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________________ बैशाख, ज्येष्ठ, वीरनि०सं०२४५६] तत्वार्थसत्रके प्रणेता उमास्वाति हैं । अब यदि वाचकका अर्थ भाष्यके टीकाकारोंके संग्रह तत्वार्थमें किया है; एक भी महत्वको दृष्ट कथनानुसार 'पूर्वविन्' होता तो उमास्वाति अपने गुरु पड़ने वाली बातको इन्होंने बिना कथन किये छोड़ा को 'पूर्ववित्' कहते, मात्र एकादशांगधारक न कहते। नहीं, इसीसे प्राचार्य हेमचन्द संग्रहकार के रूपमें उमापूर्ववित् की अपेक्षा एकादशांगधारक कमती दर्जे का स्वाति का स्थान सर्वोत्कृष्ट ऑकते हैं२४ । इसी योग्यता होता है; अब यदि अपना अपना वाचक गुरु पूर्ववित् के कारण उनके तत्वार्थ की व्याख्या करनेके लिये ही है ऐसा उमास्वाति मानते हों तो शिष्यरूपसे गुरु सभी श्वेताम्बर दिगम्बर श्राचार्य प्रेरित हुए हैं। का दरजा कदाचित बढा करके न देखें तो भी घटा परम्परा करकं तो नहीं दिखावें ; इसम ऐसा मानना उचित दिगम्बर वाचक उमास्वाति को अपनी परम्पराका जान पड़ता है कि वाचक का जो पूर्ववित् अर्थ होता मान कर उनकी कृतिरूपसे मात्र तत्त्वार्थस्त्र को स्वीहै वह असल की अपेक्षाम समझना । अथोत् वाचक- कार करते हैं, जब कि त्रेताम्बर उन्हें अपनी परम्परा वंश जब पहले-पहल स्थापित हुआ तब जो कोई पूर्व में हुआ मानते हैं और उनकी कृतिरूपसे तत्त्वार्थसुत्रके सामान या पूर्वो का ज्ञान रखले वे ही इस वंरामें आ सकने अतिरिक्त भाष्यको भी स्वीकारते हैं । ऐसा होनेमे प्रश्न और 'वाचक' कहना मकने थे; परन्तु काल-क्रमसे जब , यह उत्पन्न होता है कि उमास्वाति दिगम्बरपरम्परामें पूर्वज्ञान नष्ट हो गया तब भी इस वंशमें होने वाले हुए हैं या श्वेताम्बरपरम्परामें अथवा दोनोंमे भिन्न ‘वाचक' ही कहलाते रहे। तो भी दूसरं वंशों की अपेक्षा किसी जद्दी ही परम्पगमें हुए हैं ? इस प्रश्नका उत्तर वाचक वंश की यह विशेषता तो रही ही होगी कि वे भाष्यके कर्तृत्व की परीक्षा और प्रशस्ति की सत्यता प्रमाणमें दूसरे वंशोंकी अपेक्षा श्रुताभ्यासकी तरफ विशेष की परीक्षाम जैसा निकल सकता है वैसा दूसरं एक ध्यान देते होंगे; इससे इतना तो साफ है कि भले ही वा० भी साधनसे निकल सकेगा ऐसा अभी मालूम नहीं उमास्वाति 'पूर्ववित्' न हों, तो भी वे कमसे कम अपनं होता; इससे उक्त भाष्य उमास्वाति की कृति है या गह जितना ग्यारह अङ्गका ज्ञान तो रखने वाले होनेही अन्य की ? तथा उसके अंतमें दी हुई प्रशस्ति यथार्थ चाहिये । इनका तत्त्वार्थग्रंथ इनके ग्यारह अंग-विषयक है ? कल्पित है " या पीछेसे प्रक्षिप्त है ? इन प्रश्नोंका अनज्ञानकी तो प्रतीति करा ही रहा है। इससे इतनी चर्चने की जरूरत मालम होती है। योग्यता विषयमें तो कुछ भी संदेह नहीं। इन्होंने अपने भाष्यके प्रारंभमें जो ३१ कारिकाएँ हैं वे मि का विरासतमें मिले हुए आईत श्रुनके सभी पदार्थोंका २३ तत्त्वार्थमं वर्णित विषयांका मूल जानने के लिये स्थानांग, * नगर ताल्लुकेके एक दिगम्बर शिलालेखन में इन्हें भगवती, आसकदशा, प्रश्नव्याकरण, जंबूदीपप्रज्ञप्ति, प्रज्ञापना. उत्तराध्ययन, नदिसूत्र आदि भागनों को खाम तौर पर देखना तथा 'श्रनकेवलिदेशीय' लिखा है । यथाः तुलना करना ठीक जान पड़ता है। "तत्वार्थसत्रकर्तारमुमास्वातिमुनीश्वरम् ।। . : "उपोमास्वाति संग्रहीतारः" २--२८ सिद्ध हम। श्रतकेवलिदेशीयं वन्देऽहं गुणमन्दिरम् ॥” २५ इनके सिवाय, भाष्यके अन्तमें प्रशस्तिस पहले ३२ अनुष्टुप -सम्पादक उदकेपद्य हैं। इन पद्योंकी व्याख्या भाष्यकी उपलब्ध दोनो टीकाभोमें
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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