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________________ पौष, वीर निमं० २४५६] स्वामी पात्रकेसरीऔर विद्यानंद द्वारा रचित * देशभक्त्यादिशान से भी पाई जाती है । इससे मालूम होता है कि 'पात्रकेसरी' पहले जिसमें इन सब पद्योंका ही नहीं किन्तु संस्कृत भागके किसी राजाकी सेवामें थे और उस राजसेवाम पराभी बहुतमे पद्योंका उल्लेख करते हुए विद्यानन्दकी मृत्यु का समय शक मं० १४६३ दिया है । यथाः " मृत्यु मुख होकर उसे छोड़ कर ही वे मोक्षार्थी मुनि बने हैं शाक वन्हिग्वग(रसा)ब्धिचंद्रकलित संवत्सरेशावरे और उन्होंन भूभृत्पादानुवर्ती होना-अथवा तपस्याक शुद्धश्रावणभाककृतान्तधरणीतग्मैत्रमेष रवी। लिय गिरिचरणकी शरणमें रहना ही उत्तम समझा ककस्थ सगरी जिनस्मरणतो वादीन्द्र बन्दाचिती है, और इमीस आप शुशोभित हुए हैं ] इस स्तोत्रके बाद चामुण्डराय द्वारा पूजित नमिविद्यानन्दमुनीश्वरः स गतवान् स्वर्ग चिदानन्दकः।। " चंद्र, माधवचंद्र, अभयचंद्र, जयकीर्ति, जिनचंद्र,इंद्रनंदी मी हालनमें यह स्पष्ट है कि एक विद्वानकी वसन्तकीर्ति, विशालकीर्ति, शुभकीर्ति, पद्मनन्दी, माघकीर्तियांका दृमा विद्वानके साथ जोड़ दनमें प्रेमीजी नन्दी, सिंहनन्दी, चन्द्रप्रभ, वसुनन्दी, मेघचन्द्र, आदिका भार्ग भ्रम नथा धाग्या हुआ है और उन्हें अब वीरनन्दी, धनंजय, वादिगज और धर्मभुपणका स्तवन उम मान्न म करके तथा यह दंग्य कर कि ग़लतीका देत अथवा इनमेंस किसी किसीका उल्लेख मात्र करते बहुत कुछ प्रचार हो गया है ज़हर उसके लिय ग्वद हए. फिर उन्हीं वादि विद्यानंदका शिष्य-पशिष्यादिहोगा । अम्तु; अब शिलालेखक संस्कृत भागका महित वर्णन और म्तवन दिया है जिनका पहले कनडी नीजिये. जिसका प्रारम्भ निम्न पद्यों होता है:- भागमें तथा संस्कृत भागके पहले पामें उल्लेग्व हैवीरश्रीवरदेवगजकृत्सन्कल्याणपूजोत्सवो उन्हें ही 'वधेशभवन-व्याख्यान' का कर्ना लिग्वा विद्यानंदमहोदयकनिलयः श्रीसंगिगजाचितः। है-और अन्तमें निम्न पदा द्वाग इम मब कथनको पमानन्दन कृष्णदेव-विनुनःश्रीवर्द्धमानी जिनः गमसंतति' का वर्णन मचित किया है । पायात्सालुव-कृष्णदेव नपति श्रीशोऽर्द्धनारीश्वरः।। वदमानमुनीन्द्रण विद्यानन्दायबन्धुना । श्रीमन्परमगंभीरस्याद्वादामोघलांछनम् । देवेन्द्रकीतिमहिता लिखिता गुरुसन्तति ।। जीयान त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिन शासनम् ॥ शिलालेखके इम परिचयमे पाठक सहज हीमें यह इन पद्योंके बाद क्रमशः वर्द्धमान जिन, भद्रबाहु, समझ सकते हैं कि, 'पात्रकेमरी' विद्यानंदम्वामीका उमाम्बानि. मिद्धान्ततीनि, अकलंक, श्लोकवार्तिकश्रादि . प्रन्योंके का विद्यानंदम्वामी, माणिक्यनंदी, प्रभाचंद्र, . A. कोई नामान्तर नहीं है, वे गुरु मन्नतिमें एक पृथक पज्यपाद, हाय्मलराजगुरु वर्द्धमान, वासुपज्य और ही श्राचार्य हुए हैं-दाना विद्यानन्दोंक मध्यमें उनका श्रीपाल नामक गुरुओंकाम्नवन करते हुए पात्रासरी' नाम कितने ही आचार्यों के अन्तरम दिया हुआ हैका म्नोत्र निम्न प्रकारमं दिया है और इस लिये इम शिलालम्ब के आधार पर प्रेमीजीका भभूत्पादानुवर्णसन् गजमेवापराङ्मुखः। उन्हें तथा विद्यानंद म्वामीको एक ही व्यक्ति प्रतिपादन संयतोऽपि च मोक्षार्थी भात्यसो पात्रकेसरी ॥ करना भ्रममात्र है-उन्हें जम्ब इम विषयमें दूमराक यह ग्रन्थ माराक जनमिद्धान्तभनम देवनको मिला जिमक अपरीक्षित कथन पर विश्वाम कर लेनके कारणधोम्या लिये प्रयत्न महाशय विशेष कन्यवाद के पात्र हैं। हुआ है।
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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