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अनेकान्त
वर्ष १, किरण ६, ७ स्वाति ही प्रथम संस्कृत लेखक हैं । उनके प्रन्थों की भाषा और विचारसरणी इस ग्रंथका उमास्वातिकत के प्रसन्न , संक्षिप्र और शुद्ध शैली संस्कृत भाषा के ऊपर होना माननेके लिये ललचाती है । उनकं प्रभत्व की साक्षी देती है । जैन आगममें प्रसिद्ध उमास्वाति अपने को 'वाचक' कहते हैं, इसका ज्ञान, ज्ञेय, आचार, भूगोल, खगोल आदिसे सम्बंध अर्थ 'पूर्वविन्'२२ करके पहले से ही श्वेताम्बराचार्य ग्वनं वाली बातोंका जो संक्षेप में संग्रह उन्होंने तत्वा- उमास्वातिको 'पूर्ववित्' रूपसे पहचानते आए है; परंतु र्थाधिगममत्र में किया है वह उनके वाचक' वंश मेंहोने यह बात स्वास विचारने योग्य मालूम होती है; क्योंकि की और वाचक-पद की य ार्थताकी साक्षी देता है । उमास्वाति खुद ही अपने दीक्षा गुरुको वाचक रूपसे उनके तत्वार्थकी (तत्वार्थभाष्यकी ?) प्रारंभिक कारि- उल्लेग्वित करने के साथ ही ग्यारह अंगके धारक कहने फाएं और दूसरी पद्यकृतियाँ सचित करती हैं कि वे
नथा वे भाष्यकार तथा मूत्रकारको एक तो समझते ही हैं। यथागद्य की तरह पद्यके भी प्रांजल लेखक थे। उनके म.
"स्वक्रतसत्रमंनिवेशमाश्रित्योक्तम।" भाष्य सूत्रोंका बारीक अवलोकन जैन आगम-मंबंधी
-६,२२,पृ०२५३ उनके मर्वप्राही अभ्यासके अतिरिक्त वैशेपिक, न्याय, "इति श्रीमदहप्रवचने तत्वार्थाधिगमे उमारवानिगोग और बौद्ध श्रादि दार्शनिक साहित्य संबंधी उनके वाचकोपज्ञसत्रमाप्य भाष्यानसारिण्यां च टीकायां मिअभ्यासकी प्रतीति कराता है। तत्वार्थभाष्य
द्धमनगणिविरचितायां अनगारागारिधर्मप्ररूपकः मन
मोऽध्यायः।" ५* व्याकरण के मत्र उनकी पाणिनीय-व्याकरण-विष
-तत्वार्थभाष्यके मातवं अध्यायकी टीका की पुष्पिका । यक अभ्यासकी भी माती देते हैं।
इस प्रशमतिप्रकरयाकी १०० वी कारिका, प्राचार्य श्राह __यद्यपि श्वेताम्बर मम्प्रदाय में आपकी पांच सौ कह कर, निगीथवृणिमें उद्धृत की गई है । इस चूर्णिके प्रणोता ग्रंथों का कर्ता होने की प्रसिद्धि है और इस समय जिनदास महत्तरका समय विक्रपकी पाठवी शताब्दी है जो उन्होंने
आपकी कृतिरूपमें कुछ ग्रन्थ प्रमि द्वः भी हैं तो भी अपनी नन्दिसुबकी चूर्णिमें बतलाया है; इस परसे ऐसा कह सकते हैं इस विषयमे आज संतोषजनक कुछ भी कहनेका सा
कि प्रशमरति विशेष प्राचीन है । इसमे और इसके ऊपर बतलाए हर
कारगोंसे यह कृति वाचककी हो तो इसमे इनकार नहीं। धन नहीं है । ऐसी स्थिति में भी 'प्रगमगति'३५ की
२२. पोंके चौदह होनेका समवायांग मादि पागनों में वन १६ देखो १, ५ भौर २, १५
है।वे दृष्टिवाद नामक बारहवें अङ्गके पांचवां भाग थे ऐसा भी उखहै। २० जम्बूद्वीपसमासप्रकरण, पूजाप्रकरण, श्रावक ज्ञप्ति. पूर्व त अर्थन भगवान महावीरद्वारा सबमे पहले दिया हुआ उपश, पगा क्षेत्रविचार, प्रशमरति । सिद्धसन अपनी प्रतिमें ( ७, १०, पृ.७८, प्रचलित परम्परागत मान्यता है । पश्चिमीय विद्वानोंकी इस विषयका ५०२) उनके शौचाकरण' नामक ग्रथका उख करते हैं, जो इस एमी कचना है कि भ०पा नाथकी परम्पराका जो पूर्वकालीन त समय उपलब्ध नही।
भ०महावीर को अथवा उनके शिष्योंको मिला वह पूर्वश्रत है। 4 २१. मृत्तिकार मिसेन-प्रशारति'को भाष्यकारकीदी कृति- त का कपसे भ० पहावीर के उपदिष्ट श्रुतमें ही निल गया और रूपसे सूचित करते हैं। या यतः प्रगमरतो अनेनैवोक्तम्- उसी का एक भाग रूपसे गिना गया । जो भ०महावीरकी द्वादशानीक परमाणुरप्रदेशो, वर्णादिगणेष भजनीयः ।" धारक थे वे इस पूर्वतको तो जानते ही थे। कं रखनेके प्रघात
"वाचकेन वेतदेव बलसंज्ञया प्रशमरतावपात्तम" और वसो कारणों से कम क्रम-से पूर्णत नष्ट हो गया और मान (प्रशमरति का० २.८ और ८०) ५, ६ तथा १, ६की भाष्यवृत्ति सिर्फ पूर्वगत गाथारूपने नाममात्रसे शेष रहा उल्लेखित मिलता है ।