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________________ ५६२ - प्राप्त होनेका कारण भी यही है; क्योंकि जीवात्माकं ज्ञानकी गति सदैव श्रद्धा के दृष्टिके - अनुकूल होती है और सद्दृष्टि, सम्यग्दृष्टि अथवा अनेकान्तदृष्टि का नाम ही सम्यग्दर्शन है। यदि श्रद्धा विपरीत हो तो ज्ञानकी गति, वस्तुके स्वरूप, भेदाभेद और कार्यकारणभाव के विषय में पक्षपातप्रस्त हो जाती है । और उसे ही विपर्यासयुक्त बुद्धि कहते हैं । अथवा शास्त्रीय परिभाषा में कारणविपर्यास स्वरूपविपर्यास और भेदाभेदविपर्यास युक्त भी कहते हैं। किंतु जिम समय व्यामाह के दूर होने से आत्मविशुद्धिवश अनेकान्तदृष्टिका उदय होता है उस समय आत्माका ज्ञान स्वभावसे ही अनेकान्तात्मक (निःपक्षपाती) होने से वस्तुके स्वरूप का यथार्थ बोधक होता है तथा रागद्वेप-रहित होनेके कारण अतीन्द्रिय आनन्दका उपभोग करने वाला भी हो जाता है | अतः ज्ञानके विषय में यह कहना श्रनुपयुक्त नहीं होगा कि वह अनेकान्तदृष्टि के विना ही मिथ्याज्ञान औव अकल्याणकारी कहलाता है । यहाँ पर यदि यह प्रश्न किया जाय कि दृष्टिके कान्तात्मक होने कारण क्या है ? तो इसका उत्तर यह है कि जिस प्रकार ज्ञानका स्वभाव वस्तुके स्वरूपको जानने का है उसी प्रकार उस ज्ञेयभूत वस्तुका स्वभाव भी अनंतधर्मात्मक और अपने सम्पूर्ण धर्मोसहित ज्ञानका विषय होने का है । अत एव जब मात्मा विशुद्धिवशात् सर्वज्ञता प्राप्त करता है तब वह उसके वस्तुगत संपूर्ण धर्मोंको युगपन् जानता है। परंतु अल्पश अबस्थामें वह (आत्म।) ज्ञान के अपूर्ण हानसे वस्तुगत अनन्त स्वरूपोंको युगपत् नहीं जान सकता है किंतु गुणमुख्य-विवज्ञावश नयात्मक ज्ञानके द्वारा थांडे अनेकान्त [वर्ष १, किरण ११,१२ से वस्तुगत स्वरूपोंको ( धर्मोको ) जानता है । और जिस समय वह अल्पज्ञ अपने उस नयज्ञानके चित्रको शब्दोंमें अंकित करके दूसरोंको समझाना चाहता है। अथवा दूसरोंके द्वारा स्वतः समझना चाहता है उस समय वह नयज्ञान के समान ही शब्दों में एक साथ वस्तुगत नाना धर्मों के प्रतिपादनकी शक्तिका अभाव पाता है। इसी लिये एक ही वाच्यके नानावाचक मान गये हैं और नाना अपेक्षाओंक द्वारा एक ही अर्थका नानारूपसे प्रतिपादन किया जाता है। जैसे:- इन्द्रके वाचक इन्द्र, शक्र, पुरंदर ये तीन शब्द हैं। जब इन्द्र की आत्मा में ऐश्वर्य के उपभोगकी, प्रत्येक कार्यको कर सकनेकी, और राक्षसोंको विदारण करनेकी शक्ति विवक्षित की जाती है तब उसके इंदन से इन्द्र, शकन से शक, और पूः नामक राक्षसके विदारणसे पुरंदर ऐस नाम पड़ते है । यद्यपि उसमे तीनों ही शक्तियाँ प्रत्येक समय में मौजूद हैं परन्तु एक व्यक्ति के द्वारा एक समय में एक ही शब्द प्रतिपादित किया जा सकता है तथा तीनों ही शब्दोंक द्वारा इन्द्रका वाच्य जाना जाता है। इसी प्रकार जीव, जल आदि प्रत्येक शब्द वाच्य के नाना वाचकोंमें भी यही युक्ति लगा लेनी चाहिये । * स्वामी समन्तभवने रमकरण उभावका चार में भी, 'सद्दृष्टि ज्ञानवतानि ' पदके द्वारा सम्यग्दर्शनके लिये 'सरदृष्टि' शब्दका प्रयोग किया है। इस प्रकारके एक ही अर्थके नाना वाचकोंका विचार करनेसे यह सिद्धान्त सहज ही निकाला जा सकता है कि वस्तुओ में अनेक धर्म है और शब्द उन धर्मोका युगपत् (एक साथ) कहने के लिये असमर्थ है। श्रतएव क्रमपूर्वक भिन्न भिन्न अर्थकी अपेक्षा से एक वाचकके नाना वाचक हो जाते है । इसीलिये जैनधर्म निसर्गको ही धर्मका स्वरूप बतलाने वाला होने से वस्तुको अनेक धर्मात्मक अर्थात् अनेकान्तात्मक मानता है; क्योंकि 'अनेकान्त' शब्द में 'अन्त' शब्द का अर्थ 'धर्म' है । और उन सब धर्मोंका ज्ञान मुख्य-गौरा-विवक्षाके
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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