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________________ माश्विन,कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] अनेकान्तदृष्टि ५६१ गई अनेकान्त-दृष्टि [लेखक-श्री० पं० देवकीनन्दनजी, सिद्धान्तशास्त्री ] AND जानकी गति दृष्टि के अनुकूल ही होती है ; जैसे वश किसी एक विषयकी तरफ निरपेक्षरूपसे झक परमार्थ-दृष्टि वालके ज्ञानकी गति परमार्थकी जाती है तब अपने भ्रम और स्वार्थके कारण वह एक साधना अनकूल होती है और स्वार्थ-दृष्टि वालेके ज्ञान प्रकार के कदामहसे प्रम्त हो जाता है और उसको ही की गति स्वार्थीकी साधनप्रापिके अनुकूल होती है। जैसे तैसे सत्य सिद्ध करने तथा प्रचार करनेमें तत्पर हो "मंडे मंडे मतिभिग" की जो कहावत लोकमें प्रचलित जाता है । इस प्रकार उसके दृष्टिकोणमें विकार पा है वह सब भिन्न भिन्न दृष्टियोंके ऊपर ही निर्भर है। जानस उसका ज्ञान भी अज्ञानरूपमें परिणत हो जाता इसी लिए ज्ञान सम्यग्ज्ञान कब होता है और कैसे होता है। यदि ज्ञानमें भ्रम न हो, किसी तरहको स्वार्थवासना है, इस पर विचार करनेस यही निष्कर्ष निकाला जा न हो और मनुष्य अपनी मदसद्विवेकबद्धिको यथार्थ सकता है कि दृष्टि में समीचीनताके आने पर ही ज्ञानमे अथवा निर्विकार दृष्टि-कांग्णकी तरफ झकने के लिए समीचीनता आती है, अन्यथा नहीं । और दृष्टि में स. खुला गम्ता रहने दें, तो उनकी ज्ञानशक्ति वस्तुओं के मीचीनता वस्तुके यथार्थ स्वरूपके समझनम ही पाती अंत:स्थलको स्पर्श करके अवश्य ही वस्तुगत अनंत है। प्रत्यक वस्तु अनेकधर्मात्मक है।वे अनेक धर्म जिन धर्माको प्राप्त कर लेती है। और उनकी ऐमी दृष्टिके जिन स्वरूपोंमें स्थित होते हैं, जिन जिन परिस्थितियों होनम ज्ञानकी नदनकुल वृत्ति विकमिन होकर प्रज्ञानमें अथवा जिन जिन समयो तथा जिन जिन क्षेत्रोमे निव निजन्य से आल्हादका अनुभव करती है कि जिन जिन परिणामोंको लिय रहते हैं, उनका उन उन ही जिमके मामने बड़े बड़े वैपायक सुन्य, अवांछनीय ही स्वरूप, उन उन ही परिस्थितियों में अथवा उन उन ही नहीं किन्तु अत्यंन हेय और पापमूलक अनुभवमें पान ममयों तथा उन उन ही क्षेत्रोंमें उन उन ही परिणाम लगते हैं। इससे कुछ पहुँचे हुए अनुभवी विद्वाननि स्वरूपदखना इसीका नाम अनेकान्त-दृष्टि है । देश-काल इस प्रकार के उद्गार निकाले हैं किपरिस्थितिकं अनुकूल अवस्थित वस्तुको यथार्थरूपम न कोटिजन्म तप त ज्ञान विन कर्म झरे में। देखनमें मनुष्यके ज्ञानकी मंदता कारण नहीं है किन्तु ज्ञानीक छिनमें त्रिगुप्तिन सहज टरै ते ।। उसकी निकृष्ट-प्रासक्तिवश-म्वार्थपरम्परा अथवा तजन्य इन शब्दोंक द्वारा ज्ञानका जो माहात्म्य वर्णन किया जो ज्ञानका भ्रम है वहीं बाधक कारण है। गया है वह सब भनेकान्तदृष्टिसं होने वाले शानकाही है। जब मनुष्यकी दृष्टि किसी स्वार्थवश अथवा भ्रम- सम्यक् दर्शन-बान-चारित्रमें सम्यकदर्शनको अवस्थान
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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