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________________ वैशाख, ज्येष्ठ, वीरनि०सं० २४५६ ] 1 " तत्वार्थ सूत्रके प्रणेता उमास्वाति पाया जाता है १४ । तत्त्वार्थ १, १२ के भाष्य में अर्था पत्ति, संभव और अभाव आदि प्रमाणोंके भिन्नपने का निरसन न्यायदर्शन (२, १, १) आदिके जैसा ही है । न्यायदर्शन में प्रत्यक्ष के लक्षण में "इन्द्रियार्थ - सनिकर्षोत्पन्नम् ” (१,१, ४) ऐसे शब्द हैं । तत्त्वार्थ ० १ सू० १२के माध्य में अर्थापत्ति आदि जुदे माने जाने वाले प्रमाण को मति और श्रुत ज्ञान में समावेश करते हुए इन्हीं शब्दों का प्रयोग किया है। यथा :"सर्वाण्येतानि पतिश्रुतयोरन्त भूतानि इन्द्रियार्थ - सन्निकर्षनिमित्तत्वात् । १, १२ का भाष्य । इसी तरह पतंजलि - महाभाष्य १५ और न्यायदर्शन १६ आदि में पर्याय शब्द की जगह 'अनर्थान्तर' शब्द के प्रयोग की जो पद्धति है वह तत्वार्थ सूत्र १० में भी पाई जाती है। (घ) बौद्धदर्शनकी शून्यवाद, विज्ञानवाद आदि शाखाओंके खास मंतव्योंका अथवा विशिष्ठ शब्दोंका जिस प्रकार सर्वार्थसिद्धिमें उल्लेख है उस प्रकार तत्वार्थ भाष्य में नहीं है तो भी बौद्धदर्शन के थोड़े से सामान्य मन्तव्य तंत्रान्तर के मन्तव्यों के रूप में दो एक स्थल पर आते हैं। वे मंतव्य पाली पिटक के ऊपरसे लिये गये हैं या महायान के द्वारा रचे गये संस्कृतपिटकों के ऊपर से लिये गये हैं अथवा किसी दूसरे ही तद्विषयक ग्रन्थ के ऊपर से लिये गये हैं,यह विचारणीय है । उनमें से पहला उल्लेख जैनमत के १४ “प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि ” । न्यायदर्शन १, १, ३ । "चतुर्विधमित्येके नयवादान्तरेण” १, ६, और "यथा वा प्रत्यक्षानुमानोपमानाप्तवचनः प्रमाणैरेकोऽर्थः प्रमीयते' १, ३५ ।—–तत्त्वार्थभाष्य । १५ देखो, १,१,५६; २, ३, १, और ५,१, ५६का महाभाष्य १६ देखो, १, १, १५ । १७ देखो, १, १३ । ३९३ . अनुसार नरकभूमियोंकी संख्या बतलाते हुए बौद्ध सम्मत संख्या का खंडन करने के लिये आगया है । वह इस प्रकार है: 64 " अपि च तंत्रान्तरीया अपंख्येषु लोकधातुध्वसंख्येयाः पृथिवीमस्ताग इत्यध्यवसिता :" - अ० ३ ० १ का भाष्य दूसरा उल्लेख, पुद्गल का जैनमत के अनुसार लक्षण बतलाते हुए, बौद्धमत-सम्मत १८ पद्गल शब्दके अर्थका निराकरण करते हुए आया है । यथा— पुद्गलानितिच तंत्रान्तरीया जीवान परिभाषन्ते- ०५ सू० २३ का उत्थानभाष्य । योग्यता उमास्वातिके पूर्ववर्ती जैनाचार्यों ने संस्कृत भाषा में लिखने की शक्तिको यदि संस्कारित न किया होता और उस भाषामें लिखनेका प्रघात शुरू न किया होता तो उमास्वाति इतनी प्रसन्न संस्कृत शैलीमें प्राकृत परिभाषामें रूढ साम्प्रदायिक विचारोंको इतनी सफलतापूर्वक ग्रंथ सकते कि नहीं यह एक सवाल ही है; तो भी पर्यंत उपलब्ध समग्र जैन वाङ्मय का इतिहास तो ऐसा ही कहना है कि जैनाचार्यों में उमा १८ यहां पर एक वात खाम तौर से उदेख किये जानेके योग्य है और वह यह कि उमास्वातिने बौद्धसम्मत 'पुल' शब्दके 'जीव' अर्थको मान्य न रखते हुए उमे मतान्तर के रूपमें उख करके पीछेसे जैनशास्त्र पुगल शब्दका क्या अर्थ मानता है उसे सूत्र बतलाया है । परन्तु भगवतीसूत्रशतक ८ उदेशक १० और शतक २० उदेशक २ में 'पुल' शब्दका 'जीव' अर्थ स्पष्टरूपसे वर्णित दृ पड़ता है । यदि भगवती में वर्णित पुद्गल शब्दका 'जीव' अर्थ जैनदृष्टिले ही वर्णन किया गया है ऐसा माना जाय तो उमास्वातिने इसी मतको बौद्धमत रूप में किस तरह अमान्य रक्खा होगा, यह सवाल है । क्या उनकी दृष्टि में भगवती में का पुद्गल शब्दका 'जीव' अर्थ यह बौद्धमत रूप ही होगा ?
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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