SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 278
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ५ राई से विजय प्राप्त की गई कि खन-खराबी की नौबत इस २१०० वर्ष के प्राचीन जैन शिलालेखसे स्पष्ट ही न पाई । मगधाधिपनि महाराजा नन्द इस विजयमे पता चलता है कि मगधाधिपति पुष्यमित्रके पूर्वाधिकार्ग नीन शताब्दी पूर्व कलिंग विजय कर भगवान श्रीऋप- राजा नन्द श्रीऋषभदेवकी प्रतिमा कलिंगदेशसे मगध भदेव (आदितीर्थकर) की मूर्ति जो कलिंगराजाओं की ले गये थे और वह प्रतिमा खारवेल ने नन्द राजा के कुलक्रमागत बहुमूल्य अस्थावरसम्पनि थी, जय-चिन्ह ३०० वर्ष बाद पुष्यमित्र से प्राप्त की । जब एक पज्य म्वरूप मगध ले गया था। उस मगधाधिपति पुष्यमित्र वन्तु ३०० वर्षों से जिम राज घराने में सावधानी मे ने खारवल का लोटा कर राजी कर दिया। रखी हुई चली आई है, तो अवश्य ही मगधक नन्द ___ यह बात प्रायःसभी विद्वान जानते हैं कि हिन्दुओं राजागण उस पूजते थे । यदि और कोई वस्तु होती के प्राचीन ग्रंथ वेदों में मूर्ति-पूजा का उल्लेग्व नहीं है। तो इननं दीर्घ काल में अवश्य ही किसी न किसी तरह और यह भी सिद्ध है कि बौद्धों के यहाँ पहले मूर्तिपूजा वह विलीन हो जाती है। 'मुद्रागक्षस' में भी यह उल्लेख नहीं थी किंतु वे बुद्धदेव का दाँत या किसी अंगविशेष है कि नन्दराज और उसके मंत्री गक्षसको विश्वास में की अस्थि ही म्वर्ण पात्र में बन्द कर स्तुपों में रख कर फाँसने के लिये एक दूतको क्षपणक बना कर चाणक्य उसकी पूजा किया करते थे । किंतु इस लेख से जब ने भेजा था । कोषप्रन्थों में क्षपणकका अर्थ दिगम्बरआदि तीर्थकर की ऐसी प्रतिमा का उल्लेख मिलता है जैनसाधु है तथा महाभारत में भी 'नग्नक्षपणक' का जो एक राज्य की कुलक्रमागत अस्थावर सम्पत्ति थी व्यवहार हया है। इससे नन्दगजा जैन थे और वह और जो कम से कम अन्तिम तीर्थकर श्रीमहावीर प्रतिमा ( श्रीआदिनाथकी ) भी अवश्य दिगम्बर थी। म्वामीके समय की या उनम भी पहले की निर्मित थी जो लोग यह मानते हैं कि जैनधर्म के आदि प्रवतब एक हद तक इसमें संदेह नहीं रहता कि मूर्तियों तक महावीर म्वामी या श्रीपार्श्वनाथजी थे उनका भी द्वारा मूर्तिमान की उपासना-पूजा का आविष्कार करने ममाधान इस शिलालेख पर में हो जाता है । क्योंकि वाले जैनी ही हैं । यदि ये ही दोनों नीर्थकर जैनधर्म के चलाने वाले होते इस शिलालेखसं यह भी स्पष्ट विदित होता है कि तो उनके समय की या उनमे कुछ ही समय बाद की महाराज म्यारवेल से बहुत पहिले उदयगिरि पर अर्हत- प्रतिमा उन्हींकी होती । परंतु ऐसे प्राचीन शिलालेखमें मंदिर जिनका जीर्णोद्धार खारवेल ने किया था। जब आदि तीर्थकरकी प्रतिमाका स्पष्ट और प्रामाणिक प्रस्तुमंदिरों के विषय में तो इतना ही लिम्बना पर्याप्त उल्लेख इतिहासको साथमें लिय हुए मिलता है तो जैनहोगा कि जैनशाम्बों में समवसरण कीरचनाका जो बहुत धर्मके प्राचीनत्व में संदेह नहीं रहता। विशेषता के साथ वर्णन पाया जाता है उसे देखते हुए, राज्याभिषेकके ९३वर्ष में कलिंग चक्रवर्ती महाराज मंदिरोंमें (क्या हिन्दू और क्या बौद्ध सभीमें) जोगीपुर प्राकारादि बनाये जाते हैं वे ठीक जैनियोंक समवसरण का • वारवेलन"कल्पद्रुममह" किया था जिसमें हाथी, घोड़े, की शैली पर ही जान पड़ते हैं। रथ,मकान,भोजन,वस्त्रादि किमिच्छक दान दिया था। * यह विषय अभी तक विवादग्रस्त है और इस लिये जैसा कि शिलालेखकी निम्न ९वीं.पंक्तिसे प्रकट है :इस पर अधिक स्पट रस में लिखे जाने की जरूरत है। सम्पादक * यह प्रमान कुछ प्रौढ़ मालूम नहीं होता।-सम्पादक
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy