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जेसलमेर के भं० कं प्रन्थ- फोट
आश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६ ]
वह आवश्यकता नहीं मिट सकती । अतः एक समय में कार्य की उत्पत्ति न मानना ही युक्ति और व्यवहार के अनुकूल है।
लेकिन जमालि घट को एक ही कार्य मान कर यह व्याख्या करता है । वास्तव में घट बनाने के विचार से, मिट्टी लाने से लगाकर घट बन जाने तक अनेक कार्य अनेक समयों में करने पड़ते हैं । घटरूप एक महान कार्य की ये सब कोटियाँ हैं । पूरा घट बनने में जितने समय लगते हैं, उननं ही वे अवान्तर कार्य हैं, जो सम्मिलित होकर एक महान कार्य कहलाते हैं। उन कामों की अपेक्षा एक-एक कार्य की उत्पत्ति मानना बेजा नहीं है । इस अपेक्षा को भूला देने से जमालि निह्नव कहलाया । दूसरा निन्हव
भगवान् महावीर को केवल ज्ञान होने के १६ वर्ष बाद की बात है । राजगृह उर्फ ऋषभपुर में 'वसु' नामक आचार्य आये । उनके एक शिष्य 'तिध्यगुप्त' थे । वे एक बार ‘आत्मप्रवाद' नामक पूर्व पढ़ रहे थे। उसमें एक जगह आया - " एक, दो, तीन आदि प्रदेशों को जीव नहीं कह सकते, यहाँ तक कि लोकाकाशकं प्रदेशों के बराबर असंख्यात आत्मप्रदेशो में से एक प्रदेश भी कम को जीव नहीं कह सकते ।" तिष्यगुप्त उस समय यह बात भूल गया था कि यह मत किसी एक नय की अपेक्षा मे है । इसलिए उसने मिध्यात्व के उदय सं यह सिद्धांत कायम कर लिया कि जिस एक अन्तिम प्रदेश से जीवत्व श्राता है, वहीं एक प्रदेश जीव कहलाता है। तात्पय यह है कि जीव एक प्रदेशी है। आचार्य ने उसे अनेक गंभीर युक्ति प्रमाणों से समझाया, पर वह किसी प्रकार न माना तो उन्होंने उसे संघ से बाहर कर दिया। निष्यगुप्त
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घूमता- घूमता श्रामलकल्पा नगरीमें आया । वहाँ मित्रश्री नामक एक श्रावक थे। जब उन्हें मालम हुआ कि यह निश्व है, तो उसे उन्होंने निमन्त्रित किया। जब तिष्यगुप्त मित्रश्रीके घर पहुँचा तो उन्होंने बड़ा आदरसत्कार दिखाकर बहुत-सी खानेकी चीजें उसके सामने रख दीं और उनमें से एक-एक सीथ - (सिक्थ-चावल ) भर उसे दिया । यह हाल देख तिध्यगुप्त ने कहा "हे श्रावक ! यह क्या करते हो ? जरा-जरा सा अंश देकर क्या मेरा अपमान करते हो ?" मौका देखकर श्रावक बोला - "यदि एक अवयव समस्त अवयवोंका काम नहीं दे सकता तो आप जीवके एक अंतिम प्रदेश को समस्त जीव मानने का श्रामह क्यों करते हैं ? वस्त्र का अन्तिम तंतु, वस्त्र-साध्य शीतत्राण आदि कार्य नहीं कर सकता, इस लिए उसे वस्त्र कहना उचित नहीं है । इसी प्रकार आत्मा के विषय में समभ लीजिए ।"
जां तिष्यगुप्त भाचार्यद्वारा अनेक तर्क बितर्फ और शास्त्र प्रमाणों द्वारा समझाने पर भी नगुमा था वही मित्र श्री की युक्ति से प्रतिबुद्ध हो गया । उसने अपनी भूल मान ली और प्राचार्य के समीप काफ प्रतिक्रमण किया ।
निष्यगुप्त की मान्यता का आभार यह अन्य प्रदेशों के विद्यमान रहते हुए भी कंबल प्रदेश की न्यूनता से जीवन नहीं श्राता । और वह एक प्रदेश सम्मिलित हो जाता है तब जीवत्य भाता है । अतः उस एक प्रदेश के साथ ही जीवस्थ का संबन्ध है, इसलिए एक प्रदेशको ही जीव मानना चाहिए ।
यह एवं नयका मत है। उसने विवक्षा-भेदका ध्यान में नहीं रक्खा। इसलिए वह निशव कहलाया ।