वीर और परमात्मा ऐसे विश्व की सष्टि करे जो दुग्वदों तथा बलिष्ठ बनाने के लिये जैनधर्म ने ईश्वरके प्रश्न को कष्टों से पूर्ण है ? एक विचारशील के लिये यह बात बिलकुल ही छोड़ दिया है। बहुत ही खटकती है। ईश्वर इन दीन मर्त्य प्राणियों चाहे कुछ भी हो, हम लोग जो केवल एक ईश्वर के कष्टों को जानते हुए भी व्यर्थ दुःख उठाने के लिए में विश्वास रखते हैं अब भी इस विषय में मतभेदको उनकी सृष्टि कैसे कर सकता है ? यदि ईश्वर वास्तव लिये हुए हैं और एक अदृष्ट परमात्मा पर भरोमा करने में जगत का परम पिता होता तो क्या वह मर्त्य पिता और अपनी समस्त निर्बलताओं तथा त्रुटियों को उसी से भी अधिक निर्दयता के साथ यह चाहता कि उसके के कंधों पर डाल देते हैं, और एक अज्ञात व्यक्ति की बच्चे ये अनन्त कष्ट भोगें ? यही कारण है कि प्रायः पूजा-प्रार्थना करना पसंद करते हैं। यह हमारी कमजोरी सभी ईश्वरवादी धर्मों में हमें दो ईश्वरों के अस्तित्व है । शायद वह समय शीघ्र आ जाय कि हमारी यह Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ अनेकान्त कमजोरी भी न रहे । और मैं कहती हूँ कि वह समय निकट आ गया है । पाश्चात्य संसार ने ईश्वर कं. श्र स्तित्व को हृदय से प्रायः निकाल ही दिया है, और उसके स्थान पर ऐसे विभिन्न सम्प्रदाय तथा विभिन्न समाज उदय को प्राप्त होगये हैं जो जैन धर्म के साथ बहुत ही सादृश्य रखने वाले विचारों को मानते और उन पर अमल करते हैं । उदाहरण के तौर पर हम ध्यांसोफिकल सोसा इटियों का ले सकते हैं। उनकी शिक्षाएँ और आत्मतत्त्व-प्रचार की बातें जैनधर्म के साथ बहुत ही मिलती जुलती हैं, वे भी एक प्रकार से जैनधर्म के ही शिक्षक हैं। ऐसे समाजों की संख्या दिन-पर-दिन बढ़ती जा रही है। इस समय उगते हुए युवक संसारका यह मत है कि या तो धर्म में सहिष्णुता हो, या एकना हो अथवा बिल्कुल ही कोई धर्म न रह; धर्म ने संसारका बहुत ही अस्वस्थ - असाधु — बना दिया है, इसलिये उसे छोड़ देना चाहिए | और उसके स्थान पर वे मनुष्यता तथा विश्वबन्धुता का उपदेश देते है। क्या यह सब महर्षि महावीर की शिक्षाओं का सार नहीं है ? जब पारस्परिक मतभेद - विरोध-दूर हो जाते हैं तो केवल प्रीति और मित्रता रह जाती है, जो आपस में बन्धुता के भाव पैदा कर देती है। ये मर्त्य मनुष्य, जिनमें श्राप और मैं सब सम्मिलित हैं, वस्तुतः दिव्य - ईश्वर तुल्य प्राणी हैं, यह विचार आत्मा को शान्ति और संतोष का दाता है। इससे क्षोभ मिट जाता है, नरकका भय दूर हो जाता है और हम ऊँचे ऊँचे उठते एवं उन्नति करते चले जाते हैं । जब सब लोग इन उदात्त सिद्धान्तों को समझ जायँगे, जब पशु से मनुष्य तक सभी एक दूसरे से भाई की तरह हाथ मिलायेंगे और संपूर्ण सृष्टि परस्पर आनन्दमग्न होगी तो उस समय यह संसार कितना सुंदर एवं मनोज्ञ मालूम देगा । [वर्ष १, किरण ८,९,१० उनका संदेश संसार भर के उन सभी प्राणियों के लिये, जो असंख्य जन्मों तथा मरणोंके थका देनेवाले मार्ग में परिभ्रमण कर रहे हैं, यह है कि - तुम्हारे ही कर्मों से दुःख दूर होंगे, पाप धुल जायँगे और तुम पूर्ण सुखी तथा आनन्दमय ईश्वर हो जाओगे । और यह सब कुछ तुम्हारे ही हाथ की बात है । यह किसी सुरलोकस्थ ऐसे महान् देवताकी शक्तिके आधीन नहीं है, जो तुम बहुत दूर है - तुम्हारे दुःखों, शांकां तथा कष्टों के क्षणों से दूरवर्ती है । यह तुम से बाहर नहीं है, मुक्ति तुम्हारे ही अन्दर है, पूर्ण आनन्दका रम्य स्थान तुम्हारे ही आत्मा के भीतर विद्यमान है। ये सब तुम्हारे ही कृत्य होंगे जो उस अपूर्व आनन्द का तुम्हारे आत्मा में विकाश करेंगे। क्यों दुःख उठाते और चिलाने हुए धूल में पड़े हो ? निर्बलता, अन्धकार (अज्ञान ) भय और मृत्यु से ऊपर उठो । तुम अविनाशी हो, तुम दिव्य हो । संसार इस दिव्य गीत को हर्षावेश से सुनता है और इसी में उसकी मुक्ति है । सारांश, महावीर स्वामीकी शिक्षा में सत्य के तीन बड़े सिद्धान्त संनिहित हैं- - एक अहिंसा, दूसरा नश्वर वासनाओं पर विजय, और तीसरा परमात्मपद की प्राप्ति । अत्र आप स्पष्ट देख सकते हैं कि ये तीनों अ वस्थाएँ एक दूसरेके साथ सम्बद्ध हैं। मनुष्य श्रहिंसा का पालन करता है और उस के पालन द्वारा नश्वर विषयवासनाओं पर विजय प्राप्त करता है और इस तरह परमात्मपद प्राप्त हो जाता है। यह दृष्य महर्षि महावीर स्वामी के ज्ञान में झलका। उन्होंने इसे स्वयं देखा, अनुभव किया और संसार के हित के लिये - अपने दुःखित भाइयों के लिये - इसका उपदेश दिया । यही भगवान् महावीर की शिक्षाओं का सार है । उन्होंने खुद हिंसा का पूर्ण रूप से पालन किया, संसार के विषयभोगों को त्याग दिया और परमात्म पद को प्राप्त किया । क्या हो अच्छा हो, कि हम उनके इस पवित्र आदर्श का अनुकरण करें और शुद्ध कैवल्य तथा नित्यानंद अवरा को प्राप्त हो जायँ । अनुवादक - भोलानाथ जैन मुख्तार Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] कर्णाटक-जैनकवि ४५९ .... ....... कर्णाटक-जैनकवि [अनुवादक-श्री० पं० नाथूरामजी] पहले भाग का परिशिष्ट [ 'कर्नाटक-कवि-चरित' के दूसरे भाग के अन्त : श्रीधराचार्य ( १८ ६) मे राव बहादुर आर० नरसिंहाचार्यजी ने एक 'परि- ये बेलबल प्रदेश के नरिगंद स्थान के रहने वाले शिष्ट' दिया है, जिसका अनुवाद आगे दिया जाता है। ब्राह्मण थे । इनका बनाया हुआ 'जातक-तिलक' ना. इस परिशिष्ट में जितनं कवियों का परिचय है, वास्तव मक ग्रन्थ उपलब्ध है । इसके अन्त्य पद्य से यह भी में पहले भाग में आने चाहिएँ थे और पहले भाग मालम होता है कि इन्होंने 'चन्द्रप्रभचरित' भी लिखा की दूसरी आवृत्ति जो हाल ही प्रकाशित हुई है, उसमें । था। 'अब तक कनड़ी में किमी ने ज्योतिष ग्रंथ नहीं इन सब कवियों का परिचय यथास्थान दे भी दिया लिखा है, आप जातक-तिलक लिखने को कृपा करें,' गया है। क्योंकि पहले भाग में १४ वीं शताब्दियों के विद्वानों के इस आग्रहस विवश होकर श्रापन 'जानक अंत तकके कवि दिये हैं और ये भी सब इसी समय तिलक' की रचना की थी । कनड़ी के ये सबसे पहले के भीतर के कवि हैं। ज्यातिपप्रन्थ-निर्माता हैं । नागकुमारकथा के प्रारंभ १ श्यामकुण्डाचार्य ( ल . ७०० ई० सन ) में बाहुबलि ( १५५० ) ने आद्यज्यातिपकार लिख इन्द्रनन्दि के 'श्रतावतार' मे मालूम होता है कि कर इन का स्मरण भी किया है । ये चालुक्यनरेश इन्होंने कनड़ी भाषा में 'प्राभूत' की रचना की थी। आहवमल्ल (१०४२-६८) के समय में थे और इन्होंने ये तुंबला-आचार्य अथवा श्रीवर्द्धदेव के समकालीन अपना ग्रन्थ ई. सन १०४९ में लिखा था । या उनके कुछ ही पूर्व हुए होंगे । इनका कोई ग्रंथ उप- इन के गद्य पद्यविद्याधर, बुधमित्र आदि सम्मानलब्ध नहीं हुआ। मचक नाम हैं । इन्होंने आदिपंप, चंद्रभट्ट(अम्बुजारि), २ श्रीविनय दएरनाथ (ल०६१५) मनसिज, गुणवम ( शीलभद्र), गजांकुश, और ग्न कड़पा जिले के दान उलपाडु नामक गाँव के एक का स्मरण किया है । आर्यभट्टका भी उल्लेख किया है। शिलालेख से मालूम होना है कि यह अनुपम कवि प्रन्थ के प्रारंभ में जिन और मरस्वती का म्तवन है। था; परंतु इसके किसी ग्रंथका कोई उल्लेग्य नहीं मिलना 'जातकतिलक' में २४ अधिकार है-१ संज्ञा, २ है । यह राष्ट्रकूट राजा तृतीय इंद्र ( ९१५-९१७ ) का बलाबल, ३ गर्भ, ४ जन्म, ५ तिर्यग्जन्म, ६ अरिष्ट, अतिशय पराक्रमी दंडनायक था । शिलालेख से मा- ७ अरिष्टभंग, ८ आयुर्दाय, ९ दशान्तर्दशा, १० अष्टलूम होता है कि इसने अंतमें संन्यास ग्रहण करके नि- कवर्ग, ११ जीव, १२ गजयोग, १३ नाभिसंयोग, र्वाण (?) प्राप्त किया। १४ चन्द्रयोग, १५ द्विभियोग, १६ दीक्षायोग, १७ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० স্মনাল [वर्ष १, किरण ८, ९, १० राशि, १८ लग्नभाव, १९ द्रेकाण, २० दृष्ट, २१ अ- शिकारपुर के शिलालेख (९९०) से मालूम होता निष्ट , २२स्त्री जातक, २३ निर्वाण, २४ नष्ट जातक। है कि इन्होंने 'सुकुमारचरित' लिखा है, इसकी एक __. दिवाकरनन्दि (१०६२) अपूर्ण प्रति हमें मिली है जो बहुत जीर्ण है । इसमें 'नगर' के शिलालेख के ५७ वें पद्य से मालूम गजा सुरदत्त, रानी 'यशोभद्रा' के पुत्र 'सुकुमार' का होता है कि इन्होंने तत्वार्थसत्र पर एक कनड़ी टीका चरित्र लिखा है। इसके प्रत्येक आश्वासके अन्न में लिखी है। इसका नाम 'तत्त्वार्थमृत्रानुगत-कर्णाटक- यह गद्य हैलघवृत्ति' है। मूलकर्ता का नाम गृध्रपिच्छाचार्य इदु समस्तविनयेजनविनमिन-श्रीवर्द्धमान लिखा है । वृत्ति के प्रारंभ में यह श्लोक है। मुनीन्द्रवंद्य-परमजिनेन्द्रश्रीपादपद्मवरप्रसादोत्पनत्वा जिनेश्वरं वीरं वक्ष्ये कर्णाटभापया। नसहनकवीश्वर-श्रीशान्तिनाथ-प्रणीन-सुकुमारतत्त्वार्थसत्रसत्रार्थ मन्दबुद्धयनुरोधतः ॥ चारित्र दोलअन्त में नीचे लिखा हुआ गद्य है ६ वादिकुमुदचन्द्र (ल०११००) "इदु सकलागमसंपन्न-श्रीमचंद्रकीतिभट्टा- उन्होंने 'जिनसंहिता'नामक प्रतिष्ठाकल्प पर कनड़ी रकपअनन्दिसिद्धान्तदेव-श्रीपादप्रसादासादिन- व्याख्यान लिखा है । उसके प्रारंभमें यह श्लोक हैसमस्तसिद्धान्तामृतपारावार-श्रीमदिवाकरणंदिभ- श्रीमाघनन्दिसिद्धान्तचक्रवर्तितन भवः । ट्रारकमुदींद्र-विरचिन-तत्वार्थसत्रानुगतकर्णाटक कुमुदेन्दुरहं वच्मि प्रतिष्ठाकल्पटिप्पणं ।। लघुवत्तियोल-" और अन्त में लिखा है___इनका 'उभयसिद्धान्तरत्नाकर' विरुद था । इनके ___"इति श्रीमायनंदिसिद्धान्त चक्रवर्तिसुतचतु. गुरु का नाम 'चद्रकीति' भट्टारक था। नगर और सारब के शिलालेखों में इनकी स्तुति की गई है । ये विधपाण्डित्यचक्रवर्ति-श्रीवादिकुमुदचन्दपण्डितपट्टण के स्वामी 'नोकन' के गरु थे और 'सकल चन्द्र' देव-विरचिते प्रतिष्ठाकल्पटिप्पणे-" नामक इनका एक शिष्य था। इससे मालूम होता है कि ये माघनन्दि सिद्धान्त ___५ शान्तिनाथ (१०६८) चक्रवर्ती क पुत्र थे और 'चतुर्विधपाण्डित्यचक्रवर्ती' की इनके दण्डनाथप्रवर, परमजिनमतांभोजिनीराजहंस, सरस्वतीमुखमुकुर, सहजकवि आदि सम्मान- देवचन्द्र के 'गमकथावतार' (१७१७ ) से मालूम सूचक विशेषण थे । ये 'भवनकमल्ल लक्ष्मण राजा' होता है कि कुमुदचंद्र ने एक गमायण भी लिखी है । (१०६८-७६ ) के मंत्री, 'वर्द्धमान' व्रती के शिष्य. इनका समय लगभग ११०० हाना चाहिए। 'गोबिन्दराज' के पत्र, 'कन्नपार्य के छोटे भाई और बालचन्द्र ने (ल० ११७० ) अपनी तत्त्वार्थतात्पवाग्भूषण 'रेवण' के बड़े भाई थे। इनके उपदेश से यवत्ति' कुमुदचन्द्र भट्टारक को प्रतिबोधित करने के लक्ष्मण राजा ने बलिग्राम में शान्तितीर्थश्वर-चैत्यालय लिए बनाई, ऐसा लिखा है । जान पड़ता है कि वे बनवाया था। कुमुदचन्द्र भट्टारक इनसे पृथक् हैं । पदवी से Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] कर्णाटक जैनकवि ४६१ ७ मौक्तिक ( ल०११२० ) वाग्बन्लकी वैणिक (ल०११५०) इमन 'चन्द्रनाथाष्टक' लिखा है । इस अष्टक में इसने चन्द्रप्रभ-स्तुति लिखी है जो १४ कन्द पद्यों बनलाये हुए पेरणेगडलु तथा हेण्णेगडलु प्राम जैन- में है और बहुत सुन्दर है । इसमें कवि ने अपना नाम धनियायी कोगालव राजाओं के अधीन थे । वीर न बतला कर केवल अपने विरुद का ही उल्लेख किया कोंगालव राजा (ल० ११२० ) ने 'मेघचन्द्र' के शिष्य है। इसका समय ११५० के लगभग होना चाहिए। 'प्रभाचंद्र' सिद्धान्तदेव को ये गाँव दान दिये थे, ऐसा १० वीरनन्दि (११५३ ) एक शिलालेख से मालूम होता है । इन्होंने स्वोपज्ञ आचारसार' का एक कनड़ी व्या८ जगद्दल सोमनाथ (ल० ११५०) ख्यान लिया है । इनके गुरु 'मेघचन्द्र' थे । इसकी इसने कनड़ी में 'कल्याणकारक' लिखा है। इसको निम्न लिखित प्रशस्ति मे मालम होता है कि इन्होंने 'विचित्र कवि' भी कहते थे । इस ग्रन्थ मे लिखा है कि श्रीमुख संवत्सर १०७६ शक (ई०स० ११५३) में व्याइम 'सुमनोवाण' और 'अभयचन्द्र' सिद्धान्ति ने मं- ख्यान लिखा हैशोधित किया है, इस होता है कि यह सुम- "स्वस्ति श्रीमन्मेषचन्द्र-विद्यदेवरश्रीपाद नोवाण का समकालीन था और सुमनोवाणका समय प्रमाहासादितात्मप्रभाव-समस्तविद्यापम वसकलगभग ११५० है । इसने 'माधवेन्दु' का स्मरण किया लदिग्वतिकीर्ति-श्रीमद्वीग्नन्दिसिद्धान्तचक्रवर्ति है । यह माधवेन्दु ११३१ में मृत्युंगत होने वाले गंगराज गल्" इत्यादि--- के पुत्र वोप्प का गुरु था, ऐसा श्रवणवेल्गल के ई०स० ११ देवेन्द्र मुनि ( ल०१२०० ) ११३५ के एक शिलालेख से प्रकट होता है । इसमे भी इन्होंने 'बालग्रहचिकित्सा' नामका गद्यमय प्रन्थ उक्त समय ठीक जान पड़ता है। लिग्वा है । इनका ममय ई०स०१२०० के लगभग जान कनड़ी 'कल्याणकारक' वैद्यक ग्रन्थ है और पूज्य- पड़ना है। पाद कृत 'कल्याणकारक' का अनुवाद है। मिली हुई शुभचन्द्र ( ल. १२०० ) अपर्ण प्रति में केवल आठ अध्याय है । इसमें लिवा इन्होंने कार्तिकयानप्रेक्षा की टीका लिखी है और है कि पूज्यपाद का 'कल्याणकारक' बाहट (वाग्भट्ट), आपको त्रैविद्य विद्याधर पडभाषाकविचक्रवर्ती बतसिद्धसार, चरक आदि के ग्रन्थों की अपेक्षा श्रेष्ठ है लाया है। इनका समय ई०स०१२०० के लगभग जान और उसकी चिकित्सा मद्य-मांम-मधु-वर्जित है। पड़ता है। इसके प्रारंभ में चन्द्रनाथ, पंच परमेष्ठी, सरस्वती, १३ मल्लिकार्जुन (ल०१.४५ ) माधवेन्द, सैद्धान्तिक चक्रवर्ति माधवेन्दु और कनक- इसने 'सक्तिसुधार्णव' नामक ग्रंथ लिखा है जिसे चन्द्र पंडितदेव का स्मरण किया गया है। काव्यसार' भी कहते हैं । इसमें १९ श्राश्वास हैं; परंतु कीर्तिवर्मा (ल० ११२५ ) के 'गोवैद्य' को छोड़ अभी तक यह संपूर्ण उपलब्ध नहीं हुआ है । इसमें कर कनड़ी में यही सत्र से प्राचीन वैद्यक प्रन्थ है। काव्योपयोगी १८ विषयों का संग्रह जुदे जुदे प्रन्थों Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८,९,१० पर से किया गया है। इसके प्रारंभ में जिनस्तुति की की है जिसमें संस्कृत शब्दों के कनड़ी पर्याय दिये हैं। गई है और फिर विष्णु, शिव, गजानन के भी स्तोत्रों इनका भी समय लगभग १३०० ई०सन् जान पड़ता है का संग्रह किया गया है । इसमें हायसल राजाओं की १६ प्रभाचन्द्र ( ल० १३०० ) परम्परा भी दी है। इन्होंने 'सिद्धान्तसार' और 'चारित्रसार' की कमल्लप्प, मल्ल, चिदानन्द मल्लिकार्जुन ये इस कवि नही टीकायें लिखी हैं। के नामान्तर हैं । 'चोरकथा' नामक ग्रंथ भी इसी कवि का लिखा हुआ है, इसके लिए कोई प्रबल प्रमा १७ कनकचन्द्र ( ल०१३०० ) ण नहीं मिलता । हमारी समझ में चोरका का इन्होंन कोंडकुदाचार्यके 'मोक्षप्राभूत' या 'सहजाको कोई दूसरा ही मल्लिकार्जन है और वह आध- मप्रकाश' ग्रंथ पर कनड़ी व्याख्यान लिखा है । निक है। सूक्तिसुधार्णव का कर्ता शब्दमणिदर्पणकार १८ आर्यसेन (ल. १५३१ ) केशिराज का पिता और जन्न कवि का बहनोई था । नागराज'ने लिखा है कि उनके 'पुण्यास्रवपुराण' यह वीर सोमेश्वर (१२३३-५४) का समकालीन को 'आर्यसेन' ने सुधार कर सुंदर बनाया है । इन्होंन था। केशिराज के 'शब्दमणिदर्पण' के अनुसार यह किसी स्वतन्त्र ग्रंथ की भी रचना की है या नहीं, यह 'मुनिश्रेष्ठ' था। प्राचीन कवियों का निर्णय करने मे इस प्रन्थ का मालूम नहीं हुआ। " बहुत उपयोग होता है। इसमें निम्न लिखित ग्रंथों पर १६ बाहुबलि पंडित (१३५ . ) से पद्य संग्रह किये गये हैं इन्होंने 'धर्मनाथपुराण' की रचना की थी, जिस अग्गल-कृत 'चन्द्रप्रभपराण', अभिनवपंप-कत का कि अंत का केवल एक ही पत्र उपलब्ध हुआ है। 'मल्लिनाथपुराण' और 'रामायण', अण्डय्य-कृत 'कब्बि यह ग्रंथ शक संवत् १२७४ में समाप्त हुआ है और इस गरकाव', आदि गुणवर्म-कृत 'शद्रक', आदिनागवर्म- के १६ श्राश्वास हैं । इनके गुरुका नाम 'नयकीति' था। कृत 'कादम्बरी', उदयादित्य-कृत 'अलंकार', कमलभव २० आयतवर्म ( ल०१०००) कृत 'शान्तीश्वरपुराण',कविकाम-कृत श्रृंगाररत्नाकर', गुणवम-कृत 'पष्पदन्तपुराण', चन्द्रराज-कत 'मदनति- इन्होंने कनड़ी रलकरण्डक' चम्प लिखा है, जिस लक', दुर्गसिंह-कृत 'पंचतंत्र',देवकवि-कृत 'कुसुमावली " में ३ परिच्छेद हैं और सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र का २ नमिचन्द्र-कृत 'लीलावती' और 'अर्धनमि', सदभट निरूपण किया है। इनके गुरु का नाम 'वर्द्धमान' सिकृत 'जगन्नाथविजय', हरिहर-कृत 'गिरिजाकल्याण'। द्धान्तदेव है । इनके समयका ठीक निर्णय नहीं होसका। १, पबमम ( ल . १३८०) २१ चन्द्रकीर्ति । ल० १४००) इन्होंने विंशतिप्ररूपणी टीका' लिखी है। लगभग इन्होंने परमागमसार' लिखा है जिसके १३२ कंद १२५० में लिखे गये 'माघनंदिश्रावकाचार' का इन्होंने पद्य हैं। ग्रंथ के अंत में अपने गुणों का वर्णन किया है। अनुवाद किया है, इस कारण इनका समय ल०१३०० सरस्वतीमुखतिलक और कविजनमित्र इनके विरुदथे । होना चाहिए। इनका भी समय निर्णय ठीक नहीं हो सका। १५ अमृतनन्दि ( ल०१३०० ) इन्होंने अकारादि क्रमसे वैद्यक निघण्टुकी रचना Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं० २४५६ ] काटक-जै आधुनिक जैनसमाजकी सामाजिक परिस्थिति ONLY [ लेखिका - श्रीमती भारतीय साहित्यविशारदा डा० क्रौके. पी. एच. डी. ( सुभद्रादेवी) ] जैनधर्म भारतवर्ष के अति प्राचीन धर्मों में से एक है, जोकि बौद्ध धर्म से भी प्राचीन है, और प्रायः वर्तमान अभिप्राय के अनुसार अति प्राचीन हिन्दुदर्शन में भी पूर्व अवस्थितिवाला है । यद्यपि जैनधर्म ने द्ध की भांति शक्ति एवं विस्तीर्णता नहीं पाई थी, और भारतवर्ष की सीमा को भी उल्लंघन नहीं किया था - अर्थात् बौद्धमत की भांति भारतवर्ष के अतिरिक्त चीन, जापान आदि प्रदेशों में जैनधर्म का प्रचार नहीं हुआ था, तो भी इस धर्म ने एक समय भारतीय धार्मिक जीवन पर बड़ा प्रभाव डाला था । क्योंकि किसी समय में राजा-महाराजा सरदार लोग भी इस धर्म के अनुयायी थे । और इस धर्म ने अपने अहिंसात्मक सिद्धान्तों का प्रभाव अन्य धर्मों पर डाला था । फिर भी अंतिम शताब्दियों में इसका प्रभाव न्यून हो गया है । इस धर्मके वर्तमान निश्चित अनुयायियों की संख्या प्रति मनुष्य-गणना ' । ( Census report ) के अनुसार न्यूनता के मार्ग की ओर प्रयाण करते करते ११००००० एकादश लाख की अंतिम जघन्य स्थिति तक पहुँची है। परंतु उपर्युक्त उल्लेखानुसार जैनधर्म के प्रभाव की इस परिवर्तनके अनुसार अवनति हो रही है और जैन धर्म ने भारतवर्ष के आत्मिक-धार्मिक जीवन पर अपने १ ब्रिटिश गवर्नमेंट ( Birtish Government ) की ओर से प्रति दस वर्ष में जो मनुष्यों की सख्या गिनी जाती है उसे मर्दुमशुमारी या मनुष्यगणना कहते हैं । ४६३ प्रभाव की शिक्षा करना बंद कर दिया है, ऐसी कल्पनायें करना ठीक नहीं है । बात यह है कि जैनधर्म, उन मनुष्यों के लिये जो कि जाहिरा तौर से जैन हैं अर्थात जो जन्म और परम्परा से जैन हैं, उनकी ही मर्यादा में नहीं है। किंतु वास्तविक रीति से जैनधर्मानुयायियोंकी संख्या मनुष्य गणना (Census report ) के कथन की अपेक्षा से अधिक प्रमाणवाली है । जैनधर्म के सिद्धान्तो में, संभवतया जिनका कि अनुमान बाह्य लोग कर सकते हैं उनसे अधिक लोग भा सकते हैं। क्योंकि जैनधर्म का, ऐसे विद्वान्, विवेकी एवं उत्साह संपन्न जैन मुनिराजोंद्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान पर निरंतर प्रचार हुआ और आज कल भी होता है, जो मुनिराज मात्र अशिक्षित वर्ग के लोगों को ही नहीं, किन्तु खास करके समग्र देश के शिक्षित लोगो को भी आकर्षित करते हैं और अन्य धर्मानुयायियों में भी अपने धर्म के प्रति प्रेम, मान और उत्साह उत्पन्न कराते हैं। ऐमे बहुत से मनुष्य हैं, जो यद्यपि जन्म, परंपरा और क्रियाकांडादिसे हिन्दू पारमी, मुसलमान धर्मों का आचरण करते हैं और उन धर्मोको छोडनेका विचार भी नहीं करते हैं, तो भी अपने तत्त्वज्ञान एवं नैतिक आदर्श का अनुसरण करके सच्चे जैन कहे जा सकते हैं। ऐसे और भी अन्य धर्मी लोग विद्यमान हैं, जो अपने पुराने (परंपरागत) धर्ममें लवलीन होने पर भी नियमित रीतिसे जैन मंदिरों में दर्शनार्थ जाते हैं, जैन मूर्तियों की पूजा, पाठादि दैनिक Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८,९,१० कार्य करते हैं, और सच्चे जैनों की भांति उत्साहपूर्वक करते हैं । उन लोगों के लिये जैनधर्म एक नैतिक आजैनों के कतिपय नियम पालते हैं । इस वस्तुस्थिति दर्श तथा सच्चे तत्त्वज्ञान की एक चाबी-कुञ्जिका है। के दृष्टान्त के तौर पर मैं उदयपुर के नामदार इस लिये दक्षिण भारतकं समस्त दिगम्बर अपने धर्ममहाराणा साहब तथा कुँवर माहब के प्रसंग का बन्धनोंद्वारा गाढ-घनिए-प्रेमरूपी सांकलमें परस्पर उल्लेख करती हूँ, जो कट्टर हिन्दू होने पर भी उदयपुर- इस प्रकारसे बंधे हुए हैं कि भिन्न भिन्न स्थानों में रहने समीपवर्ती केशरिया जी के प्रसिद्ध मंदिर का विधि- हुए तामिल, तेलग, कनडी और मलयालमादि भिन्न पूर्वक आम पब्लिक में पूजन व दर्शन करते हैं। ऐसे भिन्न भाषायें तथा उच्च व नीच गोत्र होने पर भी वे सब और भी कई एक गजा महागजा हैं, जो जैन मुनि- जातियाँ एक ही संघ के सभ्यकी समान मालूम होती गजों के रक्षक तथा भक्त कहलाये जा सकते हैं । वे हैं-अर्थात् उन लोगोंमें किसी प्रकारका भेदभाव नहीं लोग जैन मुनिराजों की देशना से प्रफुल्लिन होते हैं, व है। वे संघ, ज्ञाति व पेटा ज्ञाति आदिकी मतभिन्नता मुनिराजों की प्रेरणा अथवा उपदेश के प्रभाव से जैन से अनभिज्ञ हैं । और उनमें सर्वसाधारण भोजनधर्म के सिद्धान्तों का अनुसरण करके स्वयं जीवरक्षा- व्यवहार एवं कन्याव्यवहार प्रचलित हैं । वे पवित्र दि के नियमों का पालन करते हैं और अपनी प्रजा से निष्कपट-हृदयी तथा धर्म-प्रेमी दिगम्बर जैन जैनकुल पालन कराने के लिये "अभारी पटह" की उद्घोपणा में जन्म लेनेवाले और जन्म नहीं लेनेवाले प्रत्येक करते हैं। जैन के साथ भाई तथा मित्र जैसा व्यवहार करते हैं । अब यह मालूम होता है कि एक ओरसे जैनधर्म किंतु उत्तर तथा मध्य भारत में जैनधर्म की श्वेमें अनुरक्त रहना और उसके नैतिक सिद्धान्तों के अ- ताम्बर और दिगम्बर ये दो मुख्य शाखाएँ स्वकीय नुसार जीवन व्यतीत करना और दूसरी ओर जन्म विविध प्रतिशाखाओं-सहित विद्यमान हैं । वहाँ जैन एवं संस्कार से जैन होना, इन दो विषयों में अधिक स्कूलादि शिक्षालय मौजूद हैं। और वहाँ पर श्रावक भिन्नता नहीं है। यदि दक्षिण भारतकी परिस्थिति पर व साधु-मुनिराज जैनधर्मके प्रचार कार्य के लिए उत्साहदृप्रिपात करेंगे तो सचमुच इतना अंतर दृष्टि गोचर पूर्वक परिश्रम करते हैं । उस देशमें "जैन” इस गंभीर नहीं होगा । उस प्रदेश के शाँत-हृदयी बद्धि-शाली आशय वाले पद से विभूपित लोगों को अनि-कठोर द्रविड-जैनों ने दिगम्बर जैन धर्म का, जो कि जैनधर्म तपम्यातथा सूक्ष्म क्रियादि करनेका कर्त्तव्य उस"जैन" की मुख्य दो शाखाओं में से एक है, प्राचीन समय शब्दके ही अन्तर्गत रहा हुआ है। "जैन" इस उपाधि सं ही पवित्रता पूर्वक आचरण तथा रक्षण किया से युक्त व्यक्ति जन्म से ही ज्ञाति व पेटा ज्ञाति के है । इन महानुभावों का जैनधर्म-विषयक जो ज्ञान तथा नियमों में बंधा हुआ है। जिन ज्ञातियों तथा पेटा ज्ञाक्रियाकांडादि हैं, उन सबका आधार मौखिक परंपरा तियों का प्रभाव उस व्यक्ति के समस्त कौटुम्विक कार्यों ही है-अर्थात् पिता अपने पुत्र को, माता अपनी पत्री में आजीवन दबाव डालता है-यह बात भी जैनधर्म को सैद्धान्तिक उपदेशक के बगैर ही उस धर्म के सि- में समाविष्ट है। द्धान्तों का अध्ययन-अध्यापन करते थे, और अब भी वाचकों के मन में आश्चर्यपूर्वक यह प्रश्न अवश्य Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि० सं० २४५६ ] उत्पन्न होगा कि जैनधर्म जिसके विषय में यह बात प्रसिद्ध है कि वह विश्वप्रेम एवं उदारताका समर्थक है और समस्त स्वामीभाइयों को ज्ञाति के भेद भाव को छोड कर परस्पर सदृश भक्तिभाव रखने की प्रेरणा करता है, उस धर्म का ज्ञाति तथा पेटा ज्ञातिकं नियमों क्या संबंध ? तो भी उत्तर व मध्य भारत के जैनों में इतिहास ने ज्ञाति तथा धर्म इन दोनों में परस्पर विरुद्ध तत्त्वों का श्रश्रद्धेय व अभंग सम्बंध करा दिया है। उत्तर तथा मध्य भारत में जैनधर्म के लभभग समस्त आधुनिक प्रतिनिधि वणिक् जातियों के हैं, जो वणिक् जातियां भारतीय प्राचीन समाजान्तर्गत वैश्य समुदाय की प्रतिनिधि हैं । तणिक जातियाँ ब्राह्मण तथा क्षत्रिय जातियों के समान प्राचीन संस्थाएँ हैं, जिनमें से कई जातियों का उल्लेख ईसवी सन् की छठी शताब्दी और उससे भी पहले पाया जाता है । यदि उत्तर और मध्य भारतकी ब्राह्मण, क्षत्रिय और वरिण कू जातियों के इतिहास की ओर दृष्टिपात करेंगे तो मालूम होगा कि वे सब जातियाँ मारवाड़ तथा गुजरात के कतिपय स्थानों के समाजों उत्पन्न हुई हैं। उन स्थानों के नामों का प्रभाव जातियों के नामों में बहुत अंशों में आज कल भी विद्यमान है । इस ही प्रकार वार्तमानिक मोढ ब्राह्मण और मांढ वणिक मुढेरा गाँव से, नागर ब्राह्मण तथा नागर वैश्य बड़नगर नामक स्थान से, ओसवाल वणिक् आशियानगरी से और श्रीमाल वणिक भीनमाल नामक स्थान से उत्पन्न हुए हैं । ये ही ब्राह्मण, जो प्राचीन समय में मूल से जैन थे उन्होंने शंकराचार्य तथा उनके अनुया यियों के प्रभाव की प्रबलना से जैनधर्म को सदा के लिये त्याग दिया । इस ही कारण से ब्राह्मण जाति ने आधुनिक जैनसमाजको सामाजिक परिस्थिति ४६५ जैनधर्म के अन्तिम इतिहास में कोई भी महत्व -शाली स्थान हस्तगत नहीं किया। दूसरी ओर से जो क्षत्रिय मूल से जैन थे, उन्होंने क्रम से अपना प्राचीन सैनिक व्यवसाय और धंदा छोडकर ऐसा व्यवसाय स्वीकार किया था जो जैनधर्म के सिद्धान्तानुसार कम हिंसाकारक है अर्थात् वे व्यापार करने लगे और उनकी ज्ञातियों का वणिक ज्ञातियों में समावेश हो गया । हम निश्चित रीति से जानते हैं कि आधुनिक ओसवाल, श्रीमाल और पोरवाल ज्ञातियों का एक भाग चौहान, राठौड़, चावडा व सोलंकी और अन्य प्रसिद्ध राजपत गोत्रों का वंशज है, जिनके कि नाम आज कल भी बहुत से जैनों के गोत्रों में पाये जाते हैं 1 उपर्युक्त उल्लेख से स्पष्ट प्रतीत होता है कि बहुत शताब्दियोमं मात्र वणिक ज्ञाति ही के लोग जैनधर्मके प्रतिनिधि होते आए हैं। इतना ही नहीं किन्तु वणिक् ज्ञातियों के ओसवाल, श्रीमाल, पोरवाल, वायड और मांढ आदि बड़े बड़े भाग शुद्ध जैन ज्ञातियोंके रूपमें थे। चौगसी वणिग् ज्ञानियाँ, जो कि इतिहास में प्रसिद्ध हैं, उनके सम्बंध में इतना ही निश्चित है कि इनका एक भाग अवश्य जैनधर्मानुयायी था। क्योंकि उनमें से बहुत से लोगों ने मंदिरादि निर्माण करा कर जिन-प्रतिमायें व मंदिरों के शिलालेखों में अपना नाम सदा के लिये लिखवाया है। जैन माधुयों की शिथिलता व उदासीनता तथा उत्माही वैष्णव धर्म के वल्लभाचार्यसम्प्रदाय के उत्थान के परिणाम से सोलहवीं, मतरहवीं शताब्दी में उपर्युक्त इन प्राचीन जैन वणिक् ज्ञातियों के बहुत मनुष्यों ने अपना मूल धर्म छोड़ कर वैष्णव धर्म अंगीकार किया था । पूज्यपाद ख० जैनाचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरि जी स्वसंपादित जैनधातुप्रतिमालेखसंग्रह की प्रस्तावना में फर्माते हैं, "मैंन सुना Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८, ९, १० था कि सूरत शहर की एक पब्लिक सभा में एक संप्रदाय परस्पर भोजन तथा कन्याव्यवहार का प्रायः वैष्णव पंडित ने अभिमानपूर्वक कहा था कि वल्लभा- खुल्लमखुल्ला विरोध प्रदर्शित करते हैं । चार्य के सम्प्रदाय वालों ने तीन लाख जैनों को वैष्णव उपर्युक्त वस्तुस्थिति तथा आचरण का परिणाम धर्मानुयायी बनायाथा।" लेखक महानभावका कथन यह हुआ कि जिन समुदायों में परस्पर भोजन तथा है कि उपर्युक्त कथन प्रायः सत्य है। कन्याव्यवहार की छूट थी वे मंडलियाँ circles ) __ अब प्राचीन जैन ज्ञातियोंने, इस कारण कि उनके उपर्युक्त भेदों के कारण प्रति दिन घटती गई। इसका अनुयायियोंको प्रारंभसे ही म्वमतानुसार अपवित्र एवं प्रत्यक्ष उदाहरण यह है कि बीसा श्रीमालादि बड़ी मिध्वात्वी अन्य धर्मी लोगोंके साथ रहना पड़ता था, जातियों में विवाहयोग्य ममस्त युवकों के लिये कन्या स्वतंत्रतापूर्वक प्राचीन समयमें ही भोजन और कन्या- कैसे प्राप्त करना, यह एक कठिन कार्य हो गया, और व्यवहार संबंधी कई एक कठोर नियम बना लिय थे। अब भी है। गुजरात, काठियावाड के कई एक स्थानों और जब फिर से ये ज्ञातियाँ श्रीमाल, वीसा श्रीमाल, में ऐसी भी परिस्थिति उत्पन्न हुई है कि एक बीसा दम्सा श्रीमाल, लाडुआ श्रीमाल, एवं वीसा सवाल, श्रीमाल श्वेताम्बर मूर्तिपूजक, यदि अपनी कन्या का दस्सा ओसवाल, पाँचा सवाल और अढईया विवाह उस ही गाँव के श्वे० स्थानक वासी बीसा श्री. आसवालादि भिन्न भिन्न पटा-ज्ञातियों (उपजातियों) मालके साथ करता है तो वह मनुष्य संघबाहिर करने में विभक्त हो गई, तब उन पेटा ज्ञातियों में भी का पात्र होता है। और वेरावलका कोई श्वेमूर्तिपूजक उपर्युक्त नियम अधिक संख्या में बनने लगे। अब दम्सा ओसवाल, यदि वलानिवासी श्वे. मूर्तिपूजक गुजरात, काठियावाड और मारवाडादि प्रान्तान्तर्गत दम्सा ओसवाल के माथ अपनी पत्रीका विवाह करतो स्थानानुसार जहाँपर इन पेटा-ज्ञातियोंके समूह निवांस वह मनुष्य भी बड़ा दोषी माना जाता है। करतथं उन्हीं के अनुसार वहाँ वहाँ पर फिर इन पेटा- भारतवर्ष में लग्नयोग्य कन्याओं की बड़ी भारी ज्ञातियों की भिन्न भिन्न शाखायें उत्पन्न हुई। त्रटि है । इस विषय में नाना प्रकार के सबल कारण फिर भी इन सब ज्ञातियों तथा उप-ज्ञातियों की मालम होते हैं। उनमें से मुख्य कारण कुछ यही प्रतीत प्रत्येक शाखा अपन अपन भोजन तथा कन्याव्यवहार- होते हैं कि एक तो कई समाजों में विधवा स्त्री का सम्बंधी नियम दत्तचित्त होकर पालन लगी। इतना ही पनलग्न करने का निषेध है । और विधुर लोगों के नहीं किन्तु यह ज्ञातियाँ भिन्न २ धार्मिक समुदायों में लिय पुनर्लग्नसंबंधी प्रतिषेध के अभाव से वे लोग विभक्त हो गई । इस ही प्रकार जैन वणिक ज्ञाति बारंबार पुनर्लग्न करते हैं । दूसरे भारतीय स्त्रियाँ कम मात्र श्वेताम्बर एवं दिगम्बर इन दो मुख्य भागों में ही अवस्था में ही मृत्यु के मुखमें प्रवेश करती हैं, जिसका विभाजित नहीं हैं । बल्कि श्वेताम्बर जैन ज्ञाति में भी कारण यह है कि प्रसूति के समय उनके आरोग्यश्वे० मूर्तिपूजक, श्वे० स्थानकवासी, श्वे० तेरहपंथी, संबन्धी साधनों का अभाव होता है , तथा बाल्यकाल ये शाखायें हो गई । दिगम्बर संप्रदाय में भी तेरहपंथी में विवाह हो जाने के कारण उनके शरीर दुर्बल और तथा बीसापंथी ये दो शाखायें हैं। ये सब भिन्न २ रोगी बन जाते हैं। तीसरे कई एक गोत्रों में सगपण Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६ ] संबंधी अमुक नियमों के कारण से लग्न नहीं हो सकता है । उक्त कारणों से स्त्रियों की क्षति होने पर कन्याविक्रय जैसे दुष्ट हानिकारक रिवाज प्रचलित हुए है | अपनी २ मंडली (circle) की लग्न करने योग्य जैन कन्याएँ अपने २ नगर वासी लोगों के अतिरिक्त किसी भी अन्य नागरिकको न दी जायें। यदि | प्रत्येक प्रांतवासी मनुष्य इस नियम पर कटिबद्ध हो जायें तो अपने नगर व प्रांतवासी अशिक्षित एवं साधारण वर्ग को भी कन्यायें उपलब्ध हो सकें। ऐसे विचार अर्थात् कन्याएँ अपनी मंडली ( circle ) के बाहर जाने नहीं देने का इरादा इस बात का कारण चना कि उपर्युक्त जातिनियम अतीव कठोर बन गये । इसका प्रमाण यह भी है कि ये सब नियम मात्र कन्या देने के वास्ते ही किये जाते हैं जब कि स्वज्ञानीय कन्या मण्डली ( circle ) के बाहर से लाने में जग भी संकोच नहीं होता है । मेरे उपर्युक्त उल्लेखानुसार कई एक प्राचीन जैन जातियों के मनुष्यों ने जैनधर्म छोड़ कर वैष्णव धर्म अंगीकार किया। इस ही कारण से जैन जाति प्रति दिवस कम होती गई। इस ही सबब से बहुत सी जातियों में जैनविभाग तथा वैष्णवविभाग, इस प्रकार दो पक्ष पड़ गये । इन दोनों विभागों में परस्पर भोजन तथा कन्याव्यवहार प्रायः बंद कर दिये गये । क्योकि जिन लोगों ने वैष्णव धर्म स्वीकार किया था वे लोग अवशेष जैनों को वैष्णवधर्मानुयायी बनाने के लिए आग्रह तथा दबाव डाला करते थे । जहाँ जहाँ पर जैनां की बस्ती थोड़ी थी और वैष्णव धर्मानुयायियों का प्राबल्य था—वे अधिक संख्या में विद्यमान थे - वहाँ वहाँ पर जैनलोगोंको कन्याप्राप्ति के लिये अपना प्राचीधर्म छोडना पड़ता था । तो भी उन लोगों का अंतः धुनिक जैन समाज की सामाजिक परिस्थिति ४६७ करण अपने पुराने धर्म से विरक्त हो जाता था, ऐसा नहीं किन्तु वाह्य कौटुम्बिक कारणों से उन लोगों को अन्य धर्म स्वीकार करना पड़ता था । मैंन ऐसा भी सुना है कि सफ़ेद केश वाले वृद्ध लोग बारम्वार जैन मुनि महाराजों के निकट आकर रोते रोते स्वीकार करते हैं कि कुछ वर्ष पहले हम लोगों को पूर्वोक्त प्रकार के व अन्य आर्थिक कष्टों के कारण हमारे पूर्वजों के प्रियधर्म को छोड़ना पड़ा। और हमको हमारी संतति का अन्य धर्मियों के संस्कारों में पालन-पोषण होते हुए देख कर दुःख पैदा होता है । इसका परिणाम यह हुआ कि अंतिम १०० वर्षों में ऐसी बहुत सी ज्ञातियाँ, जो पहिले शुद्ध जैन जातियाँ थी, आज कल " जैन-ज्ञाति " कहलाने योग्य नहीं रहीं । इन ज्ञातियों में जैनों का मात्र छोटासा भाग अवशेष है, जो कि कम होता जाता है । यही परिस्थिति मौढ, मनियार तथा भावसार वणिक ज्ञातियों की है। कुछ वर्ष पहले बड़नगर के नागर वरिणकों में जो शेष जैन थे, उन्होंने भी वैष्णव धर्म स्वीकार कर लिया | क्योंकि अपनी जाति वाले जैनोंसे कन्यायें प्राप्त नहीं कर सकने पर इन नागर वणिक् जैना ने वीमा श्रीमाली ज्ञानि के जैन लोगों से विनती की श्री कि, हम लोगों को अपनी मंडली ( rele ) में सम्मिलित करो । एवं हमारे साथ भोजन तथा कन्याव्यवहार भी प्रारंभ करो। परन्तु संकुचित विचार वाले बीमा श्रीमाली जैन वणिकों ने अपने स्वामीभाइयों को साफ इनकार कर दिया। इस कारण से अंतिम नागर जैनों को जैनधर्म छोड़ना पड़ा । मेरे को यह बात पूज्यपाद स्व० जैनाचार्य श्रीमदबुद्धिसागर सग्जिी के उपर्युक्त ग्रंथ से मालूम हुई है । इम ही प्रकार दक्षिण की लिंगायत ज्ञानि व बंगाल Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८, ९, १० की सराक ज्ञाति, जो किसी समय में शुद्ध जैन ज्ञाति- पार्जन करने वाले तथा अपने जीवन में प्रतिष्ठा पान याँ थी, उनमें आज कल एक भी जैन पाया नहीं वाले कब होवें, यही उनको फिक्र रहती है। इस ही जाता है। कारण से शिक्षाप्रचार की ओर कम ध्यान देते है। इससे मालूम होता है कि मध्य एवं उत्तर भारत- ____ बहुत से उच्च कुटुम्ब के जैनों ने अपना धर्म इम । वर्षीय जैन ज्ञातियों तथा धर्मशाग्वाओं की अयोग्य कारण से छोड़ दिया कि वे लोग बहुत पीढ़ियों में सामाजिक व्यवस्था तथा परिस्थिति के कारण यह अन्यधर्मी राजा के नौकर थे और भोजनसंबंधी दशा हुई कि अंतिम वर्षों में बहुत से जैन लोग धर्म कठोर नियमों के कारण दरबारी सभासदों के साथ भ्रष्ट हुए। स्पष्ट व्यवहार नहीं रख सकते थे, इस लिये उन लोगो ___इसके बारे में कई एक अन्य कारण भी है । उन न इन नियमों तथा धर्मको भी त्याग दिया । ऐसी ही में से एक कारण यह भी है कि बहुत से जैन स्तुति- पोलियों के प्राचीन मनिया पाठादि बिना समझे बोलत हैं और विविध क्रियाओं ___ पर गुजरी, जिनके पर्वज, जो कि इतिहास में मुग्थ्य का उनका रहस्य समझे बिना आचरण करते हैं, और भार तथा महत्त्वशाली पात्र गिने जाते हैं, कट्टर जैनी थे । कठोर तपस्याएँ भी कारण समझे बिना करते हैं । अभी उन में मुश्किल से ही कोई जैन मिलेगा। इन सबका कारण समझाने वाली एवं ज्ञान देने वाली धार्मिक संस्थाएं बहुत कम हैं । अच्छी स्थिति वाले ____ कई असंतुष्ट एवं घबराये हुए जैन, जो कि अपने कइ धनिक जैन श्रावक अपने धार्मिक उत्सव-वर घोडा, जातिनियमो का उल्लघन करने का साहस नहीं कर पूजा, उपधान, उजमण, अदाई महोत्सव, दीक्षोत्सव, सकत थे, आर्य समाजमें जा मिले, जो कि भारतवर्षक प्रतिष्ठा और संघ निकालना-वगैरह धार्मिक प्र. आधुनिक जीवन में बहुत भाग लेता है, और बुद्धिसंगों में लाखों रुपये खर्च करते हैं। दो चार पूर्वक उदार व सुव्यवस्थित शिक्षणसंस्थाएँ खालने में वर्ष पहिले ४००० चार हजार जैन श्रावक व उत्साह दिखलाता है । मनुष्य गणना की रिपोर्ट ४०० चार सौ साधुओंका एक बड़ा संघ पाटन में (Census report ) जो मात्र जाहिर जैनों की गिरनार व कच्छ के लिये निकाला गया था। उसका ही संख्या सूचित करती है, वह इसके विषय में क्या संघपति एवं संरक्षक एक प्रसिद्ध गजराती सेठ था। जान सकतीहै कि “ बहुत से मनुष्य जिन्होंने जाहिर उस प्रसंग पर १२००००० बारह लाख रुपये का खर्च में जैनधर्म छोड़ दिया है वे अपने हृदय में जैन रहे हुआ था, ऐसा सुना जाता है । यद्यपि ऐसे धार्मिक हैं, जो धर्मभ्रष्ट होने पर भी अन्तः करण से जैन कार्यों में पुष्कल द्रव्य-व्यय किया जाता है, तथापि हैं और प्राचार विचार से जैन धर्मानयायी ह ?" शिक्षाके लिये, जो समग्र धर्मों तथा सभ्यता की जड़ और जैन संघको, जो कि चिंता पूर्वक यह देखता रहै है, यथाचित रीति से अपनी लक्ष्मी का सद्व्यय कि हमारी संख्या प्रति दिन कम होती जाती है-चाहे करना बहुत जैन लोग अभी तक नहीं सीखे हैं। वे धर्म भ्रष्ट होने वाले लोग जैनधर्मके प्रति अन्तःकरण अपने पुत्र-पौत्रादि जैसे हो सके वैसे जल्दी द्रव्यो- से प्रेम रखते हों-इससे क्या लाभ है ? Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] आधुनिक जैनसमाजकी सामाजिक परिस्थिति ४६९ जैन संघ के नेताओं ने इस विषय में बहुत कुछ निर्बल हो जावेगा। विचार किया, और इन क्षतियों का सुधार करनेके दूसरा पक्ष अपने को सुधारक पक्ष बतलाता है। लिय बहुत कुछ प्रयत्न किये, परन्तु अभी तक किसी ये लोग यथार्थ रीति से जैन धर्मानयायियों की संख्या भी व्यक्ति ने ज्ञातियों और उनके नियमों की ओर क- घटन के सच्चे कारण जान गये हैं । तो भी ये लोग कठोर दृष्टि पात करने का भी साहस नहीं किया है। झातिनियमों के विरुद्ध सीधी रीति से हल चल करयद्यपि वास्तवमें इन बन्धनों के लिये इस जागृति तथा ने का साहस नहीं करते हैं, किन्तु आड़े टेढ़े प्रयत्न शक्ति-विकाश के जमाने में जरा भी स्थान नहीं है। करते हैं अर्थात् नवीन पद्धतिके अनुसार शिक्षण देने तब फिर जैन संघ के अग्रेसरों ने कौन कौन से की सूचना देत और परिश्रम भी करते हैं। आगमोंका उपाय किये ? इसके उत्तर में यही कह सकते हैं कि अभ्यास करने का स्कालरों (Scholus को उत्तेजन भिन्न २ मति के भिन्न २ सचनायें करने वाले दो जदे देते है । भारत में ही नहीं किन्तु पाश्चात्य देशों में भी पक्ष हैं । इनमें का एक पक्ष रूढिपूजक पक्ष है, जो जैन साहित्य का प्रचार करते हैं । जैन धर्म के तस्व उपयक्त हानियों के सच्चे कारण नहीं जानता । परंत क्या है ? रूढियाँ क्या है ? आदि बातें बतलात है। एसा जानता है कि इस हानि का कारण यह है कि स्त्रियों की स्थिति सुधारने के लिये प्रयत्न करते हैं। आज कल परानी रूढियों तथा पराने मतों की ओर प्रत्येक स्थान में सर्व साधारण प्रेम एवं सहकार की लोग उपेक्षा करते हैं, और आधुनिक पाश्चात्य शिक्षण उद्घोषणा करते हैं । जैनों की शाखा तथा प्रतिशाखापाश्चात्य विचार एवं सिद्धान्तों के प्रति विशेष रुचि आमे ऐक्य स्थापन करनेका प्रयत्न करते हैं । यह बात दिखलाते हैं । इस लिये रूढिपजकों का कथन है कि निःसंदेह है कि उपर्युक्त प्रयत्न उचित हैं । कारण पुरानी रूढियों और मतों में कठोरतापूर्वक दृढ रहना यह है कि जितने अंशामें शिक्षा का प्रचार होगा उतने चाहिए । इतना ही नहीं, किंतु ऐस नियम भी जो किसी ही अंशों में शिक्षणप्रचार से यह बात निश्चित हो ज़माने में लाभदायक थे, परंतु इस समयके लिए हानि- जावेगी कि " उपयुक्त मानिनियमां के कारण समाज कारक हों, वे भी रखने चाहिये । उपयुक्त मान्यता स्वी- की कितनी अधोगति हुई है और अब उन नियमों का कार करने वाले लोगों का कथन है कि "अन्य धर्मियों नाश करना कितना आवश्यकीय कार्य है।" और के साथ सहकार-संबंध नहीं रखना चाहिये, यगंपयात्रा जितने अंशों में भिन्न२ शाखाओं तथा प्रतिशाखाओं नहीं करना चाहिए, गृहस्थ लोगों को भागमाभ्यास में परस्पर जितना संबंध बढ़ेगा उतने ही अंशों में सुनहीं करना चाहिये, और पाश्चात्य शिक्षण को स्थान धारक पक्ष शक्तिशाली बनंगा, और प्रत्येक को अपना नहीं देना चाहिये ।” संकुचितता एवं बद्धि-हीन रूढि अपना उत्तरदायित्व मालुम होगा। पजकता इस पक्ष के मुख्य चिन्ह हैं । यद्यपि इस पक्ष उपर्युक्त कथन के सिद्ध होने में अभी बहुत देर की भावना जैन समाज में अभी तक बहुत प्रचलित है। क्योंकि जैनधर्म की श्वेताम्बर एवं दिगम्बर यह है, तथापि ऐसा कह सकते हैं कि इस पक्ष के अनु- दो मुख्य शाखायें अभी तक अंतरीक्षजी, पावापुरजी यायी कम होते जाते हैं । प्रायः यह पक्ष थोड़े समय में राजगृही, सम्मेदशिखर, केशरियाजी और मक्सी आदि Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८,९,१० तीर्थस्थानों के अधिकार प्राप्त करने के लिये परस्पर गुजरात के कई एक जैन संघों में ऐसी मंडलियाँ झगड़ रहे हैं । इस निष्प्रयोजन कलहमें लाखों-करोड़ों भी विद्यमान हैं, जिनमें भिन्न २ शातियों के सभासद रुपयोंका अपव्यय कर रहे हैं। दूसरी ओर श्वेमूर्ति- परस्पर भोजन तथा कन्याव्यवहार करते हैं । पाटन के पुजक, श्वे० स्थानकवासी और श्वे० तेरहपंथी तत्त्व- जैनसंघका प्रत्यक्ष दृष्टांत है कि दस्सा पोरवाल, दम्स ज्ञान-संबंधी महत्त्वहीन भिन्नताओं के लिये परस्पर श्रीमाल और दस्सा ओसवाल इन संप्रदायों में परम्पर लड़ रहे हैं । दिगम्बर समुदाय में भी कुछ अंदरूनी- उपर्युक्त प्रकारका संबंध विद्यमान है । वहाँकी प्राचीन आभ्यन्तरिक-अशांति मालम होती है । यह सब शा- रूढिका ही यह परिणाम है न कि सुधारकोंका। खायें प्रतिशाखायें पुनः भिन्न भिन्न समुदायोंमें विभक्त दूसरी ओर गुजरात और काठियावाड में ऐसी हैं, जो समुदाय परस्पर एक दूसरे को शांतिपर्वक भी मंडलियाँ हैं जिनमें एक ही ज्ञाति को भिन्न भिन्न रहने नहीं देते हैं । परंतु प्रतिपक्षियों के सुंदर कार्यों धर्म वाले जैन-वैष्णवादि लोग एक दूसरे के साथ को नाश करने के लिये प्रयत्न करते हैं । जब ऐसे परि- भोजन और कन्याव्यवहार करते हैं । परंतु ऐसे उदाणामहीन झगड़े बंद हो जायेंगे तब बहुत सी शक्तियाँ हरण बहुत कम पाये जाते हैं। जातिसुधार और सर्व साधारण का उत्थान करने को यदि उल्लिखित अपवादों को और दक्षिण भारतलाभदायक हो जावेंगी। वर्षीय दिगम्बर जैनों की आदर्श स्थिति को भी एक आधुनिक भारतवर्ष में ऐसा सुधार शक्य है, इस तरफ कर देवें, तो ऐसा कहना पड़ेगा कि आधुनिक कथन की पुष्टि पंजाब के जैनों के उदाहरण से होती जैन समाज की परिस्थिति आर्थिक लाभों के लिये है । इन लोगों के बारे में यह बात सुनी जाती है अपने धर्म को छोड देने की दुःखोत्पादक भावना से कि "उन्होंने कुछ वर्ष पहले भोजन तथा कन्याव्यवहार और जैन धर्मावलम्बी सुधारक वर्गमें साहस नहीं होने की एक बडी मण्डली ( circle ) बना दी है, जिसके के कारणसे बहुत ही अस्वस्थ मालूम होती है । यह सभासद 'भावडा' इस नाम से प्रसिद्ध हैं और बात जैनधर्म के भविष्य के लिये दुःखदायक कल्पना जिसमें किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं है।” पूर्व उत्पन्न करती है। राजपूताना, संयुक्तप्रांत और बंगाल के मारवाडी जैनों ऐस विचारों से हमारे मन में यह प्रश्न उत्पन्न में भी ऐसी बडी मंडलियाँ ( circles) हैं जो कम से होता है कि, ऐसा समय कब आवेगा जब कि, हमारी कम पेटाज्ञाति की अपेक्षा नहीं रखती हैं । दक्षिण आशाओं का अनुसरण करके, उपर्युक्त समस्त ज्ञातिवासी जैनों के बारेमें भी ऐसी ही बात सुनी जाती है। याँ जातिबंधन के हानिकारक प्रभावों से मुक्त होकर यह बात सत्य है कि उपर्युक्त प्रसंगों में जैनों की छोटी और अंधश्रद्धा व संकुचितता रूपी घनिष्ठ घास-फूस ही संख्या के विषय में विवेचन किया गया है, जो के अनिष्ट प्रभावों से छूट कर तीर्थकर महाराज के कि एक बड़े विशाल क्षेत्र में रहती हैं। तो भी "ज्ञा- प्राचीन धर्म में फिर से जीवनशक्ति प्रदान करेंगी। तीय संकुचितता त्याग हो सकती है" इस बात को अनुवादक-भँवरमल लोढ़ा जैन बतलाने के लिये यह प्रसंग योग्य है। Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] कर्णाटक साहित्य और जैनकवि कर्णाटक साहित्य और जैनकवि [ लेखक तथा अनुवादक-श्रीयुत पं० के० भुजबलि शास्त्री ] ख्यात पंच द्राविड भाषाओं में कन्नड़ एक मुख्य ईसा की नवमीं शताब्दि में कन्नड भाषा का प्रचार - भाषा है, जिसे 'कर्णाटक' भी कहते हैं । इस उत्तर में गोदावरीसे लेकर दक्षिणमें कावेरी नदी तक भाषावर्ग में तामिल, तेलगु, मलयालम और तुलु भाषाएँ हो रहा था । परंतु इस समय वह बात नहीं रही; तो भी गर्भित हैं । हिन्दी, गुजराती, मराठी, बंगला आदि भी मैसूर, कोडग, बम्बई प्रान्तके दक्षिण भाग, हैदराभाषाएँ संस्कृतजन्य गिनी जाती हैं । इसका कारण बाद संस्थानके पश्चिम भाग, मैसर-कोडगु के उत्तरयह है कि, मराठी आदि गौड भाषाओं में स्वतन्त्र पश्चिम-दक्षिण दिशाओं के मद्रासप्रांत के जिले, मध्यशब्द बहुत कम हैं। इन भाषाओं में व्यावहारिक शब्द प्रान्त-बगर के कुछ भाग, इतने प्रदेशोंमें यह भाषा प्रायः संस्कृतजन्य ही हैं । इसके अतिरिक्त इन भा- बोली जाती है । और इस लिये वर्तमाग समयमें कषाओंमें लिंगनिर्णय, संधि, प्रत्ययसंयोजन आदि प्र- र्णाटकप्रान्त मैसूर, हैदराबाद, मद्रास, बम्बई, बरार, क्रियाएँ संस्कृत व्याकरणकी मर्यादाको लिये हुए हैं। कोडगु, इस प्रकार छह भागों में विभक्त है । परन्तु द्राविड भाषाओं में यह नियम नहीं है। उनमें जिस प्रकार अन्यान्य प्रान्तों में साहित्य का समय संस्कृत जन्य शब्द हैं अवश्य; फिर भी व्यवहारपर्याप्त निर्धारित है उसी प्रकार कन्नड साहित्यका समय भी स्वतन्त्र शब्द अधिक संख्या में मौजूद हैं । इसके अ- प्राचीन, माध्यमिक और वर्तमान काल अथवा क्षात्र, तिरिक्त इन भाषाओंकी व्याकरण-मर्यादा भी संस्कृत मतप्रचारक तथा वैज्ञानिक कालके भेदसे तीन भेदों सं बहुत कुछ भिन्न है । इनमें लिंग अर्थ का अनुकरण में विभक्त है । प्राचीन काल ९ वीं शताब्दी से १२ वीं करता है, सन्धिक्रम भिन्न है, नामपदों के एक व- तक, माध्यमिक काल १२ वीं स १७ वीं तक और चन एवं बहुवचनों में एक ही प्रकार की विभक्तियाँ वर्तमान काल १७ वीं शताब्दी से आज तक माना होती हैं, गुणवचनों में तरतम भाव नहीं है, संबन्धा- जाता है। र्थक सर्वनाम नहीं है, कर्मणिप्रयोग कम है, क्रियाओं अब तक उपलब्ध हुए कन्नड भाषाके ग्रन्थों में का निषेध रूप है और कृत्-तद्धित-प्रत्यय भिन्न हैं। 'कविराजमार्ग' नामक ग्रन्थ ही सबसे अधिक प्रा___ कन्नड़ या कर्णाटक भाषा बहुत प्राचीन है। जिस चीन है । यह अलंकारशास्त्र-संबंधी प्रन्थ है । प्रन्थ के समय हिन्दी, बंगला, मराठी गुजराती आदि भाषाओं लेखक जैनराजा नपतंग हैं । जो राष्ट्र कूटवंश के थे। का प्रादुर्भाव भी नहीं हुआ था, उस समय कन्नड़- कतिपय विद्वानोंका मत है कि इस प्रन्थके लेखक स्वसाहित्य हजारों ग्रन्थरत्नों से सुशोभित हो रहा था। यं नृपतुङ्ग न हो कर उनके दरबार का 'श्रीविजय' Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८,९,१० नामक एक कवि था। फिर भी बहुमत से 'कविराज एवं जैनेतर विद्वानोंको भी इस विषय पर विचार करने मार्ग के लेखक नृपतुङ्ग ही सिद्ध होते हैं । ऐतिहासिक का अच्छा अवसर प्राप्त हो सके। प्रमाणों से सिद्ध हो चुका है कि यह ग्रंथ ईसवी सन् 'कविराजमार्ग' के रचियताने अपनी कृतिमें कनि८१४ से ८७७ तकके मध्यवर्ती समयमें रचा गया है। पय प्राचीन ग्रंथों तथा कवियोंका भी उल्लेख किया है। यही नृपतुङ्ग राजाका राज्यकाल है, जिसका समर्थन परन्तु वे ग्रंथ अभी तक उपलब्ध नहीं हुए हैं । विद्वानों धारवाड़ जिले के सीरूम-शास ( Indian Antiq. का मत है कि कर्णाटकसाहित्यका प्रारम्भ काल इसम Vol.XII, P 216 से होता है । नपतुंगका अमोघ- भी पूर्व कम से कम ई० सन् २०० से ४०० तक था; वर्ष और अतिशयधवल नाम भी था। यह राजा महो- क्योंकि मन् १६०४ में भट्टाकलंक ने अपने 'कर्णाटकदय संस्कृत आदिपुराणके रचयिता भगवजिनसेनाचार्य शब्दानशासन' में लिखा है कि तत्त्वार्थ महाशास्त्रका के शिष्य थे । ऐसा उक्त जिनसनाचार्य के शिष्य गुण- व्याख्यानरूप ९६००० श्लोकपरिमित 'चडामणि भद्र के 'उत्तरपुराण' से जाना जाता है। इनकी गज- नामक एक प्रन्थ कन्नड़ भाषा में रचा गया है । इम धानी मान्यखेटपुर थी। बल्हर साहब का कथन है कि चूड़ामणि ग्रंथके लेखक श्रीवर्धदेव हैं, जिनकी प्रशंसा हैदराबादमें जो मलखेड़ नामक स्थान है वही यह मान्य- महाकवि दण्डीने भी की है । दण्डीका समय छठी खेटपुर है (Indian Antiq To. XII, P.:215). शताव्दी होने से चूड़ामणिके कर्ता श्रीवर्धदेव भी छठी नृपतुंग अमोघवर्षने ६२ वर्ष तक राज्यशासन करके अंत शताब्दि के विद्वान थे । इम के अतिरिक्त पाँचवीं शमें स्वयं ही उमे त्याग दिया था। इनके राज्यत्यागकी ताब्दीमें स्थित गंगगज 'दुर्विनीत' का नाम भी प्राचीन यह बात इन्हीं के द्वारा रचित 'प्रश्नोत्तररत्नमाला' कवियों की श्रेणी में आता है। ग्रंथ से मालूम होती है * । इनका बहुत कुछ वर्णन अब तक भारतवर्षमें संस्कृत,प्राकृत-पालीके अतिकई दिगम्बर जैन संस्कृत ग्रंथोंकी प्रागुक्तियों और रिक्त दूसरी भाषाओं के जो भी ग्रन्थ उपलब्ध हुए हैं प्रशस्तियों में पाया जाता है। परंतु मंजेश्वरम्के प्रसिद्ध उनमें कर्णाटकभाषा-सम्बन्धी 'कविराजमार्ग' नाम ऐतिहासिक लेखक पं० गोविन्द पै जीका कहना है कि की कृति ही प्राचीनतर है । हिन्दी के 'पृथ्वीराजगसी' राजा नृपतुंग जैनी नहीं थे। इस विषय में उनका एक एसा भटाक नक ने माने उक्त शब्दानुशासनमें प्रकट न... विस्तत लेख बेंगलर से प्रकाशित होने वाली प्रख्यात किया। 'इन्द्रनन्दि-श्रतावतार' और 'राजावलिकथे' में इस 'चूड़ामणि' कर्णाटक-साहित्य-परिषत्पत्रिका के वर्ष १२, अंक ४ में टीका का कर्ता 'तुम्बुलूगचार्य' को लिखा है-ग्रन्थपरिमाण भी प्रकाशित हुआ है । अतः इस विषयमें विशेष खोजकी ८४००० दिया है-और श्रवणबेलगोल के ५४ वे शिलालेख में श्रावश्यकता है । मित्रवर पै जीसे हमारा सविशेष अ- श्रीवदव को जिस 'चूडामणि' ग्रन्थका को बतलाया है उस 'सेव्यनरोध है कि श्राप उम लवको काव्य' लिखा है, (वह कोई टीका ग्रन्थ न ) और इससे दोनों ग्रंथ तथा उनके कर्ता भिन्न जान पड़ते हैं-ग्रंथ के माम-साम्य से प्रकाशित करने की कृपा करें, जिससे उत्तरीय जैन दोनोंका का एक मान लेना उचित प्रतीत नहीं होता । इस विषय * विवेकात् त्यक्तराज्येन राज्ञेयं रक्तमालिका। का विशेष जानने के लिये देखो, 'स्वामी समन्तभद्र' पृ०१६० से। रचिताऽमोघवर्षेण सुधिया सदलंकृतिः ।। -सम्पादक Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] कर्णाटक साहित्य और जैनकवि ४७३ और मराठी के 'ज्ञानेश्वर' जैसे ग्रन्थ निस्सन्देह इसके अपना नाम अमर कर दिया है। इसी से आज भी बाद की कृतियाँ हैं। संपूर्ण कर्णाटक भूभाग उनके सुयशके गीत गा रहा कन्नड़ भाषा का व्याकरण भी संस्कृत के समान है। तेरहवीं शताब्दि तक कन्नड़ भाषाके जितने प्रौढ सर्वांगपूर्ण है । प्राचीन कर्णाटक व्याकरण उपलब्ध प्रन्थकर्ता हुए हैं, वे सब जैनी ही थे। इससे इस बात हानसे कर्णाटक भाषाके प्राचीन ग्रंथोंको अधिक सुल- का भी अनुमान हो जाता है कि उस समय कर्णाटक भतासे अध्ययन कर सकते हैं । जिन्होंने व्याकरणहीन प्रदेशमें जैन धर्म का कितना अधिक प्राबल्य था। इन प्राचीन मराठी ग्रंथों तथा हिन्दी ग्रन्थोंको पढ़ने के जैन कवियोंके गंग, राष्ट्रकूट, चालक्य, बल्लाल आदि लिये प्रयत्न किया है उन्हें इस व्याकरणका महत्व वंशों के राजा लोग अनन्य पोषक तथा प्रोत्साहक थे । विदित होगा। अत एव जैनियोंसे उन्नति पाये हुए कर्णाटक भापाकर्णाटक साहित्य के विषयमें सुदीर्घ कालसे ही साहित्यमें उस समय काव्य-नाटकादि प्रन्थोंके अतिलक्ष्य देने का उद्योग किया जा रहा है। अंतिम श्रत- रिक्त वैद्यक, ज्यातिष, मन्त्रवाद, कामशास्त्र, पाकशास्त्र कंवली भद्रबाह स्वामी जब उत्तर भारत में बारह वर्ष रत्नशास्त्र, सामुद्रिक शास्त्र आदि अन्यान्य विषयों के का दुर्भिक्ष पड़ने का हाल जानकर अपने शिष्यों के कई मौलिक ग्रन्थ उत्पन्न हुए थे । परन्तु आगे चल साथ दक्षिण भारत में पधारे उस समय का इतिहास कर बल्लाल राजा बिट्टिदेवके वैष्णवमत स्वीकार करने जैन समाजमें सुप्रसिद्ध है । इनके अनन्तर इनके अन- और बसवक लिंगायन मत की स्थापना तथा कालयायियों में कतिपय शिष्यों ने दक्षिण भारतमें जैनधर्म चर्य राजवंशके नाशसं राजाश्रयस वंचित हुए जैनियों का प्रचार करना प्रारंभ किया और उनमें कई शिष्यों का प्राबल्य नष्ट होने लगा और इसके साथ ही जन ने जैनधर्मका प्रचार सर्वोत्कृष्ट सुलभ माहित्य-द्वारा ही कवियों की संख्या भी घटने लगी। करने की प्रतिज्ञा की । उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा की परी यह सब कुछ होते हुए भी एम. आर. श्रीनिवासकरने के लिये अपनी सर्व शक्ति का प्रयोग कर कर्णा- मूर्ति बी.ए.का कहना है कि इस समय कर्णाटक जैनटक साहित्यको उन्नत, सदृढ एवं परिपर्ण बनाया। साहित्यकी जितनी अभिवृद्धि हुई उतनी अभिवद्धि उम प्राचीन कर्णाटक साहित्य इन्हीं के प्रयत्नका एक फल की कभी भी अन्य समयों में नहीं हुई थी। वे इस असाहै। आज भी कन्नड साहित्यको उन्नत, प्रौढ और परि- मान्य फलकी निष्पत्तिमं निम्नलिखिन हेतु बताते हैं:पूर्ण करनका प्रथम श्रेय जैनाचार्यों और जैनकवियोंको (१) यदापि जैनियोंके शक्तिस्थान प्रबल मठ हीथे; दिया जाता है। यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि जैनि- फिर भी राजाश्रय प्राप्त होने पर कविगण आस्थानयों के द्वारा ही कन्नड़ भापाका उद्धार हुआ है और कविरूपसे काव्योंकी रचना किया करते थे। जैन मुउन्हीं लोगोंने इस भाषा-सम्बंधी साहित्यको एक उच्च नियों के निकट व्यासंग करते हुए नदाझानुसार या म्व श्रेणीकी भाषाके योग्य बनाया है। कन्नड़ साहित्यको विद्वत्प्रदर्शनार्थ या पुगण-रचना-द्वारा पुण्यलाभार्थ वे उन्नतिके शिखर पर पहुँचाने में जैन पंडितोंने अपरिमित काव्य बनाया करते थे । इन विषयो के हमें बहुत से परिश्रम किया है और उक्त साहित्यमें सदाके लिये उदाहरण मिलते हैं। राजाश्रय अनिश्चित होने पर भी Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ अनेकान्त वर्ष १, किरण ८,९,१० जैनियोंको मठोंका पाश्रय सदैव सिद्ध रहा है। बात सिद्ध होती है कि पन्द्रहवीं शताब्दिमें पश्चिम (२) बिहिदेव के वैष्णव होने पर भी उनके बादके तीरस्थ देशोंमें जैनमत उन्नत दशामें था । बल्लाल चक्रवर्ती जैनमत पक्षपाती ही रहे हैं । बल्लालों (६) अंतमें एक और मुख्य कारण हमें जानना के अंतःपुर में जैनमतावलंबिनी महिलाएँ अवश्य रहती आवश्यक है और वह यह कि, सामान्यतः कर्णाटक थीं । शासनोंसे ज्ञात होता है कि बल्लाल चक्रवर्तियोंने चक्राधिपति जाति और मत-भेदसे विशेष कलंकित साक्षात् जैन स्त्रियोंसे विवाह किया है और उन स्त्रियों नहीं थे, वे ब्राह्मण तथा जैनियोंके मन्दिरोंके लिय सने जैन मन्दिरोंको दान दिया है । इससे यह बात सिद्ध मान भावसे भूदान आदि दिया करते थे और उन्होंने होती है कि बल्लाल लोग न कट्टर वीरवैष्णव-पक्षपाती अपने प्रास्थानों में सभी मतावलम्बी कवियों एवं मही थे और न उन्होंने जैनमत-ध्वंसकी कोई दीक्षा ही त्रियोंको स्थान देकर उन्हें समान रूपसे प्रोत्साहिन ली थी। किया है । कर्णाटक के बहुतसे राजा भिन्न मतावल(३) वीरशैव और ब्राह्मणमत प्रबल होने पर भी म्बियों के वाद-प्रतिवादको सहर्ष सुन कर सन्मानपूर्वक जैनी लोग वाद-विवादमें उनको जीतकर अपने मतकी सभी की रक्षा करते रहे हैं। इस विषयमें हमें अनेक उत्कृष्टताको स्थिर रखते थे। वादिकुमुदचंद्र, कुमुदेन्दु, उदाहरण मिलते हैं । अतः निस्संदेह रूपसे हम कह तेरकणांबिके बोम्मरसका पितामह नेमिचंद्र आदि सकते हैं कि कर्णाटकमें चाहे किसी भी मतके कवि हो जैनमत के उज्जीवन-उद्योतन के लिये बराबर कटिबद्ध प्रोत्साहन मिलने से वे नष्ट नहीं हुए। इसके अतिरिक्त ईसाकी १२ वीं और १३वीं श(४) बल्लालोंके चक्राधिपत्यमें कतिपय प्रबलमन्त्री, शताब्दियों में शैवों तथा वैष्णवों के साथ भिड़ कर अनेक धनिक व्यापारी और बहुतसे शूरवीर सामन्त जैनियोंन अपने स्थानकी रक्षाके प्रयत्नमें अनेक ग्रन्थों नरपति जैनी ही थे । अतः वे कवि निराश्रय नहीं थे। की रचना की है। अपनी शिष्य-परम्पराको जैनमतइनसे द्वेष करने तकका वैष्णवमताभिमान बल्लालोंमें सम्बन्धी प्रन्थ सरल हों इस खयाल से अनेक कवियों नहीं था । बिहिदेवके कट्टर वीरवैष्णव सिद्ध होने पर ने उस समय अनेक व्याख्यानों एवं टीकाओंकी रचना भी शेष बल्लाल राजाओंने अपने पूर्व मताभिमान की की और संस्कृत मूल प्रन्थोंको कन्नड़ में अनुवादित यथाशक्ति रक्षा ही की है और यह बात शासनोंसे सिद्ध किया । जिस समय वीरशैव तथा ब्राह्मण अपने अपने होती है। मत-प्रचारार्थ योग्य साधनोंको एकत्रित कर अपने मत (५) सौन्दत्तिके रट्टोंमें और पश्चिम तीरके तुलुओं की उत्कृष्टताको घोषित करते हुए अन्यान्य मतोंका में जैनमतावलंबी ही शासन करते रहे हैं । रट्ट-राज्यके अवहेलन करते थे उस समय जैनी भी अपने धर्मप्रतिष्ठाचार्य मुनिचन्द्रनी जैनकाव्य-कर्ताओं के वि- ग्रंथों एवं पुराणोंका कन्नड़में प्रचार करते हुए ब्राह्मण शेष प्रोत्साहक थे । तुल देशके राजा लोग अपने प्रा- तथा शैवमतकी अवहेलना करनेवाले प्रन्थोंको लिखने स्थान-कवियों से उत्तमोत्तम जैनकाव्योंकी रचना करा- लगे। वे जनसाधारणको सुगमतासे बोध करानेवाली या करते थे। कार्कलके गोम्मटेश्वरकी स्थापनासे यह कथाओंको योग्य शैलीमें रच कर जैनमतकी सर्वोत्कृ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] कर्णाटक साहित्य और जैनकवि पृताको पामरों तक को समझाते रहे। इस प्रकार क- "अभिनववाग्देवी" की उपाधि प्राप्त थी। विद्वानों तिपय कालज्ञ जैन कवियोंने ईसाकी १२वीं तथा १३वीं का मत है कि यह (स्त्री कवि) लगभग ११०५ में विद्यशताब्दीमें काव्यवस्तु और उसकी शैलीमें परिवर्तन मान थी । इसी कवीश्वरीकं विषयमें मेग एक छोटाकरके अपने साहित्यमें नूतन क्रमको स्थान देना श्राव- मा लेख 'वीर' पत्रके वर्ष चतुर्थकी संख्या ३ में प्रकाश्यक समझा । उस समय नूतन क्रमावलंबी जैन क- शित हो चुका है। वियोने यथासाध्य संस्कृत पद-प्रयोगको कम करके कर्णाटक-साहित्य-संवाका कार्यभार तीन धर्मानुदेशभाषाको विशेष स्थान दिया और अलंकारादि को यायियोके हाथोंमें ही रहा है। जिस समय जिस धर्म न्यन करके पाण्डित्यको घटाना आरंभ किया। जन- की प्रधानता थी उस समय उस धर्मके शिष्योंने मुख्यमामान्यको मान्य हो ऐसी शैलीमें वे ग्रन्थ रचने लगे। तः उत्कृष्ट गतिस साहित्यकी सेवा की है । प्रायः ५०० परंतु यह परिवर्तन शीघ्र ही सर्वत्र आचरणमें नहीं स १२०० तक जैनियों का विशेष प्रभाव था। अतएव आया; क्योंकि इस समय भी बहुत स जैनकाव्य प्रौढ़ कर्णाटक भाषाका प्रारम्भिक काल-सम्बन्धी साहित्य शैली ही में रचेगये हैं । दीर्घकालीन संस्कृत वाङ्मया- उनकी लेखनी द्वारा ही लिखा गया है । इस विषयमें नुकरणसे आगत अभ्यासको पण्डित कवि सहसा कैसे कर्णाटक साहित्यके मर्मज्ञ श्रीमान शेप० भि० पारिश. छोड़ते ? साथ ही, यह भी ज्ञात होता है कि उससमय वाडका अभिप्राय निम्न प्रकार है:संस्कृताभिमानियोंको देशभाषामें विशेष अभिमान "लगमग ईसाकी छठी शताब्दि से १४वीं शताब्दि नहीं था । देशभाषामें पद-सामग्रीकी न्यूनताको देख तकके ७-८ सौ वर्ष-सम्बन्धी जैनियोंके अभ्युदयकर संस्कृतप्रयोगकी बहुलताका समर्थन करने वाले प्रातिनिमित्त वाङमयका अवलोकन करना उचित है। कवियोंमें दोषारोपण करना भी उचित नहीं है । तत्कालीन करीब २८० कवियों में ६० कवियाको स्मअस्तु; यह उल्लिखित परिवर्तन शीघ्र ही न होकर एक रणीय कवि मान लेने पर उनमें ५० जैनकवियोंके नाम दो शताब्दियों तक होत होते १५ वीं शताब्दिके प्रारंभ ही हमारे सामने उपस्थित होते हैं । ५० कृतियोंमें से तक लगभग सभी जैन कवियोंन नूतन मार्गका अवल- ४० जैन कृतियोंका हम प्रमुग्व मान सकते हैं । लौकिक म्बन किया । यह बात साहित्यालोचनास विशद हाती चरित्र, पारमार्थिक तीर्थकरोंके पुराण, दार्शनिक आदि है । इस समय उत्पन्न हुए जैन षट्पदी और सांगत्य- अन्यान्य सभी प्रन्थ जैनियोंके द्वारा ही जन्म पाकर ग्रन्थोंकी संख्या अन्य मतसम्बन्धी प्रन्यांकी संख्यासे व कन्नड़ साहित्यके ऊपर अपने प्रभावको शाश्वत कम नहीं है । (देखो, कर्णाटक-साहित्य-परिषत-पत्रि- जमाये हुए हैं । गद्याभिमुख एवं सुलभशैली पर ग्चे का वर्ष ९ अङ्क ४)। ___ गये इधरके चेन्नबसवपुराण, कर्णाटक महाभारत जिस प्रकार कन्नड भाषाके कवियोमें जैनकविही आदि ग्रन्थोंको देख कर सहदय पाठक निश्चयतः मुग्ध आदिकवि हैं उसी प्रकार स्री-कवियोंमें जैन स्त्रीकवि होंगे तथापि सुविख्यात जैनियोंक प्राचीन कन्नडकी 'कन्नि' ही आदिकवि थी। यह 'कन्ति' द्वारसमुद्र के प्रौढता पर लक्ष्य देना परमावश्यक है । मेरा बार बार प्रख्यात बल्लाल-राज-दरबारमें पण्डिता रही है और इसको कहना है कि जैनियों का तेज हमारी आधुनिक भाषामें Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८, ९, १० विशेप कान्ति देने वाला है । अतः तत्कृत ग्रन्थोंका हैं। कर्णाटक साहित्य अंगोपांगभूत व्याकरण, छंद, परिचय सुशिक्षितोंको अत्यावश्यक है।" (देखा,कर्णा- अलंकार आदि प्रन्थों के निर्मापक जैनी ही थे। टक साहित्य-परिषत-पत्रिका वर्ष ११, अंक १) अब मैं अपने इस वक्तव्यकों अधिक न बढ़ा कर __ यह बात निश्चित रूपमे कही जा सकती है कि कर्णाटक जैन कवियों के कुछ पोषक तथा प्रोत्साहक कन्नड वाङ्मय अपनी संपूर्ण संस्कृतियोंसे अखिल राजाओं का उल्लेख नीचे करता हूँ :कलासम्पन्न जैनियोंके द्वारा दी गई सुदृढ़ नींव पर ही गगगजा इन राजाओं में अनमानत. ५०० आज भी स्थिर है । 'पंपभारत' सदृश सर्वांगसुंदर ई० में स्थित गद्यग्रन्थकार राजा दुर्विनीत 'पूज्यपाद' महाप्रबंधों तथा 'शब्दमणिदर्पण' तुल्य शास्त्रीय ग्रन्धों आचार्यका शिष्य था और ८८६-९१३का 'एरंयप्प को देखकर किस साहित्याभिमानीकं हृदयमें जैनकवि- प्रसिद्ध कवि तथा हरिवंश आदि ग्रन्थों के लेखक 'गयोंके बारेमें श्रादरबुद्धि उत्पन्न नहीं होगी। एक समय णवर्म' का पोषक रहा है । आज तकके उपलब्ध कसंपूर्ण कर्णाटक जिनधर्म का आवास . (देखा, शा- र्णाटक गद्य ग्रंथों में प्राचीनतर ( सन् ९७८ ) 'चामुसनपद्यमंजरी १४४३)। जैनियों के बाद अनुमानतः ण्डरायपुराण' का लेखक वीरमार्तण्ड 'चामुण्डराय १२०० से १७०० तक लिंगायतोंका प्राधान्य था, अनः गजा गचमल्ल का मंत्री था। इन शतकों में कर्णाटकसाहित्य इनकी हस्तकृति ही रहा गष्टकट - इस वंशके तीसरे कृष्णराना है । १७०० से आज तक ब्राह्मणोंकी प्रधानतामें दो (९३५–५६८ ) ने पोन्न कविको 'कविचक्रवर्ती' की नीन शताब्दियोंसे इस धर्म के कवि साहित्यसेवा कर उपाधि दी थी। रहे हैं । प्राचीन समयमें धर्मोन्नतिके साथ साथ साहि- चालुक्य - इस वंश का गजा अरिकेसरी त्योन्नति का सम्बंध कितना मनोज्ञ है, और इस प्र- 'आदिपंप' कवि का पोषक था तथा तलप (९७३कार वह कितने विशद रूपमे ऐतिहासिक रहस्य को ९८७ ) ने 'रन' को 'कविचक्रवर्ती' की उपाधि दीथी। संबोधित कर रहा है । यह सब बात साहित्यका क्रम- 'जातकतिलक' के रचयिता श्रीधरावार्य बाहवमल बद्ध अभ्यास करने वालोंस छिपी नहीं है। अम्तु; यद्यपि के आश्रित थे और 'सुकुमारचरित्र' का लेखक 'शांतिकर्णाटक भापाका प्रारंभिक काल 'जैनकाल', माध्य- नाथ' लक्ष्मण नप का मंत्री था । 'समयपरीक्षा' मिक काल 'लिंगायतकाल' और वर्तमानकाल 'ब्राह्मण- एवं त्रैलोक्यरक्षामणि स्त्रीत्र' का कर्त्ता वत्सगात्रीय काल' कहलाता है । तथापि लिंगायत तथा वर्तमान जैन ब्राह्मण 'ब्रह्मशिव' आहवमल्लके पत्र तथा विक्रमाकालमें जैनी लोग साहित्य-सेवाको सर्वथा भूले नहीं हैं; दित्यके सहोदर कीर्तिवर्मा का आश्रित था। कटकोक्योंकि इन समयोंमें भी कई जैन प्रन्थ लिखे गये हैं पाध्याय जैन ब्राह्मण 'नागवर्म द्वितीय' जगदेकमल और इस बात को मैं पहले ही स्पष्ट कर चुका हूँ। इ. (११३८-११५० ) का आश्रित रहा । तना ही नहीं, बल्कि लिंगायत तथा ब्राह्मणोंको साहि- हायसलराजा- 'अभिनव पंप' तथा 'कन्ति' प्रथस्यसेवाका मार्ग दिखलाने वाले भी जैन लोग ही थे; म बल्लाल ( ११००-११०६ ) के आस्थान विद्वान् क्योंकि जैनी लोग कर्णाटक-साहित्यसेवाके मूल पुरुष थे। व्यवहारगणित, व्यवहाररत्न, लीलावती, चित्रह Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] क० साहित्य और जैनकवि मगे, जैनगणितसूत्रटीकोदाहरण आदि गणित ग्रंथोंका 'पाण्ड्य राजा' के लिये 'कल्याणकीति' ने 'ज्ञानचंलेखक 'राजादित्य' विष्णवर्धन (११११-११४१) द्राभ्युदय' तथा संगीतपुरके ' हैवनप ' के पत्र संगम के समयमें था । यशोघरचरित्र आदि ग्रंथों का लेग्वक की आज्ञानुसार 'कोटीश्वर' ने 'जीवन्धरषट्पदी' की 'जन्न' कविका पिता 'सुमनोबाण नरसिंह राजा का रचना की है । 'भरतेश्वरचरित्र'का रचयिता रत्नाकर' कटकोपाध्याय था । कविताविशारद 'चिराज' कवि * कार्कलके भैरवरस प्रोडेय की सभामें प्रा'वीर बल्लाल' का मन्त्री था । यह कवितामें 'पोन्न' स्थान-कवि था । रस-रत्नाकर, भारत, वैद्यसांगत्य कविके समान रहा। उसी राजाके अधिकारी 'पानाभ' आदि के लेग्वक 'माल्व' कवि तैलव, हैव, कोंकण देके आशयानुसार 'नेमिचंद्र' ने 'अर्धनमि' बनाया है। शाधिपति साल्वमल्ल का दरबारी कवि था। कार्कलके रमी राजाके अन्यतम मंत्री रेचरस की प्रेरणासे 'पा- भवेन्द्र की आज्ञानुसार 'बाहुबलि' ने 'नागकुमारचन्न' न 'वर्धमानपुराण' की रचना की है । उक्त राजाने चरित्र' की रचना की है । इमी राजा की आज्ञानुसार ही जन्न कविका 'कविचक्रवर्ती' की उपाधिस विभ- 'चन्द्रम' कविन 'कार्कल-गोम्मटेश्वर-वरित्र' लिखा है। पित किया था । 'केशिराज' के पिता 'मल्लिकार्जन' ने गंम्मापेके राजा भैरवराय के समयमें 'आदियप्प' ने 'सोपेश्वर' के विनोदार्थ सिक्ति सुधार्णाव' की रचना 'धन्यकुमारचरित्र' लिखा है । 'पायगण' ने संगमराय की है । सौन्दनियरहरु-'पार्श्वनाथपुगण'का कर्ता के पुत्रके आश्रित रहकर 'अहिंसाचरित्र' की रचना की 'पार्श्वपण्डित' कार्तवीय चतुर्थ.का आस्थानकवि रहा, है । 'रामचन्द्रचरित्र' के पूर्वार्धका रचयिता 'चंद्रशेखर' और द्वितीय 'गणवर्म' इसी राजा के अधिकारी कवि 'बंग्वाडि लन्मण भंगरस' का आम्थानकवि 'शान्तिवर्म' का आश्रित था। मालम होता है कि था। रामचंद्र चरित्र' के उत्तरार्ध का लेखक पद्मनाभि बालचन्द्र कवि भी इमी राजा के ममयमें था। कवि मूलि के चंन्नगय का आश्रित रहा। चौटरानी करहाट के शिलाहार-गंडगदित्य के पुत्र चन्नमाम्ब के समयमें उमकी आज्ञानुसार 'सुराल' लागराजा की आज्ञानुसार 'कर्णपार्य' ने 'नेमि- कविन 'पद्मावतीचरित्र' की रचना की है। नाथपुराण' और उसी गजाके समयमें नमिचंद्र' ने विजयनगर के गजा-'प्रथम हरिहर' 'लीलावनी' की रचना की थी। (१६६६-१३५३)क कालमें मूगलिपुर के स्वामी प्रथम कोंगान्ध - विदित होता है कि 'चन्द्रनाथाक' मंगरमन 'खगेन्द्रमणिदर्पण' की और द्वितीय हरिहर का लेवक मौक्तिक' कवि वीर कोंगाल्व के कालमें कं आम्थानकवि मधुर ने 'धर्मनाथपुगण' की रचना चंगाल्व - तृतीय 'मंगरम' इन्हीं राजाओं का का है। शब्दानुशासन की है । 'शब्दानुशासन' के लेखक भट्टाकलंक' वेंकटकुलक्रमागत मंत्री का पुत्र था । इस कविने जयनृप TM पनिराय के समयमें थे, यह बान विलिगि ताल्लकेके काव्य,प्रभञ्जनचरित्र, श्रीपालचरित्र, मम्यक्त्वकौमदी, एक शासनसे ज्ञात होती है। सृपशास्त्र आदि ग्रंथोंको रचा है। * "मादर्श-जैनचरितमाला" के माहित्यांक में प्रकाशित मेरा तुलदेश के गना - कार्कल-भैरवग्म के पुत्र लख दग्यो । था। Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८,९,१० मैसूर के राजा-चामराजके सन्देशानुसार आदि आचार्य, जो दिगम्बर संप्रदायके स्तंभ समझ 'पद्मराज' पंडितने 'हयसारसमुच्चय' की रचना की थी जाते हैं और जिनके संस्कृत, प्राकृत ग्रंथोंका हमारे उ और 'शान्तराज' पंडित 'मुम्माहि-कृष्णराज' का त्तर भारतमें बहुत प्रचार है, प्रायः कर्णाटक ही थे।" पाश्रित था। 'कर्णाटक कवि चरिते' के मूल लेखक, कणाइस प्रकार सामान्य रीतिसे जैन कवियोंके पोषक टक साहित्य के पूर्ण मर्मज्ञ, अच्छे रिसर्च स्कॉलर तथा प्रोत्साहक राजाओं का दिग्दर्शन कराया गया तथा कई भाषाओं के पण्डित, प्रसिद्ध विद्वान पार. है। विशद रीतिसे लिखने पर इस विषयकी एक स्व- नरसिंहाचार्य जी ने जैन कवियों के सम्बन्ध में तन्त्र पुस्तक ही तैयार हो सकती है। अस्तु । अपने जो शुभोद्गार प्रकट किये हैं वे पाठकोंके ग्वास विद्वद्वर पं० नाथूरामजी प्रेमीने कर्णाटक जैन क- तौर से जानने योग्य हैं और इस लिये उन्हें नीचे उपवियों के सम्बन्ध में अपने जो विचार प्रकट किये हैं। स्थित करके ही यह वक्तव्य समाप्त किया जायगा । वे उनमेंसे कुछ इस प्रकार हैं:- उद्गार इस प्रकार हैं:"जैनधर्ममें मुख्य दो संप्रदाय हैं एक दिगम्बर और “जैनी ही कन्नड़ भाषा के आदि कवि हैं । आज दूसरा श्वेताम्बर । इनमें से दक्षिण और कर्णाटक में तक उपलब्ध सभी प्राचीन और उत्तम कृतियाँ जैन केवल दिगम्बर मंप्रदायका ही अधिक प्राबल्य रहा है। कवियों की ही हैं । ग्रन्थरचना में जैनियों के प्राबल्य ऐसा मालूम होता है कि वहाँ श्वेताम्बर संप्रदायका का काल ही कन्नड़ साहित्य की उच्च स्थितिका काल प्रवेश ही नहीं हुआ। दक्षिण और कर्णाटक में जितना मानना होगा । प्राचीन जैन कवि ही कन्नड़ भाषा के जैन साहित्य है, वह सब ही दिगम्बर जैन संप्रदाय के सौन्दर्य एवं कान्ति के विशेषतया कारणीभूत हैं । विद्वानोंकी रचना है। जहाँ तक हमको मालूम है श्वे- उन्होंने शुद्ध और गम्भीर शैली में प्रन्थ रच कर ग्रंथताम्बर संप्रदायका कोई भी प्रौढ़ विद्वान् उस ओर को रचना-कौशल को उन्नत प्रसाद पर पहुँचाया है। पंप, नहीं हुआ । इतिहासके पाठकों के लिये यह प्रश्न बहुत पोन्न, रन्न इनको कवियों में रत्नत्रय मानना उचित ही विचारणीय है।" ही है । पोन्न ने राष्ट्रकूटगजा तृतीय कृष्ण से, रन्न ने __":स बातको सुन कर सब ही आश्चर्य करेंगे कि चालुक्य राजा तैलप से और जन्न न होयसल राजा दिगम्बर संप्रदाय के जितने प्रधान प्रधान प्राचार्य इस द्वितीय बल्लाल से 'कविचक्रवर्ती' की उपाधि पाई थी। समय प्रसिद्ध हैं, वे प्रायः सब ही कर्ण टक देश के (द्वितीय) नागवर्म चालुक्य राजा(द्वितीय), जगदेकमल्ल निवासी थे और न केवल संस्कृत प्राकृत मागधीके ही के यहाँ, जन्न का पिता केशिराज का मातामह सुमनो प्रन्थकर्ता थे, जैसा कि उत्तर भारतके जैनी समझते बाण होयसल राजा (द्वितीय) नरसिंह के यहाँ कटहैं, किन्तु कनड़ीके भी प्रसिद्ध ग्रन्थकार थे। समन्त- कोपाध्याय था। अन्य कवियों ने भी १४ वीं शताब्दी भद्र, पूज्यपाद, वीरसेन, जिनसेन, गुणभद्र, प्रकलंक- के अन्त तक सर्वश्लाघ्य चंपू काव्योंकी रचना की है। भट्ट, नेमिचंद्र सिद्धान्तचक्रवर्ती, भूतबलि, पुष्पदन्त, इनमें 'मधुर' ही अन्तिम कवि ज्ञात होता है। कन्नड वादीभसिंह, पुष्पदन्त (यशोधरचरित्रके कर्ता), श्रीपाल भाषाध्ययनके सहकारीभूत छन्द, अलङ्कार, व्याकरण, Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७९ प्राषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] क. साहित्य और जैनकवि कोष आदि प्रन्थ अधिकतया जैनियों के द्वारा ही बैचभूपका काल लगभग १७२० ईसवी सन है, अतः रचित हैं । तामिल भाषामें भी प्रायः इसी प्रकार है। कविका काल भी यही है । कविकी 'अहिंसाकथे' यक्षषटपदी लेखकोंमें कुमुदेन्दु, भास्कर, तृतीय मंगरस गान रूप है । इसमें धनकीर्तिका चरित्र वर्णित है। इनका नाम उल्लेखनीय है।" 'अन्य की सहायताके बिना मैंने इस ग्रंथको ६ मासमें ___ इस वक्तव्य के अन्त में मैं 'कर्णाटक-कविचरिते' पूर्ण किया है, ऐसा कविका कहना है। प्रारम्भमें वीरके मूल लेखक श्रीयुत आर. नरसिंहचार्यजी को जिन तदनन्तर कवि, सिद्ध, सरस्वतीआदिकी स्तुति है। धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकताहूँ, जिनकी असीम • रायगण (ल. १७२०) कृपा एवं अनुमति से मैं 'कर्णाटक -कविचरिते' के इन्होंने 'पद्मावतीय कोरवंजि' यक्षगान लिखा है। तृतीय भाग में आये हुए जैन कवियों के परिचय को इनका पितामह नागएण, पिता वोम्मरण कवि और हिन्दी में अनुवाद करके पाठकों के सामने उपस्थित स्थान श्रवणबेलगोल के उत्तरस्थित वेणुपुरि है । इनके करने में समर्थ हो सका हूँ। यद्यपि 'कर्णाटक-कवि- समय में श्रीरंगपट्टणमें 'कृष्णगजेन्द्र' गजा था, जिस चरित' के क्रमशः प्रथम, द्वितीय, तृतीय भागोंमें आये का उल्लेख कविने स्वयं किया है । यह कृष्णराज प्रथम हुए जैन कवियों के परिचय में से पूर्व पूर्व कवियोंका (१७१३ से १७३१) अथवा द्वितीय (१७३४ मे १७६६) परिचय विशेष महत्वको लिये हुए है। फिर भी ततीय होगा। अधिकतर प्रथम कृष्णगज ही मालूम होता है। भाग पर से संकलित इस परिचय से पाठकों को बहुत कविक यक्षगानका दृसग नाम 'रामजनन' है । इसमें सी नई नई बातें मालूम होंगी और इतिहास तथा पुरा- पद्मावती के द्वारा कोरवंजिके वेपमें कौशल्या के पास नत्त्व-विषयका कितना ही अनुभव बढ़ेगा। इसी प्रकार जाकर उसे पत्र होने का सन्देश सुनाने का वृत्तान्त श्रागे भी कर्णाटक प्रदेशोंके बहुत से इतिहास एवं वर्णित है। पुरातत्त्व-सम्बन्धी सामगियोंको हिन्दी पाठककों के ३ पाय ण (१७ ८) सामने रखने की मेरी बलवती इच्छा है । देखिये उसे इन्होंने 'अहिमाचरित' लिखा है। इनका पिता पग करने के लिये मैं कहाँ तक समर्थ होता हूँ। गम्मढसेट्टि, गुरु नयसन, जन्मस्थान संगीनपुरके ___ 'कर्णाटक कविचरित' के तीसरे भाग में आए हुए राजा 'मंगमगय' के पुत्र..... 'द्र भुपके राज्यमें अवजैन कवियों का, काल क्रमसे, संक्षिप परिचय इस स्थित भारंगि था । एक पूर्ण पद्यमें ग्रंथरचनाका काल प्रकार है : 'प्रभव' संवत्सर लिखा हुआ मिलता है । 'कर्नाटकक१ अन्ताप (लगभग ई - सन् १७१०) विचरित' के लेखक महोदयका मत है कि यह 'प्रभव' इन्होंने 'अहिंसाकथे' नामक यक्षगान लिखा है। शक १६७० ( ई. सन् १७४८ ) होना चाहिये । उक्त यह वैश्य हैं । इनका पिता चन्दण्णसेट्टि,माता चन्नम्म 'अहिंसाचरित' सांगत्यमें है और इसकी पदासंख्या और निवासस्थान चिक्कबल्लापर है। इनका कथन है ६३४ है । इस ‘पंचाणुव्रतचरिते' भी कहते हैं । कविके कि, 'मैं समन्तभद्र के वरसे उत्पन्न हुआ हूँ।' इनके "मुकुरदन्तेबेलगलि एनकुल- दर्पण के समान मेरा ममयमें बैचभुप विक्कबल्लपुरमें राज्य शासन करता था। कुल उद्योनित हो" इस पदसे पंथ रचनेका उद्देश्य म्व Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८,९,१० कुलोन्नति ही ज्ञात होता है । 'पायएण' नामक कविके में) नूलपुरके अनंत-जिन-चैत्यालयमें पूर्ण किया। द्वारा रचित 'भेकनाख्यान' नामका एक सोलह संधि- 'रामचंद्रचरित' सांगत्यमें है । इसमें ३७ अध्याय और (अध्याय) परिमित सांगल्य ग्रंथ और भी है । संभव है. ५२६८ पद्य हैं, जिनमेंसे २१५१ पद्य चंद्रशेखर कविकि यह भी इसी कविद्वारा रचित हो, परन्तु अभी कृत और शेप पद्मनाभ कविकृत हैं । इसमें जैनमताननिःसन्देह रूपसे नहीं कहा जा सकता। सार रामायणकी कथा लिखी हुई है। ४ पान भ (१७५८) ____५ गम (ल० १७५०) इन्होंने 'रामचन्द्रचरित्र' का उत्तर भाग–अर्थात् इन्होंने पद्मावतीका यक्षगान लिखा है। कविका १७ वी सन्धि (अध्याय) में आगे-लिग्व कर प्रन्थको कथन है कि यह गन्थ मूलिके राजाके इष्टानुसार जिग्वा पूर्ण किया है । प्रन्थक अंतमें निम्न बातोंका उल्लेख गया है । इसमें जिनदत्तरायके पद्मावती देवीको उ।। मिलता है:-इस गन्थके कुछ भाग चंद्रशेश्वर या शंक- मथगस होम्यच्च लानकी कथा है । गन्धारंभमें जिनर कवि लिख कर स्वर्गवासी हुआ। कुछ समयके प- स्तुति तथा मरम्वती-स्तुति है । कविका समय कगब श्चान तौलव देशके मूलिकं गजा चेन्नगय मावंत एवं ५७५८ के मालूम होता है। उनके मामा कुन्दैयरम की इच्छानमार पाग्वेणीपर के ६ पद्मगन, (ल. १७५०) पगमट्टि, पद्मावती के पुत्र पद्मनाभ * ने इस पूर्ण यह कवि विजयकुमारनकथे' नामक यक्षगान के किया । अोललंक, नृतनपुर, अयकल ये 'मूलिक' के लेखक हैं। इनके पिता शांतिगुणसे सुकीर्तित, दातृत्वन.मान्तर हैं। वहाँ के अनंतनाथ-जिन-चैत्यालयमें 'प्र- यक्त-मैसरके शांतपण्डित,गम वादवादीश्वर वादिपिताभाचंद्र' नामक मुनि निवास करते है । इस चैत्यालयके के मह अकलंक' मुनि हैं। इनका काल करीब १७५० चारों दिशाओं में चार और जिन-चैत्यालय हैं । राज- के विदित होता है । गथवतारमें शांतिजिन और सरभवन में चंद्रनाथस्वामी का चैत्यालय है और उसमें स्वती की स्तुति है। पद्मावतीदेवी की मूर्ति भी है । चेन्नराय सावन्त मिद्ध ७ शान्तिकीर्ति (१७५५) माम्बे का पुत्र है। इन्हें आललंकापाच्छाह नामक उ. ___ इन्होंने देवसेन-कृत आगधनासारकी कन्नडटीका पाधि और हनुमकंतन प्राप्त है । कवि पद्मावतीदेवी का बनाई है । टीका का समय शक सं०१६७७ अर्थात् ई० चरणाब्ज-मधप है और उमी की कृपामे उसने इसकी सन् १७५५ है। रचना की है । कवि का गुरु पंडितार्य', शिक्षक गुरु ८ सराल, (१७६१) 'प्रभाचंद्र', पक्षक 'चेन्नराजेंद्र', प्रेक्षक 'कुन्दैयरस' हैं । इन्होंन 'पद्मावतीचरित' लिखा है । मि० ई० पी० इस गन्थको शक १६७४ प्रमोदवर्ष में (ई०सन् १७५० राइस साहबका कथन है कि, कवि अपने ग्रन्थ में इसे * "पद्मावतीचरिते' का लेखक पद्मनाभ मूलिके तथा उसके पत्तिकापर* के चंद्रशेखर चिक्कराय चौट के रानीवास उपनामों को बतलाता है । पर दूसर राजा का उलेख किया है, इस लिये एतदिन मालूम होता है (1)। इसके अतिरिक्त यह अपने को xयह ग्राम मूडबिद्री से मील पर है। आज कल इसे पुत्तिंगे राजकीय कोशाध्यक्ष बतलाता है। कहते हैं । उस समय यही चौटराजाओंकी राजधानी थी(अनुवादक) Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] क० साहित्य और जैनकवि ४८१ की चेन्नम्म देवीकी इच्छानुसार सन् १७६१ में रचा साल ( MEnt) आदिका अधिकार पाकर और चि. हुआ बतलाता है। ___ क देवराजकी प्रीतिका पात्र होकर उनसे बेल्गोल में यह ग्रन्थ सांगत्य में है । इसमें १२ अध्याय और 'कल्याणि' को बनवाया था । साथ ही यह बात भी १६७१ पद्य हैं । और पद्मावती यक्षी की कथा लिखी विदित होती है कि अण्णय्यके संबंधी पट्टय्यने पार्श्व नाथ-मंदिरके पुरोवर्ती मानस्तम्भको तथा चंद्रगिरि पलक्ष्मण पण्डिन (ल. १७७५) र्वतके प्राकार को बनवाया था। कविका कथन है कि इन्होंने अकारादि क्रमसे एक निघंटु लिखा है, 'न्यायकुमुदचंद्रोदय' आदि गूथोंके रचयिता प्रभाचंद्र'जी जिसमें संस्कृत शब्दोंके-प्रधानतया वैद्यक शब्दोंके- यति श्रवणबेल्गोलमें रहते थे और 'अभयचंद्र'जी शशकन्नड पर्याय नाम दिये गये हैं। इनका समय अनमा- कपुरीय ‘सल' के गुरु थे। ग्रन्थावतारमें गोम्मटेश्वरकी नतः १७७५ होना चाहिये। म्तुति तथा सिद्ध,सरस्वती शीलसागर ऋपि और यति पंडिताचार्य श्रादि की प्रशंसा है। १० अनन्तकवि (ल. १७८०) इन्होंने बेलगोलके गोम्मटेश्वरका चरित लिखा है। ११ गगन (१७६२) इन्होंने 'पूज्यपादचरित' लिम्वा है । यह वत्स गोत्र लगभग १६७३ में चेन्नराण के द्वारा निर्मापित मंदिरक वर्णन * से, शक १६०० नल संवत्सरकं फाल्गुण के थे । अपने वंशके विपय में इन्होंने इस प्रकार लि खा है:भासमें (१६७७) चिक्क देवराजके मंत्री विशालाक्ष पंडि गिरपुर में करणिकोत्तम (:uc countant बोम्मण्ण नके द्वारा संपन्न गोम्मटेश्वर के अभिषेक के उल्लंख नामक ब्राह्मण था। उसके सांताप, हुमबोम्मरम,देवग्स, नथा शक १७०१ दुर्मुखी संवत्सर के फालगण मास में बोम्मरम नामके चार लड़के थे। कविता-विशारद बोम्म(१७७७) गोम्मटेश्वर स्वामी की संभूत महा' जा के ग्मका पुत्र विजयप्प, विजयप्पका पुत्र बोम्मरस,बोम्मउल्लेख से, यह कवि उल्लिखिन समयोंम बाद का स्पष्ट रमका पुत्र विजय, विजयका पत्र देवप्प और देवप्पका होता है । अतः यह लगभग १७८० में रहा होगा। पत्र आर्यप्प हुआ । यह पायाप तरह वर्ष की अवस्था कविका उक्त ग्रंथ सांगत्यमें है और उसमें गोम्मटे में ही काव्य-शब्द जिनेन्द्रप्रतिष्ठादि-शास्त्रों का ज्ञाता श्वरका चरित एवं श्रवणबेलगोल और कतिपय जैन हा। इसका पुत्र विजयप्प तथा बन्धजन देवरम, गाओंसे सम्बंध रखने वाले कुछ उल्लेख है । कविका बोम्मम्म, देवचन्द्र थे । देवचंद्रका पुत्र देवप्प, उसकी कहना है कि गोम्मटेश्वरकी प्रतिठा कलियुगकं ६०० धर्मपत्नी कुसमम्भ और पत्र चंदप्प तथा पद्मगज थे। संवत् में हुई थी और चावुण्डायने पूर्वस्थिन मूर्तिका यही पद्मगज ग्रंथकी हैं। इम ग्रंथम यह भी ज्ञान ही शिल्पियोंके द्वारा सुधरवाया था। इस प्रन्थ में होता है कि ग्रंथरचनामें देवचंद्रभी सहायक थे । यही ज्ञात होता है कि बसबसेट्टि के पुत्र अण्णय्यने टक- देवचंद्र 'राजावलीकथे' के रचयिता हैं। पद्मगज * Mysore Archnological Report 1909, इनके बड़े भाई हैं । यह ग्रंथ शक १७१४ परिधावी Para 106. मंवत ( १७९२) में रचा गया है । कविने अपने पूर्व में Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८,९,१० पंप, होन्न, जन्नुग, सुमनोबाण का स्मरण किया है। प्रथम ग्रन्थ 'पूज्यपादचरिते' १७९२ में रचा गया है। ___ 'पूज्यपादचरिते' सांगत्यमें है। इसमें १५ संधियाँ रामकथावतार १७९७ में छह मासके अंदर पूर्ण हुआ। और १९३२ पद्य हैं। जहाँ तहाँ कुछ वृत्त कंद(छंद) भी सन् १८०४ में पैमाइश करने के लिये मैकेंजी हैं । इसमें पूज्यपादजीका चरित्र बतलाया है । साथ ही, साहब। लक्ष्मणराय के साथ कनकगिरि पहुँचे वहाँ जैन मतानुसार लोकाकार, श्रुतावतरण आदि बातोंका उन्होंने कविसे प्रश्न किया कि आपके पास कोई स्थलभी कथन किया है । ग्रंथावतारमें 'विजयजिन' की स्तु- पुराण है ? उस समय कवि ने स्व-रचित 'पूज्यपाद ति की गई है। तदनन्तर कवि, सिद्ध, सरस्वती, वृष- चरिते' उन्हें सुनाया। उसे सुन कर मैकेंजी साहब भसेनादि गणधर, ज्वालामालिनी, पद्मावती, दशपर्व- कवि को कमरहल्लि में स्थित अपने डेरे पर साथ साथ धर, एकादशांगधारी, कविपरमेष्ठी, समन्तभद्र, सिद्ध- लिवा ले गये और तीन रात उन से कुछ प्राचीन वृत्तां सेन, जिनसन, गणभद्र, गोवर्धन, देवकीर्ति, अकलंक, को सुना। मैकेंजी साहव वहाँ से कलिले, मैसूर, विद्यानंद और भट्टाकलंक इनकी भी स्तुति की गई है। पट्टण,इलिबालआदि स्थानोंमें उन्हें घुमाते हुए नागवाल १. देवचन्द्र (१७७०-१८,१) तक साथ ले गये । देवचंद्र दो मास तक उनके साथ इन्होंने 'रामकथावतार' तथा 'राजावलीकथे' ना- ही साथ रहे और रात्रि समय में मैकेंजी साहब का मक ग्रंथ लिखे हैं । और 'राजावलीकथे' में यह उ- पूर्व प्रपंच, जातिभेद आदि विषयों को सुनाते रहे । लेख किया है कि-"मैंने पूज्यपादचरिते, सुमेरुशतक, कवि जब तक उनके साथ रहा, तब तक उसे प्रतिदिन यक्षगान,रामकथावतार, भक्तिसारशतकत्रय,शास्त्रसार- एक हण x मैकेंजी साहब से दैनिक खर्च मिलता लघुवृत्ति, प्रवचन-सिद्धान्त, द्रव्यसंग्रह, द्वादशानप्रेक्षा रहा। मैकेंजी साहब कवि से सभी वृत्तों को सुन कर, कथासहित, भ्यानसाम्राज्य, अध्यात्मविचार आदि पं. राज्य के प्रान्तों को विभक्त कर, प्रत्येक गाँवका नक्शा थोंको कर्णाटक तथा संस्कृत भाषामें अति सुलभ शैली तैयार करा कर, जाति, कुल, घर, जन आदि प्रत्येक में लिखा है।" इससे मालूम होता है कि उक्त ग्रंथोंके वस्तु की गणना लिखा कर जब लौटने लगे तब वे कर्ता भी आप ही हैं । इनमेंसे पहलेके चार और शेष कवि को भी अपने साथ ले जाना चाहते थे । परन्तु गन्थों में दो एक कन्नड़के ज्ञात होते हैं । इनका निवास- कवि के अनेक प्रकार कहने-सुनने से तथा उनके स्थान कनकगिरि (मलेपूरु) था । मलेपुरके पार्श्वनाथ धर्मोपध्याय के आगमन से मैकेंजी साहब ने उनके ही इनके कुलदेव हैं। इनके विषयमें राजावलीकथे में द्वारा उक्त सभी पूर्ववृत्तोंको कागज पर लिखा कर और इस प्रकार लिखा है:-इनका पितामह देवचंद्र, पिता कविके 'पूज्यपादचरिते' को अपने पास रख कर उन्हें देवप्प, माता कुसुमाजम्म,भाई चंद्रपार्य और पद्मराज। वापिस भेज दिया। देवचंद्र को वापिस भेजते समय लिखा है कि पनराजने अनेक गन्थ बनाये हैं । कविन देखा, पाराज १७६२ । १७७० में जन्म लिया । और वह अपनी चौदह वर्षकी । Colin Mackenzie who conducted the अवस्था से ही करणिकागगण्य ( Best account- Survey of Mysore. ant) कहलाकर कविता बनाने लग गया था। इनका ४ दक्षिण देशका नाण्य (2)भेद । Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५१] क. साहित्य और जैनकवि ४८३ मैकेंजी साहब ने उन से कहा था कि एक मास के इस प्रकार अनेक विषयोंसे सुशोभित होनेसे यह प्रन्थ अंदर कर्णाटक देश की सभी ऐतिहासिक बातों को अधिक उपकारी है । जैन कवियोके चरित्र लिखते ससंग्रह कर यदि हमारे पास लाओगे तो हम तुम्हें बड़ा मय 'कर्णाटक कविचरिते' में भी अनेक स्थानों पर भारी वेतन दिला देंगे। साहब ने कवि को वापिस इस गून्थसे कुछ अंशोका अनुवाद किया गया है। इस भेजते समय लक्ष्मणराय के द्वारा कुंपनी * के पञ्चीस ग्रन्थमें मैसूर राजाओंकी वंशावली भी संग्रहीत है। रुपये भी दिलाये थे। उस समय से कवि इन कथाओं रामकथावतार-यह चंप रूप गन्थ है । इसमें को बराबर संग्रह कर रहा था। परंतु सरदार बहादुर श्राश्वास १६ और श्लोक ६८०० हैं । नागचंद्र कृत 'राअर्थात् मैकेंजी साहब के बहुत दूर चले जाने के मचंद्रचरित' का कथाभाग ही इसमें कुछ विस्तार से कारण कवि उन्हें अपनी इस कृति को अर्पण नहीं कर वर्णित है । उस गन्थसे अनेक पद्य इसमें अनुवादित हैं। सका । इस 'राजावलीकथे' को मैसरके राजा मुम्मड़ि कविने अपने इस ग्रन्थके विषयमें इस प्रकार लिखा कृष्णराजा ओडेयर के आश्रित वैद्यसरि पंडित के है:- 'इस रामकथा को सर्वप्रथम आदिदेव ऋषभप्रोत्साहन से कवि ने शक वर्ष १७६० अर्थात १८३८ में स्वामीके समवसरणमें श्रादि चक्री भरतेश्वरको पुरुलिखा । इनके द्वारा लिखित ग्रन्थों की श्लोकसंख्या परमेश्वर ने मृदु-मधुर-श्राव्य नव्य-दिव्य भाषामें निरूअनष्टप छन्द में २५००० होती है। राजावलीकथे को पण किया । परम्परा तीर्थसंतानसे चली आई उसी मुम्मड़ि कृष्णराजा आंडेयर को समर्पण करने के कथाको पश्चिम तीर्थकर श्रीवर्धमान स्वामीनं सर्वभाषालिये तीन चार साल तक उद्योग करने पर भी कवि स्वभावमे श्रेणिक महामंडलेश्वरको बतलाया। फिर समर्थ नहीं हो सका । अंत का १८४१ में चामराज की गुरुपरम्पगसे व्यक्त उसी कथाको कूचिभट्टारक, नंमहिषी देवी राबे ने इस 'राजावलीकथे' के सार को दिमुनि, कविपरमेष्ठी, रविषेणार्य, वीरसेन, सिद्धमेन, आमूलागू भले प्रकार से सुन कर तथा संतुष्ट हो कर पद्मनंदी, गुणभद्र, मकलकीनि आदि आचार्यों ने प्र. कवि को वस्त्र-ताम्बलादिस सन्मानित किया,और इस पनी अपनी कृतियों में प्रकट किया । उक्त प्राचार्यों के में मैसूर राजाओं की परम्परा को संग्रह करने के लिये द्वारा कथित उमी रामकथाको चामुण्डराय, नागचंद्र, कहा । कवि ने उन की आज्ञाका पालन कर इमे उन्हें माघनंदि मिद्धांनि, कुमुदेंदु, नयसन आदिन अपने अ. ही अर्पण कर दिया। पने पुराण, रामचरित्र, कुमुदेंदु-रामायण, पुण्यानव कथामार आदि कृतियोंमें वर्णिन किया। इन्हीं गन्थों राजावलीकथे—यह प्रायः गद्यरूप कृति है; से 'गमकथासार' को संग्रह कर अभिनव पम्पकी कफिर भी यत्र तत्र इसमें कितने ही श्लोक अथवा पद्य विताको आदर्श मान कर कर्णाटक भापामें मैंने इम मिलते हैं। इसमें ११ अधिकार हैं । इन अधिकारों में 'आदि रामकथावतार' गन्थ की रचना की है। प्रन्थके जैनमत-संबंधी अनेक इतिहास, अनेक राजाओंके जी अंतमें इतना और लिखा है कि-' मुनिपति-परम्परा वनचरित्र तथा कतिपय कवियोंके विषय वर्णित हैं। मे आगत इस कथन को लेकर श्रीमूलसंघ बलात्कार * कम्पनी का अपभ्रंश मालूम होता है। गणके श्रीमाघनंदी सिद्धांतचक्रवर्ती के पुत्र चतुर्विध Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८, ९, १० पांडित्य श्रीवादिकुमुदचंद्र पंडितदेवके द्वारा रचित रा- है। इनका समय लगभग १८०० होगा। इस गन्थमें मायणके तुल्य प्रतिपादित अभिनव पंपके रामचरित्रमें मन्मथ कोरचि (एक शूद्र जातिविशेष) का वेष धारण अनेक स्थानों पर उपलब्ध संशयोंको निराकरण करने कर अपने मामा की लड़की विदर्भा की कणि-प्रतिपाके लिये जिनसेनाचार्य के शिष्य गुणभद्र स्वामी आदि दित कथा लिखी हुई है। के द्वारा निरूपित त्रिपष्टिलक्षण महापगणकी कथाको १५ चन्द्रसागर वर्णी (ल. १८१८) ही प्रमाण मान कर और उसी के साथ सकल जिन इन्होंने कदंबपराण, चंदनेयकथे, जिनभक्तिमार, शास्त्र-संबंधी कथाओं को जोड़ कर इस कथाप्रपंचका जिनमुनि, परशुरामभारत, पुराणस्तोत्र, बेट्टवर्धनचरित्र, मैंने वर्णन किया है । आश्वासों के अंत में इस प्रकार ब्रह्मशतकोप, भव्यामत, मुल्लाशास्त्र, जिनरामायण, का गद्य मिलता है : रुद्रयक्षगान, वासुदेवपारिजात, शब्दार्थमंजरी, स्मरको 'परम-जिन-समय-कुमुदिनी शरच्चंद्र-बालचंद्रमुनी- खजि, हिमशीतलनकथे, इन ग्रन्थों की रचना की है। न्द्रचरण-नखकिरण-चंद्रिकाचकोर श्रीमदभिनवपंप- यह सेन गण के हैं । इनके गुरु लक्ष्मीसेन, और विरिचित रामचरित्रपुराण से संबंधित रामकथावतार इनका निवासस्थान तोविनकेरे है । 'कुछ ग्रन्थों को में श्रादि ।' मैंने श्रवणबेलगोल के उत्तरस्थित धर्माख्यपुर के चंद्रइन दोनों ग्रन्थों के अतिरिक्त और दूसरे ग्रंथ प्रभ स्वामी के अनग्रह से लिखा है' ऐसा कवि का अभी तक प्राप्त नहीं हुए। कहना है । इनके "जिनमुनि" गन्थ से ज्ञात होता है. १३ ब्रह्मणांक । ल. १८००) कि इन्होंने अपने गृहस्थाश्रम में स्मरकोरवंजि, नागउन्होंने जिनभारत' तथा कंदर्पकोरवंजि नामक कमारपटपदी, ब्रह्मशतकोष, भारत इन चार गन्या गन्थों को लिखा है। इनका पितामह चंद्रनाथ, पिता को और दीक्षा के पश्चात् रुद्रयक्षगान, मुल्लाशास्त्र, चंदण्ण, माता पोंबजे, सहोदर चंद्रनाथ, ब्रह्म और परशुराम भारत, भव्यामत, चंदनेययक्षगान इन पाँच पन थे। इनके पर्वजोंका निवासस्थान तुंगभद्रा समी- गन्थों को लिखा था। पस्थ हुलिगे और वंश इक्ष्वाकु था। कवि ने तोविन- उल्लिखत कथन से ज्ञात होता है कि परशुराम भाकेरे मंगरस (१५०८) के गंथ के आधार पर 'जिन- रतके अतिरिक्त इन्हीं का बनाया हुया दूसरा भी एक भारत' को भामिनी षट्पदी में लिखा है । इसमें ८४ भारत गन्थ है। परशुरामभारत की रचना १८१० में संधियों और ४६२८ पद्य हैं । इसे पांडव-कौरव-चरित्र और जिनमुनि की रचना १८१४ में हुई है, ऐसा कवि ने भी कहते है । प्रन्थावतार में नेमिजिन, कवि, सिद्ध, स्वयं प्रतिपादन किया है । इनके कुछ गन्थोंका परिचय सरस्वती, ज्वालामालिनी, पद्मावती, और ब्रह्मदेव, इस प्रकार है : आदि की स्तुति की गई है । इसकविका समय १८०० जिनमुनि - यह वार्धक पट्पदी में है ।इम के लग भग होना चाहिये। में संधियाँ ५०, पद्य २५५१ हैं । इस गन्थ में महामंड१. अनन्तनाथ (ल. १:००) लेश्वर नागकुमारका चरित्र चित्रित है । कविका कथन इन्होंने ' मन्मथकोरवंजि' नामक यक्षगान लिखा है कि वेणुपुरीय श्रावकों की प्रार्थनानुसार मैंने धर्मपुरी Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] क० साहित्य और जैनकवि ४८५ के मंदिर में इसे लिखा । उल्लिखित नागकुमार षट्पदी बौद्धमन की उत्पत्ति, यज्ञका आरंभ, रामानुजमतकी यही होगा। प्रारम्भ में चंद्रप्रभ पश्चात् क्रमशः कवि, उत्पत्ति, कृष्णका देवत्व, मुल्लाशास्त्रकी उत्पत्ति, श्वेतासरस्वती, गणधर, पूज्यपाद आदिकी स्तुति की गई है। म्बरोंका प्रादुर्भाव, लिंगधारण, कोमटिग जाति कैसे • जिनभक्तिसार-यह ग्रन्थ भामिनी षट्पदी वैश्य हुई, श्रादि । इन विषयों के अतिरिक्त हिमशीतल, में है । इसमें १०८ पद्य हैं और प्रत्येक पद्य "रक्षिसन- विक्रमराय, शालिवाहन, भोज, कूनपाण्डय, होय्सलवरत" के साथ पूर्ण होता है । कविका कहना है कि, राय विज्जल, बल्लाल, बेट्टवर्धन, चामुण्डराय इनके यह कृति धर्माख्यपरके चन्द्रप्रभके अनुग्रह से लक्ष्मी- विषयमें भी कविने यतकिंचित लिखा है। प्रारम्भ में मेनकी भक्ति पर रची गई है। प्रारंभ में चन्द्रप्रभ को जिन तथा सरस्वती की स्तुति है । १७५५ के जयवपमें स्तुति है। (१८३४) कोडगु शैव हुआ. ऐसा कविका कहना है । ३ भव्यामत -- इसमें ११० कंद हैं और उनमें ६ पराणसीत्र- यह वार्धक षट्पदी में है। आत्मतत्वका वर्णन है । आदि में जिन-स्तुति है । पद्य- इसमें ५१ पद्य हैं । इस कृतिम जिनेश्वरोंके माता पिता, संख्या १०७ में कवि कहता है कि, गोम्मटसार तथा जनन, नगर, वर्ण, यक्ष, लांछन, कर्मक्षयावनि, पञ्चप्राभूत ही परमार्थ की माता पिता हैं, ऐमा विश्वाम कल्याण आदिका वर्णन है । करके और नेमीश्वर स्वामीका स्मरण कर मैंने इसकी ७ मुल्लाशास्त्र - यह ग्रंथ भामिनी पट्पदी में रचना की है। है और इसमें ८ श्राश्वाम तथा ४०० पद्य हैं । इसमें ४ परशुगमभारत-यह भामिनी पटपदी लिखा है कि, इन्द्र के द्वारा दूसरे को गणधर पद दिया में रचा गया है । इसमें अध्याय २४, पद्य १३६९ हैं। जाने पर उसमें रुट होकर पार्श्व भट्टारकन मुल्लाशास्त्र इसमें 'अर' तीर्थकरके मध्यकालमें स्थित मुभौम-परशु- की रचना करके प्रचार किया । इसकी रचना कविन गमकी कथा लिखी हुई है । कथामें लिखा है कि, पर- नाविनकर में की थी। आरंभमें चन्द्रनाथ, कवि, सिद्ध, शुराम सहस्रबाहुको जीतकर और २१ बार क्षत्रियोंका सरस्वती आदि की स्तुनि है। संहार करके अंतमें सुभौम गजास माग गया । कविन ८ जिनरामायण-यह भी भामिनी षट्पदी इस प्रन्थको गुब्धिपुरमें रचा है। प्रारंभमें चन्द्रप्रभ में है । इम गन्थी जो प्रति मिली वह अपूर्ण है। उस पश्चात् कवि, सुपार्श्व, अर, सिद्ध, सरस्वती, यक्ष इन अपूर्ण प्रतिमें ७४ आश्वास (४३०९ पद्य ) और ७५३ की स्तुति है। आश्वासके कुछ पद्य है । ग्रन्थ मामान्य है। ५ कदंवगण -यह भी भामिनी पटपदीमें हिमशीतलनकथे- यह सांगत्य में है । है। इसमें १९९ पद्य और कुछ सांगत्य भी हैं । कविन इसमें ८७ पद्य हैं । इसे 'अकलंकचरित' भी कहते हैं। इस प्रन्थमें यथाशक्ति बहुतसे विषयोंको संग्रह किया इसमें अकलंकस्वामी द्वारा हिमशीतल राजाकी सभामें है। प्रायः इसीसे इसका नाम कदंबपुराण पड़ा होगा। बौद्धोंके वादमें पराजित होने तथा निष्कासित किये इसमें कविके 'बेट्टवर्धनचरित' तथा 'मुल्लाशास्त्र' का जाकर सिंहल द्वीप भेजे जानेका वृत्तान्त लिखा हुआ है। उल्लेख है । प्रन्थके प्रतिपादित विषय इस प्रकार हैं:- १० वट्टवर्धनचरिते-- यह भी सांगत्यमें है। Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८, ९, १० पद्य १२१ हैं । इसमें गमानजगरु-द्वारा तोण्णुरु में पल्ली चेलुवम्म, श्वसुर ब्रह्मदेव, मातुल दोड्य्य और बेट्टवर्धन राजाके वैष्णव बनाने आदिका वर्णन है। उपाधियाँ असाधारण कलियुग प्रथमदाक्षिणात्य, कवि भारंभमें चन्द्रप्रभ और सरस्वतीकी स्तुति है। चक्रवर्ती, महाकवि,धर्मचक्रवर्ती थीं। साथ ही, यह मा ११ विज्जणरायपुराण-यह भामिनी ष- लम होता है कि, श्रवणबेलगोल के चारुकीर्ति पंडित से ट्पदीमें है । इसमें श्राश्वास ८,पद्य ४९८ हैं । 'बिजण' जो वर्षाशन इन्हें मिलता था उसे मैसर-देवराजने स्वयं बसव की बहन गुणवती से विवाह कर उसके लड़के देनको स्वीकार किया था। इन गीतोंके अंतमें मैसर-राजा को राजा बनाने का अपने मंत्री तथा बसव आदि को मुम्मड़ि कृष्णराजका मंगल हो ऐसा उल्लेख है। इससे आदेश करके मर गया । जैनियों पर बसव के द्वारा जान पड़ता है कि यह कवि उनका आश्रित रहा होगा। किये जाने वाली हिंसा को राजकुमार ने देख कर कविका जन्म शक १६८४ स्वर्भानु संवत्सर (१७६३) में उसे युद्ध में जीत करके जैनियों के कष्ट को दूर किया। हुआ था। इस प्रन्थमें उक्त बातोंका ही विस्तृत वर्णन है। कवि नं १७८९ में 'शाकटायन-प्रक्रिया-संग्रह', १६ चारुकीर्ति पण्डिन (१८१५) १८०४ में 'लोकविभाग' तथा १८०८ में 'वृत्तरत्नाकरइन्होंने 'भव्यचिन्तामणि' ग्रन्थ लिखा है । ज्ञात व्याख्या' की प्रतिलिपि की थी । ये बातें उल्लिखित होता है कि, कवि श्रवणबेलगोल-मठ के भट्टारक थे। तीनों गन्थों की प्रतियोंसे विदित होती है । और तेरकाइनका कहना है कि, यह प्रन्थ शक १७३७ के यव सं- णांबिके नमिचंद्रने कविके लिये १८०४ में 'जैनेन्द्रव्यावत्सर ( सन् १८१५ ) में रचा गया है। 'भव्यचिन्ता- करण प्रक्रियावतार' तथा १८८७ में 'उत्तरपुराण' की मणि' चम्पूरूप है । इसमें १६ आश्वास है । इस कृनि प्रति लिपि भी की थी। ऐसा इन गन्योंकी उक्त प्रतिमें प्रत्येक जिनपूजा में सुख प्राप्त करने वाले व्यक्तियों योस जाना जाता है । की कथा लिखी हुई है । विदित होता है कि, यह ग्रन्थ १८ हिरण्यगर्भ (ल. १८६०) श्रवणबेलगोलमें बाहुबली स्वामी के निकट ही पर्ण हुआ इन्होंने 'सरस्वतीप्रबन्ध', 'विश्वकृतिपरीक्षण' इन है । प्रन्थारंभमें जिन, सिद्धादिकी स्तुति है । दो गन्थों को लिखा है । मालूम होता है कि, इनका १७ शान्तराज पण्डित (१८०) राजराज' नाम भी था । इनका निवासस्थान धारइन्होंने लक्ष्मीदेवी को पप पहनाने वाले गीत लिखे वाड़ प्रान्त है । इन्होंने पूर्व कवियोंमें नेमि वन्द्र, अग्गहै। इन्हीं का बनाया हुआ 'सरसजनचिन्तामणि' ल, होन्न, गुणवर्म, नागवर्म, पंप, केशव, मधुर इन नामक एक बृहत् संस्कृत काव्य भी है। यह गन्थ सन् कवियोंका स्मरण किया है । कविने 'विश्वकृतिपरीक्षण' १८२० में रचा गया है। इस ग्रन्थसे कविके बारे में की रचना १८७३ में की है ऐसा जान पड़ता है। निम्न बातें उपलब्ध होती हैं: १ सरस्वतीप्रबन्ध-यह चम्पूरूप कृति है। इन का पिता पद्म पंडित, माता केंपदेवम्म, धर्म- पूर्ण गन्थ अभी तक नहीं मिला । सुनते हैं कि, इस * मह बात बिजलचरिते, एकादशरुवनकथा भौर विजयकुमा- में १२ आश्वास हैं । गन्थावतारमें पद्मप्रभ,सिद्ध, कवि, रिचरितेसे भी सिद्ध होती है। -अनुवादक वृषभसेन, गौतम, सरस्वती, समन्तभद्र, पूज्यपाद, भ. Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] क० साहित्य और जैनकवि कलंक आदिकी स्तुति है । आश्वासोंके अंतमें यह गद्य मगर मालम नहीं होता है कि, कवि किस राजा के मिलता है: सचिव थे। पूर्व कवियोंकी स्तुति करते समय कवि ने ___ "इदु विदिताईत्पद-विद्याविनयविरहित- 'विजयगण' (१४४८) का नाम भी लिया है । इससे विद्वजनाखर्वगर्वकुरंगसंगनिधेत-शार्दलहिरण्य- विदित होता है कि, यह उक्त 'विजयण्ण' से बादके गर्भकविशिरोमणिविरचित" आदि। कवि हैं। गुरुओंका स्मरण करते समय तीसरं मंगरस के समान (१५०८ ) प्रभेन्दु-श्रतमुनि के बाद विमल२ विश्वकृतिपरीक्षण-यह गद्य ग्रन्थ है। कीर्तिका नाम लिया है। इससे ज्ञात होता है कि मंगइसमें नेमिचंद्र और अग्गलके गन्थोंका परामर्श तथा रसके कालसे ये कुछ पीछे के हैं। इनका समय लगअनवाद है । कविका अभिप्राय है कि, नेमिचंद्रके बाद भग १५२५ होगा। कविका 'रामविजयचरित' सांगत्य केशिराजके 'शब्दमणिदर्पण' के आदि में प्रतिपादिन में है। इसमें सन्धियाँ १५, पद्य २५६३ हैं । गन्थ म दश कवि थे। जैन संप्रदायके अनुकूल रामायण की कथा लिखी है। १६ कमल पंडिन (१८८६) ग्रन्थावतारमें जिनस्तुति, पश्चात कवि, सिद्ध, सरस्वती, इन्होंने रत्नकरण्डकी टीका बनाई है । यह काश्यप इनकी स्तुति है । तदनन्तर पूज्यपाद, अकलंक, समन्तगोत्री बोम्मरसके पुत्र थे। इनका स्थान श्वेतपर था। भद्र, कोण्डकुन्द, चारूकीर्ति पंडित, प्रभन्दुमुनि, श्रुतकविका कथन है कि, मैसुर राजा मुम्मडि कृष्णराजाके मुनि, विमलकीर्ति इन गाओंकी स्तुति की है । इस आश्रितसूरि पंडितके इष्टानसार १८६६ (?) में मैंने इस कवि की रचना लालत और हृदयंगम है । की रचना की है । इस टीकाका नाम 'बालबोधिनी' है। वर्धमान ( ल. १६५०) २० चन्दय्य उपाध्याय इन्होंने 'श्रीपाल चरित' लिग्वा है । इनका समय इनका स्थान मूडबिद्री और गन्थ 'जैनाचार' है। लगभग १६५० है। यह श्रीपाल चरित सांगत्य में है। यह गन्थ सांगत्यमें है। इममें मंधियों२०, और प्रत्येक संधिक अंतमें यह पद्यहैपरिशिष्ट 'मदननिगपमान मलयाद्रिपवमान कविपद्म ( १२०५ ) विदितसज्जनसेव्यमान । इन्होंने बेलर का ३२२ वाँ शासन ( हासन जिले मदुगुणवाभास्यमान ननिसिदनु के शासनों का अनुबन्ध ) लिखा है। यह बात उमी चदर श्रीकविवर्तमान ।।" शामनके अंतिम पद्य से अवगत होती है। इस शासनमें लिखा है कि १२९५ में वर्धमान मलयारि का म्मिलित होने वाले हैं) .... ( उक्त दोनों कवि द्वितीय भागके अनुवाद में सस्वर्गवास हुआ । उसीके उपलक्षमें दोरसमुद्र के भव्यों ने उनका समाधिस्थान बनवाया है। नोट और निवेदन __ (यह कवि प्रथम भाग के अनुवाद में सम्मिलित इस लेखके साथ 'कर्णाटक-कविचरिते' नामक होने वाला है।) कनड़ी गन्थके तीनों भागोंमें आए हुए जैन कवियोंका देवप्प ( ल. १५२५) संक्षिप्त परिचय समाप्त हो जाता है । पहले भागके ७५ इन्होंने 'रामविजयचरिते' लिखा है । कविने अपने कवियोंका परिचय 'जनहितैषी' में प्रकट हुआ था और को 'भसुरवंशोद्भव' बतलाया है। इनके पितामह होय- बादको (सन् १९१४ में ) 'सुलभगन्थमाला' में वह सल देशके चंगनाड के सचिवशिरोमणि देवप्प, पिता एक अलग पुस्तकके रूपमें भी निकाला गया था। बुकरस । इन्होने अपनेको भी सचिव देवप्प लिखा है। यह पुस्तक मोहोल ( शोलापुर ) निवामी सेठ शिव Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [वर्ष १, किरण ८, ९, १० उनके द्वारा साहित्यके उद्धार तथा प्रचारका प्रायः कुछ भी काम नहीं हो रहा है। इस दिशा में जो कुछ भी काम हो रहा है वह प्रायः अजैन विद्वानों और अजैन श्रीमानां के द्वारा ही हो रहा है; और इस लिये वे सब हमारे विशेष धन्यवादके पात्र हैं । उनके अंदर यदि इतनी उदारता और गुणग्राहकता न होती तो नहीं मालुम अब तक और कितना कनड़ी साहित्य लुप्त हो गया होना ! और आज हम इस परिचयको पानेके भी योग्यन होते। ४८८ अनेकान्त लाल जी की आर्थिक सहायता से प्रकाशित की गई थी और इसी लिये ४० पृष्टकी पुस्तक होने पर भी इसका नाम मात्र मूल्य आध आना रक्खा गया था । यह पुस्तक अब वर्षों से नहीं मिलती-कितने ही विद्वानोंको इसके लिये भटकते तथा इधर उधर पत्रव्यवहार करते देखा है, कुछ को मुझे अपनी पुस्तक उधार देनी पड़ी है । अस्तु; इस भागके शेष २१ कवियों का हाल, जो बादको मालूम हुआ है, वह अनेकान्तकी इस संयुक्त किरण में दिया गया। दूसरे भाग ५० जैन कवियों का परिचय पाठक 'अनेकान्त' की दूसरी, तीसरी, छठी-सातवीं किरण में पढ़ चुके हैं और तीसरे भागके २० कवियों का परिचय ता पहले भागके एक और दूसरे भाग के दो और अवशिष्ट रहे हुए कवियों का परिचय भी, शास्त्रीजी के एक सुन्दर वक्तव्य के साथ, उनके सामने प्रस्तुत है । कर्णाटक जैनकवियों के इस संपूर्ण परिचय से - जिसमें अनेक आचार्य, मुनि, विद्वान्, त्यागी, ब्रह्म राजा, मंत्री तथा अन्य गृहस्थ शामिल हैं - यह पर मालूम होता है कि हमारे सजातीय बन्धुओं ने कर्णाटक प्रदेशमें साहित्यसेवा और उसके द्वारा धर्म तथा समाजकी सेवाका कितना बड़ा भारी काम किया है । उनके द्वारा सैंकड़ों पन्थरत्न रचे गये, जिनकी प्रशंसामें कितने ही अनुभवी जैन विद्वान् भी मुक्तकंठ और मुक्त लेखिनी बने हुए हैं। इन गून्थोंमें क्या कुछ है कौन कौनी बातें सुरक्षित हैं, कितना इतिहास संपहीत है अथवा देशकाल की परिस्थितियों के अनुसार तथा नये नये अनुभवों को लेकर क्या क्या विशेषताएँ पाई जाती हैं, इन सब बातोंसे उत्तर भारत के प्रायः सभी जैनी अनभिज्ञ हैं - उन्हें तो ग्रन्थों तथा ग्रन्थकर्ताओं का नाम तक भी मालूम नहीं हैं और न यही खबर है कि दक्षिण भारतमें हमारा कितना अभ्युद रह चुका है । रहे दक्षिण भारतके जैनी, उनकी प्रथम तो संख्या ही बहुत कम रह गई है, दूसरे उनमें विद्वानों की असाधारण कमी पाई जाती है और तीसरे धनाभाव भी उन्हें बहुत कुछ सता रहा है । इससे वे खुद अपने साहित्य के महत्व से अनभिज्ञ हैं, कितने ही गन्थनको अपने प्रमाद तथा अज्ञानवश खो चुके हैं, 1 इसमें सन्देह नहीं कि कर्णाटक साहित्य में जैनधर्मका बहुत कुछ आत्मा मौजूद है और जैन समाजका भी उसके द्वारा बहुत कुछ समीचीन दर्शन हो सकता है; क्योंकि हमारे बहुतसे प्राचीन आचार्य और विद्वान उधर ही हुए हैं और कितने ही जैन राजादिक भी पिछले ज़माने में उधर रह चुके हैं । इस लिये उत्तरभारत के जैनियों का यह खास कर्तव्य है कि वे अपने दक्षिणी भाइयों की सहायता से महत्व के कनडी ग्रन्थोंका राष्ट्रभाषा हिन्दीमें अनुवाद कराएँ और कनड़ी जैन साहित्य में जो जो विशेषताएँ हैं उन सब का एक उत्तम संग्रह भी विद्वानों द्वारा हिन्दी में प्रस्तुत कराने की योजना करें । इससे हमें अपने पूर्व पुरुषों के आचार-विचारों तथा इनिहासका बहुत कुछ पता लग सकेगा और हमारे धार्मिक एवं सामाजिक जीवनमें बहुत कुछ प्रगति हो सकेगी। इस के सिवाय, यह भी निवेदन कर देना जरूरी है कि कर्णाटक जैन कवियों का यह सब (तीनों भाग का ) परिचय अब एक अलग पुस्तक के रूप में अच्छी तरतीब देकर और कई उपयोगी अनुमणिकाओं में विभूषित करके निकाला जाय। और वह बिना मूल्य अथवा लागत से भी बहुत कम मूल्यमें वितरण किया जाय । यदि कोई दानी महाशय इस ओर योग देवें तो समन्तभद्राश्रम इस शुभ कार्य को अपने हाथ में ले सकता है। अनुक्रमणिकाओं के साथ यह पुस्तक दस फार्म (१६० पृष्ठ) के लगभग होगी और इसकी लागत २००) रु० के क़रीब आएगी आशा है कोई एक या दो सज्जन शीघ्र ही इस भार को उठानेका श्रेय प्राप्त करेंगे । -सम्पादक Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६ ] ( १ उप के ऊपरमे आवरण हटनेके प्रथम ही नित्य प्रति नियमित रीतिस धारा नगरीका राजद्वार खुलता, और दो अश्वारोही निर्जन पथ पर मे चल कर सुदूर को निकल जाते । कोई नवीन देखने वाला उनको सहबधु अथवा अंतरंग मित्र समझता । नवमे fपर्यंत उनका वेषभूषा और साज प्राय. समानसा रहता । उनके मुँह पर राजतंज झलकता था । RTE - कालक कुमार [ लेखक - श्री ० भीमजी हरजीवन 'सुशील'; अनुवादक - पं० मूलचंद्र जैन 'वत्सल' ] 3 रात्रि योद्धा के हाथ का भाला जिम प्रकार नागके तंज में चमक जाता है, उसी प्रकार उन दोनो अश्वारोहियो के मुखमंडल पर स्वाभाविक गौरव- तंज प्रकट होकर अंधकार में चक्राकार प्रदीप्त होता था । वास्तव मे ये दोनों भाई-बहन थे। इनको गहबंधु प्रथवा अंतरंग मित्र कहना भी कुछ अनुचित नहीं था । वहनरूप मे जन्म लेने पर भी 'सरस्वती' को कालककुमार अपनं लघु भाई समान समझता और सन्मान करता था। कालक कुमार धारावाम नामक मगधदेश की एक प्रधान नगरी का युवराज था, उसके पिताका नाम 'रिसिंह' था । वैरिसिहने कुमारी सरस्वतीको राजकुमारकी समान ही स्वच्छन्द्र प्रकृति में पालित किया था । वह पुरुषत्रेषमे कुमारके साथ वनमें जाती, अबविद्या सीखती और प्रातः कालके प्रथम ही अंधकार की कुछ अपेक्षा न करती हुई, भयकं स्थानमें निर्भयतःमद' नामक भी उल्लेख - सम्पादक कळी 'वीरसिंह' और की निलता है कालककुमार 1 ४८९ *" पर्वक भ्रमण करती थी । राजमहल के कृत्रिम विवेक और दंभपूर्ण सौजन्यमे भाई-बहनका यह निर्मल स्नेह कुछ अलौकिक ही प्रतीत होता था। महासागर के क्षार जलमे मीठे रसकी धारासमान कालक कुमार और सरस्वतीकी स्नेह-सरिता समस्त राजपुर मे नितान्त भिन्न प्रकार की श्री । नित्य नियमानुसार कालक कुमार और सरस्वती आज प्रात कालके प्रथम उठ कर समीपस्थ वन की और जा निकले थे । विलासी नगरवासियोंके जगने के प्रथम ही नगरको लौटकर आजाना दोनोंका नित्यक्रम था । सरस्वती कुछ विशेष उल्लाससे अपने घोड़ेको आगे आगे चलाती जाती थी, कुमार कालक चिन्ता प्रस्त था, वह सरस्वती के घोड़े के पीछे चलना अपना कर्तव्य समझता था । घोड़ेका वेग साधारणत बढ़ने से कालक कुमार विचारनिद्रामं जगा और सरस्वतीको सम्बोधित कर बोला 66 बहन | क्या शीघ्रता आ पड़ी है । तुम्हें क्या किसी दिन के लिए आज युद्धकी परीक्षा देनी है, जो इतनी शीघ्रता घोड़ा दौड़ा रही हो। दो दिनपश्चात अंतःपुर मे रहना पड़ेगा, तब यह सब तूफान शान्त हो जायगा, फिर कहीं रोना न पडे । " सरस्वतीने घोड़ेकी लगाम खैची, भाईके सम्मुम्ब अपनी दृष्टिको श्रलक्षित रखकर बोली : " स्त्रियों में भी तुम्हारे ही समान आत्मा निवास Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९० अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८, ९,१० करता है और उन्हें भी आत्मरक्षा करना होती है, और दोनों भाई-बहन घोड़ोंको वहीं छोड़ कर बनके अधि वह तुमसे भी कहीं अधिक । " काँश भागमें भ्रमण कर जाते । उनके लिए इस वन का कोई भी मार्ग अथवा स्थल ऐसा नहीं था जो उन से छिपा हो । यहाँ आने पर वे राजकुमार और राजकुमारीकी अवस्थाको भूल कर केवल मात्र मानवचाल बन कर सामान्य गृहस्थ कुमारों के समान जीवनलीला व्यतीत करने में आनन्द मानते थे । आज वे उद्विग्न थे, उन्हें किसी भी विनोदमे आनंद ज्ञात न हुआ । उनका निरंतर ही गगनमंडप चित्रित प्रभातकालीन विविध प्रकारके दृश्य अवलोकन करनेमें कितना ही समय व्यतीत हो जाता था । आज वेही बंधु हैं, वही वनराज है, वही सूर्योदय और वही आकाश है । किन्तु भविष्य की चिंताओंने आज उनके चिर आनंदरसका भक्षण कर लिया था । बहुत समय पर्यंत दोनों मौन रूपसे बैठे रहे । इस प्रक्षेपका उत्तर सरस्वतीको कुछ न मिला । दोनों आगे चले । “अन्तःपुरमें बन्द रहना पड़ेगा और रोना पड़ेगा " यह कहते कह तो गया परन्तु न कहा होता तो उचित था, कालक कुमारने यह पीछेसे समझा । उसका मुँह पश्चात्तापको लिए हुए था; परंतु यह देखने वाला वहाँ कोई नहीं था । भाई-बहन को अलग होना पड़ेगा, यह विचार आज कुछ दिनोंसे केवल भाई-बहन को ही नहीं किन्तु पिता 'वैरिसिंह' और माता 'सुरसुंदरी' को भी चिंतातुर और उद्विग्न बना रहा था । सरस्वतीको अब विवाहना होगा और कुमारके वेपमें भ्रमण करती पुत्री को गृहिणी बन कर अज्ञात अन्तःपुर में बसना पड़ेगा, इतना ही नहीं किन्तु एक दूसरे की छायासदृश रहने वाले भाईबहन का परस्पर विछोह होगा यह चिंता उनको शनैः शनैः अधिक सता रही थी । सरस्वतीको कुमारव्रत की गहरी गरी अभिलाषा है किन्तु सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि उसे अपने लिए नहीं तो भी राज्यरक्षा के लिए तो व्यवश्य विवाह करना होगा - कौशल, कौशाम्बी अथवा वैशाली के किसी भी राज्य कुटुंबकी माँग मगधराज के लिए अवश्य स्वीकार करनी होगी । यदि वह ऐसा न करे तो कुमारीके लिए मगधमहाराज आपत्ति स्थान बन जाएँ, समीप के क्षुधातुर गुद्धसमान सामन्तगण मगध को निगल जायँ । कुछ समय पश्चात् दोनों भाई-बहन नगर अनेको तत्पर हुए। इतने में उन्होंने शहर से लोगोके कुछ समूहको अपनी ओर आते देखा । मालूम करने पर उन्हें ज्ञान हुआ कि जिनशासन के एक धुरंधर विद्वान् श्रीगुणाकर सूरि आज धारा नगरीके उद्यानमें संघसहित पधारे है । इस समय मगध जैन शासनका एक पवित्र तीर्थ बना हुआ था । सहम्रो जैन मुनि अहिंसा, सत्य और त्याग धर्मकी महिमाका उपदेश देते हुए मगधको एक देवभूमि बना रहे थे । उत्कृष्टसे उत्कृट भोगोपभोग और उच्च से उच्च कोटिकी त्यागअवस्था इन दोनोंका अपूर्व संगम इस भूमि पर एक समय हुआ था । भोग और त्याग एकही भूमि पर एक ही समय इतने मित्रभाव से निवास कर सकते थे, इसका अनुभव मात भूमि मगधने किया था । आजका विलास कुछ समय ( २ ) सरस्वती घोड़े पर से नीचे उतरी, घोड़ेको वृक्षसे बाँध दिया । कुमार कालकने भी घोड़ेसे उतर कर सरस्वतीका अनुकरण किया । आज यदि नित्य प्रतिके अनुसार उल्लास होता तो पश्चात् परम संयम बन जाता था । Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] कालक कुमार ४९१ ___ कालक कुमार और सरस्वतीने राजगढ़ जाने के पट्टी बांधी है, इसका हृदयस्पर्शी चित्र चित्रित करते बजाए उद्यानकी ओर अपने घोड़ोंको दौड़ाया। जिन हुए उन्होंने उपसंहार में कहा-"सर्व कृत्रिमताभोंसे शासनके निर्पथ मुनि निराबाध सुख-शान्तिके एक निर्मुक्त होकर जिन्हें केवल अपना आत्मकल्याण सासमुद्र थे, उनके निकट यदि कोई भूल कर भी जा धन करना हो उनके लिये जैनशासनके त्यागधर्मके निकले तो उनकी शीतल लहरों तथा सनातन संगीतका अतिरिक्त अन्य कोई भी उत्कृष्ट मार्ग नहीं।" आस्वाद लिए बिना पीछे नहीं आ सकता । कुमार व्याख्यान समाप्त होने पर सर्व जनसमूह आचार्य और कुमारीको समुद्र के बहुमूल्य रत्नों की अधिक श्रीको प्रणाम कर अपने अपने स्थानको चला गया । म्पहा न थी, वे तो क्षणिक शान्ति और तृप्तिकी काम- कालक कुमार और सरस्वती भी विधिपूर्वक गुणाकरनास इस ओर पानेको प्रेरित हुए थे । उनका मन सूरिकी वंदना कर राजगढ़ पहुँचे । आज बहुत उदासीन था; निग्रंथ मुनिके दर्शन एवं उप- राजकुमार और राजकुमारीने महल में जाकर निदशमे अल्प समयको आश्वासन प्राप्त होगा, इसके श्चितरूपसे अपनी स्थिति और शक्तिके नापनका प्रयत्न अतिरिक्त उन्हें और अधिक कुछ इच्छा न थी। किया । दोनोंने विचार किया-राज कुटुंबके लिए गणाकरसरि इस समय शिष्यसमूहके मध्य में अनिवार्य ऐसे प्रपंचजालोमेंसे छूटने और निष्पाप एक वृक्ष के नीचे बैठे थे, छोटे छोटे तारागण के समूहमें जीवन व्यतीत करनेके लिए जिनशासनद्वारा प्ररूपित चन्द्र सदृश उनकी पुण्यप्रभा समीपक समूहको उज्वल संयममार्गके अतिरिक्त और कोई उत्तम उपाय नहीं करती हुई उद्यानमें पूरित हो रही थी। है। त्यागजीवनकी कठिनाइयाँ उनके लिए नवीन भले कुमार और सरस्वती जब वहाँ पहुँचे उस समय ही हों किन्तु उनसे वे अज्ञात नहीं थे, स्वेच्छापूर्वक आचार्य महाराज वंदनार्थ आए हुए स्त्री-पुरुषोंको जो अपने शरीरको कस सकें उनके लिए परीपह क्या त्याग धर्मकी महिमाका उपदेश दे रहे थे, सदैव श्रा- कर सकते हैं ? मोद और अस्त्र-शस्त्र की शिक्षामें तन्मय रहने वाले कालककुमार और सरस्वतीने गुणाकर सरिके सकुमार-कुमारी मुनिकी धर्मसभामें आवें, यह एक मीप जाकर मुनिधर्मकी दीक्षा ग्रहण की । मगधमाताके असाधारण घटना थी, वे दोनों अत्यंत शान्तिपूर्वक कीर्तिमंदिर पर यशस्विताका कलश भागेपित किया । श्रोताओंकी श्रेणीमें बैठ गये। कुमार कालकने अनुक्रममे प्राचार्यका पद प्राम आचार्य महाराज, संसारके प्रपंच, दम्भ और किया । साधुसंघमें वे 'कालकाचार्य' के नामसे उच्चापाखंडका विवेचन करते हुए, समर्थ स्त्री-पुरुपोंका रित किए जाने लगे । सरस्वती साध्वियोंके समुदायमें त्याग विश्वके कितने कल्याण पथ पर पहुँच जाता है, विचरण करती अहर्निदश आत्महितका चिंतन करती यह प्रसिद्ध पुरुषोके जीवनचरितों परसे समझा रहे है। एक दूसरेसे अलग रहने पर भी मानों भाई-बहन थे। संसारी मनष्योंने अपने लिए एक कारागृह बनाया एक छत्रकी छायामें रहते हों और एक माता की गोद है जिस कागगृह के अंदर स्वार्थी पाखंडी जीवान में क्रीड़ा करते हों, इस प्रकार कृत्रिमतारहित अपने असंख्य भ्रान्तियोंकी रचना कर भद्र पुरुषोंके नेत्रों पर अपने चरित्रका परिपालन करते हैं । Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९२ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८, ९, १० कालकाचार्य एक समय युवराज थे, यह वात सहस्रों नगरनिवासी यह सब दृश्य नेत्रोंके सामने देखिन लगभग भुला दी गई है । प्राचार्य अपने पूर्व सम्बन्धों रहे किन्तु कोई भी सम्मुख आकर और लाल ऑग्में को भी भूल गए होंगे। साध्वी सरस्वतीका उनके पर्व करके इस अनाचारको वीरोचित प्रतिकार न कर सका। जीवन के साथ कुछ संबंध नहीं रहा। ___ यदि वे निर्बल और अशक्त मनुष्य तनिक भी हिम्मतके साथ समीप आकर इस नरराक्षसके अनुचरोंको पकड़ कालकाचार्य विहार करते हुए एक दिन उज्जयिनी लेते तो शायद वे पृथ्वीमें समा जाते! परंतु इस समय नगरीके उद्यानमें विराजमान थे। सरस्वती साध्वियों तो उज्जयिनी निःशक्त बनकर बैठ गई थी। उसके निवासी के समीप किसी एक ग्राममें थी । वह अपने संसारी विलाम और विनोदकी मधुर किन्तु जहरीली लहरों में अवस्थाके भाई और जैनशासनके एक समर्थ आचार्य मम्त थं । न्याय अथवा पवित्रताका रक्षण करनेकी की वंदनाको आती थी। इतनमें गजा गःभिल्ल अना- अपेक्षा देहकी रक्षा करना ही उनके लिए अधिक महत्व यास इस मार्गस होकर निकला। उसने दूरम सरस्वती की वस्तु बनी हुई थी। को श्रात हुए देखा । समस्त संसारको शीतलता मि- सरस्वतीका बलान हरण होनेस उज्जयिनी-नगरचन करने वाली यह रूपराशि गजाक हृदयमें प्रचंड वासियान बिजली-जैसे चमत्कारका अनुभव किया। अग्नि प्रज्वलित करने लगी। वह जन्मम ही अत्याचारी भयंकर उल्कापातके भयस व गृहोंमें प्रवेश करने लगे। था परन्तु अभी तक उसका पाप-घट पूर्ण नहीं व्यवसायी वर्ग दुकानें बन्द कर जीवनसंरक्षणकी हुआ था, अत्यंत अभिमान और पाशविकतानं उसे आशाम अपने अपने घर चला गया । देखतं दग्वने अंधा बना दिया था। 'सरस्वती' एक साध्वी है, सर- उज्जयिनीम हाहाकार फैल गया। साध्वीका अपहरग स्वतीको किसी के हाथका स्पर्श होने पर उज्जयिनीकी यह केवल स्त्रीजाति पर अत्याचार ही नहीं था किंतु समस्त जनता शान्तिभंग कर बैठेंगी इस बात का संप्रदायमात्रके भंघका यह घोर अपमान था । दुर्भाग्य विचार वह नहीं कर सका। कामांध राजा इस समय से इस समय उज्जयिनी में कोई एक भी वीर पुरुप ता अपराधी की सहश चुपचाप चला गया । किन्तु नहीं था। गर्दभिल्लको उसके सिंहासन परसे उतार कर अपन सेवकास कहता गया कि 'सरस्वती' जब उदान -नीच पटक कर-उसके पापका प्रत्यक्ष बदला देता से पीछे लौटे तो शीघ्र ही उसे पकड़ कर गजमहल में एमी किसीमें शक्ति नहीं थी। ले आना । अनचर गह देग्वत हुए वहाँ खड़े हो गये। शृंगार, आमोद और प्राणसंरक्षण के प्रवाहमें पड़ी __ बहुन दिनों के पश्चात आज कालकाचार्य और हुई प्रजाके मस्तक पर कलंकके अतिरिक्त और अन्य सरस्वती उज्जयिनीके उद्यान में मिले थे। दोनों संयमी क्या हो सकता था ? उज्जयिनीके इतिहासमें एक निर्विकार नयनसे हर्षके आँसओंसे प्लावित होने लगे। साध्वीके अपहरण का काला कलंक अंकुरित हुआ। ___ उद्यानसे पोछे लौटती सरस्वतीको गजाके अन- कालकाचार्य ने इस बातको मालूम किया । सोता चरोंने नगरमध्यमेंसे पकड़ कर पालकी में बैठाया हुआ सिंह अचानक छेड़ा जाय उसी प्रकार यम, निऔर बलात् ले जाकर राजाके अंतःपुरमें छोड़ दिया। यमके बंधनमें बंधा रहने वाला उसका स्वाभाविक Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालक कुमार आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६ ] ४९३ क्षत्रियत्व अधिक वर्षों के पश्चात् आज अचानक ही देखकर घबराये । पापी जिस प्रकार पुण्यमूर्ति को देख कर घबराता है उसी प्रकार ये नारकी जीव कालकाचार्य को देख कर भयभीत बन गये। छह काय के जीवों की रक्षा करने वाले एक जैन मुनि प्रतापी राजा के सामने श्राकर प्रतिकारका एक शब्दमात्र भी न कह सकेंगे ऐसा उसने समझ रक्खा था, किन्तु उसकी यह आशा व्यर्थ निकली। जो दावानल दूर दूर लगता उसी दावानल की ज्वाला इस समय राजा और राज्य को भक्षण कर जाएगी ऐसा उसे भय हुआ । चमक उठा । एक समय था जब सरस्वती के सम्मुख ऊँची दृष्टि करके देखने का किसी को साहस न होता, बहन सरस्वती के किंचित् संतोष के लिए वह मगध की राज्यलक्ष्मी को तुच्छ समझता । उसी सरस्वती को अपने सम्मुख उज्जयिनी का एक स्वेच्छाचारी राजा बलात्कार अपने अन्तःपुर में ले जाय, इसमें उसने राजा और प्रजा दोनों का प्रलयकाल समीप आता हुआ देखा। इस अत्याचारी राज्यका आज अंत आ गया, ऐसा उसका संयमी अंतःकरण बोल उठा । कालकाचार्यमें बसा हुआ कालक कुमार विकराल रूप " गर्दभिल्ल ! अब भी प्रायश्चित्तका समय है, सरस्वती को छोड़ दे, जैन शासन की वह एक पवित्र साध्वी है; इतना ही नहीं किंतु वह धारावास-राज्य की राजपुत्री है, उसका एक बाल बाँका होने के प्रथम ही उज्जयिनी उजाड़ हो जायगी, एक दुष्टके पाप से सहस्रों निर्दोषों का रक्त बह जायगा ' 33 कालकाचार्य के ये शब्द पंचजन्य शंखनाद की भांति महल में गूंज उठे। सरस्वती धारावाम-राज्य की राजकन्या और कालकाचार्य धारावास के राजकुमार कालक कुमार हैं, इस बातका ज्ञान गर्दभिलको श्राज ही हुआ। सरस्वतीके अपहरण का अयोग्य साहस वह करते तो कर गया परन्तु इससे पीछे कैसे हटा जाय इसका उचित उपाय उसे नहीं सूझ पड़ा - प्रतिष्ठा और वासना की अस्पष्ट अनल उसके हृदय में सुलगने लगी । गर्दभिल्ल ने कालकाचार्य की इस उद्धतता का उत्तर शब्दों की अपेक्षा शस्त्रसे देने का निर्णय किया । इशारा पाते ही राजाके रक्षक म्यानसे तलवार निकाल कर कालकाचार्य के सामने खड़े हो गए । नृत्य की तैयारी कर रहे थे । "मुझे भी एक समय तुम्हारे जैसे शस्त्रों में श्रद्धा गर्दभिल और उसके अनुचर कालकाचार्य को थी, और आज भी यदि इस मुनिवेष को अलग कर धारण कर उठा । उद्यानसे वह उसी समय गर्दभिल्लके महल की और चला । जनताने समझा कालकाचार्य होश-कांश 'चुका है, उसका मस्तिष्क विकृत हो गया है, वह साधु है — निःशस्त्र है - अकेला है । यदि वह स्वस्थ होता तो राजा के समीप इस प्रकार दौड़कर जाने का साहस न करता । किन्तु लोग यह क्या जानें कि कालकाचार्य का शरीर तो मगध की मिट्टी से बना हुआ था, उज्जयिनी की कायरता उस का स्पर्श नहीं कर सकी थी । विश्वका प्रास करने के लिए उमड़ी हुई दावाग्नि की सदृश वह गर्द भिल्लके राजमहल में गया । द्वारपाल अथवा कोई अन्य सैनिक कालकाचार्य को रोक नहीं मका । आज तो उसके सम्मुख निरीक्षण करने वाला जल जाय, इस प्रकारकी ज्वालाएँ उसके रोम-रोमसं निकलती थीं । कालक कुमार आज काल भैरवके तां डव Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८, ९, १० इच्छा करूँ ना शस्त्र का उपयोग कर सकता हूँ। परंतु (४) ऐसा समय आनेके प्रथम ही शांतिपूर्वक समझा देना ममय जाने के साथ बात विस्मरण होने लगी, मेरे मुनिधर्मका कर्तव्य है, पश्चात् कोई यह न कहे कि राजा. गर्दभिल्ल ने विचार किया, कालकाचार्य बंचाग जैन शासनके एक मुनि ने अपनी बहनके लिए. जैन जैन माधु ! केवल धमकी देकर देश छोड़ कर च। धर्म की आज्ञाका उल्लंघन किया-ममम्त जैन संघका गया है। मस्तक लज्जा से नमाया। मुनि तथा क्षत्रिय कुमार इतना समय व्यतीत होने पर भी मरम्वती मात्र मृत्य स ना निर्भय होत हैं।” परम शांनि में इनना अपने भाई के आगमन की प्रतीक्षा करनी अन्न पर कहते हुए कालकाचार्य गर्दभिलके गजमहल में पीछे की एक अँधेरी कोठरी में बंद रह रही थी । गर्दभिः. लौट आए। ने बल अथवा लालच-द्वारा उसे वश करने का गजमहल की सीढ़ियाम उतरत हुए वे शीघ्रता आशा त्याग दी थी। असह्य एकान्त तथा यंत्रणा के में आगे बढ़े, किन्तु प्रवेशद्वार पर पहुँचने के प्रथम कसे मुक्त होने के लिए आज नहीं तो कल अवश्य ही वे चौंके और एक क्षण को वहीं खड़ हो गए। ही मेरे पैरों पड़ती हुई आवेगी, इस प्रकार मन को दाहिनी पार गजा का अन्तःपर था उमी और कान संतापित कर वह अनुकूल समय की प्रतीक्षा करन लगाया: लगा। ___ "कोई गता हो एमा ज्ञान होता है ! मरम्वती ना सिंधु नदी के तट पर रहने वाली शक जाति के नहीं !" अशक्त वृद्ध परुप के दीर्घ श्वास की मदश बहुत म सामंत एक साथ उज्जयिनी नगरी पर टूट उम. मुँहसे ये शब्द निकले। पड़े। टिट्टियों का समूह जिम प्रकार नभ मंडल की ___नहीं ! मरम्वती सदन करती है, यह केवल आच्छादित कर देता है उसी प्रकार इन मामना ।। मात्र भ्रम है ! इसने एक बार कहा था कि स्त्रियों में मैन्यममूह मालव देश की भूमि पर फिरने लगा। ___ अभिमान में अंधा हुआ मालवपनि गर्दभिः । पुरुषों की महश आत्मा विगजमान है, इतना ही नहीं किंतु पुरुषों की अपेक्षा उनमें विशेष प्रात्म-रक्षण विलामनिद्रा मे जागृत हो इसके प्रथम ही उज्जयिनः शक्ति है" का अजेयगढ़ टूट गया । जिम प्रकार तालाब की पा.. टत ही कल-कल नाद करता प्रचंड वालिंग महल ___ मरस्वती स्वयं अपने शीलवतके रक्षण में संपूर्णतः मुख में बह निकलता है उसी प्रकार सैनिक गग्गा ममर्थ है, यह विचार करते हुए कालकाचार्यन हृदय-, हृदय- अमरपुरी जैसी उज्जयिनी में घमने लगे। एक घट्ट स्थ निर्बलता को निकान डाला । वह द्विगुणिन बल प्रथम जहाँ नत्य, गीत और प्रामाद की लहरें उछलनी तथा उत्माहमे आगे चला और किसी से कुछ कहे थी वहाँ भय और चिंताका वातावरण व्याप्त हो गया। बिना उज्जगिनी की मीमा का उल्लंघन कर गया। भकंप के वेग से कंपित होने पर समुद्र का जल अचा लोग कहते थे कि-"कालकाचार्य बेचाग वितिम नक अदृश्य हो कर जिस प्रकार तली में रहने वाले हो गया है, जैन मुनि को इतना क्रोध नहीं चाहिए" धारदार पत्थर निकल आते हैं उसी प्रकार उज्जयिनी Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५५ आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनिव्सं०२४५६] कालक कुमार का प्रमोद जल सख गया और उसके स्थान पर शक- में प्रवेश किया और वहाँ स्वतंत्र राष्ट्र निर्माण किया। सैन्य की मूर्ति- मान दीवार खड़ी हो गई। कालकाचार्यने आत्मसाक्षी-साहित प्रायश्चित्त ले __ सैन्यसंचालकके रूपमें स्वयं काल काचार्यको स- कर अपनेको विशुद्ध किया और पहले की तरह महाबद्ध हुआ देख कर उज्जयिनी की जनता ने अनुमान व्रतों का पर्णरूपसे परिपालन करते हुए विचरण करने किया कि, यह आक्रमण निष्प्रयोजन अथवा अनायास लगे। ही नहीं हो रहा है किन्तु साध्वी सरस्वतीके अपहरण महाशक्तिशाली प्रभावशील व्यक्तियोंकी श्रेणीमें का यह प्रायश्चित्त है। कालक सरिका नाम जैनशासनके एक महान ज्योनिरजयिनीमें अपने मामंतों-समेत प्रवेश कर काल- र्धके मपमें अब तक प्रकाशित हो रहा है । काचार्यने गर्दभिल्लको पकड़ लिया । उज्जयिनीको उजाड़ बना देने की एक बार दी हुई धमकी केवल दुर्वन वैरागीका वाग्वैभव नहीं था किन्तु एक ममर्थ पुरुप की प्रतिज्ञा थी, यह गर्दभिल्लको ममझा दियाएक जैन माध शासनको अपमानित होनस बचानके लिए भीपण यद्धका सेनापति भी हो सकता है, इसका • पक्षणानदष्टि गग दापीका विवेक नहीं होने प्रत्यक्ष अनभ मकग दिया। दनी । वह मनुष्य को हठपाही बना देना है । उममें वंदी गर्दभिल्ल आज अमहाय था, पापकी क्षमा . श्रद्धा के न होने हए भी, कपाय वश, किमी बात पर याचना माँग कर जीवनदान प्राप्त करने के अतिरिक्त न्यर्थ का आग्रह किया जाता है; और आमही मनुष्य उसके लिए कोई अन्य उपाय नहीं था। उसने एक युक्तियों को नाच-ग्याँच कर उम और ले जाने की अपराधीकी भान्ति कालकाचार्यसे क्षमा माँगी और चणा किया करना है जिधर उमकी मति ठहरी हुई मगम्वनीको कारागृहमे मुक्त करनेका वचन दिया। होती है । विपरीन हमके, 'अपक्षपान' गणदोषों ___ कालकाचार्यको केवल इतना ही इन्छिन था, उन्होंने के विवको प्रधान महायक है । वह मनुष्यको न्यायी, गर्दभिल्लको तत्काल बन्धनमुक कर दिया। मरम्बनी भी ना नम्र और गगाप्राहक बनाती है । उमकं कारण मत्पुबन्धनमुक्ता हुई। गर्दभिलने इसके पश्चान भविष्यक रुपी को, पगेना-द्वाग सुनिर्णीत होनेपर, अपनी पर्व लिए किसी मावी अथवा गृहस्थ महिला प्रनि कुष्टि श्रद्धा नथा प्रवृति को बदलनेमें कुछ भी मंकोच नहीं न करने की और राजनीतिक पथ पर शासन करनी होना । वे अपनी बुद्धि को वहाँ तक लेजा कर स्थिर प्रतिज्ञा ली। करने हैं जहाँ नक युक्ति पहुँचनी है -अर्थान , उनकी श्राचार्यका उद्देश्य पूर्ण हुआ। अब एक पल भर मनि प्रायः युक्त्यनुगामिनी होती है। शकसैन्यको उज्जयिनी में रहने देना उन्हें अन्याय प्रनीत - खंडविचार। होने लगा । ममस्त सामंतगण उनके प्राज्ञाकारी शिष्यसमान थे। सामन्तगणोंने वहाँ म हट कर मौगष्ट-प्रदेश * गुजराती 'ग' में अनुवादित । Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९६ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८, ९, १० areennis . rr. .... .:...:...:...master प्राकृत प्रकाश नहीं होता । जैसे आँख बन्द कर लेने वालेका जीवयहो अप्पबहो जीवदया होइ अप्पणो हदया। रात्रि के समय सुप्रज्वलित दीपक भी कुछ दिखा नहीं विमो सकता । भावार्थ-ज्ञानदीपकके प्रकाश से लाभ - उठानेके लिये इंद्रिय-कषायोंका वशमें करना आँख -शिवार्य। ' खोलनेके समान है।' 'वास्वतमें, जीवोंका वध अपना ही वध है और जीवोंकी दया अपनी ही दया है । इस लिये हिंसाको दंसणु णाणु चरित्तु तमु जो समभाउ करेइ । विषकण्टकके समान समझ कर दरमे ही त्याग देना इयरहं एकु वि अस्थि ण वि,जिणवरु एउ भणेउ । चाहिये।' -योगीन्द्रदेव । (गीवववके ममय क्रोधादिक कषायांकी उत्पत्ति होती है और 'सम्यग् दर्शन, ज्ञान और चारित्र ये तीनों उसीक कार्य प्रात्माका घात कानी है। इसक सिवाय जीववध क परिणाम- होते हैं जो समभाव धारण करता है । जो साम्यभाव स्वरूप जन्मान्तरों में अनेक बार अपनेको दसग्क हामि मग्ना पड़ता से रहित है उसके इन तीनोंमेंमे वास्तवमें एक भी नहीं है। इस लिये जीवध वास्तवमें प्रात्मक्ध है और इसी प्रकार जीव .. दयाको प्रात्मदया समझना चाहिए । ___ बनता, ऐसा भगवान ने कहा है।' जान पड़ता है इभीम यह कहा गया है कि 'समभाव लं । माविमप्पा पाषा मोक्खं ण संदेहो' - जो माम्यभाव सोणियतश्च पिच्छाण पिच्छा तस्स विवर्गो। म भाविता-मा है वह नि सन्दह माक्षको प्राप्त होता है. क्योकि माक्षक कारगा सम्यन्दनादिक उमी के प्राधित हैं। -देवसेनाचार्य। 'जिसका मनोजल गग-द्वेषादि कल्लोलोस नही इंद्रियकसायवसिगोमुंडोणग्गो य नो मलिणगत्तो। बोलता है वही आत्मतत्त्वका दर्शन करता है । प्रत्यत सो चित्तकम्मसवणो व समणम्पो असमणो हु । इसके, जिसका मन रागद्वेषादिक की लहरोमें पड़कर -शिवार्य। डावाँडोल रहता है उसे आत्मतत्त्वका दर्शन नहीं होता।' 'जो इन्द्रिय-कषायोंक वशीभूत है वह मुंडितशिर, इंदियफसायणिग्गहणिमीलिदस्साहु पयास दिणणा- नग्न और मलिनगात्र होने पर भी चित्रामका-सा एं। रत्तिचस्वणिमीलरस जघा दीवो मुपज्जलिदो। मुनि है-मुनि जैसे रूपको लिये हुए है-वास्तवमें मुनि -शिवार्य। नहीं है। 'इंद्रियों तथा कषायोंके निग्रह से जो रहित है । इससे मुनिके लिये इन्द्रियों तथा कार्योका कश करना सबसे उस ओर उपेक्षा धारण किये हुए है-उसके ज्ञानका मुत्य कयिका है। ] Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जापाठ, श्रावण, भाद्रपद, बीरनि०सं०२४५६] सुभाषित मणियाँ मंस्कृत गगी बम्नानि कर्माणि वीतरागी विमुश्चति । म्पयन योऽन्यानत्येति धर्मस्थान् गर्विताशयः। जीवो निनोपदेशोऽयं संक्षेपाबन्धमोक्षयोः ।। मोऽन्यति धर्ममात्मीयं न धर्मो धार्मिकर्विनाः ।। -ज्ञानार्णव में उद्धृत । -स्वामी समन्तभद्र। गगी जीव कोको बाँधता है और वीतरागी जीव 'जो मनुष्य अपने कुल जाति आदिके अभिमान- उन्हें छोड़ता-अथवा उनके बन्धनसे छूटता है यही में गर्विनचित्त हुआ दूसरे धर्मात्माओंका- सम्यग्द- बन्ध-मांक्षके विषयमें जिनेन्द्रका मंक्षिप्र उपदेश है।' . शनादि रत्नत्रय धर्मसे युक्त अन्य कुल-जाति आदिके यत्र रागः पदं धत्तं द्वेषस्तौति निश्चयः। व्यक्तियोंका-तिरस्कार करता है वह अपने धर्म का ही उभावतो समालम्ब्य विक्रामत्यधिकं मनः ॥ निम्कार करता है; क्योंकि धर्म धर्मात्माओंके बिना -शुभचन्द्राचार्य। नहीं होता-धार्मिककी अवज्ञा वाम्नवमें धर्म की ही 'जहाँ राग कदम रखता है वहीं दूप पहुँच जाता है, अवज्ञा है।' यह निश्चय है। इन दोनोंका आश्रय लेकर ही मन अ. यथा यथा समायाति संवित्ती तत्त्वमुत्तमम् ।। धिक विकारको धारण करता है।' नथा तथा न रोचन्ते विषयाः मलमा अपि ।। यथा यथा न रोचन्ते विषयाः पलभा अपि । । "* जयन्मदा क्रोधमुपाश्रितः क्षमा नया तथा समायानि सवित्ती नत्त्वमुत्तमम् ।। जयंच पानं समुपेन्य माईवं । - पूज्यपादाचार्य । नथैव मायामपि चा नवाजय'ज्यों ज्यों आत्मतत्त्वका अनुभव होना जाना है जयंच मनीपवर्शन लुब्धनाम् ।। यो यो इन्द्रियविषय सुलभ हान हुए भी नहीं रचनं । निनाः कपाया यदि किं न नैनितं और ज्यों ज्यों इन्द्रियविषय सुलभ हान हुए भी नहीं कपायमूलं मकलं हि बन्धनम् ।" ग्वने त्या त्या आत्मतत्त्वका अनुभव बढ़ता जाता है।' 'मदा नमाको आश्रिन कर क्रोधको जीनना चाहिये, । इमम मानहाना है कि हमार मानानुभवमंद्रियविषय __ मार्दवको लंकर मानका जीतना चाहिये, प्रार्जवसे ५यक हैं। इनकी मचि वाग्नवमं जितनी कम हानी पानी लन .' ग्रात्मानुभवका मार्ग प्रगत होता जाना है। मायाको जीतना चाहिये और मंतापके द्वारा लाभको जानना चाहिय । जिन्होंने इन कपायोंको जीन लिया है. नत्वज्ञानं च माघ स्यानविरुद्धप्रवर्तिनाम् ।। उन्होंने क्या नहीं जीना ? मब कुछ जान लिया है। पाणी कृतेन दीपेन कि कूप पननां फलम् ।। मम्पग्ण बन्धनका मूल कारण कपाय ही है।' -वादीभमिह मरि। उन लोगोंका तत्त्वज्ञान व्यर्थ है जो उसके विरुद्ध वाक्य भावती माराधना की प्रपजिन मरि-विरक्ति टीका भाचरण करते हैं। क्योंकि, कुरमें गिरने वालोंके हाथ में 31व' में दिये हैं। किस ग्रन्थक ये पद्य है, यदि कोई भाई में दीपक होनसे क्या लाभ है ? कुछ भी नहीं।' इस बानको सूचित करनकी कृया कांग ना में उनका माभागे हँगा। Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९८ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८,९, १० हिन्दी उदे-- जोई दिन कटे सोई प्राव में अवश्य घटै, इक खाकके हैं पुतले भारत-सप्त हैं सब । बंद बंद बीते जैसे अंजली को जल है । गर ये अछूत हैं तो हम भी अछूत हैं सब । देह नित छीन होत नैन तंज-हीन होत, x x -'वर्क'। जोबन मलीन हात छीन होन बल है ।। बाक़ी है दिल में शेख के हसरत गनाह' की। आवै जरा नेरी तजै अन्तक अहेरी आवे, काला करेगा मुँह भी जो दाढ़ी सियाह की ।। ' पर भी नजीक जात नर भौ निफल है। ___ x x -'जौक' । मिलकै मिलापी जन पुछत कुशल मेरी, है तजस्सस शर्त याँ मिलने का क्या मिलना नहीं? ऐसी दशा माहीं मित्र! काहे की कुशल है? पर कहीं दुनियाँ में सादिक-श्राश्ना मिलता नहीं । x -'अमीर' ___x x -भूधरदास । यह लिबास हयात५ फानी है । "त जानके भी अनलप्रदीप, पतंग! जाता उसके ममीप। नकशे-बर-आवे-जिन्दगानी है। अहो! नहीं है इसमें अशुद्धिः विनाशकाचे विपरीतबुद्धिः। - -'सौदा'। जो नोको काँटा बवै ताहि बोय त फल । इन्साँ गुहर है इल्मोफन१० उसमें है श्राबोताब१ । नोको फल के फल हैं वाको हैं निरमूल || व-आबरू है आदमी को इल्म गर नहीं। ____ x x -'शेर'।। x x -कबीर । बात सच्ची कही और उंगलियाँ उट्टी सब की। मुर्दा वही कहाना, जो नर पुरपार्थहीन होता है। सच में 'हाली' कोई रुसवाई सी रुसवाई१३ है ।। अथवा भीम, नपुंसक,कायर इत्यादि नाम हैं उसके ।। ___ x x -'हाली' । x x -दरबारीलाल ।। गुर्बतनमीब' हैं हम खुद अपने ही वतन५५ में । चाहत है धन होय किमी विधि नौमब काज मरे जियराजी। जल जाएँ शाख पर जो वे फन हैं चमन ६ में ।। गेह चिनाय करूँगहना कछु,व्याहि सुनासुन बांटिय भाजी।। x x -'बर्क' । चिंतत यौं दिन जाहिं चले,जम आनि अचानक दंत दगाजी। कितने मुफलिस हो गये कितनं तवंगर१८ होगये। ग्वेलतखेल खिलारिगयरहि जाय कपीशनरंजकीबाजी'। खाक में जब मिल गये दोनों बराबर हो गये । ___x x -भधग्दाम । x x -'जौक'। "मक्खी बैठी शहद पै पंव गये लिपटाय । मर्कशा को बारो-दहर में नेकी का फल कहाँ। हाथ मलै श्रम सिर धनै लालच बुरी बलाय ।।" देखा कि मर्व में कभी होता समर नहीं।। x x -'शेर' । "पूत कपत तो क्यों धन मंचै? पन मपूत तोक्योधन मंचै? १२ठा. २ पाप. ३ गोज. ४ सबा मित्र. ' जीवनाला x x x मोर नश्वर ७ जीवनजल पर चित्र-मा है. ८ मनुष्य. । फैले प्रेम परस्पर जगमें, मोह दर पर रहा करे । माती. १० विद्या और कना-कौशल. ११ चमक दमक. १२ वै. अप्रिय-कटुक-कठोर शब्द नहिं कोई मुखस कहा करे। इजत-अप्रतिष्ठित. १३ अवज्ञा प्रतिष्ठा. १४ दीनताको प्राप्त. १ बनकर सब 'यग-वीर' हदयसे देशोन्नति-रत रहा करें। परदेश. १६ बारा-उपक्न. १७ निनि-गीव. १८ मतीर-धनाय. वस्तुस्वरूप विचार खुशी से सब दुख-संकट सहा करें। १६ कारसे सिर ऊँचा किये हुए. २० समयोपकन. २१ पक्ष x x -'यगवीर'। विशेष. २२ फल. Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषाढ.श्रावण,भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] सिद्धि श्रेयसमुदय ४९९ ___४९९ सिद्धसेनका ‘सिद्धिश्रेयसमुदय’ स्तोत्र एकादश मंत्रराजोपनिषद्गर्भित 'इन्द्रस्तव' अथवा पार्मा हुआ पं० अर्जुनलालजी सेठी सुबह के वक्त मेरी इस प्रार्थना पर तुरंत ध्यान दिया और स्वाज कर - नित्य सामायिकके साथ एक गद्य स्त्रोत्र पढ़ा के एक प्रति भेज दी, जिसके लिये मैं उनका आभाग करते थे। मुझे वह पसंद आया और इस लिये मैने हूँ। उन्हें इस समय यही एक प्रति उपलब्ध हो सकी उसी वक्त के करीब उनकी मार्फत उसकी एक प्रति है, जो बहुत कुछ साधारण तथा अशुद्ध जान पड़ती है नयपरसे मँगाई थी । यह स्तोत्र सिद्धसेनाचार्यका और जिसके अंतमे म्तोत्रका विस्तृत माहात्म्य तथा 'मिद्धिश्रेयममुदय' नामका स्तोत्र है, जिस 'इन्द्रम्तव' स्तोत्रकाक नामका अंतिम पा भी दिया हुआ नहीं या 'शक्रन्तव' भी कहते हैं, और जो प्रतिके अंतिम है। हाँ, स्तोत्रक का नाम शुरू * तथा अंतमें सिद्धर्मभाग पग्मे एक प्रकारका 'सहस्रनाम' भी जान पड़ता न दिवाकर' लिग्या हुआ है; जब कि जयपुरकी प्रतिमें है। इसमें ग्यारह मंत्रगज तथा पाँच स्तुति-पदा हैं और वैसा कुछ नहीं है। उसमे अपन तोरसे शुरू या अंतमे अंतमे म्तोत्रका माहात्म्य भी बहुत कुछ वर्णित है। म्नत्रिकाका कोई नाम नहीं दिया, केवल तात्रकी बहनमे शास्त्र-भंडागेको देखने पर भी यह स्तोत्र मुझे ममानि मचक वह पदा ही दिया है जिसमें स्तोत्रकार अन्यत्र कहीं नहीं मिला और न किसी दूसरेको इमका का नाम मात्र सिद्धमन' दिया हुआ है-लिम्बा है कि पाठ करते ही देम्वा है । मुझे इसका मुखपाठ करतं 'जम इन्द्रन प्रसन्न होकर अहन्नीका तवन किया है हए दग्व कर किनन ही सज्जनोने इमकी कापीक लिये वैम ही मिद्धमनन यह संपदाओंका स्थान स्तोत्र रचा इच्छा प्रकट की; परंतु उम समय प्रति पाम न होने है। और इममें यह मात्र 'अहम्नांत्र' जान पड़ना है। और मुग्वमे बोल कर लिग्वा देनका अवमा न मिलनं मात्र व ढमान ( महावीर )-स्त्रांत्र नहीं, जैमा कि पाटन क कारण मैं उनकी इच्छाको पुग नही कर मका। की प्रनिक अंत मचिन किया गया है। श्रस्तु; ये अब कुछ दिनमे यह विचार उत्पन्न हुआ कि इम स्तोत्र सिद्धमन दिवाका मिद्धमन' थे या कोई दुमर सिद्धमेन, को 'अनकान्त' में प्रकट कर देना चाहिए, जिसमें यह बान अभी निर्णयाधीन है और इसलिये ठीक मभी मज्जन इमम यथेट लाभ उठा सकें। इम विचार नहीं कही जा सकती । पाटनकी इस प्रतिमें और भी के हृदयमें आने ही चंदगेज हुए मैंन मुनि पुण्यविजय जो कुछ महत्वका पाठभेद है उस फुटनोटों के द्वाग जी को लिखा, यदि वे पाटनके भंडागम इसकी कोई स्पष्ट कर दिया गया है । बाकी साधारण अशुद्धियाँ हस्तलिखित प्रति प्राप्त करके मुझे भिजवा मकें, जिम * शुरू में शीर्षक के तौर पर लिखा है - से संशोधनादिकके कार्यमें मदद मिल सके । उन्होंने “अथ श्रीमिडमेनदिवाकरकनः शक्रम्तव." Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८,९, १० छोड़ दी गई हैं। सहस्र नामोंमें इस प्रकारके नाम पाये जाते हैं । इस स्तोत्रक माहात्म्यमें इस स्तोत्रको अष्ट महासि- प्रकार के स्तोत्रों द्वारा परस्पर सद्भावकी वृद्धि हानी है द्वियोंका दाता, सर्व पापोंका निवारक, सर्व पुण्यका और एकको दूसरेके देवताका नाम लेकर गाली देने कारण, सर्व दोपोंका हर्ता, सर्व गणोंका का और बुरा-भला कहने अथवा उसके प्रति अपशब्दोंका प्रयोग महाप्रभावको लिये हुए बतलाया है । साथ ही, यह करने के लिये कोई स्थान नहीं रहता । और इसमें यह भी लिखा है कि इस एकादश मंत्र गजोपनिपद गर्भित म्तोत्र स्तोत्रकारकी महनी उदारताका द्योतक है । श्रास्तोत्र को जपने, पढ़ने, सुनने, गननं और बाग्वार कान्तदृष्टिको स्पष्ट करते हुए, इस स्त्रोत्रकी पूरी व्याख्या चिन्तवन करने वाले भव्य जीवोंके लिय ऐसी कोई करनेके लिये अधिक विस्तार की ज़रूरत है । अस्तु । भी सद्वस्तु नहीं है जो उन्हें प्राप्त न हो सके; उन पर जिन भाईयोंको इस स्तोत्रकी काई प्रति किमीभंडाभवनपनि, व्यन्तर, ज्यातिष्क नथा वैमानिकदेव प्रसन्न में उपलब्ध होवे उनसे निवेदन है कि वे नीचे प्रकाशिन होने हैं; उनकी व्याधियाँ दूर हो जाती हैं; पृथिवी, म्तात्र परमे तुलना करके, उमकी विशेषताओंको नोट जल, अग्नि, वायु और आकाश उनके अनुकूल होन करके भेजनेकी कृपा करें । और यदि इम पर कोई हैं; उन्हें सर्वसंपदामूल जनानुगगकी प्रानि होती है; मंस्कृत टीका भी उपलब्ध हो तो उसमे जरूर मचिन माधजन प्रसन्न-चित्त में उन पर अनग्रह करते हैं। करें । -सम्पादक उनको हानि पहुँचाने वाले दुष्टजन शान्त हो जाते हैं, जलस्थल-गगनचार्ग कर जन्तु भी उनके माथ मैत्रीभावको धारण करते हैं, इह लोक-मम्बन्धी शुद्ध गोत्र स्त्री, पुत्र, मित्र, धन, धान्य, जीवन, यौवन, रूप, ॐ नमोऽहते परमात्मने परमज्योतिष आरोग्य और यश जैसी सभी संपदाओंकी उन्हें प्राप्ति परमपरमेटिने परमवेधसे परमयोगिने परमेश्नमय होती है और क्या,स्वर्गापवर्गकी लक्ष्मियाँ (विभूतियाँ तमसः परस्तात सदोदितादित्यवाणाय समृला. भी उन्हें क्रमशः वरनके लिये ममुत्सुक होती हैं। न्मूलितानादिमकलक्केशाय ॥ १ ॥ ___ स्तोत्र एक दृष्टिसे प्रायः सुगम है और इस लिये ॐ नमो भभुवः स्वस्वयीनाथमौलिमंदारउसका अर्थ दनकी कोई खास जरूरत नहीं समझी मालाचिंतक्रमाय सकलपपार्थयोनिनिरवद्यवि. गई। हाँ, इतना जरूर बतलाना होगा कि इस स्तोत्रमें द्याप्रवर्तनकवीराय नमः स्वस्तिस्वाहास्वधालंवषअर्हन्त देवका बहुतसे ऐसे नामोंके द्वारा उल्लंम्ब अथवा स्तोत्र किया गया है, जो हिन्दू देवताओं के प्रसिद्ध " जयपुरकी प्रतिमें यहां यह "१" मन छूट गया है। क्योंकि नाम हैं। ये सब नाम शुभ अर्थों तथा उत्तम गणोके अगले मन पर मव्याङ्क २ दिया हुमा हे परन्तु पाटनकी प्रति में यहां भक दिया ही नहीं बल्कि प्रथमा दस मन्त्रके अंतमें दिया है योतक हैं और इस लिये अनेकान्तात्मक उदार दृष्टि मौर इस तरह उसमें मन्त्रोंकी अन्तिम सख्या १० दी है जो एक गलती जान पड़ती है। क्योंकि इस स्तोत्र के माहात्म्यमें मंत्रों की हन्तोंके गुणप्रत्यय नाम है, रूढगात्मक नहीं । अनेक ११ मंत्र्या का म्पत्र उन्लेख है । Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषाढ, श्रावण, भाद्रपद वीरनि०सं०२४५६] सिद्धि श्रेयसमुदय व्यकान्तशान्तमूर्तये भवद्भाविभूतभावावभासिन अधीश्वराय शंभवे स्वयं भवे जगत्प्रभवे जिनेकालपाशनासिने सत्वरजस्तमोगुणातीताय अ- श्वराय स्यावादिने सार्चाय सर्वज्ञाय सर्वदर्शिने नागणाय वाङ्मनसोरगीचरचरित्राय पवि. सर्वतीर्थोपनिषदे सर्वपाबंडमोचिने सर्वयाफत्राय कारणकारणाय तारणतारणाय सात्त्विक- लान्मने सर्वयज्ञफलाय सर्वज्ञकालात्मने सर्व दैवताय तात्विकजीविताय निर्ग्रन्ब्रह्महृदयाय ध्यान रहस्याय केवलिने देवाधिदेवाय वीतरायोगीन्द्रप्राणनाथाय त्रिभुवनभव्यकुलनित्योत्स- गाय . वाय विज्ञानानदपरब्रह्मकात्म्यमात्म्य-समाधये ॐ नमोऽहते परमार्थाय परमकारुणिहरिहरहिरण्यगर्भादिदेवतापरिकलितम्बम्पाय काय सगताय नथागताय महाहसाय हंसगजाय सम्यगध्येयाय सम्यक्बद्धयाय सम्यकशरण्याय महासत्वाय [महाशिवाय '] महारोधाप मारासुममाहितसम्यक्स्पृहणीयाय ॥ २ ॥ मित्राय सगताय मनिश्चिनाय विगतद्वंदाय ॐनमोऽहते भगवते आदिकराय तीर्थकराय गुणाधये [ लोकनाथाय ] जितमाग्वलाय म्ययंबुद्धाय पुरुषोत्तमाय पुरुषसिंहाय पुरुपवर- ॥ ५ ॥ पंडरीकाय परुषवग्गंधहस्तिने लोकोत्तमाय लो- ॐ नमोऽहने सनाननाय उत्तमश्लोकाय कनाथाय ) लोकहिताय लोकप्रद्योतकारिणे मुकुन्दाय गोविन्दाय विष्णवे जिष्णवे अनंताय लोकप्रदीपाय अभयदाय दृष्टिदाय मार्गदाय अच्युताय श्रीपतये विश्वरूपाय हषीकेशाय बांधदाय धर्मदाय जीवदाय शरणदाय धर्म- जगन्नाथाय मभुवःम्वःममुनागय पानंजगप देशकाय धर्मनायकाय धर्मसाग्थय धर्मवरचात- कालंजय धूवाय अजेयाय जिताय" प्रजरंतचक्रवनिने व्यावृत्तछमने अप्रतिहतमम्यगद गय४ अजरम” अनाय अचलाय अव्ययाय र्शनज्ञानसाने ॥३॥ विभवे अविनाशाय अनित्याय असंख्या___ ॐ नमोऽहत जिनाय जापकाय नीय पाटन प्रति म 'मादिम्बाय' पाठ है, जो कुछ ठीक नारकाय बुद्धाय बोध काय मुक्ताय पाचकाय मालमनाना । २ पाटन प्रतिम 'सर्वाय' पाठ है। पाटन प्रनि । 'कलाम दिया है, जा टीक नहीं है। यह पाठ पाटन प्रतिम न। ५५० प्रनि । 'कलात्मने दिया है, जो कुछ ठीक १ जयपुरकी प्रनि में "भापविनाशिने" पाट दिया है जा न।।६ पानि वान' के स्थान पर 'योग' शब्द दिया है टीक मालुमनाहीं होता । पाटन-प्रतिने 'बाडमनसामगोचर' ७० प्रतिम 'परमात्मने' पाठ है। यह पाट पाटन प्रति पाठ है । ३ पाटन-प्रतिमें 'सात्म्य" शब्द न है। यह पट अधिक है। पा० प्रतिः पोखाय' पाठ है। .पा. प्रनिमें पाटनकी प्रतिमें है जयपुरकी प्रतिमें नहीं । ५ पाटन-प्रतिमें मक्ति- 'मैत्राय' पाट है। ११ इम मन्त्रमें 'सगताय' पददा जगह दाय'पाठ है। पाटन प्रतिमें बोधिदायहे। पाटन-प्रतिमें पाया है और दोनों ही प्रतियां में यह पाया जाता है । मभव 'जीयकाय' पाठ है, जो ठीक प्रतीत नहीं होता, मभव है कि वह एक जगह एक पर्थ मौर यसरी जगह उसीका मा म । १२ 'बीपका' हो। पाटनप्रति में 'बि' पाट है। जयपुर यह पाठ पान-प्रतिमें अधिक है। १३, १४, १५, १६ ये चांग प्रतिमें 'निकंदनाय' पाठ है। पर पानकी प्रतिमनही है। Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ य' आदिसांख्याय [आदिकेशाप २] श्रादिशिवाय महाब्रह्मणे परमशिवाय एकानेकानन्तस्वरूपिणे भावाभावविवर्जिताय अस्तिनास्ति द्वयातीताय पुण्यपापविरहिताय सुखदुःखविमुकाय व्यक्ताव्यक्तस्त्ररूपाय अनादिमध्यनिधनाय नमो मुक्तिस्वरूपाय || ६ || अनेकान्त ॐ नमोऽर्हते नितङ्का निःशंकाय निर्मयाय निद्राय निस्तरंगाय निर्मये निगमयाय fasकलंकाय परमदैवताय सर्वदैवताय* सदाशिवाय महादेवाय शंकराय महेश्वराय महातिने महायोगिने पंचमुखाय मृत्युंजयाय अष्टमूर्तये भूतनाथाय जगदानंदाय नगत्पितामहाय जगद्देवाधिदेवाय जगदीश्वराय जगदादिकंद्राय जगद्भाव जगत्कर्म्म साक्षिणं जगच्च क्षुपं stead अमृतराय शांत कराय" ज्योतिश्चक्रचक्र महाज्योतिर्महात्मने परिप्रतिष्ठनाय स्वयं कर्त्रे स्वयं ह स्वयं पालकाय आत्मेश्वराय नमो विश्वात्मने ॥ ७ ॥ ॐ नमोऽसर्व्वदेवमयाय मध्यानम याय सर्व्वज्ञानमयाय सर्व्वजयाय सर्व्वमंत्र मयाय सर्व्वरहस्यमयाय सर्व्वभावाभावजीवा [वर्ष १, किरण ८, ९, १० जीवेश्वर राय अरहस्यरहस्याय अस्पृहस्पृहणी याय अचिंत्यचिंतनीयाय अकामकामधेनवे अकल्पितकल्पद्रुमाय चिचितामये चतुर्दशरज्यात्मकजीवलोकचूडामणये चतुरशीनिजीवयांनिलक्षप्राणिनाथाय पुरुषार्थ नाथाय परमार्थनाथाय अनाथनाथाय जीवनाथाय देवदानवसिद्ध सेनाधिनाथाय ॥ ८ ॥ ॐ नमोऽहते निरंजनाय अनंतकल्याण निकेतन कीर्तनाय' सुगृहीतनामधेयाय धीरोदात्त धीरोद्धन- धीरणांत धीरललित - पुरुषोत्तमपण्यश्लोकशतसहस्रलक्षको टिबंदितपादारविदाय गमनाय ।। ६ ।। १ पाप्रति असंख्येयाय' पार है । २५ प्रतिमं पा अधिक है । ३ पाटन प्रति 'एकानेकान्तस्वरूपिणे पा है। ४ पा० प्रतिमें 'नमोऽस्तु पाठ है। यह पपाठन प्रर्मिनी है । ६ पा० प्रतिमें इसके स्थान पर 'जगजी महाय दिया है, कुछ पत्र नहीं होता है। ७ पा० तिर्म 'शीतकाय' पाठ है । पा० प्रतिमें 'ज्योतिश्चक्रिणे' पाठ है । ६ पा०प्रति 'महाज्योतिर्महातमः' पाठ है, जो ठीक नही जान पड़ता । १० पाटन - प्रतिमें 'पारेसुप्रतिष्ठिताय' है. सभव है कि वह परि सुप्रतिष्ठिताय' हो । ॐ नमोऽहने सर्वसमर्थाय सर्वप्रदाय सर्व हिताय सर्वाधिनाथाय कस्मैवनाय (?) क्षेत्राय पात्रा तीर्थाय पावनाय पवित्राय अनुत्तराय उ त्तगय योगाचार्याय संप्रक्षालनाय प्रवराय ग्राय वाचस्पतये मांगल्याय सर्वान्मनीयाय सर्वार्थाय अमृताय सदोदित ब्रह्मचारितापिनं दक्षिणीया निर्विकाराय वज्रऋषभनाराचमूर्तये तत्व दर्शिने पारदर्शिने निरुत्तमज्ञानबलवीर्यधैर्यतेज:शत्यैश्वर्यमयाय [आदिपुरुषाय, आदिपरमेष्ठिने आदिमहेशाय महाज्योतिःसत्वाय ] १ महाचिं 9 १ पा० प्रतिमं 'कीर्तिनाय' है । २ पा० प्रतिमें सर्व गनाथ पाठ है। ३ पा० पनि 'कस्मैचन क्षेत्राय पाट है, जो कुछ स्प नही जान पड़ता । ४ पा०प्रतिमें 'यात्रा पाठ है। ५ पाटन निमें 'सदोदिताय' ऐसा अलग पद है ६ पाटन - प्रतिक इस पद 'धैर्य' शब्द नहीं, और 'शन्यैश्वर्य की जगह शक्तेश्वर्य पत्र दिया है, जो कुछ ठीक मालूम न त । ७ व कट के भीतर ये चारों पद पाटन प्रति अधिक है। Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषाढ, श्रावण,भाद्रपद वीरनि०सं०२४५६] सिद्धि श्रेयममुदय ५०३ धनेश्वराय महामोहसंहारिणे महासत्वाय पहा- लोकोत्तमा निःपनिमस्त्वमेव, ज्ञानमहेंद्राय महाहंसराजाय' महासिद्धाय महा- त्वं शाश्वतं मंगलमप्यधीश । लयाय महाशातये महायोगींद्राय अयोगिने त्वामेकमहन शरणं प्रपत्र, महामहीयसे महाहंसाय शिवमचलपरुजमन- पसिद्धार्थ-सद्धममयस्त्यञ्च ॥ १ ॥ नमक्षयमव्यावाधमपनरावृत्तिमहानंदमहोदयं म- त्वं मे माता पिता नेता देवो धर्को गमः परः । वाग्वक्षयं कैवन्यममतं निर्वाणमक्षरं परम प्राणाः स्वर्गाऽवर्गश्च म त्वं नवं पनिगतिः ॥२॥ निश्रेयसमपनर्भवं सिद्धिगनिनामधेयं स्थानं जिनांदाना जिना भाका जिनः सर्वमिदं जगत् । मप्राप्तवते चगचरवते नमो नमोऽस्तु श्रीमहा- जिना जान मवंत्र यो जिनः मोऽहमेव च ॥३॥ वीगय त्रिजगत्स्वामिन श्रीवर्द्धमानाय |१०॥ यत्किचित्कर्म इंदेव ! मदा मतदाकृतं । ____ॐ नमोऽहते केवलिने परमयोगिने मुक्ति- तन्मे जिनपदस्थ स्य हंसः पयता जिनः ॥ ॥ मागयांगिने * विशालशासनाय सर्वलब्धिप- गृह्यातिगृह्यगोप्ता न्वं गृहाणास्मकृतं जपं । नाय निधिकल्पाय कल्पनातीताय कलाकला- मिद्धिः श्रयनि मां येन वन्प्रसादाचयिस्थितम्।।५।। पकलिनाय *६ विस्फग्दुमशुक्ल यानाग्निनिर्दग्ध ( माहात्म्य) कर्मवीनाय प्राप्तानन्नचतुष्टाय सौम्याय शानाय दानाय मांगल्यवरदाय अष्टादशदोपहिताय * इनीमं पूर्वाभिदंतवैकादशमंत्रगजीघामयद्विश्व (?) विश्वममीहिताय स्वाहा - ११॥ पानपद्गम अष्टमहामाद्रपद सवपापनिवारणं मायकारणं मदोपहरं मवगुणाकरं महाॐ हीं श्रीं अहं नमः । प्रभायं अनेकसम्यगदष्टि पट्टक-देवनाशतसहस्र 1, ये ना प.भपाना महामहीयसे शुपिनं भवानरकतामख्यपरायं प्राप्यं सम्यगजवाढ दिये हैं। ३ यह पद पाटन पनि। न है। ४ पानि पनां पठना गुस्यनां शृावना समनप्रक्षमाणानां संप्राप्तवते पाट है। ५० प्रनिटम अन्तिम पटक बाद सिद्धार्थ की जगह मिर्षि पाट है। याने मन्त्रक 'विशाल शासनाय' में लेकर कलाकलापक २५ प्रगति' पाहै, जे प्रगत जान पड़ता है।३ लिनाय तक वे पांच पद ( बीचकपको कुछ बगपत कर पनि गनिम कर्म है की म.. 'कुर्मह' पाट दिया है जो कुत्र, २. । दिय हैं जिन्हें अगले मन्वन इम चिन्द के गाना रिया है, किन नहाना । ४ पाटनति का चौथा भगा 'द.खं पर यह गननी मालमता है । ६ गदन . चिन्ताक गीतका । तपय जिन ग प दिया है, नापीक निमामिनी पर पाटनकी पनि न हैं, इमं १० मन्त्रक मान दिया हैमल जान पड़ती है । ७ पाटन प्रति। यह पद ना है। - य.प. ५ टन प्रति 'संसमविश्वसमीहिताय' इस म्पन दिया है। उनी में लेकर मत तकका मम्पा पाट पाटन की प्रतिम ६ पाठन प्रतिम ग्वाहा' के बाद बल विराम चिन्ह ।।दाग न..है। इसकी जगह, यह पाट: - मन्त्रको समाप्ति करने के बाद यह.मन्व दिया है, मोर इसके बाद "दति श्रीवर्षमाना जनना मन्मन्नानातिशयां मानिकवि पतिला या १०दिया है। महमुम्बाय ग्यान ॥ इति गिमेनदिवाकरन नाव. मपाः ॥" Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ .......... अनकान्त [वर्ष १, किरण ८,९,१० भयजीवानां चराचरेऽपि सद्वस्तु तनास्ति यत्क. क्यः सर्वापि शुद्धगोत्र-कलत्र-पुत्र-मित्र-धन-धान्य रतले प्रणनयिन भवति । इति । किंच, इतीमं - जीवित-यौवन-रूपाऽरोग्य-यशः-पुरस्सराः सत्र धोक्तमिद्रस्तवैकादशमंत्रराजोपनिषदगर्भ इत्यादि जनीनाः संपदः परभाग्यशालिन्यः सदाश्च (?) यावद्भव्यजीवानां भवनपतिव्यंतरज्योतिष्क- संमुखीना भवंति । किं बहुना, इतीमः भव्यवैमानिकवासिनो देवाः सदा प्रसीदन्ति । जीवानां यावत् श्रायष्मिक्यः स्वर्गापवर्गश्रियाइतीमं० भव्यजीवना व्याधयां विलीयंते । ऽप क्रमेण यथेच्छ स्वयंवरेणोत्सवसमुत्मका इतीमा भव्यजीवानां माथिकालेजोवायगानानि भवति । भवत्यनकूलानि इतीमं० भव्य जीवानां सर्व- इति सिद्धिश्रेयसमुदयः । संपदा मूलंजायते जनानुरागः । इतीपं० भव्य- यथेन्द्रेण प्रसन्नेन समादिष्टोऽर्हता म्तवः । जीवानां साधवः सौमनस्येनानग्रहपरा जायते तथाऽयं सिद्धसेनेन लिलिखे संपदापदं ॥ इतीमं० भव्यजीवानां खलाः दीयन्ते। इनीम इति शक्रम्तवः सहस्रनामापरपर्यायपठितो महालाभन्यजीवानां जलस्थलगगनचराः क्रूरजंतवोऽपि भाय भवतु सुपार्श्वजिनप्रसादात ॥ मैत्रीमया भवंति । इतीमं० भव्य जीवानां ऐहि ..... ”这 शान्ति [लेखक-श्री० 'ननन'] spresso शान्ति के समान शक्ति दूसरी कहीं है नहीं, म 'नूतन' बर्ग है छेड़ शान्ति के पुजारी से। V शान्ति ही से सत्यव्रतधारी प्रहलाद वीर, बाजी ले गया था दानवेन्द्र बलधारी में | . भम्म हुए क्षण में मगर के हजारों पत्र, मुनि-नैन-पावक की एक चिनगारी से। प्रान्तकी, प्रदेशकी, हकीकत क्या राष्ट्रकी है, से कॉप उठता है विश्व शान्त क्रान्तिकारी से | (विशाल भारत) - - Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] पाप का बाप ५८५ * पाप का बाप. IN ( इमे ज़रूर पढ़िये) क ब्राह्मण विवाह होने के पश्चा- गये और मारी प्रावली बावली ( विद्या-चतुराई) भूल त विद्या पढ़नके लिये काशी गये । आप सोचने लगे कि "पापका बाप" क्या ? गया। वहाँ पर जब उसको मैंने व्याकरण, काव्य, छन्द,अलंकार, ज्या तिप, वैयक, १२, १३ वर्ष बीत गये और और गणित आदिक मब ही विद्याएँ पढ़ीं परन्तु पाप समस्त वेद-वेदांग का पाठी के बापका तो नाम तक भी नहीं सुना, यह कौनमी, बन गया नब गुरु की आज्ञा विद्या है ? इस प्रकार मोचन मोचन अन्तमें आपको लेकर अपने घर वापिम यही कहना पड़ा कि, 'पापका बाप ना मैंन अभी तक आया । घर पर आकर जब नहीं पढ़ा।' रमने अपनी विद्याका प्रकाश किया और अपने माना- अपने पनिके इम उत्तर का मन कर मीन किंचिन् पिनाम प्रगट किया कि मैं इस प्रकार बंद-वेदांगका जोशमें आकर कहा कि "जब नुमन पाप का बापही पाठी हो गया हूँ, तब माता पिनाक आनन्द का ठिकाना नहीं पढ़ा ना तुमने पढ़ा दी क्या तुम्हारामय विनानही रहा, और नगर निवामियों को भी उसकी विद्या- आम निपगा हाना और बंद-वंदागका पाठी हाना बिना का हाल मालूम करके अत्यन्त हप हुआ-उन्होंने इसके पद मब निष्फन है । इमलिये मयस पहले पाप अपन नगरमें ऐसे विद्वान के होनम अपना और नगर-ना वाप पढिय । नव ही आपका सय विद्याओं को का बड़ा भारी गौरव समझा। प्राप्त करना शोभा दे सकता है। अन्यथा, केवल भार ब्राह्मण महोदय की धर्मपत्नी एक अच्छ घगनेकी ही भार बहना है।" पढ़ी लिखी कन्या थी और बड़ी ही मुशीला, धर्मात्मा अपनी स्त्रीके इन वाक्योंका मन कर पनिगम इतने 141 उच्च विचागेको धरने वाली थी। गत्रिके ममय लांजन हुए कि उनकी गन काटनी भारी पड़गई। पाप नत्र वह ब्राह्मण अपनी स्त्रीके पास गया और उममं गत भर करवटें बदलने हुप चिन्नामें मग्न रहे और अपने विद्या पढ़नेका साग दाम्तान (हाल) उमे सुनाया अपने हृदयमें आपने पूरे नौग्मे यह ठान ली कि जब और हर प्रकारमे अपनी योग्यता और निपग्णता प्रगट नक पापका बाप नहीं पढ़ लेंगे तब तक घरमें पैर नहीं की तब उस विचारशीला स्त्रीनं नम्रताके साथ अपने रकग, यही अभिप्राय आपने अपनी बीम भी प्रगट पनिदेवसे यह पूछा कि, "मापने पापका बाप भी कर दिया, और प्रातःकाल उठत ही नगरमे निकल पढ़ा है या कि नहीं?" गये। इस प्रश्नको सुनते ही पतिरामके देवना कूँच कर वीके वचनोंकी पंडितजी पर कुछ ऐमी फिटकारसी गय Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त ५०६ पड़ी कि, जब अपने नगरसे निकल कर दो-चार प्रामोंमें पूछने पर भी आपको कोई पापका बाप नहीं बता सका तो आप पागल-से हुए गली गली यह कहते फिरने लगे कि, (C कोई पापका बाप पढ़ा दो ! कोई पापका बाप बता दो ! ” इस प्रकार कहते और घूमते हुए पंडितजी एक बड़े नगर में पहुँचे, जहाँ पर एक बड़ी चतुर वेश्या रहती थी । जिस समय पंडितजी अपनी बी ( " कोई पापका बाप पढ़ा दी - " ) बो लत हुए उस वेश्याके मकान के नीचेका गुजरे तो वह वेश्या उनके हालको ताड़ गई- अर्थात् समझ गई, और उसने तुरन्त ही अपने एक आदमीके हाथ उनको ऊपर बुलवा लिया | जब पंडितजी ऊपर वंश्याके मकान पर पहुँचे तो वेश्याने उनको बहुत आदर-सत्कार से बिठाया और बैठने के लिये उच्वासन दिया। पंडितजीके बैठ जाने पर वेश्याने उनका सब हाल पूछा और उनकी हालत पर सहानुभूति और हमदर्दी प्रकट की। फिर वह वे श्या पंडितजीको इधर-उधर की बातों में भुलाकर उनकी बहुत प्रशंसा करने लगी और कहने लगी कि," मुझ मंद भागिनी के ऐसे भाग्य कहाँ जो आप जैसे विद्वान, सज्जन और धर्मात्मा अतिथि मेरे घर पधारें, मेरा घर आपके चरणकमलांम पवित्र हो गया; मेरी इच्छा है कि आज आप यहीं पर भोजन कर इस दामीका जन्म सफल करें, आशा है कि आप मेरी इस प्रार्थना को अस्वीकार न करेंगे ।" वेश्याकी इस प्रार्थनाको सुन कर पंडितजी कुछ चौक कर कहने लगे कि, हैं! यह क्या कही ! हम ब्राह्मण तुम्हारे घरका भोजन कैसे कर सकते हैं? इस पर वेश्याने नम्रता से कहा कि "महाराजका जो कुछ विचार है वह ठीक है परन्तु मैं बाजार से हिन्दू के हाथ भोजनकी सब सामग्री मँगाये [वर्ष १, किरण ८, ९, १० देती हूँ, आप स्वयं यहीं पर रसोई तय्यार कर लेवें, इसमें कोई हर्ज नहीं है और यह लो ! ( मौ रुपये की ढेरी लगा कर ) अपनी दक्षिणा । ' " पंडितजीने ज्यूँही नकद नारायण के दर्शन किये कि उनकी आँम्बे खुल गई और वे सोचने लगे कि, वेश्याके यहाँ से सुखा अन्नादिकका भोजन लेने वा बाजारसे इसके द्वारा मंगाई हुई सामग्रीमे भोजन बना कर खाने में तो कोई दोष नहीं है, और दूसरे यह दक्षिणा भी माकूल देती है; इसलिये इसकी प्रार्थना - रूर स्वीकार करनी चाहिये। ऐसा विचार कर आपने उत्तर दिया कि, खैर ! यदि बाजार से सब मामी शुद्ध आजावे और घी भी हिन्दू के यहाँ का मिल जा तो कुछ हरज नहीं, हम यहीं पर स्वयं बनाकर भोजन कर लेवेंगे।" वंश्याने पंडितजी की इस स्वीकारता पर बहुत बड़ी ख़ुशी जाहिर की और उनको यकीन दिलाया कि सब सामग्री बहुत शुद्धता के साथ मँगाई जावेगी और घी भी हिन्दू ही के यहाँ का होगा और उसी वक्त अपने नौकरीको सब सामग्री लाकर हाजिर करनेकी आज्ञा करदी | जब सब सामग्री आ चुकी, चौंका बरतन भी हो चुका और पंडितजी स्नान करके रसोई में जाने होकी थे, तब वेश्याने बड़ी ही नम्रता और विनय के साथ पंडि नजीसे यह अर्जकी कि- "महाराज ! आज मेरी चित्त आपके गुणों पर बहुत ही मोहित हो रहा है और आप की भक्ति से इतना भीग रहा है कि उसमें अनेक प्रकार से आपकी सेवा करनेकी तरंगें उठ रही हैं; नहीं मालूम पूर्वले जन्मका ही यह कोई संस्कार है या क्या इस समय मेरा हृदय इस बात के लिये उमँड रहा है और यही मेरी मनोकामना है कि आज मैं स्वयं ही , Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राषाढ श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६ ] पाप का बाप अपने हाथसे भोजन बना कर आपको खिलाऊँ, और इस प्रकार से अपने मनुष्यजन्मको सफल करूँ । क्या आप मुझ अभागिनकी इस तुच्छ बिनतीको स्वीकार करने की कृपा दरशावेंगे? आपकी इस कृपाके उपलक्ष में यह दासी ५००) रु० और भी आपकी भेट करना चाहती है” यह कहकर तुरन्त पाँच सौ रुपये की थैली मँगा कर पंडितजीके आगे रखदी । वेश्या इन कोमल वचनों को सुन कर यद्यपि पंडित जो कुछ पसा भी आया, कुछ हिचकचाट-सा भी पैदा हुआ और वेश्या की इस टंढी प्रार्थना के स्वीकार करने में उनका अपना धर्म भ्रष्ट होता हुआ भी नजर आया; परन्तु ५००)रुपयेकी थैलीका देखकर उनके मुँह में पानी भर आया, वे विचारने लगे कि - " मुझको यहाँ पर कोई देखने वाला तो है नहीं, जो जातिसे पतित होनका भय कियाजावं, पाँच सौ रुपये की अच्छी रक़म हाथ आती है इससे बहुतसे काम सिद्ध होंगे और जो कुछ थोड़ा बहुत पाप लगेगा तो वह हरिद्वार में आकर गंगाजीमे एक गोता लगाने से दूर हो सकता है; इस लिये हाथमें आई हुई इस क्रमको कदापि नहीं छोड़ना चाहिये" । इस प्रकार निश्चयकर पंडितजी वेश्या कहने लगे कि - " मुझको तुमसे कुछ उज़र तो नहीं है परंतु तुम तो व्यर्थ ही अंगुली पकड़ने पहुँचा पकड़ती हो । स्वैर ! जैमी तुम्हारी मर्जी (इच्छा ।" पंडितजीके इस प्रकार राजी होने पर वेश्या ५०० ) ० की थैली पंडितजी के सुपुर्द कर स्वयं रसोई बनाने लगी और पंडितजी भोजनकी प्रतीक्षामें बैठ गये । पंडितजी बैठे बैठे अपने मनमें यह खयाल करके बहुत खुश हो रहे हैं कि, "यह वेश्या तो अच्छी मनिकी fift और गाँउकी पूरी मिल गई, ऐसी तो जम जम होती रहे । थोड़ी देर में रसोई तय्यार हो गई और ५०७ पंडितजी भोजन के लिये बुलाये गये । जब पंडित जी रसोई में पहुँचे और उनके आगे अनेक प्रकारके भांजनोंका थाल परोसा गया, तब वेश्याने पंडित जीसे निवेदन किया कि "जहाँ आपने मेरी इतनी इच्छा पूर्ण की है वहाँ पर इतनी और कीजिये कि एक प्र.स मेरे हाथ से अपने मुख में ले लीजिये, और फिर बाक़ी सब भोजन अपने आप कर लीजिये । मैं इतने ही से कृतार्थ हो जाऊँगी; और यह लो ! पाँच सौ रुपये की और थैली आपकी नजर हैं।" बस, वेश्याके इन वचनोको सुनते ही पंडित जीके घर गंगा आ गई और थैलीका नाम सुनते ही वे फूलकर कुप्पा हो गये। आपने सोच लिया कि, जब वेश्यानं अपने हाथ से कुल भोजन ही तय्यार किया है तो फिर उसके हाथ से एक ग्राम अपने मुखमें ले लेनेमें ही कोन हर्ज है ? यह तो सहज ही में एक की दो थैलि - याँ बनती है; दूसरे जब गंगाजी में गोता लगावेंगे तब थोड़ामा गंगाजल भी पान कालवंगे, जिससे सब शुद्धि हो जावेगी । इस लिये पंडितजीने वेश्याकी यह बात भी स्वीकार करली | जब वेश्याने पंडित जीके मुँह में देनेके लिये प्राम उठाया और पंडित जीने उसके लेनेके लिये मुँह बाया (खोला) तव वेश्याने क्रोधमें आकर बड़े चोरके साथ पंडितजी के मुख पर एक थप्पड़ मारा और कहा कि"पापका बाप पढ़ा या नहीं ? यही (लोभ) पापका बाप है जिसके कारण तुम अपना मारा पढ़ा-लिखा भुलाकर अपने धर्म-कर्म और समस्त कुल-मर्यादा को नर करने के लिये उतारू हो गये हो ।" थप्पड़ के लगते ही पंडित जीको होश आ गया और जिस विद्या के पढ़ने के लिये वे घरमे निकले थे वह उन्हें प्राप्त हो गई। आपको पूरी तो यह निश्चय हो गया कि, लोभ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ अनेकान्त ही समस्त पापों का मूल कारण है । पाठकगरण ! ऊपर के इस उदाहरण से आपकी सममें भले प्रकार आ गया होगा कि यह लोभ कैसी बुरी बला है । वास्तव में यह लाभ सत्र अनथका मूल कारण है और मारे पापों की जड़ है । जिस पर इस लाभका भूत सवार होता है वह फिर धर्म-अधर्म, न्यायअन्याय और कर्तव्य कर्तव्य को कुछ नहीं देखता; उसका विवेक इतना नष्ट हो जाता है और उसकी [वर्ष १, किरण ८, ९, १० शारीरिक तथा आध्यात्मिक पतन होता जाता है। पहले भारतमें ऐसा भी समय हो चुका है कि. राजद्वार में आम तौर पर या किसी कठिन न्यायके आपड़ने पर नगर निवासी तथा प्रजाके मनुष्य बुलाये जाते थे और उनके द्वारा पूर्ण रूपसे ठीक और म न्याय होता था । परन्तु अफसोस ! आज भारतकी यह दशा है कि न्यायकी जड़ काटनेके लिये प्राय. दर शरूम कुल्हाड़ी लिये फिरता है, जगह जगह रिश वतका बाज़ार गरम है; अदालतों में न्याय करने के लिये नगर-निवासियों का बुलाया जाना तो दूर रहा, एक भाई भी दूसरे भाई ईमान धर्म पर विश्वास नहीं करता । यही वजह है कि भारतकी प्रायः सभी जातियों में पंचायती बल उठ गया है और उसके स्थान पर अदालतोंकी सत्यानाशिनी मुकद्दमेबाजी बढ गई है; क्योंकि मुखिया और चौधरियोंने लाभ के कारण ठीक न्याय नहीं किया और इस लिये फिर उस पंचा ग्रतकी किसीने नहीं सुनी। भारतवर्ष से इस पंचायती बलके उठ जाने या कमजोर हो जानेने बहुत बड़ा गजब ढाया और अनर्थ किया है । आजकल जो हजारों दुराचार फैल रहे हैं और फैलते जाते हैं वह सब इस पंचायती बलके लोप होने काही प्रति है। पंचायती बलके शिथिल होने लोग स्वच्छंद होकर अनेक प्रकारके दुराचार और पापकर्म करने लगे और फिर कोई भी उनको रोकने में समर्थन हो सका । अदालतोंके थोथे तथा निःसार नाटकोका भी इस विषय में कुछ परिणाम न निकल सका। अफसोस ! जो भारत अपने आचार-विचार में, अपनी विद्या चतुराई और कला-कौरालमें तथा अपनी न्यायपरायणता और सूक्ष्म श्रमूर्त्तिक पदार्थों तक की खोज करनेमें दूर तक बिख्यात था और अन्य देशोंके इतनी चर्बी छा जाती है कि वह प्रत्यक्ष में जानता और मानता हुआ भी धनके लालच में बरं-सेयुग काम करनेके लिये उतारू हो जाता है। बहुतम दुर्शन इस लाभ के कारण अपने माता-पिता और सहोदर तककी मार डाला है। आज कल जो कन्याविक्रय को भयंकर प्रथा इस देशमें प्रचलित है और प्रायः ९-१० वर्षकी छोटी छोटी निरपराधिनी कन्यायें भी साठ साठ वर्षके चुटढोंके गले बाँधी जा रही हैं वह सब इसी लोभ-नदी की बाढ़ है । इसी प्रकार इस लोभका हा यह प्रताप है जो बाजारों में शुद्ध घीका दर्शन होना दुर्लभ हो गया है - घी में साँपों तक की चर्बी मिलाई जाती है, तेल मिलाया जाता है और बनम्पतिघी तथा कोकोजम आदिके नाम पर न मालूम और क्या क्या अला-बला मिलाई जाती है, जो स्वास्थ्य के लिये बहुत ही हानिकारक है। दवाइयों तक में मिलावट की जाती है और शुद्ध स्वदेशी चीनी के स्थान पर अशुद्ध तथा हानिकारक विदेशी चीनी बरती जाती है और उसकी मिठाइयाँ बना कर देशी चीनी की मिठाइयोंके रूपमें बेची जाती हैं। बाक़ी इसकी बदौलत तरह तरह की माया चारी, लगी और दूसरे क्रूर कर्मोंकी बान रही सां अलग। सच पूछिये तो ऐसेऐसे ही कुकर्मोंसे यह भारत शान्त हुआ है। और उसका दिन-पर-दिन नैनिक, Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] पाप का बाप ५०९ निये आदर्शस्वरूप था वह आज इस लोभके वशीभूत यहाँ इस कथनसे यह प्रयोजन नहीं है कि सर्वथा होकर दुगचागें और कुकमों की रंगभूमि बना हुआ लोभका त्याग कर धन कमाना ही छोड़ देना चाहिये, है. मार्ग मद्विद्यायें इससे रूठ गई हैं और यह अपनी धन अवश्य कमाना चाहिये, विना धनके गृहस्थीका मारी गणगरिमा तथा प्रभाको खोकर निम्तंज हो काम नहीं चल सकता; परन्तु धन न्याय-पर्वक कमाना बैठा है !! एकमात्र विदेशोंका दलाल और गुलाम बना चाहिये, अन्यायमार्गसे कदापि धन पैदा नहीं करना हुआ है !!! चाहिये । अर्थात ऐसे अनवित लाभका त्याग कर देना __जब तक हमारे भारतबामी इस लोभ कपायका चाहिये जिममे अन्यायमागस धन उपार्जन करनेकी कम करके अपनी अन्यायरूप प्रवृत्तिको नहीं रोकेंग प्रवृत्ति हावे, यही इम सारं कथनका अभिप्राय और और जब तक स्वार्थत्यागी बनना नहीं सीग्वेंगे तब तक मार है। व कदापि अपने देश तथा समाजका सुधार नहीं कर पाशा है हमारं भाई इस लम्ब परम जरूर कुछ मकत हैं और न संसारमें ही कुछ मुख का अनुभव कर प्रबोधको प्राव होंगे और अपनी लाभ कपायक मंद मकत हैं। क्योंकि सुखनाम निगकुलताका है और करनेका प्रयत्न करेंगे। अपने चिनको अन्यायमार्गस निगकुलना आवश्यकताओं को घटा कर-परिग्रह को हटाने के लिये उन्हें नीतिशास्त्री, प्राचारगाग्रंथों और कम करके-संतोषधारण करनेम प्राप्त होती है । परागपापांक चरित्रों का बराबर नियमपूर्वक अवजा संतापी मनष्य हैं वे निगकुन्न होने से सम्बी हैं, लोकन तथा स्वाध्याय करना चाहिये और सदा हम नागावान और अमनोपी मनप्यांको कदापि निगकुलता बातका चिन्नवन बना चाहिये कि लक्ष्मी चंचल है, नहीं हो सकती और इसलिये व मदा दुखी रहते हैं। न मदा किमी पाम रही और न हंगी ; प्राण भी कहा भी है-"मनपान पर मखम किंदारि- क्षणभंगर है, एक न एक दिन इनका सम्बन्ध जरूर दयमतोपः"."अमनोपामहाव्या धः" अर्थात- छूटेगा ; कुटुम्बीजन नथा इए मित्रादिक अपने मतलब मनापमं बढकर और कोई दसरा माव नहीं है। दारिद के माथी है, इनका भी सम्बन्ध मदा बना नहीं रहेगा; किम कहते हैं ? असंतोषको और मबसे बड़ी बीमारी। मिवाय अपने धर्म परलोकमें और कोई भी माथ कौनसी है ? असंतोष । भावार्थ-जो अमनाया हैं का नहीं जाएगा और न कुछ काम बासकंगा; इमलिये अनेक प्रकारकी धन-सम्पदाके विदामान होतं हरा भी इनके कारण अपना धर्म बिगाड़ना बड़ा अनर्थ है, दरिद्री और रोगीके तुल्य दुखी रहते हैं । इमलिये , " कदापि अपने धर्मको छोड़ कर अन्यायमार्ग पर नहीं चनना चाहिये। सम्व चाहने वाले भाइयोंको लोभका त्याग कर मंतोष धारण करना चाहिये। जुगलकिशोर मुग्नार Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० महान् प्रभावक कालकाचार्य के नामसे जैन जनता अ परिचित नहीं है । इस महात्मा के कथानककी कई हस्त लिखित प्रतियाँ उपलब्ध होती हैं । उन सभी प्रतियोंमें से एक भी प्रति में कथाकारका नाम दृष्टिगत नहीं होता । एवं भिन्न भिन्न प्रतियांम भिन्न भिन्न घटनाओ से इस कथानकका इतना अधिक संमिश्रित कर दिया गया है कि वरित कालकाचार्य * लेखक महाशयक इस लिखने का क्या प्राशय हे वह कुछ समझ नही प्रायाः क्योंकि प्रभावकचरित' में कालकाचार्यको कथा वर्णित है और इस चरित्र उसके कर्ताका नामादिक स्पष्ट दिमा हुआ है। सम्पादक अनेकान्त कालकाचार्य [ लेखक - श्री० मुनि विद्याविजयजी ] यह मूल लेख गुजराती भाषामें लिखा गया है. और 'जैन' के गत 'ज्युबिली अंक' में प्रकट हुआ है । इसके लेखक मुनि विद्याविजयजी 'वीरतत्त्वप्रकाशक मंडल' शिवपुरी ( ग्वालियर ) के अधिष्ठाता है और उन्होंने अपने शिष्य भाई भँवरमलजी लोढा से हिन्दी अनुवाद कराकर अब इसे खुद ही 'अनेकान्त' में भेजनकी कृपा की है, इसके लिये मैं उनका आभारी हूँ । इस लेख में जो बात उठाई गई है वह निःसन्देह विचारणीय है । नाम-साम्यके कारण भूल में एक व्यक्ति सम्बंध रखने वाली घटनाएँ दूसरे व्यक्तिके साथ जोड़ दी जाती हैं और कुछ समय के बाद वह भूल अथवा ग़लती रूढ होकर उसका प्रवाह बह जाता है, ऐसा साहित्य की जाँच में बहुत कुछ देखने में आया है । इसका एक ताजा उदाहरण दूसरे विद्यानंद संबंधी घटनाएँ हैं जा पुरातन विद्यानन्दके साथ जोड़ दी गई हैं और जिनका दिग्दर्शन ' अनेकान्त' की दूसरी किरण में कराया जा चुका है। वही हाल कालकाचार्य-संबंधी घटनाओं का हुआ जान पड़ता है। गतानुगतिकता और ढिका कुछ ऐसा माहात्म्य है कि साधारण जनता तो क्या कभी अच्छे विद्वान भी उसके चक्कर में फँसे रहते हैं और वे सत्यका ठीक विश्लेषण नहीं कर पाते । यह परिश्रमशील गहरे ऐतिहासिक विद्वानोंका ही काम है जो इस प्रकार की रूढ भलोंका पता लगाकर सत्यका प्रकाश करते हैं। अतः ऐसे विद्वानोंको इस विषय पर जरूर काफी प्रकाश डालना चाहिए। हाँ, जो लोग सभी जैन शास्त्रोंको अक्षरशः भगवान्‌की दिव्य ध्वनिद्वारा अवतरित समझते हैं उनके लिये इस प्रकारकी घटनाएँ बहुत कुछ शिक्षाप्रद हैं। -सम्पादक [वर्ष १, किरण ८, ९, १० कितने और किस म मय में १ एवं किम कालकाचार्य कौनमा कार्य किया ? इसका निर्णय करना बहुत कठिन हो गया कालकाचार्य द्वारा मु ख्य तीन घटनाएँ हुई और ये हैं : | १ 'गर्दभिल्ल' राजाको गद्दीसे उतार कर 'शक' का स्था पित करना । २ संवत्सरी पर्व पंचमीके बदले चतु र्थीको प्रारंभ करना ३ इन्द्र को निगोदका स्वरूप समझाना । अब हम क्रमशः इन तीनों घटनाओं के लिए कालकाचार्यके कथानकों की ओर दृष्टिपात करते हैं । 'थारावास' नगर * एक प्राकृत मूलसे पता Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राषाढ, श्राव, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] कालकाचार्य बड़े व्यापारियोंसे परिपूर्ण था। राजा वज्रसिहx लक्ष में रखकर आचार्यश्रीने लक्ष्मी, राज्यवैभव और वहाँका शासक था । उसकी रानीका नाम सरसंदरी शरीरादिकी अनित्यताका प्रतिपादन किया, और था। सुरसुंदरीकी कुक्षिसे क्रमानुसार पुत्र कालककुमार साधुके वास्तविक सुख, एवं पाँच महाप्रतोंका यथार्थ और पुत्री सरस्वती ये दो संतानें उत्पन्न हुई। स्वरूप समझाया। __ कालक कुमार रूपवान , पुरुपके सब उत्तम लक्ष- आचार्यजी की देशना सुन कर वैराग्यवासित रणोंम सुशोभित और सर्व-जन,वल्लभ था। आठ वर्षकी गजकुमार कालक गममहाराजको यह कह कर घर अवधा होने पर कालक कुमार के माता-पितानं एक को चला, कि- "हे भगवन , आपके उपदेशसे मुझे कलाचार्य के पास शिक्षा प्राप्त करने के लिये रक्खा। वेगग्य हुआ है । मैं माता-पिताकी श्राक्षा प्राप्त कर अल्प कालमें ही कालकने अनेक कलाएँ हस्तगत की। वापिस न लौटूं, तब तक आप यहीं विराजियेगा।" खाम करके अश्वपरीक्षा और बाणपरीक्षामें बालक कालक कुमाग्ने घर जाकर माता-पिताके सम्मुन्य कालकनं अच्छी निपुणता प्राप्त की। अपनी दीक्षा ग्रहण करनेकी इच्छा प्रकट की। भनेक एक समय राजा वनसिंहको, खुगसान देश सं हाँ' 'ना' होने के पश्चान , अपने पत्रकी वैराग्यवृत्ति बहुतसं घाई भेटमें आये । इन घोड़ो की परीक्षाका को दृढ़ देवकर गजा वसमिहने बड़े ममारोह के साथ काम राजानं अपने पुत्र कालक कुमारके सुपुर्द किया। अपने पत्रको दीक्षा दिलाई । अपने भाई के उत्कृष्ट समवयस्क ५०० घड़मवागेको माथ लेकर का- वैराग्यको दम्ब कर 'कालक' की बहन 'सरस्वती' ने भी लक घाडोको फिराने के लिये वनमें गया। घोड़ों को दीक्षा ली। माता-पितानं कालकको सूचना की किग्यूब घुमा-फिराकर विश्राम लेने के लिये कालककुमार 'यह तुम्हारी बहिन है, इमको मार-संभाल बराबर एक आम्रवृक्षकी छायामें बैठ गया । इम वनम अनेक रखना।' साधुओंके परिवारयुक्त गणाकर मरि नामक एक कानक कुमार व्याकरण, न्याय, माहित्य, अलंआचार्य विराजमान थे । प्राचार्य महागज की देशना- कार, छंद, ज्योतिष और मंत्र-तंत्रादि विद्याओं में भी ध्वनि दूरवर्ती कालक कुमारक कर्णगांचर हुई । वह अच्छं प्रवीण हुए । योग्यता प्राप्त होने पर गुरुने कावहाँ में उठा और प्राचार्यजी के पास जाकर उपदंश लकको 'श्राचार्य पदवा प्रदान की । और अब ये श्रवण करने लगा । नवीन आगन्तुक गजकुमारको कालकाचाय के नाम में विख्यात हुए। चलता है कि 'धरावास' नार मगध देशर्म था - गर्दभिल्लका उच्छेद और शककी "मगहंसु धरावासे पुरे पुरासी निवो वयरसीहो ।" स्थापना (दी, विजयधर्मलमीज्ञानमन्दिर की एक प्रतिः) [ यहां उस प्रतिका नामादिक दे दिया जाता तो अच्छा अनक साधुओंसे परिवृत्त कालकाचार्य किसी होता। -सम्पादक] समय उज्जैनके बाहर उद्यान में पधारं। इसी समय ____ x इस राजा का नाम 'प्रभावक चरित्र' की किपी प्रतिमें वीर. अनेक साध्वियों के साथ साध्वी सरस्वती भी उज्जैनमें सिंह' और किसी में 'वैरिसिंह' भी दिया है। --- सम्पादक. आई। वह हमेशा भाचार्यश्री की देशना श्रवण करने Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८. ९.२० के लिये उद्यानमें जाया करती थी। धरूपी विद्युत् चमक उठा । उन्होंने संघके समक्ष प्रइस समय उज्जैनीमें गर्दभिल्ल x नामक राजा तिज्ञा की कि-"गर्दभिल्ल राजाका उसके गन्यमहिन गज्य करता था। वह अत्यंत विषयी-कामी-और उच्छेद न करूँ तो मेरा नाम कालकाचार्य नहीं।" अत्याचारी था । किसी एक ममय उमकी दृष्टि बाल- कालकाचार्य एक त्यागी और संसारसे विमुम्ब ब्रह्मचारिणीसुरूपवती माध्वी मरम्वती' के ऊपर पड़नेमे माध थे । तो भी एक अत्याचारी दुष्ट गजाको उमकं उसकी कामाग्नि प्रदीप हुई। उसने भविष्य का कुछ भी पापका प्रायश्चित्त देना और प्रजा पर होने वाले अन्याविचार न कर अपने संवकों द्वाग उसे उठवा कर अपने चागंको दूर करना, यह इस त्यागी वैगगी माधन अंतःपर में मँगवा लिया । मावी मरम्वती ने अत्यन्त अपना कर्त्तव्य समझा। करुण चीन्ने मार्ग और मदन किया। मरस्वतीकी सह- उपयुक्त प्रतिज्ञा करनेके बाद भी गजाको उम चारिणी माध्धियाँ एकदम कालकाचार्य के पास गई और कर्त्तव्यका भान करनेके लिये एक विशेष माग अंगउन्हें सरस्वतीके मंकटकी वार्ता सुनाई। कालकाचार्यके कार किया । वह यह था कि-वे एक पागल मनप्य नेत्र धिरसे रक्त हो गये । “एक प्रजापालक शामक, की भांनि बकवाद करते हुए ग्राममें भ्रमण करने लगे। जगत का कल्याण करने वाली एक बालब्रह्मचारिणी पाचायकं पागल हो जानका समाचार राजाके काना माध्वी पर ऐमा अत्याचार करें ।" वे एकदम गजाके तक पहुँचा, परन्तु उस निर्दय राजाके हृदयमें इसका पास गये । इन्होंने उमको शान्तचित्तम ममझाया। कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा । अंतमें कालकाचाय को परन्तु -न्होंने एक न मानी। कालकाचार्यने उपाश्रय- अपनी प्रतिज्ञाका पालन करनेके लिये, उन्म देशको में आकर जैन मंघको एकत्रित किया और साग छोड़ना ही पड़ा । उन्होंने एक गीतार्थ साधुको अपने हाल मनाया । मंघ बड़ी भारी भंट लेकर गजाकं पाम गच्छका भार सुपुर्द किया, और स्वयं 'सिन्धु' नदी, पहुँचा और उसने माध्वीको मुक्त करने के लिये प्रार्थना किनारे पर पाश्कुल नामक देशमें गये । जिस देशके . की, लेकिन संघके वचनका भी गजान अनादर मभी गजा 'साखी *' के नामसे प्रसिद्ध थे। किया। यह जान कर कालकाचार्य गंम गंममें क्रो कृत कथा 'मापी गजामों के तौर पर परिचय काय x विन्सन्ट, एस्मिथ, अपनी Early History of गया है। और प्राकृत कयामें 'सगकुल' (शककुन) कहा है - Indin नामक पुस्तक के पृ. २५, पर लिखते हैं: . "अह सगै 'सगकुले' वञ्चइ, "कुशान वंशमें उत्सान ने पाला राजा वासदेव भारतवर्ष इग माहिणो समीवंमि" ।। ३७ ।। का मन्तिम राजा था । इसकी मृत्युके बाद अन्य कोई शक्तिमानी इसका मृत्युक बाद भन्य काई शक्तियानी प तु यह बात तो मय है कि इस शककुल के राजामोंको मा न होनम विदगी गजा मारणा करते थे. और विष्णुपराण मानी) राजा कहते थे। के कथनानुसार प्रभीर, गभित्र, शक, यवन, एप वाहिक प्रादि माखी' अथवा 'शाही' यह नाम भारतीय अथवा पाश्चात्य लोग और उनके स्वामी हिन्दुर नानक शासक हुए थे। यह सव ई. इतिहासकाग द्वारा किसी भी स्थान पर दिया हुमा दम्वने में नही सकी तीसरी शताब्दी में हुमा ।" माता । हां, 'शक'का उलेख व दृष्टिगत होता है । मनुस्मृति __इम कानम ऐसा मालूम होता है कि गई भिन्न राजा भी में कहा है --शक, पौडक, महि, द्रविड़ कम्बोज, यवन, पारद, भारतवर्षीय नहीं था, किन्तु विदेशीय गजा होना चाहिये । पश्च, नीन, किगत, नग्न, बा, ये मन होने वाले सक्रिय थे। Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आषाढ, श्रावण, भाद्रपद वीरनि० सं० २४५६ ] आचार्यश्री जब जा रहे थे. तब मार्गमें एक गाँवके मैदान में कतिपय कुमार गेंद बल्ला खेल रहे थे । उन की बहुमूल्य गेंद कुऍमें गिर गई। इस कारण से युवक कुएँ के पास आकर अपनी गेंद निकालनेकी चिंता में बैठे थे । वहाँ से निकलते हुए आचार्यश्रीने प्रश्न किया - " कुमारो ! तुम लोग क्या देख रहे हो ?" कुमागे ने अपनी प्यारी बहुमूल्य गेंद की बात निवेदन की । श्राचायश्री ने कहा कि - ' तुम घर से धनुर्बाण । एक यूवक धनुर्बाण ले आया । श्र चार्यश्री ने गोबरयुक्त जलता हुआ घास डाल कर खींचा और एक बाण गेंदको लगाया, फिर दुमरा वारण पहले बाण में लगाया, तीसरा दूसरे में । इस प्रकार क्रमानुसार बाण लगा कर कुएँ के तल में पडी हुई गेंद को बाहर निकाला है । कालकाचार्य आनंद से हँसते हुए कुमारांने आचार्यश्री की विद्या की प्रशसा की, और घर जाकर अपने अपने पिता श्री यह बात कह सुनाई। बात फैलने फैलते बादशाहके अर्थात् वहाँ के 'साही' अथवा 'सावी' राजा के न तक पहुँची । गजाने अपने पुत्रोको भेज कर कालकाचार्यको श्रादरपूर्वक अपने दरबार में बुनाया । म र निस दशमें वे रहते थे । उस दशका नाम उन्होंने जाति क • पर स्क्ग्बा था । (दग्बा, मनु० १०-४४) प्राक्न सगकुल (कुल) कहा गया है। वह वस्तुत ठीक है । "dith फोन. लालमप ने वन "दर नीमयुग +नपुर तक इन मागणी (जाही जाओ सब में दिया है। ५१३ सूरिजी ने राजाको आशीर्वाद दिया। साखी राजा आचार्य के कलाचातुर्य प्रसन्न होकर उनको बहुमानपूर्वक अपने पास रक्खा । कालकाचार्यन वहाँ रह कर ज्योतिष-निमित्तादि विद्याओ से राजाको चमत्कृत करते हुए बहुत दिन व्यतीत किये। "शाहनशाही, जो कि शक, अर्थात् मिथियन लोग स्वामी । उनके पास कालकाचार्य गये थे।" १० ४३ । एक दिनकी बात है । इस 'साही' राजाके पास एक दृतने आकर राजाके सामने एक कचाला (कटोरा) छुरा, और एक लेखपत्र रक्खा। राजा पत्रका पढ़ कर स्तब्ध हो गया, उसका चेहरा उतर गया और काला पड़ गया । राजाकी यह स्थिति देख कालकाचार्य बोले "राजन | तुम्हारे स्वामी की भेट आई है, उसको देख कर तुम्हे तो हर्षित होना चाहिये था, परन्तु यहाँ नो विपरीत दिखाई देता है, यह क्या ? आप यकायक स्तव्य क्यों हो गये ?।" राजा ने उत्तर दिया- 'अहो महापुरुष | आज मुझे मृत्युभयका महान कारण उपस्थित है । हुआ कालकाचार्य बोले- 'किस प्रकार ?" क्रुद्ध होकर " राजा न कहा - "हमा स्वामीन वृद्ध यह श्राज्ञापत्र लिखा है कि तुम्हारा मस्तक काट कर इस कटोरे में रख कर शीघ्र भेजो। यदि तुमने इस आज्ञा का उल्लघन किया तो तुम्हारे सारं कुटुंब के माथ तुम्हारा क्षय होगा।' यह हुकम मुझ को ही नहीं, किन्तु अन्य समस्त 'माखी' राजाको भी भेजा गया है।" कालकाचार्य को अपनी कार्यमिद्धिके लिये यह प्रसंग मालूम हुआ । उन्होंने राजाकी हिम्मत दी और कहा कि - 'आप सब इकट्ठे होकर मेरे साथ अचूक * प्राकृत मूल कथानकों इस गि.ी हुई गेंद क विषयमें कोर्ट भी चलो । हिन्दुकदेश में चल कर उज्जैनीके गर्दभिन् - खनी है । राजाको उच्छेद कर, उस राज्यका विभाग कर मैं तुम्हें Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ अनेकान्त वर्ष १, किरण ८, ९,१० सौंपू।" दूसरी ओरसे गर्दभिल्ल राजाको अपने पर आने __ सरिके वचन पर विश्वास रख कर इस राजाने वाले आक्रमण की खबर मिली । उसने भी अपना अन्य ९५ राजाओंको बला कर उनके साथ प्रयाण मैन्य तैयार करके सामने ही आकर पड़ाव डाला । किया । सिंध नदीसे उतर कर वे सौगष्ट ' में आये। एक रविवारके दिन दोनों सैन्योंमें यद्ध हया। यहाँ पहुँचत ही वर्षाकाल आ पहुँचा । इस लिये का- इस युद्धमें 'साखी' राजाके अनुयायियोंने अपने अंट लकाचार्यकी श्राजानुसार मब लोगोंने अपने अपने पराक्रमका भान कराया । गर्दभिल्लका सैन्य भागने पड़ाव डाले । चातुर्मास समाप्त होने पर मब आगे लगा, और गर्दभिल्ल स्वयं नगरके दरवाजे बंद कराकर बढ़े। उन्होंने लाटदेशमें प्रवेश किया और वहाँ के गढ़में घुस गया । कालकाचार्यका सैन्य नगर को घंग राजा बलमित्र और भान मित्र को भी, जो कि डाल कर वहॉ ही पड़ा रहा। कालकाचार्यके भानजे थे, माथ लिया। बहुत दिनों तक गर्दभिल्लके मैन्यका एक भी मनाए किल पर दिखाई नहीं दिया। मारा वातावरण शान्त • सिंधु नो पार कर गोगः करने का उल्लेम्य मूल - प्राकृत में भी है: मालम होता था । इसके बाद एक 'सावी' गजाक "उत्तरियो सिंध नई कमेण माग्ठमंडलं पत्ता"।।१५।। 1. पटनम, आचार्यन उपयोग लगा कर देग्या, और फिर मिनी का वहां पर पदाव डाला, दमका नसाकृत इन लोगोंको चनाया कि 'गर्दभिल्ल गजा एक गर्दा में नहीं है। परन्तु प्रान्त कथानकी है। विद्याकी साधना कर रहा है, दग्या ता, क्या किल पर "ने ढकगिरिसमीवे ठिया दिणे कहवि मतवमा ॥" कोई गर्दभी दिग्वाई देती है ?' देग्वनेस मालम हुआ प्रांत-दगिरि क निकट 3. ने माला या। कि-एक स्थानमें एक गर्दभी मुग्व फाड़कर खड़ी है। - इस ग्थिानामें उनके पास का दाग हो गया. इस लिये आचर्यश्री ने इसका रहस्य ममझाते हुए कहाःकालकाचार्य ने शामनवीको महायनाम मवर्णागिद्रि' काग जब इस गजाकी गर्दभी विद्या सिद्ध होगी तब यह करके यकी कठिनाई दर की. या दिखनाया गया है। . गर्दभी शब्द करेंगी, और राजाका जो कोई भी शत्र +लमित्र और भानमित्र कोलाट देश (भ 11 ) में माथी लिया । गा उल्लंग्य गरका प्राकृतान । प्राकृत __ उन शब्दाको सुनगा, उमको म्यूनकी उल्टियाँ होगी. कथानकम ने। उनका परिचय उनके युक्राजक तौर पर कराया और वह पृथ्वी पर गिर कर मर जायगा।' बलमित्त-भानमित्ता प्रामीअवनीइ गय जवराया। नियमाग्गिजत्तिनगा नत्थगो कालगायरियो। मालवमें पचन क बाद, युद्धक पहलमा प्राचार्यन एक दनको भेज कर राजा गाभिमा कहलाया कि- हेमजन् , अब बलभित्र और भानुभित्र ने वानिगा न. ३.३ में ४१३ भी सारवती' को मुक्त कर , क्योंकि ज्यादा तानने मेट जान तक राज्य किया था, गह बात उपलहार दिये। राप्रॉक राज्य है।" . कृत कथानकमें यह बात नही है । प्राकृतः इम कयनक कालसे स्पष्ट होती है। इसके बाद लगभग ५३ वा होने पर काल- सकन करने वाली गाथा यह है:काचार्यने शक लोगोंको लेकर उन पर कमाई की । उममें बलमिन भौर भानुमिन को साथ ले जाना भरभक्ति मालूम होता है। "दूयमह पेमइ गुरू, अज्जवि नरनाह, सरसई मंच। शायद यह फना शक लागोंके लाने के पहले बनी हो। अइ ताणियं हि तुट्टा फुट्टइज्ज देव ! अइभरियं ।। ६९ ॥ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आषाढ श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६ ] कालकाचार्य 'साम्बी' राजाओं को बड़ा भय मालूम हुआ । किन्तु आचार्यश्री की आज्ञानुसार वे अपने अपने सैन्यको वहाँ से पाँच कोस दूर ले गये, और सर्वश्रेष्ठ १०८ वागावलियों को आचार्य के पास रक्खा | जब गर्दभी शब्द करनेके लिये मुख खोला, उस समय उन लोगों ने एक साथ इस प्रकार बाण छोड़े, कि उन चारण गर्दभीका मुख भर गया, और वह शब्द करने के लिये असमर्थ हो गई । परिणाम यह हुआ कि वह गर्दभी गोभिल्ल राजा पर कुपित हुई, और राजाके मस्तक पर विष्ठा करके एवं उसको लात मार कर आकाश मार्गमे चली गई । ת 'साखी' राजाओ के सैनिक किले की दीवारें तोड़ कर अंदर दाखिल हो गये और गर्दभिल्ल राजाको बाँध कर कालकाचार्य के पास ले आए। आचार्यश्री को देखते ही गर्दभिल्ल राजा शरमा गया । आचार्यश्रीने उसको उपदेश देते हुए कहा- 'एक सती साध्वीके चारित्रको नष्ट करनेके पापका तो यह एक पुष्पमात्र दंड है। तुझे इसका खास फल तो भविष्यमे - परलोक में मिलेगा ।' तत्पश्चान गढ़भिल्लको, उसके आत्मा की शुद्धि करने के लिये, दीक्षा प्रदाण करनेका उपदेश दिया | परन्तु वह उपदेश निष्फल हुआ। कहा है कि अङ्गारः शतधौतन मलिनत्वं न मुञ्चत । 'सौ बार धोने पर भी कोयला मलिनताको नहीं छोड़ना।' तु । इस प्रसंग पर वे सब 'सावी' राजा उसको मार डालने के लिये उन हुए, परन्तु श्राचार्यश्री नं 'पापी पापेन पच्यने' ऐसा समझ कर, उस पर दया करते हुए उसको छुड़ा दिया; पश्चात् उस राजाने उस देशका त्याग किया | ५१५ इस राज्य के विभाग करते समय, आचार्यश्रीने, उस 'साखी' राजाको, जिसके यहाँ आचार्यश्री ठहरे थे, खास उज्जैनीका राज्य दिया, और अन्य ९५ उज्जैन की गढ़ी पर आये हुए शक (सायी ) राजाओंके गन्धमं कई इतिहासकार कहते हैं कि -शक कालका प्रारम्भ ई० सन में हुआ था, और उसका मुल्य राजा शालिवाहन था। मर्लि हिस्टी ऑफ इन्डिया' में प्रसिद्ध इतिहासकार बिन्सेन्ट. प. स्मीथ. कहते हैं कि - 'भूमकक्षहरात' इस नाम कराजाने इस वाकी स्थापना की थी। '' उसका उपनाम था। वह पहली शताब्दीक अन्तमें हम हिन्नलोग शक की म्ले गमभन थे । 'नहवान' राजा एक एक था। इसके बाद चटन नामका राजा अथवा गवा था। इसकी राजधानी उनमें दी। इसके बाद अनुकमे रुद्रामा यो लिमी श मम राजाए। इस रुद्रसिंह पर चन्द्रगुप्त द्वितीय अर्थात चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने हमला किया था । यह बात ई०म० ८०० के लगभग की है।" निक राज्यावितिक तौर पर एक लोगो का विक तीन अस्तित्व न चहिये परन्तु नमी और मे फोन, ग्लान' अन 'देश्वर जैनीस्युस्' नामक पुस्तककी समय बाद विकनादित्य ने उनक लागोक राज्य न किया। यह विकरादित्यगभित्र राजा 4. से एक काला है। क जीता तो शक राजाम'नहीं महीपर का प्रतित्व ही का ममयका ना चयि । काकानी गसिके पास राज्य छीन दिया। यदि यी गनिटका पुन शक राजाकी निकाल देता है नाशिककराय नम नाम मात्रक व तक रहा था पंचयि । 'सिल्फोन ग्लास' कहा जाय तो "गईभिल्ल, क और विक्रमादित्य विषयक ( मेरी तरफ मे करें तो कालकाचा 4 विषयक भी) कथा में ऐतिहासिक वस्तु क्या है, और क्या नहीं है, इसका निर्णय अभी तक हुआ नही है। ऐसा मालूम होता है किइस विक्रमादित्य के इतिहास का, दमं चन्द्रगुप-विक्रमादित्यके साथ (जिसने काइस्टक बाद ३० की साल में उज्जैन जीता था, मौर जो कालिाम महाकविका उतेजक था ) मम्मिश्रवा हो गया है। Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८,९,१० राजाओंको मालवा देशके विभाग करके बाँट दियेका 'कालकाचार्य' विचरते विचरते प्रतिष्ठानपुर में ___ आचार्यने 'सरस्वती' साध्वीको गच्छमें-समुदाय पधारे, जो कि दक्षिण देशमें था । वहाँका गजा में लिया । पराधीन अवस्थामें लगे हुए दोषोंके प्रा. शातवाहन' श्रावक था और साधुभक्त था। उसने यश्चित्तरूप उसने तपस्या की । आलोचना भी ली, भक्तिपूर्वक आचार्यश्री का चातुर्मास कराया । पर्यऔर कालकाचार्य स्वयं भी कईएक आलोचनाएँ कर- षण पर्व निकट आते ही गजाने प्राचार्य से पूछाके निरतिचार चारित्रका पालन करनेके साथ साथ 'पर्यषण पर्व किस दिन होगा ?' आचार्यश्री ने उत्तर गच्छका भार भी वहन करने लगे । अर्थात् अपने समु• दिया-भाद्रपद शुक्ला पंचमीको ।' राजा ने कहादायका संरक्षण करने लगे। 'महागज, उसी दिन हमारे यहाँ कुलक्रमागत इन्द्रम२ सांवत्सरिक पर्वकी तिथिका बदलना होत्मव पाना है । उममें मुझे अवश्य जाना चाहिये, सांवत्सरिक पर्व भाद्रपद शुक्ला पंचमीके बाले और एक ही दिन में दोनों उत्मवोंमें भाग लेना अशचतुर्थी के दिन प्रारंभ करने वाले कालकाचार्य के क्य - क्य है। इस लिये पर्युपणपर्व पंचमीके बदले छठमम्बन्ध में खास जीवनपरिचय नहीं प्राप्त होता है । का रखिये ताकि मैं पूजा, नात्र पौपधादि क्रियाएँ सिर्फ एक हस्तलिखित प्रतिमें ऊपर केवत्तान्तस चतुर्थी कर सकूँ।' का वृत्तान्त भिन्न किया गया है । पंचमीकी चतुर्थी गुरुने उत्तर दिया कि-'पंचमी की गत्रिका उल्लंकरनेका प्रसंग इस प्रकारका है घन कदापि नहीं हो मकता है।' यह सुन कर गजाने चतुर्थीक दिन रखनके लिये प्रार्थना की। राजा के * कालकाचार्थने शक राजामोंको जीनी प्रान्त दिये थे, उनमें आग्रहम और 'कल्पमत्र' के 'अतरावियसे .....' सौगष्ट्र का भी मनावश हो जाता है। गांकि - विमेंट ए. स्मिथ 'मलि हिस्ट्री भाफ इन्डिया' के पृ. १३७ में के नोट में लिखते इस पाटका आधार लंकर कालकाचार्यन पर्यपण पर्व पंचमीके बदल चतुर्थीके दिन किया । उसी प्रकार "मीरा-में जो शक गोग थे. उनका दमा चन्द्रगुप्त विक गादित्य चौमासी पूर्णिमाके बदले चतुर्दशी की । उस दिनसे ने ई.स. ३६० में हराया था।" समस्त (श्वेताम्बर) संघ में यह प्रथा प्रचलित हो गई। इमी नोटमें 'शक' लोगेांका "क्षत्रप" प्रयवा मत्रपके ३ इन्द्रको निगोदका स्वरूप समझाना नामसे परिचय कराया है। संस्कृन कथानकमें इस सम्बन्धको अगले मम्बन्धके साथ निन्ना उपर्युक्त वृत्तान्त के साथ ही इन्द्रको निगादका स्वदिया है। अर्थात उपयुक्त कालकाचा का ही बलभित्र मोर भान रूप समझाने वाले कालकाचार्यकी कथा भी मिला दी मित्रके निमंत्रणाम भरोच जाना, पुरोहितका विगध करना भादि गई है । वह कथा इस प्रकार है:दिखलाया गया है । इस वर्णनको पूरा करने के बाद एक प्राचार्यका कालकाचार्य सुख-शान्तिपूर्वक चारित्र पालते हुए सम्बन्ध समाप्त कर दिया गया है । उसके बाद पंचसीकी चौथ करने . बाखे कालकाचार्यका वर्णन प्रारम्भने हाता है, प्राकृत कथानक बल- १ संस्कृत क्यामें प्रतिष्ठानपुर के गजाका नाम सातवा. मित्र और भानुमित्रके यहां जाने वाले कालकाचार्य ही पंचमी की हम दिया है, और प्राकृत कथानक में सासपाहल लिखा है। बोध करने वाले हैं, ऐसा सम्बन्ध मिलाया है। सम्भव है कि लिखने में प्रशुद्धि हुई हो। Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषाढ, श्रावण,भाद्रपद वीरनि०सं०२४५६] कालकाचार्य वहाँ रहते हैं , परन्तु उनके शिष्य प्रमादी हो गये । देखा तो गुरुजी दिखाई नहीं दिये। वे लोग बहुत ही गर्की अत्यधिक प्रेरणा होने पर भी वे लोग क्रियानु- लजित हुए । बादमें शय्यातर (घरके मालिक ) द्वारा शान बराबर नहीं करते थे । उस समय आचार्यश्रीने मालूम हुआ कि-ऐसे प्रमादी शिष्योम उकता कर सा विचार किया कि-ऐसे प्रमादी शिष्योंके साथ गुमश्री सागरचंद्राचार्य के पास 'सुवर्णपर' गये हैं। रहने की अपेक्षा अकेला रहना अच्छा है। ऐसा विचार साधुओंने सुवणपुरकी तरफ प्रयाण किया। साधुकरके शय्यातर (घरके मालिक) को सब बातें ममझा- ममुदायकी संख्या अधिक होने के कारण उन्होंने तीन वझाकर शिष्यों को सोते छोड़ कर प्राचार्यश्रीने टालियाँ कर दी । ये टोलियों एकके पीछ एक-इस म्वरगपुर की ओर प्रस्थान किया । वहाँ पर कालका- क्रममे जाती थीं। मार्गमें लांग पछत हैं कि-कालचायक प्रशिष्य सागरचन्द्राचार्य रहन थे। कालका- काचार्यजी कौन हैं ?' तब उत्तरमें पीछेकी टोली कहती चार्य उनके (सागरचंद्राचार्य के ) उपाश्रयमें गये, और है-'आगे गये।' और भागेकी टोली कहती है-पीछे अपना परिचय नहीं कराते हुए स्थान माँग कर एक हैं।' यह मंडली सुवर्णपरके समीप आई, तो सागरचंकानमे ठहर गये। द्राचार्यनं समझा कि-गम्देव भान हैं। एमा जानप्रातःकाल सागरचंद्राचार्यन मभासमक्ष मधर कर मामने गये, और पछा कि-'गुरुदेव कौन है ?' 'वनिमें व्याख्यान दिया , और उस वद्ध माध ( का- उत्तर मिला कि-'व ना पहले ही तुम्हारे पास श्रा नकाचार्य) से पछा कि-"ह वृद्ध मुने ! कहिय मैंने गये है। कमा व्याख्यान दिया?" कालकाचार्यने कहा-“बहन मागरचंद्र विचार में पड़ गयं । जिनके साथ मैंने अच्छा व्याख्यान दिया।" फिर मागाचंद्रन अहंकार- शास्त्रार्थ किया और जिन्होंने मुझको हराया, वही तो पवक कहा कि- "हे वृद्ध माधों ! तुमको कुछ मिद्धा- कही में गुरुदेव श्री कालकाचार्य महाराज नही होंगे? नादिका संदेह हो तो पूछिये ।” मबके साथ मागरचंद्राचार्य ने उपाश्रयमें पाकर __कालकाचार्यन, मागरचंद्रको उनके अभिमानका गुरुको वन्दना की और अपने अपराधकी माफी भान कराने के लिय, विवाद प्रारंभ किया और कहा मांगी। कि-'आचार्य जी, धर्मका अस्तित्व है या नही" कहा जाता है कि-इम ममय मौवर्मेन्द्र ने सीममागरचंद्रनं उत्तर दिया-धर्म अवश्य है।' कालका- धर स्वामीके निकट जाकर निगांद विचार सुना। वार्यने उमका निषेध किया। और पन्छा-'हे स्वामिन ! भरतक्षेत्रमें इस प्रकारका दोनोंमें खूब वाद-विवाद हुआ । अंतमं मागरचंद्र निगादका म्वरूप कोई जानना है?' मीमंधर स्वामीन निरुत्तर हो गए। फिर उन्होंने विचाग कि यह कार्ड उत्तर दिया- 'प्रतिष्ठानपुरमें कालकाचार्य हैं वे इस मामान्य वृद्ध साध नहीं है, बल्कि एक प्रतापी वया- विषयक जानकार है।' इन्द्र ब्राह्मणका रूप धर कर वृद्ध, ज्ञानवृद्ध और अतिशयशाली महात्मा मालम प्रतिमानपुर में आया , और कालकाचार्यम निगोदहोते हैं। १ यहां पर कालकाचार्यका एलान्त स्वर्णपुरमें बन रहा है। इधर उन प्रमादी शिष्यांन प्रातःकालमें उठ कर इसी समय इन्द्र प्रतिष्ठानपुर में माना है और कालकाचार्य भेट Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ का स्वरूप पूछा । गुरुने बहुत ही सूक्ष्म रीतिसे निगोद का स्वरूप समझाया, जिसको श्रवण करनेमे ब्राह्मण अनेकान्त अत्यन्त आनन्द हुआ । फिर उसने अपना हाथ लंबा करके आचार्यजी से पूछा कि - "महाराज ! दे खिये, मेरा आयुष्य कितना है ? यदि थोड़ा हो, तो मैं कुछ साधना कर लूँ ।” गुरूने हाथ देखा तो मालूम हुआ कि, इसका आयुष्य तो सागरोपमका है । कालकाचार्य समझ गये कि यह तो इंद्र है । इसलिये आयुष्य न बतलाते हुए कहा- 'हे इन्द्र, धर्मलाभोऽस्तु' । इसके बाद इंद्रन प्रकट होकर दसों दिशाओं में उद्यांत किया । वंदन करके स्तुति की, और सीमंधर स्वामीके पास जानेका मारा वृत्तान्त कह सुनाया । इन्द्र जाने लगा । तब गोचरी (मिक्षा) को गये हुए साधु वापिस आवें, उस वक्त तक ठहरनेके लिये कालकाचार्य ने कहा | परन्तु इन्द्र न ठहरता हुआ अंतधन हो गया और उपाश्रयका मूल दरवाजा जिस दिशामें था उस दिशा मेंसे फिरा कर उसे अन्य दिशा में करता गया । भिक्षासे आने पर साधुश्रीको यकायक यह परिवर्तन देखकर आश्चर्य हुआ। फिर गुरुक पूछने से इन्द्र के नेका सारा वृत्तान्त ज्ञान हुआ । इसके बाद कालकाचार्य दीर्घ काल पर्यंत निर्मल चारित्रको पाल कर अंत में अनशन करके समाधिपूर्वक देवलोक में पधारे। [वर्ष १, किरण ८, ९, १० है कि, कालकाचार्य एक ऐतिहासिक पुरुष अवश्य थे । अनेक विद्याओं के पारगामी थे, शासन प्रभावक श्र बाणकला में दक्ष थे । परंतु प्रश्न यहाँ पर यही उपस्थित होता है कि, उपर्युक्त तीनों घटनाएँ X भिन्न भिन्न समयमें होने वाले कालकाचार्यों के द्वारा हुई, या एक ही कालकाचार्यन यह सब किया ? अथवा किसी एक कालकाचार्यन इन तीन घटनाओ से कोर्ट सी दो की हैं ? करता है। सीमधर स्वामीने भी प्रतिठामपुरका कहा था। सम्भव है कि स्वर्णपुरसे विहार करके कालकाचार्य के प्रतिानपुर में पधारनेके बादकी यह घटना हो । एक बात अवश्य कही जा सकती है कि, गर्दभिदका उच्छेद करके शक राजाओ के स्थापक कालकाचार्य वीरनिर्वाण के बाद पाँचवीं शताब्दिमें हुए होने चा हियें। क्योकि पाश्चात्य इतिहासकारोंकी शोध के अन सार शकलोग भारतवर्ष में ई० सनकी पहली शताब्दिमें आये थे, और वीरनिर्वाणके बादका क्रम देवत हुए वीर निर्वाणके बाद ६० वर्ष तक पालक राजा का राज्य रहा। इसके बाद १५५ वर्ष तक नवनन्दोका राज्य चला । पश्चात् १०८ वर्ष तक मौर्य साम्राज्य रहा। फिर × प्रत्येक कथानकमें कालकाचार्य के माता, पिता, दीक्षा भादि का उत्तान्त तो लगभग समान है । परन्तु एक संस्कृत (२) कथानक में बनाया गया है कि तिसयपणवीस इंदा, चरसग्रतिपन्न सरम्स ईगहिश्रा । नवसय तिनवइ वीरा उपसंहार चथिए, जो कालगायरिया || अर्थात् महावीर निर्वाण से ३२५ वर्षमें इन्द्र प्रतिबोध करने कालकाचार्य की कथा परसे यह तो निश्चय होता बाले, ४५३ में सरस्वती साध्वी के लिये लड़ने वाले मौर ६६३ में मक्सी पर्व पचमीके बदले चतुर्थीको करने वाले कालकाचार्य हुए। [* यह पद्य कौनसे ग्रन्थसे उदधृत किया गया है, यह भी बत लादिया जाता तो अच्छा होता । - सम्पादक ] Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं० २४५६ ] कालकाचार्य ३० वर्ष तक पुष्यमित्र का, ६० बलमित्र भानु मित्रका, नभोवाहन का ४० १३ गर्दभल का, और शक राजाओंका राज्य चला । 39 23 39 ४ इस तरह वीर निर्वाणके ४७० वर्ष व्यतीत होने के बाद 'शक' के पश्चात् 'विक्रमादित्य' राजा हुआ । इस हिसाब से वीर निर्वाण के बाद ४५३ वर्ष में गर्दभिल्ल गद्दीपर आता है । इसके गद्दीपर श्रनेके बाद ही कुछ समय के भीतर सरस्वती साध्वी के उठाए जानेकी और कालकाचार्य द्वारा 'शक' लोगोंके आनंकी घटना होनी चाहिये, और इससे सरस्वती माध्वीके हरएका ममय ४५३ अथवा उसके आस पासका मानना ही उचित मालूम होता है । गर्दभिल्लने १३ वर्ष राज्य किया अधीन कालकाचार्य ने ४६६ में शक लोगोंका राज्य स्थापित कराया और ४७० में विक्रमादित्य हुआ । इस कथन से यह मालूम होता है कि, 'शक' लोगोका राज्य उज्जैन में मात्र ४ वर्ष तक ही रहा । 'शक' लोगों के राज्यसम्बन्ध में पहले दिए हुए एक नोटमे जैसा कि कहा गया है- 'शक लोगांने उज्जैन में थोड़े ही समय नक राज्य किया' । इस बात के लिये यह प्रमाण एक विशेष सबतके तौर पर है । 99 अब संवत्सरी पर्व पंचमके बदले चतुर्थीका प्रारंभ करने वाले कालकाचार्य वीर मं० ५५३ में प्रथांत १००० वीं शताब्दिमें हुए हैं, यह बात यदि निश्चित हां जाती हो तो फिर - १ बलमित्र और भानुमित्रको भगेंच से साथ लेना, २ बलमित्र और भानुमित्र के निमंत्रणको स्वीकार करके भरोंच जाना और पुरोहित के साथ शास्त्रार्थ करना, ५१९ ३ ब्राह्मण के वेषमें आये हुए इन्द्रको निगोदका स्व रूप समझाना, तथा- ४ शिष्योंके प्रमादी होनेके कारण उनको छोड़ कर चले जाना इत्यादि सारी घटनायें कौनसे कालकाचार्य के समय में, कब और कहाँ पर हुई इसका निर्णय करना बाकी रहता 1 " इसके अतिरिक्त कालकाचार्यने गुणा कर सके पास दीक्षा ग्रहण की वे गुणाकर मुरि तथा एक कालकाचार्य प्रमादी शिष्योंको छोड़ कर अपने प्रशिष्य मागर चंद्राचार्य के पास जाते हैं, वे सागरचन्द्राचार्य कौन थे ? कब हुए ? इन सब बातोकी शोध करना भी आवश्यक है । ऐतिहासिक विद्वान इस विषयकी और सविशेष रूपमें ध्यान दें, यही अभिलाषा है । अनुवादक - भँवरलाल लोढ़ा जैन ' हृदयोदबोधन हृदय । त कहना मेग मान । सर्व बंधुभाव मनमे, नज अनुचित अभिमान | नीच न समझ किसी नक्की तृ, नीच कर्म जिय जान।। १ भाव-भेष-भाषा-भोजन हो भाइयन के सामान । इनको एक विवेक-युक्त कर, हो तेरा उत्थान || २ || क्या जीना जो निज हित जीना, शुक्रर स्वान-समान । करपा यदि देशहेतु कछु, तो तू है धीमान ॥ ३॥ * Cl * इटावाके स्व० पडित पुनलालजी टायम उनके पुत्र चौ. बमन्तलालजी द्वारा प्राप्त । Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ ० [वर्ष १,किरण ८, ९.१० अनेकान्त । अकलंकदेवके 'चित्रकाव्य' का रहस्य और हारावली-चित्रस्तव 'अनकान्त' की गत किरणमें 'अकलंकदेवका और साहित्य एक प्रकारका है-प्रत्येकमें चौदह चो. चित्रकाव्य' इस नाममे एक स्तोत्र कुछ परिचयकं साथ दह पद्य है, शुरुके बारह बारह पद्य प्राय. उपजानि दिया गया है। परिचयमें स्तोत्रके अंतिम प्रशस्ति-पद्य छंदोमें और अंतका पद्य सबका शार्दूलविक्रीडित छंदग परसे यह बतलाया गया था कि इस स्तोत्रका नाम है । रहा १३ वाँ पद्य, वह सबका भिन्न भिन्न छदा 'चित्रकाव्य' है, यह 'अकलंकदेव' का बनाया हुआ है में है-अर्थात १ली हारावलीका 'वंशस्थ' मे, दमर्गका और विक्रम संवत १५७४ का बना हुआ जान पड़ता 'उपेन्द्रवना' मे, तीसरी का 'उपजाति' में और चौथा है । साथ ही, पाठकोमे यह निवेदन किया गया था का 'इन्द्रवत्रा' छंद मे है । यह तरहवाँ पद्य प्रत्यय कि, यदि किसीका किसी दूमरे शास्त्रभंडारसं इस म्तात्र हागवलीमे नायकमणि-स्थानीय पद्य है-अर्थात बारह की कोई प्रति या इसकी कोई संस्कृतटीका उपलब्ध पद्योकं चार चार चरणोको लकर और प्रत्येक चरणहो तो वे, उसकी विशेषताओको नोट करते हुए, उमस के आदि-अंतमे तीर्थकरो नामाक्षररूपी मणियोको मूचित करनेकी ज़रूर कृपा करें, जिसमें रचना-ममय- गूंथ कर जो हारयष्टि तय्यार की गई है उमके मध्यम का ठीक निर्णय किया जा सके और पाठ की अशुद्धि नीचे रहने वाला प्रधान-मणि-जैसा है । पहली हागआदिका भी संशोधन हो सके। इस पर पाटनम मुनि वलीमे यह 'पद्मजाति' चित्रको लिए हुए है-जान पुण्यविजय जीने 'स्तोत्ररत्नाकर द्वितीयभाग सर्टीक' अक्षरका मध्य कर्णिकामे रख कर नकार-भिन्न शप की एक प्रति मेरे पाम भजी है, जो निर्णयसागर प्रस- अक्षगको २४ पद्मदलोमे स्थापित करनस बनता है,द्वाग विक्रम संवत १९७० की छपी हुई है और जिसमे दृसर्गमे 'म्वस्तिक जाति' को, तीसरीमे 'वनबन्धजाति 'चतुर्हारावली-चित्रस्तव' नामका एक स्तोत्र दिया हुआ को, और चौथ मे 'बन्धुकस्वस्तिकजानि' चित्रका लिय है। माथ ही, लिम्बा है कि-"इम (म्तोत्र को देग्य हुए है । १४ वॉ पद्य, प्रत्येक हारावलीमें, ममातिम्कर श्राप जैमा उचित समझ स्पष्टीकरण करे।" चक अन्त्य मगलका पदा है और उसमे कहा गया है __'चतुर्हागवली-चित्रस्तव'को देखनसे मालूम हुआ कि जिनके नाममय सुवर्ण ( शोभनाक्षर) मणियाम कि इसमें १ वर्तमान-जिन चतुर्विशतिका, २ अतीतजिन- यह सत्पुरुषोके कण्ठको भूपित करने वाली हारावली चतुर्विशतिका, ३ अनागन-जिन चतुर्विशतिका और निर्मित की गई है,वे सब जिनेन्द्र देव मंगलकारी होवें।' ४ विहरमाण-शाश्वतजिनस्तुतिः, ऐसे चित्रस्तवोंकी माथ ही, यह पद्य अर्थान्तरन्यासम कविके नामको चार हारावली शामिल हैं, जिन सबका टाइप, दंग भी उनके गुरुके नामसहित लिये हुए है, यह इसमें Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२१ प्राषाढ, श्रावण, भाद्रपद वीरनि०सं०२४५६] अकलंकदेव चित्रकाव्यका रहस्य चित्रकारी है। इन सब बातोंके अतिरिक्त, यह पद्य अब मैं यह बतलाना चाहता हूँ कि प्रथम हारा -साहित्यकी दृष्टिसे भी प्रायः सर्वत्र समान है- वली-चित्रस्तवके शुरूमें जो बारह पद्य हैं वे ही पथ इसका दूसरा और तीसरा चरण सब हारावलियोंमें ज्योंके त्यों अकलंकदेव-नामाङ्कित 'चित्रकाव्य' में पाये एक है,चौथा चरण भी तीन हारावलियोंमें एकही है- जाते हैं, और इससे, 'हारावली' के उक्त परिचयको पहलीमें वह थोड़ीसी विशेषताको लिये हुए है-और ध्यानमें रखते हुए, यह स्पष्ट जान पड़ता है कि ये पद्य पहला चरण मात्र नायकमणिके नामके परिवर्तनको 'हारावली-चित्रस्तव' से लिये गये हैं। हारावली-चित्रही लिये हुए है। जैसे पहलीमें 'इत्थं नायकपद्मराग- स्तव के निर्माता चारित्रप्रभ सरि के शिष्य 'जयतिलक' रुचिग, तीसरी में 'इत्थं नायकबज्रबन्धरुचिरा', सूरि हैं, जो कि 'आगमिक-जयतिलकसरि' कहलाते हैं दूमरीमें 'इत्थं स्वस्तिकनायकन रुचिरा' और चौथी और एक प्रसिद्ध श्वेताम्बर विद्वान हैं। मालम होता में 'इत्थं बन्धकनायकेन रुचिरा' ऐसा पाठभेद है। है अकलंकदेव नामके किसी भट्टारकनं अथवा अकबाकी 'सत्कंठभषाकरी' यह चरणाँश सब में स- लंकदव के नामसे किमी दूसरे ही शससने इन पगामान है। के अंतमें अकलंकदेवके नामादिकका एक पग जोड़ इस तरह यह 'चतुर्हारावली-चित्रम्तव' नामका कर, जो कि बहुत कुछ साधारण, चित्रकलास म्तात्र एक ही विद्वान् कवि रचे हए चार स्तांत्रीका रहित एवं बे-मेलसा है, इन्हें अपनी अथवा अपने मंग्रह है, जिनमेंमें प्रत्येक 'हारावली-चित्रम्तव' कहलाता स व सम्प्रदायकी कृति बनानेकी दुश्चेष्टा की है । इस प्रकार है और यह नाम बहुत मार्थक जान पड़ता है, क्योंकि के प्रयत्न निःमन्देह बड़े ही नीच प्रयत्न है और वे स्तुतिपथके प्रत्येक पादक आदि और अंतमें तीर्थकरें- स्पष्ट रूपम जालमाजी तथा काव्य-चांगको लिये हुए के नामाक्षरोंका जो विन्यास किया गया है वह हारका हैं। जो लोग दूमरोंके साहित्यपर ऐमी डाकेजनी अनुकरण करता है-हारमें जिस प्रकार आदि और करते है उन्हें मामदेवाचार्यनं माफ नौर पर 'काव्यअंतकी मणियाँ बराबर रहती हैं उसी प्रकार इसके एक पद्यमें एक और श्रादि । पूर्वक्रमानुवर्ती ) नीर्थकरके कृत्वा कृनीः पूर्वकताः पुरुस्तानामाक्षर हैं तो दूसरी ओर अन्त्य (पश्चिमक्रमानुवर्ती) त्पत्याद ताः पुनरीक्ष्यमाणः । तीर्थकरके नामाक्षर हैं। यही बात स्तात्रकी स्वपिन तथैव जन्पदय योऽन्यथा वा टीका * की प्रस्तावनामें निम्न शब्दों द्वारा भी मुचित सकाव्यचोगेऽस्तु स पातको च॥ की गई है : ___ इस प्रकारके काव्यचार दिगम्बर और श्वेताम्बर ___पादस्यायन्तयोहारानकार विन्यस्तैर्जिन- दोनों ही सम्प्रदायोंमें होते रहे हैं । कई वर्ष पहले मेरे नामवर्णेश्चत्वारः स्तवाः। द्वागऐसे लोगोंके कुछ प्रन्योंकी परीक्षा भी की जा चुकी * इस टीकाका मंगलाचरण इस प्रकार है: है। कभी किसी दिगम्बरने श्वेताम्बगेंक विवेकविलाभ्यात्वाईनः महत्तेजः सुखव्याख्यानहेतवे। स' को 'कुंदकुंवश्रावकाचार' बनाया था तो एक श्वेताचतुर्हारावलीचित्रस्तवटीको कराम्यहम् ।। बराचार्यन दिगम्बराचार्य अमिनगनि की 'धर्मपरीक्षा' Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ अनेकान्त [वर्ष १;किरण ८, ९,१०० को ही अपनी कृति बनानेका पुण्य कमा डाला था। इससे सरिजीका समय विक्रमकी १५ वीं शताब्दीका इस प्रकारकी कुछ घटनाओंका पूरा हाल पाठकोंको प्रायः पूर्वार्ध पाया जाता है । इसी समयके मध्यवर्ती 'ग्रंथपरीक्षा' के तीनों भाग पढ़नसे मालूम हो सकता है। किसी वक्त 'चतुर्हारावली-चित्रस्तव' की रचना हुई यह सब साम्प्रदायिक मोह तथा मिथ्या अहंकार- समझनी चाहिये। का परिणाम है जो इस प्रकारकी कुचेष्टाएँ की जाती नीचे प्रथम हारावली-चित्रस्तवको सरिजीकी हैं और उन्हें करने वाले निःसन्देह क्षुद्र व्यक्ति ही होतं म्वोपज्ञ संस्कृत व्याख्या सहित दिया जाता है । साथहैं। अन्यथा, एक सम्प्रदाय वाला दूसरं सम्प्रदायवाले- में हिन्दी अर्थ भी लगा दिया गया है । इससे सभी को अपने किसी ग्रंथ या स्तुति-म्तात्रके पढ़नस काई पाठक इस स्तोत्रका यथेष्ट रसास्वादन कर सकेंगे। मना नहीं करता; चुनाँचे कितने ही सुंदर ग्रंथ तथा स्तोत्रमें स्तुतिका क्रम ऐमा रक्खा गया है कि एक पाक स्तोत्रादिक एक सम्प्रदाय के दूसरे सम्प्रदायमें बड़े पूर्वार्धमें पूर्व क्रमानवर्ती एक तीर्थकरका स्तवन है तो आदरके साथ पढ़े जाते हैं। किसी स्तोत्रकं कर्तृत्वमें उत्तरार्ध में उत्तर क्रमानुवर्ती दूसरे तीर्थकरका स्तवन है। अपने समुदाय के विद्वान का नाम न होने से वह कुछ उन तीर्थंकरों के संख्याक्रमकी सूचना प्रत्येक पद्यक कम फलदायक नहीं हो सकता और न होनस अधिक ऊपर बारीक टाइपमें दे दी गई है और उनके नामाफल ही दे सकता है । स्तुतिके विषय जिनेन्द्रदेव उभय क्षरोंको दोनों ओर एक एक खड़ी लाईन लगा कर सम्प्रदायों के लिये समान रूपसे पूज्य हैं । अतः इस पृथक कर दिया गया है । इन लाइनोंको हारके डारेका प्रकारकी चेयाएँ व्यर्थ हैं । अस्तु । स्थानापन्न समझना चाहिये, उक्त तांत्रमें भी इसी आगमिक जयतिलक सरिके बनाये हुए चार ग्रंथ प्रकारसं लाइन लगाकर पद्योंके अक्षरोंकी स्थापना की और उपलब्ध हैं- १ मलय मुंदरीचरित्र, २ सुलसा- गई है। -सम्पादक चरित्र, ३ हरिविक्रमचरित्र और ४ कल्पमंजरी कथा- ....... कोश । इनमेंसे हरिविक्रमचरित्रकी एक प्रति “ संवन हारावली-चित्रस्तर १४६३वर्षे कार्तिक वदी १२ दिने" इस उल्लेम्व वाली पाटनके भंडाग्में मौजूद है, ऐमा मुनि पुण्यविजयजीसूचित पपश्चिमजिननामाक्षरहानिवद्रं जिनद्वयस्तवनम् - करते हैं और उसकी पुष्पिका इस प्रकार दत हैं:"इत्यागमिक-श्रीचारित्रामसरि-शिष्यश्री- श्री नाभिसूनो ! जिनसार्वभौम, श्रा। जयतिलकम रिविरचने तवान्धवामरकीर्तिगणि व पध्वज वन्नतये ममे हा। विलिखिते श्रीहरिविक्रमचरित्रे महाकाव्ये श्री- प ड्जीवरक्षापर देहि देवी हरिविक्रममहोदयपदप्रापणो नाम द्वादशः सर्गः” भर्चितं स्वं पदमाशु वी ॥१ - और 'जैनप्रथावली' से मालूम होता है कि हरिविक्रम काव्य पा जयतिलक सरिजीने खद् एक वृत्ति व्याख्या-हे श्रीनाभिसनो ! हे जिनभी लिखी है और उसकी रचनाका सम्बत् १४३६ है। सार्वभौम ! सामागकेवलिचक्रवर्तिन ! वृषध्वन! Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२३ आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] हारावली-चित्रस्तव. वषभाः । त्वन्नतये भवनमस्काराय मम मे ईहा यस्य तस्यामन्त्रणं सुपार्थ शोभनसमीप । प्रय वाञ्छा वर्तत इति सम्बन्धः । श्री नाभिसनस्ता- द्वितीयार्धव्याख्या-हे पार्श्वनाथ ! जिन ! - वदन्योऽपि कोऽपि भविष्यतीति आशंसानिरा- गिनां शरीरिणां रोगततिाधिपरंपरा तव भसार्थ ( जिनसार्वभौतिपदं )। जिनसार्वभौमाः वतोऽभिधानानामतोऽपि विलीना विलयं जगासर्वेऽप्यन्तिः , अतः प्रथमजिननिर्धारणाय वष- मेत्यर्थः ॥ २ ॥ ध्वजेति पदं । इति पूर्वार्धनाद्यं जिनं स्तुत्वा अर्थ-हे शोभनसमीप प्राप्त (हितकारी) देव पगन पश्चिमजिनस्तवमाह-हे षड्जीवरक्षा- श्रीअजित ! कामादिक ( काम, क्रोध, लोभ, मान, पर ! पथिव्यप्तेनोवायुवनस्पतित्रसलक्षणाः षड् हर्प) पाप मुझे सताते हैं, आप मेरी रक्षा कीजिये । जीवास्तेषां रक्षा पालनं तत्परः पड्जीवरक्षापरः हे जिन पार्श्वनाथ ! आपके नामसे देहधारियोंकी रांग तस्य संबोधनं । हे वीर वर्धमान ! त्वं आशु परम्परा विलीन हो गई है। शीघ्र स्वं निजं पदं मोक्षलक्षणं स्थानं देहि तृतीय-द्वाविंशतितमजिनरतवनम - वितर । किं विशिष्टं पदं ? देवीभत्रचितं देव्यो संसारपारो जनि मेऽद्य जाने, देवाङ्गनास्तासां भागे देवास्तै रचितं पूजितं तैरप्याराधितं सर्वोत्कृष्टत्वादित्यर्थः ॥ १॥ भ वत्पदौ संभव यद्यजा मि। ___ अर्थ-हे. श्री नाभिगजाके पुत्र जिनों- व श्याः स्वयं ते मदमोहमा ना, (मामान्य केवलियों)के चक्रवर्ति वृषध्वज-श्रीवपम! अनङ्गभड़े मति नमिना था३ आपको नमस्कार करनेकी मग इच्छा है । है पटकायके जीवोंकी रक्षामें तत्पर वीर-महावीर ! आप व्याख्या-हे सम्भव ! तृतीय जिनअपना देवोंस अचित पद (माक्ष पद ) मुझे दीजिय। पतं ! अहमिति जाने ऽवगच्छामि । अद्य मे मम द्वितीय-त्रयाविंशतितमजिनरतवनम-- संसारपागेऽजनि भव ममाप्तिर्बभूव । यद्यस्मात् श्री नन्दनाद्या व्यथयन्ति पा | पा, कारणात भवत्पदौत्वच्चरणी यनामि पूजयामि । अ वाऽऽप्त देवा जितमां सुपा छ। अथापरार्धव्याख्या-हे नेमिनाथ! द्वाविंशतितजि ना गिनांरोगततिर्विली ना, मनिन ! अनंगभंग कामनये सति मदमोहमानाः मामना वश्या वशत्वं ययरित्यर्थः ॥३॥ त वाभिधानादपि पाश्चना | थ॥२ अर्थ- संभव ! चकि मैं आपके चरणों व्याख्या-हे प्राप्त ! हितकारिन् देव की पूजा करता हूँ, इससे मुझे ऐसा मालूम होता है अजित ! श्रीनन्दनायाः कामक्रोधलोभमानहषः कि मैं संसार से पार हो गया हूँ-मंग भव समाप्ति पापाः पापिष्टा मां व्यथयन्ति पीडयन्ति । त्वं हो गई है । हे नेमिनाथ । कामदेवके जीते जाने पर अब रक्ष । हे सुपार्थ मुष्ठ शोभनं पार्थसमीपं मद, मोह और मान स्वयं ही वशवी हो गये हैं। Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ अनेकान्त चतुर्थेक विंशतितमजिनस्तवनम् - " मि भि | देलिमैना अभिनन्दने न नंद त्वमंही तव पूजया द या दरिद्रे ऽपि नृपे न मे कथं ते मयि सा न ना | थ ॥ ४ समा ना, 1 [वर्ष १, किरण ८,९, १० व्याख्या हे सुमते ! पश्चम जिनपते ते तब गीर्वाणी प्रजासु लोकेषु शिवश्री सुखाय मोक्षलक्ष्मीशर्मणे वर्तते । किं विशिष्टा गीः १ तापहरा वाह्याभ्यन्तरसन्तापापहारिणी किंवत् १ श्रीखंडवत् चन्दनवत् । अथोत्तरार्ध व्याख्यातुः पुनरर्थे । हे सुव्रत स्वामिन् ते तव महस्तेजो ऽपि तमसः पाप्मनः तीव्र तिरस्क्रियाकृत् अत्यर्थतिरस्कारकारि, किं पुनस्तव दर्शन मितिज्ञेयं । हे तात ! हे जगत्पितः इत्यामन्त्रणं सुव्रतस्येत्यर्थः॥ ५ व्याख्या - हे अभिनन्दनेन ! हे अभिनन्दनस्वामिन ! त्वं नन्द समृद्धिं भज । किं विशिष्टस्त्वं ? भिदेलिमैना भिदेलिपानि भेदेन निर्वानि एनांसि पापानि यस्य स तथा । विसर्ग लोपे सन्धिनिषेधः । तथाऽहं तव भवतः अंडी पादौ पूजयामि श्रर्चयामीति । अथोत्तरार्ध - व्याख्या - हे नमे ! एकविंशतितमजिनेन्द्रनाथ स्वामिन् ते तव दया कृपा नृपे राशि दरिद्रेऽपि समाना तुम्या वर्त्तते । तर्हि सा दया मयि विषये कथं न १ यदि सा दया मयि विषये भवति, त I 1 । पद्मप्रभा ऽचिदय मंहसा मदाऽहं तथा संसारवासान्मुक्तो भवामीत्यर्थः ॥ ४ ॥ झरं मुदे ते स्थिरपक्ष्मव लि । L अर्थ- हे विनम्रपाप स्वामि अभिनन्दन ! मैं आपके चरण पूजता हूँ, आप समृद्धिको प्राप्त हों । हे नमे - नमिनाथ ! आपकी दया - कृपा - राजा और दरिद्र दोनोंके प्रति समान रूपसे वर्तती है, फिर मेरे ऊपर वह क्यों नहीं है –( यदि वह दया मुझ पर हांवे तो मैं संसारवास से मुक्त हो जाऊँ) । प्रभो! प्रभा ते भुव दीप्यमा ना, भ जद्यमीत्वं जिन मल्लिनाथ ॥ ६ व्याख्या - हे पद्मप्रभ ! षष्ठजिनपते! ते तब प्रतिद्वयं लोचनयुगलं मुदेऽस्तु प्रमोदाय भवतु । कथं भूत ? हसां पापनां वरं भक्षणशीलं ! पुनः कथंभूतं स्थिरपचमवल्लि स्थिरा निश्चला पदमवल्ली पदमलता यस्य तत्तथा । ध्यानस्तिमितत्वान्निश्चल पचपलताकमित्यर्थः। अथोत्तरार्ध पंचम-विंशतितमजिनस्तवनम व्याख्या - हे प्रभो स्वामिन् मल्लिनाथ जिन ! ते तत्र प्रभा कान्तिर्भुवि पृथिव्यां दीप्यमाना इतस्ततो दीव्यन्ती यमीस्वं यमुनात्वमभजदशिश्रि श्री | खन्डवत्तापहरा शिव | श्री सु । खाय गीस्ते सुमते प्रजा सु म हस्तु ते सुबूतदेव ती त्र तिरस्क्रियाकृत्तमसोऽपि ता | त५ अर्थ – हे सुमते - श्री सुमति जिन ! चन्दनकी तरह तापको हरने वाली आपकी वाणी प्रजा जनों में मोक्षलक्ष्मीके सुखका प्रादुर्भाव कराने वाली है । और हे जगत्पिता श्री देव आपका तेज भी अंधकारका - पाप का - अत्यन्त तिरस्कार करने वाला हैफिर दर्शनकी बात ही क्या है ? * कोनविंशतितमजिनस्तवनम् -- Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२५ आषाढ, श्रावण, भाद्रपद वीरनि सं०२४५६] हारावली-चित्रस्तव यन् । नीलवर्णत्वाद्य पुनःप्रवाहानु कारं चकारे. भटम-सप्तदशजिन-स्तवनम्-- त्यर्थः ।।६।। चंद्रप्रभाणोहर मे घशं कुं, ____ अर्थ - हे पद्मपभ ! (ध्यानावस्थामें) पलकों द्रष्टा अस्मि हत्ते समकुम्भिकुं थं । की चंचलतासे रहित तथा पापोंकी भक्षण शीलताको लिये हुए आपके दोनों नेत्र बड़े ही आनन्ददायक हैं। प्र बालतां मुञ्चति नाप्ययं ना. और हे स्वामिन् मल्लिनाथ जिन ! पृथिवी पर कुछ .. दीप्यमान होती हुई आपकी प्रभा ( कान्ति ने यमुना भक्तः सुवर्णे त्वयि कुन्थना थ॥ क भावको धारण किया है-नीलवर्ण होनमे यमुनाके व्याख्या-हे चन्द्रप्रभ ! अष्ट जिनप्रवाहका अनुसरण किया है। सप्तमाटादशजिनयुगल तवनम् - पते ! त्वं मे मम अणोर्दुर्बलस्य अघशङ्ख पापश्री मानसपार्थो पिडिनिस्तमा . शङ्का ( शल्यं ) हर उद्धर । यतोऽस्म्यहं ते तव हवेतः समकुम्भिकुन्थु द्रष्टाऽवलोकयिता कुसु मत्सुग्वं देशनया चका र। म्भीच कुन्थश्च कुम्भिकुन्थु . समौ निर्विशेष स्थिनों पा रंगतः पातकवल्लरी प. कुम्भिकुन्थु यत्र तत्तथा । किमुक्तं भवति ? भगश्वे ग्रं जनं चारपतिः पना ता७ प समाना मंत्री, अतो मम दुर्बलस्य व्यथा ही वन तव कुम्भिनि कुजरे कुन्थौ च सूक्ष्मजीवविव्याख्या-श्रीमान तीर्थकरलक्ष्मीवान काम्पिापशल्यापहारं कुर्विति । अथोत्तरार्धव्यामपार्श्वः सप्तमो निनः निस्तमा अपि निर्माहो- ख्या-हे कुन्थनाथ ! सप्तदशजिनेश्वर ! अयं ऽपि हि निश्चयेन देशन या धर्मोपदेशदानेन अ- मलमणी ना पमान न्वयि भवति सवर्ण शोभनसुमत्सखं सर्वप्राणिसोख्यं चकार कुनवानित्य वर्णे भक्तोऽपि भक्तियक्तोऽपि प्रबालनां प्रकृष्टमर्थः । अथोत्तरार्धव्याख्या-चः समुच्चये र्खतां न मुञ्चति न त्यति । अन्यां यः सुवर्ण अरपतिररनाथी जनं लोक पनानि पवित्रयति । शोभनाक्षर मन्त्र भको भवति स मुखौं न स्यात्, कथंभूतोऽरपनिः ? पारंगतः संसारसमुद्रपारं अह पनरद्यापि ज्ञानवान भवामीति भावार्थः । ८ प्रप्तः । अपरं कथंभूतः ? पानकवल्लरीपर्श्वग्रं अर्थ - हे चंद्रप्रभ ! आपका हृदय हाथी और पातकान्येव वल्लयः पर्थोग्यं पर्श्वग्र, पातकवल्ल- कुन्थु (मूक्ष्म जीवविशंप ) दोनोंक प्रति समान हैरीणां पवयं पापलताकुठाराग्रं, इदमाविष्टालग- ममान मंत्रीभावको लिये हुए है-प्रतः आप मुक मित्यर्थः ।। ७ ॥ दुर्बलकं (व्यथाकारी) पापशल्यको दूर कीजिये। और हे अथ --श्रीमपावन निर्माह हात हा भी कुन्थु नाथ ! आप शोभनवर्णका भक्त होता हुआ भी निश्चयसे अपनी देशना-द्वारा धर्मोपदंग देकर सर्व प्रा- यह मनुष्य मूर्खताको नहीं छोड़ता है- (दूसरा जा णियोंके सुखका विधान किया है। और संसारसमुद्र- कोई शोभनाक्षर मंत्रका भक्त होता है वह मूर्ख नहीं से पारको प्राप्त हुए तथा पापलताके लिये कुठाराप्रकं होता परंतु मैं अभी तक भी ज्ञानवान नहीं हुआ हूँ, यह समान अरपति (अरनाथ) लोकको पवित्र करते हैं। भाव है)। Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . नवम-षोडशजिन स्तवनम् ५२६ अनेकान्त [वर्ष १,किरण ८, ९, १० ___ दशम-पञ्चदश जिनस्तवनम् श्री रङ्गजा ते सविधे मदा शां, श्री शीतल त्वां जितमोहयो ध, धांशुगौरी ... विशदीकरो ति। शी लाढय याचे जिनराजश में। वि श्वैकवन्द्यो सिमगाङ्क ना ना, तव स्वरूपं हृदि संदधा ना, धि नोषिकोकानपिशान्तिनाथ ह ल यं लभन्ते त्वयि धर्मना था१० व्याख्या हे श्रीशीतल ! दशमजिव्याख्या हे मुविध ! नघमजिनेन्द्र ! नपतं ! जितमोहयोध ! निर्जितमाहमल्ल ! शीते तवाङ्गजा शरीरसंभवा श्रीः कान्तिः सदाशा लाढ्य ! शीलधनेश्वर ! अह त्वां भवन्तं जिनसाधकामना अविशदामपि विशदां करोति वि राजशर्म नीथकरसौख्यं याचे मार्गयामि । अथाशदीकरोति निर्मली करोनीत्यर्थः । किंविशिष्टा परार्धव्याख्या-हे धर्मनाथ ! पञ्चदशजिनेन्द्र ! श्रीः १ सुधांशुगौरी चन्द्रघवना । अथोत्तगध जीवास्तव स्वरूपं भवतो वीतरागत्वं हृदि हृदये व्याख्या--हे शान्तिनाथ ! पोडशजिनेन्द्र ! संदधाना ध्यायन्तः त्वयि भवति यं लभन्ने मगाइ समगलाञ्छन ! त्वं विश्वैकवन्योऽसि वि __ स्थान प्रामुवन्ति इत्यर्थः ॥१०॥ श्वननैकवन्दनीयोऽसि । न केवलं विश्वकवन्यः अथे-ह मोहमालको जीतने वाले शीलधनं(किं पुनः ? ) नाना अनेक प्रकागन कोकान श्वर श्रीशीतल ! मैं आपस जिनगज सुखकी याविचक्षणानपि धिनोषि प्रीणामि । अन्यो यो चना करता हूँ। और हे धर्मनाथ ! आपके स्वरूपमगाडः स विश्वैकवन्धः, परं कोकान् चक्रवा- को-वीतगगताको-हृदयमें धारण करने वाले जीव कान न धिनोति । परं भगवान मगाङ्कोऽपि आपमें लयका प्राप्त होते हैं। विश्वकवन्यः कोकगीतिकारकश्चापीत्यर्थः ।।६।। एक दश-चतु:सजिना तवनम - __ अर्थ - हे श्रीमविधि तीर्थकर ! आपके शरीर श्रावत्मिनि श्रीहदि तावके श्रीकी चन्द्रमाके समान उज्ज्वल कान्ति सदाशाको- श्र यांस सक्ता नितरामहो | श्र। माधु कामनाका-विशद करती है। हे मगलांटन यां मे निजां देहि वदान्य दी नं, शान्तिनाथ! आप विश्वकवन्दा हैं और अनेक प्रकार समीच्य वीराग्रिम मामनं | त११ के कोकों (विचक्षणों) को भी संतुष्ट करते हैं। भावार्थदूसरा जो मृगलाँछन-चंद्रमा-है वह विश्वकवन्य व्याख्या--अहो इति संबोधने । श्रीजरूर है परन्तु कांकों (चकवों) को सन्तुष्ट नहीं करता श्रेयांस ! एकादशजिनपते ! अविष्णुः, अाइव है परंतु आप मृगलांछन होते हुए भी विश्वकवंद्य और अः, लुप्तोपमत्वाद्विष्ण पमः, तस्य सम्बोधनं अहो कोकप्रीतिकारक दोनों गुणोंको लिये हुए हैं। अ! अहो श्रेयांसविष्णो! ओदन्तनिपातत्वा Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] हारावली-चित्रस्तव दमन्धिः। तावके भवदीये हदि हृदये श्रीलक्ष्मी अर्थ - हे वासु पज्य ! श्रुतिश्रीके सुखका नितरामतिशयेन सक्ताबासक्ता वर्तते । किंवि- विनाश करती हुई-वेदमार्गकी उच्छेदिका-श्रागमिकी शिष्ट हृदि १ श्रीवत्सिनि श्रीवत्सयक्त । अथा- (आगामिसम्बंधिनी ) वाणी आपके द्वारा सिखलाई - गई है। और हे श्रीविमल ! आज मेरी आशा पूर्ण हो परार्धव्याख्या-हे अनन्त ! चतुर्दशजिनपते ! वीराग्रिम ! युद्धदानधर्मवीरशिरोमणे ! वदान्य! तल पर मस्तक रखकर-आपको नमस्कार किया है। : गई है, मैंने पृथिवीके साथ लीनशिर हो कर-पृथिवीदानशरप्रियवाक्य ! इमानि त्रीण्यामन्त्रणपदानि चतुर्विंशतिपत्रप्रतिबद्धपशबन्धन सजिना तवनम् -- मां दीनं दुःस्थं समीक्ष्य विलोक्य, पे मद्यं, नवीनपीनस्वनमानगानकिंनिजां स्वा, यां लक्ष्मी, देहि वितरेत्यर्थः ।। ११॥ नराननानध्यनवेन मानसे । अर्थ-अहो श्रीश्रेयांस विष्णु ! आपके श्री- नमानधा नम्रनरेनका नता, वत्सलांछनसे युक्त हृदय में लक्ष्मी अत्यन्त आसक्त हो कर रहती है । और हे वीराग्रिम ( वीर शिरोमणि ) नवं नवं न स्वनता न जैनपाः॥१३॥ वदान्य ( दानशूर प्रियवाक्य) श्रीअनन्त ! मुझे दीन व्याख्या-जिनो देवता येषां ते जैना दम्ब कर आप अपनी लक्ष्मी दीजिये । अर्हद्भक्ताः, नान जैनान पान्ति रक्षन्ति ये देवाद्वादश-त्रयाद जनतवनम - - म्ते जैनपा जिना इत्यर्थः । मयेत्यध्याहार्य । मया वा ग्वासपूज्यागामकी श्रुति श्रा, जैनपा जिग नवं नतनं नवं नवं स्वनना ब्रुवता सु खं कपन्ती भवता ऽभ्यसा वि । न न नताः, अपितु नता नमस्कृता एव । द्वौ नौ पूर्णा ममाशा विमलाद्य न, म, प्रकृतमथंगमयन इनि । किं विशिष्टा निनाः ? मानसे चित्तं नमानधा मान दधतीति मानधा ज्य या ममं लीनशिगे नतोऽलं१२ न भानधा मानरहिना इत्यर्थः । केन ? नवीन व्याख्या-हे वामपज्य ! द्वादशजिनपते! पीनस्वनमानगानकिन्नराननानयनवेन,कोऽर्थः? आगमिकी प्रागामिबन्धिनी वाग्वाणी भवना उच्यते-नवीनं नतनं पीनं पीवरं स्वनानांस्ववया अभ्यसावि अभिसुपूर्व । किं कुर्वती ? श्र- राणां मान प्रमाणं यत्र तानि नवीनपीनस्वनमानिश्रीसख कपन्ती वेदलपीमखं विनाशयन्ती नानि एवं विधानि गानानि येषुकिनराननेषु वंदमार्गोच्छेदिकेन्यर्थः । अथोत्तरव्याख्या- तानि नवीन पीनस्वनमानगान किन्नराननानि नाम संबोधने हे विमल ! त्रयोदशजिनपते ! अद्य तेपामनयों महार्यो योऽसौ नवः स्तवः तेन,मानं ममाशा पूर्णा मनोरथोऽपरि । अहं ज्यया प- न कुर्वन्तीत्यर्थः । अपरं किंविशिष्याः१ नम्रनरेथिव्या सपं लीनशिगे यथा भवति एवमलम- नका: नराणामिनाः स्वामिनो नरेनाः,नम्राणि त्यर्थ नतोऽस्मि तितितलनिहिनोत्तमाङ्गः यथा नमनशीलानि नरेनानां कानि मस्तकानि येषां भवति एवं प्रणतोऽस्मीत्यर्थः ॥ १२ ॥ नम्रनरेनकाः नम्रनरेश्वरमौलय इत्यर्थः १३॥ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ अर्थ – नवीन - पीन स्वरोंके प्रमाण वाले गानों को लिये हुए किन्नर मुखोंके महार्घ स्तोत्र से जो अपने मनमें मानको धारण नहीं करते और जिन्हें नरेश्वरोंके मस्तक झुकते हैं वे जिनेन्द्रदेव मुझ नया स्तोत्र बोलन वालेके द्वारा अनत नहीं हैं किन्तु नमस्कार किये गये हैं कविनामगर्भित सर्वदेवर तवनम् - । अनेकान्त इत्थं नायकपद्मरागरुचिरा सत्कण्ठभूषाकरी, येषां नाममयी सुवर्णमणिभिहरावली निर्मिता । चारित्रप्रभ-दीक्षित-स्तुतपदा दयासरुचैर्जिनाः, • श्रीशत्रञ्जयशेखरद्यतिभूतः सर्वेऽपि ते मङ्गलम् ॥ १४ ॥ व्याख्या - इत्थममुना प्रकारेण येषां नाममयैः सुवर्णमणिभिः शोभनाक्षरमणिभिः हारावली हारयष्टिः निर्मिता निर्ममे । किंविशिष्टा १ नायकपद्मरागरुचिरा नायकस्थाने तरलमलिपदे चतुर्विंशतिदलपद्मं तस्य रागेण रुचिग प्रधाना । अपरं किंविशिष्टा ? सत्कण्ठभूषाकरी सतां कण्ठाः सत्कण्ठास्तेषां भूषां शांभां करोसीति सत्कण्ठभूषाकरी श्रन्याऽपि या हरावलो भवति मा नायकपद्मरागरुचिरा सत्कण्ठभूषाकरी भवति सुवर्णपणिभिर्निमीयते । अत एषाप्येव । ते सर्वेऽपि जिना मङ्गलं देयासुः बिती र्यासुः उच्चैरतिशयेन । किविशिष्टा जिना: १ चा* दृसी तीन हारावलियों में यह चरगा इस प्रकार से दिया गया है:ते श्री सूरिपदाज्जयादितिलकस्यास्यापि मे मङ्गलम् । C [वर्ष १, किरण ८, ९, १० रित्रप्रभदीक्षितस्तुनपदाः चारित्रे चरणे प्रभा येषां ते चारित्रप्रभाश्चारित्रिणः, ते च ते दीक्षिताश्च चारित्रप्रभदीक्षिताः साधवः, तैः स्तुताः पदा येषां ते तथा । अपरं किंविशिष्टाः १ श्रीशत्रुज्ञ्जयशंखर युतिभृतः श्रीशत्रुञ्जयो त्रिपलाचलः, तस्य शेखरद्युतिं मुकुटकान्तिविभ्रति पुष्णन्तीति श्रीशत्रुञ्जयशेखरद्युतिभूतः श्रीशत्रुञ्जयमुकुटतुल्या इत्यर्थः । अथवा ते सर्व जिना अपंगलं पापं उच्चैरनिशयेन देयासुः छिन्यासुः । disease अस्य धातोः प्रयोगः । खण्डयन्त्रि त्यर्थः । किंविशिष्टममंगल ? श्रीशत्रु लक्ष्मीवैरिणं किंविशिष्टा जिना: १ जयशेखरतिभृतः जयशेखरकवे कान्ति बिभ्रति पुष्णन्तीत्यर्थः । अपरं किंविशिष्टाः १ चारित्रप्रभदीक्षितस्तुतपदाः चारित्रप्रभनामगुरोदीक्षितः शिष्यः तेन स्तुतपदा नुतहियः । इत्यर्थान्तरेण कविनाम - प्रकाश इति वृत्तार्थः ।। १४ ।। अर्थ - इस प्रकार नायक (तरलमणि) के स्थान पर चतुर्विंशति -लात्मक पद्मके रागसे रुचिर और सत्पुरुषों के कण्ठ की शोभा करने वाली यह 'हारा - वली' जिनके नाममय शोभानाक्षररूपी मणियों में रची गई है वे चारित्रवान साधुओं के द्वारा तुनपाद और शत्रुंजय के मुकुटका द्युतिको बढ़ाने वाले सब ही जिनेंद्रदेव अतिशय रूपसे मंगलको प्रदान करें, अथवा जिनके चरण चारित्र गुरु के शिष्य द्वारा स्तुति किये गये हैं और जो जयशेखर - जयतिलक— (कवि ) की द्युति को बढ़ाने वाले हैं वे सब ही जिनेंद्रदेव लक्ष्मी के शत्रु अमंगलका नाश करें । इति हारावली - चित्रस्तवः । Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राषाढ, श्रावण,भाद्रपद वीरनि०सं०२४५६] यान्त्रिक चारित्र ५२९ यान्त्रिक चारित्र [ लेखक-श्रीमान् पं० नाथुरामजी प्रेमी ] सनसमाजको इस बातका अभिमान है कि हमारा चा- यन्त्रोंकी या कलोंकी क्रियाको हम रोज़ ही देखा परित्र बहुत ऊँचे दर्जेका है-औगेंसे हमारा आचरण करते हैं। किसी यन्त्रमें चाबी भर दीजिए, जब तक बहत अच्छा है। इस बातको साधारण लोग ही नहीं, चाबीकी शक्ति भरी रहेगी, वह बराबर अपना काम किन्तु बड़े बड़े विद्वान् अपने व्याख्यानोंमें और अच्छे करता रहेगा । उसे यदि बीचमें कहें कित काम करना अच्छे लेखक अपने लेखोंमें भी प्रकाशित किया करते बन्द कर दे, या यह छोड़ कर दूसग काम करने लगहैं। यदि यह बात उस चारित्रके विषयमें कही जाती जा, या इसे इतनी तेजी मन्दीसे कर, तो वह कभी न जो कि जैनधर्मके श्राचार-शास्त्रोंमें लिखा है, तो मैं सुनेगा । क्योंकि उसमें न सुननेकी शक्ति है और न चपचाप मान लेता; परन्तु जैनियों के वर्तमान चारित्रके विचारनेकी । फोनोग्राफ यंत्र इसलिए है कि वह अपने विषयमें ऐमी बात सुन कर मुझे आश्चर्य हुआ और मालिकको अच्छे अच्छे गाने सुनाकर उसके चित्तको इस विषयकी जाँच-पड़ताल करनेकी इच्छाको मैं प्रसन्न करे; परन्तु यदि कभी कोई आदमी उसके एक न रोक सका । आश्चर्य इसलिए हुआ कि जो समाज रंकार्डमें बुरी बरी गालियाँ भर कर उसमें लगा दे, तो अज्ञानके गहरे कीचड़में फंसा हुआ है-जिसमें इधर वह उन्हींको बकने लगेगा-उसे इस बातका ज्ञान उधर हिलनेकी भी शक्ति नहीं, उसमें आचरण कैसा? नहीं कि इसे सुन कर मेरा मालिक दुखी होगा या और सो भी उत्कृष्ट ! जहाँ तक मैं जानता हूँ, जैनधर्म- सुखी । ठीक यही दशा हमारे जैनियोंकी है । उनके में ज्ञानपूर्वक चारित्रको चारित्र कहा है। अर्थात् जब जितनं आचरण हैं, प्रायः वे सब ही एक प्रकारकी तक मनुष्य को यह मालम नहीं है कि मैं यह आचरण यंत्रशक्तिसं परिचालित हो रहे हैं । अभ्यास, देखादेखी, क्या करता हूँ-अथवा मुझे क्यों करना चाहिय,इमके पुण्यपापका परम्परागत लाभ और भय आदि शक्तियों करनेस क्या लाभ है, और वह लाभ क्योंकर होता है, उन्हें चला रही हैं । उनकी काई स्वाधीनशक्ति नहींतब तक उसके आचरणको सम्पचारित्र नहीं कह विचार और विवेकमे उनका कोई सम्बन्ध नहीं। इसी सकते । तब मेरे हृदयमें प्रश्न उठा कि क्या इस प्रकार कारण व अपन अभ्यासके वश चले जा रहे हैं। का सम्यक्चारित्र जैनियों में है ? किसीक कहने सुननसे वे रुक नहीं सकते, अपनी ___ मैं इस विषयकी छानबीन करने लगा । कई वर्षों गतिमें किसी प्रकारकी तीव्रता मन्दता नहीं ला सकते, के अनुभव के बाद अब मैंने यह स्थिर किया है कि जैनियोंका चारित्र एक प्रकारका यान्त्रिक-यन्त्र-संचा उसमें कुछ परिवर्तन नहीं कर सकते और उनकी इस लित-चारित्र है। चारित्रके लिए मेरे इस नये विशेषणके चालका क्या फल होगा, इसको वे सोच नहीं सकते । सार्थप्रयोगको देखकर पाठक चौंके नहीं,मैं उन्हें इसकी _यह उक्त यन्त्रशक्ति का ही काम है, जो हम छोटेसार्थकता भी बतलाये देता हूँ। से छोटे पापोंको और बड़ेसे बड़े पापोंको एक ही Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८,९, १० आसन पर विराजमान करने लगे हैं और इसका फल घरके सैकड़ों चूहे पटापट मार डाले और बरों के छत्तेयह हुआ है कि हममें वास्तविक पापोंकी घणा स्वभाव- में आग लगा कर लाखों जीवोंकी हत्या कर डाली; से ही कम हो गई है और उसके अनुसार हमारे लो. परंतु उसे जातिनं जरा भी दण्ड नहीं दिया । इसके काचारने तथा जातीय नियमोंन भी एक अद्भुत रूप कुछ ही दिन पीछे एक दिन उसीका लड़का एक बिल्लीधारण कर लिया है । बन्देलखंडके यदि किमी पग्वार के माथ खेल रहा था । बिल्ली भागी और उसका लजैनीका भलमे एक चिड़ियाकं अण्डे पर पैर पड़ जाय का पीछे हा लिया। दैवयोगस वह बिल्ली भागते समय तो उसे जातिसे च्युत होना पड़ेगा; परन्तु यदि वही एक कुऍमें गिर कर मर गई । बस, इससे उमको पुरुष एक मनुष्य का वन कर डाले और किसी तरह 'हत्या' लगाई गई और पंचायतने तब तक चैन न ली, राज्यदण्डसे बच जावे, तो उसका कुछ न होगा ! एक जब तक कि उसका मुंह मीठा न हो गया और हत्यारे सेतवाल यदि किसी हूमड़ जैनके यहाँ भांजन कर (!!) की नाको दम न आ गई। एक अग्रवाल मंआता है, तो उस जाति दण्ड देती है; परन्तु यदि दू- दिगे अथवा दूमग संस्थाओंके लाखों रुपये हज़म सरा संतवाल सैकड़ों बड़े बड़े दुराचार करता है, तो करके भी जातिका मुखिया कहलाता है; परंतु दूम। भी जाति कानोंमें तेल डाले बैठी रहती है । हमार अग्रवाल किसी धार्मिक संस्था या मंदिरकी नौकरी कर खण्डेलवाल भाइयोंमें ऐसे बीसों कुँवार परुष हैं, जिनके लनस निर्माल्यभक्षी कहलाता है ! दक्षिण के बहुनम विषयमें जातिको अच्छी तरह मालम है कि अमुक जैनी मालगुजार अभी कुछ ही वर्ष पहले तक दशहरे अमुक विधवायें इनके यहाँ रहती हैं, इनकी साई पर पशुवध कगनमें भी अपनका पापी नहीं ममझते थे; बनाती हैं और इनकी स्त्री-सम्बन्धी सारी जरूरताको परंतु दुमरी जातिका पानी पीनमें भी उनका धर्म चला मिटाती हैं, तो भी कोई च नहीं करता; परंतु यदि जाता है ! जैनियोंकी प्रत्येक जातिमें ऐसे एक नहीं, कोई देशभक्त खण्डेलवाल मंठ जमनालाल जी बजाज़- अनेक उदाहरण मिलते हैं। इसका क्या कारण है ? के उस कुएँका पानी ब्राह्मणसे भी भरवा कर पी लेता यही कि न तो लोगोंम वास्तिक पण्य-पापोंके समझनेहै, जो अम्पश्यों के लिए मुक्त कर दिया गया हो, तो की शक्ति है और न छोटे तथा बड़े पापोंको एक ही उसकी शामत आ जाती है । उसकी इस हरकतम तराज़ पर एक ही बटखरेम तौलते रहने के कारण खंडेलवाल महासभा तकका सिंहासन काँपने लगता उनके हृदयमें उनके प्रति घृणा ही रह गई है । जो कुछ है । गोलालारं भाइयों को यह बरदाश्त नहीं कि उनकी करते हैं, सब पूर्वके अभ्यासवश किये जा रहे हैं। खगैत्रा शाखाका पुरुप किसी मिठौपा शाखाकी मैं यह नहीं कहता कि छोटे पापोंका कुछ विचार लड़कीसे शादी कर ले । वे तत्काल ही उस जातिस न होना चाहिए। नहीं, मैं तो चाहता हूँ और मैं ही बाहर करनेको तैयार हैं; परन्तु और सब बड़े बड़े क्यों प्रत्येक जैनधर्म के उपासककी यह भावना रहती है पापोंके विषय में उनके कानों पर जॅ भी नहीं रेंगती। कि सभी लोग सब प्रकारके पापोंसे दूर रहते हुए श्रामैंने एक परवार जैनीको देखा है कि उसने आटेमें दर्श गृहस्थके रूपमें अपनी संसारयात्रा चलाते रहें; विष मिला कर और उसे जगह जगह रख कर अपने परन्तु इस बातको तो कोई भी पसन्द न करेगा कि Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३१ आषाढ, श्रावण, भाद्रपद वीरनि०सं०२४५६] यान्त्रिक चारित्र हिसाब करते समय तो कौड़ी और पाई तकके लिए व्यवहार देखा जाय, तो उसमें आपको बड़े बड़े पर्वमाथापञ्ची की जावे और रुपयोंकी रक़में परीकी परी ताकार पापों के सिवाय ऐसे छोटे छोटे पाप तो नजर हड़प कर ली जायँ ! वास्तवमें देखा जाय, तो इस ही नहीं आयेंगे। उस समय ये कहेंगे-भाई साहब, कौड़ी-पाईकी माथापच्चीके कारण ही बड़ी बड़ी रकमों क्या किया जाय ? लेन देन, व्यापार, मुकद्दमें मामले, की ओर किसीकी दृष्टि नहीं जाती है । अँगरेज़ीमें एक गवाही साखी, आदि कामोंमें झठ बोले बिना इस कहावत है, जिसका अभिप्राय यह है कि "कौड़ीकी- पंचमकालमें गुजर कहाँ ? रेलवे कम्पनियोंके साथ, और अधिक दृष्टि रखनेसे रुपयोंकी आरम ला-परवाह चुंगीवाल के साथ और माप-तोल आदिमें कुछ-न-कुछ होना पड़ता है।" हमारे उपर्युक्त आचरणोंके विपयमें चोरी करनी ही पड़ती है । इत्यादि कहने योग्य बातें यह कहावत अच्छी तरहसे चरितार्थ होती है। तो त्यागी भाई स्वयं कह देंगे, शेप बातें आप उनके जैनियोंमें त्याग-मर्यादाका भी बड़ा जोरशोर है। पास दश दिन रह कर और अड़ोसी-पड़ोसियोंसे जिससे पूछिए वही कहता है कि मैं पृथिवीकी दश दरयाफ्त करके जान लेंगे। हिंसाके विषयमें आपको लाख वनस्पतियों ( हरियों) मेंस केवल १०-२०- यह मालम होगा कि मनुष्य जाति पर इनके हृदयमें २५ या पचास खाता हूँ, आलू बैंगनका कभी स्पर्श दयाका लश नहीं-सैकड़ोंको दानं दाने के लिए कर भी नहीं करता, बारहों महीना या चौमास में रातका दिया है, रुपयोंके लोभसे अपनी सुकुमार लड़कियों को जल नहीं पीता, रातको पान-सुपारी तकका भी मुझे यमकं यजमानांके गले बाँधकर उनके जीवन के सुग्वको त्याग है, कन्दोंमेंस और तो क्या मैं सम्वी हल्दी और सदाकं लिए छीन लिया है और उन्हें पापमय जीवन मोठ भी नहीं खाता हूँ, अष्टमी चतुर्दशीको भोजन बिताने के लिए लाचार किया है । गर्भपात और भ्रगाहनहीं करता, जैनीके सिवा किसी दूमरंके हाथका पानी त्यायें तक कर डाली हैं; मूक घोड़ा, बैल आदि जानभी नहीं पीता, घरका दूध घी खाना हूँ, इत्यादि इत्या- वगेको मरतं मरत तक जाता है, उनकी घायल पीठों दि । यह सुनकर यदि कोई विदेशी पुरुप हो,तो आश्चर्य और कन्धों पर जग भी रहम नहीं किया है, अपने नहीं कि जैनजातिको एक तपस्वि-सम्प्रदाय ममझ बैठे; घरकी स्त्रियों को ज और ग्वटमलों के मंहारका प्रायः ठेका परन्तु उपर्युक्त बातोंके त्यागियोंके अमली चारित्रकी दंबग्वा है, और व्यभिचारका ना कुछ ठिकाना ही नहीं। यदि जाँच की जाय,तो सारी ढोलकी पोल खुल जाय। जिसके घरमें जितना अधिक धन है, उसके यहाँ प्रायः ये लोग मन्दिर में और शास्त्रसभाओं में बैठ कर तो तना ही अधिक व्यभि बार है । बच्चास ले कर बुढा जैनशास्त्रोंके बतलाये हुए अतिक्रम-व्यनिक्रमादि छोटेम तकके सिगं पर इसका महरा बंधा हा मिलेगा। भी छोटे पापोंके विषयमें बाल की खाल निकालेंगे और बाप यह ना चाहता है कि मरी १४ वर्षकी विधवा किसीनं यदि कह दिया कि हरी वनस्पतिको पका कर बेटी ब्रह्मचर्यस रहे, परंतु आप स्वयं पचासके पार हो खाने में सातवीं प्रतिमा तकके धारण करनेवाले श्रावक- जाने पर भी पाप-पंकसे पार नहीं होना चाहता, और को दोष नहीं है, तो उसके सिर हो जायेंगे और उसे जवान बेटों तथा बहुओंके होने पर भी दुलहा बननके नरक-निगोदमें भेजे बिना न रहेंगे; परन्तु यदि इनका लिए तैयार रहता है। तृष्णाके विषयमें तो कुछ पूछिए Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८,९, १० ही नहीं । लोग कौड़ी. कौड़ीके लिए मरने-मारनेको भीतर जानेकी आज्ञा नहीं मिल सकती । घीमें कुछ तैयार रहते हैं और सारी दुनियाकी दौलत हमारे ही ऐमी विलक्षण शक्ति है कि उसमें अवगाहन हो जानघरमें आ जाय, इसी भावनामें दत्तचित्त रहते हैं । इसी से प्रत्येक भोज्य वस्तुको दूर दूर तक सफर करनेकी तरह माया, छल, कपट, ईर्षा, द्वेष, चापलूसी, म्वार्थप- म्वाधीनता मिल जाती है। पंजाबी और दिल्ली आगररता आदि दोषोंके आप इन्हें भण्डार पायेंगें । इन्होंने की तरफ़के लाला लोग तो उसे जते पहने हुए भी ग्वा जो छोटे छोटे पापोंका त्याग कर रक्खा है, सो इस- सकते हैं। पक्की रसोईको दूसरी जातियोंके साथ बैठ लिए नहीं कि इन्हें पापोंसे घृणा है। नहीं, एकतो इन- कर और बाजारसे खरीद कर खानेका भी कहीं कहीं की बाड़में बड़े बड़े पाप ढके रहते हैं और दूसरे उक्त रिवाज है; परन्तु कच्ची रसोईका इस तरह दुर्व्यवहार चीजोंके छोड़नका इनके यहाँ परम्पगसे रिवाज चला करनेम धर्म एक घड़ी भर भी खड़ा नहीं रह सकता। पा रहा है । अर्थात् पहलेकी भरी हुई चाबी अपना इस धर्मके तत्व बहुत ही गढ़ हैं । उनका समझना काम कर रही है, इसके सिवा इसका और कोई का- बहुत ही कठिन है । इस विषयमें एक जदा लेख ही रण नहीं। लिखा जा सकता है । यहाँ इतना ही कह देना काफी ___ हमारे जैनी भाई 'चुल्लिकाधर्म' ( चल्हा-धर्म ) के है कि इम धर्ममें जो जितनी बारीकी रखता है जो भी बड़े उपासक हैं और इस भी वे अपने उच्चाचरण- जितना मग्न रहता है, वह उतना ही बड़ा धर्मात्मा का सार्टिफिकंट समझते हैं । मैं यह तो नहीं कह समझा जाता है। उसके धर्मको देखकर ही उसके उच्चसकता कि इस धर्मसं उनकी आत्मायें कितनी उन्नत नीचाचरणकी जाँच करली जाती है-दूसरे चरित्रोंको हुई हैं; परन्तु यह अवश्य कहूँगा कि यह उनकी गिरी दवनकी जरूरत नहीं । दिनमें दो चार बार नहाना, हुई आत्माओं को ढके रहने के लिए उनका अंतःस्वरूप हाथ पैर धोनमें दो चार सेर मिट्टी खर्च करना, अपने बाहर प्रकट न हो जाय, इसकी सावधानी रखनके हाथस पानी भग्ना, बर्तन मलना, रमाई बनाना, गेहूँलिए-बड़ा काम देताहै और इससे वकचर्या या बगला- का धलवाकर फिर उसका आटा काममें लाना, जलानेवृत्तिकी बहुत ही वृद्धि हुई है । यह 'चुल्लिका-धम' जुदा की लकड़ियों तकको धुलवाना, गीली धोती पहिनना, जुदा देशों और जदा जुदा जातियोंमें जदा-जुदा प्रकार- बायें हाथको चौकेमे बाहर रखना, मिट्टीके बर्तनोको का है और उसी पुरानी मशोनस चल रहा है। चौका रसाईके काम में नहीं लाना, बिना न्हाये या गीला क. इसका मुख्य निवासस्थान है । इसकी रक्षा करनेके पड़ा पहिने पानी के घड़े न छुना, कुँवारी कन्याके हाथलिए चौके के चारों ओर एक कोट किग रहता है। का भोजन नहीं करना, किसीके स्पर्शसे बचे रहना, काट भले ही चाकमिट्टी या कोयलेकी लकीरमात्र ही आदि सब बातें इसी धर्मके अंतर्गत हैं । श्रावकोंके हो, तो भी उसके भीतर पैर रखनका हर एकको सा- सिवा त्यागियोंमें भी इसके बड़े बड़े उपासक हैं। एक हस नहीं हो सकता । पक्की रसोईमें यद्यपि इसका द्वार दो त्यागियोंने तो इसमें बड़ा नाम कमाया था । एक अबाधित रहता है; परन्तु कच्ची रसोई में तो यह बहुत त्यागी अपने हाथसे चक्की पीसते थे । एक बाबाजी ही दुर्गम हो जाता है । सर्वाग पवित्र हुए विना उसके जिस भैसका दूध दही खाते थे, उसे प्रासुक जलसे Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३३ आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] यान्त्रिक चारित्र नहलाते थे, सूखा घास खिलाते थे, छना पानी पिलाते इसी शुभ प्रसंग पर पूर्ण होते हैं-बिछुड़े हुए मिलते थे, दुहने वालेके नाखूनोंको पत्थर पर रगड़वाकर लाल हैं और विधवायें अपने पुराने पापोंसे मुक्त होती लाल करा डालते थे, और न जाने क्या क्या अलौ- हैं। कुछ वर्ष पहले एक श्रीमती सेठानीने, जो कि विकिक शुद्धतायें कराते थे । उनकी भक्ति भी निःसीम धवा थीं, यहाँ के एक कुएको अपना तत्कालका पैदा होती थी; पर सुनते हैं, वे पढ़े लिखे कुछ भी न थे। हुआ बच्चा समर्पण करके असीम पुण्यसम्पादन किया इस समयके बहुतसे मुनि महागज भी इसके था। उनके हृदयमें जो यह चाबी भरी हुई है कि एक अनयायी और प्रचारक हैं। शूद्रके हाथके जलका त्याग बार तीर्थके दर्शन करनेसे नरक और पशुगति नहीं कराना तो उनका सबसे मुख्य काम है। होती है, वह उन्हें बगबर तीर्थयात्रा करा रही है; परंतु __ जैनसमाजके पुण्य कार्यों में भी इसी प्रकारकी रस जड़ चाबीमें यह शक्ति नहीं कि उन्हें उक्त बड़े बड़े विषमता देखी जाती है। सम्मेदशिखर, गिरनारजी आदि पापोंके करनेमे रोके, अथवा यह समझा देवे कि यदि तीर्थों की वन्दना करने में पुण्य बतलाया है । प्रति वर्ष तुम अपने भावोंको और चरित्रको उज्ज्वल नहीं रख हजारों जैनी लाखों रुपया खर्च करके तीर्थयात्रा कर सकते हो, तो घर ही बैठे रहो -इतना खर्च और मेहहैं; परन्तु इनमें ऐसे लोग सौ-पचास भी कठिनाईम नत उठाने की क्या आवश्यकता है? मिलेंगे जो यह जानते होंगे कि तीर्थों के दर्शन करने में हमारे बहुतसे पाठकोंन वे मशीनें देखी होंगी, जो पुण्य क्यों होता है और निवासस्थानके जिनमंदिगेंमें कितने ही बड़े बड़े स्टेशनों पर रक्खी गई हैं और दर्शन करनेकी अपेक्षा इसमें क्या विशेषता है । अधि- जिनमें एकनी डालते ही प्लेटफार्म टिकट बाहर निकल काँश लोग उन्हीं भेड़ांका अनकरण करनेवाले मिलेंगे, आना है । एकनी डालने वाला कोई हो, कैसा ही हो जो एक भेड़को पड़ती देख कर सबकी सब कुए में गिर और उमका कुछ भी मतलब हो-इन बातोंकी मशीपड़ती हैं । बम्बईमें गिरनारजी के यात्री अकसर आया नको परवाह नहीं। यहाँ अन्नी डाली कि वहाँ टिकट करते हैं । उनमें यदि कुछ परिचित लोग मिल जाते है, तैयार है । जैनियोंमें जो दान होता है और जिसके कातो कभी कभी मुझे उन्हें रेल आदिमें बिठानके लिए रण लोग उन्हें सबसे अधिक दानशील कहते हैं, वह जाना पड़ता है । में बरावर देखता हूँ कि रेलवे कंपनी- भी इमी ढंगम होता है । दृष्टान्तको ठीक ठीक घटानेकी चोरी करनेमें तो उन्हें कुछ पाप ही नहीं मालूम के लिए आप टिकट दनको दान करना समझ लीजिहोता । आधे टिकट के बच्चों को छुपा कर मुफ्तमें ले ये और एकन्नीको वह 'मान' समझ लीजिए, जो उस जाना, नियमसे अधिक वजनको वैसे ही या रिशवत दानके बदले में लोग उन्हें देते हैं। मशीनों में इतनी विदकर साथ ले जाना, थोड़ी दूरका टिकट लेकर लम्बा शेपता है कि ए कन्नी पाये बिना वे टिकट नहीं निकासफर करना और उतरनेके स्टेशनसे पहले फिर टिकट लतीं, पर हमारे दानी भाई आगेकी उम्मेद पर भी दान ले लेना, इत्यादि कामोंमें तो वे खूब अभ्यस्त होते हैं। करते हैं और इसमें कभी कभी बेचारोंको पछताना भी इन यात्रियोंके दूसरे दुराचारोंके विषयमें तो कुछ न पड़ता है। हमारी समझमें उन्हें इस गलतीको सुधार कहना ही अच्छा है। उनके वर्षों के मनोरथ और वादे लेना चाहिए और पहले मानकी पुष्टि करके पीछे दान Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८, ९, १० करनेकी आदत डालनी चाहिए। जातिके जैनियोंकी भी यही दशा है । कोई मन्दिर ___ हमको विश्वास है कि थोड़ेसे अपवादोंको छोड़ बनवाता है, कोई प्रतिष्ठा करवाता है, कोई रथ बनवाता कर जैनियोंमें जितना दान होता है, वह सब मानके है, कोई तीर्थों पर पहली दश धर्मशालाओंके रहने पर भी एक और नई धर्मशाला बनवाता है, कोई मंडों लिए ही होता है। यदि इनमें इतनी विवेक बुद्धि होती, मसंडोंको लड्ड खिलाता है, कोई बड़ी बड़ी ज्योनारें यदि ये इतना विचार सकते कि वास्तविक मान किस करता है, कोई पिताके श्राद्धमें ब्राह्मणोंको रुपया या कहते हैं और वह कौन कौन कामोंके करनेस मिलता मोहरोंका दान करता है, और कोई रायसाहबी गयहै, तो उनके इस मानपूर्वक दानसे भी समाजकी कोई बहादुरी पानंके लिए सर्कारी अफसरोंके हाथोंमें भी हानि न थी । वे वास्तविक पुण्य बन्धस अवश्य ही वं. दानका र दानकी रकम दे देनमें कुंठित नहीं होता। इस ममय जैनधर्म और जैनममाजकी उन्नति चित रहते, पर समाजका तो उनके दानसे उपकार ही करने के लिये जो संस्थायें खल रही हैं और जिन म. होता । परन्तु दुर्भाग्यसे वे 'मान' की परिभाषासे भी कड़ों संस्थाओंके खालनकी जरूरत है, यद्यपि उनमें अपरिचित हैं और इसलिए गतानुगतिकतास, अभ्या- द्रव्य देनस रथप्रतिष्ठादि कार्यों से भी अधिक मान ससे और देखा देखीसे वे जिसे मान समझते हैं, उसी- मिलता है-भारतके एक छोरसे लेकर दूसरे छोर तक की आशासे बगबर चाहे जिस काममें मपया खर्च उसका नाम हो जाता है; पर ये पुरानी मशीनें तो अ । पने ग्राम-नगर या उसके आसपासके लोगोंके अथवा किया करते हैं । इसका फल यह होना है कि प्रति वर्ष ___ अपनं चापलसोके दिये हुए मानका ही मान समझती लाखों रुपया खर्च होने पर भी जैनसमाज या जैनधर्म- हैं। वह देशव्यापी मान जिन कानांसे सुन पड़ता है, को कुछ भी लाभ नहीं पहुँचता है । इन मशीनोंका व कान ता इन्हें विधातानं दियं ही नहीं । इन मशीनोइससे कुछ मतलब नहीं कि हमारे दिये हुए टिकटका के यदि कान होतं, तो श्राज जैनसमाजका आश्चर्यजक्या उपयोग होगा और जिन्हें हम देते हैं, व वास्तव में नक कायापलट हो जाता। उसके लेनके पात्र हैं या नहीं। ___ जैनधर्म और जैनसमाजकी वर्तमान अवस्था बड़ी ही शोचनीय है । उसे देखकर सहृदय पुरुषोंक हृदय____एक परवार या गोलापूरव धनिक इस बात के वि- पर बडी चोट लगती है। भगवान महावीर जैसे ज्ञानचारने की जरूरत नहीं समझना कि जहाँ में रहता हूँ, सूर्योके उपासक और महात्मा सिद्धसेन, समन्तभद्र वहाँ नये मन्दिरकी आवश्यकता है या नहीं; पगने जैसे विद्वानों के अनुयायी आज घोर अन्धकारमें डूब मंदिगेंकी पजा और मरम्मतका इन्तज़ाम है या नहीं हुए हैं । धर्म-कर्मका ज्ञान तो बहुत बड़ी बात है, सौमें बस्तीमें दस बीस लड़के ऐसे भी हैं या नहीं जा पढ़ना ९० तो अक्षरशत्रु बने हुए हैं; जो पढ़त लिखते हैं, ___ उनकी अच्छी शिक्षाका प्रबन्ध नहीं; जो उच्च शिक्षा लिखना जानते हों, या धर्मका रहस्य समझत हों; प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें कोई सहायता देने वाला बस्तीके गरीब भाइयोंकी क्या दशा है और कमसे कम नहीं, विदेशी विद्याओंके पढ़नेमें पाप समझा जाता है। मेरे कुटम्बी सुखी हैं या नहीं। वह यह सोचता है कि सियोकी दुर्दशाका तो कुछ ठिकाना ही नहीं; मूर्खतामेरी प्रतिष्ठा कैसे बढ़े, मुझे लोग बड़ा कैसे समझे पूर्ण लोकरूढियोंन और सैकड़ों कुरीतियोंने उन्हें जर्जर और एकाध पण्डितजीकी सम्मति लेकर मन्दिर बन- कर दिया हैउनका नैतिक चरित्र अधोदशाको पहुँच वान और रथ चलाकर सिंघई, सवाई सिंबई, सेठ या चुका है। बल, साहस,अध्यवसायका उनमें नाम नहीं; श्रीमंत सेठ बननेके लिए तय्यार हो जाता है । दूसरी उनके धर्मग्रंथ भंडारोमें पड़े पड़े सड़ रहे हैं, पुरानी . Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३५ प्राषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] यान्त्रिक चारित्र कीतियाँ लुप्त हो रही हैं, दया उनमें रही नहीं, स्वार्थ- गिड़ाने पर भी उसे एक गरीब बनिएके गले मढ़ दिया त्याग करना वे जानते नहीं और एकता उनसे कोसों और दो चार सौ रुपया देकर उसे कहीं अन्यत्र भेज दर है । जैनसमाजके उक्त दानी या प्रभावनांगके प्रेमी दिया । यह कहनेकी तो आवश्यकता ही नहीं है कि महाशय यदि इन बातोंको सोच सकते-उनके हृदय काकीके जाते ही वर्तमान काननकी कृपासे आप उस हाता, वे सचमुच ही दान करना चाहते, तो अवश्य ही की कई हजारकी सम्पत्तिके अधिकारी बन गये और उनका धन उच्च श्रेणीके विद्यालयों,हाईस्कूलों, कालेजों, 'सिंघईजी' तो इसके पहले ही बन गये थे ! दुःख है पुस्तकालयों,पुरातत्त्वमंदिरों,विज्ञानशालाओं,पुस्तकप्रचा- कि बेचारे सिंघईजी विगत वर्ष अभिनव मुनिसंघके रकसंस्थाओं, छात्रवृत्तियों, उपदेशकभंडागें,औषधालयों दर्शन करने के लिए सम्मेदशिखर गये और वहीं बीमार और औद्योगिक शालाओं, जैसी उपयोगी संस्थाओंके होकर घर लौटते लौटते पंचत्त्वको प्राप्त हो गये । ये ग्वालनमें लगता। परन्तु जड़ मशीनोंमें हृदय हो तब न? हैं, हमारे समाजके रथप्रतिष्ठाकारोंके चरित्र ! मैंने कई रथप्रतिष्ठा करानेवाले ऐसे देखे हैं जिन्होंने प्यारे भाइया, इस तरह मैंने निश्चय किया है कि अपने जीवनमें अपने किसी जैनी भाईको अथवा जैनियोंका वर्तमान आचरण केवल एक यान्त्रिक दूसरे किसी अनाथको एक पैसेकी सहायता नहीं दी, चारित्र है-जड़ मशीनों-जैसा आचरण है-और अपने दुखी कुटम्बियों को भी जिन्होंने रोजगारसे लगा वास्तविक चारित्रसे वह कोसों दूर है । यह ठीक है देने तककी उदारता न दिखलाई, और तो क्या जिन्होंने कि बहुतसे सजन इसके अपवादस्वरूप भी होंगेकभी अपने खान पहरने और आराममें भी खर्च न उनमें वास्तविक चारित्र पालने वाले भी होंगे; परन्तु किया, परन्तु सिंघई बननेके लिए थैलियोंके मुँह खो- मैंने यहाँ जो कुछ कहा है, वह सब बहुत्व की अपेक्षा लनेमें जरा भी देर न लगाई । मैं पूछता हूँ कि क्या से कहा है। मैं समझता हूँ कि बहुतोंको मेरे ये विचार यही उच्च श्रेणीका आचरण है, और इमीको धर्मबुद्धि कड़वे मालूम होंगे; परंतु इसके लिए मैं उनसं क्षमा कहते हैं ? माँगता हूँ और प्रार्थना करता हूँ कि वे इस शोचनीय ___कोई १६-१७वर्ष पहलेकी बात है, एक बूढ़े धनि- अधःपतनसं अपने भाइयोंको ऊपर उठावें और उनके कनं इधर तो एक दश वर्षकी लड़कीके साथ विवाह वास्तविक चर्चा त्रको उन्नत करें। पहले उन्हें चारित्रका किया और उधर लगे हाथों इस पापस मुक्त होनेके अभिप्राय समझाया जाना चाहिए और फिर उन्हें लिए रथप्रतिष्ठा करा डाली! परन्तु उधर ज्योंही लोगों- उनकी शक्ति और परिस्थितियों के अनुकूल क्रमागत ने अापको सिंघईजी बनाया, त्यो ही :धर यमका पर- चरित्र पालन करने में अग्रसर करना चाहिए।जबतक वाना आ पहुँवा । बेचारी बालिका विधवा हो गई। उनका हृदय विशाल न होगा, उसमें ज्ञान और विश्वमिंघई जीके कुटुम्बी इतने दयाल निकले कि उन्होंने व्यापी प्रेमका दीपक प्रकाशित न होगा,स्वाधीनतापुर्वउसकी परवरिश करने की भी आवश्यकता नहीं समझी क भला बग समझनकी शक्ति न होगी, क्षमा-दया-मैत्री और विधवाके पिताको उन पर नालिश करनी पड़ी। श्रादि कामल भावोंका उत्थान न होगा, तब तक कहने एक और परवार धनिकन रथप्रतिष्ठा कराई और के लिए धर्मात्मा, पंडितजी, भाईजी, त्यागी, संयमी उसमें लगभग दस हजार रुपये खर्च किये । उसी आदि भले ही बन जावें,परन्तु मनष्य न बनसकेंगे। * ममय मालम हाकि आपकी विधवा काकीको जो ना यवती थी पाँच महीनका गर्भ है और वह आपकी ही कृपाका प्रसाद है ! बहुतसे यत्न किये गये, परंतु गर्भ- * कुछ वर्ष पहले लिम्व हुए लेखकी सशोधित, परिवर्तित पात न हो सका। आखिर आपने काकीकी इच्छा न और परिवर्द्धित नई प्रावृत्ति, जो 'अनेकान्त'के लिये तय्यार की गई । रहते हुए भी, उसके हजार गेने चिल्लाने और गिड़. Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८, ५, १० योगमार्ग [लेखक-श्रीयुत बा० हेमचन्दजी मोदी] नैनधर्ममें योगविद्याका बड़ा माहात्म्य है, आत्माका योगीश्वराजिनान्सर्वान् ,योगनिर्धत कम्मषान । " सारा उत्कर्ष-साधन और विकास योगको साम- योगैस्विभिरहं वन्दे योगस्कन्धप्रतिष्ठितान् ।। र्य पर अवलम्बित है, योगबलस ही केवल ज्ञानकी -दशभक्ति। प्राप्ति होती है और """" . इस युगकी आदियोगबलसे ही अनादि: इस लेखके लेखक समाज के सुप्रसिद्ध साहित्य: में, जैनधर्मानुसार, या: सेवी विद्वान् पं० नाथूरामजी प्रेमीके सुपुत्र बाब हेम-: कर्म मलको आत्मासे चंदजी मोदी हैं। आप कई भाषाएँ जानते हैं और एक गविद्याक आदि प्रचादूर करके उसे परम अच्छे होनहार उत्साही नवयुवक हैं । कुछ वर्षसे श्राप : रक और प्रतिष्ठापक निर्मल, शुद्ध तथा मुक्त योगाभ्यास कर रहे हैं और इस विषयका कितना ही : (आदियोगाचार्य) श्रीकिया जा सकता है। जैन-अजैन साहित्य देख गये हैं । उसीके फलस्वरूप : आदिनाथ भगवान हए आपने यह योगमाग-शीषक एक विस्तृत लेख 'अन-: हैं, जिन्हें 'ऋषभ' या फिर साधारण रिद्धि कान्त' को भेजनकी कृपा की है, जिसकी मात्र भूमिका सिद्धियों की तो काई इस समय पाठकोंके सामने उपस्थित है । लेखका शेष : 'वृषभदेव भी कहते है बात ही नहीं है, वे तो भाग क्रमशः पाठकोंके सामने आएगा । लेख अच्छा सहज ही में प्राप्त हो : उपयोगी और पढ़न तथा मनन करने योग्य है । इमस : ध्वजाके कारण 'वृषजाती हैं। जिन्हें भी इस : पाठकों को कितनी ही नई नई बातें मालूम होंगी । योग- : ध्वज' भी कहलाते हैं। का विषय गहस्थी और मुनि सबके लिये समान उप- : बीटाचार्य लाकमें कभी कोई खाम: : योगी है । ममाजमें इसकी चर्चा चलानको खास जरूरिद्धि-सिद्धियोंकी प्राप्ति : रत है । अतः दूसरे विद्वानोंको भी इसमें यथाशक्ति अपने ज्ञानार्णव' नामक हुई है वह सब योग- : हाथ बटाना चाहिये । योगशास्त्र के शुरू में, मार्गका अवलम्बन ले -सम्पादक : 'योगिकल्पतरु'रूपस कर ही हुई है। इसीस ..... आपका स्मरण किया हैजैन शास्त्रों में यागियोंकी महिमाका बहुत कुछ कीर्तन भवनाम्भोजमार्तण्ड धर्मामतपयोधरम् । पाया जाता है,योगिभक्ति के संस्कृत प्राकृतमें कई पृथक् योगिकल्पनरु नौमि देवदेवं वृषध्वजम् ।। पाठ भी मिलते हैं। यागियोंमें प्रधान श्रीजिनेंद्रदेव-जैनतीर्थकर-हुए हैं,और इसलिये योगीरूपसे उनका कीर्तन इन्हीं आदिनाथकी कायोत्सर्गरूपसे उत्कृष्ट योगासबसे अधिक पाया जाता है । एक नमूना इस प्रकार है:- रूढअवस्थाका वर्णन करते हुए श्रीपयनन्दि आचार्य हाङ्कित Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषाढ, श्रावण, भाद्रपद वीरनि०सं०२४५६ ] अपने ग्रन्थ की श्रादिमें लिखते हैं:कायोत्सर्गायांगो जयतिजिन पतिर्नाभिसनुर्महात्मा, मध्यान्हे यस्य भास्वापरिपरिगतो गजते स्मग्रमूर्तिः । चक्रं कर्मेन्धना मनिहतो दूरमौदास्यवात - स्फुत्सदृध्यान बन्हे विरुचिरतरः मोद्गतो विस्फुलिंगः ॥ १ ॥ योगमार्ग ५३७ कि स्वामी समन्तभद्रके निम्न वाक्योंसे भी प्रकट है - स्वदोषमूलं स्वसमाधितेजसा, निनाय यो निर्दयभस्मसात् क्रियाम् । जगाद तत्वं जगतेऽर्थिनेऽञ्जसा, बभूव च ब्रह्मपदामृतेश्वरः ॥ ४ ॥ विश्वचवृषभोऽर्चितः सतां, समग्रविद्यात्मपपुर्निरंजनः । पुनातु चेो मम नाभिनन्दनो, जिनोऽजित क्षुल्लकवा दिशासनः || ५ || -स्वयम्भू स्तोत्र | श्री आदिनाथ भगवान्ने युगकी आदिमें जिस योगविद्याका आविष्कार और प्रकाश किया था उसका उपदेश सभीनं उस समय अपने अपने मतिविभवानुरूप ग्रहण किया था और वह उपदेश फिर उनके वंशजोंको उत्तराधिकार में मिलता रहा । इस तरह योगकी परिपाटी चली और उसका उपदेश अनेक वंशपरम्परा में श्राश्रयभेदसे कुछ विकृतावि कृत अवस्थाको धारण किये हुए सुरक्षित रहा । बाद को जब अनेक मत-मतान्तर तथा सम्प्रदायभेद खड़े हुए तब भी योग आदिगुरु आदियोगाचार्य के रूपश्रीश्रदिनाथ ही माने जाते रहे हैं और आज भी वे माने जाते हैं। यही वजह है जो योग-विषयक जैन ग्रंथों में भी आदिनाथ की स्तुति पाई जाती है, उन्हें आदियोगीश्वर माना जाता है और योग के कितने ही विषयोंका उनके नाम के साथ स्पष्ट उल्लेख तक किया जाता है। प्रसिद्ध योगशास्त्र 'हठयोगप्रदीपिका' में सबसे पहले मंगलाचरण के तौर पर आदिनाथ की स्तुति की गई है जो इस प्रकार है: श्रीश्रदिनाथाय नमोऽस्तु तस्मै, येनोपदिष्टा हठयोगविद्या । - पद्मनंन्दिपंचविंशतिका । अर्थात् कायांत्सर्गरूपसे योगारूढ वे श्रीनाभिराजा के पुत्र महात्मा आदिनाथ जिनेन्द्र जयवन्त हों, जिनके ऊपर मध्यान्ह के समय ग्रीष्मकालका अत्यंत मायमान प्रचण्ड सर्य ऐसी शोभाको धारण करता था मानो वह कोई सूर्य नहीं किन्तु वैराग्यरूपी पवनसे दहकती हुई और कर्मेन्धन समूहकी भम्मसात् करती हुई भगवान् की शुक्लध्यान रूपी योगाग्निसे निकला हुआ एक देदीप्यमान स्फुलिंगा है, जो कि उड़ कर आकाश में गया है । इसी योगाग्नि से श्री आदिनाथने अपने राग, द्वेष, और अज्ञानादि दोषोंके मूल कारण घातिकर्मचतुथ्र्यको भस्मीभूत किया था और आप पुर्णज्ञानी, विश्वचक्षु, सत्पुरुषोंसे पूजित तथा निरंजन होते हुए परम ब्रह्मपदको प्राप्त हुए थे। साथ ही, आपने जग aist यथार्थ तत्वों का उपदेश दिया था - उन्हें जीवादिकों की स्थितिका, उनकी विकृति अविकृतिका और योगादिविद्याओं का सारा रहस्य समझाया था; जैसा 'ऋषभः स्यादादिजिने' | 'वृषभः स्यादादिजिने' | - इति हेमचंद्रः । Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८, ९, .. विभ्राजते प्रोन्ननराज योग- हुई है और उसका प्रवाह एक ओर अन्यान्य जैन मारोदमिच्छोरधिरोहिणीव ॥ १॥ तीर्थंकरोंका समाश्रय प्राप्त करताहुआ प्रधानतःजैनियांअर्थात्-श्री आदिनाथको नमस्कार हा, जिन्होंने की ओर बहा है तो दूसरी ओर हिन्दू ऋषियो नथा उस हठयोग विद्याका सर्व प्रथम उपदेश दिया जो कि बौद्धादि भिक्षुओंका आश्रय लेता हुआ वह अजैन बहुत ऊँचे राजयोग पर आरोहण करने के लिये नसैनी जनतामें प्रसारको प्राप्त हुआ है और इस तरह उम (सीढी) के समान है। ___एक योगधारा की उत्तरोत्तर कितनी ही शाखा-प्रनिइस योगशास्त्रमें बहुतसं सिद्ध यागियोंक नाम देते शाखाएँ होती चली गई हैं। नदीजल की तरह योगहुए जिनमें एक नाम पज्यपादका भी है। 'श्रीआदि- की इन शाखा-प्रनिशाखाओंमें आश्रयादि भेदम बुद्ध नाथ' यह नाम सबसे पहले दिया है (श्लो. ५) और कुछ विभिन्नता होते हुए भी मुख्य योगजल प्राय एक विषयका वर्णन करतं हुए एक जगह 'मुद्रादशक' को ही प्रकार का-रहा है। इसीसे हिन्दुओके वही, आदिनाथ द्वारा उपदशित बतलाया है और दूसरी ब्राह्मणग्रन्थों तथा उपनिषदोंमें और बौद्धके ग्रन्थोंजगह लिखा है कि आदिनाथन लययांगके सवा करोड में भी योग-विषयक जो कथन पाया जाता है वह बहन भेद वर्णन किये हैं जिनमें से हम नादानसन्धानको कुछ उस कथनके साथ मिलता जलता है जो कि जैन ही मुख्यतम मानते हैं । यथाः ग्रंथों में उपलब्ध होता है। आदिनाथादितं दिव्यमष्टैश्वर्य प्रदायकम् ।। ___ योगका सबसे प्रधान ग्रन्थ पातंजलि ऋपिका वन्लभं सर्वसिद्धानां दुर्लभं मरुतामपि .. ३.. 'योगदर्शन' समना जाना है। यह दर्शन जैनदर्शन श्रीआदिनाथन सपादकांटि अथवा जैनधर्मके माथ जितनी अधिक समानता रखता लय प्रकागः कथिता जयन्ति । है उतनी दूसरा कोई भी और दर्शन नहीं रखता । इस नादानसंधानकमे कपेव ममाननाके कारण पढ़ने वाला कभी कभी योगदर्शन को एक जैनप्रन्थ मम कने लगता है। दोनों दर्शनोंमें मन्यामहे मुख्यतमं लयानाम् । ४-६६ कितने ही विषयों तथा प्रक्रियाकी समानताके अतिरिक्त इस प्रकार अन्यत्र भी श्रादिनाथका कीर्तन और शब्दोका बहुत कुछ मादृश्य पाया जाता है । मूल योग उनके योगका उल्लेग्व पाया जाता है और इसमें यह सूत्रमें ही नहीं किन्तु उमके भाष्य तकमें ऐसे अनेक प्रतीत होता है कि योगविद्याका मूल स्रोत एक है। शब्द मिलते हैं जो अन्य दर्शनोंमें प्रचलित नहीं, या यह योग-गंगा आदिनाथरूपी हिमाचलसे प्रवाहित बहुत ही कम प्रचलित हैं, परंतु जेन ग्रन्थोंके लिये वे * दिगम्बर जैन समाजमें पूज्यपाद नागके एक बन बड़े योगी बहन ही साधारण हैं और उनमें खास तौरसे प्रसिद्ध का है, श्रवगाबेल्गालके शिलालेखों आदिमें मापका उल्लेख है। है। जैसे भवप्रत्यय, सवितर्क सविचार निर्विचार, एक शिलालेख (नं० १०८) में आपको औषध ऋद्धिका धारक लिखा है, और यह भी प्रकट किया है कि आपके पादप्रक्षालित महाव्रत, कृत-कारित-अनुमोदित, प्रकाशावरण, सोपजलसे लोहा भी सोना हो जाता था । मभव है यह ना यो ख उन्हीं क्रम निरुपक्रम, वसंहनन, केवली, कुशल, ज्ञानावपूज्यपादका । रणीय कर्म, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सर्वज्ञ,क्षीणक्लश, Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] योगमार्ग ५३९ चरम देह, इत्यादि। दोनों दर्शनोंकी इस समानताका वर्षाभ्योऽन्यत्र वर्षाप माश्चि चतुगेवसेन।। -१४ विशेष परिचय पाने के लिये विद्वद्वर पं० सुखलालजी- द्विरात्रं न वसेद् ग्रामे भिक्षुर्यदि वसेत्तदा । द्वारा संपादित 'योगदर्शन तथा योगविंशिका' और रागादयः प्रसज्येरंस्तेनासौ नारकी भवेत् ।। १५ उनकी 'तत्त्वार्थसूत्र-टीका' देखने योग्य है * । इस ग्रामान्ते निर्जने देशे नियतात्माऽनिकेतनः । समानताके कारण ही जैनाचार्योंने टीका आदिके द्वारा पर्यटेत सदा योगी वोक्षयन्वसुधातलं ।। १६ ।। योगदर्शनके प्रति अपना आदरभाव प्रकट किया है न रात्री न च मध्यान्हे मध्ययो व पर्यटन् । और हरिभद्र जैस प्रकाण्ड पंडित आचार्योंने तो योग परमहंसाश्रमस्थो हि स्नानादेर विधानतः ।। दर्शनके वाक्योंको उद्धृत करते हुए पतंजलि ऋषिका अशेषचित्तवत्तीनां त्यागं वलमाचरेत् ॥ १.५ । म्मरण निर्धतकल्मष, अध्यात्मविद् और पहागनि अभयं सर्वभतेभ्यो दत्वा चरति यो मुनिः । जैसे बहुमान-सूचक शब्दोंद्वारा किया है; क्योंकि वे न तम्य सर्वभतेभ्यों भयमुत्पद्यते कचित् ।।५-१६ पतंजलि ऋषिका, उनकी दृष्टिविशालता और प्रायः पाणिपात्रश्चन्योगी नामकृ तमाचरेत् ॥" । सर्व दर्शनोंका समन्वय योगमें करते हुए योगविद्या नारदपरिव्राजकोपनिषद् । का एक अच्छा संगह प्रस्तुत करनेके कारण, एक “ तदेतद्विज्ञाय ब्राह्मण: पात्रं कमण्डलुं विशिष्ट योगानुभवी तथा आत्मानुभवी विद्वान समझत कटिस कोपीनं च तत्मर्वमस विमज्याथ जातथे और उनमें जैनत्वका बहुत कुछ विकास मानते थे। रूपधरश्चरेदात्मानमन्विच्छेद्यथाजातरूपधरो ___ अजैन शास्त्रों में जहाँ कहीं श्रीऋषभदेव-आदि- निद्रा निष्पग्ग्रिहस्तत्वब्रह्ममार्गे सम्यकसंपन्नः नाथका वर्णन आया है वहाँ उनको परमहंस-मागेका शद्धमानमः प्राणसंधारणार्थ यथोक्तकाल पचप्रवर्तक बतलाया है, और यह परमहंममाग उत्कृष्ट गहेप करपात्रेणायाचिताहारमाहरन् लाभालाभ योगमार्ग है, इमीस 'नागदपरिव्राजकोपनिषद्' में समो भूत्वा निर्ममः शुक्लध्यानपगयणोऽध्यात्म दो 'यांगो परमह मारख्यः माक्षान्माक्षकमाधनम् । निष्ठः शुभाशुभकर्मनिर्मूलनपरः परमहंसः पूर्णाइस वाक्यके द्वारा परमहंम योगीको माक्षात माक्षका नन्देकरांधस्तद्ब्रह्मोऽहमस्मीति ब्रह्मप्रणवमनस्मएक मात्र माधन बतलाया है । उनिपदाम परमहस रन भ्रपरकीटकन्यायेन शरीरत्रयमुत्मज्य देहयोगीकी चर्याका जो वर्णन है उसका कुछ नमूना इस त्यागं करोति म कृतकृत्या भवतीत्युपनिषद् ।" प्रकार है : -परमहंसोपनिषद् । "तरीयः परमो हंसः साक्षान्नागयणो यतिः । अर्थात-'चौथा परमहंस यति साक्षात् नारायण एकगत्रं वसेग्रामे नगरे पंचरात्रकम् । होता है । वह प्राममें एक रात बसे और नगरमें पाँच ... गत तक, तथा वर्षा ऋतुमें अन्यत्र चार महीने निवास ___*पं. सुखलालजीका एक विस्तृत लेख अनेकान्तकी गत किरण (E, ७ ) में प्रकाशित हुआ है और दूसरा इसी संयुक्त करे । प्राममें दो रात्रि नहीं रहना चाहिये । यदि भिक्ष किरणमें अन्यत्र प्रकाशित है। इन दोनों में भी योगदर्शन-विषयक प्राममें दो रात रहता है तो उसके रागादिक दोष उत्पन्न बहुत कुछ सादृश्यका उल्लेख है। -सम्पादक होते हैं, जिसमें वह नारकी हाना है । संयतात्मा योगी Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त ५४० मामके बाहर निर्जन प्रदेश में बिना घरके ठहरें और पृथिवीतलको देखता हुआ बिहार करे । परंतु रात्रिको मध्यान्हके समय तथा दोनों संध्याकालों में ( सुबह शाम के वक्त ) विहार नहीं करे । परमहंसाश्रमी योगीके लिये चूँकि स्नानादिकका विधान नहीं है इसलिये वह केवल अपनी सम्पूर्ण चित्तवृत्तियों का त्याग करे जो मुनि सब जीवों को अभयदान देता हुआ विचरता है उसे किसी भी जीवसे कहीं भय उत्पन्न नहीं होता । करपात्र में आहार करने वाला यह ( परमहंस ) योगी एक बारसे अधिक भिक्षाभोजन नहीं करे | । , 'ऐसा जान कर ब्राह्मण ( ब्रह्मज्ञानी ) पात्र, कमडलु, कटिसूत्र और लंगोटी इन सब चीजों को पानी में विसर्जन कर जन्मसमयके वेषको धारण करश्रर्थात् बिलकुल नग्न होकर – विचरण करे और आत्मान्वेषण करे । जो यथाजात रूपधारी (नग्न दिगं बर), निर्द्वद, निष्परिग्रह, तत्त्वब्रह्ममार्ग में भले प्रकार सम्पन्न, शुद्धहृदय, प्राणधारण के निमित्त यथोक्त समय पर अधिक से अधिक पाँच घरोमें विहार कर करपात्र में याचितः भोजन लेनेवाला तथा लाभालाभमें समचित्त होकर निर्ममत्व रहने वाला, शुक्ल ध्यानपरायण, अध्यात्मनिष्ठ, शुभाशुभ कर्मों के निर्मूलन कर नेमें तत्पर परमहंस योगी, पूर्णानन्दका अद्वितीय श्र नूव करने वाला वह ब्रह्म मैं हूँ ऐसे ब्रह्म णवका स्मरण करता हुआ, भ्रमरकीटकन्याय से (कीटकां भ्रमरीं ध्यायन् भ्रपरत्वाय कल्पते' - कीड़ा भ्रम * भोजन 'प्रयाचित' प्रादि रूपसे होना चाहिये, यह बात 'पितामह' के निम्न वाक्यसे भी पाई जाती है: - [वर्ष १, किरण ८, ९, १० रीका ध्यान करता हुआ स्वयं भ्रमर बन जाता है, इस नीति से ) तीनों शरीरोंको छोड़ कर देहत्याग करता है वह कृतकृत्य होता है, ऐसा उपनिषदों में कहा है ।' उपनिषदोंका यह सब वर्णन दिगम्बर जैन मुनियों अथवा जिनकल्पी साधुओं की चर्यासे बहुत कुछ मिल ता जुलता है - इसमें नग्न रहना, स्नानादिक न करना पृथिवीतलको शोध कर चलना, रात्रि आदिके समय विहार न करना, करपात्रमें एक बार प्रारणसंघारणार्थ अयाचित भोजन करना, शुभाशुभ कर्मोंका निर्मूलन करना और शुध्यानपरायण होना आदि कितनी ही बातें तो दिगम्बर जैन मुनियों की खास चर्यायें है । और इससे यह मालूम होता है कि भगवान् आदिनाथने जिम परमहंस मार्गका प्रवर्तन किया था अथवा जिस उत्कृष्ट योगमार्गका उपदेश दिया था उस दूसरोंने भी अपनाया है और उसकी कितनी ही छाया पुरातन अजैन ग्रंथोंमें अभी तक भी पाई जाती है, अथवा यों कहिये कि भगवान आदिनाथकी कितनी ही योगविद्या जेन प्रथोमें सुरक्षित है । 'याचितमसंक्लृप्तमुपपन्नं यदृच्छया । जोषयेत सदा भोज्यं प्रासमागतमस्पृहः ॥ यतिधर्ममहः । हाँ, एकबात यहाँ और बतला देनेकी है, और वह यह कि पुराणों में आदिनाथको महादेव जीका ( शिवशंभुका अवतार माना है और इसलिये योगशास्त्रों में जहाँ 'आदिनाथ' नाम आता है वहाँ टीकाओं में उसका अर्थ 'महादेव' ( शिव-शंभु ) किया जाता है X, परन्तु यह पीछकी कल्पना जान पड़ती है; क्योंकि अमरकोषादि किसी भी कोष में महादेवका नाम 'आदिनाथ' नहीं मिलता और ऊपरके संपूर्ण x यथा: आदिनाथः शिवः । सर्वेषां नाथानां प्रथमो नाथः । ततो नाथ सम्प्रदायः प्रवृत्त इति ना सम्प्रदायिनो वदन्ति । - हठयोगप्रदीपिका टीका । Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगमार्ग श्राषाढ, श्रावण, भाद्रपद वीरनि०सं०२४५६ ] कथनसे यह स्पष्ट जाना जाता है कि युगकी आदिमें जैनियोंके आदि तीर्थकर ( श्रादिजिन) श्री आदिनाथ - ऋषभदेव - द्वारा योगविद्या का आविष्कार तथा प्रचार हुआ है और वे ही परमहंस मार्ग के आदिप्रवर्तक थे, जिसमें अन्य वातों के अतिरिक्त, शुक्लध्यानपरायणः यह परमहंसका विशेषरण जैनधर्मकी एक स्नास चीज़ है— जैन के सिवाय और किसी भी योगप्रन्थ में 'शुक्लध्यान' का प्रतिपादन नहीं मिलता, पतंजलि ऋषिने भी ध्यान के शुलध्यान आदि भेद नहीं बतलाये - और इसलिये योग प्रन्थों में आदियोगाचार्य के रूपमें जिन श्रादिनाथका उल्लेख मिलता है वे जैनियोंक आदितीर्थंकर श्री आदिनाथ से भिन्न और कोई नहीं जान पड़ते । श्री आदिनाथ के द्वारा प्रतिपादित यांगकी अंतिम पुनरावृत्ति जैनियो के अंतिम तीर्थकर भगवान् महावीर के द्वारा हुई – उनकी दिव्यध्वनिद्वारा वह अपने पूर्ण रूपमें फिरसे प्रकाशित हुआ और पर्वश्रुतरूपसे उनके आगममें निबद्ध हुआ । भगवान् महावीर जिनकी देशना की बाबत कहा गया है कि वह आदिनाथकी देशना के साथ सबसे अधिक साम्य रखती हैयोगकी साक्षात् मूर्त्ति थे, न्होने बारह वर्ष तपश्चरण कर असाधारण सिद्धिकी प्राप्ति की थी, वे इस युगके असाधारण योगिरा ही नहीं किन्तु एक त्रिकालदर्शी विश्वचक्षु और केवलज्ञानी महात्मा थे; और इसलिये उनके द्वारा योगविद्या फिरसे अपने असली रूप में उदयको प्राप्त हुई थी, और उनके योगागमने लोक में खास ख्याति प्राप्त की थी, इसीसे श्री सिद्धसेन जैसे महान् श्राचार्योंने आपके योगागम के विषय में लिखा है कि, उसके सामने बड़े बड़े देवता और इन्द्रादिक मुग्धशक्ति हो जाते हैं और सुरलोकमें जन्म लेनेका अपना अभिमान छोड़ देते हैं: ५४१ शताध्वगया लवसप्तमोत्तमाः सुरर्षभा दृष्टपरापरास्त्वया (१) । त्वदीय-योगागम-मुग्धशक्तय स्त्यजन्ति मानं सुरलोकजन्मजम् ||३१|| - प्रथमा द्वात्रिंशिका | आपके इस योगागमसे, जिसमें श्रीश्रादिनाथकी वह सारी योगविद्या - योगप्ररूपणा - शामिल है, परमहंसकी उक्त चर्या जैसी बहुत सी अच्छी अच्छी बातें दूसरे सम्प्रदायों में पहुँची हैं और वे फिर उनके ग्रन्थो में निबद्ध हुई हैं । जान पड़ता है इसीसे श्रीसि द्धसनाचार्यने निम्न वाक्यके द्वारा, जिसे कलंक देवने भी अपने 'राजवार्तिक' में उद्धृत किया है, मुनिश्चित रूपसे यह प्रकट किया है कि 'अन्यमतके शास्त्रोंकी योजनाओं में जो कुछ सदुक्तियाँ - अच्छी अच्छी बातें - पाई जाती हैं वे सब आपके पूर्व महार्णव से ( १४ पूर्वरूपी महासमुद्र से ) उछली हुई आपके ही वचनों की बूँदें हैं ' : सुनिश्चितं नः परतन्त्र युक्ति पु, स्फुरन्ति याः काश्चन सूक्तसम्पदः । वैताः पूर्वमहार्णवोत्थिता - जगत्प्रमाणं जिन वाक्यविशेषः ||३०|| - प्रथमा द्वात्रिंशिका | इस तरह जैनधर्ममें जिस यांगका इतना माहात्म्य है - जिम यांगपर जैनोंका सारा अभ्युदय निर्भर है, जो योग विद्या जैनियोंके श्रादितीर्थंकर श्री आदिनाथ के द्वारा इस युगकी श्रादिमें अवतरित हुई तथा दूसरे तीर्थकरोंके द्वारा प्रचार में आई और जिसे दूसरे धर्मों अथवा धर्मसमाजोंने भी अपनाया, उसकी जैनसमाजमें आज प्रायः कुछ भी चर्चा नहीं है, यह देख कर Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ अनेकान्त [वर्ष १,किरण ८, ९,१० निःसन्देह, बड़ा ही खेद होता है ! जैनी अपनी इस सब त्रुटियाँ बहुत कुछ दूर हो सकती हैं, योगमाहित्य'उपेक्षा तथा प्रमादसे योगके असीम साहित्यको खो की टूटी हुई कड़ियाँ भी जुड़ सकती हैं और जो कडिचुके हैं !! उनके वे 'पर्वमहार्णव' और इन्द्रादिकोंके याँ अपने यहाँ उपलब्ध न हों उनका परस्पराविगंधगर्वको चूर चूर करने वाले 'योगागम' आज विद्यमान मार्गस, विकृतावस्थामें भी प्राप्त होने वाले अन्य माहिनहीं हैं ! ! ! फिर भी योग-विषयक जो कुछ साहित्य त्यपरस, पनः निर्माण किया जा सकता है। अन्य मा अवशिष्ट है वह भी कुछ कम नहीं है। परन्तु वह सब हित्यमें, जैसा कि ऊपर बतलाया गया है, योगविषयक इधर उधर बिखग हुआ है-कोई बात किसी ग्रंथमें बहुतसा मूल कथन इधरसे ही गया हुआ है, और है तो कोई किसीमें, उसका कोई एक सुव्यवस्थित इसलिये प्रयत्न करने पर उसकी संगति भले प्रकार रूप नहीं है ; कितनी ही कड़ियाँ उसकी बीच में ट्टी मिलाई जा सकती है । वास्तवमें देखा जाय तो शुद्ध हुई जान पड़ती हैं, उसमें अधिकतर गजयांगका दर्शन यांगमें कहीं भी कुछ भेद नहीं है । शायद इसीसे जैहाता है; परन्तु गजयांग रूपी अनि उत्तुंग महल पर नाचार्य श्रीहरिभद्रसृग्निं कहा हैचढ़नके लिये नीचे की सीढ़ियाँ खंडित प्रतीत होती ह- मोक्षहेतुर्यतो योगो भिद्यते न ततः कचित । कितनी ही बी वकी सीढियोंका तो दर्शन तक भी नहीं साध्याभेदात्तथाभावे तक्तिभेदो न कारणम || होता । इसीस इम सुन्दर महल पर चढ़नकी इच्छा -योगविन्दु । होते हुए भी, चढ़नकी आम तौर पर कोई प्रेरणा नहीं अर्थात्- 'योग चकि मोक्षका हंतु है इसलिये होती; जो लोग चढ़ते हैं वे आगे जाकर भटक जात साध्याभेदके कारण-साध्यका अभेद हात हुएहैं और गजयोगका ढौंग करने लगते हैं । यही वजह उसमें कहीं भी कुछ भेद नहीं है । महज उक्तियों का है जो आज जैनसमाजमें बहुतमे मुनियों के मौजूद होत भेद उस भेदभावके लिय कोई कारण नहीं हो सकता हुए भी कोई अच्छा योगी अथवा योगविद्याका अच्छा -उससे कोई वास्तविक भेद नहीं बनता। जानकार नहीं मिलता-प्रायः योगका ढोंग करने उक्तिभेदमें भेद भी शामिल है। जैनधर्मकी वाले ही दग्वे जान है । और यह स्थिति देश तथा म- दृष्टि अनेकान्तमय, वस्तुतत्त्वको सब ओग्मे दग्वन माजके लिये अच्छी नहीं है । साथ ही, यह ग़लत- वाली एवं उदार तथा विशाल होनस उसका योग भी फहमी भी फैली हुई है कि योगका अनुष्ठान एक मात्र तद्रप अनेकान्तदष्टिको लिये हुए है । जब कि दूसर मुनि ही कर सकते हैं, दूमर नहीं-उन्हीं के लिये धर्मोकी दृष्टि प्रायः एकान्तमय, वस्तुतत्त्वका एक ओरइसका उपदेश है, गृहस्थांके लिये नहीं । परन्तु ऐमा से देखने वाली एवं संकुचित तथा अनुदार होनम नहीं है । योगका प्रारंभ गृहस्थाश्रमस भी पहलस हाना उनके योगप्ररूपण में भी प्रायः एकान्तता पाई जाती है और उसका बहुतमा भाग गृहस्थोंके लिये बहुत ही है। परन्तु यह दृष्टिभेद एक अनकान्तवादी अथवा उपयोगी है। म्याद्वादीका सम्पर्क पाते ही सहज ही दूर हो जाता यदि योगविषयक साग जैनसाहित्य खोज करके है। ऐसी हालतमें योगविषयका जो अविरुद्ध कथन है उसका एक अच्छा संकलन नय्यार किया जाय तो ये उसको अन्यत्रमे ग्रहण करनेमें कुछ भी आपत्ति नहीं Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] योगमार्ग ५४३ है। बल्कि वैसा करना परम कर्तव्य है । परन्तु योग- का उन पर सहसा कोई आक्रमण नहीं होता, उनकी साहित्यका यह सब संकलन तभी हो सकता है जब आँखोंकी ज्योति तथा अन्य इन्द्रियों की शक्ति अबाकि जैनसमाजमें इसके कुछ रसिक पैदा हों और उन- धित बनी रहती है, जठराग्नि प्रदोन रहती है, कब्जकी के द्वारा योगसाहित्यका पूरा शोधन- अन्वेषण-हो शिकायत होने नहीं पाती, हकीम-डाक्टगे अथवा दवाकर उसमेंसे योग विद्याका अच्छा दोहन किया जाय। इयोंके पीछे उन्हें भटकना नहीं पड़ता; उनका शरीर ऐसे रसिकोंको उत्पन्न करने अथवा जैनियोंमें योग- हलका, तेजस्वी, कान्तिमान, सुडौल, काम करनेमें विषयक जिज्ञासा पैदा करनेके लिये ही, सम्पादक समर्थ गठीला और फर्तीला बना रहता है और मनमें 'अनकान्त'की प्रेरणा पर, आज 'अनकान्त' द्वाग, इम सदा उत्साह, माहस, धैर्य और प्रसन्नताका निवास योगचर्चाका प्रारंभ किया जाता है। पिछले कुछ वर्षों- रहता है । वे वृद्ध होने पर भी युवा बन रहते हैं । यदि में योगमार्गके जानने वाले योगि-विद्वानोंकी सेवा कर गृहस्थजन शुझमे ही अपने बच्चोंको योगके मार्ग पर और योगविपयक जैन-अजैन ग्रंथांका अध्ययन कर डालें तो वे उनके जीवन को बहुत कुछ मार्थक, सफल मैंने जो कुछ ज्ञान सम्पादन किया है और खुद यांगका तथा मानन्द बना सकते हैं और संसार से वैद्यों, हकीमों अभ्यास कर जो थोड़ा-बहुत अनुभव प्राप्त किया है, तथा डाक्टरांकी आवश्यकताको एक दम कम कर उसीके आधार पर मेरा यह सब प्रयत्न है। और यह सकते हैं । समाजके गौरवरूप ऐम सद् गृहस्थोंमेंस प्रयत्न जहाँ तक हो सकेगा सरल शब्दामें ही किया फिर यदि कोई मुनि बनें तो वे मुनिधर्मका ठीक पालन जायगा और उसके द्वारा सरल योगमार्ग ही पाठकों- कर सकते हैं और सच्चे मुनि बनकर अपना तथा जगत के सामने रक्खा जायगा। का हित माधन कर सकते हैं । साथ ही, जैनशासनका ___ हाँ, अपने इस अनुभव तथा अध्ययन के आधार- समारमें अच्छा उद्यात कर मकते हैं । अस्तु । पर में सबसे पहले इतना जरूर कहूँगा कि जो लोग इस प्राथमिक निवेदन के बाद अब मैं प्रकृत विषयगृहस्थावस्थासं पहले और गृहस्थावस्थामें भी ठीक यांगा- को लेता हूँ। (क्रमशः) भ्याम करते हैं उनके शरीर मदा नीगंग रहते हैं,गेगों 'शान्ति' का नोट 'शान्ति' नामकी जो कविता पृ० ५०४ पर मुद्रित हुई है उसके विषयका एक नोट छपनसे रह गया है, वह इस प्रकार है : __"यह कविता एक अजैन बन्धकी लिखी हुई है, और इसलिये इसमें जिन दा घटनाओंका उल्लेख है वे हिन्दू पुराणोंसे सम्बंध रखती हैं। श्रीगणभद्राचार्य-विरचिन जैनमहापुराण के अनुसार राजा मगरके पुत्र किमी मुनिकी दृष्टिस भस्म नहीं हुए थे, बल्कि एक देवन कर सर्पका रूप धारण कर उन्हें मूर्छित करके भस्म गशिम्पमें परिणत किया था—'कुमागन् भम्मगशि वा व्यधात् करोरगाकृतिः'-, जो बादको मायाभस्मके दूर होने पर सचेत हो गये थे । परंतु जैनपुराणों में दीपायन आदि ऐसे अनेकों शान्त मुनियोंके उदाहरण मौजद हैं जिन्हें यदि क्रोध आया है तो फिर नगरके नगर भस्म हो गये हैं, और इमलिये 'मुनि-नयन-पावककी एक चिनगारीसे भस्म होना' कोई अनोखी बात नहीं है।" -सम्पादक Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८,९, १० योगीन्द्रदेवका एक और अपभ्रंश ग्रन्थ [लेखक-श्री० ए० एन० उपाध्यायजी, एम. ए.] उत्तर-भारतीय भाषाओंके अभ्यासी अप्रभ्रंश तुलना करने पर एक मनुष्य सहज हीमें यह मालूम प्रन्थोंके अध्ययनकी उपेक्षा नहीं कर सकते, कर सकता है कि ग्रन्थकार महाशय कैसे उन्हीं शब्दो जो कि हिन्दी और : 4 अथवा पदोको दोनों हम लेखक लेखक उपाध्यायजी सदलगा जि०: ग्रंथोंमें दुहरानके अगुजरानीकी भाषा-वि- : बेलगामके रहने वाले एक बड़े ही सज्जन तथा विनम्र षयक पर्वावस्थाओंक: प्रकृतिके जैन विद्वान् हैं। इस वर्ष आपने जैनसाहित्यमें : भ्यासको लिये हुए थे, अध्ययनके लिये बहुत : एम. ए. पास किया है। शायद दिगम्बर जैनसमाजमें : कभी कभी तो ऐसी आप ही प्रथम व्यक्ति हैं जिन्होंने जैनसाहित्यमें एम.ए. : पनरुक्तियाँ उसी एक उपयोगी साधन-साम * किया है। आजकल आप कोल्हापुरके कालिजमें श्रध-: ग्रन्थमें भी पाई जाती प्रीको लिये हुए हैं। मागधी भाषाके प्रोफेसर एवं लैक्चरार नियत हैं । : जाती हैं । योगीन्द्रदेवजैनसाहित्यके अ- : आप संस्कृत, प्राकृत, कनडी, मराठो तथा अंग्रेजीके भ्यासी श्रीयोगींद्रदेव : अच्छे विद्वान हैं और हिन्दी आदि और भी कई भा-: की लेखनी-लंग्वन पाएँ जानते हैं । ऐतिहासिक खोज अथवा रिसर्चके : पद्धति-का यह रूप के नामसे अच्छी तरह : आप खास प्रेमी हैं -दिन रात उसीमें लगे रहते हैं- ब्रह्मदेव के नोटिसमें से परिचित हैं । वे : और इसलिये आपके द्वारा इस दिशामें बहुत कुछ : भी आनसे बच नहीं परमात्मप्रकाश' के, : काम हानकी आशा है । 'अनकान्त' के पाठकोंका अब : सका, जो कि परमाआपके लेख भी मिला करेंगे । आप कुछ दिन समन्त-: जो कि भट्टप्रभाकरको भद्राश्रममें भी रह गये हैं, तभीसे आपके साथ विशेष त्मप्रकाश पर टीका सम्बोधन करके लिखा । परिचय चलता है । आप अपभ्रंश भाषाके ग्रंथाका : लिखत हुए यह नोट दगया है,और यागसार: संस्कृत छायाकं साथ पढ़नके विरोधी हैं, इसीसं जान-: त है:-अत्रभावनाके कर्ता हैं। ये दोनों : बझकर आपने योगीन्द्रदेवके दाहोंकी छाया नहीं दी। : ग्रंथे समाधिशतका आपका कहना है कि छायाकी इस पद्धतिने हमारे बगहरे आध्यात्मिक म दिवत् पुनरुक्तदृषहुतस शास्त्रियोंका नाश किया है, जो बिना छायाके : हत्वके ग्रंथ है और अ- : कोई भी प्राकृत ग्रंथ पढ़ नहीं सकते, उनकी यह स्थिति : णं नास्ति इनि । पभ्रंशमें लिखे गये हैं : बड़ी ही दयनीय है। अस्तु; दोहे बहुत कुछ सुगम हैं, तदपि कस्मादिनिजो कि प्राकृतभाषाका : पुरानी हिन्दीमें समझिये, थोडासा बुद्धि पर जोर देन-: चेत् अर्थ पुनः पुनः से पाठक उनका अर्थ सहज हीम मालम कर सकेंगे। : शिन्तनलमणमिति एक उपभेद है। इन -सम्पादक दोनों प्रन्थोंकी गाढ़ वचनादिति मत्वा' --- इत्यादि । और क्या ? खुद श्रीयोगीन्द्रदेव भी पुनरु१ यह रायचन्द्र ग्रन्थमालामें प्रकाशित हुभा है। २ यह माणिकचन्द्र ग्रन्थमालामें प्रकाशित हुआ है, जिल्द २१॥ ३ परमात्मप्रकाश पृ. ३४८ .. ... ... .... .... .... . .... ... . Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथ हैं: आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] योगीन्द्रदेवका एक और अपभ्रंश ग्रंथ क्लियोसे अनभिज्ञ नहीं है जब कि वे कहते हैं :- " इति श्रीयोगीन्द्रदेव विरचित दोहापाहुडं इत्थ न लिव्व पंडियहि, गणदोसु वि पुणरुत्तु । नाम ग्रंथं समाप्त।" भट्टपभायरकारणई, मइ पुण पुणु वि पउत्तु ॥३४२ इस ग्रंथमें कुल २२० दोहे हैं। मौजदा गुटिकाकी कुछ समय हुआ दैवयोगसे मुझे देवनागरी लिपि- करुण कथा यह है कि उसके बहुतसे अक्षर तथा पंमें एक हस्तलिखित गटिकाकी प्राप्ति हुई, जिसमें निम्न क्तियाँ रगड़ खा गई हैं और खास कर उन अंशोंका स्पष्टीकरण होना बहुत ही कठिन हो गया है जो कि ___ भक्तामर स्तोत्र; श्रीदेवनन्दिकृत लघु स्वयंभस्तोत्र; लाल रोशनाईस लिखे हुए हैं । इससे इस पूरे ग्रंथ भावना बत्तिसी ( अमितिगति-द्वात्रिंशतिका); बलिभ- (दोहापाहुड ) की कापी करनेके मेरे प्रयत्न असफल द्रस्वामी रउवी (?) (हिन्दी); अतभक्ति; तत्त्वार्थसत्र हुआ है और मैं एक अच्छी हस्तलिखित प्रतिकी तला(मूलमात्र ); मार्गणा स्थानकी गणनात्मक-सचियाँ; शमे हूँ। लेखक 'अनेकान्त' के उन कृपाल पाठकोंका गाम्मटसारसे कुछ चने हुए नोट; श्रीयोगीन्द्रदेवविर- बहुत अाभारी होगा जो उस इम बातकी सूचना देंगे चित दाहाग्रहुड ( मूलमात्र ); परमात्मप्रकाश ( मूल- कि क्या यह ग्रंथ किसी दूसरी जगह मौजूद है। मात्र); पडिकम्मामि इत्यादि; शान्तिभक्ति; सामायिक; इस प्रन्थके विषय समाधिपरक प्रकृतिको लिये दशभक्ति मेंस कुछ भक्तियाँ; देवसनका आगधनासार हुए है जहाँ कि ग्रंथकार देह और जीवमें, पौद्गलिक (मूल मात्र); आशाधरविरचित जिनसहस्रनाम। सामग्री और चैतन्य-विशिष्ट-श्रात्मामें भेद करता है ___ जहाँ तक मैं जाँच सका हूँ,यह हस्तलख (गटिका) और अन्तमें आत्माके सारभूत स्वाभाविक गुणों पर दा सौ वर्षसे अधिक पुराना है। यह काली और लाल निश्चयनयकी दृष्टि से विचार करना है।। गेशनाईसे लिखा हुआ है। इधर उधरकी थोडीसी बड़े कष्टम मैंने कोई सत्तर पद्योंकी कापी की हैलिपिकर्ताकी अशुद्धियों को छोड़ कर यह अच्छा शद्ध जिनमेंसे भी कुछ ग्वण्डिताङ्ग हैं। इस प्रन्थमें बहुतसी है । मैंने ‘परमात्मप्रकाश' और 'आराधनासार' ( मा० पक्तियाँ तथा वाक्य ऐसे हैं जो कि इन्हीं ग्रन्थकारके ग्रंथमाला ) के मुद्रित संस्करणोंको जो इस गटिकास दूमर दा ग्रन्था परमात्मप्रकाश और योगसार के मिलान किया तो मुझे इस गटिकाकं बहतम पाठ नोट माथ ममानता रखते है। इन ग्रंथों में लेखनपद्धति और किये जानेके योग्य मालूम हुए। वाक्यरचनाका गाढ सादृश्य है । मैं इन तीनों ग्रन्थों___ इस गुटिकामस इम समय हमारे सामने सिर्फ के समान वाक्यांका तुलनात्मक नकशा देना नहीं चा'दोहापाहूड' का विचार प्रस्तुत है, जो कि एक मह ___ हता हूँ-वह उस समय भले प्रकार दिया जा सकेगा स्वका ग्रंथ है । यह अपभ्रंश भाषामें है और इसकी " जब कि दोहापाहुडकी एक और अच्छी तरहसे पढ़ी पष्पिका स्पष्ट बतलाती है कि यह योगीन्द्रदेव-द्वाग * इम ग्रन्थ की एक प्रति दहनीक नये मदिरक भण्डारमें रचा गया है : मौजूद है, जिसका पता इस लेखको प्रेसमें देते समय चला और इसलिये उसका जानने योग्य विशेष परिचय लेखके अन्तमें एक ४ लेवः' यह पाठान्तर एक हस्नलिन्धित प्रनिमें पाया जाता है। नाद्वारा दे दिया गया है. उम ज़ार दखिये। -सम्पादक Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८, ९.५० जाने योग्य हस्तलिखित प्रति मिल जायगी। पन्नर नेम पलंबचय बहुय पडेविणु भग्ग ॥ ॥ ___ अपने पाठकोंके लिये मैंने यहाँ पर कुछ दोहे दे अप्पा बज्झइ निच्च जइ केवलनाण सहाउ । दिये हैं-हस्तलिखित प्रतिमें विगमचिन्ह ठीक तौरस ता पर किन्नइकाई बढ तणुउपरि अण गउ॥२३ लगे हुए नहीं हैं-अथवा पदोंका विभक्तीकरण ठीक जस मणि नाणु न विष्फरइ कम्महं हेउ कम्नु । नहीं हो रहा है-और मेग सविनय निवेदन है कि सो मुणि पावइ सक्ख न वि सयलई सत्य मुणंत . ४ यदि इनके देनेमें कोई अशुद्धियाँ हों तो मुझे उनका नवि तहं पंडिउ मुक्खन विन वि ईसरु नन नीस । संशोधन करा दिया जाय । निम्न पद्योंमेंस कुछ पद्यों- - नवि गुरु कोइ विसीमु न वि सव्वु इकम्म विमेसु २७ के महश-पद्योंका भी मैंने फुटनोटों द्वारा नाट कर पुण्णु वि पाउ वि काल न विधमु अहंमु न काउ । दिया है जो कि 'परमात्मप्रकाश' और 'योगसार' में पाये जाते हैं। एक्कु वि जीवन होहि तुहुँ मिल्लिअ चेअण भाउ। गुरु दिणयरु गुरु हिमकिरण गुरु दीवउगुरु देउ । ना कम्मह केरउ भावडउ जइ अप्पणा धणेहि : " अप्पहं परहं परंपरहं जो दरिसावइ भेउ ॥ १॥ तो वि न पावहि परमपउ पुण संसारु भमेहि ।। ३६ 'नं महु विसयपग्मुहउ नियअप्पा झायंतु । वन विहण उ नाणमउ जो भावइ सम्भाउ । नं सह इंद विन उ लहइ देविहि काडि रमंत ॥२ बंभनिरंजणु सो जि सिउ तहिं किज्जइ अणगउ३७ नवि भंजता विसयमह हियडइ भाउ धति। देहा देउलि जो वसइ सतिहि सहि...देउ । सालिसित्थु निम वापुडा नरनरयह निवड नि । ५ तित्यहि जोइय लहि सिद्ध ........उ ॥५॥ घधइ पडियउ सयल जग कम्मई करइ अयाण। अप्पा केवल णाणमउ हियडइ तिवमा जाम । माक्खह कारणि पकु खिणन विचितइ अप्पाण।६ तिहुयणि अचरइ माकलउ पाउन लग्गइ तास॥५६ मोहु विलिज्जिइ मण गलइ तुट्टइ साम निसाम चितइ जंपइ कुणइंण वि जो मुणि बंधण हेउ । केवलनाणु विपरिणवह अंबरि जाह निवासु।१४ १ तुलना को परमात्मप्रकाश का पद्य न०६२ मा जो मुणि डिवि विसय मुह पण अहिलास करेइ। कि प्राथ ममान है। उंचण सोसण मो सहइ पण मसास भमेड १५॥ दह नीकी प्रतिमें इस पद्यम पहले "हा गारस हर मामलाउ' इत्य दि पद्य दिया है, वह बिनकुल परमात्मपकाशका पद्य न०८१ है । उम्मूलिव ते मूलगण उत्तरगुणहि विलग्ग । ' -सम्पादक] १ प्रथम पादको छोड़ कर यह पद्य की है जैसा कि पर- २परमात्मप्रकाश पद्य १३ और यह एक ही है। मात्मप्रकाश का पद्य न० ११८, ३ यह ५० प्री तोरम नी पहा गया, अक्षर मिट गये हैं । २ इस दोहमें शालिमिया उखक लिये दया भावपाड यांनी स्पष्ट नहीं हैं। फिर भी परमात्मप्रकाश के पद्य न:: की गाथा ८६ और उस पर तसागरको टीका (मा. प्रथमाला) और योगसार क पद्य न० ४१, ४२ के साथ तुलना कीजिये । ३ प्रथम पादके लिये तुलना को योगसार पय .१।। यह पूरा दोहा दहनीकी प्रतिमें इस प्रकार दिया है४भाषासम्बन्धी सशोधनोंको बीचमं दाले बिना ही ज्यों की देहादेवलि जो वसइ सत्रिहिं सहियउ देउ । तो कापी की गई है, मूल प्रतिमें यह पाठ इसी रूपमें है। को तहि जोइय सत्तिसिउ सिग्घ गवेसहिं भेउ । ५ तीसरे पाढके लिये तुलना को योगसार पद्य ६१ । --सम्पादक Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] योगीन्द्रदेवका एक और अपभ्रंश ग्रंथ ५४७ केवलणाणफुरंततणु सो परमप्पउ देउ ॥६॥ नोट जस मणि णाणु न विप्फुरइ सव्ववियप्प हणंतु । इस प्रन्थकी एक प्रति देहलीके नये मंदिरमें भी मो किउ पावइ णिञ्चसुहुसयलई धम्म कहंतु ।।६४॥ " है, जो कि “ पोप शुक्ल ६ शुक्रवार संवन् १७९४" की 'अप्पा दंसणु केवलउ आएणु सयलु ववहारु ।। लिखी हुई है । ग्रन्थका नाम आदि-अन्तमें "पाहुडएक्कु सुजोइय झाइयइ जइ तइलोयह सारु ॥६७ 1 दोहा" दिया है। इसकी पत्रसंख्या १२ और पद्यसंख्या अप्पा दसपणापामा १ वही २२० है । तथा वे सब पद्य भी इसमें मौजद हैं २इम जाणे विण जोइयही छंडहु मायाजाल ६८ जा लेखक महोदयन अपने लेग्वमें उद्धृत किये हैंमुझे विश्वास है कि इन यथच्युत उद्धरणा- किसी किसी पद्यम नम्बरका कुछ भेद है और कहीं चने हुए पद्यों-परमे पाठक दाहापाहुड के विषयका कहीं माधारण-सा पाठभेद भी पाया जाता है । परंतु अच्छी तरहसे अनुभव कर सकेंगे। श्री योगीन्द्रदेवकी पद्योकी इस संख्यामे सब दोहे ही नहीं, किन्तु कुछ भापा बिल्कुल सादा-घरेल् बोलचाल जैसी है और गाथा आदि दूमरे छंदोक पा भी पाये जाते हैं और उनकी लेखनपद्धति श्रमसाध्य समासोस रहित सुकामल अंतिम भागमे संस्कृत के तीन पद्म भी उपलब्ध होते है। और अम्खलित है। यह बहुत संभव है कि उन्होंने ऐम पद्योकी संख्या यद्यपि बहुत थोड़ी है फिर भी अपभ्रंशमें और भी ग्रंथ लिग्वे हो। वह २० से कम नहीं है, ऐमा मरसरी तौर पर नजर डाल कर मार्क करनेम मालम हुआ है। : न पद्यों मे १ परमात्मप्रकाश पद्य न०६ ७ और यह प्राय एक ही है कुछ पदा नमूनके तौर पर इस प्रकार हैं:कक वाक्य योगलारके पद्य न०३३ क माथ मनानता रखते है । ' सोणन्थि इह पएमा, चोगसीलक्ख नोगिमज्झम्मि . योगसारक ०१ पटक उनके माथ तुलना करे। एक ग्रन्थ प्रापक श्रावक चाराहक भी है, निममें मध जिणवयणं अलहंता,जत्थ ण ढरहालियां जीवो।२३ मिला कर २२४ छोह है । इसकी एक प्रति प्रागग-माती कटगा आगहिज्जइकाई, दिउ परपसरु कहिगयउ । नपन्दिरमें और दमी दह नीके पञ्चायती नान्दिाम है । प्रागगकी बीमारिजजड काई,तास जामिउ सबगउ॥५०॥ प्रतिमें ग्रथकत का नाप 'जोगेंद्रनेव' दिया है जब कि हनी की हलिमहि काई करइ सी दप्पण, प्रतिमें नामका कुछ उल्लंग्व ही नी। य दानो प्रतिया मैने दी है -पहनी बरत अगुद्र और दृमी अपेन कृत अच्छी शुद्र है । जहि पडिविवि ण दीमइ अपणु । दमी प्रति परमे उतारी हुई मग पाम भी इसका एक प्रति है। अप धंधइ वालमा जगु पडिहासह, प्रय भाषाको दृष्टिम इस अथवा जा महत्व है व तो है ही परंतु घरि अन्थं तु ण घग्वइ दासइ ।। १२१॥ पद पद पर कितनी ही उपमा और उपदा इममें बड़े अच्छ मन्दर जान पड़ते है । प्रकाशमें लाने के योग्य है । इसका मङ्गलाचगा इस कायास्तित्वार्थमाहारं कायाज्ज्ञानं समीहते । प्रकार है: ज्ञानं कर्मणि विनाशाय तन्नाशे परमं पदं॥२१६ णवकारेप्पिणु पंचगरु, दरिदलियदुहकम्मु । - आपदा मूछिनो वारि चुलुकेनापि जीवति । संखेवें पयडक्वाहि, अक्खिय (क्खमि)सावयधम्मु।। आपदा मछला पार पुलुकमा - सम्पादक अम्भः कुम्भसहस्राणां गत जीवःकगेनि कि।२२० m Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८, ९, १० ___ हाँ, एक बात इस प्रतिमें सबसे अधिक नोट करने- 'दिगम्बर जैनग्रंथकर्ता और उनके प्रन्थ' नामक की पाई जाती है, और वह यह कि इसमें प्रन्थकर्नाका सूचीमें भी रामसिंह मुनिके नामके साथ इस प्रन्थका नाम 'योगोन्द्रदेव' नहीं दिया किन्तु रामसिंह मुनि उल्लेख है, जब कि योगीन्द्रदेवके साथ नहींदिया है । इसकी पुष्पिका इस प्रकार है:- योगीन्द्रदेवके नामके साथ श्रावकाचारका नाम ज़रूर "इति श्रीमुनि रामसीह विरचता पाहुडदोहा है। और ग्रंथका साहित्य योगीन्द्रदेवके साहित्यम समाप्तं।" मिलता जुलता ही नहीं बल्कि परमात्मप्रकाश जैसे यह देखकर मैंने पद्योंमें ग्रन्थकर्ताके नामका अन्वे- योगीन्द्रदेव के प्रसिद्ध ग्रंथोंके कितने ही पद्यों तथा वाषण किया तो मुझे 'योगीन्द्रदेव' नाम कहीं नहीं मिला क्यों को ज्यों का त्यों लिय हुए है। इससे इस ग्रंथक बल्कि दो पद्योंमें 'रामसिंह' मुनिका ही नाम उपलब्ध कर्तृत्व-सम्बंधमें एक बड़ी विकट समस्या उपस्थित हो हुआ है । और वे पद्य इस प्रकार हैं: गई है । या तो इसमें योगीन्द्रदेवकं पद्य प्रक्षिप्त हैं या मंतु ण तंतु ण धंउ ण धारणु गमसिंह नामादि वाले कुछ पद्य पीछेसे शामिल हुए णवि उच्छासह किज्जइ कारणु । हैं और या कोई दूसरी ही घटना घटी है। रामइ परममुक्खमुणि सुचइ ___आशा है लेखक महोदय इस विषयका विशेष एही गल गल कास ण रुच्चइ ।। २०४॥ अनुसंधान करेंगे और अपनी उस अस्पष्ट प्रतिमें देविंग अणुपंहा वारह वि जिया भाविवि एक्कमणेण । कि ऊपर के ये पद्य भी उसमें पाये जाते हैं या कि रामसीह मुणि इम भणइं सिवपरि पावहिजेण०६ नहीं। दूसरं विद्वानोंको भी चाहिये कि वे अपने यहाँके इन पद्यों और उक्त पष्पिकामे यह ग्रंथ साह भंडारोमें इस ग्रन्थकी खोज करें और वहाँ की प्रतिकी पर गमसिह मुनिका रचा हुआ जान पड़ता है। विशेतापओस सचित करें। -सम्पादक महावीर हैं [ लवक-श्री पं० मुन्नालालजी जैन विशारद ] पराधीन-क्षणिक-विभवधारी वे अमीर नहीं, ज्ञान-विभवधारी ही साँचे अमीर हैं। होकर निःसंग जो निम्रन्थ भये निजानन्द, वे ही साधु, अन्य नंग मँगता फकीर हैं; घोर कष्ट आए जो न त्यागें कभी न्यायमार्ग, वे ही धीरवीर अन्य स्वार्थी अधीर हैं; कायबलधारी भारी सभट "मणि" वीर नहीं, मोह सुभट जीतो जिन वेही महावीर हैं । Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] अनेकांत पर लोकमत ५४९ 'अनेकान्त' पर लोकमत ६८ संपादक 'अग्रवाल-सधारक' आगरा-- Every number contains a lot of substan tinl food for thought: only I wonder if इस पत्रका उद्देश्य जैनधर्मके गढ तत्त्वोंको वो- You could make its lungunge simpler and easier, so that a larger number of जना और प्रचार करना मालूम होता है। इसके लखोंकी गम्भीरता, उपयोगिता और हितोपदेशता dissertations contained in it. I am glnd people might benelit by the illuminating सराहनीय है। जो लोग कि वास्तवमें जैनधर्म पर to see that up to the present time कुछ गम्भीरता और विचारपूर्ण लेख पढ़ना चाहतं you have to upulously kept above all हैं वे इस अवश्य पढ़ें । जैन-सम्प्रदायके जितने puty recriminations found in so many पत्र निकलते हैं उनमें इसका स्थान उच्च है। other papers. It is as it should ve, for हमारी हार्दिक इच्छा है कि पत्र दिनों दिन उन्नति Ahinsa is the soul of Jainism. If you continue to preach the truth is you करता रहे और अपने उद्देश्यमें सफल हो।" have done so far, you will bave set up ६६ श्री. बाबा भागीग्थजी वर्णी, बम्पा- Muniquri standaul in the world of pulसागर ( झाँसी) le journals. I wish you a lous life of __ " मेरा मन लगा वास्तव म्पस ता 'अनकान्त'svire in the count of your religion में । जैनियोंमें तो इसके ममान कोई भी पत्र ind of your community. नज़र में नहीं आता है। . . .हमार्ग तो अन्तरंगस "मैं आपके बहुमूल्य पत्र (अनेकान्त) के करीऐसी भावना है कि ऐमा महान पत्र हमेशाके के करीब मब अंक पढ़ गया हूँ। आपनं बराबर ऊँची वास्ते चिराय होवे, जैनियोंको ऐमी समझ आवे" साहित्यिक समवृत्ति को स्थिर रखा है । हर एक अंक ७. सेठ परमानन्दजी एम. ए., इनकमटैक्स विचार के लिये वास्तविक खाद्य लिये हुए है; मात्र मुझे __ आफीसर, देहली __आश्चर्य होता यदि आप इसकी भाषाको और भी " I have read nearly ail numbers of अधिक मान तथा सुगम बना सकतं, जिससे इसके your valuable Magazine You have all दीप्तिमान निबंधोंसे जनता अधिक लाभ उठा सकती।मैं along naintaived a high literary level. यह देख कर प्रसन्न हूँ कि आपने इस वक्त तक संपूर्ण Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० अनेकान्त वर्ष १,किरण ८,९,१० पक्षपाती प्रत्यभियोगों ( प्रतिदोषारोपों ) से, जो हो सकता है ?" लेखसे जान कर मुझे निहायत कि दूसरे इतने अधिक पत्रोंमें पाये जाते हैं,अपने खुशी हुई है। क्योंकि मेरे भी ऐसे ही विचार हैं पत्रको सावधानीके साथ सुरक्षित रक्खा है । जैस कि श्वे. जैनमें छपे हैं । लेखके नीचे उचित यह बात ऐसी ही है जैसी कि होनी चाहिये, भाषामें सम्पादकीय नोट लिखनेकी शैनी निष्पक्ष क्योंकि अहिंसा जैनधर्मकी आत्मा है । यदि आप ममालोचकताको प्रकट करने वाली है, बहुत जेन मत्यका प्रकाशन इसी प्रकार जारा रकग्वे जैसा विद्वान-यवक सरस्वती-माधुरी-जैसे जैन पत्रकी कि आप अब तक करत रहे हैं, तो आप पबलिक प्रतीक्षा और याचना करते थे, और करते हैं। पत्रों की दुनियामें एक अपूर्व म्टैन्डर्ड ( आदर्श ) 'अनकान्त' को ही जैनसरस्वती या माधुरी बनाने स्थापित करेंगे । मैं धर्म और समाज के लिये आप की मर्वनामुखी शुभ प्रवृत्ति करनेमें तत्पर रहना । के मेवामय दीर्घजीवनकी अभिलापा करता हूँ।" आप हमेशा इम उदात्त-निष्पक्ष एवं सुधारक७१ मुनि श्रीहिमांशुविजयजी 'अनेकान्ती', नीनिम कार्य करते रहेंगे तो शासन देव शासन मवाके उन ध्येयकी पर्तिकं लिये आपका मार्ग शिवपुरी (ग्वालियर) निष्कगटक करेंगे।" "चैत तक पढ़ हुए 'अनकान्त' के अंकाम ७२ मुनि श्रीविद्याविजयजी, अधिष्ठाता 'चोरआपकी विद्वत्ता और उदार नीति बहुत पसन्द तत्त्वप्रकाशकमंडल' शिवपुरीपाई है, इम पत्रके द्वाग अनेक विद्वानांको अपने "" अनेकान्त' को प्रारंभमे दग्वता आया हूँ। अपने विचार प्रकट करने का सुअवसर प्राप्त होगा, आज तकके सभी अंक, जैसी मैं उम्मीद रखता मैकड़ों ग्रामों और शहगेका मन्दिगे आ गहला था, वैसे ही निकले हैं, यह अत्यन्त प्रसन्नताकी का प्राचीन इतिहास प्रसिद्धिमें आवंगा, हजारों जैन और जैननगेको जननत्वज्ञान, जनइतिहास, बान है । प्रारभका उत्साह और लेग्योकी उत्तम ताराप्रवाह मंद नहीं हुआ है, इसका मैं जैनजनमाहित्य एवं जनी अहिंमाका मत्य परिचय ममाजका सौभाग्य समझता हूँ । सचमुच जैनहोगा, जब कि इम पत्र (अनकान्त) की वर्तमान समाजमें ऐप पत्रकी अत्यंत ही आवश्यकता थी। नीति विपरीत न हो । परन्तु उदार नीतिस पगने विचार वाले लोगोंके आक्षेपास्त्र भी बहुन सहने। शामनदेव अापकी इस शुभ प्रवृत्तिको चिरकाल पड़ेंग जैसे कि जनहितेपी का महने पड़े थे। तक निभाये रग्वनेका सामर्थ्य समर्पित करे।" परन्तु जेनहितैपीकी तरह आप ऐसे अस्त्राम डर ७३ पो० बनारसीदासजी जैन, एम. ए., पी. कर पीठ नहीं बताना-'अनकान्त' को बन्द नहीं एच.डी., ओरियंटल कालेज, लाहौरकरना । साहित्य के क्षेत्रमे आपके जैसे उदार वि- 'अनकान्त' के संपादक महोदयकी कृपासे चार प्रतीत होते हैं वैमे जैनसमाज और जैनधर्म- ___मुझे इसके कई अङ्क देखनका सौभाग्य प्राप्त के विषयमें भी उदार विचार हैं यह "जैनी कौन हुआ । वैसे तो जैनसमाजमें बहुतसे पत्र और Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] अनेकांत पर लोकमत ५५१ पत्रिकाएँ ( साप्ताहिक, मासिक आदि ) निकलते ७२ श्री. प्राक्तनविमर्श-विचक्षण रावबहादुर हैं और वे जैनसमाजको उन्नतिके शिखर पर ले जाने- आर० नरसिंहाचार्यजी एम.ए. मल्लेश्वरम् की चेष्टा कर रहे हैं परन्तु उनका कार्यक्षेत्र बहुधा (बैंगलौर )सामाजिक सुधार तक ही परिमित है । इनमें साहित्य, “ I have to express my thauks to इतिहास और सिद्धान्तसे सम्बन्ध रखने वाला पत्र you foryour courtesy in sending me two कोई नहीं । यद्यपि समय समय पर ऐसे पत्र निकलते issues of your vuluable monthly jourरहे हैं यथा “जैन सिद्धान्तभास्कर", "वीरशासन", ml, the "Anekruta '' The journal coutains information on a variety of "जैनहितैषी", "जैनसाहित्यसंशोधक" आदि परन्तु वे subjects and will be useful not only to चिरकाल जीवित न रह सके और इस प्रकारके पत्रका the jains but also others. The Jain अभाव वैसेका वैसा बना रहा । अब इस अभावको दूर Gazette, which is in english, cuu be aकरने के लिये “अनेकान्त" ने मासिक रूपमें जन्म Ppreciated only by u small circle of लिया है। इसका मुख्य उद्देश्य जैनसिद्धान्त, साहित्य english knowing jains, but your jour. nal appeals to a wider circle of rendeis. और इतिहासके विषयमें खोज करना है। इसके लेख I wish your journal every success. प्रायः अपने लेखकोंके मौलिक अनुसंधानका परिणाम I am giad to see in both the issues है। यह पत्र जैनधर्मके अभ्यासियोंके लिये अति उप- urticles on jnin kunarese poets. These योगी है। contributions are important as they bring to the notice of nonkansiese ___ मेरी मम्मनिमें यदि मामाजिक विषय इममे । knowing jains the literary work done पृथक रकावे जायँ तो अच्छा हो । फिर चाहं इसको छै by their coreligionists in the Kanarese मासिक या त्रैमासिक ही कर दिया जाय । मामाजिक (omtiy.'' विपयों के लिये पृथक् पत्रकी आयोजना की जाय । मै “I am glnd that you are supplying at leal want loy the publications of this ममझता हूँ कि एक ता उच्च कोटिके लेग्व इकट्ठा कर usefini Journal" के मासिक पत्र चलाना कठिन होगा । दूसरे जो अ __'आपने अपने बहुमूल्य मामिक पत्र 'अनेकान्त'जैन सजन जैन धर्म के अभ्यासी हैं उनको सामाजिक की दो किरणें मेरे पाम भेजी इम सौजन्यके लिये मैं विपयके लेग्ब कुछ अधिक रुचिकर न होगे। इसी आपका धन्यवाद करता हूँ। पत्र नाना प्रकारके विषप्रकार सामाजिक सुधार वालों का साहित्यिक विषयकुछ यांकी विज्ञापनाको लिये हुए हैं और वह केवल जैनिमचिकर न होगे। योंके लिये ही नहीं बल्कि दूमरोंके लिये भी उपयोगी अंतमें मेरी भावना है कि जैन धर्मको देदीप्यमान होगा। जैनगजट जो कि अंग्रेजीमें है, सिर्फ अंग्रेजी करता हुआ "अनेकान्त" उत्तरोत्तर उन्नतिको प्राण जानने वाले जैनियों के एक छोटेसे मंडल के द्वारा ही होता हुआ सदा जीवित रहे।" समझा जा सकता है,परंतु आपका पत्र पाठकोंके एक Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १,किरण ८, ९,१० विस्तृत मंडलको अपील करता है। मैं आपके पत्रके ७६ श्री० दशरथलालजी, ऑन० सपरिटेंडेंट लिये सब प्रकारकी सफलता चाहता हूँ। जैन होस्टल, जबलपुर__ मैं यह देख कर प्रसन्न हूँ कि दोनों किरणोंमें " सांप्रतिमें किसी समाजकी मानसिक प्रगतिको कर्णाटकी जैनकवियों पर लेख हैं । ये अंश इस लिये देखने के लिये उस समाजकी साहित्यिक पत्र-पमहत्वके हैं कि वे कनडी न जाननेवाले जैनियोंको उस साहित्यिक कार्यका परिचय कराते हैं जो कि उनके त्रिकाएँ ही एक अच्छे साधन समझे जाते है। सहधर्मियोंन कर्णाटक देशम किया है।" । इधर कुछ वर्षों से 'जैनहितैषी' जैसे गंभीर नीति वान पत्रक अभावमें जो अंधकार छा गया था, "(हालके पत्रमें ) मैं यह देख कर प्रसन्न हूँ कि 'अनकान्त' से अब यह गतप्राय हाता प्रतीत आप इस उपयोगी पत्रके प्रकाशन-द्वारा अमली ज़रू होता है । वास्तवमें आप जैसे सुयोग्य लब्धख्यात रतको पूरा कर रहे हैं।" विद्वानसे हमें ऐस ही अपर्व और दृढ कार्यके ७५ पं० नलिनजी, न्यायनीर्थ, कुचामन सम्पादनकी आशा थी । आपके सम्पादकत्वमें 'अनकान्त' के उदयसे अनेक हताश और क्षुब्ध । मारवाड़ ) हृदय-कमल विकसित हो उठे हैं और यह निम्संद"आपके 'अनकान्त' के तीन चार अंक दग्वे । ह है कि पत्र होनहार ही नहीं बल्कि तिमिराच्छन्न लेखों और कविताओंका चुनाव मनाहर है । जैनममा- जैन संसारक मुखको समुज्वल प्रकाशित करने जमें चिरकालसं एक मासिक पत्रकी आवश्यकता थी साहित्य-गगनका एक चमकता हुआ तारा सिद्ध आपने उसकी पूर्ति कर जो पनीत और आदर्श कार्य होगा । पत्र समाजका गौरव होगा, यह उसका किया है उसके लिए आप धन्यवादके पात्र हैं। मिल हुए अनेक माधवाद, आशीर्वाद व हार्दिक आप जैन समाजके गंभीर अध्ययनशील वि- धन्यवादोंस सिद्ध है। पत्रकी नीति उसकी गंभीद्वान हैं । जिन्होंने आपकी अनुशीलनीय कृतियोंका ग्ताकी यथेष्ट परिचायक है । मैं पत्र : चिरंजीव मनन किया है वह आपके आदरणीय व्यक्तित्वसं होनेकी हार्दिक मनांकामना करता हूँ । साथ ही अच्छी तरह परिचित हैं । पत्रके प्रत्येक अंकमें आपके योग्य संवाका अभिवचन देता हूँ।" व्यक्तित्वका स्पष्ट दर्शन होता है । जैनोंके अलभ्य और ७७ संपादक 'दृढोमर वंश्य', लखनऊअमूल्य साहित्यका इसके हर अंकमें कुछ-न-कुछ परि- __"इसमें जैन दर्शनकं उच्चकोटिके लख रहते हैं । चय मिलता रहेगा यह बड़े अानन्दकी बात है । हमें दर्शन जैसे गंभीर विषयका यह महत्वशाली पत्र पाशा और विश्वास है कि जैनोंके म्रियमाण अपार है।" माहित्यके लिए आपका यह विशाल प्रायोजन 'मृत्यजय' महौषधिसे कम फलोत्पादक न होगा। हम इस के चिरजीवि होनेके अत्यन्त अभिलाषी हैं।" Page #532 --------------------------------------------------------------------------  Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ২'শ সাকা-মনি ১১ ল + + ২ +) !! All rights reserved Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष १ } ॐ अर्हम् अनेकान्त परमागमस्य बीजं निषिद्ध - जात्यन्ध-सिन्धुर-विधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ —अमृतचन्द्रसूरिः । समन्तभद्राश्रम, क़रौलबाग़, देहली। आश्विन, कार्तिक, सं० १९८७ वि०, वीर निर्वाण सं० २४५६ ईश-विनय (१) पतित उधारक शिवमुल्यकारक, स्वामी करुगा लीजे । हम भ्रमत चतुर्गति हारे, नहिं तुम बिन कोउ दुम्ब टारे । करुणासागर सबगणआगर, भवदधि पार करीजे ॥ पतितउधारक शिवसुखकारक, स्वामी करुणा लीजे ॥ (२) मरी अरु कहतसाली सब, हमको श्र मनाती हैं । बलायें जो कि हैं सारी, हमको आ दबाती है ॥ कपायें फट नादारी, सदा हमको जलाती हैं। गई भारतकी वह हालत, जो इतिहासें जनाती हैं ॥ यह भारत वर्ष हमाग, सहे दु:ख अनेक प्रकाश | यह भारत नैया पार लगैया, करुणाकर मुख दीजे ॥ पतितधारक शिवसुखकारक, स्वामी करुणा लीजे ॥ *पमनलालजी से कि 'धर्मपाल' नाटकका एक प्रश १) किरण किरण ११,१२ (३) कला-कौशल हमारा सत्र, गये हैं भूल अरसे से । उठी तत्वोंकी चर्चा शांक ! भारतके मदरसेसे ॥ जो था दुनियाका शिक्षक, वह अविद्याबश सहे सवारी !. निकलते हैं सहस्रो दाम, बन बनके मदरसेसे ॥ हम ज्ञान-बुद्धि कर हीना, पर-बन्धन फँस भये दीना । यह कुमति हमारी नशे दुम्बारी, सुमतिज्ञान अब दीजे।। १० (४) वाकं व्यर्थव्यय सब, रूपा हो बैठ हैं खाली । मिटाया धर्म सब अपना, विदेशी चीनी स्वा डाली || स्वदेशी को घृणा से देख, अपनी नाक कर डाली ॥ प्रभो ! करुणा करो हम पै, कियेकी हम सज़ा पाली ।। हम वैर-विरोध मिटावें, निज भारत देश जगावें । यह 'मन' हमारा करे पुकारा, भारतकी सुधि लीजे ॥ १० Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ अनेकान्त जैन - सम्बोधन जैनियों ! किस धुन में हो तुम, क्या खबर कुछ भी नहीं ? हो रहा संसार में क्या, ध्यान कुछ इस पर नहीं ! म्ले और अनार्य जिनको, तुम बताते थे कभी ; देख लो, किस रंग में हैं, आज वे मानव सभी ॥ १ ॥ और अपनी भी अवस्थाका मिलान करो जरा । पूर्व थी वह क्या ? हुई अब क्या ? विचार करांजरा है कहाँ वह ज्ञान-गौरव, राज्य-वैभव श्रापका ? वह कहाँ बहुऋद्ध चलंकृत तप, विनाशक पापका ? २ वृष अहिंसा आपका वह उठ गया किस लोक में ? प्रेम पावन आपका सब, जा बसा किस थोक में ? है कहाँ वह सत्यता, मृदुता, सरलता आपकी ? वह दयामय-दृष्टि और परार्थपरता सात्विकी ? ३ ॥ पूर्वजों के धैर्य-शौदार्य-गुण, तुम में कहाँ ? है कहाँ वह वीरता, निर्भीकता, साहम महा ? बाहु-बलको क्या हुआ ? रण-रंग-कौशल है कहाँ ? हो कहाँ स्वाधीनता, दौर्बल्यशासन हो जहाँ ? ४ ॥ वे विमान कहाँ गये ? कुछ याद है उनकी कथा ? बैठ जिनमें पूर्वजोंको, गगनपथ भी सुगम था ? है कहाँ निर्वाह प्रणका ? और वह दृढ़ता कहाँ ? शीलता जाती रही, दुःशीलता फैली यहाँ !! ५॥ उठ गई सब तस्वचर्चा, क्या प्रकृति बदली सभी ! स्वप्न भी, निज अभ्युदयका, जो नहीं श्राता कभी ! खो गया गुण-नाम सारा, धर्म-धन सब लुट गया ! आँख तो खोलो जग, — देग्वा सवेरा हो गया !! ६ ॥ धर्म - विष्टर पर विराजीं, रूढ़ियाँ आकर यहाँ, धर्म हीके वेपमें, जो कर रहीं शासन महा । थीं बनाई तुम्होंने ये, निज सुभीतके लिए, बन गये पर अब तुम्हीं, इनकी गुलामीके लिए !!७ देखिए, मैदाने उन्नतिमें कुलांचे भर रहे, कौन हैं, निज तेजसे विस्मित सवोंको कर रहे ? नव-नवाविष्कार प्रतिदिन, कौन कर दिखला रहे ? देव-दुष्कर कार्य विद्युत्-शक्तिसे करवा रहे ? ॥८॥ [वर्ष १, किरण ११, १२ हो रहा गुणगान किनके, यह कला-कौशल्यका ? बज रहा है दुन्दुभी, विज्ञान - साहस- शौर्यका ? कौन हैं ये बन रहे, विद्या- विशारद आजकल ? नीति-विद्, सत्कर्म - शिक्षक, पथ-प्रदर्शक आजकल ? ९ || सोचिये, ये हैं वही, कहते जिन्हें तुम नीच थे, धर्मशून्य असभ्य कह कर, आप बनते ऊँच थे । सद्विचाराचार के जो, पात्र भी न गिने गये, हा डाला उसी दम यदि, कभी इनसे छू गये ॥ १० ॥ अनवरत उद्योग औ, श्रात्म-बल- विस्तार से, अभ्युदय इनका हुआ है, प्रबल ऐक्य- विचारसे । स्वावलम्बनसे इन्हें जो, सफलता अनुपम मिली; शोक ! उसको देख करके, सीख तुमने कुछ न ली ।। ११ ।। आत्मबल गौरव गँवाया, भूल शिथिलाचार में; फँस गये हो बेतरह तुम, जाति-भेद-विचार में ! साथ ही, अपरीतियोंका जाल है भारी पड़ा ; हो रहा है कर्मबन्धन-से भी यह बन्धन कड़ा !! १२॥ तोड़ यह बधन सकल, स्वातंत्र्य-बल दिग्वलाइए ; लभ गौरव जो हुआ, उसको पुनः प्रकटाइए । पूर्वजों की कीर्तिको बट्टा लगाना क्या भला ? सच तो यों है, डूब मरना ऐसे जीवन से भला ॥ १३॥ जातियाँ, अपनी समुन्नति हेतु, सब चंचल हुई; पर नया जोश तुममें, क्या रगें ठिठरा गई ? पुरुष हो, पुरुषार्थ करना, क्या तुम्हें आता नहीं ? पुरुष-मन पुरुषार्थसे, हरगिज न घबराता कहीं ॥ १४ ॥ जो न आता हो तुम्हें वह, दूसरोंम सीख लो ; अनुकरण कहते किसे, जापानियोंसे सीख लो । देखकर इतिहास जगके, कुछ करो शिक्षा ग्रहण ; हो न जिससे व्यर्थ ही संसार में जीवन मरण ।। १५ ।। छोड़ दो संकीर्णता, समुदारता धारण करो. पूर्वजोंका स्मरण कर, कर्तव्यका पालन करो 1 श्रात्म बल पर जैन-वीरो ! हो खड़े बढ़ते रहा; हो न ले उद्धार जब तक, 'युग प्रताप' बने रहो ॥ १६ ॥ - 'युगवीर' Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६ ] जैन-मंत्रशास्त्र और 'ज्वालिनीमत' जैन. मंत्रशास्त्र और 'ज्वालिनीमत' ( २ ) इन्द्रनन्दि योगीन्द्रकृत ‘ज्वालिनीमत' अथवा 'ज्वा लिनीकल्प' नामका जैन मन्त्रशास्त्र, जिसकी मूलोत्पत्ति दिकी रोचक कथा 'अनेकान्त' की पिछली किरण में दी जा चुकी है, देहलीमें भी मौजूद है और उसके साथ में पं० चंद्रशेखर शास्त्रीका नया हिन्दी अ नुवाद भी लगा हुआ है, जो बहुत कुछ साधारण तथा त्रुटिपूर्ण जान पड़ता है। इसकी एक प्रति हाल ही में चंद-गेज के लिये मुझे ला मनोहरलालजी जौहरी के पास से देखने को मिली थी । इस मंत्रशास्त्र में, मंत्रसाधन करने वाले 'मंत्री' का स्वरूप बतलाते हुए अथवा यह प्रतिपादन करतं हुए कि किसको मंत्रसिद्धि होती है— कौन उसका पात्र है, लिखा है : मौनी निममितचित्तां मेधावी वीज शरणममर्थः । माया-मदन- मदोनः सिद्धयति मंत्री न संदेहः || ३० सम्यग्दर्शन शुद्ध देव्यचनतत्परां व्रतममेनः । मंत्रजपहोमनिग्नोऽनालस्यां जायते मंत्री ॥ १ ॥ देव- गुरु समयभक्तः सविकल्पः सत्यवाग्विदग्ध । वाक्पटुपगतशंकः शुचिगमना भवेन्मंत्री ||३२|| देव्याः पदयुगको तानार्यक्रमाब्जभक्तियुतः ! स्वगुरूपदेशप र्गेण वर्ततेयः ममंत्री स्थान ॥3 ॥ श्रर्थान्– ' जो मांनी ( साधनावस्था में मौन में रहने वाला) हो, नियमित चित्त हो, मेधावी हो, मंत्र ५५५ बीजाक्षरोके धारणामे - श्रवगाहनमें समर्थ हो. माया-मदन और मदसे हीन हो वह मंत्री निःसंदेह सिद्धविग होता है । जो शुद्ध सम्यग्दर्शनका धारक हां, देवी ( ज्वालामालिनी) के पूजन में तत्पर हो सहित हो. मंत्र जप- होममे लीन हो और निगलस्य हां वह मंत्री होनेके योग्य है । जो देव गुरु धर्मका मत हो, सविकल्प ( सविचार । हो, सच बोलने वाला हा चतुर हो, वाकपट हो, भयरहित हो, पवित्र हा अ चित्त हो, वह मंत्री होनेका पात्र है । जो देवी के चरणयुगलका भक्त हो हलाचार्यके चरण कमलाम भक्तिका लिये हुए हां और अपने गमके उपदेशानमार वर्तता हो वह मन्त्री होता है।' साथ ही यह भी लिखा है कि विद्या और गुरुकी भक्ति जो युक्त है उसे देवी (ज्वालामालिनी) तुष्टि-पत्रि प्रदान करती है और जिसका चिन इनकी भक्तिम रहिन है उस पर वह दवा उपभाव रखती हैकोप करती है। और इसके बाद जाशदम मन्त्रमाचन का पात्र नही जिसे इस शास्त्र में वांगत मंत्री सिद्ध करनेका अधिकार नहीं उसका स्वरूप इस प कार दिया है सम्यग्दर्शनदुरी बाक्कुटश्छन्द सांभयसमं तः । शून्यहृदयः मलज्जः शाखंऽस्मिन नो भवेन्मंत्री ॥ ३४ • टीम 'मंत्रबीजाक्षरावगाहनशन: 'म लिखा है, Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ११,१२ अर्थात्-जो सम्यग्दर्शनसे रहित हो, कुण्ठित इसके बाद ग्रहोंके भेद-प्रभेद, उनके स्वरूप और वाक्य हो (जिसका वचन स्पष्ट उच्चारित न होता हो) वे चिह्न आदि बतलाये गये हैं जिन परसे उन्हें पहवेदपाठी हो, भयसहित हो, शून्यहृदय हो और चाना जाता है । पाठकोंकी रुचि तथा परिचयके लिये लज्जावान हो वह इस शास्त्र में मंत्री होनेका अधिकारी इस सब कथनका सार नीचे दिया जाता है :नहीं है। रतिकामा, बलिकामा और हन्तुकामा ऐसे तीन ___ इम म्वरूप कथन में दो विशेषण खास है-एक प्रकारके ग्रह होते हैं । वैर के कारण हन्तुकामा ग्रह तो 'छान्दस' और दूसरा 'सलज्ज' और उनमे यह पकड़त हैं और शेष कारणोंसे दूसरे प्रकारक ग्रह पकस्पष्ट है कि इस मंत्रसाधनामें एक तो लज्जाको स्थान इत हैं । इन ग्रहोंके भी फिर दो भेद हैं-एक दिव्यग्रह नहीं-उमे उठा कर रख देना होगा और दूसरे और दूसरे अदिव्यमह । दिव्य ग्रहोंके दो भेद हैंवेदपाठीको अथवावेदानुयायी हिन्दूको इसकी साधना परुषग्रह और स्त्रीग्रह । पुरुषग्रह पुरुषको और स्त्रीका अधिकार नहीं । अन्यत्र भी, साधन विधिका ग्रह स्त्रीको नहीं पकड़ता किन्तु पुरुषप्रह स्त्रीको और वर्णन करते हुए, प्रथके अंतमें परसमयीको यह नीग्रह परुषको पकडता है, ऐमा रतिकामग्रहोंका विद्या देनका निषेध किया है और यहाँ तक लिखा है. नियम है। परन्तु मरे ग्रहोंका ऐमा नियम नहीं है । कि स्वधर्मीको यह कह कर विद्या देना चाहिय कि उनमें परुषह परुषको और स्त्रीमह स्त्रीको भी पकड़ 'यदि तुम परधर्मीको दोगे तो तुम्हें ऋषि, गौ और लेता है। स्त्रीहत्यादिकमें जो पाप लगता है वह पाप लगेगा।' पुरुषग्रह सात हैं, जिनके नाम हैं-१ देव, २ नाग, यथाः ३ यक्ष, ४ गन्धर्व, ५ ब्रह्मराक्षस, ६ भूत और ७ व्यंतर । परसमयिने न देया त्वथा प्रदेया स्वसमयभक्ताय । इनमें टेन' सर्वत्र पवित्र रहता है; 'नाग' सोता है; गुरुविनययनाय सदाईचेतसे धार्मिकनराय।।१४॥ ४। 'यक्ष' सर्व अंग तोड़ता है, सदा दूध पीता है और ऋषिगोखोहत्यादिषु यत् तद्भविष्यति तनोऽपि। अक्मा हँसता या गंता रहता है; 'गन्धर्व अच्छे स्वरयदि दास्यसि परसपयायेत्युत्कान:प्रदातव्या ।१५ से गाता है; 'ब्रह्मराक्षस' संध्याके समय जाप करता महलक्षण नामके दूसरे अधिकारमें सबसे पहले, है, वेदोंका पढ़ना है, स्त्रियोंमें अनरक्त रहता है और एक ही पद्यमें, उम मनष्यका वर्णन है जिसको प्रह गर्वसहित वर्तता है; 'भत्त' खेिं फाड़ कर देखता है, लगता है और उसके विषयमें स्पष्ट लिम्वा है कि- नाचता है, जॅभाई लेता है, कॉपता है और हँसता है; 'जो अति हर्षित हो, अति विषण्ण ( विषादयुक्त ) हो, 'व्यंतर' मूर्षित होता है, गेता है, दौड़ता है और डरपोक हो, अन्यमनस्क (चलचित्त या शून्यहृदय) बहुत भोजन करता है । इस प्रकार यह दिव्यपुरुष हो, अथवा जिसके साथ भवान्नरके स्नेह या वैरका प्रहोंका लक्षण है-जो लोग इन ग्रहोंसे पीड़ित होते हैं सम्बन्ध हो उमे पह पकड़ते हैं।' यथा:- वे उक्त प्रकारकी चेष्टाएँ किया करते हैं। प्रतिहष्मनिविषण्णं भवान्तरस्नेहवैरसम्बन्धम् । स्त्रीमह नव हैं, जिनके नाम हैं-१ काली, २ कभीतं चान्यमनस्कंबहाः भगवन्ति भुषि मनुजम्॥१ राली, ३ कंकाली, ४ कालराक्षसी, ५ पी, ६ प्रेता Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - मंत्रशास्त्र और 'ज्वालिनीमत' आश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं० २४५६ ] शिनी, ७ यक्षी, ८ वैताली और ९ क्षेत्रवासिनी । कालीसे पीडित मनुष्य अन्न नहीं खाता; ककाली से गृहीत व्यक्तिका मुख पीला पड़ जाता और शरीर दुबला हो जाना है; राक्षसी मे पीडित मनुष्य रात्रिको भ्रमण करता है, कौलिक भाषा बोलता है और अट्टहास करता है; 'जंपी' से गृहीत मनुष्य मूर्धित होता है, गंता है, और कृशशरीर हो जाता है; 'ताशिनी' से गृहीत मनुष्य भयंकर ध्वनि के साथ चकित हो जाता है और होठ चबा कर उठना है। इसी ग्रहको विद्वानाने 'वीरग्रह' भी कहा है, दो महीने के बाद संसार में इसकी फिर कोई चिकित्सा नहीं है; यक्ष ( वयक्ष ) जिस मनुष्यको पकड़ती है उसे भांग (अथवा भांजन) करने नहीं देती और न अपीन प्रियस्त्रीका संगम ही करने देती है, वह स्वयं गुप्तरूपसे उसके साथ जीती है-क्रीड़ा करनी है X ; वैतालिका गृहीत मनुष्यका मुख सुख जाता है और शरीर कृश हो जाता है; 'क्षेत्रत्रामिनी' से पीडित मनुष्य नाचता है, हा पूर्वक हँसता है, विद्युत के समान आवेश को ग्रहण करता है, कोलिकी भाषा बोलता है और तेजी से दौड़ता है । इस प्रकार ये दिव्य स्त्रीमटके लक्षण हैं। इसके बाद एक पथ यह लिख कर कि 'इसी प्रकार दूसरे मिथ्या ग्रह मौजूद हैं उन्हें भी विद्वान बुद्धिवैभवकं बलमे सत्य ग्रह कर लेते है ।' दूसरे पथमे अवघड आदि कुछ अक्षरी मयोगविशेषको देवभूतोका 'कौलिक' बतलाया है। और फिर दिय + में 'नभिविका भाषा' me fदया है। x 'जीवति' का लिखा है । मिथ्याग्रहास्तथान्ये विद्यन्नं तानपीह विद्वांस. । सत्यग्रहान्प्रकुर्वन्ति शेमुषीवैभवबलेन ॥ १५ ॥ ५५७ प्रहोंका नामादिक दिया है। जो इस प्रकार है १ दाखल, २ धनुर्ब्रह, ३ शाखिल, ४ शशनाग, ५ प्रीवाभंग और ६ उच्चलित ये छह श्रदिव्य ग्रह हैं । इन्हें 'अपरमार' ग्रह भी कहते है । ये बिना के मनुष्यको जीता नहीं छोड़ते हैं । इस मंत्रशास्त्र मे ये भी साध्य है। बाकी इनका कोई विशेष स्वरूप नहीं दिया । और इसके साथ ही ग्रंथका दूसरा अधिकार समाप्त किया गया है, जो २२ प का है । तीसरे 'मुद्रा' अधिकार मे, जो वस्तुत. द्वादश पिण्डाक्षगे तथा यंत्रोके भेदके साथ 'सकलीकरण' अधिकार है, सबसे पहले सकलीकर गाकी ज़रूरत बतलाई गई है और लिखा है कि 'मंत्री विना सकलीकरणके स्तंभादि निग्रह - विधान में समर्थ नहीं होता XI तत्पधान शरीर के जूदा जुदा अंगी कुछ बीजाक्षरीके न्यासका और दिशाबन्धनका कथन करके अपने और चौकोर 'वज्रपिंजर' नामके दुर्ग की कल्पना करने का विधान किया गया है, जिससे मंत्रजपादिके समय कोई माग्नेका इच्छुक दुष्ट ग्रह उस दुर्गको न लंघ सके और उसमे बैठे हुए मंत्री की उपद्रव न कर सके। इस दुर्गकी रचनाका कुछ विस्तार के साथ वर्णन करत हुए उसीमें बारह पिंडाक्षगंका है, रक्षक यंत्रका उल्लेख है और उसके मध्यमं फिर अष्टमातृका देवियो में घिरी हुई ज्वालामालिनी देवीके ध्यानका विधान है। जिसमे ज्वालामालिनीका स्वरूप पुनः दिया गया है । इसके बाद महोके निह के लिये उनके स्तभन, स्नोभन -: पुण्य अधिकारी का जा परिचय है वह मनलाल ही वहतीकी प्रति परमं दिया जाता है क्याकि उनका पग नोट बम्बई की प्रति परम लिया नही गया था। X सकलीकरन विना मंत्री स्तंभाविनिग्रह विधाने । श्रममा सकलीकरां प्रवक्ष्यामि ॥ १ ॥ Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ अनेकान्त वर्ष १, किरण ११, १२ (आकर्षण), ताडन, अक्षिस्फोटन, प्रेषण, दहन, भेदन, कर छेदन, दहन आदि सम्बंधी जो पद भी मंत्री बोबंधन (मुष्ठिप्रहण आदि), ग्रीवाभंजन, अंगछेदन हनन, लता है वही मंत्र हो जाता है। और शेष दो में कहा है मज्जन और आप्यायनका विधान करके उनके मंत्र कि ज्वालनीमतका जानने वाला भले ही मालामंत्रको दिये गये हैं तथा मुद्राएँ भी बनलाई गई हैं और उनम न पढ़ो, विधिपूर्वक देवीकी साधना भी न करो और ग्रहोंका निग्रह हाना लिग्या है । माथ ही, यह भी बत- चाहे वह देवीके अर्चन, जाप्य, ध्यान, अनुष्ठान और या है कि जिम प्रकार शब्द, चाबक, अंकुश और पैगें होमसे भा रहित हो फिर भी वह जो पद बोलता है से घोड़-हाथी हाँ के जान हैं उसी प्रकार बधजनों के वही मंत्र हो जाता है !! अम्तु; इन दमों पद्यों और इन सम्बोधन पर दिव्य और अदिव्य सभी ग्रह नाचते हैं। के बादक १८ पद्योंकी-जिनमें कुछ मंत्रबीजों आदि बुद्धिमान पुरुप उत्तम मंत्रांके नीक्षण वाग्वारगोम दुष्ट का वर्णन है-स्थिनि ग्रंथप्रनिमें कुछ संदिग्ध जान प्रहक हृदय और कानको भेद कर जो जो चिन्तवन पड़नी है क्योंकि ग्रंथप्रतिक अंतमें, प्रन्थकी ३६८ पद्यकरता है वह वह सब इम भमंडल पर प्रस्तुत हो जाता मंग्याकी गणना करनं हुए, इम अधिकार (परिच्छेद) है । इस पिछले कथन के दो पद्य इस प्रकार हैं :- की पद्यसंख्या ६८ बनलाई गई है और अधिकार में शब्दकशाडूशचरणैहयनागाश्वादिनायथायान्तिः ८३ द ग्वाम्बी है । अनः ५६ के बाद ८३ नकके इन २८ पद्याम १२ पद्य ही मूल ग्रन्थके हैं, शेप मब क्षेपक है। दिव्यादिव्याः सर्वे नत्यन्ति तथैवमंबोधनतः।। ५।। . " वे मूल पद्य कौनसे हैं ? यह इम अनुवाद वाली दहली चायतीक्षणवरमंत्रभिन्वादुष्ट ग्रहम्य हृदयंकणा। की गन्थनि परस परं तौर पर नहीं जाना जा सकता। यद्यचिन्तयतिबधस्तत्तचोद्यं करोतु भुवि ॥ ५६ ।। इसके लिये दूसरी मूल प्राचीन प्रतिके दम्वनकी जरू इसके बाद दस पद्याम जिनमेस प्रत्यक वाक्यका चौथा चरण "यक्ति पदं नदेव मंत्र: स्यात" है, चौथ मंडलाधिकारमें गहोंका उन्नाटन, निगह तथा मंत्रीका कुछ महत्व ख्यापित किया गया है और अनेक गंदनादिक कगन लिये वक्षके नीचे, प्रेतगृहमें, चतुरूपसे यह बतलाया गया है कि वह जो पद बोलना है. पथ में, गामके मध्यभागमें अथवा नगर के बहि माग वही मंत्र हो जाता है । ' नमूने के तौर पर इनमम नीन में मंडल बनानका विधान किया गया है और 'नवपच इस प्रकार हैं : बंड', 'मर्वतोभद्र' आदि अनेक मंडलांक बनानकी विधि छेदनदानप्रेषणभंदनताडनसबंधमान्ध्यमन्यद्वा । प्रादिक दी गई है । इम अधिकार के ४४ पा है। पाजिनायतदुक्त्वाय-क्ति पदंतदेवमंत्र:स्यात् । ५६ पाँचवें कटतैलाधिकार में बहुनसी दवाइयोंके संयोग न पठतु मालामंत्रं देवींसाधयतु नैव विधिनेह । से एक 'भूताकम्पन' नेल तय्यार करनेकी विधि दी है भीमालिनीमतोयक्ति पदंतदेवमंत्रस्यात् ६॥ और फिर उसे 'स्वङ्गरावण' विद्यामन्त्रम हजार बार देव्यर्चनजपनीयध्यानानुष्ठानहोपर्गहनोऽपि । मंत्रित करनेको लिखा है । इस प्रकारसे सिद्ध हुए तेल श्रीघालिनीमनझा यक्ति पदं तदेव मंत्र: स्यात् ६५ को मुंघनिसे शाकिनी, अपस्मार, पिशाच और भुतगह पहले पत्र में बतलाया है कि 'पार्श्वजिनाय' कह नाशको प्राप्त हो जाते हैं तथा विष निर्विपतामें परिणत a . . Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] जैन-मंत्रशास्त्र और 'ज्वालिनीमत' हो जाता है, ऐसा अंतके निम्न पद्यद्वारा सूचित किया कनकसहजातपुष्पैर्मलयजनपलोचनामृगमदेव । गया है : समभागेन गृहीतैस्तिलकं त्रैलोक्यजनवशकृत् ॥७ शाकिन्योऽपस्मारपिशाचभतग्रहाश्च नश्यन्ति । इसमें कनकपुष्प, सहजातपुष्प, मलयगिरिचंदन, निर्विषतां याति विषं तैलस्यामुख्यनस्येन ॥५०॥ नृपलोचना और कस्तरी इन पाचोंको सम भागमें लेकर छठे वश्ययंत्राधिकारमें अनेक यत्रांक निर्माणको जो तिलक किया जाता है उसे तीन लोक मनुष्योंको विधि उनके मंत्री, चित्रों तथा फन-महित दी हैं, यंत्रों वशमें करने वाला लिम्वा है। के नाम इस प्रकार हैं-१ सर्वरक्षायंत्र, • गहरक्षक- एरण्डकभक्त करसेन दिवसत्रयेण पथककृष्णतिला: पुत्रदायक यंत्र, ३ वश्ययंत्र, ४ मोहनवश्य यंत्र, ५ स्त्री. भाव्याः शुनीपयोनिजमूत्रणानगजयवाणाः ॥५६ आकर्पण यंत्र, ६ सना-जिह्वा-क्रोध-स्तंभन यंत्र. स्तंभन इममें लिया है कि काले तिलोको एरण्डक और यंत्र, ८ जिह्वाम्तंभन यंत्र, ५ गति-जिह्वा-क्रोध-स्तंभन- भक्तकके ग्ममें तथा कुनीके दूध और अपने मूत्रमें यंत्र, १० पापवश्य यंत्र, ११ कगायवश्य यंत्र, १२ शा- पथक तीन दिन तक भावित करें तो वे कामदेवकी किन भयहरण यंत्र, १३, घटयंत्र, १४ मर्वविघ्नहरण विजयके वाण बन जावें। यंत्र, १५ आकर्षणयंत्र, १६ परमदेवगृह यंत्र । अंतम इसी तरह कुछ दवाइयोम बहुनमी गालियाँ बना वश्यहवनका एक नमखा (पधिकल्प ) दकर ४७ कर उन्हें लवण तथा अपने मूत्र के साथ एक अच्छे पद्यांमें इम अधिकारको पृग किया है । नुमन्त्र का वह वर्नन में रख कर भावित करने और फिर पका कर पद्य इम प्रकार है : नमक तय्यार करनेकी बात लिखी है और उम नमक मधरत्रयेण गग्गल-दशांग-पंचांगधमिश्रण। का“भवनवशकारी" बनलाया है । इस अधिकार जुहुयान महस्र दशकं वशंकगतीन्द्रपपि कथान्यप ।। पहासंख्या ५५ है। __ इममें बतलाया है कि 'मधात्रय ( मधु, शर्कग, आठवें स्नपनाधिकारमें 'वसुधाराम्नान'का विधान घी ) के माथ गग्गुल और दशांग तथा पंचांग धपका दिया है। इसमें भामको शुद्ध तथा संस्कारित करने, मिलाकर दम हजार बार हवन करनेम इन्द्र भी वशम हा चौकार मंडल यनाने, मंडल के कोनों पर घड़े रखने, जाता है ! भोगेकी तो बात ही क्या ? यह पद्य अगल और ऊपर मंडप नानने तथा उसके मध्य में नवछिद्रका तत्राधिकाग्में दिया जाना चाहिये था, इस अधिकारमें घड़ा लटकाने और घड़ेमें मृत्युंजय यंत्रको लिख कर दिये जानका कोई स्पष्ट कारण मालग नहीं होना। डालने. कर दवाइयों में उद्वर्तन (बटना ) नय्यार मानवें वश्यतंत्राधिकारमें अनेक प्रकारकं वश्य करके उग मंत्रोमे मन्त्रित करने और जिसके लिए तिलक, अंजन, नमक, नेल, चर्ग, लप तथा अन्य प्र- नय्यार किया गया , उमको मलने पर जो मैल नीचे योगोंके नमन विधि और फल-महिन दिये हैं । एक गिरं उमकी एक मूर्ति बनाने, और फिर मिद्धमत्तिएक विषय के कई कई नमस्त्र भी हैं । दो नमूने इस कास पाठ दिकपालांकी मूर्तियाँ बनाने, उन्हें तथा प्रकार हैं: मनमूनिका नव पटड़ियों पर बिठलान, उनका पूजन Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० अनकान्त [वर्ष १, किरण ११.१२ करने और नैवेद्य चढ़ा कर उस नैवेद्यको नदी में डालने दसवें 'साधनविधि' अधिकारमें शिष्यको विद्या आदि स्नान पर्यंत कितने ही विधि-विधानोंका उल्लेख देनेकी विधिका वर्णन है । उसके लिये एक चौकोर है। और 'वसुधारा' मंत्र दिया है जिमसे स्नान कराया 'सत्य' नामक मंडलकी रचना करके उसमें शिष्य को जाता है। साथ ही, उस मध्यमें लटकतं हुए घड़ेमें, बिठलाने और फिर उसे मंत्र देने आदिका संक्षिप्त विजिसके जलादिकसे स्नान कगया जाता है, गोमूत्रादि- धान है । अंतमें हेलाचार्यका स्मरण किया गया है के डालनका भी विधान दिया है और अंतमें लिखा है और उनके कहे हुए अर्थरूप 'ज्वालिनीकल्प' को कि इस विधिम म्नान करने वाले मनुष्यको ज्वालामा- आशीर्वाद दिया गया है, और वह इस प्रकार है :लिनी देवी श्री, सौभाग्य, आगग्य, तुष्टि, पुष्टि देती टविगणसमयमुख्यो जिनपतिमार्गोचितक्रियापूर्णः है, उसकी आयु बढ़ाती है, ग्रहपीडा दूर करती है, शत्रुभय मिटाती है, करोड़ों विघ्नोंको नाश करती है । वनसमितिगुप्तिगुप्तो हेलाचार्यो मुनिर्जयति ॥१६॥ । और बहुत प्रकार के गंगोंको शान्त करती है। यावतक्षितिजलधिशशांकाम्बरतारकाकुलाचलास्ता ___ इस अधिकारमें, जिसके कुल ३५ पदा है. सिद्ध-वत् हलाचायोक्ताथःस्थयाच्छीज्वालिनीकल्पः॥२० मृत्तिका' का जो म्वरूप दिया है वह :म प्रकार है :- इसके बाद अंथकारकी प्रगम्ति-उनकी गुरुपरंराजद्वार-चतुष्पथ-कुलाल-कस्वामलरसरिभयतर. पगका उल्लेग्व-और गन्थ रचनके समय का जो वर्णन है वह देहलीकी उक्त प्रतिमें नहीं है-इसी प्रकार से द्विग्दरदवृषभगक्षेत्रगता मृत्तिका सिद्धा ॥ १ ॥ दूरदरमासा "" अनेक प्रतियों में प्रशस्तियाँ छूट जाती हैं । अस्तु; उस अर्थात-राजद्वार, चतुष्पथ, कुम्हार...नदीक दोनों का कुछ परिचय इस लेखके पहले भागमें कराया जा तट, हाथीके दान्त और बैलके मींग इन क्षेत्रोंकी मिट्टी चका है। सिद्धमिट्टी कहलाती है। इम प्रकार यह 'ज्वालिनीमत' नामके मंत्रशास्त्रका नवमें नीराजनाधिकार में अष्ट मातकाओं तथा संक्षिप्त परिचय है। इसमें पहले दो अधिकारोंका प्रायः काली, महाकाली आदि अनेक देवी-देवताओंके (जिन पग परिचय आ गया है और शेषका सुचनामात्र है । में वीरेश्वर, महाकाल, वागेश्वरी,योगिनी महायोगिनी । शाकिनी श्रादि भी शामिल हैं) और ग्रहों । मुख पिट्ठी जुगलकिशोर मुग्न्तार तथा सिद्धमिट्टी आदिस सालंकार तथा सलक्षण बनाने, प्रत्येक मुखको नैवेद्य-दीप-धूपादिकी जलमें बलि देने अथवा बलिको जलमें विसर्जित करनेत्रादिका विधान है, देहनीकी उक्त प्रतिमें इस पदके स्थान पर 'कविकरणऔर साथ ही उसका फल भी दिया है। अंतमें कहा है समयमुल्ये' लिखा है ( अनुवाद भी कवियोंकी बन नेके शास्त्र में कि 'ज्वालामालिनी देवीकी बतलाई हुई यह नीराजन- कर दिया है ), जो प्रयुद्ध है। इस प्रकारकी बहुतमी अशुद्धियां विधि गह, भूत, शाकिनी और अपमृत्यु के भयको शीघ्र देहनीकी प्रतिके मूलपाठमें भी पाई जाती है । बम्बई की वह प्रति ही दूर करती है। इस अधिकारमें २५ पद्य हैं। प्रायः शुद्ध है, जिस परमे मैने नेट लिया था। Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माश्विन,कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] अनेकान्तदृष्टि ५६१ गई अनेकान्त-दृष्टि [लेखक-श्री० पं० देवकीनन्दनजी, सिद्धान्तशास्त्री ] AND जानकी गति दृष्टि के अनुकूल ही होती है ; जैसे वश किसी एक विषयकी तरफ निरपेक्षरूपसे झक परमार्थ-दृष्टि वालके ज्ञानकी गति परमार्थकी जाती है तब अपने भ्रम और स्वार्थके कारण वह एक साधना अनकूल होती है और स्वार्थ-दृष्टि वालेके ज्ञान प्रकार के कदामहसे प्रम्त हो जाता है और उसको ही की गति स्वार्थीकी साधनप्रापिके अनुकूल होती है। जैसे तैसे सत्य सिद्ध करने तथा प्रचार करनेमें तत्पर हो "मंडे मंडे मतिभिग" की जो कहावत लोकमें प्रचलित जाता है । इस प्रकार उसके दृष्टिकोणमें विकार पा है वह सब भिन्न भिन्न दृष्टियोंके ऊपर ही निर्भर है। जानस उसका ज्ञान भी अज्ञानरूपमें परिणत हो जाता इसी लिए ज्ञान सम्यग्ज्ञान कब होता है और कैसे होता है। यदि ज्ञानमें भ्रम न हो, किसी तरहको स्वार्थवासना है, इस पर विचार करनेस यही निष्कर्ष निकाला जा न हो और मनुष्य अपनी मदसद्विवेकबद्धिको यथार्थ सकता है कि दृष्टि में समीचीनताके आने पर ही ज्ञानमे अथवा निर्विकार दृष्टि-कांग्णकी तरफ झकने के लिए समीचीनता आती है, अन्यथा नहीं । और दृष्टि में स. खुला गम्ता रहने दें, तो उनकी ज्ञानशक्ति वस्तुओं के मीचीनता वस्तुके यथार्थ स्वरूपके समझनम ही पाती अंत:स्थलको स्पर्श करके अवश्य ही वस्तुगत अनंत है। प्रत्यक वस्तु अनेकधर्मात्मक है।वे अनेक धर्म जिन धर्माको प्राप्त कर लेती है। और उनकी ऐमी दृष्टिके जिन स्वरूपोंमें स्थित होते हैं, जिन जिन परिस्थितियों होनम ज्ञानकी नदनकुल वृत्ति विकमिन होकर प्रज्ञानमें अथवा जिन जिन समयो तथा जिन जिन क्षेत्रोमे निव निजन्य से आल्हादका अनुभव करती है कि जिन जिन परिणामोंको लिय रहते हैं, उनका उन उन ही जिमके मामने बड़े बड़े वैपायक सुन्य, अवांछनीय ही स्वरूप, उन उन ही परिस्थितियों में अथवा उन उन ही नहीं किन्तु अत्यंन हेय और पापमूलक अनुभवमें पान ममयों तथा उन उन ही क्षेत्रोंमें उन उन ही परिणाम लगते हैं। इससे कुछ पहुँचे हुए अनुभवी विद्वाननि स्वरूपदखना इसीका नाम अनेकान्त-दृष्टि है । देश-काल इस प्रकार के उद्गार निकाले हैं किपरिस्थितिकं अनुकूल अवस्थित वस्तुको यथार्थरूपम न कोटिजन्म तप त ज्ञान विन कर्म झरे में। देखनमें मनुष्यके ज्ञानकी मंदता कारण नहीं है किन्तु ज्ञानीक छिनमें त्रिगुप्तिन सहज टरै ते ।। उसकी निकृष्ट-प्रासक्तिवश-म्वार्थपरम्परा अथवा तजन्य इन शब्दोंक द्वारा ज्ञानका जो माहात्म्य वर्णन किया जो ज्ञानका भ्रम है वहीं बाधक कारण है। गया है वह सब भनेकान्तदृष्टिसं होने वाले शानकाही है। जब मनुष्यकी दृष्टि किसी स्वार्थवश अथवा भ्रम- सम्यक् दर्शन-बान-चारित्रमें सम्यकदर्शनको अवस्थान Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ - प्राप्त होनेका कारण भी यही है; क्योंकि जीवात्माकं ज्ञानकी गति सदैव श्रद्धा के दृष्टिके - अनुकूल होती है और सद्दृष्टि, सम्यग्दृष्टि अथवा अनेकान्तदृष्टि का नाम ही सम्यग्दर्शन है। यदि श्रद्धा विपरीत हो तो ज्ञानकी गति, वस्तुके स्वरूप, भेदाभेद और कार्यकारणभाव के विषय में पक्षपातप्रस्त हो जाती है । और उसे ही विपर्यासयुक्त बुद्धि कहते हैं । अथवा शास्त्रीय परिभाषा में कारणविपर्यास स्वरूपविपर्यास और भेदाभेदविपर्यास युक्त भी कहते हैं। किंतु जिम समय व्यामाह के दूर होने से आत्मविशुद्धिवश अनेकान्तदृष्टिका उदय होता है उस समय आत्माका ज्ञान स्वभावसे ही अनेकान्तात्मक (निःपक्षपाती) होने से वस्तुके स्वरूप का यथार्थ बोधक होता है तथा रागद्वेप-रहित होनेके कारण अतीन्द्रिय आनन्दका उपभोग करने वाला भी हो जाता है | अतः ज्ञानके विषय में यह कहना श्रनुपयुक्त नहीं होगा कि वह अनेकान्तदृष्टि के विना ही मिथ्याज्ञान औव अकल्याणकारी कहलाता है । यहाँ पर यदि यह प्रश्न किया जाय कि दृष्टिके कान्तात्मक होने कारण क्या है ? तो इसका उत्तर यह है कि जिस प्रकार ज्ञानका स्वभाव वस्तुके स्वरूपको जानने का है उसी प्रकार उस ज्ञेयभूत वस्तुका स्वभाव भी अनंतधर्मात्मक और अपने सम्पूर्ण धर्मोसहित ज्ञानका विषय होने का है । अत एव जब मात्मा विशुद्धिवशात् सर्वज्ञता प्राप्त करता है तब वह उसके वस्तुगत संपूर्ण धर्मोंको युगपन् जानता है। परंतु अल्पश अबस्थामें वह (आत्म।) ज्ञान के अपूर्ण हानसे वस्तुगत अनन्त स्वरूपोंको युगपत् नहीं जान सकता है किंतु गुणमुख्य-विवज्ञावश नयात्मक ज्ञानके द्वारा थांडे अनेकान्त [वर्ष १, किरण ११,१२ से वस्तुगत स्वरूपोंको ( धर्मोको ) जानता है । और जिस समय वह अल्पज्ञ अपने उस नयज्ञानके चित्रको शब्दोंमें अंकित करके दूसरोंको समझाना चाहता है। अथवा दूसरोंके द्वारा स्वतः समझना चाहता है उस समय वह नयज्ञान के समान ही शब्दों में एक साथ वस्तुगत नाना धर्मों के प्रतिपादनकी शक्तिका अभाव पाता है। इसी लिये एक ही वाच्यके नानावाचक मान गये हैं और नाना अपेक्षाओंक द्वारा एक ही अर्थका नानारूपसे प्रतिपादन किया जाता है। जैसे:- इन्द्रके वाचक इन्द्र, शक्र, पुरंदर ये तीन शब्द हैं। जब इन्द्र की आत्मा में ऐश्वर्य के उपभोगकी, प्रत्येक कार्यको कर सकनेकी, और राक्षसोंको विदारण करनेकी शक्ति विवक्षित की जाती है तब उसके इंदन से इन्द्र, शकन से शक, और पूः नामक राक्षसके विदारणसे पुरंदर ऐस नाम पड़ते है । यद्यपि उसमे तीनों ही शक्तियाँ प्रत्येक समय में मौजूद हैं परन्तु एक व्यक्ति के द्वारा एक समय में एक ही शब्द प्रतिपादित किया जा सकता है तथा तीनों ही शब्दोंक द्वारा इन्द्रका वाच्य जाना जाता है। इसी प्रकार जीव, जल आदि प्रत्येक शब्द वाच्य के नाना वाचकोंमें भी यही युक्ति लगा लेनी चाहिये । * स्वामी समन्तभवने रमकरण उभावका चार में भी, 'सद्दृष्टि ज्ञानवतानि ' पदके द्वारा सम्यग्दर्शनके लिये 'सरदृष्टि' शब्दका प्रयोग किया है। इस प्रकारके एक ही अर्थके नाना वाचकोंका विचार करनेसे यह सिद्धान्त सहज ही निकाला जा सकता है कि वस्तुओ में अनेक धर्म है और शब्द उन धर्मोका युगपत् (एक साथ) कहने के लिये असमर्थ है। श्रतएव क्रमपूर्वक भिन्न भिन्न अर्थकी अपेक्षा से एक वाचकके नाना वाचक हो जाते है । इसीलिये जैनधर्म निसर्गको ही धर्मका स्वरूप बतलाने वाला होने से वस्तुको अनेक धर्मात्मक अर्थात् अनेकान्तात्मक मानता है; क्योंकि 'अनेकान्त' शब्द में 'अन्त' शब्द का अर्थ 'धर्म' है । और उन सब धर्मोंका ज्ञान मुख्य-गौरा-विवक्षाके Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] अनेकान्तदृष्टि ५६३ द्वारा ही किया जा सकता है अन्यथा नहीं । उदाहरण एक बात और भी बतला देनेकी है और वह यह के तौर पर-जिस समय आप शकन गुणके योगसे कि जिस प्रकार व्याकरणमें नाना प्रत्ययोंके लगानसे इन्द्रको 'शक' कहते हैं उस समय यद्यपि उसमें इंदना- धातुओंके नाना अर्थ हो जाते हैं अर्थात 'धातनामने दिक गण भी मौजूद हैं परन्तु वे गौण हैं मुख्य नहीं। कार्थत्वात' इस सूत्रानुसार धातुगत प्रकृति के अनेक अर्थ यदि उन सबको ही मुख्य किया जायगा तो किसी हैं और वे सब अर्थ भिन्न भिन्न प्रत्ययों व भिन्न भिन्न समय भी आप शकादिक शब्दोंका उच्चारण कर ही उपमों के लगनेसे भिन्न भिन्न रूपमें प्रगट होते हैं । नहीं सकते । अतः गुण-मुख्य-विवक्षास ही शब्द वस्तु- जैसे-प्रहार, विहार, श्राहार इत्यादि रूपोंमें 'ह(हर) गत अनेक धोका प्रतिपादन कर सकते हैं । यही क- धातु है, प्र, वि, और श्रा, ये तीन भिन्न भिन्न उपथन युक्तियुक्त प्रतीत होता है। सर्ग हैं। और इन तीनों ही उपसर्गोंकी अपेक्षाम प्रहा__ मारांश यह है कि पदार्थमें अनेक धर्म होने से, र, विहार और श्राहार शब्दाम भिन्न भिन्न प्रोंका शब्दोमें एक एक ही धर्म प्रतिपादन करनेकी सामर्थ्य बांध हो जाता है । तथा हत, हरण, हारण इत्यादि होनसे और गुणमुख्यविवक्षाकी प्रवृत्तिकं विना काम न नाना रूपोमें भी 'ह' धातु एक है परन्तु प्रत्ययोंकी चलनेस,भनेकान्तवाद 'अन्वर्थवाद' की पदवीको प्राप्त भिन्नतासं हग जाना, हरना, हरवा लेना, ये तीन भिन्न हो जाता है । इसके आश्रयके विना किसीका भी काम भिन्न अर्थ प्रतीत हो जाते हैं उसी प्रकार सामान्य और नहीं चल सकता है । जैस भाषा छह कारकमय होती विशेष रूपसे वस्तुमें अनन्त धर्म हैं । परन्तु द्रव्य,क्षेत्र, है अर्थात् कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान तथा काल तथा भावकी अपेक्षास जिस समय जिस धर्मकी अधिकरण-मय होती है और कारकोंक विना भाषाशैली विवक्षा होती है उम समय उस धर्मकी मुख्यता रहने कभी भी व्यवहारयोग्य नहीं गिनी जा मकती वैसे ही के कारण अन्य शेप धमों की गौणता हो जानी है। वस्तुको अनेक धर्मात्मक न माननंसे, शब्दमें एक काल जैसे उपयुक्त दृष्टान्नमें 'ह' धातुके माथ प्रत्यय वा में एक ही अर्थकी सामर्थ्य न मानस तथा प्रतिपादन- उपसर्ग लगानम धातुगत मूल अर्थ गौण पर जाना है में गण मुख्य-शैलीका आश्रय न माननेस किसी प्रकार और प्रत्ययगत तथा उपमर्गगन अर्थ प्रत्येक समय का वाचणवाचक व्यवहार भी नहीं बन सकता है। प्रमुम्ब हाना जाता है, वैसे ही वस्तुगत विवक्षित धर्म जिस प्रकार जो लोग व्याकरणको समझते हैं मुख्य और अविवक्षित धर्मोको गौण हो जानस शब्दों अथवा जो लाग नहीं समझते हैं वे सब भाषा छह के द्वारा भिन्न भिन्न अर्थोका वाच्य-वाचक-व्यवहार कारकमय ही बालन हैं उसी प्रकार अनकान्तका स्व- होता जाता है । जब तक वस्तुमें द्रव्य, क्षेत्र, काल रूप समझने वाले और न समझने वाले दोनोंको ही नथा भावकी अपेक्षासे गुणमुख्य व्यवस्थाको विवक्षा अनकान्तका आश्रय लेना पड़ता है। अनेकान्तवादका नहीं की जानी है तब तक अनेकान्तवारकी शैलीका ही मग नाम 'अपंक्षावाद' है । अपेक्षावादका आ- परिचय ही नहीं हो सकता है। सामान्यको मुख्य और भय लिये बिना कोई वक्ता वा श्रीता वस्तुके स्वरूपको विशेषको गौण मान कर विधिका गांतक 'मस्ति' न तो कह ही सकता है और न समझ ही सकता है। और निषेधका द्योतक 'नाम्नि शन्नका प्रयोग करके Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त वर्ष १, किरण ११, १२ उपरिनिर्दिष्ट गण-मुख्य-व्यवस्था-द्योतक (अपेक्षावाद- हो सकते हैं । जैसे एक ही व्यक्ति भिन्न भिन्न विवयोतक) 'स्यात्' यह अव्यय उक्त 'अस्ति' और 'नास्ति' क्षाओंसे एक ही कालमें परस्पर सापेक्ष रीतिसे पिता, के साथ जोड़ा जाता है। अर्थात् जिस समय आप पुत्रत्वादि विरोधी धर्मोंका आधार कहा जाता है उसी किसी वस्तुको सामान्यरूपस विवक्षित करके प्रतिपा- प्रकार प्रत्येक पदार्थ सामान्य विशेष रूपसे विधिनिदित करना चाहते हैं और विशेषरूपसे प्रतिपादन नहीं षेधोंके द्वारा अर्थात् अस्ति-नास्ति-रूप परस्पर विरोधी करना चाहते हैं, उस समय वह सामान्य रूपसे है, धर्मों के द्वारा एक ही कालमें प्रतिपादित किया जाता है। इस लिए विधिवाचक शब्दकं साथ 'स्यान अस्ति' सामान्य विशेषके ऊपर अस्ति-नास्ति-रूपसे जैसे ऐसा प्रयोग करते हैं और विशेष रूपस नहीं है इस विचार किया उसी प्रकार नित्यानित्यत्व, एकानेकत्व, लिए निषेधवाचक शब्दके साथ ' स्यान्नास्ति' ऐसा तथा दैवपुरुषार्थवाद आदिक ऊपर भी अनकान्तवाद प्रयोग करते हैं । क्योंकि जिस समय सामान्यस का प्रयोग करनेसे वास्तविक दार्शनिक पद्धतिका बोध किसी वस्तुका प्रतिपादन किया जाता है उस समय हो जाता है। स्वयमेव यही सिद्ध हो जाता है कि उस समय उस प्राचार्यों ने जब संभव भंगोंकी अपेक्षा इसी नयवस्तुका विशेषरूपस प्रतिपादन इष्ट नहीं है । इस ही वादका निरूपण किया है तब सात भंगोकं म्वरूपका प्रकार जिस जिस समय जिस जिस अपेक्षा जा उलेख किया है। उस शैलीका भी किसी समय पाठकों जो विधिस्वरूप वाक्य बोला जायगा उस उस समय का परिचय करानका प्रयत्न करूँगा। इस लेखमें अनंउस उस अपेक्षा प्रत्येक विधात्मक वाक्यका स्वयः कान्तदृष्टि के साथ सिर्फ विधि-निषेधात्मक भंगका ही मेव यह अर्थ निकाला जायगा कि विवक्षित विधिक खुलासा किया गया है। अनुसार ही यह विधिरूप है, इतर अविवक्षित अपे उपसंहार क्षाओंसे नहीं है । इसी प्रकार जब जब आप किसी चीजका निषेध करना चाहेग उस उस समय उस उस अनेकान्त' के विषयमें पूज्य आचार्योने बड़े मनोनिषेधात्मक वाक्यके प्रयोग करते समय यही अर्थ हर भावोंके चित्र खींचे हैं । वास्तवमें उनके पूर्वपक्ष समझना चाहिए कि यह वस्तु अमुक अपेक्षा नहीं है और उत्तरपक्षोंद्वारा जैसा अशेष दर्शनोंका रसास्वाद इस लिए ऐसे निषेधात्मक प्रयोगमें भी यह स्वयमेव हो कर आनंद मिलता है वैसा विशेष विशेष दर्शनोंके सिद्ध होता है कि अमुक विवक्षावश उसका निषेध है, पठन पाठनसे भी वह प्राप्त नहीं होता। इसकी महिमाअन्य सर्व विवक्षामांस निषेध नहीं है। सारांश यह है का भी प्राचार्यों ने बड़ी ग्वबीस वर्णन किया है जिस कि विवक्षित विधिमें ही अविवक्षित निषेधोंका सहयोग का कितना हो परिचय पाठक 'अनेकान्त' की पिछली है-अविनाभाव है-और विवक्षित निषेध में अविव- कुछ किरणों में प्राप्त कर चुके हैं। 'अनेकान्त'की पहली क्षित अंशोंकी विधि गर्भित है, इसीको शास्त्रीय भाषा किरणमें - 'जैनीनीति' नामक सम्पादकीय नोटमेंमें यों कहा है कि विधिनिषेधसापेक्ष, तथा निषेधविधि- श्रीअमृतचन्द्रसूरिका यह वाक्य भी सुन्दर व्याख्यासापेक्ष होता है । विधि व निषेध निरपेक्ष सिद्ध नहीं सहित प्रकट किया गया है, जो अनेकान्तनीति अथवा Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . आश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं० २४५६ ] अनेकान्त के अच्छे प्रदर्शनको लिये हुए हैएकेनाकर्षन्ती श्लयन्ती वस्तुतत्वमितरेण । अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्थाननेत्र मिव गोपी। भक्तिभाव भरदे इसमें बतलाया है कि जैस गोपी मक्खन निकालनेके लिए एक डोरीको स्वींचती है और दूसरीको ढीली करती है तब ही मंथन-क्रिया का टीक संपादन करके मक्वन निकाल सकती है वैसेही बुद्धि जब एक धमको मुख्य रूप से खींचती है और शेष धर्मक पक्षको गौणरूपसे ढीला कर देती है तब ही वह वास्तविक वस्तुगत स्वरूपको मंथन करके, सारभूत हेयोपादेयरूप नवनीत निकाल सकती है। यही जननयवादकी नीति है । पाठकगण ! यदि इस नीतिका सम्यक प्रयोग हम सब अपने जीवनम करें तो मैं निश्चयपूर्वक कह सक ता हूँ कि जीवन में एक पूर्व क्रान्ति उत्पन्न हो सकती है, जिसके फनस्वरूप हम अपनी सब अधीगतियोंमें मुक्त होकर उन्नत-गतिगामी बन सकते हैं; क्योंकि जिस प्रकार अदिसावादका असली प्रयोग क रनेवाला जगतमें उत्तम उत्तम, सहृदय, कोमलान्त करण, दयालु और जगत्सृज्य व्यक्ति बनता है उसी प्रकार अनेकान्त मनुष्य सच्चा समालोचक, न्यायवादी, उदाग्वृद्धि, सर्वागका ज्ञाता और विश्वकी विभृति वन सकता है | जगत में जितने अन्याय-अन्याचार होते हैं वे सब उन्हीं लोगोंके द्वारा होते है जिन दुःखमय जगत के विभवकी चाह नहीं चाह नहीं ईश ! मुझे पदाधीश करदे । पराधीन रोगसम भोगोकी न चाह मुझे चाह नहीं बड़े बड़े महलों में घरदे । ५६५ की कि बुद्धि मिथ्या एकान्तवाद से (कोरे पक्षपात से ) दूषित होकर कठोर हो जाती है। और उस कठोरता के कारण ही यथेच्छ वृत्तिकी परिपुष्टि के लिए संपूर्ण शक्तियों का उपयोग कराती है तथा न्याय-अन्याय के विवेक से शून्य हो जाती है । अतः यदि यह कहा जा कि अनेकांतवाद के विना समझे अहिंसावादकी भी कुछ क़ीमत नहीं है तो कुछ श्रत्युक्त नहीं होगा । जगत में इतिहास साक्षी देता है कि जितने कठोर और भयंकर पाप न्याय व धर्मके नाम पर हुए हैं उतने दूसरे किसी चीज़ के नाम पर नहीं हुए । और जिन शक्तिशाली अथवा मायाचारी लोगोने न्याय और धर्मके नाम पर अलोकोको फुसला कर सरल-सीधे व्यक्ति पर - त्याचार किये है वे सब इस श्रनेकान्तवाद के न समझने के कारण ही किये है । अनेकान्तवाद युक्तिपूर्ण निर्वैरवृत्तिपूर्वक एक प्रकार की विशाल बुद्धिका श्रात्मा में अवतार होता है और उसके कारण यह आत्मा सा अहिसक बन कर स्वपरका कल्याण करता हुआ संसार के पाप कर्म से रहित होकर अपनी पूर्ण श्रात्मसिद्धियोको प्राप्त करना है। अतः भगवान महावीर के इस विशाल तत्वको जो लोग म्वत धारण करके जगनको समझाने है उन लोगोका ही जन्म सफल होता है। भक्ति भाव भरदे [ लेखक - पं मुन्नालालजी "मग " ] A. महकारी पुत्र, पौत्र, मित्रकीन चाह मुझे चाह नहीं स्वर्णमयी जेवर जर दे । छोड़ जग-राह चाह नाथ ! एक चाहना है भक्त- 'मणि' - मानस में भक्तिभाव भरदे ॥ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ अनेकान्त सुभाषित मणियां प्राकृतलाज्जोएण त्रिण। जो इच्छदि मोक्ख मग्गनुवतुं । मित्रदिघलयो धयाम् || - शिवार्य | 'जो मनुष्य ज्ञानके उद्यान विना चारित्र-नपरूपी मोक्षमार्ग में गमन करना चाहता है वह अंधा अंधेरे में दुर्गम स्थानको जानकी इच्छा करता है ' [ दुर्गम स्थानको अधेरे में जाना अति दुःखकर होता है — उसमें व्यर्थ हो को हो खनी पड़ती हैं उसी प्रकार बिना ज्ञानायक चारित्र और तपक मार्ग पर चलनेमे व्ययकी ठोकरें खाने के सिवाय और कुछ नतीजा नहीं निकलता । | जेसिं विसरी तेसि दुक्खं वियाण सन्भावं । जदि त हि सम्भावं वावारां रात्थि विसयत्थं । - कुन्दकुन्दाचाय | 'जिनकी इन्द्रियविषय में श्रासक्ति है उनके दुःख म्वाभाविक समझना चाहिये, क्योंकि यदि वह स्वभावसे न हो तो विषय के लिये इन्द्रियव्यापार ही नहीं बनता । भावार्थ - इन्द्रियोका विषयव्यापार रोगोपचार के सदृश है और इसलिये उनके दुःखरूप होने को सूचित करता है। [ग होने पर मोपचारकी ज़रूरत नहीं रही उसी प्रकार यदि इन्द्रिया दुःख में निरत होती तो विषयगा की इच्छा भी नही इच्छा जब पाई जाती है तो वह रागकन है और इस लिये इन्द्रि को दुरूप सूचित करती है । परं बाधासहियं विच्छिरणं बंधकर णं विसमं । जं इंदिएहि लद्धं तं साक्खं दुक्खमेव तथा ।। — कुन्दकुन्दाचार्य | ( ' (पुण्यजन्य भी) इंद्रियसुख वास्तव में दुःखरूप ही है; क्योंकि वह पराधीन है- दूसरेकी अपेक्षाको लिये हुए है, बाधा सहित - क्षुधा तृष्णादिककी अनेक वर्ष १, किरण ११, १२ बांधाओं अथवा आकुलताओं से युक्त है, विच्छिन्न हैप्रतिपक्षभूत असाताके उदयसे विनष्ट अथवा सान्तरित हो जाने वाला है, बन्धका कारण है - भोगानुलग्न रागादि दोषोंके कारण कर्मबन्धनका हेतु है, और विषम है - हानिवृद्धि का लिये हुए तथा तृप्तिकर है। [ इन्द्रियमुखको दुःखम्प कहने के लिये ये ही पांच कारणा मुल्य हैं । अतीन्द्रियमुखमें इनका सद्भाव नहीं इसी लिये वह सच्चा सुख है। ] जावई लिउ उवसमइ, तामइ संजदु होइ । होइ कसायहं वसिगयउ, जीउ अमंजदु सोइ ॥ - योगीन्द्रदेव | 'जिस समय ज्ञानी जीव उपशमभावको धारण करना है उसकी कपायें शान्त होती हैं— उस समय वह संग्रमी होता है और जिस समय ( कोचादि ) कपायोंके अधीन प्रवर्तता है उस समय वह असंयमी होता है । | इसमें स्पष्ट है कि मयनीपना तथा श्रमयमीपना किमी बाह्य वषादि क्रियाकागड पर ही अवलम्बित नही है बल्कि उसका आधार कषायां का अभाव तथा सद्भाव है। और इस लिये कषायरूप परिणत एक महावती मुनि भी यही है और कषाय की उपशान्तता को लिये हुए एक माती गृहस्थ भी गयी है ।] किरियारयिं किरियामेतं च दो वि एगंता । अममत्था दाउ 'जम्ममरणदुक्ख पा भाई' | - सिद्धसेनाचार्य | ' क्रियारहित ज्ञान और ज्ञानरहित मात्र क्रिया ये दोनों ही एकान्त हैं और 'जन्म मरणादि दुःखोंसे भय मत कर' इस प्रकारका श्राश्वासन जीवको देने के लिए असमर्थ हैं।' भावार्थ- कोरा ज्ञान या कोग चारित्र अभयपदकी प्राप्ति नहीं करा सकता - संसारकं दुःखों से छुटकारा नहीं दिला सकता । दोनों मिलकर ही उस कामको कर सकते हैं । Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] सुभाषित मणियाँ सस्कृत कर वहाँ लाता है जहाँ पहलेसे उसकी मनि ठहरी हुई होती है । परन्तु एक पक्षपातरहित मनुष्य की ऐसी यदि पापनिरोधोज्यसम्पदा कि प्रयोजनम् । नीति नहीं होती, वह अपनी मतिको वहाँ ठहराता है अथ पापासवोऽस्त्यन्यसम्पदा कि प्रयोजनम् ॥ जहाँ तक यक्ति पहुँचती है-अर्थात् उसकी मति प्रायः -स्वामी समन्तभद्र। यतयनुगामिकी होती है। 'यदि पापका निगंध है-पापासव नहीं होता है भसता हि विनम्रत्वं धनषामिव भीपणं । और इस लिये किसीकं पाम धमसम्पत्ति तथा पुण्य वि -वादीभसिंहसूरिः। भूति मौजूद है- तो फिर उसके लिये दूमरी-कुलै 'असन पुरुषोंकी-दुर्जनोंकी-विनम्रता धनषोंकी श्वर्यादिरूप-सम्पत्तिका क्या प्रयोजन है ? वह उस 'नगह भयंकर होती है।' के आगे कोई चीज नहीं । और यदि आत्मामे पापास्रव बना हुआ है तो फिर दूमरी-कुलेश्वर्यादिरूप- "ह दारिद्र! नमस्तुभ्यं सिद्धोऽहं त्वत्प्रसादनः। सम्पत्ति किस काम की है ? वह उस पापाम्रवकं कारण पश्याम्यहं जगन्स न मां पश्यति कश्चन ॥" शीघ्र नष्ट हो जायगी और उसके दुर्गतिगमनादिको दारिद्र ! तुझं नमस्कार हो, तेरे प्रसादमें में गंक नहीं सकेगी। (अतः ऐमा सम्पनिको पाकर मद सिद्धपदको प्रान हो गया हूँ; क्योंकि मैं सब जगतको करना और इम सम्पत्तिमे रहिन दूसरे धर्मात्माश्रीका देवता है परन्तु मुझे कोई नहीं देखता।' तिरस्कार करना मूम्बंता है )' यह पाबड़ा नीमार्मिक है। मिद भावान मका वखते हैं 3, काई नदी दग्यताइतनामी बानका लेक इनमें एक परिख मनुष्य दिदोषमंयक्तः प्राणिनां नव नारकः । कागा दशाका अच्छा विवीचा गया है भार यह सुचित किया पतन्नः स्वयमन्येपा न हि हस्तावलम्बनम ॥ गया है कि दारा मनुष्य गण की मार भाषा भी जटित टिम -वादीभमिहमार। दमनाना , परन्तु उमसी मार काई प्रांत भरलमाता भी नी' 'जो गगादि (गग-द्वेप-काम-क्रोधादि ) दापोम .. - "देहीनि वचनं श्रुत्वा देहम्याः पंचदेवताः । युक्त है वह जीवाका नारक नहीं हो सकना; क्योंकि जो बुद ही पनिन हो रहा है-डब रहा है-उसके दूमग " मुम्वान्निर्गस्य गच्छन्ति श्री-ही-धी-धृति-कीर्तयः।।" व का उद्धार करने के लिये हस्तावलम्बन दना नहीं बनना- हम वचनको सुनकरदहमें स्थित श्री (लक्ष्मी), दृसगेका उद्धार वहीं कर मकता है जो बुर पहले अ. ही ( लज्जा ), धी ( बुद्धि ), धृति (धैर्य ) और कीर्ति पना उद्धार किये हुए हो।' नामक पाँच देवता मुखके मार्गमे निकल कर बाहर चले जाते हैं।' भाग्रहीना निनीपनि युनियनत्र पनिम्म्य निविष्ठा । इसमें एक युक्तिमे अपने लिये याचनाकाने अथवा भीर पत्नपानरहिनस्य तु युक्तियत्र तत्रमनिरेनि निवेशम् ॥ मांगनेमा दोषमतलाया गया और यह मूचित किया गया कि 'खेद है कि हठमाही मनुष्य युक्तिको बीचमाँच उसने पाच वातांको क्षति की है। Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उर्दू-. ५६८ अनेकान्त वर्ष १, किरण ११, १२ हिन्दीगग उदै भोगभाव लागन सुहावनस, "बद न बोल जेरे गर्दै गर कोई मेरी सुने । विना गग ऐम लागै जैसे नाग कारं हैं। है यह गम्बदकी सदा जैसी कहे वैसी सुने । राग ही सौं पाग रहे ननमें मदीव जीव, x x -'जौक' गग गये श्रावत गिलानि होत न्यारे हैं । "कमीना४ काम करनेमे जो डर जाए वहादुर है। रागौं जगतरीति झठी मब माँची जान, "बनी-आदमकी खातिर जान दे वह बेबहादुर है ।" गग मिटै मुझन अमार ग्वेल सारे हैं। रागी-विन रागीके विचारमें बड़ी ई भेद, हम करते हैं आदत की गुलमाना-अताअतः । जैसे 'भटा पच काहू काहको बयार है। इसलाहपजीर इसलिये आदत नहीं होती। ___ x x -भधरदास । x x -'हाली' दंग्य कुमंगनि पायक होहिं सुजन सविकार । "यही है इबादत१० यही दीना-ईमाँ। गिनिजांग जिमि जल गरम चंदन होत अँगार । कि काम आए दुनिया में इन्साँपन्क इन्साँ ।" X X X ___ x x -वन्दावन। जो कह नेरी ज़बाँ नकश ३ दिलों पै हो जाय । जा रहीम उत्तम प्रकृति का करि सकन कुमंग । कोल' में अपने अमल में वह अमर पैदा कर ।। चन्दन विष व्यापन नहीं लपटे रहन भुजंग ॥ x -'प्रहार' x ___ x -हीम । x इन्साँ की शगाता५ मुतअल्लिका है अमल में । मंवन कीजे धूप का प्रातः ग्वले शरीर । मीराम में नामीम शगान नहीं होती। बंध डालने गंग को रवि किरणों के तीर । x x -'अशंक'। ___ x x -'हाली' आईना:दग्वा अगर पीरी में याद आया शबाब परिश्रमी लोग दुखी न होन, परिश्रमी ही जगदुख खोत। . सुदेव भी संबक है उन्हींका, मनप्य ता है, श्रमहीन फीका।। , आगे मग्न और थी अब और ही सग्न हुई ।। x x -अमीर' x x - दरबार्गलाल । इल्मा-तवाजो-हुनगं-दादा यादहकः । जो घमना है पिकवन्द बीच,नो त्याग र काककति नीच।। जिस शख्समें ये वफल नहीं वह वश नहीं। किंवा यही है तुझको बताना विभपाणं मानं पंडिनानां'। x -'शेर' xxx राहन-४ जिस कहने वह महननका मिला५ है। ज्यों ममुद्रमें पवन तें, चहुँदिशि उठन नरंग। ____ आगमतलबी-६ मूजिबे-राहत नहीं होती। त्यौं श्राकुलतामों खित, लहैं न ममरम रंग ॥ x x x x -हाली' -वृन्दावन । "मरजा मांग नहीं अपने ननके काज । १ - भागभानक नीचे. : आवाज़. नीच , मानवपर उपकारक काग्ने ननिक नाव लाज ॥" नमानक लिए ६ ममूल्य मानी. दामवंक म्पमें मानX X X पालन. ६ सुधारको ग्वीकार करने वाली. १० उपासना. ११ धर्मव सुखी रहैं सत्र जीव जगतक, कोई कभी न घबरावे, अदान. १२ मनुव्यक. १३ अस्ति. १४ वचन. १.. मजनता. १६ बैर-पाप-अभिमान छाई जग, नित्य नये मंगल गावे। गम्बद्ध. १५ दाय-विरासत. १८ दर्पणा. १६ श्रद्धाव था. २० यौवन घर-घर चर्चा रहे धर्मकी, दुष्कृत दुष्कर हो जावें, २१ क्यिा, विनय, कला, न्याय मौर ईश्वम्मरणा. २२ गुणा. ज्ञान-चरित मतकर अपना,मनुज-जन्म-फलसबपावें॥ २३ मनुन्य. २० मुख. २५ उपहार-पारितोषिक. २६ मालस्यमें । पर मुखकी इच्छा. २७ मुखका कारया। att Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिवन, कार्तिक, वीरनि० सं०२४५६] इतिहास इतिहास [ लम्बक - श्रीमान पं० नायरामजी पमा ] कछ समयसे जैनसमाज में भी इनिहामकी चर्चा घटना बढ़ाकर प्रकट की जाती है और बड़ी भारी से होने लगी है। दिगम्बर और ताम्बर घटना बिलकुल सामान्य बना दी जानी है, उसी मत मंगनों ही सम्प्रदायके विद्वानोका ध्यान इस ओर या सम्प्रदायकी उससे सबसे अधिक हानि होती है। आकर्षित हुआ है और वे इस विषय के छोट मांटे क्योंकि एक सत्य घटनास मनुष्य जी शिक्षा ग्रहण लेख तथा ग्रन्थ लिम्बन लग है । पत्रों में अक्सर इस कर सकता है, वह शिक्षा उमके अनुयायियोंकी नही विषय के लेग्य भी प्रकाशित होने गहन है परन्तु हम मिलने पानी । जिन कारण-कलापोंके मिलनेका देखन है कि अधिकांश जैन लग्वक इनिहामके अमली परिणाम बग होना चाहिए, झटं इनिहासम उनका उद्देश्यका न ममझ कर उस बलपूर्वक धार्मिक या मा परिणाम असा विदिन होता है और न उस प. म्प्रदायिक कनाम घमाट ले जाने का प्रयत्न करत है. विश्वास करने वाले 'बबन' बोका 'प्राम' बान का जो कि सर्वथा अनाचन है। इतिहाम सत्य घटनाांका आशा करने लगते है। इसके सिवाय इतिहास प्रकाशक है। किमी मत या मम्प्रदाय । कारण वह नंग्यक जानना है काला गं निम्नधिविपला मत्य का उल्लङ्घन न कर मकना । इमाना इतिहाम च पथ्यो'. मम अनन्त और पवा वान लवकका-चाई वह स्वयं किमी मन या सम्प्रदायपर विम्नन है.टमाना मेरे पानपरभा कोईतिहामिय विश्वास करनवालाहा-यह कनव्य है कि वह ना मगरपान रहना-नnatनमबर घटना जिस समय श्रार जिम पम घटित हुई हा पकट हा बिना न रहेगा और नब मंगगणना मत्यका में उमी समय और टमी रूप में प्रकाशित करे। मरने वालों में की जायगी म लिग भा सत्यका पाषण करना ही उमका मबमे पहा कनव्य मल का मान किमी मय घटना भयथान्य है । किसी मत या सम्प्रदायकी अपना म मन्यका पकाशित करनका प्रयन ना . सबम अधिक एकनिए उपामक होना चाहिए। उमं कल्पना कीजिए कि मान पावमा व पालं जानना चाहिए कि किसी प्रकार के पक्षपातम किमी मा जैनाचार्या या जो पर विद्वान या घटनाको अयथार्थ रूपमे प्रकाशित करना इतिहास का और उसके पागिनत्य के प्रकाशित करने वाले इस समय हत्या करना है। उमे विश्वास होना चाहिए कि म मा कोथ मिलने । अपनं यकी दुर्वनना . ही इतिहासका जीव है और सजीव इतिहामही मनाय वश उसने किमी ममय कोई दृप्रनि की पी. पा को सुमार्ग बतना मकना है. जो कि इतिहास पढ़ने का साधारण लिया था. और जनधर्मकेता सबसे प्रधान लाभ है। वास्तवम दम्बा जाय तो जिम कई मंच है उनमें शत्रुता बढानकी काजिश की थी। मन या मम्प्रदाय माहम पह का कोई छोटीमा एक अपरिगामी मामा धर्ममाहा काम कम Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनकान [वष १, किरण ११, १२ की इन दुष्प्रिवृत्तियोंको ढकनेका प्रयत्न कर सकता है। किसी ऐसे मनष्यक लिखे हुए तो नहीं हैं, जो स्वयं उसे यह शक्का हो सकती है कि इस घटना प्रकाशित किसी धार्मिक या साम्प्रदायिक मोहसे अंधा थाहोनस जैनधर्मके गौरवकी हानि होगी; परन्तु एक अर्थात् दूसरे मम्प्रदायका गौरव घटाने के लिए तो उस ऐतिहासिक लेखक इस घटनाको यथानथ्य प्रकट ने उक्त प्रयत्न नहीं किया है। परन्तु ऐसे मौकों पर भी करनेमें जरा भी कुगिठन न होगा। क्योंकि वह जानना इतिहास लेखकको धैर्य और सत्यका आग्रह न छोड़ है कि व्यक्तिविशेषके चरितकी होनता और उस्चतास देना चाहिए। हृदय में किसी प्रकारका विकार या किसी ममूचे समाज या सम्प्रदायकं चरितकी माप क्रोधादि न लाकर इस बातकी खुब जाँच कर लेनी नहीं हो सकी और इस घटनाके छिपानेस ऐतिहा- चाहिए कि वास्तवमे ही उक्त प्रमाण विश्वस्त नहीं है। सिक सत्योंमे लोगोंको जो शिक्षा मिलती है उससे वे यदि थोड़ी भी शंका रह जाय, तो उस शंकाको छिपा बञ्चित हो जायेंगे । लोग इमसे जान सकते हैं कि न रखना चाहिए-अपन लेखमें उसका भी उल्लेख कर विद्वान होमस ही कोई चारित्रवान नहीं हो सकता है। देना चाहिए। ज्ञान दुमरी बात है और चारित्र दूमगे । मानव चरिन जैनधर्मक ग्रंथों में, शिलालेखामें, स्थविगवलियों में, की जो दुर्बलता आजकलकं भट्टारकोंमें पाई जाती है. पट्टावलियांमे भाग्नवर्षक इतिहासको बहुमूल्य सामग्री जमका पाँचौ वर्ष पहले भी अस्तित्व था । 'उम समय छिपी हुई है । भारतवर्पका जो इतिहास तैयार हो रहा भट्टारकोंके आचरण का सत्रपात हो चका था । संघ. है, उसका सम्पूर्ण और सुस्पष्ट बनाने के लिए जैनियां मोह या सम्प्रदाय-माहने। उस समय के विद्वानों पर भी को चाहिए कि वे अपने साहित्यका अच्छी तरहम अपना अधिकार जमा लिया था और इससं उक्त अन्वेषण, आलोडन और पर्यवेक्षण करके उममेम विद्वान प्रथोमें यदि उसके चरितकी दुर्बलताका कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों का प्रकटीकरण करें । इससे न केवल प्रभाव पड़ा हो, तो उसका सावधाननासे विचार जैनसाहित्यकाही महत्व प्रकट होगा किन्तु भारतवर्षकरना चाहिए-उन्हें सर्वज्ञवचनोके समान बिना तक का इतिहास भी श्रधरा न रहेगा। परन्तु इस कार्यम 'वितर्क किये मानने के लिए तैयार न हो जाना चाहिए। सफलता तब ही प्राप्त हो सकेगी जब कि हम इतिहास इत्यादि अनेक बातें ऐसी हैं जिनमें हम बहुत कुछ को इतिहासकी ही दृष्टि से देखेंगे। ऐसा न करके यदि 'लाभ उठा सकते हैं । इसके सिवाय जिन प्रमाणों से हम धार्मिक पक्षपातमें पड़ जावेंगे, अपने इतिहासको उक्त विद्वानके चरितकी दुर्बलता प्रकट होती है वे यदि हम भारत के इतिहासका ही एक अंश न मममेंगे यदि माज किसी तरहसे छिपां भी दिये जायें, वो भी -केवल अपना ही महत्व प्रकट करनेवाला समझने, 'यह निश्चय है किभी न कभी उनका वास्तविक रुप तो हमारा विश्वास उठ जायगा और जो काम हम प्रकाशित हुए बिना न रहेगा। करना चाहते हैं वह हमसे यथेष्ट रूपमें न हो सकेगा। - “हाँ, इस बात का सायाल अवश्य रखना चाहिए - हमारा कुछ भाधुनिक कथासाहित्य ऐसा है जिस कि जिन लेखों या प्रमाणोंसे उक्त दुजताका अंश में बहुतसे सुरमित ऐतिहासिक पुरुषोंके चरित निक्य प्रकट होता है ये अविश्वस्त तो नहीं हैं । अर्थात वे हैं और जहाँ तक हमने इस विषयमें विचार किया है Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्विन, कार्तिक, वीनि० सं०२४५६] इतिहास वे सर्वथा भ्रमशन्य नहीं हैं । : तिहासकी दृष्टिम वे महाव्याधिः पनिपमानन्धमार्गो भगवन कि लिखे भी नहीं गये, केवल धर्मप्रभावनाको प्रकट करने क्रियतामिति वाणां भगवता परमात्मनो गणके स्वयालम लिम्वे गये है। उदाहरणकं नौर पर कुछ गणस्तांत्रविधीयतामित्यादिष्टःभकामरेन्यादित." नमून नीचे दम्वियं ---- , अथान मानतुंग नामक श्वेताम्बर महाकवि छ । 'भक्तामर स्तोत्रक कना माननामरिक विषयमं एक दिगम्बराचार्यन उनका महाच्याधिम मुनका हमारे यहाँ कई कथायें है जो एक दृमर्गस ना दिया. ममं होने दिगम्बर मागं धारण कर लिया मिलती है। एक भट्टारक मकलचंद्रके शिष्य ब्रह्मचारी और पछा कि भगवन . अब मैं क्या करे ? नब दिग'यमल्लजी' कृन भक्तामरवत्ति है. जो मंचन १६६७ को बरावार्यन प्राज्ञा दी कि परमात्मा गणांका स्तोत्र ममाप्त हुई है * । उममें धागधीश भाजकी गजसभा धनाश्री. इस पर उन्होंने भक्तामगति तात्रकी रचना में कालिदास, भारवि, माघ श्रादि भिन्न समयवर्ती की। प्रभाचंद्राचायकी इमी टीकाको एक और पान अनेक कवि एकत्र बनलाये गये हैं और लिखा है कि हमने देखी है जिसकी व्यानिका माननानामा उमा ममय मानतुज न ४८ मांकलोको नाड़ कर जैन- मिनाबगं महाकविः' की जगह 'मानतानामा धमकी प्रभावना की नथा गजा भोजको जैनधर्मका बौद्ध महाकविः लिम्बा हुआ है। उपासक बना लिया। दूमर्ग कथा भट्टारक विश्वभपगण ___ इसी प्रकार श्वनाम्बर सम्प्रदायमे, "क कथा श्वना कृत भक्तामरचग्नि' में है जिमका पाबद्ध अनुवाद भ्यराचार्य श्रीपभाचद्रमरिकृत प्रभावकारित'म दीहुई. पं० विनोदीलालका किया हुआ मिलना है ४ । इसमें जा विक्रम संवत १३२४का बना हुआ है। इसके मन भोज, भर्तहरि, शुभचंद्र, कालिदास. धनजय, वरमाच. मार मानतुंग काशीके धनदेव श्रेणीक पुत्र थे। पहले मानतुङ्ग आदि मबकी मम-सामयिक बतलाया है और उन्होंने एक दिगम्बर मुनिम दीक्षा ली और उनका नाम अन्तम लिखा है कि न कंवल भोजन ही किन्तु कालि 'चामकीनि महाकौति रकम्वा गया,पीछे एक श्वेताम्बर दासन भी जैनधर्म स्वीकार कर लिया। इन दोनों ही मम्प्रदायकी अनयायिनी श्राविकाने उनके कमण्डल के •पथाओंमें जब यह लिम्बा है कि गजा भोज के द्वाग जलमं त्रमजीव बतलाय जिममं उन दिगम्बरचर्याम ४८ कोठस्थिोंमें सॉकलोम बाँधे जाने पर मानतुङ्गमार विक्ति हो गई और पास्थिर वे 'जिनसिंह' नामक श्वं नेतामरम्नानकी रचना की, तब आचार्य प्रभाचंद्र नाम्नगचार्य निकट दीक्षित हो कर श्वनाम्बर माधने क्रियाकलाप-टीका' के अंतर्गत भक्तामरम्नात्रटीका हो गये, और उमी अवस्थामें उन्होंने भकामरकी रचना की स्थानिकाम लिखा है- "मानतुम्नामा सि. की। दमर्ग कथा श्वेताम्बराचार्य मेमनंग'-कम 'प्रषध ताम्बरां महाकावा निग्रन्याचावयापनान- चिनामणि' में लिखा है । यह पथ विक्रम मवन १३६० * इसका अनुवाद प. उदयनाल ती कागलीवाल-कृत प्रकाशित का बना हुआ है । इसमें लिम्बा है कि महाकवि बाग हो चुका है। • यह क्या मेरे मटीकमा मानुवान भकामानाक पहन भयहारका मिनिटाफ, १८ मकरणकी भमिका में प्रकाशित की गई है। -...की प्रति। Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनकान्त [वष १, किरण ११, १२ और मयर माले बहनोई थे। मयर कविकी बी ने ही एक विद्वान कुछ कहता है और दूसरा कुछ।। अपने गुम प्रगायकलहको सुन लेनके कारण अपने योगिराट् पण्डिताचार्यने 'पार्वाभ्युदयटीका' में भाईको शाप दिया जिसमे घाणको कोढ़ हो गया । मंघदूतके कर्ता कालिदासके जिनमनस्वामी द्वारा अपइस काढको उन्होंने 'सूर्यशतक' के प्रभावसे अच्छा मानिन होनेकी कथा लिखी है, परन्तु भगवजिनसेन कर लिया, फिर मयग्ने अपनी शक्ति दिग्बनाने के कालिदाससे बहुत पीछे हुए हैं और इसके लिए 'पायलिए अपने हाथ पैर काट लिय और 'चण्डिकास्तोत्र' हाली' के जैनमन्दिरका कविवर रविकीत्ति-कृत शिलारच कर उसके प्रभावमे फिर ज्योंका त्यों शरीर कर लेख बहुत ही पुट प्रमाण है जिसमें कालिदासके निया । गजमभाकं प्रधान पुरुषांने यह मय देख कर उन्लेग्व वाला वाक्य इस प्रकार दिया हैगजाम कहा कि जैनमनमें कोई ऐसा प्रभाव हो, नो येनायोजि नवेऽश्म जैनोंको इस देशमें रहने देना चाहिए, नहीं तो निकाल स्थिरमर्थविधी विवकिना जिनवेश्म् । दना चाहिए । नय माननंगाचार्य बुलाये गये । श्राग्निर म विजयतां रविकीतिः उन्होंने अपने शरीरको ४४ बंडियोम जकड़वा लिया कविताश्रितकालिदासभारविकीनिः ।। और मंत्रगर्भ मनामरम्तोत्रकी रचना करके एक एक यह शक संवत ५५६ का लिग्वा हुआ है, जब कि पग पढ़ कर प्रत्येक बेड़ीम अपनेको मुक्त कर लिया। ।। जिनमनाचार्यने जयधवनाटीकाकी समाप्ति शक संवत नीमती कथा श्वेताम्बगचार्य गगाकर' की 'भक्ता भक्ता ७५९ में की है। इसमें स्पष्ट है कि कालिदास जिनसन मरम्तोत्रवृनि ' मे दी है जो वि० सं० १४०६ की बनी का बना म्वामीसे लगभग २०० वर्ष पहले खब प्रसिद्ध हो चुके हुई है। यह कथा प्रबंधचिंतामगिकी अपेक्षा कुछ थे. इस लिए उनका अपमानित करनी कथा कपालवितत है. और इममें 'मयर' का श्वसुर और 'बागा' कल्पित है। कही जा सकती है। को जामाता बतलाया है तथा मयरने 'मर्यशतक' की 'दर्शनमाके की देवसेनसग्नि काटासंघकी और वाणनं 'चण्डिशतक' की रचना करके अपना उत्पत्ति शक संवत् ७५३ में बनलाई है और जिनसेनके प्रभाव दिखलाया है । गजाका नाम 'वृद्ध भोज ' सतीर्थ विनयसनके शिष्य कुमारसेनको उमका उत्पादक बनलाया है जिसकी मभामें वागा और मयर थे। शोर मयर था बतलाया है; परन्तु बलाकीदामने अपने वचनकोशमें अच्छी तरह विचार करनेम इन मब कथाओका काष्ठासंघ उत्पादक लोहाचार्यको पतला कर काठकी ऐतिहासिक मूल्य कितना है, यह ममझमें आये बिना प्रतिमा पजन आदिक सम्बन्धमें एक कथा ही गढ़ नहीं रहता । भोज, कालिदास, भारवि, वाण, डाली है। मयर, माघ, महरि, वाचि आदि प्रायः सभी आराधनाकथाकांशम लिखा है कि प्रकलाभट्ट का समय निश्चित होचुका है और इसलिए इन सबका पुरुषोत्तम नामक प्रामणके पुत्र थे; परन्तु भट्टाकलंक कोई इनिहासह विद्वान तो सम सामयिक माननेको के ही बनाये हुए राजवार्तिकमें एक लोक है, उससे तैयार न होगा। एक इन्हें श्वेताम्बर बतलाता है तो मालूम होता है कि वे लप 'हव' नामक नृपतिके ज्येष्ठ दमग निगम्बर और मजा यह कि एक सम्प्रदाय का पत्र थे। वह लोक यह: Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाश्विन, कार्तिक, वीरनि० सं०२४५६] इतिहास जीयाधिग्पकलनमा लघवनपतिवरतनयः। कर डालें। जब कोई इतिहास विद्वान किसी व्यक्ति अनवरतनिखिलविदजनननविधः प्रशस्तजनहयः। कं समयका पता लगाना चाहता है. तब वह पहलेसे बहुतसी कथायें ऐमी है जिनमें दो महापापोंके किमी ऊँटपटॉग समयकी कल्पना करके फिर उसके चरित इम नरह लिम्व गये हैं कि उनमें एक दूसरेका सिद्ध करनेवाले प्रमाण नहीं ढूंढता; किन्तु इस विषयके अनकरण करके लिखे जानेका भ्रम हाना है । जेमें जितने प्रमाण मिल सकते हैं उनका संग्रह करके फिर श्वेताम्बगवार्य मिद्ध पेनमरिकी और दिगम्बराचार्य उनका नारतम्य मिलाकर समय निश्चित करता है । ममन्तभद्रम्वामी की कथा । इनमम एकन अपने प्रभाव इमी नरहमे इन कथायाम कही हुई बातांका सिद्ध से उज्जैन के महाकालेश्वरका निंग फाड़ कर उममम करने का निश्चय करके फिर उनकी पुष्टिकं लिए अम्न. जिन भगवान की प्रतिमा प्रगट की और दमन काणी यम्न प्रमाण ढढना ठीक नहीं । चाहिए यह कि पहले या कांवीमे महादेवका लिंग फाड़कर चन्द्र भिकी प्रमाण दृढ जावें और फिर उन परमं कथाभोंकी स. प्रतिमा प्रगट की । इमी तरह भटाकलंकवक और यता सिद्ध की जावे । भक्तामरकी इम कथाको स्वयंश्वेताम्बराचार्य हरिभद्रमरिकी कथा है । एकमे जो सिद्ध मानकर कि चारण, मया भोज और कालिदाम स परमहंस हैं दृमर्गम व हा अकलक. और निकलंक ॥क समयमे थे-- जा माशय टेट प्याज कांग, मंभव हैं। बौद्धोका अत्याचार दोनों में ही दिखलाया गया है कि उन्हें दो चार इनिहामानभिज्ञ एतद्देशीय विद्वानों अनेक कथायें एमी भी है, जिनम वैदिक गौर के और चार छा चश्वप्रवंशकारी यगंपियन विद्वानाक, बौद्धधर्मकं प्रसिद्ध प्रसिद्ध गजात्रा और विद्वानांक. एम प्रमाण मिन्न जाव. जिनमे पर ममकालीनता मिद्ध विषयमं यह कहा गया है कि पीछम जनयमानया नाव, पोर इसमे व श्रापका तय ममम बैठे, हो गये थे । दिगम्बर और प्रवनाम्बर सम्प्रदाय प्रथा परन्तु हम प्रकारका मिद्धि काना कफ बान है और मे बहती कथायें मी भी है जिनम माम्बान mirit.inमायका म्यान काना मग बात। सिद्धमन, मानतुङ्ग, भपाल श्रादि आचाको अपना विक्रमकी मानवी शनालीक कायकजाधिपनि म अपना बतलानका प्रयत्न किया गया। अथान इन ज श्रीरपक. ममाका धागा-मनका. महाग विद्वानीको एक कथा श्वनाम्बर सम्प्रदायका बनलाती विक्रमादित्यक ममयजनी महाकवि कालिदासको और है और दुमरी दिगम्बर मम्प्रदायका। ज्यारहवी शताब्दी के परमारवंगीय महाराज माजरा हम यह नहीं करने कि इन कथाअाम मह भा 'क जगह विठलानका माहम कोडे इतिहासमवय ता तथ्य नहीं है अथवा ये बिलकुन ही मिथ्या है परन्तु नही समकना । एमके मिवायहम यहभानो मानना जो लोग इनिहामी ग्वाज करना वाहन है और मन्या- चाहिए कि हमारे ही जना जना या-पंधोमें जब 14 न्वेषी हैं उनसे यह प्राथना अवश्य कर देना चाहते हैं वाक्यता नहीं है, नब इन कथामांका-कवल शमनिए कि वे इन कथानों पर एकाएक पूर्ण विश्वास न कर कि ये हमागह-प्रमाणभन कैम मान लिया जाय। बैठे और न इन कथामांके तथ्यों को ही अपना अश्य पहले इनको एकवाक्यता कीजिए, अथवा चियितामानकर उनके पृष्ट करने के लिए जमीन भासमान एक बोकी योग्यता पर विचार करके किसी पकको विशेष Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनकान्त [वर्ष १, किरण ११, १२ प्रामाणिक मानिए और फिर दूसरं शिलालेखादि कर्तृत्वादिके नातं सरि या प्राचार्यकी उपाधि लगाई बाहरी प्रमाणोंसे उसकी पुष्टि कीजिए और तब उनका जा सकती है। ऐसी दशामें इतिहासशोधकोंकोचाहिए ऐतिहामिक मत्यके रूपमें प्रचार कीजिए। कि वे प्रयत्न करके इनका संशोधन करें, इनके यथार्थ उक्त कथानोंक ममान हमारी पट्टावलियाँ और त्वका पता लगावें और जब तक इस विषय में सफलता गर्वावलियाँ भी भ्रमसे खाली नहीं है । जहाँ से इन न हो, तब तक किसी प्राचार्यके समयादिका निर्णय पट्टावलियों श्रादिका प्रारंभ होता है, वहींस प्राचार्यों करते समय केवल इन्हीं पर अवलम्बित न रहें। का ममय ठीक ठीक नहीं मिलता । मूलसंघके जिन यदि सत्य कहना कोई अपराध न हो, तो हमें जिन प्राचार्यों के ग्रंथादि मिलते हैं अथवा शिलालेखा- कहना पड़ेगा कि हमारा आधुनिक साहित्य-वह सानिस उनका समय निश्चित होना है, पट्टावलीसे उस हित्य जिसे कि बहुत करके पिछले पांच सौ-छह सौ ममयको मिलाइए, तो नहीं मिलना । ऐसी दशामें वर्षके भट्टारकोने या दूसरे विद्वानोने लिखा है और जग्यक लोग कभी ना पट्टावलियोंके सम्बनको विक्रम जिसका बहुभाग कथाओंस परिपूर्ण है प्रायः दुर्बल, मंवन मान लेते हैं और कभी शक मंवन मान लेने है भ्रमपूर्ण, संकीर्ण और निम्न श्रेणीका है और आश्चर्य भीर जब इमस भी पूरा नहीं पड़ता, तो विक्रम और की बात यह है कि इस समय इसीका सबसे अधिक शकके जन्म और मृत्य के दो दी जदा जदा मंवत मान प्रचार है।कुछ पुगणग्रंथोंको छोड़कर दूसरे कथापंथोंमें कर अपना काम निकालते हैं। इस भ्रमका कारण यह नौवीं दशवीं शताब्दीमे पहले प्राचीन ग्रन्थोके तो कहीं मालूम होता है कि या तो असली पट्रावलियाँ नष्ट भ्रष्ट दर्शन भी नहीं होते हैं । ऐसी दशामें इतिहाम-शोधकों होगाई हैं या वे हमारे प्राचीन भण्डागेमें कहीं छिपी को चाहिए कि वे इस पिछले कथामाहित्यस जो प्रमाहई-पड़ी हैं और उनके स्थानमें दो सौ चार मी वर्ष ण संग्रह करें उन्हें बहुन विचारके माथ उपयोग पहले के अट्टारकों आदिफी बनाई हुई पट्टावलियाँ तथा लावें-उनके विषयमें सर्वथा निःशङ्क न हो जावें। गुर्वाजलियाँ प्रचलित हो गई हैं और रचयिताओंकी जो लोग जैनधर्म का इतिहास लिखना चाहते हैं, इतिहासानभिज्ञताके कारण उनमें भूलें हो गई हैं। उन्हें सारी दुनियाका नहीं, तो कमसे कम भारतवर्षक एक बात और है । इन पट्टावलियोंके रचने वालों को ममम ऐतिहासिक प्रन्थाका अध्ययन अवश्य करना यह भ्रम हो गया था कि जिस तरह एक भट्टारकके चाहिए । केवल जनसाहित्यकी खोजस ही जैनियोंका पाप दूसरा गहरी पर बैठता है, गही कभी खाली नहीं इतिहास बन जावेगा, ऐसा नयाल करना रालत है । रहती उसी तरह पूर्वकालमें भी कुन्दकुन्द समन्तभद्र क्योंकि भारतवर्षसे-भारतवर्षके दूसरं धर्मोस-और भावि भाचार्योकं बाद उनके शिष्य और उनके बाद जनसाधारणसे जैनधर्म कभी जुदा नहीं रहा। जिस तरह जनके शिष्य गद्दी पर बैठे होगे; परन्तु वास्तवमें ऐसा जैनसाहित्यकी सहायताके बिना समप्र भारतका इतिहै नहीं । कुन्दकुन्दादि गहरीधर नहीं थे। ऐसा भी नहीं हास संपूर्ण नहीं होता, उसी तरह भारत के इतिहासकी मालूम होता कि ये सभी किसी न किसी मुनिसंघके सहायताके बिना जैनधर्मका इतिहास भी नहीं बन नेता या प्रवर्तक ही थे। इसके बिना भी विद्वत्ता, पंथ- सकता। Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्विन, कार्तिक, वीरनि० सं०२४५६] दलित-कालका इतिहासकी भाषामें और माहित्य की भाषा में भेद इतिहासमें इन बातोंका विशेष महत्व नहीं बल्कि उस होना है। जहाँ साहित्यकी भाषा अलङ्कार और प्राड- समयके धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक जगतकी बापूर्ण होती है, वहाँ इनिहामकी भाषा मीधीमादी, क्या अवस्था थी, लोगोके विश्वास कैस थे, कौनसे मर्यादित और तुली हुई होती है । हमारे इतिहासलेख- धर्म की प्रधानता और प्रचारबहुलता थी. उनके रीतिकोंका ध्यान इस ओर बहुत कम है। वे जब किसी रिवाज, आहारविहार, वेषभषा आदि कैसे थे, धार्मिक जैनाचार्य यः जैनगजाका इतिहाम लिम्वत हैं, तब स्थिति कैसी थी, नागें और प्रामोंकी क्या अवस्था, इनिहाम निम्वना छोड़कर अन्यक्ति और पाडम्बर थी विदशियांम कहो नक सम्बन्ध था, उस समय जो पूर्ण काय लिम्बने लगते हैं ! यह न होना चाहिए। यद्धादि हुए उनके वास्तविक कारण क्या थे, युद्धादि इनिहामका प्रत्येक वारय और प्रत्येक शब्द जंचा-तुना के कारण प्रजाकी शान्ति कहाँ तक भंग होती थी, मर्यादित ..ना चाहिये। __ मंघशक्ति कैसी थी, विद्याचर्चा कितनी थी और वह इनिहामो अनुमानसे बहुत काम लेना पड़ता है। किम तरह चलती थी, लोगों में स्वार्थत्याग, पराथपरता, परन्तु उम अनमानकी भी कुछ मीमा हानी चाहिए। देशभक्ति श्रादिक भाव कैमे थे, इत्यादि बातोंका वां में पढ़ा है कि उनके लेखकानं यदि इनिहाममें विशेषनाके माध विचार होना चाहिए। कहीं पर कोई प्राचीन प्रतिमा पा ली और उममें कोई इतिहामका यही भाग लागांके लिए विशेष पथप्रदर्शक मन-संवन लिम्वा न पाया, तो बम उन्होंने उमी ममय होता है, परन्तु हम लोगांका ध्यान इसी ओर बहुत लिग्ब माग कि 'यह प्रतिमा अनमानमें चौथ कालकी कम जाता है । मालम होनी है '' मला. यह भी कोई अनुमान है" म अनमानाम इतिहासलेखकाको बचना चाहिए। लगभग १७ वापरले लिम्व हा लखका माति. परि. किमी व्यक्तिका समय, उमकी रचना और उस नितमपबिदिनमामि जामनेकान्मक लिए तम्या का पागि इत्य आदि लिम्ब देना ही इनिहाम नहीं है गई *. दलित-कलिका * [लेग्यक-५० मूलचन्दजी जैन 'बन्मल' ] हाय विधि ! कैमा दृश्य दिखाया ' प्राची में रवि उदिन हुआ था, हृदय-मगरह मुदिन हुआ था.-- खिलनको थी-किन्तु-कालने केमा पलटा खाया। हाय विधि । कैमा एश्य दिखाया !! निदेय, अय-शन्य-मानवन, मेरे जीवन के दानव ने, - तोह मुझे, करघुनधमग्नि, पदनलसे ठगया ! हाय विधि : कैमा दृश्य दिखाया ! प्रभा-हीन पद-पलिन पड़ी हूँ, मृत्यु-धार पर अड़ी खड़ी हूँ,हा दुर्देव ! कालचकर में तने खबघुमावा! हाय विधि ! कैमा एव दिखाया !! Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनकान्त [वर्ष १, किरण ११, १२ वाचक वंश [लम्वक-श्री० मुनि दर्शनविजयजी | • 'अनकान्त' की किरण नं. ६, ७ में प्रज्ञाचन पदवीमे न तो उल्लखित किया है और न उसका इशारा पं० सुग्यलालजीका "तत्त्वार्थसत्रके प्रणेता उमास्वाति" ही किया है । मिर्फ अपने गरुके गुरुका, वाचनाके मामका निबन्ध छपा है । लेग्य विद्वत्तापर्ण है, किन्तु प्रारुका, वाचनागरुका व अपना 'वाचक' पदवीसे उसकी कितनी ही बालोचना अपने मनःस्थित विचारों परिचय दिया है । देग्विये प्रशस्तिका वह पाठ (पृष्ठ के असरको लिये हुए है, जिमके विषयमें मत्य ३८७ ) इम प्रकार है:स्वरूप जाँचने के लिये उपलब्ध प्रमाणीको जननाके वाचकमुख्यस्य शिवश्रियःप्रकाशयशसःप्रशिष्येण । मन्मुख रख देना उचित और जरूरी जान पड़ता है। शिष्येण घोषनदिक्षमणस्यैकादशांगचितः ।।१।। अनः प्रस्तुन लेग्बमें इमी विषयका यत्किंचित प्रयास वाचनया च महावाचकक्षमण मुण्डपादशिष्यस्य । किया जाता है। शिष्येण वाचकाचार्यमूलनाम्नः प्रथिनकी ।।२।। ___पडितजी लिखते हैं कि- “उमास्वाति अपनको इद मुनांगरवाचकेन सन्वान कम्पया इन्धम् । 'वाचक' कहते हैं, इसका अर्थ 'पूर्वविन' करके पहले तत्वार्थाधिगमाख्यं स्पष्टमुमाम्बातिना शास्त्रम् ॥५॥ से ही श्वेताम्बराचार्य उमाम्बातिका पूर्ववित्' रूपसे इम पाठ में माफ माफ लिखा है कि-जा महान पहिचानत पाए हैं; परंतु यह बात स्नास विचारनं यशस्वी वाचमुख्य 'शिवश्री' का प्रशिष्य है, ग्यारह योग्य मालुम हाती है क्योंकि उमास्वाति स्वद ही अपने अंगके धारक 'घोषनन्दि' का शिष्य है, विद्याग्रहणकी दीक्षागुरुको वाचक * रूपमे उल्लेखित करने के साथ दृष्टिसे महावाचक 'मुंडपाद' का प्रशिष्य है, वाचकाही ग्यारह अंगके धारक कहते हैं। अब यदि वाचक चाय मूल' का शिष्य है व उचानागर शाखाका 'वाचक' का अर्थ भार पकं टीकाकारोंके कथनानमार 'पर्वविन' है, उसी उमास्वातिन जीवोंकी अनुकम्पासे यह तरवाहोता तो उमाम्बाति अपने गुरु की पूर्व विन्' कहने, धिगम नामका शास्त्र संग्रह किया है। मात्र एकादशांगधारक न कहने ।" (पृष्ठ ३९४) इस प्रशस्तिसे स्पष्ट होता है कि जो पूर्ववित् थे पंडितजीने यह पैरेमाफ लिख नो दिया है किन्तु उन्हींका 'वाचक' शब्दसे परिचय दिया है, ग्यारह अंगमास्वातिकी प्रशस्ति पर पूर्णलक्ष दियामालम नहीं होता, के धारकका 'वाचक' रूपसे उल्लेख नहीं किया है। क्योंकि स्वद उमाम्बातिजी ने अपने गुरुको 'वाचक' और भी मालम होता है कि यदि उमास्वाति • नहीं मालूम इस स्थान पायक' शब्द पर सम्पादकजी महाराजके दीक्षागुरु 'वाचक' होते-पर्ववित होतेने फुटनोट क्यों मा बिया, स कि यह बात उनकी जांस तो उमास्वातिको दूसरे वाचककी वाचना लेने की आवश्यकता नहीं थी । उमास्वाति महाराजके दादा. Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं० २४५६ ] गुरु 'वाचक' हो गये थे, परंतु उनके गुरु ग्यारह अंगके धारक ही थे, इसी कारण दादागुरुके अभाव में उन्होंने वाचक 'मूल के पास पूर्वका अध्ययन किया और वाचनागुरुके रूप में उन्हींका नाम जाहिर किया। विचार करने से यह संबंध ठीक मालम पड़ता है। वाचक-वंश पंडितजीन उमाभ्वानिजीका सत्तासमय विक्रमकी १ली में ४थी शताब्दी तकका मध्यवर्ती काल अनुमान किया है और जैन ग्रंथांमें विक्रमकी छठी शताब्दी नव विन होनेका उ * समयसम्बंधी इस श्र लोचना भी उमाम्वाति वाचक के 'पूर्वविन' होनेका कोई विरोध नहीं श्राता । पर्वज्ञानका विरुद्ध होनेके बाद 'वाचकवंश' या 'वाचक' शब्दका कोई पता लगता नहीं है, इससे भी 'वाचक' और 'पर्वविन' का सम्बन्ध ठीक मालूम होता है। एपमा कर्णाटकाकी टवी जिल्द में प्रकाशित 'नगर' नालके शिलालेख में भी लिखा है कि तत्वार्थ सूत्रकर्त्तारमुपास्वातिमुनीश्वरं । श्रुतकेवलि-देशीयं वन्देऽहं गुणमंदिरम् ॥ - अनेकान्त पृष्ठ २७०, ३९५ । इस लेख में वाचकजीको श्रतकंवली समानका विशेषण दिया है जो 'पति' स्वरूपको ही व्यक्त करता है । इसलिये इस पर आना ठीक है कि वाचक उमास्वाति 'वाचक' थे इसी कारण 'पूर्वविन' थे. उनके दीक्षागुरु 'पूर्ववित्' नहीं थे और वे वाचकवंशके नहीं थे किन्तु उखान गरी शाखा के वाचनानायक थे, जिसका प्रादुर्भाव नंदीसुत्रांत कोटिक गणकं श्रार्य 'शांनिश्रेणिक' में हुआ था। वाचक वंश भिन्नथा और उच्चानागरी शाखा भिन्न थी । उल्लेखका यह कथन 'ताम्बर प्रयोको दृष्टिम जान पड़ता है. क्योंकि दिगम्बर प्रथम भामतौर पर पूर्वक पाठियोंका समय बीर नियामे ३४५ बाद तक माना गया है भले ही बच के कुछ ध्याचाको 'पूर्व५ढशिवेदी' भी कहा गया हो, परन्तु वे १४ में में किसी एक पूर्व भी पर पाठी नी थे और इससे पूर्व विका समय किन संत में एक भी अधिक पहलेता है। - सम्पादक 3 ༣༤༦ पंडितजी लिम्बने हैं कि ऐसे वाकवंशमें, जिसे दिगंबरपनकी कोई पक्ष न थी अथवा श्वेताम्बर कहज्ञानेका कुछ भी मोह न था, उमाम्वाति हुए हो, ऐसा जान पड़ता है।" (पृष्ठ २९ लेकिन पति जी की यह मान्यता किसी भी प्रमाणसं साबित नहीं दो सकती। मंत्री मत्रमे लिम्बा हवा वाचकवंश श्वताम्बर आम्नायमं अभिन्न है। पडितजीने आवश्यक नियक्ति की गाथा ओर after पाठ देकर गणधर और वाचकका वंश अलग अलग दिवाया है; यहाँ गणधर का अथ गच्छनायक और वाचकका अर्थ वाचनानायक - उपाध्याय है। संभव है कि एक वाचनानायक के पास दुसरे बाबायाँ के शिष्य भी आकर अध्ययन करते हो, जो वाचनानायक को भी अपने गुरु के तौर पर मानते होग। वाचककं स्थान पर उन्होंने कोई योग्य शिष्य नियन किये जाते होगे। क्योंकि नंदीमुत्रकी पट्टावलीमें सिंह वाचक के साथ ब्रह्मदीपक शाखाका उल्लेख है। यह शाखा कल्पसूत्रांत ब्रह्मद्वीपि शाम्बा होना संभावित है। अर्थात यह कल्पना सच हो तो कहना चाहिये कि एक वाचक के स्थान पर दूसरी शाम्बाका योग्य मुनि भी नियुक्त होता था। मुझे तो यह कल्पना ठीक जान पड़ती है। पंडितजी वाचकवंशके स्वरूपमें कल्पना करते है कि - "कालक्रममं जब पर्वज्ञान नष्ट हो गया तब भी इस वंशम होन वाले 'वाचक' ही कहलाते रहे।" ( पृष्ठ ३५५ ) " उसी प्रकार यह नटस्थ वर्ग जैनमुतको कंठस्थ रखकर उसकी व्याख्याओं को समझना, उस के पाठ भेदी तथा उनसे संबंध रखने वाली कल्पनाको भालता और शहद तथा अर्थसे पटन-पाठन द्वार अपने श्रतका विस्तार करना था। यही वर्ग वाचक रूपसे प्रसिद्ध हुआ ।” (पृष्ठ ३९८, ३९५ ) "इस बा चक्रवंश विद्वान् साधुयोंकी बिलकुल तुच्छ जैसी नहीं था। " ( पृ० इन उल्लेखांके लिये कर्मकांट विषयक बातों स ३९९) इत्यादि । पंडितजीके लटा सुलटा खुलामा देखना च है । वाचकवंश माधुरी-वाचनाका सूत्रधार अर्थान बागम-संग्राहक मंप्रदाय है, इसकी पड़ावली Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७८ अनकान्त [वर्ष १, किरण ११, १२ नंदीस्त्रमें है,आर्य नागहस्तिम आर्य नागाभवाचक हूँ। ( प्रभावकचरितमें इन आचार्यका परिचय पादनक 'वाचकवंश' होना संभव है । खास करके आर्य लिमसरिका कुल और विद्याधर शाखासे दिया है।' नागार्जुन और आर्य रेवती नक्षत्र के वाचकवंश का कालिममयअणुभोगस्म धारए धारएम पयाणं उल्लेख्य है (गाथा ३०-३१) नागार्जुन वाचक शिष्यको हिमवनखपासपणे बंदे णागज्जुणायरिए ॥२५॥ प्राचार्यपदसे और परंपरागत अंनिम मुनिको गणि: मिउमहवपने पारणपन्निवायगत्तणं पत्ते ।। पदमे विभूषित किया है । इन सब विपयोंका यथार्थ । स्वरूप जानने के लिय नंदीमत्रकी थाडीसी गाथाएँ यहाँ आपसमाचार ना ओघसुयसमायारे नागज्जणवायए. वंदे । ३६॥ दे देनी आवश्यक हैं, उन्हीं का उल्लेग्य करके मैं अपना ___'कालिक श्रुत अणुयोगके धारक पूर्वविन्' हिमलेग्य ममात करूँगा: वंत क्षमाश्रमणको और नागानन आचार्यको वंदन भणगं करगं झग्गं पभावगं नाणदंसणगणाणं। करता हूँ, मनको तुष्टिकारक कोमल स्वभाववाले वंदामि अजमंग मयसागरपारगं धीरं ॥८॥ योग्यताके अनुसार वाचक पदमे प्रतिष्ठित और उत्सर्ग श्रतके धारक नाम वाचकको नमस्कार करता हूँ। _ 'जो पढ़नमें लीन हैं, क्रियाकारक हैं, ध्यानी है, नागार्जुन ऋषिके पीछे अनक्रममे आर्य भनिदिन्न ज्ञानदर्शनके प्रभावक हैं, श्रुतसागरक पारगामी हैं और धेययुक्त है उन्हीं आर्य मंगको नमस्कार करता है। श्राय लाहित्य और दव्य गरिण हुए है। (गाथा ३७-४१) नाणमिदं सर्पमि भ नविणए णिच कालमजतं । इन पाठोंसे म्पष्ट है कि-य आचार्य ज्ञान, क्रिया, | ध्यान, अध्ययन, अध्यापन, दर्शनकी प्रभावना, कालिक ___ 'पाय मंगुके शिष्य आनंदिलचपण, जो निर- श्रत अनयांगकी विधि, वगैरह ज्ञान और कर्मकाण्ड तरबान, पशन और विनयम उद्यमवंत थे ।' में लीन रहते थे । आर्य 'नागहस्ति' और आर्य बाउ वायगवंसो जसवंसो भजनागहन्थोणं । वतीनक्षत्र' का वाचकवंश विद्यमान था। आय बड़उ वायगवंसा रेवानक्खत्तनामाणं ॥३०-३१ 'कंदिल' और आर्य भनदिन्न' प्राचाय हुए थे । 'माय नविलक्ष्मण के शिष्य आय नागस्ति का आर्य 'सिंह' व आर्य · नागार्जुन' वाचक थे, आय यशस्वी वाचकवश वृद्धिको प्रान कग। उनहोंके शिष्य दृष्य' गागधे । वर्तमान कालमें उपलब्ध आगमसंग्रह वतीनक्षत्रका वाचकवंश वृद्धि को प्रान हो। श्रीस्कंदिलाचार्य और नागार्जन वाचक श्रुनसंरक्षक प्रयलपुराणिक्वंते कालिममयमाणमोगियधीरे प्रयास की प्रामादी है। विद्यमान कालमे जो कालिक संभहीवगमींद वायगपयमुत्तमं पत्ते ।। २ ।। ' अत है वे उस कालमे भी वाचक वंशसंमत थे। और आर्य नागार्जन' योग्यताम ही 'वाचक' हुए थे। 'अचलपरमें जिनकी दीक्षा हुई है. जो कालिक पंडितजाँके कथनानसार यह वाचकवंश श्वेताम्बरअतके अनयोग वाले हैं, धीर हैं, उत्तम वाचक पदमें निगंबरके भेदसे रहित मध्यस्थ था (पृष्ठ ३९५) । इसके स्थित हैं और प्रायद्वीपक शाखा वाले हैं वे आर्य मिर आगमसंग्रहको जब श्वेताम्बर सम्प्रदायने अपनाया है (जो पार्य रेवतीनक्षत्रके वाचना-शिष्य थे)।' तब दिगंबर सम्प्रदायने उसे अपना क्यों नहीं माना,यह जसिं इमो मनांगा पयरप्रामावि महमरहमि। एक जटिल प्रश्न है । इसका उत्तर पार करने के लिये बहनगरनिग्गयजसे नं बंदे खंदिलायरिए॥३॥ तत्त्वविदोंको अति प्रयाम करने की आवश्यकता है। ___जिनका अनुयोग ( भूतसंग्रहादि) आज भी भाई यहाँ इतना तो स्पट हो जाता है कि वाचक उमाभरतक्षेत्रमें विद्यमान है और जिनका यश बहतसे नग स्वातिजी 'वाचक' थे किन्तु उपयुक्त वाचकवंश'के में व्याम है न स्कदिखाचार्यको मैं नमस्कार करना नहाय । Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्विन, कार्तिक, वीरनि० सं० २४५६ ] तत्वार्थसूत्रके व्याख्याकार और व्याख्याएँ (b) तत्त्वार्थसूत्र के व्याख्याकार और व्याख्याएँ [ लेखक - श्रीमान पं० सुखनालजी ] A-7 VAT चिक उमास्वातिनं तत्त्वार्थमत्र में अपनी दृष्टिवाचक प्रमाण जैन दार्शनिक विद्याका जो स्वरूप स्थापित किया है क्योंका त्यों स्वरूप कुछ आगे चल कर क़ायम नहीं रहा । उस सत्रके श्रभ्यामियो और उसके व्याख्याकारी ( टीकाकारों) ने अपनी शक्ति के अनुसार अपने अपने समय में प्रचलित विचार धाराओं में से कितना ही अंश लेकर इस विद्यामे सुधार, वृद्धि, पूर्ति और विकास किया है; इससे पिछले दो लवों में 'तत्वार्थमत्र के प्रणेता उमाम्वाति' और 'तत्त्वा मूत्र' का परिचय दिये जाने के बाद, इस लेख द्वारा तत्त्वार्थशास्त्र की वंशलम्पसे फैली हुई व्याख्याश्री ( टीकाओं और उन व्याख्याओके कर्नाश्रीका भी कुछ परिचय कराया जाना उचित जान पड़ता है। उसी का यहाँ पर प्रयत्न किया जाता है। (क) व्याख्याकार तत्वार्थकं व्याख्याकार श्वेताम्बर दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायोंमें हुए हैं; परन्तु इसमें क्षेत्र यह है कि मूल सूत्र पर सीधी व्याख्या सत्रकार उमाम्वाति के मिवाय दूसरे किसी भी श्वेताम्बर विद्वानने लिखी हो ऐसा मालूम नहीं होता; जब कि दिगंबराय सभी लेखकोंने सूत्रों के ऊपर ही अपनी अपनी व्याख्या लिम्बी है | श्वेताम्बरीय अनेक विद्वानोंने सूत्रों पर के भायकी व्याख्याएँ की है, जब कि दिगंबरीय किमी भी प्रसिद्ध विद्वान्ने सूत्रों पर की व्याख्या ( भाग्य के ऊपर लिखा हो ऐसा मालूम नहीं होता। दोनों मम्प्रायोंके ५७९ 7 इन व्याख्याकारों में कितने ही ऐसे विशिष्ट विद्वान हैं कि जिनका स्थान भारतीय दार्शनिकों में भी चमकता है. इसमें प्रायः वैसे कुछ विशिष्ट व्याख्याकारों का ही यहाँ संक्षेप में परिचय देनेका विचार है। उमास्वाति तत्वार्थमत्र पर भाष्य रूपसे व्याख्या लिखने वाले खुद सत्रकार उमाम्बानि ही है, जिनका परिचय तस्वार्थसूत्र के प्रांना उमाम्वानि' शीर्षक प्रथम लेव मे दिया जा चुका है (देख्यो, अनेकान्त कि० ६७ पृष्ठ २८५ ), इसमें इनके विषय में यहाँ जय लिम्वना कुछ रहना नहीं । गन्धहस्ती 'ती' विशेषणको लिए हुए दो व्याख्याकार जैन परम्पराम प्रसिद्ध है एक दिगंबराचार्य समन्नभद्र और दूसरे श्वेताम्बराचार्य सिद्ध सेन दिवाकर । इनके विषय में गन्धहस्ती' शीर्षक जो लेन भने कान्नकी थी किरण में प्रकट हुआ है उसे यहाँ पर पढ़ना चाहिये । सिद्धसेन नस्वार्थ भाष्य के ऊपर श्वेताम्बराचायों की रची हुई दो पूर्ण वृतियाँ इस समय मिलती हैं। इनमें एक बड़ी और दूसरी उससे छोटी है। बड़ी वृतिके रचने वाले सिद्धसेन ही यहाँ पर प्रस्तुत हैं। ये सिद्धसेन विन्नगणिके शिष्य सिंहमूरिके शिष्य भाम्बामिके शिष्य थे, यह बात इनकी माध्यवृत्तिके अन्त में दी हुई प्रशस्ति Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८. अनेकान्त . [वर्ष १, किरण ११, १२ परस सिद्ध है । गंधहस्तीके विचारप्रमंगमें दी हुई गये आगमके समर्थनको देख कर उनके किसी शिष्य यक्तियोंसे यह भी जाना जाता है कि गंधहस्ती प्रस्तुत या भक्त अनुगामीने उनके जीवनमें अथवा उनके पीछे सिद्धसेन ही हैं । अर्थात जब तक दूसरा कोई स्वास उनके लिय 'गंधहस्ती' विशेषण प्रयुक्त किया हो, ऐसा प्रमाण न मिले तब तक उनकी दा कृतियाँ मानने में जान पड़ता है । उनके समयसम्बंबमें निश्चयरूपसे शका नहीं रहती-एक ना आचारांगविवरण जो अ. कहना अभी शक्य नहीं, तो भी वे सातवीं शताब्दीऔर नुपलब्ध है और दूसरी तरवार्थभाष्यकी उपलब्ध बड़ी नवमी शताब्दीक मध्यमें होने चाहियें, यह निःसन्देह वृत्ति। इनका 'गंधहस्ती' नाम किसने और क्यों रक्खा, है । क्योंकि उन्होंने अपनी भाष्यवृत्ति में वमबंध इस विषयमें सिर्फ कल्पना ही कर सकते हैं। इन्होंन आदि अनेक बौद्ध विद्वानोंका उल्लेख किया है। उसमें स्वयं तो अपनी प्रशस्तिमें गंधहस्तिपद जोड़ा नहीं, एक सातवीं शताब्दीके धर्मकीनि' भी हैं अर्थान जिससे यह मालूम होता है कि जैमा सामान्य तौर पर सातवीं शताब्दीके पहिले वे नहीं हुए, इतना तो नि. बहुनोके लिये घटिन होता है वैसा इनके लिये भी श्चित होता है। दूसरी तरफ नवमी शताब्दीके विद्वान घटिन हुआ है-अर्थात्, इनके किमी शिष्य या भक्त शीलाङ्कन गंधहस्ती नामसं उनका उल्लेख किया है,इससे अनुगामी ने इनका गंधहस्तीक तौर पर प्रसिद्ध किया वे नवमी शताब्दीके पहले किसी समय होने चाहिये । है। ऐमा करनेका कारण यह जान पड़ता है कि प्रस्तुत आठवी-नवमी शताब्दीके विद्वान याकिनीमन हग्भिद्र सिद्धसन मैद्धान्तिक थे और श्रागमशाांका विशाल के प्रन्थोंमें प्रस्तुत सिद्धसनके सम्बन्धमें कोई उल्लेख जान पानके अतिरिक्त वे आगमविरुद्ध मालुम पड़ने , मिट बोट विटान विमानध' का 'मामिषगर" वाली चाह जैसी नमिद्ध बातोंका भी बहुत ही श्रा. कटक निश करते हैं - वेशपूर्वक ग्वंडन करने थे और सिद्धान्तपनका स्थापन तस्मादेनः पदमेतन वसुबन्योरामिषगद्धस्य गद्धस्येकरते थे । यह बात उनकी तार्किक-विरुद्धकी कटक पर्चा देखने में अधिक संभावित जान पड़ती है। इसके । ___ वाऽप्रेक्ष्यकारिण:""जातिरुपन्यस्ता वसुबन्धवैधेयेन।" सिवाय, उन्हाने तस्वार्थभाष्य पर जा बत्ति निम्बी है - ५, ७ की तत्वार्थभाष्यवृत्ति पृ०६८. ५०१ तथा २ । वह अठपह-हजार श्लोक प्रमाण होकर उस वक्तनक नागान-रचित धर्म ग्रह पृ०१३ पर जा भान्त पांच पाप पाते हैं. कीरची हई तस्वार्थनाय परकीमभी व्याख्याश्रो में मौर जिनका वर्णन गीलांकने सूत्रकृतांगकी (पृ. २१.) टीका भी कदाचिन बही होगी. और यदि गंजवार्मिक तथा प्र. दिया है, उनका उल्लेख भी मिद्रमेन करते हैं। - देखो. ७. 3D कार्तिक पहले ही इनकी वत्ति रची हुई होगी तो होगीता की भाष्य-अमि । ऐसा भी कहना उचित होगा किनस्वार्थसत्र पर उम "भिक्षुग्धर्मकीर्तिनाऽपि विरोध उक्तः प्रमाणवक्त तक अस्तित्व रम्बनेवाली सभी श्वेताम्बरीय विनिश्चयादो।" और दिगम्बरीय व्याल्याप्रोमें यह सिद्धसनकी ही -प्र.५ तचाभाष्यत्ति १० ३६७५०४ । वृत्ति पड़ी होगी। इस बड़ी वृत्ति और उसमें किये ३ "शास्त्रपरिज्ञाविवरणमतिबहुगहनं च गन्धहस्तिकृतम्" *समन्तभाका गम्भास्ति महाभाय यदि इस तत्वा.सूत्रकीही "शाखपरिक्षाविवरणमतिगहनमितीव किल वृतं पज्यैः। प्या-ज्या को तब एसा करना उचित नहीं होगा क्योंकि उसकी सत्या श्रीगम्भहस्तिमिविवृणोमि ततोऽहमशिष्टम।।" E-हजार पतलाई जाती है। -सम्पादक --प्राचारोगटीका पृ०१ तथा २ की शरमात । Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माश्विन,कार्तिक, वीरनिःसं०२४५६] तस्वार्थस्त्रकं व्याख्याकार और व्याख्याएँ देखनमें नहीं पाया । प्रस्तुन सिद्धमनकी भाग्यवत्तिमें । और दमरी यक्ति यह है कि यदि दमग टीकाइन हरिभद्रका अथवा उनकी कृनियोंका उल्लंम्ब भी महरिभद्रन अपनी वान उदधत की हा अर्थान मंसप अभी तक दम्वनमें नहीं आया। इससे अधिक मम्मा- करके लिम्वीही ना वह दूसरी टीका मिदमन'की बड़ी वना ऐमी जान पड़ती है कि याकिनीमन हरिभद्र और वनिना मम्भवश्रीराबानमा प्रस्तुत 'मिद्धमन' ये दाना या ना समकालीन हो और दंग्य चोक सिद्धमन और हारभन न दानाक, या इनके बीच में बहुत ही बांदा अन्नर होना चाहिये। समयके बीच कोई म्याम अन्तर नहाना चाहिये ।इम प्रशस्तिमें लिग्वे मुनाबिक प्रस्तुन सिद्धमनकं प्रा महगा अपनं ममकालीन अथवा महन. पर्वकालीन मर (सरि) यदि मलवादि-न 'नय चक्र के टीकाकार सिद्धमनकी वही वनिमम मैकडो पन्धाक बनन्ध 'सिंहमारि' ही हो तो ऐसा कह सकते है कि नय चक्रकी रचयिना याकिनीमन हरिभद्र अपनी बात बनावे । उपलब्ध सिंहमार-कृत टीका मानवी शताब्दी लगभग श्रथान उममें उदधन करें.यह बान भाग्यम ही माना की कृति होनी चाहिये। जा सकती है। हरिभद्र हरिभद्र' नामक अनंक श्राचार्य है। प्रस्तुत ऊपर बनलाई हुई तत्त्वार्थभाग्यकी छोटी वृत्ति जो है हरिभद्र कदाचिन विम. म पशमीन' का टीका रचने वाले हरभदहाही मी कल्पना अभी तक मुद्रित नहीं हुई वह हरिभद्रद्वाग प्रारम्भिन होने पर भी किमी भी कारणवश उनम अधरी ही रह है। क्योकि 'प्रशमर्गन' वाचक रमाम्बातिका नि. इमममी कम्पना की जा सकती है कि नही हार गई है । यह हरिभद्र कौन ? यह एक प्रश्न है. । नि । का अवल कन करने हुए गमा नि सन्दह जान पड़ता भद्रन उमाम्बानिको मर्ग कति नन्वायंभाग्य पर टीका निकी होगी । यदि यह कल्पना मायना प्रस्तुत है कि इम वृत्तिका रचर्चायना याविनीमन, हरिभद्र न हरभद्र बारहवीहवीशलालीक विद्वान मा होना चाहिये । इम सम्भावनाकी पष्टि में इस समय कह मकन है । परन्तु इसके महज विरुद्ध जाने वाली दो युक्तियाँ दी जा सकती है । पहनी यक्ति यह है कि उनकी वृत्तिम अध्यायके अंतम हरिभद्राश्नायो' मी भी एक यक्ति है, और वह यह कि विक्रम म. ऐसा लिम्बा हुआ है. यदि प्रस्तुत निकार याकिनी में चिन प्रवचनमागद्धार की वनिमें उमके कना सन हरिभद्र हो तो वे इतने योग्य नथा म्वतन्त्र ग्रंथ- • नया च नन्चायमूलटीकायां मिटम:' कार के तौर पर प्रसिद्ध हैं कि उनके विषयममी धा- । ५. ३२५) मा कह कर एक. उबंग्य करने । गहरी रणा करना जग अधिक जान पड़ता है कि उन्होंने दो बानं दबनी है, एक ना मूलटीका इस कथन में किसी दूसरी व्याख्या में अपनी व्याख्या उद्धन का मूलपदम मभ्बन्ध रखने वाली. और दमग यक ममीप ही हरिभद्राका उहब कम किया होगा । २० ५ "तस्याभन परवादिनिजयपटः मैहीं दधानां। नाम्ना व्यन्यन हिमर इनि च मानाम्बिलाथांगमः।" ५ विस्तृत पश्चिपक लिय , in faar नि । - नवमाध्यम प्रणस्निातक कल्यामाविजयी लिपीनामा 91.2 Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनकाल वर्ष १, किरण ११, १० प्रवचनसागद्धारकी टीका कनीने हरिभद्रकी नस्वार्थ- " हरिभद्रोदधतायां तंत्रंब अन्य कर्तकायां " टीकाको 'मूलटीका' केस कहा होगा? क्या वे भास्वामि- ऐसा उल्लेख है और दशवें अध्यायक अन्तमें ' इत्याशिष्य सिद्धसनकी तत्वार्थीय भाष्यवृत्तिको अपेक्षा चार्यश्रीहरिभद्रप्रारब्धायां यशोभद्रसरिशिष्यहरिभद्र की वृत्तिका प्राचीन माननं होंगे ? यदि प्राचीन निर्वाहिनायां तत्वाथटीकायां दशमोऽध्यायः न मानत हो तो मृलपदका किसलिये प्रयोग करत ? समाप्तः"ऐमा उल्लाव है । यदि यह उलाव वृत्तिकार इसी रीनिम यदि भाष्यवृत्तिकार हरिभद्र प्रशमति- का अपना ही हो तो इतना निश्चित रूपसे कहा जा टीकाकार हरिभद्र ही हो तो वे प्रवचनमारोद्धार की सकता है कि किसी हरिभद्र नामक आचार्य प्रथम वृत्ति के रचयितास बहुन ही करीबके समयमें हुए हैं, . वृत्ति आरम्भ की और उसे दूमरे किसी प्राचार्यन ऐसा मानना चाहिये । अपनेस बिलकुल नजदीक में पर्ण की । दूमर श्राचार्य यशोभद्र कहे जाते हैं परन्तु होने वाले ह िभद्रका प्रवचनमागद्धार की वृत्तिका कर्ता नामसचक उल्लेख में ता 'यशोभद्रमरि-शिष्य' ऐसा मृल टीकाकार मान और उममें प्राचीन तत्त्वार्थकी पद है, इसमें प्रश्न होता है कि क्या अधूर्ग वृत्ति पूर्ण वृतिक कर्ता भास्वामिशिष्य सिद्ध सनका मूल टीका का करने वाले खुद यशोभद्रसार ही है या यशोभद्रसरिक कार न मान, यह कैम मंभव हा मकना है ? इम म शिष्य हैं ? क्योंकि 'मरि-शिष्य' यह यदि 'कर्मधाग्य' प्रवचनमागद्धार की वृत्तिका रचयिता यदि भ्रान्त न ममाम हो तो यशोभद्र ही पूर्ण करने वाले है ऐसा हो ना ऐमी कल्पना होती है कि तच्याथकी लघवनिक अर्थ निकलता है। और यदि 'तत्परूप' समाम हो तो का हरिभद्र प्रशमनिकी टीकाक काना हरिभद्रस उनका शिष्य वनिका पर्ण करने वाला है ऐसा अर्थ भिन्न ही हाना चाहिये । पीछे भले ही वह याकिनीसनु निकलता है। उनका शिष्य हो तो वह कौन ? यह हरिभद्रसे भी भिन्न हो । विचारनः बाकी ही रह जाता है, और जो व स्वयं वत्ति देवगुप्त और यशोभद्र पर्ण करने वाले हों तो वे किसके शिष्य थे ? यह वगम द्वारा की हुई भाग्यकी कारिका की विचारना बाकी रहता है । क्या उनकी वृत्तिका प्रा. व्याख्या मिलती है । उन्होंने भाज्यके ऊपर लिम्बनेक रम्भक हरिभद्रका ही शिष्य होगा या अन्य किसीका? लिय निर्धारित की हुई व्याम्या लिखी होगी कि नहीं, यहाँ पर एक बान नोट करने योग्य है और वह यह यह अज्ञान है, । उनी दूमरी कृतियाँ नथा ममय कि याकिनीसन हरिभद्रकी कृति 'पोडशक' के ऊपर सम्बन्धमें किमी प्रकारका परिचय नहीं मिला। उक्त यशोभद्रनामक मग्नि टीका लिखी है । क्या यही हरिभद्रद्वारा लिखी हुई मादे पाँच अध्यायकी टीका यशोभद्र प्रस्तुत यशोभद्र होंगे या कोई दूसरे ? भनन्तरका शेष सब भागयशोभद्रने पूर्ण किया ऐसी प्रसिद्धि है, और व: हरिभद्र सरिका रिव्य ही था, मलयगिरि ऐसा माना जाता है; परंतु ये सब बातें नितान्न परी ____ मलयगिरि की लिखी तस्वार्थभाष्य परकी ब्याक्षणीय हैं। क्योंकि इस विषयमें हरिभद्र की वृत्ति वाली मलयगिरिने तयाटीका लियो श्री एसी मान्यता की लिखित पुस्तकमें आठवें और नवमें अध्यायके अंतमें प्रा नागनिमें अलब्ध होने वाले निम्न उल्लेख तथा इसी प्रकारक Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाश्विन,कार्तिक, वीरनिःसं०२४५६] तत्वार्थस्त्रके व्यायाकार और व्याख्याएँ ख्या नहीं मिलती। ये विक्रमकी (वी, १३वी शना गणी यशोविजय ब्दी में होने वाले विश्रन श्वेताम्बर विद्वानोमस एक है। गणी यशोविजय ऊपरकं वाचक यशाविजयम यं भाचार्य हमचंद्रके ममकालीन और मर्वश्रेण टीका- भिन्न हैं। ये कय हुए ? यह मालम नहीं। इनके विकारक तौर पर प्रसिद्ध है। इनकी काडियो महत्वपण पय दमग भी एतिहासिक परिचय इम ममग का कृतियाँ उपलब्ध है। नही है । इनकी कनिक नीर पर श्रीक सि. चितनमुनि नन्वार्थमा पर की गजराती टापा प्राम है । इसके चिरंतनमुनि एक अज्ञान नामक श्वताम्बर माध निरिक इन्होंने अन्य कुछ रचना की नगा या नहीं, है। इन्होंने तत्वार्थक ऊपर साधारगा टिप्पा लिया वह ज्ञान नहीं । टिपीकी भाषा और शैलीका दंग्यन है, ये विक्रमी चौदावा शनाम्दीक बाद किमो समय हुए ये मतरहवीं-अठारहवी शताब्दीमा जान पहने हुए है; क्योंकि इन्हान अयाय ५, मत्र ३१ के हैं। इनकी नंट करने योग्य दो विशेषताय हैं। टिप्पणम चौदहवीं शताब्दीम होने वाले मटिपणी (१) जग वाचक यशोविजयजी वगैरह श्वेताम्बर 'म्याद्वादमंजर्ग' का उलाव किया है। विद्वानीनं अमही' जैम दिगम्बर्गय प्रन्यों पर वाचक यशोविजय टीकाएं रची है, वैसे ही गणी यशोविजयजी ने भी वाचक यशोविजयकी लिखी भाष्य परकी वरिका नत्वार्थमन्त्रकं दिगम्बर्गय मामिद्धिमान्य मत्रपाठको अपूर्ण प्रथम अध्याय-जितना भाग मिलता है। ये लेकर उम पर मात्र मत्रोकी अर्थपरक टिप्पणी लिवी श्वेताम्बर मम्प्रदायमें ही नहीं किन्तु मम्पण जैन मंत्र है. और टिप्पणी नियनं हा नटीने जहाँ जहाँ श्वेता दायमें सबसे अन्नमें होने वाले मन्तिम प्रामाणिक म्या र बगे और दिसम्बगका मतभेद या मनविगंध माना। विद्वानके तौर पर प्रमिद्ध हैं । इनका मंग्याबंध नि- वः मत्र श्वनाम्यर परम्पराका अनमाण करफ है। याँ उपलब्ध हैं। मनरहवी. अटारीं शताब्दी नको अथ किया है । इस प्रकार मनपाट निगम्बयान वाले न्यायशास्त्र विकासको अपनाकर इन्होंने जन ८भी अथ श्वनाम्बराया। तकोतवट किया है और भिन्न भिन्न विषयों पर । अाजनक नन्वार्थमत्र पर गजगनीम टिप्पणी अनेक प्रकरण लिग्यकर जैननत्वज्ञान माम अभ्याम नियने वाले प्रस्तुत यशोविजय गणी ही प्रथम गिन का मार्ग नैयार किया है। जान हैक्योंकि उनके मिवाय नत्वार्थमत्र पर गजरानी म किमांक। कुछ लिया हश्रा अभी तक भी जाननंग दमा उन्लयो पम म्नु है - नहीं पाया। ___ "तचाप्राप्रकारित्वं तत्वार्थटीकादी विम्तरंग प्रमा- गणी यशोविजयजी श्वनाम्बर है. ग. बान मा धिनमिति ननोवधारणीयम।" निश्चिन है। क्योंकि टिप्पणी अन्नम मा उलेम्बर - 1. .. ७ दवा, उक्त मनिनिन्वित व सिग्रहणी की प्रतापनः पृ०३६॥ "नि श्वेताम्बगवार्य भीरमाम्यामिगण (णि ) ८ देखी. प्रताविजयी-मम्मानित प्रतिमाशतक की प्रस्तावना । बालावबांधः श्रीयशोविजयगाथ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ११, १२ और दूसग सबल प्रमाण ना उनकी टिप्पणी ही है। ऐसी छाप दिगम्बरीय पक्ष पर डालनी और साथ ही सत्रका पाठभेद और सूत्रोंकी संख्या दिगम्बर्गय श्वेताम्बरीय अभ्यासियोंको बतलाना कि दिगम्बरीय स्वीकार करने पर भी उसका अर्थ किसी जगह उन्होंने सूत्रपाठ या श्वेताम्बरीय सत्रपाठ चाहे जो लो इन विगंबर परम्परा अनुकूल नहीं किया। हाँ यहाँ एक दोनोंमें पाठभेद होते हुए भी अर्थ तो एक ही प्रकार प्रश्न होता है, और वह यह कि यशोविजय जी श्वेता- का निकलना है और वह श्वेताम्बर परम्पराको ठीक म्बर होते हुए भी उन्होंने दिगम्बर मत्रपाठ कैसे लिया बैठे वैसा ही है। इससे दिगम्बर्गय सत्रपाठसे भड़कने होगा ? क्या वे श्वेताम्बरीय सुत्रपाठसे परिचित नहीं की या उम विरोधी पक्षका सत्रपाठ समझ कर फेंक थे? या परिचित होने पर भी उन्हें दिगम्बरीय सत्र दनकी कोई जरूरत नहीं । तुम चाहो तो भाष्यमान्य पाठमे ही श्वेताम्बरीय मुत्रपाठ की अपेक्षा अधिक सत्रपाठ मीग्या या सर्वार्थसिद्धिमान्य सत्रपाठ याद महत्व दिखाई दिया होगा ? इसका उत्तर यही उचित कगं । नत्व दोनों में एक ही है । इस गतिसं एक तरफ जान परना है कि वे श्वेताम्बर सत्रपाठस परिचिन नां दिगम्बरीय विद्वानोंको उनकं सत्रपाठमसे सरल रीतिसे अवश्य होंगे ही और उनकी दृष्टिम उसी पाठका महत्व सत्य अर्थ क्या निकल मकता है यह बतलाने के लिये भी होगा ही, क्योंकि घमा न होना ना वे श्वेताम्बर- और दमग तरफ श्वेताम्बर अभ्यासियोंको पक्षभेदक परम्परा अनुसार टिप्पणी रचन ही नहीं; ऐसा होने कारण दिगम्बर्गय मत्रपाठमे न भड़कें ऐसा समझाने पर भी उन्होंने दिगम्बरीय मत्रपाट पहरण किया इस के उद्देश्यम ही, इन यशोविजयजीन श्वेताम्बर्गय सूत्रका कारण यह होना चाहिये कि जिम मूत्रपाठक पाठ छोड़ कर दिगम्बरीय मूत्रपाठ पर टिप्पणी लिम्वी आधार पर दिगम्बर्गय मभी विद्वान हजार वर्ष हुए हो, ऐमा जान पड़ता है। दिगम्बर परम्परा अनुसार ही श्वेताम्बर आगमों पूज्यपाद में विभक अर्थ करते श्राप है. उमी मत्रपाठीम। पूज्यपादका अमली नाम देवनन्दी है । ये विक्रम श्वेताम्बर परम्पराको ठीक अनुकूल पड़, ऐमा अथ की पांचवीं, छठी शताब्दीमें हुए हैं। इन्होंने व्याकरण निकालना और करना बिलकुल शक्य तथा मंगत है, माविक विषयों पर प्रा लिखे हैं. जिनमें क कृत ममारः।"-प्रबनय श्रीकान्तिविजयजीक शास्त्रमग्रहमको तो उपलब्ध हैं और कुछ अभी तक मिले नहीं। दिगलिखित टिप्पणी की पुस्तक। म्बर व्याख्याका में पज्यपादसे पहले सिर्फ शिवकोटि१३ 1. इस बीकार करने में अपवाद भी है जा किमत था । उदाहरण के तौर पर मायाय ४ का १: वां सत्र उन्होंने १. दग्वा, नसाहित्य मंगायक प्रथम भाग १०८३ । दिगम्बरीय सूत्रपाठमेसनी लिया। दिगम्बर गोलह मानते हैं. १३ शिवकोटिकृत तत्वाव्याच्या या उसके प्रक्तामा कम इस लिये उनका पाठ लेनेमें ताम्बीयता नहीं रह सकती, इसम प्राज उपलब्ध नहीं हैं। उन्होंने तत्वार्थ पर कुछ लिखा था एसी इन्होंने इस स्थल पर चेताम्बर सूत्रपाटीम को बारह बका नाम- सूचना कुछ प्रचीन शिलालम्बा की प्रशस्ति पाम होती+। वाला सुन लिया है। शिक्कोटि समन्तभद्रके शिष्य थे, मी मान्यता है । दम्वा, 'स्वामी "दग्बा, मधिमिद्धि, .३ की की, 9 समन्तभा ' पृय ६६ । की मोर...: की। +भाल्गेलका शिलालेख न.१..शक मदन १३.. Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] तत्वार्थसूत्रकं व्याख्याकार और व्याख्याएँ के ही होनेकी सूचना मिलती है। इन्हींकी दिगम्बरी- जिसके स्पष्टीकरण के लिये उनके भनेकान्त' मासिक यत्व समर्थक सर्वार्थसिद्धि' नामकी तत्वार्थव्याख्या पत्रकी दूसरी किरण देखनी चाहिए। ये विद्यानन्द भी पीछे सम्पर्ण दिगम्बरीय विद्वानोंको आधारभत हुई है। विक्रमकी नवमी शताब्दी में हुए हैं। इनकी किननी ही भट्ट अकल कनियाँ उपलब्ध है।५ । ये भारतीय दर्शनों के विशिष्ट भट्ट अकलङ्क, नवीx शताब्दीक विद्वान है। अभ्यामी है और इन्होंने तत्वार्थ पर वार्षिक 'सर्वार्थसिद्धि के बाद तत्वार्थ पर इनकी ही व्याख्या नामकी पगबंध विस्तृत व्याग्या लिम्ब कर कमारिल मिलती है, जो 'राजवार्तिक' के नाममं प्रसिद्ध है। जैम प्रसिद्ध मामांसक पन्थकागकी पर्वा की और ये जैन न्यायप्रस्थापक विशिष्ट गण्यमान्य विद्वानोंमें जनदर्शन पर किये गये मीमांसकोंक प्र माक्रमण से एक हैं । इनकी कितनी ही कृनियाँ१४ उपलब्ध है, का मबल उत्तर दिया है। जो हरेक जैन न्यायकं अभ्यामीक लिय महत्वकी है। श्रतसागर विद्यानन्द __'श्रनमागर नामक दो दिगम्बर पण्डितोंने नत्वार्थ विद्यानन्दका दूमग नाम 'पात्रकेसरी' प्रसिद्ध है। परदा जदी जुदी टीका लिम्बी हैं। परन्तु पात्रकेसरी विद्यानंदम भिन्न थे यह विचार विबुधमेन, योगीन्द्रदेव, योगदेव, लक्ष्मीदेव हालमें ही पं० जुगलकिशारजीने प्रस्तुन किया है. भोर भभयनन्दिसरि । का लिग्वा मा. उसमें तन्वार्थमृत्रक टंककरमपम शिवकोटिक ये सभी दिगम्बर विद्वान हैं और उन्होंने तत्वा का जा वाक्य है वह उनकी उस टीकः पग्मे ही दान किया पर माचारगण व्याख्याय लिया है । इनके विषयम गया है, या उपक एनन स्वार्थमत्रं तदलंचकार वाम परिचय नहीं मिला । इननं मंस्कृत व्यामया. इम मशमें प्रयुक्त हा एसन' परमे जान पाता है। कागके अतिरिक्त तत्वार्थ पर भाषामें लिखने वाले -सम्पादक अनेक दिगम्बर विद्वान हो गये हैं, जिनमें एक रमा करना कुछ टीक मालमनाना: क्योकि मचन' तो शिक्क टिम पहले ममन्तभाकी भी मिलती है नीरहवीं पताका १. मा. महामार ताबा नावानिककी प्रम्ना । की बनी। 'धवला' टीक तक उनक गधरितबहाभाध्यका :ब न मालम या उन किस माधार पर किया गया है। है । दम्वा, ग्वामी सम-तभा' तथा 'भकन्त' की चौथी किया जाना मझ निगम्बर माहित्यका परिचय सावा.मत्र पर एक पृ. २१६ से। --सम्पादक सागर की तमागी नामकी टीका मोर अंक रमित xवी नहीं, किवीवी शनमक विदान है। विकासका १६वी शतक विद्वान तथा विधानन्ति मारक शिष्य (दम्बा, स्वामी सस्ता . १० वीं शनी या मम । सम्पादक भी पहले ता जिनमेनद्वारा रनुन प्रकलाकृत 'लधायमाय के टीका कमिवाय भारकानाती, पान, कनककीमि. रा. कार 'प्रमाचदए हैं जो मकनवमं बन पालक-प्रायः एक मौलि और प्रभाच मावि पीर भी लिने कि द्विानों ने शताब्दीसे भी अधिक पछिक-विद्वान हैं। देवी, अनकन्न' किया तथा मुख्य ससक्त व्याच्या लिखी। दिगम्बर मप्रकायम १० १५.से। -सम्पादक अमनपा मुहका अधिक प्रचार मही मी व्याल्याबकी मी १४ लो, लवीयत्रयकी प्रग्नावना । मच्या प्रति। मस्पार Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनकान्त वर्ष १, किरण ११, १२ ने तो कर्णाटक भाषामें भी टीका लिखी है, और बाकी भेद है और वह यह कि जगत् , जीव, ईश्वर आदि सबने हिन्दी भाषा में टीका लिखी है। जैसे तत्वज्ञानके मौलिक विषयोंमे ब्रह्मसूत्रके प्रसिद्ध व्याख्याकार एक दूसरेमे बहुत ही भिन्न पड़ते हैं और (ख) व्याख्याएँ बहुत वार तो उनके विचारोंमें पूर्व-पश्चिम-जितना अपने ऊपर रची हुई साम्प्रदायिक व्याख्याओके अंतर दिखलाई देता है, तब दिगम्बर, श्वेताम्बर संप्रविषयमें 'तत्वार्थाधिगम' सत्रकी तुलना 'ब्रह्मसूत्र' के दायका अनुसरण करने वाले तत्वार्थके व्याख्याकारों साथ हो सकती है । जिस प्रकार बहुतसे विषयों में मे वैसा नहीं है । उनके बीच तत्वज्ञानके मौलिक परस्पर बिलकुल भिन्न मत रखने वाले अनेक प्राचा- विषयों पर कुछ भी भद नहीं है और जो कुछ थोड़ा यौने' ब्रह्मसूत्र पर व्याख्याएँ लिखी हैं और उममेंस बहुत भद है भी वह बिलकुल साधारण जैसी बातोंमें ही अपने वक्तव्यको उपनिषदोंके आधार पर मिद्ध है और वह भी ऐसा नहीं कि जिसमें समन्वयको करनेका प्रयत्न किया है। उसी प्रकार दिगम्बर श्वेता- अवकाश ही न हो अथवा वह पूर्व-पश्चिम-जितना म्बर इन दोनों सम्प्रदायोंकि विद्वानोंने तत्त्वार्थ पर अंतर हो । वस्तुतः तो जैनतत्वज्ञानके मूल सिद्धान्तों व्याख्याएँ लिम्बी हैं और इसमेंसे ही अपने परस्पर के सम्बंधमें दिगम्बर, श्वेताम्बर सम्प्रदायोंम खास विरोधी मन्तव्यों को भी आगमकं आधार पर फलित मनभेद पड़ा ही नहीं; इसमें उनकी तत्वार्थव्याख्याओं करनेका प्रयत्न किया है। इस परम सामान्य बात इतनी में दिखाई देने वाला मतभेद बहुत गम्भीर नहीं गिना ही सिद्ध होती है कि जैसे ब्रह्ममत्रकी वेदान्तसाहित्य- जाता। में प्रतिष्ठा होनक कारण भिन्न भिन्न मत रखने वाले तत्वार्थाधिगम सत्रक ही ऊपर लिखी हुई प्राचीन, प्रतिभाशाली भाचार्यान उस ब्रह्मसत्रका आश्रय लेकर अर्वाचीन, छोटी, बड़ी, संस्कृत तथा लौकिक भाषामय उसके द्वारा ही अपने विशिष्ट वक्तव्यको दर्शाने की अनेक व्याख्याएँ हैं; परन्तु उनमेंसे जिनका ऐतिहासिक आवश्यकता अनुभव की वैसे ही जैन वाङमयमें जमी महत्व हो, जिनन जैनतत्वज्ञानको व्यवस्थित करनेम हुई नस्वार्थाधिगमकी प्रतिष्ठा कारण ही उसका श्रा- नथा विकसित करनेमें प्रधान भागलियाहा और जिनका श्रय लेकर दोनों सम्प्रदायोंक विद्वानोंने अपने अपने स्वास दार्शनिक महत्व हो ऐसी चार ही व्याख्याएँ इस मन्तव्यों को प्रकट करनेकी जरूरत मालम की है। समय मौजद हैं। उनमें से तीन तो दिगंबर संप्रदायकी इतना स्थल साम्य होते हुए भी ब्रह्ममूत्र और तत्वार्थ हैं,जो मात्र साम्प्रदायिक भेदकी ही नहीं बल्कि विरोध की साम्प्रदायिक व्याख्यानों में एक खास महत्वका की तीव्रता होने के बाद प्रसिद्ध दिगम्बर विद्वानों द्वारा एकन ही नहीं किन्तु दिवाकरनन्दी,बालकन्द प्रादि नि. लिखी गई हैं और एक खुद सूत्रकार वाचक उमास्वाति गरविकानेनि पर्यटक भाषामें टीका लिखी हैं। -सम्पादक की स्वोपक्ष ही है । साम्प्रदायिक विरोधके जम जानेके १६ इसके लिये देखो, तत्वाभाष्य हिन्दी अनुवादको प्रस्ता- बाद किसी भी श्वेताम्मर भाचार्यके द्वारा मूल सूत्रों ला, प. श्री माथामजी प्रमीलिखित । पर लिखी हुई दूसरी बैसी महत्वकी व्याख्या अभी तक १७ शंकर, निम्बार्क, मध, रामानुज, पाम, माहिने। जाननेमें नहीं आई। इससे इन चार व्याख्याओं के Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिवन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] तत्वार्थसूत्रकं व्याख्याकार और व्याख्याएं विषयमें ही प्रथम यहाँ पर कुछ चर्चा करना उचित मब मूलसूत्रों परस खास अर्थमें फेर नही पाना । इन जान पड़ता है। तान स्थलोमे स्वर्गकी बारह भौर मोलह मंग्याविषयक ___ भाष्य भोर सर्वार्थसिद्धि पहला (४, १५.). कालका स्वतन्त्र अस्तित्व-नास्तिस्य 'भाध्य' और 'माणमिति र मानने विषयक दूसरा ( ५. ३८ ) और तीसरा स्थल विषयमें कुछ विचार करने के पहले इन दोनों के मत्र पुण्य प्रकृतियोंमें हाम्य प्रादि चार प्रकृतियों के होने न पाठोंके विषयमें विचार करना जरूरी है । यर्थार्थमें होने का (८, २६ ।। एक ही होने हुए भी पीछेसे माम्प्रदायिक भंदक कारण ३ पाठान्तरविषयक फंग-दांनी सत्रपाठोके पार सूत्रपाठ दो हो गये हैं, जिनमें एक श्वेताम्बर्गय और म्परिक फेर के अतिरिक्त फिर इम प्रत्येक स्त्रपाठमें भी दूसरा दिगम्बर्गय तौर पर प्रसिद्ध है। शंताम्बीय फर पाता है। सर्वामिद्धि मान्य मत्रपाठमें ऐसा फेरे माना जानेवाले सत्रपाठका स्वरूप भाप्य के साथ श्रीक ग्नास नहाह, एकाध स्थल पर माथमिक्षिके कत्तीने बैठता होनेस, उस 'भाप्यमान्य' कह सकते हैं, और जा पाटान्तर नीट किया है। रमको यदि अलग कर दिगंबरीय माना जानेवाले मत्रपाटका स्वरूप सर्वार्थ दिया जायनो मामान्य तौर पर यही कहा जा सकता मिद्धिके माथ ठीक बैठना होनेस उम 'मर्वार्थीमद्धि- । है कि मब ही दिगम्बर्गय टीकाकार मर्वार्थासाठमान्य मान्य' कह सकते हैं। मभी श्वेताम्बर्गय प्राचार्य मत्रपाठमें कुछ भी पाठभेद चित नहीं करने । इसमें भाष्यमान्य मृत्रपाठका ही अनमरण करते हैं, और एमा कहना चाहिये कि पत्यपादन मार्थसिद्धि पते समय जोमत्रपाठ प्रान किया तथा सभागबढ़ायापमा सभी दिगम्बर्गय आचार्य सर्वार्थसिद्धिमान्य मत्रपाठ का अनुसरण करने हैं । मृत्रपाठ मम्बंधमें नीचे की कानिविवाद म्पमं पीठ मभी निगम्बर्गय टीकाकारोन मान्य रकम्या । जब कि भाग्यमान्य मत्रपाठके विषयमे चार बात यहाँ जानना जरूरी है:५.सत्रमंख्या भाप्यमान्य सूत्रपाठी मंग्या३४४. एमा नहीं, यह मत्र पाट श्वनाम्बीय नौर पर ए. होने पर भी उमम कितने ही स्थानों पर भाज्यक वाक्य और सर्वामिद्धिमान्य मत्रपाठकी मंग्या ३५७ है। मत्राप दाबिल हो जानेका, कितने ही स्थानो पा ५ अथफेर -- मत्रांकी मंग्या और कहीं कहीं शाब्दिक मूत्रम्पमें माने जाने वाले वाक्यांका भाष्यापमें भी रचनामें फेर होते हुए भी मात्र मूलसत्री परमही अर्थम गिने जानका, कहीं कहीं अमल एक ही मात्र का महत्वपूर्ण फेरफार दिखाई द ऐम तीन स्थल है, बाकी भागोम बट जानका और कहीं अमल के दो मत्र मिल * जय भाम्यमान्य मुलपाठ क्विानग्य मार निश्चित है. म. कर वर्तमानमें एक ही सत्र हो मानेका मचन भाष्यका कि इन्हीं पक्ति में भाग लेखक महोदयक कथनम पर है, नब लभ्य दोनो टीकाम सूत्रोंकी पाठान्नविषयक पची सूत्रोंकी इस निक्षित मत्र्याका माधार क्या है, यह कुछ समझमें परम स्पष्ट होता है। नी भाया । मेर देखने में एक मातास मुत्रपाट माया है जिसमें मुत्रों की संख्या ३४ है मोरइसी म्बमिद काटिप्पण। १८ वखा, का यह प्रति भलसाके संप्ट राजमल जीजात्य के पास है। दबा, २,१६।२ : १ ।.... -सम्पादक और न्यादि। Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८ अनकान्त वर्ष १, किरण ११, १२ ४ असलीपना-उक्त दोनों सूत्रपाठोंमें असली थोड़ी देर युक्ति के लिये यदि ऐसा मान लिया जाय कौन और फेरफार प्राप्त कौन? यह प्रश्न सहज उत्पन्न कि यह स्वोपज्ञ नहीं तो भी इतना निर्विवादरूपसे कहा होता है। इस वक्त नकके किये हुए विचार परसे मुझे जा सकता है कि भाष्य सर्वाथसिद्धिकी अपेक्षा प्राचीन निश्चय हुआ है कि भाष्यमान्य सूत्रपाठ ही असली है तथा कोई रूढ़ श्वेताम्बर्गय नहीं ऐसे तटस्थ विद्वानअथवा वह सर्वार्थमिद्धिमान्य सूत्रपाठकी अपेक्षा अ. द्वाग लिखी गई तत्वार्थसत्र परकी पहली ही टीका है; सली सुत्रपाठ के बहुन ही नज़दीक (निकट ) है। क्योंकि वह सर्वार्थसिद्धि जैसी साम्प्रदायिक नहीं। इस मत्रपाठ-विषयमें इतनी चर्चा करने के पश्चान तत्वका ममझने के लिये यहाँ तीन बातोंकी पर्यालोचना अब उनके उपर सर्व प्रथम रचे हुए भाग्य नथा की जाती है-५ शैलीभेद २ अर्थविकास और ३ सर्वार्थसिद्धि इन दो टीकाओंके विषय में कुछ विचार साम्प्रदायिकता। करना आवश्यक जान पड़ता है। भाष्यमान्य सूत्रपाठ- शलीभद-किसी भी एक ही सुत्र पर के भाष्य का असलीपना अथवा अमली पाठके विशेष निकट और उमकी मर्वार्थमिद्धि मामने रख कर तुलना की होना तथा पूर्व कथनानुसार भाष्यका वा० उमास्वाति दृष्टिम देखने वाले अभ्यामीको ऐमा मालम पड़े बिना कत कपना दिगम्बर परंपरा कभी भी स्वीकार नहीं कभी नहीं रहता कि मर्वार्थसिद्धिसे भाष्य की शैली कर सकती.यह स्पष्ट है क्योंकि दिगम्बर परंपरामान्य प्राचीन है तथा पद पद पर सर्वार्थसिद्धिम भाष्यका मभी तत्वार्थ परकी टीकाओका मूल आधार सर्वार्थ- प्रतिबिम्य है । इन दोनो टीकापो से भिन्न और दोनों मिद्धि और उसका मान्य मत्रपाट ही है। इसमें भाष्य से प्राचीन ऐमी तीसरी कोई टीका तत्त्वार्थसत्र पर या भाग्यमान्य मत्र पाठको ही उमाम्बातिकतक हानका यथंट प्रमाण जब तक न मिले नब तक भाष्य मानते हुए उनके मान हुये मत्रपाठ और टीकाप्रथा और सर्वाथसिद्धि की तुलना करने वाले ऐसा कह का प्रामाण्य पग पूरा नहीं रहता। इससे किमी भी बिना कभी नहीं रहेंगे कि भाष्य को सामने रख कर स्थल पर लिम्वित प्रमाण न होते हुए भी दिगम्बर परं- सर्वार्थसिद्धि की रचना की गई है। भाष्य की शैली पराका भाष्य और भाष्यमान्य सत्रपाठक विषयमं प्रसन्न और गंभीर होते हुए भी दार्शनिकत्व की दृष्टि क्या कहना हो सकता है, उमे साम्प्रदायिकत्वका हरेक से सर्वार्थसिद्धि की शैली भाष्य की शैली की अपेक्षा अभ्यासी कल्पना कर सकता है । दिगम्बर परम्परा विशेष विकसित और विशेष परिशीलित है ऐसा निःसर्वार्थसिद्धि और उसके मान्य मत्रपाठको प्रमाण- सन्देह जान पड़ता है । संस्कृत भाषाके लेखन और सर्वस्व मानती है और ऐमा मानकर यह स्पट भूचित जैनसाहित्यमें दार्शनिक शैलीके जिस विकास के पश्चात् करती है कि भाष्य स्वोपा नहीं है और उसका मान्य सर्वार्थसिद्धि लिखी गई है वह विकास भाष्यमें दिखाई सूत्रपाठभी असली नहीं । ऐसा होनस भाष्य और नहीं देता; ऐसा होने पर भी इन दोनों की भाषा में जो सर्वार्थसिद्धि योनीका प्रामाण्ग-विषयक बलाबल जॉ. बिम्ब-प्रतिबिम्बभाव है वह स्पष्ट सूचित करता है कि पनंके बिना प्रस्तुत परिचय प्रधाही रहता है । भाष्य दोनोंमें भाष्य ही प्राचीन है। की म्बोपजनाके विषयमें कोई सन्देह न होते हुए भी उदाहरण के तौर पर पहले अध्यायके पहले सूत्रके Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाश्विन, कार्तिक, वारनिःसं०२४५६] तत्वार्थस्त्रक व्याख्याकार और व्याल्याएं भाष्यमें - शब्द के विषयमें लिखा है कि 'सम्यक' भी भाष्य की अपेक्षा सवामिति अर्वाचीन है ऐमा निपात है अथवा 'सम' उपमर्गपूर्वक 'अञ्च' धातुका ही मालम पड़ता है । जो एक बान भाष्यमें होती है रूप है; इमी विषयमे सर्वार्थसिद्धिकार लिखत है कि उसका विस्तन करके-मके ऊपर अधिक चर्चा कर 'सम्यक्' शब्द अव्यत्पन्न अर्थात व्यपत्ति-हिन अग्बंड के-सामिद्धिम निम्पण किया गया है । व्याकहै अथवा व्यत्पन्न है-धातु और प्रत्यय दंनी मिल शाम और जनता दशनीकी जिननी चचा मवा कर न्यत्पत्निपूर्वक मिद्ध हश्रा है । 'अञ्च' धातु का मद्धिम है उतनी भाप्यमे नही । जैन परिभाषाका. य लगाया जाय नब मम । अनि मक्षिमहान हप भी. जो स्थिर विशीकरण और इस गति में भम्यक' शब्द बनता है । 'मम्यक शब्द- वनव्यक। जो पृथकर गण सामद्धिम है वह भाष्यम विषयक निरूपण की उक्त दो शैलियोमे भाग्यकी कमती कमी है। भागको अपेक्षा मासिद्धिकी अपेक्षा सर्वार्थमिद्धिकी स्पष्टता विशेष है। इसी प्रकार नाकिकना बढ़ जाती है. और भाप नही एम वि. भाध्य मेला शटकी व्यत्पत्तिविपयम सिफ सातवाना शामिला ममें जार जान इतना ही लिखा है कि 'दर्शन' 'शि धातुका रूप है.. और दर्शनान्तरका घडन जोर पकड़ना है । ये मध जब कि मर्वार्थमिद्धिम 'दर्शन' शब्द की व्युत्पनि नान वान मामिद्धि को अपना भाग्यकी प्राचीनताको प्रकारसं स्पष्ट बतलाई गई है । भाज्यमं 'जान' श्रीर मिद करती है। 'चारित्र' शब्दांकी व्यत्पत्ति स्पष्ट बननाई नहीं; जब साम्प्रदायिकता उक्त दो पानीको अपेक्षा कि मर्वामिद्धिम इन दोनों शब्दों की व्यपान नीन माम्प्रदायिक नाकी बान अधिक महत्व की है । कालप्रकारसे स्पष्ट बतलाई है और बादको उमका जैनदाए- नत्र, चलाकवलाहार, अचलकाय और श्रीमान से समर्थन किया गया है। इसी तरहम ममाममे दर्शन जैसे विषयोन नात्र मनभदका रूप धारण करने के बाद और जान शब्दामम पहले कौन श्राव और पीछे कौन और इन बानी पर माम्प्रदायिक श्राम बंध जाने के श्रात्रे यह सामासिक चचा भायम नहीं; जब कि बान हामवामिद्धिम्बिी गई है, जब कि भाज्यम सर्वार्थसिद्धिमें वह स्पष्ट है। इसी तरह पहले अध्याय यह साम्प्रदायिक अभिनिवेशका नन्त्र दिवाई नहीं के दूसरे सत्रके भाष्य में 'नव शब्नक मिफ दो अर्थ दना । जिन जिन थानाम स्तु वताम्बर माम्प्रदायक सचित किये गये है; जब कि मामिद्धिम इन दोनों माथ दिगम्बर सम्प्रदायका विगंध है उन सभी बाना प्रोंकी उपपत्ति कीगई है और इशि' धानुका श्रद्धा का मामादक प्रगतान मत्रांम फरफार करके अर्थ कैम लेना, यह बात भी दशाई गई है, जो भाग्य या . ... . .. । में नहीं है। - इत्यानिकी ममिदक गाय का भार । अर्थविकाम - अर्थ की ट्रिम दम्बिये ना मामय मा ना ययन न भाग - नक मल प्रकारम मिदन का दिया कि म कर मन्त्र २. उदाहरण के तौर पर नुलन कर 1..1 ... पाट वृद्ध ममितिकारक द्वारा निगा किन! 12 . मोर २.१ त्यति मत्रोंक' भय मोरमसमिटि। महाव्य बम विषय प्रमी मावित मोर निभास Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनकान्त वर्ष १, किरण ११, १२ या उनके अर्थमें खींचतान करके या असंगत अध्या- आई वहाँ स्पष्ट रीतिसे दिगम्बर मन्तव्योंका ही हार भादि करके चाहे जिस रीतिस दिगम्बर सम्प्रदाय स्थापन किया, ऐसा करनेमें पूज्यपादको कुन्दकुन्दके के अनुकूल पड़े उस प्रकार सूत्रों से उत्पन्न करके ग्रंथ मुख्य आधारभूत हुए जान पड़ते हैं । ऐसा होनेसे निकालनका साम्प्रदायिक प्रयत्न किया है, वैसा प्रयत्न दिगम्बर परंपराने सर्वार्थसिद्धिको मुख्य प्रमाणरूपसे भाष्यमें कहीं दिखाई नहीं देता। इससे यह स्पष्ट मालम स्वीकार कर लिया और भाष्य स्वाभाविक रीतिसे ही होता है कि सर्वार्थमिद्धि साम्प्रदायिक विरोधका श्वेताम्बर परंपरामें मान्य रह गया। भाष्य पर किसी वातावरण जम जानेके बाद पीछेसे लिखी गई है और भी दिगम्बर प्राचार्यने टीका नहीं लिखी, उसका भाष्य इस विरोधकं वातावरणसे मुक्त है। उल्लेख भी नहीं किया, इससे वह दिगम्बर परम्परासे नब यहाँ प्रश्न होता है कि यदि इस प्रकार भाष्य भिन्न ही रह गया; और श्वेताम्बरीय अनेक आचार्यों नटस्थ और प्राचीन हो तो उसे दिगम्बर परम्परानं ने भाष्य पर टीकाएँ लिखी हैं और कहीं कहीं पर बोड़ा क्यों ? इसका उत्तर यही है कि सर्वार्थसिद्धिके भाष्यके मन्तव्योंका विरोध किये जाने पर भी समष्टि कीको जिन बातोंमें श्वेताम्बर सम्प्रदायकी मान्य- रूपमं उसका प्रामाण्य स्वीकार किया है, इसीसे किसी नाओंका जो बंडन करना था उनका वह खंडन भाष्य तटस्थ परम्पगके प्राचीन विद्वानद्वारा रचा होने पर में नहीं था, इतना ही नहीं किन्तु भाष्य अधिकाँश में भी वह श्वेताम्बर सम्प्रदायका प्रमाणभूत प्रन्थ हो म दिगम्बर परम्पराका पोषक हो सके ऐसा भी नहीं गया है। था, और बहुतसे स्थानों पर तो वह उलटा दिगम्बर दो वार्तिक परम्परासे बहुत विरुद्ध जाता था । इससे पज्यपादनं प्रन्यांका नामकरण भी आकस्मिक नहीं होता; भाष्यको एक तरफ रख सूत्रों पर स्वतन्त्र टीका लिखी मिल सके तो उसका भी विशिष्ट इतिहाम है ही। पूर्वभीर ऐसा करते हुए सूत्रपाठमें इष्ट सुधार तथा वद्धि कालीन और समकालीन विद्वानोंकी भावनामेंसे तथा की और उनकी व्याख्यामें जहाँ मतभेदवाली बात साहित्यके नामकरण प्रवाहमेंसे प्रेरणा पाकर ही प्रन्थ कार अपनी कृतियोंका नामकरण करते हैं। पतंजलि फुटनोट में ऐसी व्याख्याकी सभाक्नाको स्वीकार किया है जो के व्याकरण परके महाभाष्यकी प्रतिष्ठाका असर पि. पूज्यपादसे भी पहले लिखी गई हो और जिसका सूत्रपाठ भी की हो जी सपिसिमिमें स्वीकृत हुमा है। इस लिये उनका यहां पर छले अनेक पन्धाकारों पर हुश्रा, यह बात हम उनकी मा विधिपस लिखना उक्ति मालूम नहीं होता।-सम्पादक कृतिके 'भाज्य' नामसे जान सकते हैं । इसी असरने २२ जहां जहां भर्षकी खींचतान की है अथवा पुलाफ प्रादि वा०उमास्वातिको भाष्य नामकरण करने के लिये प्रेरित जैमे स्थल र ठीक बैठता विवरना नहीं हो सका उन सूत्रोंको क्यों किया हो,ऐसा सम्भव है। बौद्ध साहित्यमें एक प्रन्थन निकाल डाला ! इस प्रश्नका उतर सत्रपाठकी प्रति प्रसिद्धि भोर का नाम सर्वार्थसिद्धि' होनेका स्मरण है, जिसका निकाल डालने पर मप्रामाण्यका माप मानेका हो ऐसा जान हा गया ! यह एक प्रश्न खड़ा होता है। इसलिये यहां यदि ऐसेहीका यह परिणाम मामा जाय तो फिर भी पूज्यपाद्वारा सत्रों में सुधार भाविकी जो बात पर निश्चित रूप किसने की भाष्यमान्य मा ममिति में नहीं आके वियों में कही कात्तिक योग्य जान पड़ती है।-सम्पादक Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्विन, कार्तिक, बीरनि०सं० २४५६ ] तत्वार्थसूत्रके व्याख्याकार और व्याख्याएँ और प्रस्तुत सर्वार्थसिद्धिके नामका पौर्वापर्य सम्बन्ध अज्ञात है, परन्तु वार्त्तिकोंके विषय में इतना निश्चित है कि एक बार भारतीय वाङ्मय में वार्तिकयुग आया और भिन्न भिन्न सम्प्रदायों में भिन्न भिन्न विषयोंके ऊपर वार्त्तिक नामके अनेक प्रन्थ लिये गये । उसीका स्वार्थ परके प्रस्तुत वार्त्तिको नामकरण पर है। अकलंकन अपनी टीकाका नाम 'गजवार्त्तिक' खा है, इस नामका दूसरा कोई ग्रंथ पूर्वकालीन अन्य विद्वानका अभी तक मेरे जाननेमे नहीं आया; परन्तु विद्यानन्दका 'लोकवार्त्तिक' नाम कुमाग्लिके ‘श्लोकवार्त्तिक' नामके असरका आभारी है इसमें कुछ भी शङ्का नहीं । तस्वार्थमूत्र पर कलङ्कने जो 'राजवार्त्तिक' लिम्बा है और विद्यानन्दने जो 'लोकवार्त्तिक' लिया है, उन arrier मूल आधार सर्वार्थसिद्धि ही है । यदि अक लङ्कको सर्वार्थसिद्धि न मिली होती तो राजवार्तिकका वर्तमान स्वरूप ऐसा विशिष्ट नहीं होता, और यदि राजवार्त्तिकका आश्रय न होता तो विद्यानन्दके श्रांकवार्त्तिक में जो विशिष्टता दिखलाई देती है वह भी न होती, यह निश्चित है। राजवार्तिक और कवार्त्तिक ये दोनों साक्षान और परम्परामे सर्वार्थसिद्धिके ऋणी होने पर भी इन दोनोंमें सर्वार्थसिद्धिकी अपेक्षा विशेष विकास है। उद्योतकर के 'न्यायवार्त्तिक और हुआ धर्मकीर्ति के 'प्रमाणवार्त्तिक' की तरह 'राजव निक' गद्य में है, जबकि लांब क' कुमारिल के लोकवार्त्तिक' की तरह पथमें है । कुमारिलकी अपेक्षा विद्यानन्दकी विशेषता यह है कि उन्होंने स्वयं ही अपने पद्यवार्तिककी टीका लिखी है। राजवार्तिकमें लगभग समस्त सर्वार्वसिद्धि या जाती है फिर भी उसमें नबीनता और प्रतिभा इतनी अधिक है कि सर्वार्थसिद्धिको ५५.१ साथ रखकर राजवार्तिकको बाँचते हुए भी उसमें कुछ भी पौनरुक्तय दिखाई नहीं देता । लजग्गनिष्णात पूज्यपाद के सर्वार्थसिद्धिगत सभी विशेष वाक्योंको अकलङ्कने पृथकरण और वर्गीकरणपूर्वक वार्षिक परिवर्तित कर डाला है और वृद्धि करने योग्य जो बातें नजर आती थीं उनके अथवा वैसे प्रश्नोंके विषय में नवीन वार्त्तिक भी रचे है ? और सब गय वार्तिकों पर स्वयं ही स्फुट विवरण लिखा है। इसमे समरूपसे देखते हुए, 'राजवार्षिक' सर्वार्थसिद्धि का विवरण होने पर भी वस्तुतः एक स्वतन्त्र ही प्रन्थ है । सर्वार्थसिद्धिमे जो दार्शनिक अभ्यास नजर पड़ता है उसकी अपेक्षा राजवासिकका दार्शनिक अभ्यास बहुत ही ऊँचा चढ़ जाता है। राजवार्षिकका एक ध्रुव मन्त्र यह है कि उसे जिस बात पर जो कुछ कहना होता है उसे वह 'अनेकान्त' का आश्रय लेकर ही कहता है । 'अनेकान्त' गजवार्तिककी प्रत्येक चचाकी नाबी है। अपने समय पर्यन्त भिन्न भिन्न सम्प्रदायोंके विद्वाननि 'अनेकान्त' पर जो आक्षेप किंव और अनेकान्तवादकी जो टियाँ बतलाई उन सबका निरसन करने और अनेकान्तका वास्तविक स्वरूप बनलानेके लिये ही अकलंक ने प्रतिष्ठित तस्वार्थसूत्र के पाये (आधार) पर सिद्ध लक्षण वाली सर्वार्थसिद्धि का आश्रय लेकर अपने गजवार्तिक की भव्य इमारत वड़ी की है। सर्वार्थसिद्धिमें जो श्रागमिक विषयोंका अति विस्तार है उसे राजवार्तिककारने घटा कर कम कर दिया है और दार्शनिक विषयोंकों ही प्राधान्य दिया है। दचिण हिन्दुस्तान में निवास करने विद्यानन्यने देखा कि पूर्वकालीन और ममकालीन अनेक जैनगर २३ तुलना करो १, ७ की मि तथा जानक Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९२ भनेकान्त [वर्ष १, किरण ११, १२ विद्वानों ने जैनदर्शन पर जो हमले किये हैं उनका उत्तर बिम्ब इन दो ग्रंथों में है। प्रस्तुत दोनों वार्तिक जैनदर्शदेना बहुत कुछ बाकी है; और खास कर मीमांसक का प्रामाणिक अभ्यास करने के लिये हरेकको साधन कुमारिल आदि द्वारा किये गये जैनदर्शनके खंडनका की पूर्ति करते हैं। परन्तु इनमेंस 'राजवार्तिक' गद्य, उत्तर दिये बिना उनसे किसी तरह भी रहा नहीं जा सरल और विस्तृत होनसे तत्वार्थके संपूर्ण टीकाग्रंथों सकता तभी उन्होंने श्लोकवात्तिककी रचना की । हम की गरज अकेला ही पूरी करता है । ये दो वात्तिक देखते हैं कि इन्होंने अपना यह उद्देश्य सिद्ध किया है। यदि नहीं होते तो दसवीं शताब्दीसे पहलेक दिगम्बरीय तत्त्वार्थश्लोकवाति कमें जितना और जैसा सबल मी- साहित्यमें जो विशिष्टता आई है और इसकी जो मांसक दर्शनका खंडन है वैसा तत्त्वार्थसूत्रकी दूसरी प्रतिष्ठा बँधी है वह निश्चयसे अधरी ही रहती । ये किसी भी टीकामें नहीं । तत्वार्थश्लोकवार्तिकमें सर्वा- दो वार्तिक साम्प्रदायिक होने पर भी अनेक दृष्टियोंसे र्थसिद्धि तथा राजवात्तिकमें चर्चित हुए काई भी मुख्य भारतीय दार्शनिक साहित्यमें विशिष्ट स्थान प्राप्त करें विषय छूटे नहीं; उलटा बहुतसं स्थानों पर तो सर्वार्थ- ऐसी योग्यता रखते हैं । इनका अवलोकन बौद्ध और सिद्धि और राजवार्तिकी अपेक्षा श्लोकवार्तिककी वैदिकपरंपराके अनेक विषयों पर नथा अनेक प्रन्थों चर्चा बढ़ जाती है । कितनी ही बातोंकी चर्चा तो लो- पर ऐतिहासिक प्रकाश डालता है । कवार्तिकमें बिलकुल अपूर्व ही है। राजवार्तिकमें दाश दो वृत्तियाँ निक अभ्यासकी विशालता है तो श्लाकवातिकमें इस मूल सत्र पर रची गई व्याख्याओंका संक्षिा परिविशालताक साथ सुक्ष्मताका तत्त्व भरा हुआ दृष्टि- चय प्राप्त करनेके बाद अब व्याख्या पर रची हुई गोचर होता है । समग्र जैन वाङमयमें जो थोड़ी बहुत व्याख्यानोका परिचय प्राप्त करनेका अवलर पाता है। कृतियाँ महत्व रखती हैं उनमें की दो कृतियाँ 'राज- ऐसी दा व्याख्याएँ इस समय पूरी पूरी उपलब्ध हैं, बार्तिक' और 'श्लोकवार्तिक' भी हैं । तत्वार्थसत्र जो दोनों ही श्वेताम्बरीय हैं । इन दोनोंका मुख्य साम्य पर उपलब्ध ताम्बरीय साहित्य से एक भी संक्षेपमें इतना ही है कि ये दोनों व्याख्याएँ उमास्वाति के स्वीपज्ञ भाष्यको शब्दशः स्पर्श करती हैं और उस ग्रंथ राजवार्तिक या श्लोकवार्तिककी तुलना का विवरण करती हैं । भाष्यका विवरण करतं भाष्य कर सके ऐसा दिखलाई नहीं देता । भाष्य में का आश्रय लेकर सर्वत्र आगमिक वस्तुका ही प्रतिदृष्ट पड़ता अच्छा दार्शनिक अभ्यास सर्वार्थसिद्धि में पादन करना और जहाँ भाष्य आगमसे विरुद्ध जाता कुछ गहरा बन जाता है और राजवातिकमें वह विशेष दिखाई देता हो वहाँ भी अन्तको आगमिक परम्परा गाढ़ा हो कर अंतको श्लोकवार्तिकमें खूब जम जाता का ही समर्थन करना, यह इन दोनों वृत्तियोंका समान है। राजवार्तिक और श्लोकवार्तिकके इतिहास - ध्येय है। इतना साम्य होते हुए भी इन दो वृत्तियों में भ्यासीको ऐसा मालूम ही पड़ेगा कि दक्षिण हिन्दुस्ता- परस्पर भेद भी है । एक वृत्ति जो प्रमाणमें बड़ी है नमें जो दार्शनिक विद्या और स्पर्धाका समय आया वह एक ही प्राचार्यकी कृति है, जब कि दूमरी छोटी और भनेकमुखी पांडित्य विकसित हुआ उसीका प्रति- वृत्ति दो प्राचार्योकी मिन कृति है। लगभग बाईस Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्विन,कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] तत्त्वार्थस्त्रके व्याख्याकार और व्याख्याएँ ५९३ हजार * श्लोक प्रमाण बड़ी वृत्तिमें अध्यायोंके अंतमें पर से होने वाली दूसरी वाम मचना उद्धार-विषयकी तो बहुत करके 'भाष्यानमारिणी' इतना ही उल्लेख है। छोटी वत्ति किसी दूसरी वृत्तिमेसे मंक्षिप्त करके मिलना है; जब कि ११ हजार श्लोक प्रमाण छोटी उद्धत की गई है । यही अर्थ उद्धारकी मचनामेंमे वृत्तिमें प्रारम्भ के कितने ही अध्यायोंके अंतमें तो "हरि- फलित होना है। जिस वृत्निसे प्रस्तुत छोटी वन्ति उद्धृत भद्रोदधृतायां दुपदुपिकाभिधानायो" ऐमा उल्लेग्य की गई होगी वह वृत्ति उद्धत वृति की अपेक्षा प्रमाण और पिछले कितने ही अध्यायोंके अन्तमें "हरिभ- में बड़ी होगी यह ना स्वाभाविक ही है । प्रस्तुत को द्राचायप्रारब्धायां दुपपिकाभिभधानायां तस्या- वृत्तियों में की सिद्धमनीय बड़ी वृत्तिसं भिन्न दृसरी किमी मेवान्यकत कायां' ऐमा उल्लेख मिलता है। ये उल्लाव बड़ी वृत्ति के होनेका सबत जब तक न मिले तब तक ऐमा सूचित करते हैं कि बड़ी वृत्तिका कोई खास नाम तो ऐसा ही मानना उचित है कि मिद्धसनीय बड़ी नहीं जब कि छोटीवृतिका 'दपदापिका' ऐसा नाम वृत्तिमेसे ही हरिभद्रीय छोटी वृत्तिका उद्धार हुआ है। है । दुपपिका ऐमा अभी तक बाँचनमें आना हुश्रा इस मान्यताकी पुष्टि में दानों वृत्तियों के शब्दसादृश्यको पाठ यदि मत्य हो तो उसका अर्थ क्या विविक्षिन होगा प्रमाणके नौर पर रख सकते हैं । छोटी वृत्तिमें बड़ीवत्ति वह कुछ भी समझमें नहीं आता, फिर भी इन उल्लेखों का ही शब्दशः प्रतिबिम्ब है । बड़ी वृत्तिमें जा सूत्रपाठ विषयक और मन्नव्या-विषयक अनेक मतभेद नोट : पहन इसी उनिकी नया अठारह हजार बतलाई गई। ___ किये गये हैं, जो लम्बे लम्बे प्रतिपादन हैं, भाष्यके तब दानों में किराको ठीक मनझा जाय । यह एक प्रश्नाना है। -सम्पादक समथनम अथवा उसके विगंध जो लम्बी लम्बी २४ हमारे पास जा प्रवक कन्तिविजोक शामा ग्रह, चचाप है, दार्शनिक मन्तव्यांकी जो विस्तारपर्वक को लिग्बी ई पुस्तक है. मा मिनत्र ! अध्यायक माना समालोचना नथा ग्वंडन-मंडन है और जो दूसरं प्रास का सा नाम पर है दूसरे अन्यायांक अन्तमें जहां गिक ऊहापोह है व सब छोटी वृत्तिम नहीं थथवा है यह नाज है वहीं चार अक्षर छाद कर 'काभिधानायां इतनी का चार असरका कामियानाया भी ना बिलकलाहीमक्षिाकर ही लिखा है । एमा मालता है कि प्राचीन लिला ई पुग्नको में चार अनर नती वचनम लेखकन इतनी जगह काही हामी । नियोंको अवलोकन करते हुगएमा मालूम होता है सा खगिडन नाम न पर भी नवा अध्यायक अन्तर दुपदुप' किस न कि संपाच-श्रभ्यामियोंकी सरलनाके लिए बडी की इन चार मन की प्रतिक माथ 'दुपदुपिकाभिधानायां' जटिलता घटा कर ही छोटी वृति बनाई गई है । सा पाठ पत्र लिखा है । इसमें उसकी मौलिकता विषय ने मा केमिवाय छाटी वनिक रचयिताका कोई खाम की. होती है। शल मन पर अङ्कित नहीं होना । छोटी वृत्ति में जो जी यदि 'पदविका कद देशीय प्राकृत या मरकृतका गत्यही बात हैं व मय बड़ी वृत्तिमें नो हैं ही; इम परमं यहाँ की और उसका अर्थ एक कोटी नौका माता जमा कर सकते हैं कि यह छाटी नि बड़ी प्रतिस्प समुद्रमं प्रवेश कानक लिंग ऐसा कहा जाता है कि छोटी वृत्ति प्रस्तुन बड़ी वनिका टोगीकी गरज़ मिद्धि कानेक लिय लग गई है। उद्धार है । इम कथाम यह स्वाभाविक तौर पर ही मिनीय सृव परकी कुमाग्लिकृत प्रतिक अन्तिम भागकः फलित होता है कि छोटी और बड़ी प्रस्तुन दोनों पतिएमा नान है । इसमे भी टुप गट अपार्थक जान पता है। योंमें स्वीकृत मूल भाष्यपाठ एक ही है और होना Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९४ अनकान्त वर्ष १, किरण ११, १२ चाहिए । परन्तु इस विषयमें यहाँ एक अपवादभूत पाठको ही अथवा उस व्यारव्याके अंशको ही अवलस्थल नोट करने योग्य है, जो एकका दूसरेमेंमे उद्धार म्बन कर हरिभद्र ने अपनी वृत्ति क्यों न रची हो ? होनेके विषयमें शङ्का उत्पन्न करता है । पाँचवें अध्या- हरिभद्रद्वारा अपनी वृत्तिके आधार पर स्वीकृत उक्त यका २९ वा सूत्र "उत्पादव्ययधोव्ययुक्त सत्" सत्रके व्याख्यापाठकी परीक्षा करते हुए इतना तो है। इस सत्रका जो भाष्यपाठ अवलम्बन कर सिद्ध- मालूम होता है कि यह व्याख्या-पाठ उमास्वानिके सेनन वृत्ति रची है वह भाष्यपाठ हरिभद्रकी उद्धृत भाष्यका अंश न होकर किसी दूसरी ही व्याख्याका वृत्तिमें नहीं और हरिभद्रद्वारा अवलम्बित इस सूत्र- अंश होना चाहिये, क्योंकि इसमें भाष्यकी तरह सरल का भाष्यपाठ सिद्धसनकी वृत्तिमें नहीं । जैन तत्त्व- प्रतिपादन न होकर तार्किक लेखकको शोभा देने वाला ज्ञानके मर्मभूत उक्त सूत्रकी दोनों वृत्तियोंमें भाष्य- ऐसा सहेतुक प्रतिपादन है । चाहे जैसा हो परन्तु इस पाठ-विषयक इतना गोलमाल कैसे हुआ होगा ? इस एक अपवादभूत स्थलको छोड़ कर विचार किया पहेलीका हल अभी तक नहीं हो सका है । यदि सिद्ध- जाय तो यह छोटी वृत्ति प्रस्तुत बड़ी वृत्तिका उद्धार है, सेनीय वृत्तिको सामने रख कर ही हरिभद्रन अपनी ऐसा इस समय मानना उचित जान पड़ता है। वृत्ति सक्षेपमें लिखी हो तो उसमें सिद्धसेनद्वारा अब- सर्वार्थसिद्धि और राजवातिकके साथ सिद्धसेनीय लम्बित भाष्यपाठ होना चाहिये और यदि किसी वृत्ति की तुलना करिये तो स्पष्ट जाना जाता है कि कारणवशात हरिभद्रनं इस भाष्यपाठको छोड़ दिया जो भाषाका प्रसाद, रचनाकी विशदता और हो और अपने को सुलभ ऐसा ही दूसरा भाष्यपाठ अर्थका पृथक्करण सर्वार्थसिद्धि और राजवास्वीकृत किया हो तो भी उनके द्वारा अपनी वृत्तिमें तिकमें है, वह सिद्धमेनीय वृत्तिमें नहीं । इसके पाठान्तरके तौर पर सिद्धसनद्वारा अवलंवित भाष्य- दो कारण हैं । एक तो ग्रन्थकारका प्रकृतिभेद और पाठका नोट होना चाहिये, ऐसी मम्भावना रक्खी दूसरा कारण पराश्रित रचना है । सर्वार्थसिद्धिकार जाय तो यह कुछामधिक मालूम नहीं होती । परन्तु और राजवात्र्तिककार सूत्रों पर अपना अपना वक्तव्य हम हरिभद्रकी वृत्तिमें वैसा नहीं देखतं । इससे पनः म्वतन्त्र रूपसे ही कहते हैं जब कि सिद्धसनको भाष्य प्रश्न होता है कि क्यों हरिभद्रने सिद्धसेनीय वृत्तिस का शब्दशः अनुसरण करते हुए पराश्रितरूपसे चलभिन्न दूसरी ही किसी वृत्तिका आश्रय न लिया ना है। इतना भेद होने पर भी समग्र रीतिसे सिद्धसे. हो कि जिसमें उनके द्वारा स्वीकृत उक्त सत्रका भाष्य नीय वृत्तिका अवलोकन करते मन पर दो बातें तो पाठ होगा ? दूसरी तरफ ऐसी भी कल्पना होती है अंकित होती ही हैं । उनमें पहली यह कि सर्वार्थसिद्धि कि कदाचित् उक्त सूत्रके सिद्धसेन सम्मत भाष्यपाठ- और राजवात्तिककी अपेक्षा सिद्धसेनीय वृत्तिकी दार्शको पाठान्तरके तौर पर नोट किये बिना ही हरिभद्र- निक योग्यता कम नहीं । पद्धति भेद होने पर भी ने उसे छोड़ दिया हो और सर्वत्र सिद्धसेनीय वृत्तिका समष्टि रूपसे इस वृत्तिमें भी उक्त दो प्रन्थों-जितनी ही ही माधार लेते हुए भी उक्त सूत्र में दूसरी किसी न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग और बौद्धदर्शन-चर्चाकी ब्याख्याको आधारभूत मान कर उममें स्वीकृत भाष्य विगमन है । और दूसरी बात यह है कि सिद्धमेन Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] तत्वार्थसूत्रके व्याख्याकार और व्याख्याएँ ५९५ अपनी वृत्तिमें दार्शनिक और तार्किक चर्चा करकं भी किये विना संतोष धारण नहीं कर सकते,फिर भी किसी अन्तमें जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणकी तरह आगमिक स्थल पर उन्होंने दिगम्बरीय साम्प्रदायिक व्याख्यानों परम्पराका प्रबल रूपसे स्थापन करते हैं और इस स्था- की समालोचना की ही नहीं । जो अपने पूर्ववर्ती ठयापनमें उनका आगमिक अभ्यास प्रचर रूपसं दिखाई ख्याकारोंके सत्र या भाष्य-विषयक मतभेदोका तथा देता है । सिद्धमेनको वृत्तिको देखते हुए मालूम पड़ता भाष्य-विवरण-सम्बंधी छोटी बड़ी मान्यताओंका थांका है कि उनके समय पर्यंत तत्त्वार्थ पर अनेक व्याख्याएँ भी नोट लिये बिना न रहे, और स्वयं मान्य रक्खी रची गई थीं । किसी किसी स्थल पर एक ही सूत्रके हुई श्वेताम्बर परम्पराकी अपेक्षा तर्कबलसे सहज भी भाष्यका विवरण करते हुए वे पाँच, छह मतान्तर विरुद्ध कहने वाले श्वेताम्बरीय महान पाचार्यों की नोट करते हैं, इससे ऐसा अनुमान करनेका कारण कटक समालोचना किये विना सन्तोष न पकड़े वह मिलता है कि सिद्धसननं वृत्ति रची तब उनके सामने सिद्धसन व्याख्याविषयमें प्रबल विगंध रखने वाले कमसे कम तत्वार्थ पर रची हुई पाँच टीकायें होनी दिगम्बरीय आचार्योकी पूरी पूरी खबर लिये विना रह चाहियें । जो सर्वार्थसिद्धि आदि प्रसिद्ध दिगम्बर्गय सके यह कल्पना ही अशक्य है । इससे ऐसी कल्पना तीन व्याख्याओंसे गंदी होंगी, ऐसा मालूम पड़ता है; होती है कि उत्तर या पश्चिम हिन्दुस्तानमें होने वाले क्योंकि गजवार्तिक और लोकवार्तिक की रचनाके तथा रहने वाले इन श्वेताम्बरीय आचार्यको दक्षिण पहले ही सिद्धसेनीय वृत्तिका रचा जाना बहुत सम्भव हिन्दुस्तानमें रची हुई तथा पुष्टि को प्राप्त हुई नस्वार्थहै; कदाचित उनसे पहले यह न रची गई हो तो भी परकी प्रसिद्ध दिगम्बर व्याख्याएँ देखनेका शायद भवइसकी रचनाके बीच में इतना तो कम अंतर है ही कि सर ही न मिला हो । इसीप्रकार दक्षिण भारतमें होने सिद्धसेनका गजवात्तिक और श्लोकवार्तिकका परिचय वाले अकलंक आदि दिगम्बरीय टीकाकारोंको उत्तर मिलनेका प्रसंग ही नहीं आया । सर्वार्थसिद्धिकी रचना भारतमें होनेवाल तत्कालीन श्वेताम्बरीय टीकाग्रंथोंका पूर्वकालीन हो कर सिद्धसेनके समय में वह निश्चय- देखने का अवसर मिलना मालूम नहीं पड़ता; ऐसा होने रूपस विद्यमान थी यह ठीक परन्तु दूरवर्ती देशभेदके पर भी सिद्धमनकी वृत्ति और गजवातिकमें जो कहीं कारण या दूसरे किसी कारणवश सिद्धसनको सार्थ- कहींपर ध्यान खींचनेवाला शब्दसादृश्य दिखाई देता, सिद्धि देखनेका अवसर मिला हो ऐमा मालुम नहीं वह बहुन कर के नो इतना ही सूचित करता है कि या पड़ता । सिद्धसन,पूज्यपाद आदि दिगम्बरीय आचार्यों किसी तीमरं ही समान पंथकेअभ्यामकी विरासनकी तरह, साम्प्रदायाभिनिवेशी हैं ऐसा उनकी वृत्ति ही का परिणाम है । सिद्धसेनकी वत्तिमें नस्वार्थगन कहती है । अब यदि इन्होंने सवाथसिद्धि या अन्य २. एक तरफ. मिदसेनीय निमें दिगम्बरीय मूत्रपाठ-विरुद्ध कोई दिगंबरीयत्वाभिनिवेशी प्रन्थ देखा होता तो उसके समालोचना कीं की विम्वाई देती है। खामगांक तौर परप्रत्याघातरूप ये भी उम उस स्थल पर दिगम्बरीयत्व "अपरे पनविद्वांसोऽतिबहनि स्वयं विरचय्यास्मिन प्र. का अथवा सर्वार्थसिद्धिके वचनोंका निर्देशपूर्वक खंडन स्तावे सत्राण्यधीयते” इत्यादि ३, ११नी लि. २५ देखो , ३ की सिझसेनीय पनि पृ० ३.१। तथा "अपरे मूत्रद्वयमेतदधीयने-द्रव्याणि-जीवाश्च" Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनकान्त वर्ष १, किरण ११, १२ विषय-संबंधी जो विचार और भाषाकी पुष्ट विरासत ऊपर जो तत्त्वार्थ पर महत्वपूर्ण तथा अभ्यासविश्वलाई टेनीसेवासा मल प्रकार मा- योग्य थोडेसे ग्रन्थोंका परिचय दिया गया है वह सिर्फ लम होता है कि इस वत्तिके पहले श्वेताम्बर मंप्रदायमें अभ्यामियोंकी जिज्ञासा जागृत करने और इस दिशामें पुष्कल साहित्य रचा हुआ तथा वृद्धिको प्राप्त हुआ विशेष प्रयत्न करनेकी सचनाकी पतिमात्र है। वस्तुतः होना चाहिये। तो प्रत्येक ग्रन्थका परिचय एक एक स्वतन्त्र निबंधकी खंडित वृत्ति अपेक्षा रखता है और इन सबका सम्मिलित परिचय भाष्य पर तीसरी वृत्ति उपाध्याय यशाविजयकी ना एक मांटी दलदार पस्तककी अपेक्षा रखता है, जो है; यदि यह पूर्ण मिलती हानी ना यह मतगहवीं, अ- काम इम स्थान की मर्यादाक बाहर है; इस लिये इतने ठारहवीं शताब्दी तक को प्राप्त होने वाले भारतीयदर्श- ही परिचय संताप धारण कर विराम लेना उचित्त नशाम्त्रक विकास का एक नमूना पूर्ण करती, ऐसा समझता हूँ। वर्तमानमें उपलब्ध इस वृत्ति के एक छोट ग्वंड परम ही कहनका मन हो जाता है । यह खंड पृग प्रथम अध्याय नोटके ऊपर भी नहीं, और इसमें ऊपर की दो वृत्तियोंक 'उमास्वाति और उ.का तत्त्वार्थस्त्र' इस विषय समान ही शब्दशः भाष्यका अनमरण कर विवरण को लेकर लिखी गई लेखमालाका यह तीसग लेख है मा हाने पर भी इसमें जो गहरी - और इसके साथ ही उक्त लेखमालाकी समाप्ति होती कोनगामी चर्चा, जो बहुश्रुतता और जो भावम्फोटन है। इसमें लेखक महोदयने तत्त्वार्थसुत्रकी खास खास दिखाई देता है वह यशोविजयजीकी न्यायविशारदताका टीकाओके सम्बन्धमं जो अपना तुलनात्मक विचार निश्चय कराता है। यदि यह वत्ति इन्होंने संपूर्ण रची प्रकट किया है. वह उनके विशाल अध्ययनको चित होगी ना ढाईमी हा वों में उसका सर्वनाश हो गया ही करना हुआ, पाठकोंके मामने विचार की कितनी ही ऐसा मानने जी हिचकता है. इसमें इसकी शोधक लिग नई मामी प्रस्तुत करता है और उन्हें सविशेप रूपम किये जाने वाले प्रयत्नका निष्फन जाना संभव नहीं। इन टीका ग्रंथाके अध्ययनकी तथा दूसरं प्राचीन टीका साहित्यकं अनसंधानकी प्रेग्णा करता है; और इस इत्यादि .... ..नय "अन्ये पठन्नि मत्रम" लिये अभिनन्दनीय है। इस लेख की कितनी ही बात ५.२३ पृ.१.१५० तथा काकी सर्व मिदार राजवानिक. नि:मन्द विचारणीय हैं-खास कर 'भाष्य' और में दागाचर ती व्याभ्यागोका खगडन भी है । उदाहरगाके सर्वार्थसिद्धि के सम्बन्धमें जा कर कहा गया है वह तौर पर .." ये वेद भाष्यं गमनप्रतिषेधद्वारंण चारण- अभी गहरं अनुसंधान तथा प्रकाशकी अपेक्षा रखना विणाधरद्धिप्रामानामाचक्षत तपामागविगंध" इत्यादि । आशा है दसरं अध्ययनशील विद्वान भी-खास ३, १३ की पनि पृ०२६३ तथा क.1 की वकिके साथ शल- कर प्रधान अध्यापक गण जो वर्षों से विद्यालयों में सादृश्य है "नित्यप्रजल्पितवन" इत्यादि ... 3की :नि पृ०.१ मल तत्त्वार्थस्त्र और इन टीका प्रन्याको पढ़ारहे हैं मी तरफ़ लाम्बरपथका सदन करने वाली सर्व धसिद्धि प्रादि अब इस विषय में अपनी खोजीको सामने रक्खेंगे और की खास व्याच्या मोंका सिद्धमेनीय प्रक्तिमें निरसन नीं, इसी इस बातको प्रमाणित करेंगे कि उन्होंने किस अध्यवसम्भावना होती है कि सर्वार्थसिद्धिमें स्वीकृत सूत्रपाठको अवलम्बन सायके साथ इन गन्थोंका कितना परिशीलन और कर रखी काई दिगम्बराचार्य या अन्य तटस्थ प्राचार्यकी भाज्यव्याव्या कितना गहरा अभ्यास किया है। और इस तरह जिसमें ग्वताम्बीय विशिष्ट मान्यतामाका खंडन न होगा और ज लेखमालाके द्वारा जहाँ कहीं कोई ग़लत फहमियाँ पैदा १ज्यपाद या मकल को भी अपनी टीका पीके लिखने में माधारभूत हुई हों उन्हें दूर करनेका सातिशय पण्य-प्रयत्न करेंगे। हुई होगी वह मिदमेनके मामने होगी। -सम्पादक Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राश्विन, कार्तिक, वीरनि० सं० २४५६ ] भारतमें देहात और उनके सुधार की आवश्यकता भारतमें देहात और उनके सुधारकी श्रावश्यकता [ लेखक -- बाब माईदयालजी, बी० ए० नर्स ] सन् १९२१ की मनुष्यगणना के अनुसार हमारे देश की ३२ करोड़ आबादी में से २८ करोड अधिक आदमी देहात में - ग्रामोंमें-रहते हैं । इसी बातको दूसरे शब्दों में यूँ कहा जा सकता है कि यहाँ सौ पीछे नव्वे आदमी देहातमें रहते हैं। जर्मनी और इङ्गलैण्डमें क्रमशः ५४ और २२ प्रतिशत आदमी देहात में रहते हैं । इसलिए यह कहने में कोई अतिशयोक्ति न होगी कि भारतवर्ष प्रधानतः एक देहाती देश है और यहाँ की जनताका अधिकांश भाग देहात में ही रहता है, शहगें और कस्बो में केवल दश प्रतिशत आदमी रहते हैं । हमारं देशमें ६८५६२२ गाँव हैं और २३१३ शहर है । एक लाखसं अधिक आबादी के शहरोंकी तो कुल संख्या तेतीस ही है। अधिकतर संख्या ऐसे शहरों की है जिनकी आबादी १० और २० हजार के बीच में है। अच्छा तो यह है कि इनको शहर कहनेके स्थान पर कस्बे ही कहा जाय । रही गाँवोंकी बात | देहाती आबादी का कोई तीन चौथाई भाग ऐसे गाँवों में रहता है जिनकी आबादी दो हजार और पाँच हजार के बीच होती है। बाकी एक चौथाई आबाद इनसे छोटे छोटे गाँवों रहती है। १ Census of India 1921 Vol. I Part I Page 95 : Census of India 1921 Vol I. Part I Page 40 ३ Census of India 1921 Vol. I Part I Page 65 ५९७ देहातका नाम सुनते ही हमारी आँखों के सामने विचित्र दृश्योंका चक्र बँध जाता है। वे दृश्य गाँव के सादा, प्राकृतिक तथा भोलेभाले जीवन के कारण जितने चित्ताकर्षक और रोचक मालूम होते हैं उतने ही वहाँकी गन्दगी, अज्ञान, प्रचलित कुरीतियों और जीवन की श्रावश्यक सामग्री के अभाव के कारण अरुचिकर और भद्दे मालूम होते हैं। दुनियाकी मँटों और वर्तमान सभ्यता के सँघर्ष से उकताए हुए आदमीको जहाँ प्रामीण जीवन शान्ति देता है वहाँ नही जीवन कुछ आवश्यक वस्तुप्रोके न मिलने के कारण दुखका कारण बन जाता है । जिस प्रकार शहरी जीवन के अच्छे और बुरं दो पहलू हैं, उसी प्रकार देहाती जीवन के भी अच्छे और बुरे दो पहलू हैं। वर्तमान अवस्थाको द हुए यह कहा जा सकता है कि न तो बहुत बड़े बड़े शहरोंका जीवन और न छोटे छोटे गाँवोंका ही जीवन अधिक सुखकर है; बल्कि दरमियानी कम्बोंमें ही आगम है 1 पुराने जमाने और वर्तमान कालमें आकाशसंपूर्ण ग्राम एक देशके ही अंग थे, तो भी प्रत्येक गाँव पातालकासा अंतर हो गया है। यद्यपि पहले भारतकं अथवा श्रास पास के गाँवोंका कुछ समूह - चौबीस परगना, आदि - अपने लिये हर एक वस्तु तैयार कर लेता था और बाकी देशसे उसका बहुत कम सम्बन्ध रहता था । उन लोगोंकी आवश्यकताएँ भी कम थीं और वे प्रायः गाँवोंमें ही पूरी हो जाती थीं । राज्यसी व्यवस्था, अच्छे मार्गोका अभाव तथा उनकी Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९८ अनेकान्त वर्ष १, किरण ११, १२ कठिनाइयोंके कारण एक गाँवका बहुत दूरके किसी और सरकारको देहातसुधारकी तरफ पूरा ध्यान देना प्रान्त अथवा गाँवस कोई विशेष सम्बंध न था; और होगा। हमें अपनी समस्त शक्तियोंको देहातसुधारके इसी लिये एक स्थानको अवस्थाका दूसरे स्थानकी काममें लगा देना चाहिये-देहातकी उन्नति तथा सुधार अवस्था पर कोई बहुत गहरा प्रभाव नहीं पड़ता था। के लिये कटिबद्ध हो कर तन-मन-धनसे प्रयत्न करना किन्तु अब जमाना पलट गया है, गाँवकी वह एकता चाहिये । याद रखिये भारतका उद्धार उसके २८ करोड़ तथा स्वाभिमानता (Self sufficiency) प्रायः आदमियोंकी अवहेलना करके नहीं हो सकता । बिना नष्ट हो गई है । अंग्रेजी राज्यके मशीनके समान काम देहातसुधारक देशान्नतिकी बातें व्यर्थ हैं। करने वाले प्रबंधों, रेलों, तारों, सड़कों, समाचार- अब देखना यह है कि देहातक सम्बन्धमें किन पत्रों और समयके प्रभावके कारण अब देशके किन बातों अथवा समस्याओं पर ध्यान देनकी आवएक कोनमें होने वाली घटनाओंका कुछ न कुछ प्रभाव श्यकता है। क्या आपने आज तक कभी देहात-सबंधी प्रत्यक्ष अथवा परोक्षरूपसे दूसरे गाँवों पर अवश्य समस्याओं पर सोचनका कष्ट उठाया है ? देहातकी होता है । अब गाँवोंके आदमियों को भी जीवनकी समस्याएँ भारतवर्षकी समस्याांसे भिन्न नहीं है । छोटी छोटी अवश्यकताओं रंग, सुई, दियासलाई और दहातकी भी वे ही समस्याएँ हैं जो प्रायः समस्त देशकी कपड़े प्रादिके वास्तं बाहर वालोंका मुँह ताकना पड़ता हैं और जिनकी चर्चा आज कल सभी स्थानों पर कुछहै । इतना ही क्यों ? आज यदि बाहर प्रदेशमें कुछ प- न-कुछ चल रही है । परन्तु भेद केवल इतना है कि रिवर्तन अथवा कोई विशेष घटना होती है तो गाँवो उन समस्याओके सम्बन्धमें अब तक जो कुछ भी के भादमियों के जीवन पर भी किसी न किसी रूपमे आन्दोलन हुआ है वह प्रायः समाचारपत्रों और बड़े उसका कुछ प्रभाव जरूर पड़ता है । अपने देश के बड़े शहरों तक ही सीमित रहा है, उससे बाहर देहात किसी भी प्रान्तमें होने वाले दुर्भिक्षोंका, तंजी-मन्दीका में उसकी बहुत कम, नहीं के बराबर चर्चा है । देशकी और अन्य घटनामोंका तो कहना ही क्या, यदि परदेश समस्याओंके विषयमें अभी गाँवोंमें कोई प्रचार-कार्य में भी कोई दुर्भिक्ष, सुकाल या और कोई विशेष घ. नहीं हुआ है। प्रचारके अभावका कारण यह मालम टना घटती है तो उसका भी कुछ-न-कुछ प्रभाव गाँवों होता है कि देहातमें देशकं कार्यकर्ताओंको शहर-वाला पर अवश्य पड़ता है। आराम तथा नाम कम प्राप्त होता है। आजकल काम ऐसी हालतमें तथा राष्ट्रीय उन्नतिके इस यगों के लिये कार्य बहुत कम होता है बाकी सब नाम के गाँवोंकी अवस्था पर हमें अवश्य ध्यान देना होगा। लिये ही किया जाता है । देहातमें काम करनेके लिये अब गाँवोंको तथा प्रामवासियोंको उनके भाग्य पर बड़े ही धैर्य तथा संलग्नताकी जरूरत है और इन गुणों नहीं छोड़ा जा सकता। यदि भारतवर्ष संसारके समु. की बहुत हद तक हमारे कार्यकर्ताओंमें कमी है । दे. न्नत देशोंके साथ चलना चाहता है, यदि वह कुछ कर हातमें व्याख्यान-दाताओंके वास्ते मोटर, मेज, कुर्सी के दिखाना चाहता है और यदि वह चाहता है अपनी प्रादिका अभाव है । सरकारी अफसरोंका ध्यान भी माग उमति, तो भारतवासियोंको, देशके नेताओंको उधर कम ही जाता है । देहातमें जाने के लिये न नेता Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्विन,कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] प्रार्थना ओंके पास समय है और न अफसरोंको फरसत। परंतु ३ कृषि सुधार यह हर्षका विषय है कि अब देशमे जागतिकी लहर ४ आर्थिक सुधार चारों तरफ उठ रही है और समस्त देश उन्नतिके लिए ५ सामाजिक सुधार व्याकुल हो रहा है । इस लिये ऐसे समयमें यह बात ६ मादक वस्तुओंका प्रतिबन्ध बहुत आवश्यक है कि देहातकी समस्याएँ सोची जायें अगले पृष्ठोंमें इन्हीं समस्याओं पर अच्छी तरह उन पर गहरा विचार किया जाय-और फिर उनको का प्रकाश डाला जायगा । म हल करनेका समुचित प्रयत्न किया जाय । देहात-सम्बंधी समस्याएँ निम्न लिखित हैं:१ देहातकी सफाई लग्वककी 'दहात-सुधार' नामक अप्रकाशित पुस्तकका प्रथम • रोगोंकी रोक थाम तथा स्वास्थ्यरक्षा परिच्छेद । प्रार्थना [ लेखक-श्री०चौ० वसन्तलालजी ] हृदय हो प्रभु, ऐसा बलवान । विपदाएँ घनघोर घटासी, उमडे चहुँ दिशि श्रान । पर्वत-ऊपर-पतित बिन्दु-सी, झेलू मन सुख मान ॥१॥ असफल होकर सहम बार भी,मनको क न म्लान । लक्षगणित उत्साह धार कर, करूँ कार्य प्रण ठान ॥२॥ पूर्ण प्रात्मकर्तव्य करें या, खुद होऊँ बलिदान । सन्मुख ज्वलित अग्नि भी लख कर, हट न शंका ठान ॥३॥ करो स्तवन परिहास कगे या, यह संसार अनान । सत्य मार्ग को रंच न छोडूं , भय नहीं लाऊँ ध्यान ॥ ४ ॥ विकसित आत्मस्वरूप करूँ निज, बलका अतुल निधान । तनबल, धनबल तणवत समऊं, धरूं नहीं अभिमान ॥५॥ barnenewLinen vedere HERE Nette Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० अनकान्त धर्म और राजनीतिका सम्बन्ध [ लेखक - श्री०० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री ] धर्म और राजनीतिका सम्बन्ध स्थापित करने से पहने राजनीति तथा राज्यकी उत्पत्ति पर थोड़ा विचार कर लेना आवश्यक है । प्राचीन शास्त्रोंके आधार पर प्रत्येक या दो विभागों में विभाजित हैं - एक भोगभूमि और दूसरा कर्मभूमि । इस वर्तमान युगका प्रारम्भ भगम होता है । उस समय मनुष्यों को श्राजी - विका कमानेकी चिन्ता न थी, एक प्रकारके कल्पवृक्ष * होते थे जिनसे भोजन-वस्त्र आभूषण आदि जिस वस्तुको प्राप्त करनेकी हृदयमें आकांक्षा उत्पन्न होती श्री वह यथेष्ट परिमाण में प्राप्त की जा सकती थी, सबकी आर्थिक अवस्था समान थी, किसी मनुष्य को दूसरे मनुष्य कोई वस्तु माँगने या उधार लेने की आवश्यकता ही न पड़ती थी । आधुनिक शब्दों में उस वक्त प्राकृतिक आदर्श साम्यवाद था- न कोई राजा या और न कोई प्रजा, जनता में पाप प्रायः उत्पन्न ही नहीं * नरंगपत्तभूसणपाणाहारंगपुप्फजोडत | गेहूंगा वरथंगा दीवंगेहि दुमा दमहा || ७८७ ॥ -- त्रिलोकसार । वर्ष १, किरण ११, १२ 'वाचक दाता सूर्याग, भाजनके दाता पात्रांग, आभूषणा दाता भूषगागि, पीने के योग्य वस्तुभांक दाता पानांग, भोजन के दाता ब्राहारांग, पुष्पों के दाता पुष्पांग, प्रकाश करने वाले ज्योति रंग, गृहोंके दाता गृहांग, वस्त्रों के दाता बत्रांग, और दीपकों के वाता दीपांग, इस प्रकार कम्पन यस प्रकारके होते हैं। हुए थे, सब लोग सन्तोषपूर्वक सुखके साथ जीवन व्यतीत करते थे । किन्तु समय के फेरसे वह स्वर्णयुग दर तक स्थिर न रह सका - धीरे धीरे अनेक समस्याएँ उपस्थित होने लगीं । कल्पवृक्ष थोड़ा फल देने लगे, जिसमे मनुष्यों परस्पर झगड़ा होने लगा । सृष्टि के नियमानुसार इस ह्रासके समय एकके पश्चात् दूसरा ऐसे क्रमसे चौदह नेता उत्पन्न हुए जिन्हें 'कुलकर' या 'मन्' कहते हैं। इनमें से पाँचवें मनुके समय में कल्पवृक्ष सम्बन्धी उक्त समस्या उपस्थित हुई और इस लिये उसने इस पारस्परिक कलहको मिटाने के लिये कल्पवृत्तों की सीमा नियत करदी | छठे कुलकर के समय में जब कल्पवृक्ष बहुत कम फल देने लगे और प्रजा में कल्पवृत्तों की . सीमा के ऊपर भी झगड़ा होने लगा तब उस कुलकरनं प्रत्येक व्यक्तिकी सीमा पर चिन्ह लगा दिये जिस से नियत की हुई सीमा में झगड़ा उपस्थित न होने पाये । इस तरह धीरे धीरे कल्पवृक्ष नष्ट हो गये और मनुष्यों के सामने आजीविकाका प्रश्न उपस्थित हुआ । तब अन्तिम कुलकरने पृथ्वी पर उगने वाली वनस्पतिसे निर्वाह करनेकी शिक्षा दी। इन्हीं अन्तिम कुलकर 'नाभिराय' के पुत्र 'ऋषभदेव' हुए, जिन्होंने मनुष्यों में वर्ण-व्यवस्था स्थापित की, सारी जनताको अनेक पेशों ( वृनियों ) तथा श्रेणियों में विभाजित किया Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] धर्म और राजनीतिका सम्बन्ध और उनकी देखभाल तथा नियंत्रण करनेके लिये हिन्दुओंके मान्य ग्रंथ महाभारतके अनुसार भी शासक नियुक्त किये। ___ मृष्टिके श्रादिमें मनुष्य विशेष सुखी और सन्तोषी में भोगभमि-कालमें मनुष्य संतोषी होते थे और उन और इसका कारण आवश्यकताओंकी की तथा की सम्पूणे आवश्यकताएँ कल्पवृक्षों के द्वारा पूर्ण हो श्रावश्यक वस्तुभोंका प्रभूत परिमाणमें उत्पन्न होना जाती थीं, अतः उन्हें दूसरोंकी वस्तुओं पर दृष्टि था-लोगोंको बस्तुभोंसे मोह नहीं था, इसीलिये उनमें दौड़ानेकी जरूरत ही न पड़ती थी। धीरे धीरे आवश्य- मंचय करनेकी चिन्ता भी नहीं थी। धीरे धीरे पैदावार कता पूर्तिमें कमी पड़नेके कारण उनमें अपराध करन- कम हो जानेसे मनध्याम वस्तुश्रीका मह उत्पन्न हमा की भी नवीन पादत प्राविर्भत हुई। और ज्यों ज्यों और वे संचय करनेमें तत्पर हो गये । जिसमे प्राकआवश्यकताओं की पर्तिमें कमी होती गई तथा तिक नियमोंकी श्रृंखला छिम-भिम हो गई । और नई आवश्यकताएँ बढ़ती गई त्यों त्यों अपरावों तब व्यवस्था करने के लिए दण्डविधान तथा राजसंस्था की संख्या भी बढ़ती गई, जिसके रोकनेके लिये की आवश्यकता पड़ी। . दण्डविधानकी आवश्यकता हुई। प्रथम पाँच कुलकरों बौद्धप्रंथ 'दीघनिकाय' में तो इसका बड़ाही के समयमें अपराधीको केवल "ET" ऐसा कह कर मनोरंजक वर्णन मिलता है, जिस का संक्षिा प्राशय दण्ड दिया जाता था, जिसका प्राशय है-'हाय! बरा इस प्रकार है :किया।' इसके पश्चात् पाँच कुलकरोंके समयमें 1 सृष्टिके आदि में मनष्य सुखी और सन्नोषी थे, -मा" इन दो शब्दोंमें दण्डव्यवस्था रही, जिस- जिसे जब भोजन की आवश्यकता होती थी घर से का आशय है- 'हाय ! बुरा किया, अब ऐसा न बाहिर जाता था और अपने कुटुम्बके एक बार भोजन करना ।' अवशेष कुलकरोंके समयमें "हा-मा- करने के योग्य चावल ले आता था; क्योंकि चावल धिक" इन तीन शब्दोंसे दण्डव्यवस्था होती थी, यथेष्ट परिमाणमें उत्पन्न होता था। पर यह व्यवस्था जिसका आशय है-'हाय! बुरा किया-फिरसे ऐसा देर तक कायम न रही-कुछ पालसी मनुष्योंने सोचा न करना-तुझे धिकार है। इस तरह ज्यों ज्यों मन- कि हम प्रातःकाल के लिये प्रातःकाल और सायंकालके ज्योंका नैतिक पतन होता गया त्यों त्यों दण्डकी कठो• लिये सायंकाय चावल लेने जाते हैं इसमें दो पार कष्ट रता भी बढ़ती गई। भगवान् श्रीऋषभदेव के दीक्षा उठाना पड़ता है। यदि दोनों समयकं लिये एक बार ग्रहण करनेके पश्चात उनके पुत्र भरत चक्रवती सिंहा- ही चावल ले आया करें तो बहुत सहूलियत (सुगमता) सन पर बैठे । उस समय मनुष्य अधिक अपगध तथा होगी। उन्होंने यही किया। जब दूसरे मनुष्यों को यह अन्याय करने लगे थे, इस लिये महाराज भरतने अपराधियोंको कारागारमें रखने तथा उनका वध करने । बात मालूम हुई तो उन्होंने कहा-यह तो बहुत ठीक आदिरूप शारीरिक दंड देनकी प्रणाली प्रचलित की है ओर वे तब दो दिन के योग्य पावल उठा लाये । * शारीरं दण्डनं चैव वधबंधादिलक्षणम। - इस प्रकार जिन जिन मनुष्यों को यह बात मालूम होती नृणां प्रबलदोषाणां भरतेन नियोजितम् ॥२१६॥ गई उन सबने चावल जमा करना प्रारम्भ कर दिया। -प्रापिपुराण पर्ष । सागंश यह है कि मनुष्योंमें मन्तोष न रहा, उसका Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ११, १२ स्थान मोह ने ले लिया। इन बगईयों को देख कर सब थे। अतः दण्डविधान और राजसंस्थाकी भी कोई लोग एक स्थान पर एकत्र हुए और उन्होंने चावलोके अवश्यकता प्रतीत न होती थी । किन्तु पीछेसे वस्तुखेतों को श्रापसमें बॉट लेने तथा उनकी रक्षाकं लिये ओंके यथेष्ट परिमाणमें न मिलनेके कारण मनुष्योंमें चागं ओर बाड़ा बनाने की स्कीम उपस्थित की, जो असन्तोषकी लहर उत्पन्न हुई, जिसने वैयक्तिक संपत्तिममय को देखते हुए स्वीकार करनी पड़ी और उसके वादको जन्म दिया और साम्यवादका स्थान वैयक्तिक अनुसार चावलोंके वेतोंका बटवाग हो गया तथा संपत्तिवादने ले लिया। चूंकि मनुष्योंका श्रान्तरिक उनके चारों ओर बाड़ भी बना दी गई । इनने पर भी खास प्रारम्भ हो चुका था, अतः ज्यो ज्यों असन्तोषकी कुछ लालची मनुष्योंने दूसरोंके खेतों पर हाथ मारना अग्नि प्रवल होती गई त्यो त्यों मनुष्यों में लाभ और प्रारम्भ कर दिया। अपराधियोंको यथोचित दण्ड दिया मोहकी मात्रा बढ़ती गई। इस पतनकी दशामें जो जाने पर भी उक्त घटनायें बढ़ती ही गई। तब फिर मब होना चाहिये था वही हुआ-जनतामें अनेक प्रकार लोग एक जगह एकत्र हुए और उन्होंने विचार किया की बुराईयाँ उत्पन्न हो गई और ममष्य चोरी तथा कि हममें अनेक बराईयाँ उत्पन्न हो गई हैं-चारी असत्यभाषण आदि निन्दनीय अपराध करनेमें तत्पर और असत्य भाषणका प्रादुर्भाव हो गया है-अक्छा हो गये । जनताके द्वाग अपराधियोंकी भर्त्सना होने हो यदि हम एक मनुष्यको अपना मुखिया बनालें जो पर भी "मर्ज बढ़ता गया ज्यों ज्या दवा की" की कहाअपराधके अनुसार अपराधीकी दगडव्यवस्था किया वत चरितार्थ होने लगी । देशमें अव्यवस्था और अशाकरे । हम लोग इसके बदले में उसे अपने अपने चा- न्तिकी लहरें जोर पकड़ने लगीं। उपायान्तर न होनेसे बलोंका एक भाग दिया करेंगे। इस विचारके अन- उसका दमन करने के लिये दण्डविधान और राजसंस्थामार वे एक ऐसे मनुष्य के पास गये जिसे सब लोग का प्रादुर्भाव हुआ । और इन्हीं गजसंस्थाओंकी कार्यमानते थे और जो सब में योग्य था। उसके सामने पद्धति 'गजनीति' के नामसे विख्यात हुई। जनताने अपना विचार उपस्थित किया और वह गजी यह तो हुई 'राजनीति' या 'राज्य' की उत्पत्तिकी हो गया, तब सब लोगोंने उसे चावलों का एक भाग कमण कहानी, अब धर्मके प्रादुर्भाव पर भी कुछ प्रप्रधान किया और वह महासम्मत कहलाया। काश डालना आवश्यक है। यह एक सर्वसम्मत सि ऊपर उद्धृत जैन, हिन्दू तथा बौद्धधर्मके सृष्टि- द्धान्त है कि धर्म एक अनादिनिधन सत्य है-न उसकी सम्बंधी इतिहासका परिशीलन करनसे यही सारांश उत्पत्ति होती है और न सर्वथा विनाश ही। किन्तु निकलता है कि, सृष्टिके आदिमें मनुष्य पूर्ण सुखके समयका प्रभाव उस पर भी पड़ता है जिससे वह कभी साथ निवास करते थे, समस्त आवश्यक वस्तुएँ उन्हें लुप्त हो जाता है और कभी आविर्भूत । भांगभूमिकालयभेष्ट परिमाणमें उपलब्ध होती थीं और इस लिये में मनुष्य सुखी, संतोषी और विलासी होते हैं और मगढेकी कोई समस्या उपस्थित ही न होती थी। निर्विघ्न भोम-विलास मनुष्यको अकर्मण्य बना देता है। इन्हीं कारणोंसे उस समय वैयक्तिक संपत्तिवादका इसीसे भोगभूमिया मनुष्य भी अपनी अपनी सहचरी प्रचार न था, मनुष्य संतोषी और सरल परिणामी होते के साथ आमोद-प्रमोदमें ही विशाल प्राय बिता डालते Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०३ आश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] धर्म और राजनीतिका सम्बन्ध हैं-उन्हें कभी धर्माचरण करनेकी सुध ही नहीं होती। विद्रोहकी आग भड़क उठती है और वह चोर तथा यहाँ पर एक प्रश्न हो सकता है कि, जब भोग- व्यभिचारी बन जाता है। किन्तु जहाँ साम्यवाद हैभूमिमें धर्मावरण नहीं है और वहाँ के स्त्री-पुरुष विला- प्रकृतिप्रदत्त भोग-उपभोगको सब स्वेच्छापूर्वक भाग सी होते हैं तब तो वहाँ अवश्य अधर्माचरण होगा। सकते हैं-न कोई स्वामी है और न कोई सेवक, बाह्य किंतु वहाँ ऐसी दशा भी नहीं पाई जाती; क्योंकि सौंदर्य भी एक ही साँचे में ढला हुआ है, वहाँ अशान्ति केवल विलास अधर्मका जन्मदाता नहीं है । जब वि- या अराजकता हो तो कैसे हो? और लोग पापाचरण लासमें विघ्नबाधायें आने लगती हैं या विलासकी में प्रवृत्त हों तो क्यों कर हो ? इच्छित सामग्री नहीं प्राप्त होती और मनुष्य संतोषको जब भोगभूमि कर्मभूमिका रूप धारण कर लेती ठुकरा कर विलासीस लम्पटी बन जाता है-शरीरमें है और प्रजा षटकर्म से-असि, मषि, कृषि, बासामर्थ्य न रहने पर भी कंवल हृदयकी प्यास बुझान णिज्य, विद्या और शिल्पसे-अपनी आजीविका करने के लिये घरका शीतल जल छोड़ कर मृगमरीचिकाकी के सन्मुख हो जाती है तब आदि ब्राह्मा (इस युगके ओर दौड़ता है-तब विलास अन्याय और अत्याचार भ० ऋषभदेव ) के श्रादेशसे इन्द्र प्राम-नगरादिकी का रूप धारण कर लेता है। रचना करता है। सबसे प्रथम अयोध्याकी रचना होती वैसे तो संसारमें बहुतस अपराध हैं किन्तु उनमें है और इन्द्र उसके मध्यमें एक तथा चारों दिशामों में दो मुख्य हैं, चोरी और व्यभिचार । क्योंकि ये चार इस प्रकार पाँच जिनालय र स्थापित करता है। सामाजिक शान्तिक विशेष घातक हैं। और इन दोनों श्रीत्रिलोकसार में कर्मभूमिके प्रारंभका वर्णन करत अपराधोंकी उत्पत्तिका मूल कारण है असंताप और हुए लिखा है :विषमता । जब एक दरिद्र मनुष्य यह देखता है कि पुरगामपट्टणादी लोयियसत्थं च लोयववहारो। उसका पड़ौसी बहुत धनाढच है-रहने के लिये विशाल धम्मो वि दयामूलो विणिम्मियोमाविषमण।।८०२ भवन है और सोनके लिये दुग्धफेनके सदृश उज्ज्वल अर्थान-श्रादि ब्रह्मा ( श्री ऋषभदेव ) नै नगरशय्या-, भर पेट खाता है और भर मूंठ नाच-रंगमें उड़ाता है-संवाके लिए सैकड़ों दास-दासी हैं और __* तत्रासिकर्म संवायां मषिलिपिविधौ स्मृता। . घमनके लिये फिटन और मोटर-और......वह __ कृषि भूकर्षणे प्रोक्ता विद्या शास्रोपजीवने ।।१८।। वाणिज्यं वणिजां कर्म शिल्पं भ्याकरकौशलम् । . देखा...उधर खिड़कीमें कैसी सजीली शरत चाँदनीसी तष चित्रकला पत्रछेयादि बहुधा स्मृतम ।।१८।। उसकी गृहलक्ष्मी है । और एक मैं हूँ...स्वानको दाना -प्रादि पृ. प । नहीं-दिन भर कड़ी धूपमें कठोर परिश्रम करने पर x शुभे दिन सुनक्षत्रे समूहूर्ते शुभादयं । भी जानके लाले पड़े रहते हैं, टूटी फूटी झोपड़ी वर्षा- स्वोवस्थेष गहेपौ रानकूल्यं जगद्गुरोः ।। १४५ ॥ ऋतु में जयपुर के 'सावन भादों' की स्मृति उत्पन्न कराती कृतप्रथममाङ्गल्ये सुरेन्द्रो जिनमन्दिरम् । है और श्रीमती जी-बस कुछ न पूछो ताड़का रा- न्यवेश्यत्पुरस्यास्य मध्ये विश्वप्यनुक्रमान् ॥१५०।। क्षसीकी सहोदगा है।" तवं उसके हृदयमें मामाजिक -प्रावि पु. १ Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ११, १२ माम-देश आदिकी रचना, लौकिक कार्यसम्बन्धी तो राज्यसंस्थाके सद्गुणों पर मुग्ध हो कर अपने शास्त्र, लौकिक व्यवहार और दयामयी-अहिंसाधर्मकी नीतिवाक्यामृत' ग्रंथके प्रारम्भमें "अथ धर्मार्थकामस्थापना की। फलाय राज्याय नमः" इस सूत्रद्वारा धर्म, अर्थ और उक्त विवरण से पता चलता है कि धर्म और कामरूपी फलको देने वाले राज्यको नमस्कार तक राजनीतिका प्रादुर्भाव समकालीन है या यह कह कर डाला है। इसीसे गज्यसंस्थाकी महत्ता तथा उस सकते है कि धर्माचरण की रक्षाके लिये ही राज्य- का धर्म के साथ अबाध सम्बन्ध होनेका पूर्ण परिचय संस्था की स्थापना की जाती है । यद्यपि गृहस्थाश्रममें, मिलता है। जिसका राज्यसंस्थाके साथ घनिष्ठ सम्बंध है, धर्मके ____ आजकल बहुतसे धर्मभीरु केवल धर्मका आँचल अतिरिक्त अर्थ और कामका भी सेवन होता है और पकड़ कर राजनैतिक संग्रामसे मुँह छिपाते हैं और गाईस्थ्य जीवन के लिये ये (अर्थ और काम) भी उतने धर्म तथा धर्मात्मा प्रजा पर दिन रात होने वाले प्रत्याही उपयोगी तथा आवश्यक हैं जितना कि धर्म है चारोंको धर्म (१) में पगी हुई दृष्टिसे टुकुर टुकुर देखा तथापि तीनोंमें धर्म पुरुषार्थ ही मुख्य है । यहाँ पर हम करते हैं। उन्हें यह न भलना चाहिये कि राजनैतिक धर्म पुरुणर्थको मुख्य केवल इस लिये हो नहीं बतला प्रचंड प्रान्धीमें धूलिक सदृश धर्म टिक नहीं सकता रहे हैं कि उसका परलोकके साथ सम्बन्ध है। यदि है। जो राजशक्ति धर्मका संरक्षण करती है वही संहार हम नास्तिक विचारोंके आधार पर परलोकको कपोल• भी कर सकती है। राजनैतिक प्रगतिके वातावरण पर कल्पित भी मान लें, नब भी लौकिक व्यवस्था तथा ही धर्मका प्रसार या संहार अवलम्बित है। अतः जो सामाजिक शान्ति के लिये धर्मका अवलम्बन करनाही सचे धर्मात्मा गृहस्थ होते हैं वे सर्वदा अधार्मिक तथा पड़ेगा। उसके बिना अर्थ और कामका साधन अशक्य अत्याचारी राजसंस्थाके विरुद्ध अपना सर्वस्व न्यौछाहै। दृष्टान्सके लिये-चोरी तथा व्यभिचार सेवन अ. वर करनेको तैय्यार रहते हैं और संसारमें अधर्मधर्म है और न्यायपूर्वक धन उपार्जन करना तथा स्वस्त्री मूलक राजनीतिका संहार करके धर्म तथा न्यायमूलक ' में सन्तोष रखना धर्म है । राज्यसंस्था नियम-उपनियम राजशक्तिको स्थापित कर धर्म और राजनीतिके पुरा. पमा कर इस अधर्मका उच्छेद तथा धर्मका संरक्षण तन सम्बन्धका पुनरुद्धार करते हैं। ऐसे ही परोपकारी करती है। यदि इस धर्मतथा अधर्मकी व्यवस्थाको ठुकरा पुत्रोंसे जननी-जन्मभूमिका मुख उज्ज्वल होता है और दिया जाय तो संसारमें अशान्ति तथा अव्यवस्थाका मानवसंसार हर्षसे उन्मत्त हो कर चिल्ला उठता हैबोलबाला होजाय और ऐसी दशामें मनुष्योंके मन्मुख पर्थ और कामकी चिन्ताके स्थान पर "मात्मानं "जननी जन्मभामय स्वगादाप गरायस सततं रोत्"की जटिल समस्या उपस्थित हो जाय । इसी लिये प्राचीन शासकारोंने राजा तथा राज्यक बहुत गुण गान किये हैं । जैन भाचार्य सोमदेवने . यामेल भी समाजशाम्बके इष्टिकोणात्मे लिला गया है। ले. जीवनी" Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेसलमेर के मं०कं ग्रन्थ-फोटू जेसलमेर के भण्डारोंके प्राचीन ग्रंथोंके फोटू [ लेखक - श्री० मुनि हिमांशुविजयजी, न्याय तीर्थ; अनुवादक - पं० ईश्वरलाल जैन विशारद ] 2. आश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] साहित्यकी वृद्धि और रत्तणके, लिये मध्यकाल में 'मारवाड़' ने अत्यधिक ख्याति प्राप्त की है। उसमें भी 'जेसलमेर' का नाम इस कार्यमें सबसे बढ़ गया हैअनेक विषयके संस्कृत, प्राकृत, मागधी, अपभ्रंश शौरसेनी, पाली, गुजराती, मारवाड़ी और हिन्दी भाषा के प्राचीन ग्रंथ जेसलमेर के पवित्र भण्डारोंमें उपलब्ध हैं । जेसलमेर के इन भण्डारोंमें ऐसे अजैन ग्रन्थ भी उपस्थित हैं, जो अन्यत्र कहीं नहीं मिलते । पहले तो जेसलमेर के भण्डाराधिकारी भी औरों की तरह अत्यंत संकुचित चित्त वाले थे, जिस कारण से साहित्य सेवियों को उन पवित्र ग्रंथोंका दर्शन भी बहुत दुर्लभ था; परन्तु जमानेकी हवासे वह संकुचितता कम होती जा रही है, जिससे हजारों माइल दुरसे यूरोपियन और भारतीय विद्वान् मारवाड़ जैसे शुष्क प्रदेशमें मुसाफरी की विडम्बना सह कर भी उत्कण्ठा और नम्रतापूर्ण हृदयसे जेसलमेर आकर प्रन्थोंके दर्शन करते हैं, प्रशस्ति, ग्रन्थ, प्रन्थकर्ताका नाम आदि लिख कर ले जाते हैं, और उस पर साहित्यके सुन्दर सुन्दर लेख लिखते हैं । साहित्यसेवी 'ओरियन्टल गायकवाड़ सिरीज' को भी यह कार्य अत्यावश्यक लगा और इसीलिये इस संस्थान साहित्य के महान् विद्वान् श्रीयुत् श्रावक चिमनलाल जी, दलाल एम. ए. को जेसलमेर भेज कर कई एक सुन्दर ग्रंथोंकी टिप्पणी कराई थी, और बादमें उनकी अकाल मत्यु हो जाने पर सेन्ट्रल ६०५ लायब्रेरीके जैन पण्डित श्रावक लालचंद भगवानदास जी गान्धीने उन टिप्पणियोंको व्यवस्थित कर उन पर संस्कृत भाषा में इतिहासोपयोगी एक टिप्पण लिखा था उस टिप्पण को 'जेसलमेर - भाण्डागारीय-प्रन्थानां सूची' नामसे उपर्युक्त सिरीजन अपने २५ वें प्रन्थके तौर पर सन १९२५ में प्रकट किया है। जेसलमेर के ताड़पत्र पर लिखे हुए प्रन्थों में से ११ ग्रंथोके (जो अत्यन्त जी हो गये हैं) कंमेरा द्वारा फोटू लिये गये है। फोटोमा फर भाई भगवानदास हरजीवनदास भावनगरी है। उन सभी ग्रंथोंक फोटुओका दर्शन मुझे बम्बईके चातुमांस में ( ई. सन १९०७ में ) 'श्री मोहनलाल जैन सेन्ट्रल लायब्रेरी' में हुआ सब मिला कर फोटू ऑफी २५४ घंटे हैं और उनका मूल्य २०० ) ० है । अजर साफ नज़र आते है। उनमें नीचे लिये हुए १४ प्रन्थ हैं। १ द्रव्यालङ्कारवृत्ति प्रस्तुत कृति श्रीहेमचन्द्राचार्यकं शिष्य प्रबन्धशनकारक महाकवि रामचन्द्र सूरि और गुलचन्द्र-रचित न्याय तथा सिद्धान्तविषयकी है । 'स्याद्वादम आदि प्रन्थोंग 'तथा च द्रव्यालङ्कारकारी' इत्यादि, वाक्योंमें इन प्रन्थकारों और ग्रंथका उल्लेख आया है। प्रमेयके विषय में इस ग्रंथसे अच्छा प्रकाश पड़ता है; परन्तु दुःखकी बात है कि इस मंथके तीन प्रकाशमें से पहला प्रकाश जेसलमेर के भण्डारों की उपलब्ध नहीं, अन्तिम दो ही प्रकाश यहाँ हैं । साहित्यसेवियोंसे मेरी Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनकान्त [वर्ष १, किरण ११, १२ तो नम्र प्रार्थना है कि वे कमसे कम इस अमूल्य ग्रंथ उल्लेख से पता चलता है, यह प्रन्थ अभी पूग उपके उपलब्ध भागको ही छपवा कर महा पुण्य प्राप्त लब्ध नहीं हुआ । जेसलमेरकी प्रतिके अन्तमें 'समाकरें । इस ग्रन्थके दूसरे प्रकाशका अंतिम भाग इस सपरीक्षानामप्रकरण' है, 'आहतमत-प्रभाकर-मंडल प्रकार है : पुना' में १॥ अध्याय 'न विपतिपत्त्यप्रतिपत्तिमात्रम्' __रूपंच सत्व (च्व) मथवादिविटेविलप्तमित्थं (२, १, ३४ ) सूत्र तक मूल और 'न चाविज्ञातयदा' स्थितिमनीयत पुलानाम् । तन्मा कहा- स्वरूपं परपत्रं भेत्तुं शक्य मित्याहुः ' (पृष्ठ १०८) चिदपि पुद्गल तार्थमीनी (१) संदीदृशन्यदि भ. टीका तक छपा है । अर्थात् मुद्रित भागकी अपेक्षा बन्तितमाम् (मा) कृतज्ञाः ।। जेसलमेरमें कुछ अधिक भाग है । सम्पूर्ण ग्रन्थ इति श्रीगमचन्द्रगुणचन्द्रविरचितायां स्त्री (पाँच अध्यायका) यदि उपलब्ध हो जाय तो विद्वानोंको पनद्रव्यालङ्कार-टीकायां द्वितीय पुद्गलप्रकाशः न्यायके सम्बन्धमें बहुत कुछ नवीनबातें मिलेंगी। श्र नुमानतः सम्पूर्ण प्रन्थ लगभग ५००० श्लोकका होना समाप्तः। चाहिये , जिसमें प्रमाण और जीवादि प्रमेय * का तीसरं प्रकाशके अंतमें निम्न लिम्वित उल्लेख है ३ 'आन्हिकसमूहात्मकैः पञ्चभिरध्यायैः शास्त्रम तदरचयदाचार्यः । वयं श्रीहेमचन्द्रसूरिः) ।' नापीन्दुद्युतिनिर्मलाय यशसे नो वा कृते संपदः । __---प्रमाणमीमांसा पृष्ट २। भावाभ्यामयमाहतः किमुबघा(१) द्रव्यप्रपंचश्रमः । यद्यपि उपलब्ध तीन आन्हिकों ( १॥ अध्याय) में प्रमेयका संदर्भान्तरनिर्मितावनवममनापकर्षश्रिये ॥ वर्णन नहीं पाया परन्तु अन्धकाग्ने स्वयं ही प्रारम्भमें कहा है कि 'तेन न प्रमाणमात्रस्यैव विचारोऽत्राधिकृतः । किन्तु तइति श्रीरामचन्दगुणचन्द्रविरचितायां स्वो- देकदेशभूतानां दुर्नयनिराकरणद्वारेण परिशोधितमापाद्रव्यालङ्कारटीकायां ततीयोऽकंपप्रकाश इति गाणां नयानामपि । " प्रमाणनयैरधिगमः" इति हि संवत् १२०२ सहनिगेन (ना) लिखि । वाचकमुख्यः , सकल पुरुषार्थेषु मूर्धाभिषिक्तस्य सोपा यस्य सप्रतिपक्षस्य मोक्षस्य च । ( विचारोऽत्राधिकृतः) २ प्रमाणमीपासा एवं हि पूजितो विचारो भवति प्रमाणमात्रविचारस्तु सर्वविद्यानिष्णात प्राचार्य श्री हेमचन्द्र सुरिजी प्रतिपक्षनिराकरणपर्यवसायी वाकलहमानं स्यात् । ( प्रमागामीमांसा सूत्र १०४ माईतमतप्रभाकरकी भावृत्ति) रचित यह प्रन्थ गौतमकृत 'न्यायसूत्र' (गौतमसूत्र ) इसमें मालूम होता है कि इस प्रमाणपीमांसामें न्य, दुर्नय, प्रारम्ब, पतिका है । पाँच अध्यायोंमें यह प्रन्थ पूरा किया मकर, निर्जरा, मोक्षादिका भी वर्ग,न तत्त्वार्थ' की तरह होगा, तथा हुमा होना चाहिये, ऐसा प्रमाणमीमांसाके प्रारम्भके पृथ्वी काय मादिमें जीवसिद्धि भी विरतारसे होगी । यह भी पृष्ठ२८ सूत्र १, १, २२ क 'पृथ्वादीनां च प्रत्येकं जीवत्वसिद्धि, जेसलमेर-भागडागारीय-प्रथानां सूवी' में यया' पाठ रप्रेक्ष्यते" उल्लेखस अनुमान होता है। "प्रमास्णय विषयो उतारा है। द्रव्यपर्यायात्मकं वस्तु' (१, १, ३१)सबसे तो सामान्य प्रमेय २ 'जैसलमेर-भाषागारीय-ग्रंथाना स्वी' में 'पुगसताकाही लक्षण कहा है और यह प्रमाणलक्षण पहले प्रान्हिमें ही ममीनी पाठ लिखा है। मा गया है। Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] जेसलमेरके भं० प्रन्थ-फोट ६.७ विस्तारसे वर्णन होगा। मराइचकहा ( समरादित्य कथा )' के भावको ले कर साहित्यप्रेमी संस्था अथवा गृहस्थांकी, समन्तभ- ११ संधियों (विभागों) में अपभ्रंश भाषाकी यह कथा द्राश्रम की तरह इस ग्रंथके लिये अच्छा पारितोषिक अाज तक कहीं भी नहीं छपी । प्रन्थकर्तान अपना निश्चित करके अथवा अन्य जो भी उपाय हो सके नाम 'साधारण' लिखा है, परंतु मुझे ना ऐसा माउस जपायस, यह प्रन्थ जहाँ हो वहाँ में इसका पता लम होता है कि, उनका उपनाम 'माधारण' होगा, जैमें लगाना अत्यावश्यक है। कि सन्मित्र, वीरपुत्र, भिक्षु भादि। उनका मूलनाम ना पूज्य मुनिराजोंको भी यह ग्रन्थ हर एक भण्डार सिद्धसेनसरि था, वह 'कोटिक' गणके 'बापम' में ढूँढना चाहिये, और यदि अधिक भाग न मिले, तो सरिके समुदायमें हुए हैं,ऐसा पालेख करते हैं। उसका जेसलमेरसे उपलब्ध भागको अच्छी तरह शुद्धता- अन्तिम भाग इस प्रकार हैपूर्वक छपवाना आवश्यक है । 'पार्हतमतप्रभाकर' की कह विलासबइ एह सम्माणिय ओरसे प्रकाशित आवृत्ति बहुत अशुद्ध छपी है । यह नियद्धिहि मं जारिस जाणिय । ग्रंथ कलकत्ता यनिवर्सिटी की जैन. श्वे. न्यायतीर्थकी एह कह निसुणेविणु सारू परीक्षामें नियत है। मुन्यविण सयलपमायइं परहरहु ।। कुवलयमाला असहुहं मणु खंचहु मिणयरु मुख्यतया प्राकृत और अपभ्रंशभाषामें रचित यह , अंचहु साहरणु विरमणु परहु । कथा भाषाके इतिहासमे अच्छा प्रकाश डालने वाली इइ (भ) विलासवइकहाए एगारसमासंधी है । थोड़े ही भण्डारोंमें इस ग्रन्थकी प्रतियाँ उपलब्ध समत्ता । संमत्ता विलासबह कहा। हैं । यूरोपियन स्कॉलर इसकी बहुत प्रतीक्षा कर रहे धोत्तर-टिप्पण थे। 'पुरातत्त्व-मंदिर-अहमदाबाद' इस प्रकाशित करने बौद्धाचार्य 'धर्मपाल' के शिष्य धर्मकीनि ईसाकी का विचार कर रहा है । इसका रचनाकाल १.०० सातवीं शताब्दीके पूर्वाधमें हुए हैं । उनके द्वारा रचित वर्षसे प्राचीन है । अपभ्रंश भाषामें कथाकं विषय न्यायविन्द पर बौद्ध धर्मोसराचार्य ने.संस्कृतमें का इतना पुराना ग्रंथ मेरे खयाल से अभी तक कहीं टीकाकरची है, उस टीका पर श्रीमञ्जबादि जैनाचार्यपर उपलब्ध नहीं हुआ है । का यह टिप्पण रहस्योपेत है। धर्मोत्तरका समय आज ४-सावग्गधम्म ( श्रावकधर्म-प्राकृतमें ) कल के कई शोधक ईसाकी पाठवीं शताब्दीका पूर्वार्ध ५-कर्मप्रकृतिचर्णि-टिप्पण ( संस्कृतमें ) । और कई ९ वीं शताब्दि का पूर्वार्ध मानते हैं । अन ६-हरिवंश प्रस्तुत टिप्पणके कर्ता श्रीमल्लवादिका समय कमसे कम ७-बिलासईकहा (विलासवतीकथा-प्राकृतमें) आठवीं या नवमी शताब्दि होना चाहिये । 'नयचा प्रसिद्ध पाचार्यरत्न श्रीहरिभद्रसूरि-विरचित 'स- प्रस्तत टीकासहित 'न्यायविन्दु' प्रय हरिताम गमद्वारा * दिगम्बर साहिलपमें इससे प्राचीनई अन्य उपलब्ध हैं।-सम्पादक बनारममें पा है। Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ अनकान्त [वर्ष १, किरण ११, १२ वाल' के कर्ता प्रचण्ड तार्किक मल्लबादि से प्रस्तुत इति लोकायतरादान्तःसमाप्तः सर्वसिद्धान्तमवेटिप्पणकार मल्लवादि भिन्न होने चाहिये, क्योंकि जैन- शकसमाप्तः नियायिक-वशेषिक-जैन-सांख्यपरम्परानुसार 'नयचक्रवाल' के कर्ताका समय चौथी बौद्ध-मीमांसक-लोकायतिकमतानि संक्षेपतः शताब्दि हैx।इस टिप्पणको 'गायकवाड़ ओरियन्टल समाख्यातानि ।" सिरीज' छपवाये तो अच्छा है। १०-संयमाख्यानकम् ह सर्वसिद्धान्तप्रवेश ५१-प्रकीर्ण माधवाचार्य कृत 'सर्वदर्शनसंग्रह' की पद्धतिका उपर्युक्त ११ ग्रंथोंमेंसे द्रव्यालङ्कारवत्ति, कुव. यह ग्रंथ जैनाचार्यकृत होना चाहिये। क्योंकि ग्रंथकारने लयमाला, विलासवइकहा, धर्मोत्तरटिप्पण और इसके मंगलाचरणमें जिनेश्वर को नमस्कार किया मिटातप्रवेशच पंथीको मारी जैन है। इसमें नैयायिक आदि सात दर्शनोंका मुख्यतया साहित्यप्रचारक संस्थायें और विद्वान शीघ्र ही प्रकावर्णन है। इस प्रन्थका अन्तिम भाग इस प्रकार है :"लोकायतिकानां संक्षेपतः प्रपेयम्वरूपम् शित करनका यथाशक्य प्रयत्न करेंगे ऐसी आशा रखना हुआ मैं इस लेखको समाप्त करता हूँ। श्रीx जेनरम्पराका यह समय-वधी कथन क्या जांचक द्वाग मोहनलाल जैन सेन्ट्रल लायब्रेरी की हस्तलिखित उपठीक पाया गया है। यदि नहीं तो फिर दोनोंको एक माननेमें क्या बाधा है। -सम्पादक योगी प्रन्थ प्रतियोंकी सूची मैंने देखी है, और नोट भी * सर्वभावप्रणेतारं प्रणिपत्य जिनेश्वरं । किये हैं, उसके सम्बन्धमें समय मिलने पर विवेचन वक्ष्ये सर्वविगमेकं यदिवंतवलक्षणम ।। सहित लिम्बनका विचार है। मिथ्या धारणा माजकल भारतवर्षमें बहुतसे हिंसक, तीन कषायाँ "कनलल मूज़ी कबलुल ईज़ा" ' और रौद्र परिणामी मनुष्य भिरड़,नतेय, बिच्छू, अर्थात-'ईजा (दुख) पहुँचानसे पहले ही मूजी कानखजूरे, तथा खटमल, पिस्सू , मच्छर आदि छोटे (दुख देने वाले) का मार डालना चाहिये । परन्तु वे छोटे दीन जन्तुओं को मारकर अपनी बहादुरी जतलाया कभी इस बातका.विचार भी नहीं करते हैं कि जब करते हैं और भिरड़ ततैयोंके छत्तीमें आग लगा कर भिरड़, ततैये आदि थोड़ी सी पीड़ा पहुँचान हीके तीसमारखों बना करते हैं । जब उनसे कोई करुण- कारण मूजी और वयोग्य हैं तो फिर हम, जो कि हृदय व्यक्ति पूछता है कि आप ऐमा निर्दयताको लिये उनको जानसे ही मार डालते हैं और उन जन्तुओंका हुए हिंसक कार्य क्यों करते हैं? तो वे बड़े हर्षके साथ, गाँवका गाँव (छत्ता ) भस्म कर देते हैं, उनसे कितने मुसलमान न होते हुए भी, उत्तरमें यह मुसलमानी दर्जे अधिक मूजी और वधयोग्य ठहरते हैं। मिद्धान्त सुना देते हैं कि वाम्नवमें विचार किया जाय तो यह मब उनकी Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] मिथ्या धारणा मिथ्या धारणा है, वे उक्त सिद्धान्तका बिलकुल दुरुप- है, और उनको जीतकर अपने वश में करना ही मुखा योग कर रहे हैं और उन्होंने उसके वास्तविक प्राशय का एक मात्र मार्ग है । अतः जो मार्ग इष्ट हो उस पर को जरा भी नहीं समझा है-न तो उन्हें मूजीकी खबर चलना चाहिये-सुख चाहने हो ता इन्द्रियोंको अपने है और न ईजा की । यदि इस सिद्धान्तका वही श्रा- अधीन करी और दुःख चाहते हो तो इंद्रियाक अधीन शय लिया जाय जैसा कि वे समझ रहे हैं और तदन- हो जाओ, उनके गुलाम बन जाओ। कूल प्रवर्त रहे हैं-अर्थात् यह कि, जो कोई प्राणी कवि 'जौक़' ने भी नफसको प्रहा मूजी का। किसी दूसरे प्राणीको थोड़ासा भी दुख देने वाला ही देते हुए उसीको माग्नकी प्रेरणा की है । वे कहते है .. वह मूजी है उसको मार डालना चाहिये, तो ऐसी हा- “किसी बेकसका ऐ बेदादगर | मारा तो क्या मारा ? लतमें मनुष्य सबसे पहले मूजी और वधयोग्य ठहरते जो खुदही मर रहा हो उसको गर मारा तो क्या मारा ? हैं। क्योंकि ये बहुतसे निरपराधी जीवोंको सतात और बड़े मूजीको मारा नफसे अम्माराको गर मारा। उनको प्राणदण्ड देते हैं। परन्तु यह किसीको भी नहंगो अजदहाओ शेरे नर मारा तो क्या माग" इष्ट नहीं है । अत एव ऐसा प्राशय कदापि नहीं है। दूसरा आशय इस सिद्धांतका यह भी निकाला जा इस सिद्धान्तका साफ आशय और असली प्रयोजन सकता है कि, जब तक ज्ञानावरण प्रादिक कर्म, जो यह है कि मनुष्यों को अपने नामको मारना चा- आत्माके परम शत्रु हैं और इस प्रात्मा को संसारम हिये। अपनी इन्द्रियों ( हवास नमसा ) को वशमें परिभूमण कराकर नाना प्रकारकं कष्ट देते हैं, उदयमे करना चाहिये । येही मूजी हैं। इन्हींके कारणसे इस श्राकर इस पान्मा का दुःख और कष्ट देवे अथवा प्रात्माको नाना प्रकारके जन्म-मरण तथा नरक-निगा- ईजा पहुँचा। उससे पहले ही हमको तप-संयमादिरूप दादिकके दुःख और कष्ट उठाने पड़ते हैं । इन्हीं के धर्माचरण के द्वारा उनको मार डालना चाहिये-उनको प्रसादसे श्रात्माके साथ कर्म-बन्धन होकर उमके गणों निर्जरा कर देनी चाहिये-जिसमे व हमको ईजा का घात होता है, जिससे अधिक श्रात्माक लिये और (दुख ) न पहुंचा सकें। कोई ईजा नहीं हो सकती है और न इनसे अधिक इन दोनों आशयों के अतिरिक्त उपयुक्त सिद्धांत आत्मा के लिये और कोई मूजी ही हो सकता है । इन का यह आशय कदापि नहीं हो सकता कि इन्द्रियोंका निग्रह करने और इनकी विषय-वासनाको किसी प्राणधारीका वध किया जावे । ऐसा प्राशय रोकने तथा राग-द्वेषरूप परिणतिको हटानेसे ही इस करने से दयाधर्मके सिद्धांतमें विरोध पाता है । वर, आत्माके दुखकी निवृत्ति होकर उसे सबे सुखकी प्राप्ति सिद्धांत तब अधर्ममयी हो जानेसे मर्वथा हेय ठहरता हो सकती है । नीतिकारोंने बहुत ठीक कहा है: है और किसी भी दयाधर्म के मानने वाले को उस पर भापदा कथिनः पन्था इन्द्रियाणाम संयमः । आचरण नहीं करना चाहिये । यह कैसी खुदराकी और अन्याय है कि जिस बातको हम अपने प्रतिकूल तज्जयःसंपदा मार्गो यनेष्टं तेन गम्यताम् ।। सममें या जिस वधादिको हम अपने लिये पमन्दन अर्थान-मुसीबतों तथा दुःखोंके भानका एकमात्र करें उसका आचरण दूसरों के प्रति करें। मार्ग इन्द्रियोंका असंयम-उनका वशमें न करना Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० अनेकान्त वर्ष १, किरण ११, १२ माताके आँसुओंकी नदी लवक-श्री० पं० नाथगमी प्रेमी] (१) आओ आओ यहाँ, मेरे प्यारं सुत सारं ! निर्धनके धन अहो । दुग्वी नैनों के तारं ! अपनी बीती कथा, व्यथा की सर्व सुनाऊँ जी-भर गेऊँ और तुम्हें भी साथ कलाऊँ !' मंरा प्रखर प्रकाश जगत में फैलात थे; जिसे देख प्रतिपक्षी चकचौंधा जात थे । स्यादवाद की दिव्य ध्वजा, जब लहरानी थी; वादीन्द्रों की भी छाती तब, थहराती थी । बहुत दिनों से शोक-सिन्ध यह उमड़ रहा था; सकता था नहिं किसी तरह मे, घमड़ रहा था ! आज तुम्हे सम्मुख लख, मेरे रहा न वश का; असुमनके मिस बढ़ा वेग, देखो यह उसका !! किन्तु रही यह नहीं अवस्था चिर दिन मेरी; सौख्य-गगन पर घिर आई दुखघटा घनेरी ! सुखसामग्री हाय ! न जाने कहाँ विलानी ! विपदाओं पर विपदायें, आई अनजानी !! (८) अंग हुए विच्छेद और प्रत्यंग गय गल, अतिशय कृश हो गई, देहलतिका मेरी ढल ! रक्षक भी विद्वानपत्र नहिं रहे लोकम; मन्दज्योति आँखों की हुई असह्य शोकमें !! दो हजार वर्षों का भुला हुआ पुरावन; म्मृति पट पर लिख गया, दीग्वने नगा यथावत । छाती दरकी जाती है, उसका विचार कर; ऊँचे मे नीचे गिरना नहिं किस कप्रकर" एक समय वह था, जब यह भारत सुखकारी; मम पुत्रोंसे ही था, अतुलित महिमाधारी । विद्या-बल-धन-मान-दानकी प्रथम बड़ाई, मेरे ही बेटों के थी हिस्से में आई ।। अभिमानी बहिरात्मबुद्धि पाखंडपरायणकई कुपूतोन पाकर, थोड़ासा कारण । सत्यानाशी कलह उठाई घरकी घर में; किये एकके कई, न सोचा कुछ भी उरमें !! बड़े बड़े राजा, महाराजा, सचिव, वीरवर; धनकुबेर, व्यापारी, कवि, विद्वान, धुरंधर । थे अगनित मम पुत्र वंशमुख उज्वलकारी; तन-मन-धनसे करने वाले सेवा प्यारी ।। आपस में लड़ मरे किया हित यों चोरोंका, अपनी बोर न देख, बढ़ाया बल रौरोंका ! लीला फट महारानी की बड़ी विलक्षण, अपने-परका मान भुला देती जो तत्क्षण !! । Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाश्विन,कार्तिक, वीरनिःसं०२४५६] माताके माँसुओंकी नदी ६११ फिर कुछ दिवसोंमें अशान्तिकी आग भयङ्करलगी देशमें जहाँ तहाँ, थहराने सब नर ! म्लेच्छोंने आक्रमण किये एकाइक आकर; हाय ! मरों को भी मागे, यह विधि निर्दयता ।। अन्धकूप-सम भंडारों में मुझको डाली, अथवा घरके कोनों में दी जगह निगली ! पवन न पहुंचे जहाँ, घामका नाम न आवै, दीमकका परिवार गेज ही भोज बनायै ! - रहती थी मैं जहाँ, वहाँ ही आग लगाकर, जला दिया साहित्यकुंज मंग मंजलतर! ग्वाज खोज कर ग्रंथ डबाये गहरे जलमें, जलविहीन अतिदीन मीनमम हुई विकल मैं !! बहुत समय यो ही, यातना दुस्सह महती; जीत जी ही मत्यदशाका अनुभव करती ! - किन्तु न किया विषाद, दणि सम्बके भावी पर; आशा-नौका विना कौन तारे दुम्बमागर ? . (१९) होती है सीमा परन्तु सबकी है. प्यार ! तुमही कहो रहूँ कब नक मैं धीरज धार ! . . जब देखा कि समय पाने पर भी अब कोईसुधि नहिं लेता है, तब धीरज खो कर रोई !! देख दशा वह, दया दयाको भी श्राती था; पापपङ्कसे प्लावित पृथ्वी बहराती थी !तो भी जीती रही, प्राण पापी न सिघारे ! माँगे भी नहिं मिलै मौत दुखियों को प्यारे !! (१४) भूमिगर्भके गुप्त घग रहा सहा जा, दुष्टों की नजरों से छिपकर पड़ा रहा जो; जीर्ण-शीर्ण अति मेगजी साहित्य अधुरा, उसको ही उरसे लगाय, माना सुख पूरा !! - इसके पीछे कई शतक बीत दुखदाई, जीवनरक्षा कठिन हुई, सब शान्ति पलाई ! रही न विद्याकी चर्चा, नहिं रहे विपलमति; फैला चारों ओर घोर अज्ञानतिमिर अति !! (१६) लगे भूलने मुझको, सब ही मेरे प्यारं; सच है 'दुखका कोइ न साथी सुख के सारे' ! "उपकारिनि अपनी जननी यह इसे बचानाहै कर्तव्य हमारा" यह भी मान रहा ना !! सुखकारी विज्ञान सूर्य का उदय हुआ है;. जहाँ तहाँ अज्ञान-तिमिरका विलय हुआ है। मारा देश सचेत हुआ है नींद कोड़के . कार्यक्षेत्रमें उतर पड़ा है चित्त जाबके ।। (२१) शान्तिराज्य की छाया में सब राज़ रहे हैं। सब प्रकार विद्या-सेवामें साज रहे हैं। गन्याका उद्धार उदार कराय रहे हैं, घर-घरमें विस्तार, प्रचार कराय रहे हैं। (२२) मेरी थी जितनी सहयोगिनि और पड़ोसिनवे सब सुखयुन दिखनी हैं,अब बीते दुर्दिन । उनका पुष्ट शरीर प्रोजमय मन भाता है। न्योछावर जग उन पर ही होता जाता है। Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ अनेकान्त दूर विदेशोंमें उनके सुत जाय रहे हैं, अपनी माताओं का यश फैलाय रहे हैं। जो कुछ उनसे बन सकता है करें न कमती; धन्य धन्य थे कुंख पूत जो ऐसे जनती ।। (२४) विधामें जिसको सब जगसे मिली बड़ाई, उस अमेरिका में भी उनने ध्वजा उड़ा । कहते हैं सब सुधी भविष्यत धर्म वहाँकाहोगा भव वेदान्त न इसमें कुछ भी शंका ।। वर्ष १, किरण ११, १२ (२९) है उदारता भी तुम में सब से बढ़ चढ़कर, एक एक लाखों दे देता आगे बढ़कर । रथ-यात्रादि धर्म कामों में पानी जैसाद्रव्य बहात हो, चाहे फिर रहै न सा !! (३०) भक्ति-भावकी भी तुममें नहिं कमी निहारी, मुझे देखते ही तनुलतिका झुके तुम्हारी ! मेरा अविनय तुम्हें जरा भी सहन न होता, विनय विनय रटते रहते हो जैसे तोता !! (३१) चाहो तो तुम सब कुछ अच्छा कर सकते हो, मेरे सारे दुःख शीघ्र ही हर सकते हो। किन्तु न मेरा रोग देख औषध करते हो, भूखे को रसकथा सुनाय सुखी करते हो !! ___(२५) बुद्धव की वाणी भी अब मुदित हुई है, पालीके लाखों गन्थोंमें उदित हुई है। जिसकी पुत्र पचासकोटि करते हैं पूजा, कहो सुखी है और कौन उसके सम दृजा ? वह देखा सारे जगमें ईसा की वाणीकैसी विस्तृत ई, स्वर्गसीदी कहलानी । कई शतक भाषाओंमें समुदित हो करके, घर-घर पहुँची कर-करमें वितरित हो करके । बस बेटो ! है यही कहानी इस दुखिनी की; पक्की छाती करके, तुम्हें सुना दी जीकी ! पर न खेद करना, विस्मृत हो जाना इसको, सह नहिं सकती है माता पत्रोंके दुखको !!* इस प्रकार घर-घरमें सुखरवि उदयं हुआ है. किन्तु न मुझ दुर्भागनिका विधि सदय हुआ है ! जिसमें सब ही वृक्ष उहडहे हो जाते हैं, इस वर्षामें आक ढूँठ-से रह जाते हैं !! (२८) सुख पाना यदि कहीं लिखा होना कपालमें, तो तुम सब क्या कर न डालते अल्प कालमें ! धन-वैभव की हमी न तुममें दिख पड़ती है, संख्या भी कई लाख तुम्हारी सुन पड़ती है। * यह लेखक महोदय की कई २१ वर्ष पहले की स्वना है, जो जनसमाजको उसके कर्तव्यका बोध कराने के लिये माज भी उतनी ही उपयोगी है क्योंकि गिनवागी मातक रुदन ज्यों का त्यों बना हुमा है और वह जैनियोंकी भाी प्रकण्यता तथा कर्तव्यविमुखताको भक्ति करता है, जिसके फल स्वरूप माज को महत्वपूर्ण अंक समय हो रहे हैं । कोई उनकी खोज तथा उद्धारकी मोर ध्यान तक भी नहीं देता : पोर न साहित्यके प्रचारका ही कोई समुक्ति प्रत्यत्र जारी है। । . -सम्पादक Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाश्विन, कार्तिक, बीरनि०सं०२४५६] श्व० सात निव రకమును మనము మనం श्वेताम्बर-सम्मत सात निव [ लेखक-श्री० पं० शोभाचन्द्रजी भारिल्ल, न्यायनीथ ] वचनकी यथार्थ बातको छिपाकर, अन्यथा प्ररूपणा ऊपर निन्हवींका जा समय विशेषावश्यक भाष्यक ' करनेको 'निहव' कहते हैं और जो इस प्रकार अनुमार बनलाया गया है उसे ठीक माननमें अनेक अ सत्यका अपलाप करता है वह भी 'निलव' कहलाता ड़चनें हैं । यदि इस समयको ठीक मान लिया जाय तो है। श्वेताम्बर मम्प्रदायमें ऐस सात निन्हव मान गये 'ठाणांग' (स्थानाज) सूत्र में इनका नाम पाना असंभव हैं, जिनमेंसे दोका प्रादुर्भाव तो भगवान महावीर की था। क्योंकि ठाणांग तीसग अंग है और वह निहवोंसे मौजदगीमें ही हो गया था और शेप उनके बाद उद्- पहले ही बन चुका होना चाहिए । इस लए या तो यह भूत हुए हैं। 'स्थानाङ्ग' सत्रमें सातांके नाम,स्थान और समय ग़लत है या फिर स्थानान सूत्रको वीरनिवाणक मान्यताका निर्देशमात्र किया गया है परन्तु टीकामें ५८४ वषेस भी बाद का बना हुआ मानना पड़ेगा । और विशेषावश्यक भाष्यमें पग विवरण है।हम यहाँ यदि यह कहा जाय कि भगवानने केवलज्ञान-द्वारा पाठकों को उनका वह विवरण संक्षेपमें देना चाहते हैं। भविष्य में होने वाले निहवों का जिक्र कर दिया होगा, विवरण यद्यपि मनोरजक है और कुछ ज्ञातव्य बातों तो यह तर्क भी ठीक नहीं है। क्योंकि पानाम" को भी लिये हुए है तथापि यह निश्चय है कि उसमें 'भविम्मई' या इस प्रकार का अन्य भविष्यकालीन कल्पनाका भी बहतसा भाग शामिल है। अतः नि क्रियापद नहीं है वग्न स्पष्ट शब्दाम 'इत्या' हान्या वोंके नामादिक के साथ भाष्यमें उनकी उत्पत्तिका जो पद * दिये है, जो भतकालीन है और लिखनेस पहने समय बतलाया गया है वह इस प्रकार है :- ही हो चकने की निःसन्देह घोषणा करते हैं। निहव प्राचार्यनाम उत्पत्तिस्थान समय* अब हम साना निहवांका मंचित विवरण क्रमशः १ बहुरत जमालि श्रावस्ती १४ वर्ष बाद उपम्धिन करने है:२ जीवप्रदेश तिष्यगुप्त ऋषभपर ५६., * स्थानान का मूल पाठ--"ममणम्म भगवश्री (गजगह) महावीरम्म नित्थंमि मस पवनणनिराहगा पं०(पण्णमा) ३ अव्यक्त आषाढ श्वंतविका १४ ,.* नं (नं जहा ) बहुग्ना जीवपनेमिया अवत्तित्तामाम ४ समुच्छेद अश्वमित्र मिथिला २०, छइता दाकिग्निा नगमिता श्रवद्धिता मि गं ५क्रिय गंग उल्लकातीर २६८. मत्तगह पश्यनिगहगाणं मत्त धम्मातरिता हत्था, ६ त्रिराशि षडुलक पुनरन्तरतिका ५४४ , तं-जमालि नीसगुत्ते श्रामाद श्राममिले गंगे छला ७ अबद्धता गोष्ठामाहिल दशपुर ,५८४ , " गोदामाहिले, एतेमि णं मत्तणहं पवयणनिराहगागं सत्तप्पत्तिनगरा होत्था, तं०-सावत्थी उसमपरं मेत__ * प्रादिके वानिकों का समय महावीर को केवलज्ञान होन विता मिहिलमल्लगावीरं परिमंतरंजि इसपर गिगहके बावका और मत के पक्किा मपय मुक्ति होने के बाद का है। गप्पनिनगगई" (सूत्र ५८७)। Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१४ अनेकान्त वर्ष १, किरण ११, १२ पहला निन्हव एक बार कुम्भकार ढंक पाक (प्रवा) में मिट्टी कुण्डपुर नगरमें भगवान महावीर के भागिय और के बर्तनों को उलट पलट रहा था। पास ही सुदर्शना दामाद जमालि नामक राजपुत्र थे । उसकी स्त्रीका बैठी स्वाध्याय कर रही थी। कुम्भकार ने एक अंगार नाम ज्येष्ठा, सुर्दशना अथवा अनवधांगी था। जमालि सुदर्शनाकी संघाटी पर गिरा दिया । संघाटी का छोर ने पांचसौ पुरुषों के साथ और सुर्दशना ने एक हजार जलने लगा तो वह बोली-"अरे श्रावक ! तुमने स्त्रियों के साथ भगवान के पास दीक्षा ली । जमालि मेरी संघाटी क्यों जलादी ?" मौका पाकर ढक बोला ग्यारह अंग सीख चुके तो उन्होंने भगवान से “आपका सिद्धांत तो यह है कि जो कार्य हो रहा है विहार करने की आज्ञा माँगी । भगवान् ने हाँ, ना, उसे 'हो गया' कहना मिथ्या है । संघाटी अभी जल कुछ न कहा -मौन रह गये। तब वह पांचसौ साधुओं रही है, फिर श्राप 'जलादी' ऐसा क्यों कहती हैं ?" को साथ लेकर चल दिया और पर्यटन करता हुआ कुम्भकार ढंक की इस युक्ति से सुदर्शना का 'श्रावस्ती' पहुँचा। रूखा-सखा आहार करने से उसे मिथ्यात्व दूर हो गया । वह प्रतिबुद्ध होकर जमालिको भीषण बीमारी हो गई । वह बैठा नहीं रह सकता था, प्रतिबोध देने गई, किन्तु जब न माना तो वह और अतः उसने शिष्यों मे बिछौना बिछाने के लिए कहा। जमालि के साथी साधु, उसे अकेला छोड़ भगवान के शिष्य विबौना बिछा ही रहे थे कि जमालि ने पछा- समीप चले गये। अंत में जमालि मर कर किल्विष “बिछौना बिछ गया या नहीं। शिष्योंन अधबिछे बिछौने देव हुआ । 'को विका हुमा कह दिया। वह उठकर आया और जमालि की मुख्य मान्यता यह थी कि कार्य के प्रधषिछा बिछौना देख पाग-बबूला होगया । बोला- एक ही समय में कोई वस्तु नहीं उत्पन्न हो सकती, "मिद्धान्त में किये जारहे कार्य को 'किया हुआ' किन्तु उसके लिए बहुत समय की आवश्यकता है। कहना बताया है, वह एकदम ही मिथ्या है।" बस वह कहता है कि जो कार्य किया जा रहा है उसे किया यही पहले निलव का उत्पाद है और उसका प्रवर्तक हुआ या किया जा चुका, कहना प्रत्यक्ष-विरुद्ध है। जमालि भी निहव कहलाया। वृद्ध साधुओं ने उसे यदि अधूरे काम को पूरा कह दिया जावे तो फिर उस बहुतेरा समझाया, पर जब उसने एक न मानी तो कुछ कार्य की निष्पत्ति के लिए किये जाने वाले व्यापार साधु उसे छोड़ कर भगवान के पास चले गये और वृथा होजावेंगे। मान लीजिए,कुंभकारनं मिट्टी गूंथकर कुछ उसी के पास रह गये। घड़ा बनाना प्रारम्भ किया । यदि प्रारम्भ करते ही, ___ जमालि की स्त्री सुर्दशना, उस समय श्रावस्ती में एक ही समय में, घट बन गया मान लें, तो फिर चाक ही 'लंक' नामक कुंभकार के घर ठहरी थी । जमालिके घमाना आदि क्रियायें व्यर्थ हो जाती हैं। इसके सिवास्नेह के कारण उसने भी जमालि का मत अंगीकार य, जब कि क्रियाके प्रथम ही समयमें घट बन चुका कर लिया और 'ढंक को भी अंगीकार कराने की तब उसे बनानेका अर्थ हुमा बने हुए घटको बनाना । चेष्टा की । ढंक विद्वान था, वह तारगया कि सुदर्शना यदि बने हुए घट को फिर भी बनाने की मावस्यकता मिध्यास्विनी हो गई है। है तो जीवन भर में यहाँ तक कि तीन काल में भी Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेसलमेर के भं० कं प्रन्थ- फोट आश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६ ] वह आवश्यकता नहीं मिट सकती । अतः एक समय में कार्य की उत्पत्ति न मानना ही युक्ति और व्यवहार के अनुकूल है। लेकिन जमालि घट को एक ही कार्य मान कर यह व्याख्या करता है । वास्तव में घट बनाने के विचार से, मिट्टी लाने से लगाकर घट बन जाने तक अनेक कार्य अनेक समयों में करने पड़ते हैं । घटरूप एक महान कार्य की ये सब कोटियाँ हैं । पूरा घट बनने में जितने समय लगते हैं, उननं ही वे अवान्तर कार्य हैं, जो सम्मिलित होकर एक महान कार्य कहलाते हैं। उन कामों की अपेक्षा एक-एक कार्य की उत्पत्ति मानना बेजा नहीं है । इस अपेक्षा को भूला देने से जमालि निह्नव कहलाया । दूसरा निन्हव भगवान् महावीर को केवल ज्ञान होने के १६ वर्ष बाद की बात है । राजगृह उर्फ ऋषभपुर में 'वसु' नामक आचार्य आये । उनके एक शिष्य 'तिध्यगुप्त' थे । वे एक बार ‘आत्मप्रवाद' नामक पूर्व पढ़ रहे थे। उसमें एक जगह आया - " एक, दो, तीन आदि प्रदेशों को जीव नहीं कह सकते, यहाँ तक कि लोकाकाशकं प्रदेशों के बराबर असंख्यात आत्मप्रदेशो में से एक प्रदेश भी कम को जीव नहीं कह सकते ।" तिष्यगुप्त उस समय यह बात भूल गया था कि यह मत किसी एक नय की अपेक्षा मे है । इसलिए उसने मिध्यात्व के उदय सं यह सिद्धांत कायम कर लिया कि जिस एक अन्तिम प्रदेश से जीवत्व श्राता है, वहीं एक प्रदेश जीव कहलाता है। तात्पय यह है कि जीव एक प्रदेशी है। आचार्य ने उसे अनेक गंभीर युक्ति प्रमाणों से समझाया, पर वह किसी प्रकार न माना तो उन्होंने उसे संघ से बाहर कर दिया। निष्यगुप्त ६१५ घूमता- घूमता श्रामलकल्पा नगरीमें आया । वहाँ मित्रश्री नामक एक श्रावक थे। जब उन्हें मालम हुआ कि यह निश्व है, तो उसे उन्होंने निमन्त्रित किया। जब तिष्यगुप्त मित्रश्रीके घर पहुँचा तो उन्होंने बड़ा आदरसत्कार दिखाकर बहुत-सी खानेकी चीजें उसके सामने रख दीं और उनमें से एक-एक सीथ - (सिक्थ-चावल ) भर उसे दिया । यह हाल देख तिध्यगुप्त ने कहा "हे श्रावक ! यह क्या करते हो ? जरा-जरा सा अंश देकर क्या मेरा अपमान करते हो ?" मौका देखकर श्रावक बोला - "यदि एक अवयव समस्त अवयवोंका काम नहीं दे सकता तो आप जीवके एक अंतिम प्रदेश को समस्त जीव मानने का श्रामह क्यों करते हैं ? वस्त्र का अन्तिम तंतु, वस्त्र-साध्य शीतत्राण आदि कार्य नहीं कर सकता, इस लिए उसे वस्त्र कहना उचित नहीं है । इसी प्रकार आत्मा के विषय में समभ लीजिए ।" जां तिष्यगुप्त भाचार्यद्वारा अनेक तर्क बितर्फ और शास्त्र प्रमाणों द्वारा समझाने पर भी नगुमा था वही मित्र श्री की युक्ति से प्रतिबुद्ध हो गया । उसने अपनी भूल मान ली और प्राचार्य के समीप काफ प्रतिक्रमण किया । निष्यगुप्त की मान्यता का आभार यह अन्य प्रदेशों के विद्यमान रहते हुए भी कंबल प्रदेश की न्यूनता से जीवन नहीं श्राता । और वह एक प्रदेश सम्मिलित हो जाता है तब जीवत्य भाता है । अतः उस एक प्रदेश के साथ ही जीवस्थ का संबन्ध है, इसलिए एक प्रदेशको ही जीव मानना चाहिए । यह एवं नयका मत है। उसने विवक्षा-भेदका ध्यान में नहीं रक्खा। इसलिए वह निशव कहलाया । Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ११, १२ तीसरा निन्हव पहुँचे । वहाँ उस समय मौर्यवंशीय 'बलभद्र" नामक राजा राज्य करता था । वह श्रावकं था । उसे मालूम श्वेतविका नगरीमें भार्यापाढ़ नामक प्राचार्य हुआ कि अव्यक्तवादी निह्नव यहाँ आये हैं और थे। वही वाचनाचार्य भी थे। वे जिस दिन वाचना 'गुणशिलक' चैत्य में ठहरे हैं । राजा ने उनको अपने चार्य नियुक्त हुए, उसी दिन गत्रिमें उन्हें हृदयशूल पास बला भेजा और सेना से कुचलवा कर मार हो गया, और उसीसे उनका देहान्त हो गया । वे मर डालने की आज्ञा दे दी। जब सेना और हाथी उन्हें कर सौधर्म स्वर्गमें देव उत्पन्न हुए । उनकी मृत्यु का कुचलने के लिए आए तो वे बोले-"राजन् हम हाल किसी को मालूम न हुआ। जानते हैं, तुम श्रावक हो, फिर श्रमणों के प्राण क्यों दव (प्राचार्य) ने अवधिज्ञानके द्वारा सारा पूर्व लेते हो?" वृत्तांत जान लिया और उनके जो शिष्य 'श्रागाढयोग' राजा ने कहा-"मैं श्रावक हूँ या नहीं, यह किस कर रहे थे उसकी निर्विघ्न समाप्ति के लिए, वे फिर मालम है ? और आप लोग भी चोर हैं, लुटेरे हैं, अपने पूर्व शरीर में पा घस । जब शिष्यों का आगाढ या साध हैं, यह भी कौन जान सकता है ?" योगसमाप्त हुआ तो उन्होंने इस बातकी क्षमा माँगी माध-"हम लोग साधु हैं।" कि मैंन असंमयी होते हुए भी साधुओं से बंदना कराई गजा-"तो अव्यक्तवादी बनकर परस्पर वंदना है। इसके सिवाय उन्होंने अपना सब हाल कह सुनाया। व्यवहार क्यों नहीं करते ?" श्राचार्य के वेषमें देव को इतने दिनों से वन्दना इस तरह बहुत समझाने बुझाने से वे सब प्रतिआदि करते रहने से साधुओं का विचार आया कि बुद्ध हो गये और लज्जित होकर मन्मार्ग पर आ गये। संयमी-असंयमी का तो कुछ पता नहीं चलता, बेहतर अन्त मे राजा ने कहा-"आप लोगों को प्रतिबोध है कि, किमी की वन्दना की ही न जाय । इस प्रकार देने ही के लिए मैंने ये सब उपाय किये थे।" उन साधान आपसमें वन्दना करना बन्द कर दिया। इस पर टिप्पणी करने की आवश्यकता नहीं है। शविर साधुओं ने उन्हें बहुतग समझाया कि यदि जो प्रत्येक के साधुत्व में ही संदेह करते हैं वे जिनोक्त V सर्वत्र संदेह ही संदेह है तो फिर उस देव की सक्ष्म पदार्थों पर कैसे विश्वास कर सकते हैं ? इसी पेर क्यों विश्वास करते हो ? संभव है वह देव मे वे निहव कहलाए। हो,भत्र है न हो । जमके कहने में यदि उसे तुम चौथा निन्हव लोग देव मानते हो ना अपने आपको माधु कहने वीर-निर्वाण के २२० वर्ष बाद मिथिलापुरी में वालों को साघु भी समझो । देव की अपेक्षा साधु का 'मामुच्छेदिक' निह्नव उत्पन्न हुआ था। महागिरिसरि कथन अधिक विश्वासयोग्य होता है । युक्तियों से के कौण्डिन्य नामक शिष्यका शिष्य 'अश्वमित्र' था। समझाने पर भी जब वे साधु कुछ न समझे नो उन्हें यह निलव महावीर-निर्वण के २१४ वर्ष बाद हुआ बतसंघ से अलग कर दिया गया। लाया गया है। परन्तु इस समय में किसी 'पलभद्र' नामक मौर्य बहिष्कृत साध पर्यटन करते करते राजगृह नगरमें वंशीय श्रापक राजा का पता मुझे नीं लगा। -खेवक - -- -- - --- -.. Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाश्विन,कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] श्व० सान निव वह एक दिन अनुप्रवाद नामक पूर्व पढ़ रहा था। महागिरि का शिष्य धनगत था और दूसरे किनारे पढ़ते पढ़ते उसे ऐसा स्त्रयाल हो गया कि प्रत्येक भार्यगंग नामक आचार्य । शरद ऋतुमें एक बार पदार्थ एक क्षण-स्थायी है, दूसरे ममय में सबका आर्यगंग आचार्य-वन्दनाके लिए नदी पार कर कर नाश हो जाता है । वह प्ररूपणा भी ऐसी ही करने रहा था । गंग गॅजा था । धपके मारं ऊपरमं उसकी लगा। उमे भी उन्हीं यक्तियों से समझाया गया, जो खोपड़ी जलने लगी और नीचेसे नदीके ठंडे पानीम बौद्धमत के खण्डन के लिए काम में लाई जाती है। ठण्ड लगने लगी। इसी समय उम मिथ्यात्व माहनीय परन्तु जब अश्वमित्र न ममझा तो उसे भी संघ बाहर कर्मन श्रा घेरा । वह सोचने लगानिकाल दिया गया । वह भी घमता घूमता राजगृह "शास्त्रों में लिया है एक समय में दो क्रियाएँ अनउफ काम्पिल्य नगर में पहुंचा । वहा खण्डरक्ष नाम भत नहीं होती, किन्तु मैं एक ही समयमें दो क्रियाओं के एक श्रावक थे। वे शुल्कपाल ( जकात के ऑफ़ि का वेदन कर रहा हूँ । आगमका यह कथन अनुभवसर ) थे। ज्योंही उन्हें निहवों का आना मालम विरुद्ध है, अतःमाननीय नहीं है।" उसने अपने विचार हुआ त्योंही उन्होंने उनको माग्ना पीटना प्रारम्भ कर गुरुजीको कह सुनाये । गुरुजीन युक्तियाँ दे-देकर उमे दिया। निव बेचारे डर के मारं कांपने लगे और मार समझाया पर उसने एक न मानी । अन्तमें गुरुजीन के मारे हाँफने लगे। बले-"हम कुछ नहीं जानत, उस संघ-बाह्य कर दिया और वह भी अश्वमित्र' आदि तुम श्रावक होकर हम साधनों को भी मारत हो ?" की तरह राजगह नगर पहुँचा । वहाँ एक 'मणिनाग' खण्डरक्षने कहा-"जो माधु थे वे तो मी समय नष्ट चैत्य (?) था। उमीके ममीप आर्यगंग अपना नया होगये, तुम लोग चोर लुच्चोंमेमे न जाने कौन हो?" सिद्धान्त मभाको समझा रहा था । सुनकर मणिनाग. खण्डग्क्ष के इतना कहने ही में उन साधओं ने का बड़ा गम्मा पाया और गंगसे बोला-भरे दुष्ट अपना दुराग्रह त्याग दिया और “मिच्छामि दुक्कड" शिक्षक ! उल्टा-मीधा क्यों समझा रहा है ? एक बार ( मेरा दुष्कन मिथ्या हो ) कह कर गम महाराज के भगवान महावीर स्वामी इसी जगह आये थे भो पादमूल में जा पहुंचे। उन्होंने एक ममयमें एक ही क्रियाका बदन बतात. 'अनप्रवाद' पूर्वके जिम कथनको मान कर अश्व- था। मैं उस वक्त यही था-मैन भगवानकी प्ररूपणा मित्रन क्षण-नश्वरता की स्थापना की थी, वह बौद्धो सनी थी, तुम क्या उनम भी ज्यादा शबदेस्त उपदेशक का प्रसिद्ध सिद्धान्त है और जैनोंके 'ऋजसूत्र' नयक हो जाऐमा उपदेश कर रहे हो ? यह झटी प्रापणा दृष्टि में संगत है । अश्वमित्र नं एकान्ततः ऋजसूत्रकी बन्द कग वा अभी तुम्हारे प्राण लेता हूँ।" ही प्रतिष्ठा करके अन्यान्य नयोंको मर्वथा भला दिया मणिनागकी बात सुनते ही गंगफ हायांक नातं जाने था। इसी भलके कारण वह निह्नव कहलाया। लगे और उसकी यक्तियोंमें उमे प्रनिबोध हो गया। इन पाचवा निन्हव प्रकार समझ कर वह गरुकं पादमूलमं चला गया। उल्लका नदीक एक किनारे पर एक खेड़ा था और गंग कहना था-स्वानुभव-विरुद्ध एक कालमें 04, दूसरे किनारे उल्लकातीर नामक मगर था । एक किनारे ही क्रिया वेदका नियम कैमे माना जा सकता है। Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ११, १२ परन्तु उसका अनुभव ही ठीक न था । उपयोगमय 'जम्बद्वीप' मैं मेरा कोई प्रतिवादी नहीं है, इस बातकी प्रात्मा जब किसी एक इन्द्रियके सहारे एक विषयका सूचनाके लिए जम्ब वृक्ष की शाखा हाथमें रख छोड़ी अनुभव करता है, तब वह तन्मय हो जाता है । ऐसी है। लोगों ने उसका नाम 'पोट्टशाल' रख लिया था। अवस्थामें दूसरे विषयका नहीं हो सकता। हां, यह बात रोहगुप्तने उसके साथ शास्त्रार्थ करना स्वीकार अवश्य है कि मन अत्यन्त शीघ संचार करता है इसी किया । और आचार्यसे सब वृत्तान्त कहा । आचार्य लिए वह दूसरे विषयकी और इतनीतंजीम दौड़ जाता बोले-"तुमने यह उचित नहीं किया । तुम वादमें उसे है कि हम कालभेदकी सहसा कल्पना भी नहीं कर हग दोगे तो भी वह अपनी विद्याांके बल पर डटा पाते । किंतु सूक्ष्म-बुद्धिस विचार करने पर समय, श्रा- रहेगा । उसे ये सात विद्यायें खूब सिद्ध हैंबलिका आदि कालका भेद समझमें आ जाता है । एक १ वृश्चिकविद्या, २ सर्पविद्या, ३ मूषकविद्या, ४ दूसरेके ऊपर सौ कमलके पत्ते रखिए, फिर पूग जार मृगीविद्या, ५ वागहीविद्या, ७ पोताकीविद्या । लगाकर एक भाला उनमें घुसड़ दीजिए । साधारण अन्तमें प्राचार्यन इनकी प्रतिपक्षभृत सात विद्याएँ तौर पर यही समझ पड़ेगा कि सौके सौ पत्ते एक साथ रोहगुप्तको सिखलाई-१ मयुरीविद्या, २ नकुलीविद्या छिद गये हैं । परन्तु यह ठीक नहीं है । भाला क्रमशः ३ विडा विद्या, ४ व्याघ्रीविद्या, ५ सिंहीविद्या, ६ उन पत्तोंमें घसाहै। और जब उसने पहले पत्तेको छेदा उल्कीविद्या, ७ उलावकविद्या । आचार्यने रोहगप्तका तब दूसरा नहीं छिदा था। इस प्रकार उनमें काल-भेद रजाहरण मंत्रित करके वहभी उस दिया, जिसे मस्तक पर तो है पर वह साधारण तौर पर ममझमें नहीं आता। घमात ही अन्य विद्याएँ अपना प्रभाव न दिखा सकें। गंग ने भी विशेष ध्यान न दिया और विपरीत प्ररूपणा गहगप्तराजा,लधीकी सभा में पहुँचे । परित्रा भारम्भ करदी, इसीसे वह निहव कहलाया । यह वीर जक बड़ा धर्त था । उसने गेहगुप्तके पक्षको ही अपना निर्वाण में २२८ वर्षवाद हा। पूर्वपक्ष बनाया, जिसमें कि रोहगुप्त उसका खण्डन न वि छठा निन्हव कर सके । वह बोला-"मसारमें दो ही राशियाँ हैं एक जीवराशि और दूमरी अजीवराशि । इनके अति___ अन्तर्गतका नगरीमें बहिभूनगह नामक चेत्यमें रिक्त और कुछ भी संसार में उपलब्ध नहीं होता।" | श्रीगुप्त प्राचार्य ठहरे हुए थे । उनका शिष्य राहगुप्त यह बात रोगप्तके अनुकून थी, तथापि उसे नीचा किसी दूसरे गाँवमें था । वह एक बार बन्दनाकं लिए दिखाने के लिए उन्होंने इसका भी खण्डन किया । वे अन्तरंजिका आया । अन्तरंजिकामें एक परिव्राजक बोले- "तीसरी राशि भी उपलब्ध होती है और वह लोहेके पट्रेसे पेट बाँधकर और जम्ब वक्षकी एक डाली है नौजीवगशि।" हाथमें लेकर घम रहा था। लोग जब उससे पछते- इत्यादि युक्तियांक द्वारा परिव्राजक पराजित हो ____ कर अपनी वृश्चिकविद्या के द्वारा गेहगुप्त पर बिच्छू 'यह क्या स्वाँग बना रक्खा है ?' तो वह उत्तर देता बरसाने लगा। रोहग़प्त ने मयूरीविद्यासे मयर उड़ाना 'मेरा पेट झानसे इतना अधिक भर गया है कि फूटनं प्रारम्भ कर दिया। मयूगेंने बिच्छुओं को मार डाला। का बर है, अतः इमे लोह-पट्टमे बाँध रकवा है । और परिव्राजकने सर्प छोड़ना शुरु किया, रोहगुप्तने नौले Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माश्विन,कार्तिक,पीरनिःसं०२४५६] श्वे० सात निव छोड़ दिये । इसीप्रकार मूषिकके लिए बिलाव, मृगीके गेहगप्तने शरीर में भम्म रमाई और वैशेषिक मन लिए व्याघ्र, शूकरोंके लिए सिंह, काकोंके लिए उल्ल की स्थापना की । गेहगात 'उलक' गोत्र का था और और पोतकीके लिए उलावक छोड़े जाने लगे। उसने छह पदार्थ माने थे, इसीम वह पहलफ भी परिव्राजक जब इनस पार न पासका तो अन्तम कहलाया। इस प्रकार वैशेषिक मत वीरनिर्वाण मंवन उसने एक गधैया छोड़ी । गधैया श्राती देख रोहगतने ५४४ में स्थापित हुआ !' * अपने मस्तक पर रजाहरणघमाकर वही गधैया जमा रोगप्तने 'नाजीव' गशि एक पृथक मानी थी, दिया । रोहगप्तका जमाना था कि गधैया परिव्राजककं किन्तु बाद में उसने छह पदार्थ क्योंकर मान लियं । ऊपर मल-मूत्र त्याग कर चलती बनी। रोहगलकी अब इसका कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया है। पूरी विजय हुई । मब लोगों ने परिव्राजक को ग्वृष सातवाँ निन्हव थका और नगरसे निकाल बाहर किया। दशपुर नगरमें 'मोमदेव' ब्राह्मणकाचौदह विद्याओं गेहगुप्त गुरुके पास गये और सब वृत्तान्त कह का पारदर्शी रक्षित नामक एक पुत्र था । वह सुनाया। गाजी बोले-परिव्राजक को जीत लिया, यह तसलीपत्र आचार्य के समीप दीक्षित हो गया। तो अच्छा किया; किन्तु वादके बाद सभाकं समक्ष तुम्हें उसने गम्स ग्यारह अंग और कुछ दृष्टिवाद सीख लिया स्पष्ट कर देना चाहिए था कि यह हमारा सिद्धांत नहीं था। शपदृष्टिवाद उसने आर्यवर स्वामी में पढ़ लिया है । गहगात इस समय मिथ्यात्वी हो गया था। वह था। कुछ दिन बाद उसके भाई और माता-पिता आदि बोला-इम सिद्धांतमें कोई दोष ही दिखाई नहीं देता, भी दीक्षित हो गये। इस प्रकार उसका बड़ा गच्छ हो तब मैं यह कैम म्वीकार कर सकता हूँ। अन्नमें गुरु गया । गच्छ म चार साधु प्रधान ये -१ दुबलिकाशिष्य मिलकर गजा बलश्री के पास फैमला कगने पुष्पमित्र, २ विन्ध्य, ३ फल्गुरक्षित, गोष्ठामाहिल । गये । वहाँ निश्वय हुआ कि 'कुत्रिक आपण,' में चल दुर्बल कापुष्पमित्र विन्ध्य का वाचना देता था। पर का 'नाजीव' माँगना चाहिए। यदि देवना नाजीव दं वह नववा पव भल गया था। प्राचार्य ने मांचा वि. सका तो रोहगुप्तकी बात ठीक समझी जाय,नदे सका जब ऐमा बद्धिमान भी पर्वको भल गया नी ममग्न तो श्रीगप्त की विजय मानी जाय । सब मिलकर सत्राको याद रखना बहुत कठिन है। यह विचार महान 'कुत्रिक श्रापण' गये, पर देव 'नाजीव' न दे सका। श्री अनयांगांका विभाग कर दिया और नय निगाहन गप्तकी जीत हो गई और रोहाप्न नगर बाहर कर दिया । विभाग कर दिये । यही श्राचार्य विहार करने का गया । यद्यपि रोहगुप्त पराजित हो चुका था, नथापि मथरा श्राय और मथुगम दशपुर पहुँच। उसके गुरु उससे ऐम चिढे कि जान जाने विचार के दशपुर आन बान नास्तिकांक माथ शाला सर पर उन्होंने थक ही दिया। करने के लिए प्राचार्य भार्यरक्षितने अपने शि गाष्ठामाहिलका भेजा और अपने पद पर दुबलिका१ 'कुत्रिक प्रापण' एक ऐसा बजार था, जहां तीन लोक क प्रत्येक पार्थ मिल सकता था। वह देवता मे अधिनित था। * यह बात निहामिक शि में विवागाय है। Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ARO अनकान्त [वर्ष १, किरण ११, १२ पष्पमित्र' को बिठा दिया। प्राचार्य स्वर्गवासी हो गये। हृदयोद्वार जब गोष्टामाहिलको यह वृत्तान्त विदित हुआ तो उमे बड़ी ईर्षा हुई। एक बार विन्ध्य 'कर्मप्रवाद' नामक पर्व पढ रहा कब आयगा वह दिन कि बनं साधु विहारी ॥ टेक ॥ था। इसमें यह प्रकरण पाया कि कर्म धात्माकं साथ दुनियामें कोई चीप मुझे थिर नहीं पाती, इस प्रकार बद्ध हो जाते हैं जैसे अग्नि लोहके गोलके और प्राय मेरी यों ही तो है बीतती जाती। साथ । गोष्ठामाहिल छिद्र ढूंढ ही रहा था । यह अच्छा मस्तक पै खड़ी मौत, वह सब ही को है श्राती; मौका मिला । वह बोला-जब कि कर्म अात्माकं राजा हो, चाहे गणा हो, हो रंक भिखारी ॥१॥ साथ एकमेक हो जाते हैं तो छट नहीं सकतं । जैस संपत्ति है दुनियाकी, वह दुनियामें रहेगी; जीवके प्रदेश परस्पर एकमेक हानेके कारण जुदे नहीं काया न चले साथ, वह पावकमें दहेगी। हो सकते। अतः यह मानना चाहिए कि जैसे साँप और इक ईट भी फिर हाथसे हर्गिज न उठेगी; उसकी कॉचलीका स्पर्श मात्र होता है, वैसे ही कर्म बंगला हो, चाहे कोठी हो, हो महल अटारी ।।२।। श्रात्माके साथ सिर्फ स्पष्ट होते हैं,-बद्ध नहीं होते। बैठा है कोई मस्त हो, मसनदको लगाये; कुछ दिन बाद उसने दूसरी विधतिपत्ति पैदा की। मांगे है कोई भीख, फटा वस्त्र बिछाये । साधु जीवन-पर्यन्त मावद्य-योगका प्रत्याख्यान करते हैं। अंधा है कोई, कोई बधिर हाथ कटार; गोष्ठामाहिलने इस अनचित ठहराया । वह कहनं व्यसनी है कोई मम्म, कोई भक्त पजारी ।।कबा ३ लगा-प्रत्याख्यानक विषयमं काल की अवधि न हानी खेले हैं कई खेल, धरं रूप घनरः चाहिए । मर्यादा-भले ही वह जीवन भरकी हो- स्थावरमें त्रमा में भी किय जाय बसरे। जोड़नस, मर्यादाके बाद भागकी आकाँक्षा बनी रहती होत ही रहे हैं यां सदा शाम-सवेर; है । अर्थात् जीवन के बाद स्वर्गमें जाकर देवांगनाओंके चक्करमें घमाता है सदा कर्म-मदारी ।।कबा४ भोग आदिकी इच्छा रह जाती है। इस इच्छाके कारण सब हीम मैं रक्खूगा सदा दिल की सफाई; वह प्रत्याख्यान निर्दोष नहीं हो सकता। . हिन्दू हो, मुसलमान हो, हो जैन-ईसाई। श्राचार्य दुर्बलिकापष्पमित्रने तरह-तरह के तकौम मिल-मिलके गले बाँटेंगे हम प्रीति-मिठाई; उसे समझाया पर वह अन्त तक न माना । पहलके श्रापसमें चलेगी न कभी द्वेष-कटारी ।।कब०||५ छह निलव तो अन्तमें रास्ते पर आ गय थे * परन्तु सर्वस्व लगाकं मैं करूं देश की सेवा, गोष्ठामाहिल निलव ही रहा। घर-घर पे मैं जा-जाके रखं झानका मेवा । इस प्रकार यह सातों निहवां का संक्षिप्त परिचय दाखाका सभी जीवोंके हो जायगा छेवा, है । विशेषावश्यक-भाष्यमें इनके सिद्धान्तोंका निरा- भारत न देखेंगा कोई मूर्ख-अनारी ।।कबला ६ करण भी दिया है । अस्तु; इनके ममयसम्बंध कुछ जीवांको प्रमादोसे कभी मैं न सताऊँ, विचार ऊपर प्रकट किया जा चका है। और भी बहुत करनीक विषय हेय हैं, अब मैं न लभाऊँ। सी बातें ऐसी हैं जो विचारणीय तथा परीक्षणीय हैं। जानी हं सदा ज्ञानकी मैं ज्योति जगाऊँ समता में रहूंगा मैं सदा शुद्ध-विचारी |कबार पहले निजवक परिचयमै तो उसका रास्ते पर जाना प्रकट नहीं किया गया, तब क्या उसके प्रतिबोधकी बात छुट गई या पांच ही निब गम्ने परमाए। -सम्पादक * श्रीपं घ.मलाल सेठीके 'महेन्द्रकुमार' नाटकका एक अंश । Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] खारवेल और हिमवन्त-थरावली राजा खारवेल और हिमवन्त-थेरावली [लेखक-श्री बाब कामताप्रसादजी, सम्पादक 'वीर' । नेकान्त'की पाँचवीं किरणमें प्रकट हुए हमारं उप- क्रिया होती है, यह प्रकट किया, कंवल इम मान्यताको युक्त विषयक लेखका उत्तर श्रीमुनि कल्याणविजय पुष्टि देने के लिये । उक्त मुनिजी भले ही तमारं पक्ति जीन अनेकान्त'की ६-७ संयुक्त किरणमें देने की कृपा की लेखको साम्प्रदायिक कीचड़ उछालना मममें और है। इसके लिये हम उनके आभारी हैं; किन्तु उन्होंने अपने भले ही उमं एक अनिसाहसी और बे-सिर-पैरका लेख्य पूर्व-लेखसे हमें आघात पहुँचा बताया है,वह गलत है। करार दें किन्तु 'अनकान्त' में प्रकट हुए इस विषयक हम साम्प्रदायिकता पक्षपाती नहीं हैं किन्तु तो भी अन्य लेखांको और अपने प्रमाणोंको दण्वत हुए हम जो सिद्धांत हम ठीक और उचित जॅबता है, उसका अपन लेखको समुचित और ठीक माननको बाध्य हैं । समर्थन और प्रष्टि करना हम अपना कर्तव्य समझत हम ही नहीं; अब तो श्वे. मुनिश्री जिनविजयजी और हैं। हमारी इस मान्यताको काई साम्प्रदायिकता और अजैन विद्वान् श्रीजायसवालजी भी हिमवन्त-थेरावली पक्षपात-मूलक समझे, तो यह एक भारी नासमझी के उल्लिखित वर्णनको जाली, बनावटी, प्रक्षिप्त और होगी। बस, इस सम्बन्धमें इतना कह देना ही पर्याप्त श्राधुनिक घोषित करते हैं। और इसप्रकारकी क्रिया है कि हमें जब जब अवसर मिला है साम्प्रदायिकता विषयमें श्रीजिनविजयजी कहते हैं कि "एसीगतिहमा अनिष्ट प्रभावको मेटनका उद्योग हमने अवश्य किया यहाँ बहुत प्राचीन कालसं चली आ रही है, इससे इस है और इसीका परिणाम है कि हमें कई एक श्वेतांबर में हम कोई आश्चर्य पानकी बात नहीं।" अतः विद्वान विद्वानों और नेताओंकी मित्रता पानका सौभाग्य प्राप्त पाठक स्वयं विचार लें कि हमने जो अपनपूर्वोक्त लेखमें है। इतनं पर भी हमें हिमवन्त-थेरावली'कोजाली कहना ऐसी घोषणा की थी, वह ठीक या बेजा कैसे और कहाँ पड़ा है और श्वेताम्बर वृत्तिको वैसी ( जाल बनाने वाली ?) प्रगट करना पड़ा है, उसका एकमात्र उद्देश्य - अन्य लेख मुनि जिनविजयजीका पत्र और जायसवालजीका सत्य-अनसंधान है-आक्षेपक नियत उसमें कारगर एक छोटा सा नोट है । इन दोनों में से कोई भी प्रकृत विषयका निगा रक न., किन्तु सूक्कमात्र । जायसवाल ना की मचना नहीं है । जब अनुसन्धानसे हमें यह विश्वाम हो गया कि थेगवलीका वह अंश जो प्रकट हुआ है मिथ्या भी मुनि नीक कथनाधार पर अवलम्बित है। .. सम्पादक • महज़ किवी की घोषणामावस विचारकों को काई मतीष सिद्ध होता है, तब हमने उसे जाली घोषित किया न हो सकता, जब तक कि वे युक्तियां मामने न भाजा पोरन और श्वेताम्बर समाज में ऐसी ( जाल बनानेकी ?) की यथार्थता की जांच न हो जाए, जिनके माधार पपी घोषणा * भले ही वह कभी कभी बिना हमारी इजाजतके ही लेखनी की गई है। यह दूसरी बात है कि कुछ दम लोग अथवा माम्प्र. से टपकी पड़ती हो, इतना साथमें मार भी कह दिया जाता नो दायिकता के रंगमें गेहए व्यक्ति उसे अपने अनुकूल पासताप अच्छा होता। -सम्पादक धाग्या कले। Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२ मनकान्त [वर्ष १, किरण ११, १२ तक थी ? अस्तु । ग्रंथों की, सो पहले तो यह बात है कि वे प्राचारग्रंथ अब हमारी दलीलों पर की हुई मुनिजी की है-इसलिये वे इतिहासकी कोटमें नहीं पाते । उनको पालोचनाके औचित्य-अनौचित्य पर विचार कर लेना, अनोखी बातें तब तक अवश्य मान्य होंगी जब तक हम उचति समझते हैं। कि वे दिगम्बराम्नायकी मान्यताके विरुद्ध प्रमाणित न (१) पहले ही वे हमारे इस कथन पर आक्षेप कर दी जाये । इसके अतिरिक्त मैं उनके विषय में कुछ करते हैं कि "चेटकके वंशका जो परिचय थेरावलीमें भी नहीं कह सकता, क्योंकि मैंने उनका अध्ययन नहीं दिया है, वह अन्यत्र कहीं नहीं मिलता।" वे कहते हैं किया है । 'मूलाचार के एक अंशको देखनका अवसर कि "यह कैसे मान लिया जाय कि कोई भी बात एकसे मुझे अवश्य प्राप्त हुआ है और उस अंशकी पुष्टि प्रा- . अधिक ग्रंथों में न मिलने से ही अप्रामाणिक या जाली चीन बौद्ध साहित्य से भी हुई है । किन्तु दूसरे प्रन्थ है ?" बेराक, इतनेसे ही न मानिये; किन्तु जब वही बात 'भगवती पागधना' के तो मुझे आज तक दर्शन ही अन्यथा बाधित हो, तब उसका मात्र एक ग्रंथमें ही प्राप्त नहीं हुए हैं। मिलना संदिग्ध और अप्रामाणिक मानना क्या ठीक न (२) दूसरे नं० की आलोचनामें कोई बात विचाहोगा ? इसी दृष्टि से एक बातका एक प्रन्थमें ही मिलना रणीय नहीं है । सिवाय इसके कि मैं अपनी इस नं० प्रमाणकी कोटि में नहीं पाता; पर यदि वही बात किसी की पहले प्रकट हुई दलील को दुहरा दूं क्योंकि मेरी अन्य प्रामाणिक प्रन्थ अथवा स्रोतसे पुष्ट हो जाय, तो दलीलें थेरावली के प्रकट हुए अंश को जाली प्रकट उसमें शंका करने के लिये बहुत कम स्थान रह जाताहै। करन के लिए ज्यों की त्यों अब भी पुष्ट है। जैसे कि इतिहास-क्षेत्रमें इस प्रकारकी पुष्टि विशेष महत्व रखती पाठकगण आगे देखेंगे। है । हाँ, यह दूसरी बात है कि एक प्रन्थकी कोई खास (३) मेरी तीसरी दलील की आलोचनामें मुनिजी बात अन्यथा बाधित न हो, तो वह नब तक प्रमाण- लिखते हैं कि "यह ठीक है कि चेटककं नामस किसी कोटि में मान ली जाय जब तक कि उसके विरुद्ध कोई वंशका अस्तित्व कहीं उल्लिवित नहीं देखा गया, पर प्रमाण न मिले प्रस्तु; चूंकि मुझे थेरावलीके प्रकट हुए इस खारवेलके लेख और थेरावलीके संवादसे यह अंशके विरुद्ध पुष्ट प्रमाण मिले थे, इसलिये मैंने मात्र मानने में क्या आपत्ति है कि इस उल्लेखस ही चेटकउसमें मिली हुई बातको विश्वसनीय न मान के लिए वंशका अस्तित्व हो रहा है ?" आपत्ति यही है कि वह जो उक्त वक्तव्य प्रकट किया, वह ठीक है। अन्यथा बाधित है और खारबेलके लेख में वह य अभी रही बात 'मूलाचार' अथवा 'भगवती श्राराधना' तक नहीं पढ़ा गया है ! थेगवलीमें वह मात्र प्रक्षिप्त और काल्पनिक है, यह बात अब स्वयं श्वेताम्बर अन्यथा बाधित होने की यह बात लेखक की पहले नम्बरकी विद्वान् ही प्रगट कर रहे हैं । भागे मुनि जीने लिखा है बलील का कोई भश नहीं थी, और इसलिये वह दलील जिन शब्दों में सीमित है . रखते हुए मुनि जी का उत्तर उसके सम्बन्धमें की राजपर्यत जान पड़ता है। फिर भी प्रत्युत्तर की जो यह चंग की गई धानी वैशालीका नाश हुआ और चेटकके वंशजोंका . यह चिन्तनीय । -सम्पादक अधिकार विदेह गज्य परसे उठ जानेके बाद वहाँ गण-- Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाश्विन,कार्तिक,वीरनिःसं०२४५६] खारवेल और हि० थेरावली राज्य हो गया। इन कारणोंसे पिछले समय में चेटक और xiकिन्तु उक्त अंतिम घटनाबाद भीवैशालीका अस्तित्वक उसके वंशकी अधिक प्रसिद्धि न रहनेसे उसकी चर्चा बड़े अच्छे ढंग पर मिलता है। मबद्ध के बाद वैश लीका प्रन्थों में न मिलती हो तो इससे सशंक होने की क्या भिक्षुसंघ बहु प्रसिद्ध हुआ था। प्रानन्दने गंगाके मध्य जरूरत है ?" जरूरत इसलिये है कि आपका उक्त जिस एक टापूको बसाया था, उसका. आधा भाग तब वक्तव्य किसी भी प्रमाणाधार पर अवलम्बित नहीं है। के अर्थात् बुद्ध निर्वाणसे लगभग सौ वर्ष बादके वैशा आपने अपने वक्तव्यकी पुष्टि में एक भी प्रमाण उप- लीके लिच्छवियों को मिला था। लगभग इसी समय स्थित नहीं किया है। इमलिये जब तक आप अपने वैशालीमें ही बौद्ध संघकी दूमरी सभा भी हुई थी। वक्तव्यको पुष्ट प्रमाणों से समुचित सिद्ध न करदें तय प्राचीन बौद्ध साहित्यका यह कथन अमान्य नहीं ठहतक वह विचार करने की कोटिमें ही नहीं आता *। राया जा सकता; जब कि हम इसके कई शताब्दियों ___ मुनिजी जिम समय इस विषय पर सप्रमाण बाद तक वैशालीका अस्तित्व पाते हैं। चीनी यात्री लिखेंगे, उस समय विचार किया ही जायगा । किन्तु काहियान और युनत्सागन में न फाहियान और पनत्सांगने भी वैशालीके दर्शन किये अब भी मुनिजी के उक्त वक्तव्य के श्रौचित्य को देख थे । यह यात्री क्रमशः ईमाकी पाँचवीं और मातवीं लेना अनुचित नहीं है । यह बान ठीक है कि चेटककी शताब्दिमें भारत आये थे । इसके अतिरिक्त बमाद युद्ध-निमित्तक मृत्यु हुई; किन्तु इसके साथ ही वैशाली प्रामस खांदनं पर ईसाकी पाँचवीं शताब्दिका जो का नाश हुआ बताना बिल्कुल मिथ्या है ! क्योंकि यह पुगतत्व मिला है, उममें कई मुद्राएँ ऐसी हैं जिन पर मानी हुई बात है कि भगवान महावीरका निर्वाण निम्न लंग्व लिखा हुआ है। :और महात्मा बुद्धकी मृत्यु होनेके बाद प्रजातशत्रुने x जायसवाल नीका एमा लिखना जिस, लेखक प्रमाणित करना वैशाली को विजय किया था। ये घटनाएँ क्रमशः ई. बतलाते हैं, क्या क ई ब्रह्म वाक्य है और मुनिजी ने उसे मान्य किया पू० ५४५, ई० पू० ५४४ और ई०पू०५४० की है, ऐमा है ! यदि एसा न, तो फिर इस बात को मानी हुई बात" केसे कहा जा सकता है विवाद में 'मानी दुई बात' वह होती है जिसे पानी मौर मि० काशीप्रसादजी जायसवालने प्रमाणिन किया है प्रतिवादीदानां स्वीकार करत। मुनिमीको इन घटनामोंका उक्तसमम मान्य नहीं है। और अब तो जायसवाल नी भी प्रचलित वीर नि* मुनिती ने एक संभावना उपस्थित की थी-और यह भी सक्त को अपने पत्नादिकोंमें लिखने लगे हैं. जिसमे ऐसा जान नहीं कि वह यों ही निराधार कोरी कन्पना ही हो-उनकी उस पड़ता है कि इन घटनामंकि समयसम्बधमें उनका पूर्व विचार मय संभवना को भसंभव सिद्ध न करके इस प्रकार का उत्तर देना कुछ स्थिर नही रहा है। लेखक महाशय भले ही उन्हें प्रमाण पर समुचित प्रतीत न होता। कोई संभावव रूप कथन विकारका टिम करते हैं। माही न सकता, यह तो लेखकका विलक्षण तर्क जान पड़ता इन्डियन विदागकल कास्टी , भा. .. । है। यदि कोई बात पुष्ट प्रमाणोंसे सिद्ध हो तो फिर वह संभावना ही 3. भारतके प्राचीन राजश, भा०, पृ. । क्यों कहलाए ? इसपर लेखक महाशयने कुछ भी ध्यान नहीं दिया ।' लेगी फाहियान पृ० ७० और वाटर्म व्यन्न्मांग मा. -सम्पादक पृ०६३। १. जनरल मंफ़ दी बिहार एयर मांडीसा-रिसर्व-सोसाइटी. ५.मार्क. संवाफ इन्डिया, वार्षिक रिपोर्ट, प..-.. भा० १पृष्ट ११५-११ पृष्११. Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२.४ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ११, १२ “वैशाल्यामरपकनिकुटम्बिना ।" हैं। अतः वृजि और विदेह देश एक अर्थकेही वाचक अर्थात्-'वैशालीमें के कुटुम्बियोंकी मुद्रा ।' अतः हैं। अस्तु । इससे वैशालीका अस्तित्व निस्सन्देह ईसाकी पाँचवीं इस वृजि या विदेह देशके ही राजा चेटक थे। शताब्दि तक प्रमाणित होता है और इस दशामें मुनि- यह राजा चेटक परम्परीण सर्वसत्तासम्पन्न राजा जीका चेटककी मत्य के साथ ही वैशालीका नाश हा नहीं थे, बल्कि वज्जियन गणराज्य के गणपति या राष्ट्रबताना गलत साबित होता है । पति थे । क्योंकि किसी भी जैनशास्त्रमें इन्हें स्पष्टतः ___ अब गणगज्यकी स्थापनाको लीजिये , मुनिजी मगध सम्राटकी तरह सर्वसत्तासम्पन्न अधिनायक वैशालीमें गणराज्यको स्थापित हुआ चेटककी मृत्यु के प्रकट नहीं किया गया है की इनके साथमें जो 'राजा' बहुत दिनो बाद बताते हैं ; किन्तु जैन और बौद्ध सा. शब्द प्रयुक्त हुआ है, वह एक उपाधिमात्र है। ऐसा हित्यसं यह बाधित है। इसके पहले कि हम इस विषय कौटिल्य के अर्थशास्त्रसं स्पष्ट है । और कल्पसूत्रसे में कुछ लिखें, यह बता देना जरूरी है कि विदेह' यद्यपि यह प्रकट है कि नौ लिच्छवि गणराजाओंमें और 'वृजि' नाम उस समय एक ही देशके लिये लाग ये प्रमुख थे. तथापि बौद्ध साहित्यसे यह बिल्कुल थे । बौद्ध साहित्यमें वैशालीको वृजिदेशकी राजधानी स्पष्ट है कि जि देश पर गण या संघ-प्रकारकी सरकहा गया है और जैन माहित्यम उसीको विदहदेशकी कार थी । 'मज्झिमनिकाय' में यह बात स्पष्टतः कही राजधानी बताया है । किन्तु यह बात भी नहीं है कि गई है ३ । 'ललितविस्तार' में म० बुद्ध के समयकी बौद्ध साहित्य में वृजि देशके स्थान पर विदहका प्रयोग वैशाली के वर्णनमं कहा गया है कि 'वहाँ आयु व नहुश्रा हो और श्वेताम्बरोंने विदेह । साथ साथ उस सामाजिक स्थितिके अनुसार प्रतिष्ठा नहीं थी । प्रत्येक का प्रयोग न किया हो । बौद्ध अजातशत्र की माताको अपने को 'गजा' कहता था । 'महावस्तु' में वहाँ चौवैदेही बताकर वैशालीका विदेहंदशमें स्थित प्रकट भा० १ पृ०२५६) तथा बसालिए' (सूत्रकृताङ्ग १, २, ३, २०) करते हैं और श्वेताम्बर 'बजी-विदेह पत्त' पदका प्र. प्रकट काक ताम्बर साहित्य उक्त एकताका समर्थन करता है क्योंकि योग करके उनकी ममान वाचकताको घोषित करते बौद्ध एवं चीनी साहित्यम वैशा नीका अनि दशमें होना प्रमाणितहै । (सम नत्री केन्म इन बुद्धिरट इन्डिया, पृ० ३७.-५६ ।) युद्ध में चटक की मृत्यु होने पर "उसकी राजधानी वैशाली . उत्तर पुराणमें इन्हें 'महाराजा' तो लिखा है, जैसा कि का नाश कुमा' इस वाक्यमें नाश' का अर्थ राजधानीके तबाह या अगले एक में फुटनाटमें प्रकट किया गया है; मालूम नहीं 'महाक्वांद होने का न लेकर वैशाली नगर की सत्ता काही टि जाना गजानो का भी वे सत्तासम्पन्न और अधिनायक थे या कि न. : महा करना और फिर उसका बडन करने बैठना कोई विलना ही -मम्पादक ममझ का परिणाम जान पड़ता है। -सम्पादक । “लिच्छविक-जिक-मल्लक-मद्रक-कुकुर-कुरु-पा. मयुत्तनिकाय भा०२,०२८। चालादयो राजशब्दोपजीविनः संघाः।" ७. भगवती सूत्र ७. ब्रजी श्री विदेह एक ही जाति का २. कल्पमत्र १२८S B E., Vol. XXII. बांतक था. यही कारगा प्रतीत होता है कि टकामें 'वजी शम्मका p.266 note L. मर्थ इन्द्र' किया गया है । वैसे भी श्रीमहावीर म्बानी को एक ३. P T. S. Vol. I, p. 231 'विवेह' या 'विदहके एक गजपुत्र' (कल्पसूत्र ११०-जनसत्र ४. लेफोन, ललितविस्तार, भा०११०२१ । Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६ ] खारवेल और हिमवन्त-थरावली रासी हजार राजा बताये गये हैं । इन उल्लेखोंसे वैशाली या वृजि में गणराज्य होना ही प्रमाणित होता है। इस अवस्था में राजा चेटक परम्परीण राजा नहीं कहे जा सकते । कौटिल्यके 'राजशब्दोपजीविनः' पदसे उन का नाम मात्रका राजा होना सिद्ध है-गजसत्ता का वास्तविक अधिकार तो उनके संघको प्राप्त था 1 श्वेताम्बर शास्त्र हमारे पास मौजूद नहीं हैं। इस कारण हम उनके सम्बन्ध में अपने नोटोंसे अथवा अन्यस्रोतों से ही लिख सकते हैं । अस्तु; अन्य स्रोतों में जहाँ भी श्वेताम्बर शास्त्रानुसार चेटकका उल्लेख किया गया है, वहाँ वह अनेक राजाओं में से एक ही लिग्वे ये हैं | देखिये जैकब सा० ऐसे ही उल्लेख करते हैं: “...Kçatriyani Trisula, the mother of Mhaviia, was a sister of Cetaka, one of the Kings of Vatsali, and belonged to the Vasistha gotta, (S. B. E., Vol. XXII, pXII). The Licchavi lady, nccording to the Niryavali Sutin; was Cilama, the daughter of Cetaka, one of the majas of Vaisali.” (Ibid P. XIII ) 44 इन उद्धरणोंमें जिन शब्दोंके नीचे लकीर खींच दी गई है, उनसे वैशाली में अनेक राजाओं का होना सिद्ध (?) है। उधर 'कल्पसूत्र' और 'भगवतीसुत्र' में काशीकौशल के १८ गण- राजाओंके साथ साथ नौ लिच्छिवि गणराजाओं का भी उल्लेख है४ । यह नौ लिच्छिवि १. महा वस्तु, भा० १,१०२७१ । २. डॉ० लॉ ने यह बात अपनी 'नत्री क्रेन्स इन एन्शियन्ट इन्डिया' नामक पुस्तक मच्छी तरह प्रमाणित करती है I ३. कल्पसूत्र १२८ । ४. भगवती सुन ७, हमारी समझ यह नौ ल ६२५ गणराजा साधारण राजाओं मे भिम्न प्रकार के अर्थात 'राजशब्दोपजीविनः ' - राष्ट्र संघ के सदस्यरूप 'राजा' उपाधिधारी क्षत्रियथे; क्योंकि यदि ये ऐसे न होते तो इन्हें गणराजा न कहा जाता। इसके साथ ही यह बात भी स्पष्ट है कि ये छविराजा सिवाय वैशालीक अन्यत्र कहीं नहीं रहते थे। उस समय वैशाली ही लिवियों का राजनगर था । इस दशा में लिच्छिवियों को वृद्धि अथवा विदेह देश और वैशाली नगर कहीं अलग मानना समुचित नहीं है। अतः यह कहना बेजा नहीं है कि श्वेताम्बरशास्त्र भी चेटकको एक गगाराजा प्रकट करते हैं। दिगम्बर शास्त्र भी वैशाली और उसके आसपास के क्षत्रिय कुन्नों में गणराज्य के होनेकी माक्षो देते हैं । 'महावीरपुराण', 'उत्तरपुराण' आदि प्रन्थों में कहा गया है कि भगवान महावीरने दिगम्बर मुनि होकर डबन से उठकर कुल नगर के कुल नपके यहाँ आहार लिया था। यहां राजा और नगरका नाम एक ही होना विशेष अर्थम खाली नहीं है। इसमें प्रयुक्त हुआ 'कुल' शब्द हमारी समझ से (Man' 'Family' अर्थका ग्रांतक है; क्योंकि राजा और नगरका एक ही नाम होना साधारणतः ठीक नहीं जंचता। उधर श्वताम्बर शाखों यह स्पष्ट ही है कि दिगंबर शास्त्रांका 'खण्डवन' या 'नायखंडवन' उनके शास्त्रोंका 'दुइपलाश उज्जान है, जिसपर नाथवंशी (शात्रिक) क्षत्रियों बनियन संपक नौ कुलं कि प्रतिनिधियांक योतक हो । कोर्ट मा धर्म नदीं । किवि और वज्जियन शब्द समान प्रथमं भी प्रयुक्त हुए मिलते हैं। १. मम तव इन एन्शियेन्द्र इन्डिया, ५.३५५७१ २. महावीरपुरागा १०२५६ । ३ ३०० १०३१- ३१६ | Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६ अनेकान्त [ वर्ष १, किरण ११. १२ का आधिपत्य था ' । 'उवासगदशासूत्र' (२,४ ) में उसे लिये गणराज्यका अस्तित्व चेटकके जीवन में ही वै 'नायपण्डवन उज्जान' लिखा है और वह नाथवंशीज्ञातक क्षत्रियोंके निवासस्थान 'कोल्लग सन्निवेश' के निकट था । अतएव दिगंबर शास्त्रमें प्रयुक्त हुए 'कुल' शब्दको () : ।। या गोत्रके अर्थ में लेनेसे यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवान् महावीर के कुल ज्ञातु या नाथका निवासस्थान अर्थात् कोल्लग उनके प्रथम पारणाका स्थान और उनके कुलका नृप उनका आहारदाता था । यहाँ कुलनृप - गणराजाके रूपमें ही व्यवहृत हुआ प्रतीत होता है । अतः इससे यही मानना ठीक जँचता है कि कोल्लग के ज्ञातृवंशीय क्षत्रियों में भी संघ या गणराज्य था और उनका प्रत्येक सदस्य राजा कहलाता था । निस्सन्देह बौद्ध साहित्य यही प्रकट करता है । वह वज्जियन राष्ट्रसंघ में लिच्छिवि आदि आठ कुलोको सम्मिलित प्रकट करता है और श्वेताम्बर शास्त्र भी म० महावीरको 'वैशालीय' और वैशाली को 'महावीरजननी' बता कर इस मान्यताका समर्थन करते हैं; क्योंकि यदि भ० महावीर और उनका कुल वैशाली के राष्ट्रसंघ में शामिल न होता तो उनको ऐसा न कहा जाता । अतः वैशाली में संघ या गण सरकार मानना ही युक्तियुक्त सिद्ध होता है । अब हमें इस आलोचना में पहले ही उपस्थित किये हुए प्रश्नका उत्तर पा लेना सुगम है अर्थात् वैशालीमें गणराज्यको स्थापना क्या चेटक की मृत्यु के बाद हुई थी ? उपर्युक्त त्रिवेन में कई एक उल्लेख म बुद्ध के जीवनकाल के और कितने ही भगवान महावीर के प्रारंभिक जीवन से लेकर निर्वाण तकके हैं । इस १. विपाकसूत्र में 'दुइपलादा उज्जान' लिखा है और कल्पसूत्र ( ११५ ) व भावारांगसूत्र ( २, १५-२२ ) मे ज्ञातृक क्षत्रियक अधिकार स्पष्ट है। शालीमें मानना ठीक है। अतः मुनिजीका यह कथन भी प्रामाणिक नहीं माना जा सकता । इसी सिलसिले में मुनिजी कहते हैं कि "इस कथन में कुछ भी प्रमाण नहीं है कि चेटक 'लिच्छिवि' वंशका पुरुष था। मुझे ठीक स्मरण तो नहीं है पर जहाँ तक खयाल है, श्वेताम्बर सम्प्रदाय के पुराने साहित्य में चेटकका “हैहय” अथवा इससे मिलता जुलता कोई वंश बताया गया है।" बेशक यह ठीक है कि जैन शास्त्रों में स्पष्टतः चेटकको लिच्छिवि-वंश या कुलका नहीं लिखा गया है; किन्तु जब वह वैशालीके गणराजा रूपमें राजा सिद्ध होते हैं, तब उन्हें लिच्छिवि वंशका मानना बेज नहीं है । दिगम्बर जैन शास्त्रों में हमारे देखने में उनके वंशका कोई उल्लेख नहीं आया है। यदि श्वेताम्बर ग्रन्थ उन्हें 'हैहय' वंशका प्रकट करते हैं, तो उसमें यह आपत्ति है कि 'हैहय' क्षत्रिय चद्रवंशी हैं। और वैशाली के लिच्छिवि क्षत्रिय सूर्यवंशी वाशिष्ठगांत्री हैं जिनमेंसे चेटकको अलग नहीं किया जा सकता, क्योंकि उनकी बहुन क्षत्रियाणी त्रिशलाका लिच्छिविरमणी वाशिष्टगोत्री प्रकट किया गया है; जैसा कि डॉ० जैकोबी के पूर्व उद्धरणम स्पष्ट है, और वैशाली में लिच्छिवि गण-राज्यका अधिकार था । आगे मुनिजी लिच्छिवि क्षत्रियोंकी वंश रूपमें लिखने पर आपत्ति करते हैं; किन्तु वंशका प्रयोग हमने कुल रूपमें किया है और लिच्छिवि एक कुल (Clan) था, यह मानना ठीक है; क्योंकि वज्जियन संघ के 'अट्ठ १. भारतके प्राचीन राजवन्श, भाग ११०३७ । २. पूर्व पुस्तक, भा०२, १०३७७ व क्षत्री लेन्स इन बुद्धिस्ट इन्डिया १० १४ । Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२७ आश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] खारवेल और हिमवन्त-थरावली कूलक' बेंचमें वह भी सम्मिलित थे । कारण प्रकट हो जाता है और इसमें यह भी स्पष्ट है इसके सिवाय, फिर मुनिजी लिच्छिवि गणको कि चेटकके समयमें वह गणराज्य मौजद था; क्योंकि राजा चेटकके मातहत बताते हैं और कहते हैं कि इस समय तक वह युद्ध नहीं लड़ा गया था जिममें विदेह में तब गणराज्य नहीं था, इसीसे उसका उल्लेख चेटककी मृत्यु हुई थी । बौद्ध साहित्य की यह नहीं हुआ है। उसके नायकों पर चेटक महाराजा की प्राचीन माक्षी य ही नहीं टाली जा मकनी । अस्तु; हैसियतमे हुक्म करता था । किन्तु मुनिजी का यह मुनिजीकी इस विषय की निराधार मान्यना गान्य सब कथन निराधार है '* | उन्होंने अपने कथन की नहीं हा सकती ! पछिमें एक भी प्रमाण पेश नहीं किया है। और ऊपर लिच्छवि वंशके क्षत्रिय उस समय बड़ी प्रतिष्टाकी के विवेचनसे उनका यह कथन बाधित है । यदि चेटक दृष्टि से दवे जाते थे और बड़े बड़े गजा-महाराजा महाराजा की हैसियतसे नौ लिच्छिवियों पर हकमन के साथ विवाहसम्बन्ध करना, गौरवकी बात समझत करता था, तो उन्हें गणराजा कहना ही फ़िजल था- थे। अतः इससे यह नहीं कहा जा सकता कि घटक. उन्हें सामन्त या करद कहना ही इस हालतमें उपयुक्त भी मगध श्रादिकं मत्ताधारी गजाांकी तरह ही एक होता । विदह-वैशालीमें गणराज्य राजा चंटकके गजा था। समयमें ही था, यह मानना बिल्कुल ठीक है। अजान- उपयुक्त विवंचनको दस्वनं हप, चंटकका गाय शत्रु इस गणराज्यसं भयभीत था और उसने म० बद्ध अजातशत्रु-द्वाग हारा जाना,वैशालीक गणराज्य के नाश से इस संघको विजय कर लेनका उपाय पछा था। का द्योतक नहीं हो सकता; बल्कि इस घटना वाद बद्धन कह दिया था कि जब तक उसमें एश्य है, उम भी उसके गणराजा मगधसमाट के अाधान रह कर को कोई जीत नहीं सकता । फलतः कुणिक अजात- अपनी श्रान्तरिक व्यवस्था पूर्ववत ही करने : शत्रन अपने मंत्रीको भेज कर उनमें फटका बीज बश्रा और समाद चंद्रगम मौग्यकं ममयमें वह फिर शाक्तदिया था और फिर कालान्तरमें अवसर पात ही वह शाली हो गये मालम होने हैं; क्योंकि कौटिल्य उनमें उन पर आक्रमण कर बैठा था । अनः इम बौद्ध मैत्री करके मौर्य शक्तिको बढ़ानेका उपदेश दमा है। साक्षीसे वजि यन राजसंवमें फट पड़नका अमली इस हालतमें इस बात के लिए यहाँ स्थान ही प्रान नही है कि चेटकका पत्र वैशालीको छोड़कर सुदूरदेश १. पर्व० पृ.१२१-साहित्याचार्य ५० विश्वनाथ रेट मा कनिकको भाग गया होगा और वहाँ जाकर एक बने भी अपने भारत के प्राचीन गजवंश, (भा० २.१० : ५५' नन्त्र राज्य स्थापित कर मका होगा । अपनी जन्मभाम नामक ग्रथमें लिच्छिविको 'ग' ही लिखा है। और बन्ध-बान्धवा तथा गणराज्यमें अपने स्थानको निराधार हो या साधार, परन्तु उमरपुरागाक व पर्वमन। चेटकको "प्रतिकित्र्यात भूमत" और "महीश" ही नही किन्तु १. नविय केन्म इन नियन्ट इन्दिया, पृ.1.1:। "महाराजा" भी लिखा है । यथा:- "सचेटकमहाराज पूर्व० पृ. १३ । स्नेहात्"(ला. १५)। -सम्पादक ३. पूर्व.पृ. १३-११७-"संघलामो दण्डामित्र२. मंयुननिकाय (P.T.S.) मा०२, पृ० २६७-२६८। लाभानामुनमः ।" Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२८ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ११, १२ यही छोड़कर भला वह क्यों कलिंग जाता ? अतः साथ ही गिना जाता था । कराँची आज सिन्धुदेशका थेरावलीका इस सम्बन्धका कथन विश्वास करने मुख्य नगर है। किन्तु ७वीं शताब्दिमें वह कच्छ में योग्य नहीं कहा जा सकता। गिना जाता था । अतः इस विषयमें कोई शङ्का करना (४) चौथी दलीलके उत्तरका समावेश मुनिजीने फिजूल है । तीसरी आलोचना में किया है। अतः हमारे उपर्युक्त 'उत्तरपुराण' मूलमें कौशाम्बीके राजाका नाम उत्तरमें ही उसका उत्तर गर्मित है। 'शतानीक' ही है । मालम होता है, मुनिजी ने उक्त (५) पाँचवीं पालोचनामें मुनिजी 'उत्तरपुराण'को पुराण देखन की तकलीफ नहीं उठाई है और उसको प्रामाणिक इतिहास प्रन्थ नहीं मानते और इसलिये बिना देखे ही अप्रामाणिक ग्रंथघोषित कर दिया है। उस में शोभनराजका नाम न मिलना कुछ भी आपत्ति- शायद मुनिजी इस क्रियाको अनुत्तर-दायित्व पूर्ण और जनक नहीं समझते । यदि उत्तरपुराणकी अधिकांश बेजा नहीं समझते हैं । खैर, कुछ हो; हम पाठकों को बातोंको आप सप्रमाण मिध्या सिद्ध कर देते तो बताये देते हैं कि उत्तरपुराण भी कौशाम्बीके राजाको भापका यह कथन कोई मान्य भी करता ! किन्तु मात्र 'शतानीक' ही बताता है । हमने जिस समय 'भग आपके कहनेमे कमसे कम मैं तो उसे अप्रामाणिक ग्रंथ वान महावीर" लिखा था उस समय कवि खुशालचंदमाननके लिए तैयार नहीं हूं। मुझे तो उसकी खास कृत उत्तरपगणका हिन्दी अनुवाद ही हमने देख। खास बातें इतिहासकी दृष्टिस तथ्यपूर्ण प्रतीत हुई हैं। था । उसमें “सार" नाम संभवतः छन्द की पूर्तिके मुनिजी उसके उदायनको कच्छ देशका राजा बतानं लिये लिख दिया गया होगा। इस अवस्थामें जब कि पर आपत्ति करते हैं; किन्तु इसमें आपत्ति करने को एक दिगम्बर शास्त्र अन्य भारतीय साहित्य की तरह कोई स्थान ही शेप नहीं है, क्योंकि श्वेताम्बर शान कौशाम्बीके राजा का नाम शतानीक लिखता है। तब उन्हें सिन्धु-सौवीर का राजा घोपित करते हैं जिसमें यदि उसके किसी अन्य प्रन्थमें उसी राजाके लिये कोई सोलह देश गर्भित थे और अन्यथा यह प्रमाणित है अन्य नाम हो तो उसे उस गजाका दूसरा नाम मान कि कच्छ देश मिन्धके ही अंतर्गत उसी तरह था जिम लना क्यों बेजा होगा ? थंगवलीके शोभनरायका नाम तरह सौवीर । तिम पर कच्छके अथ समुद्र-तट- भी यदि किसी अन्य श्वेताम्बरीय प्राचीन ग्रंथमें होता वाले देशके भी हैं। इस दशा में उत्तरपुराणमें सिन्धः और उसका समर्थन संस्कृत साहित्यमे उपयुक्त प्रकार सौवीर को कच्छ देश लिखा गया तो वह कुछ भी हो जाता,तो हमें उसे स्वीकार करनेमें कोई आपत्ति न येजा नहीं है । सातवीं शताब्दीमें जब हन्त्मांग यहाँ होती । उत्तरपुराण-वर्णित राजा चेटक के पुत्रों से यह श्राया था तो उसने कच्छ देशको एक विस्तृत देश किसीका दूसरा नाम है; यदि यह बात उक्त प्रकार करांची तक फैला पाया था और वह सिन्धु देशके १ विषये वत्सवासाख्ये कौशांबीनगराधिपासोम१. उत्ताध्यययनसूत्रटीका-हिन्द टल्म पृ०८। वंशे शतानीको देव्यस्यासीन्मगावती ॥६॥, प६७५। २. कनिंघम, एन्शिपेन्ट जॉगरफी माव इन्डिया पृ. २४६- २. "भगवान महावीर" को अब हम संशाधित रूपमें पुनः प्रगट करने की प्रावश्यकता महसूस करते हैं। ३७ Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाश्विन, कार्तिक,वीरनि०सं०२४५६] , खारवेल और हिमवन्त थेरावली ६२९ प्रमाणित हो जाय, तो हमें उसके माननेमें भी कोई कल्पी 'मुनियोंका उसमें जो उल्लेख हुआ है, उससे उस आपत्ति न होगी। की प्राचीनता और सत्यता सिद्ध नहीं होती। वह तो (६) छठी आलोचनामें मुनिजी 'हरिवंशपुराण' में उसके लेखकके माया-कौशल को प्रगट करता है । वर्णित कलिङ्ग के राजाका 'जितशत्रु' नाम कोई विशेष किसी जाली नई चीजको प्राचीन और मौलिक सिद्ध नाम नहीं मानते । किन्तु यह उनकी भूल है। हरिवंश- करनेके लिये उसमें ऐसे उल्लेखोंका मिलना स्वाभाविक पुराणमें यह नाम साधारण रूपमें व्यवहृत हुआ नहीं है। अतः इस सम्बंधमें कुछ अधिक लिखना फ़िजूल है। मिलता । श्वेताम्बरोंके शास्त्रोंमें ऐसा नियम भले ही (८)आठवीं बालोचनामें मुनिजी मार्य सुस्थित और हो, परन्तु वह दिगम्बर ग्रंथोंसे लागू नहीं हो सकताx, सुप्रतिबुद्धके वीरनिर्वाणसे ३७२ वर्ष बादके समयको, जब तक कि दिगम्बर साहित्यमें उस नियम की मा- जो 'जैनसाहित्य-संशोधक' भाग १ परिशिष्ट पृ०९ न्यता सिद्ध न कर दी जाय । अतः हमारी यह दलील पर की 'वृद्ध पट्टावली' के अनुसार प्रगट किया गयाहै, भी ज्यों की त्यों वजनदार रहती है। अशुद्ध बताते हैं । यदि यह ऐसे ही मान लिया जाय (७) सातवीं पालोचनामें मुनिजी हम पर साम्प्र- तो भी उपर्यक्त विवेचनको देखते हुएथेरावलीकाजाली दायिकताका लाञ्छन लगाते हैं, किन्तु वह कितना होनाबाधित नहीं होता है। अचल गच्छकी मेरुतुंगनिस्सार है यह हम इस लेख के प्रारम्भमें ही प्रगट कर कृत पट्टावलीकी जब तक अच्छी तरह जाँच नहोजाय, चुके हैं । थेगवलीके जाली बताने पर आप हमें सा- तब तक उसके विषयमें कुछ कहना फ़िजूल है। म्प्रदायिकताके पोषक बताते हैं; किन्तु श्रापका यह (९) नवीं पालोचनामें एक श्वेताम्बर पट्टावलीमें लिखना तब ही शोभा देता जब आप ऐसे अपवादसे दिगम्बर आचार्यों के नामोंका मिलना मुनिजी ठीक वश्चित होते ! मैंने तो थेरावलीके एक अंशको मिथ्या समझते हैं । यदि यही बात है तो श्वेताम्बगेकी भन्य प्रमाणित करके ही उसे जाली घोषित किया था, किंतु प्राचीन पट्टावलियों में जैसे कल्पसूत्र की स्थविरालीमें आप तो 'उत्तरपुगण'को बिनादेख-भाले ही उसे अप्रा- ये नाम क्यों नहीं मिलते हैं ? साथ ही यह स्पष्ट है माणिक प्रगट करते हुए मालूम होते हैं । अब भला कि खारवेलने अपनी सभा अपनी मृत्युमे पहले बुलाई बताइये, आप जैसे साधु पुरुषोंके लिये मैं क्या कहूँ ? थी और वी०नि० सं० ३३०में थेरावली उनकी मृत्यु हुई थेरावलीका प्रगट हुआ अंश तो पूर्णत: जाली बताती है । तब इस दशामें न धर्मसेनाचार्य और न करार दे ही दिया गया है । इस हालतमें जिन- ही प्रकट हुई है और न जिनविजय जीका यह युक्तिवाद ही सामने xयह दावा लेखक महाशयके प्रतिसाहसको व्यक्त करता है. माया है जिसके माधार पर उन्होंने उसका जाली-बनावटी होना -सम्पादक क्योंकि दिगम्बर साहित्यमें 'भमोघवर्ष', 'वीरमार्तगडी से विशेष सक्ति किया है। xपाठय युक्तिवादके बाधित होनेमें तब कोई सन्देह नहीं अथवा उपनामांके द्वारा भी राजादिर्कोके नामोंका उरेख मिलता है और -सम्पादक . साधसम्प्रदायके ऐसे नामांकी तो कुछ पूछिये ही नहीं, उनमेंसे कितनों * क्या उक्त 'युद्ध पहावली' की अच्छी तरहसे जांच हो गई होके असली नामका तो अभी तक कोई पता भी नहीं है। सम्पादक थी. जिसको अपनी युक्ति का प्राधार बनाया गया था ? यदि नहीं यह बात ऐसी है जिसे कोई साम्प्रदायिकताभिनिवेशी ही तो फितक्या लेखक के उसे प्रमायमें पेश करनेको भी फिजूल ही मानकर प्रसन्न हो सकता है। क्योंकि अभी तक न तो वह येरावली मममा जाय ? -सम्पादक Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त ६३० नक्षत्राचार्य अंगके धारक होने रूपमें उसमें सम्मिलित हो सकते हैं । और चूँकि वह सभा अंग ज्ञान के उद्धार के लिए एकत्र की गई थी, इसलिए उसमें अंगज्ञानियोंका पहुँचना विशेष कर उचित जान कर ही श्वेताम्वर रावलीकारने उनका उल्लेख किया कहना ठीक है । तब साधारण रूप में उनका पहुँचना न पहुँचना बराबर है । इसके सिवाय उमास्वाति और श्यामा * इस प्रत्युत्तरस इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि लेखक महाशयने जो 'देवाचार्य' तथा 'बुद्धिलिंगाचार्य' का सभामें सम्मिलित होना ही असंभव क़रार दिया था वह अब उन्हें अपनी भूल जान पद्म है- भले ही वे स्पष्ट शब्दोंमें उसे स्वीकार नहीं कर संक । साथ ही, यह भी उन्हें मालूम हो गया है कि 'घसनाचार्य और 'नक्षत्राचार्य का क्रमशः दशपूर्व तथा एकादशांगंक पाठी हनि पहले --- प्राचार्यादिके रूप में उक्त सभामें सम्मिलित होना भी कोई बाधित नहीं है । परन्तु अब आपका कन्ना कहने का भाशय-यह है कि ये दोनों भाचार्य अज्ञानके धारक होनेके रूपमें उस सभा में शामिल नहीं हो सकते थे, बिना गज्ञानंक शामिल होना-न होना बराबर था, थेरावलीकार तब उनका उ:ख न करता क्योंकि वह सभा भंगज्ञानके उद्वारके लिये एकत्र की गई थी ।" [वर्ष १, किरण ११, १२ चार्यके विषय में जो कुछ कहा गया है, वह शङ्कासे नाली नहीं है । अतः उससे हमारी दलील में कुछ भी बाधा नहीं पहुँचती ! इस युक्तिवाद सम्बन्ध में अपने पाठकोंको इतना ही बतला देना चाहता हूँ कि प्रथम तो वह सभा मात्र अंगज्ञान के उद्वारके लिये नीं की गई थी, उसके दो मुख्य उद्देश्य बतलाये गये हैं - १ जेनमिद्धान्तां का संग्रह और २ जैनधर्मक विस्तारका विचार ( भनेकान्त १०२२८ ) । दूसरे, किती भंग पूर्णज्ञानी यदि मौजूद हों तो उस गके उद्धारके लिये सभा जाड़ने का कोई अर्थ हो नहीं रहता- वह निरर्थक हो जाती है। तीसरे, थेराव नीमें उस सभाको योजनानुसार जिस 'टष्टिवाद' के भव शिष्ट भागको संग्रह करनेका उल्लेख है वह बारहवां अंग है और उस का पूर्णाज्ञानी उस वक्त कोई भी नहीं था-धर्ममन और नक्षत्राचा किसी समय भी उसके पूर्गाज्ञानी नहीं हुए- उस अंगका जो कुछ बचा खुचा अंश जितना जिस जिस साधुको स्मरण था वही उनके पाससे लिख कर संग्रह किया गया है; और यह संग्रह भी स्थविरोंके द्वारा हुआ है - जिन कल्पियोंके द्वारा नहीं। धसेन और नक्षत्राचाके पाससे भी कुछ प्रशोका संग्रह किया जाना संभव है। ऐसी इस प्रकार हम देखते हैं कि जो दलीलें हमने उक्त येगवलीके प्रगट हुए अंशको मिथ्या साबित करने के लिये उपस्थित की थीं, वे ऐसी ही वजनदार अब भी हैं और वे इस बात को मानने के लिये काफी हैं कि थेरावलीका यह अंश अवश्य ही जाली है । हमारी यह मान्यता आज श्वे० मुनि श्रीजिनविजयजी के कथन में भी पुष्ट हो रही है, जिन्होंने स्वयं उस थेगवलीका देख कर उसके उल्लिखित अंश को प्रक्षिप्त और जाली घोषित किया है। इस अवस्था में अधिक लिखना व्यर्थ है । अब रही बात 'हरिवंशपुराण' के उल्लेखानुसार खाखेलका सम्बंध ऐलेय से बतानेकी, सो इस विषय में किसी भी विद्वान्की आपत्ति करना कुछ महत्व नहीं रखता XI यह ग्यारह लाख वर्षकी पुरानी बात हालत में लेखक महाशयके उक्त युक्तिवादका कुछ भी मूल्य नहीं रहता - न उक्त दोनों आचार्यका दशपूर्वादिक पाठी होने से पहले सभा सम्मिलित होना चाति ठहरता है और न थेरावनीकारक उल्लेखमें ही वेगी कोई बाधा भाती है । इसके सिवाय समयनिर्देशानुसार, धसिनको ता दरापूर्व का ज्ञान भी खारवलंक जीवनकालमें हो गया था और लेखक महाशयने अपने पहले लेसमें यह स्वीकार भी किया था कि "मेनाचार्य ही केवल उस सभा में उपस्थित कहे जा सकते हैं " ( अनेकान्त पृ० ३००); तब नहीं मालूम अपने पूर्व कथन के भी विरुद्ध यह आपका उनकी उपस्थितिम भी इनकार करना क्या अर्थ रखता है !! - सम्पादक * यह भी वही प्रसन्नता तथा आत्मसन्तुष्टि है जिसका पिछले कुछ फुटनोटों में उल्लेख किया गया है । -सम्पादक x इस प्रकारका लिखना लेखक के कोरे अहंकार, क्वाग्रह तथा • Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाश्विन, कार्तिक, वीरनिःसं०२४५६] खारवेल और हिमवन्त थेरावली ६३१ है तो कुछ हर्ज नहीं । आजकल के कितने ही राजवंशों वंशज' जो लिखा है, उसका भाव मात्र इतना हीहै कि के विषयमें एवं अन्यथा भी, इससे भी ज्यादा पुरानी वह ऐलेयवंशमें अथवा सन्ततिमें था। हरिवंशपुराणमें बातोंका उल्लेख मिलता है । स्वयं भगवान ऋषभदेव हरिवंश' का वर्णन करनेकी प्रधानता है। उसमें अन्य वंशसे सम्बन्ध बताने वाले क्षत्रिय श्राज मौजूद हैं। वंशोंका परिचय मिलना प्राकृत दुर्लभ होना चाहिये । . और इतिहासज्ञ विद्वान् भी इस बातको प्रकट करते तो भी उसमें सामान्यतया ऐलेयके वंशज अभिचन्द्रहैं । अतः यह उल्लेख बहुत प्राचीन होनेके कारण ही द्वारा चेदिवंश या राष्ट्र की स्थापनाका उल्लेख मिलता अमान्य नहीं ठहराया जा सकता है । ही है और खारवेल अपनेको चेदिवंशका लिखते ____ मुख्तार मा०'हरिवंशपुगण में 'ऐलवंश' का उल्लेख ही हैं-फिर उन्हें ऐलेयकी सन्तानमें न मानना कैसे न होने मात्र से हमारे कथनको शब्दछल ठहराते है; ठीक है ? भले ही किसी ऐलवंश' का नाम न मिलेपरन्तु खारवेल तो उनके लेखानसार 'ऐल' प्रकट वह मिले भी कम ? जब कि उसके उत्तराधिकारियोंने हो किये गये हैं ? । और हमने अपने लेख्वमें किसी एक दूसरे वंश चेदिकी स्थापना कर ली थी, 'ऐलवंश' का उल्लेख नहीं किया है। ग्वाग्वेलको 'रेल- जिसका उल्लेग्व हरिवंशपुगण करता ही है । तिस पर याँको सूचित करता है और साथ ही इस विषयमें अपने विचार- ऐलेयकी सन्तान उस हरिवंका उल्लेख अपने लिये द्वारको बन्द करनेकी पापगाा करता है। -सम्पादक क्यों करती, जिसमें उसके पूर्वज ऐलेयके पिता 'दक्ष'ने ___x उल्लेख कौनसा अधिक प्राचीन है और अमान्य किमको अपनी कन्याको पत्नी बनानेका दुष्कर्म किया था और ठहराया जाता है ! दनांक सम्बन्धादिकका व्यक्त किये बिना इस ऐलेयको उनसे अलग होकर अपने बाहुबलसे स्वाधीन प्रकारका लिम्बना यह भी एक प्रकारका शब्दछल है और इसका राज्य स्थापित करना पड़ा था ? इस दशामें हरिवंशसे आशय पाठकोंकी गुपगह करने के निकाय और कुछ मालूम नहीं अपनेको अलग बताने के लिए एवं अपने बहादुर पूर्वज ता। क्योंकि गलय' गजा की ११ लाख वर्ष पुगनी कथा पर ऐलेयका नाम कायम रखनके लिये चेदिवशनोंका, कोई आपत्ति नहीं की गई थी; किन्तु इस राजाम गल' वंशकी अपने नाम के साथ 'ऐल' शब्द विरुद या वंश के विशेस्थापनाकी और राजा खारवलक उसी 'एल' वशमें होनेकी जा पणरूपमें धारण करना ठीक है और इस दृष्टिसे उन्हें कल्पना की जाती है उसे प्रसिद्ध निमनिमूल-एवं अमान्य-- n 'ऐलवंशज' कहना समुचित है । अतः खारवेलको राजा arar मनितामा बतलाया गया था। क्या लेखक महाशयको यह खबर न कि एलेयस सम्बन्धित बताना कोरा शब्दछल नहीं हैजिन अधिक पुराने राजवशोंका उल्लेख मिलता है उनक, उन्लेखिका बल्कि यथार्थ बात है। कुछ सिलमिला अथवा पूर्व सम्बन्ध भी मिलता है ! --सम्पादक इस 'नाव' शब्दक द्वारा मेर युक्तिवादको जो सीमित किया अनः जो बातें हमने अपने इस विषयके पूर्वलेख गया है और भागे "उनके लेखानुमार" इन शब्दों द्वारा जायसवाल में प्रकट की थीं, वे अब भी ठीक प्रतीत होती हैं और जीके लेखको जा मरा लेख प्रतिपादन किया गया है वह बड़ी उन्हें सत्य घोषित करनर्म हमें जरा भी संकोच नहीं ही विचित्र घटना है और उसमें लेखककी मनावृत्ति पर खासा प्रकाश है । . पड़ता है । इस सम्बन्ध लेखके अन्तम दिया हुमा सम्पादकीय 'विशेष नोट' देखिये। -सम्पादक * इमे कदाग्रह और हरमीकी पराकाष्टा कहना चाहिये। १. 'भनेका-त' व किरण ४ पृ०२४२ पर मि. जायस- क्योंकि कितनी ही बातेकि स्पष्टतया बाधित अथवा अन्यथा सिद्ध होने बालजीने स्पष्ट लिखा है कि "खारवेलके पूर्वपुरुषका नाम महा- और प्रकारान्तर से तम्प स्वीकार किये जाने पर भी ऐसा लिखनेका मेघवाइन और वंशका नाम ऐल दिवंश था ।" साहस किया जाता है। Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ११, १२ विशेष नोट बा. कामताप्रसादजी के इस लेखकी विचारसरणी निर्णय देने अथवा उन्हें निर्णीत रूपस घोषित करने भी प्रायः वैसीहोस्खलित है जैसी कि पहले उत्तर- का लेखमें साहस किया गया है !! समुचित विचारकी लेखकी थी, साथही कुछ क्षोभको भी लिये हुए मालम यह कोई पद्धति नहीं है-भले ही कुछ बालक इससे होती है और उसका ध्येय अधिकतर उत्तरका भुगतान सन्तुष्ट हो जायँ परन्तु विचारकों को वह जरा भी मात्र जान पड़ता है-शान्तचित्त अथवा खुले दिलसे सन्तोष नहीं दे सकती । उनकी दृष्टि में वह एक भ्रामक किसी विषयका निर्णय या वस्तुतत्वका कोई गहरा वि- तथा घातक रीति है। चारनहीं। और इसका कितना ही प्रभास पाठकोंको इसके सिवाय, लेखक महाशय अपनी मतलब पिछले कुछ सम्पादकीय फुटनोटोंसे भी मिल सकेगा। सिद्धि के लिये-अथवा भोले पाठकों पर यह छाप इस लेख में भी कितनी ही विवादस्थ अनिर्णीत बातों अ- डालने के लिये कि हमने उत्तरका ठीक भुगतान कर थवा दूसरे विद्वानोंके कथनोंको, जिन्हें अपने अनुकूल दिया है-दूसरे की बातों को गलत रूपमें प्रस्तुत समझा, योंही-बिना उनकी खुली जाँच किये-एक करते हुए भी मालूम होते हैं, जिसका एक उदाहरण अटल सत्यके तौर पर मान लियागया अथवा प्रमाणमें मुख्तार सा०(सम्पादक) के कथन (यक्तिवाद) को पेश किया गया है और जिन्हें प्रतिकूल समझा उन्हें 'मात्र' शब्दके द्वारा सीमित करके रखना है और या तो पूर्णतया छोड़ दिया गया और या उनके उतने दूसरा उदाहरण जायसवालजीके लेखका "उनके अंशसे ही अपेक्षा धारण की गई है जो अपने विरुद्ध लखानमार" इन शब्दों द्वारा मुख्तार सा० का लेख पड़ता था, जिसका एक उदहारण जायसवालजी का प्रकट करना है ! क्या 'अनेकान्त' में प्रकट होने मात्रनिर्वाणसमयादिसम्बन्धी पुराना कथन है, जिस पर से ही कोई लेख उसके सम्पादकका लेख हो जाता है ? पीके नोट भी दिया गया है, अथवा मुनि जिनविजय अथवा जिन बातों पर सम्पादकको कोई नोट देनेका जीका सूचनामात्र कथन है, जिसके विषयको यों ही अवसर न मिल सका हो या यथेष्ट साधन-सामग्रीके निर्धान्त सत्यके तौर पर स्वीकार कर लिया गया है सामने मौजद न होने पर नोट देना उचित न समझा और उसके आधार पर एक ऐसी थेरावलीको "वर्ण- गया हो, वे सब बातें सम्पादकद्वारा मान्य कही जा तः जाली" करार देनेकी हिम्मत की गई है, जिसके सकती हैं ? कदापि नहीं। अतः दूसरोंकी बातोंकोइस अभी तक लेखक महाशयको दर्शन भी नही हुए और प्रकार रालत रूपमें प्रस्तुत करनेकी इस वृत्तिसे लेखकके जिसका विषय अभी बहुत कुछ विवादापन्न है !! इस दूसरे उल्लेख-खास करके वे उल्लेख जिनमें दूसरे प्रकार जो बातें खुद भसिद्ध, संदिग्ध तथा विवादापन्न विद्वानोंके वाक्योंको उद्धृत न करके महज़ फुटनोटों हैं अथवा प्रतिवादीको मान्य नहीं हैं उनके भाधार पर द्वारा पुस्तकके नामादिका हवाला दे दिया गया है और अपने युक्तिवाद को खड़ा करके भनेक विषयोंका जिस परसे उन विद्वानों के निर्धार भादिकी कोई स्थिति Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] विशेष नोट अथवा मर्यादा भी मालूम नहीं होती-कहाँ तक वि- होने मात्रसे ही लेखकके कथनको शब्दछल नहीं ठहश्वसनीय हो सकते हैं, इसकी कल्पना पाठक-स्वयं ही राया गया था; बल्कि लेखकने हरिवंशपराणमें वर्णित कर सकते हैं । अस्तु । __ कोई ११ लाख वर्ष पुरानी कथा अन्तर्गत 'ऐलेय' इस तर्ज अमलके द्वाग साम्प्रदायिकताके जिस गजा के नामोल्लेख को लेकर और इधर शिलालेखमें कलंकको पोंछनकी लेखमें चेष्टा की गई है वह उलटा गिन' पदका प्रयोग देवकर जो बिना किसी विशेष कुछ और भी गहरा हो गया है । अच्छा हो यदि लं- आधार-प्रमाणके वारवेलकं वंशकी कल्पना कर डाली खक महाशय भविष्यमें अपनी इस प्रवृत्तिके सुधार की है और उमं उक्त ऐलय' का वंशज बतला दिया है ओर विशेष ध्यान देवें और अपनी लेखनीको अधिक उम कल्पनाका महज़ शब्दछलको लिय हुप निर्मल संयत, मावधान तथा गौरवपूर्ण बनाएँ। बतलाया गया था । और जिन कारणोंके आधार पर इस लेख में यद्यपि बहुतसी बातें आपत्तिके योग्य ऐसा प्रतिपादन किया गया था उनका बलामा दम हैं, फिर भी कुछ थोड़ी-सी बातों पर ही यहाँ नोट दिये प्रकार है - गये हैं और वे भी प्रायः इस लिये कि जिससे पाठकों १ 'ऐलय' गजा मुनिसुव्रत भगवानका प्रपौत्र या पर इस उत्तर-लेखकी स्थिति स्पष्ट हो जाय और इम और इसलिय हरिवंशी था (बुद हरिवंशपरागणम रमे संबंधमें कोई खास ग़लत फहमी फैलने न पाए । अतः 'हरिवंशतिलक' लिम्या है )। जिन आपत्ति योग्य बातों पर नोट नहीं दिये गये हैं- २ एलेय'की वंशपरम्पगमें जितने भी गजामांका मात्र इस विशेष नोट-द्वारा इशारा किया गया है-उन उल्लेख मिलता है उन सबको 'हरिवंशी' लिखा हैके विषयमें किसीको यह समझनकी भूल न करनी गरेलवंशी' या 'ऐलंयवंशी' किसीको भी नहीं लिया। चाहिये कि वे सम्पादकको मान्य हैं । बाकी सब बातो ३ हरिवंशपगणमें ही नहीं, किन्तु दुसरं शास्त्राम के विशेष उत्तरकं लिये मुनि श्री कल्याणविजयजी का भी एल' नामके किमी म्वतन्त्र वंशका कोई उल्लेग्य स्थान सुरक्षित है ही, जिनके उत्तर-लग्बको लक्ष्य करके नहीं मिलता। ही यह प्रत्युत्तर-लख प्रधानतया लिखा गया है। लेखककी इस कल्पनाका और काम भी कोई हाँ, इस लेखका अन्तिम भाग मर स्वास नांटम ममर्थन नहीं होता। सम्बंध रखता है, मुनिजीन भी उमको स्वीकार किया जब तक प्राचीन साहित्य परम स्पष्टरूपमें यह था। बाकी उन्होंने भाषाविज्ञानको दृष्टिस, 'एल'का 'ऐ' सिद्ध न कर दिया जाय कि 'एल' वंश भी कोई वंशन हो सकन आदि रूपसे जो कुछ विशेष कथन किया विशेष था और गजा म्याग्वेल उमी वंशमं हुआ है था उसका कोई उत्तर लेखकन दिया ही नहीं । अनः नब तक इस कल्पनाका कुछ भी मुम्य मालम नहीं लेखके इस अंश पर मेरे लिग्वन और प्रकाश डालनकी होना। खास जरूरत जान पड़ती है। ६ खारवेल यदि पलेयकी वंशपरम्पगमें होने वाला ___ सबसे पहले मैं अपने पाठकों को यह बतला देना हरिवंशी होताना बह अपने को पलवंशी' काने की चाहता हूँ कि हरिवंशपुराणमें ऐलवंश' का उल्लेख न अपेक्षा 'हरिवंशी' कहने में ही अधिक गौरव मानता, Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३४ भनेकान्त वर्ष १, किरण ११, १२ जिस वंशमें मुनिसुव्रत और नेमिनाथ जैसे तीर्थंकरोंका 'चेदि' की स्थापना कर ली थी, जिसका उल्लेख हरिवंशहोना प्रसिद्ध है। पुराण करता ही है, तब 'ऐलवंश' का नामोल्लेख मिले ____७ यदि ऐलेय' राजाके बाद वंशका नाम बिलकुल भी तो कैसे मिले ?' 'ऐल'के रूपमें बदल गया होता तो नेमिनाथ भी ऐल- पहले कारणके सम्बंधमें मैं सिर्फ इतना ही बतवंशी' कहलाते; परन्तु ऐसा नहीं है-स्वामी समन्त- लाना चाहता हूँ कि हरिवंशपुराणमें दूसरे वंशोंका भद्र जैसे प्राचीन प्राचार्य भी 'हरिवंशकेतुः' जैसे वर्णन न पाया जाता हो ऐसा नहीं; किन्तु इक्ष्वाकुवंश, विशेषणों के द्वारा उन्हें 'हरिवंशी'हा प्रकट कर रहे हैं। सूर्यवंश, सोम( चंद्र ) वंश, उप्रवंश और कौरववंश इतनं युक्तिवादके साथमें मौजूद होते हुए भी श्रादि दूसरे वंशोंका भी उसमें वर्णन है (सर्ग १३ लेखकका उसे 'मात्र' शब्दके द्वारा "हरिवंशपराण आदि); जिस अभिचंद्रके द्वारा चेदिवंश की स्थापना में 'ऐलवंश का उल्लेख न होने" तक ही सीमित बतलाई जाती है उसकी रानी वसुमतीको भी 'उग्र' वंश कर देना कितने दुःसाहसको लिय हए अन्यथा कथन की लिखा है और इस रानी वसुमतीसं उत्पन्न होनेवाले है, इस पाठक स्वयं समझ सकते हैं । और माथ ही 'वसु' राजाकी सन्ततिमें आगे चल कर राजा 'यदु' से इस बातको भले प्रकार अनभव कर सकन हैं कि 'यादववंश' की उत्पत्तिका विस्तारके साथ वर्णन किया लेखक महाशय अपनी इष्टसिद्धिके लिये जरूरत पड़ने है । और 'यदु' का हरिवंश रूपी उदयाचल पर सूय पर दूसरोंके कथनको कितनं गलतरूपमें प्रस्तुत करने की समान उदित होना लिखा है । इस तरह दूसरे के लिये उतारू हो जाते हैं । अस्तु । वंशांक उल्लेखके माथ जब हरिवशकी एक शाखारूप लेखकन अपने इस लेख में भी दसरे प्राचीन ग्रंथों 'यदुवंश' अथवा 'यादववंश' का भी इस पुराणमें । या अन्य शिलालेखादि परातन साहित्य परसे कोई भी वर्णन है तब 'ऐल' वंशकी स्थापना यदि हुई होती प्रमाण ऐस उपस्थित नहीं किये जो उनकी उक्त कल्प- तो उसका वर्णन न दिया जानेकी कोई वजह नहीं नाको पुष्टि प्रदान कर सकें-'ऐलेय के बाद और खा. था। अतः यह कारण सदोष है और इस युक्तिमें कुछ भी दम नहीं जान पड़ता। रखेलसे पहले होने वाले हजारों राजामोमेंस एक भी . दुसरा कारण बड़ा ही विचित्र मालूम होता है ! ऐस राजाका नाम पेश नहीं किया जिसने अपने को उसमें प्रथम तो राजा अभिचंद्र के द्वारा 'चेदिवंश' की 'ऐलवंशी' लिखा हो या जिसके ऐल' विरुद धारण. । १०५ कारण स्थापनाका जो उल्लेख है वही मिथ्या है-हरिवंशपुगकरनेका किसीने उल्लेख किया हो। में चेदिवंश की स्थापनाका कोई उल्लेख नहीं है । राजा ___ अब लेखक महाशय हरिवंशपुगण में अभिचंद्रनं जिम प्रकार शुक्तिमती नदी के किनारे एक उल्लेख न मिलने के दो कारण बतलाते - एक नगरी बसाई थी उसी प्रकार विन्ध्या वलकं पृष्ठ भाग तो यह कि 'हरिवं रापुराणमें हरिवंश के वर्णनकी प्रथा पर एक चेदि राष्ट्रकी-चेदि' नामके जनपदकी - नता होनेसे उसमें अन्य वंशोंका परिचय मिलना प्राकृत * उदियाय यदुस्तत्र हरिवंशोदयाचले। दुर्लभ है' और (२) दूसरे यह कि 'ऐल के उत्तराधि यादवप्रभवो व्यापी भूमौ भूपतिभारकरः ।।६।। कारियों ने गजा अभिचंद्र के द्वारा जब एक दूसरे वंश -सो १८ Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३५ पाश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] विशेष नोट स्थापना की थी-'चेदिवंश' की नहीं, जैसा कि हरि- वाला सिद्ध होता है। वंशपुराणके निम्न वाक्यसे प्रकट है :- जब इन दो कारणोंक विधान-द्वारा लंबक महाविध्यपष्ठेऽभिनन्द्रेग चेदिर ष्टपषिष्ठितम् । शय यह प्रकट कर रहे हैं कि 'ऐलवंश' भी कोई वंश शुक्तिमत्यास्तटेधायि नाम्ना शुक्तिमती पुरी ॥२॥ था-भले ही उसका नामोल्लंग्य न मिले; नब फिर ____ 'राष्ट्र' को 'वंश' प्रतिपादन करना और इस तरह पापका यह कहना कि "हम ने अपने लेख में किसी जान बूझ कर पाठकोंको भुलावेमें डालना, यह लेवक 'ऐलवंश का उल्लेख नहीं किया है, वाग्वेलको एनके अतिसाहस, कलुषित मनोवृत्ति अथवा किसी वि- वंशज' जो लिखा है उसका भाव मात्र इतना ही है कि लक्षण समझका ही परिणाम जान पड़ता है । दूमरं वह ऐलेय वंशम अथवा सन्तनिमें था" और इस तरह यदि किमी तरह थोड़ी देर के लिये चेदिवंशकी इस ऐलवंश' के विना ही लिवंशज' का प्रतिपादन करना स्थापनाको मान भी लिया जाय तो भी कुछ बान बननी क्या अथ रखता है १ उमे पाठक स्वयं ममझमकने हुई मालम नहीं होती; क्योंकि एक ता तब अभिचद्रक है । यह ती मात्र डूबत हुए तिनके को पकड़ने जैसी उत्तराधिकारियोंके नामांके साथ चेदिवंशका अधिक चेष्टा है । स्थापित वंशके बिना संततिका स्मरगा और उल्लेख मिलना चाहिये था परन्तु वह बिलकुल भी नहीं उसका व्यवहार कही लाग्यो वर्ष तक चलता है। मिलता। दूसरं इस स्थापनास 'ऐलवंश के नामां. बाकी मेरं म यक्तिवादका ले कर जिम ऊपर ल्लेखमें क्या बाधा आती है वह कुछ ममझ नहीं पड़ती ! नं दिया गया है, लेवा महाशयनं जो यह लिया है, एक वंश में दूसरे वंश के उदय होने पर ज्यादा में कि- "ऐलयका मन्तान उम हरिवंशका उल्लेय अपने ज्यादा यदि हा ता इतना ही हो सकता है कि पहले लिये क्या करनी, जिममें समक पर्वज ऐलेय पिता का प्रभाव कुछ कम हो जाय परंतु उसका लोप हाना दक्षन अपनी कन्याको पत्नी बनाने का दुष्कर्म किया तो नहीं कहा जा सकता । यदि लोप हानेका ही आग्रह था और गलयको उनमे अलग होकर अपने बाहुबलकिया जाय तो फिर ईक्ष्वाकुवंश मेंमे सयवंश और में स्वाधीन राज्य स्थापित करना पड़ा था ?" वर काई चंद्रवंशका उदय होने पर इक्ष्वाकु वंशका लोप क्यों बड़े ही विलक्षण मस्तिष्ककी उपज मालम होता है, ! नहीं हुआ ? हरिवंश से यदुवंशका उदय होने पर उन्हें यह भी सझ नहीं पड़ा कि वंशमें किी एक. हरिवंशका लोप क्यों नहीं हुआ ? और यदि लापही व्यक्ति कोई दुष्कर्म कर लेनेसे ही वह वंश त्याज्य ही जाता है ऐसा भी मान लिया जाय तब अभिचंद्रके कैसे हो जाता है ? सूर्य, चंद्र और इक्ष्वाकु प्रादि प्र. उत्तराधिकारियों द्वारा यदुवन्शकी स्थापना होने पर सिद्ध वंशोंमें भी कितने ही दुष्कर्म करने वाले हुए हैं चेदिवंशका भी लोप हो गया ऐसा मानना होगा; और आज भी अनंक दुष्कर्म करने वाले मौजूद हैं फिर लेखक महाशय उसकी मत्ता और सिलसिलेको परन्तु उनकी वजहमे किमने इन वंशोंको त्याज्य ठह. खारवेल तक कैसे ले जा सकेंगे ? अतः यह युक्तिवाद राया? अथवा किस किसने इनसे अपना नाम कटाया चापका विलकुल थोथा, निःमार, किसी तरह भी पैरों है ? ऐलेयको यदि अपने पिताके उक्त दुष्कर्म पर रोष न चलने वाला और खुद अपनेको ही बाधा पहुँचाने आया था तो वे भले ही अपनेको पक्षकी मन्ततिमें या Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३६ अनेकान्त 'दक्षवंशी' न कहते परन्तु हरिवंशी कहने में कौनसे अपमनकी बात थी, जिस हरिवंशमें भगवान मुनिसुव्रतका अवतार हुआ था ? हरिवंश के संस्थापक राजा 'हरि' ने 'कोई अपराध नहीं किया था, फिर उनके नामके वंशसे इनकार करनेकी अथवा उसका बाईकाट करने की क्या वजह हो सकती थी? और न लेखकको यही सूझ पड़ा है कि भगवान नेमिनाथ तथा दूसरे कितने ही शलाका पुरुष भी तो राजा दक्ष तथा ऐलेय की सन्ततिमें ही हुए हैं, यदि उनके पूर्वज ऐलेयने हरिवंश सं | घृणा धारण करके उसका एकदम बाईकाट कर दिया होता तो ये लोग अपनेका हरिवंशी क्यों कहते ? अथवा भगवान् महावीर और उनके वचनानुसार दूसरे आचार्य उन्हें 'हरिवंशी' क्यों प्रकट करते ? क्या स ज्ञ हो कर भी भ० महावीरको इतनी ख़बर नहीं पड़ी थी कि ऐलेयने हरिवंशका पूरा बाईकाट कर दिया था उसका कोई वंशधर अपनेको हरिवंशी नहीं कहता था तब हमें उसके वंशजोंको 'हरिवंशी' नहीं कहना चा हिये बल्कि ‘ऐलवंशी' कहना चाहिये ? अथवा प्राचीन श्राचार्यों ने ही भ० महावीरके वचनोंके विरुद्ध लवंश' की जगह फिरसे 'हरिवंश' की घोषणा कर दी है? कुछ समझमें नहीं आता कि लेखक महाशयन इन सब बातोंका क्या निर्णय करके विरोध में उक्त वाक्य कहने का साहस किया है !! [वर्ष १, किरण ११, १२ बघनेन पसथ- सुभलखनेन चतुरंत लुठितगुनोपहितेन कलिंगाधिपतिना सिरि खारवेलेन" मैं शिलालेख की बात को लेता हूँ । खारवेलने उक्त शिलालेख में म्पष्ट रूप से न तो अपनेको ऐलवं 'राज' लिखा है और न 'चेदिवंशज' । इन दोनों वंशों की कल्पना शिलालेखकी जिस पहली पंक्तिकं आधार पर की जाती है उसका वर्तमान रीडिंग इस प्रकार है:"नमो अरहंतानं [1] नमो सवसिधानं [1] पेरेन महाराजेन महामेघवाहनेन चेतिराजवस - वाद इस पंक्ति में तों तथा सर्व सिद्धों को नमस्काररूप मंगलाचरणके बाद 'ऐरेन' से प्रारम्भ करके जो पद दिये गये हैं वे सब खारवेल के विशेषणपद हैं । उनमें से 'ऐरेन' और 'चेति राजवसवधनेन' ये दो पद ही यहाँ विचारणीय हैं- इन्हीं परसे दोनों वंशों की कल्पना की जाती है । पहले पदका संस्कृत रूप 'ऐलेन' और दूसरेका 'चंदिराजवंशवर्धनेन' बत लाया जाना है। कोई कोई पहले पदका संस्कृतानु'श्रार्ये' करते हैं, जिसका उल्लेख खुद लेखक ने अपने पहले लेख में किया था ( अनेकान्त पृ० ३०० ) और कोई कोई 'ऐरेन' की जगह 'वेरेन' पाठ ठीक बतलाकर उसका अनुवाद 'वीरे' करते हैं और अ पन इस पाठके विषय में लिखते हैं कि यद्यपि 'वे' के स्थान पर बहुत से विद्वान 'ऐ' बाँचते हैं परन्तु एक तो प्राकृत में 'ऐ' अक्षर श्राज तक देखने में नहीं आया, दूसरे इसी वंशके एक दूसरे राजा के लिये शिलालेख नं ३ ( प्रिंसेप के लेखामं नं० ६ ) में बेरस विशेका प्रयोग हुआ मिलता है, जिसका संस्कृत रूप 'बीरस्य' होता है । इस लिये यह पद 'वेरेन' (वीरेण ) होना चाहिये । इसमें 'वे' का 'व' मेघवाहन के 'वा' का 'व' जैसा है। फेर केवल इतना है कि उसका गला कुछ तंग किया गया है जिससे वह 'ऐ' जैसा मालूम पड़ता है X वह शिलालेख इस प्रकार है : "वेरस महाराजम कलिंगाधिपतिनां महामेघवाहनasदेपसिरिनो लें ।" x देखो, मुनि जिनविजयद्वारा संपादित 'प्राचीन जैन लेखसंग्रह' प्रथम भाग १०२० । Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] विशेष नोट ये 'मायण' और 'वीरेण' अर्थ वाली पिछली दो तकारमें इकारका पाविर्भाव हो गया हो । पर्वत पर कल्पनाएँ उक्त लेखपंक्ति की प्रकृतिको देखते हुए ज्यादा शिलालेखकी स्थिति इतनी जीर्ण-शीर्ण तया अनेक संगत मालूम होती हैं । इनमें भी यदि लेख नं० ३ में गहों और स्फोटादिको लिये हुए है कि उसमें 'त' को प्रयुक्त हुआ 'वेरस' पद निर्धान्त हो तो 'वेरेन' पाठकी 'ति' कल्पना कर लेना कोई विशेषकठिन बात नहीं है। कल्पना अधिक समुचित जान पड़ती है। इनके सिवाय कुछ भी हो, पहला पाठ अधिक संगत मालूम होता है, एक और भी कल्पना की जा सकती है और वह यह जिससे उस पदका यह प्राशय होता है कि खारवेल कि खारवेलकी माताका नाम 'इरा' हो और इसी से चेतराजके वंशको-कुलको-वृद्धिंगत करने वाला आप 'ऐर' कहलाते हों, जैसे 'इला' का अपत्य (पत्र) था। और इस तरह 'चंतगज' प्रायः खारवेलके पिता होनेसे राजा 'ऐल' कहलाया; अन्यथा उसका असली का नाम जान पड़ता है। इस प्रकार वंशवर्धन या नाम हिन्दूशास्त्रानुसार 'पुरूरवाः' था। कुलवर्धनादि शब्दोके माथ पिता गुरु बादिके नामका __रही दूमरे पदके पाठकी बात, उसे जहाँ तक मुझे उल्लेण्य करनेकी परिपाटी अन्यत्र भी पाई जाती है। मालूम है पहलेसे सभी विद्वान् 'चेतराजवसवधनेन' 'ऐरेन' पदमें माता नाम-समावेशकी कल्पना यदि रूपमें पढ़ते पाए हैं और उसका अर्थ 'चैत्रराजवंश- ठीक हो तो इस पदमें पिताके नामोल्लेषकी बात भोर वधनेन' किया जाता रहा है । खद बाब काशीप्र- भी दृढ हो जाती है-माता पिनाका नाम शिलालेखमें सादजी जायसवालन भी, जिनका रीडिंग ऊपर दिया अन्यत्र कहीं है भी नहीं, जिसकी ऐसे शिलालेखाग गया है, सन् १९१८ में उसं इसी रूपमें पढ़ा था और बहुत कुछ आवश्यकता जान पड़ती है । परन्तु मुनि अर्थ भी 'चेत्रराजवंशवधनेन' ही किया था x। कल्याणविजयजी, उफ थंगवली भाषार पर इसी परन्तु सन् १९२७ के आपके उक्त रीडिंगसे मालम पर्व पाठको ठीक स्वीकार करते हुए 'चेतराज का अर्थ होता है कि अब आपन त' की जगह 'ति' का प्रावि- 'चेटगज' करकं उमं प्यारवलका १५वीं पीढी पहलेका र्भाव किया है और अर्थ भी 'चैत्रराज' की जगह 'चे- पूर्व पुरुष सचित करते हैं। दिगज' के रूपमें बदल दिया है ।। पाठादिकी यह इस प्रकार यह इम शिलालेख-पतिकी तथा एमतबदीली, जहाँ तक मैं समझता हूँ चेदिवंशकी कल्पना के उन दोनों पदोंके अर्थकी परिस्थिति है। इस परिके हृदयमें आने के वाद की गई है। मंभव है लेखक- स्थिनि परमे इतना नी स्पष्ट है कि मूल लेख में 'ऐल' तथा जैसी धारणाके किसी व्यक्तिनं जायमवालजीको चेदि 'चंदिवंश पम कोई उल्लेख नहीं है और जिन वंशकी उक्त बात सुझाई हो और उसके फलस्वरूप शब्दों परमं यह अर्थ निकाला जाता है ये तथा उनका _ -- वह अर्थ अभी विवादापन है और इस लिये लेखकी * उखा, उक प्राचीन जैन लेख संग्रह प्रथम भाग। इम परिस्थितमे बिना किमी भारी स्पष्टीकरण तथा x देखो, जनरल माफ दि विहार ऐड प्रोडीमा रिसर्च मोसायटी समर्थनादिके यह नहीं कहा जा सकता कि इसमें सार. दिसम्बर 1895 +देखो, जेनसाहित्यशोधक भाग ३, मा प्रथवा उक वेलने अपने का उक्त हरिवंशी ऐलेय का वंशज अथवा बिहार उडीमा जनरलकी सन १९२७ की जिल्ला । चेदि नामके किमी प्रमिद्ध वंशका वंशधर प्रकट कि Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३८ अनेकान्त '. या है । तब लेखकका शिलालेख के आधार पर खारवेलको निश्चितरूपसे 'ऐलवंशज' प्रकट करना और गर्व के साथ दृढतापूर्वक यह कहना कि "खारवेल अ पनेको चेदिवंशका लिखते ही हैं" एक अति साइसके सिवाय और कुछ मालूम नहीं होता, जो कि ऐतिहासिक क्षेत्रमें काम करने वालोंको शोभा नहीं देता। उन्हें खूब समझ लेना चाहिये कि यदि 'चेतिराज' पाठ ही ठीक हो और उसका अर्थ भी 'चेदिराज' ही मान लिया जाय तो भी इस उल्लेख का सम्बंध ऐलेय के वंशज उस राजा 'अभिचन्द्र के' साथ नहीं जोड़ा जा सकता जिसका न तो 'चेदिराज' नाम ही था और न जिसके 'द्वारा 'चेदि' नामके किसी स्वतंत्र वंशकी स्थापना ही गई है, जैसा कि ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है; तब 'चेतिगज' चेतराज की जगह खारवेल के पितादिकका ही नाम हो सकता है । इस प्रकार यह लेखक महाशय के युक्तिवादका विवे 'न और स्पष्टीकरण है। इसी के आधार पर आप यह कहने बैठे हैं कि "खारवेलको राजा ऐलेय से सम्बन्धित बताना कोरा शब्दखल नहीं है बल्कि यथार्थ बात है" और इसीके आधार पर आप बड़े दर्पके साथ यहाँ तक कहने के लिये उतारू हो गये हैं कि - "इस विषय में किसी भी विद्वानकी आपत्ति करना कुछ महत्व नहीं रखता।" सहृदय पाठक ऊपर के संपूर्ण विवेचन तथा स्पष्टीकरण परसे भले प्रकार समझ सकते हैं कि यह सब लेम्बक महाशय का कितना अधिक प्रलाप है [वर्ष १, किरण ११, १२ ^^ और वह कितने निःसार कथन तथा थोथे अहंकारको लिये हुए है। इस प्रकारका लिखना लेखक के साम्प्रदाकि अभिनिवेशको पुकार पुकार कर प्रकट करता है । अन्तमें मैं अपने पाठकों पर इतना और भी प्रकट कर देना उचित समझता हूँ कि मुझेथेरावली-विषयक कथनका कोई पक्ष नहीं है। यदि उक्त थेरावली मेरे सामने आए और मुझे वह भले प्रकार जाली प्रतीत हो जाय तो मैं यथाशक्ति उसकी अच्छी कलई खोले विना और उसका पूरा भण्डाफोड़ कियेविना न रहूँ । परन्तु यह मुझसे नहीं हो सकता कि विना देखे-भाले ही लेखककी तरह उसे पूर्णतः जाली करार देनेका दुःसाहस कर बैठें। ऐसा काम उन्हींके द्वारा बन सकता है जो साम्प्रदायिक अभिनिवेश के वशीभूत हों। मुझे इस प्रकारकी धींगा धाँगी की विचारपद्धति पसन्द नहीं है और न मेरी अनेकान्त-नीति मुझे इस बातकी इजाजत देती है कि मैं किसी सम्प्रदायविशेषका अनुचित पक्ष लूँ । मैं तो अपनी मतिको वहाँ तक स्थिर करता हूँ जहाँ तक युक्ति पहुँचती हैं, मतिके स्थान पर युक्तिको यों ही खींच-खाँच कर अथवा तोड़ मरोड़ कर लाना नहीं चाहता | मेरी इस प्रवृत्तिसे भले ही कोई महाशय रुष्ट हों या अन्य प्रकारसे किसी की तर फ़दारी वगैरहका मुझ पर कोई आरोप लगाने के लिये उतारू हो जायँ, सत्यके सामने मुझे उसकी जरा भी चिन्ता नहीं है । -सम्पादक Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारिवन,कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] शास्त्र मर्यादा ६३० Manor CHOOL शास्त्र-मर्यादा [ लेखक-श्रीमान पं० सुखलालजी ] स्त्र क्या? जो शिक्षण देअर्थात् किसी सत्य पर अवलम्बित है। इससे समुपय रूपसे विचार विषयका परिचय तथा अनुभव प्र- करने पर यही भले प्रकार फलित होता है कि जो दान करे,वह उस विषयका शास्त्र। किसी भी विषयके साचे परिचय और सो अनुभवको परिचय और अनुभव जितनं जितनं पुरा करं, वहीं 'शास्त्र' कहा जाना चाहिये । प्रमाणमें गहरा तथा विशाल उतनं ऐसा शास्त्र कौन ? उपयुक्त व्याख्यानुसार तो उतने प्रमाण में वह शास्त्र उस विषयमें अधिक महत्व किसीको शास्त्र कहना ही कठिन है । क्योकि कोई भी का । इस प्रकार महत्वका आधार गहराई और विशा- एकशास्त्र आज तककी दुनिया ऐमा नहीं जन्मा जिलता होने पर भी उस शास्त्र की प्रतिष्ठाका आधार तो सका परिचय और अनुभव किसी भी प्रकार फरफार उसकी यथार्थता पर ही है । अमुक शास्त्र में परिचय पान योग्य न हो या जिसके विरुद्ध किसीको कभी कुछ विशेष हो, गहनता हो, अनुभव विशाल हो, तो भी कहनका प्रमग ही न आवे; तब ऊपरकी व्याख्यानुसार उसमें यदि दृष्टि-दोष या दूसरी भ्रान्ति हो तो उस जिम शास्त्र कह सकें एसा कोई भी शास्त्र है या नहीं? शास्त्रकी अपेक्षा उसी विषयका थोड़ा भी यथार्थ परि- यह प्रश्न होता है। इसका उत्तर सरल भी है और चय देने वाला और सत्य अनुभव प्रकट करने वाला कठिन भी है । यदि उत्तरकं पीछे रह हुए विचारमें दूसरा शास्त्र विशेष महत्वका है और उसीकी सी बंधन, भय या लालच न हो तो उत्तर सरल है, और प्रतिष्ठा होती है। शास शब्दमें 'शास्' और 'त्र' ये यदि वे हा तो उत्तर कठिन भी है । यात ऐसी है कि दो शब्द हैं । शब्दों से अर्थ घटित करनेकी अति मनुष्यका स्वभाव जिज्ञासु भी है और श्रद्धालु भी है। प्राचीन रीतिका श्राग्रह यदि नहीं छोड़ना हो तो ऐसा जिज्ञासा मनुष्यको विशालतामें ले जाती है और श्रद्धा कहना चाहिये कि 'शास' शब्द परिचय और अनभव उसे दृढता प्रदान करती है। जिज्ञासा और श्रद्धाके पुरा पाडनका भाव सचित करता है और 'त्र' शब्द साथ यदि दूसरी कोई आसुरी वृत्ति मिल जायता वह त्राणशक्तिका भाव सूचित करता है । शास्त्रकी त्राण- मनुष्यको मर्यादित क्षेत्रमें बाँधे रख कर उसीमें सत्य शक्ति वह जो कुमार्गमें जाते हुए मानवको रोक कर (नहीं नहीं, पूर्ण सत्य ) देखनको बाधित करती है। रक्षा करे और उसकी शक्तिको सचेमार्गमें लगा देव। इसका परिणाम यह होता है कि मनुष्य किसी एक ही ऐसी त्राणशक्ति परिचय या अनुभवकी विशालता पर वाक्यको,या किसी एक ही ग्रंथको अथवा किमी एक अथवा गंभीरता पर अवलम्बित नहीं, किन्तु यह मात्र ही परम्पराके प्रन्थसमूहको अंतिम शास मान लेता Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४० अनेकान्त [वर्ष १, किरण ११ १२ है और उसीमें पूर्ण सत्य है ऐसी मान्यता रखने वाला सत्य .कट किया हो ? हम जर भी विवार करेंगे तो होजाता है । ऐसा होनेसे मनुष्य मनुष्यमें, समूह समूह- माल र पड़ेगा कि कोई भी मर शोध अथवा शास्त्र. में और सम्प्रदाय सम्प्रदायमें शास्त्रकी सत्यता-असत्य- प्रणेता अपनको मिली हुई विरासतकी भूमिका पर ही ताके विषयमें अथवा शास्त्रकी श्रेष्ठताके तरतम भावके खड़ा हो कर अपनी दृष्टिप्रमाण या अपनी परिस्थिति विषयमें भारी झगड़ा शुरू हो जाता है । प्रत्येक मनुष्य को अनुकूल पड़े उस रीतिसे सत्यका आविर्भाव करने स्वयं माने हुए शासके अतिरिक्त दूसरे शास्त्रोंको मिथ्या को प्रवृत्त होता है और वैसा करके सत्यके आविर्भाव या अपूर्ण सत्य प्रकट करने वाले कहने लग जाता है को विकसित करना है। यह विवारसरणी यदि फेंक और ऐसा करके सामने के प्रतिस्पर्धीको अपने शास्त्र. देने योग्य न हो तो ऐसा कहना चाहिये कि कोई भी विषयमें वैसा कहने के लिये जाने अनजाने निमन्त्रण एक विषयका शास्त्र उस विषयमें जिन्होंने शोध चलाई, देता है। इस तूफ़ानी वातावरणमें और संकीर्ण मनोवृत्ति जो शोध चला रहे हैं या जो शोध चलाने वाले हैं उन में यह तो विचारना रह ही जाता है कि तब क्या सभी व्यक्तियोंकी क्रमिक तथा प्रकार भेद वाली प्रतीतियोंका शाख मिथ्या या सभी शास्त्र सत्य या सभी कुछ नहीं? संयोजन है। प्रतीतियाँ जिन संयोगोंमें क्रमसे उत्पन्न हुई यह तो हुई उत्तर देनेकी कठिनाई की बात । परंतु हों उन्हें संयोगोंके अनुसार उसी क्रमसे संकलित कर जब हम भय, लालच और संकुचितताके बन्धनकारक लिया जाय तो उस विषयका पूर्ण-अखण्ड-शास्त्र बने । वातावरणमेंसे छूट कर विचारते हैं तब उक्त प्रश्नका और इन सभी त्रैकालिक प्रतीतियों या आविर्भावों से निबटारा सुगमतासे ही हो जाता है और वह यह है अलग अलग मणकं ले लिये जाय तो वह अखंड शास्त्र कि सत्य एक तथा अखंड होते हुए भी उसका प्रावि- न कहलाए। तो भी उसे शास्त्र कहना हो तो इतनं अर्थ र्भाव ( उसका भान ) कालक्रममे और प्रकारभेदमे में कहना चाहिये कि वह प्रतीतिका मणाका भी एक होता है । सत्यका भान यदि कालक्रम विना और प्र- अण्वंड शास्त्रका अंश है। परन्तु ऐसे किसी अंशको यदि कारभेद विना हो सकता होता तो आजसे पहले कभी सम्पूर्णनाका नाम देनेमें आवे तो यह ही मिथ्या है । का यह सत्यशोधका काम पूर्ण हो गया होता और यदि इस बातमें बाधा देने योग्य कुछ न हो मैं तो कोई इस दिशा में किसीको कुछ कहना या करना भाग्यसे बाधा नहीं देता ) तो हमें शुद्ध हृदय मे स्वीकार करना ही रहा होता । जो जो महान पुरुष सत्यका आविर्भाव चाहियेकि मात्र वेद, मात्र उपनिषद, मात्र जैनागम, करने वाले पृथ्वी तल पर हो गये हैं उन्हें भी उनके मात्र बौद्ध पिटक, मात्र अवता, मात्र बाइबिल मात्र, पहले होने वाले अमुक सत्यशोधकोंकी शोधकी विरा- पुगण, मात्र कुरान, या मात्र वे वे स्मनियों, ये अपने सत मिली ही थी। ऐसा कोईभी महान पुरुष क्या तुम अपने विषयसम्बन्धमें अकेले ही सम्पूर्ण और बता सकोगे कि जिसको अपनी सत्यकी शोधमें और अन्तिम शास्त्र नहीं । परन्तु ये सब ही आध्यात्मिक सत्यके माविर्भावमें अपने पूर्ववर्ती और समसमयवर्ती विषयसम्बन्धमें, भौतिक विषयसबन्धमें अथवा दूसरे वैसे शोधककी शोधकी थोड़ी भी विरासत न सामाजिक विषयसम्बन्धमें एक अलगड त्रैकालिमिली हो और मात्र उसने ही एकाएक अल्पसे वह कशास के क्रमिक तथा प्रकार भेद वाले सत्यके Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] शास्त्र मर्यादा ६४१ आविर्भावके सूचक, अथवा उस अखंड सत्यके सर्जक और रक्षक देशकाल तथा प्रकृतिभेदानुसार भिन्न भिन्न पक्षोंको प्रस्तुत करते हुए मणका-शास्त्र हैं। यह बात किसी भी शास्त्र कुछ के हाथों रचे जाते हैं,तथा कुछ के हाथों विषयके ऐतिहासिक और तुलनात्मक अभ्यासीकं लिए सँभाल किये जाते हैं-रक्षा किये जाते है और दूसरे समझनी बिलकुल सरल है। यदि यह समझ हमारे कुछ मनुष्यों के हाथों मँभाल के अतिरिक्त उनमें वृद्धि हृदयमें उतर जाय (और उतारनेकी जरूरत तो है ही) की जाती है । रक्षको, सुधारको और परिशिष्टकारों तो अपनी बातको पकड़े रहते हुए भी दूसरे के प्रति (पृर्तिकारों) की अपेक्ष मर्जक (ग्चयिता) हमेशा कम अन्याय करते बच जाना चाहिये और ऐसा करके होते हैं । सर्जको भी मब समान हा कोटिक हान दूसरेको भी अन्यायमें उतारनेकी परिस्थतिस बचा है एमा समझना मनुष्यप्रकृतिका अज्ञान है । रक्षकों लेना चाहिये । अपने माने हुए सत्यके प्रति बराबर के मुख्य दो भाग होते है। पहला भाग सर्जककी कृति वफादार रहने के लिये यह बात ज़रूरी है कि उसकी का आजन्म वफादार रह कर उसका आशय समझने जितनी कीमत हो उममें अधिक ऑक करके अंधश्रद्धा की, उसे स्पष्ट करनेकी और उसका प्रचार करनेकी कोविकसित नहीं करनी तथा कमती आँककर नास्तिकता शिश करता है। वह इतना अधिक भक्तिसम्पन्न होना नहीं दिखलानी । ऐसा किया जाय तो यह मालम हुए है कि उसके मनको अपने पूज्य स्रष्टाक अनभवमें काल विना न रहे कि अमुक विषयसंबंधी सत्यशोधकांकं भी सुधारने योग्य या फेरफार करने योग्य नहीं लगना। मंथन क्यों तो सभी शास्त्र हैं, क्यों सभी अशान है इसमें वह अपन पूज्य प्रशाक वाक्यांका अक्षरशः और क्यो सभी कुछ नहीं। पकड़े रह कर उनमे ही मब का फालन करनेका देश, काल और संयोगस परिमित सत्यके आवि- प्रयत्न करना है और संमारकी नफ दग्वनी दसरी र्भावकी दृष्टिसं ये सब ही शास्त्र है, मन्यके मम्पर्ण ऑग्य बन्द का लेता है । जब कि रक्षकों का दमग और निरपेक्ष आविर्भावकी दृष्टिस ये मब ही अशास्त्र भाग भक्तिसम्पन्न होनेके अतिरिक्त इष्टिमम्पन्न भी हैं और शास्त्र यांगके पार पहुंचे हुए समर्थ योगीकी होता है। इसमें वह अपने पज्य स्रष्टाकी कृतिका धनदृष्टिस ये सब शास या अशा कुछ भी नहीं। मान मरण करते हुए भी उस अनरशः नहीं पकड़ रहता, हुए साम्प्रदायिक शास्त्रविषयकं मिथ्या अभिमानका उलटा वह उममें जो जो टियाँ दंग्यता है अथवा परि. गलाने के लिये इतनी ही समझ काफी है । यदि यह पतिकी आवश्यकता समझता है उसे अपनी शक्य. मिथ्या अभिमान गल जाय तो मोहका बन्धन दूर होने नसार दूर करके या पूर्ण करके ही वह उस शास्त्रका ही संपर्ण महान पुरुषोंके खंड सत्यामे अखंड सत्यका प्रचार करता है । इस गतिसे ही रक्षकोंके पहले भागदर्शन हो जाय और मभी विचारसरणियोंकी नदियाँ द्वारा शास्त्र प्रमार्जन तथा पनि न पाते हुए एक देशीय अपने अपने ढंगसे एक ही महासत्यके समुद्रमें मिलती गहराईको लिये रहते हैं और रक्षकोंक द्वितीय भागहैं, ऐसी स्पष्ट प्रतीति हो जाय । यह प्रतीति करानी ही द्वारा शास्त्र प्रमार्जन तथा पनि मिलने के कारण विशाशास्त्ररचनाका प्रधान उद्देश्य है। लताको प्राप्त होते हैं। किसी भी स्रष्टाके शास्त्रसाहित्य Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ११, १२. का इतिहास तलाश किया जायगा तो ऊपरकी बात शास्त्रीय सत्योंमें और शास्त्रीय भावनाओंमें नया कदम पर विश्वास हुप विना नहीं रहेगा । यहाँ उदाहरणके बढ़ाता है । यह नया कदम पहले तो लोगोंको चमका तौर पर आर्य ऋषियोंके अमुक वेदभागको मूल देता है और सभी लोंग या लोगोंका बहुभागरूढ और रचना मान कर प्रस्तुत वस्तु समझानी हो तो ऐसा श्रद्धास्पद शब्दों तथा भावनाओंके हथियारद्वारा इस कहा जा सकता है कि मंत्रवेदका ब्राह्मण भाग और नये विचारक या सर्जकका मस्तक फोड़नेको तैयार जैमिनीयकी मीमांसा ये प्रथम प्रकारके रक्षक हैं। और हो जाते हैं। एक तरफ विरोधियोंकी पलटन (सेना) उपनिषद्, जैन आगम, बौद्ध पिटक, गीता, स्मृति और और दूसरी तरफ़ अकेला यह नया आगन्तुक । विअन्य वैसे अन्य ये द्वितीय प्रकारकं रक्षक हैं; क्योंकि रोधी इसको कहते हैं कि 'तू जो कहना चाहता है,जो ब्राह्मण ग्रंथोंको और पूर्वमीमांसाको मंत्रवेदमें चली विचार दर्शाता है वे इन प्राचीन ईश्वरीय शास्त्रोंमें कहाँ भाने वाली भावनाओं की व्यवस्था ही करनी है-उम है ?' पुनः वे विचारे कहते हैं कि 'प्राचीन ईश्वरीय के प्रामाण्यको अधिक मजबूत कर उस पर श्रद्धाको शास्त्रोंके शब्द तो उलटे तुम्हारे नये विचारके विरुद्ध दृढ़ ही करना है। किसी भी तरह मंत्रवेदका प्रामाण्य ही जाते है ।' यह विचारा श्रद्धाल होते हुए एक दृढ़ रहे यही एक चिन्ता ब्राह्मणकारों और मीमांसकों आँख वाले विरोधियों को उस ( पहले ) आगन्तुक या की है। उन कट्टर रक्षकोंको मंत्रवेदमें वृद्धि करने योग्य विचारक स्रष्टा जैसे के ही संकुचित शब्दों से अपनी कुछ भी नजर नहीं पाता, उलटा वद्धि करनेका विचार विचारणा और भावना निकाल कर बतलाता है । इस ही उन्हें घबरा देता है। जब कि उपनिषदकार, आग- प्रकार इस नये विचारक और स्रष्टाद्वारा एक समयके मकार, पिटककार वगैरह मंत्रवेदमेंसे मिली हुई विग- प्राचीन शब्द अर्थदृष्टि से विकसित होते हैं और नये मनको प्रमार्जन करने योग्य, वृद्धि करने योग्य और विचारों तथा भावनाओंका नया पटल ( काट ) आता विकाम करने योग्य समझते हैं। ऐसी स्थितिमें एक ही है और फिर य. नया पटल समय बीनिं पर पुराना विरासतको प्राप्त होने वाले भिन्न भिन्न ममयोंके और हो कर जब कि बहुत उपयोग नहीं रहा अथवा उ. समानसमयके प्रकृतिभेद वाले मनुष्यों में पक्षापक्षी पड़ लटा बाधक हो जाता है तब फि' नये ही स्रष्टा तथा जानी है. और किले बन्दी खड़ी हो जाती है। विचारक पहले के पटल पर बढी हुई एक बार नई और हालमें पुरानी हो गई विचारणाओं नथा भावनाओं पर नवीन और प्राचीनमें बंद नया पटल चढ़ाते हैं। इस प्रकार बाप दादाओंसे अनेक ऊपरकी क़िलेबन्दीमेम सम्प्रदायका जन्म होता बार एक ही शब्दके खोलमें अनेक वि वारणाओं और है और एक दूसरेके बीच विचारका संघर्ष खूब जम भावनाओं के पटल हमारे शास्त्रमार्गमें देखे जा सकते जाता है । देखनेमें यह संघर्ष अनर्थकारी लगता है। हैं। नवीन पटलके प्रवाहको प्राचीन पटलकी जगह परन्तु इस संघर्षके परिणामस्वरूप ही सत्यका प्रावि- लेने के लिये यदि स्वतन्त्र शब्द निर्माण करने पड़े होते र्भाव आगे बढ़ता है । कोई पुष्ट विचारक या समर्थ और अनुयायियोंका क्षेत्र भी अलग मिला होता तो अष्ठा इमी मंघर्ष से जन्म लेता है और वह चले भाते उस प्राचीन और नवीनके मध्यमें वंद्व का-विरोधका Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] शास्त्र मर्यादा -कभी अवकाश ही न रहता । परन्तु कुदरत (प्रकृति) प्राचीन लोगोंके मानसको नया रूप देते हैं। हथोड़ा का आभार मानना चाहिये कि उसने शब्दों और अनु- और एरण के बीचमें मानसकी धातु देशकालानुसार यायियोंका क्षेत्र बिलकुल ही जुदा नहीं रक्खा, जिससे फेरफार वाली भावनामोंके और विचारणामोंके नये पुराने लोगोंकी स्थिरता और नये प्रागन्तुककी दृढता नये रूप धारण करती है और नवीन-प्राचीनकी कालके बीच विरोध उत्पन्न होता है और कालक्रमसे यह चकीके पाट नवीन नवीन दलते ही जाते हैं और म. विरोध विकासका ही रूप पकड़ता है। जैन या बौद्ध नष्यजातिको जीवित रखते हैं। मूल शास्त्रोंको लेकर विचार कीजिये या वेद शास्त्रको मान कर चलिये तो भी यही वस्तु हमको दिखलाई वर्तमान युग पड़ेगी। मंत्रवेदमेंके ब्रह्म, इन्द्र, वरुण ऋत, ता, सत्, इस युगमें बहुतसी भावनाएँ और विचारणाएँ असत्, यज वगैरह शब्द तथा उनके पीछेके भावना नये ही रपमें हमारे मामने पाती जाती हैं। राजकीय और उपासना लो और उपनिषदोंमें नजर पड़ती हुई या मामाजिक क्षेत्रमें ही नहीं किन्तु आध्यात्मिक क्षेत्र इन्हीं शब्दोंमें श्रारापित की हुई भावना तथा उपासना तकमें त्वगबन्ध नवीन भावना प्रकाशमें भाती जानी लो। इतना ही नहीं किन्तु भगवान महावीर और बद्ध हैं। एक तरफ भावनाओंको विचारकी कमौटी पर के उपदेशमें स्पष्टरूपसं तैरती ब्राह्मण, तप, कर्म, वर्ण चढ़ाये विना स्वीकार करने वाला मन्द बुद्धि वर्ग होता वगैरह शब्दोंके पीछेकी भावना और इन्हीं शब्दोंक है, तब दूसरी तरफ इन भावनाओं का विना विचार पीछे रही हुई वेदकालीन भावनाओं को लेकर दोनोंकी फेंक देन या खाटी कहनं जैमी जग्ठ बुद्धि वाला वर्ग तुलना करा; फिर गीतामें स्पष्ट रूपमं दिखाई देती हुई भी कोई छोटा या अनस्तित्वरूप नहीं । इन संयोगों में यज्ञ, कर्म, संन्यास, प्रवृत्ति, निवृत्ति, योग, भोग वगैरह क्या होना चाहिये और क्या हुआ है, यह सममानके शब्दोंके पीछे रही हुई भावनाओं को वेदकालीन और लिय उपरकी चार बान चर्चित की गई हैं। सर्जक उपनिषदकालीन इन्हीं शब्दोंके पीछे नही हुई भाव- और रक्षक मनुष्य जातिक नैसर्गिक फल हैं। इननाओंके साथ था इस युगमें दिखाई पड़ती इन शब्दों के अस्तित्वको प्रकृति भी नहीं मिटा सकता । नवीनपर आरोपित भावनाओं के साथ तुलना करो तो पिछलं प्राचीनका द्वंद्व मत्यक आविर्भाव और उस टिकान पाँच हजार वर्षों में आर्य लोगोंके मानसमें कितना ( स्थिर सम्बन) का अनिवार्य अंग है। अतः इससे भी फेर पड़ा है यह स्पष्ट मालूम पड़ेगा । यह फेर कुछ मत्यप्रिय घबराता नहीं । शास्त्र क्या ? और ऐसा एकाएक नहीं पड़ा, या विना बाबा और विना विरोध शास्त्र कौन? ये दो विशेष बातें दृष्टिकं विकास के लिए के विकासक्रममें स्थानको प्राप्त नहीं हुआ, बल्कि अथवा ऐसा कहा कि नवीन प्राचीनकी टकर के दधिइस फेरके पड़नमें जैसे समय लगा है वैसे इन फेरवाल मंथनमेंस अपन श्राप निर श्रानं वाले मक्खनको पहपटलोंको स्थान प्राप्त करने में बहुत टकर भी सहनी चाननकी शक्ति विसकित करने लिय बर्षित की गई पड़ी है। नये विचारक और सर्जक अपनी भावनाके हैं। ये चार खास बातें तो वर्तमान यगकी विचारहथोड़ेसे प्राचीन शब्दोंकी एरण ( निहाई ) पर णाओं और भावनाओंको समझने के लिये मात्र प्रस्ता Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४४ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ११, १२ वना है । तब अब थोड़ेमें देखिये और वह भी जैन रचकर जैनशास्त्रमें विकास करना ? अथवा इन विसमाजको लेकर विचार कीजिये कि उसके सामने चारोंको स्वीकार करनेकी अपेक्षा जैनसमाजके अस्तिआज कौन कौन राजकीय, सामाजिक और त्वका नाश क्रीमती गिनना ? आध्यात्मिक समस्याएँ खड़ी हुई है और उनका हल ३ मोक्षके पन्थ पर पड़ी हुई गुरुसंस्था सम्यक् (समाधान)शक्य है कि नहीं? और शक्य हो तो किस प्रकार गम अर्थात् मार्गदर्शक होनेके बदले यदि अनप्रकार शक्य है ? गामियोंको गुरु-बोझ-रूप होती हो, और यह गुरु१ मात्र कुलपरम्परास कहे जाने वाले जैनके संस्था सुभमचक्रवर्तीकी पालकीके साथ उसको उठाने लिये नहीं किन्तु जिसमें जैनपना गणसं थोड़ा बहुत वाले श्रावकरूप देवोंको भी डबानेकी दशाको पहुँच गई आया हो उसके लिये सीधा प्रश्न यह है कि वह मनुष्य हो तो क्या इन देवोंको पालकी फेंककर खिसक जाना राष्ट्रीय क्षेत्र और गजकीय प्रकरणमें भाग ले या नहीं या पालकीके साथ डब जाना अथवा पालकी और और ले तो किस गतिसे ले ? क्योंकि उस मनुष्यको अपनेको तार ऐसा कोई मार्ग शोधकर ग्रहण करना? फिर राष्ट्र क्या ? और गजकीय प्रकरण क्या ? राष्ट्र यदि ऐमा मार्ग सझे ही नहीं तो क्या करना ? और और राजप्रकरण तो म्वार्थ तथा संकुचित भावनाका सझे तो वह प्राचीन जैन शास्त्रमें है कि नहीं अथवा फल है और सच्चा जैनत्व इसके पारकी वस्तु है। अर्थात् आज तक किसीके द्वारा वह अवलम्बित हुआ है कि जो गुणसे जैन हो वह राष्ट्रीय कार्य और राजकीय नहीं ? यह देग्वना । आन्दोलनमें पड़े या नहीं? यह इस समयके जैनसमा- ४ धंधा सम्बंधी प्रश्न यह होता है कि कौन कौन जका पेचीदा मवाल है-गढ़ प्रश्न है। धंध जैनत्व के साथ ठीक सम्बंध रखते हैं और कौन • २ विवाहप्रथासे सम्बन्ध रखने वाली रूढियों, कौन जैनत्वके घातक बनते हैं ? क्या खेनीवाड़ी, जातपातसे सम्बन्ध रखने वाली प्रथाश्री और धंधे- लुहारी, सुतारी (बढईगिरी) और चमड़े सम्बंधी काम, उद्योगके पीछे रही हुई मान्यताओं तथास्त्री-पापजाति अनाजका व्यापार, जहाजगनी, सिपाहीगिरी साँचेका के बीच के सम्बन्धी विषयमें आज कल जो विचार काम वगैरह जैनत्व के बाधक हैं ? और जवाहिरात, बलपूर्वक उदयको प्राप्त हो रहे हैं और चारों तरफ घर कपड़ा, दलाली, सट्टा, मिलमालिकी,व्याजबट्टा आदि कर रहे हैं उनको जैन शास्त्रमें श्राश्रय है कि नहीं, धंधे जैनत्व के बाधक नहीं या कम बाधक हैं ? अथवा सच्चे जैनत्वके साथ उन नये विचारोका मेल है ऊपर दिये हुए चार प्रश्न तो ऐसे अनेक प्रश्नोंकी कि नहीं या प्राचीन विचारोंके साथ ही सच्चे जैनत्वका वानगी (नमूना) मात्र हैं। इससे इन प्रश्नोंका जो सम्बन्ध है ? यदि नये विचाराको शास्त्रका आश्रय न उत्तर यहाँ विचार किया जाता है वह यदि तर्क और हो और उन विचारोंके विना जीना समाजके लिये विचारशुद्ध हो तो दूसरे प्रश्नोंको भी सुगमतासे लाग अशक्य दिखलाई देता हो तो अब क्या करना ? क्या हो सकेगा । ऐसे प्रश्न खड़े होते हैं वे कुछ भाज ही इन विचारोंको प्राचीन शास्त्र रूपी बुढी गायके स्तनों होते हैं ऐसा कोई न समझे । कमती बढती प्रमाणमें मेंसे जैसे तैसे दुहना ? या इन विचारोंका नया शास्त्र और एक अथवा दूसरो रीतिमे ऐसे प्रश्न खड़े हुए Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] शास्त्र मर्यादा ६४५ हमारे जैन शास्त्रके इतिहासमें में अवश्य मिल सकते बनाता है। इसी बातको दूसरी रीतिसे कहिये तो ऐसा है। जहाँ तक मैं समझता हूँ वहाँ तक ऐसे प्रश्न उत्पन्न कहना चाहिये कि जीवनकी तृष्णाका प्रभाव और होनंका और उनका समाधान न मिलने । मुख्य का- एकदेशीय दृष्टिका प्रभाष यही समा जैनत्व है । सरण जैनत्व और उसके विकासक्रमके इतिहासविष• बाजैनत्व और जैनसमाज इन दोके बीच जमीन भा. यक हमारे प्रधानमें रहा हुआ है। समानका अन्तर है । जिसने सच्चा जैनस्व पूर्णरूपसे जीवनमें सथे जैनत्वका तेज कुछ भी न हो, मात्र अथवा थोडे-बहुत प्रमाणमें साधा हो वैसी व्यक्तियों परम्परागत वेश, भाषा और टीका-टणमणका जैनत्व का समाज बैंधता ही नहीं भौर बंधे भी तो उसका जाने अनजाने जीवन पर लदा हुआ हो और अधि- मार्ग ऐमा निराला होता है कि उसमें झंझटें खड़ी कांशमें वस्तुस्थिति समझने जितनी बुद्धिशक्ति भीनहो होती ही नहीं और होंभी तो शीघ्र ही उनका निराकरण तब ऊपर दिये हुए प्रश्नोका समाधान नहीं बनता। हो जाता है। इसी तरह जीवनमें थोड़ा बहुत सचा जैनत्व उद्धृत जैनत्वको साधने वाले और सोही जैनस्वकी हुआ हो तो भी विरासतमें मिले चालू क्षेत्रके अतिरि- उम्मीदवारी करने वाले जो गिनेगिनाये हर एक कालमें क्त दूसरे विशाल तथा नये नये क्षेत्रोमें खड़ी होती होते हैं वे तो जैन है ही । और ऐसे जैनोंके शिष्य पहेलियोको बझने की तथा वास्तविक जैनत्वकी चाबी या पत्र जिनमें सच्चे जैनत्वकी उम्मीदवारी मले प्रकार लगा कर उलझन के तालोको खोलनेजितनी प्रज्ञा न ही होतो ही नहीं बल्कि मात्र सच्चे जैनत्व के साधकों और तबभी इन प्रश्नोकाममाधान नहीं बनता। इससे जरूरत उम्मीदवारों के धारण किये हुए रीतिरिवाज या पाली इस बातकी है कि सच्चा जैनत्व क्या है ? इसे समझ हई स्थलमर्यादाएं जिनमें होती है वे मब जैनसमाजक कर जीवन में उतारना और सभी क्षेत्रोमें खड़ी होने अंग है । गुण-जैनोंका व्यवहार प्रान्तरिक विकासके वाली मुश्किल (कठिनाई) को हल करनेके लिये जैन- अनमार घड़ा जाता है और उनके व्यवहार तथा प्रा. त्वका किस किस रीतिसे उपयोग करना इमकी प्र- न्तरिक विकामके बीच विसंवाद नहीं होता; जबकि झा बढ़ानी। मामाजिक जैनों का इसमें उलटा होता है। इनका नाम अब हमें देखना चाहिये कि सबा जैनब क्या? व्यवहार तो गुगा-जैनोंकी व्यवहारविगमतमेंसे ही और उसके ज्ञान तथा प्रयोगद्वारा ऊपरके प्रश्नोका उतरकर पाया हुआ होता है परन्तु प्रान्तरिक विकासका अविरोधी समाधान किस गनिस हो सकता है ? सथा छींटा भी नहीं होना-वेता जगतकं दूमरे मनुष्यो जैनत्व है ममभाव और सन्यष्टि जिनका जैनशास्त्र जैसे ही भोगतृष्णा वाले तथा मंकीर्ण दृष्टि वाले होने क्रमशः अहिसा तथा अनेकान्तदृष्टि के नामसे परि- हैं।एकतरफान्तरि फजीवनका विकास जग भी न हो चय कराता है। अहिंसा और अनेकान्तदृष्टि ये दोनों और दूसरी तरफ वैमी विकामवाली व्यक्तियोंमें पाये आध्यात्मिक जीवन के दो पंख (पर) हैं अथवा जाने वाले पाचारणांकी नकल हा नब यह नकल दो प्राणपद फेफड़े हैं । एक भाषारको उम्बल विसंवादका रूपधारण करती है नथा १८ पद पर कठिकरता है तब दूसरा को शुद्ध और विशाल नाश्या खड़ी करती है । गण-जैनस्वकी साधना के लिये Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४६ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ११, १२ भगवान महावीर या उनके सच्चे शिष्योंने वनवास और परिस्थिति के अनुसार राष्ट्रीय अस्मिता (अहंकृति)स्वीकार किया हो, नग्नत्व धारण किया हो, गुफा पसं- जैसी कोई वस्तु ही न थी ? क्या उस वक्त के राज्यप की हो, घर तथा परिवारका त्याग किया हो, धन- कर्ता मात्र वीतराग दृष्टि से और 'वसुधैव कुटुम्बकम्' सम्पत्तिकी तरफ बैपर्वाही दिखलाई हो, ये सब प्रान्त- की भावनासे राज्य करते थे ? यदि इन सब प्रश्नोंका रिक विकासमें से उत्पन्न होकर जरा भी विरुद्ध मालुम उत्तर यही हो कि जैसे साधारण कुटुम्बी गृहस्थ जैनहीं होते । परन्तु गले तक भोगतष्णामें डबे हुए तथा नत्व धारण करने के साथ अपने साधारण गृहव्यवसच्चे जैनत्वकी साधनाके लिये जरा भी सहनशीलत हार चला सकता है तो प्रतिष्ठित तथा वैभवशाली भरखनेवाले तथा उदारदृष्टि-रहित मनुष्य जब घरबार गृहस्थ भी इसी प्रकार जैनत्वके साथ अपनी प्रतिष्ठाको छोर जंगल में दौड़ें, गुफावास स्वीकार करें, मा-बाप सँभाल सकता है और इसी न्यायसे राजा तथा राजया आश्रितोंकी जवाबदारी फेंक दें तब तो उनका कर्मचारी भी अपने कार्यक्षेत्रमें रहते हुए सचा जैनत्व, जीवन विसंवादी होवे ही और पीछे बदलते हुए नये पाल सकते हैं, तब आजकी राजप्रकरणी समस्या 'सयोगीकै साथं नया जीवन घडनकी प्रशक्तिके (लीक- का उत्तर भी यही है । अर्थात् राष्ट्रीयता और राजवृत्तिके) कारण उनके जीवनमें विरोध मालम पड़े, यह प्रकरण के साथ साचे जैनत्व का ( यदि हृदयमें प्रकटा स्पष्ट है।' :...- - - हो तो) कुछ भी विरोध नहीं । निःसन्देह यहाँ त्यागी ' 'सष्ट्रीय क्षेत्र और राजप्रकरणमें जैनोंके भाग लेने वर्गमें गिने जाने वाले जैनकी बात विचारनी बाकी मान लेने विषयक पहले प्रश्न के सम्बन्धमें जानना रहती है । त्यागीवर्गका राष्ट्रीय क्षेत्र और राजप्रकरण माहिये कि जैनत्वं त्यागी और गृहस्थ ऐसे दो वर्गों में के साथ सम्बंध घटित नहीं हो सकता ऐसी कल्पना विभाजित है । गृहस्थ जैनत्व यदि राजकर्ताओं तथा उत्पन्न होनेका कारण यह है कि राष्ट्रीय प्रवृत्तिमें शु राज्यकै मन्त्री, सनाधिपति वगैरह अमलदारोंमें खुद द्धत्व जैसा तस्व ही नहीं और राजप्रकरण भी सम*भगवान महावीर के समयमें ही उत्पन्न हुआ था और ‘भाव-वाला हो नहीं सकता ऐसी मान्यता रूढ हो गई उसके बारके २३०० वर्ष तक राजाओं तथा राज्यके है। परन्तु अनुभव हमको बतलाता है कि सभी हकीमुख्य अंमलदारों ( कर्मचारियों) में जैनत्व लानका क्रत ( यथार्थ वस्तुस्थिति ) ऐसी नहीं। यदि प्रवृत्ति 'अथवा चले आते जैनत्वको स्थिर रखनका भगीरथ करनेवाला स्वयं शुद्ध है वह हरेक जगह शुद्धिको ला प्रयत्न जैनाचार्यों ने किया था तो फिर आज राष्ट्रीयता सकता तथा सुरक्षित रख सकता है और यदि वह खुद 'और जैनत्वके मध्यमें विरोध किस लिये दिखाई देता ही शुद्ध न हो तो त्यागीवर्गमें रहतेहुए भी सदा मैल तथा है ? क्या ये पुराने जमानेके राजा, राजकर्मचारी भ्रमणामें पड़ा रहता है । हमारे त्यागी माने जानेवाले और उमका राजप्रकरण यह सब कुछ मनुष्यातीत जैनोंको खटपट, प्रपंच और अशुद्धिमें लिपटा हुआ 'या लोकोत्तर भूमि का था ? क्या उसमें राजखटपट, क्या नहीं देखते ? यदि तटस्थ जैसे बड़े त्यागी वर्ग में 'प्रपंच, या वासनाओंको जरा भी स्थान नहीं था या एकाध व्यक्ति सचमुच जैन मिलनेका संभव हो तो उस बचके राजप्रकरणमें उस वक्तकी भावना आधुनिक राष्ट्रीय प्रवृत्ति और राजकीय क्षेत्र में बने Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] शास्त्र मर्यादा वाले बड़े वर्गमें उससे अधिक श्रेष्ट गुणजेनत्वको योग्य जान पड़ा था वह तो एकान्तिक त्याग ही था, धारण करने वाली अनेक व्यक्तियों क्या नहीं मिलती? परन्तु ऐसे त्यागके इच्छुकों तक सब एकाएक ऐसी जो जन्मसे भी जैन हैं । फिर त्यागी माने जानेवाले भूमिका पर पहुँच नहीं सकते। इस लोकमानससे जैनवर्गमें भी राष्ट्रीयता और राजकीय क्षेत्रमें समयो- भगवान अनभिज्ञ न थे, इसी लिये वे उम्मीदवार के चित भाग लेने के उदाहरण जैन साधुसंघके इतिहासमें कमती या बढ़ती त्यागमें सम्मत होकर "मा पहिक्या कमती हैं ? फेर हो तो वह इतना ही है कि उस बंधकुणह"- 'विलम्ब मत कर' ऐसा कह कर वक्तकी भाग लेनेकी प्रवृत्तिमें साम्प्रदायिक भावना सम्मत होते गये । और बाकी की भोगवृत्ति तथा और नैतिक भावना साथ ही काम करती थीं; जब कि सामाजिक मर्यादाओंका नियमन करने वाले शाख आज साम्प्रदायिक भावना जरा भी कार्यसाधक या उस वक्त भी थे और आगे भी रचे जायेंगे । 'स्मृति' उपयोगी हो सके ऐसा नहीं। इससे यदि नैतिक भावना जैसे लौकिक शास्त्र लोग आज तक घड़ते पाए हैं और अर्पण वृत्ति हृदयमें हो (जिसका शुद्ध जैनत्वके और आगे भी घड़ेंगे। देश-कालानसार लोग अपनी साथ संपूर्ण मेल है ) तो गृहस्थ या त्यागी किसी भी भोगमर्यादाके लिये नये नियम-नये व्यवहार घड़ेंगे, जैनको, जैनत्वको जरा भी बाधा न पाए तथा उलटा पुरानोमें फेरफार करेंगे और बहुतोंको फेंक भी देंगे। अधिक पोषण मिले इस रीतिसे, काम करनेका राष्ट्रीय इन लौकिक स्मृतियोमें भगवान पड़े ही नहीं । भगवान तथा राजकीय क्षेत्रमें पूर्ण अवकाश है । घर तथा का ध्रुव सिद्धान्त त्यागका है । लौकिक नियमोंका व्यापारके क्षेत्रकी अपेक्षा राष्ट्र और राजकीयक्षेत्र बड़ा चक्र उसके आस-पास उत्पाद व्ययकी तरह ध्रुव है, यह बात ठीक; परन्तु विश्वकी साथ अपना मेल सिद्धान्तको बाधा न पाए ऐसी रीतिसे फिरा करे, होनेका दावा करने वाले जैनधर्मके लिये तो राष्ट्र और इतना ही देखना रहता है । इसी कारणसे जब कुलराजकीय क्षेत्र यह भी एक घर-जैसा ही छोटासा क्षेत्र धर्म पालनेवालेके तौर पर जैनसमाज व्यवस्थित हुमा है। उलटा आज तो इस क्षेत्रमें ऐसे कार्य शामिल हो और फैलता गया तब उसने लौकिक नियमोंवाले गये हैं जिनका अधिकसे अधिक मेल जैनत्व (समभाव भोग और सामाजिक मर्यादाका प्रतिपादन करने वाले और सत्यदृष्टि ) के साथ ही है। मुख्य बात तो यह अनेक शास्त्र रचे। जिस न्यायने भगवान के पीछे हजार है कि किसी कार्य अथवा क्षेत्रकं साथ जैनत्वका ता. वर्षों में समाजको जीना रक्खा वही न्याय समाजको दात्म्य संबंध नहीं । कार्य और क्षेत्र तो चाहे जो हो जीता रहने के लिये हाथ ऊँचा करके कहना है कि 'तु परंतु यदि जैनत्व की दृष्टि रखकर उसमें प्रवृत्ति होतो सावधान हो, अपने निकट विस्तारको प्राप्त हुई परिवह सब शुद्ध ही होगा। स्थितिको देख और फिर समयानुसारिणी स्मतियाँ दूसरा प्रश्न विवाह-प्रथा और जातपाँस आदिक रच । तू इतना ध्यानमें रखना कि त्याग ही सबा लक्ष्य सम्बंध-विषयका है । इस विषय में जानना चाहिये कि है परंतु साथमें यह भी ध्यानमें रखना कि त्यागजैनत्वका प्रस्थान एकान्त ,त्यागवृत्तिमेंसे हुआ है। विना त्यागका ढींगत करंगा तो जरूर मरंमा । और भगवान महावीरको जो कुछ अपनी साधना से देने अपनी भोगमर्यादाको अनुकूल पड़े ऐसी रीतिसे Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४८ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ११, १२ सामाजिक जीवनकी घटना करना; मात्र स्त्रीत्वके का- यह भी व्यवहारकी अनुकूलताका ही प्रश्न होने से उसके रण या पुरुषत्वके कारण एककी भोगवत्ति अधिक है विधान नये सिरेसे ही करने पड़ेंगे । इस विषयमें और दूसरेकी भोगवृत्त कम है अथवा एकको अपनी प्राचीन शास्त्रों का आधार शोधन' ही हो तो जैनसावृत्तियाँ तप्त करनेका चाहे जिस रीतिस हक्क है और हित्यमेंसे मिल सके ऐसा है; परन्तु इस शोधकी मेहनत दूसरेको वृत्तियों भाग बननेका जन्मसिद्ध हक है, ऐसा करनेकी अपेक्षा "ध्रव जैनत्व" समभाव और सत्यष्टि कभी न मानना। कायम रखकर उसके ऊपर व्यवहारके अनुकूल पड़े ___समाजधर्म समाजको यहभी कहताहैकि सामाजिक ऐसी रीतिसं जैनसमाजको जीवन अर्पण करनेवाली स्मृतियाँ सदा काल एक जैसी होती ही नहीं । त्यागके लौकिक स्मतियाँ रच लेनेमें ही अधिक श्रेय है। अनन्य पक्षपाती गुरुश्राने भी जैनसमाजको बचानेके गरुसंस्थाको रखने या फेंक देनके प्रश्न-विषयमें लिये अथवा उस वक्तकी परिस्थितिके वश होकर कहना यह है कि आज तक बहुत बार गुरुसंस्था फेंक पाश्चर्य प्रदान करें ऐस भोगमर्यादा वाले विधान किये दी गई है और तो भी वह खड़ी है । पार्श्वनाथ के हैं। वर्तमानकी नई जैन स्मृतियोंमें ६४ हजार या ९६ पश्चान्मे विकृत होने वाली परम्पराको महावीरनं फेंक हजार तो क्या, बल्कि एक साथ दो स्त्रियां रखने वा- दिया इससे कुछ गमसंस्थाका अन्त नहीं पाया । चैत्यलेकी प्रतिष्ठाका प्रकरणभी नाशको प्राप्त होगा तब ही वामी गये परन्तु समाजन दूसरी संस्था माँग ही ली। जैनसमाज सम्मानित धर्मसमाजोमें मुँह दिखा सके- जतियोंके दिन पूरे होते गये उधर संवेगी साधु खड़े ही गा। आजकलकी नई स्मतिके प्रकरणमें एक साथ संस्थाको फेंक देना इसका अर्थ यह नहीं कि पाच पति रखने वाली द्रौपदोंके सतीत्वकी प्रतिष्ठा नहीं मचे ज्ञान और सचे त्यागका फेंक देना । सबा ज्ञान हो तो भी प्रामाणिकरूपमं पुनर्विवाह करने वाली और मचा त्याग यह ऐमी वस्तु है कि उसको प्रलय स्त्रीके सतीत्वकी प्रतिष्ठाको दर्ज कियेही छुटकाग है। भी नष्ट नहीं कर सकता, तब गुरुसस्थाको फेंक देनका भाजकलको स्मृतिमें चालीस वर्षमे अधिकी उम्रवाले अर्थ क्या? इसका अर्थ इतना ही है कि आजकल जो व्यक्तिका कुमारी कन्याके साथ विवाह बलात्कार या अज्ञान गमोंके कारण पुष्ट होता है, जिस विक्षेपसे व्यभिचार ही दर्ज किया जायगा । एक स्त्रीकी मौज- समाज शोषित होता है उस अज्ञान तथा विक्षेपसे दगीमें दूसरी स्त्री करने वाले अाजकल की जैनस्मृतिम बचने के लिये ममाजको गुमसंस्थाकं माथ असहकार स्त्रीघातकी गिने जायेंगे; क्योकि आज नैनिक भावनाका करना । इम असहकारके अग्नितापके समय सच्चे गुरु बल जो चारों तरफ फैल रहा है उसकी अवगणना ती कुन्दन जैसे होकर आगे निकल आयेंगे, जो मैले करके जैनसमाज सबके बीच मानपूर्वक रह ही नहीं होगे वे या तो शुद्ध हो कर आगे आयेंगे और या जल सकता । जातपातकं बन्धन कठोर करने या ढीले करने कर भस्म हो जायंगे; परन्तु आजकल समाजको जिस प्रकारके ज्ञान और त्या * ताम्बर समाजमें हियों की तरह दीपीके पांच पति। माने गये हैं, उमीको लक्ष्य करके यह कथन जान पाता है। (सेवा लेनवाले नहीं किन्तु संवा देनेवाले मार्गदर्श -सम्पादक कोंकी जरूरत है ) उस प्रकारके शान और त्यागवाले Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्र मर्यादा ६४९ विविध वाहनोंकी मर्यादित भोगतृष्णा रखने वाले भगवान् के मुख्य उपासक अन्न, वस्त्र वगैरह सभी उत्पन्न करते और उनका व्यापार करते थे। जो मनुष्य दूसरेकी कन्याको विवाह कर घर रक्खे और अपनी कन्या दूसरेको विवाह में धर्मनाश देखे वह मनुष्य या तो मूर्ख होना चाहिये और या चतुर हो तो जैनसमाज में प्रतिष्ठित स्थान भोगने वाला नहीं होना चाहिये । जो मनुष्य कोयला, लकड़ी, चमड़ा और यंत्रोंका थोक उपयोग करे वह मनुष्य प्रकट रूपसे यदि वेसे व्यापारका त्याग करता होगा तो इसका अर्थ यही है कि वह दूसरोंके पास वैसे व्यापार कराता है । करने में ही अधिक दोष है और कराने में तथा सम्मति देने में कम दोष है ऐसा कुछ एकान्तिक कथन जैन शास्त्र में नहीं। अनेक बार करने की अपेक्षा कराने तथा सम्मति देने में अधिक दोष होने का संभव जैनशास्त्र मानता है । जो बौद्ध मांसका धंधा करनेमें पाप मान कर वैसा धंधा खुद न करते हुए मांसके मात्र भोजनको निष्पाप मानते हैं उन बौद्धों यदि जैनशास्त्र ऐसा कहता हो कि " 'तुम भले ही धंधा न करो परन्तु तुम्हारे द्वारा उपयोग में आते हुए मांसको तय्यार करने वाले लोगों के पापमें तुम भागीदार हो ही," तो क्या वेही निष्पक्ष जैनशास्त्र केवल कुलधर्म होने के कारण जैनोंका यह बात कहते हुए हिचकेंगे ? नहीं, कभी नहीं। वे लो खुल्लमखुल्ला कहेंगे कि यातां भांग्य चीजांका त्याग करी और त्याग न करो तो जैसे उनके उत्पन्न करने और उनके व्यापार करनेमें पाप समझते हो वैसे दूसरों द्वारा तय्यार हुई और दूसरोंके द्वारा पूरी की जाती उन चीज़ो के भांग में भी उतना ही पाप समझो। जैनशास्त्र तुमको अपनी मर्यादा बतलाएगा कि दोष या पापका सम्बन्ध भांगवृत्ति के साथ है। मात्र चीजोंके सम्बंध के साथ नहीं। जिस ज्रमाने (काल) में मजदूरी ही रोटी है. ऐसा सूत्र जगद्व्यापी होता होगा उस जमाने में समाज की अनिवार्य जरूरियात वाला मनुष्य अन्न, वस्त्र, रस, मकान, आदिको खुद उत्पन्न करनेमें और उनका खुद धंधा करनेमें दोष मानने वालेकां या तो अविचारी मानेगा या धर्ममूद । अश्विन, कार्तिक, वीरनि० सं०२४५६] 6 गुरु उत्पन्न करने के लिये उनकी विकृत गुरुत्ववाली संस्था के साथ आज नहीं तो कल समाजको असहकार किये ही छुटकारा है। हाँ, गुरुसंस्था में यदि कोई एकाध माईका लाल सच्चा गुरु जीवित होगा तो ऐसे कठोर प्रयोग के पहले ही गुरुसंस्थाको बर्बादी से बचा लेगा । जो व्यक्ति अन्तरराष्ट्रीय शान्तिपरिषद-जैसी परिषदों में उपस्थित हो कर जगतका समाधान हो सके ऐसी रीति से हिंसाका तत्व समझा सकेगा, अथवा अपने हिंसाबल पर वैसी परिषदोंके हिमायतियोंको अपने उपाश्रय में आकर्षित कर सकेगा वही इस समय पीछे सच्चा जैनगुरु बन सकेगा । इस समयका एक साधारण जगत प्रथमकी अल्पता में से मुक्त हो कर विशालता में जाता है, वह कोई जातपाँत, सम्प्रदाय, परम्परा, वेप या भापाकी स्नास पर्वाह किये बिना ही मात्र शुद्धज्ञान और शुद्ध त्यागका मार्ग देखता हुआ खड़ा है। इससे यदि वर्तमानकी गुरुसंस्था हमारी शक्तिवर्धक होने के बदल शक्तिबाधक ही होती हो तो उसकी और जैन समाजकी भलाई के लिये पहलेसे पहले अवसर पर समझदार मनुष्यको उसकी साथ असहकार करना यही एक मार्ग रहता है । यदि ऐसा मार्ग पकड़नेकी परवानगी जैनशास्त्र मेसे ही प्राप्त करनी हो तो भी वह सुलभ है। गुलामी वृत्ति नवीन रचती नहीं और प्राचीन को सुधारती या फेंकती नहीं । इस वृत्ति के साथ भय और लालच की सेना होती है। जिसे मद्गुणों की प्रतिष्ठा करनी होती है उसे गुलामी वृत्तिका बरक़ा फेंक करके भी प्रेम तथा नम्रता कायम रखते हुए ही विचार करना उचित मालूम होता है। -विषयक अन्तिम प्रश्नके सम्बंध मे जैनशास्त्र - की मर्यादा बहुत ही संक्षिम तथा स्पर्शरूप होते हुए भी सच्चा खुलासा करती है और वह यह कि जिस चीज का धंधा धर्मविरुद्ध या नीतिविरुद्ध हो तो उस चीज़ का उपभोग भी धर्म और नीतिविरुद्ध है। जैसे मांस और मद्य जैन परम्परा के लिये वर्ज्य बतलाये गये हैं तो उनका व्यापार भी उतना ही निषेधपात्र है । अमुक वस्तुका व्यापार समाज न करे तो उसे उसका उपभोग भी छोड़ देना चाहिये । इसी कारण से अन्न, वस्त्र और Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० अनेकान्त वर्ष १, किरण ११, १२ उपसंहार श्रद्धा तथा मिथ्यात्वादिका आरोप लगा सकते हैं और धारणाकी अपेक्षा शास्त्रमर्यादाका लेख अधिक ऐसा होना बहुत कुछ स्वाभाविक है। क्योंकि चिरकालम्बा हो गया है परन्तु मुझे जब स्पष्ट मालूम पड़ा कि लीन संस्कार किसी भी नई बातके सामने आनेपर उसे इसके संक्षेपमें अस्पष्टता रहेगी इससे थोड़ा लम्बा फेंका करते हैं-भले ही वह बात कितनी ही अच्छी करनेकी जरूरत पड़ी है । इस लेख में मैंने शास्त्रोंके क्यों न हो । जो लोग वर्तमान जैनशास्त्रोंको सर्वज्ञकी आधार जान कर ही उद्धृत नहीं किये; क्योंकि किसी वाणीद्वारा भरे हुए रिकाडौं-जैसा समझते हैं और भी विषयसम्बंधमें अनुकुल और प्रतिकूल दोनों प्रका- उनकी सभी बातोंका त्रिकालाबाधित अटल सत्य-जैसी रके शास्त्रवाक्य मिल सकते हैं। अथवा एक ही मानते हैं उनके सामने यह लेख एक भिन्न ही प्रकार वाक्यमेंसे दो विरोधी अर्थ घटित किये जा सकते हैं। का विचार प्रस्तुत करता है और इस लिये इससे उस मैंने सामान्य तौर पर बुद्धिगम्य हो ऐमा ही प्रस्तुत प्रकारके श्रद्धालु जगतमें हलचलका पैदा होना कोई करनेका प्रयत्न किया है तो भी मुझे जो कुछ अल्प- अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता। जिस माधुसंस्था स्वल्प जैनशास्त्रका परिचय हुआ है, और वर्तमान पर, उसके सुधारकी दृष्टि से, लेखमें भारी आक्रमण समयका अनुभव मिला है उन दोनोंकी एक वाक्यता किया गया है उसके कुछ कर्णधार अथवावेव्यक्ति तो, मनमें रखकर ही ऊपर की चर्चा की है। फिर भी मेरे जिनके स्वार्थमें इस लेखक विचारोंसे बाधा पड़ती है, इस विचारको विचारनेकी और उसमें से निरर्थकको और भी अधिक रोष धारण कर सकते हैं और अपनी छोड़ देनकी सबको छूट है । जो मुझे मेरे विचारमें सत्ताको लेखकके विरुद्ध प्रयुक्त करनेका जघन्य प्रयत्न भूल समझाएगा वह वयमें तथा जातिमें चाहे जो भी कर सकते हैं। परन्तु जो विचारक हैं उनकी ऐसी होते हुए भी मेरे पादरका पात्र अवश्य होगा। प्रवृत्ति नहीं हो सकती। व धैर्यके साथ,शान्तिके साथ, सम्पादकीय नोट संस्कारोंका पर्दा उठा कर और अच्छा समय निकाल यह लेख लेखक महोदय के कोई दो-चार-दस वर्ष कर इसकी प्रत्येक बातको तोलेंगे, जाँच करेंगे और के ही नहीं किन्तु जीवनभर के अध्ययन, मनन और गंभीरताके साथ विचार करने पर जो बात उन्हें अनुअनुभवनका प्रतिफल जान पड़ता है। इससे आपके चित अथवा बाधित मालूम पड़ेगी उसके विरोधमें, हो अध्ययनकी विशालता तथा गहराईका ही पता नहीं सकेगा तो, कुछ युक्तिपुरस्सर लिखेंगे भी । लेखक चलता बल्कि इस बातका भी बहुत कुछ पता चल महोदयने, लेखके अन्तमें, खुद ही इस बातकं लिये जाता है कि आपकी दृष्टि कितनी विशाल है, विचार- इच्छा व्यक्त की है कि विद्वान् लोग उन्हें उनकी भूल स्वातंत्र्य तथा स्पष्टवादिताको लिये हुए निर्भीकताको सुझाएँ-जो सुझाएँगे वे अवश्य उनके आदरके पात्र आपने कहाँ तक अपनाया है और साम्प्रदायिक कट्टरता बनेंगे। वे विरोधसे डरने अथवा अप्रसन्न होने वाले केआप कितने विरोधी हैं। यह लेख आपके शास्त्रीय तमा नहीं हैं-उन्हें तो विरोधमें ही विकासका मार्ग नजर लौकिक दोनों प्रकारके अनुभवके साथ अनकान्तके आता है । अतः विद्वानोंको चाहिये कि वे इस विषय कितनेही रहस्यको लिये हुए है और इस लिये एक प्र. पर अथवा लेखमें प्रस्तुत किये हुए सभी प्रश्नों पर गकारका मार्मिक तथा विचारणीय लेख है। अभी तक हरा विचार करनेका परिश्रम उठाएँ । 'अनेकान्त' ऐसे इस प्रकारका लेख किसी दूसरे जैन विद्वानकी लेखनीसे सभी यक्तिपरस्सर लेखोंका अभिनन्दन करनेके लिये प्रसूत हुभा हो, मुझे मालूम नहीं । परन्तु यह सब तय्यार है जो इस विषय पर कुछ नया तथा गहरा कुछ होते हुए भी इस लेख में कुछ त्रुटियाँ न हों-कोई प्रकाश डालते हों। परन्तु उनमेंसे कोई भी लेख-मनुमान्ति न हो, यह नहीं कहा जा सकता। इसे पढ़कर कूल हो या प्रतिकूल-क्षोभ, कोप या साम्प्रदायिककितने ही लोग भड़क सकते हैं, चिट सकते हैं, अ. कट्टरताके प्रदर्शनको लिये हुए न होना चाहिये। Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] यदि चूरोपमें ऐसा पत्र प्रकाशित होता ६५१ यदि यूरोपमें ऐसा पत्र प्रकाशित होता श्रीमान बाब छोटेलालजी कलकत्ते के एक हो जाता है । जो'भनेकान्त' पत्र इतना उपयोगी प्रसिद्ध जैन रईस हैं, जिनकी फर्मका नाम है 'रामजीवन है और जिसे पढ़ते ही हृदयमें पूर्व गौरव जागत सरावगी ऐंड कम्पनी'।आपधनाढय होने के साथ विद्वान् हो उठता है उसे भी सहायताके लिये मैंह खोभी हैं और इतिहास-विषयमें अच्छी रुचि रखते हैं। लना पड़े-समाजके लिये इससे बढ़कर लज्जा जैनधर्म और जैनसमाजकी श्रापकं हृदय पर चोट है, की बात नहीं है । यदि युरोपमें ऐसा पत्र आप अपनी शक्तिभर प्रायः चुपचाप काम किया प्रकाशित होता तो न जाने यह संस्था कितनी करते हैं, और 'अनेकान्त' के उन पाठकोंमेसे एक हैं शताब्दियों के लिये भमर हो जाती । पर जो हो, जो उस पर्ण मनोयोगके साथ पढ़ते हैं । 'अनकान्त पर यह पत्र तो इसी समाज के लिये प्रकाशित करना है आपकी सम्मतिको पाठक ज्येष्ठ मामकी किरण में पढ़ और इसे जीवित रखने के लिये शक्तिभर उपाय करना चुके हैं। हालमें श्राश्रम तथा 'अनेकान्त' पत्रकी सहा- होगा। अपने समाजमें यह एक चालसी हो गई है कि यतार्थ जो कुछ प्रेरणात्मक पत्र समाज के प्रतिष्ठित पु. बिना किसीको कुछ कहे वह हाथ नहीं बढ़ाता हैरुषों और विद्वानोंको आश्रमसं भेजे गये थे उनमें एक यह रोग पढ़े लिखे लोगोंमें भी है । अस्तु; इसके लिये पत्र आपके भी नाम था । उसके उत्तरमें आपने अपने कुछ Propagandu (प्रचारकार्य) करना चाहिये। ता०७ अक्तबरके पत्रमें जो कुछ इस विषयमें लिखा है । मबसे प्रथम 'पत्र' की जीवनरक्षा करनी चाहिये और और जिस रूपमें अपना हार्दिक भाव व्यक्त किया है उसके लिये श्रापका क्या estimute ( तनमीना ) है वह समाजके जानने योग्य है । अनः उसे नीचे प्रकट सो लिखिये । पत्रके कुल ग्राहक कितने हैं, भामदनी किया जाता है । आशा है समाज इसके महत्वको स. कितनी है तथा वार्षिक व्यय-घाटा कितना है। यदि झेगा और उसके अग्रगण्य अपनी उस कर्तव्यको त्रटि पत्रका जीवन २, ३ वर्षों के लिये कंटकविहीन हो जाय महसूस करेंगे जिसके कारण ऐसी उपयोगी संस्थाको तब फिर अन्य कार्यों के लिये शक्ति व्यय की जाय । भी अपने जीवनके लाले पड़ रहे हैं। आप लिखते हैं:- कृपया पत्रोत्तर शीघ्र दीजियेगा तब मेरेस जो कुछ हो ___ "आपने लिखा कि मेरी ओरसे अभी तक प्रा- मकेगा प्रयत्न करूंगा।" श्रमको कुछ भी सहायता प्राप्त न हुई सो ठीक है । मैंने क्या ही अच्छा हो यदि दूसरे सजनोंके हदयमें आपको लिख दिया था कि मैं इसकी सहायताके लिए भी इस प्रकारके भाव उत्पन्न हों और वे सहयोगके सदा तैयार हूँ। किन्तु एक मनुष्य जो पहलेसे ही लदा लिये अपना हाथ बढ़ाएँ । समाजका भविष्य यदि हुआ है वह एक एक संस्थाकी कितनी सहायता कर अच्छा होगा तो जरूर दूसरों के हृदयमें भी इस प्रकार सकता है तो भी मैं, मेरेसे जहाँ तक हो सकेगा, शीघ्र के भाव उत्पन्न होंगे और फिर इस संस्थाके अमर कुछ सहायता प्रापकी सेवामें भेजेगा। होनेमें कुछ भी देर नहीं लगेगी। जैनसमाजका क्या होना है यह आपके पत्रसे स्पष्ट अधिष्ठाता 'समन्तभद्राश्रय Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ११, १२ वैद्य जी का वियोग! मुझे यह प्रकट करते हुए बड़ा ही दुःख होता है थे, कई भाषाएँ जानते थे, विद्वानोंसे मिल कर प्रसन्न कि मेरे मित्र देहलीके सुप्रसिद्ध राजवैध रसायनशास्त्री होते थे, नाना प्रकारकी पुस्तकोंको पढ़ने तथा संग्रह पं० शीवलप्रसादजी आज इस संसारमें नहीं हैं ! गत करनेका आपको शौक था, लेख भी आप कभी कभी ता०५ सितम्बर सन् १९३० को प्रातः काल के समय लिखा करते थे-जिसका कुछ रसास्वादन'अनकान्त' ६५ वर्षकी अवस्थामें आप अपने संपूर्ण कुटम्ब तथा के पाठक भी कर चुके हैं और कविता करने में भी इष्ट मित्रादिकको शोकातुर छोड़ कर स्वर्गलोकको सि- आपकी रुचि थी। कुछ महीनोसे 'जीवन-सुधा' नाम धार गये हैं !! आपके इस वियोगसे, निःसन्देह, जैन- का एक वैद्यविषयक मासिक पत्र भी आपने अपने समाजको ही नहीं किन्तु मानवसमाजको एक बहुत औषधालयसे निकालना प्रारंभ किया था, जो अभी बड़ी हानि पहुँची है और देहलीने अपना एक कुशल चल रहा है। जैनशास्त्रोका आपने बहुत कुछ अध्ययन चिकित्सक तथा सत्परामर्शक खो दिया है ! आपका किया था और उनके आधार पर वर्षों से आप 'अहेअनुभव वैद्यकमें ही नहीं किन्तु यूनानी हिकमतमें भी त्वचनवम्तुकोश' नामका एक कोश तय्यार कर बदा चढ़ा था, अंग्रेजी चिकित्सा-प्रणालीसे भी श्राप रहे थे । वस्तभोके संग्रहकी दृष्टिसं आप उसे परा कर अभिज्ञ थे, साथ ही आपके हाथको यश था, और इम चके थे परंतु फिर आपका विचार हुआ कि प्रत्येक लिये दूर दूरसं भी लोग आपके पास इलाजके लिये , वस्तुका कुछ स्वरूप भी साथ में हो तो यह कांश भाते थे । कई केस आपके द्वाग ऐसे अच्छे किये गये अधिक उपयोगी बन जावे । इससे आप पनः उसको हैं जिनमें डाक्टर लोग ऑपरेशनके लिये प्रस्तुत हो व्याख्यासहित लिख रहे थे कि दुर्दैवसं आपकी बाई गये थे अथवा उन्होंने उसकी अनिवार्य आवश्यकता हथेली में एक फोड़ा निकल आया, जिसने क्रमशः भपतलाई थी परन्तु आपने उन्हें बिना ऑपरेशनकही यंकर रूप धारण किया, करीब साढ़े तीन महीने तक बच्छा कर दिया । आतुरोक प्रति आपका व्यवहार तरह तरह के उपचार होते रहे, बड़े बड़े डाक्टरों तथा बड़ा ही सदय था, प्रकृति उदार थी और आप सदा सिविल सर्जनोके हाथमें उसका कंस रहा परन्तु भावी हँसमुख तथा प्रसन्न चित्त रहते थे। आपका स्वास्थ्य के सामने किसीसे भी कुछ न हो सका, अंतमें बेहोशी इस अवस्थामें भी ईर्षायोग्य जान पड़ता था। के ऑपरंशन द्वारा हाथको काटनकी नौबत आई और आपकी वृत्ति परोपकारमय थी, धर्मार्थ औषधि उसीमें एक समाह बाद आपके प्राणपखेरू उड़ गये !!! वितरण करनेका भी आपके औषधालयमें एक विभाग इस दुःख तथा शोकमें मैं आपके सुयोग्य पत्र वैद्य था। पाप धर्मके कामोंमें बराबर भाग लेते थे और पं० महावीरप्रसादजी त्रिपाठी और दूसरे कुटम्बी जनों समय समय पर धार्मिक संस्थाओंको दान भी देते रहते के प्रति अपनी हार्दिक सहानुभूति और समवेदना थे। पिछले दिनों समन्तभद्राश्रमको भी आपने १०१) प्रकट करता हूँ और भावना करता हूँ कि वैधजीको १० की सहायता अपनी ओरसे और ५०) रु० अपनी परलोकमें शान्तिकी प्राप्ति होवे। पुत्रवधूकी ओरसे प्रदान की थी। पाप पाश्रमके पा- ऑपरेशनको जानेसे पहले वैवजी दो हजार रुपये जीवन सदस्य थे, पाश्रमकी स्थापनामें भापका हाथ अपने उक्त कोशको प्रकाशित करके वितरण करनेके था और इस लिये आपके इस वियोगसे प्राममको भी लिये और पाँचसौ रुपये समाजकी धार्मिक संस्थानों भारी क्षति पहुँची है। को देने के लिये दान कर गये हैं। इसके सिवाय, माप विद्याव्यसनी तथा सुधारमिय -सम्पादक Page #634 --------------------------------------------------------------------------  Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय रसायन शास्त्री राजवैद्य श्री शीतलप्रसाद जैन रईस दहली Murari Art Press Delhi. Page #636 --------------------------------------------------------------------------  Page #637 --------------------------------------------------------------------------  Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाश्विन, कार्तिक, वीरनि सं०२४५६] श्राश्रमका स्थान परिवर्तन ६५३ अाश्रमका स्थान-परिवर्तन समन्तभद्राश्रमकी आर्थिक परिस्थिति, समाजके अ- १९३० को प्रबंधकारिणी समितिकी एक मीटिंग बलाई से सहयोग और स्थानीय भाइयोंकी भारी उपेक्षाको गई, जिसमें मंत्री, सहायक मंत्री और अधिष्ठाता थादेखते हुए, रायबहादुर साहू जगमंदरदासजी जैन श्रमके अतिरिक्त ला० मक्खनलालजी ठेकेदार (प्रधान रईसनजीबाबाद, कोषाध्यक्ष वीर-संवकसंघ'ने अाश्रम संघ ) और ला० सरदारीमलजी देहली ऐसे पाँच सके स्थान परिवर्तनका एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया। साहू दस्य उपस्थित हुए । बाब माईदयालजी बी.ए. सदस्य श्रेयांसप्रसादजीने उसका अनुमोदन तथा बाब भोला- तथा ला० जौहरीमलजी सर्गफ देहली भी मीटिंग नाथजी मंत्री और ला० पन्नालालजी सहायक मंत्रीने समय उपस्थित थे। आश्रमकी परिस्थिति और आगत उसका समर्थन किया। इस लिये प्रस्ताव छपाकर एक सम्मतियों पर विचार करते हुए प्रबन्धकारिणी सम्मति पत्रके साथ संघके सब सदस्योंके पास सम्मतिके वास्ते ने अपनी सर्वसम्मतिसे उक्त प्रस्तावको ज्योंका त्यों भेजा गया। २१ सदस्योंकी सम्मतियाँ और इसके पास किया। इस प्रकार यह प्रस्ताव संघके बहुमत और अनुकूल प्राप्त हुई, जिनके नाम इस प्रकार है :- प्रबन्धकारिणी ममितिकी सर्वसम्मतिसे पाम किया १ पंदेवकीनन्दनजी कारंजा, २ बा० माईदयाल- गया, जो इस प्रकार हैजी बी. ए. , ३ ब्रकुँवर दिग्विजयसिंहजी, ४ बा० प्रस्ताव चेतनदासजी बी.ए., ५ ला० ज्योतिप्रसादजी देवबन्द, ___ संस्थाके जिस विशेष लाभको लक्ष्यमें रख कर ६ मुनि कल्याणविजयजी, ६५० बेचरदासजी अहम दाबाद, ८ सेठ नमिवन्द बालचन्दजी उम्मानाबाद, ९ 'समन्तभद्राश्रम' के लिये देहलीका स्थान पसन्द किया पं०नाथरामजी प्रेमी, १० ब्रशीतलप्रसादजी,११ बा. गया था, वह देहलीक भाइयोंकी आम तौर पर इसमे जयभगवानजी वकील पानीपत, १२ बाबा भागीरथजी उदासीनता और उनके इतिहास, साहित्य तथा सिद्धान्त संवाक एस काममि कोई खास दिलचस्पी नलेनादिक वर्णी, १३ बा० अजितप्रसादजी एम. ए. १४ ला. कुन्थदासजी बाराबंकी, १५ बारामकिशनदासजी श्र० Me कारण पूरा नहीं हो सका और न इन हालों निकट. इंजिनियर अमरोहा, १६ ला० भूकनमरनजी अमरोहा, भविषयमें उसके पूरा होने की कोई आशा ही जान पढ़ती है। १७ बा० कन्हैयालाल जी जैसवाल बाँदीकुई, १८ मुंशी श्राश्रमका मकान जो अभीतक- वस्तुतः तो एक भंवरलालजी नई सगय, १९ ला० दलीपसिंहजी का सालके लिये-विना किसी किरायके था, अब उसके गजी देहली, २० पं० महावीरप्रसादजी देहली, २१ लिये चालीम रुपये मामिक किगयेकी माँग है और बा० उमरावसिंहजी देहली। सिर्फ एक सम्मति भाई मूलचन्द किशनदासजी खास देहली शहर में पाश्रमकी वर्तमान स्थितिके योग्य कापडियासूरतकी प्रतिकूल आई। और मदस्योंकी कोई मकान पचास-साठ रुपये मासिकस कम किराये पर नहीं मिल मकता । और इस अतिरिक्त खर्चको प्रासम्मति आई नहीं। श्रागत सम्मतियों पर विचार ' करके प्रस्तावका निर्धार करनेके लिये २६ अक्तूबर सन् श्रमकी वर्तमान आर्थिक स्थिति महन नहीं कर सकती, जो पहलेसे ही चिन्तित-दशामें है। * मीटिंग के बाद और भी कुछ सदस्योंको सम्मतियां प्रस्ताव जब कि बाहरसे भी ऐसी कोई खास सहायता के अनुकूल प्राप्त हुई हैं; जैसे वर्णी दीपचन्दनी, ५० छोटेलालजी पाश्रमको नहीं मिल रही है-- कहींसे कोई प्रोत्सामहमदाबाद, बा रामप्रसादजी सवग्रोवरसियर, एटा । हन या अभिवचन ही है-जिसके आधार पर उसे Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " (मंत्री) ६५४ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ११, १२ देहलीमें स्थिर रक्खा जा सके,देशकी वर्तमान अशान्त पुनः स्थानपरिवर्तन किया जा सकेगा। परिस्थिति तथा व्यापारादिकके मंदेने भी लोगोंकी प्रस्तावक-राय ब० साहू जगमन्दरदासजी, चित्तवृत्तिको ऐसे कामोंकी तरफसे हटा रक्खा है और नजीबाबाद (कोषाध्यक्ष) 'अनेकान्त' पत्रके प्रकाशनका जो महत्वपूर्ण कार्य इस अनुमोदक-साहू श्रेयांसप्रसादजी, नजीबाबाद समय आश्रमकी तरफसे हो रहा है वह दूसरे कम समर्थक १ बा भोलानाथजी मुख्तार,बुलन्दशहर खर्चके स्थान पर रहकर भी किया जा सकता है। तब २ ला०पन्नालालजी,देहली (सहायक मंत्री) समाजकी इस असहयोगदशामें पाश्रमको देहली जैसी खर्चीली जगहमें रखना मुनासिब मालूम नहीं होता। इस प्रस्तावके अनुसार अब आश्रम अपनी उस और इस लिए यह उचित जान कर तजवीज किया जान कर तजवाज किया जन्मभूमिको जा रहा है जहाँ पर उसके विचारोंका जाता है कि फिलहाल आश्रमका स्थान-परिर्वतन सर- जन्म हा था और उसकी स्कीम तय्यार की गई थी। सावा जि०सहारनपुरमें कर दिया जाय, जहाँ कि अधि- नवम्बरके तीसरे या चौथे सप्ताहमें यह वहाँ जरूर धाता पाश्रमके पास घरके काफी मकान है और दूसरे पहुँच जायगा । अतः नवम्बरके बादसे आश्रम-सम्बंधी भी कितने ही खर्च वहाँ कम हो जायेंगे। बादको देशमें संपर्ण पत्रव्यवहार करौल बारा-देहली की जगह शान्ति स्थापित होने पर जहाँ कहीं इस आश्रमकी सरसावा जि. महारनपुर के पते से किया जाना अधिक उपयोगिता जान पड़ेगी और जहाँ जनताके चाहिये । सहयोगका यथेष्ट आश्वासन मिलेगा वहाँ पर इसका अधिष्ठाना 'ममन्तभद्राश्रम शरद सहाई है [लेखक-श्री पं० मुन्नालाल जी 'मणि' ] स्वच्छ वस्त्र पहिरें पै, हृदय न स्वच्छ धरै वेष-भूषा माहिं भी, विदेशताई छाई है। करत बराई एक, दूसरे की भाई भाई लड़त लड़ाई सर्व, आर्यता विहाई है। पर-प्रभुताई देख, नेक न सुहात जिन्हें ___ हीनताई देख चित्त अति हर्षाई है। ऐसी कीचताई अरु, छाई गरदाई जब . कहो मित्र ! कैसे तब, शरद सुहाई है। naai aanaas malas Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६ ] एक विलक्षण आरोप एक विलक्षण बाबू कामनाप्रमादजी के लेख पर जो नोट 'अने कान्त' की ५ वीं किरण में लगाये गये थे उन परसे बाबू साहब रुष्ट हुए सो तो हुए ही, परन्तु उनके मित्र बैरिष्टर चम्पतयजी भी रुष्ट हो गये हैं— उन्हें अपने नास मित्रके लेखकी शान में ऐसे नोट असह्य हो उठे हैं और इसलिये आपने उन्हें तथा साथमें सहारेके लिये बाब छोटेलाल जी के लेख के नोटों को भी लेकर, उक्त किरण की समालोचनाके नाम पर, एक लेख लिख डाला है और उसके द्वारा 'अनेकान्त' तथा उसके सम्पादक के प्रति अपना भारी रोष व्यक्त किया है । यह लेख जून सन् १९३० के 'वीर' और २८ अगस्त १९३० के 'जैनमित्र' में प्रकट हुआ है । लेखमें सम्पादकको "मकतबके मौलवी साहब " - " परागंदह दिल मौलवी साहब "उसके नोटों को "कमचियाँ" और उन परसे होने वाले अनुभवनको “तड़ाके का मजा”, “चटखारों का आनन्द", " चटपटा चटखारा" और "मजेदार तडाकोंका लुल्क" इत्यादि बतला कर हिंसानन्दी गैह्र ध्यानका एक पार्ट खेला गया है । इस लेख परसे बैरिटर साहबकी मनोवृत्ति और 'उनकी लेखनपद्धतिको मालूम करके मुझे खेद हुआ ! यदि यह लेख मेरे नोटों के विरोध में किसी गहरे युक्तिवाद और गंभीर विचारको लिये होता, अथवा उसमें महज़ आवेशही आवेश या एक विदूषककी कृति-जैसा कांग बातूनी जमाखर्च ही रहता तो शायद मुझे उसके विरो कुछ लिखने की भी जरूरत न होती; क्योंकि मैं अपना और अपने पाठकों का समय व्यर्थ नष्ट करना नहीं चाहता | परन्तु लेख मेरे ऊपर एक विलक्षण with लगाने की भी चेट की गई है। अतः इस लेखकी असलियतका कुछ श्री परिय 'अनेकान्त' ६५५ आरोप I के पाठकों को करा देना और उनके सामने अपनी पोजीशनको स्पष्ट कर देना मैं अपना उचित कर्तव्य समता हूँ । उसीका नीचे प्रयत्न किया जाता है। और वह पाठकों को कुछ कम रुचिकर नहीं होगा; उससे उनकी कितनी ही गलत फहमिया दूर हो सकेंगी और वे बैरिष्टर साहबको पहलेसे कहीं अधिक अच्छे रूपमें पहचान सकेंगे । सम्पादक के पिछले कामोंकी आलोचना करते हुए बैरिष्टर साहब लिखते हैं- "खण्डनका काम आपका दरअसल खूब प्रसिद्ध है । मण्डनका काम अभी कोई क़ाबिल तारीफ़ आपकी क़लमका लिखा हुआ मेरे देखने में नहीं आया ।" : त्यादि, और इसके द्वारा आपने यह प्रतिपादन किया है कि सम्पादकके द्वारा अभी तक कोई अच्छा विधायक कार्य नहीं हो सका है— अनेकान्तके द्वारा कुछ होगा तो वह आगे देखा जायगा, इस वक्त तो वह भी नहीं हो रहा है। इस संबंध में मैं सिर्फ दो बातें बतलाना चाहता हूँ । एक तो यह कि ऐसा लिम्बते हुए बैरियर साहब जैन सिद्धान्तकी इस बातको भुल गये हैं कि खण्डन के साथ मण्डन लगा रहता है, एक बानका यदि खंडन किया जाता है तो दूसरी बातका उसके साथ ही मण्डन हो जाना है और खण्डन जितने जोरका अथवा जितना अच्छा होता है मंडन भी उतने ही जोरका तथा उतना ही अच्छा हुआ करता है। उदाहरण के तौर पर शरीर के दोषों अथवा विकारोंका जितना अधिक खण्डन किया जाता है शरीर के स्वास्थ्यका उतना ही अधिक मण्डन होता है— किमी अंगके गले मढ़े भागको काट डालना उसके दूसरे स्वस्थ भागकी रक्षा करनेके बराबर है। इसी तरह शरीर के दोषोंका जिन कार्यों के द्वारा Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ११, १२ मण्डन होता है उन्हींके द्वाराशरीरके स्वास्थ्यका साथही दूसरे यह है कि सम्पादकके द्वारा लिखी हुई मेरी साथ खण्डन होजाता है । अतः स्वण्डनके साथ मण्डन भावना, उपासनातरव, विवाहसमुद्देश्य, स्वामी समका और मण्डनके साथ खण्डनका अनिवार्य संबंध न्तभद्र (इतिहास), जिनपूजाधिकारमीमांसा, शिक्षाहै, जिसको शास्त्रीय परिभाषामें अस्तित्वके साथ ना. प्रद शास्त्रीय उदाहरण, जैनाचार्योका शासनभेद, वीरस्तित्वका और नास्तित्वके साथ अस्तित्वका अविनाभाव पष्पांजलि, महावीरसंदेश, मीनसंवाद, हम दुखी क्यों ? सम्बंध बतलाया गया है और जो स्वामी समन्तभद्रके और विवाहक्षेत्रप्रकाश जैसी पुस्तकों तथा जैनहितैषी 'अस्तित्वं प्रतिषेध्येनाविनाभाव्येकर्मिणि' जैसे पत्रको भी, जो प्रायः सभी आपको मिल चुके हैं, तथा 'नास्तित्वं प्रधिषध्येनाविनामाव्यकर्मिणि' या तो आपने मण्डनात्मक नहीं समझा है और या उन्हें जैसे वाक्योंसे स्पष्ट प्रकट है । अतः काबिल तारीक काबिल तारीफ़ नहीं पाया है । मण्डनात्मक न समझना खण्डनके द्वारा काबिल तारीफ मण्डनका कोई काम तो समझकी विलक्षणताको प्रकट करेगा और तब मंडनका कोई अलौकिक ही लक्षण बतलाना होगा, नही हुया,यह कहना अथवा समझना ही भल है और यह बात खुद बैरिष्टर साहबके एक पत्रके भी विरुद्ध इस लिये यह कहना तो नहीं बनता; तब यही कहना पड़ती है जिसमें आपने सम्पादकके 'ग्रंथपरीक्षा-द्विती होगा कि आपने उन्हें काबिल तारीफ नहीं पाया है । य भाग' पर सम्मति देते हुए लिखा है अस्तु; इनमें से कुछ के ऊपर मुझे आपके प्रशंसात्मक विचार प्राप्त हुए हैं उनमें से तीन विचार जो इस वक्त "वाकई में आपने खूब छानबीन की है और सत्य मापन खूब छानबान का ह आरसपा मुझे सहज ही में मिल सके हैं, नमूनके तौर पर नीचे का निर्णय कर दिया है। आपके इस मजमूनसे दिये जाते हैं:मुझे बड़ी भारी मदद जैनलों के तय्यार करने १ "अाज 'शिक्षाप्रद शास्त्रीय उदाहरण' प्राप्त में मिलेगी । .. 'आपका परिश्रम सराहनीय है। हुआ । श्रापके लेव महत्वपूर्ण और सप्रमाण होते हैं। मरारिबके विद्वान भी शायद इतनी बारीकी से छानबीन इस पुस्तकसे मुझे अपने विचारोंके स्थिर करनेमें बहुत नहीं कर पाते जिस तरह से इस ग्रंथ ( भदबाहसंहिता) कुछ सहायता मिलेगी। आप दूरदशी है और गभार को मापने की है। पाप जैनधर्मके दुश्मन कल प्रश- विचार रखतहा" खासकी निगाहमें गिने जाते हैं, यह इसी कारणसे है २"विवाहक्षेत्र प्रकाश' जो आपन देहलीमें मुझे कि भापकी समालोचना बहुत बेढब होती है और दी थी वह श्राज खतम हो गई है । वास्तवमें इस पु स्तकको लिख कर बाब जगलकिशोरजी ने जैनधर्मका असलियत को प्रकट कर देती है। मगर मेरे खयालमें इस काममें कोई भी अंश जैनधर्मकी विरुद्धता तारीफ करनी जरूरी नहीं है । हर सतरसे तहरीरकी बहुत ही उपकार किया है। बाब साहब मौसफ़की का नहीं पाया जाता है, बल्कि यह तो जैनधर्मको खूबी, बुद्धिमत्ता पालादर्जेकी कुशलता, लेखककं भावों अपवित्रताके मेलसे शुद्ध करनेका उपाय है।" की उदारताका परिचय मिलता है । हिम्मत और शान क्या सत्यका निर्णय कर देना, जैनला की तय्यारी लेखक महाशयकी सराहनीय है। मेरे हृदयमें जितनी में बड़ी भारी मदद पहुँचाना, असलियतको प्रकट कर शंकाएँ पैदा हो गई थी वे सब इस पुस्तकके पाठ करने देना और जैनधर्मको अपवित्रताके मैलसे शुद्ध करने से समाधान हो गई हैं। इसीका नाम पांडित्य है। का उपाय करना, यह सब कोई मण्डनात्मक कार्य वास्तवमें जैनधर्मके आलमगीरपन ( सर्वव्यापी क्षेत्र) नहीं हैं ? जरूर हैं। तब आपका उक्त लिखना क्रोधके को जिस चीजने संकीर्ण बना रक्खा है वह कुछ गत भावेशमें असलियतको भुला देनेके सिवाय और कुछ नवीन समयके हिन्दू रिवाजोंकी गुलामी ही है। कुछ भी समझ में नहीं आता। संकुचित खयालके व्यक्तियोंने जैनिज्म ( Jainism) Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] एक विलक्षण भारोप को एक प्रकारका जातिज्म (.jatism ) वा रक्खा लेख पर जो नोट लगाये गये हैं उनकी संख्या पाँच है। ये लोग हमेशा दूसरों पर जो इनसे मतभेद रखते नहीं है औरन बाब कामताप्रसादजीके लेख पर लगाये हैं, धर्मविरुद्ध हुल्लड मचा कर आक्षेप किया करते हैं। गये नोटोंकी संख्या ही पाँच है, जिसे आप 'भी' मुझे खुशी है कि बाबू जुगलकिशोरजीने मुँह तोड़ ज- शब्दके प्रयोगद्वारा सूचित करते हैं बल्कि दोनों लेखों वाब लिखकर दर्शा दिया है कि वाकई धर्मविरुद्ध विचार पर लगे हुए नोटोंकी संख्या आठ पाठ है। फिर भी किनक हैं।" बैरिस्टर साहबके हृदयमें 'पाँच' की कल्पना उत्पन्न __३ " 'जैनहितैषी' के बारेमें मेरी गय यह है कि हुई-वह भी पाँच व्रतों,पाँच चारित्रों, पाँच समितियों हिन्दुस्तान भग्में शायद ही कोई दूसग पर्चा (पत्र) अथवा पाँच इंद्रियोंकी नहीं किन्तु पाँच महापापोंकी; इस कदर उम्दगी ( उत्तमता ) और काबलियत ( यो- और इस लिये आपको पूर्ण संयत भाषामें लिखे हुए ग्यता ) का निकलता हो। मेरे खयालमें तो यारोपके वे नोट पाठकी जगह पाँच-नहीं, नहीं पाँच महाफस्ट क्लास जर्नल्स (gournals ) के मुकाबलेका यह पाप-दीखने लगे! और उसीके अनुसार मापन उन पर्चा रहा है।" की संख्या पाँच लिख मारी !! लिखते समय इस बात ___ इनसे प्रकट है कि आपने सम्पादककी इन कृति- की सावधानी रखनकी आपने कोई जरूरत ही नहीं योंको वास्तव में कितना अधिक काबिल तारीफ पाया समझी कि उनकी एक बार गणना तो कर ली जाय हैं। और मेरी भावना' को तो आपने इतना अधिक कि वे पाँच ही हैं या कमती बढ़ती ! सो ठीक है क्रोध काबिल तारीफ़ पाया और पसंद किया है कि उसे अ- के आवेशमें प्रायः पापकी ही समती है और प्रमत्तपनी तीन पुस्तकोंमें लगाया, अंग्रेजीमें उसका अनुवाद दशा होनेसे स्मृति अपना ठीक काम नहीं करती, इसीकिया और शायद जर्मनी में खुद गाकर उसे फोनोग्राफ से बैरिष्टर साहबको पापोंकी ही संख्याका स्मरण रहा के रेकार्ड में भरवाया । इतने पर भी आप लिखत हैं जान पड़ता है। खेद है अपनी ऐसी सावधान लेखनी कि "मण्डनका अभी कोई काबिल तारीफ काम आप- के भरोसे पर ही श्राप जचे तले नोटों के सम्बंधों का की क़लमका लिखा हुआ मेरे देखने में नहीं पाया।" कहनेका साहस करने बैठे हैं ! इससे पाठक समझ सकते हैं कि यह सब कितना दुः- एक जगह तो बैरिष्टर साहनका कोपावेश धमकी साहस तथा सत्यका अपलाप है, बैरिस्टरसाहब कोपके की हद तक पहुँच गया है। आपका एक लेख 'भनेश्रावेशमें और एक मित्रका अनुचित पक्ष लेनेकी धुनमें कान्त' में नहीं छापा गया था, जिसका कुछ परिचय कितने बदल गये होर श्रापकी स्मृति कहा तक वि. पाठकोंको भागे चलकर कराया जायगा, उसका उस चलित हो गई है ! सच है कोपर्क आवेशमें सत्यका करनेके बाद यह घोषणा करते हुए कि "संपादकजी कुछ भी भान नहीं रहता, यथार्थ निर्णय उससे दूर जा सब ही थोदे बहुत नौकरशाही की भांतिके होते है," पड़ता है और इसीसे क्रोधको अनोंका मूल बतलाया आप लिखते हैं:है। आपकी इस कोपदशा तथा स्मृतिभ्रमका सूचक “मुझे याद है कि एक मरतबा० शीतलप्रसादएक अच्छा नमूना और भी नीचे दिया जाता है- जीने भी, जब वह ऐडीटर 'वीर' के थे, और मैं समा साहब लिखते हैं-"अब देखें बाब छोटे- पति परिषदका था, मेरे एक लेखको प्रर्थात सभापति लालजीके साथ कैसी गुजरी ? सो उनके लेखके नीचे महाशयकी पाझाको टाल दिया था, यह कह कर कि भी महापापोंकी संख्या पूरी कर दी गई है यानी पाँच वह म. गांधी के सिद्धान्त के विरोध है । मगर जी फटनोट संपादकजीनं लगा ही दिये हैं।" तो अपने गेहना कपड़ों और उपचारित्रकी बदौलत यह है आपकी शिष्ट, सौम्य तथा गौरव भरी लेख- सभापतिजीके राजबसे बच गये, मगर बाबू जुगलकिनपद्धतिका एक नमूना ! अस्तु; बाब छोटेलालजीके शोरजीक तो वन भी गेला नहीं हैं " (अब बह Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५८ अनेकान्त वर्ष १, किरण ११, १२ कैसे बच सकेंगे?) इससे बैरिष्टर साहबकी स्पष्ट धमकी पाई जाती है सब बातोंको सहृदय पाठक स्वयं समझ सकते हैं । और व साफ तौर पर सम्पादकको यह कहना चाहत परन्तु फिर भी बैरिष्टर साहब उक्त नोटकी आलोचना हैं कि वह उनके राजबस-क्रोधसे नहीं बच स ___“सम्पादकजीने मुँह खोलना, जबान हिलाना, केगा । साथ ही, यह भी मालम होता है कि आपके बोलना तक बन्द कर दिया । लेखकने कौन ऐबकी यात क्रोधका एक कारण आपका लेख न छापना भी है। लिखी थी कि जिस पर भी आपसे न रहा गया और परन्तु बेरिष्टर साहब यह लिखते हुए इस बातको भूल फुटनोट जोड़ ही दिया। ... क्या हर शख्स अपनी गये कि जुगलकिशोरके वस भले ही गेरुआ न हों राय भी अब जाहिर न कर सकेगा?" परन्तु वह स्वतन्त्र है-किसीके आश्रित नहीं, अपनी इच्छासे निःस्वार्थ सेवा करने वाला है । और साथ ही पाठकगण, देखा कितनी बढ़िया समालोचना है ! सम्पादकने तो लेखको छापदनेके कारण लेखकका मुँह यह भी आपको स्मरण नहीं रहा कि जिस संस्थाका खोलना आदि कुछ भी बन्द नहीं किया परन्तु बैरिष्टर र 'अनेकान्त' पत्र है उसके आप इस समय कोई सभा साहब तो सम्पादकीय नोटोंका विरोध करके सम्पापति भी नहीं हैं जो उस नातेसे अपनी किमी श्राज्ञा दकको मुँह खोलने और अपनी राय जाहिर करने को बलात् मनवा सकते अथवा श्राज्ञोल्लंघनके अपराध से रोकना चाहते हैं और फिर खुद ही यह प्रश्न करने में सम्पादक पर कोई राज ब ढा सकते । सच है क्रोध बैठते हैं कि-"क्या हर शख्म अपनी राय भी अब के प्रावेशमें बुद्धि ठिकाने नहीं रहती और हेयादेयका जाहिर न कर सकेगा ? इमसे अधिक आश्चर्य की बात विचार सब नष्ट हो जाता है, वही हालत बैरिष्टर साहब और क्या हो सकती है ? आपको कोपावेशमें यह भी की हुई जान पड़ती है। खारवेलके शिलालेखमें आए हुए मूर्तिके उल्लेख सझ नहीं पड़ा कि 'हर शख्स'में सम्पादक भी तो शाआदिको ले कर बा० छोटेलाल जीके लेख में यह बात मिल हैं फिर उसके राय जाहिर करने के अधिकार पर आपत्ति क्यों ? कही गई थी कि-"तब एक हद तक इसमें संदेह नहीं रहता कि मूर्तियों द्वारा मूर्तिमानकी उपासना-पूजाका इसी सम्बन्धमें श्राप लिखते हैं कि " बाबू छोटेभाविष्कार करने वाले जैनी ही हैं।" जिस पर सम्पा लालजीके शब्द ता निहायत गंभीर है।" बेशक गंभीर दकने यह नोट दिया था कि-"यह विषय अभी बहुत है। परन्तु नोट भी उन पर कुछ कम मंभीर नहीं है । कुछ विवादग्रस्त है और इस लिये इस पर अधिक स्पष्ट नाटोको मान रहे हैं उनके प्रयोग-रहस्यको आप । बाकी उस गंभीरताका आधार आप जिन “एक हद रूपमें लिखे जानेकी जरूरत है।" और इसके द्वारा स्वतः नहीं समझ सकते-उसे सम्पादक और लेखक लेखक तथा उस विचारके दूसरे विद्वानोंको यह प्रेरणा महाशय ही जानते हैं। हाँ, इतना आपको जरूर बतला की गई थी कि वे भविष्य में किसी स्वतंत्र लेखद्वारा इस देना होगा कि यदि उक्त शब्द वाक्यके साथमें न होते विषय पर अधिक प्रकाश डालनेकी कृपा करें । इम तो फिर नोटका रूप भी कुछ दूसरा ही होता और वह प्रेरणामें कौनसी आपत्तिकी बात है ? लेखककी इसमें शायद आपको कहीं अधिक अत्रिय जान पड़ता। कौनसी तौहीन की गई है अथवा कौनसी बातको “ऐब इसी फटनोटकी चर्चा करते हुए बैरिएर साहब की बात" लिखा गया है ? और किसीको अपनी राय पसजाहिर करनेके लिये इसमें कहाँ रोका गया है ? इन .“क्या संपादकजीने किसी.लेख या पुस्तकमें जो * प्रश्नांक ? से पहले यह पाठ छूट गया जान पड़ता है। हिन्दू ने छपवाई हो फटनोट जैसा उन्होंने खुद जोड़ने यदि प्रश्नांक ही गलत हो तब भी मापके लिखनेका नतीजा वही का तरीका इखत्यार किया है, कहीं पढ़ा है " निकलता है जो बफटमें दिया गया है। इस प्रश्न परसे बैरिष्टरसाहबका हिन्दीपत्र-संसार Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारिवन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] एक विलक्षण आरोप ६५९ विषयक भारी अज्ञान पाया जाता है क्योंकि इससे वस्तु होता-अब भी इस विषयमें 'अनेकान्त' की जो मालूम होता है कि एक तो आप यह समझ रहे हैं कि विशेषता है वह उसके नामको शोभा देने वाली है। सम्पादक 'अनेकान्त' ने ही लेखों पर फुटनोटोंके जो• क्या महज दूसरोंका अनुकरण करने में ही कोई बहाइनका यह नया तरीका ईजाद और इख्तियार किया दुर्ग है और अपनी तरफसे किसी अच्छी नई बातके है, इससे पहले उसका कहीं कोई अस्तित्व नहीं था; ईजाद करनेमें कुछ भी गुण नहीं है ? यदि ऐसा नहीं दूसरे यह कि हिन्दुओंके द्वारा प्रकाशित लेखादिकोमें तो फिर उक्त प्रकारके प्रश्नकी जरूरन ही क्यों पैदा इस प्रकार के नोट लगानके तरीकेका एकदम अभाव हुई ? नोटपद्धतिकी उपयोगिता-अनुपयोगिताके प्रश्न है । परन्तु ऐमा नहीं है, हिन्दी पत्रोंमें फुटनोटका यह पर विचार करना था, जिमका लेखमें कहीं भी कुछ तरीका कमोबेश रूपमें वर्षों से जारी है । जैनहितैषी में विचार नहीं है । मात्र यह कह देना कि नोट तो मकभी फुटनोट लगते थे, जिसे श्राप एक बार हिन्दुस्तान तबके परागंदहदिल मौलवी साहबकी कमचियाँ हैं, पत्रोम उत्तम तथा यागेपके फस्टे क्लास जनरल्म विलायतम 'ऐम लम्बाका सम्पादक लेतही नहीं जिन के मुकाबलेका पर्चा लिख चुके हैं, और वे पं०नाथगम के नीचे फुटनोट लगाये वरौर उनका काम न चले' जी प्रेमीके सम्पादनकाल में भी लगते रहे हैं । यदि अथवा अमुक 'फुटनोट भी कम वाहियात नहीं' यह बैरिष्टर साहब उक्त प्रश्नसे पहले 'त्यागभूमि' आदि मब क्या नाटपद्धतिकी उपयोगिता-अनुपयोगिताका वर्तमानके कुछ प्रसिद्ध हिन्दू पत्रोंकी फाइलें ही उठाकर कोई विचार है ? कदापि नहीं । फिर क्या अनुपयोगी देख लेते तो आपको गर्वकं साथ ऐमा प्रश्न पूछ कर सिद्ध किये विना ही श्राप संपादकसे ऐसी भाशा व्यर्थ ही अपनी अज्ञताके प्रकाशद्वारा हाम्यास्पद रचना उचित समझते हैं कि वह अपनी इस नोटपबननकी नौबत न आती । अस्तु; पाठकोंके संतोपके द्धतिको छोड़ देव ? संपादकन अपनी इस-नोट-नीति लिये तीसरे वर्षकी 'त्यागमूमि' के अंक नं०४ परमं की उपयोगिता और आवश्यकताका कितना ही स्पष्टीसंपादकीय फुटनोटका एक नमूना नीचे दिया जाता है. करण रस लेग्वमें कर दिया है, जो 'एक भाप' इस अंकमें और भी कई लखों पर नोट हैं, जो सब नाम ज्येष्ठ मालकी अनेकान्न किरण पृ० ३१९ पर 'अनकान्त' के नोटोंकी रीतिनीतिसे तुलना किये जा प्रकाशित हुआ है । पाठक वहाँ में उसे जान सकते हैं। सकते हैं: उसके विरोधगं यदि किसीको कुछ युक्तिपरस्मर "यह लेखककी भूल है । अत्याचारी राजाको, लिम्बना हो तो वे जरूर लिखें, उस पर विचार किया सपरिवार तक, नष्ट कर डालनका स्पष्ट आदेश मनु- जायगा । अस्तु । स्मति आदिमें है। -संपा०" ०४२९ अब उय नोटकी बातको भी लीजिय, जिम पर इससं पाठक समझ सकते हैं कि बैरिष्टर साहबके लेबमें सबसे अधिक वावेला मचाया गया है और उक्त प्रश्नका क्या मूल्य है, उनकी लखनी कितनी अ. लोगोंको 'अनकान्न' पत्र तथा उमकं 'सम्पादक' के सावधान है और उनकी यह अमावधानता भी उनकी विरुद्ध भड़कानका जघन्य प्रयत्न किया गया है। इस कितनी परागंदहदिली-अथिचित्तता-का सा- के लिये सबसे पहले हम बाब छोटेलाल जीके लेखक बित करती है, जिसका क्रोधके आवेशमें हो जाना प्रारंभिक अंशको ध्यानमें लेना होगा, और वह इस बहुत कुछ स्वाभाविक है । साथ ही, उन्हें यह बतलान प्रकार हैकी भी जरूरत नहीं रहती कि इस प्रकारके फटनोटों "यह बात सत्य है कि जिस जातिका इतिहास नहीं का यह कोई नया तरीका इख्तियार नहीं किया गया वह जाति प्रायः नहीं-के-तुल्य समझी जाती है, कुछ है, जैसा कि बैरिष्टर साहब समझते हैं । और यदि समय पूर्व जैनियोंकी गणना हिन्दुओं में होती थी, किंतु किया भी जाता तो वह 'अनेकान्त' के लिये गौरवकी जबसे जैनपुरातत्वका विकास हुआ तबसे संसार हमें Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६० अनेकान्त [वर्ष १, किरण ११, १२ एक प्राचीन,स्वतंत्र और उच्च सिद्धान्तानुयायी समझने दिगम्बर और श्वेताम्बर इन दोनों संप्रदायोंमें कौन लगा है । साथ ही हमारा इतिहास कितना अधिक पहलेका और कौन पीछेका ? इस प्रश्नको लेखभरमें विस्तीर्ण और गौरवान्वित है यह बात भी दिन-पर-दिन कहीं भी उठाया नहीं गया है और न सारे लेखको लोकमान्य होती चली जाती है। वह समय अब दूर पढ़नेसे यही मालम होता है कि लेखक महाशय उसमें नहीं है जब यह स्वीकार करना होगा कि 'जैनियोंका दोनों संप्रदायोंकी उत्पत्ति पर कोई विचार करने बैठे हैं। इतिहास सारे संसारका इतिहास है।' गहरी विचार- ऐसी हालतमें उक्त भूमिकाके अंतिम वाक्यमें जब यह दृष्टिसे यदि देखा जाय तो यह स्पष्ट हो जाता है कि कहा गया कि "निग्रंथ दिगम्बर मत ही मूल धर्म है" आज जैन सिद्धान्त सारे विश्वमें अदृश्य रूपसे अपना और उसे "इतिहाससं सिद्ध" हुश्रा बतलाया गया तब कार्य कर रहे हैं। जैनसमाज अपने इतिहासके अनु- संपादकके हृदयमें स्वभावतः ही यह प्रश्न उत्पन्न हुश्रा संधान तथा प्रकाशनमें यदि कुछ भी शक्ति व्यय करता कि इस वाक्यमें प्रयुक्त हुए 'मल' शब्दकी मर्यादा तो आज हमारी दशा कुछ और ही होती । इतिहाससे क्या है ?-उसका क्षेत्र कहाँ तक सीमित है ? अथवा यह सिद्ध हो चुका है कि निग्रंथ दिगम्बर मत ही वह किस दृष्टि, अपेक्षा या आशयको लेकर लिखा मूल धर्म है।" गया है ? क्योंकि 'मूल' शब्दके आदि (श्राद्य) और प्रधान श्रादि कई अर्थ होते हैं और फिर दृष्टिभेदसे लेखकी इस भूमिकामें जैनियोंकी, जैनपुरातत्त्व- - पुरातत्व उनकी सीमामें भी अन्तर पड़ जाता है । तब दिगंबरका,हमें,हमारा, जैनियोंका, जैनसिद्धान्त, जनसमाज, मत किस अर्थमें मल धर्म है और किसका मूल धर्म हमारी, ये शब्द एक वर्गके हैं और वे दिगम्बर-श्वेता- है अर्थात श्रादिकी दृष्टिस मूल धर्म है या प्रधानकी म्बरका कोई सम्प्रदाय-भेद न करते हुए अविभक्त सि मल धर्म है ? और इस प्रत्येक दृष्टिके साथ, परातच्वको लेकर का लकर सर्वधर्मोकी अपेक्षा मूलधर्म है या वैदिक आदि किसी लिखे गये हैं, जैसा कि उनकी प्रयोग-स्थिति अथवा वा जैनधर्मकी किसी शाखाविशेषकी लेखकी कथनशैली परसे प्रकट है । और 'हिन्दुओंमें, PM विश्वकी अपेक्षा मलधर्म संसार, लोकमान्य, सारे संसारका, सारे विश्वमें ये है या भारतवर्ष श्रादि किसी देशविशेषकी अपेक्षा शब्द दूसरे वर्गके हैं, जो उस समूहको लक्ष्य करके मूल धर्म है? सर्व युगोंकी अपेक्षा मूल धर्म है या किसी लिखे गये हैं, जिसके साथ अपने इतिहास, अपने सि- याविशेषकी अपेक्षा मूल धर्म है ? सर्व समाजोंका द्वान्त या अपनी प्राचीनता आदि के सम्बंधकी अथवा मूल धर्म है या किसी समाजविशेषका मूल धर्म है ? मुकाबलेकी कोई बात कही गई है ? और इस पिछले इस प्रकारकी प्रश्नमाला उत्पन्न होती है । लेख परसे कि भा दा विभाग किय जा सकत है-एक मात्र इसका कोई ठीक समाधान न हो सकनेसे 'मूल' शब्द हिन्दुओं अथवा वैदिक धर्मानुयायियोंका और दूसरा पर नीचे लिखा फुटनोट लगाना उचित समझा गयाःअखिल विश्वका । वैदिक धर्मानुयायियोंके मुकाबलेमें "अच्छा होता यदि यहाँ 'मृल' की मयोदा अपनी प्राचीनताके संस्थापनकी बात लेखके अन्त तक कही गई है, जहाँ एक पूजन विधानका उल्लेख करनेके का भी कुछ उल्लेख कर दिया जाता, जिससे पार लिखा है-"यदि हम पाश्चात्यरीत्यानुसार गणना पाठकोंको उस पर ठीक विचार करनेका प्रव. कर उसकी प्रारम्भिक अवस्था या उत्पत्तिकाल पर सर मिलता।" पहुँचनेका प्रयत्न करेंगे तो वैदिक कालसे पूर्व नहीं तो यह नोट कितना सौम्य परापर भरय पहुँच जायगे । मैं तो कहूँगा कि यह संयत भाषामें लिखा गया है और लेखकी सपर्युक विमान विक कालो पात पूर्व समयका है। बाकी स्थितिको भ्यानमें रखते हुए कितना पावश्यक मान जैनसमाज, जैनसिद्धान्त त Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] एक विलक्षण मागेप ६६१ पड़ता है । परन्तु बैरिष्टर साहब इसे भी “कमची" जाता । परन्तु उसमें 'मूल'से पहले 'जैनसमाजका ये बतलाते हैं ! और इसे उद्धृत करते हुए लिखते हैं :- शब्द अथवा इसी आशयके कोईदूसरे शब्द नहीं हैं और " 'मौलवी साहब' को 'मूल' का शब्द नापसंद बातें पहले हिन्दुनों, संसार तथा विश्वके साथ सम्बहुआ। फिर क्या था ! तड़से क्रमची पड़ी और चटसे न्धकी की गई हैं और अंत तक वैदिक धर्मानुयायियों के निम्न लिखित फटनोट जोडा गया। मुकाबलेमें अपनी प्राचीनताकी बात कही गई है, तब ___ यह है वैरिष्टर साहबकी सुसभ्य और गंभीर वि- 'मूल'का वैसा अर्थ नहीं निकाला जा सकता। अतः बैचारभाषाका एक नमूना ! ऐसी ही गंभीर विचार- रिष्टरसाहबन जो बात सुझानेकी चेष्टा की है वह उनकी भापासे साग लेख भग हुआ है, जिसके कुछ नमूने कल्पनामात्र है-लेख परसे उसकी उपलब्धि नहीं पहले भी दिये जा चके हैं। एक अति संयत भाषामें होती। और सिलसिले ताल्लक (rclevenes,की दुहाई लिखे हुए विचारपूर्ण मौम्य नोटको 'कमची' की उप- उनकी अविचारित रम्य है। मा देना हृदयकी कलुपताको व्यक्त करता है और इसके बाद बैरिष्टर साहब "मूलकी मर्यादा" का माथ ही इस बातको सूचित करता है कि आप विचारके अर्थ समझने में अकुलाते हुए लिखते हैंद्वारको बन्द करना चाहते हैं । अम्तु; बैरिष्टर साहबने "परेशान हूँ कि मूल की मर्यादाका क्या अर्थ करूं? इस नोटकी अलोचनामें व्यंगरूपमे छोटेलालजी की क्या कुछ नियत समय के लिये दिगंबरी संप्रदाय मूल हो समझकी चर्चा करते हुए और यह बतलाते हुए कि सकता है और फिर श्वेताम्बरी ? या थोड़े दिनों श्वेउन्होंने भल की जो "यह न समझे कि 'मूल' में ननाजा ताम्बरी मूल रहवें और फिर दिगंबरी होजावें या कुछ दिगम्बरी-श्वेताम्बरी इन्नदाका ही नहीं आता है, बल्कि अंशोंमें यह और कुछमें वह ? आखिर मतलब क्या दुनिया भरके और मब किस्मकं झगड़े भी शामिल हो- है ? मेरे खयाल में मुझसे यह गंभीर प्रश्न हल नहीं सकेंगे," लिया है हो सकेगा। स्वयं संपादकजीही इस पर प्रकाश डालेंगे "अगर छोटेलाल जीवकील होत ताभी कुछबात थी, नो काम चलेगा। मगर एक बात और मेरे मनमें पाती क्योंकि फिर तो वह यह भी कह सकते कि माहब मेरा है और वह यह है कि शायद सम्पादकजी श्वेताम्बरी तो खयाल यह था कि मजमूनको सिलसिले ताल्लुक मतको ही मूल मानत होंगे; नहीं तो इस मूल' के शब्द (relevency) की दृष्टिकोणसं ही पढ़ा जामकेगा।" के ऊपर फटनोटकी क्या जरूरत थी ? हो, और याद __ और इसके द्वाग यह सुझाने की चेष्टा की है कि आई । बम्बईसे मैंने भी करीब तीन चार माहके हुए उक्त वाक्यमें लेखके सम्बंधक्रमसे अथवा प्रस्तावानु- एक लेख श्वेताम्बरीमतके मूल दिगम्बरीमतकी शाखा कूल या प्रकरणानुसार 'मूल' का अर्थ दिगम्बरमतके होनेके बारे में लिख कर 'अनकान्त' में प्रगट होनेको श्वेताम्बरमतसे पहले (प्राचीन ) हानेका ही निकलता भेजा था । वह अभी तक मेरे इल्ममें 'अनेकान्त' में है दूसरे मतोंसे पहले होनेका या प्रधानता आदिका नहीं छपा है। शायद इसी कारण से न छापा गया होगा नहीं। परन्तु मूल लेखके सम्बन्धक्रम अथवा उसके कि वह खुल्लमखुल्ला दिगम्बरी मतको सनातन जैनधर्म किसी प्रस्ताव या प्रकरणसे ऐसा नहीं पाया जाता; बतलाता था और श्वेताम्बरी सम्प्रदायके 'मूलत्व' के जैसा कि ऊपर 'मूल' शब्दसे पूर्ववर्ती पुरे लेखांशको दावेको जड़ मूलसे उखाड़ फेंकता था।" उद्धृत करके बतलाया जा चुका है । हाँ, यदि उस इससे स्पष्ट है कि उक्त नोटमें प्रयुक्त हुए 'मूलकी वाक्यका रूप यह होता कि "निर्पथ दिगम्बर मत ही मर्यादा' शब्दोंका अर्थ ही बैरिष्टर साहब ठीक नहीं जैनसमाजका मूल धर्म है" तो ऐसा प्राशय निकाला समझ सके हैं, वेचकरमें पर गये हैं और वैसे ही बिना जा सकता था और तब,मूलकी मर्यादाका एक उल्लेख समझे अटकलपाटनकी मालोचना करने के लिये प्रयुत होजानसे, उसपर इस प्रकारका कोई नोट भी नलगाया हुए हैं। इसीलिये 'मर्यादा का विचार करते हुए भाप Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२. अनेकान्त मर्यादा से बाहर हो गये हैं और आपने सम्पादक के विषय में एक विलक्षण श्रारोप ( इल्ज़ाम ) की सृष्टि कर डाली है, जिसका खुलासा इस प्रकार है: - 'सम्पादक श्वेताम्बरीमत को ही मूलधर्म मानते होंगे; यदि ऐसा न होता तो एक तो 'मूल' शब्द पर फुनोट दिया ही न जाता - उसके देनेकी कोई जरूरतही नहीं थी, दूसरे श्वेताम्बरों के मूलत्व (प्राचीनत्व) के विरोध में जो लेख उनके पास भेजागया था उसको 'अनेकान्त' में जरूर छाप देते, न छापने की कोई वजह नहीं थी ।' [वर्ष १, किरण ११, १२ बल्कि इस लिये नहीं छापा गया है कि वह गौरव हीन समझा गया, उसका युक्तिवाद प्रायः लचर और पोच पाया गया और इससे भी अधिक त्रुटि उसमें यह देखी गई कि वह शिष्टाचार से गिरा हुआ है, अपने एक भ्रातृवर्गको घृणा की दृष्टि से ही नहीं देखता किंतु उस के पूज्य पुरुषोंके प्रति ओछे एवं तिरस्कार के शब्दोंका प्रयोग करता है और गंभीर विचारणा से एकदम रहित है। कई सज्जनोंका उसे पढ़ कर सुनाया गया तथा पढ़नेको दियागया परन्तु किसीने भी उसे 'अनेकान्त' के लिये पसन्द नहीं किया । 'अनेकान्त' जिस उदारनीति, साम्प्रदायिक- पक्षपात रहितता, अनेकान्तात्मक विचारपद्धति और भाषाके शिष्ट, सौम्य तथा गंभीर होनेके अभिवचनको लेकर अवतरित हुआ है उसके वह अनुकूल ही नहीं पाया गया, और इसलिये नहींछापा गया । इस आरोप और उसके युक्तिवाद के सम्बंध में मैं यहाँ पर सिर्फ इतना ही बतला देना चाहता हूँ कि वह बिलकुल कल्पित और बेबुनियाद ( निर्मूल ) है । नोट लेखकी जिस स्थिति में दिया गया है और उसके देनेका जो कारण है उसका स्पष्टीकरण ऊपर किया जा चुका है और उस परसे पाठक उसकी जरूरत को स्वतः महसूस कर सकते हैं। हाँ, यदि सम्पादकमें साप्रदायिक कट्टरता होती तो जरूरत होने पर भी वह उसे न देता, शायद इसी दृष्टिसे बैरिष्टर साहबने "क्या जरूरत थी” इन शब्दों को लिखा हो । दूसरे यदि सम्पादककी ऐसी एकान्त मान्यता होती, तो फिर 'मूल' शब्द मर्यादा-विषयक नोटसे क्या नतीजा था ? तब तो दिगम्बरमतके मूल धर्म होने पर ही आपत्ति की जाती जैसा कि अन्य नोटोंमें भी किसी किसी विषय पर स्पष्ट आपत्ति की गई है। साथ ही, लेखके उस अंश पर भी में पति की जाती जहाँ (पृ०२८६) खारवेल के शिलालेख उल्लेखित प्रतिमाको “अवश्य दिगम्बर थी" ऐसा लिखा गया है; क्योंकि शिलालेख में उसके साथ 'दिगम्बर' शब्दका कोई प्रयोग नहीं है। इसके सिवाय, बाबू पूर चंदजी नाहरका वह लेख भी 'अनेकान्त' में छापा जाता जो श्वेताम्बर मतकी प्राचीनता सिद्ध करनेके लिये प्रकट हुआ है। अतः आपकी इस युक्ति में कुछ भी दम मालूम नहीं होता । रही लेख के न छापनेकी बात, वह जरुर नहीं छापा गया है । परन्तु उसके न छापनेका कारण यह नहीं है कि उसमें श्वेताम्बर मतकी अपेक्षा दिगम्बर मतकी प्राचीनता सिद्ध करनेका यत्न किया गया है यहाँ पर उस लेख के युक्तिवाद पर, विचारका कोई अवसर नहीं है-उसके लिये तो जुदा ही स्थान और काफी समय होना चाहिये - सिर्फ दो नमूने लेखका कुछ आभास करानेके लिये नीचे दिये जाते हैं: -- १ " गौतम और केसीके वार्तालापका विषय 'चोर की दाढ़ीमें तिनका' के समान है । दिगम्बरियोंके यहाँ ऐसा कोई वार्तालाप नहीं दर्ज है । इससे साफ जाहिर है कि दिगम्बरियोंको अपने मतमें कमजोरी नहीं मा लूम हुई और श्वेताम्बरियोंको हुई ।” इत्यादि । २ " श्वेताम्बर सम्प्रदाय की उत्पत्ति बिलकुल कुदरती तौर से समझमें श्रा जाती है। सख्त क़हत के जमाने में जब जैनियोंके यहाँ से पेट पालन न हो सका तो अजैनियोंसे भिक्षा लेनी पड़ी और इस वजह से वस्त्र धारण करने पड़े; क्योंकि उनके यहाँ दिगम्बरी साधुओं की मान्यता न थी । इसी कारण से स्त्रीमुक्ति और शूद्रमुक्तिका सिद्धान्त भी आसानीसे समझमें आ जाता है। इन बातोंमें श्वेताम्बरी हिन्दुओंसे भी आगे बढ़ गए हैं। हिन्दू तो शूद्रोंको वेद भी नहीं पढ़ने देते हैं । मुक्ति कैसी ? इस लिये हिन्दू स्त्रियों और शूद्रोंको मुक्तिका मुज वह सुनानेका यही भाव हो सकता था कि इस बहानेसे भक्तोंकी संख्या बढ़ाई जावे, क्योंकि भक्तोंकी *यह लेख 'बीर के उसी महमें और जैनमित्र के ४-६-३० में है । Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] एक विलक्षण प्रारोप ६६३ संख्यासे ही भिक्षाका अधिक लाभ होना संभव है।" क्या क्रोधके आधार पर ही आप अपना सब काम पाठकगण देखिये, कितने तिरस्कारपूर्ण उद्गार हैं निकालना चाहते हैं ? और प्रेम, सौजन्य तथा युक्तिऔर कैसी विचित्र कल्पना है !! क्या दुर्भिक्षमें श्वेता- वाद आदिसे कुछ काम लेना नहीं चाहते? बहुत संभव म्बरोंके पर्व परुषोंका जैनियोंके यहाँसे पेटपालन (!) है कि आपका यह आगे नहीं हो सका और उन्होंने अजैनियोंके यहाँ से भिक्षा गेपका महज़ जवाब हो जो कामताप्रसादजीकी लेखनी लेने के लिये ही वस्त्र धारण किये ? और क्या खियों पर लगाया गया था, परन्तु कुछ भी हो ऊपरके कथन तथा शूद्रोंसे भोजन प्राप्त करने के लिये ही उन्हें मुक्ति तथा विवेचन परमे यह स्पष्ट है कि इसमें कुछ भी सार का संदेश सुनाया गया-उसका अधिकार दियागया? नहीं है और यह जान-अनजाने बाबु छोटेलालजी के कितनी विलक्षण बुद्धिकी कल्पना है !! इस अद्भुत शब्दों तथा नोटके शब्दोंको ठीक ध्यानमें न लेन हुए कल्पनाको करते हए बैरिधर साख्अपने दिगम्बरशाखों ही घटित किया गया है। श्राशा है बैरिष्टर साहब अब की मर्यादाका भी उल्लंघन कर गये हैं और जो जी में 'मूलकी मर्यादा' आदिके भावको ठीक समझ सकेंगे। आया लिख मारा है। रत्ननन्दि आचार्यके 'भद्रबाहु यहाँ पर मैं अपने पाठकोंको इतना और भी बतला चरित्र' में कहीं भी यह नहीं लिखा है कि दुर्भिक्ष के देना चाहता हूँ कि इधर तो बाब छोटेलालजी हैं जिसमय ऐसा हुआ अथवा उस अवशिष्ट मुनि संघको नहोंने अपने लेख परके नोटोंके महत्वको समझा है जैनियोंके घरसे भोजन नहीं मिला और उसने अजैनों और इस लिये उन्होने उनका कोई प्रतिवाद नहीं किया के यहाँ से भोजन प्राप करने के लिये ही वस्त्र धारण और न उनके विषयमें किसी प्रकारको अप्रसनताका किये । बल्कि कुबेरमित्र, जिनदास, माधवदत्त और ही भाव प्रकट किया है। वे बराबर गंभीर तथा उदार बन्धुदत्त श्रादि जिन जिन अतुल विभवधारी बड़े बड़े बने हुए हैं और 'अनेकान्त' पत्रको बड़ी ऊँची दृष्टिम सेठोंका उल्लेख किया है उन सबको बड़े श्रद्धासम्पन्न दखते हैं और यह बात हाल के उनके उस पत्रसे प्रकटहै श्रावक लिखा है जिन्होंने मुनिसंघकी परे तौरसे संवा जिसका एक अंश यदि यगंपमें ऐसा पत्रप्रकाशितहाता' की है, दीन दुखियोंको बहुत कुछ दान दिया है और इस शीर्षकके नीचे ५०६५१पर दियागयाइऔर जिसमें जिनकी प्रार्थना पर ही वह मुनिसंघ दक्षिणको जानसे उन्होंने पत्रकी भारी उपयोगिताका उल्लेख करतहुए उसके रुका था।अतःलेखकी ऐसी बेहूदी और निरर्गल स्थिति चिरजीवन के लिये प्रोपेगैंडा करनेका परामर्श दिया है होते हुए उसे 'अनकान्त में स्थान देना कैंस उचित हो और साथ ही अपनी सहायताका भी वचन दिया है। सकता था ? यदि किसी तरह स्थान दिया भी जाता और उधर बैरिष्टर साहब हैं जो अपनी तथा अपने तो उसके कलेवरसे फटनाटोंका कलेवर कई गना बढ़ मित्रकी शान एव मानरक्षाक लिय व्यर्थ लिखना भी जाता और तब बैरिष्टर साहबको वह औरभी नागवार उचित समझते हैं और जरासी बात के ऊपर इतत रुष्ट मालूम होता और उस वक्त आपके क्रोधका पागन हो गये हैं कि उन्होंने 'अनेकान्त' के गणोंकी तरफम मालूम कितनी डिगरी ऊपर चढ़ जाता; जब एक मित्र अपनी दृष्टिको बिलकुल ही बन्द कर लिया है, उन्हें के लेख पर नोट देनेसे ही उसकी यह दशा हुई है ! अब यह नजर ही नहीं आता कि 'अनेकान्त' काई उसे न छाप कर तो उस नीतिका भी मनसरण किया महत्वका काम कर रहा है अथवा उसके द्वारा कोई गया है जिसे आपने विलायतके पत्रसंपादकोंकी नीति काबिल तारीफ काम हुआ है , अनेकान्तकी नीति भी लिखा है और कहा है कि वे ऐसे लेखोंको लेते ही उन्हें उम्दा (उत्तम) दिखलाई नहीं देती , अनेकान्तके नहीं जिन पर फुटनोट लगाये बगैर उनका काम न नामको सार्थक बनानेका कोई प्रयत्न उसके सम्पादक चले।' फिर इस पर कोप क्यों ? राजबकी धमकी ने अभी तक किया है यहभी उन्हें दीख नहीं पड़ताक्यों ? और ऐसे विलक्षण आरोपकी सृष्टि क्यों ? सुन नहीं पड़ता, सहधर्मी वात्सल्यकी पत्रमें उन्हें कहीं Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४ अनेकान्त बू नहीं आती और जैनत्व की भी कुछ गंध नहीं आती । और इस लिये इन सब बातोंका किसी-न-किसी रूप में इजहार करते हुए फिर आप यहाँ तक लिखते हैं "वह पत्र क्या काम कर सकेगा जो सच्चे जवाहरात में ही ऐब निकाल निकाल कर दूसरोंको अपने सत्यवक्तापने की घोषणा दे ! और जो चाँद के ऊपर धूल फेंकने को ही अपना कर्तव्य समझ बैठे।" "यह याद रहे कि यह पत्र मात्र ऐतिहासिक या पुरातत्वका पत्र नहीं है। जैनियोंने जो हजारों रुपये का चन्दा किया है, वह इस लिये नहीं किया है, कि 'अनेकान्त' इच्छानुसार अन्टसन्ट लिखता रहे।" "अगर 'अनेकान्त' इतिहास में जैनत्वकी सुगंध पैदा नहीं कर सकता है तो उसकी कोई जरूरत नहीं है ।" और इस तरह 'अनेकान्त' की तरफसे लोगों का भड़काने, उन्हें प्रकारान्तरसे उसकी सहायता न करने के लिये प्रेरित करने, और उसका जीवन तक समाप्त कर देनेकी आपने चेष्टा की है। [वर्ष १, किरण ११, १२ जो सुगंध चतुर्दिक फैल रही है वह आपको महसूस नहीं होती और आप उसमें जैन त्वकी कोई गंध नहीं पारहे हैं' उपसंहार ये हैं सब आपकी समालोचनाके खास नमूने ! इसे कहते हैं गुणको छोड़ कर अवगुण ग्रहण करना, ias saण भी कैसा ? विभंगावधि वाले जीव की बुद्धि में स्थित जैसा, जो माता के चमचे दूध पि लाने को भी मुँह फाड़ना समझता है ! और इसे कहते हैं एक सलूके लिये भैंसेका वध करनेके लिये उतारू हो जाना ! जिन संख्याबन्ध जैन श्रजैन विद्वानों को 'अनेकान्त' में सब ओरसे गुणों का दर्शन होता है, इतिहास, साहित्य एवं तत्त्वज्ञानका महत्व दिखलाई पड़ता है, जो सच्चे जैनत्व की सुगंधसे इसे व्याप्त पात हैं और जो इसकी प्रशंसा में मुक्तकण्ठ बने हुए हैं, तथा जिनके हृदयोद्गार 'अनेकान्त' की प्रत्येक किरण में निकलते रहे है, वे शायद बेरिएर साहब से कह बैठें - 'महाशय जी ! क्रोध तथा पक्षपातके श्रावेशवश आपकी दृष्टि में विकार आ गया है, इसीसे आपको 'अनेकान्त' में कुछ गुणकी बात दिखलाई नहीं पड़ती अथवा जो कुछ खिलाई दे रहा है वह सब अन्यथाही दिखलाई दे रहा है। और इसी तरह नासिका विकृत हो कर उसकी प्राणशक्ति भीनष्टप्राय होगई है, इसी से इसकी हाँ, साम्प्रदायिकताको पुष्ट करना ही यदि सहधर्मी वात्सल्यका लक्षण हो तो उसकी ब जरूर 'अनेकान्त' में नहीं मिलेगी - साम्प्रदायिकता अनेकान्त द्वारा पुष्ट नहीं होती किन्तु एकान्त द्वारा पुत्र होती है । 'अनेकान्त' को साम्प्रदायिकता के पंकस लिए रखने की पूरी कोशिश की जाती है, उसका उदय ही इस बात को लेकर हुआ है कि उसमें किसी सम्प्रदायविशेषकं अनुचित पक्षपानको स्थान नहीं दिया जायगा । 'अनेकान्त' की दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों समान हैं, दोनों ही इसके पाठक तथा ग्राहक हैं और दोनों ही सम्प्रदायों के महानुभाव उस वीर सेवक संघ नामक संस्थाके सदस्य हैं जिसके द्वारा समन्तभद्राश्रमकी स्थापना हुई और जिसका यह मुख पत्र है । श्वेताम्बर सदस्यों में पं० सुखलाल जी, पं० बेचरदासजी और मुनि कल्याणविजयजी जैसे प्रौढ विद्वानोंके नाम खास तौरमं उल्लेखनीय हैं, जो इस संस्थाकी उदारनीति तथा कार्यपद्धतिका पसन्द करके ही सदस्य हुए हैं। जिस समय यह संस्था क़ायम की गई थी उसी समय यह निश्चित कर लिया गया था कि इसे स्वतन्त्र रक्खा जायगा, इससे यह पूर्व स्थापित किसी सभा सोसाइटीकी अ धीनता में नहीं खोली गई। दिगम्बर जैन परिषद्कं मंत्री ब ब रतनलालजी और खुद बैरियर साहबने बहुतंग चाहा और कोशिश की कि यह संस्था परिषद् के अंडर में - उसकी शाखारूपसं - खोली जाय; परन्तु उसके द्वारा संस्थाके क्षेत्रको सीमित और उसकी नीतिको कुछ संकुचित करना उचित नहीं समझा गया और इसलिए उनका वह प्रस्ताव मुख्य संस्थापकों द्वारा अम्वीकृत किया गया । ऐसी हालत में भले ही यह संस्था समाज के सहयोग के अभाव में टूट जाय और भले ही आगे चल कर बैरिष्टर साहब जैसों की कृपा दृष्टि से इस पत्रका जीवन संकट में पड़ जाय या यह बन्द हो जाय, परन्तु 'जब तक 'अनेकान्त' जारी है और मैं उसका संपादक Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं० २४५६ ] हूँ तब तक मैं अपनी शक्ति भर उसे उसके आदर्श से नहीं गिरने दूँगा और न साम्प्रदायिक कट्टरता काही उसमें प्रवेश होने दूँगा । मैं इस साम्प्रदायिक कट्टरताको जैनधर्म के विकास और मानवसमाज के उत्थानके लिये बहुत ही घातक समझता हूँ । अस्तु । एक विलक्षण भारोप बैरिष्टर साहबने मुझसे इस बातका खुलासा माँगा है कि मैं दिगम्बर और श्वेताम्बर इन दोनों सम्प्रदायों में से किसको प्राचीन, असली और मूल समझता हूँ । अतः इस सम्बंध में भी दो शब्द लिख देना उचित जान पड़ता है। जहाँ तक मैंने जैनशास्त्रोंका अध्ययन किया है मुझे यह मालूम हुआ है कि भगवान् महावीररूपी हिमाचल से धर्मकी जो गंगधारा बही है वह आगे चल कर बीच में एक चट्टान के आ जानेसे दो धाराओं में विभाजित हो गई है - एक दिगम्बर और दूसरी श्वेताम्बर । अब इनमें किसको मूल कहा जाय ? या तो दोनों ही मूल हैं और या दोनों ही मूल नहीं हैं। चूँकि मूल धारा ही दो भागों में विभाजित हो गई है और दोनों उसके अंश हैं इसलिये दोनों ही मूल हैं और परस्पर की अपेक्षा से चूँकि एक धारा दूसरीमेंसे नहीं निकली इस लिये दोनों में से कोई भी मूल नहीं है। हाँ, दिगम्बर धाराको अपनी बीसपंथ, तेरहपंथ, तार पंथ अथवा मूलसंघ, काष्ठासंघ, द्राविडसंघ आदि उत्तर धाराओं एवं शाखाओंकी अपेक्षासे मूल कहा जा सकता है, और श्वेताम्बरधारा को अपनी स्थानकवासी, तेरहपंथ और अनेक गच्छादिके भेदवाली उत्तरधाराओं एवं शाखाओं की अपेक्षासे मूल कहा जा सकता है । इसी तरह प्राचीनता और अप्राचीनताका हाल है। मूल धारा की प्राचीनताकी दृष्टिसे तथा अपनी उत्तरकालीन शाखाओंकी दृष्टिसे दोनों प्राचीन हैं और अपनी उत्पत्ति तथा नामकरण-समयकी अपेक्षासे दोनों अर्वाचीन हैं। रही असली और बेअसलीकी बात, असली मूल धाराके अधिकांश जलकी अपेक्षा दोनों असली हैं, और चूंकि दोनोंमें बादको इधर उधर से अनेक नदी-नाले शामिल हो गये हैं और उन्होंने उनके मूल जलको विकृत कर दिया है, इस लिये दोनों ही अपने वर्तमान रूपमें असली नहीं हैं। इस प्रकार बने ६६५ कान्तदृष्टि से देखने पर दोनों सम्प्रदायोंकी मूलता - प्रा. चीनता च्यादिका रहस्य भले प्रकार समझमें या सकता है। बाक़ी जिस सम्प्रदायको यह दावा हो कि वही एक अविकल मूल धारा है जो अब तक सीधी चली आई है और दूसरा संप्रदाय उसमेंसे एक नाले के तौर पर या ऐसे निकल गया है जैसे वट वृक्षमें से जटाएँ निकलती हैं, तो उसे बहुत प्राचीन साहित्य पर से यह स्पष्टरूपमें दिखलाना होगा कि उसमें कहाँ पर उसके वर्तमान नामादिकका उल्लेख है। अर्थात् दिगम्बर श्वेताम्ब गेंकी और श्वेताम्बर दिगम्बरों की उत्पत्ति विक्रमकी दूसरी शताब्दी के पूर्वार्ध में बतलाते हैं, तब कमसे कम विक्रमकी पहली शताब्दी से पूर्वके रचे हुए ग्रंथादिक में यह स्पष्ट दिखलाना होगा कि उन में 'दिगम्बरमत-धर्म' या 'श्वेताम्बर मत-धर्म' ऐसा कुछ उल्लेख है और साथमें उसकी वे विशेषताएँ भी दी हुई जो उसे दूसरे सम्प्रदायसे भिन्न करती हैं । दूसरे शब्दों पर से अनुमानादिक लगा कर बतलाने की रत नहीं। जहाँ तक मैंने प्राचीन साहित्यका अध्ययन क्रिया है मुझे ऐसा कोई उल्लेख अभी तक नहीं मिला और इसलिये उपलब्ध साहित्य परसे मैं यही समझता हूँ कि मूल जैनधर्मकी धारा भागे चल कर दो भागों में विभाजित हो गई है- एक दिगम्बरमत और दूसरा श्वेताम्बरमत, जैसा कि ऊपर के कथनसे प्रकट है। - आशा है इस लेख परसे वैरिष्टर साहब और दूसरे सज्जन भी समाधानको प्राप्त होंगे। अन्त में बैरि ष्टर साहब से निवेदन है कि वे भविष्यमें जो कुछ लिखें उसे बहुत सोच-समझ कर अच्छे जचे तुले शिष्ट, शान्त तथा गंभीर शब्दों में लिखें, इसीमें उनका गौरव है; यों ही किसी उत्तेजना या भावेशके वश होकर जैसे तैसे कोई बात सुपुर्द क़लम न करें और इस तरह व्यर्थ की अप्रिय चर्चाको अवसर न देवें। बाकी कर्तव्यानरोधसे लिखे हुए मेरे इस लेख के किसी शब्द परसे यदि उन्हें कुछ चोट पहुँचे तो उसके लिये मैं क्षमा चाहता हूँ। उन्हें खुदको ही इसके लिये जिम्मेदार समझ कर शान्ति धारण करनी चाहिये । - सम्पादक 'अनेकान्त' Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६६ ७८ मुनि श्री दर्शन विजय जी, कलकना - " आपके 'अनेकान्त' की १ मे ७ तक किर श्रीमान पुर्णचन्द्रजी नाहर के पाससे बचने के लिये faff | आवश्यक और गहन विषयोंका संग्रह वाँचकर प्रतीव श्रानन्द हुआ ।” ७६ मुनि श्री शीलविजयजी, बडौदा 'अनेकान्न' को पढ़ने की अभिलापा बहुन होने से यह पत्र लिखता हूँ। आशा है कि आप शीघ्र भेज देंगे। बीर प्रभु शासनमें 'अनेकान' जैसे मामिक पत्र की खास जरूरत थी वह आपने पूरी कर बनलाई है। मैं आशा रखता हूँ कि विद्वन्मंड जरूर अनेकान्त' को अपनावेगा ।" " 'अनेकान्त' पर लोकमत Co मुनि श्री फूलचन्द्रजी, रोपड ( पंजाब ) - "आपकी कृति महमी है। सुभा, माधुरी आदिके कारकी एक पत्रिकाकी आवश्यकता की आपने ही पति की है, जिसकी जैनसमाज में पूर्ण आवश्यकता थी। हार्दिक आशी: राशी: है कि आपकी कृति उन्नति के शिखर पर आरोपित हो ।" का ८१ पं० मूलचन्द्रजी 'वत्सल' बिजनौर " जैन श्रुतज्ञान के प्राचीन जैनसाहित्यका नवीन are प्रकाशमें लाकर जैनयमके सत्य सिद्धान्नोंका अर्वाचीन पद्धतिले विश्वके सामने रखने की बड़ी भारी आवश्यकता है। स्वेद है वर्तमान में जितने मामाजिक और धार्मिक पत्र प्रकट हो रहे हैं वे जैनधर्मके वास्त [वर्ष १, किरण ११, १२ Par मात्र विक उद्धार से सर्वथा विमुक्त हैं। उनका ध्येय केवल परस्पर विरोध और अपने मान-सन्मान की पूर्ति । ऐसे समय मे 'अनेकान्त' ने जन्म लेकर एक बड़े अभाव की पूर्ति ही नहीं की है किन्तु वास्तविक उद्वारमार्ग पर पदार्पण करनेके लिए पथप्रदर्शकका पत्र महगा किया है। 'अनेकान्त' के प्रत्येक लेख प्रखर पांडित्य प्रौढ विद्वत्ता और गहरे अध्ययनकी छटा प्रकट होती है 1 ऐसे लेम्योंके पटन, मनन और अध्ययन करने की जैन समाजको बड़ी न्यावश्यकता है 1 हम ज्यों ज्यों उसकी अगली किरणोंका दर्शन करते हैं त्यो त्यों उसमें परिश्रम और प्रतिभाका उज्वल श्रालोक अवलोकन करते हैं, उसके अङ्क इस बात के साक्षी है कि वह जैन सिद्धान्त सेवा के किनले महत् भावोको लेकर अवतीर्ण हुआ है और इतने अल्प स मयमेंट अपने उद्देश्योंमे कितना सफल हुआ है । इस अनुपम साहित्यसेवाका समम्न श्रेय प्रसिद्ध साहित्यमंत्री पं जुगलकिशोर जी को है जो अपने श्र नवरतश्रम, गंभीरतापूर्ण खोज और अदम्यकर्मठतास इस महत् कार्यमें कटिवद्ध हो रहे हैं। मेरी हार्दिक भावना है कि भगवान् मुख्तार जीको शक्ति और जैन समाजको सत्यभक्ति प्रदान करें जिम से इम विशाल यज्ञ की पुण्य सुरभिसे एक बार अखिल विश्व सुरभित हो जाय।" Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्विन, कार्तिक, वीरनिःसं०२४५६] अनेकान्त पर लोकमत ८५६० लक्ष्मीनागयण कचतुर्वेदी, हेडमास्टर पकी और अनेकान्त' की चिराय की भावना करता . 'श्रीगोदावन जैनस्कूल'. छोटी सादडी-- हा जैनधर्मावलम्बियोंमे इसको जीवित रखने तथा " आपके 'अनेकान्न' के कुष्ट अङ्क अवलोकन , फन फलने देने की जोरदार अपील करता हूँ ताकि - जैनधर्म के मचे और स्वाभाविक सिद्धान्तोका प्रचार करने का सौभाग्य प्राप्रहा । यह पत्र अपने ढङ्गका तथा स्वपर कल्याण हो।" एक ही है। सभी लोग्ब गयेपणापर्ण और पठनीय रहते ८. श्री मूलचन्द्र नी जैन वैधशासी, एम.पी. हैं। ऐसा पत्र जैन जनना ही के लिये नहीं अपितु सब प..कुचामन - भारतीयोंके लिये आवश्यक था । मचगु व यह त्रुटि __ श्रापक 'अनकान्त' की ५ किरणें मैंने देखी। ग्वटकती थी। आपने इम प्रभावकी पनि कर नी श्रा इसके मभी लेम्व और कविताएँ मारपर्ण एवं हृदयदर्श कार्य किगा इसके लिय श्राप धन्यवाद के पात्र हैं। पशिनी होती है। आपके इम 'अनेकान्न'मर्यका ठीक प्रत्यक पठित व्यक्तिको इमका ग्राहक बन अपनी ज्ञान रम ममय उदय हाजिब कि उसके उज्यकी - वृद्धि कर पापणा उत्माद बढ़ाना उचित है।" त्यन्त आवश्यकता भी । मेंहदय चाहता हूँ कि इम ८३ ६० पचन्दनी काशन', मिवनी- के विशा. और विश्वव्यापी प्रकाशमें जैनों अगाथ नंकान' यथा नाम नथा गगा निकला। माहित्य और दशनका प्रचार हो कर वह विश्वके प्राजनहिनैप:' के न होने पश्चात कोई पत्र न रहा, णियोको पथ-प्रदर्शक बने । ना जैनधर्मकी महानागा बाज न पणापूर्ण लग्यो जैनियोंमें यद्यपि पत्रोंकी कमी नहीं, किन्तु माहिद्वारा प्रकाश माना । किसी भी जातिका माहित्य र. लिक पत्रका प्रभाव बहन गर्मम खटक रहा था। अनेसका जीवन है । माहित्य की भोर निद्वानांकी अभिमान कान्त', श्रापक महान व्यक्तित्वममम्बद्ध होने कारगा, अवश्य ही उस अभावकी पनि करंगा जिमने जैनोंके नविषयक पत्र-पत्रिकायों द्वारा महजही पत्र की जा सकती है । 'अनकान्त' रूपी श्रमोदय एकान्ना अलभ्य माहित्यको प्रचारमें आनम गक ग्वया है।" न्धकारको विनष्ट कर मंमार के सन्मय जैनधर्म गौरव ८५ डाक्टर टी.टी.वान, म.पनवाडी (पेलगाम'-- को स्थापन करेगामी श्राशा मी आज नककी I losed all the insides of your किरणें दम्ब कर होनी है। oblemman अमंकाम्स, Andam very murthple turn to congratulate you There. श्राप जैसे विद्वान अनुभवी तथा मननशीन लकि in bridentury of pare and happi क सम्पादकत्व में इस पत्रका जन्म जैगिंगारा वही 184 1|| Outlumble magazine मेकाम्स शाना, ना अपने अनाकागादिन नया 4th hotbhar duty of every jain to लाय माहित्यको प्रकाश दंग्यने के लिये प्रयत्न ulth. अनेकाn in each and every उत्सुक है । मामाजिक मी-छा-लेदर और त त में में में Dirt of the world Long live अनेकान!" यह पत्र वच कर जैसमाहिन्यकी सुगंवा कर उम मैन आपकं उत्तम पत्र 'अनेकान्न' के सपअंक सरस्वती भंडारकर श्रीवद्धि करेगा ऐमी मेग मनी भा. पढ़े हैं और मुझे आपको धन्यवाद देते हुए पड़ी वना है । आज नक प्रकाशित लम्ब योज पूर्ण, गंभीर प्रमनना होनी है। आपके बहुमूल्य पत्र 'अनेकान' में तथा प्रषणायक्त ही नहीं वग्न जेनंतर विद्वानों के लिए सुम्ब और शान्तिका बजाना गुम है । प्रत्येक जैनका वस्तु नथा जैनधर्म माहित्यामनका पान करनेकी यह नम कर्तव्य है कि यह 'अनंकाम' को संसार सुइच्छा उत्पन्न करने वाले प्रतीत होते हैं। अन्नमें श्रा- में मवत्र फैलाए । 'बर्मकान्त' चिरजीवित हो।' Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६८ भनेकान्त [वर्ष १, किरण ११, १२ 'अनेकान्त' का वार्षिक हिसाब और घाटा इस संयुक्त किरणके साथ 'अनेकान्त' पत्रका प्र- चार किया जाय-प्रचारकार्यमें बड़ी शक्ति है, वह बम वर्ष पूरा होता है । अतः पाठकों तथा समाजके लोकचिको बदल देता है । परन्तु वह प्रचारकार्य सामने इसका वर्ष भरका हिसाय भी रख देना उचित तभी बन सकता है जबकि कुछ उदार महानुभाव ऐसे जान पड़ता है, जिससे मबको पत्रकी आर्थिक स्थिति कार्यकी पीठ पर हों और उसकी सहायतामें उनका का ठीक परिचय मिल सके और वे इस विषयमें अ. खास हाथ हो । जितनं हिन्दी पत्र अाज उन्नत दीख पने कर्तव्यका यथेष्ट पालन कर सकें। वैशाख-ज्येष्ठ मासकी संयुक्त किरणमें (पृ०४१७ है कि उन्होंने शुरु शुरू में खूब घाटे उठाएँ है परन्तु उन्हें पर) वीर संवक-संघ और समन्तभद्राश्रमका हिसाब उन घाटोको पूरा करने वाले मिलते रहे हैं और इस देते हुए, 'भनेकान्त' का हिसाब ३१ मार्च मन् १५३० लिये वं उत्साह के साथ वराबर भागे बढ़ते रहे हैं । 3. तकका दिया जा चुका है। ३१ मार्च तक 'अनेकान्त' दाहरण के लिये 'त्यागभूमि' को लीजिये, जिसे शुरूशुरू खातेमें १०५१।।- की आमदनी हुई थी और खर्च में पाठ पाठ नौ नौ हजार के करीब तक प्रतिवर्ष घाटा १३६८) रुका हुआ था, जिसकी तफमोल उक्त किरण उठाना पड़ा है परन्तु उसके मिर पर बिड़लाजी तथा में दी हुई है। उसके बाद इस खातेमें ता०१० नवम्बर जमनालालजी बजाज जैसे समयानुकूल उत्तम दानी मसन् १९३० तक कुल ५८६॥) की आमदनी हुई और हानभावोंका हाथ है जो उसके घाटेको पग करते रहते सार्च ९९०७तो हो चुका, जिसकी तफसील आग हैं, इस लिये वह बगबर उन्नति करती जाती है तथा दर्ज है तथा २४२) २० के करीब इस किरणकी छपाई अपने साहित्यक प्रचारद्वारा लोकचिको बदल कर बंधाई, पोष्टेज और कुछ कागज वगैरहकी बाबत स्त्रचे नित्य नये पाठक उत्पन्न करती रहती है और वह दिन करना बाकी है अर्थान बाद का खर्च १२३२३jा के अब दूर नहीं है जब उसे घाटेका शब्द भी सुनाई नहीं करीब समझना चाहिये । इस तरह वर्ष भरकी कुल पड़ेगा किन्तु लाभ ही लाभ रहेगा । 'अनकान्त' को भामदनी १६७८-)।हुई और कुल खर्च २६०० अभी तक ऐसे किसी सहायक महानुभावका सहयोग करीबहुभा । इससे अनेकान्त'को इस वर्ष ९२२०) प्राप्त नहीं है । यदि किमी उदार महानुभावने इस की करीब घाटा रहा । घाटेका बजट एक हजार रुपय उपयोगिता और महत्ताको समझकर किसी समय इस · का रक्खा गयाथा मनः यह पाटाबजटके भीतर ही को अपनाया और इसके सिर पर अपना हाथ रक्खा रहा, इतनी तो सन्तोषकी बात है। और यह भी ठीक तो यह भी व्यवस्थित रूपसे अपना प्रचारकार्य कर है कि समाज प्रायः सभी पत्र घाटेसे चल रद सकेगा और अपनेकी अधिकाधिक लोकप्रिय बनाता और उनकी स्थिति मादिकी दृष्टिस यह घाटा कुछ हुआ घाटे महाके लिये मुक्त हो जायगा । जेनसमाज अधिक नहीं है। ऐसे पत्रों को सा शुरु शुरूमें और भी का यदि अच्छा होना है तो पहल किसी-न-किसी :अधिक घाटा उठाना पड़ता है। क्योंकि समाजमें ऐसे हानभावके हदय में इसकी ठोस सहायताका भाव उदित ऊँचे, गंभीर तथा ठोस साहित्यको पढ़ने वालोंकी संख्या होगा, ऐमा मेगचंतःकरण कहता है। देखता हूँ इस बहुत कम होती है-जैनसमाजमें वो बह और भी पाटेको पूरा करने के लिये कौन कौन उदार महाशव कमरे।ऐमे पाठक तो बास्तबमें पैदा किये जाते अपना हाथ बढ़ाते हैं और मुझे उत्साहित करते हैं। और वे सभी पैदा हो सकते हैं जबकि इस प्रकारके यदि ९सजन सौ सौ रुपये भी देखें तो यह पाटासहज साहित्यका जनतामें अनेक मुकियोंसे अधिकाधिक प्र- हमें पूरा हो सकता है। Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिवन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] अनकान्तका वार्षिक हिसाब गोशवारा वार्षिक हिसाब 'अनेकान्त' प्रामद (जमा) खर्च (नाम) १०९११/- ता० ३१ मार्च सन १९३० नक जमा, १३६८) ना० ३१ मार्च सन् १९३० तक का खर्च, जिस जिसमें १०८५||-- प्राहकोंसे मय वी. की तफमील 'अनकान्त' की किरण ६-७में पी. पाष्टेज श्रादि (३९-) के वसूल पृष्ठ ४१७ पर दी जा चुकी है। हुए और ६० विज्ञापनकी छपाईके ५५०४ ता० १ अप्रेल से १० नवम्बर १९.३० तक पाए थे। खर्च हुए इस प्रकार :५८६।।) ता०१ अप्रेलसं १० नवम्बर मन १९३० तक २९३|||-|| कागज खर्च, जो धूमीमल ध. प्राप्त हुए इस प्रकार : मंदास, मथुगदाम रामजीदास २५PI) प्राहकोमे वमल हुए मय वी.पी. तथा तथा झन्नमल पन्नालाल काराजी ___ -रजिष्टरी पाष्टेज आदिके (इम रकम और जौहरीमल सर्गफको दियं । में १००) वी. पी. पोष्टेज प्रादि के ३९३।।) छपाई ५से १० किरण तथा रैपर शामिल हैं)। की बाबत गयादत्त प्रेम को दिये। ०५२) वीर-सेवकमंधके ६३ मतस्यों की बाबन -२|||-) गामा बाइंडरको किरण ५ से १० तककी बंधाई बाबत दिये। मदम्य म्यान में 'अनकान्त' ग्यान में जमा १८५) वेतनमें दिये इस प्रकार :किये गये। ११५) पं० दुर्गाप्रमाको ७ मास के । ७८) सहायतार्थ प्राप्त हुए। ६६) पं० मतीशचंद्रको ५१ दिन के । वीर-दीना-चित्रोंकी विक्रीम पाए। ७०) पाष्टेज स्वर्थ, मध्य 12) कुल पी. - - ---- ---- - ---- ऐज बर्च पाश्रमके। ____५८) 11-11 स्टेशनरी खर्च। १४|मामयिक पत्रोंके मंगानमें सार्च। ५/-)। मुनरिक बात खर्च- . ५२२०) लगभग या Bा ट्राम्बे व ताँगे भादि में। गा- ब्लाकमरम्मत श्रादि फुटकर - - ४२) जो मंयक किरण ११, १२की पुरी छपाई, बंधाई, पोष्टेज और कुछ काराज भाविकी पावन भंगजन सर्च करना तथा ना बाकी है। २६००४) मुगलकिशोर मुमतार अषिक्षावा 'समन्तभद्राश्रम' Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० थोड़ा है। --- O हाता#fo भनेकान्त [वर्ष १, किरण ११, १२ अपनी लागतसे तय्यार कराया है और 'भनेकान्त'को इसकी कापियाँ भेट की हैं । अतः उनकी इस कृपाके लिये जितना भी आभार प्रदर्शित किया जाय वह इस किरणके प्रारंभमें जोसुन्दर तिरंगा चित्र लगा है उसका कोई विशेष परिचय देनेकी जरूरत नहीं हैवह दर्शकोंको अपना परिचय खुद ही दे रहा है। फिर मेरे मनका उद्गार भी इतना जरूर बतला देना होगा कि एक निर्जनस्थान में जलाशयके तट पर, जिसमें कमल फूल रहे हैं, वृक्ष ___ सजनों ! आज मैंने 'अनकान्त' की दसमी किरण के नीचे एक निग्रंथ दिगम्बर मुनि पद्मासन लगाये " समाप्त की है । मेरे मनमें जो श्रद्धा इस पत्रके संगमे ध्यानारुढ बैठे हैं, उनके रोम रोमस शांति तथा वीत पैदा हो गई है उसको मैं शब्दों द्वारा कहनेको असमर्थ गगता टपक रही है और माता ही नहीं हूँ किन्तु अयोग्य भी हूँ; परन्तु मेरे मनका उन्होंने अपनी आत्मामें अहिंसाकी पूर्ण प्रतिष्ठा करली उद्गार न रुक सका इस वास्ते आप सज्जनोंका कुछ है- अहिंसाकी साक्षान् मूर्ति बने हुए हैं-इसीसे अमूल्य समय लेता हूँ सो क्षमा करना । उनके पास एक हरिण और मामने सिंह निवग् हो कर जैनइतिहामकी खोजका जो काम 'अनकान्त' कर बैठे हैं * । हरिणके चित्तमें कुछ उद्वेग नहीं, वह सिंह रहा है वह जैनियोंके वास्ते एक अमूल्य ठोस वस्तु है। को मामने देखता हुआ भी प्रसन्न मनसे निर्भय बैठा भारतका इतिहास भी इसके बिना अधुरा ही है, इसको है, और सिंहके मुखमण्डल पर कोई करता नहीं किंतु शामिल करके ही भारतके इतिहासका गौरव बढ़ सनवताका भाव है, उसका हृदय इस समय वैर तथा कता है और यह उसके लिये सोनमें सुगंधका काम देषसे शन्य मालूम होता है और वह टकटकी लगाये और करंगा । इस लिये इस पत्रका अवलोकन करना हर मुनि महाराजकी ओर देख रहा है, मानों उनके आत्म- एक एक धर्मप्रेमीके लिये आवश्यकीय है । रहे जैनी भाई, प्रभाव और योगवलसे कीलित हुआ सब कुछ भूल ' उनको तो तन मन धनसे इसकी रक्षा करना चाहिये गया है। और शायद कुछ फासलेसे इसी लिये बैठा और परम प्रभावनाका काम समझ कर प्रत्येक मंदिर कि उससे किसीको भय मालम न हो । चतर चित्रकार जीमें इसे मंगाना चाहिए इसके सिवाय' जो विद्वान् न चित्र में, नि.सन्मेह, इन सब बातोंको लेकर अच्छा हैं-चाहे वे दिगम्बरी,श्वेताम्बरानों, स्थानवासी भाव चित्रित किया है । इस प्रकारके चित्र बरे ही हों, बाईस टोलेके हों,तेरहपंथी हों या पायी शान्तिदायक तथा ऊँचे भावों के उत्पादक होते हैं। यह उन सबको अपने अच्छे पच्छे लेखोंसे इसी पित्र भीमान बाब छोटेलालजी जैन ईस कलकत्ताने सुशोभित करना चाहिये और इस समूचे जैनसके ___*जिसके प्रात्मामें अहिंसा की प्रतिमा होतीमा का एक भादर्श पत्र बनाना चाहिये । यह परम प्रभादेवा त्याग हो जाता है, यह बात पतलिपिके निम्न वायसे बनाका काम सर्वसम्मनोंका हितेची अहिंसामविज्ञायां वत्सलियो बेरस्यागः । मानीरव जैन वर्णी प्रयास Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिवन, कार्विक, बीरनि०सं०२४५६] विषिष विषय विविध विषय १ पारितोषिककी अवधि-वद्धि अपने लेश्वमें, जो अनेकान्तकी ज्वी किरणमें पृ० ३६० . पर मुद्रित हुआ है, एक बात यहभी लिखीधी किश्वेतालमप्राय जैनप्रन्थोंकी खोजक भान्दोलनको उठाये - म्बर ग्रंथों में भेणिकके पूर्व भवोंका वर्णन नहीं मिलता। हुए साल भर हो गया और ५ महीने उस विज्ञप्रि . इसका प्रतिवाद करते हुए कलकत्तेसे मुनि दर्शनविजनं०४ को प्रकाशित हुए भी हो चुके, जिममें खोज यजी लिखने :किये जाने योग्य२७ प्राचीन ग्रंथांका कछ विशेष परि ___ "यह उल्लेम्व सत्यशिसे दूर है क्योंकि श्रीहमपन्द्र चय दिया गया था, उनके लिये १५०० म०पारितोषिक मरिजीन त्रिपाठशलाका चरित्रान्तर्गत महावीरचरित्र की योजना प्रकाशित की गई थी-यह प्रकट किया पर्व १० में श्रेणिकके पूर्वभवका वर्णन दिया है। गया था कि किम किस प्रन्थको खोजने वालेको किन शोंके माथ क्या पारितोपिक दिया जायगा-और ३ तीर्थंकरोंके चिन्ह माथ ही योजकर्ताओं तथा दूसरं सज्जनोस कुछ विशेष 'अनकान्त' की दूसरी किरण में प्रकाशित 'तीर्थकरों निवेदन भी किया गया था । परन्तु अभी तक समाज के चिन्होंका रहस्य' नामक लग्य पर जो सम्पादकीय ने इस ओर कुछ भी ध्यान नहीं दिया । उमीका परि- नोट दिया गया था उममेश्वेताम्बगेकी मान्यताका कार्ड णाम है जो खोज-सम्बंधी कहीं में भी कोई समाचार उल्लेग्य नहीं किया गया था । इम पर मुनि दर्शनविजय. नहीं मिल रहा है और इम कामकं लिये ३१ अगम्न जी, उक्त नाटका अभिनन्दन करने और उसे पसन्द सन् १९३० तककी जो अवधि रकाबी गई थी उसको करते हुए, श्वेताम्बरीय मान्यता इस विषय में क्या है पूर्ण हुए भी ढाई महीने बीत चुके हैं । जैनसमाज और उसका निम्न दो पयों द्वारा मचित करने हैं, जो प्रसिद्ध खासकर जिनवाणी माताकी भक्तिका दम भग्नवालों चनाम्यगचार्य श्रीहम चन्द्रमरिक अभिधानचिन्तामणि' के लिये यह निःसन्दह एक बड़ी ही लज्जाका विषय है नामक काशकं पा हैं :जो वे इस ओर कोई ठोस प्रयत्न न करें। प्रन्थ मब प्रा- वपोगनांऽश्चः प्लवगः क्रौञ्चोऽम्बनिकःशशी। चीन तथा खास महत्वके हैं और उनके मिलने पर जैन करः श्रीवत्मः खत्री महिपः सकरस्तथा ॥४७|| साहित्यकी बहुत ही श्रीवृद्धि होगी । अतः विद्वाना तथा शासभंडारोके संरक्षकोंको इम और स्त्राम यांग दना श्यना बज मृगश्छागो नन्याव घटोऽपि च। चाहिये । उन्हें इस बार प्रोत्साहित करने के लिये पारि- को नीलोत्पलं शंग्वः फणी मिहाना बनाleतोषिककी साध ३१ मई मन् १९३१ तक बढ़ा -वाधिदवकाग। इनमें स्पष्ट है कि श्वनाम्मर सम्प्रदायमें भी इन दगई है । इस श्रम तक जो भाई किमी भी अन्य की । खोज लगाएँगे वे नियत पारितोपिक पान के हकदार चिन्होंका नीर्थकगंकीवजाओंके चिह माना गया है। व होंगे। जिन्हें ग्रंथोंका परिचय तथा शने आदि जानने हो, चिन्हमें इतना विशेष है कि सुमतिनाथ, शीतलके लिये उक्त विज्ञप्रि नं०४की आवश्यकता हो वे उम नाथ, अनन्तनाथ और भग्नाथके शोचिन्ह पजामारादि दिगम्बर प्रन्योंमें क्रमशः कोक, श्रीवत, शल्य-शेष, की कापी पाश्रमसे मंगा सकते हैं। पोर मस्य-मेष दिये हैं उनके स्थान पर हमचन्द्राचार्य मशः कोच (बगला), श्रीवन्म, श्यन, (बाल) उत्तरपुराणमें श्रेणिकके पूर्वभव-वर्णन-बाने पाठ और नंद्यावर्तका विधान किया है। मालूम नहीं सभी परमापति करते हुए, मोबनारसीदासजी एम.ए. ने श्वेताम्बर प्रन्यों में ये ही चिन्द माने गये हैं या उनमें न Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त - [वर्ष १, किरा. ११, १२ भी दिगम्बर प्रन्थोंकी तरह कुछ कुछ मतभेद दृष्टिगोचर उपाध्यायजीने अपनी प्रति परसे जो उनको जाँचा तो होता है। आशा है हमारे श्वेताम्बर विद्वान इम विपय उसमें भी वे सब पद्य पाये गये हैं और इसलिये वे इस का खुलासा भी प्रकट करेंगे। निश्चय पर आ गये हैं कि दोनों प्रतियों एक ही ग्रन्थ ४ कर्णाटक जेनकवि की हैं। ऐसी हालतमें यह प्रन्थ योगीन्द्र देवका रचा हुआ है या रामसिंहका, यह निःसन्देह एक कठिन समस्या कर्णाटक जैन कवियोंका जो पूरा परिचय उपयोगी उपस्थित हो गई है, क्योंकि एक प्रतिकी पुष्पिकामें अनुक्रमणिकाओं के साथ पुस्तकाकार निकालनकी प्रे- योगीन्द्र देवका नाम दिया है और दूसरेकी पुष्पिकामें रणा गत किरणमें(प० ४८८ पर) की गई थी और उस गमसिंहका नाम पाया जाता है। इससे इस प्रन्थकी के लिये २००१ म०के करीब लागतका तस्वमीना किया अन्य प्रतियाँ भी वोजी जानी जरूरी हैं। विद्वानोंको गया था, उस पर अभी तक किसी भी दानी महाशयन अपने अपने यहाँ के भण्डारोंको देख कर उसकी स. कोई लक्ष्य नहीं दिया। हाँ, बाबू माईदयालजी बी. ए. चना दना चाहिय । रहा कुछ पद्याम रामासहका नाम हानकी बार उसके विषयमें उपाध्यायजीन एक कल्पना ने यह इच्छा जार व्यक्त की है कि वह पुस्तक अवश्य यह उपस्थित की है कि परमात्मप्रकाशके पद्य नं०१८८ छपनी चाहिये और साथ ही उन्होंने उसके लिये दस में जैसे 'भाउ संति भणेई" के द्वारा 'शान्ति' रुपयेकी सहायताका भी वचन दियाहै । आशा है दूसरे पा नामका उल्लेख किया है। कहीं उसी प्रकारका यह रामसज्जन भी इस ओर ध्यान देंगे, जिससे उसके छपान सिंहका उल्लेख तो नहीं है। अतः इसकी भी जाँच होने बादिकी योजना की जा सके। ऐसी पुस्तकोंके प्रका- की जरूरत है। यदि ऐसा हो तो रामसिंह योगीन्द्रदेवसे शित करने में समाजका गौरव है और उनसे उसके इ- भी पहलेके कोई प्राचीन विद्वान ठहरते हैं। तिहासाविक पर बहुत कुछ प्रकाश पड़ता है। ६ योगमाग ५दोहा-पाहड यह किरण धारणासे बहुन बढ़ गई और पिछली श्री० ए.एन. उपाध्यायजीके भेजे हुए अंग्रेजी लेख तीन किरणों जितनी मोटी हो गई,फिर भी इसमें 'योग भार्ग नामके लेखको देनेका अवसर नहीं मिल सका, काजो अनुवाद योगीन्द्रदेवका एक और अपभ्रंशमंथ' जिसका निःसन्देह खेद है ।पाशाहै इसके लिये पाठक नामसे अनेकान्तकी गत किरणमें प्रकाशित हुआ है तथा लेखक महाशय क्षमा करेंगे ।नये वर्षसे इसका उस पर नोट देते हुए देहलीकी 'दोहापाहुर'की प्रतिका ठीक सिलसिला शुरू किया जायगा। अब परिचय कराया गया था और यह सूचित किया ७ समालोचनाथे प्राप्त पस्तक गया था कि उसमें उसके कर्वाका नाम 'रामसिंह' मुनि कुल पुस्तकें समालोचनाके लिये प्राप्त हुई रस्सी - दिया है। साथ ही, उसके कुछ पचोंको उद्धृत करके हैं। अनवकाशके कारण उनकी अभी तक कोई समायह भी बतलाया गया था कि उसमें मात्र दोहे ही नहीं लोचना नहीं की जा सकी और न कुछ परिचय ही किन्तु दूसरे बन्द भी हैं और वह मात्र अपभ्रंश भाषा दिया जा सका है। अगले वर्ष में समालोचनाई नाम में तीनही किन्तु उसमें प्राकव तया संतभी से 'भनेकान्त' की एकतीही खास किरय निक पच पाये जाते हैं और उन सबको अपनी प्रति परसे लनेका विचारमा उस समय सब पर यहचान जाँचनेकी ८ उपाध्यायजीको प्रेरणा की गई थी। रिवाजावगा। प्रेषक महाराय रखन। Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ip :: *SS : * ...... . समन्तभद्राश्रम-विज्ञप्ति नं. ३ लमप्राय जनग्रंथोंकी ग्वाज समन्तभद्राश्रम 'माहित्यिक पारितोषिक फंड नामका एक विभाग यांना गया है, जिसका पहला कार्य होगा । लप्रप्राय जैनप्रन्याकी म्यांज । बहुनम महत्व प्राचीन ग्रन्थ म है जिनके | नामादिकका पता ना च नना है-किननाक वाक्य भी उदधन मिलन है परंतु व प्रन्थ मिलन नहीby मानम नहीं कौनम भगद्वारकी कानकोटगमे पड़े हुए अपना जीवन शेप कर रह है. अथवा कर चकं : । हैं। जिनवाणी माता के भनी अथवा जनी कहलाने वाला गिय यह एक बड़े ही कलंक नथा लजा का विषय है जो अभी तक उनकी प्योजक निय काई मंगटिन प्रयान नहीं किया गया। यदि म प्रथाको ग्योजक निय पारितोपिक निकाला जाय ना उमम बहनाको शाम भंडागको अन्द्री नरहने । टटोलनकी प्रेरणा हो सकती है। और इस तरह कितने ही प्रथाका पना बनकर उनका उद्धार होनेकी । अभी पूर्गमभावना है। यदि कुछ दिन और एमीनापर्वाहीम बान गय ना या, संभावना भी मिटी जायगी और फिर किमी मी मल्य अथवा व्यय पर उनका दर्शन नही हो मकंगा-कवान परतावा ही पहनावा अवशिष्ट रह जायगा: क्योकि अधिकांश भंडागं की हालत बड़ी ही शोचनीय है और उनमेमे दिन पर दिन नष्ट भ्रष्ट नथा ना हान चले जान है। अन इस विषय में अब जग भी लापवाही नही होनी चाहिए । इमानि श्राज ममाज के मामले मही कुछ प्रन्यन्नांक नाम कन्वं जान है जिनकी ग्वानकी मान जमात है और जिनका ग्याज के लिय । पारितोषिक नियत किया जाना चाहिंय माधही. प्रगक अन्य पर जा पाग्निापिक दिया जाना चाहिये । उमं भी मचित किया जाना है। श्रार जिनवागी मानके मना नया पगनन नाचायांकी कीनियाम । प्रेम रखने वाले माजनांम प्रार्थना की जानी है कि वे जिम प्रत्यक उद्वारा अपनी श्रोग्म पाग्निीपिक दना म्वीकार करें उमम शीत्र मचित करे. जिमम म्याज करने वानी के लिये कुद मनकि माथ पारितापिककी घोषणा निकाली जाय और याजका काम मात्र प्रारंभांजाय। एक माथ बातम प्रथाकी पारितोषिक घोषणा निकलने पर प्याज के कामम लोगांकी निक प्रनिहांगी. मममंगकि हनन प्रथाम में कोई ना उम भडाग्मे मिनंगा और इनिये उनका पत्रिमय नही जायगा। प्रत. इन मभी प्रन्या पर शीघ्र ही पाग्निापिक भग जाना चाहिए। जो भाई जिम प्रन्थ पर पारितोषिक देना म्वीकार करेंगे प्रत्यकी प्रानि होनेपर वह उटी नाम दिया जायगा । पाशाम महान पुन्य कार्यम मभी धर्मप्रेमी मन्जन श्रोर ग्यामकर व महानभाव जमा भाग लंगे जिनक, हदय में । प्राचीन कीनियाक लापको सुनकर एक प्रकारका दर्द पैदा होता है। जो भाई किमी एक अन्य पर पग : पारितोषिक देने के लिये ममर्थ न ही वे वे ही अपनी शान के अनमार हम फं.दको महायता दमकन । हैं, जिसमें श्राश्रम उनकी महायतानमार पारितोषिककी व्यवस्था करमकं । श्राश्रमका उम फंड नियं। रुपयकी पूरी जान है । यहां पर यह प्रकट कर दना भी उचित जान पहना है कि इन पनियोंक ... लम्बकने पहले दो प्रन्या पर म पारितोषिक देना बांकार किया है । दमा प्रथा पर : पारितोषिककी बीकारना भान पर पाग्निापिककी घोषणा वाली विधि शीघ्र ही प्रकट की जायगी। उदारहत्य व्यनियों को अपनीम्बीकारना भेजकर हम विपयम अपनकनत्र्यका शीघ्र पान्नन करना चाहिय-१ Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * लतमाय जैनग्रन्थ ग्रंथका ' कहाँ उल्लेख है ? पारितोषिक १ जामिद्धि, संस्कृत वामिममन्नभद्र जिनमनकृत हरिवंशपुगणमें * २ नन्वार्थमुत्र, टीका, मं शिवकोटि श्राचार्य श्रवणवन्गाल शिलालम्बनं०१०में १७) नव स्नात्र, मं० वननन्दी प्राचार्य ___,, नं. ५४में १००) सुमनिमप्रक,मा सुमनिदेवाचाय 11५शन्दवाच्य, मंग वक्रीव महामुनि १६चडामणि, मं ' श्रीवर्धदेवाचार्य (4 उतत्वानशामन, म म्वामिममन्तभद्र उल्लंग्व-परिचयके लिय दम्या, जनहिनी भाग ५ पृ. ३५. ८ जन्पनिर्णय, मं পালায় विद्यानंदकृत श्लोकवानिकी ५वादन्याय, मं कुमारनंदाचार्य .. पत्रपर्गनाम १८ प्रमाणसंग्रह-भाष्य. म . अनंती याचार्य मिद्धिविनिश्रय टीकाम १. प्रमागगमग्रह,ममोपनभाष्य अकनकदेव ... अनन्तवीय क भाप्यमे १२ मिद्धिविनिय, मल तथा म्वोपज्ञ भाज्य, म । १३ न्यायविनिय, मूल नथा' .. नया न्यायविटीकाम T म्बापज्ञ भाग्य, म १४ विलनगकदर्थन. म. पाऊमरी स्वामी १५ म्याद्वादमहाग्गव, मं. . न्यायविनिश्यालंकारम Y१६ विद्यानंदमहोदय, म. · विधानाचार्य विद्यानदादिकी अनेक कृतियोम १७ कर्मप्राभन, टीका. मः खामिममन्तमा इन्द्र नंदिकृत श्रृतावनाम ११) • १८ मन्मनितक, टीका, मं. मन्मन्याचार्य वादिगजके पाश्वनाथचरितम जीवमिद्धि, मं अनन्नानि प्राचार्य वादिगजके पाश्वनाथचरितमे मिद्धिभपद्धति टीका, मंः वीरमनाचार्य गगणभद्र के उत्तर पुगगमे सुलोचना, म . महामनाचार्य जिनमनकं हरिवंशपुगगामे वगंगग्नि, म विपंगाचार्य २३ मार्गप्रकाश, मं. नियममारकी टीकाम ५ श्रुतबन्ध. मं . ५ गद्धान्नवाचार्य, मं: . आर्यदेवाचार्य मल्लिग्णप्रशाम्त (श्र०शि० ५५) तथा वीरनंदिकृत आचारमारम सिद्धान्तमार(तर्क गंथ)मं. . जयशंम्बर के षड्दर्शनममुखयमे ७ वागर्थमंग्रह पुगण कविपरमग्री जिनसनके आदिपुगणमे T जगलकिशोर मुग्लार संपूर्ण पत्रव्यवहारका पता :- अधिष्ठाता "समन्तभद्राश्रम," करीलबारा. दहली। " १०) मुद्रक और प्रकाशक, अयोध्याप्रमाद गोयनीय। गयाटन प्रेम, लोथ मारकंट देहली में छपा । Page 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