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अनेकान्त
[वर्ष १, किरण २ अन्यथानुपपत्यैव शब्ददीपादिवस्तुष । चार्य ने अपने न्यायकुमदचंद्रोदय' में बड़े ही महत्व तथा अपक्षधर्मभावेऽपि दृष्टा ज्ञापकताऽपि च ॥१३७८ ॥ कृतज्ञताका भाव प्रकट किया है, अकलंकदेवकृत 'सितेनैकलक्षणो हेतुः प्राधान्याद गमकोऽस्तु नः। द्धिविनिश्चय' प्रन्थकी टीका के 'हेतुलक्षणसिद्धि' पक्षधर्मादिभिस्त्वन्यैः किं व्यर्थः परिकल्पितैः।।१३७६ नामक छठे प्रस्तावमें पात्रकेसरी स्वामी, उनके 'त्रिलइन वाक्योंका विषय प्रायः त्रिरूपात्मक हेतुलक्षण उस प्रसिद्ध श्लोक का उल्लेख करते हुए, जो महत्वकी
__ क्षणकर्थन' ग्रन्थ और उनके 'अन्यथानुपपन्नत्वं'नामके का कदर्थन करना है और इससे ये पात्रकेसरीके 'त्रिल-
चर्चा तथा सूचना की है वह इस प्रकार है:
- क्षणकदर्थन' प्रन्थसे ही उद्धत किये गये जान पड़ते हैं। अस्तु; शांतरक्षितका समय ई०सन् ७०५ से ७६२ तक
__ "नन सदोषं तदतस्तदुपरि ज्ञानमदोषायेति और कमलशीलका ७१३ से ७६३ तक पाया जाता
चेदत्राह--'अमलालीढं' अमलैर्गणधरप्रभृतिहै । ये दोनों प्राचार्य विद्यानंदसे पहले हुए हैं; भिरालाहमास्वादित
भिरालीढमास्वादितं न हि ते सदोषमालिहन्त्यक्योंकि विद्यानंद प्रायः ९वीं शताब्दीके विद्वान हैं। मलत्वहानेः। कस्य तदित्यत्राह-'स्वामिनः'
और इस लिये इनके प्रन्थमें पात्रकेसरी स्वामी और पात्रकेसरिणः इत्येके । कुत एतत्तेन तद्विषयउनके वाक्योंका उल्लेख होनेसे यह स्पष्ट जाना जाता त्रिलक्षणकदर्थनमुत्तरभाष्यं यतः कृतमिति चेत् है कि पात्रकेसरी स्वामी विद्यानन्दमे बहुत पहले हो नन्वेवं (तर्हि) सीमन्धग्भट्टारकस्याशेषार्थसागये हैं।
क्षात्कारिणस्तीर्थकरस्य स्यात्तेन हि प्रथमं 'अ(७) अकलंकदेवक ग्रन्थोंके प्रधान टीकाकार श्री- न्यथानुपपन्नत्व यत्र तत्र त्रयेण किं । नान्यथाअनन्तवीर्याचार्यने, जिनका आविर्भाव अकलंकदेवके नुपन्नत्वं तत्र यत्र त्रयेण किं,इत्येत्कृतं । कथमिदअन्तिम जीवनमें अथवा उनसे कुछ ही वर्षों बाद हुआ मवगम्यत इति चेत् पात्रकेसरिणा त्रिलक्षणकदनान पड़ता है और जिनकी उक्तियों के प्रति प्रभाचंद्रा- थनं कृतमितिकथमवगम्यत इति, समानमाचार्य
- ....-- . - प्रसिद्धेरित्यपिसमानमुभयत्र कथा च महतीसुपसि* देखो, श्रीयुत बी० भट्टाचार्यद्वारा लिखित ग्रन्थकी भूमिका दा तस्य-तत्कृतत्वेपमाणप्रामाण्ये तत्मिसिद्धी कः ( Foreword )। ये दोनों प्राचार्य नालन्दाके विश्वविद्यालयमें अध्यापक रहे हैं और वहींसे यथावसर तिब्बतके राजा द्वारा निमंत्रित - सिद्धिविनिश्चय' ग्रंथकी खोज होने पर हालमें यह उसकी होकर तिब्बत भी गये हैं। तिब्बतके राजा Khri-sron-deu सोलह सतरह हज़ार श्लोक परिमाण टीका गुजराज पुरातत्त्व-मन्दिर tsan (खिमोन्देउत्सन् ) ने शान्तरक्षितकी सहायतासे ई० सन् अहमदाबादको प्राप्त हुई है और मुझे गत वर्ष वहीं पर इसके पन्ने ७४९ में एक विहार (मठ) अपने यहां निर्माण किया था । और पलटनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ है। यह टीका बड़े महत्क्की है परन्तु कमलशीलने 'महायानहोशंग' नामक चीनी साधुको परास्त तथा यह जान कर खेद हुआ कि इसमें मूल सूत्र पूरे नहीं दिये-आद्या
अपने गुरु पद्मसम्भव और शान्तरक्षितके धार्मिक क्षरोंकी सूचना रूपसे पाये जाते हैं। मूल ग्रंथकी खोज होनेकी क्विारोंकी तिष्बतमें रक्षा की थी; ऐसा डा. शतीचन्द्र विद्याभूषणकी बहुत बड़ी जरूरत है। क्या ही अच्छा हो यदि कोई समर्थ जिनवाणी 'हिस्टरी प्राफ दि मिडियावल स्कूल माफ इन्डियन लॉजिक' से भक्त इसका मूल सहित उद्धार करा कर अपनी जिनवाणी भक्तिकासचा जान पड़ता है।
परिचय देवें।