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________________ ५६० अनकान्त [वर्ष १, किरण ११.१२ करने और नैवेद्य चढ़ा कर उस नैवेद्यको नदी में डालने दसवें 'साधनविधि' अधिकारमें शिष्यको विद्या आदि स्नान पर्यंत कितने ही विधि-विधानोंका उल्लेख देनेकी विधिका वर्णन है । उसके लिये एक चौकोर है। और 'वसुधारा' मंत्र दिया है जिमसे स्नान कराया 'सत्य' नामक मंडलकी रचना करके उसमें शिष्य को जाता है। साथ ही, उस मध्यमें लटकतं हुए घड़ेमें, बिठलाने और फिर उसे मंत्र देने आदिका संक्षिप्त विजिसके जलादिकसे स्नान कगया जाता है, गोमूत्रादि- धान है । अंतमें हेलाचार्यका स्मरण किया गया है के डालनका भी विधान दिया है और अंतमें लिखा है और उनके कहे हुए अर्थरूप 'ज्वालिनीकल्प' को कि इस विधिम म्नान करने वाले मनुष्यको ज्वालामा- आशीर्वाद दिया गया है, और वह इस प्रकार है :लिनी देवी श्री, सौभाग्य, आगग्य, तुष्टि, पुष्टि देती टविगणसमयमुख्यो जिनपतिमार्गोचितक्रियापूर्णः है, उसकी आयु बढ़ाती है, ग्रहपीडा दूर करती है, शत्रुभय मिटाती है, करोड़ों विघ्नोंको नाश करती है । वनसमितिगुप्तिगुप्तो हेलाचार्यो मुनिर्जयति ॥१६॥ । और बहुत प्रकार के गंगोंको शान्त करती है। यावतक्षितिजलधिशशांकाम्बरतारकाकुलाचलास्ता ___ इस अधिकारमें, जिसके कुल ३५ पदा है. सिद्ध-वत् हलाचायोक्ताथःस्थयाच्छीज्वालिनीकल्पः॥२० मृत्तिका' का जो म्वरूप दिया है वह :म प्रकार है :- इसके बाद अंथकारकी प्रगम्ति-उनकी गुरुपरंराजद्वार-चतुष्पथ-कुलाल-कस्वामलरसरिभयतर. पगका उल्लेग्व-और गन्थ रचनके समय का जो वर्णन है वह देहलीकी उक्त प्रतिमें नहीं है-इसी प्रकार से द्विग्दरदवृषभगक्षेत्रगता मृत्तिका सिद्धा ॥ १ ॥ दूरदरमासा "" अनेक प्रतियों में प्रशस्तियाँ छूट जाती हैं । अस्तु; उस अर्थात-राजद्वार, चतुष्पथ, कुम्हार...नदीक दोनों का कुछ परिचय इस लेखके पहले भागमें कराया जा तट, हाथीके दान्त और बैलके मींग इन क्षेत्रोंकी मिट्टी चका है। सिद्धमिट्टी कहलाती है। इम प्रकार यह 'ज्वालिनीमत' नामके मंत्रशास्त्रका नवमें नीराजनाधिकार में अष्ट मातकाओं तथा संक्षिप्त परिचय है। इसमें पहले दो अधिकारोंका प्रायः काली, महाकाली आदि अनेक देवी-देवताओंके (जिन पग परिचय आ गया है और शेषका सुचनामात्र है । में वीरेश्वर, महाकाल, वागेश्वरी,योगिनी महायोगिनी । शाकिनी श्रादि भी शामिल हैं) और ग्रहों । मुख पिट्ठी जुगलकिशोर मुग्न्तार तथा सिद्धमिट्टी आदिस सालंकार तथा सलक्षण बनाने, प्रत्येक मुखको नैवेद्य-दीप-धूपादिकी जलमें बलि देने अथवा बलिको जलमें विसर्जित करनेत्रादिका विधान है, देहनीकी उक्त प्रतिमें इस पदके स्थान पर 'कविकरणऔर साथ ही उसका फल भी दिया है। अंतमें कहा है समयमुल्ये' लिखा है ( अनुवाद भी कवियोंकी बन नेके शास्त्र में कि 'ज्वालामालिनी देवीकी बतलाई हुई यह नीराजन- कर दिया है ), जो प्रयुद्ध है। इस प्रकारकी बहुतमी अशुद्धियां विधि गह, भूत, शाकिनी और अपमृत्यु के भयको शीघ्र देहनीकी प्रतिके मूलपाठमें भी पाई जाती है । बम्बई की वह प्रति ही दूर करती है। इस अधिकारमें २५ पद्य हैं। प्रायः शुद्ध है, जिस परमे मैने नेट लिया था।
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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