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चैत्र, वीरनि०सं०२५५६]]
महाराज खारवेल कल्परुखे हय-गन-रध-सहयंते सवधरावा किमिच्छकेन दानेनं जगदाशापर्य यः। म-परिवसने स-भगिणठिये। सब-गहनं च चक्रिभिः क्रियते सोऽहयज्ञः कल्पमामहः।। २.२८ कारयितं बम्हणानं जाति-पंति परिहारं ददाति ।
-पं० श्राशाधरकृत, मागारधर्मामन । अमहतो.......न...गिय।
कल्पद्रुम मह के सम्बंध में इन सबका तात्पर्य यह
है कि-याचक लोगों को 'तुम्हें क्या चाहिये' इस इम पंक्ति मे 'कन्पखें' श्रादिशब्दोंमें जो उल्लेख
उल्लख प्रकार पुछ कर उन्हें उनकी इच्छानुमार दान देकर ना हुआ है उसी विषयको अब पाठकों के समक्ष स्पष्ट
महोत्सव सम्राट् या चक्रवर्ती करते हैं वह जगत की करने का यत्न किया जाता है।
इच्छा पूर्ण करने वाला कल्पद्रम मह कहलाना है। __मर देखनमें जितने भी आचार-शास्त्र या चारित्र
इससे पाठकों को मालम होगा कि धर्मगज प्रन्थ आये हैं और जिनमें पूजाभेदों का वर्णन है. उन महागज वाग्वल ने भी जैनशाम्नानुसार श्रावकोचित मभी में इस "कल्पमख" (कल्पवृक्ष) मह का विधान तथा प्रार्यकर्मस्प यह यज्ञ किया था । जैनशानी में ममान मिलता है । नमूने के तौर पर यहाँ इसके दो
इस यज्ञ के करनकी आज्ञा व वल सम्राट या चक्रवर्ती नीन उदाहरण ही पर्याप्त होगे
को ही दी गई है। और यह बान इतिहाससिद्ध है कि गृहस्थस्येज्या, वार्ता, दत्तिः साध्यायः, महाराज वाग्वल अपने समय के सबसे बड़े शासन
का धं । महागज ने जितनी विजय प्रान की थी मंयमः, तप इत्यार्यपट कर्माणि भवंति । नत्राई.
(जिसका शिलालेखम पूर्ण उल्लव है ) वह उस समय जंज्या, मा च नित्यमहश्चतुमुखं कल्पवृक्षा- चक्रवोचित थी । इमी लिय महागनी ने भी अपन अष्टानिक ऐन्द्र वन इति । तत्र नित्यमहानित्यं शिलालेख में महागज को "कलिंगचक्रवर्ती" लिखा यथा
है। महाराज वाग्वलकेममय भाग्नीय गज्य-मिहासन दिनिवेदनं चत्यचन्यालयं कृत्वा ग्रामनत्रादीनां पर मगधाधिपनि महागज पमित्र शासन कर रहे
छ । उम ममय मगधाधिपनिको बिना पगस्त किये कोई शामनदानं मुनिजनपूजनं च भवति । चतुर्मुग्वं
भी अपन का चक्रवर्ती घोषित नहीं कर सकता था। मृकुरबदैः क्रियमाणा पजा सैव महामहः सर्वनी- अस्तु; वारवेल नं मगध विजय करके ही चक्रवर्ती पर भद्र इनि । कम्पवृक्षार्थिनः प्रार्थितार्थः संतप्यं च- प्रान किया था। कवनिभिः क्रियमाणामहः ।
____ कई विद्वानों का कहना है कि उस समय जैनधर्म
विगवा हिन्दोके पन्थ की तरह एक धर्मपंथ होने -वामुगड गायकृन, चारित्रमा ।
की अपेक्षा पांडित्य की वस्तु होनही विशेष महत्व दत्याकिमिच्छकं दानं सम्राइभियः प्रचन्यनं बता था । इमी लिय म्याग्वेलका महागज्याभिषेक कन्पद्रुपमहः सोऽयं जगदाशापपुरणः ॥२८-३१ वैदिक रीत्यानुमार हुआ था और ग्वारखनन बर्ण-श्रीजिनमनप्रणीत. आदिपगगा। वृक्षादिक रूपमें महादान प्रामगों को दिय थे । किंतु
मैं जिन प्राचार-ग्रन्थोंके प्रमाग उपर उद्धन कर पुजा मुकुटबयां क्रियते मा चतुर्मुखः ।
___ चुका हूं उनसे पाठक स्पष्ट ममझ गये हांग कि बारचक्रिभिःक्रियमाणा या कम्पबनाइतीरिता॥६-३० बलके नेगचार जनविधि-अनुमार ही थे न कि वैदिक
पं० मेधावीकृत, धर्मसंग्रहश्रावकाचार। विधिक अनुमार । उन विद्वानों ने अन्य कई बायो