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________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण २ होती और न महस्रीमें ही उसके कर्ताका नाम अथवा नामान्तर पात्रकेसरी दिया है। जान पड़ता है. नाटक के कर्ता भट्टारक वादिचंद्रजीको अष्टशतीका अष्टसहस्री द्वारा पुष्ट होना दिखलाना था और उसके लिये उन्होंने वैसे ही उसके पुटकर्ता रूपमें 'पात्रकेसरी' नाम की कल्पना कर डाली है। और इस लिये उस पर कोई विशेष जोर नहीं दिया जा सकता और न इतने परमे ही उसे ऐतिहासिक सत्य माना जा मकता हे । उनका प्रधान रहे दो प्रमाण पहना और चौथा । चौथा प्रमाणविक्रमको १७वीं शताब्दी (मं० १६४८) में बने हुए एक नाटक ग्रंथके कल्पित पात्रोंकी बात चीत पर आधार रखता है, जिसे, सब ओरसे सामंजस्य की जाँच किये बिना, कोई नाम ऐतिहासिक महत्व नहीं दिया जा सकता । नाटकों तथा उपन्यासोंमें प्रयोजनादिवश कितनी ही बातें इधर की उधर हो जाती हैं, उ लक्ष इतिहास नहीं होता किन्तु किसी बहाने से कितनी ही कल्पनाएँ करके - किसी विषयको प्रतिपादन करना अथवा उसे दूसरीके गले उतारना होता है। और इस लिये उनकी ऐतिहासिकता पर सहसा कोई विश्वास नहीं किया जा सकता । उनके पात्रों अथवा पात्र नामों की ऐतिहासिकता तो कभी कभी बहुत दूरकी बात हो जाती है, बहुत नाम तो उनमें से ही कल्पित किये हुए (फर्जी) होते हैं - वे कोई ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं होते- यार कितने ही व्यक्तियों का काम उनके श्रमली नाम से प्रकट न करके कल्पित नामां ही प्रकट किया जाता है । इस ज्ञानसूर्योदय नाटकका भी ऐसा ही हाल हैं । इसमें 'रानी' के मुखसे जो वाक्य कहलाये गये हैं उनमें नित्यादि परपक्षांके खंडनात्मक वाक्य 'अशी' के नहीं किन्तु 'आप्तमीमांसा' के वाक्य हैं. जिसको 'देवागम' भी कहते हैं । और इस देवागम स्तोत्रकीबाबत ही यह कथा प्रसिद्ध है कि उसके प्रभाव में पात्रकेसरी विद्वान अजैनम जैन हुए थे - समन्तभद्र भारतीस्तोत्र' में भी 'पात्रकेसरिप्रभावसिद्धकाfrfi स्तुवे' वाक्य के द्वारा इसी बातकां सूचित किया गया है । पात्रकेसरीको 'अशी' की प्राप्ति हुई थी और वे उसकी प्राप्ति के पहलेसे ही संपूर्ण म्याद्वादके faraiii अच्छी तरह से जानने वाले थे, नाटकके इस कथन की कहीं भी कोई सिद्धि तथा पुष्टि नहीं हो, पहले प्रमाण में 'सम्यत्तवप्रकाश' नामक ग्रंथकी जो पंक्तियाँ उद्धृत की गई हैं उनसे विद्यानन्द और पात्रकेसरीका एक होना जरूर प्रकट होता है। और इस लिये इस प्रमाण पंचक में परीक्षा करने पर यही एक ग्रन्थ रह जाता है जिसके आधार पर प्रकृत विषयकं सम्बन्धम कुछ जोर दिया जा सकता है। यह ग्रन्थ मेरे सामने नहीं है - प्रेमीजीको लिखने पर भी वह मुझे प्राप्त नहीं हो सका और न यही मालूम हो सका है कि वह किसका बनाया हुआ है और कब बना है। प्रेमी जी लिखते हैं- “मम्यत्तत्वप्रकाश के विषय में मै कुछ भी नहीं जानता हूँ । (मंग) वह लेख मुख्यतः पांगलकं मराठी लेखके आधार में लिखा गया था और उन्होंने शायद के. बी. पाठकके अंग्रेजी लेख के आधार से लिखा होगा, ऐसा मेरा अनुमान है ।" अस्तु; डाक्टर शतीचंद्र विद्याभूषणने भी अपनी इंडियन लॉजिक की हिस्टरी में, कं० वी० पाठकके अंग्रेजी लेख के आधार पर 'मम्यत्तवप्रकाश' के इस प्रमारणका उल्लेख किया है और इससे ऐसा मालूम होता है कि शायद के बी 'जैनग्रन्थावती' मे मालूम होता है कि इस नामका एक ग्रन्थ दक्कन कालेज प्रनाकी लायब्रेरी में मौजूद है। सभव है कि वह यही प्रकृत ग्रन्थ हो। और के०बी० पाठक महाशयने इसी ग्रन्थप्रति पर मे उल्लेख किया हो ।
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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